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किस्मों के विकास में संकीर्ण जीन आधारों के बढ़ते उपयोग से एक और हानि हुई.
आज उत्तरी भारत में गेहूं की बौनी प्रजाति का एकधा-सस्यन (मोनोकल्चरल) तथा
दक्षिण भारत में धान के ताइवान प्रजनकों द्वारा विकसित किस्मों का एकधा-~सस्यन
आम देखने में आता है. इस एकधा-सस्यन से न केवल विविधता का विलोपन बढ़ा है
बल्कि किसी भी संक्रामक पौध-रोग अथवा/और व्याधि का महामारी में परिणित होने का
खतरा भी बढ़ गया है.
देशज प्रजातियां व किस्में और उनके वन्य प्ररूप, प्राचीन प्रचलित किस्में तथा
प्रवर्तित प्रजातियां देश की कृषि को लचीला तथा विकासशील बनाती हैं. अत: इस
अमूल्य पादप आनुवंशिक संसाधन के संरक्षण के लिए उचित तथा कुशल प्रबंध तुरंत
करने होंगे. इस समय आवश्यकता है कि इन साधनों को लुप्त होने से बचाने के लिए एक
प्रभावशाली कार्यक्रम बनाया जाए और दुर्लभ तथा विलोपन की ओर बढ़ती प्रजातियों
तथा विविधता को विधिवत एकत्र करके संग्रहित किया जाए.
भारत सरकार ने पादप आनुवंशिक संसाधनों के इस संकट से उबरने के लिए भारतीय कृषि
अनुसंधान परिषद् के अंतर्गत 'राष्ट्रीय पादप आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो' की
स्थापना अगस्त १९७६ में नई दिल्ली में की थी. यह ब्यूरो पिछले वर्ष अपनी दसवीं
वर्षगांठ मना चुका है. वैसे पादप आनुवंशिक संसाधनों के विकास, संरक्षण तथा
प्रवेशन का कार्य १९४६ में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई
दिल्ली में एक नाभिकीय इकाई के रूप में आरंभ किया गया था. वर्ष १९६० में इसे एक
स्वतंत्र विभाग में परिवर्तित किया गया और १९७६ में इसका विस्तार राष्ट्रीय
ब्यूरो के रूप में किया गया. तब से यह ब्यूरो राष्ट्रीय स्तर पर पादप अनुसंधान
संस्थानों के बीच विभिन्न पहलुओं का प्रबंध करता है तथा संबंधित अंतरराष्ट्रीय
संगठनों के साथ जननद्रव्य के विनिमय के लिए संबंध बनाए रखता है. ब्यूरो के कुछ
प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं:
प्रवेशन: ब्यूरो औसतन प्रतिवर्ष ७०-८० देशों से लगभग ७०,००० नई पादप
प्रविष्टियां प्राप्त करता है. विभिन्न फसलों के प्रवेशित जननद्रव्यों का
संगरोध (क्वारंटाइन) परीक्षण करने के बाद देश के विभिन्न संस्थानों में कार्य
कर रहे वैज्ञानिकों को उपयोग के अनुसार बांटा जाता है.
खोज-सर्वेक्षण व देशी संग्रहण: ब्यूरो का प्रमुख उद्देश्य देश के वैज्ञानिकों
से तालमेल रख कर देश के विभिन्न क्षेत्रों से पादप आनुवंशिक संसाधनों को एकत्र
करना है. पिछले १० वर्षों में ब्यूरो ने १२० खोज सर्वेक्षण करके ७५ कृषि योग्य
प्रजातियों के लगभग १८,००० नमूने एकत्रित किए हैं.
पादप संगरोध : पादप संगरोध की दिशा में ब्यूरों सराहनीय कार्य कर रहा है.
विदेशों से आने वाले जननद्रव्यों के साथ नए तथा भयंकर पादप रोग तथा कीट
व्याधियों के संक्रमण का गंभीर खतरा बना रहता है. ब्यूरों की संगरोधशाला तथा
पश्य-प्रवेशन नर्सरी में परीक्षण किए बगैर कोई भी बीज देश में वितरित नहीं किया
जाता. ब्यूरो के संगरोध विशेषज्ञों ने कई रोग तथा कीट व्याधियों को जननद्रव्य
के साथ देश में प्रवेश होने से रोका है.
मूल्यांकन तथा प्रलेखन : विदेश से आए नए प्रवेशित तथा देश से एकत्रित संग्रह
का उचित मूल्यांकन, प्रजनन कार्यों में उनके समुचित उपयोग के लिए बहुत जरूरी
है. यह कार्य ब्यूरों के मुख्यालय तथा क्षेत्रीय केन्द्रों में जो कि देश भर
में फैले हुए हैं, किया जाता है. पिछले दस वर्षों में ब्यूरों ने ३० से भी अधिक
फसल -सूचियां प्रकाशित की हैं. जिनमें विविध फसलों के जननद्रव्य के
मूल्यांकित आंकड़े तथा अपेक्षित उपयोग के विवरण दिए गए हैं.
जीन बैंक : अभी तक ब्यूरों के मुख्यालय व क्षेत्रीय केंद्रों में लगभग ४०,०००
जननद्रव्य प्रविष्टियों के भंडारण की सुविधा थी. लेकिन, सातवीं पंचवर्षीय योजना
के तहत अब ब्यूरों के मुख्यालय में पांच प्रशीतन भंडार गृहों (माड्यूल) वाले
आधुनिक जीन बैंकों की स्थापना हो चुकी है. ब्यूरो अब ५०० ग्राम आकार के २ लाख
से भी अधिक बीज नमूने इस जीन बैंक में, दीर्धावधि तथा लघु अवधि के लिए
अनुरक्षित कर सकता है. जीन बैंक में सुरक्षित नमूनों की संबंधित सूचना के
प्रलेखन के लिए आधुनिक कम्प्यूटर प्रणाली की भी स्थापना की गई है इसके
अतिरिक्त उन फसलों के जननद्रव्यों के अनुरक्षण के लिए जिनका गुणन बीज से नहीं
होता, ऊतक संवर्ध (टिशु कल्चर) तथा ऊतक अनुरक्षण की सुविधा एक जैव प्रौद्योगिकी
प्रयोगशाला की स्थापना करके उपलब्ध की जा रही है.
जीवमंडल : पादप आनुवंशिक संसाधनों के संग्रह, संरक्षण तथा अनुरक्षण के लिए
ब्यूरों की भूमिका सराहनीय है किंतु इस ओर अधिक प्रभावशाली कार्यक्रम की
आवश्यकता है. देश में ऐसे कई विशिष्ट क्षेत्र है जहां प्राकृतिक पादप संसाधन
प्रचुरता से मिलते हैं, जैसे उत्तरी पूर्वी हिमालय के अंचल में नींबूबर्गी और
केला, धान, गन्ना तथा आम के अन्य प्ररूप तथा खरपतवारीय पादप प्रजातियों की
प्रचुर आनुवंशिक विविधता अभी भी बची हुई है. धान को नुकसान पहुंचाने वाले भूरे
फुदके के रोधक जीन मीजोरम की दूरस्थ घाटियों से ही मिले थे. कई अन्य मूल्यवान
जीन कुल ऐसे अछूते क्षेत्रों से प्राप्त हो सकते हैं. इस समय आवश्यकता इस बात
की है कि मूल्यवान आनुवंशिक संसाधनों के ऐसे क्षेत्रों की पहचान करके जहां यह
विविधता प्राकृतिक रूप से विद्यमान है, उन्हें जीवमंडल के रूप में मानव
हस्तक्षेप से बचा कर रखा जाए.
प्रजातियों का विलोपन व संग्रह : कृषि के आधुनिकीकरण और बढ़ते उद्योगीकरण से
पादप आनुवंशिक संसाधनों के विलोपन का संकट बढता जा रहा है. अनुमान है कि पिछले
२,००० वर्षों में जितनी जीवधारी तथा पौधा-~प्रजातियों का विलोपन हुआ, उससे कहीं
अधिक प्रजातियां केवल २० वीं शताब्दी में ही नष्ट हो चुकी है. पर्यावरण में
मानव के हस्तक्षेप के कारण प्रतिवर्ष एक जीवधारी प्रजाति नष्ट होती है. लगभग
२०,००० से ३०,००० पुष्पधारी पौधे या तो विलुप्त हो गए हैं. जंगलों की कटाई तथा
शोषण से अन्य सम्पदा तथा आनुवंशिक विविधता की परिस्थिति और भी गंभीर है. देश की
मूल फसलों जैसे केला, नींबू, धान, आम, मूंग आदि की वन्य-प्रजातियां तथा अन्य
प्ररूप केवल वनों में ही मिलते हैं. किन्तु ये जंगलो की कटाई से नष्ट होते जा
रहे हैं. यह अमूल्य सम्पदा अभी भी दूरस्थ वनों में रह रहे आदिवासी कबीलों के आस
पास के क्षेत्रों में बची हुई है, हालांकि वहां हो रहे वैज्ञानिक और
औद्योगिक विकास से इसे अब संकट पैदा हो गया है. अत: समय रहते इन्हें एकत्र करके
संग्रहीत करना अत्यंतावश्यक है. वास्तव में रोग, कीट प्रतिरोधी तथा प्रतिकूल
वातावरण के अनुकूल के जीन कुल मिलने की संभावना इन पादप आनु-~वंशिक संसाधनों
में ही सबसे अधिक हो सकती है.
अपेक्षित तथा अल्प उपयोजित फसलें :-ऐसी कई फसलें हैं जो प्रमुख फसलों की तुलना
मे, प्रतिकूल मौसम तथा सीमित आदानों में अधिक उपज देने की क्षमता रखती हैं,
किंतु समय के साथ उनकी उपेक्षा होती गई है. दूसरी ओर कई ऐसी पादप प्रजातियां भी
हैं जिनके आर्थिक महत्व का पूरा दोहन नहीं हो पाया है. उदाहरण के लिए बथुआ
(चिनोपोडियम एल्बम) को बायोमास उत्पादन के लिए अपनाया जा सकता है. चौलाई
(एमेरेंथस प्रजाति) को छोटे अनाज के रूप में अपनाया जा सकता है. (पार्थेनियम
अर्जेंटेटम) से निकले लेटेक्स का उपयोग प्राकृतिक रबड़ के विकल्प के रूप में हो
सकता है. ये एक वर्षी पौधे शुष्क तथा अर्धशुष्क क्षेत्र में अपना स्थान बना
सकते हैं, यदि ऐसी प्रजातियों का सही मूल्यांकन तथा उचित दोहन हो सके. इसके
लिए उचित खोज-सर्वेक्षण व मूल्यांकन की आवश्यकता है.
दुर्लभ प्रजातियां : डायस्कोरिया प्रजाति व आर्किंड प्रजाति जैसे कई पौधों का
संरक्षण किया जाना चाहिए जो मानव शोषण से ग्रस्त दुर्लभ श्रेणी में पहुंच गए
हैं. इससे देश की पारिस्थितिकी का प्राकृतिक संतुलन बना रहेगा. भारतीय
वानस्पतिक सर्वेक्षण विभाग ने ऐसी दुर्लभ तथा विलुप्त होने वाली प्रजातियों को
सूचीबद्ध करके सराहनीय कार्य किया है. इन पौधों को बचाए रखने के लिए तुरंत
सशक्त कार्यक्रम बनाने की आवश्यकता है.
पादप आनुवंशिक संसाधनों का संरक्षण एक ऐसा कार्य है जिसमें वैज्ञानिक प्रयासों
के साथ साथ प्रशासकों तथा जनसाधारण का सहयोग समान महत्व रखता है. पादप आनुवंशिक
संसाधनों के संरक्षण के प्रति रूसी वैज्ञानिकों तथा नागरिकों के
उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार का अभूतपूर्व उदाहरण दूसरे विश्व युद्ध के दौरान
लेनिनग्राड नगर में मिलता है. दूसरे विश्व युद्ध में जर्मन सेना ने लेनिनग्राड
नगर की घेराबंदी करके लगभग तीन वर्षों के लिए पूरे रूस से नगर संबंध काट दिया
था. नगर में स्थित वेविलोव वानस्पति संस्थान में उस समय गेहूं, आलू आदि फसलों
के मूल्यवान जननद्रव्य संग्रहित थे, जिनका पुर्नयुवन प्रत्येक वर्ष होना जरूरी
था. वैज्ञानिकों ने लेनिनग्राद के नागरिकों के सहयोग से इन जननद्रव्य संग्रह का
खेतों में पुर्नयुवन प्रतिवर्ष जारी रखकर उसे बचाए रखा. यद्यपि उन तीन वर्षों
में लाखों की संख्या में नागरिक भूख तथा साधनों के अभाव से मरे थे किंतु
जननद्रव्य संग्रह का एक भी दाना उन्होंने अपने को जीवित रखने के लिए उपयोग में
नहीं लिया. वेविलोव के कार्य तथा पादप आनुवंशिक संसाधनों के संरक्षण के प्रति
जागरूकता तथा कर्तव्यपरायणता की इससे अच्छी मिसाल मिलना कठिन है.
आज हमें भी जनसाधारण में ऐसे ही उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार तथा संरक्षण के
प्रति निष्ठा उत्पन्न करने की जरूरत है. आने वाली पीढ़ी के उपयोग के लिए विरासत
में मिली इस अनमोल धरोहर का संरक्षण हर कीमत पर किया जाना चाहिए.
(प्रस्तुति : डा. नरेन्द्र स्वरूप वर्मा)
उपयोगी मछलियां हानिकारक भी
जैसा कि सर्वविदित है, मछलियां मनुष्य के लिए प्रोटीन का एक प्रमुख साधन है.
किंतु यही उपयोगी मछलियां हानिकारक भी हो सकती हैं. कारण ! मछलियों में कृमियों
के लार्वे भी होते हैं, जो मनुष्य में वयस्क कृमियों का रूप धारण कर उसे क्षति
पहुंचाते हैं.
क्लोनौर्किस साइनेंसिस नामक पर-~जीवी मुख्यत: चीन, जापान व कोरिया में मनुष्य
के यकृत की पित्तवाहिनियों में पाए जाते हैं. इस कृमि की एक जाति औपिस्थोरकिस
साइनेंसिस भारत में पाई जाती है. इसे लीवर-फ्लूक भी कहते हैं. ये कृमि आकार में
चपटे तथा १० से २५ मिलीमीटर तक लंबे होते हैं. इनका आगे का सिरा नुकीला होता
है. इस कृमि में दो चूषक होते हैं. एक अग्रिम सिरे पर होता है अत: इसे
'मुख-चूषक' कहते हैं. दूसरा चूषक अग्रिम सिरे से एक तिहाई दूरी पर निचली सतह
पर रहता है इसे 'निचला चूषक' कहते हैं.
इन कृमियों के अंडे मनुष्य के मल के साथ बाहर आ जाते हैं. प्रत्येक अंडे में
मिरासीडियम नामक लार्वा रहता है. मल-पदार्थ जब जल में विसर्जित होता है तो वहां
विद्यमान घोंघों के मुख -द्वार से प्रविष्ट होकर ये अंडे उनकी छोटी आंत में आ
जाते है. यहां मिरासीडियम लार्वा अंडे को छोड़कर बाहर आ जाता है और घोंघों में
विकसित होने लगता है. यह लार्वा स्पोरोसिस्ट व रीडिया अवस्था से होकर सर्केरिया
में परिवर्तित हो जाता है. इस प्रक्रिया में २१ दिन का समय लग जाता है. इसके
बाद सर्केंरी घोंघों के शरीर को छोड़कर पानी में तैरने लगते हैं. प्रत्येक
सर्केंरिया में एक पूंछ भी होती है, जो उन्हें तैरने में सहायता देती है.
ये लार्वे पानी में सिप्रीनिडी वर्ग की मछलियों पर प्रहार कर पूंछ त्याग देते
हैं तथा इनके शल्कों एवं मांसपेशियों में मेटासर्केरिया नामक सिस्ट का रूप धारण
कर लेते हैं. सिस्ट से भरपूर कच्ची या अधपकी मछलियां जब मनुष्य खाता है तो यह
सिस्ट बड़ी आंत में पहुंच जाती है. यहां सिस्ट की भित्ति फट जाती है और
मैटासर्केरिया बाहर आकर पितृवाहिनी की श्लेष्मा-पर्त को अपने चूणक से पकड़ लेता
है. बाद में यह यकृत की वाहिनियों में प्रवेश कर वयस्क कृमि का रूप
धारण कर लेता है.
इन कृमियों द्वारा मनुष्य में क्लोनौर्किएसिस अथवा ओपिस्थोकिए-~सिस नामक रोग हो
जाता है. इस रोग में कृमियों की अधिकता से दस्त आने लगते हैं ; यकृत बड़ा हो
जाता है तथा मनुष्य बार-बार पीलिया से पीडित होने लगता है. इस रोग में एंटीमनी
यौगिक, क्लोरोक्विन, बाईथायोनाल आदि दवाएं लाभकारी होती हैं.
यही नहीं इस वर्ग के कुछ चपटे कृमि हैट्रोफिस भी मछलियों द्वारा मनुष्य की आंत
में प्रवेश कर जाते हैं. इनका जीवन-चक्र क्लोनौकिस साइ-~नेंसिस कृमि के
जीवन-चक्र जैसा ही होता है. इन कृमियों द्वारा मनुष्य में आंत्र शूल और
श्लेष्मायुक्त अतिसार हो जाता है.
एक अन्य प्रकार के कृमि जिन्हें डाईफाइलोबोथ्रियम लैटम कहते हैं, के आकार के
होते हैं. ये कृमि प्राय: मध्य योरोप, अमेरिका, जापान तथा मध्य अफ्रीका में पाए
जाते हैं. ये मछली के माध्यम से मनुष्य की आंत में पहुंच जाते हैं. इस प्रजाति
के वयस्क कृमि १० मीटर तक लंबे होते हैं. इस कृमि का शरीर -सिर, गर्दन तथा
स्ट्रोबिला-तीन भागों में विभक्त होता है. सिर की लंबाई २-३ सेंटीमीटर तथा
चौड़ाई १-२ मिलीमीटर होती है. इसका सिर चम्मच जैसा होता है तथा इसमें दो खांचे
भी होते हैं, जिन्हें बोथ्रिया कहते हैं. इसके सिर में हुक्स तथा रौस्टिलम नहीं
होते, बोथ्रिया की सहायता से यह आंत की दीवारों से चिपका रहता है.
इस कृमि का मुख व आंत नहीं होती. फलत: यह मनुष्य की आंत में पचे हुए भोजन को
शोषित करता है. इसके सिर का खण्डविहीन भाग गर्दन कहलाता है, जिससे जीवन भर नए
नए खण्ड बनते रहते हैं इस क्षेत्र के पीछे के पूरे भाग को स्ट्रोबिला कहते हैं.
इसका प्रत्येक खण्ड एक पूर्ण इकाई होता है, जिसमें जनन अंगों का एक स्वतंत्र
स्वरूप होता है. यह एक खण्ड प्रोग्लौटिड कहलाता है.
एक वयस्क कृमि में तीन से चार हजार तक प्रोग्लौटिड होते हैं. प्रत्येक
प्रोग्लौटिड की लंबाई २-४ मिलीमीटर और चौड़ाई १०-२० मिलीमीटर होती है. कृमि के
पिछले खण्डों में जननांगों का गर्भाशय भाग ही मिलता है जिसमें अंडे ठसाठस भरे
होते हैं. अंडों से भरे परिपक्व जनन खण्ड पीछे से टूटते रहते हैं और मनुष्य के
मल के साथ बाहर आते रहते हैं.
ये अंडे सूक्ष्म --१० माइक्रोन लंबे तथा ४५ माइक्रोन चौड़े होते हैं. प्रत्येक
अंडे में एक और ढक्कन होता है. जैसे ही ये अंडे मल के साथ पानी में आते हैं
इनमें मिरासीडियम नामक एक गोल रोमयुक्ति लार्वा बन जाता है. इसमें तीन जोड़ी
हुक होते हैं. इस लार्वा को बनने में एक से दो सप्ताह का समय लग जाता है. यह
लार्वा अंडे में लगे ढक्कन को धक्का देकर बाहर पानी में आ जाता है तथा रोमों
की सहायता से तैरने लगता है. यह लार्वे फिर जल में विद्यमान साईक्लौप्स की
आंत में प्रवेश कर जाते हैं. आंत में आते ही इनके रोम गिर जाते हैं. हुकों की
सहायता से यह लार्वा आंत को भेद कर शारीरिक गुहा में आ जाते हैं तथा प्रोसकौएड
में परिवर्तित हो जाते हैं. इस लार्वा में पीछे की ओर गोल अपेण्डेज होता है
जिसमें छ: हुक होते हैं. और जो क्रियाहीन हो जाते हैं.
साइक्लौप्स में विद्यमान प्रोसर्कोएड जब मछली द्वारा ग्रहण किए जाते हैं तब
ये प्रोसर्कोएड लार्वे मछली की आंत में स्वतन्त्र हो जाते हैं तथा इसकी दीवार
को भेद कर मछली की मांसपेशियों में पहुंच जाते हैं. यहां एक से तीन सप्ताह में
प्रोसर्कोएड लार्वे प्लेरोसर्कोएड में परिवर्तित हो जाते हैं. इन्हें स्पैरगैनम
भी कहते हैं. लार्वे की इस अवस्था में पीछे की ओर अपेण्डेज नहीं होता, केवल
अग्रिम भाग में अन्दर की ओर धंसा हुआ सिर रहता है. इस लार्वे का रंग सफेद होता
है तथा इसमें अनियमित झुर्रियां होती हैं. इसकी लंबाई २ मिलीमीटर से २०
मिलीमीटर तक होती है.
जब इन लार्वों से संक्रमित मछलियां मनुष्य द्वारा बिना पकी या अधपकी ही खा ली
जाती हैं तो आंत में आकर इनका धंसा हुआ सिर बाहर आ जाता है, जिसकी सहायता से यह
आंत की दीवार को पकड़े रहता है और इसके पीछे अनेक खण्ड बनने लग जाते हैं. इस
प्रकार यह प्लूरोसर्कोएड लार्वा २८ दिन में वयस्क कृमि में बदल जाता है. जब ये
कृमि अण्डे देने लग जाते हैं इनका यह जीवन -चक्र पुन: आरंभ हो जाता है.
ये कृमि मनुष्य में डाइफाइलो-~बोथ्रएसिस नामक रोग उत्पन्न कर देते हैं. इस रोग
में ये कृमि मनुष्य की आंत में गड़बड़ी उत्पन्न करते हैं. ये आंत में बिटामिन
बी-१२ का शोषण कर रक्त की कमी भी कर सकते हैं.
इसके उपचार के लिए फिलिक्स मास, मैपाक्रीन, योमीसान आदि दवाएं उपलब्ध हैं.
परन्तु, इन दवाओं के उपयोग में कृमियों का पूर्ण निराकरण संभव नहीं है. इसका
सर्वोत्तम उपाय यह है कि कृमियों के लार्वे को मछलियों में पनपने का अवसर ही न
दिया जाए. इसके लिए जल को मल विसर्जन द्वारा दूषित न होने दिया जाए. इसके
अतिरिक्त कच्ची व अधपकी मछलियों का सेवन कदापि न किया जाए. (प्रस्तुति : डा. ए.
के. चोपड़ा)
बांझ महिलाओं के लिए नया हारमोन
विवाह के बाद लंबे समय तक संतान न होना जहां एक ओर बांझ महिला का अपना दर्द है,
वहीं दूसरी ओर समाज भी ऐसी महिला को हेय दृष्टि से देखता है. विज्ञान इस दर्द
को समझा है और मातृत्व की सेवा में योगदान दिया है. हाल ही में ब्रिटेन के
वैज्ञानिकों ने महिलाओं के रजोनिवृत्ति के बाद निष्कासित मूत्र से एक ऐसा
हारमोन खोज निकाला है जो बांझ महिलाओं को गर्भ ठहराने में सहायक सिद्ध हुआ है.
ब्रिटेन की सैरेनों प्रयोगशाला में इस हारमोन की मदद से एक ऐसी दवा तैयार की
गई है जो बांझ महिलाओं के मासिक धर्म को सुव्यवस्थित करती है और गर्भ ठहराने
में मदद देती है.
ब्रिटेन में हुए सर्वेक्षण के अनुसार वहां ५० हजार ऐसी बांझ महिलाएं हैं जो
मातृत्व से संबंधित हारमोन के स्राव में गड़बड़ी के कारण संतान का मुंह नहीं
देख पा रही हैं. लगभग ऐसी ही स्थिति हमारे देश में भी है. मासिक धर्म का अपने
निर्धारित तिथि से काफी पहले हो जाना या काफी देर बाद होना ऐसी स्थिति को जन्म
देता है. इस दशा में सीधा प्रभाव डिम्ब कोष पर पड़ता है और स्त्री गर्भधारण
नहीं कर पाती. हारमोन की इस गड़बड़ी के कारण पैदा होने वाले रोग को
'पौलीसिस्टिक ओवेरियन डिजीज' कहते हैं जिसका संबंध डिम्ब ग्रन्थि से है.इस रोग
से प्रभावित महिलाओं के डिम्बकोष को थक्के जम पाते हैं जो डिम्ब का अवशेष होते
हैं. इसी कारण उनके मासिक धर्म में गड़बड़ी पैदा हो जाती है. आमतौर पर मासिक
धर्म की शुरूआत होते ही स्त्री के डिम्ब में ४ से ७ तक पुटिकाएं वृद्धि करने
लगती हैं और परिपक्व हो जाती है. एक हफ्ते के बाद एक पुटिका तो लगातार वृद्धि
करने लगती है और परिपक्व हो जाती है, बाकी समाप्त होने लगती है. मासिक धर्म के
बीच १३-१४ पुटिकाएं फट जाती हैं और परिपक्व अण्ड को निष्कासित करती हैं. ये
सारी क्रियाएं हारमोन के द्वारा ही सम्पन्न होती हैं. पौलीसिस्टिक ओवेरियन
डिजीज के दौरान दो हारमोन, ल्यूटेनाइजीन हारमोन और फौलिकिल स्टिमुलेटिंग हारमोन
स्रावित होते हैं. साधारण दशाओं में इन दोनों हारमोनों का १-१ के अनुपात में
निकलना जरूरी होता है, जब कि रोग से प्रभावित दशा में ल्यूटेनाइजीन हारमोन और
फौलिकिल स्टिमुलेटिंग हारमोन का अनुपात ३ और १ का होता है.
राज पौधाघरों की अधिक उपज का
कांच घरों यानी ग्रीन हाऊस अथवा पौधा घरों में सब्जी उगाने वाले वर्षों से
अनजाने में ही प्रकाश श्वसन को नियंत्रित करते आए हैं. वे नहीं जानते थे कि
अनजाने में वे ऐसा क्या करते हैं कि कांच अथवा प्लास्टिक की चादरों से ढकी हुई
फसलों से उन्हें ज्यादा अच्छी उपज प्राप्त होती है. हां, उन्हें इतना जरूर पता
था कि पौधा घर में कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा अधिक रखने से पौधे ज्यादा तेजी
से बढ़ते हैं. लेकिन अब यह स्पष्ट हो गया है कि ऐसा प्रकाश श्वसन के दौरान
कार्बन डाइआक्साइड और आक्सीजन की प्रतिस्पर्धात्मक जैव रासायनिक पारस्परिक
क्रिया के कारण होता है. कार्बन डाइआक्साइड की सामान्य से ज्यादा मात्रा में
उपस्थिति के कारण प्रकाश श्वसन की क्रिया कम हो जाती है. जाहिर है कि इस तरह
की व्यवस्था को खेतों में लागू कर पाना संभव नहीं.
वैज्ञानिकों ने इसलिए अपना ध्यान ऐसे रासायनिकों के विकास की ओर केंद्रित किया
है जो प्रकाश श्वसन को रोक सकें लेकिन प्रकाश श्वसन पथ में पुनर्भरण (फीडबैक)
नियंत्रण न होना एक बड़ी कठिनाई है. इसका मतलब यह हुआ कि यदि इस पथ को बंद कर
दिया जाए (जैसे ग्लाइकोलेट उपापचय के किसी निरोधक द्वारा), तो पौधा तब तक
ग्लाइकोलेट उत्पन्न करता रहेगा जब तक उसकी मात्रा विषैली न हो जाए. बढ़ती फसल
में निरोधक यौगिक की मात्रा को एक समान बनाए रखने की समस्याएं और रासायनिक
नियंत्रण के इस्तेमाल पर आम विरोध भी ऐसी कठिनाई है जो प्रकाश श्वसन के
नियंत्रण की योजना के सामने वाधा है.
शाखा बिंदु
इस तरह प्रकाश श्वसन पर नियंत्रण की योजना सबसे ज्यादा इस बात पर निर्भर करती
है कि हम किस हद तक आनुवंशिकी द्वारा इसका नियंत्रण कर पाते हैं. हमें प्रकाश
संश्लेषण और प्रकाश श्वसन पथों के बीच के शाखा बिंदुओं (ब्रांच पाइंट) पर
नियंत्रण चाहिए. उपापचय में जैव रासायनिक पथों के नियंत्रण के लिए शाखा बिंदु
एंजाइमों को उपापचय के विभिन्न पथ-मोड़ों पर रासायनिक आवागमन के प्रवाह को
नियंत्रित करने के लिए यातायात नियंत्रक बत्तियों (ट्रैफिक लाइट) के रूप में
(चित्र-२) समझा जा सकता है.
प्रकाश संश्लेषण और प्रकाश श्वसन के बीच का शाखा बिंदु एंजाइम 'रिबुलोसेबिस
फास्फेट कार्बोक्सीलोज/आक्सीजिनेस' कहलाता है जिससे इसका दोहरा रासायनिक चरित्र
स्पष्ट होता है. क्योंकि यह एंजाइम पौधे की पत्तियों में घुलनशील प्रोटीन का ५०
प्रतिशत तक हो सकता है, यह दुनिया में सबसे ज्यादा मात्रा में पाए जाने वाली
प्रोटीन है. लेकिन इस बारे में अभी बहुत कम जानकारी हो पाई है कि पौधों में
इसके उत्प्रेरक प्रभाव का नियंत्रण किस प्रकार होता है. १९७४ में अमेरिका में
यह पाया गया कि ज्यादा ताप होने पर कार्बन डाइआक्साइड के प्रति यह एंजाइम
कम झुकाव प्रदर्शित करता है लेकिन आक्सीजन के लिए नहीं. यह एक महत्वपूर्ण
खोज थी, क्योंकि इसी से पहले पहल यह पता चला कि इस नियंत्रक एंजाइम को दूसरी
तरह से काबू किया जा सकता है यानी ऐसा वातावरणीय तरीकों के बजाए आनुवंशिकी
द्वारा संभव हो सकता है.
आनुवंशिक नियंत्रण
डा. एम. के. गैरेट और उनके सहयोगियों ने अगस्त १९७८ में राई घास की व्यापारिक
और आनुवंशिक-~इंजीनियरित कृषि जोपजाति में इस प्रकार के आनुवंशिक नियंत्रण का
पहला प्रमाण प्रस्तुत कर दिखाया. इसके बाद विभिन्न प्रयोगशालाओं से प्राप्त
अन्य आंकड़ों से भी इस प्रमाण को और ठोस आधार मिला. डा. गैरेट व उसके सहयोगियों
ने पाया कि चतुर्गुर्णित (टेट्राप्लाइड) राई घासों में, जिनमें सामान्य प्रजाति
से दुगने क्रोमोजोम तथा द्विगुणित (डाइप्लाइड) रेखाएं होती हैं, प्रकाश श्वसन
की दर निम्न होती है. इसके अलावा चतुर्गुणित कृषि जोपजाति में
रिबुलोसिबिसफास्फेट कार्बो-~आक्सीलेज-आक्सीजिनेस एंजाइम का प्रत्यक्ष रूप से
कार्बन डाइआक्साइड के प्रति अपेक्षाकृत जादा झुकाव होता है, जबकि आक्सीजन के
प्रति इसके झुकाव में द्विगुणित कृषि जोपजाति से विशेष फर्क नहीं पाया जाता है.
यह वह स्पष्ट संकेत हुआ जिससे लगा कि प्रकाश श्वसन और प्रकाश संश्लेषण के बीच
के शाखा बिंदु पर प्रकाश श्वसन का आनुवंशिक -नियंत्रण हो सकता है.
इस सबका अर्थ यह हुआ कि राई घास की द्विगुणित कृषि जोपजाति की अपेक्षा
चतुर्गुणित कृषि जोपजाति में ज्यादा सक्षम कार्बन-उपयोग होता है, यानी उसकी
कार्बन आर्थिकी (इकोनोमी) ज्यादा अच्छी होती है. इस कार्बन आर्थिकी को पाई
चित्र से समझा जा सकता है (चित्र-३). यानी पौधे द्वारा स्थिर की गई कार्बन की
कुल मात्रा को दर्शाता है. पाई के विभिन्न हिस्से पौधे की श्वसन क्रियाएं
दर्शाते हैं. 'कार्बन ३' पौधों में सबसे बड़ा हिस्सा प्रकाश श्वसन को दर्शाता
है, लेकिन इसके अलावा भी पौधे में श्वसन क्रिया होती है जिसका प्रकाश से संबंध
नहीं होता. इसीलिए इसे अंधेरे में होने वाला श्वसन (डार्क रेस्पिरेशन) कहा
जाता है. यह श्वसन आनुपातिक दृष्टि से पाई के एक छोटा हिस्सा घेरता है और यह,
प्रकाश श्वसन के विपरीत, पौधे के संपूर्ण उपापचय में एक जरूरी भूमिका निभाता
है. पाई का तीसरा हिस्सा वास्तविक प्रकाश संश्लेषण को दर्शाता है. यही वह
क्रिया है जो पौधे की वृद्धि में सहायक होती है.
इस प्रकार द्विगुणित पौधों के अनुपात में चतुर्गुणित पौधों का वास्तविक प्रकाश
संश्लेषण का हिस्सा बड़ा होता है क्योंकि प्रकाश श्वसन चतुर्गुणित पाई चित्र
का अपेक्षाकृत कम हिस्सा इस्तेमाल करता है. यह वास्तव में यह स्पष्ट करता है कि
चतुर्गुणित राई घासों में वृद्धि दर ऊंची होनी चाहिए और इन्हें ज्यादा अच्छा
उत्पादन देना चाहिए.
परिकल्पना की जांच
इन परिकल्पनाओं की जांच के लिए डा. गैरेट व उनके सहयोगी डा. डायनोकीटिंग द्वारा
प्रयोगशाला और खेतों में प्रयोग करने से इस बात की पुष्टि भी हो चुकी है कि
वास्तव में चतुर्गुणित लाइनों में अकेले या दूरी पर उगे पौधों के रूप तेजी से
बढ़ते हैं. लेकिन प्रयोगों में यह भी पाया गया कि तेजी से बढ़ने वाले पौधों में
अपने मध्य दूरी बना लेने की प्रवृत्ति होती है जिससे प्रति इकाई भूमि पर
द्विगुणितों तथा चतुर्गुणितों की उपज लगभग एक जैसी ही रहती है.
केंद्रीभूत प्रश्न
इन खोजों ने प्रकाश संश्लेषण संबंधी अनुसंधान के क्षेत्र में एक केंद्रीभूत
सवाल उठाया है : क्या कृषि में उत्तम प्रकाश संश्लेषण की क्षमता वाले पौधे
ज्यादा पैदावार देंगे ? यह एक जटिल प्रश्न है, लेकिन प्रकाश संश्लेषण संबंधी
अनुसंधान कार्य में लगे लोग स्वभावत: आशावादी होते हैं और संभवत: वे सभी इस
प्रश्न का उत्तर 'हां' ही देंगे. डा. गैरेट के अनुसार उन्होंने जो आंकड़े
प्राप्त किए हैं वे इस 'आशावाद' का बढ़ावा देते हैं. डा. गैरेट के बाद प्रयोगों
ने इसी आशावाद को आधार दिया है, क्योंकि उनके परिणामों से यह लगता है कि
चतुर्गुणित राई घास का जल्दी-~जल्दी कटाई करने पर वह द्विगुणित कृषि जोपजाति से
काफी ज्यादा उत्पादन दे सकती है (चित्र ४.).
इन आंकड़ों के आधार पर यह सुझाव दिया जा सकता है कि और ज्यादा बार कटाई करने से
खेतों में चतुर्गुणित राई घास की प्रकाश संश्लेषण की उत्तमता का दोहन किया जा
सकता है. लेकिन इस विचार की सत्यता और व्यावहारिकता के बारे में सूक्ष्म रूप से
अनेक परिस्थितियों में मूल्यांकन करना होगा.
