%%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A5%82%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%%%%%% B7%E0%A4%A6 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 # -*- coding: utf-8 -*- माण्डूक्योपनिषद अथर्ववेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है। इसके रचियता वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है। इसमें आत्मा या चेतना के चार अवस्थाओं का वर्णन मिलता है - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। प्रथम दस उपनिषदों में समाविष्ट केवल बारह मंत्रों की यह उपनिषद् उनमें आकार की दृष्टि से सब से छोटी है किंतु महत्व के विचार से इसका स्थान ऊँचा है, क्योंकि बिना वाग्विस्तार के आध्यात्मिक विद्या का नवनीत सूत्र रूप में इन मंत्रों में भर दिया गया है। इस उपनिषद् में ऊँ की मात्राओं की विलक्षण व्याख्या करके जीव और विश्व की ब्रह्म से उत्पत्ति और लय एवं तीनों का तादात्म्य अथवा अभेद प्रतिपादित हुआ है। इसके अलावे वैश्वानर शब्द का विवरण मिलता है जो अन्य ग्रंथों में भी प्रयुक्त है । इस उपनिषद में कहा गया है कि विश्व में एवं भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालों में तथा इनके परे भी जो नित्य तत्व सर्वत्र व्याप्त है वह ऊँकार है। यह सब ब्रह्म है और यह आत्मा भी ब्रह्म है। आत्मा चतुष्पाद है अर्थात उसकी अभिव्यक्ति की चार अवस्थाएँ हैं जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। जाग्रत अवस्था की आत्मा को वैश्वानर कहते हैं, इसलिये कि इस रूप में सब नर एक योनि से दूसरी में जाते रहते हैं। इस अवस्था का जीवात्मा बहिर्मुखी होकर "सप्तांगों" तथा इंद्रियादि 19 मुखों से स्थूल अर्थात् इंद्रियग्राह्य विषयों का रस लेता है। अत: वह बहिष्प्रज्ञ है। दूसरी तेजस नामक स्वप्नावस्था है जिसमें जीव अंत:प्रज्ञ होकर सप्तांगों और 19 मुर्खी से जाग्रत अवस्था की अनुभूतियों का मन के स्फुरण द्वारा बुद्धि पर पड़े हुए विभिन्न संस्कारों का शरीर के भीतर भोग करता है। तीसरी अवस्था सुषुप्ति अर्थात् प्रगाढ़ निद्रा का लय हो जाता है और जीवात्मा क स्थिति आनंदमय ज्ञान स्वरूप हो जाती है। इस कारण अवस्थिति में वह सर्वेश्वर, सर्वज्ञ और अंतर्यामी एवं समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और लय का कारण है। परंतु इन तीनों अवस्थाओं के परे आत्मा का चतुर्थ पाद अर्थात् तुरीय अवस्था ही उसक सच्चा और अंतिम स्वरूप है जिसमें वह ने अंत: प्रज्ञ है, न बहिष्प्रज्ञ और न इन दोनों क संघात है, न प्रज्ञानघन है, न प्रज्ञ और न अप्रज्ञ, वरन अदृष्ट, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिंत्य, अव्यपदेश्य, एकात्मप्रत्ययसार, शांत, शिव और अद्वैत है जहाँ जगत्, जीव और ब्रह्म के भेद रूपी प्रपंच का अस्तित्व नहीं है (मंत्र 7) ओंकार रूपी आत्मा का जो स्वरूप उसके चतुष्पाद की दृष्टि से इस प्रकार निष्पन्न होता है उसे ही ऊँकार की मात्राओं के विचार से इस प्रकार व्यक्त किया गया है कि ऊँ की अकार मात्रा से वाणी का आरंभ होता है और अकार वाणी में व्याप्त भी है। सुषुप्ति स्थानीय प्राज्ञ ऊँ कार की मकार मात्रा है जिसमें विश्व और तेजस के प्राज्ञ में लय होने की तरह अकार और उकार का लय होता है, एवं ऊँ का उच्चारण दुहराते समय मकार के अकार उकार निकलते से प्रतीत होते है। तात्पर्य यह कि ऊँकार जगत् की उत्पत्ति और लय का कारण है। वैश्वानर, तेजस और प्राज्ञ अवस्थाओं के सदृश त्रैमात्रिक ओंकार प्रपंच तथा पुनर्जन्म से आबद्ध है किंतु तुरीय की तरह अ मात्र ऊँ अव्यवहार्य आत्मा है जहाँ जीव, जगत् और आत्मा (ब्रह्म) के भेद का प्रपंच नहीं है और केवल अद्वैत शिव ही शिव रह जाता है। उपनिषदों के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों का एक मत नहीं है। कुछ उपनिषदों को वेदों की मूल संहिताओं का अंश माना गया है। ये सर्वाधिक प्राचीन हैं। कुछ उपनिषद ब्राह्मण और आरण्यक ग्रन्थों के अंश माने गये हैं। इनका रचनाकाल संहिताओं के बाद का है। उपनिषदों के काल के विषय मे निश्चित मत नही है समान्यत उपनिषदो का काल रचनाकाल ३००० ईसा पूर्व से ५०० ईसा पूर्व माना गया है। उपनिषदों के काल-निर्णय के लिए निम्न मुख्य तथ्यों को आधार माना गया है— पुरातत्व एवं भौगोलिक परिस्थितियां पौराणिक अथवा वैदिक ॠषियों के नाम सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी राजाओं के समयकाल उपनिषदों में वर्णित खगोलीय विवरण निम्न विद्वानों द्वारा विभिन्न उपनिषदों का रचना काल निम्न क्रम में माना गया है %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B2%E0%A4%BE_%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9A %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 शिमला मिर्च, मिर्च की एक प्रजाति है जिसका प्रयोग भोजन में सब्जी की तरह किया जाता है। अंग्रेज़ी मे इसे कैप्सिकम (जो इसका वंश भी है) या पैपर भी कहा जाता है। मूलत: यह सब्जी दक्षिण अमेरिका महाद्वीप की है जहाँ ऐसे साक्ष्य मिलते हैं कि इसकी खेती लगभग पिछले 3000 सालों से की जा रही है। शिमला मिर्च एक ऐसी सब्जी है जिसे सलाद या सब्जी के रूप में खाया जा सकता है। बाजार में शिमला मिर्च लाल, हरी या पीले रंग की मिलती है। चाहे शिमला मिर्च किसी भी रंग की हो लेकिन उसमें विटामिन सी, विटामिन ए और बीटा कैरोटीन भरा होता है। इसके अंदर बिल्‍कुल भी कैलोरी नहीं होती इसलिये यह खराब कोलेस्‍ट्रॉल को नहीं बढ़ाती। साथ ही यह वजन को स्थिर बनाये रखने के लिये भी योग्‍य है। %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A5%89%E0%A4%B0%E0%A4%AA%E0%A5%80%E0%A4%A1%E0%A5%8B %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 तारपीडो एक स्वचलित विस्पोटक प्रक्षेपास्त्र है जिसे किसी पोत से जल की सतह के उपर या नीचे दागा जा सकता है। यह प्रक्षेपास्त्र जल सतह के नीचे ही चलता है। लक्ष्य से टकराने से अथवा समीप आने पर इसमे विस्पोट हो जाता है। तारपीडो अंतर्जलीय (=अंतः + जलीय) प्रक्षेप्य है, जिसमें अत्याधिक विस्फोटक चार्ज भरे रहते हैं। यह एक जहाज से दूसरे पर प्रक्षिप्त किया जाता है। इसकी रचना जटिल होती है। १८६६ ई० में रॉबर्ट व्हाइटहेड नामक अंग्रेज ने स्वचालित तारपीडो का पहले पहल प्रयोग किया। उसके बाद से तारपीडो में अनेक आश्चर्यजनक सुधार एवं परिवर्तन हुए हैं। आज के तारपीडो में मूल तारपीडो से कुछ भी समानता नहीं है। मनुष्य की बुद्धि का यदि सबसे अच्छा परिचय किसी अस्त्र से मिलता है तो वह तारपीडो है। हर प्रकार की आवश्यकताओं में यह काम आ सकता है, यहाँ तक कि चलाने के बाद भी इसका इच्छानुसार उपयोग हो सकता है। यह पानी के अंदर ३ से ४० नॉट के वेग से १५,००० गज जा सकता है। यह सीधे जा सकता है और अभीष्ट होने पर एक या अनेक बार दिशा को बदल भी सकता है। पानी में जिस गहराई पर यह स्थापित किया जाता है, उसी गहराई पर स्थिर रहता है और जहाज से टकराने पर, या उसके नौतल के नीचे से पार होते समय, विध्वंसक विस्फोट करता है। तारपीडो अनेक प्रकार के होते हैं। सभी तारपीडो देखने में एक से होते हैं और उनकी आवश्यकताए भी एक सी होती हैं। समूद्र की सतह पर एक जहाज दूसरे पर इससे आक्रमण कर सकता हैं, साथ ही जहाज पनडुब्बी पर तथा पनडुब्बी जहाज पर वायुयान से पनडुब्बी और जहाज दोनों पर इससे आक्रमण किया जा सकता है। समुद्र के तल पर स्थित एक जहाज से दूसरे जहाज पर फायर किया जानेवाला मानक तारपीडो है। इस तारपीडो के चार प्रमुख भाग होते हैं: शीर्षभाग [संपादित करें] यह तारपीडो का कार्य करनेवाला अंग है। इसमें लगभग आधा टन उच्च विस्फोटक रखा रहता है। तारपीडो में जितने भी पेचीदे उपकरण हैं, उनका उद्देश्य शीर्ष भाग को लक्ष्य तक ठीक ठीक पहुँचाना भर है। प्रशिक्षण के लिये अभ्यासशीर्ष का प्रयोग किया जा सकता है। अग्रभाग [संपादित करें] इसमें अलग अलग दो उपखंड, वायुपात्र और संतुलन कक्ष होते हैं, जिनकी एक दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। वायुपात्र बहुत ही मजबूत बनाया जाता है, जिससे कि वह प्रति वर्ग इंच ३१,००० पाउंड तक दाब सह सके। तारपीडो का यह सबसे दृढ़ भाग होता है। संतुलन कक्ष में गहराई गियर , रोक वाल्व , प्रभार वाल्व , ईधन और स्नेहक तेल की बोतलें रहती हैं। पिछला अंग [संपादित करें] इसमें इंजन कमरा और उत्प्लावन कक्ष नामक दो उपखंड होते हैं। इंजन कमरे में मुख्य इंजन और जनित्र तथा उत्प्लावन कक्ष में जाइरो और स्टीयरिंग के कल पुर्जे होते हैं। पिछला सिरा [संपादित करें] इसमें ऊर्ध्वाधर ओर क्षैतिज रडर, दृष्टिकोण पंख और नोदक के लिये आवश्यक गियर कहते हैं। चालन आवश्यकताएँ[संपादित करें] तारपीडो चालन की आवश्यकताएँ निम्नलिखित हैं: नोदन संबंधी[संपादित करें] (१) सहायकों का चालन शक्ति के लिये ऑक्सीजन और दाब प्रदान करनेवाली वायु, (२) वायु के पूर्व तापन से अधिक ऊर्जा प्रदान करने और ऑक्सीजन के साथ जलने के लिये सिलिंडर में अंत:क्षेपित ईधंन, (३) इंजन, गतिशील कल पुर्जे और तारपीडो के पिछले सिरे तथा सहायकों का स्नेहन करने के लिये तेल तथा (४) इंजन को ठंडा करने के लिए जल। नियंत्रण[संपादित करें] (१) तारपीडो को चलाने और चाल को रोकने के लिये वाल्व और एक न्यूनक वाल्व जो इंजन को स्थायी और स्थार दबाववाली वायु प्रदान कर सके ताकि तारपीडो की चाल एक सी बनी रहे, (२) निश्चित पथ से तारपीडो को भटकने से रोक रखने के लिये जाइरों तथा (३) तारपीडो को अपनी नियत गहराई पर रखने के लिये 'गहराई गियर'। नोदन के लिये शक्ति उत्पादन[संपादित करें] इसके लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक होती है: (क) जब तारपीडो को फायर करना होता है, तब चालन वाल्व को खोल दिया जाता है। इंजन कमरे में स्थित न्यूतक वाल्व को उच्च दबाववाली वायु प्रदान की जाती है, जिससे वायु का दबाव कम हो जाता है। ऐसी कम दबाववाली वायु का मुख्य अंश सीधे जनित्र में जाता है और शेष अंश ईंधन और तेल बोतल में जाकर उसपर दबाव डालता है। (ख) दबावाधीन ईंधन बोतल को छोड़कर दो अलग अलग नालियों से निकलता है। एक नाली को पाइलट ईंधन नाली और दूसरी को अंत:क्षेपण ईंधन नाली कहते है। पाइलट ईंधन जनित्र में जाता है, जहाँ वह वायु से मिश्रित होता है। ऐसा मिश्रित वाष्पीय ईंधन तब जलाया जाता है और जलती गैस प्रेरणा वलय द्वारा ईजंन के सिलिंडर में प्रवेश करती है। (ग) अंत:क्षेपण ईंधन-'ईंधन समय नियंत्रक' से होकर इंजन के सिलिंडरों में जाता है, जहाँ वह जनित्र की उष्ण गैस के संपर्क से प्रज्वलित होता है और इससे सिलिंडर में दाब बढ़ जाती है। जली हुई गैसें पिस्टन को नीचे ढकेलकर अपना कार्य करती हुई क्रैंक के खोल मे आती हैं और वहाँ से नोदक-ईषा-केंद्र से निकल जाती है। यह नोदक ईषा खोखली होती है और चूषण नल का काम करती है। (घ) तारपीडो अब गर्म होकर चलने लगता है और दो नोदकों को स्थायी चाल से तब तक चलाता है जब तक ईंधन या वायु खरच नहीं हो जाती। इंजन का बाह्य भाग समुद्रजल से ठंढा होता है और आभ्यंतर भाग समुद्रजल की फुहार से ठंडा होता है। इंजन से चलता हुआ जलपंप पानी को क्रैंक के खोल में बल से ले जाता है। चलते हुए तारपीडो का नियंत्रण[संपादित करें] तारपीडो का मार्ग धूर्णदर्शी से निश्चित होता है। यह घूर्णदर्शी, स्टियरिंग इंजन से संचालित होता है। स्टियरिंग इंजन पिछले सिरे से कार्य करता है। धूर्णक-जाइरो का यह गुण होता है कि वह अपने अक्ष को एक स्थायी दिशा में रखे। इस गुण के कारण तारपीडो अपने मार्ग में अविचलित रहता है। ऐसा भी यंत्रविन्यास होता है कि तारपीडो अपने मार्ग को एक या अनेक बार बदल सके। गहराई[संपादित करें] तारपीडो जब गहराई में चलता है तब वह दो अवयवों से नियंत्रित होता है। ये अवयव गहराई गियर में रहते हैं। इनमें एक द्रवस्थैतिक वाल्व होता है, जो समुद्र के दबाव से कार्य करता है ओर दूसरा लोलक भार होता है, जो तारपीडो की स्थिति, उन्नताग्र या अवनताग्र, के परिवर्तन से संचालित होता है। इन दोनो अवयवों का संयुक्त संचालन नियमन मोटर और उपयुक्त छड़ गियर द्वारा, जो पिछले भाग के क्षैतिज रडर में लगा रहता है, रिले होता है। दबी वायु के दबाव में परिवर्तन द्वारा चाल बदली जा सकती है। तारपीडो की गति इस बात पर निर्भर करती है कि जनित्र में ईधंन और हवा का संभरण कब तक होता रहता है। उच्चतम दौड़ अभीष्ट न होने पर तदनुरूप संख्या में इंजन-परिक्रपण होने के बाद 'रोक' साधन से काम लेते हैं। %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B9%E0%A4%A8_%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%A8 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 अन्तर्दहन इंजन (अन्तः दहन इंजन या आन्तरिक दहन इंजन या internal combustion engine) ऐसा इंजन है जिसमें ईंधन एवं आक्सीकारक सभी तरफ से बन्द एक बेलानाकार दहन कक्ष में जलते हैं। दहन की इस क्रिया में प्रायः हवा ही आक्सीकारक का काम करती है। जिस बन्द कक्ष में दहन होता है उसे दहन कक्ष (कम्बशन चैम्बर) कहते हैं। दहन की यह अभिक्रिया ऊष्माक्षेपी (exothermic reaction) होती है जो उच्च ताप एवं दाब वाली गैसें उत्पन्न करती है। ये गैसें दहन कक्ष में लगे हुए एक पिस्टन को धकेलती हुए फैलतीं है। पिस्टन एक कनेक्टिंग रॉड के माध्यम से एक क्रेंक शाफ्ट(घुमने वाली छड़) से जुड़ा होता है, इस प्रकार जब पिस्टन नीचे की तरफ जाता है तो कनेक्टिंग रॉड से जुड़ी क्रेंक शाफ्ट घुमने लगती है, इस प्रकार ईंधन की रासायनिक ऊर्जा पहले ऊष्मीय ऊर्जा में बदलती है और फिर ऊष्मीय ऊर्जा यांत्रिक उर्जा में बदल जाती है। अन्तर्दहन इंजन के विपरीत बहिर्दहन इंजन, (जैसे, वाष्प इंजन) में कार्य करने वाला तरल (जैसे वाष्प) किसी अन्य कक्ष में किसी तरल को गरम करके प्राप्त किया जाता है। प्रायः पिस्टनयुक्त प्रत्यागामी इंजन, जिसमें कुछ-कुछ समयान्तराल के बाद दहन होता है (लगातार नहीं), को ही अन्तर्दहन इंजन कहा जाता है किन्तु जेट इंजन, अधिकांश रॉकेट एवं अनेक गैस टर्बाइनें भी अन्तर्दहन इंजन की श्रेणी में आती हैं जिनमें दहन की क्रिया अनवरत रूप से चलती रहती है। अनुक्रम [छुपाएँ] 1 इतिहास 2 उपयोग 3 अन्तर्दहन इंजन का कार्य सिद्धान्त 3.1 चतुर्घात चक्र इंजन (four stroke engine) 3.2 द्विघात चक्र इंजन का कार्यकरण 3.3 चतुर्घात चक्र इंजन एवं द्विघात चक्र इंजन में तुलना 4 एकदिश और उभयदिश सक्रिय इंजन 5 ओटो चक्र (Otto Cycle) 6 शक्ति और कार्य के मात्रक 7 निर्धारित शक्ति 8 सुपरचार्जर 9 संपीडन अनुपात और ओटो इंजनों में अधिस्फोटन (detonation) 10 अंतर्दहन इंजनों की त्वरा 11 इंजन की नाप 12 वर्गीकरण 13 प्रत्यागामी इंजन 14 जेट इंजन 15 गैस टरबाइन 16 डीजल इंजन 17 पेट्रोल इंजन 18 इन्हें भी देखें 19 बाह्य सूत्र इतिहास[संपादित करें] शुरू-शुरू में अन्तर्दहन इंजन कृषि उपकरणों को चलाने के काम में आते थे। १७वीं शताब्दी: अंग्रेजी आविष्कारक सैमुएल मोर्लैण्ड (Samuel Morland) ने पानी के पम्प चलाने के लिये बारूद का प्रयोग किया। इसे प्रथम अन्तर्दहन इंजन कहा जा सकता है। १८०६ : स्विट्जरलैण्ड के इंजीनियर फ्रैको आइजक रिवाज (François Isaac de Rivaz) ने हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन के मिश्रण से चलने वाला अंतर्दहन इंजन बनाया। १८२३: सेमुअल ब्राउन ने औद्योगिक रूप से लागू करने के लिये पहला आंतरिक दहन इंजन पेटेंट कराया। यह एक संपीडन रहित और हारडनबर्ग द्वारा परिभाषित चक्र "लियोनार्डो सायकल" पर अधारित इंजन था। १८२४: फ्रांसीसी भौतिकशास्त्री सेडी कारनाट आदर्श उष्मीय इंजनों का उष्मागतिक सिद्धांत प्रतिपादित किया। १८२६: एक अमेरिकी सेमुअल मोरे दवाबरहित "गैस अथवा वाष्प इंजन." के लिये पेटेन्ट प्राप्त किया। १८५४: इटली के नागरिक युजेनियो and फेलिस ने लन्दन में सबसे पहला कार्यकारी दक्षता का अन्तर्दहन इंजन पेटेन्ट करवाया। १८९२: रुडोल्फ डीजल ने कार्नो ऊष्मा इंजन प्रकार की मोटर विकसत की जिसमें कोयला-धूलि का दहन होता था। १८९३ २३ फरवरी: रूडोल्फ डीजल ने डीजल इंजन का पेटेंट प्राप्त किया। १८९६: कार्ल बेन्ज ने बॉक्सर इंजन का आविष्कार किया इसे क्षैतिजतः विरोधित इंजन भी कहते हैं, इसमें संगत पिस्टन शीर्ष मृत सिरे केन्द्र पर एक ही समय पर पहुँचकर एकदूसरे के संवेग को सन्तुलित कर देते हैं। १९००: रूडोल्फ डीजल ने १९०० एक्सपोसिशन यूनीवर्सेल में डीजल इंजन का प्रदर्शन किया, जिसमें मूँगफली का तेल प्रयुक्त किया गया। १९००: विल्हेम् मेबैक् ने एक इंजन अभिकल्पित किया जिसे डैमलर मोटरेन गेसेल्शैफ्ट में बनाया गया- इसमें एमिल जेलिनेक के विशेषीकरणों को प्रयुक्त किया गया जिन्होंने इसका नाम डैम्लर मर्सीडीस रखना पसंद किया (अपनी पुत्री के नाम पर)। १९०२ में उस इंजन वाले वाहनों का उत्पादन डीएमजी ने शुरू किया। १९०८: न्यूजीलैंड के आविष्कारक अर्नेस्ट गॉडवार्ड ने इन्वर्कार्गिल् में मोटरसाइकलों का व्यापार शुरू किया और आयातित द्विचक्रियों में अपने खुद के आविष्कार - पेट्रोल मितव्ययकारक (इकोनॉमाइसर) को लगाना शुरू किया उनका मितव्ययकारक कारों में भी उतना ही अच्छा चला जितना मोटरसाइकलों में। उपयोग[संपादित करें] आजकल आटोमोबाइल में प्रयुक्त अधिकांश इंजन अन्तर्दहन इंजन ही होते हैं। अन्तर्दहन इंजन का कार्य सिद्धान्त[संपादित करें] चार-आघात अन्तर्दहन इंजन - कार्य करते हुए १. गैस का अन्दर चूषण 2. दाबन 3. शक्ति 4. गैसों का उत्सर्जन अंतर्दहन इंजन के आविष्कार का विचार मध्ययुग से प्रारंभ हुआ। १६८० ई. में डच वैज्ञानिक क्रिश्चियन हाइगेस ने एक ऊर्ध्व सिलिंडर और पिस्टन के इंजन का सुझाव रखा था, जिसमें बारूद के विस्फोट से पिस्टन ऊपर चढ़े। किंतु इस तरह का इंजन कभी काम में नहीं आया। बाद में दहनशील गैसों तथा खनिज तैलों के आविष्कार से उनका सुझाव व्यावहारिक हो गया क्योंकि बारूद की जगह ईधन देने की समस्या सुलझ गई। लेकिन फिर भी इस वर्ग के