जीवाणुओं द्वारा नाइट्रोजन स्थिरीकरण की प्रक्रिया से कृषि में क्रांति की
संभावनाएं.
[] पौधों की संरचना में शामिल तत्वों में नाइट्रोजन एक प्रमुख तत्व है. कृषि
उत्पादन बढ़ाने, मिट्टी को उर्वर बनाए रखने तथा पौधों के लिए पोषक तत्वों की
संतुलित एवं समुचित आपूर्ति बनाए रखने के लिए ही खाद का उपयोग किया जाता है.
मिट्टी में नाइट्रोजन की कमी हमेशा रहती है, अत: अधिक उपज के लिए, नाइट्रोजन को
मिट्टी में अमोनिया या नाइट्रेट के रूप में रासायनिक खादों द्वारा पहुंचाना
आवश्यक होता है. इसके विपरीत वातावरण में नाइट्रोजन की बहुतायत है जहां यह गैस
के रूप में मौजूद रहती है. वास्तव में हवा में चौथाई से भी अधिक मात्रा
नाइट्रोजन की होती है. पौधे इस स्वतंत्र नाइट्रोजन का कोई लाभ नहीं उठा पाते.
भूमि में प्राकृतिक रूप सें पाए जाने वाले कुछ जीवाणु वातावरण में व्याप्त
नाइट्रोजन का अमोनिया में यौगिकी-~करण करने में सक्षम होते हैं. इन्हें
'नाइट्रोजन यौगिकीकरण जीवाणु' कहा जाता है. नाइट्रोजन का जैविक यौगिकीकरण
(स्थिरीकरण) इन जीवाणुओं में उपस्थित एक एंजाइम द्वारा संभव हो पाता है जिसे
नाइट्रो-~जिनेस कहा जाता है. भूमि में नाइट्रोजन की कमी को कुछ हद तक दूर करने
में जीवाणुओं द्वारा नाइट्रोजन स्थिरीकरण का महत्वपूर्ण योगदान होता है.
भूमि में मुख्यत: दो प्रकार के जीवाणु पाए जाते हैं जो नाइट्रोजन का यौगिकीकरण
करने में सक्षम होते हैं. इनमें एक वे हैं जो भूमि में स्वतंत्र रूप से
रहते हैं और दूसरे वे जो सामान्यत: दलहनी पौधों की जड़ों में ग्रंथिकाओं में रह
कर नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं. दूसरे प्रकार के जीवाणु 'सहजीवी नाइट्रोजन
यौगिकीकरण' प्रक्रिया द्वारा वातावरण की नाइट्रोजन को अमोनिया के रूप में पौधों
को उपलब्ध कराते हैं. ये सहजीवी जीवाणु पौधों की जड़ों में ग्रंथिकाओं में
बढ़ते तथा गुणन करते हैं. अपनी बढ़त के लिए ये जड़ों से कार्बोहाइड्रेट तथा
खनिज भोजन के रूप में पाते हैं. वायुमंडल की नाइट्रोजन का उपयोग करके ये
प्रोटीन -नाइट्रोजन युक्त कार्ब-~निक पदार्थ बनाते हैं जो पौधों की नाइट्रोजन
की जरूरत को पूरा करते हैं. नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणु के न होने पर दलहनी
फसलों की जड़ों में ग्रंथिकाएं नहीं बनती और न ही वायु-~मंडल की नाइट्रोजन का
कोई लाभ पौधों को मिल पाता है. सहजीवी नाइट्रोजन स्थिरीकरण दलहनी फसलों के
अतिरिक्त कुछ अन्य फसलों तथा पौधों में भी देखा गया है. जीवाणु की तीन
प्रजातियां हैं जो इस प्रक्रम के लिए सक्षम हैं. राइजोबियम जीवाणु केवल दलहनी
पौधों की जड़ों में ग्रंथिका में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करते हैं फ्रेंकिया जाति
के जीवाणु दलहनी फसलों के अतिरिक्त अधिकतर पौधों के तनों में नाइट्रोजन का
स्थिरीकरण करते है, तथा ऐनाबीना प्रजाति के जीवाणु जलीय फर्न एजोला में पाए
जाने वाले वायु प्रकोष्ठों में रह कर नाइट्रोजन का उपयोग करते हैं.
इन जीवाणुओं की कार्यविधि की तुलना बहुत छोटे उर्वरक कारखानों से की जा सकती
है. ये कारखाने छोटे अवश्य हैं किंतु इनके महत्व को कम नहीं किया जा सकता.
अनुमान है कि औसत दलहनी फसलों को ये छोटे छोटे जीवाणु प्रति हैक्टेयर ५० से १५०
किलोग्राम नाइट्रोजन तत्व उपलब्ध कराते हैं. इसीलिए आज प्रकृति की इस मूल्यवान
प्रक्रिया का प्रभावशाली दोहन करके वैज्ञानिक महंगी खादों के सस्ते विकल्प
ढूंढ़ने का प्रयत्न कर रहे हैं.
इस समय वैज्ञानिकों के दो उद्देश्य हैं. एक--नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले
जीवाणुओं की कार्यक्षमता को बढ़ाना, और दूसरा, इन जीवाणुओं की सहजीवी फसलों
(पोषी) में वृद्धि करना जिससे न केवल दलहनी बल्कि अन्य फसलों को भी इन जीवाणुओं
से लाभ हो सके. सामान्यत: जीवाणु कुछ विशिष्ट पोषी फसलों पर ही रहते हैं.
उदाहरण के लिए राइजोबियम मिलि-~लोटी केवल अल्फा अल्फा पर, और रा. जेपोनिकस
सोयाबीन पर ही रहते हैं. यदि इन जीवाणु-पोषी फसलों की संख्या में वृद्धि हो जाए
तो कृषि के क्षेत्र में क्रांति हो सकती है.
एक प्रजाति के जीवाणु का विशिष्ट पोषी (फसल) पर सहजीवी होने का कारण है उनकी
मूल ग्रंथिकाओं की संरचना जो बहुत गूढ़ तथा विशिष्ट क्रियाओं से नियंत्रित होती
हैं. ये जीवाणु सबसे पहले अंकुरित दलहनी बीजों की जड़ों के सूक्ष्म, पतले रोमों
के सम्पर्क में आते हैं. यदि अंकुरित होने वाली दलहन, राइजोबियम जीवाणु के लिए
उपयुक्त होती है या उसकी पसंद की होती है तब जीवाणु एक विशिष्ट संक्रमण सूत्र
की सहायता से जड़ों के अंदर प्रवेश कर जाता है. यहां पर जीवाणु का गुणन होता
है, फिर वह जड़ों के कौर्टेक्स में पहुंच कर अपना आकार व रूप बदलता है. साथ ही
जीवाणु यहां पर अपने 'नाइट्रोजन एंजाइम' प्रक्रम का विकास करता है. इस अवस्था
में इसे 'बैक्टेराइड' कहा जाता है. उधर दूसरी और पोषी पौधों की जड़ों में
कोशिका विभाजन होता रहता है तथा कोशिका विभेदीकरण से जीवाणु के लिए ग्रंथिका
के रूप में एक स्थान तैयार हो जाता है. ग्रंथिका विकास प्रक्रिया कोई सरल या
सीधी क्रिया नहीं है. इसके विकास के लिए पौधे तथा जीवाणु दोनों में ही उपयुक्त
समय पर उचित आदेशों द्वारा कोशिका विभाजन व विभक्तीकरण हो पाता है. वैज्ञानिक
इस पूरी प्रक्रिया का विस्तार से अध्ययन करने में लगे हैं.
पिछले दशक में आनुवंशिक वैज्ञा-~निकों ने अत्यंत सूक्ष्म स्तर पर डी एन ए
स्प्लाइसिंग तकनीक का विकास किया है. इस तकनीक से जीवाणुओं के गुण -~सूत्रों
(क्रोमोजोम) में नाइट्रोजन यौगिकीकरण तथा सहजीविता से संबंधित जीन के स्थानों
की पहचान संभव हो सकी है. अब इस जीन को किस तरह क्रियाशील अथवा निष्क्रिय किया
जा सकता है इस दिशा में शोध हो रहे हैं. इस ओर सबसे अधिक शोध-~कार्य मटर,
सोयाबीन तथा अल्फा अल्फा पर ग्रंथिका बनाने वाले जीवाणु राइजो-~बियम पर किए गए
हैं. फलस्वरूप वैज्ञानिक राइजोवियम के गुण सूत्रों के डी एन ए को विशिष्ट
एंजाइमों द्वारा तोड़ कर वांछित जीन को वियुक्त करने में सफल रहे हैं,
नाइट्रोजन स्थिरीकारक जीन को वियुक्त करने के बाद इस जीन को एक अन्य सामान्य
जीवाणु एशरीकिया कोली में, जिसका आनुवंशिक घटक पूर्णत: विदित है तथा समझा जा
चुका है, प्रस्थापित करके इस प्रस्थापित जीन की नियंत्रक प्रक्रिया का विस्तृत
अध्ययन संभव हो जाता है. शोध कार्यों में हुई प्रगति से अब जीवाणु के सहजीविता
तथा नाइट्रोजन यौगिकीकरण से संबंधित जीन को आनुवंशिक इंजीनियरी द्वारा वांछित
रूप में परिवर्तित करना भी संभव हो गया है. जीन को परिवर्तित करने के बाद इसे
ए. कोली से वियुक्त करके राइजोबियम जीवाणु में पुन: स्थापित कर दिया जाता है
जहां वह वैज्ञानिकों की इच्छानुसार कार्य करता है.
पोषी पौधे (दलहन) तथा जीवाणु के बीच नाइट्रोजन स्थिरीकरण व सहजीविता की
प्रक्रिया के भेद तथा अंतक्रिया को समझने के लिए आवश्यक है कि पोषी तथा जीवाणु
दोनों की शरीर -क्रियात्मक पूरी जानकारी वैज्ञा-~निकों के पास हो.
पोषी पौधों के शरीर -क्रियात्मक अनुसंधान से पता चलता है कि ग्रंथिका विकास के
समय एक विशिष्ट प्रोटीन का, जिन्हें नाड्यूलिंस कहते हैं, संश्लेषण होता है. इस
प्रोटीन की ग्रंथिका विकास में महत्वपूर्ण भूमिका रहती है. सोयाबीन के
नाड्यूलिंस प्रोटीन-~लेथेमोग्लोबिन- को प्रयोगशाला में वियुक्त किया जा चुका
है. ऐसे अनु-~संधानों से शायद दलहनी फसलों के अतिरिक्त ऐसी फसलों में भी,
जिनमें नाइट्रोजन यौगिकीकरण ग्रंथिकाएं नहीं होतीं, ग्रंथिकाओं के विकास को
प्रेरित करना संभव हो सकेगा.
दूसरी ओर जीवाणुओं में नाइट्रो-~जिनेस एन्जाइम की उपस्थिति के लिए उत्तरदायी जीन को चिह्नित करके तथा वियुक्त करके उसका अध्ययन किया जा रहा है. कनाड़ा के
वैज्ञानिक कुछ ऐसे जीवाणुओं के अध्ययन में जुटे हैं जो बहुत नीचे तापमान पर भी
नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करने में सक्षम हैं. साथ ही फ्रेंकिया प्रजाति के
जीवाणुओं के पोषी रेंज को और भी बढ़ाने के प्रयास किये जा रहे हैं.
अध्ययनों से यह भी ज्ञात हुआ है कि जब ये जीवाणु नाइट्रोजन की कमी वाले वातावरण
में रहते हैं तो इन्हें ऊर्जा के श्रोत के रूप में कार्बन की अत्यंत आवश्यकता
होती है क्योंकि नाइट्रोजन की कमी में नाइट्रोजिनेस संश्लेषण की प्रक्रिया को
सुचारू रूप से क्रियाशील रखने के लिए जीवाणुओं को अतिरिक्त ऊर्जा की जरूरत होती
है. इसके विपरीत, नाइट्रोजन की बहुतायत वाले वातावरण में नाइट्रोजिनेस जीन की
अभिव्यक्ति स्वयं ही कम हो जाती है. इस अभिव्यक्ति नियंत्रण के लिए जीवाणुओं
में आक्सीजन की मात्रा उत्तरदायी होती है. आक्सीजन एक ओर तो जीवाणुओं की श्वास
प्रक्रिया के लिए जरूरी होती है, दूसरी ओर नाइट्रोजिनेस एन्जाइम पर आक्सीजन के
सीधे विषाक्त प्रभाव से बचाना भी होता है. जीवाणुओं में आक्सीजन की सही मात्रा
का नियंत्रण तथा संतुलन लेथेमोग्लोबीन प्रोटीन करती है.
अल्फा अल्फा, मटर तथा सोयाबीन के सहजीवी राइजोबियम जीवाणुओं के विभिन्न विभेदों
पर परीक्षणों से पता लगा है कि पोषी पौधों द्वारा अवशोषित कार्बन यौगिकों की
उपभोग क्षमता के लिए इन विभेदों में विभिन्नता पाई जाती है. जीवाणुओं की यह
उपभोग सक्षमता नाइट्रोजिनेस प्रक्रिया से उत्पन्न उपोत्पाद हाइड्रोजन गैस को
ऊर्जा में बदलने की क्षमता पर निर्भर होती है. अनुसंधान कार्यो से अब उन
जीवाणुओं में भी, जिनमें हाइड्रोजन को ऊर्जा में परिवर्तित करने की क्षमता नहीं
होती है, इस गुण को स्थानांतरित किया जाना संभव हो चुका है. जीवाणुओं की
प्रजातियों में इस गुण के मूल्यांकन के लिए नई तकनीक की खोज की जा चुकी है
जिससे उपयुक्त जीवाणुओं को कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए इस्तेमाल किया जा
सके.
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जीवाणुओं की नाइट्रोजन यौगिकीकरण क्षमता
में भी विभिन्नता पाई जाती है. अत: यह आवश्यक है कि विभिन्न दलहनों की पैदावार
बढाने के लिए सबसे उपयुक्त तथा प्रभावशाली जीवाणु टीके का चुनाव करके बीज को
बोने से पहले उसे उपचारित किया जाए. उपयुक्त जीवाणु के टीके से एक ओर कम
प्रभावशाली जीवाणु की उपस्थिति की संभावना को कम किया जा सकता है दूसरी ओर
प्रभावशाली व लाभप्रद जीवाणुओं की संख्या में बढ़ोत्तरी में मदद मिलती है जिससे
भरपूर फसल होती है. किंतु इसके लिए जीवाणु और पोषी पौधों की परस्पर क्रिया की
पूरी जानकारी होना आवश्यक होगा. यह जानकारी होने से आनुवंशिक इंजी-~नियरी
द्वारा जीवाणुओं में वांछित फेरबदल करना भी आसान हो जाता है.
कृषि के बदलते संदर्भ में, जो कि व्यावसायिक होता जा रहा है, कीटनाशी तथा
खरपतवारनाशी रसायनों का उपयोग बड़े स्तर पर किया जाने लगा है. इस संदर्भ में यह
जरूरी है कि नाइट्रोजन स्थिरीकरण के लिए प्रयुक्त जीवाणुओं में इन रसायनों के
प्रतिरोधक गुण मौजूद हों, जिससे वे इनकी उपस्थिति में भी अपना कार्य
प्रभाव-~शाली ढंग से करते रहें. जीवाणुओं में इन रोधक गुणों का समावेश करना भी
अब नई तकनीकों से संभव हो गया है.
यद्यपि पोषी तथा सहजीवी जीवाणुओं की परस्पर क्रिया तथा शरीर-क्रियात्मक
कार्यकलाप समझने की दशा में बहुत प्रगति हो चुकी है, किंतु जब तक जीवाणुओं के
पोषी रेंज को बढ़ाया नहीं जाएगा तब तक इनका लाभ कुछ फसलों को ही मिल सकेगा.
दलहनों के अतिरिक्त अन्य फसलों को जीवाणुओं की पसंद का पोषी बनाने के लिए अभी
वैज्ञानिकों को लंबा सफर तय करना है. (प्रस्तुति : डा. एन. एस. वर्मा)
वायुमंडल के अध्ययन में गुब्बारे
गली-मुहल्ले में गुब्बारे वाले की पुकार सुनते ही बच्चे उन्हें खरीदने की जिद
करने लगते हैं और उन्हें अपने हाथों में पाकर फूले नहीं समाते. ऐसा नहीं है कि
ये गुब्बारे केवल बच्चों को ही अच्छे लगते हैं, बल्कि वर्षों पहले से ये
बड़ो-बड़ों को भी अपनी तरफ आकर्षित करते रहे हैं.
पेरिस के एनोनय शहर के जोसेफ माइकेल तथा जैक्स एटीनी मोंट-~गोल्फियर नामक दो
भाइयों को गुब्बारे के आविष्कार के रूप में जाना जाता है. वैसे तो ये कागज
व्यवसाय से जुड़े हुए थे लेकिन यह कामना उनके मन में अवश्य थी कि काश वे भी
पक्षियों की भांति हवा में स्वच्छन्द उड़ सकते. वे लोगों से इस विषय में
विचार-विमर्श करते रहते थे. इसका प्रभाव यह हुआ कि धीरे-धीरे उनकी यह धारणा
मजबूत होती गई कि यदि कागज के बन्द थैलों को धुएं से भरकर हवा में छोड़ा जाए तो
वह हवा में तैरकर ऊपर उठने लगेगा. सन १७८२ के आखिरी महीनों में उन्होंने कुछ
प्रारंभिक परीक्षणों के आधार पर अपने आप को संतुष्ट कर लिया कि कागज के विशाल
थैलों में धुआं भर कर उन्हें उड़ाया जा सकता है.
अपने विचारों को कार्य रूप में परिणित करने के लिए उन्होंने एक बहुत बड़ा
गुब्बारा बनाया और उसकी भीतरी दीवार पर कागज चिपकाया. इस गुब्बारे को फुलाने के
लिए उन्होंने लकड़ियां जलाकर उससे निकलने वाले धुएं का इस्तेमाल किया. ४ जून
सन् १७८३ को जब इस गुब्बारे को छोड़ा गया तो वह वायु में करीब १५०० फुट तक की
ऊंचाई पर १० मिनट तक तैरने के बाद स्वत: पृथ्वी पर वापस आ गया.
२७ अगस्त सन् १७८३ को पेरिस में ही चार्ल्स जैकीस नामक भौतिक विज्ञानी के
निर्देशन में एक और गुब्बारा उड़ाया गया, वह गुब्बारा रेशम का बना हुआ था और
गैस इससे बाहर न निकले इसके लिए इसकी भीतरी दीवारों पर रबड़ के घोल का लेप
चढ़ाया गया था. इस गुब्बारे को फुलाने के लिए लोहे की छीलनों पर गंधक के तेजाब
की क्रिया से बनने वाली हाइड्रोजन गैस का उपयोग किया गया था. जब यह गुब्बारा
करीब ४५ मिनट तक उड़ते हुए १५ मील दूर एक खेत में गिरा तो वहां के निवासी उसे
देखकर इतना डर गए कि उन्होंने उसके टुकड़े टुकड़े कर दिए.
इसके कुछ सप्ताह के बाद मोंट-~गोल्फियर बन्धुओं ने अपने प्रयोग को पुन:
दोहराया. इस बार उन्होंने एक सुसज्जित व रंग-बिरंगे गुब्बारे में कुछ जन्तुओं
को बैठाकर हवा में उड़ाया और यह सिद्ध कर दिया कि इसी प्रकार बड़े गुब्बारों
में बैठकर मनुष्य भी हवा में उड़ सकता है.
१९ नवम्बर सन् १७८३ को पेरिस में मोंटगोल्फियर ने एक बहुत बड़े गुब्बारे में दो
मनुष्यों को बैठाकर पहली बार हवा में उड़ाने का सामूहिक प्रदर्शन किया. ये
दोनों यात्री गुब्बारे में बैठकर करीब २५ मिनट तक वायु में उड़ते रहे और ५ मील
उड़ने के बाद पृथ्वी पर सुरक्षित उतर आए. इसके बाद के छ: महीनों में ही मनुष्य
हवा में उड़ने के विज्ञान से परिचित हो चुका था.
गोलभ - एक बार महात्मा गोलभ गंधर्व के साथ बालि का युद्ध हुआ. युद्ध निरंतर
रात-दिन पंद्रह वर्ष तक चलता रहा. सोलहवें वर्ष गोलभ मारा गया.
बा.रा., किष्किधा कांड, संर्ग २२, श्लोक २८-३०
गोवर्द्धन- चिरकाल से ब्रजवासी गोप इंद्र की पूजा करते थे. इंद्र के गर्व का
मर्दन करने के लिए श्रीकृष्ण ने वृंदावन के समस्त निवासियों को इंद्र के स्थान
पर गिरिराज की पूजा करने के लिए प्रेरित किया. इंद्र ने उन्हें गिरि की पूजा
करते देखा तो उनसे अपने सांवर्तक नामक गण को ब्रज पर चढ़ाई करने के लिए कहा.
इंद्र ने प्रलय मेघों को बंधन मुक्त कर ब्रज की ओर भेज दिया. अपरिमित वर्षा से
समस्त ब्रजभूमि पानी से भर गयी. श्रीकृष्ण ने अपने हाथ पर गिरिराज (गोवर्द्धन)
को उठा लिया तथा उसके गड्ढों में समस्त ब्रजवासियों को गौओं सहित सुरक्षित बैठ
जाने को कहा. एक सप्ताह तक श्रीकृष्ण अपने हाथ पर गोवर्द्धन को उठाए रहे.
तदनंतर कृष्ण की योगमाया का प्रभाव देखकर इंद्र ठगा-~सा रह गया तथा उसने अपने
मेघों को वापस बुला लिया. इंद्र ने कृष्ण के सम्मुख नतमस्तक हो क्षमा-~याचना
की. कामधेनु ने कृष्ण को बधाई दी. इंद्र ने ऐरावत की सूंड़ के द्वारा आकाशगंगा
का जल लाकर श्रीकृष्ण का अभिषेक किया तथा उन्हें 'गोविंद' संबोधन प्रदान
किया.
श्रीम भा.,१०.२४-२५.-
ब्र. पु.,१८८.-
(उक्त कथा का पूर्वांश श्रीमद् भा. में दी गयी कथा की भांति हैं.) कथा के अंत
में यह दिखाया गया है कि इंद्र ने कृष्ण से अनुरोध किया कि वे अर्जुन का ध्यान
रखें. श्रीकृष्ण ने उन्हें आश्वस्त किया.
हरि. वं. पु., विष्णुपर्व, १५-२९.-
(पूर्व कथा श्रीम भा. पु. में अंकित कथा के समान है.)
गोकुल की रक्षा होने के उपरांत देवराज इंद्र को कृष्ण के दर्शन करने की इच्छा
हुई. ऐरावत पर चढ़कर इंद्र वहां पहुंचे तो ग्वाल-बाल के साथ कृष्ण गौएं
चरा रहे थे तथा गरुड़ अद्दष्य भाव से उनके ऊपर रहकर अपने पंखों से छाया कर रहा
था. इंद्र ने विनीत भाव से कृष्ण के दर्शन किये तथा 'गौओं के इंद्र' की उपाधि
से विभूषित करके उन्हें 'गोविंद' नाम प्रदान किया. इंद्र ने कृष्ण से कहा-"मेरा
अंश अर्जुन के रूप में पृथ्वी पर अवतरित है, आप उसकी रक्षा करें." श्रीकृष्ण ने
स्वीकार कर लिया.
वि. पु., ५.१०-१३.
गोहरण- कीचक -वध का समाचार सुनकर कौरव बहुत प्रसन्न हुए. उन्हें लगा कि अब राजा
विराट का सर्वा-~धिक शक्तिशाली सेनापति नहीं रहा, अत: अच्छा अव-~सर है. सुशर्मा
की सलाह से कौरवों तथा त्रिगर्तों ने मिल-~कर मत्स्यदेश पर धावा बोल दिया.
पांडवों के अज्ञात-~वास की अवधि समाप्त हो चुकी थी किन्तु वे अभी छद्म-~वेश में
ही रह रहे थे. बृहन्नला को छोड़कर शेष चारों पांडव भी राजा विराट् के साथ युद्ध
स्थल पर आ पहुंचे. पांडवों ने व्यूह-रचना की. युधिष्ठिर ने अपने आप को श्येन
(बाज) के रूप में प्रस्तुत किया. स्वयं बाज की चोंच के रूप में नकुल और सहदेव
पंखों के स्थान पर तथा भीमसेन पूंछ के स्थान पर स्थिर रहे. उन्होंने अनेक
शत्रुओं का संहार किया. रात्रि में भी युद्ध चलता रहा. सुशर्मा ने राजा विराट्
का रथ तोड़कर उन्हें पकड़ लिया किंतु भीम ने राजा विरा को छुड़ाकर सुशर्मा
को कैद कर लिया. युधिष्ठिर के बहुत कहने पर उसने सुशर्मा को छोड़ दिया. राजा
विराट् ने चारों छमवेशी पांडवों से प्रसन्न होकर उनका अभिनंदन किया. अभी वे
राज-~धानी में पहुंचे भी नहीं थे कि कौरवों ने राजा विराट् की साठ हजार गौओं का
अपहरण कर लिया. राजा की अनुपस्थिति में उसके पुत्र उत्तर पर गौरक्षा का भार आ
पड़ा. उसका सारथी मारा जा चुका था. बृहन्नला (अर्जुन) ने सैरंध्री (द्रौपदी) से
कहलवाया कि बृहन्नला अर्जुन का सारथी रह चुका है. इस प्रकार उत्तर के सारथी के
रूप में बृहन्नला भी युद्ध-क्षेत्र में पहुंचा. उत्तर ने कौरवों की विशाल सेना
देखकर हिम्मत हार दी. वह युद्ध-~क्षेत्र से दौड़ पड़ा. बृहन्नला ने उसे
समझा-बुझाकर अपना सारथी बना लिया तथा शमी वृक्ष से अपने अस्त्र-शस्त्र उतारकर
बृहन्नला ने अपना वास्तविक परि-~चय देकर उत्तर के भय का निवारण किया. अर्जुन
ने बताया कि पूर्वकाल में एक बार उसने अपने वंश की मूल जननी उर्वशी को अपलक
देखा था, जब वह इंद्र के सम्मुख नृत्य कर रही थी. रात्रि में वह रमण की इच्छा
से अर्जुन के पास पहुंची. अर्जुन ने उसे माता के समान सत्कार दिया. अत: उसने
अर्जुन को नपुंसक होने का शाप दिया था. वह शाप अज्ञातवास में काम आया. अर्जुन
ने रथ पर कपिध्वज (अर्जुन की ध्वजा) धारण की. अर्जुन के शंखनाद करने पर उत्तर
पुन: घबरा गया. अर्जुन ने उसे समझाया. तदुपरांत अर्जुन ने अकेले ही समस्त कौरव
योद्धाओं को पराजित करके गौवों को पुन: प्राप्त किया. रणक्षेत्र से चलते हुए
उसे उत्तरा (उत्तर की बहन) की बात याद आ गयी कि उसने अपनी गुड़िया के वस्त्र
बनाने के लिए पराजित शत्रु सैनिकों के कपड़े मांगे थे. अत: अचेत शत्रुओं के
रंग-बिरंगे कपड़े उतारकर वह साथ ले गया. शमी वृक्ष पर पहुंच-~कर अर्जुन ने अपने
अस्त्र-शस्त्र पुन: वहीं रख दिये तथा पूर्ववत् वस्त्र धारण कर उत्तर से कहा कि
वह विजय का श्रेय स्वयं ले तथा अर्जुन का परिचय अभी राज विराट् को न दे. अभी वे
दोनों वहां सुस्ता ही रहे थे कि राजा को नगर में पहुंचकर समाचार मिला कि उत्तर
अकेला ही बृहन्नला को लेकर कौरवों से युद्ध करने गया है. राजा विराट् ने पुत्र
की रक्षा के लिए तुरंत अपनी सेना भेजने का आयोजन किया. इतने में ही दूत ने
उत्तर की विजय का समाचार दिया. राजा पुत्र की विजय पर बड़ा प्रसन्न हुआ. कंक ने
कहा-"जिसका सारथी बृहन्नला है, उसकी विजय निश्चित है." कंक ने उत्तर से अधिक
मान हिजड़े को दिया है, इससे क्रुद्ध होकर राजा हाथ का पासा युधिष्ठिर की नाक
पर दे मारा- जहां से खून निकलने लगा. द्वारपाल ने उत्तर तथा बृहन्नला के आगमन
की सूचना दी. कंक ने अकेले उत्तर को अंदर भेजने के लिए कहा क्योंकि अर्जुन ने
प्रण किया था कि यदि किसी के कारण भाई का खून निकलेगा तो वह जीवित नहीं रहने
दिया जायेगा. सैरंध्री ने कंक को स्वर्ण-पात्र पकड़ा दिया था ताकि रक्त
पृथ्वी पर न गिरे अन्यथा निर्दोष का रक्त पृथ्वी पर गिरने से राजा विराट् का
समस्त राज्य नष्ट हो जाता. कालांतर में निश्चय करके एक प्रात: पांचों पांडवों
तथा द्रौपदी ने राजा विराट् को अपना परिचय दिया. उत्तर ने बताया कि गौवों की
रक्षा के लिए वास्तव में अर्जुन ने ही युद्ध किया था. राजा ने अपनी पुत्री
उत्तरा का विवाह अर्जुन से करना चाहा, किन्तु अर्जुन ने कहा कि वह उसे शिष्या
अथवा पुत्री के समान मानता रहा है. अत: उसके पुत्र अभिमन्यु से उसका विवाह कर
दिया गया. विवाह में धनधान्य सहित श्रीकृष्ण, बलराम, वसुदेव, द्रुपद, आदि अनेक
राजा सम्मिलित हुए.
म. भा. विराटपर्व, अध्याय ३० से ७२ तक
गौतम (क) प्यासी भूमि एवं जनमेदिनी की प्यास शांत करने के लिए मेघरूपी कुएं को
आकाश की और उत्प्रेरित करने के लिए गौतम ऋषि ने यक्ष के द्वारा स्तुतिगान किया.
(दे. अहल्या) क्र.१.८१.९०
राजा माधव के मुंह में वैश्वानर अग्नि रहती थी. उसके पुरोहित गौतम ने उसे
पुकारा तो वह बोला नहीं कि कहीं अग्नि मुंह से नीचे न गिर जाये. गौतम ने अग्नि
का आह्वान किया. अग्नि इतनी प्रज्वलित हो उठी कि राजा उसे अपने मुंह में नहीं
समा पाया. वह मुख से नीचे भूमि पर गिर गयी. उस समय राजा विदेह माधव सर-~स्वती
के किनारे पर था. अग्नि से उत्तरी पहाड़ से निकलने वाली सदानीरा नामक नदी को
छोड़कर शेष समस्त नदियां सूखती गयीं तथा राजा और मंत्री जलते हुए उसके
पीछे-पीछे चलने लगे, क्योंकि वैश्वानर से बची रहने के कारण नदी के आसपास बहुत
ठंड थी. राजा ने अग्नि से पूछा - "मैं कहां रहूं ?" अग्नि ने उसे सदा-~नीरा के
पूर्व की ओर रहने के लिए कहा. तदनंतर गौतम ने राजा से मौन रहने का कारण पूछा.
राजा ने बताया कि मुंह से अग्नि न गिर जाय, यह विचार कर ही वह चुप था पर गौतम
ने मंत्र बोलते हुए घृत का नाम लेते ही वह इतनी भभकी कि मुंह में संभा-~लनी
कठिन हो गयी.
ता. ब्रा.१३.१२.६-८
श.प. १.४.१.१०
ब्रह्मा ने अमित प्रजा की रचना के उपरांत एक अतीव सुंदरी की रचना की. उसकी रचना
में विरूपता नहीं थी अत: वह अ+हल्य कहलायी. ब्रह्मा ने उसका विवाह गौतम मुनि से
कर दिया. इंद्र इससे विवाह करने का इच्छुक था. कामाधीन इंद्र ने गौतम का रूप
धारण करके उसके साथ विहार किया. गौतम ने क्रुद्ध होकर इंद्र को शाप दिया - "हे
इंद्र, तूने परायी स्त्री से भोग करने की प्रथा चलायी है अत: यह मनुष्य -लोक
में फैल जायेगी. तूने जघन्य काम किया है इसलिए तू युद्ध में परास्त होगा और
बंदी बनकर शत्रु के पास पहुंचेगा." गौतम ने अहल्या को भी शाप दिया. कि उसका रूप
प्रजा में बंट जाये, वह आश्रम के पास ही नष्ट हो जाये, क्योंकि उसके साथ धोखे
से संभोग किया गया था अत: अहल्या को उन्होंने इतनी छूट दी कि जब विष्णु
राम-~चंद्र के रूप में विश्वामित्र का यक्ष कराने के लिए वन में जायेंगे तब
उनके दर्शनोपरांत वह निष्पाप हो जायेगी.
बा. रा., उत्तरकांड, सर्ग ३० श्लोक २०४५
(ख) मध्यप्रदेश में गौतम नामक एक ब्राह्मण था जिसने वेदाध्ययन नहीं किया था.
अत्यंत दरिद्र स्थिति में वह एक संपन्न गांव देखकर भीख मांगने गया. वहां एक
धनवान दस्यु था- जिसने उसे रहने के लिए स्थान, एक वर्ष का भोजन, वस्त्र तथा एक
पतिरहित दासी प्रदान की. वह सुखपूर्वक वहां रहता हुआ लक्ष्य बेधने का अभ्यास
करने लगा. तदनंतर वह एक कुशल शिकारी तथा डाकू बन गया. एक दिन उसका पूर्व
परि-~चित ब्राह्मण भिक्षा की खोज में वहां पहुंचा. गौतम को पहचानकर उसके कर्मों
को देखकर उसने बहुत धिक्कारा. उसे उसके कुल खानदान की याद दिलाकर डाटता रहा,
किंतु उसने उसके घर की किसी वस्तु का स्पर्श नहीं किया. उसके चले जाने के बाद
लज्जावश गौतम गृहत्याग कर समुद्र तट की ओर बढा. मार्ग में एक वैश्य दल के साथ
हो लिया. किंतु एक हाथी के बिगड़ जाने से वह दौड़ा तो दल का साथ छूट गया.
थका-मादा वह एक बरगद के पेड़ के नीचे सुस्ताने लगा. उसपर अनेक पक्षियों का
अधिवास था. वहां महर्षि कश्यप का पुत्र, ब्रह्मा का मित्र नाडीजंघ भी रहता था.
वह बगुलों का राजा था तथा राजधर्मा नाम से विख्यात था. राजधर्मा ने उसका
अतिथि-सत्कार किया तथा रात भर वहां विश्राम करने के लिये अनुरोध किया. प्रात:
काल उसने अपने मित्र महाबली राक्षसराज 'विरूपाक्षे' के पास जाने के लिए
प्रेरित किया. ब्राह्मण उसके पास पहुंचा तो उसका नाम तथा जाति के अतिरिक्त कुछ
भी नहीं बता पाया. विरूपाक्ष उसकी सहायता करना चाहता था, क्योंकि उसके मित्र ने
गौतम को भेजा था, यद्यपि न वह विद्वान था, न सत्कर्मी, उसने शूद्र जाति की
पूर्व विवाहिता स्त्री से विवाह भी कर रखा था, तथापि उसने अन्य ब्राह्मणों के
साथ उसे भोजन कराया तथा सोने और हीरे के बने पात्रों के साथ रत्नादि भी
भेंटस्वरूप दिये. साथ ही सब ब्राह्मणों से कहा कि एक दिन तक उन्हें राक्षसों से
कोई भय नहीं रहेगा. वे तुरंत घर चले जायें. गौतम वह सब लेकर जाते हुए बरगद के
पेड़ तक पहुंचा. राजधर्मा का आतिथ्य ग्रहण कर विश्राम करते हुए उसने सोचा कि घर
दूर है, रास्ते में कोई भोज्य पदार्थ मिलेगा नहीं, क्यों न ही राजधर्मा को
मारकर साथ ले लिया जाये ? राजधर्मा उसकी रक्षा के लिए आग जला-~कर पास ही सो रहा
था. ब्राह्मण ने उसे जलती हुई लकड़ी से मार ड़ाला. दो दिन तक जब राजधर्मा
विरूपाक्ष के यहां नहीं गया तो विरूपाक्ष चिंतित हो उठा ; क्योंकि समस्त पक्षी
प्रतिदिन ब्रह्मा की आराधना के लिए आया करते थे. राजधर्मा लौटते हुए प्रतिदिन
उससे मिलने जाता था. विरूपाक्ष को बार-बार स्वाध्याय रहित हिंसक गौतम का स्मरण
आता रहा. उसे लग रहा था कि गौतम ने ही कुछ गड़बड़ी की है. उसने अपने पुत्र को
अपने मित्र की खोज -खबर लेने भेजा. राक्षस पुत्र ने बटवृक्ष के नीचे कंकाल,
हड्डियों का ढेर देखा तो गौतम को पकड़ने के लिए भाग-दौड़ की. अंतो-~तोगत्वा
उसने ब्राह्मण को राजधर्मा के शव सहित पकड़ लिया और पिता के पास ले गया.
विरूपाक्ष के पुत्र से कहा कि वह ब्राह्मण को मार डाले और राक्षस स्वेच्छा से
उसके मांस -उपयोग करें किंतु राक्षसों ने उस अधम का मांस खाने की अनिच्छा प्रकट
की तो उसे दस्युओं के हवाले करने का निश्चय किया गया. दस्युओं ने भी उस कृतघ्न
का मांस खाने से इंकार कर दिया. क्योंकि ब्राह्मण-~मांस, का भोजन का प्रायश्चित
तो शास्त्रों में है, किंतु मित्र-~द्रोही का नहीं. तदनंतर विरूपाक्ष ने अपने
मृत मित्र के लिए एक चिता तैयार करवा दी. उसपर बकराज का शव रखकर आग जला दी.
उसी क्षण ब्रह्माप्रेषित सुरभि आकाश में प्रकट हुई. उसके मुंह से दुग्धमिश्रित
फेन शव पर गिरी तो बकराज पुनर्जीवित हो उड़कर विरू-~पाक्ष के पास चला गया.
इंद्र ने प्रकट होकर बताया कि एक बार ब्रह्मा की सभा में न पहुंच पाने के कारण
राज-~धर्मा को यह शाप मिला था कि वह वध का कष्ट भोगेगा किंतु उसे पुनर्जीवित
करने का प्रयत्न विरूपाक्ष ने ही किया है. राजधर्मा ने इंद्र से गौतम को
पुनर्जीवित दान करने का अनुरोध किया. गौतम को जीवित देख बक-~राज ने उसे सप्रेम
विदा किया. उस शुद्र दासी (पत्नी-~वत्) के उदर से गौतम ने अनेक पापाचारी
पुत्रों को जन्म दिया.
मा. भा., शांतिपर्व, अध्याय १६८,
श्लोक ३०-५२, अ. १६९-१७३
(ग) गौतम नामक एक ब्राह्मण था. वह अत्यत दयालु था. एक कष्ट सहते हुए मातृविहीन
हाथी शावक को उसने पुत्रवत् पालकर बड़ा किया. वह श्वेत वर्ण का था. एक दिन
इंद्र ने धृतराष्ट्र का रूप धारण कर उस हाथी का अपहरण कर लिया. गौतम ने बहुत
दुखी होकर अपना हाथी मांगा और कहा- " इस समय न देने पर स्वर्ग, नरक, यम आदि में
से किसी लोक में पहुंचकर उसे हाथी वापस करना पड़ेगा. " धृतराष्ट्र ने कहा कि
उसे किसी लोक में जाना ही नहीं है. तदंनतर गौतम ने इंद्र को पहचान लिया. इंद्र
ने हाथी के प्रति उसका सच्चा स्नेह देखकर उसे वह लौटा दिया.
म. भा., दानधर्मपर्व, अध्याय १०२,
(घ) एक बार भयानक दुर्भिक्ष से त्रस्त होकर ब्राह्मण गौतम के आश्रम पर पहुंचे.
गौतम नित्य गायत्री की प्रार्थना करते थे अत: उन्हें कोई कष्ट नहीं था.
ब्राह्मणों को भी उन्होंने गायत्री का जाप करते हुए आश्रम में रहने को कहा. एक
दिन गायत्री माता ने प्रत्यक्ष दर्शन देकर गौतम को एक कटोरा दिया, जिससे यथेच्छ
अन्न इत्यादि खाद्य पदार्थ, वस्त्र तथा पशु आदि भी प्राप्त हो सकते थे. गौतम
ने बारह वर्षों तक ब्राह्मणों की सेवा की. इंद्र इत्यादि देवता गौतम की कीर्ति
सुनकर उनके दर्शन करने उनके आश्रम में पहुंचे. उन सबके मुंह से गौतम की प्रशंसा
सुनकर ब्राह्मण बालक ईर्ष्या का अनु-~भव करने लगे तथा वे मंत्रणा करने लगे कि
किसी प्रकार से ऋषि की कीर्ति का ह्लास हो. सुभिक्ष होने पर (दुर्भिक्ष की
समाप्ति पर) एक दिन उन ब्राह्मणों ने माया से एक वृद्धा गौ का निर्माण किया.
यज्ञ के समय उसे शाला से हटाने के लिए गौतम ने ज्योंही हू हू किया, उसने प्राण
त्याग दिये. गौहत्या के कारण सबने ऋषि को धिक्कारा. गौतम ने ध्यान लगाकर समस्त
घटना को जान लिया और क्रोधावेश में ब्राह्मणों को गायत्री विमुख होकर अधम होने
का शाप दिया. ब्राह्मण देवी के अनुष्ठान से विमुख होकर पतित हो गये. गौतम के
शाप से ही उन्होंने पंचतंत्र, कामशास्त्र, कापालिक मत तथा बोद्य धर्म में
श्रद्धा स्थापित कर ली. गौतम ने महादेवी को प्रमाण किया तो देवी ने हंसकर कहा-
"सांप को दिया दूध विष के निमित्त ही होता है." तदनंतर ब्राह्मणों ने दु:ख से
प्रायश्चित किया, मुनि से क्षमा मांगी. मुनि ने कहा- "कृष्णावतार होने तक
ब्राह्मणों को कुंभीपाक नरक भोगना पड़ेगा, फिर कलियुग में ब्राह्मणों का
पुनर्जन्म होगा."
दे. भा.१२.९
गौतमी -गौतमी नामक ब्राह्मणी के पुत्र की मृत्यु के सर्पदंशन से हो गयी तो
निकटवर्ती व्याध अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा. उसने सर्प को पकड़ लिया और गौतमी से
पूछा कि उसका वध किस प्रकार करना चाहिए. गौतमी ने कहा- "सर्प को मारने से क्या
लाभ? उसको छोड़ दो." व्याध का मत था कि दोषी से बदला लेकर मन शांत हो जाता है,
साथ ही उसकी मृत्यु अनेक मनुष्यों को भावी दंशन से मुक्ति प्रदान कर देगी. तभी
सर्प मानव-भाषा में बोला कि अपराध उसका नहीं है, क्योंकि वह मृत्यु-प्रेषित था.
मृत्यु ने वहां आकर कहा कि वह भी दोषी नहीं है, वह काल-प्रेरित थी. तभी काल भी
वहां पहुंच गया. उसने कहा- "मनुष्य के कर्म प्रत्येक घटना के लिए उत्तर-~दायी
होते हैं." गौतमी ने उसकी बात स्वीकार की और यह सोचकर कि उसके तथा उसके पुत्र
के कर्मों के कारण ही यह दिन देखना पड़ा- मन में संतोष धारण कर लिया.
म. भा., दानधर्मपर्व, अध्याय १
ग्रहपति -विश्वामित्र ने सचक्षुमति से विवाह किया तथा दीर्घकाल के उपरांत शिव
की कृपा से एक पुत्र प्राप्त किया जिसका नाम ग्रहपति रखा गया. नारद ने उसका हाथ
देखकर बताया कि बारहवें वर्ष में अनिष्ट है. माता-~पिता चिंचित हो उठे. ग्रहपति
ने कहा कि शिव की कृपा से उसका कुछ भी अनिष्ठ नहीं हो सकता. विश्वामित्र की
प्रेरणा से ग्रहपति ने शिवलिंग स्थापना करके तपस्या की. शिव ने इंद्र के रूप
में प्रकट होकर वर मांगने को कहा. ग्रहपति ने बताया कि उसका इष्ट तो मात्र शिव
है. प्रसन्न होकर शिव ने उसे देवता होकर तीनों लोकों में भ्रमण करने का वर
दिया. उसके माता-~पिता को दिक्पति बना दिया तथा स्वयं उसी शिवलिंग में समा गये.
शि. पु., ७.२७.-२८
अपनी बात
औद्यानिक विकास में उर्वरक उपयोग का महत्त्व
शरीर के पोषण में अन्य खाद्यान्नों के साथ-साथ फलों की भी भारी उपयोगिता है.
शरीर के पोषण के लिए प्रत्येक मनुष्य को फलों का सेवन अवश्य करना चाहिए,
क्योंकि फलों में भरपूर मात्रा में पोषक तत्व विद्यमान होतें हैं. लेकिन हमें
इच्छित मात्रा में फल नहीं प्राप्त होते. इसका कारण यह है कि हमारे देश में
औद्यानिक विकास पर बागवान उतना ध्यान नहीं देते, जितना औद्यानिक विकास के लिए
आवश्यक है. यही कारण है कि देश में फलों का उत्पादन कम हो रहा है और जितना
उत्पादन होता है, वह बहुत मंहगा रहता है. इसीलिए सर्व साधारण व्यक्ति फल नहीं
खरीद पाता.
औद्यान्नों की भारी पैदावार देने वाली किस्मों के चलन से प्राय: बागवान नये बाग
नहीं लगाते और जो लगाते भी हैं, वे प्राय: वैज्ञानिक विधियां नहीं अपनाते.
दूसरा कारण है, पुराने बागों जीर्णोद्धार न करना. इसीलिए फलों की पैदावार काफी
कम होती है.
जहां तक फलों की उन्नत किस्मों का सवाल है, अब देश में उन्नत किस्मों की कमी
नहीं. राज्य स्तर पर जहां-तहां अनेक औद्यानिक अनुसन्धान संस्थानों ने फलों की
नयी और अधिक पैदावार देने वाली किस्मों का विकास किया है. इसके अलावा प्रत्येक
राज्य के कृषि विश्वविद्यलयों ने भी फलों पर काफी अनुसन्धान किया है और उन्नत
किस्में निकाली हैं. इस प्रकार उन्नत किस्मों के विकास के विषय में किसी को
शिकायत नहीं होनी चाहिए.
औद्यानिक विकास का महत्वपूर्ण पक्ष तकनीकी ज्ञान से सम्बन्धित है. फल वृक्षों
के उगाने की जब तक वैज्ञानिक विधियां नहीं अपनायी जाएंगी, तब तक व्यक्तिगत रुप
से बागवान कामयाब नहीं होंगे.
हमारे देश के बहुत से बागवान अवैज्ञानिक विधि से फल-वृक्ष लगाते हैं. जैसे केवल
बीजू पौधों का प्रवर्धन करके फल लेना. इस विधि से उगाये फल-वृक्षों से न तो
फलों की पैदावार ही अधिक होती है और न ही फल उत्तम गुणों वाले होते हैं. ऐसे
फल-वृक्षों पर फल भी कई वर्ष बाद लगते हैं. ऐसे निम्न गुणों वाले फलों का आकार,
रंग और स्वाद भी निम्न स्तर का होता है. अतएव बाजार में ऐसे फलों की कीमत अच्छी
नहीं मिलती.
बागवान को यह पता नहीं चलता है कि कम और खराब गुण वाले फल क्यों लगते हैं. यदि
बागवान वैज्ञानिक विधियों से अवगत हों तो उन्हें पता चलेगा कि फल वृक्षों को
रोपते समय और बाद में उर्वरकों का, जैविक खादों का और सुक्ष्म मात्रिक पोषक
तत्वों का उपयोग कौन सा, कब-कब और कितनी मात्रा में करना चाहिए.
दूसरा कारण है, उद्यानों की घोर उपेक्षा. जितने कीट-रोग फल-वृक्षों पर आक्रमण
करते हैं, उतने खाद्यान्न फसलों पर नहीं करते. इसलिए सुरक्षा के बारे में
बागवान को पूरी जानकारी होनी चाहिए.
जो बागवान ईंटों के भट्टों के पास आम के बाग लगाते हैं, फसल आने पर पूरे बाग
में कोयलिया रोग छा जाता है. ऐसा धुएं के कारण होता है जिससे तमाम फलों का
नुकीला भाग काला पड़ कर गल जाता है. इसलिए एक सफल बागवान को बाग लगाने के स्थान
का चुनाव बहुत सोच समझ कर करना चाहिए.
यदि बागों में रोग लग भी जाए तो कीटनाशक दवाओं के छिड़काव या बुरकाव से उसे
दूर किया जा सकता है, बशर्ते बागवान फल आने से पहले ही सावधान हो जाए.
बागवानों की उदासीनता का एक और भी कारण है, जिससे बागवान फलों की बागवानी पर
ध्यान नहीं देते. उन्हें उनकी उपज का वाजिब मूल्य नहीं मिल पाता. फल या सब्जी
ऐसी जिन्सें हैं, जो किसान अपने पास भण्डार करके, अनाज के समान नहीं रख सकते.
समीपस्थ मण्डियाँ ही उनकी बिच का केन्द्र होती हैं.
भारत की लगभग सभी मण्डियों में (सरकारी एजेन्सियों को छोड़कर) दलालों का
एकाधिकार होता है. मण्डी में फलों की नीलामी की प्रथा है. बिचौलियों के माध्यम
से ही मण्डी में ग्राहक बोली लगाते हैं. ये आपस में मिले रहते हैं. बारी-बारी
से सभी कम से कम बोली देकर माल छुड़ा लेते हैं, जो कौड़ियों के भाव से खरीदा
जाता है. और वही कौड़ियों के भाव खरीदा हुआ माल मंहगा करके बेचा जा रहा है.
इस भयानक स्थिति से बचने का एक ही उपाय है, कि भले ही किराया भाड़ा ज्यादा पड़
जाए, हमेशा अपनी उपज सहकारी समितियों, सरकारी एजेन्सियों द्वारा बेची जानी
चाहिएं. जहां उक्त समितियां बहुत दूर हैं या नहीं हैं, ऐसे स्थानों पर समस्या
वास्तव में भयावह है.
इस अंक में मुख्य-मुख्य फलों की बागवानी की वैज्ञानिक विधियों की जानकारी देने
की कोशिश की गयी है. प्राय: लेख उन्हीं वैज्ञानिकों द्वारा लिखवाये गये हैं,
जिन्होनें जिस विषय पर काफी अनुसन्धान किया है.
बागवान भाई और गृह-वाटिका प्रेमी इस वैज्ञानिक सामग्री का लाभ उठाकर यदि फलों
की बागवानी करें तो फलों की पैदावार काफी बढ़ायी जा सकती है. और जब पैदावार
बढ़ जाएगी तो बाजार की समस्या भी हल होगी ही. हमारे पाठक यदि इन लेखों सम्बन्धी
और विशेष जानकारी चाहें तो विषय के लेखक को सीधे लिख सकते हैं.
रसराज - आम
कालू सिंह - डा. राम अभिलाष पाठक - डा. रामधीन सिंह
औद्यानिक प्रयोग और प्रशिक्षण केन्द्र
सहारनपुर (उ.प्र.)
भारत में पैदा किये जाने वाले मैदानी फलों में आम का प्रथम स्थान है. यह देश के
लगभग सभी भागों में पैदा किया जाता है, परन्तु उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिमी
बंगाल, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, मद्रास, महाराष्ट्र, मैसूर और पंजाब इसके लिए
मुख्य स्थान रखते हैं. हमारे देश में आम को इसके विशिष्ट गुणों के कारण फलों का
राजा कहा जाता है. इस फल में स्वाथ्यवृद्धि के बहुत से आवश्यक अंग, जैसे
विटामिन ए, बी, सी और बहुत से लवण भी काफी मात्रा में पाये जाते हैं. आम के
कच्चे फलों का उपयोग चटनी, अचार आदि रूप में किया जाता है. पके फल खाने में
स्वादिष्ट होते हैं. फलों की डिब्बाबन्दी करके और इसके रस का शर्बत और स्क्वैश
बनाकर काफी समय तक उपयोग किया जा सकता है. हमारे देश से आम विदेशों को भी काफी
मात्रा में भेजा जाता है.
जलवायु
आम उष्ण जलवायु का फल है, परन्तु उष्ण और समशीतोष्ण दोनों प्रकार के जलवायु में
समुद्री तल से लगभग १००० मीटर की ऊंचाई तक सरलतापूर्वक उगाया जा सकता है. अधिक
पाला पड़ने वाले स्थानों में इसकी बागवानी अच्छी नहीं होती है. तापक्रम ३४
डिग्री फा. से कम हो जाने पर आम के पौधे पाले से प्रभावित हो जाते हैं. फूल आने
के समय शुष्क मौसम का होना आवश्यक है. इस समय बदली या वर्षा होने से बीमारियों
व कीड़ों का प्रकोप अधिक होता है.
उपयुक्त भूमि का चुनाव
आम की जड़ें गहराई तक फैलने वाली होती हैं. अत: इसके लिए कम से कम तीन मिटर
गहरी भूमि की आवश्यकता होती है. पानी भरने वाली, कंकरीली, पथरीली, छिछली और
आधिक क्षारीय भूमि को छोड़कर आम लगभग सभी प्रकार की भूमी में, जिसमें जल निकास
का समुचित प्रबन्ध हो, आसानी से उगाया जा सकता है, परन्तु गहरी दोमट भूमि सबसे
अच्छी होती है. अम्ल अनुपात ६.०-६.५ को बीच होना चाहिए और भूमि में कुल घुलनशील
लवणों की मात्रा ०.०५ प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए.
किस्में
भारत में आम की लगभग १००० किस्में हैं, जिनमें से कुछ ही किस्में उत्तम गुणों
और अच्छी पैदावार की क्षमता के कारण व्यावसायिक स्तर पर लगायी जाती हैं. देश के
विभिन्न क्षेत्रों के लिए व्यावसायिक किस्में इस प्रकार हैं :-
उत्तरी भारत :- लंगड़ा, चौसा, दश-~हरी, बाम्बे ग्रीन, फजली.
पूर्वी भारत :- हिमसागर, लंगड़ा, कृष्णभोग, गुलाबखास, फजली, जर्दालू.
पश्चिमी भारत :- अलफांसो, पैरी, राजापुर, जमादार, मलकुराद (गोवा).
दक्षिणी भारत :- नीलम, बंगलौरी, रोमानी, स्वर्णरेखा, बंगापल्ली, बदामी, रसपुरी,
मलगोवा.
आम की चूसने वाली किस्मों में मिठवा, लखनऊ सफेदा, मिठवा सुन्दरशाह, शर्बती
वग्रेन, गिलाश, हरदिल अजीज, चिला रासम और पेड्डारासम प्रमुख हैं.
उपरोक्त व्यावसायिक किस्मों में से कुछ प्रमुख किस्मों का वर्णन यहां किया गया
है.
बाम्बेग्रीन :- यह एक सबसे अगेती किस्म है. फल आकार में छोटे और अच्छे गुण वाले
होते हैं. इसकी सुगन्ध बहुत ही अच्छी होती है. परन्तु इसमें मालफोर्मेशन
(गुच्छा रोग) बहुत अधिक पाया जाता है. फलत अनियमित और फल की संग्रहण क्षमता कम
होती है.
दशहरी :- यह मध्यम मौसम की किस्म है. फलत अच्छी होती है. फल मध्यम आकार का,
संग्रहण क्षमता अधिक और अच्छे गुण वाली होती है. इसमें डिब्बा बन्दी योग्य गुण
पाये जाते हैं. फलत अनियमित होती है. इसका निर्यात दूसरे देशों को किया जाता
है.
लंगड़ा :- यह मध्यम मौसम की किस्म है. अन्य किस्मों की अपेक्षा इसका क्षेत्र
विस्तृत है. इसका मध्यम आकार का, अच्छे गुणों वाला होता है और अन्य किस्मों की
तुलना में इसमें विटामिन सी की अधिक मात्रा पायी जाती है, परन्तु फल का रंग
बहुत आकर्षक नहीं होता और अपेक्षाकृत फल पकने पर कम समय तक रखा जा सकता है.
इसमें अनियमित फलत होती है और फल भी अधिक गिर जाते हैं.
समर बहिश्त चौसा :- यह देर से पकने वाली बहुत ही उत्तम गुणयुक्त किस्म है. फल
का आकार बड़ा और रंग आकर्षक होता है, परन्तु फलत अनियमित और प्रारम्भिक अवस्था
में अच्छी नहीं होती. इसमें मालफार्मेशन रोग अधिक होता है. यह दूसरे देशों को
भेजी जाने वाली किस्म है.
अलफांसो :- इसका फल मध्यम आकार, सुगन्धयुक्त और मीठा होता है. यह डिब्बा बन्दी
के लिए उपयुक्त किस्म है. पकने के पश्चात् फल काफी समय तक रखा जा सकता है. यह
दूसरे देशों में निर्यात की जाने वाली किस्म है, परन्तु इसका उत्पादन क्षेत्र
बहुत ही सीमित है. इसके फलों में रेशे (स्पांजी) हो जाते हैं, जोकि फल के गुण
को कम कर देते हैं. फलत अनियमित होती है.
नीलम :- यह दक्षिणी भारत की नियमित फलत वाली, देर से पकने वाली किस्म है. फलत
अच्छी होती है. उत्तरी भारत में इसके फल अन्य किस्मों के समाप्त होने के
पश्चात् अगस्त मास के अन्त तक पकते रहते हैं.
राम केला :- यह देर से पकने वाली किस्म है. इसका फल पकने पर भी खट्टा होता है.
परन्तु अचार के लिए यह सर्वोत्तम किस्म है और इस कारण फल बाजार में अच्छी कीमत
पर बिकते हैं.
उपरोक्त उत्तम किस्मों के अतिरिक्त नियमित फलत और उत्तम गुण वाली अन्य किस्में
प्राप्त करने के लिए देश के विभिन्न भागों में संकरण किये जा रहे हैं. इन
प्रयत्नों के फलस्वरूप भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नयी दिल्ली, ने मल्लिका
और आम्रपाली दो किस्में तैयार की हैं :-
मल्लिका :- यह किस्म नीलम और दशहरी के संकरण से तैयार की गयी है. फल का आकार व
गुण पैतृक किस्मों की अपेक्षा अच्छा होता है और नियमित फलत प्राप्त होती है.
आम्रपाली :- यह दशहरी और नीलम के संकरण से तैयार की गयी नियमित फलत देने वाली
किस्म है. इसके पेड़ बौने और फल मध्यम आकार के जुलाई के तीसरे सप्ताह में पकते
हैं. गूदा रेशारहित और स्वादिष्ट होता है.
प्रसारण और पौध लगाना
आम का वानस्पतिक प्रसारण कई विधियों से किया जा सकता है, परन्तु भेंट कलम
(इनार्चिंग) सबसे अधिक प्रचलित है. भेंट कलम विधि में लगभग एक से डेढ़ वर्ष के
मूलवृन्तों को गमलों या मिट्टी के साथ निकाल कर मातृ पौधों के पास ले आते हैं.
फिर मूलवृन्त के तने से २० से.मी. की ऊंचाई पर ६ से ८ से.मी. लम्बाई की छाल
थोड़ी लकड़ी के साथ तेज चाकू द्वारा निकाल लेते हैं. इसी प्रकार मूलवृन्त की
मोटाई के समान मातृ पौधे की टहनी में भी छाल व लकड़ी निकाल कर और आपस में
मिलाकर अच्छी प्रकार बांध देते हैं. मूलवृन्त पौधे की समय-समय पर फुआरे द्वारा
सिंचाई करते रहते हैं. इस प्रकार लगभग दो मास में वे आपस में जुड़ जाते हैं.
इसके बाद मातृ पेड़ से काट कर अलग कर लेते हैं. इस विधि में मूलवृन्त पौधे को
मातृ पौधे के पास ले जाना पड़ता है और देखरेख और सिंचाई आदि अधिक करनी पड़ती
है. इन कठिनाइयों को ध्यान में रखकर आम की सरल व व्यावसायिक प्रसारण विधि हेतु
विगत वर्षों में विभिन्न अनुसंधान किये गये. फलस्वरूप वीनियर कलम द्वारा लगभग
९० प्रतिशत सफलता प्राप्त हुई और अब यह विधि व्यावसायिक रूप से अपनायी जा रही
है.
वीनियर प्रसारण विधि में ४ से ६ मांस की टहनियों को चुन लेते हैं और ऊपर के
लगभग १५ सें.मी. की सभी पत्तियों को ०.५ से.मी. डंठल रखकर काट देते हैं. इस
क्रिया को पत्ती उन्मूलन क्रिया कहते हैं. ऐसा करने से ८-१० दिन के बीच
शीर्षस्थ कली बढ़ने की अवस्था में आ जाती है. इन टहनियों को १०-१५ से.मी. लम्बी
काटकर पोलीथीन या भीगे बोरे में लपेटकर एक से डेड़ वर्ष पुराने बीजू पौधे के
पास ले जाते हैं. मूलवृन्त के तने में जमीन से लगभग १५ से.मी. ऊंचाई पर ४ से ५
से.मी. लम्बा कटाव मूलवृन्त की मोटाई के लगभग एक तिहाई गहराई का करते हैं. ठीक
इसी नाप का कटाव मातृ टहनी में भी लगाते हैं और इन दोनों सतहों को एक दूसरे से
पूर्णरूप से सटा कर पोलीथीन की १.५ से.मी. चौड़ी पट्टी से बांध देते हैं. लगभग
१५ दिनों में मातृ टहनी मूलवृन्त से जुड़ जाती है और शीर्षस्थ कली फूट कर बढ़ने
लगती है. जब इसमें ४ से ६ पत्तियां हो जाती हैं, तो मूलवृन्त के सिरे को काट
देना चाहिए और लगभग डेड़ मास बाद जोड़ के ऊपर बीजू पौधे के ऊपरी भाग को काटकर
निकाल देना चाहिए. मूलवृन्त पर मातृ टहनी का जोड़ लगभग दो मास में पूरा हो जाता
है और इस प्रकार वीनियर विधि से पौधा तैयार हो जाता है.
वीनियर विधि द्वारा प्रसारण का सबसे उपयुक्त समय जून के अन्त से जुलाई तक है,
परन्तु मार्च-अप्रैल व अगस्त-सितम्बर में भी विशेष सावधानी रखकर किया जा सकता
है. वीनियर प्रसारण विधि में बीजू पौधे क्यारी में ही लगे रहते हैं. इस प्रकार
बार-बार पानी देने की आवश्यकता नहीं होती और सूखने का भी डर नहीं रहता जिन
पौधों पर किसी कारण से विनियर कलम असफल रहती है, उनमें दुबारा कलम बनायी जा
सकती है. इसके अतिरिक्त दूसरे स्थानों में भी वांछित मातृ टहनी लाकर पौधे तैयार
किये जा सकते हैं. वीनियर कलम द्वारा टाप वर्किंग विधि से पुराने और अवांछित
किस्म के पेड़ों का जीर्णोद्धारा किया जा सकता है. इसके लिए पेड़ों को भूमि में
१-११/२ मीटर ऊंचाई पर फरवरी-मार्च में मुख्य तने से काट देना चाहिए. कटे हुए
तने के ऊपरी भाग पर गीली मिट्टी लगा देनी चाहिए अथवा पालीथीन शीट बांधनी चाहिए.
इस कटे भाग से अप्रैल में नयी शाखाएं निकलेंगी, जिनमें से ३-४ स्वस्थ शाखाएं
छोड़कर शेष निकाल देनी चाहिएं. जुलाई के महीने में इन शाखाओं पर वांछित किस्म
की कलम वीनियर विधि द्वारा कर देनी चाहिए. इनके अतिरिक्त मुलवृन्त से समय-समय
पर निकलने वाली शाखाओं को निकालते रहना चाहिए. इस प्रकार से एक अवांछित किस्म
का पेड़ अच्छी किस्म में बदला जा सकता है.
पौधा लगाने से पहले भूमि की जुताई करके खेत समतल कर लेना चाहिए और एक से डेड़
मास पहले एक मीटर गोलाई के और एक मीटर गहरे गड्ढे खोद लेने चाहिएं. पंक्ति से
पंक्ति और पौधे से पौधे की दूरी किस्म के ऊपर निर्भर करती है. मध्यम आकार वाली
किस्मों, जैसे बाम्बे ग्रीन, दशहरी के लिए १०*१० मी. लंगड़ और चौसा जैसी बड़े
आकार वाली किस्मों में १२*१२ मी. और बौनी किस्म आम्रपाली के लिए यह दूरी२.५*२.५
मी. रखनी चाहिए. इन गड्ढों को आधी मिट्टी व आधी गोबर की सड़ी खाद और प्रति गड्ढ
५० ग्राम बी.एच.सी. चूर्ण मिलाकर भर देना चाहिए. गड्ढे भरने के बाद इनकी एक
सिंचाई कर देनी चाहिए, ताकि गड्ढों की मिट्टी भली प्रकार बैठ जाए. आम का बाग
लगाने का सबसे उपयुक्त समय जुलाई-अगस्त है. इसके अतिरिक्त फरवरी-मार्च में भी
पौधे लगाये जा सकते हैं, परन्तु गर्मी में अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है.
पौधे मिट्टी में उसी गहराई तक लगाने चाहिए, जिस स्थान तक कि रोपणी में लगे हों.
खाद की मात्रा और उपयोग विधि
फलों के उत्पादन में पोषक तत्वों का महत्वपूर्ण स्थान है. अत: पौधों की उचित
वृद्धि और अच्छी फलत के लिए नियमित रूप से खाद व उर्वरक उपयोग करते रहना चाहिए.
पोषक तत्वों का उपयोग भूमी में अथवा पर्णीय छिड़काव द्वारा किया जा सकता है.
१. भूमिगत उपयोग विधि :- पौधों को नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश को अधिक मात्रा
में आवश्यकता पड़ती है, जो कि जिवांश और रासायनिक के रूप में उपयोग किये जाते
हैं. आम के पौधों में खाद उनकी आयु के अनुसार देनी चाहिए. इस शोध केन्द्र में आम की उचित वृद्धि और फलत प्राप्त करने के लिए किये गये प्रयोगों से ज्ञात हुआ है
कि पौधे की अफलत अवस्था में ४० ग्राम नाइट्रोजन, १२० ग्राम फास्फोरस, ८० ग्राम
पोटाश और १० कि.ग्रा. गोबर की खाद प्रति पौधा प्रति वर्ष की आयु के हिसाब से दे
देनी चाहिए. फलत काल में, जो कि साधारणतया छठवें वर्ष से प्रारम्भ हो जाती है,
८० ग्राम नाइट्रोजन, १२० ग्राम फास्पोरस, ८० ग्राम पोटाश और १० किलोग्राम गोबर
की सड़ी खाद प्रति पौधा प्रति वर्ष की आयु के हिसाब से देने पर अधिक उपज प्राप्त होती है. खाद की अधिकतम मात्रा पौधों की १० वर्ष की आयु के आधार पर निश्चित कर
देनी चाहिए, जो कि ८०० ग्राम नाइट्रोजन, १२०० ग्राम फास्फोरस, ८०० ग्राम पोटाश
और एक क्विंटल गोबर की सड़ी खाद होगी.
खाद और उर्वरक का उपयोग पौधों के फैलाव तक करना चाहिए. इसके लिए एक वर्ष पुराने
पौधों में तने से १५ सें.मी. और पूर्ण वयस्क पौधों में ४५ से ६० सें. मी.छोड़कर
थाले बना लेने चाहिए. इन्हीं थालों में खाद और उर्वरक का उपयोग करना चाहिए और
हल्की गुड़ाई करके इसे भली भांति मिट्टी में मिला देना चाहिए. खाद डालने के बाद
हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए. रासायनिक खाद की मात्रा को दो बराबर भागों में
बांटकर आधी मात्रा सितम्बर-अक्तूवर और शेष आधी मात्रा जनवरी-फरवरी में देनी
चाहिए. जीवांश खाद का उपयोग जून-जुलाई में करना चाहिए. इस शोध केन्द्र में
प्रयोगों से यह भी ज्ञात हुआ हो कि जिन स्थानों पर घोड़े की लीद उपलब्ध हो, इसे
गड्ढ़े में सड़ाकर गोबर की सड़ी खाद के स्थान पर समान मात्रा में उपयोग किया जा
सकता है. उपरोक्त खादें उपलब्ध न होने पर हरी खाद का उपयोग करना चाहिए, जिसके
लिए बरसीम, मटर, लोबिया, सोयाबीन, मूंग और सनई आदि फसलें उपयुक्त हैं.इस केन्द्र में आम के बाग में हरी खाद के रूप में विभिन्न फसलों को लेने से ज्ञात हुआ कि
मटर से ३८.४८ कि. ग्रा., बरसीम से ३१.९६ कि. ग्रा., सोयाबीन से २५.३९ कि. ग्रा.
और लोबिया से ३०.१६ कि. ग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टर भूमी को प्राप्त होती है.
इसके अतिरिक्त इन फसलों की जड़ों की गांठों में वायुमंडल से नाइट्रोजन इकट्ठा
करने वाले जीवाणुओं द्वारा कुछ और नाइट्रोजन भूमि को प्राप्त हो जाती है.
युद्ध में इलेक्ट्रानिक्स का उपयोग
[] सामरिक हथियारों में वृद्धि के साथ-साथ युद्ध में इलेक्ट्रानिक संयंत्रों की
उपयोगिता एवं महत्व भी बढ़ता जा रहा है. इलेक्ट्रानिक संयंत्रों का उपयोग संचार
व्यवस्था, अपने अस्त्र-~शस्त्रों की क्षमता बढ़ाने, शत्रु की गतिविधियों पर
नज़र रखने तथा शत्रु के अस्त्र-शस्त्रों की क्षमता को कम करने के लिए किया
जाता है. इलेक्ट्रानिक युद्ध उपकरणों का पहले पहल उपयोग द्वितीय विश्व युद्ध
में अमेरिका एवं ब्रिटेन द्वारा सफलतापूर्वक किया गया. इलेक्ट्रानिक युद्ध
संयंत्रों को तीन भागों में बांटा जा सकता है. (१) इलेक्ट्रानिक सहायक उपाय
(सपोर्ट मेजर); (२) इलेक्ट्रानिक प्रतिकार उपाय (काउंटर मेजर); (३)
इलेक्ट्रानिक प्रतिकार के विरुद्ध उपाय (काउंटर काउंटर मेजर).
इलेक्ट्रानिक सहायक उपाय
युद्ध एवं शांति के समय इलेक्ट्रानिक संचार उपकरणों का उपयोग सेना द्वारा अपनी
कार्यवाही को समन्वित रूप से चलाने, सूचना के आदान-प्रदान, राडार द्वारा अपने
एवं शत्रु के विमानों तथा मिसाइलों की स्थिति जानने एवं गति की पूर्व चेतावनी
देने, मिसाइल दिशा निर्देशन एवं शत्रु के संचार तंत्र को सुनने आदि कार्यों के
लिए किया जाता है. ये सहायता कार्य ही इलेक्ट्रानिक सहायक
उपाय कहलाते हैं.
सेना द्वारा संचार व्यवस्था के लिए उच्च आवृत्ति से लेकर सूक्ष्मतरंग
(माइक्रोवेव) तक, विद्युत-चुम्बकीय तरंगों का उपयोग किया जाता है. अत्यंत उच्च
आवृत्ति एवं परा उच्च आवृत्ति का उपयोग कम दूरी की संचार व्यवस्था के लिए किया
जाता है. अधिक दूरी के लिए अधिक शक्तिशाली मीटर तरंग ट्रांसमिटरों का उपयोग
किया जाता है. सेना द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले रेडियो रिसीवर बहुत ही
सूक्ष्मग्राही एवं सभी प्रकार के वातावरण में काम करने वाले होते हैं.
अपने एवं शत्रु के सभी ट्रांसमिटरों की क्षमता, दिशा, संचार यातायात, शत्रु के
अस्त्र-शस्त्रों से होने वाली हानि की विवेचना, इन सभी सूचनाओं को युद्ध के समय
के लिए एकत्रित कर कंप्यूटर में रखा जाता है. विद्युत-चुम्बकीय तरंगों के
स्पेक्ट्रम की विवेचना कर, दिशा खोजक यंत्रों तथा जटिल गणनाओं द्वारा शत्रु के
ट्रांसमिटर का पता लगाया जाता है.