इंजनों को व्यावहारिक उपयोगिता के अनुकूल बनाने में अनेक वर्षो के प्रायेगिक और सैद्धांतिक अध्ययन की आवश्यकता हुई। अंतर्दहन इंजनों में ईधन के रूप में डीजल (गाढ़े मिट्टी के तेल), पेट्रोल, ऐल्कोहल अथवा प्राकृतिक या कृत्रिम गैस इत्यादि का प्रयोग होता है। लेकिन साधारणत: पेट्रोल और डीजल का ही उपयोग होता है। अंतर्दहन इंजन दो सिद्धांतो पर कार्य करते हैं - (1) चतुर्घात चक्र और (2) द्विघात चक्र चतुर्घात चक्र इंजन (four stroke engine)[संपादित करें] मुख्य लेख : फोर स्ट्रोक इंजन द्विघात चक्र इंजन का कार्यकरण[संपादित करें] मुख्य लेख : द्विघात इंजन चतुर्घात चक्र इंजन एवं द्विघात चक्र इंजन में तुलना[संपादित करें] चतुर्घात चक्र इंजन द्विघात चक्र इंजन चतुर्घात चक्र इंजन में ईंधन से यांत्रिक उर्जा में परिवर्तन का चक्र कुल चार चरणों में पूरा होता है। इन चरणों या स्ट्रोकों को क्रमश: इनटेक, संपीडन (कम्प्रेशन), ज्वलन (combustion), एवं उत्सर्जन (exhaust) कहते हैं। इन चार चरणों (स्ट्रोकों) को पूरा करने में क्रैंकसाशाफ्ट को दो चक्कर लगाने पड़ते हैं। द्विघात इंजन (two-stroke engine) क्रैंकशाफ्ट के एक ही चक्कर (अर्थात, पिस्टन के दो चक्कर) में ही उर्जा-परिवर्तन का पूरा चक्र (thermodynamic cycle) पूरा कर लेता है। जबकि चतुर्घात इंजन में उर्जा-परिवर्तन का चक्र पिस्टन के चार चक्करों में पूरा होता है। चतुर्घात चक्र इंजन में प्रधान धुरी (क्रैंकशाफ्ट) के दो चक्करों में एक शक्ति घात होता है। द्विघात चक्र इंजन के प्रत्येक चक्कर में एक शक्ति घात होता है। तो भी नाप में अपने ही बराबर चतुर्घात इंजन की अपेक्षा दुगुनी ऊर्जा उत्पन्न करने के बदले द्विघात-इंजन केवल 70% से 90% तक अधिक ऊर्जा उत्पन्न करता है। वर्तमान में गाड़ियों में सामान्यत: फोर स्ट्रोक इंजन का प्रयोग ज्यादा होता है इससे पहले गाड़ियों में टू स्ट्रोक इंजन का प्रयोग हुआ करता था, लेकिन कम माइलेज और जीवन अवधि कम होने के कारण इसका स्थान फोर स्ट्रोक इंजन ने ले लिया। पेट्रोल से चलने वाला फोर-स्ट्रोक इंजिन। फोर स्ट्रोक चक्र 1=TDC 2=BDC ए: इनटेक बी: संपीड़न सी: शक्ति डी: उत्सर्जन द्विघात इंजन का चलित (एनिमेटेड) स्वरूप पेट्रोल से चलने वाला फोर-स्ट्रोक इंजिन 1=(उपरी निर्जीव केन्द्र) 2=(तलीय निर्जीव केन्द्र) ए: इनटेक बी: उत्सर्जन सी: संपीड़न डी: शक्ति एकदिश और उभयदिश सक्रिय इंजन[संपादित करें] अंतर्दहन इंजनों में (और आगे-पीछे चलनेवाले पिस्टन युक्त अन्य इंजनों में भी) दो जातियाँ होती हैं, एकदिश सक्रिय (सिंगल-ऐक्टिंग) इंजन और उभयदिश सक्रिय (डबल-ऐक्टिंग) इंजन। एकदिश सक्रिय इंजनों में कार्यकारी पदार्थ (पेट्रोल, डीज़ल तेल, आदि) पिस्टन के केवल एक ओर रहता है; उभयदिश सक्रिय इंजनों में दोनों ओर। उनमें सिलिंडर लंबा रहता है और पिस्टन के दोनों के भागों में चूषण, संपीडन इत्यादि होता रहता है। अधिकांश अंतर्दह इंजन एकदिश सक्रिय होते हैं। उदाहरणत:, मोटरकारों में इंजन इसी प्रकार के होते हैं। परंतु बहुतेरे बड़े इंजन उभयदिश सक्रिय बनाए जाते हैं। एकदिश सक्रिय इंजन की अपेक्षा उभयदिश सक्रिय इंजन में लगभग दुगुनी ऊर्जा उत्पन्न होती है और नाप में नाममात्र ही वृद्धि होती परंतु उभयदिश सक्रिय इंजनों के निर्माण में कई यांत्रिक कठिनाइयाँ पड़ती हैं। इसलिए केवल बड़ी नाव के इंजनों में ही उभयदिश सक्रिय इंजन लाभ दायक होते हैं। दूसरी ओर, वाष्प इंजन और वायु संपीडक साधारणत: उभयदिश सक्रिय बनाए जाते हैं, यद्यपि यह अनिवार्य नियम नहीं है। ओटो चक्र [संपादित करें] आदर्श आटो सायकल का PV आरेख ए: इनटेक बी: संपीड़न सी: शक्ति डी: उत्सर्जन आज के अधिकांश अंतर्दहन इंजन ओटो चक्र (ओटो साइकिल) के सिद्धांत पर बनते हैं। गणना की सरलता के लिए हम कल्पना कर सकते हैं कि चक्र में दो क्रियाएँ समऐन्ट्रॉपिक (आइसेंट्रॉपकि) और दो स्थिरआयतनिक (कॉन्स्टैंट वॉल्यूम) होती हैं। कल्पित चक्र के विश्लेषण में सुगमता के लिए मान लिया जाता है कि कार्यकारी पदार्थ केवल वायु है। यह भी मान लिया जाता है कि न तो चूषण आघात होता है ओर न निकास आघात। इस विश्लेषण को वायुमात्रिक विश्लेषण कहते हैं। वास्तविक इंजन में गैसों का निकास होता है। उसके बदले माना जाता है कि स्थिर आयतन पर गैसें ठंडी हो जाती हैं। कार्य उतना ही होता है (घर्षण की उपेक्षा करने पर), चाहे गैसों का निकास किया जाए, चाहे उन्हें ठंडा किया जाए प्रत्येक दशा में ईधन के जलने से उत्पन्न उष्मा उतनी ही रहती है। शक्ति और कार्य के मात्रक[संपादित करें] जिस दर से ऊर्जा कार्य में रूपांतरित होती है उसे शक्ति कहते हैं; यह समय के एकक में कार्य की मात्रा है। वह कार्य जो आगे पीछे चलनेवाले पिस्टन युक्त इंजन के पिस्टन पर किया जाता है, निर्दिष्ट कर्म (इंडिकेटेड वर्क) कहलाता है और निर्दिष्ट कार्य के अनुसार गणना की हुई शक्ति निर्दिष्ट अश्वशक्ति (इंडिकेटेड हॉर्स पावर) कहलाती है। इंजन की धुरी तक जितना कार्य पहुँचता है वह धुरी कार्य (शैफ्ट वर्क) अथवा ब्रेक कार्य (ब्रेक वर्क) कहलाता है और इस कार्य के अनुसार उत्पन्न शक्ति को ब्रेक अश्वशक्ति (ब्रेक हॉर्स पावर) कहते हैं। निर्धारित शक्ति[संपादित करें] किसी अंतर्दहन इंजन के कितना शक्ति प्राप्त हो सकती है, इसे निर्धारित करने के लिए कई आधार लिए जा सकते हैं। मोटरकार इंजन बनानेवाले अपने विज्ञापनों में अपने इंजन की महत्तम शक्ति बताते हैं, जो तब प्राप्त होता है जब समस्त परिस्थितियाँ महत्तम रूप से अनुकूल होती हैं। परंतु औद्योगिक इंजन का निर्माता अपने इंजनों की शक्ति साधारणत: लगभग महत्तम उष्मीय दक्षता पर उत्पन्न होनेवाली शक्ति के अनुसार निर्धारित करते हैं। औद्योगिक इंजनों का सामर्थ्य इसी प्रकार निर्धारित करना उत्तम भी है। कारण यह है कि यदि इंजन निर्धारित सामर्थ्य पर चलाए जाएँगे तो ईंधन का खर्च न्यूनतम होगा और फिर आवश्यकता होने पर कुछ समय तक वे अधिक सामर्थ्य पर भी काम कर सकेंगे। सुपरचार्जर[संपादित करें] मुख्य लेख : सुपरचार्जर इंजन पर लगा सुपरचार्जर प्रत्येक अंतर्दहन इंजन में प्राप्त शक्ति इसपर निर्भर रहता है कि पिस्टन की एक दौड़ में जितना ईधन-वायु-मिश्रण सिलिंडर में प्रविष्ट होता है उसका द्रव्यमान क्या है। इसलिए जिन कारणों से यह द्रव्यमान घटेगा उनसे इंजन का सामर्थ्य घटेगा। वास्तविक इंजन में ईधन-वायु-मिश्रण को घटाने बढ़ानेवाले यंत्र से, जिसे प्ररोध (थ्रटल) कहते हैं, तथा अंतर्ग्रहण और निकास वाल्वों से मिश्रण की गति में कुछ बाधा पड़ती है। इसलिए मिश्रण को चूसते समय सिलिंडर में दाब वायुमंडलीय दाब से कम ही रह जाती है। फलत: उतना मिश्रण नहीं घुस पाता जितना सैद्धांतिक गणना में माना जाता है। सैद्धांतिक गणना में तो मान लिया जाता है कि सिलिंडर के भीतर मिश्रण की दाब वायुमंडलीय दाब के बराबर है। फिर, सिलिंडर का भीतरी पृष्ठ, तथा मिश्रणपूर्ण अपेक्षाकृत तप्त रहते हैं। इसलिए सिलिंडर में पहुँचने पर ईधन मिश्रण गरम हो जाता है। आयतन ताप-दाब नियम के अनुसार ताप बढ़ने के कारण सिलिंडर में मिश्रण का द्रव्यमान उस द्रव्यमान की अपेक्षा कम होता है जो ठंडे रहने पर होता। फिर, वास्तविक इंजन में सिलिंडर के छूट स्थान (क्लियरैंस स्पेस) में, निकास घात के पूर्ण हो जाने पर भी, गैसें आदि वायुमंडलीय दाब से अधिक दाब पर रह जाती हैं और चूषण घात के आरंभ में वे सिलिंडर में फैल जाती हैं। इनका दाब वायुमंडलीय दाब के बराबर हो जाने के बाद ही चूषण का आरंभ होता है। इससे भी सिद्धांततः परिकलित मात्रा से कम ही मिश्रण सिलिंडर में प्रवेश करता है। अंत में, इंजन समुद्रतल से जितनी ही अधिक ऊँचाई पर काम करेगा वहाँ वायुमंडलीय दाब उतनी ही कम होगी। इसलिए द्रव्यमान के अनुसार जितना मिश्रण सिलिंडर में समुद्रतल पर प्रविष्ट हो सकेगा उससे कम ही मिश्रण ऊँचे स्थलों में प्रविष्ट हो पाएगा। अंतर्दहन इंजन की आयतनीय दक्षता केवल ऊँचाई बढ़ने पर ही नहीं घटती, वह इंजन की चाल (स्पीड) बढ़ने पर भी घटती है। इसलिए दौड़ प्रतियोगिता में प्रयुक्त इंजनों और अधिक ऊँचाई पर काम करनेवाले इंजनों में बहुधा सुपरचार्जर लगा दिया जाता है। इस यंत्र में एक छोटा सा अपकेन्द्रीय पंखा (ब्लोअर) रहता है जो ईधन-वायु-मिश्रण को सिलिंडर में वायुमंडलीय दाब के कुछ अधिक दाब पर ठूँस देता है। सुपरचार्जर लगाने से आयतनीय दक्षता बढ़ जाती है, यहाँ तक कि यह 1 से अधिक भी हो जा सकती है। संपीडन अनुपात और ओटो इंजनों में अधिस्फोटन [संपादित करें] ओटो चक्र के विश्लेषण में यह दिखाया जा चुका है कि संपीडन अनुपात बढ़ाने से दक्षता बढ़ती है। वास्तविक इंजनों में भी यही प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है। ओटो चक्र के अनुसार काम करनेवाले इंजनों में चूषण आघात में वायु के साथ ही ईधन भी घुसता है और इसलिए संपीडन आघात में भी वह वर्तमान रहता है। जब संपीडन अनुपात बहुत बड़ा रखा जाता है तो संपीडन के एक नियत मात्रा से अधिक होते ही ईधन मिश्रण में अधिस्फोट होता है, अर्थात् ईधन स्वयं, बिना स्पार्क प्लग से चिनगारी आए, जल उठता है। फिर, यदि ऐसा न भी हुआ, तो स्पार्क प्लग की चिनगारी से जलना आरंभ होने पर संपीडन लहरें उठती हैं, जो चिनगारी के पास जलते हुए मिश्रण के आगे आगे चलती हैं। इन संपीडन लहरों के कारण चिनगारी से दूर का मिश्रण स्वयं जल उठ सकता है, जो अवांछनीय है। फिर, सिलिंडर में कहीं पेट्रोल आदि के जले अवशेष के दहकते रहने से, अथवा पिस्टन के भीतर बढ़े पेट्रोल आदि के जले अवशेष के दहकते रहने से, अथवा पिस्टन के भीतर बढ़े किसी अवयव की तप्त नोक से भी ईधन मिश्रण समय के पहले जल सकता है। जब कभी संपीडित मिश्रण समय से पहले जल उठता है तो उसका यह जलना अधिस्फोटक (डिटोनेटिंग) होता है। यह कान से सुनाई पड़ता है - जान पड़ता है कि किसी धातु को हथौड़े से ठोंका जा रहा है। शीघ्रतापूर्वक जलने वाले ईधनों में अधिस्फोट की आशंका अधिक रहती है। पिछली कुछ दशाब्दियों में कई नवीन खोजें हुई हैं, जिनसे बिना अधिस्फोट हुए संपीडन अनुपात अधिक बड़ा रखा जा सकता है। उदाहरणत: ऐसे ईधन बनाए गए हैं जो अधिक धीरे धीरे जलते हैं, जैसे बेंज़ोल और पेट्रोल के मिश्रण, पॉलीमेराइज़ किया हुआ पेट्रोल और ऐसा पेट्रोल जिसमें थोड़ी मात्रा में टेट्रा-एथिल-लेड मिला रहता है; दहनकक्ष के उस भाग को, जो पिस्टन के ऊपर रहता है, ऐसा नवीन रूप दिया गया है कि अधिस्फोट कम हो; दहनकक्ष से उष्मा के निकलने का वेग बढ़ा दिया गया है। यह काम इंजन के माथे को पहले से पतला और अधिक दृढ़ धातुओं का (जैसे ऐल्युमिनियम की मिश्रधातु य काँसे का) बनाकर किया गया है, जो उष्मा के अधिक अच्छे चालक हैं। साथ ही पिस्टन भी ऐसे पदार्थो का बनता है जो उष्मा के अच्छे चालक होते हैं। काँसे के माथे बनाने से संपीडन अनुपात के बहुत अधिक रहने पर भी इंजन बिना अधिस्फोट के चलते है; इसका कारण यह है कि काँसा उष्मा का बहुत अच्छा चालक है। इसलिए उष्मा सिलिंडर से शीघ्रता से दूर होती रहती है। परंतु, बहुत शीघ्रता से उष्मा का दूर होना भी अवगुण है, क्योंकि इससे अधिक संपीडन के उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो पाती। हमारा उद्देश्य सदा यह रहता है कि उष्मीय दक्षता बढ़े। परंतु कुछ इंजनों में इतनी उष्मा इधर उधर चली जाती है कि उष्मीय दक्षता बढ़ने के बदले घट जाती है। ऐल्यूमिनियम के माथे में कभी कभी यही दोष देखा जाता है। दहनकक्ष के भीतरी भाग को अधिक चिकना बनाया जाता है, जिससे कोई ऐसे दाने नहीं रह पाते जो तप्त होकर लाल हो जायें और ईधन-मिश्रण का जलना आरंभ कर दें; तथा दहनकक्ष के आसपास के भागों को (जैसे स्पार्क प्लग, वाल्व मुंड आदि को) अधिक ठंडा रखने का प्रबंध किया गया है। सन् 1920-25 के लगभग मोटरकार के इंजनों में संपीडन अनुपात लगभग 4.5 रहता था; कभी-कभी तो यह 3.5 ही रहता था। वर्तमान समय में यह अनुपात 6.5 या कुछ अधिक रहता है; कुछ इंजनों में तो यह अनुपात 10 तक होता है। अंतर्दहन इंजनों की त्वरा[संपादित करें] इंजनों की त्वरा (चाल, स्पीड) साधारणत: चक्कर प्रति मिनट (च.प्र.मि., आर.पी.एम., रेवोल्यूशंस पर मिनट) में बताई जाती है परंतु यह निर्धारित नहीं है कि कितने चक्कर प्रति मिनट रहने पर इंजन को इनमें से किस विशेष वर्ग में रखा जाए। इसके अतिरिक्त तीव्रगति वाष्प इंजन में जितने चक्कर प्रति मिनट होते हैं, वे अत्यंत मंदगति अंतर्दहन इंजन के चक्कर प्रति मिनट 4,000 या कुछ अधिक चक्कर का वेग रहता है, परंतु दौड़ की प्रतियोगिता के लिए बने इंजनों में चक्कर प्रति मिनट 6,000 के आसपास होते हैं। वे डीज़ल इंजन, जिनमें चक्कर प्रति मिनट लगभग 1,000 होते हैं तीव्रगति डीज़ल कहलाते हैं। बड़ी नाप के सिलिंडरवाले इंजन छोटे सिलिंडरोंवाले इंजनों की अपेक्षा मंद गति से चलते हैं, क्योंकि बड़े पिस्टन भारी होते हैं और उनके चलन की दिशा बदलते समय इतना झटका लगता है कि उसे सँभालना कठिन होता है। पिस्टन का वेग भी इंजनों की गति की सीमा निर्धारित करता है, क्योंकि पिस्टन का वेग बहुत बढ़ाने से इंजन घिसकर शीघ्र नष्ट हो जाता है। मोटरकार के इंजनों में पिस्टन-वेग अब 2,800 फुट प्रति मिनट या इससे भी कुछ अधिक रखा जाता है। डीज़ल इंजनों में पिस्टन का औसत वेग 1,000 और 1,200 फुट प्रति मिनट के बीच रहता है। इंजन की नाप[संपादित करें] इंजनों की नाप सिलिंडर के व्यास और पिस्टन की दौड़ से बताई जाती है। उदहारणत:, 12-18 इंच के इंजन का अर्थ यह है कि सिलिंडर का व्यास 12 इंच है और पिस्टन की दौड़ 18 इंच है। आधुनिक मोटरकार इंजनों में अपने उसी नाप के 20-30 वर्ष पहले के पूर्वजों की अपेक्षा कहीं अधिक सामर्थ्य रहता है। सामर्थ्य निम्नलिखित कारणों से बढ़ा है: वाल्वों का अधिक ऊँचाई तक उठना और अंतर्ग्रहण छिद्र का बड़ा होना, जिससे ईधन मिश्रण के आने में कम द्रवघर्षण उत्पन्न होता है और इसलिए सिलिंडर में घुसनेवाले मिश्रण की तौल अधिक होती है; निकास वाल्व का कुछ शीघ्र खुल जाना, जिससे पिस्टन पर उल्टा दाब नहीं पड़ता और ऋणात्मक कार्य नहीं करना पड़ता; निकास वाल्व का कुछ देर में बंद होना, जिसके कारण जली गैसों को बाहर निकलने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है और वे अपने ही जडत्व से सिलिंडर से लगभग पूर्णत: निकल जाती हैं; अंतर्ग्रहण वाल्व का कुछ बाद में बंद होना, जिससे संपीडन आघात के पश्चात् पिस्टन के चल पड़ने पर भी आनेवाला ईंधन-मिश्रण अपनी जडत्व (इनर्शिया) से आता रहता है और इस प्रकार तीव्रगति इंजनों में पहले की अपेक्षा अब अधिक मिश्रण सिलिंडरों में घुस पाता है; अधिक अच्छी अंतर्ग्ररहण नलिकाएँ, जिनसे विविध सिलिंडरों में अधिक बराबरी से ईधन मिश्रण पहुँचता है; चल भागों का बढ़िया आसंजन (फ़िट) और अधिक अच्छी यांत्रिक रचना, जिससे घर्षण और घरघराहट दोनों में कमी होती है; अधिक तीव्रगति इंजन, जिसका बनना अधिक शुद्ध निर्माण और चल भागों के अधिक उत्तम संतुलन से संभव हो सका है। वर्गीकरण[संपादित करें] प्रत्यागामी इंजन दो स्ट्रोक इंजन चार स्ट्रोक इंजन छ: स्ट्रोक इंजन घूर्णी इंजन वेंकल इंजन गैस टरबाइन जेट इंजन ईंधन के अनुसार डीजल इंजन पेट्रोल इंजन %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%B0_%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%82 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 गंगाधर नेहरू (1827–1861) भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान दिल्ली के कोतवाल (मुख्य पुलिस अधिकारी) थे। वे स्वतन्त्रता सेनानी कांग्रेस नेता मोतीलाल नेहरू के पिता और भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू के दादा थे।[1] अनुक्रम [छुपाएँ] 1 जीवन परिचय 2 पारिवारिक जीवन 3 इन्हें भी देखें 4 बाहरी कड़ियाँ 5 सन्दर्भ जीवन परिचय[संपादित करें] 1827 ई. में जन्मे गंगाधर नेहरू 1857 ई. से कुछ समय पहले दिल्ली के कोतवाल नियुक्त हुए थे। वे दिल्ली के अन्तिम कोतवाल थे।[2] 1857 के विद्रोह के बाद जब अंग्रेज पुलिस ने दिल्ली शहर को कब्जे में करके कत्लेआम आरम्भ किया तो वे अपनी पत्नी जियोरानी देवी और चार सम्तानों के साथ आगरा चले गये। इसके चार वर्षों बाद आगरा में ही सन् 1861 ई. में उनकी मृत्यु हुई।[3] पारिवारिक जीवन[संपादित करें] उनके तीन पुत्र थे। सबसे बड़े बंशीधर नेहरू भारत में विक्टोरिया का शासन स्थापित होने के बाद तत्कालीन न्याय विभाग में काम करने लगे एवं निरन्तर भारत के विभिन्न स्थानों पर नियुक्त हुए। इसी कारण वे परिवार से थोड़ा दूर रहे। उनसे छोटे नन्दलाल नेहरू थे जो लगभग दस वर्ष तक राजस्थान की एक रियासत खेतड़ी के दीवान रहे, बाद में उन्होंने आगरा लौटकर कानून की शिक्षा प्राप्त की और फिर वहीं वकालत करने लगे। उनकी गणना आगरा के सफल वकीलों में की जाती थी। बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय बन जाने के कारण उन्हें मुकदमों के सिलसिले में अपना अधिकांश समय वहीं बिताना पड़ता था इसलिए वे अपने परिवार को लेकर स्थायी रूप से इलाहाबाद आ गये और वहीं रहने लगे। वे इलाहाबाद व कानपुर दोनों जगह वकालत करते थे।[3] तीसरे पुत्र मोतीलाल नेहरू थे। उन पर अपने बड़े भाई नन्दलाल नेहरू का गहरा प्रभाव पड़ा था।[4] नन्दलाल नेहरू की गणना कानपुर के अच्छे वकीलों में की जाती थी इसलिए मोतीलाल नेहरू ने अपनी वकालत उनके सहायक के रूप में कानपुर में ही आरम्भ की।