युद्ध और शांति के समय एकत्रित की गई सूचना के आधार पर ट्रांसमिटर की आवृत्ति,
क्षमता एवं शत्रु सेना की स्थिति के अनुसार अपने सभी इलेक्ट्रानिक संचार एवं
राडार संयंत्रों का समुचित ढंग से उपयोग किया जाता है.
सभी पूर्व सूचनाओं एवं भौगोलिक स्थिति के आधार पर शत्रु के इलेक्ट्रानिक संचार
एवं राडार रक्षा व्यवस्था को तहस नहस कर देने का उचित समय पर निर्णय
लिया जाता है.
राडार द्वारा अपने एवं शत्रु के विमानों की स्थिति की पूर्व सूचना के साथ शत्रु
के मोर्टार, गाड़ियों आदि की स्थिति की भी जानकारी प्राप्त की जाती है. राडार
द्वारा ही शत्रु के लड़ाकू विमानों की स्थिति व गति की पूर्व सूचना एवं संचालन
से तोपखाने व मिसाइलों की मारक क्षमता बढ़ जाती है. राडार द्वारा ही शत्रु के
लड़ाकू विमानों को धोखा देने वाले अपने इलेक्ट्रानिक प्रतिकार उपाय तथा शत्रु
विमान के इलेक्ट्रानिक प्रतिकार उपाय से बचने के लिए इलेक्ट्रानिक प्रतिकार
विरुद्ध उपाय के लिए संयंत्र भी प्रारंभ किए जाते हैं.
आवाक्स
वायुयान पर लगे राडार का इलेक्ट्रानिक युद्ध पद्धति में महत्वपूर्ण स्थान है.
अमेरिका द्वारा विकसित विमान 'आवाक्स' (एयर बोर्न वार्निग एंड कंट्रोल
सिस्टम) तथा ब्रिटेन द्वारा विकसित विमान निमोर्ड कहलाते हैं. आवाक्स बोइंग
विमान में बनाए गए हैं. इस विमान के ऊपर एक डोम बनाकर एक घूमता हुआ राडार लगाया
गया है. आवाक्स मित्र एवं शत्रु के विमान की दूर से पहचान कर, खतरे की पूर्व
सूचना दे सकता है. अपने लड़ाकू विमानों को शत्रु के विमानों की स्थिति की पूर्व
सूचना देकर शत्रु के विमान को नष्ट कर सकता है या अपने को शत्रु के विमान से
बचा सकता है. आवाक्स जल; थल एवं नभ में छ: सौ लक्ष्यों पर एक साथ नजर रख सकता
है. भूमि पर स्थित राडार की अपेक्षा वायुयान पर स्थित राडार (आवाक्स) द्वारा
अधिक दूरी तक उड़ने वाले वायुयानों का पता लगाया जा सकता है जिनकी पूर्व-सूचना
भूमि पर स्थित राडार नहीं दे सकते. आवाक्स का उपयोग शांति की सूचना एकत्रित
करना भी है. इस पूर्व-सूचना का उपयोग शत्रु की संचार व्यवस्था एवं राडार को कभी
भी नाकाम बनाने के लिए किया जाता है. आवाक्स में शत्रु के इलेक्ट्रानिक
संयंत्रों को धोका देने के लिए इलेक्ट्रानिक प्रतिकारक एवं अपने संयंत्रों को
शत्रु के इलेक्ट्रानिक प्रतिकारक उपायों से बचाने के लिए भी
संयंत्र लगे होते हैं.
इलेक्ट्रानिक प्रतिकारक उपाय
शत्रु अपने इलेक्ट्रानिक संयंत्रों का समुचित उपयोग न कर सके या शत्रु
की इलेक्ट्रानिक संचार व राडार व्यवस्था तथा अस्त्र-शस्त्रों की उपयोगिता कम कर
दी जाए यही इलेक्ट्रानिक प्रतिकार उपायों का उद्देश्य होता है.
इलेक्ट्रानिक प्रतिकार उपायों के चार प्रमुख तरीके हैं: पहला शत्रु के
इलेक्ट्रानिक संयंत्रों को नाकाम बना देना जिससे शत्रु की संचार व्यवस्था,
राडार आदि सभी की क्षमता में भारी कमी आ जाए. दूसरा, शत्रु आपकी संचार प्रणाली
को भेद न पाए और न ही समझ पाए. तीसरा, शत्रु के सुनने एवं जासूसी करने वाले
इलेक्ट्रानिक संयंत्रों को बिना मतलब उलझाए रखा जाए. चौथा, शत्रु को धोखा देने
वाले प्रसारण करते रहना संभव हो, जिससे शत्रु उचित निर्णय न ले सके.
इलेक्ट्रानिक प्रतिकारक उपायों में शत्रु के राडार एवं संचार व्यवस्था के
ट्रांसमिटरों को जाम कर देते हैं. इसमें शत्रु संचार ट्रांसमिटर एवं राडार जिस
आवृत्ति तथा माडुलन पर प्रसारित कर रहा है, उसी आवृत्ति तथा माडुलन पर अनावश्यक
शोर का प्रसारण किया जाता है जिससे शत्रु अपने ही प्रसारण को सुन व समझ नहीं
पाता या राडार के पर्दे पर कई काल्पनिक विमान भी दिखाई देते हैं. शत्रु के
मिसाइल दिशा निर्देशक राडार पर प्रतिकारक उपाय के उपयोग से मिसाइल दिशाभ्रष्ट
हो जाते हैं. हवा में छोटे-छोटे एलुमिनियम कणों को, जिन्हें चेक भी कहते हैं,
छिटका कर भी शत्रु के राडार को धोखा दिया जाता है. शत्रु के राडार विमान एवं
मिसाइल की स्थिति का सही पता नहीं लगा पाते.
शत्रु के प्रसारण को सुन कर प्रसारण के महत्व, क्षमता, शक्ति, शत्रु द्वारा
उपयोग में लाए जाने वाले अस्त्र-शस्त्रों तथा उनसे होने वाली हानि की विवेचना
कर एवं भौगोलिक स्थिति को देखते हुए प्रतिकारक उपाय के संयंत्रों को चालू किया
जाता है. इन सभी उपकरणों का संचालन एक शक्तिशाली कंप्यूटर से करते
हैं.इलेक्ट्रानिक प्रतिकारक उपायों के सही उपयोग से शत्रु की संचार एवं राडार
रक्षा व्यवस्था तथा मिसाइल दिशा निर्देशन प्रणाली को छिन्न-भिन्न कर दिया जाता
है जिससे शत्रु द्वारा कम से कम हानि पहुंचाने की संभावना होती है और शत्रु को
अधिकाधिक हानि पहुंचाई जाती है.
इलेक्ट्रानिक प्रतिकारक प्रतिकार उपाय
आपके इलेक्ट्रानिक संयंत्रों एवं अस्त्र-शस्त्रों की प्रहार क्षमता
को कम करने के लिए शत्रु भी इलेक्ट्रानिक प्रतिकारक उपायों का सहारा लेता है.
इलेक्ट्रानिक संयंत्रों तथा अस्त्र-शस्त्रों की क्षमता बनाए रखने के लिए
इलेक्ट्रानिक प्रतिकारक प्रतिकार उपाय का उपयोग किया जाता है.
शत्रु के प्रतिकारक उपायों से अपने संयंत्रों को बचाने के लिए एक अत्यंत जटिल
एन्टिना समुह का उपयोग किया जाता है. जिससे प्रसारण केवल एक निश्चित दिशा की और
ही हो तथा शत्रु इस प्रसारण को न सुन सके न ही इसमें कोई हस्तक्षेप कर सके.
शत्रु द्वारा उत्पन्न अनावश्यक शोर को उन्नत अंकीय संकेत संसाधन द्वारा दूर
किया जाता है. गुप्त भाषा या डेल्टा माडुलन का उपयोग करने से शत्रु प्रसारण को
सुनकर भी समझ नहीं पाता.
संचार ट्रांसमिटर एवं राडार की आवृत्ति को जल्दी-जल्दी बदला जाता है. शत्रु को
बदलती हुई आवृत्ति पर प्रतिकारक उपाय करने में काफी कठिनाई होती है. राडार को
धोखा देने वाले छोटे-छोटे धातु के कणों के प्रभाव को कम करने के लिए एम.टी.ई.
राडार और अंकीय छन्ना एवं संसाधन तकनीक का उपयोग किया जाता है. आवृत्ति बैड के
काफी बड़े होने के कारण उपग्रह संचार व्यवस्था पर अभी तक प्रतिकारक उपायों का
प्रभाव काफी कम हो पाता है इसलिए सैनिक संचार व्यवस्था के लिए उपग्रह संचार
व्यवस्था को उत्तम माना जाता है, इलेक्ट्रानिक संयंत्रों का कम से कम उपयोग
किया जाता है जिससे शत्रु इनके बारे में कम से कम पूर्व सूचना एकत्रित कर पाए.
युद्ध में संचार उपकरणों, राडार एवं अस्त्र-शस्त्र की उपयोगिता बढ़ाने तथा
शत्रु उपकरणों एवं अस्त्र-शस्त्रों की उपयोगिता को कम करने के लिए अत्यंत उच्च
एवं उन्नत तकनीक का उपयोग किया जाता है. इसके लिए शक्तिशाली कंप्यूटर, अंकीय
संकेत संसाधन, फिल्टरन तकनीक, उन्नत माइक्रोवेव उपकरणों की आवश्यकता होती है.
वास्तव में युद्ध वह खेल का मैदान है जहां केवल प्रथम आने वाले को ही ट्राफी दी
जाती है, दूसरे नम्बर पर आने वाले के लिए कोई ट्राफी नहीं होती. (प्रस्तुति:
शिवाजी चौधरी) [ ]
मृत्यु से जुझते शिशुओं के लिए प्लास्टिक के सुरक्षित कक्ष
[ ] सन् १९८९ का दिसंबर महीना आनुवंशिक रोगों की चिकित्सा से जुड़े लोगों के
बीच सदैव याद किया जाएगा. इसी महीने फ्रांस के ल्यॉन नगर में जन्म के समय से ही
हर प्रकार के रोगाणुओं से पूरी तरह मुक्त और सुरक्षित प्लास्टिक के कक्ष में
लगातार १६ महीने तक रहने के बाद एक शिशु ने बाहर की खुली हवा में सांस ली.
यह शिशु अपनी मां के गर्भ में आने के समय से ही एक दुर्लभ किस्म की रोग प्रति
रोधक बीमारी 'सीवियर कंबाइंड इम्यूनोडेफिशिएन्सी' से ग्रस्त था. अर्थात इस
बच्चे में प्रारंभ से ही रोगों से लड़ने की प्राकृतिक शक्ति का पूरी तरह अभाव
था. इस बात का पता लगते ही गर्भ में ही उसके शरीर में स्वस्थ अस्थिमज्जा
कोशिकाओं का प्रत्यारोपण किया गया था. प्रत्यारोपण की सफलता सुनिश्चित करने के
लिए उसे रोगाणुओं से पूरी तरह सुरक्षित प्लास्टिक के एक कक्ष में रखा गया था.
लगातार १६ महीने तक इस कक्ष में रहने के दौरान अनेक परीक्षणों से यह सुनिश्चित
हो जाने पर कि सफल प्रत्यारोपण के बाद शिशु के शरीर में रोगों से लड़ने की
प्राकृतिक शक्ति पैदा हो गई है, उसे खुली हवा में सांस लेने की अनुमति दी गई
थी.
इस रोग को 'सीवियर कंबाइंड इम्यूनोडेफिशिएंसी' कहते हैं. यह एक प्रकार की
आनुवंशिक बीमारी है जिसमें शरीर किसी भी रोग का सामना करने में पूरी तरह अक्षम
रहता है. इसी कारण मामूली से मामूली रोग का रोगाणु भी शरीर पर आक्रमण करके जान
लेने के लिए काफी होता है.
हमें पता है कि हमारा शरीर असंख्य अत्यन्त सूक्ष्म रचनाओं से मिलकर बना होता है
जिन्हें कोशिका अथवा 'सेल' कहते हैं. प्रत्येक कोशिका के केंद्र भाग अथवा
केंद्रक की रचना क्रोमोसोम अर्थात गुणसूत्रों के रूप डी.एन.ए. (डी-आक्सी
राइबोन्यूक्लिक एसिड) अणुओं से होती है. कोशिका के केंद्रक में गुणसूत्र हमेशा
जोड़ों में होते हैं और भिन्न जीवों में इनकी संख्या भिन्न-~भिन्न परंतु एक ही
जीव की सभी कोशिकाओं में इनकी संख्या समान होती है.
मनुष्य की प्रत्येक कोशिका में २३ जोड़े गुणसूत्र होते है. प्रत्येक डी.एन.ए.
अणु अनेक और भी सूक्ष्म परंतु बहुत ही महत्वपूर्ण रचनाओं से मिलकर बना होता है
जिन्हें 'जीन' कहते हैं. शरीर के भीतर तलने वाली समस्त छोटी बड़ी शारीरिक
क्रियाओं पर नियंत्रण रखने तथा कोशिका वृद्धि से लेकर जीव के गुणों को पीढ़ी दर
पीढ़ी ढोने तक के समस्त कामों की जिम्मे-~दारी जीनों पर ही होती है. किसी जीन
की अनुपस्थिति अथवा उसकी संरचना में कोई कमी या गड़बड़ी उसके द्वारा नियंत्रित
कार्य को अनियंत्रित अथवा अव्यवस्थित कर देती है.
शरीर के हर कार्य की तरह शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली भी जीन द्वारा नियंत्रित
होती है. अभी हाल ही में अमेरिका से प्रकाशित एक शोध पत्रिका 'सेल' में
प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार अमेरिका में कैम्ब्रिज स्थित मैसाचुसेट्स
प्रौद्योगिकी संस्थान के 'ह्राइटहेड बायोमेडिकल रिसर्च इंस्टी-~ट्यूट' के तीन
वैज्ञानिकों डा. डेविड जी. शाज, डा. मारजोरी ए.ओएटिंगर तथा डा. डेविड बाल्टीमोर
ने एक ऐसे जीन की खोज की है जिसके बारे में विश्वास किया जाता है कि
यह मनुष्य के शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण
है.संभवत: यह जीन एक ऐसे आनुवंशिक स्विच का काम करती है जिसके 'आन' होते ही
शरीर की प्रतिरक्षा के लिए आवश्यक प्रतिपिण्डों का निर्माण करने की प्रक्रिया
चालू हो जाती है.
सामान्य अवस्था में शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली शरीर में अनेक प्रकार के
प्रतिपिण्ड़ों अर्थात एण्टीबाडी का निर्माण करती है. प्रतिपिण्ड एक प्रकार के
प्रोटीन होते हैं जो शरीर पर हमला करने वाले रोगाणुओं के विरुद्ध विशिष्ट
हथियारों का काम करके उन्हें शरीर से मार भगाते हैं. यह आक्रमणकारी प्राकृतिक
भी हो सकते हैं और कृत्रिम भी विभिन्न प्रकार के प्रतिपिण्ड़ों का निर्माण
अलग-अलग तरह के जीन तथा उनके संयोजन से नियंत्रित होता है जो एक जटिल
आनुवंशिक प्रक्रिया है. वैज्ञानिकों के अनुसार जिस नई जीन की खोज हुई है वह या
तो भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रतिपिण्ड़ों के निर्माण के लिए अलग-अलग प्रकार की
जीनों के एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने और उनके आपस में संयोजन की प्रक्रिया
को नियंत्रित करती है अथवा वह विभिन्न जीनों को सक्रिय करने का कार्य करती है.
ब्रिटेन से प्रकाशित होने वाले विश्व की सर्वाधिक सम्माननीय शोध पत्रिका 'नेचर'
में हाल ही में छपे एक शोध-पत्र के अनुसार जापान के क्योटो विश्वविद्यालय में
डा. तासुको होंजो के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक दल ने एक ऐसी ही जीन की खोज
की है. इस जीन की खोज के बाद अब वैज्ञानिक उन रोगियों में जिनमें शरीर की
प्रतिरक्षा प्रणाली का अभाव है यह परीक्षण कर रहे हैं कि क्या वास्तव में इस
जीन का अभाव ही उनमें प्रतिरक्षा प्रणाली के अभाव के लिए उत्तर-~दाई है.
लेकिन कुछ भी हो, जब तक इस रोग के कारण और उन्हें दूर करने के उपाय पूरी तरह और
निश्चित तौर पर खोज नहीं लिए जाते तब तक इस रोग से प्रभावित शिशुओं को हर
प्रकार के रोगाणुओं से पूरी तरह सुरक्षित प्लास्टिक के कक्ष में रहने और सफल
अस्थि मज्जा कोशिकाओं के प्रत्यारोपण की प्रतीक्षा करते रहने के लिए बाध्य रहना
पड़ेगा.
अभी तक प्लास्टिक के कृत्रिम कक्ष में सबसे अधिक समय तक रहने का रिकार्ड
सिजेरियन आपरेशन से २१ सितंबर १९७१ को जन्में डेविड नामक एक शिशु का है. डेविड
की मृत्यु फरवरी १९८४ में हुई थी. लेकिन वह जितने दिन जीवित रहा उसे रोगाणुओं
से पूरी तरह सुरक्षित गोल बुलबुले के आकार के प्लास्टिक के कक्ष में ही रहना
पड़ा. उसे हर प्रकार के रोगाणुओं से बचा कर रखा गया था. गंभीर रोग के बाबजूद वह
जिन्दगी से पूरी तरह जुड़ा था. उसके लिए रोगाणुओं से मुक्त खिलौनों, कपड़ों और
भोजन का प्रबंध किया गया था. उसके घूमने फिरने के लिए उसके पिता की स्टेशन वैगन
में रोगाणुओं से पूरी तरह सुरक्षित एक प्लास्टिक कक्ष की भी व्यवस्था की गई थी.
और तो और, कई द्विपथ टेलीविजन के माध्यम से उसकी शिक्षा का भी प्रबंध किया गया
था. उसे अपने पूरे जीवन काल में सन् १९७८ में केवल कुछ समय के लिए अपने कक्ष से
बाहर निकल कर रहने का अवसर उस समय प्राप्त हुआ था जब अमेरिकी अंतरिक्ष केंद्र
नासा के वैज्ञानिकों ने उसके लिए हर प्रकार के रोगाणुओं से पूरी तरह सुरक्षित
एक पोशाक तैयार करके दी थी. पोशाक छोटी पड़ जाने के कारण डेविड को कुछ ही समय
बाद फिर अपने कक्ष मे वापस जाना पड़ा.
अक्टूबर १९८३ में डेविड को उसकी बहन कैथरीन की अस्थिमज्जा कोशिकाओं का
प्रत्यारोपण किया गया था परंतु प्रत्यारोपण असफल रहा और अन्तत: फरवरी १९८४ में
चिकित्सकों के हर संभव प्रयासों के बावजूद डेविड को बचाया न जा सका.
इस रोग में चिकित्सा की दृष्टि से फिलहाल अस्थिमज्जा कोशिकाओं का प्रत्यारोपण
ही रोगी को जीवन दान देने का एक मात्र उपाय है. हमारे शरीर में अस्थिमज्जा ही
वह स्थान है जहां हर प्रकार की रक्त कोशिकाओं का निर्माण होता है. शरीर को
रोगों और रोगाणुओं से लड़ने के लिए प्रतिपिण्ड तैयार करने वाली विशेष प्रकार की
श्वेत: रक्त कोशिकाएं भी इनमें हैं. इन कोशिकाओं की आयु सीमित होती है. शरीर के
विभिन्न अंगों में इनकी लगातार मृत्यु होती रहती है और अस्थिमज्जा में तैयार हो
रही नई कोशिकाएं इनका स्थान लेती रहती हैं.
अस्थिमज्जा में इन कोशिकाओं का न बनना ही 'सीवियर कंबाइड इम्यूनो-~डेफिशिएंसी'
रोग का कारण होता है. इनके हनने के लिए जिम्मेदार जीन को बदलने अथवा ठीक करने
अथवा नई जीन डालने (जो अभी तक संभव नहीं हो पाया है) के अतिरिक्त केवल स्वस्थ
अस्थिमज्जा कोशिकाओं का प्रत्यारोपण ही फिलहाल रोग का संभव उप-~चार है.
अस्थिमज्जा प्रत्यारोपण में स्वस्थ व्यक्ति से अस्थिमज्जा कोशिकाएं प्राप्त
करके उन्हें रोगी के रक्त में पहुंचा दिया जाता है. रक्त से ये कोशिकाएँ अस्थि
गुहाओं में पहुंच जाती है. सफल प्रत्यारोपण में अस्थि गुहाओं में इन कोशिकाओं
में वृद्धि होती है, विभाजन होता है और ये फिर से शरीर को रोगों का सामना करने
में सक्षम बना देती हैं लेकिन अस्थिमज्जा कोशिकाओं का आदर्शदाता वह होता है
जिसकी और रोगी की मज्जा कोशिकाओं में पूरी तरह समानता हो ताकि रोगी का शरीर
दाता की कोशिकाओं को अस्वीकार न कर दे (प्रस्तुति : डाओ विजयकुमार श्रीवास्तव)
इस पपड़ी के नीचे दूसरी तरह की चट्टान की मोटी तह है जिसे पृथ्वी का चट्टानी
खोल कहते हैं. इस खोल की चट्टान ठोस है. लेकिन यह भी उसी तरह ठोस है जिस तरह
गेंद की तागे की पपेट ठोस होती है. दबाब पड़ने पर यह कुछ दब सकती है और अपनी
शक्ल बदल सकती है. चट्टानी खोल १,८०० मील की गहराई तक है.
चट्टानी खोल के नीचे पृथ्वी का केन्द्र (कोर) है. गेंद के केन्द्र से कुछ भिन्न
रूप में पृथ्वी का केन्द्र दो भागों में बना है : एक ऊपरी केन्द्र और दूसरा
भीतरी केन्द्र.
पृथ्वी के केन्द्र के ये दोनों भाग धातु से बने हैं- अधिकांश लोहा है, जिसमें
कुछ निकल मिला हुआ है. लेकिन ऊपर केन्द्र तरल है और भीतरी ठोस है.
केन्द्र के बीच का तापमान लगभग ८,००० डिग्री सेंटीग्रेड है, जो सूर्य की सतह के
तापमान के लगभग बराबर है.
पृथ्वी की सतह से उसके केन्द्र की कुल दूरी औसतन लगभग ३९६० मील है.
हम पृथ्वी के भीतर भाग के बारे में कैसे जानते हैं.
आज तक कोई भी वैज्ञानिक यंत्र पृथ्वी में दो या तीन मील से ज्यादा गहरा नहीं जा
सका है. फिर, हम यह कैसे जान पाते हैं कि पृथ्वी का भीतरी भाग कैसा है ? इसका
जवाब है : भूकम्प की गतिविधि से .
प्रतिवर्ष संसार के विभिन्न भागों में हजारों भूकम्प आते हैं. इनमें से केवल कुछ भूकम्प ही ऐसे होते हैं जो तीब्र होते है और जिनसे हमें नुकसान पहुंचता है. अब
तक इतिहास में कई ऐसे भूकम्प आ चुके हैं जो बड़े भयानक सिद्द हुए हैं. सोवियत
रूस के अर्मीनिया प्रान्त में १९८९ के आरंभ में भयंकर तूफान आया, जिसमें ५०-६०
हजार लोग मारे गए और पूरा नगर तथा कई गांव पूरी तरह नष्ट हो गए. लेकिन अधिकांश
भूकम्प हल्के होते हैं और इनसे कोई नुकसान नहीं होता. कई बार तो हमें इन
भूकम्पों का पता केवल समाचार पत्र से चलता है. परन्तु प्रत्येक भूकम्प से, चाहे वह तेज हो या हल्का, आघात तरंगें उत्पन्न होती हैं जो सारी पृथ्वी के सबसे गहरे भागों में भी फैल जाती है.
भूकम्पकी ये तरंगें मूल रूप से दो तरह की होती है: प्राथमिक तरंगें और गौँण
तरंगें. प्राथमिक तरंगें गौण तरंगों से ज्यादा तेज चलती हैं. प्राथमिक तरंगें
तरल पदार्थों में भी पार हो जाती हैं. प्राथमिक और गौण दोनों प्रकार की
तरंगों की गति का अन्तर इस पर निर्भर होता है कि वे पृथ्वी की कितनी गह-~राई
में चली गई हैं. दोनों प्रकार की तरंगें एक ही प्रकार की चट्टानों के बीच में से गुजरते समय अलग-अलग ढंग से व्यवहार करती हैं.
जब ये तरंगें वापस सतह पर लौटती हैं, तो उन्हें भूकम्पलेखी या साइज्मोग्राफ नाम के एक नाजुक-~यंत्र पर दर्ज किया जाता है. प्राथमिक और गौण तरगों की गति और
उसके व्यवहार के अध्ययन से वैज्ञानिक लोग इसका पता लगा लेते हैं कि पृथ्वी का
भीतरी भाग कैसा बना है- अर्थात् वे यह देखते हैं कि तरंगें अपने
उत्पत्ति-केन्द्र से कितनी दूरी तक चली है, वे गहराइयां कितनी हैं जहां से
तरंगें टकराकर लौटी हैं और मुड़ी हैं, तथा वह समय कितना है जिसमें
उन्होंने अपनी यह यात्रा समाप्त की है.
कुतुबनुमा की सूई उत्तर की ओर संकेत करती है
इस तथ्य का पता एक हजार साल से भी ज्यादा पहले लग चूका था कि पृथ्वी एक
विशाल चुम्बक है. लेकिन चुम्बक के महत्त्व और उपयोग को लोग बहुत वर्षों तक नहीं समझ पाए. लोगों इतना मालूम था कि अगर किसी सूई को चुम्बक पत्थर (एक प्रकार
का खनिज जो प्राकृतिक चुम्बक होता है) से रगड़ा जाए तो सूई हमेशा उत्तर की ओर
संकेत करेगी. लेकिन इसका मतलब उन्होंने यह रखा था कि सूई ध्रुव तारे से आकर्षित
होती हैं. अब हम यह जानते हैं कि सूई उत्तरी चुम्बकीय ध्रुव से आकर्षित होती है. इसलिए कुतुबनुमा की सूई हमेशा उत्तर की ओर संकेत करती है.
अब हमें यह भी मालूम हो गया है कि चुम्बकीय ध्रुव वास्तविक, या भौगोलिक, ध्रुव
से कम से कम एक हजार मील दूर है. लेकिन ये दोनों ध्रुव हमेशा एक-सी दूरी पर ही
रहते हैं.
चुम्बकीय क्षेत्र कैसे बनता है.
पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति के बारे में अब भी ऐसी बहुत-सी बातें हैं कि वैज्ञानिक नहीं जान पाए हैं. फिर भी आमतौर से यह बात मान ली गई है कि चुम्बकीय क्षेत्र उन
विद्युत धाराओं या तरंगों से बना है जो पृथ्वी की तरल केन्द्र में गहराई पर
स्थिति हैं. ये धाराएं तब उत्पन्न होती हैं जब ऐसी धातुएं जिनके तापमान तथा
विद्युतीय गुणधर्म भिन्न होते हैं, आपस में मिलती हैं. इसका मतलब यह है कि
पृथ्वी का भीतरी भाग एक विशाल प्राकृतिक जनरेटर या विद्यु उत्पादक यंत्र है
जो एक यांत्रिक ऊर्जा (पृथ्वी का घूर्णन या घुमाव और तरल केन्द्र की हरकत) को
निरन्तर विद्युत ऊर्जा में बदल रहा है. और इसके अलावा हम यह भी जानते हैं कि सभी चुम्बकीय क्षेत्र विद्यु धाराओं के कारण बनते हैं तथा सभी विद्युत् धाराएं
चुम्बकीय क्षेत्रों से घिरी हुई होती हैं.
आप अपने लिए कुतुबनुमा कैसे बना सकते हैं
आप चाहें तो अपने लिए कि एक कुतुबनुमा बना सकते हैं. एक मामूली सूई लीजिए. बाजार से एक साधारण चुम्बक लाकर उससे सूई को एक ही दिशा में कई बार रगड़िए. अब किसी
बोतल के कार्क में से एक पतला-सा टुकड़ा काट लीजिए और उसे पानी से भरी हुई शीशे
की एक तश्तरी में छोड़ दीजिए. कार्क के इस टुकड़े पर सुई रख दीजिए. कार्क का
टुकड़ा अपने आप उस समय तक घूमता जाएगा जब तक सूई उत्तर और दक्षिण की ओर संकेत
नहीं करने लगेगी.
क्या पृथ्वी के ध्रुवों ने कभी अपनी स्थिति बदली है.
भूवैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि पृथ्वी के वे कुछ भाग जहां आजकल गरम मौसम रहता है, कभी हिमनदों को की बर्फ की तहों के नीचे दबे पड़े थे. इस बात का पता
उन्होंने संसार के विभिन्न भागों में मिली प्राचीन चट्टानों के अध्ययन से तथा
पथराए हुए (फॉसिल) जानवरों और पेड़-पौधों की जांच -~पड़ताल के आधार पर लगाया है. उन्होंने यह भी पता लगाया है कि उन प्रदेशों में जो अब आर्कटिक(उत्तरी ध्रुव
क्षेत्र) कहलाते हैं, कभी काफी गरम मौसम रहा है. वैज्ञानिकों की इस जांच से पता
चलता है कि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों ने पृथ्वी के जीवन में बराबर अपनी जगह
बदली है, तथा उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के हिमावरणों ने भी उनके साथ ही अपनी
जगह बदली है.
वैज्ञानिक लोग अब विभिन्न प्रकार की अनेक चट्टानों का बहुत हल्का चुम्बकत्व भी
नाप सकते हैं. इस हल्के चुम्बकत्व का कुछ अंश उस मूल चुम्बकत्व का बचा हुआ भाग
है जो चट्टानों को उस समय प्राप्त हुआ था जब वे लाखों साल पूर्व पहली बार बनी
थीं. चूंकि यह मूल चुम्बकत्व उन दिशाओं की ओर संकेत नहीं करता जहां इस समय ध्रुव प्रदेश है, इस लिए हम यह अनुमान कर सकते हैं कि चट्टानों के बनने के बाद ध्रुवों की स्थितियां बदली हैं.
पांच अरब साल पहले उत्तरी ध्रुव पूर्वी प्रशान्त महासागर में भूमध्यरेखा के पास
था. इसी प्रकार सत्रह करोड़ साल पहले यह साइबेरिया प्रदेश में स्थित था. यह उस
युग के आरम्भ के दिनों की बात है जब पृथ्वी पर डाइनोसार या भीमसरट नामक विशालकाय प्राणी घूमा करते थे.
इस प्रकार चूंकि भूतकाल में ध्रुव प्रदेश अपनी जगहें बदलते रहे हैं, इसलिए यह
विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि वे भविष्य में भी अपनी स्थितियां बदलते
रहेंगे. हो सकता है कि आज से लाखों साल बाद उत्तरी ध्रुव का बर्फीला इलाका भारत
या अमरीका या अफ्रीका के मध्य में हो जाए, और उत्तरी ध्रुव प्रदेश की जलवायु
गरम हो जाए.
पृथ्वी में उलट-फेर
भूकम्प क्यों आते हैं
अधिकांश समय पृथ्वी की सतह दृढ और स्थिर रहती है. लेकिन कभी-कभी जमीन हिल उठती
है और कांपने लगती है, जिसमें पहाड़ों पर वे बड़ी-ब़्अड़ी चट्टानें टूटकर गिर जाती हैं. जमीन में दरारें प़्अड़ जाती है और नगरों में इमारतें टूट-फूटकर नष्ट हो जाती है.
हमें मालूम है कि पृथ्वी ऊपरी पतली पपड़ी विभिन्न प्रकार की चट्टानों की
ऊंची-नीची तहों से बनी है. इन चट्टानों पर बराबर दवाब पड़ता रहता है. यह दवाब
उनके ऊपर वाली चट्टानी तहों का ही नहीं होता, बल्कि पृथ्वी के अन्दर भी कुछ
शक्तियां चट्टानों पर दवाब डालती रहती है. ये दवाब चट्टानों को तोड़-मरोड़ डालते हैं और इस तरह उनकी शक्ल बदल देते हैं.
यदि ये दवाब बहुत भारी हुए तो चट्टानी तहें अचानक टूट जाती हैं- ठीक उसीतरह जिस
तरह यदि आप किसी को मोड़ें तो पहले तो वह मुड़ती चली जाएगी, किन्तु फिर अचानक
टूटकर दो टुकड़े हो जाएगी.
जब ऐसा होता है तो चट्टानें छड़ी की तरह टूटकर अलग हो जाती हैं और टूटे हुए सिरे बडे जोर से ऊपर की ओर उभरते हैं. चट्टानों के इस तरह अचानक ऊपर की ओर उभरने से
पृथ्वी की पपड़ी को जोर का धक्का लगता है और वह हिल उठती है. पृथ्वी के इस
प्रकार हिलने को 'भूकम्प' अथवा भूचाल कहते हैं.
पहाड़ कैसे बने
यदि हम हिमालय पर्वतमाला या ऐसी ही किसी पर्वतमाला को ऊपर से नीचे की ओर दो
फांकों में चीर दें तो हम देखेंगे कि चट्टानों की परतें टूटी हुई, मुड़ी हुई,और सिकुड़ी हुई हैं. हम यह भी देखेंगे कि ऐसी कई चट्टानी परतें जो इस समय समुद्रतल
से हजारों फुट ऊपर उठी हुई हैं, कभी समुद्र की तलहटी में बनी थीं. इस बात का
हमें इससे पता चलता है कि कभी-कभी समुद्री जीव-जन्तुओं के कुछ पथराए हुए अवशेष
पहाड़ों की सबसे ऊंची चोटियों की चट्टानों में दबे हुए मिल जाते हैं.
इन सब तथ्यों के आधार पर हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि पहाड़ समुद्र की प्राचीन तलहटी की चट्टानों से बनें हैं-और पृथ्वी के भीतर की महाप्रबल शक्तियों ने इन
चट्टानों तोड़-मरोड़कर और दबाकर वर्तमान ऊंचाईयों तक उठा दिया है.
जब इस तरह पर्वतमालाएं धीरे-धीरे ऊपर उठ-~कर समुद्र के बाहर आई तो अन्य शक्तियों ने भी अपना काम शुरू कर दिया. तेज बहने वाली धाराओं और धीमी रफ्तार सरकने वाली
हिमनदों ने पहाड़ों के खिसकने अथवा कटकर गिरने की ऊंची जगहों की चीजें नीची
जगहों पर गिरने लगीं. जैसे ही पहाड़ समुद्र से ऊपर आए कि भूक्षरण ने उनको नष्ट
करना शुरू कर दिया.
भूवैज्ञानिकों का कहना है कि इस प्रकार पृथ्वी का धरातल बराबर बदलता ही जा रहा
है. वे यह भी कहते हैं कि पृथ्वी की पपड़ी समुद्र की लहरों की तह निरन्तर गतिशील रहती हैं. अन्तर यह है कि समुद्र की लहरें क्षण-भर में ऊंची उठती हैं और
क्षण-~भर में ही गिरकर ही बराबर हो जाती हैं, जबकि पृथ्वी की सतह की 'लहरों' का
उठना और फिर गिरकर बराबर हो जाना करोड़ों वर्षों की लम्बी अवधि से नापा जाता है.
महाद्वीपों के प्रमुख पर्वत
एशिया ऊंचाई फुट
एवरेस्ट (हिमालय, नेपाल, तिब्बत) २९,०२८
गाडविन आस्टिन (पाकिस्तान भारत) २८,२५०
कंचनजंघा (हिमालय, नेपाल, तिब्बत) २८,१४६
मकालू (हिमालय, नेपाल, तिब्बत) २७,७९०
धौलागिरि (हिमालय,नेपाल) २६,७९५
नागपर्वत (हिमालय, भारत) २६,६६०
अन्नपूर्णा (हिमालय,नेपाल) २६,४९२
अफ्रीका
किलीमंजारों (तंजानिया) १९,३४०
यूरोप
एलबुज़ (काकेशस-रूस) १८,४८१
माउएट ब्लांक (अल्पस-फ्रांस) १५,३८१
उत्तरी ध्रुव
किन्सन मैसिस्क १६,८६०
दक्षिण अमेरिका
अकोंकागुआ २०,८८०
उत्तरी अमेरिका
मैकिन्ले १८,५८२
ओशनिया
जया १४,६४९
ज्वालामुखी कैसे बनते हैं
वे ठोस चट्टानी परतें जिनसे पृथ्वी की पपड़ी बनी है, कुछ स्थानों पर पतली हैं तो कुछ स्थानों पर मोटी हैं, और उनके ठीक नीचे पृथ्वी का भीतरी तापमान इतना ज्यादा
है कि उसके कारण चट्टानें पिघल जाती हैं. पिघली हुई चट्टानों को मैग्मा या खनिज
पदार्थों का उबलता हुआ मोटा गारा कहते हैं.
पपड़ी के नीचे कई स्थानों पर मैग्मा छोटे-बड़े कुड या तालाब के रूप में जमा हो
जाता है. जब यह मैग्मा पृथ्वी के अन्दर से ऊपर की ओर निकलने की कोशिश करता है तो यह कुछ गैसों को अपने से पहले ऊपर की ओर फेंकता है. जब गैसें बहुत जोर से दबने
लगती हैं तो ये पपडी के निचले हिस्से पर भारी दवाब डालने लगती हैं. जब यह क्रिया किसी ऐसी जगह पर होती है जहां पपड़ी कमजोर हो या जहां किसी पुराने भूकम्प के
कारण चट्टान में कोई दरार पड़ चुकी हो तो गैस और मैग्मा का मिश्रण उस दरार में
से फूट निकलता है और लावा की शक्ल में पृथ्वी की सतह पर निकल कर बहने लगता है.
जब उबलता हुआ लावा पृथ्वी की दरारों में से बाहर निकलता है तो बाहर वह ठंड़ा और
कड़ा होने लगता है; और, कुछ समय में शंकु के आकार में मुंह के चारों ओर इकट्ठा
होता चला जाता है. शंकु के आकार का यह ढेर धीरे-धीरे ऊंचा होता जाता है. अंत में यह एक ज्वालामुखी पर्वत बन जाता है.
कभी -कभी ऐसा होता है कि कोई ज्वालामुखी पर्वत निरन्तर कई-कई वर्षों तक फटता
रहता है और धुएं और राख के बड़े-बड़े बादल उगलता रहता है. तथा लावा की नदियां
बहाता रहता है. जब भीतरी गैसों का काफी बड़ा हिस्सा निकल जाता है और नीचे गहराई
की ओर से पड़ने वाला दवाब हल्का पड़ जाता है तो ज्वालामुखी का विस्फोट बन्द हो
जाता है. फिर शंकु के भीतर का लावा भी ठंड़ा हो जाता है और वह पपड़ी में बने हुए छेद को बंद कर देता है. प्राय: ऐसा होता है कि कई साल तक इकट्ठा होने के कारण
दवाब फिर से शक्तिशाली हो जाता है और वह दोबारा ठोस लावा की डाट को तोड़
डालता है. इस प्रकार ज्वालामुखी एक बार फिर से फट पड़ता है.
गरम पानी के फौवारे
आप जान चुके हैं पृथ्वी का भीतरी भाग बहुत अधिक गरम है तो निश्चय ही उसमें समाया हुआ पानी अंदर के अंदर ही खौलने लगेगा. और जब जहां से भी उसे पृथ्वी की सतह से
बाहर आने का मौका मिलेगा, वह फौव्वारे की तरह फूट पड़ता है, इन्हें 'गीजर' कहते
हैं.
पृथ्वी की सतह का पानी निचली चट्टानों की सीधी (अर्थात् ऊपर से नीचे की ओर जाने
वाली) गहरी दरारों में से होकर बहुत नीचे पहुंच जाता है. ये दरारें पानी के लिए
मानों प्राकृतिक 'नलों' का काम देती हैं. जब तक पानी काफी गहराई में पहुंच जाता
है. तो पृथ्वी की गरमी के कारण उबलने लगता है. जब पानी और भाप का पूरा स्तम्भ
तेजी से ऊपर उठता है और उस 'नल' में से जोर के साथ बाहर निकल पड़ता है. बाहर
निकलकर यह उस सुन्दर फौवारे का रूप लेता है जिसके लिए 'गीजर' प्रसिद्ध है. जब एक बार गीजर का फौबार छूट लेता है तो यही क्रिया दोबारा शुरू हो जाती है.
गीजर या गर्म पानी के फौवारे संसार में केवल तीन प्रदेशों में मिलते हैं :
आइसलैंड,न्यूजीलैंड और अमरीका के पश्चिम भाग में स्थित 'येलोस्टोन नेशनल पार्क'
इनमें से येलोस्टोन के गीजर संख्या में सबसे अधिक हैं और देखने में सबसे ज्यादा
शानदार होते हैं. येलोंस्टोन का सबसे अधिक प्रसिद्ध 'ओल्ड फेदफुल' नामक गीजर
लगभग एक घण्टे के अन्तर पर बराबर छूटता रहता है.
आप गरम पानी का फौवारा कैसे बना सकते हैं
आप चाहें तो अपना निजी गीजर या फौवारा बना सकते हैं. इसके लिए एक छिछली कड़ाही
में एक कीप को उल्टा रखना होगा. कड़ाही में इतना पानी भरदें कि कीप की सिर्फ
गर्दन ही बाहर निकली रहे. कीप के किसी एक सिरे के नीचे एक चम्मच या ऐसी ही कोई
दूसरी चीज रख दें ताकि पानी उसके नीचे जा सके. अब कड़ाही को आग पर चढ़ादें. जब
कड़ाही में पानी उबलने लगेगा तो वह कीप की नली से बाहर की ओर निकल पड़ेगा, ठीक
उसी तरह जिस तरह गीजर का पानी निकलता है.
समुद्र कैसे बने
पृथ्वी को जन्म लिए अभी बहुत दिन नहीं हुए थे. तब तक उसकी सतह पिघली हुई
चट्टानों से ही बनी हुई थीं. जब ये चट्टाने ठंडी होकर ठोस होने लगीं, तब पृथ्वी
के खौलते हुए भीतरी भाग में से गैसों के बादल बाहर निकलकर पृथ्वी के चारों और के वायु-~मण्डल में मिलने लगे .यहां वे आपस में मिलकर भाप के बड़े-बड़े विशाल बादल
बनाते गए. जब ये बादल काफी भारी हो गए तो उनका पानी जमने लगा और वह वर्षा के रूप में पृथ्वी पर गिरने लगा. लेकिन पृथ्वी की सतह अब भी अंगारे की तरह जल रही थी.
वर्षा का पानी इस पर गिरता तो था, किन्तु गिरते ही दोबारा भाप में बदल जाता था
और फिर से ऊपरी वायुमंडल में जा पहुंचता था.
संसार का सारा पानी लगातार इसी तरह एक चक्र के रूप में चलता रहता है. सूरज उसे
समुद्र की सतह पर से सोख लेता है. शायद लाखों -करोड़ों वर्षों तक पृथ्वी वर्षा
के बादलों के एक बड़े भारी पर्दे से ढंकी रही जो कई मील घना था. यह बादल लगातार
घना होता रहता था, वर्षा के रूप में बरसता रहता था और उबलकर भाप के रूप में फिर
से आसमान में इकट्ठा होता रहता था.
यह चक्र बराबर चलता रहा. धीरे-धीरे पृथ्वी की पपड़ी ठंडी और कडी होती गई. और
अन्त में सतह पर की चट्टानें इतनी इतनी ठंडी हो गई कि उनकी गर्मी अब पानी को
उबाल हीं सकती थी. उधर इन लाखों-करोड़ों वर्षों में वर्षा के जो घने बादल आकश
में भरगए थे उन्होंने वर्षा की कमी न थमने-~वाली झड़ी के रूप में बरसना शुरू
किया सैकड़ों या शायद हजारों साल तक पृथ्वी पर लगातार जोरदार वर्षा होती रही. इस वर्षा ने पर्वत-~मालाओं को समतल कर डाला और पृथ्वी पर बड़ी-~बड़ी घाटियां बना
डालीं. अन्त में जब यह धुआंधार वर्षा हल्की होती हुई बन्द हुई तो पृथ्वी की
सिकुड़ी और मुड़ी हुई पपड़ी के सबसे निचले हिस्से पानी से भर चुके थे. ये ही
सबसे पहले बननेवाले समुद्र थे. आपको यह भी जान लेना चाहिए कि इस पृथ्वी के
तीन-चौथाई भाग को समुद्रों ने घेर रखा है.
समुद्र का पानी खारा क्यों है
धरती की सतह पर बहनेवाली नदियां हर साल लाखों टन गाद (सिल्ट) और मिट्टी बहाकर
समुद्र में ले जाती हैं. पानी में घुली हुई इन वस्तुओं में लगभग वे सभी खनिज
पदार्थ मिले हुए होते हैं जो इस पृथ्वी में पाए जाते हैं. इनमें काफी बड़ी
मात्रा में नमक भी होता है.
सूरज की गर्मी समुद्र की सतह पर के कुछ पानी को भाप बनाकर उड़ा देती है. या
सुखा देती है और उसे भाप के रूप में वापस वायुमंडल में भेज देती है. वहां यह
भाप घनी होकर बादल बन जाती है और वर्षा या हिम के रूप में पृथ्वी पर आ गिरती
है.
लेकिन पानी के इस तरह भाप बनकर उड़ने की क्रिया में खनिज पदार्थ समुद्र में
ही पड़े रह जाते हैं. इनमें से कुछ को -जैसे,लोहे और कैल्सियम को-~समुद्री जीव
और वनस्पतियां खा लेती हैं. किन्तु नमक का उपयोग न तो समुद्री जीव करते हैं और
न पौधे. इसलिए उसकी मात्रा समुद्र में बराबर बढ़ती ही रहती है.
जब हम यह कहते हैं कि महासागर खारी है तो हमारा मतलब यह होता है कि उसमें घुले
हुए खनिजों की मात्रा अधिक है. महासागर के पानी में जो पदार्थ घुले हुए हैं
उनमें लगभग तीन चौथाई सोडियम क्लोराइड अर्थात् साधारण नमक हैं. शेष में लगभग
सभी ज्ञात मूल तत्वों के रासायनिक यौगिकों की विभिन्न मात्राएं होती हैं. इनमें
से कुछ तत्व, मुख्यतया मैग्नीशियम और ब्रोमीन अब व्या-~पारिक रूप से महासागर के
पानी से निकाले जाते हैं. विमानों और उपग्रहों के लिए हल्की मिश्र धातुओं के
निर्माण में इस्तेमाल किए जाने वाले मैग्नीशियम का अधिकतर भाग समुद्र से आता
है. महासागर के पानी में अन्य बहुत से खनिजों की मात्रा इतनी कम है कि उनको
इनमें से निकालना लाभदायक नहीं है. पर वैज्ञानिक ऐसे उपायों का आविष्कार कर
सकते हैं जिनसे उनका निकालना व्यापारिक रूप से लाभदायक बन जाए.
महासागर के विभिन्न भागों में पानी में घुले हुए कुल लवणों की मात्रा या खारेपन
में बहुत अन्तर पाया गया है. पर औसत रूप से प्रत्येक हजार भाग समुद्री पानी में
३५ भाग, या ३५ प्रतिशत लवण होते हैं. पर संयुक्त राज्य अमेरिका के ऊटा राज्य
में स्थित ग्रेट साल्ट लेक की लवणीयता की बराबरी महासागर का कोई भाग नहीं कर
सकता. उसमें औसत रूप से लवणों की मात्रा २८ प्रतिशत है. समझा जाता है कि चारों
ओर थल से घिरी हुई यह झील उस प्राचीन सागर का अन्तिम अवशेष है जो किसी समय
उत्तरी अमेरिका के बहुत-से पश्चिमी भाग पर फैला हुआ था. पर स्वयं विश्व महासागर
में भी इस समय इतने लवण हैं कि उनकों यदि पृथ्वी के सम्पूर्ण महा-~द्वीपों पर
बिछा दिया जाए तो १५० मीटर ऊंची परत बनेगीं.
ज्वार क्यों आते हैं
समुद्र के किनारे जाने वाले हर व्यक्ति ने प्रतिदिन ज्वार की लहरों को चढ़ना और
उतरना देखा होगा. दिन के किसी एक निश्चित समय में पानी की सतह ऊंची होने लगती
है, और आम तौर से पानी दस या बीस फुट ऊंचा उठ जाता है. फिर पानी वापस लौट जाता
है और अपने पीछे बालू का एक लम्बा-चौड़ा मैदान छोड़ जाता है. ज्वार और भाटे की
यह क्रिया सूर्य और चन्द्रमा के गुरुत्वाकर्षण के कारण होती है.
प्रतिपदा और पूर्णिमा को सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा एक सीधी रेखा में होते हैं.
ऐसे समय में सूर्य और चन्द्रमा दोनों मिलकर बहुत ऊंचे ज्वार पैदा करते हैं. ये
'बृहत् ज्वार' (स्प्रिंग टाइड्स) कहलाते हैं.
दूसरी ओर जब चन्द्रमा पहले और तीसरे चतु-~र्थाश में होता है तो वह सूर्य के ठीक
समकोण में होता है. ऐसी स्थिति में सूर्य और चन्द्रमा का खिंचाव एक-दूसरे का
विरोधी हो जाता है और ज्वार हल्के पड़ जाते हैं. ये 'लघु ज्वार' (नीप टाइड्स)
कहलाते हैं.
किन्तु ज्वारों के बारे में कुछ ऐसी विलक्षण बातें भी हैं जिनकी व्याख्या हम
केवल गुरुत्वाकर्षण के आधार पर नहीं कर सकते.
अटलांटिक महासागर के चारों ओर दिन में दो बार ज्वार चढ़ता है और उतरता है.
लेकिन प्रशांत महासागर के तथा हिन्द महासागर के कुछ भागों में दिन में केवल एक
बार ही ज्वार आता है. अमरीका में मैसाचुसेट्स के तट के समीप नैण्टुकेट द्वीप
में उच्च ज्वार के समय पानी का तल केवल एक फुट के लगभग ही ऊंचा उठता है.
लुई पास्चर
फ्रांस के प्रसिद्ध वैज्ञानिक लुई पास्चर का जन्म सन् १८२२ ई. में नैपोलियन
बोनापार्ट के एक व्यवसायी सैनिक के यहां हुआ था. आप बचपन से ही दयालु प्रकृति
के थे. अपने शैशवकाल में आपने गांव के आठ व्यक्तियों को पागल भेड़िए के काटने
से मरते हुए देखा था. उनकी दर्दभरी चीखों को आप भूल नहीं सके थे. युवावस्था में
भी जब यह अतीत की घटना स्मृति पटल पर छा जाती, तो आप बेचैन हो उठते थे. पर आप
पढ़ने-लिखने में विशेष तेज नहीं थे. इस पर भी आप में दो गुण मौजूद थे, जो
विज्ञान में सफलता के लिए आवश्यक होते हैं - उत्सुकता एवं धीरज. युवावस्था में
आपने लिखा था कि शब्दकोश में तीन शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं: इच्छाशक्ति,
काम तथा सफलता.
कॉलेज की पढ़ाई समाप्त कर, अपनी लक्ष्य प्राप्ति के लिए एक रसायन शाला में
कार्य करना आरम्भ कर दिया. यहाँ पर आपने क्रिस्टलों का अध्ययन किया तथा कुछ
महत्त्वपूर्ण अनुसंधान भी किए. इनसे रसायन के रूप में आप को अच्छा यश मिलने लग
गया.
सन् १८४९ ई. में फ्रांस के शिक्षा मंत्री ने आपको दिजोन के विद्यालय में भौतिकी
पढ़ाने के लिए नियुक्त कर दिया. एक वर्ष बाद आप स्ट्रॉसबर्ग विश्वविद्यालय में
रसायन विज्ञान का स्थानापन्न प्राध्यापक बना दिए गए. इस उन्नति का रहस्य यह था
कि विश्वविद्यालय अध्यक्ष की एक कन्या थी जिसका नाम मेरी था. मेरी श्यामल केशों
वाली सुन्दर किशोरी थी. आपकी उससे भेंट हुई. मेरी का अछूता लावण्य आपके ह्रदय
में घर कर गया. भेंट के एक सप्ताह बाद ही आपने मेरी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव
रख दिया. मेरी ने आपके प्रस्ताव को ठुकरा दिया. पर लुई पास्चर एक अच्छे
वैज्ञानिक थे. धीरजता आप में थी. मेरी के इंकार करने पर भी आप प्रयत्नशील रहे.
एक वर्ष के बाद आपको अपनी इच्छा पूर्ति में सफलता मिली. मेरी ने आपकी पत्नी
बनना स्वीकार कर लिया.
विवाह के उपरान्त आपकी रुची रसायन विज्ञान से हट कर जीवविज्ञान की ओर अग्रसर
होने लग गई. यह जीवधारियों का विज्ञान है. यह विश्वविद्यालय फ्रांस के अंगूर
उत्पादक क्षेत्र के मध्य में है. वहाँ के मदिरा तैयार करने वालों का एक दल, एक
दिन लुई पास्चर से मिलने आया. उन्होने आप से पूछा कि हर वर्ष हमारी शराब खट्टी
हो जाती है. इसका क्या कारण है?
लुई पास्चर ने अपने सूक्ष्मदर्शी यंत्र द्वारा मदिरा की परीक्षा करने में
घण्टों बिता दिए. अंत में आपने पाया कि जीवाणु नामक अत्यन्त नन्हें जीव मदिरा
को खट्टी कर देते हैं. अब आपने पता लगाया कि यदि मदिरा को २०-३० मिनट तक ६०
सेंटीग्रेड पर गरम किया जाता है तो ये जीवाणु नष्ट हो जाते हैं. ताप उबलने के
ताप से नीचा है. इससे मदिरा के स्वाद पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है. बाद में
आपने दूध को मीठा एवं शुद्ध बनाए रखने के लिए भी इसी सिद्धान्त का उपयोग किया.
यही दूध 'पास्चरित दूध' कहलाता है.
एक दिन लुई पास्चर को सूझा कि यदि ये नन्हें जीवाणु खाद्यों एवं द्रव्यों में
होते हैं तो ये जीवित जंतुओं तथा लोगों के रक्त में भी हो सकते हैं. वे बीमारी
पैदा कर सकते हैं. उन्हीं दिनों फ्रांस की मुर्गियों में 'चूजों का हैजा' नामक
एक भयंकर महामारी फैली थी. लाखों चूजे मर रहे थे. मुर्गी पालने वालों ने आपसे
प्रार्थना की कि हमारी सहायता कीजिए. आपने उस जीवाणु की खोज शुरू कर दी जो
चूजों में हैजा फैला रहा था. आपको वे जीवाणु मरे हुए चूजों के शरीर में रक्त
में इधर-उधर तैरते दिखाई दिए. आपने इस जीवाणु को दुर्बल बनाया और इंजेक्शन के
माध्यम से स्वस्थ चूजों की देह में पहुँचाया. इससे वैक्सीन लगे हुए चूजों को
हैजा नहीं हुआ. आपने टीका लगाने की विधि का आविष्कार नहीं किया पर चूजों के
हैजे के जीवाणुओं का पता लगा लिया.
इसके बाद लुई पाश्चर ने गायों और भेड़ों के ऐन्थ्रैक्स नामक रोग के लिए बैक्सीन
बनायी: पर उनमें रोग हो जाने के बाद आप उन्हें अच्छा नहीं कर सके: किन्तु रोग
को होने से रोकने में आपको सफलता मिल गई. आपने भेड़ों के दुर्बल किए हुए
ऐन्थ्रैक्स जीवाणुओं की सुई लगाई. इससे होता यह था कि भेड़ को बहुत हल्का
ऐन्थ्रैक्स हो जाता था; पर वह इतना हल्का होता था कि वे कभी बीमार नहीं पड़ती
थीं और उसके बाद कभी वह घातक रोग उन्हें नही होता था. आप और आपके सहयोगियों
ने मासों फ्रांस में घूमकर सहस्रों भेड़ों को यह सुई लगाई. इससे फ्रांस के गौ
एवं भेड़ उद्योग की रक्षा हुई.
आपने तरह-तरह के सहस्रों प्रयोग कर डाले. इनमें बहुत से खतरनाक भी थे. आप
विषैले वाइरस वाले भयानक कुत्तों पर काम कर रहे थे. अत में आपने इस समस्या का
हल निकाल लिया. आपने थोड़े से विषैले वाइरस को दुर्बल बनाया. फिर उससे इस वाइरस
का टीका तैयार किया. इस टीके को आपने एक स्वस्थ कुत्ते की देह में पहुँचाया.
टीके की चौदह सुइयाँ लगाने के बाद रैबीज के प्रति रक्षित हो गया. आपकी यह खोज
बड़ी महत्त्वपूर्ण थी; पर आपने अभी मानव पर इसका प्रयोग नहीं किया था.
सन् १८८५ ई. की बात है. लुई पाश्चर अपनी प्रयोगशाला में बैठे हुए थे. एक
फ्रांसीसी महिला अपने नौ वर्षीय पुत्र जोजेफ को लेकर उनके पास पहुँची. उस बच्चे
को दो दिन पहले एक पागल कुत्ते ने काटा था. पागल कुत्ते की लार में नन्हे
जीवाणु होते हैं जो रैबीज वाइरस कहलाते हैं. यदि कुछ नहीं किया जाता, तो नौ
वर्षीय जोजेफ धीरे-धीरे जलसंत्रास से तड़प कर जान दे देगा.
आपने बालक जोजेफ की परीक्षा की. कदाचित् उसे बचाने का कोई उपाय किया जा सकता
है. बहुत वर्षों से आप इस बात का पता लगाने का प्रयास कर रहे थे कि जलसंत्रास
को कैसे रोका जाए? आप इस रोग से विशेष रूप से घृणा करते थे. अब प्रश्न था कि
बालक जोजेफ के रैबीज वैक्सिन की सुईयाँ लगाने की हिम्मत करें अथवा नहीं. बालक
की मृत्यु की सम्भावना थी. पर सुइयां न लगने पर भी उसकी मृत्यु निश्चित् है. इस
दुविधा में आपने तत्काल निर्णय लिया और बालक जोजेफ का उपचार करना शुरू कर दिया.
आप दस दिन तक बालक जोजेफ के वैक्सीन की बढ़ती मात्रा की सुइयाँ लगाते रहे और
तब महान आश्चर्य की बात हुई. बालक जोजेफ को जलसंत्रास नही हुआ. इसके विपरीत वह
अच्छा होने लग गया. इतिहास में प्रथम बार मानव को जलसंत्रास से बचाने के लिए
सुई लगाई गई. आपने वास्तव में मानव जाति को यह अनोखा उपहार दिया.
आपके देशवासियों ने आपको सब सम्मान एवं सब पदक प्रदान किए. उन्होंने आपको
सम्मान में पास्चर इंस्टीट्यूट का निर्माण किया: किन्तु कीर्ति एव ऐश्वर्य से
आप मे कोई परिवर्तन नहीं आया. आप जीवनपर्यन्त तक सदैव रोगों को रोक कर पीड़ा
हरण के उपायों की खोज में लगे रहे. सन् १८९५ ई. में आपकी निद्रावस्था में ही
मृत्यु हो गई.
ग्रेगर जोहन मैण्डल
आनुवंशिकता के जन्मदाता ग्रेगर जोहन मैण्डल का जन्म २२ जुलाई, सन् १८२२ ई. में
मोराविया देश के एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था मारविया अब चैकोस्लावाकिया
में है. बालक जोहन परिवार के खेतों में पौधों की देखरेख में मदद किया करता था.
इस कार्य में आपको विशेष आनन्द मिलता था. बचपन में ही आप कृषक पिता से तरह-तरह
के प्रश्न पूछा करते थे कि फूलों के अलग-अलग रंग और रूप कहां से आते हैं. उनके
पास पुत्र के ऐसे प्रश्नों के उत्तर नहीं थे. वे बच्चे को उच्च शिक्षा दिलाना
चाहते थे.
आप का परिवार निर्धनता के अभिशाप से घिरा था. फिर भी पिता ने खर्चे में
कतर-ब्योंत करके बेटे को जैसे तैसे चार वर्ष कालेज में पढ़ाया. जब आप इक्कीस
वर्ष के हुए, तो एक मठ में प्रविष्ठ हुए. सेंट ग्रेगरी के सम्मान में आपने
ग्रेगर नाम धारण किया.
आपने व्यवसाय अच्छा चुना था. मठ में मन रम गया था. आपके साथी भिक्षु प्रेमी एवं
बुद्धिमान लोग थे. वे धर्म से साहित्य तक और कला से विज्ञान तक सभी विषयों की
विवेचना में बड़ी दिलचस्पी लिया करते थे. उनका एक छोटा-सा हरा भरा बगीचा था,
क्योंकि आपको पौधों में विशेष आनन्द आता था इसलिए आपको उसका अध्यक्ष बना दिया.
आपने इस के साथ-साथ अपना धार्मिक अध्ययन भी जारी रखा और सन् १८४७ ई. में पादरी
बन गए.
आपकी विज्ञान में रुची को देखकर, मठ ने आपको दो वर्ष के लिए वेनिस
विश्वविद्यालय में भौतिकी पढ़ने के लिए भेज दिया. जब वहां से अध्ययन पूरा करके
लौटे तो, आल्तब्रून नगर, जहाँ आपका मठ था विद्यालय में भौतिकी की देखभाल किया
करते थे. इन सब से आपने भिक्षु कर्त्तव्यों में किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं
पड़ती थी.
यहां भी आपने प्रश्न उठाने आरंभ किए जिन्हें आप पिता के खेत पर उठाया
करते थे. कुछ मटरें चिकनी और कुछ झुरींदार क्यों होती है? आप ऐसा क्या करें,
जिससे कि केवल चिकनी मटर ही उगे. कभी-कभी आप लाल फूलों के ही बीज बोते हैं, तो
कुछ नए पौधों में गुलाबी फूल क्यों आते हैं?
अंत में आपकी उत्सुकता की विजय हुई. आपने कुछ ऐसे प्रयोग करने का निश्चय किया,
जो वास्तव में विज्ञान से संबंधित थे. आपने केवल कल्पना का सहारा नहीं लिया. आप
प्रत्येक बात को ध्यान से देखा करते थे और नोट करते जाते थे; क्योंकि मटर आसानी
से उग आती थी. इसलिए आपने मटर से प्रयोग किए. मटर की जिंदगी छोटी थी और आप
बहुत-सी पीढ़ियों का अध्ययन कर सकते थे.
आपने १८५६ तक के बीच मटर के १०,००० पौधे बोए और उनका प्रेक्षण किया. आपने जिस
तरह की समस्या हल करने का प्रयास किया उसका एक उदाहरण यह है: मटर के एक ऊँचे
और एक छोटे पौधे की संतान ऊँची होगी अथवा छोटी? ऊँचे पौधे और छोटे पौधे से
संतान प्राप्त करने के लिए आपने ऊँचे पौंधे के फूल में से सुनहरी धूलि ली. आपने
इसे छोटे पौधे की स्त्री के सिर पर डाला. इससे जो बीज बने उन्हें आपने बोया. सब
पौधे 'पिता' पौधे की भाँति ऊँचे थे. आपने ऊँचेपन को प्रभावी लक्षण कहा है. जब
इन ऊँची संतानों के बच्चे हुए, उनके बीज उगाए गए, तो आपने पाया कि दूसरी पीढ़ी
अथवा पौधों में सब पौधे ऊँचे नही थे. प्रति तीन ऊँचे पौधों के पीछे एक पौधा
छोटा था. इस छोटे पौधे को दादी की छोटाई आनुवंशिकता में मिली थी. आपने छोटेपन
को अप्रभावी लक्षण कहा.
इसी प्रकार आपने पीले बीजों की मटर को हरे बीजों के साथ संकरित किया. तब आप इस
निष्कर्ष पर पहुँचे कि उनसे उत्पन्न पहली पीढ़ी से सब पौधों के बीज पीले थे.
उसमें अगली पीढ़ी अर्थात् पौधों में तीन पीले और एक हरा था. यहां पीला प्रभावी
और हरा अप्रभावी लक्षण था. आपने इन्हीं प्रयोगों को असंख्य बार दुहराया पर फल
वही निकला. आठ वर्ष तक बड़ी सतर्कता के साथ कार्य करने के बाद, जब आप को पूर्ण
विश्वास हो गया, तो आपने कहा कि पौधों की आनुवंशिकता कुछ अमोघ अपरिवर्तनशील
नियमों के अनुसार कार्य करती है. निश्चय ही आप मनुष्यों पर इस प्रकार के प्रयोग
नहीं कर सकते थे. इसलिए आप इस स्थिति में नहीं थे कि इन नियमों को मानव की
आनुवंशिकता पर लागू करें.
स्वाभाविक ही था कि आप अपने इन नए सिद्धान्तों के विषय में उत्तेजित हों. अब
आपने निश्चय किया कि समय आ गया है जब आपको संसार को बताना चाहिए, कि आपने
किस बात का पता लगा लिया है. सन् १८६५ ई. में आपने एक लेख लिखा और उसे नगर
की वैज्ञानिक सभा के सामने पढ़ा: पर आपने महसूस किया कि कोई भी आपकी बात को
समझ नहीं पा रहा है. श्रोताओं ने नम्रतापूर्वक तालियाँ बजाई और जो कुछ वहाँ
सुना उसे तत्काल ही भूल गए. कदाचित् आप उन्हें अच्छी तरह समझा नहीं सके थे.
आपने घर लौटकर उस लेख को पुन: लिखा. कुछ सप्ताह बाद आपने उसे दूसरी सभा में
पढ़ा, पर यहाँ पर भी किसी श्रोता ने कोई रुचि नहीं ली. शायद उन्होंने समझा हो
कि मटर के पौधों से भी क्या कोई महत्त्वपूर्ण बात सिद्ध हो सकती है. आपका भाषण
एक छोटी-सी वैज्ञानिक पत्रिका में प्रकाशित हुआ. वह शीघ्र ही पुस्तकालय की
अल्मारियों में अपवित्र और अप्रशंसित तथा धूलि से ढक गया.
इससे आप निरूत्साहित हो उठे. कुछ दिन बाद आपने अपने साथी भिक्षुओं से कहा,
"मेरा समय अवश्य एक दिन आएगा."
आपको सन् १८६९ ई. में आपको मठ का ऐबट चुन लिया गया. अब आप मठ के कार्यों में
अधिक व्यस्त हो गए. अनुसंधान करने के लिए समय नहीं मिल पाया. ६ जनवरी, सन् १८८४
ई. को आपने सदा के लिए आँखें मूँद लीं. आपके निधन के उपरांत लोगों ने आपको एक
दयालु, परिश्रमी और छोटे भिक्षु के रूप में स्मरण किया, जिसने अपना बहुत-सा समय
अपने बगीचे में मटर से उलझने में नष्ट कर दिया था. इस तरह आपके जीवन का कार्य-
"मैण्डल का आनुवंशिकता का नियम" अज्ञात रहा आया.
आपके निधन के सोलह वर्ष उपरान्त, विश्व को पता लगा कि आप कितने बड़े वैज्ञानिक
थे. सन् १९०० में तीन यूरोपीय वैज्ञानिकों को उस भूले हुए लेख का पता चला था,
जिसे आपने ३० वर्ष पूर्व प्रकाशित किया था. उन्होंने उसकी महत्ता को जान लिया
और उसका समाचार वैज्ञानिक दुनियां में फैला दिया. शीघ्र ही इस निष्कर्ष पर
पहुंच गए कि आप के नियम केवल पौधों के लिए ही नहीं, जंतुओं एवं मानवों के लिए
भी सही हैं. बाद के प्रयोगों से पता चला कि आपके नियमों के कुछ अपवाद भी हैं.
अब हम उन्हें आपके नियम नहीं कहते, बल्कि आपके सिद्धान्त कहते हैं.
आपके सिद्धान्त कृषकों के लिए बहुत सहायक सिद्ध हुए हैं. उन्होंने कृषकों को
बताया है कि गेहूं, मक्का और दूसरी फसलों की अच्छी किस्में कैसे तैयार की जा
सकती हैं. इन्ही सिद्धान्तों पर चलकर, पशु उत्पादक अधिक मजबूत, स्वस्थ गाएं और
भेड़ों को पैदा करने में सफल हुए हैं. आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिक आपके
सिद्धान्तों के आधार पर यह पता लगाने का प्रयत्न कर रहे थे कि क्या लोगों का
कुछ रोगों की ओर आनुवंशिक रुझान होता है और यदि ऐसा होता है, तो क्या ऐसी
आनुवंशिकता को नियंत्रित किया जा सकता है. इस सिद्धान्त के लिए हम आपके चिर
ऋणी रहेंगे.
पहाड़ी अंचल में मग्गर बांस
सेवा सिंह सागवाल
वानिकी विभाग, हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय
पालमपुर-१७६०६२
बांस को "हरा सोना" कहा जाता है. इसकी एक प्रजाति है, मगर बांस जिसे पर्वतीय
क्षेत्रों में उगाया जाता है. इससे जहां इमारती लकड़ी मिलती है वहीं इसकी
पत्तियों से लकड़ी मिलती है वहीं इसकी पत्तियों से पशुओं को पौष्टिक चारा मिलता
है. साथ ही यह पर्वतीय क्षेत्रों में भूमि कटाव रोकने में भी सहायक होता है.
साधारणतया बांस को `हरा सोना' कहा जाता है. भारत में बांस की लगभग १४० जातियां
पाई जाती हैं. इनमें एक प्रजाति मग्गर बांस की है जो कि पूर्वी हिमा-~लय और
नेपाल में अधिक मात्रा में पाई जाती है. सन् १९०२ में इस प्रजाति का पता चला.
यह समुद्र तल से लगभग ३५० से १,४०० मीटर तल की ऊँचाई वाले उन क्षेत्रों में
अधिक मात्रा में पाया जाता है जहां वार्षिक वर्षा २००-२८० से.मी. के लगभग होती
है. यह दूसरे बांस की किस्मों से भिन्न होता है. यह भिन्नता इस प्रकार से है
इसकी कलमें जो मटियाले हरे रंग की होती हैं उन पर नर्म और बहुत महीन बाल होते
हैं. इस बांस प्रजाति की पत्तियां बहुत लम्बी होती हैं.
बांस का उपयोग
मग्गर बांस सर्दी के मौसम में उस समय हरा घास प्रदान करता है जबकि इसकी बहुत
कमी महसूस होती है. स्वादिष्ट तना पोषक होने के कारण पशुओं के लिए एक उत्तम
प्रकार का चारा माना गया है. इसकी पत्तियों में लगभग १०.७८ प्रतिशत मोटी
पाचनशील प्रोटीन होती है. कुल पाचनशील पोषक तत्व ४८.५ प्रतिशत होती है. इस बांस
का चारा कृषि की दूसरी फसलों के चारे से किसी भी तरह से कम नहीं है.
इस बांस को इमारती लकड़ी के लिए भी प्रयोग में लाया जाता है. कई प्रकार से
उपयोगी लकड़ी होती है जैसे, शटर बनाने के लिए, बाढ़ तथा पौढ़ियां आदि बनाने में
भी बहुत उपयोगी है. इसकी लकड़ी कुटीर उयोगों के लिए बड़ी लाभदायक होती है.
इससे टोकरियां, मैट्स, परदे, पंखे आदि भी बनाये जाते हैं.
यह बांस भूमि क्षरण को रोकने में बड़ा सहायक होता है. इसकी रोपणी वातावरण को
सुन्दर बनाने में काम आती है. इसको जलाने की लकड़ी के रूप में भी काम में लाते
हैं. इसकी नर्म और नाजुक कलमों को उबालकर खाते हैं. इसका अचार आदि भी डाल सकते
हैं. वास्तव में यह पौधा बहुत लाभदायक होता है.
पौधे का स्वरूप
यह बांस घास के परिवार वाले पौधों में गिना जाता है. यह सदा हरी रहने वाली घास
होती है जोकि घना गुच्छा बनाती है. इसकी कलमें लगभग १०-२५ मीटर लम्बी और ८-१६
सें. मीटर व्यास की होती हैं. कलमों में कई जोड़ होते हैं. तने में जोड़ों के
बीच में खोखला होता है. घास की तरह पत्ती का सिरा नुकीला होता है और पत्तियां
लगभग ३-७ सें.मी. तक की चौड़ाई वाली होती हैं. कलम के जमीन वाले हिस्से को
राइजोम कहा जाता है. राइजोम में से नई कलमें उगती हैं जिनको "यानु" कहा जाता
है. ये कलमें लगभग अगस्त के महीने में आती हैं. नवम्बर में पूरी तरह विकसित हो
जाती हैं. इनमें से नई पत्तियां निकलनी शुरू हो जाती हैं, लेकिन यह क्रिया
सर्दी के मौसम में रूक जाती है. दुबारा यह क्रिया गर्मी के मौसम में शुरू हो
जाती है. नई-नई पत्तियां निकलना शुरू हो जाती हैं.