[4] मोतीलाल बाद में प्रसिद्ध वकील बने। उनके पुत्र और गंगाधर के पौत्र जवाहर लाल भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री बने। %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%8C%E0%A4%B2%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B5_%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%87 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 दौलतराव शिंदे (१७७९ ई. - सन् १८२७ ई.) ग्वालियर के महाराजा थे। उन्होने १७९४ से १८२७ तक अपनी मृत्यु तक शासन किया। परिचय[संपादित करें] महादजी शिंदे की मृत्यु के पश्चात् उसका दत्त्क पुत्र दौलतराव १४ वर्ष की अपिरपक्व अवस्था में उसका उत्तराधिकारी बना। एक तो वह प्रकृति से उद्धत तथा अदूरदर्शी था; दूसरे नीम चढ़े करेले की तरह उसे कुसंगति भी बाजीराव जैसे धूर्त और शर्जाराव जैसे नृशंस व्यक्तियों की मिली। फलत: पारस्परिक विग्रह से प्रताड़ित महाराष्ट्र और भी द्रुतगति से पतनोन्मुख हुआ। पेशबा माधवराव की मृत्यु पर उत्तराधिकार के प्रश्न के लेकर नाना फड़निस, बाजीराव, शिंदे, तथा तथा होल्कर में पारस्परिक कुचक्र चल निकले। इसी समय दौलतराव, शर्जाराव जिसकी पुत्री बैजाबाई से उसका विवाह हुआ, के संपर्क में आया। दौलतराव, बाजीराव तथा शर्जाराव का गुट्ट बना। इन्होनें नाना फड़नवीस को बंदी बनाया तथा होल्कर की उत्तराधिकार समस्या में हस्तक्षेप किया। तज्जनित युद्ध में दौलतराव तथा पेशवा की समिलित सेना की यशवंतराव होल्कर द्वारा पूर्ण पराजय हुई। वयोवृद्ध राजनीतिज्ञ नानाफडनवीस की मृत्यु से महाराष्ट्र संघ पर रहा सहा नियंत्रण हट जाने के कारण उसका पतन अवश्यंभावी हो गया। द्वितीय आंग्ल-मराठा-युद्ध में अंगरेजों द्वारा परास्त हो दौलतराव सुर्जीअर्जन गाँव की संधि करने के लिए विवश हुआ, जिससे उसके राज्य का यथेष्ट भाग अँगरेजों को समर्पित हुआ। अंतिम आंग्ल-मराठा-युद्ध के पूर्व लार्ड हेस्टिग्ज ने कूटनीति द्वारा दौलतराव को पिंडारियों से विलग कर, उसके विरुद्ध सहायता प्रदान करने के लिए मजबूर किया, जिससे उसकी शक्ति क्षीणतर हो गई। युद्ध में महाराष्ट्र साम्राज्य के ही विध्वस्त हो जाने के कारण, दौलतराव पंगुशक्ति रह गया। १८२० में उसकी मृत्यु हो गई। सन्दर्भ ग्रन्थ[संपादित करें] हिस्ट्री ऑफ दि मराठाज - ग्रांट डफ; दि न्यू हिस्ट्री ऑव दि मराठाज - जी.एस. सरदेसाई; पूना रेजिडेन्सी करेस्पांडेंस वॉल्यूम क्ष्क्ष्क्ष्; दौलतराव सिंधिया ऐंड नॉर्दर्न इंडियन अफेयर्स (१७९४-१७९९) - एडिटेड बाई डॉ॰ जदुनाथ सरकार; दौलतराव सिंधिया ऐंड नार्दर्न इंडियन अफेयर्स - एडिटेड बाई डॉ॰ रघुबीरसिंह; फाल ऑव दि मुगल एंपायर - डॉ॰ जदुनाथ सरकार; मराठा अणि इंग्राज - एन.सी. केलकर। %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 लोकसम्पर्क या जनसम्पर्क या जनसंचार (Mass communication) से तात्पर्य उन सभी साधनों के अध्ययन एवं विश्लेषण से है जो एक साथ बहुत बड़ी जनसंख्या के साथ संचार सम्बन्ध स्थापित करने में सहायक होते हैं। प्रायः इसका अर्थ सम्मिलित रूप से समाचार पत्र, पत्रिकाएँ, रेडियो, दूरदर्शन, चलचित्र से लिया जाता है जो समाचार एवं विज्ञापन दोनो के प्रसारण के लिये प्रयुक्त होते हैं। जनसंचार माध्यम में संचार शब्द की उत्पति संस्कृत के 'चर' धातु से हुई है जिसका अर्थ है चलना। अनुक्रम [छुपाएँ] 1 परिचय 2 समाचार पत्र 3 चलचित्र 4 इन्हें भी देखें परिचय[संपादित करें] लोकसंपर्क का अर्थ बड़ा ही व्यापक और प्रभावकारी है। लोकतंत्र के आधार पर स्थापित लोकसत्ता के परिचालन के लिए ही नहीं बल्कि राजतंत्र और अधिनायकतंत्र के सफल संचालन के लिए भी लोकसंपर्क आवश्यक माना जाता है। कृषि, उद्योग, व्यापार, जनसेवा और लोकरुचि के विस्तार तथा परिष्कार के लिए भी लोकसंपर्क की आवश्यकता है। लोकसंपर्क का शाब्दिक अर्थ है 'जनसधारण से अधिकाधिक निकट संबंध'। प्राचीन काल में लोकमत को जानने अथवा लोकरुचि को सँवारने के लिए जिन साधनों का प्रयोग किया जाता था वे आज के वैज्ञानिक युग में अधिक उपयोगी नहीं रह गए हैं। एक युग था जब राजा लोकरुचि को जानने के लिए गुप्तचर व्यवस्था पर पूर्णत: आश्रित रहता था तथा अपने निदेशों, मंतव्यों और विचारों को वह शिलाखंडों, प्रस्तरमूर्तियों, ताम्रपत्रों आदि पर अंकित कराकर प्रसारित किया करता था। भोजपत्रों पर अंकित आदेश जनसाधारण के मध्य प्रसारित कराए जाते थे। राज्यादेशों की मुनादी कराई जाती थी। धर्मग्रंथों और उपदेशों के द्वारा जनरुचि का परिष्कार किया जाता था। आज भी विक्रमादित्य, अशोक, हर्षवर्धन आदि राजाओं के समय के जो शिलालेख मिलते हैं उनसे पता चलता है कि प्राचीन काल में लोकसंपर्क का मार्ग कितना जटिल और दुरूह था। धीरे धीरे आधुनिक विज्ञान में विकास होने से साधनों का भी विकास होता गया और अब ऐसा समय आ गया है जब लोकसंपर्क के लिए समाचारपत्र, मुद्रित ग्रंथ, लघु पुस्तक-पुस्तिकाएँ, प्रसारण यंत्र (रेडियो, टेलीविजन), चलचित्र, ध्वनिविस्तारक यंत्र आदि अनेक साधन उपलब्ध हैं। इन साधनों का व्यापक उपयोग राज्यसत्ता, औद्योगिक और व्यापारिक प्रतिष्ठान तथा अंतरराष्ट्रीय संगठनों के द्वारा होता है। वर्तमान युग में लोकसंपर्क के सर्वोत्तम माध्यम का कार्य समाचारपत्र करते हैं। इसके बाद रेडियो, टेलीविजन, चलचित्रों और इंटरनेट आदि का स्थान है। नाट्य, संगीत, भजन, कीर्तन, धर्मोपदेश आदि के द्वारा भी लोकसंपर्क का कार्य होता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत जुलूस, सभा, संगठन, प्रदर्शन आदि की जो सुविधाएँ हैं उनका उपयोग भी राजनीतिक दलों की ओर से लोकसंपर्क के लिए किया जाता है। डाक, तार, टेलीफोन, रेल, वायुयान, मोटरकार, जलपोत और यातायात तथा परिवहन के अन्यान्य साधन भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संपर्क के लिए व्यवहृत किए जाते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि भी लोकसत्ता और लोकमत के मध्य लाकसंपर्क की महत्वपूर्ण कड़ी का काम करते हैं। लोकसंपर्क की महत्ता बताते हुए सन् १७८७ ईसवी में अमरीका के राष्ट्रपति टामस जेफर्सन ने लिखा था - हमारी सत्ताओं का आधार लोकमत है। अत: हमारा प्रथम उद्देश्य होना चाहिए लोकमत को ठीक रखना। अगर मुझसे पूछा जाए कि मैं समाचारपत्रों से विहीन सरकार चाहता हूँ अथवा सरकार से रहित समाचारपत्रों को पढ़ना चाहता हूँ तो मैं नि:संकोच उत्तर दूँगा कि शासनसत्ता से रहित समाचारपत्रों का प्रकाशन ही मुझे स्वीकार है। पर मैं चाहूँगा कि ये समाचारपत्र हर व्यक्ति तक पहुँचें और वे उन्हें पढ़ने में सक्षम हों। जहाँ समाचारपत्र स्वतंत्र हैं और हर व्यक्ति पढ़ने को योग्यता रखता है वहाँ सब कुछ सुरक्षित है। मैकाले ने सन् १८२८ में लिखा - संसद् की जिस दीर्घां में समाचारपत्रों के प्रतिनिधि बैठते हैं वही सत्ता का चतुर्थ वर्ग है। इसके बाद एडमंड बर्क ने लिखा - संसद् में सत्ता के तीन वर्ग हैं किंतु पत्रप्रतिनिधियों का कक्ष चतुर्थ वर्ग है जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इसी प्रकार सन् १८४० में कार्लाइल ने योग्य संपादकों की परिभाषा बताते हुए लिखा - मुद्रण का कार्य अनिवार्यत: लेखन के बाद होता है। अत: मैं कहता हूँ कि लेखन और मुद्रण लोकतंत्र के स्तंभ हैं। अब यह स्पष्ट है कि लोकसंपर्क की दृष्टि से वर्तमान युग में समाचारपत्रों, संवाद समितियों, रेडियो, टेलीविजन, फिल्म तथा इसी प्रकार से अन्य साधनों का विशेष महत्व है। यह स्थिति केवल भारत में ही नहीं है बल्कि, विदेशों में है। लोकसंपर्क की दृष्टि से वहाँ इन साधनों का खूब उपयोग किया जाता है। इंगलैंड, अमरीका, फ्रांस, सोवियत रूस, जापान, जर्मनी तथा अन्यान्य कई देशों में जनसाधारण तक पहुंचने के लिए सर्वोत्तम माध्यम का कार्य समाचारपत्र करते हैं। इन देशों में समाचारपत्रों की बिक्रीसंख्या लाखों में है। समाचार पत्र[संपादित करें] भारतवर्ष में लोकसंपर्क की दृष्टि से समाचारपत्रों का प्रथम प्रकाशन सन् १७८० से आरंभ हुआ। कहा जाता है, २९ जनवरी १७८० को भारत का पहला पत्र बंगाल गजट प्रकाशित हुआ था। इसके बाद सन् १७८४ में कलकत्ता गजट का प्रकाशन हुआ। सन् १७८५ में मद्रास से कूरियर निकला, फिर बंबई हेरल्ड, बंबई कूरियर और बंबई गजट जैसे पत्रों का अंग्रेजी में प्रकाशन हुआ। इससे बहुत पहले इंग्लैंड, जर्मनी, इटली और फ्राँस से समाचारपत्र प्रकाशित हो रहे थे। इंग्लैंड का प्रथम पत्र आक्सफोर्ड गजट सन् १६६५ में प्रकाशित हुआ था। लंडन का टाइम्स नामक पत्र सन् १७८८ में निकला था। मुद्रण यंत्र के आविष्कार से पहले चीन से किंगयाड और कियल 'तथा रोम से' 'रोमन एक्टा डायरना' नामक पत्र निकले थे। भारत में पत्रों के प्रकाशन का क्रम सन् १८१६ में प्रारंभ हुआ। 'बंगाल गजट' के बाद 'जान बुलइन', तथा दि ईस्ट का प्रकाशन हुआ। इंगलिशमैन १८३६ में प्रकाशित हुआ। १८३८ में बंबई से 'बंबई टाइम्स' और बाद में 'टाइम्स आफ इंडिया' का प्रकाशन हुआ। १८३५ से १८५७ के मध्य दिल्ली, आगरा, मेरठ, ग्वालियर और लाहौर से कई पत्र प्रकाशित हुए इस समय तक १९ ऐंग्लो इंडियन और २५ भारतीय पत्र प्रकाशित होने लगे थे किंतु जनता के मध्य उनका प्रचार बहुत ही कम था। सन् १८५७ के विद्रोह के बाद 'टाइम्स आफ इंडिया', 'पायोनियर', 'मद्रास मेल', 'अमृतबाजार पत्रिका', 'स्टेट्समैन', 'सिविल ऐंड मिलिटरी गजट' और 'हिंदू' जैसे प्रभावशाली समाचारपत्रों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। बिहार से बिहार हेरल्ड, बिहार टाइम्स और बिहार एक्सप्रेस नामक पत्र प्रकाशित हुए। भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होनेवाला प्रथम पत्र समाचारदर्पण सन् १८१८ में श्रीरामपुर से बँगला में प्रकाशित हुआ। सन् १८२२ में बंबई समाचार, गुजराती भाषा में प्रकाशित हुआ। उर्दू में 'कोहेनूर', 'अवध अखबार' और 'अखबारे आम' नामक कई पत्र निकले। हिंदी का प्रथम समाचारपत्र 'उदंत मार्तंड' था, जिसके संपादक श्री युगलकिशोर शुक्ल थे। दूसरा पत्र 'बनारस अखबार' राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद ने सन् १८४५ में प्रकाशित कराया था। इसके संपादक एक मराठी सज्जन श्री गोविंद रघुनाथ भत्ते थे। सन् १८६८ में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 'कवि वचन सुधा' नामक मासिक पत्रिका निकाली। पीछे इसे पाक्षिक और साप्ताहिक संस्करण भी निकले। १८७१ में 'अल्मोड़ा समाचार' नामक साप्ताहिक प्रकाशित हुआ। सन् १८७२ में पटना से 'बिहार बंधु' नामक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित हुआ। इसके प्रकाश्न में पंडित केशोराम भट्ट का प्रमुख हाथ था। सन् १८७४ में दिल्ली से सदादर्श और सन् १८७९ में अलीगढ़ से 'भारत बंधु' नामक पत्र निकले। ज्यों ज्यों समाचारपत्रों की संख्या बढ़ती गई त्यों त्यों उनके नियंत्रण और नियमन के लिए कानून भी बनाते गए। राष्ट्रीय जागरण के फलस्वरूप देश में दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, त्रैमासि आदि पत्रों का प्रकाशन अधिक होने लगा। समाचारपत्रों के पठनपाठन के प्रति जनता में अधिक अभिरुचि जाग्रत हुई। १५ अगस्त १९४७ का जब देश स्वतंत्र हुआ तो प्राय: सभी बड़े नगरों से समाचारपत्रों का प्रकाशन होता था। स्वतंत्र भारत के लिए जब संविधान बना तो पहली बार भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिद्धांत को मान्यता दी गई। समाचारपत्रों का स्तर उन्नत बनाने के लिए एक आयोग का गठन किया गया। == रेडियो, टेलीविजन ==aj bhale hi hum TV or internet ki aandhi me radio jese jansanchar k sashkt madhyam ko bhula chuke hain lekin is upyogita or mahatwa wahi log jante hain jo arthik roop se kamjor hain or gavn - dehat main hain चलचित्र[संपादित करें] फ़िल्म, चलचित्र अथवा सिनेमा में चित्रों को इस तरह एक के बाद एक प्रदर्शित किया जाता है जिससे गति का आभास होता है। फ़िल्में अकसर विडियो कैमरे से रिकार्ड करके बनाई जाती हैं, या फ़िर एनिमेशन विधियों या स्पैशल इफैक्ट्स का प्रयोग करके। आज ये मनोरंजन का महत्त्वपूर्ण साधन हैं लेकिन इनका प्रयोग कला-अभिव्यक्ति और शिक्षा के लिए भी होता है। भारत विश्व में सबसे अधिक फ़िल्में बनाता है। फ़िल्म उद्योग का मुख्य केन्द्र मुंबई है, जिसे अमरीका के फ़िल्मोत्पादन केन्द्र हॉलीवुड के नाम पर बॉलीवुड कहा जाता है। भारतीय फिल्मे विदेशो मे भी देखी जाती है। सिनेमा बीसवीं शताब्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय कला है जिसे प्रकाश विज्ञान, [[रसायन विज्ञान], विद्युत विज्ञान, फोटो तकनीक तथा दृष्टि क्रिया विज्ञान (खोज के अनुसार आंख की रेटिना किसी भी दृश्य की छवि को सेकेंड के दसवें हिस्से तक अंकित कर सकती है) के क्षेत्रों में हुए तरक्की ने संभव बनाया है। बीसवीं शताब्दी के संपूर्ण दौर में मनोरंजन के सबसे जरूरी साधन के रूप में स्थापित करने में बिजली का बल्ब, आर्कलैंप, फोटो सेंसिटिव केमिकल, बॉक्स-कैमरा, ग्लास प्लेट पिक्चर निगेटिवों के स्थान पर जिलेटिन फिल्मों का प्रयोग, प्रोजेक्टर, लेंस ऑप्टिक्स जैसी तमाम खोजों ने सहायता की है। सिनेमा के कई प्रतिस्पर्धी आए जिनकी चमक धुंधली हो गई। लेकिन यह अभी भी लुभाता है। फिल्मी सितारों के लिए लोगों का चुंबकीय आकर्षण बरकरार है। एक पीढ़ी के सितारे दूसरी पीढ़ी के सितारों को आगे बढ़ने का रास्ता दे रहे हैं। सिनेमा ने टी. वी., वीडियों, डीवीडी और सेटेलाइट, केबल जैसे मनोरंजन के तमाम साधन भी पैदा किए हैं। अमेरिका में रोनाल्ड रीगन, भारत में एम.जी.आर. एन.टी.आर. जंयललिता और अनेक संसद सदस्यों के रूप में सिनेमा ने राजनेता दिए हैं। कई पीढ़ियों से, युवा और वृद्ध, दोनों को समान रूप से सिनेमा सेलुलाइड की छोटी पट्टियां अपने आकर्षण में बांधे हुए हैं। दर्शकों पर सिनेमा का सचमुच जादुई प्रभाव है। सिनेमा ने परंपरागत कला रूपों के कई पक्षों और उपलब्धियों को आत्मसात कर लिया है – मसलन आधुनिक उपन्यास की तरह यह मनुष्य की भौतिक क्रियाओं को उसके अंतर्मन से जोड़ता है, पेटिंग की तरह संयोजन करता है और छाया तथा प्रकाश की अंतर्क्रियाओं को आंकता है। रंगमंच, साहित्य, चित्रकला, संगीत की सभी सौन्दर्यमूलक विशेषताओं और उनकी मौलिकता से सिनेमा आदे निकल गया है। इसका सीधा कारण यह है कि सिनेमा में साहित्य (पटकथा, गीत), चित्रकला (एनीमेटेज कार्टून, बैकड्रॉप्स), चाक्षुष कलाएं और रंगमंच का अनुभव, (अभिनेता, अभिनेत्रिया) और ध्वनिशास्त्र (संवाद, संगीत) आदि शामिल हैं। आधुनिक तकनीक की उपलब्धियों का सीधा लाभ सिनेमा लेता है। सिनेमा की अपील पूरी तरह से सार्वभौमिक है। सिनेमा निर्माण के अन्य केंद्रों की उपलब्धियों पर यद्यपि हालीवुड भारी पड़ता है, तथापि भारत में विश्व में सबसे अधिक फिल्में बनती हैं। सिनेमा आसानी से नई तकनीक आत्मसात कर लेता है। इसने अपने कलात्मक क्षेत्र का विस्तार मूक सिनेमा (मूवीज) से लेकर सवाक् सिनेमा (टाकीज]], रंगीन सिनेमा, 3डी सिनेमा, स्टीरियो साउंड, वाइड स्क्रीन और आई मेक्स तक किया है। सिनेमा के तरह-तरह के आलोचक भी है। दरअसल जब अमेरिका में पहली बार सिनेमा मे ध्वनि का प्रयोग किया गया था, उन्हीं दिनों 1928 में, चैप्लिन ने ‘सुसाइड ऑफ सिनेमा’ नामक एक लेख लिखा। उन्होंने उसमें लिखा था कि ध्वनि के प्रयोग से सुरुचिविहीन नाटकीयता के लिए द्वार खुल जाएंगे और सिनेमा की अपनी विशिष्ट प्रकृति इसमें खो जाएगी। आइंसटाइन (मोंताज) डी. डब्ल्यू. ग्रिफिथ (क्लोजअप) और नितिन बोस (पार्श्व गायन) जैसे दिग्गजों के योगदान से विश्व सिनेमा समृद्ध हुआ है। दूसरे देशों की तकनीकी प्रगति का मुकाबला भारत सिर्फ़ अपने हुनर और नए-नए प्रयोगों से कर पाया है। सिनेमा आज विश्व सभ्यता के बहुमूल्य खजाने का अनिवार्य हिस्सा है। हालीवुड से अत्यधिक प्रभावित होने के बावजूद भारतीय सिनेमा ने अपनी लंबी विकास यात्रा में अपनी पहचान, आत्मा और दर्शकों को बचाए रखा है। %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B8%E0%A5%8B%E0%A4%A5%E0%A5%87%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%AE%E0%A4%BE %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 मेसोथेलियोमा, अधिक स्पष्ट रूप से असाध्य मेसोथेलियोमा (Malignant Mesothelioma), एक दुर्लभ प्रकार का कैंसर है, जो शरीर के अनेक आंतरिक अंगों को ढंककर रखनेवाली सुरक्षात्मक परत, मेसोथेलियम, से उत्पन्न होता है। सामान्यतः यह बीमारी एस्बेस्टस के संपर्क से होती है।[1] प्लुरा (फेफड़ों और सीने के आंतरिक भाग का बाह्य-आवरण) इस बीमारी का सबसे आम स्थान है, लेकिन यह पेरिटोनियम (पेट का आवरण), हृदय,[2] पेरिकार्डियम (हृदय को घेरकर रखने वाला कवच) या ट्युनिका वेजाइनलिस (Tunica Vaginalis) में भी हो सकती है। मेसोथेलियोमा से ग्रस्त अधिकांश व्यक्ति या तो ऐसे स्थानों पर कार्यरत थे जहां श्वसन के दौरान एस्बेस्टस और कांच के कण उनके शरीर में प्रवेश कर गये या फिर वे अन्य तरीकों से एस्बेस्टस कणों और रेशों के संपर्क में आए. यह संभावना भी व्यक्त की जाती रही है कि एस्बेस्टस या कांच के साथ कार्य करने वाले किसी पारिवारिक सदस्य के कपड़े धोने के कारण भी किसी व्यक्ति में मेसोथेलियोमा विकसित होने का जोखिम उत्पन्न हो सकता है।[3] फेफड़ों के कैंसर के विपरीत, मेसोथेलियोमा और धूम्रपान के बीच कोई संबंध नहीं है, लेकिन धूम्रपान के कारण एस्बेस्टस-प्रेरित अन्य कैंसरों का जोखिम अत्यधिक बढ़ जाता है।