पौधे का प्रजनन
कई स्थानों पर इसमें पुन: प्रजनन नहीं होता, क्योकि कई बार इसमें बीज नहीं
बनता. अत: बीजों का प्रयोग नहीं किया जाता. इसलिए इसको एकाकी कलम, जिस-~को
भूस्तरी प्रसाखा कहा जाता है, से उगाया जाता है.
कहां लगायें: इस बांस को बेकार पड़ी जमीनों में बड़ी सुगमतापूर्वक लगाया जा
सकता है. इसको नदी-नालों गड्ढ़ों, ढलानों खाइयों आदि में लगाया जाता है. इसको
नमी वाली भूमि अधिक पसन्द होती है, पर ऐसी भूमियों में पानी की निकासी बहुत
जरूरी है. यह बड़े पत्थरों वाली जमीनों में बहुत अच्छी तरह उगता है. यदि इसके
पौधों को मिट्टी खाद ह्यूमस दी जाए तो ये बहुत फलते फूलते हैं.
कैसे लगायें: ६०*६०*६० से.मी. के आकार के गड्ढे खोदने चाहिए. इन गड्ढों को लगभग
आधा भर देना जरूरी हो तो इसके लिए गली-सड़ी खाद तथा रेत या ऊपरी मिट्टी का
प्रयोग करना चाहिए. प्रत्येक गड्ढे में लगभग ५० ग्राम बी.एच.सी. या ३०-६०
ग्राम डी.डी.टी.पाउडर का प्रयोग उचित रहता है. बरसात ऋतु के प्रारम्भ में ही
राइजोम कलमों का चुनाव करके निकाल ली जाती है. इसमें कम से कम एक आंख का होना
अति आव-~श्यक होता है. एक कलम की लम्बाई लगभग १.० से १.५ मीटर तक होनी चाहिए और
उसके ऊपरी सिरे पर एक तीखा (तेज) काट लगा देना चाहिए और काट को गांठ के थोड़ा
सा ऊपर लगाया जाता है. भूस्तरी प्रशाखा को उठाकर फिर गढ़े में लगाया जाता है.
और एक गढ़े में लगभग १५० ग्राम सुपरफास्फेट डालना उचित पाया गया है. पौधे का
तौलिया बनाकर उसको मिट्टी ह्यूमस तना कांटेदार झाड़ियों से ढ़क दिया जाता है.
पौधे में नई शाखायें अगले बरसात के मौसम में निकलती हैं. इसी प्रकार एक नया
गुच्छा (फैलना) तीन साल में स्थापित होता है.
कृषि और सामाजिक वानिकी में लगाना
इस बांस को कई प्रकार के नमूने अपना कर कृषि वानिकी और सामाजिक वानिकी के
अन्तर्गत लगाया जाता है. कुछ नमूने इस प्रकार हैं-
(१) एक पंक्तिय नमूना: बांसों को खेतों के चारों तरफ लगाया जाता है. कई बार
बाड़ के साथ-साथ भी ये पौधे लगाए जाते हैं. इनको एक ही पंक्ति में लगाया जाता
है. एक पौधे से दूसरे पौधे की दूरी ४ मीटर रखी जाती है. इस प्रकार एक हैक्टर
भूमि के चारों ओर १०० पौधे लग जाते हैं जो बाद में १०० गुच्छे बनते हैं हर एक
गुच्छे में बांसों की संख्या भिन्न होती है बाकी के पूरे खेत में कृषि की
साधारण फसल बड़ी आसानी से उगाई जा सकती है.
(२) बहु पंक्ति नमूना: इस नमूने में पौधे से पौधे और लाइनों से लाइनों का फासला
५ मी.* ५ मी. रखा जाता है इस प्रकार एक हैक्टर क्षेत्र में ४०० पौधे और १००
पौधे चारों तरफ लगाकर कुल ५०० पौधे आसानी से लगाए जा सकते हैं. ये ५०० पौधे
बाद में ५०० गुच्छे बन जाते हैं जो कि बहुत से बांस पैदा करते हैं. बीच के
स्थानों में कृषि की फसल भी सुगमता-~पूर्वक उगाई जा सकती है यदि उनका चुनाव
भली-भांति किया जाए तो.
(३) तंग पंक्ति नमूना: इस नमूने में ब्लाक्स रोपणी भी कहा जाता है. इसमें पौधे
से पौधे तथा लाइन से लाइन की दूरी ५ मी.* ४ मी. रखी जाती है. इस प्रकार लगभग
५०० पौधे खेत में और १०० पौधे खेत के किनारों पर लग जाते हैं. इस नमूने में
कृषि की बोई फसल नहीं ली जाती.
बांस की फसल का प्रबन्ध
बांस की खेती करना बहुत लाभदायक होता है. अत: इसका उचित प्रबन्ध बहुत आवश्यक
होता है. इसके प्रबन्ध के विभिन्न पहलू इस प्रकार से होते है-
१. खाद व उर्वरकों का प्रयोग-ऐसा देखा गया है कि बांस की फसल में ह्यूमरस बहुत
अधिक होता है और इसी कारण इसमें खाद आदि ही डाली जाती है. लेकिन अब वैज्ञानिक
ढंग से खेती करने के लिए खाद व उर्वरकों का प्रयोग बहुत लाभदायक सिद्ध हो रहा
है. पौधे लगाते समय १५० ग्राम सुपर फास्फेट प्रति गड्ढ़े के हिसाब से डाला
जाता है.
बाद में पौधों को स्वस्थ रखने के लिए लगभग २५-१०० किलोग्राम गोबर की गली सड़ी
खाद तथा ०.५-२.० किलोग्राम किसान खाद (कैल्सियम अमोनियम नाइट्रेट) प्रति गुच्छे
के हिसाब से डाला जाता है. यह खाद वर्षा ऋतु के प्रारम्भ में मिलते हैं. हर एक
गुच्छे को मल्च (पल्वार) आदि से ढ़क जाता है. कई बार घास का प्रयोग किया जाता
है ताकि पौधे या गुच्छे के तौलिये में नमी बनी रहे.
२. ट्रेडिंग (पालन पोषण) करना: मरे हुए पौधे, बीमारी वाले कीडे-मकोड़ों द्वारा
खराब किए हुए और सूखी हुई कलमें या काटनी चाहिए या फिर इनको निकाल देना चाहिए.
सारी झाड़ियां और रेंगने वाले पौधों को भी समय-समय पर निकालते रहना चाहिए. जब
नई कोंपले निकल रहीं हों तो उस समय कुछ भी हलचल नहीं होनी चाहिए. गुच्छे स्थिर
अवस्था में होने चाहिए इस बात का आमतौर पर अगस्त-सितम्बर में ध्यान रखना चाहिए.
३. लोपिंग क्रिया : लगभग तार-पांच वर्ष पौधों को लोप करना चाहिए. यह क्रिया
अक्टूबर से फरवरी के महीनों के बीच में पूरी करनी चाहिए. पौधों को पन्द्रह
महीने लगाने के बाद काटना शुरू करते हैं और फिर लगभग हर साल पौधों को चारा आदि
लेने के लिए काटा जाता है. कलमों को कोई हानि नहीं पहुंचनी चाहिए. अत: यह कटाई
बड़े ध्यानपूर्वक करनी चाहिए.
४. बांस की कटाई: यद्यपि शुरू में राईजोम कई दिशाओं में फैलता है, लेकिन बड़ी
अवस्था में यह एक विशेष दिशा में फैलता है. हवा की दिशा पर भी निर्भर होता है.
बांस की कटाई साधारणतया सर्दी के मौसम में करनी चाहिए. प्रथम कटाई फसल को लगाने
सर्दी के ५-६ वर्ष बाद करनी चाहिए. एक बांस के गुच्छे से ६-१० कलमें (बांस)
निकल आती हैं. घर के कामों में उपयोग वाले बांस को हर वर्ष काटा जाता है.
कटाई के नियम
१. कटाई चक्र हर चार वर्ष की अवधि को अपनाना चाहिए.
२. एक से दो वर्ष की कलमें किसी भी हालत में नहीं काटनी चाहिए.
३. राइजोम को खोद कर नहीं निका-~लना चाहिए.
४. कलमों को काटते समय कम से कम जमीन से १५ से.मी. से कम नहीं होना चाहिए और यह
लम्बाई अधिक से अधिक ४५ से.मी. होनी चाहिए.
५. बांस को तेजधार वाले हथियार से काटना चाहिए ताकि स्टम्प बीज में ही न फटे.
६. बांस के गुच्छे के इर्द-गिर्द जगह की सफाई कर देनी अति आवश्यक है.
७. बांस को पहली जुलाई और पन्द्रह अक्टूबर के बीच में कभी भी नहीं काटना चाहिए.
८. बांस के जिन गुच्छों में बीज आ गया हो तो उसको काट देना चाहिए.
९. सूखे हुए बांसों को जंगलों में बिखरा हुआ नहीं पड़े रहने देना चाहिए इससे आग
आदि का भय रहता है.
१०.बांस की छंटाई व घास आदि के लिए काटने पर सही प्रकार की पाबन्दी होनी चाहिए.
११.निम्नलिखित नियम बड़ी सख्ती से अपनाने चाहिए-
(क) बांस की कटाई मार्च के अन्त तक पूरी होनी चाहिए.
(ख) बांस की फसल की कटाई को आग के प्रकोप से बचाना चाहिए.
(ग) बांस के जंगलों में बरसात के मौसम में पशुओं को नहीं चराना चाहिए.
१२. बांस के जिस गुच्छे में कलमें जो होनी चाहिए यदि न हों तो उनको बड़े पैमाने
पर काटना नहीं चाहिए. केवल टूटे हुए, मरे हुए, सूखे, बुरी तरह खराब हुए आदि
बांसों को निकाल देना चाहिए.
१३.एक गुच्छा दूसरे से भिन्न होता है यदि एक मीटर की दूरी पर ऐसा होना सम्भव न
हो तो दोनों पास-पास वाले गुच्छों को एक गुच्छा ही समझ लिया जाता है.
१४.एक गुच्छे में न्यूनतम कलमें क्वा-~लिटी क्लास पर निर्भर हैं जैसे-
प्रथम क्वालिटी २० कलमें
द्वितीय क्वालिटी १५ कलमें
तृतीय क्वालिटी १० कलमें
१५. एक बांस के गुच्छे की कटाई के बाद कलमों को इस प्रकार रखना चाहिए कि वे सभी
खाली जगह तथा खुले स्थान पर हो.
बांस फसल की अधिकता
मग्गर बांस (डैंडरोक्लायस हैमिल टोनाई) एक बहुत उपयोगी पौधा है इसकी खेती करना
अति लाभदायक है. यदि इसकी खेती अच्छे व वैज्ञानिक ढंग से की जाए तो इससे बहुत
आमदनी हो सकती है.
१. मान लो एक गुच्छे में से १० बांस निकल आते हैं.
२. फसल की कटाई छ: वर्ष में करते हैं
३. एक बांस की कीमत १० रूपये होती है.
(क) एक पंक्ति नमूना
एक हैक्टर भूमि में बांस के गुच्छे -१००
एक गुच्छे में बांस की संख्या -१०
कुल बांस -१,०००
कुल आय -१०,००० रूपये
मान लो रोपणी का खर्च -५०० रूपये
छ: वर्ष बाद आमदनी -९,५०० रूपये
(ख) बहु-पंक्ति नमूना-
एक हैक्टर की परिधि पर बांस -१,०००
एक हैक्टर क्षेत्र में बांस -४,०००
कुल बांस -५,०००
कुल आमदनी -५०,००० रूपये
रोपणी का खर्च (मान लो) -१०,००० रूपये
छ: साल के पश्चात कुल आमदनी -४०,००० रूपये
(ग) तंग नमूना-
एक हैक्टर की परिधि पर बांस -१,०००
एक हैक्टर क्षेत्र में बांस -५,०००
कुल बांस -६,०००
आमदनी -६०,००० रूपये
रोपणी पर खर्च -१५,००० रूपये
छ: साल के बाद आमदनी -४५,००० रूपये
एक पंक्ति और बहुपिंक्त नमूनों की आमदनी के अतिरिक्त है.
बांस का भविष्य
मग्गर बांस एक बहुत ही लाभदायक बांस होता है. इसे कृषि सामाजिक वानिकी के
अन्तर्गत बडी ही सुगमतापूर्वक उगाया जा सकता है. बेकार पड़ी भूमियों में इसको
उगाकर इसका सदुपयोग किया जा सकता है. गांवों में कहा जाता है कि "बांस गरीब
आदमी की इमारती लकड़ी है." यह तथ्य एक सीमा तक सच है. बांस अनेक प्रकार से
प्रयोग किया जाता है अत:गरीब किसानों की खुशहाली का स्त्रोत मग्गर बांस है.
इसकी रोपणी उगाने पर पूरा ध्यान देना चाहिए.
वन सिकुड़ रहे हैं
(पृष्ठ ३८ का शेष)
नौनी (सोलन) में वानिकी-चरागाह पद्धति विकसित की गयी. ३ * ३ मीटर की दूरी पर
शहतूत (मेरिस अल्वा) के पेड़ उगाये गये. बीच-बीच में चारे के लिए क्राइसोपोगोन
मोन्टेनस (गोरिया) हेटेरो-~पोगन कैण्टोर्टस (कुमेरिया) इरेग्रोस्टिस म्यूटिका,
एप्लूडा म्यूटिका (मंजरी) स्टाइ-~लोसेन्थस ग्रेसिलिस (ब्राजीली लूसर्न) आदि
उगायी जाती है.
४. ऊर्जा के लिए वृक्ष
हिमाचल प्रदेश में प्रति व्यक्ति ०.६ टन ईंधन की लकड़ी की खपत होती है जो प्रति
वर्ष २३ लाख घन मीटर के लगभग होती है, जंगलों से ७ लाख घन मीटर लकड़ी मिलती है.
मध्य पर्वतीय क्षेत्रों में ईंधन की काफी कमी महसूस हो जाती है कहीं-~कहीं ईंधन
बाहर से मंगाना पड़ता है. ऐसी स्थिति का सामना करने के लिए ऐसे ऊर्जा वाले
वृक्ष लगाने चाहिए. ऐसी प्रजा-~तियां सूखा और पाला रोधी होनी चाहिए. इनमें
नाइट्रोजन स्थिरीकरण भी हो सकता है. नीनी (सोलन) में १ * १ मी., २ * १ मी. और
१.२५ * ०.५ मी. के अन्तराल में इन वृक्षों को रोपा गया. इन्हें अकेले और
रोबीनिया स्यूडेकेसिया, अकेसिया मोलि-~सिग्मा और यूकेलिप्ट्स संकर के साथ उगाया
जाता है.
हिमालय की उत्पादन क्षमता कम हो रही है. कृषि वानिकी द्वारा इसे रोका जा सकता
है. इसमें वृक्षों के साथ खाद्यान्न फसलें और वृक्ष उगाये जाते हैं. इससे
हिमालय क्षेत्र की काफी समस्याओं का हल मिल सकेगा. जैसे आहार और चारे ईंधन का
उत्पादन, भूमि की उर्वरता बनाये रखना, भूमि कटाव का रोका जाना, इमारती लकड़ी की
उपलब्धि आदि. इससे इस क्षेत्र के लोगों की आमदनी बढ़ेगी और लोग खुशहाल होंगे.
दलहनी फसलों को कीट व्याधियों से बचाएं
चन्द्रपतिदत्त, सरयूशरण मिश्र और राम किशोर
क्रमश: वैज्ञानिक, भा. कृ. अ. प., नयी दिल्ली और केन्द्रीय आलू अनुसंधान
संस्थान, शिमला
भारत जैसे देश में, जहां शाकाहारी लोग भारी संख्या में हैं, दालें ही प्रोटीन
का प्रमुख स्रोत हैं. दलहनी फसलों को दाल के लिए तो उगाया ही जाता है, इसके
अलावा कई दलहनी फसलों को चारे के उपयोग में भी लाया जाता है. ज्वार, मक्का तथा
बाजरा जैसी फसलों में कई दलहनी फसलों को मिलाकर कर, पशुओं के चार के लिए बोया
जाता है. इसके अतिरिक्त दलहनी फसलों में खेतों में नाइट्रोजन की मात्रा को
बढ़ाने का भी गुण पाया जाता है. हमारे देश में दलहनी फसलों के अन्तर्गत उगाई
जाने वाली फसलों में चना, अरहर, उड़द, मूंग, मटर, लोबिया तथा मसूर आदि मुख्य
हैं.
दलहनी फसलों का इतना महत्व होने के बावजूद इधर लगभग दो दशकों से इनका उत्पादन
बढ़ा नहीं है, बल्कि जहां का तहां ही है. उपलब्ध आंकड़ों से ऐसा पता चलता है कि
देश के कुल खेती किये जाने वाले क्षेत्र का लग-~भग १८-२० प्रतिशत क्षेत्र ही
दलहनी फसलों को उगाने के उपयोग में लाया जाता है, जिससे देश के कुल खाद्यान्नों
के उत्पादन का केवल १०-१२ प्रतिशत ही दालों का उत्पादन होता है. इतना ही नहीं,
बल्कि दालों की प्रति दिन उपलब्धता भी इधर काफी गिर गई है. यह उपलब्धता प्रति
व्यक्ति प्रति दिन द्वितीय योजना काल में ६८.५ ग्राम थी जो पांचवी योजना
के समय घटकर ४३.९ ग्राम रह गयी थी. प्रति व्यक्ति की ६० ग्राम प्रति दिन
न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही इस शताब्दी के अन्त तक लगभग २४० लाख टन
दालों का उत्पादन करना जरूरी होगा. अन्य फसलों की भांति, दलहनी फसलों की भरपूर
उपज लेने के लिए जहां एक ओर उन्नत किस्म के बीज, सही और ठीक समय पर खाद, तथा
सिंचाई, निराई-गुड़ाई आदि तथा अन्य कृषि कार्यों की सही समय पर आवश्यकता होती
है वहीं दूसरी ओर सही तथा ठीक समय पर ठीक प्रकार के पौध संरक्षण के कार्यों का
भी महत्व कम नहीं समझना चाहिए, क्योंकि काफी मेहनत से उगाई जा रही अच्छी से
अच्छी फसलों पर भी कीट व्याधियों एवं बीमारियों के प्रकोप के बुरे परिणामों से
हम सभी लोग भलीभांति परिचित हैं.
चना तथा अन्य दलहनी फसलों को नुक-~सान पहुंचाने वाले कीड़ों की संख्या वैसे तो
लगभग १५० है परन्तु इनमें से कर्तककीट (कटवर्म), फलीवेधक सूंडियां (पॉडबोरर),
पत्तियों को खाने वाली सूंडियां (लीफ ईटिंग कैटरपिलर्स), पत्ती में सुरंग बनाने
वाले कीट (लीफ माइनर), तना छेदक (स्टेमबोरर), पत्ती फुदका (लीफ हॉपर्स), माहू
(एफिड) तथा श्वेत मक्खी ह्वाइट फ्लाई) आदि हैं.
प्रस्तुत लेख में यह प्रयास किया गया है कि पाठक बन्धु इन दलहनी फसलों को
नुकसान पहुंचाने वाले कीटों की पहचान कर सकें और उचित समय पर सही ढंग से रोकथाम
कर के दालों की भरपूर उपज प्राप्त कर सकें.
कर्तक कीट (कटवर्म) यह एक विश्व-~व्यापी एवं सर्वभक्षी कीट है. इस कीट की कई
प्रजातियां पाई जाती हैं. जिसमें एग्रोटिस एपलीलान, ए. फलेमेट्रा और ए. सजेटम
मुख्य हैं. इसे भिन्न-भिन्न स्थानों पर अलग-अलग नामों से जैसे कटुवा कीड़ा,
सूंडी, चोरकीड़ा, किरौना एवं कम्टा आदि नामों से जाना जाता है. इसका प्रकोप चने
की फसल के अतिरिक्त मटर, मसूर, मूंगफली, तम्बाकू और आलू आदि पर भी पाया जाता
है. फसलों की वास्त-~विक क्षति इस कीट की सूंडियों द्वारा होती है. ये सूंडियां
दिन के समय खेतों की मिट्टी अथवा घास-फूस में छिपी रहती हैं तथा रात्री के समय
अपने छिपे हुए स्थानों से निकलकर फसलों को नुकसान पहुंचाती हैं. जैसाकि इसके
नाम से ही पता चल जाता है, इस कीट की सूंडियां अल्पायु में पौधों को आधार से
काट कर तथा बड़े पौधों को शाखाओं एवं पत्तियों को काटकर फसल को भारी नुकसान
पहुंचाती हैं. जब इनकी संख्या अधिक होती है तथा हमला तीव्र होता है, इस दशा में
खेतों को देखने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो रात के समय जानवर खेत चर गये हों.
इस कीट की पूर्ण विकसित सूंडियों की लंबाई हाथ की छोटी उंगली के बराबर (लगभग
४२-४५ मि. मी.) तथा रंग मटमैला होता है. इस कीट के प्रौढ़ शलभों (पतंगों) की
लंबाई लगभग २५ मि.मी. तथा मोटाई लगभग ७ मि. मी. होती है. पंखों के विस्तार के
साथ शलभों की चौड़ाई ५२ मि. मी. होती है. अलग-अलग प्रजातियों के शलभों का रंग
गहरे काले भूरे से लेकर भूरा लाल तक होता है. अपने पोषक पौधों की पत्तियों अथवा
खेतों की मिट्टी पर एक मादा शलभ लगभग २००-३५० अंडे समूहों में देती है. इन
अंडों से गर्मियों तथा जाड़ों में क्रमश: २ तथा ८-१३ दिनों में सूंडियों निकल
आती हैं. नवजात सूंडियों की लंबाई लगभग १.५ मि. मी. होती है. फरवरी से अप्रैल
तक ये सूंडियां ३०-३४ दिनों में पूर्ण विकसित हो जाती हैं. ये सूंडियां रात के
समय सक्रिय रहती हैं. दिन के समय ये मिट्टी के ढेलों अथवा घास-फूस में छिपी
रहती हैं. पूर्ण विकसित सूंडियां मिट्टी के कोष्ठ बनाकर खेतों में प्यूपा की
अवस्था में परिवर्तित हो जाती हैं. प्यूपा काल गर्मियों में लगभग १० दिन तथा
शरदऋतु में ३० दिन का होता है. शलभ भी प्राय: रात के समय निकलते हैं. इनका एक
जीवन-चक्र पूरा होने में लगभग ४८-७७ दिनों का समय लगता है.
रोकथाम - दलहनी फसलों को इस कीट से सुरक्षित रखने के लिए बुआई करते समय
एल्ड्रीन अथवा हेप्टावलोर की ५ प्रतिशत चूर्ण की ३०-४५ किलोग्राम मात्रा प्रति
हे. की दर से खेतों की मिट्टी में मिला देनी चाहिए. फसलों पर १० प्रतिशत
बी.एच.सी. पाउडर की ३० कि. ग्रा. मात्रा को प्रति हैक्टर की दर से भुरकाव करके
भी इस कीट पर नियंत्रण पाया जा सकता है. लिन्डेन की २ प्रतिशत चूर्ण की ३० कि.
ग्रा. मात्रा प्रति है. की दर से बुआई के बाद भुरकाव करके भी कर्तककीट से दलहनी
फसलों को बचाया जा सकता है.
चने की फली वेधक कीट (ग्राम पॉड बोरर)
कर्तक कीट की भांति ही यह भी एक सर्वभक्षी कीट है. इसका वैज्ञानिक नाम हेलिओथिस
आरमीजेरा है. यह कीड़ा चने के अलावा मटर, तम्बाकू, टमाटर, आलू, कपास आदि
महत्वपूर्ण फसलों को भी क्षति पहुंचाता है. इसे चने की सूंडी, चने की इल्ली आदि
कई नामों से जाना जाता है. चने की फसल का यह एक घातक शत्रु है इस कीट की
सूंडियों का रंग हल्का हरा होता है तथा इन्हीं के द्वारा फसलों का वास्तविक
क्षति होती है. कर्तक कीट की सूंडियां तो केवल रात के समय ही अपने छिप हुए
स्थानो से निकलकर फसलों को क्षति पहुंचाती हैं, जबकि फली बेधक कीट की सूंडियां
दिन के समय भी सक्रिय रहता है तथा दलहनी फसलों की फलियों को बेधकर अन्दर ही
अदर बढ़ रहे दानों को खाती रहती हैं. फलियों पर बने छिद्रों को देखकर हा उनकी
उपस्थिति का पता चल जाता है. अधिक क्षतिग्रस्त फसलों में खाली फलियों की संख्या
काफी बढ़ जाती है. इस प्रकार फसलों की उपज सूंडिया की संख्या और हमले की
तीव्रता के कारण घट जाता है. ये सूंडियां जब एक फली के दानों को खा जाता हैं तो
साथ की दूसरी स्वस्थ फलियों पर आक्रमण प्रारम्भ कर देती हैं. इस कीट की एक
सूंडी प्यूपा की अवस्था तक पहुंचने के पूर्व लगभग ३०-४० फलियों को खोखला कर
देती है. प्रौढ़ शलभों का रंग पीला भूरा होता है. इनकी लंबाई लगभग १६ मि. मी.
तथा चौड़ाई ६ मि. मी. होती है. पंख फैलाने पर इनकी चौड़ाई ३७ मि. मी. होती है.
इस कीट की शलभ मादाएं अपने अंडे पौधों के मुलायम भागों पर देती हैं. एक मादा
अधिक से अधिक ७४० अंडे ४ दिनों में देती है. ये अंडे चमकदार पीले और आकार में
गोल होते हैं. अप्रैल से अक्तूबर के मध्य अंडों से लगभग २-४ दिनों तथा फरवरी
के महीने में ६ दिनों में नवजात सूंडियां निकल आति हैं. ये सूंडियां सर्वप्रथम
कुछ दिन के लिए पौधों की पत्तियों को खाती हैं. उसके बाद फलियों में छिद्र करके
घुस जाती हैं, और बढ़ते हुए दानों को अन्दर ही अन्दर खाती रहती हैं. सूंडियां
१३-१९ दिनों में पूर्ण विकसित हो जाती हैं. पूर्ण विकसित सूंडियां फलियों से
निकल कर मिट्टी में जाकर प्यूपा में परिवर्तित हो जाती हैं. सक्रिय मौसम में
प्यूपाकाल ८-१५ दिनों का होता है, परन्तु शरदृतु में यह समय न्यून तापमान आदि
के कारण बढ़ जाता है. इस कीट की एक वर्ष में लगभग ८ पीढ़ियां होती हैं.
रोकथाम
इस कीट की रोकथाम के लिए फसलों पर हमला दिखाई देते ही थायोडान के ०.०७ हमला
प्रतिशत घोल का छिड़काव कर देना चाहिए तथा आवश्यकतानुसार १०-१५ दिनों के अन्तर
पर उस छिड़काव को दोहराया जा सकता है. इस छिड़काव के अलावा इसी कीटनाशी रसायन
के ४ प्रतिशत चूर्ण की २०-२५ किलो-ग्राम मात्रा को प्रति है. का दर से भुरकाव
करके भी इस कीट से दलहनी फसलों को बचाया जा सकता है. ५ प्रतिशत डी.डी.टी.+५
प्रतिशत बी. एच. सी. चूर्ण के मिश्रण के भुरकाव द्वारा भी इस कीट से फसलों की
रक्षा की जा सकती है. कारबरिल की ०.१ प्रतिशत सोद्रता वाले घोल के छिड़काव
द्वारा भी इस कीट से दलहनी फसलों को बचाया जा सकता है. इन कीट-~नाशा रसायनों के
छिड़काव से पत्तियां खाने वाली अन्य तरह-तरह की सूंडियों की भी रोकथाम हो जाती
है.
अरहर की फली की मक्खी (रेडग्राम पाँड फ्लाइ)
इस कीट का वैज्ञानिक नाम एग्रोमाइजा आट्सा है. अरहर उगाने वाले सभी क्षेत्रों
में यह कीट पाया जाता है. परन्तु उत्तर भारत में अपेक्षाकृत यह सामान्य रूप में
मिलता है. इस कीट की प्रौढ़ छोटी सी काली मक्खी जैसी होती है, जिसके छोटे-छोटे
मैगट फलियों में घुसकर अन्दर ही अन्दर दानों को खाकर अरहर की फसल को नुकसान
पहुंचाते हैं. इस कीट से ग्रसित फलियों पर फफूंदी, बैक्टीरिया आदि बीमारियों
का भी प्रकोप हो जाता है, जिसके फलस्वरूप पैदावार घट जाती है तथा किसान भाइयों
को बहुत अधिक आर्थिक क्षति उठानी पड़ती है.
मादा मक्खी छोटे अंडे मुलायम फलियों पर देती है. इन अंडों से २-४ दिनों में
छोटे मैगट निकल कर पहले कुछ दिनों तक फलियों की एपीडर्मिस को खाते हैं,
तत्पश्चात फलियां बेधकर दानों को क्षति पहुंचाते हैं. ये मैगट ५-१० दिनों के
अन्दर पूर्ण विकसित हो जाते हैं. पूर्ण विकसित मैगट क्षतिग्रस्त फलियों के बीट
में ही प्यूपों में परिणित हो जाते हैं. प्यूपों से ४-१३ दिनों के अन्दर
मक्खियां निकल आती हैं. इस कीट का एक जीवन-चक्र पूरा होने में ११-२७ दिनों का
समय लगता है और एक साल में इसकी कई पीढ़ियां पाई जाती हैं.
रोकथाम - चूकि मादा मक्खियां अपने अंडे कोमल फलियों पर देती हैं, अत: इस कीट
से अरहर की फसल को बचाने के लिए प्रारंभिक अवस्था में ही फलियों के आते ही डी.
डी.टी. के ०.१ प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए ताकि अंडों से निकलते ही मैगट
नष्ट हो जायें. ए. मोहम्मद हनीफ और उनके सहयोगी इंडियन ज. प्लांट प्रोटेक्शन ५
(१): ८३-८६ १९७७ के अनुसार अल्डीकार्व के रवों को १.२५ वास्तविक तत्व प्रति है.
की दर से बुआई के ४५ दिनों के बाद देने से या सेवीडाल कारवरिल+बी. एच. सी.
कारवो-~फेनाथियान या ट्राइक्लोरफान की एक किलो-~ग्राम वास्तविक मात्रा का,
फलियों के बनते समय, १५ दिनों के अन्तर पर, दो बार भुरकाव करने से कीट की
संख्या पर काफी हद तक नियंत्रण पाने के साथ-साथ ही उपज की भी वृद्धि की जा
सकती है. प्लूममाथ - इसका वैज्ञानिक नाम एकजालास्टिस एटोमोजा है. यह कीड़ा
मुख्यतया आंध्र प्रदेश, असम, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और कर्नाटक में
अरहर का विशेष शत्रु है. इसकी सूंडियों द्वारा फसल को क्षति पहुंचाती है. ये
सूंडियां सर्वप्रथम अरहर की फलियों की ऊपरी सतहों को खुरच कर तथा बाद में
फलियों में छिद्र बनाकर अन्दर चली जाती हैं. फलियों में बढ़ रहे दानों को खाकर
अरहर की फसलों को भारी नुकसान पहुंचाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप उपज घट
जाती है. पूर्ण विकसित होने पर इन सूंडियों की लंबाई १.२५ से. मी. होती है.
इसका रंग हरा भूरा होता है. सूंडियों के शरीर पर छोटे-छोटे रोयें होते हैं.
पौधों के मुलायम भागों पर मादा शलभ १५-२० अंडे अलग-अलग देती हैं. अंडों से २-५
दिनों में सूंडियों के अन्दर दानों को खाकर लगभग १०-२५ दिनों में पूर्ण विकसित
हो जाती है. पूर्ण विक-~सित सूंडियां फलियों की ऊपरी सतह पर अथवा प्रवेश
छिद्रों के मध्य ही प्यूपों में परि-~वर्तित हो जाती हैं. इनका एक जीवन-चक्र
पूरा होने में लगभग १७-४२ दिनों का समय लगता है. पोषक पौधे बराबर मिलते रहने पर
यह कीट पूरे साल सक्रिय रह सकता है. वर्षा ऋतु में इस कीट का हमला अपेक्षाकृत
अधिक तीव्र होता है.
रोकथाम - मिथाइल-पैराथियान के ०.०५ प्रतिशत के घोल के छिड़काव द्वारा इस कीट पर
नियंत्रण पाया जा सकता है. डी. डी. टी. घुलनशील के ०.२ प्रतिशत घोल का इस्तेमाल
करके भी इस कीट की रोकथाम की जा सकती है.
मसूर का फली वेधक कीट
इस कीट का वैज्ञानिक नाम इटोलिया जिन्केनेला है. यह उत्तर भारत में मसूर और मटर
का एक प्रमुख कीट है. इसकी छोटी हरी सूंडियां फलियों में घुस कर बढ़/पड़ रहे
दानों को खाकर फसल को नुकसान करती हैं. फरवरी और मार्च के महीनों में रात्रिचर
शलभ निकलते हैं. मादा शलभ पोषक पौधों के विभिन्न भागों पर यहां तक कि फलियों पर
अलग-अलग अथवा समूहों में अंडे देती हैं. नव-~जात सूंडियां पहले फूलों को खाती
हैं. तत्प-~श्चात् फलियों में सूराख करके घुस जाती हैं और अन्दर ही अन्दर बढ़ते
हुए दानों को खाती रहती हैं. ये सूंडियां १०-२७ दिनों में पूर्ण विकसित हो जाती
हैं. पूर्ण विकसित सूंडियां खेती की मिट्टी में २-४ सें.मी. की गहराई में जाकर
प्यूपा में बदल जाती हैं. प्यूपा से १०-१५ दिनों के अन्दर शलभ निकलने लगते हैं.
यह कीड़ा पूरे वर्ष सक्रिय रहता है तथा एक साल में इसकी लगभग ५ पीढ़ियां पाई
जाती हैं.
रोकथाम - मेटासिस्टाक्स ०.०५ प्रतिशत अथवा डी. डी. टी. के ०.१ प्रतिशत सांद्रता
वाले घोल के छिड़काव द्वारा इस कीट पर काबू पाया जा सकता है.
मटर की पत्ती में सुरंग बनाने वाला कीट
इस कीट का वैज्ञानिक नाम फाइटो-~माइजा अटरीकारनिस है. उत्तर भारत में इस कीट का
प्रकोप काफी फैला हुआ है. यह मटर, मसूर आदि जैसी दलहनी फसलों का प्रमुख शत्रु
कीट है. इस कीट की प्रौढ़ मक्खी जैसी होती है. इस कीट के मैगटों द्वारा ही फसल
को वास्तविक नुकसान पहुंचता है, जैसा कि इस कीट के नाम से ही पता चलता है. इसके
मैगट पत्तियों में सुरंगें बनाकर नुकसान पहुंचाते हैं. क्षतिग्रस्त पत्तियों पर
सूर्य की चमकदार रोशनी पड़ने पर ये मैगट अपनी सुरंगों में साफ-साफ पत्तियां
खाते हुए दिखाई देने हैं. यह कीट दिसम्बर से अप्रैल या मई तक सक्रिय होता है,
जब कि साल के शेष समय में यह मिट्टी के अन्दर प्यूपा की अवस्था में ही रहता है.
दिसम्बर में मादा मक्खियां पत्तियों के तन्तुओं में अंडे देती हैं. इन अंडों से
२-३ दिनों में मैगट निकल आते हैं. मैगट पत्तियों के निचले और ऊपरी तन्तुओं के
बीच टेढ़ी-मेढ़ी सुरंगें बनाते हैं. ये मैगट लगभग ५ दिनों में उन्हीं सुरंगों
के मध्य प्यूपा में परिवर्तित हो जाते हैं. इन प्यूपा से लगभग ६ दिनों में
प्रौढ़ मक्खियां निकल आती हैं. इस कीड़े का एक जीवन-चक्र लगभग १३-१४ दिनों में
पूरा हो जाता है.
रोकथाम - इस कीट के आक्रमण से दल-~हनी फसलों को बचाने के लिए रोगर,
मेटासिस्टाक्स अथवा एंथियों के ०.०२ प्रतिशत के घोल या लिंडेन अथवा सेविन के
०.१ प्रति-~शत के घोल का छिड़काव फसल पर कीट का हमला दिखाई पड़ते ही कर देना
चाहिए. आवश्यकतानुसार यह छिड़काव २-३ सप्ताह के अन्तर पर दोहराया जा सकता है.