[4] एस्बेस्टस के संपर्क में आने वाले लोग एस्बेस्टस संबंधी बीमारियों, मेसोथेलियोमा सहित, के लिये क्षतिपूर्ति हासिल करने हेतु अक्सर वकीलों की सहायता लेते रहे हैं। एस्बेस्टस फंड या कानूनी मुकदमों के माध्यम से मिलने वाला हर्जाना मेसोथेलियोमा में एक महत्वपूर्ण मुद्दा है (एस्बेस्टस और कानून देखें). मेसोथेलियोमा के लक्षणों में प्लुरल रिसाव (फेफड़ों और सीने की दीवार के बीच द्रव) या सीने में होने वाले दर्द के कारण सांस लेने में तकलीफ तथा सामान्य लक्षण, जैसे वजन में कमी आना, शामिल हैं। सीने के एक्स-रे तथा सीटी स्कैन (CT Scan) से इसके निदान का अनुमान किया जा सकता है और बायोप्सी (ऊतकों के नमूने) तथा सूक्ष्मदर्शी परीक्षण से इसकी पुष्टि हो सकती है। बायोप्सी लेने के लिये थोरैकोस्कोपी (कैमरेयुक्त एक नली को सीने में डालना) का प्रयोग किया जा सकता है। यह प्लुरल भाग (जिसे प्लुरोडेसिस कहा जाता है) को पोछने के लिये टैल्क (Talc) जैसे पदार्थों के प्रयोग की भी अनुमति देता है, जिससे और अधिक द्रव को एकत्रित होने व फेफड़ों पर दबाव डालने से रोका जा सके. कीमोथेरपी, रेडियेशन थेरपी और कभी-कभी शल्य चिकित्सा के द्वारा किये जाने वाले उपचार के बावजूद इस बीमारी का निदान बहुत कम ही हो पाता है। मेसोथेलियोमा की शीघ्र पहचान के लिये स्क्रीनिंग परीक्षणों के बारे में अनुसंधान जारी है। अनुक्रम [छुपाएँ] 1 संकेत व लक्षण 2 कारण 2.1 परिवेशी संपर्क 2.2 व्यावसायिक 2.3 पराव्यावसायिक द्वितीयक संपर्क 2.4 इमारतों में एस्बेस्टस 3 रोग-निदान 3.1 चरणबद्ध-वर्गीकरण 4 छानबीन 5 पैथोफिज़ियोलॉजी (रोग के कारण उत्पन्न हुए क्रियात्मक परिवर्तन) 6 उपचार 6.1 शल्य-चिकित्सा 6.2 विकिरण 6.3 कीमोथेरपी 6.4 प्रतिरक्षा चिकित्सा 6.5 तापीय इंट्राऑपरेटिव इंट्रापेरिटोनियल कीमोथेरपी 6.6 बहुपद्धति उपचार 7 महामारी-विज्ञान 8 समाज व संस्कृति 8.1 उल्लेखनीय मामले 8.2 मेसोथेलियोमा के साथ कुछ समय तक जीवित रहने वाले उल्लेखनीय लोग 8.3 कानूनी मुद्दे 9 इन्हें भी देखें 10 संदर्भ 10.1 स्रोत 10.2 नोट्स 11 बाहरी लिंक्स संकेत व लक्षण[संपादित करें] संभव है कि मेसोथेलियोमा के संकेत या लक्षण एस्बेस्टस के संपर्क में आने के बाद भी 20 से 50 वर्षों तक दिखाई न दें. प्लुरल स्पेस में द्रव के एकत्रित होने (प्लुरल रिसाव) के कारण सांस लेने में समस्या होना, खांसी और सीने में दर्द अक्सर प्लुरल मेसोथेलियोमा के लक्षण होते हैं। पेरिटोनियल मेसोथेलियोमा के लक्षणों में वजन घटना और कैशेक्सिया (Cachexia), जलोदर (पेट में बनने वाला एक द्रव) के कारण पेट में सूजन और दर्द शामिल हैं। पेरिटोनियल मेसोथेलियोमा के अन्य लक्षणों में आंतों में रूकावट, खून जमने में समस्या, रक्ताल्पता और बुखार शामिल हो सकते हैं। यदि कैंसर मेसोथेलियम से बाहर शरीर के अन्य भागों तक फैल गया हो, तो इसके लक्षणों में दर्द, निगलने में तकलीफ और गरदन या चेहरे पर सूजन आदि शामिल हो सकते हैं। ये लक्षण मेसोथेलियोमा या अन्य, कम गंभीर स्थितियों के कारण उत्पन्न हुए हो सकते हैं। प्लुरा को प्रभावित करने वाला मेसोथेलियोमा ये संकेत और लक्षण उत्पन्न कर सकता है: सीने में दर्द फेफड़ों से रिसाव, या फेफड़ों के चारों ओर द्रव जमना सांस लेने में तकलीफ थकान या रक्ताल्पता घरघराहट, स्वर बैठना, या खांसी खांसी के कारण निकलने वाले बलगम (द्रव) में रक्त आना (हीमोप्टाइसिस) गंभीर मामलों में, व्यक्ति के शरीर में ट्युमर भी बन सकता है। व्यक्ति में न्यूमोथोरैक्स, या फेफड़े द्वारा कार्य बंद कर देने, की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है। रोग बढ़ सकता है और शरीर के अन्य भागों तक फैल सकता है। पेट को प्रभावित करने वाले ट्युमर सामान्यतः तब तक कोई लक्षण उत्पन्न नहीं करते, जब तक कि वे बहुत बाद वाले चरण तक न पहुंच जाएं. लक्षणों में शामिल हैं: पेट दर्द जलोदर या पेट में द्रव का असामान्य जमाव पेट में कोई ढेर जमना आंत के कार्यों में समस्या वज़न घटाना रोग के गंभीर मामलों में, निम्नलिखित संकेत व लक्षण मौजूद हो सकते हैं: नसों में रक्त के थक्के जमना, जिनके कारण थ्रोम्बोफ्लेबाइटिस हो सकता है डिसेमिनेटेड इन्ट्रावैस्क्युलर कोएग्युलेशन, एक समस्या जिसके कारण शरीर के अनेक अंगों में भीषण रक्त-स्राव होता है पीलिया, अथवा आंखों और त्वचा में पीलापन रक्त शर्करा के स्तर में कमी फेफड़ों में रिसाव पल्मनरी एम्बोली, या फेफड़ों की धमनियों में रक्त के थक्के बनना गंभीर जलोदर सामान्यतः मेसोथेलियोमा अस्थियों, मस्तिष्क या अधिवृक्क ग्रंथि तक नहीं फैलता. फेफड़ों के ट्युमर सामान्यतः केवल फेफड़ों के एक ओर ही पाये जाते हैं। कारण[संपादित करें] एस्बेस्टस के साथ कार्य करना मेसोथेलियोमा के लिये प्रमुख जोखिम कारक है।[5] संयुक्त राज्य अमरीका में, एस्बेस्टस असाध्य मेसोथेलियोमा का प्रमुख कारण है और इसे "निर्विवाद"[6] रूप से मेसोथेलियोमा के विकास से जुड़ा हुआ माना जाता है। वस्तुतः एस्बेस्टस और मेसोथेलियोमा के बीच संबंध इतना अधिक गहरा है कि कई लोग मेसोथेलियोमा को एक "संकेत (singal)" या "पहरेदार (sentinel)" ट्युमर ही मानते हैं।[7][8][9][10] अधिकांश मामलों में, एस्बेस्टस से संपर्क का इतिहास पाया जाता है। हालांकि, कुछ लोगों में एस्बेस्टस से किसी ज्ञात संपर्क के बिना भी मेसोथेलियोमा होने की जानकारी मिली है। दुर्लभ मामलों में, मेसोथेलियोमा को विकिरण चिकित्सा, इन्ट्राप्लुरल थोरियम डाइऑक्साइड (थोरोट्रास्ट) और अन्य रेशेदार सिलिकेट, जैसे एरियोनाइट, के अंतःश्वसन से जोड़कर भी देखा जाता रहा है। कुछ अध्ययन दर्शाते हैं कि सिमियन वाइरस एसवी40 (SV40) मेसोथेलियोमा के विकास में एक सहायक कारक के रूप में कार्य कर रहा हो सकता है।[11] एस्बेस्टस प्राचीन काल में भी ज्ञात था, लेकिन उन्नीसवीं सदी के पूर्व तक इसे खानों से नहीं निकाला जाता था और व्यावसायिक रूप से इसका बड़े पैमाने पर उपयोग नहीं किया जाता था। द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान इसका प्रयोग बहुत अधिक बढ़ गया। सन 1940 के दशक के प्रारंभ से ही लाखों अमरीकी मजदूर एस्बेस्टस कणों के संपर्क में आ चुके थे। प्रारंभ में, एस्बेस्टस के संपर्क में आने के जोखिमों की जानकारी सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं थी। हालांकि, बाद में यह पाया गया कि जलपोत कारखानों, एस्बेस्टस की खानों और मिलों में काम करने वाले लोगों, एस्बेस्टस उत्पादों के उत्पादकों, ताप और निर्माण उद्योगों के मजदूरों और अन्य व्यवसाय करने वालों में मेसोथेलियोमा विकसित होने का जोखिम बहुत अधिक होता है। आज संयुक्त राज्य अमरीका के ऑक्युपेशनल सेफ्टी एन्ड हेल्थ एडमिनिस्ट्रेशन (ओशा [OSHA]) तथा संयुक्त राज्य अमरीका के ईपीए (EPA) का आधिकारिक दृष्टिकोण यह है कि अमरीकी कानूनों के द्वारा आवश्यक बताये गये सुरक्षा मापदंड और "अनुमतियोग्य संपर्क सीमाएं", हालांकि एस्बेस्टस-संबंधी अधिकांश गैर-असाध्य रोगों को रोक पाने के लिये पर्याप्त हैं, लेकिन फिर भी वे एस्बेस्टस संबंधी कैंसरों, जैसे मेसोथेलियोमा, को रोक पाने या उसके प्रति सुरक्षा प्रदान कर पाने के लिये पर्याप्त नहीं हैं।[12] इसी प्रकार, ब्रिटिश सरकार के हेल्थ एन्ड सेफ्टी एक्ज़ीक्यूटव (एचएसई [HSE]) ने औपचारिक रूप से कहा है कि मेसोथेलियोमा के लिये कोई भी सीमा बहुत निचले स्तर पर होनी चाहिये और यह बात व्यापक तौर पर स्वीकार की जाती है कि यदि ऐसी कोई सीमा मौजूद भी हो, तब भी वर्तमान में उसे परिमाणित नहीं किया जा सकता. अतः व्यावहारिक उद्देश्यों के लिये, एचएसई (HSE) यह मानती है कि कोई "सुरक्षित" सीमा अस्तित्व में नहीं है। अन्य लोगों ने भी यह पाया है कि ऐसी किसी सीमा की उपस्थिति का कोई प्रमाण मौजूद नहीं है, जिसके नीचे मेसोथेलियोमा का जोखिम न हो.[13] ऐसा प्रतीत होता है कि दवा की खुराक और इसकी प्रतिक्रिया के बीच एक रेखीय संबंध है, जिसके अनुसार दवा की खुराक बढ़ाने पर बीमारी भी बढ़ती जाती है।[14] इसके बावजूद, मेसोथेलियोमा को एस्बेस्टेस के संक्षिप्त, निम्न-स्तरीय या अप्रत्यक्ष संपर्क से जोड़ा जा सकता है।[6] ऐसा प्रतीत होता है कि प्रभाव के लिये आवश्यक खुराक की मात्रा पल्मनरी एस्बेस्टॉसिस या फेफड़ों के कैंसर की तुलना में एस्बेस्टस-प्रेरित मेसोथेलियोमा के लिये कम होती है।[6] पुनः एस्बेस्टस से संपर्क के लिये कोई सुरक्षित स्तर नहीं है क्योंकि यह मेसोथेलियोमा के बढ़े हुए जोखिम के साथ संबंधित है। मेसोथेलियोमा उत्पन्न करने के लिये एस्बेस्टस से संपर्क की अवधि संक्षिप्त हो सकती है। उदाहरणार्थ, केवल 1-3 माह के संपर्क में भी मेसोथेलियोमा उत्पन्न होने के मामले लेखबद्ध किये गये हैं।[15][16] एस्बेस्टस के साथ काम करने वाले लोग इसके संपर्क से जुड़े जोखिम को कर करने के लिये व्यक्तिगत सुरक्षात्मक उपकरण पहनते हैं। विलंबता की अवधि, पहले संपर्क से लेकर रोग के आविर्भाव तक का समय, मेसोथेलियोमा के मामले में लंबी होती है। लगभग कभी भी यह पंद्रह वर्षों से कम नहीं होती, जबकि इसका अधिकतम स्तर 30-40 वर्ष है।[6] व्यवसाय से संबंधित मेसोथेलियोमा के मामलों की एक समीक्षा में, विलंबिता अवधि का मध्यमान 32 वर्ष था।[17] पेटो व अन्य (Peto et al) से प्राप्त डेटा के आधार पर, मेसोथेलियोमा का जोखिम पहले संपर्क से तीसरी या चौथी घात तक बढ़ता हुआ दिखाई देता है।[14] परिवेशी संपर्क[संपादित करें] यह पाया गया है कि जिन स्थानों पर एस्बेस्टस प्राकृतिक रूप से पाया जाता है, उनके आस-पास रहने वाले लोगों में मेसोथेलियोमा के मामले अधिक देखे जाते हैं। उदाहरणार्थ, केंद्रीय कैप्पाडोशिया, तुर्की में, तीन छोटे गांवों-तुज़कॉय (Tuzköy), कराइन (Karain) और सारिहिदिर (Sarıhıdır) में होने वाली सभी मौतों में से 50% का कारण मेसोथेलियोमा था। प्रांरभ में, एरियोनाइट, एस्बेस्टस जैसे लक्षणों वाला एक जलसैकतिज खनिज, को इसका कारण माना गया था, हालांकि हाल ही में महामारीसंबंधी विस्तृत परीक्षण में यह पाया गया कि एरियोनाइट अधिकांशतः उन परिवारों में मेसोथेलियोमा का कारण बनता है, जिनमें इसकी आनुवांशिक प्रवृति हो.[18][19] जल की आपूर्ति और खाद्य-पदार्थों में एस्बेस्टस रेशों की उपस्थिति के दस्तावेजों ने लंबी अवधि में, तथा अभी तक इन रेशों के संपर्क के बारे में अज्ञात सामान्य जनसंख्या पर इसके संभावित प्रभावों को लेकर चिंताएं बढ़ा दी हैं। व्यावसायिक[संपादित करें] एस्बेस्टस के रेशों से संपर्क को बीसवीं सदी के प्रारंभ से ही एक व्यावसायिक स्वास्थ्य जोखिम के रूप में पहचाना जा चुका है। महामारी-संबंधी अनेक अध्ययनों ने एस्बेस्टस के व्यावसायिक संपर्क को फेफड़ों के आवरण पर जमने वाले प्लाक, फेफड़ों के स्थूलन के बहाव, एस्बेस्टॉसिस, फेफड़ों और कंठनली के कैंसर, जठरांत्रीय ट्युमर और फेफड़ों के आवरण तथा उदरावरण के असाध्य मेसोथेलियोमा से जोड़ा है। एस्बेस्टस का प्रयोग अनेक औद्योगिक उत्पादों में बड़े पैमाने पर किया जाता रहा है, जिनमें सीमेंट ब्रेक लाइनिंग, गैस्केट, छतों के तख्ते, फर्श से जुड़े उत्पाद, टेक्सटाइल और इन्सुलेशन शामिल हैं। एस्बेस्टस का वाणिज्यिक उत्खनन सन 1945 और 1966 के बीच विटेनूम, वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया में हुआ। खदान में कार्यरत खनन-कर्मियों के एक सामूहिक अध्ययन के अनुसार हालांकि क्रोसिडोलाइट के संपर्क में आने के बाद, पहले 10 वर्षों में किसी की मृत्यु नहीं हुई थी, लेकिन सन 1985 में ऐसी 80 मौतें हुईं, जिन्हें मेसोथेलियोमा से जोड़कर देखा जा सकता था। सन 1994 तक, वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया में 539 लोगों की मृत्यु मेसोथेलियोमा से होने की बात कही गई। पराव्यावसायिक द्वितीयक संपर्क[संपादित करें] एस्बेस्टस मजदूरों के परिवारजनों व उनके साथ रहने वाले अन्य लोगों में मेसोथेलियोमा का और संभवतः एस्बेस्टस संबंधी अन्य बीमारियों का भी, जोखिम बढ़ जाता है।[20][21] यह जोखिम एस्बेस्टस मजदूरों के कपड़ों और बालों पर लगकर उनके साथ घर आने वाली एस्बेस्टस धूल का परिणाम हो सकता है। परिवारजनों की एस्बेस्टस के रेशों के संपर्क में आने की संभावना को कम करने के लिये, अक्सर एस्बेस्टस श्रमिकों के लिये अपना कार्यस्थल छोड़ने से पूर्व नहाना और कपड़े बदलना आवश्यक होता है। इमारतों में एस्बेस्टस[संपादित करें] एस्बेस्टस पर प्रतिबंध लगाये जाने के पूर्व सार्वजनिक और निजी दोनों ही परिसरों में प्रयुक्त अनेक इमारती सामग्रियों में एस्बेस्टस हो सकता है। मरम्मत का कार्य या डीआईवाय (DIY) गतिविधियां कर रहे लोग एस्बेस्टस के संपर्क में आ सकते हैं। यूके (UK) में, सन 1999 के अंत में क्राइसोटाइल एस्बेस्टस का प्रयोग प्रतिबंधित कर दिया गया था। सन 1985 के आसपास यूके (UK) में भूरे और नीले एस्बेस्टस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इन तिथियों से पहले निर्मित या नवीनीकृत इमारतों में एस्बेस्टस सामग्रियां हो सकती हैं। रोग-निदान[संपादित करें] सीएक्सआर (CXR) मेसोथेलिओमा का प्रदर्शन करते हुए मेसोथेलिओमा के साथ एक रोगी का सीटी स्कैन, कोरोनल खंड (वह खंड जो सामने और आधा विभाजित के एक सामने शरीर के प्रकार है).मेसोथेलिओमा पीले तीर से केंद्रित है, केंद्रीय फुफ्फुस बहाव (द्रव संग्रह) एक पीले रंग की स्टार से चिह्नित है। लाल संख्या: (1) दाहिना फेफड़ा, (2) रीढ़ की हड्डी, (3) बाएं फेफड़े, (4) पसलियां, (5) महाधमनी के हिस्से के उतरते तिल्ली, (6) तिल्ली, (7) बाएं गुर्दे, (8) दाहिना गुर्दा, (9) जिगर. मेसोथेलिओमा का प्रदर्शन करते हुए फुसफुस द्रव साइटोपैथोलॉजी नमूना के सूक्ष्मग्राफ. कोर बायोप्सी में मेसोथेलिओमा दिखाते हुए सूक्ष्मग्राफ. मेसोथेलियोमा का निदान कर पाना अक्सर कठिन होता है क्योंकि इसके लक्षण अनेक अन्य बीमारियों के लक्षणों जैसे ही होते हैं। निदान की शुरुआत रोगी के चिकित्सीय इतिहास की समीक्षा के साथ होती है। एस्बेस्टस के संपर्क में आने का इतिहास मेसोथेलियोमा के लिये चिकित्सीय आशंका को बढ़ा सकता है। एक शारीरिक परीक्षण किया जाता है, जिसके बाद सीने का एक्स-रे और अक्सर फेफड़ों की कार्यक्षमता की जांच भी की जाती है। एक्स-रे फेफड़ों के आवरण की मोटाई बढ़ने की जानकारी दे सकता है, जो कि आमतौर पर एस्बेस्टस से संपर्क के बाद देखी जाती है और मेसोथेलियोमा की आशंका को बढ़ा देती है। सामान्यतः एक सीटी (CT) (या कैट [CAT]) स्कैन अथवा एक एमआरआई (MRI) परीक्षण किया जाता है। यदि द्रव की बहुत बड़ी मात्रा मौजूद हो, तो इस द्रव को एक सीरिंज की सहायता से खींचने पर साइटोपैथोलॉजी के द्वारा असामान्य कोशिकाओं की पहचान भी की जा सकती है। प्लुरल द्रव के लिये, यह कार्य थोरेकोस्टॉमी (सीने में नली डालकर); जलोदर के लिये पैरासेन्टेसिस या जलोदर निकास नली; तथा पेरिकार्डियल[disambiguation needed] बहाव के लिये पेरिकार्डियोसेंटेसिस के द्वारा किया जाता है। हालांकि कोशिकाविज्ञान में प्राणघातक कोशिकाओं की अनुपस्थिति मेसोथेलियोमा को पूरी तरह बाहर नहीं करती, लेकिन यह इसे बहुत अधिक असंभावित बना देती है, विशेषतः यदि कोई वैकल्पिक निदान किया जाता है (उदा.तपेदिक, हृदय-गति का रूकना). दुर्भाग्य से, असाध्य मेसोथेलियोमा का यह निदान केवल साइटोलॉजी के द्वारा कर पाना कठिन होता है, यहां तक कि विशेषज्ञ पैथोलॉजिस्ट के द्वारा भी. सामान्यतः असाध्य मेसोथेलियोमा के निदान की पुष्टि करने के लिये एक बायोप्सी आवश्यक होती है। चिकित्सक ऊतक का एक नमूना लेते हैं जिसका पैथोलॉजिस्ट द्वारा सूक्ष्मदर्शी की सहायता से परीक्षण किया जाता है। एक बायोप्सी विभिन्न प्रकार से की जा सकती है, जो इस बात पर निर्भर करता है कि असामान्य क्षेत्र शरीर में कहां स्थित है। यदि कैंसर सीने में हो, तो चिकित्सक थोरैकोस्कोपी कर सकता है। इस विधि में, चिकित्सक सीने की दीवार में एक छोटा-सा चीरा लगाता है और दो पसलियों के बीच सीने में एक पतली, प्रकाशित नली डालता है, जिसे थोरैकोस्कोप कहते हैं। थोरैकोस्कोपी के द्वारा चिकित्सक सीने के भीतर देखता है और ऊतकों के नमूने प्राप्त करता है। वैकल्पिक रूप से, सीने का शल्य-चिकित्सक (Chest Surgeon) सीधे ही सीने को खोल सकता है (थोरैकोटॉमी). यदि कैंसर पेट में हो, तो चिकित्सक लैपेरोस्कोपी कर सकता है। परीक्षण के लिये ऊतक प्राप्त करने के लिये, चिकित्सक पेट में एक छोटा चीरा लगाकर उदर-भाग में एक विशेष उपकरण डालता है। यदि ये विधियां पर्याप्त ऊतक प्रदान न कर सकें, तो अधिक व्यापक निदानात्मक शल्य-चिकित्सा की आवश्यकता हो सकती है। इम्युनोहिस्टोकैमिकल अध्ययन असाध्य मेसोथेलियोमा को नियोप्लास्टिक मिमिक्स से अलग पहचान पाने में पैथोलॉजिस्ट की सहायता करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अनेक परीक्षण और पैनल उपलब्ध हैं। कोई भी एक परीक्षण मेसोथेलियोमा को कार्सिनोमा से अलग कर पाने या यहां तक कि सुसाध्य बनाम असाध्य की पहचान कर पाने के लिये सटीक नहीं है। इम्युनोहिस्टोकैमिस्ट्री के विशिष्ट परिणाम सकारात्मक नकारात्मक झिल्ली के वितरण में ईएमए (एपिथेलियम मेम्ब्रेन एन्टीजेन) सीईए (कार्सिनोएम्ब्रियोनिक एन्टीजेन) डब्ल्यूटी१ (WT1) (विल्म्स का ट्युमर) बी72.3 (B72.3) कैलरेटिनाइन एमओसी-3 1 (MOC-3 1) मेसोथेलिन-1 सीडी15 (CD15) साइटोकेराटिन 5/6 बीईआर-ईपी4 (Ber-EP4) एचबीएमई-1 (ह्युमन मेसोथेलियल सेल 1) टीटीएफ-1 (TTF-1) (थायरॉइड ट्रान्सक्रिप्शन फैक्टर-1) ऊतक-विज्ञान की दृष्टि से असाध्य मेसोथेलियोमा के तीन प्रकार होते हैं: (1) एपिथेलियॉइड; (2) सार्कोमेटॉइड; और (3) बायफेसिक (मिश्रित). एपिथेलॉइड असाध्य मेसोथेलियोमा के लगभग 50-60% मामलों से मिलकर बना होता है और सामान्यतः इसका पूर्वानुमान सार्कोमेटॉइड और बायफेसिक उप-प्रकारों की तुलना में बेहतर होता है।[22] चरणबद्ध-वर्गीकरण[संपादित करें] मेसोथेलियोमा का चरणबद्ध-वर्गीकरण इंटरनैशनल मेसोथेलियोमा इन्ट्रेस्ट ग्रुप द्वारा की गई अनुशंसाओं पर आधारित है।[23] प्राथमिक ट्युमर का टीएनएम (TNM) वर्गीकरण, लसीका ग्रंथि की सहभागिता और दूरस्थ मेटास्टेसिस किया जाता है। टीएनएम (TNM) अवस्था के आधार पर मेसोथेलियोमा को चरण Ia–IV (एक से चार-ए[A]) में रखा जाता है।[23][24] छानबीन[संपादित करें] एस्बेस्टस के संपर्क में आए लोगों की छानबीन के लिये एक वैश्विक प्रोटोकॉल पर सहमति बनी हुई है। छानबीन के लिये किये जाने परीक्षण पारंपरिक विधियों की तुलना में मेसोथेलियोमा का शीघ्र निदान कर सकते हैं और इस प्रकार मरीजों के बच पाने की संभावना को बढ़ाते हैं। सीरम ऑस्टियोपॉन्टिन का स्तर एस्बेस्टस के संपर्क में आने वाले लोगों में मेसोथेलियोमा की छानबीन करने के लिये उपयोगी हो सकता है। निदान में पाया गया है कि लगभग 75% मरीजों के सीरम में घुलनशील मेसोथेलाइन-संबंधी प्रोटीन का स्तर बढ़ जाता है और सुझाव दिया गया है कि यह छानबीन के लिये उपयोगी हो सकता है।[25] चिकित्सकों ने मेसोमार्क की परख की जांच करना शुरु कर दिया है, जिसके द्वारा रोगी मेसोथेलियोमा कोशिकाओं द्वारा उत्सर्जित घुलनशील मेसोथेलिन-संबंधी प्रोटीन (एसएमआरपी [SMRPs]) के स्तरों को मापा जाता है।[26] पैथोफिज़ियोलॉजी (रोग के कारण उत्पन्न हुए क्रियात्मक परिवर्तन)[संपादित करें] पेरीकार्डियम के व्यापक भागीदारी के साथ विस्तृत फुफ्फुस मेसोथेलिओमा. मेसोथेलियम आयतफलक की तरह चपटी की गई कोशिकाओं की एक परत से मिलकर बना होता है, जो शरीर की सीरस गुहिकाओं (serous cavities), जिनमें पेरिटोनियल, पेरिकार्डियल तथा प्लुरल गुहिकाएं शामिल हैं, की उपकला की रेखा का निर्माण करती हैं। फेफड़े के जीवितक (Parenchyma) में एस्बेस्टस के रेशों के एकत्र होने के परिणामस्वरूप आन्त्र फुफ्फुसावरण (visceral pleura) के भेदन में होता है, जहां से रेशों को इसके बाद फेफड़े की सतह तक पहुंच जाते हैं, जिसके कारण असाध्य मेसोथेलियल प्लाक विकसित हो जाता है। पेरोटोनियल मेसोथेलियोमा का कारण बनने वाली प्रक्रियाओं के बारे में अभी तक जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है, हालांकि यह प्रस्तावित किया गया है कि फेफड़ों में एकत्रित हो जाने वाले एस्बेस्टस रेशे लसीका तंत्र के माध्यम से उदर व अन्य संबंधित अंगों में पहुंच जाते हैं। इसके अतिरिक्त, एस्बेस्टस रेशों से दूषित बलगम को निगलने के बाद एस्बेस्टस रेशे आंत में एकत्रित हो सकते हैं। यह देखा गया है कि एस्बेस्टस या अन्य खनिज रेशों से जुड़ा प्लुरल प्रदूषण कैंसर का कारण बनता है। एस्बेस्टस के लंबे पतले रेशे (नीला एस्बेस्टस, एम्फिबोल रेशे) "पंखदार रेशों" (क्राइसोलाइट या सफेद एस्बेस्टस रेशे) की तुलना में अधिक कैंसर के अधिक प्रभावी कारक होते हैं।[6] हालांकि, अब इस बात के प्रमाण भी उपलब्ध हैं कि छोटे कण लंबे रेशों के बजाय अधिक घातक हो सकते हैं। वे हवा में निलंबित बने रहते हैं, जहां से वे सांस के साथ शरीर में प्रवेश कर सकते हैं और वे फेफड़ों में अधिक सरलता से तथा गहराई तक भेदन कर सकते हैं। नॉर्थ शोर-लॉन्ग आइलैण्ड ज्युइश हेल्थ सिस्टम में फेफड़ों संबंधी व गहन-चिकित्सा विभाग के प्रमुख, डॉ॰ एलन फीन ने कहा था कि "दुर्भाग्य से [वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले से] हम संभवतः एस्बेस्टस के स्वास्थ्य संबंधी पहलुओं के बारे में बहुत अधिक जानकारी प्राप्त कर सकेंगे." डॉ॰ फीन "वर्ल्ड ट्रेड सेंटर सिन्ड्रोम" से या ढहा दी गई इस इमारत के पास केवल एक या दो दिनों के संक्षिप्त संपर्क के कारण उत्पन्न श्वसन-संबंधी समस्याओं से पीड़ित अनेक मरीजों का उपचार किया था।[27] यह दर्शाया जा चुका है कि फॉस्फोरिलेटेड क्राइसोलाइट रेशों के अंतः विषमांगी संचारण के बाद चूहों में मेसोथेलियोमा विकसित हो जाता है। यह सुझाव दिया गया है कि मनुष्यों में, रेशों का प्लुरा तक संचरण मेसोथेलियोमा की रोगजनकता के लिये गंभीर होता है। चूहों की प्लुरल व पेरिटोनियल गुहिकाओं में एकत्रित एस्बेस्टस रेशों के सीमित घावों तक मैक्रोफेजों व प्रतिरक्षा तंत्र की नय कोशिकाओं की लक्षणीय संख्या के देखा गया प्रयोग इसका समर्थन करता है। रोग के बढ़ते जाने पर इन घावों ने मैक्रोफेजों को आकर्षित व एकत्रित करना जारी रखा और घावों के भीतर होने वाले कोशिकीय परिवर्तनों की पराकाष्ठा आकृति-विज्ञान के संदर्भ में एक असाध्य ऐसे ट्युमर के रूप में हुई. प्रयोगात्मक प्रमाण दर्शाते हैं कि प्रारंभ और विस्तार के क्रमिक चरणों में मेसोथेलियोमा के विकास के साथ एस्बेस्टस एक पूर्ण कैंसरकारक के रूप में कार्य करता है। एस्बेस्टस रेशों द्वारा सामान्य मेसोथेलियल कोशिकाओं के असाध्य रूपांतरण के पीछे स्थित आण्विक कार्यविधि इसकी ऑन्कोजीनिक (Oncogenic) क्षमताओं के प्रदर्शन के बावजूद अस्पष्ट बनी हुई है (अगले अनुच्छेद के बाद वाला अनुच्छेद देखें). हालांकि, एस्बेस्टस रेशों के संपर्क में आने के बाद सामान्य मानवीय मेसोथेलियल कोशिकाओं से असाध्य फेनोटाइप में रूपांतरण का प्रयास प्रयोगशाला में सफल नहीं हो सका है। सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि एस्बेस्टस रेशे मेसोथेलियम की कोशिकाओं के साथ प्रत्यक्ष शारीरिक संपर्क तथा मैक्रोफेजों जैसी ज्वलनशील कोशिकाओं के साथ अंतःक्रिया के बाद होने वाले अप्रत्यक्ष प्रभावों के माध्यम से कार्य करते हैं। एस्बेस्टस रेशों व डीएनए (DNA) के बीच अंतःक्रिया के विश्लेषण ने यह दर्शाया है कि फैगोसाइटोसयुक्त रेशे गुणसूत्रों से संपर्क कर पाने में सक्षम होते हैं और अक्सर वे या तो क्रोमेटिन रेशों के साथ जुड़ जाते हैं अथवा गुणसूत्र के भीतर फंस जाते हैं। एस्बेस्टस के रेशे और गुणसूत्रों या तंतु उपकरण के संरचनात्मक प्रोटीनों में जटिल असामान्यताएं शामिल हो सकती हैं। गुणसूत्र 22 के युग्म में से एक गुणसूत्र का नष्ट हो जाना (Monosomy) सबसे आम असामान्यता है। अक्सर देखी जानी वाली असामान्यताओं में 1p, 3p, 9p और 6q गुणसूत्र अंगों का संरचनात्मक पुनर्व्यवस्थापन शामिल है। मेसोथेलियोमा कोशिका पंक्ति में आम जीन असामान्यताओं में ट्युमर को रोकने वाले जीनों को मिटा दिया जाना शामिल है: 22q12 पर न्यूरोफाइब्रोमैटॉसिस टाइप 2 पी16 (P16)INK4A पी14 (P14)ARF यह भी देखा गया है कि एस्बेस्टस लक्ष्य कोशिकाओं में बाहरी डीएनए (DNA) के प्रवेश में मध्यस्थ की भूमिका निभाता है। इस बाहरी डीएनए (DNA) के प्रवेश के परिणामस्वरूप विभिन्न संभावित क्रियाविधियों के कारण उत्परिवर्तन और ऑन्कोजेनेसिस उत्पन्न हो सकते हैं: ट्युमर को रोकने वाले जीनों की निष्क्रियता ऑन्कोजीनों का सक्रिय हो जाना उत्प्रेरक क्षेत्र वाले किसी बाहरी डीएनए (DNA) के प्रवेश के कारण प्रोटो-ऑन्कोजीनों का सक्रिय हो जाना डीएनए (DNA) की मरम्मत करने वाले किण्वकों का सक्रिय हो जाना, जो त्रुटि-प्रवण हो सकते हैं टेलोमरेज़ का सक्रिय हो जाना एपोप्टॉसिस (apoptosis) की रोकथाम यह देखा गया है कि एस्बेस्टस रेशे मैक्रोफेजों के कार्यों और स्रावण विशेषताओं को परिवर्तित कर देते हैं, जिससे अंततः मेसोथेलियोमा के विकास का समर्थन करने वाली स्थितियां निर्मित हो जाती हैं। एस्बेस्टस फैगोसाइटॉसिस के बाद, मैक्रोफेज हाइड्रॉक्सिल अणुसमूहों (Radicals), जो कोशिकीय अवायवीय चयापचय का एक सामान्य उपोत्पाद हैं, का अधिक मात्रा में उत्सर्जन करते हैं। हालांकि, इन मुक्त अणुसमूहों को क्लास्टोजेनिक के रूप में जाना जाता है और ऐसी धारणा है कि मेम्ब्रेन-सक्रिय एजेंट एस्बेस्टस की कैंसरकारकता को बढ़ाते हैं। ये ऑक्सीडेन्ट डीएनए (DNA) के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अंतःक्रिया करके, मेम्ब्रेन-संबंधी कोशिकीय घटनाओं को परिवर्तित करके, ऑन्कोजीन के सक्रियण और कोशिकीय एन्टीऑक्सीडेन्ट प्रतिरक्षाओं के विचलन को शामिल करके ऑन्कोजेनिक प्रक्रिया में सहभागी हो सकते हैं। एस्बेस्टस में प्रतिरक्षा को दबाने वाली विशेषताएं भी हो सकती हैं। उदाहरण के लिये, यह प्रदर्शित किया जा चुका है क्राइसोलाइट रेशे प्रयोगशाला के नियंत्रित वातावरण में फाइटोहेमैग्लुटिनिन-प्रेरित परिधीय रक्त लिम्फोसाइट के विकास को हतोत्साहित करते हैं, प्राकृतिक मारक कोशिका लाइसिस का दमन करते हैं और लिम्फोकाइन-प्रेरित मारक कोशिका की व्यावहारिकता व पुनर्प्राप्ति को लक्षणीय रूप से घटा देते हैं। इसके अलावा, एस्बेस्टस-प्रेरित मैक्रोफेजों में आनुवांशिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप प्रजननक्षम मेसोथेलियल कोशिका माइटोजेन, जैसे प्लैटलेट-व्युत्पन्न विकास कारक (पीडीजीएफ [PDGF]) की मुक्ति और रूपांतरण विकास कारक-β (टीजीएफ [TGF]) के रूप में मिलता है, जिसमें, आगे एस्बेस्टस रेशों द्वारा क्षति के बद मेसोथेलियल कोशिकाओं का दीर्घकालिक उत्तेजन व प्रसरण शामिल हो सकता है। उपचार[संपादित करें] असाध्य मेसोथेलियोमा के लिये रोगनिदान अभी भी निराशाजनक बना हुआ है, हालांकि कीमोथेरपी के नए प्रकारों और बहुपद्धतिपरक उपचारों के कारण कुछ हद तक सुधार दिखाई दे रहा है।[28] प्रारंभिक चरणों में असाध्य मेसोथेलियोमा के उपचार से रोगनिदान बेहतर होता है, लेकिन पूरी तरह ठीक हो जाने के मामले बहुत अधिक दुर्लभ हैं। असाध्यता के नैदानिक व्यवहार पर अनेक कारकों का प्रभाव पड़ता है, जिनमें प्लुरल गुहिका की सतत मेसोथेलियल सतह, जो अपपर्णित कोशिकाओं के माध्यम से स्थानीय मेटास्टैसिस का समर्थन करती है, अंतःस्थ ऊतक व प्लुरल गुहिका के भीतर स्थित अन्य अंगों तक आक्रमण, तथा एस्बेस्टस से संपर्क और रोग के विकास के बीच अत्यधिक लंबा विलंबिता काल शामिल हैं। हिस्टोलॉजिकल उपप्रकार तथा मरीज की आयु व स्वास्थ्य की अवस्था भी रोगनिदान के पूर्वानुमान में सहायता करते हैं। शल्य-चिकित्सा[संपादित करें] शल्य-चिकित्सा, स्वयं में, निराशाजनक साबित हुई है। एक बड़ी श्रृंखला में, शल्य-चिकित्सा (एक्स्ट्राप्लुरल न्यूमोनेक्टॉमी सहित) के द्वारा उत्तरजीविता का मध्यमान केवल 11.7 माह था।[28] हालांकि, विकिरण व कीमोथेरपी के साथ संयोजित किये जाने पर अनुसंधान परिवर्तित सफलता की ओर संकेत करते हैं (ड्युक, 2008). (शल्य-चिकित्सा के साथ बहुपद्धति उपचार के बारे में अधिक जानकारी के लिये नीचे देखें). एक प्लुरेक्टॉमी/डिकॉर्टीसेशन सबसे आम शल्य-चिकित्सा है, जिसमें सीने की आवरण-रेखा हटा दी जाती है। एक्स्ट्राप्लुरल न्यूमोनेक्टॉमी (ईपीपी [EPP]) कुछ कम प्रचलित है, जिसमें फेफड़े, सीने की भीतरी आवरण रेखा, अर्ध-मध्यपट तथा हृदयावरण को हटा दिया जाता है। विकिरण[संपादित करें] परिसीमित रोग वाले मरीजों के लिये और जो मरीज एक पूर्ण शल्य-चिकित्सा को सह सकते हों उनके लिये, अक्सर शल्य-चिकित्सा के बाद एक संयुक्त उपचार के रूप में विकिरण का प्रयोग किया जाता है। सीने के समस्त अर्ध-भाग का विकिरण पद्धति द्वारा उपचार किया जाता है, जो अक्सर कीमोथेरपी के साथ दी जाती है। शल्य-चिकित्सा के बाद केमोथेरेपी के साथ विकिरण का प्रयोग करने की इस पद्धति की शुरुआत बॉस्टन स्थित ब्राइगम एन्ड वीमेन'स हॉस्पिटल (Brigham & Women's Hospital) की थोरैसिक ऑन्कोलॉजी टीम द्वारा की गई थी।[29] एक पूर्ण शल्य-चिकित्सा के बाद विकिरण और कीमोथेरपी का प्रयोग करने के परिणामस्वरूप मरीजों के एक चयनित समूह की उत्तरजीविता में वृद्धि हुई है और इनमें से कुछ मरीज 5 वर्षों से अधिक समय तक भी जीवित रहे. मेसोथेलियोमा के प्रति एक आरोग्यकारी पद्धति के एक भाग के रूप में, सीने की निकास नली के प्रवेश-स्थलों पर रेडियोथेरेपी का प्रयोग भी किया जाता है, ताकि सीने की दीवार में इस पथ पर ट्युमर के विकास को रोका जा सके. हालांकि मेसोथेलियोमा केवल रेडियोथेरेपी के साथ किये जाने वाले आरोग्यकारी उपचार के प्रति सामान्यतः प्रतिरोधी होता है, लेकिन ट्युमर के विकास से उत्पन्न होने वाले लक्षणों, जैसे किसी मुख्य रक्तवाहिका में व्यवधान, से छुटकारा दिलाने के लिये कभी-कभी प्रशामक उपचार परहेजों का प्रयोग किया जाता है। आरोग्यकारी उद्देश्य से अकेले प्रयोग किये जाने पर विकिरण चिकित्सा ने कभी भी मेसोथेलियोमा से उत्तरजीविता में कोई सुधार प्रदर्शित नहीं किया है। शल्य-चिकित्सा द्वारा न हटाये गये मेसोथेलियोमा का उपचार करने के लिये विकिरण की आवश्यक खुराक अत्यधिक विषैली साबित होगी. कीमोथेरपी[संपादित करें] कीमोथेरपी मेसोथेलियोमा के लिये एकमात्र शल्य-चिकित्सा है, जो अनियंत्रित और नियंत्रित परीक्षणों में उत्तरजीविता को बढ़ाने वाली साबित हुई है। सन 2003 में वोगेलज़ैंग (Vogelzang) व उनके सहयोगियों द्वारा प्रकाशित एक ऐतिहासिक अध्ययन में अकेली सिस्प्लैटिन कीमोथेरपी की तुलना सिस्प्लैटिन व पेमेट्रेक्स्ड (ब्रांड नाम ऐलिम्टा) कीमोथेरपी के संयोजन के साथ उन मरीजों में की गई थी, जिन्हें पहले असाध्य प्लुरल मेसोथेलियोमा के लिये कीमोथेरपी नहीं दी गई थी और जो अधिक आक्रामक "उपचारात्मक" शल्य-चिकित्सा के उम्मीदवार नहीं थे।[30] यह परीक्षण असाध्य प्लुरल मेसोथेलियोमा में कीमोथेरपी से होने वाले उत्तरजीविता लाभ की पहली रिपोर्ट थी, जिसने दर्शाया कि जिन मरीजों का उपचार केवल सिस्प्लैटिन के साथ किया गया था, उनमें उत्तरजीविता की अवधि का मध्यमान 10 माह था, जबकि मरीजों के जिस समूह का उपचार सिस्प्लैटिन व पेमेट्रेक्स्ड के संयोजन से किया गया और जिन्हें फोलेट व विटामिन B12 के द्वारा अतिरिक्त पोषण भी दिया गया, उनमें यह 13.3 माह था। परीक्षण में अधिकांश मरीजों को विटामिन का अतिरिक्त पोषण भी दिया गया और जिन मरीजों ने प्रतिदिन फोलेट 500mcg की मौखिक खुराक और प्रत्येक 9 सप्ताह के अंतराल में इंट्रामस्क्युलर विटामिन B12 1000mcg की खुराक प्राप्त की, उनमें पेमेट्रेक्स्ड से जुड़े दुष्प्रभाव उन मरीज़ों की तुलना में बहुत कम थे, जिन्हें पेमेट्रेक्स्ड विटामिन के पूरक पोषण के बिना दिया गया था। लक्ष्य प्रतिक्रिया दर सिस्पैटिन समूह में 20% से लेकर संयोजित पेमेट्रेक्स्ड समूह में 40% तक बढ़ गई। कुछ दुष्प्रभाव, जैसे मिचली और उल्टी आना, मुखपाक और दस्त संयोजित पेमेट्रेक्स्ड समूह में अधिक आम थे, लेकिन इन्होंने मरीजों के केवल एक छोटे-से समूह को ही प्रभावित किया और कुल मिलाकर विटामिन के पूरक पोषण भी दिया जाने पर पेमेट्रेक्स्ड व सिस्प्लैटिन का संयोजन मरीजों के लिये सुसह्य था; संयोजिक पेमेट्रेक्स्ड समूह में जीवन की गुणवत्ता व फेफड़ों की कार्यक्षमता के परीक्षणों दोनों में वृद्धि हुई. फरवरी 2004 में, यूनाइटेड स्टेट्स फूड एन्ड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने असाध्य प्लुरल मेसोथेलियोमा के उपचार के लिये पेमेट्रेक्स्ड के प्रयोग की अनुमति प्रदान की. हालांकि, कीमोथेरपी के इष्टतम प्रयोग को लेकर अभी भी कुछ प्रश्न अनुत्तरित हैं, जिनमें उपचार को प्रारंभ करने का सही समय और दिये जाने चक्रों की इष्टतम संख्या शामिल हैं। रैल्टिट्रेक्स्ड के साथ सिस्प्लैटिन के प्रयोग ने उत्तरजीविता में वैसा ही सुधार प्रदर्शित किया है, जैसा सिस्प्लैटिन अ पेमेट्रेक्स्ड के संयोजन के द्वारा देखा गया है, लेकिन रैल्टिट्रेक्स्ड अब इस संकेत के लिये व्यावसायिक रूप से उपलब्ध नहीं है। जो मरीज़ पेमेट्रेक्स्ड को नहीं सह सकते, उनके लिये गेम्सिटेबाइन या वाइनोरेल्बाइन के साथ सिस्पैटिन का संयोजन या केवल वाइनोरेल्बाइन एक विकल्प है, हालांकि इन दवाओं के लिये कोई उत्तरजीविता लाभ प्रदर्शित नहीं किया गया है। जिन मरीज़ों में सिस्प्लैटिन का प्रयोग न किया जा सकता हो, उनमें इसके स्थान पर कार्बोप्लैटिन का प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन गैर-यादृच्छिक डेटा कार्बोप्लैटिन-आधारित संयोजनों के लिये रुधिरविज्ञान संबंधी विषाक्तता की उच्च दरें और निम्न प्रतिक्रिया दरें प्रदर्शित करता है, हालांकि इसमें भी उत्तरजीविता के आंकड़े सिस्प्लैटिन पाने वाले मरीजों जैसे ही हैं।[31] ड्युक यूनिवर्सिटी द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित एक अध्ययन, जिसके अनुसार सुधार में लगभग 50 पॉइन्ट की वृद्धि का निष्कर्ष निकाला गया था, के बाद जनवरी 2009 में, यूनाइटेड स्टेट्स एफ़डीए (FDA) ने चरण I या II के मेसोथेलियोमा के लिये विकिरण के साथ शल्य-चिकित्सा जैसे पारंपरिक उपचारों के प्रयोग या कीमोथेरपी की अनुमति दी. प्रतिरक्षा चिकित्सा[संपादित करें] प्रतिरक्षा चिकित्सा में शामिल उपचार परहेजों ने भिन्न-भिन्न परिणाम प्रदान किये हैं। उदाहरणार्थ, यह पाया गया कि प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को बढ़ाने के प्रयास में बैसीलस कैल्मेट-ग्वेरिन (Bacillus Calmette-Guérin) (बीसीजी [BCG]) के इंट्राप्लुरल संचारण का मरीज को कोई लाभ नहीं होता (हालांकि यह ब्लैडर के कैंसर से पीड़ित मरीजों के लिये लाभदायाक हो सकता है). मेसोथेलियोमा कोशिकाएं प्रयोगशाला के नियंत्रित वातावरण में इंटरल्युकिन-2 (आईएल-2 [IL-2]) द्वारा सक्रियण के बाद एलएके (LAK) कोशिकाओं के प्रति अतिसंवेदनशील साबित हुईं. वस्तुतः आईएल-2 (IL-2) विषाक्तता के अस्वीकार्य रूप से उच्च स्तरों तथा बुखार व दुर्बलता जैसे दुष्प्रभावों के कारण यह परीक्षण रोक दिया गया था। इसके बावजूद, इंटरफेरॉन अल्फा के साथ अन्य परीक्षण बहुत अधिक उत्साहजनक साबित हुए और इनमें 20% मरिजों ने ट्युमर की मात्रा में 50% से अधिक की कमी महसूस की तथा इसके दुष्प्रभाव भी न्यूनतम रहे. तापीय इंट्राऑपरेटिव इंट्रापेरिटोनियल कीमोथेरपी[संपादित करें] पॉल शुगरबेकर ने वॉशिंग्टन कैंसर इंस्टीट्यूट में तापीय इंट्राऑपरेटिव इंट्रापेरिटोनियल की कीमोथेरपी के नामक विधि विकसित की.[32] शल्य-चिकित्सक यथासंभव अधिकांश ट्युमर हटा देता है और इसके बाद 40 और 48° सेल्सियस के बीच के तापमान पर गर्म किये गये एक कीमोथेरपी एजेंट द्वारा पेट में प्रत्यक्ष उपचार किया जाता है। यह द्रव 60 से 120 मिनटों तक भरकर रखा जाता है और फिर इसे बहा दिया जाता है। यह तकनीक चयनित दवाओं की उच्च मात्रा के द्वारा उदर और श्रोणि सतहों में उपचार को सुविधाजनक बना देती है। कीमोथेरपी उपचार को गर्म करने से ऊतकों का भेदन करके दवाओं को भीतर भेजा जा सकता है। इसके अलावा, गर्म करने से सामान्य कोशिकाओं की तुलना में असाध्य कोशिकाओं को अधिक क्षति पहुंचती है। इस तकनीक का प्रयोग असाध्य प्लुरल मेसोथेलियोमा से ग्रस्त मरीजों में भी किया जाता है।[33] बहुपद्धति उपचार[संपादित करें] ठोस ट्युमर के उपचार से संबंधित सभी मानक विधियों-विकिरण, कीमोथेरपी व शल्य-चिकित्सा- का परीक्षण असाध्य प्लुरल मेसोथेलियोमा से ग्रस्त मरीजों में किया जाता रहा है। हालांकि, अपने आप में शल्य-चिकित्सा बहुत अधिक प्रभावी नहीं है, लेकिन सहायक कीमोथेरपी व विकिरण के संयोजन में शल्य-चिकित्सा (त्रिपद्धति उपचार) ने अनुकूल पूर्वाभासी कारकों वाले मरीजों में उत्तरजीविता को बहुत अधिक (3-14 वर्षों तक) विस्तारित कर दिया है।[29] हालांकि, बहुपद्धति उपचार के परीक्षण की अन्य बड़ी श्रृंखला ने उत्तरजीविता में केवल मध्यम सुधार (उत्तरजीविता का मध्यमान 14.5 माह और केवल 29.6% मरीज ही 2 वर्षों तक जीवित रहे) ही प्रदर्शित किया है।