बिहार की रोयेंदार सूंडी
इस कीट का वैज्ञानिक नाम डाईक्रिसिया आवलिकुआ है. यह एक सर्वभक्षी कीट है. यह
मुख्य रूप से उड़द, मूँग, तिल, असली, सरसों और कुछ प्रमुख सब्जियों का भी भयानक
शत्रुकीट है. पंख फैलाने पर इस कीट की प्रौढ़ शलभ लगभग ५० मि. मी. नापी जा सकती
है. इनका रंग हल्का पीला होता है. इस कीट की सूंडियां जैसा कि नाम से ही प्रतीत
होता है, रोयेंदार होती हैं तथा सूंडियों के द्वारा ही फसलों को नुकसान पहुंचता
है. ये सूंडियां पत्तियों को खाती हैं. इनका आक्रमण तीव्र होने पर पौधों की
पत्तियां पूरी तरह से नष्ट हो जाती हैं तथा फसल बरबाद हो जाती है. पूर्ण
विकसित सूंडियों की लम्बाई ४०-४५ मि. मी. होती है. गर्मियों (मई-जून) में और
जाड़ों (दिसम्बर से फरवरी) में यह कीट प्यूपा अवस्था में पौधों के मलवों में
व्यतीत करती है. मार्च में प्रौढ़ निकलते हैं. ये भी रात्रिचर होते हैं. मादा
शलभ लगभग ४००-१००० अंडे समूहों में पत्तियों की निचली सतहों पर देते हैं. अंडों
से लगभग ८-१३ दिनों में सूंडियां निकल आती हैं. सर्वप्रथम ये सूंडियां समूहों
में रहकर नुकसान पहुंचाती हैं परन्तु बाद में अपने पोषक पौधों की खोज में
अलग-अलग हो जाती हैं. ये सूंडियां ४-८ सप्ताह में पूर्ण विकसित हो जाती हैं.
पूर्ण विकसित सूंडियां मिट्टी में अथवा पौधों के मलवों में काकून बना कर उसी
में प्यूपा बन जाती हैं. सक्रिय मौसमों में प्यूपों से १-२ सप्ताहों में प्रौढ़
निकल आते हैं, जो लगभग एक सप्ताह तक जीवित रहते हैं. एक जीवन-चक्र पूर्ण होने
में लगभग ६-१२ सप्ताह का समय लगता है.
रोकथाम - बी. एच. सी. १० प्रतिशत चूर्ण अथवा मैलाथियान ५ प्रतिशत चूर्ण की
२५-३० कि. ग्रा. मात्रा प्रति हैक्टर की दर से क्षति-~ग्रस्त फसलों पर भुरकाव
कर के इस कीट पर नियंत्रण पाया जा सकता है. इसके अलावा मिथाइल पैराथियाल के
०.०४ प्रतिशत सांद्रता वाले घोल के छिड़काव द्वारा भी फसलों को इस कीट से बचाया
जा सकता है.
मटर तथा सोयाबीन का तना छेदक
इस कीट का वैज्ञानिक नाम मेलान एग्रोमाइजा फसियो लाई है. इसे बीन फ्लाई तना
छिद्रक या तना बेधक कीट के नामों से भी जाना जाता है. मटर तथा सोयाबीन के
अतिरिक्त यह फ्लाई अन्य कई दलहनी फसलों को नुकसान पहुंचाती है. इस कीट की
प्रौढ़ मक्खी जैसी होती हैं. इनकी लम्बाई लगभग २ मि. मी. होती है.
इतिहास में एक समय ऐसा भी रहा है जब याचक के पानी मांगने पर उसे
मिश्री-~मिश्रित दूध दिया जाता था. तब देश में दूध और घी की नदियां बह रही थीं.
हमारे अपने देखे काल में ही किसी के पानी मांगने पर उसे पहले गुड़ की डली भेंट
की जाती थी और बाद में पानी. हमारा कोई पर्व या उत्सव ऐसा नहीं होता जिस पर हम
अपने बंधु-बांधवों और इष्ट-मित्रों का मुंह मीठा नहीं कराते. मांगलिक अवसरों
पर लड्डू, बताशे, गुड़ आदि बांटकर अपनी प्रसन्नता को मिल-बांट लेने की परम्परा
तो हमारे देश में लम्बे समय से रही है. सच तो यह है कि मीठे की सबसे अधिक खपत
हमारे देश में ही है.
मिठास भरा प्राचीन
आयुर्वेद के ग्रन्थों में मधुर रस के पदार्थों से भोजन का श्रीगणेश करने का
परामर्श दिया गया है. "ब्रह्मांड पुराण" में भोजन का समापन भी मीठे पदार्थों से
ही करने का सुझाव है. एक ग्रन्थ में तो भोजन में मूंग की दाल, शहद, घी और शक्कर
का शामिल रहना अनिवार्य कहा गया है. `नामुद्रसूपना क्षौद्र न चाप्य घृत
शर्करम्.' ग्रीष्म ऋतु में शाली चावलों के भात में शक्कर मिलाकर सेवन करने
का सुझाव है. शक्ति-क्षय पर मिश्री मिले दूध और दूध की मिठाइयों के सेवन करने
की बात कही गई है.
सुश्रुत ने भोजन के छ: प्रकार गिनाए हैं: चूष्म, पेय, लेह्य, भोज्य, भक्ष्य और
चर्व्य-~पाचन की दृष्टि से चूष्य पदार्थ सबसे अधिक सुपाच्य बताए गए हैं. फिर
क्रम से उनकी सुपाच्यता कम होती जाती है और चर्व्य सबसे कम सुपाच्य होते हैं.
ईख या गन्ने को जो मिठास का प्रमुख स्त्रोत है, पहले वर्ग में रखा गया है,
गन्ने का रस, शरबत, फलों के रस पेय पदार्थों में हैं. चटनी-सौंठ-कढ़ी लेह्य
दाल-भात भोज्य, लड्डू-पेड़ा, बरफी भक्ष्य और चना-परवल, मूंगफली चर्व्य हैं.
मिठास का दूसरा नाम गन्ना
जब हम मिठास की बात करते हैं, विशेषकर भोजन में मिठास की, तो हमारा ध्यान बरबस
गन्ने की ओर जाता है. उससे हम अनेक रूपों में मिठास प्रदान करने वाले पदार्थ
प्राप्त करते हैं, जैसे-गुड़, राब, शक्कर, खांड, बूरा, मिश्री,. चीनी आदि. यों
मिठास प्राप्त करने के कुछ अन्य स्त्रोत भी हैं. मधु या शहद हमारे लिए प्रकृति
का उपहार हैं जिसे वह मधुमक्खियों द्वारा फलों के रस से तैयार कराती है.
दक्षिण भारत में ताड़ से गुड़ और शक्कर तैयार की जाती है. पश्चिम एशिया के देश
खजूर से यह काम लेते हैं. यूरोपीय देश चुकंदर से चीनी तैयार करते हैं. अब
सैकरीन नाम से कृत्रिम चीनी भी बाजार में उपलब्ध है, जो मधुमेह के रोगियों के
लिए भी निरापद बताई गई है.
फिर भी चीनी या उसकी शाखा-प्रशा-~खाओं को प्राप्त करने का सबसे प्रमुख स्त्रोत
गन्ना ही है. कहते हैं, विश्व में जितने क्षेत्र में गन्ने की खेती की जाती
है, उसका लगभग आधा हमारे देश में है. कोई आश्चर्य नहीं कि गन्ने की फसल हमारे
देश की सबसे महत्वपूर्ण व्यावसायिक फसलों में से एक है और चीनी उद्योग हमारे
देश के प्रमुख उद्योगों में है. हालांकि इस उद्योग को बहुत पुराना नहीं कहा जा
सकता चूंकि चौथे दशक के बाद, या दूसरे महायुद्ध के दौरान ही इसका तेजी से विकास
हुआ है.
किन्तु शक्कर, गुड़, मिश्री आदि के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती. हजारों
वर्षों से यह उद्योग यहां स्थापित हैं, बल्कि हम अति प्राचीन काल से ही विश्व
के प्राय: सभी भागों को इनका निर्यात करते रहे हैं. प्राचीन रोम, मिस्त्र,
यूनान, चीन, अरब आदि सभी देशों को ये वस्तुएं जाती रही हैं. कुछ वर्ष पूर्व तक
हमारा देश चीनी का निर्या-~तक भी रहा है. कुछ आंतरिक खपत में वृद्धि के कारण और
कुछ विभिन्न कारणों से उत्पादन में कमी के कारण इस वर्ष हमें विदेशों से चीनी
का आयात करने को बाध्य होना पड़ा है.
सिंध के प्राचीन इतिहास पर प्रकाशित पुस्तक "सिंधु सौवीर" में टाड द्वारा लिखित
`राजस्थान' के हिन्दी अनुवाद में राय बहा-~दुर गौरीशंकर ओझा की एक अत्यंत
दिल-~चस्प टिप्पणी इस प्रकार दी गई है:
"घग्घर नदी की एक शाखा का नाम साकड़ा अथवा हाकड़ा था, जो पहले पंजाब से चलकर
बीकानेर और जोधपुर राज्यों में से बहती सिंध में पड़ती थी. परन्तु बहुत समय से
उसका प्रवाह बंद हो गया है, जिसके बारे में बहुत बातें प्रचलित हैं. किन्तु
उसके बंद होने का कारण यह है कि इस तरफ (राजस्थान) का किनारा ऊंचा होते-होते
बिल्कुल बंद हो गया. अभी तक थोड़ा-~थोड़ा पानी बीकानेर राज्य के हनुमानगढ़
प्रदेश में आता है, जहां उससे गेहूं आदि की खेती होती है. उसे वहां वाले कग्गर
नदी कहते हैं. मारवाड़ में हाकड़ा के बहने का यह प्रमाण है कि जोधपुर और मालानी
के परगनों में बहुत से गांवों की सीमा के अंदर गन्ना पेरने के पत्थर के कोल्हू
पड़े मिलते हैं, जिनके बारे में ऐसा कहा जाता है कि पहले यहां हाकड़ा (हाकरो)
नदी बहती थी, जिसके किनारे गन्ने की खेती होती थी, जिसे इन कोल्हुओं में पेरकर
गुड़ बनाया जाता था. अगर इस नदी का बहाव यहां न होता तो इन रेतीले भागों में
ऐसे कोल्हू कैसे संभव होते (टाड-`राजस्थान' प्रथम खंड पृष्ठ ३१).
रेत में गन्ने के खेत
राजस्थान में पत्थर के कोल्हुओं का मिलना गन्ने की कृषि की प्राचीनता का ही
प्रमाण है. यहां जिस धग्धर या कग्गर नदी का उल्लेख है, उसे वैदिककालीन सरस्वती
होने का विश्वास किया जाता है. ईसा की छठी-सातवीं शती तक इस नदी में पानी था
और उसके तट पर रंगमहल जैसे सम्पन्न नगर बसे हुए थे, जो अब अस्तित्व-शेष हो गए
हैं. यदि हम प्रागैतिहास की खोज में जाए तो यह क्षेत्र हड़प्पाकालीन संस्कृति
का एक प्रमुख केन्द्र रहा है.
भारत में आयुर्वेद के जनक समझे जाने वाले चरक और सुश्रुत को गन्ने की विभिन्न
जातियों, उससे बनने वाले विभिन्न पदार्थों और उनके औषधीय गुणों का ज्ञान था.
चरक कनिष्क (कुषाणवंश) के समकालीन समझे जाते हैं. कहते हैं, उन्होंने कनिष्क की
एक रानी को भी एक असाध्य रोग से मुक्ति दिलाई थी. कनिष्क का काल ईसवी सन के
प्रारम्भ से पहले का समझा जाता है, अर्थात् लगभग दो हजार वर्ष पूर्व. इक्षु,
दीर्घच्छद, भूमिरस, गुड़मूल, असिपत्र, मधुतृण-संस्कृत में गन्ने के अनेक नाम
हैं. आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथों में "इक्षुवर्ग:" का पृथक से उल्लेख है.
रूपरंग के अनुसार उसकी अनेक जातियां हैं जैसे पौंड्रक, भीसक, वंशक, शतपोरक,
करंतार तापसेक्ष, कांडेक्ष, सूचीपत्र, नैपाल, दीर्घपत्र, नीलापोर, कोशक आदि.
पौंड्रक से ही उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों में गन्ने का एक नाम पौंड़ा भी
पड़ गया है. यह सफेद या कुछ पीलापन लिए हुए होता है.
पौंड्रक और भीरुक बात-पित्त नाशक, रस और पाक में मधुर, शीतल और बलकर्त्ता बताए
गए हैं. कोशक भारी, शीतल और रक्तपित्त तथा क्षय को नष्ट करने वाला है.
कांतारेक्षु काले रंग का होता है और भारी कफ पैदा करने वाला और दस्तावर है.
दीर्घपोर कड़ा और वंशक क्षारयुक्त होता है वंशक को बंबइया ईख भी कहते हैं.
शत-~पोरक में गांठों की अधिकता होती है और गुण में वह बहुत कुछ कोशक के समान
है. वह उष्ण, क्षारयुक्त और वातनाशक है. तापसेक्षु मृदु-मधुर, कफ कुपित करने
वाला, तृप्तिकारक, रुचिप्रद और बलकारक है. कांडेक्षु में तापसेक्षु जैसे ही गुण
होते हैं. किन्तु वात कुपित करता है. सूचीपत्र के पत्ते बहुत बारीक होते हैं.
नीलपोर में नीले रंग की गांठें होती हैं. नैपाल नेपाल देश में होता है और
दीर्घपात्र के बड़े-बड़े पत्ते होते हैं. ये चारों प्रकार के गन्ने
बातकर्त्ता, कफ पित्तनाशक, कसैले और दाहकर्ता हैं. मनो-~तृप्ता नामक गन्ना
वातनाशक, तृषारोग नाशक, शीतल, अत्यंत मधुर और रक्तपित्त निवारक माना गया है.
अवस्थानुसार भी गन्ने के गुणों में अंतर आ जाता है. बाल्यावस्था का गन्ना कफ
बढ़ाने वाला, मेदा बढ़ाने वाला और प्रमेह रोग को नष्ट करने वाला होता है. युवा
गन्ना वायुनाशक, स्वादु, कुछ-कुछ तीखा और पित्तनाशक होता है. पकने पर वह
रक्तपित्त का नाश करता है, घावों को भरता है और बल-वीर्य में वृद्धि करता है.
गन्ने के जड़ की ओर का नीचे का भाग अत्यंत मधुर, रसयुक्त और मध्य भाग मीठा
होता है. ऊपर की ग्रंथि या पंगोली में नुन-~खारा रस रहता है. यदि किसी गन्ने
की जड़ और अग्र भाग को जीव-जंतुओं ने खा लिया हो, उसकी गांठों सहित पिराई की गई
हो, उसमें मैल मिल गया हो, तो रस बिगड़ जाता है. अधिक काल तक रखे रहने से भी
उसके दूषित रहने की संभावना रहती है. तब वह स्वाद में खट्टा, वातनाशक, भारी,
पित्त-कफकारक, दस्तावर और बार-बार मूत्र लाने वाला हो जाता है. आग पर पकाया
हुआ रस भारी, स्निग्ध, तीखा, वात-~कफनाशक, गोलानाशक और किंचित पित्त करने वाला
होता है.
गुड़ में कितने गुण
गन्ने का रस पेरकर और औटाकर उससे विभिन्न पदार्थ तैयार किए जाते हैं, जैसे
गुड़ राब, शक्कर, मिश्री, चीनी आदि. इन पदार्थों के भी गुणों में अंतर आ जाता
है. राब भारी, कफकत्र्ता और वीर्य बढ़ाने वाली है. यह वात, पित्त, मूत्रविकार
आदि का निवारण करती है. मिश्री बलकारक हलकी, वात-पित्तनाशक, मधुर और रक्तदोष,
निवारक होती है. गुड़ भारी, स्निग्ध, वात-~नाशक, मूत्रशोधक, मेदावर्धक,
कफकत्र्ता, कृमिजनक और बलकर्ता है. पुराना गुड़ हलके पथ्य का काम देता है. वह
अग्निका-~रक, बलदायक, पित्तनाशक, मधुर, वातना-~शक और रुधिर को स्वच्छ करने
वाला है. नया गुड़ अग्निकारक है. इसके सेवन से कफ श्वांस, खांसी और कृमिरोग
पैदा होते हैं. नित्य अदरक के रस में गुड़ मिलाकर खाने से कफ नष्ट होता है.
हरड़ के साथ खाने से पित्तनाश होता है. सोंठ के साथ खाने से सम्पूर्ण वातविकार
नष्ट होते हैं. इस प्रकार गुड़ त्रिदोषनाशक है. खांड मधुर, नेत्रों को लाभ
पहुंचाने वाली, वात-पित्तनाशक, स्निग्ध, बलकारक और वमननिवारक है. चीनी मधुर
रुचिकारी, बात-पित्तनाशक, रुधिर दोष निवारक, दाहशांतिकर्ता, शीतल और वीर्य
बढ़ाने वाली है. इससे मूर्छा, वमन और ज्वर में लाभ पहुंचता है. यही गुण गुड़
से बनी फूल चीनी में है.
असल में हम भारतीय सदा से मधुर-~प्रिय रहे हैं. मीठा खाओ, मीठा बोलो, गुड़ न दो
तो गुड़ की सी बात अवश्य करो, हमारे जीवन सिद्धांत रहे हैं. शायद यही कारण है
कि आयुर्वेद के जनकों ने पाक, प्राश, अवलेह, आदि के रूप में हमारे लिए अनेक
मधुर और बलवर्धक औषधियां तैयार की हैं. अत: हमारे जीवन में गन्ने के महत्व का
अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है.
भारत में गन्ने की खेती लगभग ३२ लाख हैक्टर भूमि पर की जाती है जिससे १,८००
लाख टन गन्ने की उपज प्राप्त होती है. इस प्रकार गन्ने की औसत उपज लगभग ५७ टन
प्रति हैक्टर है जो उत्पादन-क्षमता से काफी कम है. यदि किसान भाई यह जान लें
कि गन्ने में कब और कितनी खाद दी जाये और कब और कैसे सिंचाई की जाए तो गन्ने
की उपज को काफी हद तक बढ़ा सकते हैं. हमारे देश में गन्ने के लिए प्रयुक्त
क्षेत्र को देखते हुए उसकी उपज अपेक्षाकृत कम है. इसका प्रमुख कारण
आवश्यकता-~नुसार खाद-पानी की सुविधा और उनका उपयोग उचित समय पर न होना है. देश
में कुल बोये गये फसल-क्षेत्र के लगभग ४३ प्रति-~शत भाग पर सिंचाई-सुविधा
उपलब्ध है. यदि विभिन्न फसलों की सिंचाई सुविधा की दृष्टि से देखा जाये तो
गन्ने को केवल ०.५ प्रतिशत पानी ही मिल पाता है. बोये गये गन्ने के कुल
क्षेत्र का लगभग ३४.६ प्रतिशत भू-भाग पर पूर्ण सिंचाई सुविधा उपलब्ध है और शेष
बड़े भाग (६५.४ प्रतिशत) पर सीमित सिचाई सुविधा है, या कहीं-कहीं पर नहीं के
बराबर है. यदि हम गन्ने की उपज का जायजा लें तो पता चलता है कि सिंचित क्षेत्र
में गन्ने की औषत उपज ६७ टन/हैओ है. सीमित सिंचाई वाले क्षेत्रों की केवल ४१
टन/हैओ है. गन्ने की फसल को वैसे तो हमेशा नमी की आव-~श्यकता होती है, लेकिन
जमाव, कल्ले निकलने और बढ़ाव के समय भूमि में पर्याप्त नमी का होना अत्यन्त
आवश्यक है. पाया गया है कि उत्तरी भारत में गन्ने की फसल के पूरे जीवन-काल में
लगभग १५०-१७५ सेंओमीओ पानी की आवश्यकता होती है. वर्षा द्वारा गन्ने की फसल को
लगभग १०० सेंओमीओ पानी की आपूर्ति हो जाती है और शेष पानी की मात्रा को सिंचाई
द्वारा गन्ने की वृद्धि को क्रान्तिक अवस्थाओं में पूरा करना पड़ता है.
गन्ने में उर्वरकों की मात्रा संबंधी सिफारिशों के आधार पर लगभग ४ लाख ५० हजार
टन नाइट्रोजन, १ लाख ५० हजार टन फास्फोरस तथा १ लाख ५० हजार टन पोटाश की
आवश्यकता है, जो हमारे देश में इसका ४०-५० प्रतिशत ही उर्वरक उपलब्ध हो पाता
है. ऐसी स्थिति में गन्ने की फसल से अच्छी उपज प्राप्त करना हमारे कृषि
वैज्ञानिकों के समक्ष चुनौती भरा प्रश्न है. यद्यपि इस ओर वैज्ञा-~निकों ने
अनवरत कठोर प्रयास किये हैं जिनके फलस्वरूप अब ऐसी संभावनाएं हो गई हैं कि
उपलब्ध सिंचाई सुविधा व उर्वरकों द्वारा वांछित उपज प्राप्ति की जा सकती है.
यदि किसान भाई सिंचित-~सुविधा व खाद की मात्रा तथा उनके प्रयोग करने के उचित
समय पर आधारित नवीन तकनीकी की जानकारी लेकर गन्ने की खेती करें तो भारी उपज
प्राप्त कर सकते हैं.
प्यासे गन्ने को पानी दें
प्रयोगों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि भूमि की जलधारिता के अनुसार औसतन ६०
प्रतिशत क्षेत्र क्षमता (फील्ड कैपेसिटी) गन्ने की अच्छी उपज के लिए अति उत्तम
है. इस क्षमता से अधिक पानी देने पर उर्वरक तत्वों के बह जाने का भय रहता है.
सिंचाई की उचित व्यवस्था होने पर वर्षा के पहले बसन्तकालीन गन्ने में
चार-पांच, शरदकालीन गन्ने में सात-आठ पिछेती बुआई की दशा में तीन-चार तथा
पेड़ी में चार-पांच सिंचाइयां करने की आव-~श्यकता होती है. वर्षा ऋतु के बाद की
आवश्यकतानुसार या दो सिंचाइयां करना उपज की दृष्टि से लाभप्रद पाया गया है.
गर्मियों में गन्ने की सिंचाई १५ दिन और जाड़े में २०-२५ दिन पर करना चाहिए.
किसानों के पास सिंचाई के लिए सीमित पानी है तो उस पानी का उपयोग किस समय किया
जाय कि अधिकतम लाभ उठाया जा सके इस ओर संस्थान ने महत्वपूर्ण कार्य किया है.
परीक्षणों के आधार पर यदि एक सिंचाई सुविधा है तो उसे मई के अंत या जून, तीन
सिंचाइयों को अप्रैल, मई, जून और चार सिंचाइयों को गन्ने के जमाव पूरा होने पर
मार्च, अप्रैल, मई और जून में करना चाहिए (सारणी-१). किसानों की सुविधा के
अनु-~सार पानी लगाने की चारों अवस्थाओं का वर्गीकरण जमाव पूरा होने, पहला,
दूसरा तथा तीसरा व्यांत निकलने के आधार पर करना चाहिए.
गन्ने की सिंचाई आमतौर पर पूरे खेत में सपाट विधि द्वारा या छोटी-छोटी
क्यारियां बनाकर की जाती हैं. इस विधि द्वारा सिंचाई करने से अधिक पानी की
आवश्यकता होती है.
बिहार के किसानों के लिए वरदान
गरमा धान की गरिमा
डा.आर.सी.चौधरी
मुख्य वैज्ञानिक (धान),
राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, बिहार
कृषि अन्वेषणालय,मीठापुर,पटना-८००००१
बिहार में खरीफ १९८३ का धान का मौसम १९८२ जितना सूखा तो नहीं, पर असामान्य
अवश्य था. यह सारणी १ से प्रकट है. अगस्त सितम्बर में वर्षा देर से होने पर
रोपाई देर से हुई. नये कल्लों में बाली सितम्बर में निकली तब तक ठंडा हो चुकी
थी इसलिए बालियां या तो निकली नहीं या उनमें दाना नहीं आया. इस प्रकार पैदावार
कम हुई. यह समस्या एक वर्ष की नहीं,हमेशा की है. इसका समाधान ढूंढा गया गरमा
धान की खेती में. धान की यह फसल मार्च से जून के बीच में की जाती है.
गरमा धान तकनीक, कई वैज्ञानिक तथ्यों और आर्थिक सिद्धान्तों के महत्वपूर्ण
सामन्जस्य पर आधारित है. खुली धूप, कीड़े और बीमारियों का कम या नगण्य प्रकोप,
गरमा मौसम में होता है. खरीफ मौसम के विपरीत, गरमा में शत-प्रतिशत अधिक उपजशील
किस्मों का उपयोग होता है. नाइट्रोजन और अन्य खादों का उपयोग भी खरीफ से (५
किलोग्राम प्रति हैक्टर) कई गुना अधिक होता है. शतप्रतिशत सिंचित क्षेत्र होने
के कारण फसल प्रबन्ध आदि समुचित होता है. फसल का सूखा, बाढ़ या बीमारी से मारे
जाने का भय नहीं होता है. फलस्वरूप किसान भी भययुक्त होकर यथोचित लागत लगाते
हैं. बिहार में गरमा धान की औसत उपज २० क्विंटल प्रति हैक्टर है, जबकि खरीफ की
केवल १०. यही सब कारण हैं कि किसानों ने गरमा धान को बिना अधिक प्रसार प्रयासों
के भी स्वयं अपनाया है और इसका क्षेत्रफल २,००,००० हैक्टर तक पहुंच गया है.
वर्तमान और भविष्य के क्षेत्र
१. इस समय गरमा धान का अधिकांश क्षेत्र सोन,गंडक और कोसी के कमांड क्षेत्र,
सरकारी और निजी नलकूपों से सिंचित क्षेत्रों तक सीमित है.
सारणी १ -धान के मौसम में वर्ष १९८३ और ४८ वर्ष की औसत वर्षा (मि.मी.) की तुलना
(कृषि अन्वेषणालय, पटना के आंकड़े).
माह वर्ष १९८३ ४८ वर्ष का औसत
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मई ६७.८ ३४.८
जून १२५.० १३५.९
जुलाई २८४.३ ३००.५
अगस्त १४७.९ २९१.५
सितम्बर १३५.७ २०९.८
अक्टूबर ७४.१ ७७.८
नवम्बर ०.० ५.७
दिसम्बर ४.८ २.५
---------------------------------------------------------------------
२.इसके अतिरिक्त, अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें खरीफ के बाद रबी फसल में बुआई
नहीं हो पाती,क्योंकि उनमें एकत्र पानी दिसम्बर के बाद सूखता है. ऐसा क्षेत्र
लगभग ५ लाख हैक्टर है.
३. कमांड क्षेत्र में भी नहरों का पानी रिसकर विस्तृत क्षेत्रों में भर जाता
है. इन क्षेत्रों में गरमा धान की एक अच्छी फसल ली जा सकती है.
४. दस से बीस साल हैक्टर में हर लाख बढ़ आती है. इन क्षेत्रों में जो कि निचले
क्षेत्रों में स्थित है, सिंचाई का प्रबंध करके गरमा धान की फसल ली जा सकती है.
५.गन्ना काटने के बाद या मटर, सरसों आदि जो मार्च तक पक जाती है के खेत पूरी
गरमी भर बेकार पड़े रहते हैं. इनमें मार्च से जून तक गरमा धान की एक अच्छी फसल
ली जा सकती है. इस प्रकार किसान एक आदर्श तीन फसली फसल चक्र अपनाकर अधिकतम
पैदावार प्राप्त कर सकते हैं.
६. गंगा और कोसी नदियों का दियारा क्षेत्र जहां खरीफ की फसल बाढ़ग्रस्त होने से
अनिश्चित है तथा भूमि जल स्तर ऊंचा होने के कारण बांस बेरिंग से सिचाई सुलभ है.
अतीत से वर्तमान तक
बिहार में गरमा धान की खेती का प्रारंभ वर्ष १९६६ के आस-~पास हुआ बताया जाता है
जिस समय 'ताइचुंग नेटिव.' नामक किस्म आयातित की गई थी. उसके पिछले छिटपुट रूप
से कतिपय सुधरी किस्में जैसे 'एन.सी. १६२६' जहां तहां गरमा में उगाई जाती थीं.
उनकी उपज क्षमता ही कम थी अतः गरमा खेती से कोई अधिक लाभ नहीं मिल पाया था.
'ताइचुंग नेटिव.' के बाद ही गरमा की खेती में गर्मजोशी आई. नई और अधिक उपजशील
अगेती किस्में जैसे 'बाला, 'कावेरी,'पूसा २-२' 'सी.आर. ४४-३५ ('साकेत४') के
प्रादुर्भाव और सिचाई योजनाओं के विकास से इनकी खेती गति से आगे बढ़ी.
सुनिश्चित और अच्छी पैदावार वाली इस प्रणाली को अधिक प्रचार-प्रसार की
आवश्यकता नहीं पड़ी. किसानों ने इसे सराहा और क्षेत्रफल बढ़कर २ लाख हैक्टर तक
पहुंचा.
मार्च के प्रथम पखवारे में नम विधि से पौद लगाइये. जब यह पौद ३०-३५ दिन की हो
जाय तो दो -तीन पौद एक-एक स्थान पर २० सें. मी. की कतार से कतार और १० सें. मी.
पौद से पौद की दूरी पर लगायें. केवल बुझाई गई किस्में जैसे 'पूसा २-२१' सी.आर.
४४-३५ , 'पूसा-३३' ही उगायें. खाद की मात्रा ८० कि. ग्रा. नाइट्रोजन, ४० कि.
ग्रा. फास्फोरस और २० कि. ग्रा. पोटाश प्रति हैक्टर व्यवहार करें. आधी
नाइट्रोजन और पूरा फास्फोरस और पोटाश रोपाई से पहले खेत में डालकर मिला दें.
नाइट्रोजन की शेष मात्रा की आधी रोपाई के एक माह के बाद तथा आधी उसके २० दिन
के बाद दें. किसी विशेष कीड़े या बीमारी का प्रकोप नहीं होता है. खरपतवार का
नियंत्रण करें निराई करके अथवा सियिनों से १ बाली निकलने के २५ दिन बाद
से सिचाई बन्द कर दें. कटाई के तुरंत बाद मंड़ाई करके दाने और पुआल अलग-अलग
सुखा लें.
अनुसंधान की उपलब्धियां और नई दिशायें
गरमा धान की समस्याओं के ऊपर नये प्रयोग किये गये हैं और कुछ से वांछित परिणाम
मिले हैं.
१. नई किस्में जैसे 'पूसा ३३,''सी.आर.४३-३५' ('साकेत ४') अगेती है और चावल
लम्बा पतला होता है जिससे किसान को अधिक कीमत मिलती है.
२. आने वाली किस्में जैसे 'आई.ई.टी. ३३७९' और आई.ई. टी. ३२८०' में प्रारंभिक
अवस्था में ठंड सह सकती है. अतः इनकी बुवाई १९ मार्च से पहले करना संभव है,
ताकि कटाई मानसून से पहले हो सकती है.
३. 'किरण' और 'आई.ई.टी.३११६' के दाने पकने के तुरंत बाद अंकुरित नहीं होते हैं.
अतः तैयार फसल बरसात में फंस जाय तो भी दस दिनों तक बालियों में अंकुरण नहीं
होगा.
४. साढ़े तीन माह या उससे कम अवधि में पककर तैयार होने वाली किस्मों के विकास
पर जोर दिया जा रहा है. इस सम्बन्ध में अन्तर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान,
फिलीपीन और अखिल भारतीय समन्वित चावल सुधार परियोजना के कार्यक्रमों से भरपूर
सहयोग लिया जा रहा है.
५. संकर-धान का परीक्षण भी गरमा मौसम के लिए किया जा रहा है. यह एकदम नई तकनीक
होगी.
६. बरसात में गी बालियों में अंकुरण रोकने का सफल उपाय तलाश लिया है. ऐसे
बालियों को ५ प्रतिशत नमक के घोल में डुबो देने से अंकुरण नहीं होता. नमक का घोल खेत के एक कोने में गड्डा खोदकर बनाया जा सकता है.
सारणी २ - गरमा धान से अधिक उपज मिलने के कारण *
---------------------------------------------------------------------
कारक खरीफ गरमा
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सामाजिक
किस्में ३० प्र.श. उन्नत १०० प्र.श. उन्नत
खाद ५ कि.ग्रा./है. समुचित
खेती का तरीका ३० प्र.श.उन्नत १०० प्र.श. उन्नत
जल नियंत्रण ४० प्र.श.क्षेत्र में १०० प्र. श. क्षेत्र में
वातावरण
कीट और बीमारियां अनेक,हानिकारक नहीं के बराबर
अनिश्चित,मेघ
आच्छादित निश्चित,खुली
बाढ़ या सूखा प्राय: नहीं
वैज्ञानिक
बालियां/वर्गमीटर २५० ३७५
दाने/वर्गमीटर २५,००० ३७,५००
उपज/हैक्टर ६.१६ ९.२४
---------------------------------------------------------------------
* आर. एफ. चैडलर (१९६९) से
सारणी ३-गरमा मौसम में तापक्रम, वर्षा और आद्रर्ता का औसत
(कृषि अन्वेषणालय,पटना के आंकड़े).
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तापक्रम वर्षा आर्द्रता
माह (२० वर्ष का औसत) ४८ वर्ष का औसत ०६४९ १३४९
अधिकतम न्यूनतम (मि.मी.) घंटे घंटे
----------------------------------------------------------------------------
फरवरी २५.ऑ सें. ग्रे. १०.ऑ सें.ग्रे. १७.८ मी.मी. ७९.० ३५.७
मार्च ३१.ऑ , , १५.ऑ , , ७.१ , , ६८.५ २५.७
अप्रैल ३७.ऑ , , २१.ऑ, , १३.३ , , ५७.९ २४.१
मई ३८.ऑ , , २४.ऑ , , ३४.८ , , ६८.१ ३५.७
जून ३६.ऑ , , २६.ऑ , , १३५.९ , , ८०.२ ५३.९
जुलाई ३२.ऑ , , २६.ऑ , , ३००.८ , , ८८.१ ७१.९
--------------------------------------------------------------------------
७. कभी -कभी ऐसा देखा जाता है कि एकाध सप्ताह बुआई में देरी होने से फसल के
कटने का समय जून के अंत में पड़ता है, जबकि बरसात की संभावना होती है. इस फसल
को लगभग १० दिन पहले काटना संभव हो सकता है. इसको जल्दी पका कर ऐसा करने के
लिए फसल पर ०.१ प्रतिशत ग्रैमेक्सोन नामक दवा का घोल बाली निकालने के २० दिन
बाद छिड़कना चाहिए दवा छिड़कने के तीसरे दिन फसल काटने के लिये तैयार हो जाती
है. इससे दाने में भी नमी कम हो जाती है. अतः मंडाई के बाद दाने सुखाने में भी
कम समय लगता है.
गरमा धान में क्या न करें
१.गरमा धान का बीज ३० मार्च के बाद न डालें. ऐसा देखा गया है कि कुछ किसान गरमा
के नाम पर बीज अप्रैल में गिराते हैं कि उनकों सिंचाई कम देना पड़े. पर ऐसा
करने से या तो एक ही धान की फसल से संतुष्ट रहना पड़ता है अथवा कटाई के समय
बरसात आ जाती है.
२. कटाई के बाद फसल की ढेरियों में न इकट्ठा करें. अच्छा हो यदि कटाई के तुरन्त
बाद ही मंड़ाई करके दाने सुखा लिये जायें.
३. पौद की सामान्य बढ़वार तक रोपाई करने का इंतजार न करें जैसे ही ३०-३५ दिन
पौद हो जाय उनकी रोपाई करें भले ही पौद छोटी रहें. रोपाई में देरी करने में
कटने में भी देरी होगी.
४. गरमा धान के खेत को हमेशा पानी से भरा न रखें. यह अनावश्यक और खर्चीला है.
आवश्यक है कि दरार फटने से पहले सिंचाई कर दें. सामान्यतया गरमा धान को १५०
मिली मीटर पौद लगाने के लिए २०० मिली मीटर का दो करने के लिए, ८०० मिली लीटर
वाष्पी उत्स्वेदन के लिए तथा ५००-१००० मिली मीटर भूमिगत रिसाव को पूकारने
के लिए पानी चाहिए .