[28] साइटोरिडक्टिव शल्य-चिकित्सा के द्वारा ट्युमर के ढेर को कम करना उत्तरजीविता को बढ़ाने का मुख्य उपाय है। दो प्रकार की शल्य-चिकित्सा विकसित की गई है: एक्स्ट्राप्लुरल न्यूमोनेक्टॉमी और प्लुरेक्टॉमी/डीकॉर्टिकेशन. इन ऑपरेशनों को करने के संकेत अद्वितीय हैं। ऑपरेशन का चयन मरीज के ट्युमर के आकार पर निर्भर होता है। यह एक महत्वपूर्ण विचार है क्योंकि यह पहचाना जा चुका है कि ट्युमर की मात्रा मेसोथेलियोमा के लिये एक पूर्वाभासी कारक है।[34] प्लुरेक्टॉमी/डीकॉर्टिकेशन में अंतःस्थ फेफड़े को छोड़ दिया जाता है और इसे बीमारी के प्रारंभिक चरण वाले मरीजों पर किया जाता है, जब इसका उद्देश्य केवल दर्द को कम करना नहीं, बल्कि समस्त दृश्य ट्युमर को हटाना (मैक्रोस्कोपिक कम्पलीट रीसेक्शन) हो.[35] एक्स्ट्राप्लुरल न्यूमोनेक्टॉमी एक अधिक व्यापक ऑपरेशन है, जिसमें पार्श्विक तथा आंत्र फुफ्फुसावरणों, अंतःस्थ फेफड़े, इप्सिलैटरल मध्यपट और इप्सिलैटरल हृदयावरण को शल्य-क्रिया के द्वारा हटाया जाता है। यह ऑपरेशन मरीजों के उस उपसमूह के लिये बताया जाता है, जिनमें ट्युमर अधिक विकसित हो और जो न्यूमोनेक्टॉमी को सह सकते हों.[36] महामारी-विज्ञान[संपादित करें] हालांकि ज्ञात मामलों की संख्या पिछले 20 वर्षों में बढ़ी है, लेकिन मेसोथेलियोमा अभी भी एक अपेक्षाकृत दुर्लभ प्रकार का कैंसर है। एक से दूसरे देश के बीच मामलों की दर में अंतर है और न्यूनतम दर ट्युनिशिया और मोरॉक्को में प्रति 1,000,000 में 1 से कम व ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और बेल्जियम में सर्वाधिक: प्रति 1,000,000 में 30 प्रतिवर्ष है।[37] तुलना के लिये, धूम्रपान के उच्च स्तरों वाली जनसंख्याओं में फेफड़ों के कैंसर के मामले प्रति 1,000,000 में 1,000 से अधिक हो सकते हैं। औद्योगिकीकृत पश्चिमी देशों में असाध्य मेसोथेलियोमा के मामलों की दर वर्तमान में 7 से 40 प्रति 1,000,000 है, जो कि पिछले कुछ दशकों में एस्बेस्टस के साथ जनसंख्या के संपर्क पर निर्भर करती है।[38] ऐसा अनुमान लगाया गया है कि सन 2004 में संयुक्त राज्य अमरीका में 15 प्रति 1,000,000 के साथ संभवतः यह अपने उच्चतम स्तर पर थी। विश्व के अन्य भागों में भी इसके मामलों की संख्या बढ़ने की उम्मीद है। मेसोथेलियोमा महिलाओं की तुलना में पुरुषों में अधिक पाया जाता है और इसका खतरा उम्र के साथ-साथ बढ़ता जाता है, लेकिन पुरुषों या महिलाओं में से किसी को भी यह बीमारी किसी भी आयु में हो सकती है। कुल मेसोथेलियोमा में से लगभग 1/5 से 1/3 पेरिटोनियल होते हैं। सन 1940 और 1979 के बीच, लगभग 27.5 मिलियन लोग संयुक्त राज्य अमरीका में व्यावसायिक रूप से एस्बेस्टस के संपर्क में आए.[39] सन 1973 और 1984 के बीच, कॉकेशियाई पुरुषों में प्लुरल मेसोथेलियोमा के मामलों में 300% की वृद्धि हुई. सन 1980 से लेकर सन 1990 के दशक के अंत तक यूएसए (USA) में मेसोथेलियोमा से होने वाली मृत्यु की दर 2,000 प्रति वर्ष से बढ़कर 3,000 हो गई, जिसमें पुरुषों द्वारा इससे ग्रसित होने की संभावना महिलाओं की तुलना में चार गुना अधिक थी। संभव है कि ये दरें अचूक न हों क्योंकि हो सकता है कि मेसोथेलियोमा के कई मामलों का निदान गलत तरीके से फेफड़े के एडीनोकार्सीनोमा के रूप में कर दिया गया हो, जिसे मेसोथेलियोमा से अलग पहचान पाना कठिन होता है। समाज व संस्कृति[संपादित करें] उल्लेखनीय मामले[संपादित करें] हालांकि मेसोथेलियोमा दुर्लभ है, लेकिन इसके पीड़ितों में उल्लेखनीय लोग शामिल हैं। मैल्कॉम मैक्लेरेन, न्यूयॉर्क डॉल्स व सेक्स पिस्टल्स के पूर्व प्रबंधक जिनकी 8 अप्रैल 2010 को मृत्यु हो गई। बिली वॉन, अमरीकी बैंडप्रमुख, सन 1991 में मृत्यु हुई. हैमिल्टन जॉर्डन, अमरीकी राष्ट्रपि जिमी कार्टर के लिये चीफ ऑफ स्टाफ और आजीवन कैंसर कार्यकर्ता, 2008 में मृत्यु हुई. रिचर्ड जे. हर्न्सटीन, मनोवैज्ञानिक तथा द बेल कर्व के सह-लेखक, सन 1994 में मृत्यु. ऑस्ट्रेलियाई नस्लवाद-विरोधी कार्यकर्ता बॉब बेलीयर का सन 2005 में निधन हो गया। ब्रिटिश विज्ञान कथा लेखक माइकल जी. कोनी, जिन्होंने लगभग 100 कृतियों की रचना की थी, की मृत्यु भी सन 2005 में ही हुई थी। अमरीकी फिल्म व टेलीविजन अभिनेता पॉल ग्लीसन, जो संभवतः सन 1985 की फिल्म द ब्रेकफास्ट क्लब में प्रिंसिपल रिचर्ड वर्नन की भूमिका के सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं, का निधन सन 2006 में हुआ। मिकी मोस्ट, एक अंग्रेज़ रिकॉर्ड निर्माता, की सन 2003 में मेसथेलियोमा के कारण मृत्यु हो गई। अमरीकी वास्तुशास्री पॉल रुडॉल्फ का सन 1997 में निधन हो गया। बर्नी बैंटन, ऑस्ट्रेलियाई मजदूरों के अधिकारों के लिये लड़नेवाले एक कार्यकर्ता, ने जेम्स हार्डी से मुआवजा पाने के लिये एक लंबी लड़ाई लड़ी, जिनकी कम्पनी के लिये कार्य करने के बाद वे मेसोथेलियोमा से ग्रस्त हो गए थे। उन्होंने दावा किया कि उनके द्वारा विद्युत-केंद्रों के लिये इन्सुलेशन पदार्थ बनाने का कार्य शुरु किये जाने के पूर्व से ही जेम्स हार्डी को एस्बेस्टस के खतरों की जानकारी थी। अंततः मेसोथेलियोमा ने उनके साथ-साथ ही उनके भाई व जेम्स हार्डी के सैकड़ों मजदूरों की ज़िंदगी छीन ली. जेम्स हार्डी ने बैंटन के साथ एक गुप्त समझौता किया, लेकिन तब उनका मेसोथेलियोमा अंतिम चरणों में पहुंच चुका था और उनके 48 घंटों से ज्यादा समय तक जीवित बच पाने की उम्मीद नहीं थी। सन 2007 में ऑस्ट्रेलिया के संघीय चुनाव में अपनी जीत के बाद आभार उदबोधन में बोलते हुए ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री केविन रुड ने बैंटन के लंबे संघर्ष का उल्लेख किया था। 22 दिसम्बर 1979 को अभिनेता स्टीव मैक्क्वीन को पेरिटोनियल मेसोथेलियोमा होने की जानकारी प्राप्त हुई. उन्हें शल्य-चिकित्सा या कीमोथेरपी उपचार नहीं दिया गया क्योंकि चिकित्सकों को लगा कि कैंसर बहुत अधिक बढ़ चुका था। अंततः मैक्क्वीन ने मेक्सिको के चिकित्सालयों में वैकल्पिक उपचार लेना प्रारंभ किया। 7 नवम्बर 1980 को कैंसर की शल्य-चिकित्सा के बाद हृदयाघात से जुवारेज़, मेक्सिको में उनकी मृत्यु हो गई। संभवतः एक युवक के रूप में यू.एस. मरीन्स में कार्य करने के दौरान-उन दिनों जहाजों की पाइपों के आवरण के रूप में एस्बेस्टस का प्रयोग आम था-या ऑटोमोबाइल रेसिंग सूट (मैक्क्वीन रेसिंग के एक उत्साही चालक व प्रशंसक थे) में आवरण पदार्थ के रूप में एस्बेस्टस के प्रयोग के द्वारा वे इसके संपर्क में आए हों.[40] संयुक्त राज्य अमरीका के कांग्रेस सदस्य ब्रुस वेंटो की सन 2000 में मेसोथेलियोमा के कारण मृत्यु हो गई। उनकी पत्नी द्वारा प्रतिवर्ष एमएआरएफ (MARF) परिसंवाद में ऐसे व्यक्तियों या संस्थाओं को ब्रुस वेंटो पुरस्कार दिया जाता है, जिन्होंने मेसोथेलियोमा के क्षेत्र में अनुसंधान और इसकी हिमायत करने के लिये सर्वाधिक समर्थन दिया हो. अनुपचारित अस्वस्थता और दर्द की एक लंबी अवधि के बाद सन 2002 की शरद ॠतु में रॉक एन्ड रोल संगीतकार और गीतकार वॉरेन ज़ेवॉन के लिये यह निदान किया गया कि वे मेसोथेलियोमा से ग्रस्त हैं और उनका ऑपरेशन नहीं किया जा सकता. उपचारों, जिनके बारे में उनका विश्वास था कि वे उन्हें दुर्बल बना सकते हैं, को अस्वीकार करते हुए, ज़ेवॉन ने अपनी ऊर्जा अपने अंतिम एल्बम द विण्ड, उनकी छूटती हुई सांसों के बारे में बताने वाले गीत "कीप मी इन योर हार्ट" सहित, की रिलीज़ पर केंद्रित कर दी. 7 सितंबर 2003 को लॉस एंजल्स, कैलिफोर्निया में ज़ेवॉन का निधन हो गया। सन 2007 में मेसोथेलियोमा के कारण प्रभावशाली आइरिश गायक-गीतकार क्रिस्टी हेनेसी की मृत्यु हो गई और उन्होंने अपने निधन से कई सप्ताहों पहले रोगनिदान को स्वीकार करने से कर्कशतापूर्वक इंकार कर दिया था।[41] हेनेसी के मेसिथेलियोमा के लिये अपने जीवन के शुरुआती दिनों में उनके द्वारा लंदन के निर्माण-स्थलों पर कार्य करते हुए बिताये गये वर्षों को ज़िम्मेदार माना गया।[42][43] सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट लैब्स के संस्थापकों में से एक, ऑरेकल कॉर्पोरेशन के अग्रदूत बॉब माइनर की सन 1994 में मेसोथेलियोमा के कारण मृत्यु हो गई। स्कॉटिश लेबर पार्टी के सांसद जॉन विलियम मैक्डॉगल का मेसोथेलियोमा से दो वर्षों तक लड़ने के बाद 13 अगस्त 2008 को निधन हो गया।[44] ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार और समाचार-प्रस्तोता कैनबरा के पीटर लियोनार्ड ने 23 सितंबर 2008 को इस परिस्थिति के आगे घुटने टेक दिये. ऑलिम्पिक के स्वर्ण पदक विजेता और लंबे समय तक टोस्टमास्टर्स के कार्यकारी निदेशक टेरेन्स मैक्कान का 7 जून 2006 को डाना पॉइन्ट, कैलिफोर्निया स्थित अपने घर में मेसोथेलियोमा के कारण निधन हो गया। मर्लिन ऑल्सेन, प्रो फुटबॉल हॉल ऑफ फेम में शामिल खिलाड़ी और टेलीविजन अभिनेता की 10 मार्च 2010 को मेसोथेलियोमा के कारण म्रृत्यु हो गई, जिसका निदान सन 2009 में हुआ था। मेसोथेलियोमा के साथ कुछ समय तक जीवित रहने वाले उल्लेखनीय लोग[संपादित करें] हालांकि इस बीमारी के साथ उत्तरजीविता की अवधि विशिष्टतः सीमित होती है, लेकिन कुछ उत्तजीवी लोग उल्लेखनीय हैं। जुलाई 1982 में स्टीफन जे गॉउल्ड को पेरिटोनियल मेसोथेलियोमा होने का निदान किया गया। अपने निदान के बाद गॉउल्ड ने डिस्कवर पत्रिका के लिये लिखा "मध्यरेखा संदेश नहीं है (Median Isn't the Message)",[45] जिसमें उन्होंने तर्क दिया की मध्यरेखा पर उत्तरजीविता जैसे सांख्यिकीय आंकड़े केवल उपयोगी संक्षेपण हैं, भाग्य नहीं. गॉउल्ड इसके बाद 20 वर्षों तक जीवित रहे और अंततः उनकी मृत्यु मेटास्टैटिक एडीनोकार्सिनोमा के कारण हुई, मेसोथेलियोमा के कारण नहीं. जुलाई 1997 में लेखक पॉल क्राउस को पेरिटोनियल मेसोथेलियोमा होने की जानकारी मिली. उनके लिये एक वर्ष से भी कम समय तक जीवित रह पाने का पूर्वानुमान किया गया था और अनेक प्रकार के पूरक तौर-तरीकों का प्रयोग किया गया। वह रोगनिदान के पूर्वानुमान की अपनी अवधि को पूरा कर चुकने के बाद आज भी जीवित हैं और उन्होंने अपने अनुभव के बारे में "सर्वाइविंग मेसोथेलियोमा एन्ड अदर कैंसर्स: अ पेशंट'स गाइड (Surviving Mesothelioma and Other Cancers: A Patient's Guide)" नामक पुस्तक लिखी,[46] जिसमें उन्होंने उपचार और उस निर्णय प्रक्रिया के बारे में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं, जिसके आधार पर वे अनुकलनात्मक औषधि लेने के निर्णय पर पहुंचे। कानूनी मुद्दे[संपादित करें] मुख्य लेख : Asbestos and the law एस्बेस्टस निर्माताओं के खिलाफ पहले कानूनी मुकदमे सन 1929 में दायर किये गये। तब से, एस्बेस्टस, एस्बेस्टॉसिस व मेसोथेलियोमा के बीच संपर्क की जानकारी मिलने के बाद (कुछ रिपोर्टों में इसे सन 1898 से ही ज्ञात बताया गया है) एस्बेस्टस निर्माताओं और नियोक्ताओं के खिलाफ सुरक्षा मानकों के क्रियान्वयन को अनदेखा करने के कारण अनेक कानूनी मुकदमे दायर किये जा चुके हैं। इन मुकदमों और इनसे प्रभावित लोगों की कुल संख्या के परिणामस्वरूप जवाबदेही करोड़ों डॉलर तक पहुंच चुकी है।[47] मुआवजे की राशि के आवंटन की मात्रा और विधि अनेक अदालती मामलों का स्रोत रही है, ये यूनाइटेड स्टेट्स सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचे हैं, तथा सरकार वर्तमान व आगामी मामलों को निपटाने का प्रयास कर रही है। हालांकि, आज तक यूएस कांग्रेस इसमें शामिल नहीं हुई है और एस्बेस्टस के मुआवजे का संचालन करने वाला कोई संघीय कानून नहीं है।[48] इतिहास एस्बेस्टस निर्माताओं के खिलाफ पहला कानूनी मुकदमा सन 1929 में लड़ा गया। दोनों पक्षों ने उस मुकदमे में समझौता कर लिया और समझौते के एक भाग के रूप में वकील मामलों को आगे न लड़ने पर सहमत हुए. सन 1960 में, वैग्नेर व अन्य (Wagner et al.) द्वारा प्रकाशित एक लेख मेसोथेलियोमा को एस्बेस्टस के संपर्क के कारण उत्पन्न होने वाले रोग के रूप में स्थापित करने वाला पहला लेख था।[49] इस लेख में 30 से भी ज्यादा ऐसे लोगों के मामलों का उल्लेख किया गया था, जो दक्षिण अफ्रीका में मेसोथेलियोमा से ग्रस्त हो गये थे। कुछ मामलों में संपर्क क्षणिक थे और कुछ खान मजदूर थे। उन्नत सूक्ष्मदर्शी तकनीकों के प्रयोग से पूर्व, अक्सर असाध्य मेसोथेलियोमा का निदान फेफड़े के कैंसर के एक भिन्न प्रकार के रूप में किया जाता था।[50] सन 1962 में, मैक्नल्टी ने एक ऑस्ट्रेलियाई एस्बेस्टस श्रमिक में असाध्य मेसोथेलियोमा के पहले नैदानिक मामले की जानकारी दी.[51] उस श्रमिक ने सन 1948 से लेकर 1950 तक वाइटेनूम में एस्बेस्टस खदान में मिल पर कार्य किया था। वाइटेनूम नगर में, एस्बेस्टस-युक्त खान अवशिष्ट का प्रयोग विद्यालयों के प्रांगण व खेल के मैदानों को ढंकने में किया जाता था। सन 1965 में, ब्रिटिश जर्नल ऑफ इंडस्ट्रियल मेडिसिन में प्रकाशित एक लेख ने यह स्थापित किया कि एस्बेस्टस कारखानों और खदानों के आस-पास रहने वाले, लेकिन उनमें काम न करने वाले लोगों को मेसोथेलियोमा हो गया था। सन 1943 में, इस बात के प्रमाण के बावजूद कि एस्बेस्टस खनन और मिलिंग से जुड़ी धूल एस्बेस्टस-संबंधी रोग उत्पन्न करती है, वाइटेनूम में खनन की शुरुआत हुई और यह सन 1966 तक जारी रही. सन 1974 में, नीले एस्बेस्टस के खतरों की पहली सार्वजनिक चेतावनियां "इस धिस किलर इन योर होम? (Is this Killer in Your Home?)" शीर्षक वाली आवरण कथा में ऑस्ट्रेलिया की बुलेटिन पत्रिका में प्रकाशित की गईं. सन 1978 में, हेल्थ डिपार्टमेंट द्वारा प्रकाशित एक पुस्तिका "द हेल्थ हैज़ार्ड ऐट वाइटेनूम (The Health Hazard at Wittenoom)", जिसमें हवा के नमूनों के परिणाम और विश्वव्यापी चिकित्सा जानकारी की एक समीक्षा थी, के प्रकाशन के बाद वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने विटेनूम नगर को हटाने का निश्चय किया। सन 1979 तक, वाइटेनूम से जुड़ी लापरवाही के लिये पहली याचिका सीएसआर (CSR) व इसकी सहायक कंपनी एबीए (ABA) के खिलाफ जारी की गईं थीं और वाइटेनूम के पीड़ितों का प्रतिनिधित्व करने के लिये एस्बेस्टस डीसीज़ सोसाइटी (Asbestos Diseases Society) की स्थापना की गई। लीड्स, इंग्लैंड में, आर्मली एस्बेस्टस हादसे में टर्नर एंड नेवॉल के खिलाफ अनेक अदालती मुकदमे शामिल थे, जिनमें मेसोथेलियोमा से पीड़ित स्थानीय निवासियों ने कंपनी के कारखाने से होने वाले एस्बेस्टस प्रदूषण के लिये मुआवजे की मांग की थी। एक उल्लेखनीय मामला, जून हैन्कॉक का है, जो सन 1993 में इस बीमारी से ग्रस्त हुए और सन 1997 में उनकी मृत्यु हो गई। %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%80%E0%A4%9F%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%97 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 अल्बर्ट पीटर बर्लिग (जन्म मार्च 7, 1942 लॉस एंजिल्स, कैलिफोर्निया) संयुक्त राज्य विदेश सेवा अधिकारी और राजनयिक हैं। यह अमेरिकन एकेडमी आँफ डिप्लोमेसी के सदस्य हैं। शिक्षा और कैरियर[संपादित करें] अल्बर्ट बर्लिग ने 1963 में कोलगेट विश्वविद्यालय से कला में स्नातक की उपाधि प्राप्त की।[1] 1995 से 97 के बीच इन्होने श्रीलंका व मालदीव में अमेरिका के राजदूत के रूप में कार्य किया।[2] इन्हे 2009 में अंतरिम अमेरिकी राजदूत के रूप में भारत में नियुक्त किया गया था।[3][4] जून 2011 में इन्हे टिमोथी रोमर के पश्चात भारत में अमेरिकी राजदूत नियुक्त किया गया, जिसमें अभी सीनेट का पुष्टिकरण लंबित है। यह पहले अमेरिकी राजदूत हैं जो हिन्दी में धाराप्रवाह हैं। %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%A8_%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%A4 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 मोहन मधुकर भागवत (जन्म: 11 सितम्बर 1950, चन्द्रपुर महाराष्ट्र) एक पशु चिकित्सक और 2009 से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक हैं। उन्हें एक व्यावहारिक नेता के रूप में देखा जाता है। के एस सुदर्शन ने अपनी सेवानिवृत्ति पर उन्हें अपने उत्तराधिकारी के रूप में चुना था।[1] अनुक्रम [छुपाएँ] 1 प्रारम्भिक जीवन 2 संघ से सम्बन्ध 2.1 विचार 3 सन्दर्भ 4 बाहरी कड़ियाँ प्रारम्भिक जीवन[संपादित करें] मोहनराव मधुकरराव भागवत का जन्म महाराष्ट्र के चन्द्रपुर नामक एक छोटे से नगर में 11 सितम्बर 1950 को हुआ था। वे संघ कार्यकर्ताओं के परिवार से हैं।[1] उनके पिता मधुकरराव भागवत चन्द्रपुर क्षेत्र के प्रमुख थे जिन्होंने गुजरात के प्रान्त प्रचारक के रूप में कार्य किया था।[1] मधुकरराव ने ही लाल कृष्ण आडवाणी का संघ से परिचय कराया था। उनके एक भाई संघ की चन्द्रपुर नगर इकाई के प्रमुख हैं। मोहन भागवत कुल तीन भाई और एक बहन चारो में सबसे बड़े हैं। मोहन भागवत ने चन्द्रपुर के लोकमान्य तिलक विद्यालय से अपनी स्कूली शिक्षा और जनता कॉलेज चन्द्रपुर से बीएससी प्रथम वर्ष की शिक्षा पूर्ण की। उन्होंने पंजाबराव कृषि विद्यापीठ, अकोला से पशु चिकित्सा और पशुपालन में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। 1975 के अन्त में, जब देश तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गान्धी द्वारा लगाए गए आपातकाल से जूझ रहा था, उसी समय वे पशु चिकित्सा में अपना स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम अधूरा छोड़कर संघ के पूर्णकालिक स्वयंसेवक बन गये।[1] संघ से सम्बन्ध[संपादित करें] आपातकाल के दौरान भूमिगत रूप से कार्य करने के बाद 1977 में भागवत महाराष्ट्र में अकोला के प्रचारक बने और संगठन में आगे बढ़ते हुए नागपुर और विदर्भ क्षेत्र के प्रचारक भी रहे।