सारणी ४-- विभिन्न वृद्धि की अवस्थाओं में चरम तापक्रम
(योशिदा, १९८१).
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वृद्धि की चरम तापक्रम (दैनिक औसत) सें. ग्रे.
अवस्था न्यूनतम अधिकतम औसत
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अंकुरण १० ४५ २०-३५
पौद-बढ़वार १२-१३ ३५ २५-३०
कल्ले निकलना ९ ३३ २५-३१
वाली-विकास १५-२० ३८ -
फूल खिलना २२ ३५ ३०-३३
दाने पकना १२-१८ ३० २०-२५
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५. गरमा धान को कभी भी खरीफ धान से सस्ता न बेचें. हमारे प्रोयोगोंसे यह स्पष्ट
है कि गरमा के चावल का प्रतिशत या गुण खरीफ मौसम से खराब नहीं होता है.
भावी सम्भावनायें
भविष्यवाणियां करना अटकलवाजियां लगाने का दूसरा नाम समझा जाता है. परन्तु गरमा
धान की भविष्यवाणी ऐसी नही है. बिहार को अधिक चावल चाहिए किसान को सुनिश्चित और
प्रति इकाई खेत अधिक धान. इसका विकल्प है-गरमा धान की खेती को प्रोत्साहन का
परिणाम २० लाख हैक्टर में अतिरिक्त गरमा धान की खेती जिसमें औसतन ४० लाख टन
अतिरिक्त धान. वर्ष २००० में इस अतिरिक्त चावल की आवश्यकता पड़ेगी.
नई धान की किस्मों और उत्पादन तकनीक का विकास हो रहा है. खाद के नये कारखाने
खुल रहे हैं. सरकार की सिंचित क्षेत्र बढ़ाने की विस्तृत योजनायें हैं. निजी
नलकूप और भी तेजी से लगाये जा रहे हैं. इस तरह से अतिरिक्त चावल की आवश्यकता और
उसके उपजाने के अतिरिक्त साधन तैयार किये जा रहे हैं. इससे स्पष्ट है कि गरमा
धान का भविष्य उज्जवल है. यही तकनीक बिहार को 'सरप्लस स्टेट' (आधिक्य राज्य)
बना सकती है.
मक्का की अधिक उपज के लिए उर्वरक प्रबन्ध
डा. कपिल देव प्रसाद और डा. बी. पी. सिंह मृदा विज्ञान और कृषि रसायन विभाग,
राजेन्द्र कृषि विश्ववियालय, पूसा,
समस्तीपुर, (बिहार)
अन्य खरीफ फसलों की तरह मक्का की उपज बढ़ाने में उर्वरकों का काफी योगदान रहता
है. तिरहुत कृषि विश्वविद्यालय, ढोली प्रक्षेत्र में समुचित उर्वरकों के उपयोग
से १९७८-७९ में मक्का की संकुल किस्म 'लक्ष्मी' से ७७ क्विंटल प्रति हैक्टर उपज
मिली.
मक्का की सुधरी खेती के लिए उर्वरक का महत्व है. इसकी उप-~योगिता ही उपज क्षमता
का प्रतीक है. मिट्टी में स्थित पोषक तत्त्वों की मात्रा के अनुसार उर्वरक का
प्रयोग करना पड़ता है. और इसी के अनुसार ही किस्म की उपयोग की जानी चाहिए
उत्तर बिहार की मिट्टियों में खरीफ के लिए 'गंगा सफेद-२'और रबी के लिए 'हाई
स्टार्च','लक्ष्मी' (कम्पोजिट) विशेष लाभ-~दायक सिद्ध हुआ है. यही नहीं बल्कि
जलवायु और तापक्रम का भी असर उर्वरक प्रयोग पर देखा जाता है. गर्म मौसम में
उर्वरक प्रयोग कम मात्रा में, जबकि बरसाती मौसम में इसकी अधिक मात्रा जरूरी
होती है. इस भाँति स्पष्ट है कि उर्वरक प्रयोग में सावधानी की जरूरत है जो
निर्देश करती है कि पौधों के विभिन्न स्तर के विश्लेषण के पहलुओं पर विचार किया
जाय. ये पहलू हैं-एक मृदा जांच फसल बोने के पहले और दो पादप-ऊति जांच कमी के
लक्षण.
मिट्टी की जांच
आवश्यक तत्वों को मिट्टी में मात्रा पता की जाती है. सत्य यह है कि तत्वों की
मिट्टी में मात्रा का महत्व नहीं हैं, बल्कि इनकी उपलब्धता जो फसल के जीवन-काल
में उचित अनुपात में पौधों के लिए सुग्राहय है. ठीक यह हालत तत्वों की पौधा
स्थित मात्रा के साथ भी है. तत्वों की मात्रा की उपलब्धता मौसम और प्रबंध पर भी
निर्भर करती है यही कारण है कि रासा-~यनिक जांच एक औसत पैमाना है. फिर भी
वैज्ञानिकों ने उर्बरक आवश्यकता की सम्भावित मात्रा की भविष्यवाणी की है जो कि
आर्थिक दृष्टिकोण से विशेष लाभप्रद है. यह जांच खास मृदा प्रकार के लिए कारगर
है. वैज्ञानिक अपने अनुभव के आधार पर अनेक व्यावहारिक समस्याओं-मिट्टी के
नमूना लेने, विश्लेषण और सुझावों की एकरूपता, का समाधान ढूंढ़ते हैं. सबसे बड़ा
लाभ है कि किसानों को फसल उगाने के पूर्व मिट्टी स्थित तत्वों की जानकारी मिल
जाती है. जिसके लिए सावधानी वरती जा सकती है.
मिट्टी की जांच के अनुसार तत्वों की उपचार विधि
नाइट्रोजन- इसका क्रान्तिक सतह ०.५ प्र.शऔ.छ् है. इस परि-~स्थिति में १००-११०
किलोग्राम ना. प्रति हैक्टर यूरिया या अन्य नाइट्रोजन युक्त उर्वरक प्रयोग किया
जाता है. फसल बोने के पहले आधा भाग अर्थात ५०-५५ किलोग्राम ना. प्रति हैक्टर और
शेष भाग को दो भाग में बांट कर क्रमश: मिट्टी चढ़ाने समय और दूसरा मोचा निकलने
के पूर्व फसल पर छिड़कना चाहिए.
फॉस्फोरस : इसका क्रान्तिक सतह २० किलोग्राम फास्फोरस प्रति हैक्टर है. फसल
लगाने के पहले ही ६० किलोग्राम फास्फोरस प्रति हैक्टर मिट्टी में डाल दिया जाता
है. चूनायुक्त मिट्टयों में डाइ-अमोनियम फॉस्फेट का व्यवहार उत्तम पाया गया है.
पोटाश : इसका क्रान्तिक सतह १०० किलोग्राम पोटाश प्रति हैक्टर है. फसल बोने के
पहले ही मिट्टी में ४०-५० किलोग्राम पोटाश प्रति हैक्टर डाल दिया जाता है.
जस्ता : इसकी क्रान्तिक सतह ०.७५ पी.पी.एम. है. बीज को २.५ प्र. श.
न्यूट्राजिंक से बीज की मात्रानुसार उपचारित कर तदु-~परान्त बुआई करते हैं.
२५-३० किलोग्राम जिंकसल्फेट प्रति हैक्टर बुआई के समय बीज की कतार से ५-८
सेन्टीमीटर की दूरी पर कूंड़ों में डाल दिया जाता है या १०-१५ कि. ग्रा. जिंक
सल्फेट को १० टन कम्पोस्ट/५ टन मुर्गियों की खाद प्रति हैक्टर के साथ व्यवहार
करने से लाभ होता है, परन्तु खाद को बुआई के पूर्व सम्पूर्ण खेत में अच्छी तरह
मिलाना चाहिए.
लोहा: इसका क्रान्तिक सतह ७.० पी.पी. एम. है. १०० कि. ग्रा. फेरसल्फेट प्रति
हैक्टर का व्यवहार बुआई के पहले बीज के कूंड़ों के बगल में किया जाता है. या ५०
कि.ग्राम फेरससल्फेट को १० टन कम्पोस्ट के साथ मिलाकर एक हैक्टर खेत में अच्छी
तरह मिला दिया जाता है. यदि चूनेदार मिट्टी हो तो दो टन पाइराइट्रस को १० टन
कम्पोस्ट के साथ मिलाकर एक हैक्टर में व्यवहार से लाभ होता है.
पादप ऊति जांच
ऐसा देखा जाता है कि कभी-कभी पौधों की वृद्धि अच्छी तरह नहीं हो जाती है.
किसानों को चाहिए कि पौधों की पत्तियों में पोषक तत्वों की मात्रा की जानकारी
करें (प्राय: मक्का में सूक्ष्म पोषक तत्वों को जांच के लिए ऊपरी तीसरी या चौथी
पत्तियां चयन की जाती हैं.)
नाइट्रोजन: इसकी मात्रा पौधों की पत्तियों में १.३-३.५ प्र.श. पाई गई है.
पत्तियों में ३.१ प्र.श. मौजूद रहने पर नाइट्रोजन की मात्रा कम हो तो दो
प्रतिशत यूरिया घोल का छिड़काव पत्तियों पर करें.
फॉस्फोरस : इसकी मात्रा मोचा स्तर (शिल्किन्ग् स्टगे) की पत्तियों में ०.१-
०.५ प्रतिशत फास्फोरस पाई गई है. यदि पत्तियों में फास्फोरस की मात्रा
०.३३ प्रतिशत या इससे कम हो तो किसानों को चाहिए कि फास्फोरसंयुक्त
खादों का प्रयोग करें अन्यथा उपज में भारी गिरावट आ जाती है.
पोटाश : इसकी मात्रा पत्तियों में ०.५-२ प्रतिशत पोटाश कोशेयवत्-स्तर के
लिये पाई गई है. १.२५ प्रतिशत पोटाश मात्रा पत्तियों में मौजूद रहने पर
पोटाश खाद के व्यवहार से फसल में २३ प्र.श. की वृद्धि हो सकती है.
जस्ता :-लगभग ५०-५५ दिनों कि पत्तियों में २३ पी.पी.एम. जिंक (जस्ता) की मात्रा
को क्रान्तिक सतह माना गया है. इस अवस्था में ०.५ प्र. श. जिंक सल्फेट तथा ०.२५
प्र.श. चूना (कैल्सियम) का घोल पत्तियों पर छिड़कना लाभप्रद होता है या १०
प्र.श. ट्रेसेल-१ का व्यवहार करना चाहिए.
लोहा : इसकी कमी से सर्वप्रथम नवीन पत्तियों का गहरा रंग हल्का पीला पड़ने लगता
है जो अन्तत: पीला सफेद में बदल जाता है. ये लक्षण बुआई के ५०-६० दिनों में दीख
पड़ते हैं. इसकी अधिक कमी होने पर नई पत्तियां सफेद रंग की हो जाती हैं. एक
प्रतिशत फेरस सल्फेट घोल का छिड़काव करने से लाभ होता है. या १ प्र. श.
ट्रेसेल-१ का व्यवहार भी किया जाता है.
कमी के लक्षण
पौधों में पोषक तत्वों की कमी नजर आती है, परन्तु तत्वों के अनुसार उसमें
भिन्नता पाई जाती है. विभिन्न पोषक तत्वों की कमी के लक्षण नीचे वर्णित है.
नाइट्रोजन : मक्का में नाइट्रोजन की कमी के लक्षण प्राय: प्रगुच्छ-स्तर
(ठस्सेल्लिन्ग् स्टगे) आने के समय दिखलाई पड़ती है. संभवत: इस अवस्था में तत्व की
अधिकतम आवश्यकता होती है. कमी के लक्षण सर्वप्रथम निचली पत्तियों में नजर आते
हैं. पत्तियों को नोक की ओर से हल्के पीले रंग में बदलने की क्रिया शुरू होती
है जो अन्तत: पत्तियों के आधार की ओर बढ़ती है और गहरे नारंगी रंग में बदल जाती
है. तदुपरान्त ये सूखना प्रारम्भ कर देते हैं. इस तत्व की कमी से व्याप्त पौधों
में लक्षण ऊपर की पत्तियो में दीख पड़ते हैं. भुट्टा एकदम पतला हो जाता है और
इसमें दानों की संख्या कम हो जाती है. दाना आकार में छोटा हो जाता है. इस
परिस्थिति में २ प्र.श. यूरिया घोल का छिड़काव लाभप्रद सिद्ध होगा.
फास्फोरस : जाड़े की मक्का कमी के लक्षण बुआई के करीब १५-२० दिन बाद पौधों में
नजर आने लगते हैं. इसकी कमी होने पर यदाकदा अधिकतर पौधों का हरा भाग बैंगनी
रंग में बदल जाता है. जो कि निचली पत्तियों से शुरू होती है. पौधा एकदम बौना रह
जाता है. सिंचाई अथवा मिट्टी तापक्रम बढ़ानेवाला अन्य उपाय करने से कभी दूर हो
जाती है. अन्यथा फॉस्फोरस युक्त उर्वरक का व्यवहार भी किया जाता है.
पोटाश : इसकी कमी लगभग पौधों के घुटने तक बढ़ने पर नजर आती है. निचली पत्तियों
की नोक की ओर से किनारे झुल-~सने से लगते हैं. पुन: अंग्रेजी के '' आकार में
मध्यशिरा की ओर लक्षण बढ़ने लगते हैं. पत्तियों का लगभग आधा भाग सूख जाता है और
इसी तरह से लक्षण उपर वाली पत्तियों में दिखलाई पड़ने लगते हैं.
भारत में प्राकृतिक रबड़ की खेती का क्षेत्रफल लगभग ढाई लाख हैक्टर है.
प्राकृतिक रबड़ का कुल वार्षिक उत्पादन डेढ़ लाख टन से कुछ अधिक है. हमारे देश
में प्राकृतिक रबड़ की वर्तमान मांग २ लाख टन है. इसके सन् २००० ई. तक बढ़ कर ३
लाख टन हो जाने की संभावना है. इस मांग की पूर्ति के लिए रबड़ उत्पादन के
हीवियेतर स्त्रोतों का विकास करना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि प्रतिवर्ष हीविया
रबड़ की एक भारी मात्रा (साढ़े पांच लाख टन) का विदेशों से आयात करना पड़ता है.
यद्यपि हीविया रबड़ का कृषि-क्षेत्र बढ़ाने का काफी प्रयास किया गया है तथापि
सन् २००० ई. तक बढ़ने वाली मांग की पूर्ति करना संभाव्य नहीं है. इसका मुख्य
कारण यह है कि हीविया की खेती के लिए विशेष प्रकार की भूमि और जलवायु की
आवश्यकता होती है, अत: इसकी खेती का विस्तार अनुकूल क्षेत्रों को छोड़कर
अन्यत्र नहीं किया जा सकता. रबड़ के अन्य स्त्रोतों की खोज की दिशा में
ग्वायूल नामक पौधे की आकर्षक संभावनाओं का पता लगाया गया है.
ग्वायूल मैक्सिको और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में पाई जाने वाली एक दीर्घजीवी
झाड़ी है जिसके तने और जड़ों में रबड़ पाया जाता है. द्वितीय विश्व युद्ध के
दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका में युद्ध की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए
ग्वायूल की खेती करने के सफल प्रयास किये गये.
भारत के विभिन्न अनुसंधान संस्थानों में किये गये परीक्षणों से सिद्ध हो गया है
कि प्राकृतिक रबड़ के पूरक स्त्रोत के रूप में भारत में भी इस उपयोगी झाड़ी की
सफलतापूर्वक खेती की जा सकती है.
पौधे की जानें
ग्वायूल का पौधा सूरजमुखी कुल कम्पोजिटी का सदस्य है. इसका वंश पार्थेनियम है
जिसमें १६ उपजातियां पाई जाती हैं. ग्वायूल पार्थेनियम वंश की आर्जेंटेटम उपजाति का पादप है. वास्तव में पार्थेनियम वंश की यही एकमात्र उपजाति है जिसमें
प्रचुर मात्रा में रबड़ उत्पादन की क्षमता विद्यमान है.
ग्वायूल की पत्तियां कम चौड़ी होती हैं और इसके पौधे की लंबाई लगभग २ फुट (६०
सें. मी.) की गहराई तक चली जाती है और मरुभूमि में उपलब्ध नमी को सोख लेती है.
इससे समय-समय पर पड़ने वाले सूखे की स्थिति में भी पौधा जीवित बना रहता है.
हीविया में वनस्पति रबड़-दूध तने की नलिकाओं में रहता है, जबकि ग्वायूल पादप
में यह पौधे की एकल कोशिकाओं में रहता है. अतः रबड़ के नीस्तारण के लिए संपूर्ण
पौधे को प्रयोग में लाया जाता है. ग्वायूल से प्राप्त रबड़ की दो-तिहाई मात्रा
पौधे के तने और शाखाओं में और शेष एक तिहाई रबड़ इसकी जड़ों में पाया जाता है.
पौधे की पत्तियों में रबड़ नहीं होता.
खेती कहां और कैसे करें
ग्वायूल की खेती रेगिस्तानी जलवायु वाले क्षेत्रों में सुगमतापूर्वक की जा सकती
है. जल के अच्छे निकास वाली रेतीली दुमट मिट्टी इसके लिए उपयुक्त है. यह पौधा
चूनेदार मिट्टी में भी पनप जाता है, किंतु सघन और जल निकास रहित भूमि में इसकी
बढ़वार अच्छी नहीं होती. अपने मूल जंगली परिवेश में ग्वायूल का पौधा २३०
मि.मी. से कम वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में भी फलता-फूलता रहता है, परंतु
खेती करने की दशा में इसे फलने-फूलने के लिए २६०-६४० मि. मी. वार्षिक वर्षा की
जरूरत होती है. बुआई से पहले बीजों की सुषुप्तावस्था को दूर करने के लिए उनका
रासायनिक उपचार किया जाता है. ग्वायूल के बीज बहुत छोटे आकार के होते हैं इसलिए
पौधशाला में बोते समय इनको कम गहराई पर बोया जाता है और सिंचाई कर दी जाती है.
परंतु एक बात की सावधानी बरती जाती है. पौधशाला से उखाड़कर खेत में लगा देते
हैं. एक हैक्टर भूमि में रोपने के लिए ५० से ५५ हजार पौधों की आवश्यकता होती
है. रोपने के बाद एक वर्ष तक का समय पौधों के लिए संकटमय होता है. कारण, इस
अवधि में खरपतवार पौधों को आसानी से नष्ट कर सकते हैं. इसलिए समय पर
निराई-गुड़ाई और खरपतवारनाशकों का प्रयोग करने के लिए खरपतवार को ढक लेते हैं.
अब वे खरपतवारों के क्षेत्र की नमी को सोखने में सक्षम हो जाते हैं और
खरपतवारों को बढ़ने नहीं देते. ग्वायूल पुष्पों में परागण वायु और कीटों
द्वारा होता है. ग्वायूल का पौधा भरपूर उपज देने वाला होता है. एक बार की वर्षा
के बाद पौधे में हजारों की संख्या में बीज पैदा हो जाते हैं.
सही खाद दें
ग्वायूल हल्की उपजाऊ भूमि में आसानी से पनपता है. पौधे की कायिक वृद्धि में
रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग लाभदायक सिद्ध हुआ है. कायिक वृद्धि के साथ-साथ
पौधे में रबड़ की मात्रा भी बढ़ जाती है. हालांकि रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग
पर अनेक देशों में अनेक परीक्षण किये गये हैं तथापि अभी तक यह निश्चित नहीं
किया जा सकता है कि रबड़ की अधिकतम उपज लेने के लिए इस पौधे को रासायनिक
उर्वरकों की कितनी मात्रा दी जानी चाहिए.
कीड़ों से बचाएं
जंगली अवस्था में ग्वायूल का पौधा रोगों और कीटों से लगभग पूरी
तरह बचा रहता है, किंतु खेती करने में पौधे की रोग तथा कीट दोनों व्याधियों से
बचाना आवश्यक होता है. ग्वायूल में लगने वाले रोग अन्य फसलों के समान होते हैं,
जैसे कॉटन रूट रॉट, चारकोल रॉट, विल्ट (उकठा) इत्यादि. यदि पौधे के आसपास कुछ
दिनों पानी रुका रहे तो पौधे की जड़ें फाइटोफ्थोरा रॉट नाम रोग की शिकार हो
जाती है. इसलिए पौधे की सिंचाई देते समय यह ध्यान रखना आवश्यक होता है कि पौधे
के आसपास पानी खड़ा न रहे. परीक्षणों द्वारा पाया गया है कि ग्वायूल का पौधा
जड़ों में लगने वाले गोल कृमियों से अपनी रक्षा करने की भरपूर क्षमता रखता है.
ग्वायूल की वृक्ष-वाटिका में पौधों, विशेषतया नवांकुरित पौधों, को कई प्रकार
के कीट क्षति पहुंचा सकते हैं, तथापि वायलेय के पौधे को कीटों की किसी गम्भीर
समस्या का सामना करना नहीं पड़ता.
फसल की कटाई
ग्वायूल की फसल की कटाई ट्रेक्टर चालित खुदाई यंत्र से की जाती है या फिर
प्रत्येक पौधे को जमीन से ५ मि.मी. ऊपर से काट लिया जाता है. दूसरी दशा में
पौधे की जड़ें, जिनमें पौधे की कुल रबड़ की एक-तिहाई मात्रा होती है, भूमि में
अंदर रह जाती है. इन जड़ों से पुन: नया पौधा पैदा हो जाता है और वर्ष में
ग्वायूल की दो फसलें प्राप्त हो जाती हैं. दूसरी फसल की कटाई में समूचे पौधे
को जड़ समेत उखाड़ लिया जाता है.
ऐसे निकलती है रबड़
ग्वायूल में रबड़ पौधे की एकल कोशिकाओं में एकत्रित हो जाता है. अतः रबड़
निकालने के लिए पूरे पौधे का प्रयोग किया जाता है. कटाई करने के बाद कुछ दिनों
के भीतर ही पौधे से रबड़ निकालने की प्रक्रिया की प्रक्रिया संपन्न कर ली जाती
है, ताकि पौधे में निहित रबड़ का आक्सीकरण से ह्रास न होने पाये.
सर्वप्रथम ग्वायूल की झाड़ी को गर्म पानी में ७५ डिग्री सें. तापक्रम १० मिनट
तक डुबोये रखा जाता है. इस क्रिया का प्रयोजन पौधे की दुग्ध-कोशिकाओं में
एकत्रित रबड़ को गाढ़ा करना, संलिप्त मलिनताओं को दूर करना तथा पत्तियों को अलग
करना होता है. इसके बाद पौधे को एक विशेष प्रकार की चक्की में मोटा-मोटा पीसा
जाता है ताकि पौधे की दुग्ध-कोशिकाओं से रबड़ निर्मुक्त हो जाये. लुगदी बनाने
की क्रिया के दौरान कास्टिक सोडा मिलाया जाता है, जो रबड़ से भरी हुई कोशिकाओं
को और अधिक तोड़ने और रबड़ को निर्मुक्त करने में सहायक होता है. अब
समस्त लुगदी को एक काश्त के लुगदी कुंड में डालकर और उसमें पानी मिलाकर
भली-भांति हिलाया जाता है. ऐसा करने से पानी से बोझिल खोई नीचे बैठ जाती है और
रबड़ के कण ऊपर तैरने लगते हैं. इन कणों को ऊपरी सतह से उतार लिया जाता है.
बाकी बचे रबड़ कणों को अलग करने के लिए यही क्रिया बार-बार दोहरायी जाती है.
रबड़ कण १५-२० प्र.श. राल मिश्रित होते हैं जिनसे राल को अलग करने के लिए
एसिटोन रसायन का उपयोग किया जाता है. रबड़ से रालांशों को पूरी तरह अलग करने
के लिए एसिटोन रसायन का उपयोग किया जाता है. रबड़ से रालांशों को पूरी तरह अलग
करने के लिए इस रसायन को बार-बार डाला जाता है. अन्त में रालांशों को हेक्सेन
में घोल लिया जाता है और द्रव को छान लिया जाता है. अब आसवन विधि से अपरिष्कृत
हेक्सेन-सार से शुद्ध रबड़ प्राप्त कर लेते हैं. इसके बाद रबड़ को विरंजित कर
लिया जाता है और रबड़ को आक्सीकरण की क्षति से बचाये रखने के लिए उसमें
उपयुक्त निरोधक पदार्थ मिला दिये जाते हैं.
कितना खर्च होगा
ग्वायूल की वृक्ष-वाटिक में प्रति हैक्टर १,५०० पौधे उगाए जा सकते हैं. ग्वायूल
की तीन-वर्षीय परिपक्व पौधे का शुष्क भार लगभग ४०० ग्राम होता है और तदनुसार
प्रति हैक्टर १,५०० पौधों का शुष्क भार ६०० कि. ग्रा. होता है. वैज्ञानिक
अनुमानों के अनुसार एक कि.ग्रा. शुद्ध रबड़ प्राप्त करने के लिए लगभग २५
कि.ग्रा. ग्वायूल जैवपुंज की आवश्यकता होती है. यह गणना पौधे में ४ प्र.श. रबड़
अवयव होने पर आधारित है. इस प्रकार प्रति हैक्टर २४ कि.ग्रा. रबड़ प्राप्त की
जा सकती है. एक कि.ग्रा. ग्वायूल जैवपुंज उत्पन्न करने के लिए लगभग ८० पैसे
लागत आती है इसके अनुसार एक कि.ग्रा. रबड़ प्राप्त करने के लिए आवश्यक २५
कि.ग्रा. जैवपुंज पर छः सात रूप से खर्च होते हैं. रबड़ निकालने की प्रक्रिया
पर आने वाली लागत (ऊर्जा व्यय सहित) जैवपुंज उत्पादन की लागत से तीन गुना अधिक
होती है.
यह लागत एक कि.ग्रा. रबड़ पर लगभग २०-२५ रूपये आती है. यदि ग्वायूल के उपोत्पाद
(खोई, राल, मोम इत्यादि) औद्योगिक उत्पादनों में सुचारू रूप से प्रयोग में लाये
जायें तो ऊर्जा-सूचकांक कम किया जा सकता है और रबड़ उत्पादन पर और भी कम लागत
आयेगी.
एक टन ग्वायूल रबड़ निकालने की प्रक्रिया में दो टन खोई, आधा टन राल और लगभग
एक टन पत्तियां बच जाती हैं. खोई में सेल्यूलोस और अर्द्ध-सेल्यूलोस का काफी
बड़ा भाग होता है. ग्वायूल से प्राप्त राल भी एक बहुमूल्य पदार्थ है. इसमें
पाइनीनज, टरपीनीनज और विभिन्न वसा अम्ल पाये जाते हैं. ग्वायूल राल का प्रयोग
रबड़ उद्योगों में रबड़ को मुलायम और लोचदार बनाने के लिए किया जा सकता है और
बूट-पालिश और आसंजक बनाने के काम भी आ सकता है. अनुसंधानों द्वारा ग्वायूल राल
के अन्य औद्योगिक उपयोगों का पता लगाया जा सकता है. यह एक अत्यंत कड़ा मोम होता
है, जिसका गलनांक ७६ डिग्री से. होता है जो प्राकृतिक मोम के ज्ञात गलनांकों
में सर्वाधिक है. आजकल कड़े मोम की बहुत अधिक मांग है. जिन स्थानों पर वायलेय
जंगली पौधे के रूप में उगता है वहां भेड़-बकरियां और खरगोश आदि जीव इसकी
पत्तियों को खाकर अपनी भूख मिटाते हैं. ग्वायूल की पत्तियों की ग्राह्यता और
पौष्टिकता के बारे में अध्ययनों द्वारा पता लगाया जा सकता है कि क्या ग्वायूल
की हरी पत्तियां पशुओं के लिए पूरक चारा बनने की क्षमता रखती हैं. ग्वायूल की
विकासशील झाड़ियां वायुरोधक का कार्य करने की पर्याप्त क्षमता रखती हैं.
ग्वायूल के ये गुण मरूस्थलीय क्षेत्रों के लिए बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकते
हैं.
भारत में ग्वायूल अनुसंधान
प्राकृतिक रबड़ के पूरक स्त्रोत के रूप में ग्वायूल की आकर्षक संभावनाओं को
दृष्टिगत रखते हुए भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के तत्वावधान
में देश के विभिन्न शीर्षस्थ वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थानों और विश्वविद्यालयों
में पिछले पांच वर्षों से "अखिल भारतीय समन्वित ग्वायूल अनुसंधान परियोजना"
चलाई जा रही है. इस परियोजना के अंतर्गत केंद्रीय नमक समुद्री रसायन अनुसंधान
संस्थान, भावनगर द्वारा जूनागढ़ तथा जांजमेर नामक स्थानों पर ग्वायूल की
वृक्ष-वाटिकाएं विकसित की गई हैं जहां ग्वायूल की अनेक उन्नत जातियों के बीजों
से पौधे उगाकर विभिन्न परीक्षण किये जा रहे हैं. इन परीक्षणों से प्राप्त
उत्साहवर्धक परिणामों से यह आभास मिलता है कि भारत में ग्वायूल की सफल खेती की
संभावनाएं अत्यंत उज्ज्वल हैं.
ग्वायूल की प्राकृतिक रबड़ के पूरक स्त्रोत के रूप में सफलतापूर्वक खेती करने
के लिए चयनात्मक प्रजनन को अपनाना आवश्यक होगा जिससे ग्वायूल की वृक्ष-वाटिकाओं
में प्रति हैक्टर अधिक रबड़ का उत्पादन संभव हो सके और कृषकों के लिए ग्वायूल
की खेती करना लाभकारी सिद्ध हो सके. हमारे देश के अर्द्ध-मरुस्थलीय जलवायु वाले
क्षेत्रों में उपलब्ध लाखों हैक्टर अल्प उपजाऊ भूमि में ग्वायूल की खेती की जा
सकती है. ऐसा करने में हमें न केवल काफी मात्रा में प्राकृतिक रबड़ प्राप्त हो
सकेगा और उसी अनुपात में विदेशों से कम रबड़ का आयात करना पड़ेगा, बल्कि हमारे
लिए कृत्रिम रबड़ का उत्पादन करने में खर्च होने वाले बहुमूल्य पेट्रोलियम
क्रूड (कच्चे तेल) की बचत करना भी संभव हो सकेगा.
कम पानी में भी भरपूर पेड़
-आर. सी.गुप्ता, पी.एम.सिंह, एन.डी. यादव व बी.डी.शर्मा
केंद्रीय मरू क्षेत्र अनुसंधान संस्थान,प्रादेशिक अनुसंधान
स्थात्र,बीकानेर-३३४००२
पर्यावरण संरक्षण के लिए वनों का रहना आवश्यक है. भारत के वन सर्वेक्षण विभाग
१९८१-८३ के सर्वेक्षण के अनुसार कुछ वर्ष पहले हमारे देश में वनों के आधीन
क्षेत्र संभवतया ११ प्र.श.था जोकि आज केवल ८ प्र.श.रह गया. पश्चिम राजस्थान
में तो वनों के अधीन क्षेत्र एक प्र.श.से भी कम हैं. जिस तेज गति से वनों का
ह्रास हो रहा है ऐसा लगता है कि राजस्थान के रेगिस्तान के विस्तार को रोकने के
लिए गंभीर और ठोस कार्यक्रम को रोकने के लिए गंभीर और ठोस कार्यक्रम को
व्यावहारिक रूप देना अति आवश्यक हो गया है.
राजस्थान में साफ होते जंगलों ने रेगिस्तान को न्योता दिया है. इस पर काबू पाने
के लिए कई योजनाएं चल रही हैं जिनमें वृक्षारोपण कार्यक्रम एक महत्वपूर्ण अंग
है. इस संबंध में महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस क्षेत्र में वृक्षारोपण किया गया
उसमें कितनी सफलता मिली ? अर्थात कितने पौधे लगाए, उनमें से कितने जीवित रहे और
उनकी वृद्धि की गति क्या रही ? ये लगाए गए पौधों को जीवित रखने व अच्छी वृद्धि
करने के लिए मिट्टी में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है. चूंकि संस्थापन की
प्रारंभिक अवस्थाओं में पौधे नमी के लिए मिट्टी की ऊपरी सतहों पर ही निर्भर
रहते हैं इसलिए पौधों को दिए गए जल को इन सतहों में अधिक समय तक उपलब्ध कराना
सफल सुस्थापन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है.
मरु क्षेत्रों में पर्याप्त जल की उपलब्धता की स्थिति अत्यधिक विषम है और हल्के
गठन की मिट्टियों और अन्य बहुत से विपरीत जलवायु कारणों के फलस्वरूप इन
क्षेत्रों में अंत: स्त्रवण, रिसाव और वाष्पन के रूप में नमी ह्रास भी वहुत
अधिक होता है. इससे मिट्टी की ऊपरी सतहों में सूखे की स्थिति पैदा हो जाती
है, जोकि पौधों के सफल जमाव में बाधक होती है. मिट्टी की ऊपरी सतहों में अधिक
समय तक जल उपलब्ध कराकर, बहुत कम जल से सफलतापूर्वक पौधों के जमाव के उद्देश्य
से एक नए उपकरण "जल तृप्ति" का विकास किया गया है जोकि बहुत सस्ता है (लगभग
पांच रूपये प्रति इकाई) और जिसके बनाने के लिए किसी अति विशेष सामग्री और
तकनीकी सहायता की आवश्यकता भी नहीं पड़ती है जिसके फलस्वरूप छोटे और मध्यम
दर्जे के किसान इसे आसानीपूर्वक अपना सकते हैं.
कैसा है ये उपकरण
बनावट में बहुत ही सरल यह उपकरण एक सी ऊंचाई और भिन्न-भिन्न व्यास वाले दो
मिट्टी के गमलों से मिलकर बनता है. बड़े व्यास वाले गमले के अंदर एक छोटा गमला
होता है और तले पर दोनों गमले एक दूसरे से जुड़े होते हैं. बाहरी गमले के मुंह
का व्यास २५ सें.मी. और तले का व्यास १८ सें.मी. होता है. भीतरी गमले के मुंह
और तले का व्यास क्रमशः १५ से १२ सें.मी. होता है. इसका तला लगभग पूरा खुला
होता है. दोनों गमलों की ऊंचाई ३० सें.मी. होती है. बाहरी गमले को किसी इनेमल
पेंट या सीमेंट की सहायता से अप्रवेश्य बना देते हैं. चिकनी मिट्टी और रेत के
जिस मिश्रण से पीने का पानी ठंडा रखने हेतु घड़ा बनाते हैं इसी मिश्रण से
"जलतृप्ति" भी बन जाता है.
जिस स्थान पर पौधा लगाना होता है उस स्थान पर ६०-७० सें.मी. गहरा और लगभग ३०
सें.मी. व्यास का एक गड्ढा खोदकर उसमें लगभग २० कि.ग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद
और लगभग १०० ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट मिला देते हैं. अब इस गड्ढे में
"जलतृप्ति" को इस प्रकार गाड़ देते हैं कि उसका मुंह भूमि की सतह के बराबर में
आ जाए. नर्सरी से लाए गए पौधे को भीतरी गमले में लगा देते हैं और दोनों गमलों
के बीच के स्थान में जल भर देते हैं. जल की खुली हुई वृत्ताकार सतह को पालीथीन
शीट अथवा मिट्टी के ही बने ढक्कन से ढक देते हैं जिससे वाष्पन द्वारा जल का
ह्रास न हो.
कैसे काम करती है यह तकनीक
यह तकनीक दो अत्यंत साधारण सिद्धांतों पर काम करती है-
१. मृदा आर्द्रता तनाव व पौधे की जड़ें एक चूषक बल उत्पन्न करते हैं जो कि समीप
के अधिक नमी वाले क्षेत्रों से नमी को अपनी ओर खींचता है.
२. मिट्टी के बर्तनों की दीवार में छोटे-छोटे बहुत से रन्ध्र होते हैं जो कि
पानी को बहने तो नहीं देते किंतु जहां चूषण उत्पन्न होता है उस दिशा में जल
को धीरे-धीरे रिसाव द्वारा जाने देते हैं.
जब दोनों गमलों के बीच के स्थान में जल भरते हैं तो भीतरी गमले की मृदा और पौधे
द्वारा उत्पन्न चूषक वल के फलस्वरूप इस जल का रिसाव धीरे-धीरे उस दिशा में होता
है और मृदा को नम बनाए रखता है, जबकि बाहरी गमले की सतह पुती होने के कारण
रन्ध्र बन्द हो जाते हैं और बाहर की मृदा की ओर पानी का रिसाव नहीं होता है.