[1] 1991 में वे संघ के स्वयंसेवकों के शारीरिक प्रशिक्षण कार्यक्रम के अखिल भारतीय प्रमुख बने और उन्होंने 1999 तक इस दायित्व का निर्वहन किया। उसी वर्ष उन्हें, एक वर्ष के लिये, पूरे देश में पूर्णकालिक रूप से कार्य कर रहे संघ के सभी प्रचारकों का प्रमुख बनाया गया। वर्ष 2000 में, जब राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) और हो०वे० शेषाद्री ने स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से क्रमशः संघ प्रमुख और सरकार्यवाह का दायित्व छोडने का निश्चय किया, तब के एस सुदर्शन को संघ का नया प्रमुख चुना गया और मोहन भागवत तीन वर्षों के लिये संघ के सरकार्यवाह चुने गये। 21 मार्च 2009 को मोहन भागवत संघ के सरसंघचालक मनोनीत हुए। वे अविवाहित हैं तथा उन्होंने भारत और विदेशों में व्यापक भ्रमण किया है। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख चुने जाने वाले सबसे कम आयु के व्यक्तियों में से एक हैं। उन्हें एक स्पष्टवादी, व्यावहारिक और दलगत राजनीति से संघ को दूर रखने के एक स्पष्ट दृष्टिकोण के लिये जाना जाता है। विचार[संपादित करें] मोहन भागवत को एक व्यावहारिक नेता के रूप में देखा जाता है। उन्होंने हिन्दुत्व के विचार को आधुनिकता के साथ आगे ले जाने की बात कही है।[2] उन्होंने बदलते समय के साथ चलने पर बल दिया है। लेकिन इसके साथ ही संगठन का आधार समृद्ध और प्राचीन भारतीय मूल्यों में दृढ़ बनाए रखा है।[3] वे कहते हैं कि इस प्रचलित धारणा के विपरीत कि संघ पुराने विचारों और मान्यताओं से चिपका रहता है, इसने आधुनिकीकरण को स्वीकार किया है और इसके साथ ही यह देश के लोगों को सही दिशा भी दे रहा है।[3] हिन्दू समाज में जातीय असमानताओं के सवाल पर, भागवत ने कहा है कि अस्पृश्यता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि अनेकता में एकता के सिद्धान्त के आधार पर स्थापित हिन्दू समाज को अपने ही समुदाय के लोगों के विरुद्ध होने वाले भेदभाव के स्वाभाविक दोषों पर विशेष ध्यान देना चाहिए। केवल यही नहीं अपितु इस समुदाय के लोगों को समाज में प्रचलित इस तरह के भेदभावपूर्ण रवैये को दूर करने का प्रयास भी करना चाहिए तथा इसकी शुरुआत प्रत्येक हिन्दू के घर से होनी चाहिए।[4] सन्दर्भ[संपादित करें] ↑ इस तक ऊपर जायें: अ आ इ ई उ मोहन भागवत: 30 से अधिक वर्षों से एक पशु चिकित्सक और संघ के प्रचारक, 21 मार्च 2009, टाइम्स ऑफ इंडिया, [1] ऊपर जायें ↑ संघ ने मोहन भागवत को अपना नया प्रमुख घोषित किया: 'व्यावहारिक' और आडवाणी के दोस्त, रविवार, 22 मार्च 2009, इंडियन एक्सप्रेस ↑ इस तक ऊपर जायें: अ आ संघ बदलते समय के साथ आगे बढ़ता है: भागवत, रविवार, 20 नवम्बर 2005, प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस ऊपर जायें ↑ समाज से भेदभाव मिटाएं, सोमवार, 29 जनवरी 2007, हिन्दू [2] बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें] राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आधिकारिक वेबसाइट बेएरिया हिन्दू संगम 2006 में हिन्दू संगम में राष्ट्र रक्षा संचलन "ज्योतिपुंज" पुस्तक के विमोचन समारोह में पूर्वाधिकारी के एस सुदर्शन संघ के %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A5%88%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से (इंग्लैंड से अनुप्रेषित) यह लेख ब्रिटेन नामक टापू के दक्षिणी भाग इंगलैण्ड के बारे में है। हिन्दी में आमतौर पर इंगलैण्ड नाम से जाने जाने वाले देश के लिए, संयुक्त राजशाही देखें। इंग्लैण्ड ध्वज कुल चिह्न राष्ट्रवाक्य: Dieu et mon droit (फ्रांसीसी) "ईश्वर और मेरे अधिकार" राष्ट्रगान: आधिकारिक रूप से कोई नहीं; युनाइडेड किंगडम का राष्ट्रगान "गॉड सेव द क्विन" है। इंग्लैण्ड की स्थिति (orange)the United Kingdom (camel) इंग्लैण्ड की स्थिति (orange) the United Kingdom (camel) राजधानी और सबसे बडा़ नगर लंदन 51°30′N 0°7′W राजभाषा(एँ) अंग्रेजी1 वासीनाम अंग्रेज़ सरकार संवैधानिक राजशाही - राजशाही महारानी एलिजाबेथ द्वितीय - प्रधानमंत्री गार्डन ब्राउन विधान मण्डल संयुक्त राजशाही की संसद एकीकरण - एथलेस्टन से ९२७ ई. क्षेत्रफल - कुल १,३०,३९५ वर्ग किलोमीटर ५०,३४६ वर्ग मील जनसंख्या - २००६ जनगणना ५,०७,६२,९०० - २००१ जनगणना ४,९१,३८,८३१ सकल घरेलू उत्पाद (पीपीपी) २००६ प्राक्कलन - कुल १.९ खरब $ (-) - प्रति व्यक्ति ३८,०००$ (-) मुद्रा पाउण्ड स्टर्लिंग (GBP) समय मण्डल GMT (यू॰टी॰सी॰0) - ग्रीष्मकालीन (दि॰ब॰स॰) BST (यू॰टी॰सी॰+१) दूरभाष कूट ४४ पितृनामी संत सन्त जार्ज इंटरनेट टीएलडी .uk3 1. English is established by de facto usage. Cornish is officially recognised as a Regional or Minority language under the European Charter for Regional or Minority Languages. 2. National population projections (PDF) from the Office for National Statistics. 3. Also .eu, as part of the European Union. ISO 3166-1 is GB, but .gb is unused. इंग्लैण्ड (अंग्रेज़ी: England अंग्रेज़ी उचारण: इंग्लण्ड) या इंग्लिस्तान, ग्रेट ब्रिटेन नामक टापू का दक्षिणी भाग है। इसका क्षेत्रफल 50,331 वर्ग मील है। यह संयुक्त राजशाही यानि युनाइडेट किंग्डम का सबसे बड़ा निर्वाचक देश है। इंग्लैंड के अलावा स्कॉटलैंड, वेल्स और उत्तर आयरलैंड भी संयुक्त राजशाही में शामिल हैं। यह यूरोप के उत्तर पश्चिम में अवस्थित है जो मुख्य भूमि से इंग्लिश चैनल द्वारा पृथकीकृत द्वीप का अंग है। इसकी राजभाषा अंग्रेज़ी है और यह विश्व के सबसे संपन्न तथा शक्तिशाली देशों में से एक है। इंग्लैंड के इतिहास में सबसे स्वर्णिम काल उसका औपनिवेशिक युग है। अठारहवीं सदी से लेकर बीसवीं सदी के मध्य तक ब्रिटिश साम्राज्य विश्व का सबसे बड़ा और शकितशाली साम्राज्य हुआ करता था जो की महाद्वीपों में फैला हुआ था और कहा जाता था कि ब्रिटिश साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता। उसी समय पूरे विश्व में अंग्रेज़ी भाषा ने अपनी छाप चोड़ी जिसकी वज़ह से यह आज भी विश्व के सबसे अधिक लोगों द्वारा समझे जाने वाली भाषा है। अनुक्रम [छुपाएँ] 1 भूविज्ञान 2 जलवायु 3 भूगोल 3.1 उत्तरी इंग्लैंड 3.2 मध्य का मैदान 3.3 दक्षिण पूर्वी इंग्लैंड 4 इतिहास 5 इन्हें भी देखें भूविज्ञान[संपादित करें] इंग्लैंड के धरातल की संरचना का इतिहास बड़ी ही उलझन का है। यहाँ मध्यनूतन (मायोसीन) युग को छोड़कर प्रत्येक युग की चट्टानें मिलती हैं जिनसे स्पष्ट है कि इस भाग ने बड़े भूवैज्ञानिक उथल पुथल देखें हैं। आयरलैंड का ग्रेट ब्रिटेन से अलग होना अपेक्षाकृत नवीन घटना है। इग्लैंड का डोवर जलडमरूमध्य द्वारा महाद्वीप से अलग होना और भी नई बात है, जो मानव-जीवन-काल में घटित कही जाती है। धरातल की विभिन्नता के विचार से इंग्लैंड को दो मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है : (1) ऊँचे पठारी भाग, (2) मैदानीं भाग। ऊँचे पठारी भाग इंग्लैंड के उत्तर पश्चिमी भाग में मिलते हैं, जो प्राचीन चट्टानों द्वारा निर्मित हैं। हिमयुग में हिम से ढके रहने के फलस्वरूप यहाँ के पठार घिसकर चिकने हो गए हैं। दूसरी ओर मैदानी भाग नर्म चट्टानों, बलुआ पत्थर, चूना पत्भूर तथा चिकनी मिट्टी (क्ले) के बने हैं। चूना पत्थर के नीचे गोलाकार पहाड़ियाँ निर्मित हो गई हैं, खड़िया (चाक) के पर्वतीय ढाल। नीचे के मैदानी भाग प्राय: "क्ले" मिट्टी के बने हैं। जलवायु[संपादित करें] इंग्लैंड उत्तर-पश्चिमी यूरोपीय प्रदेश के समशीतोष्ण एवं आर्द्र जलीवयु के क्षेत्र में पड़ता है। इस का वार्षिक औसत ताप 50 डिग्री फा. है, जो क्रमश: दक्षिण पश्चिम से उत्तर पूर्व की ओर घटता जाता है। शीतकाल में इंग्लैंड के सभी भागों का औसत ताप 40 डिग्री फा. से ऊपर रहता है, पश्चिम से पूर्व की ओर घटता जाता है। पश्चिमी भाग गल्फस्ट्रीम नामक गर्म जलधारा के प्रभाव से प्रत्येक ऋतु में पूर्वी भाग की अपेक्षा अधिक गर्म रहता है। वर्षा उत्तर पश्चिमी भागों तथा ऊँचे पठारों पर 30फ़फ़ से 60फ़फ़ तथा पूर्वी मैदानी भागों में 30फ़फ़ से भी कम होती है। लंदन की औसत वार्षिक वर्षा 25.1फ़फ़ है। वर्ष भर पछुवाँ हवा की पेटी में पड़ने के साथ कारण वर्षा बारहों मास होती है। आकाश साधारणतया बादलों से छाया रहता है, जाड़े में बहुधा कुहरा पड़ता है तथा कभी-कभी बर्फ भी पड़ती है। भूगोल[संपादित करें] भौगोलिक दृष्टि से इंग्लैंड को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है : (1) उत्तरी इंग्लैंड, (2) मध्य के देश (3) दक्षिण पूर्वी इंग्लैंड। उत्तरी इंग्लैंड[संपादित करें] पेनाइन तथा उसके आस पास के नीचे मैदान इस प्रदेश में सम्मिलित हैं। पेनाइन कटा फटा पठार है जो समुद्र के धरातल से 2,000 से 3,000 फुट तक ऊँचा है। यह पठार इंग्लैंड के उत्तरी भाग के मध्य में रीढ़ की भाँति उत्तर से दक्षिण 150 मील लंबाई तथा 50 मील की चौड़ाई में फैला हुआ है। यह पठारी क्रम कार्बनप्रद (कार्बोनिफेरस) युग में चट्टानों के मुड़ने से निर्मित हुआ, परंतु इसकी ऊपरी चट्टानें कटकर बह गई हैं, जिसके फलस्वरूप कोयले की तहें भी जाती रहीं। अब कोयले की खदानें इसके पूर्वी तथा पश्चिमी सिरों पर ही मिलती हैं। कृषि एवं पशुपालन के विचार से यह भाग अधिक उपयोगी नहीं है। पेनाइन के पूर्व नार्थंबरलैंड तथा डरहम की कोयले की खदानें हैं। यहाँ दो प्रकार की खदानें पाई जाती हैं : (1) प्रकट (छिछली) खदानें तथा (2) (अप्रकट (गहरी) खदानें। प्रथम प्रकार की खदानें दक्षिण में टाइन नदी के मुहाने से उत्तर में कॉक्वेट नदी के मुहाने तक पेनाइन तथा समुद्रतट के बीच फैली हुई हैं। अप्रकट खदानें दक्षिण की ओर चूने के पत्थर के नीचे मिलती हैं। टीज़ नदी के निचले भाग में नमक की भी खदानें हैं। उसके दक्षिण लोहा प्राप्त होता है। अत: इन प्रदेशों में लोहे तथा रासायनिक वस्तुओं के निर्माण के बहुत से कारखाने बन गए हैं। यहाँ के बने लोहे एवं इस्पात के अधिकांश की खपत यहाँ के पोतनिर्माण (शिप बिल्डिंग) उद्योग में हो जाती है। टाइन तथा वियन नदियों की घाटियाँ पोतनिर्माण के लिए जगत्प्रसिद्ध हैं। टाइन के दोनों किनारों पर न्यू कैसिल से 14 मील की दूरी तक लगातार पोत-निर्माण-प्रांगण (शिप बिल्डिंग यार्ड) हैं। न्यू कैसिल यहाँ का मुख्य नगर है। पोतनिर्माण के अतिरिक्त यहाँ पर काँच, कागज, चीनी तथा अनेक रासायनिक वस्तुओं के कारखाने हैं। उपर्युक्त प्रदेश के दक्षिण में इंग्लैंड की सबसे बड़ी कोयले की खदानें यार्क, डरबी एवं नाटिंघम की खदानें हैं। ये उत्तर में आयर नदी की घाटी से दक्षिण में ट्रेंट की घाटी तक 70 मील की लंबाई में तथा 10 से 20 मील की चौड़ाई में फैली हुई हैं। इस प्रदेश के निकट ही, लिंकन तथा समीपवर्ती भागों में, लोहा भी निकलता है। अत: यहाँ के कोयले के व्यवसाय पर आश्रित तीन व्यावसायिक प्रदेश हैं : (1) कोयले की खदानों के उत्तर में पश्चिमी रेडिंग के ऊनी वस्त्रोद्योग के क्षेत्र, (2) मध्य में लोहे तथा इस्पात के प्रदेश तथा (3) डरबी और नाटिंघम प्रदेश के विभिन्न व्यवसायवाले प्रदेश। ऊनी वस्त्रोद्योग मुख्यतया आयर नदी की घाटी में विकसित हैं। लीड्स (जनसंख्या 1971 में 4,94,971) यहाँ का मुख्य नगर है जो सिले हुए कपड़ों का मुख्य केंद्र है। डफर्ड इस क्षेत्र का दूसरा महत्वपूर्ण नगर है। हैलीफैक्स कालीन बुनने का प्रधान केंद्र है। लोहे एवं इस्पात के व्यवसाय शेफील्ड (जनसंख्या 1971 में 5,19,703) में प्राचीन काल से होते आ रहे हैं। चाकू, कैंची बनाना यहाँ का प्राचीन व्यवसाय है। आज शेफील्ड तथा डानकैस्टर के बीच की डान की घाटी इस्पात का मुख्य प्रदेश बन गई है। यार्क-डरबी एवं नाटिंघम की कोयले की खदानों के दक्षिणी सिरे की ओर विभिन्न प्रकार के व्यवसाय होते हैं जिनमें सूती, ऊनी, रेशमी तथा नकली रेशम का उद्योग मुख्य हैं। पेनाइन के पूर्व में उत्तरी सागर के तट तक नीचा मैदान है जिसमें यार्क, यार्कशायर एवं लिंकनशायर के पठार तथा घाटियाँ भी सम्मिलित हैं। यार्कशायर घाटी इंग्लैंड का एक बहुत उपजाऊ प्रदेश है जिसमें गेहूँ की अच्छी खेती होती है। यार्कशायर के पठारों एवं घाटीवाले प्रदेशों में पशुपालन तथा खेती होती है। गेहूँ, जौ तथा चुकंदर यहाँ की मुख्य फसलें हैं। हल इस प्रदेश का महत्वपूर्ण नगर तथा इंग्लैंड का तीसरा बड़ा बंदरगाह है। यहाँ के आयात में दूध, मक्खन, तेलहन, बाल्टिक सागरी प्रदेशों से लकड़ी के लट्ठे और स्वीडन से लोहा मुख्य हैं। निर्यात की जानेवाली वस्तुओं में ऊनी वस्त्र और लोहे तथा इस्पात के सामान मुख्य हैं। लिंकनशायर के पठारों पर भेड़ चराने का कार्य और घाटी में खेती तथा पशुपालन दोनों होते हैं। चुकंदर की खेती पर आश्रित चीनी की कई मिलें भी यहाँ स्थापित हो गई हैं। लिंकन इस प्रदेश का मुख्य नगर है, जो कृषियंत्रों के निर्माण का मुख्य केंद्र है। दक्षिणी पूर्वी लंकाशायर की कोयले की खदानों पर आश्रित लंकाशायर का विश्वविख्यात वस्त्रोद्योग है। यह व्यवसाय लंकाशायर की सीमा पार कर डरबीशायर, चेशायर तथा यार्कशायर प्रदेशों तक फैला हुआ है। यहाँ पर सूती वस्त्रोद्योग के दो प्रकार के नगर हैं : एक प्रेस्टन, ब्लैकबर्न, एकिं्रग्टन तथा बर्नले जैसे नगर हैं जिनमें अधिकतर कपड़े बुनने का कार्य होता है और दूसरे बोल्टनबरी, राचडेल, ओल्ढम, ऐश्टन, स्टैलीब्रिज, हाइड तथा स्टाकपोर्ट जैसे वे नगर हैं जिनमें सूत कातने का कार्य मुख्य रूप से होता है। सूती वस्त्रोद्योग के प्रधान केंद्र मैंचेस्टर (जनसंख्या 1971 में 5,41,468) की ये नगर विभिन्न दिशाओं में घेरे हुए हैं। मैंचेस्टर—शिप--कनाल द्वारा लिवरपुल (जनसंख्या 1971 में 6,06,834) बंदरगाह से संबंधित होने के कारण विदेशों में रुई मँगाकर अन्य नगरों को भेजता है तथा उनके तैयार माल का निर्यात करता है। लंकाशायर के अन्य उद्योगों में कागज, रासायनिक पदार्थ तथा रबर की वस्तुओं का निर्माण मुख्य है। उत्तरी स्टैफर्डशायर की कोयले की खदानों तथा प्रादेशिक मिट्टी पर आश्रित चीनी मिट्टी के व्यवसाय लांगटन, फेंटन तथा स्टोक में स्थापित हैं। लंकाशायर के निचले मैदान हिमपर्वतों की रगड़ एवं जमाव के कारण बने हुए हैं, अत: वे कृषि की अपेक्षा गोपालन के लिए अधिक उपयुक्त हैं। मध्य का मैदान[संपादित करें] इंग्लैंड के मध्य में एक त्रिभुजाकार नीचा मैदान है जिसकी तीन भुजाओं के समांतर तीन मुख्य नदियाँ, उत्तर में ट्रेंट, पूर्व में ऐवान तथा पश्चिम में सेवर्न बहती हैं। भौतिक दृष्टि से यह मैदान लाल बलुए पत्थर तथा चिकनी मिट्टी (क्ले) का बना है। भूमि के अधिकतर भाग का यहाँ स्थायी चारागाह के रूप में उपयोग किया जाता है, फलत: गोपालन मुख्य उद्यम है। परंतु यह प्रदेश उद्योग धंधे के लिए अधिक प्रसिद्ध है। मध्यदेशीय कोयले की खदानों, पूर्वी शापशायर, दक्षिणी स्टैफर्डशायर तथा वारविकशायर की खदानों पर आश्रित अनेक उद्योग धंधे इस प्रदेश में होते हैं। दक्षिणी स्टैफर्डशायर की कोयले की खदानों के निकट व्यावसायिक नगरों का एक जाल सा बिछ गया है जिसकी सम्मिलित जनंसख्या 40 लाख से भी अधिक है। इस प्रदेश के मुख्य नगर बरमिंघम की जनंसख्या ही 10 लाख से अधिक (1971 में 10,13,366) है। कल कारखानों की अधिकता, कोयले के अधिक उपयोग, नगरों के लगातार क्रम तथा खुले स्थलों की न्यूनता के कारण इस प्रदेश को प्राय: "काला प्रदेश" की संज्ञा दी जाती है। प्रारंभ में इस प्रदेश में लोहे का ही कार्य अधिक होता था, परंतु अब यहाँ ताँबा, सीसा, जस्ता, ऐल्यूमीनियम तथा पीतल आदि की भी वस्तुएँ बनने लगी हैं। समुद्रतट से दूर स्थित होने के कारण इस प्रदेश ने उन वस्तुओं के निर्माण में विशेष ध्यान दिया है जिनमें कच्चे माल की अपेक्षा कला की विशेष आवश्यकता पड़ती है, उदाहरणस्वरूप, घड़ियाँ, बंदूकें, सिलाई की मशीनें, वैज्ञानिक यंत्र आदि। मोटरकार के उद्योग के साथ-साथ रबर का उद्योग भी यहाँ स्थापित हो गया है। अन्य उद्योग धंधों में पशुपालन पर आश्रित चमड़े का उद्योग, बिजली की वस्तुओं का निर्माण और कांच उद्योग मुख्य हैं। दक्षिण पूर्वी इंग्लैंड[संपादित करें] मध्य के मैदान के पूर्व में चूने के पत्थर के पठार तथा फेन का मैदानी भाग है। पठारों पर पशुपालन तथा नदियों की घाटियों में खेती होती है। परंतु विलिंगबरो की लोहे की खदान के कारण यहाँ पर कई नगर बस गए हैं। फेन के मैदान में गेहूँ का उत्पादन मुख्य है, परंतु कुछ समय से यहाँ आलू तथा चुकंदर की खेती विशेष होने लगी है। फेन के दक्षिण "चाक" प्रदेश में गोपालन मुख्य पेशा है और यह भाग लंदन की दूध की माँग की पूर्ति करनेवाले प्रदेशों में प्रधान है। पूर्वी ऐंग्लिया इंग्लैंड का मुख्य कृषिप्रधान क्षेत्र है। यहाँ गेहूँ, जौ तथा चुकंदर अधिक उत्पन्न होता है। यहाँ के उद्योग धंधे यहाँ की उत्पन्न वस्तुओं पर आश्रित है। कैंटले तथा ईप्सविक में चुकंदर की चीनी मिलें वारविक में कृषियंत्र तथा शराब बनाने के कारखाने स्थापित हैं। इस प्रदेश के दक्षिण पश्चिम में टेम्स द्रोणी (बेसिन) है। टेम्स नदी काट्सवोल्ड की पहाड़ियों से निकलकर आक्सफार्ड की घाटी को पार करती हुई समुद्र में गिरती है। यह घाटी "आक्सफोर्ड क्ले वेल" के नाम से प्रसिद्ध है जहाँ कृषि एवं गोपालन उद्योग अधिक विकसित हैं। विश्वविख्यात प्राचीन आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय इस घाटी के मध्य में स्थित है। आक्सफोर्ड नगर के बाहरी भागों में मोटर निर्माण का कार्य होता है। लंदन की महत्ता के कारण निचली आक्सफोर्ड द्रोणी को लंदन द्रोणी नाम दिया गया है। लंदन के आसपास की भूमि (केंट, सरे तथा ससेक्स) राजधानी की फल तरकारियों तथा दूध आदि की मांग की पूर्ति के लिए अधिक प्रयुक्त होती है। लंदन नगर कदाचित् रोमनकाल में टेम्स नदी के किनारे उस स्थल पर बसाया गया था जहाँ नदी सरलापर्वूक पार की जा सकती थी। बाद में उस स्थल पर पुल बन जाने से नगर का विकास होता गया। आज लंदन संसार के सबसे बड़े नगरों (1971 ई. में जनसंख्या 73,79,014) में है। इसकी उन्नति के मुख्य कारण हैं टेम्स में ज्वार के साथ बड़े-बड़े जलयानों का नगर के भीतरी भाग तक प्रवेश करने की सुविधा, रेल एवं सड़कों का जाल, यूरोपीय महाद्वीप के संमुख टेम्स के मुहाने की स्थिति, जिससे व्यापार में अत्यधिक सुविधा होती है, लंदन का अधिक काल तक देश एवं साम्राज्य की राजधानी बना रहा तथा अनेक व्यवसायों और रोजगारों का यहाँ खुलना। लंदन द्रोणी के समान ही हैंपशायर द्रोणी है जिसमें साउथैंपटन तथा पोर्ट्स्माउथ नगर स्थित हैं। पहला यात्रियों का महत्वपूर्ण बंदरगाह तथा दूसरा नौसेना का मुख्य केंद्र है। इंग्लैंड के दक्षिण पूर्व में "आइल ऑव वाइट" नाम का एक छोटा सा द्वीप है (क्षेत्रफल 147 वर्ग मी)। गर्मी की ऋतु में यहाँ पर लोग स्वास्थ्यलाभ और मनोरंजन के लिए आते हैं। इतिहास[संपादित करें] मुख्य लेख : इंग्लैंड का इतिहास ईसा के आसपास यह रोमन साम्राज्य का अंश बना पर अधिक दिनों तक यह रोमन साम्राज्य के अधीन नहीं रह सका। केल्टिक तथा नार्मनों का अधिपत्य ग्यारहवीं सदी तक रहा। पुनर्जागरण के समय कवि तथा नाटककार शेक्सपियर ने यूरोपीय जनमानस को बहुत प्रभावित किया। सन् १५७८ में एक अंग्रेज़ अधिकारी को लिस्बन की ओर जाते हुए एक पुर्तगाली जहाज को लूटने से भारत आने के मार्ग का पता चला। इसके बाद ब्रिटिश नाविकों में भारत के साथ व्यापार की इच्छा प्रबल हो गई। १६०० में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का स्थापना हुई। इसके बाद विश्व के कई स्थानों पर ब्रिटिश नाविक व्यापर करने पहुँचे। अठारहवीं सदी के अन्त तक कई जगहों पर वे राजनैतिक रूप से स्थापित हो गए। इसी समय हुई औद्योगिक क्रांति से देश की नौसेना तथा सेना सबल हो गई और अपनी सैनिक सक्ति के बल पर वे विभिन्न स्थानों पर अधिकार करने लगे। बीसवीं सदी के मध्य तक उनके पाँव दुनिया के देशों से उखड़ने लगे और अपने उपनिवेशों को उन्हें स्वतंत्र करना पड़ा। इंग्लैंड आज एक परमाणु सम्पन्न देश है तथा आर्थिक रूप से समृद्ध है। अमेरिका का सहयोगी होने के नाते और विश्व के कई देशों की राजनीति में औपनिवेशिक काल से संलग्न होने के कारण इसका राजनैतिक वर्चस्व आज भी विद्यमान है। इन्हें भी देखें[संपादित करें] यूनियन जेक %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। चीनी के बाद यह विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा भी है। हिन्दी और इसकी बोलियाँ उत्तर एवं मध्य भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। भारत और अन्य देशों में ६० करोड़ से अधिक लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम की अधिकतर और नेपाल की कुछ जनता हिन्दी बोलती है। हिन्दी राष्ट्रभाषा, राजभाषा, सम्पर्क भाषा, जनभाषा के सोपानों को पार कर विश्वभाषा बनने की ओर अग्रसर है। भाषा विकास क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी हिन्दी प्रेमियों के लिए बड़ी सन्तोषजनक है कि आने वाले समय में विश्वस्तर पर अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की जो चन्द भाषाएँ होंगी उनमें हिन्दी भी प्रमुख होगी। अनुक्रम [छुपाएँ] 1 हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति 2 हिन्दी एवं उर्दू 3 परिवार 4 हिन्दी का निर्माण-काल 5 इतिहास क्रम 6 हिन्दी की विशेषताएँ एवं शक्ति 6.1 हिन्दी के विकास की अन्य विशेषताएँ 7 हिन्दी का मानकीकरण 8 हिन्दी की शैलियाँ 9 हिन्दी की बोलियाँ 10 शब्दावली 11 स्वर शास्त्र 11.1 स्वर 11.2 व्यंजन 11.3 नुक़्तायुक्त ध्वनियाँ 12 भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी 13 हिन्दी की गिनती 14 व्याकरण 15 हिन्दी और कम्प्यूटर 16 हिन्दी और जनसंचार 17 हिन्दी का वैश्विक प्रसार 18 संदर्भ 19 इन्हें भी देखें 20 बाहरी कड़ियाँ हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति हिन्दी शब्द का सम्बन्ध संस्कृत शब्द सिन्धु से माना जाता है। 'सिन्धु' सिन्ध नदी को कहते थे और उसी आधार पर उसके आस-पास की भूमि को सिन्धु कहने लगे। यह सिन्धु शब्द ईरानी में जाकर ‘हिन्दू’, हिन्दी और फिर ‘हिन्द’ हो गया बाद में ईरानी धीरे-धीरे भारत के अधिक भागों से परिचित होते गए और इस शब्द के अर्थ में विस्तार होता गया तथा हिन्द शब्द पूरे भारत का वाचक हो गया। इसी में ईरानी का ईक प्रत्यय लगने से (हिन्द ईक) ‘हिन्दीक’ बना जिसका अर्थ है ‘हिन्द का’। यूनानी शब्द ‘इन्दिका’ या अंग्रेजी शब्द ‘इण्डिया’ आदि इस ‘हिन्दीक’ के ही विकसित रूप हैं। हिन्दी भाषा के लिए इस शब्द का प्राचीनतम प्रयोग शरफुद्दीन यज्+दी’ के ‘जफरनामा’(१४२४) में मिलता है। प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन ने अपने " हिन्दी एवं उर्दू का अद्वैत " शीर्षक आलेख में हिन्दी की व्युत्पत्ति पर विचार करते हुए कहा है कि ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में 'स्' ध्वनि नहीं बोली जाती थी। 'स्' को 'ह्' रूप में बोला जाता था। जैसे संस्कृत के 'असुर' शब्द को वहाँ 'अहुर' कहा जाता था। अफ़ग़ानिस्तान के बाद सिन्धु नदी के इस पार हिन्दुस्तान के पूरे इलाके को प्राचीन फ़ारसी साहित्य में भी 'हिन्द', 'हिन्दुश' के नामों से पुकारा गया है तथा यहाँ की किसी भी वस्तु, भाषा, विचार को 'एडजेक्टिव' के रूप में 'हिन्दीक' कहा गया है जिसका मतलब है 'हिन्द का'। यही 'हिन्दीक' शब्द अरबी से होता हुआ ग्रीक में 'इन्दिके', 'इन्दिका', लैटिन में 'इन्दिया' तथा अंग्रेज़ी में 'इण्डिया' बन गया। अरबी एवँ फ़ारसी साहित्य में हिन्दी में बोली जाने वाली भाषाओं के लिए 'ज़बान-ए-हिन्दी', पद का उपयोग हुआ है। भारत आने के बाद मुसलमानों ने 'ज़बान-ए-हिन्दी', 'हिन्दी जुबान' अथवा 'हिन्दी' का प्रयोग दिल्ली-आगरा के चारों ओर बोली जाने वाली भाषा के अर्थ में किया। भारत के गैर-मुस्लिम लोग तो इस क्षेत्र में बोले जाने वाले भाषा-रूप को 'भाखा' नाम से पुकराते थे, 'हिन्दी' नाम से नहीं। हिन्दी एवं उर्दू मुख्य लेख : हिन्दी एवं उर्दू भाषाविद हिन्दी एवं उर्दू को एक ही भाषा समझते है। हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और शब्दावली के स्तर पर अधिकांशत: संस्कृत के शब्दों का प्रयोग करती है। उर्दू, फ़ारसी लिपि में लिखी जाती है और शब्दावली के स्तर पर उस पर फ़ारसी और अरबी भाषाओं का प्रभाव अधिक है। व्याकरणिक रुप से उर्दू और हिन्दी में लगभग शत-प्रतिशत समानता है। केवल कुछ विशेष क्षेत्रों में शब्दावली के स्त्रोत (जैसा कि ऊपर लिखा गया है) में अंतर होता है। कुछ विशेष ध्वनियाँ उर्दू में अरबी और फ़ारसी से ली गयी हैं और इसी प्रकार फ़ारसी और अरबी की कुछ विशेष व्याकरणिक संरचना भी प्रयोग की जाती है। उर्दू और हिन्दी को खड़ी बोली की दो शैलियाँ कहा जा सकता है। परिवार हिन्दी हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार परिवार के अन्दर आती है। ये हिन्द ईरानी शाखा की हिन्द आर्य उपशाखा के अन्तर्गत वर्गीकृत है। हिन्द-आर्य भाषाएँ वो भाषाएँ हैं जो संस्कृत से उत्पन्न हुई हैं। उर्दू, कश्मीरी, बंगाली, उड़िया, पंजाबी, रोमानी, मराठी नेपाली जैसी भाषाएँ भी हिन्द-आर्य भाषाएँ हैं। हिन्दी का निर्माण-काल अपभ्रंश की समाप्ति और आधुनिक भारतीय भाषाओं के जन्मकाल के समय को संक्रांतिकाल कहा जा सकता है। हिन्दी का स्वरूप शौरसेनी और अर्धमागधी अपभ्रंशों से विकसित हुआ है। १००० ई. के आसपास इसकी स्वतंत्र सत्ता का परिचय मिलने लगा था, जब अपभ्रंश भाषाएँ साहित्यिक संदर्भों में प्रयोग में आ रही थीं। यही भाषाएँ बाद में विकसित होकर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के रूप में अभिहित हुईं। अपभ्रंश का जो भी कथ्य रुप था - वही आधुनिक बोलियों में विकसित हुआ। अपभ्रंश के सम्बंध में ‘देशी’ शब्द की भी बहुधा चर्चा की जाती है। वास्तव में ‘देशी’ से देशी शब्द एवं देशी भाषा दोनों का बोध होता है। प्रश्न यह कि देशीय शब्द किस भाषा के थे ? भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में उन शब्दों को ‘देशी’ कहा है ‘जो संस्कृत के तत्सम एवं सद्भव रूपों से भिन्न है। ये ‘देशी’ शब्द जनभाषा के प्रचलित शब्द थे, जो स्वभावतया अप्रभंश में भी चले आए थे। जनभाषा व्याकरण के नियमों का अनुसरण नहीं करती, परंतु व्याकरण को जनभाषा की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करना पड़ता है, प्राकृत-व्याकरणों ने संस्कृत के ढाँचे पर व्याकरण लिखे और संस्कृत को ही प्राकृत आदि की प्रकृति माना। अतः जो शब्द उनके नियमों की पकड़ में न आ सके, उनको देशी संज्ञा दी गई। इतिहास क्रम मुख्य लेख : हिन्दी भाषा का इतिहास हिन्‍दी भाषा का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना माना गया है। हिन्‍दी भाषा व साहित्‍य के जानकार अपभ्रंश की अंतिम अवस्‍था 'अवहट्ठ' से हिन्‍दी का उद्भव स्‍वीकार करते हैं। चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने इसी अवहट्ठ को 'पुरानी हिन्‍दी' नाम दिया। हिन्दी की विशेषताएँ एवं शक्ति हिंदी भाषा के उज्ज्वल स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी गुणवत्ता, क्षमता, शिल्प-कौशल और सौंदर्य का सही-सही आकलन किया जाए। यदि ऐसा किया जा सके तो सहज ही सब की समझ में यह आ जाएगा कि - संसार की उन्नत भाषाओं में हिंदी सबसे अधिक व्यवस्थित भाषा है। वह सबसे अधिक सरल भाषा है। वह सबसे अधिक लचीली भाषा है। वह एक मात्र ऐसी भाषा है जिसके अधिकतर नियम अपवादविहीन है। वह सच्चे अर्थों में विश्व भाषा बनने की पूर्ण अधिकारी है। हिन्दी लिखने के लिये प्रयुक्त देवनागरी लिपि अत्यन्त वैज्ञानिक है। हिन्दी को संस्कृत शब्दसंपदा एवं नवीन शब्द-रचना-सामर्थ्य विरासत में मिली है। वह देशी भाषाओं एवं अपनी बोलियों आदि से शब्द लेने में संकोच नहीं करती। अंग्रेजी के मूल शब्द लगभग १०,००० हैं, जबकि हिन्दी के मूल शब्दों की संख्या ढाई लाख से भी अधिक है। हिन्दी बोलने एवं समझने वाली जनता पचास करोड़ से भी अधिक है। हिन्दी का साहित्य सभी दृष्टियों से समृद्ध है। हिन्दी आम जनता से जुड़ी भाषा है तथा आम जनता हिन्दी से जुड़ी हुई है। हिन्दी कभी राजाश्रय की मोहताज नहीं रही। भारत के स्वतंत्रता-संग्राम की वाहिका और वर्तमान में देशप्रेम का अमूर्त-वाहन भारत की सम्पर्क भाषा भारत की राजभाषा हिन्दी के विकास की अन्य विशेषताएँ हिन्दी पत्रकारिता का आरम्भ भारत के उन क्षेत्रों से हुआ जो हिन्दी-भाषी नहीं थे/हैं (कोलकाता, लाहौर आदि। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आन्दोलन अहिन्दी भाषियों (महात्मा गांधी, दयानन्द सरस्वती आदि) ने आरम्भ किया। हिन्दी भाषा सदा से उत्तर-दक्षिण के भेद से परे चहुंदिशी व्यावहारिक होती चली आई है। उदाहरण के लिये दक्षिण के प्रमुख संतो वल्लभाचार्य, विट्ठल, रामानुज, रामानन्द आदि महाराष्ट्र के नामदेव तथा संत ज्ञानेश्वर, गुजरात के नरसी मेहता, राजस्थान के दादू, रज्जव, मीराबाई, पंजाब के गुरु नानक, असम के शंकरदेव, बंगाल के चैतन्य महाप्रभु तथा सूफी संतो ने अपने धर्म और संस्कृति का प्रचार हिन्दी में ही किया है। इन्होने एक मात्र सशक्त साधन हिन्दी को ही माना था। हिन्दी पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी है। हिन्दी के विकास में राजाश्रय का कोई स्थान नहीं है; इसके विपरीत, हिन्दी का सबसे तेज विकास उस दौर में हुआ जब हिन्दी अंग्रेजी-शासन का मुखर विरोध कर रही थी। जब-जब हिन्दी पर दबाव पड़ा, वह अधिक शक्तिशाली होकर उभरी है। जब बंगाल, उड़ीसा, गुजरात तथा महाराष्ट्र में उनकी अपनी भाषाएँ राजकाज तथा न्यायालयों की भाषा बन चुकी थी उस समय भी संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश) की भाषा हिन्दुस्तानी थी (और उर्दू को ही हिन्दुस्तानी माना जाता था जो फारसी लिपि में लिखी जाती थी)। १९वीं शताब्दी तक उत्तर प्रदेश की राजभाषा के रूप में हिन्दी का कोई स्थान नहीं था। परन्तु २०वीं सदी के मध्यकाल तक वह भारत की राष्ट्रभाषा बन गई। हिन्दी के विकास में पहले साधु-संत एवं धार्मिक नेताओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा। उसके बाद हिन्दी पत्रकारिता एवं स्वतंत्रता संग्राम से बहुत मदद मिली; फिर बंबइया फिल्मों से सहायता मिली और अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (टीवी) के कारण हिन्दी समझने-बोलने वालों की संख्या में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। हिन्दी का मानकीकरण मुख्य लेख : हिन्दी वर्तनी मानकीकरण स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से हिन्दी और देवनागरी के मानकीकरण की दिशा में निम्नलिखित क्षेत्रों में प्रयास हुये हैं :- हिन्दी व्याकरण का मानकीकरण वर्तनी का मानकीकरण शिक्षा मंत्रालय के निर्देश पर केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा देवनागरी का मानकीकरण वैज्ञानिक ढंग से देवनागरी लिखने के लिये एकरूपता के प्रयास यूनिकोड का विकास हिन्दी की शैलियाँ भाषाविदों के अनुसार हिन्दी के चार प्रमुख रूप या शैलियाँ हैं : (१) उच्च हिन्दी - हिन्दी का मानकीकृत रूप, जिसकी लिपि देवनागरी है। इसमें संस्कृत भाषा के कई शब्द है, जिन्होंने फ़ारसी और अरबी के कई शब्दों की जगह ले ली है। इसे शुद्ध हिन्दी भी कहते हैं। आजकल इसमें अंग्रेज़ी के भी कई शब्द आ गये हैं (ख़ास तौर पर बोलचाल की भाषा में)। यह खड़ीबोली पर आधारित है, जो दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में बोली जाती थी। (२) दक्खिनी - हिन्दी का वह रूप जो हैदराबाद और उसके आसपास की जगहों में बोला जाता है। इसमें फ़ारसी-अरबी के शब्द उर्दू की अपेक्षा कम होते हैं। (३) रेख़्ता - उर्दू का वह रूप जो शायरी में प्रयुक्त होता है। (३) उर्दू - हिन्दी का वह रूप जो देवनागरी लिपि के बजाय फ़ारसी-अरबी लिपि में लिखा जाता है। इसमें संस्कृत के शब्द कम होते हैं, और फ़ारसी-अरबी के शब्द अधिक। यह भी खड़ीबोली पर ही आधारित है। हिन्दी और उर्दू दोनों को मिलाकर हिन्दुस्तानी भाषा कहा जाता है। हिन्दुस्तानी मानकीकृत हिन्दी और मानकीकृत उर्दू के बोलचाल की भाषा है। इसमें शुद्ध संस्कृत और शुद्ध फ़ारसी-अरबी दोनों के शब्द कम होते हैं और तद्भव शब्द अधिक। उच्च हिन्दी भारतीय संघ की राजभाषा है (अनुच्छेद ३४३, भारतीय संविधान)। यह इन भारयीय राज्यों की भी राजभाषा है : उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तरांचल, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली। इन राज्यों के अतिरिक्त महाराष्ट्र, गुजरात, पश्चिम बंगाल, पंजाब (भारत) और हिन्दी भाषी राज्यों से लगते अन्य राज्यों में भी हिन्दी बोलने वालों की अच्छी संख्या है। उर्दू पाकिस्तान की और भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर की राजभाषा है। यह लगभग सभी ऐसे राज्यों की सह-राजभाषा है; जिनकी मुख्य राजभाषा हिन्दी है। दुर्भाग्यवश हिन्दुस्तानी को कहीं भी संवैधानिक दर्जा नहीं मिला हुआ है। हिन्दी की बोलियाँ मुख्य लेख : हिंदी की विभिन्न बोलियाँ और उनका साहित्य हिन्दी का क्षेत्र विशाल है तथा हिन्दी की अनेक बोलियाँ (उपभाषाएँ) हैं। इनमें से कुछ में अत्यंत उच्च श्रेणी के साहित्य की रचना भी हुई है। ऐसी बोलियों में ब्रजभाषा और अवधी प्रमुख हैं। ये बोलियाँ हिन्दी की विविधता हैं और उसकी शक्ति भी। वे हिन्दी की जड़ों को गहरा बनाती हैं। हिन्दी की बोलियाँ और उन बोलियों की उपबोलियाँ हैं जो न केवल अपने में एक बड़ी परंपरा, इतिहास, सभ्यता को समेटे हुए हैं वरन स्वतंत्रता संग्राम, जनसंघर्ष, वर्तमान के बाजारवाद के खिलाफ भी उसका रचना संसार सचेत है।[4] हिन्दी की बोलियों में प्रमुख हैं- अवधी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुंदेली, बघेली, भोजपुरी, हरयाणवी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, झारखंडी, कुमाउँनी, मगही आदि। किन्तु हिंदी के मुख्य दो भेद हैं - पश्चिमी हिंदी तथा पूर्वी हिंदी। शब्दावली हिन्दी शब्दावली में मुख्यतः दो वर्ग हैं- तत्सम शब्द- ये वो शब्द हैं जिनको संस्कृत से बिना कोई रूप बदले ले लिया गया है। जैसे अग्नि, दुग्ध दन्त, मुख। तद्भव शब्द- ये वो शब्द हैं जिनका जन्म संस्कृत या प्राकृत में हुआ था, लेकिन उनमें काफ़ी ऐतिहासिक बदलाव आया है। जैसे— आग, दूध, दाँत, मुँह। इसके अतिरिक्त हिन्दी में कुछ देशज शब्द भी प्रयुक्त होते हैं। देशज का अर्थ है - 'जो देश में ही उपजा या बना हो'। जो न तो विदेशी हो और न किसी दूसरी भाषा के शब्द से बना है। ऐसा शब्द जो न संस्कृत हो, न संस्कृत का अपभ्रंश हो और न किसी दूसरी भाषा के शब्द से बना हो, बल्कि किसी प्रदेश के लोगों ने बोल-चाल में जों ही बना लिया हो। जैसे- खटिया, लुटिया इसके अलावा हिन्दी में कई शब्द अरबी, फ़ारसी, तुर्की, अंग्रेज़ी आदि से भी आये हैं। इन्हें विदेशी शब्द कह सकते हैं। जिस हिन्दी में अरबी, फ़ारसी और अंग्रेज़ी के शब्द लगभग पूरी तरह से हटा कर तत्सम शब्दों को ही प्रयोग में लाया जाता है, उसे "शुद्ध हिन्दी" कहते हैं। स्वर शास्त्र मुख्य लेख : हिंदी स्वरविज्ञान देवनागरी लिपि में हिन्दी की ध्वनियाँ इस प्रकार हैं : स्वर ये स्वर आधुनिक हिन्दी (खड़ीबोली) के लिये दिये गये हैं। वर्णाक्षर “प” के साथ मात्रा आईपीए उच्चारण "प्" के साथ उच्चारण IAST समतुल्य अंग्रेज़ी समतुल्य हिन्दी में वर्णन अ प / ə / / pə / a short or long en:Schwa: as the a in above or ago बीच का मध्य प्रसृत स्वर आ पा / α: / / pα: / ā long en:Open back unrounded vowel: as the a in father दीर्घ विवृत पश्व प्रसृत स्वर इ पि / i / / pi / i short en:close front unrounded vowel: as i in bit ह्रस्व संवृत अग्र प्रसृत स्वर ई पी / i: / / pi: / ī long en:close front unrounded vowel: as i in machine दीर्घ संवृत अग्र प्रसृत स्वर उ पु / u / / pu / u short en:close back rounded vowel: as u in put ह्रस्व संवृत पश्व वर्तुल स्वर ऊ पू / u: / / pu: / ū long en:close back rounded vowel: as oo in school दीर्घ संवृत पश्व वर्तुल स्वर ए पे / e: / / pe: / e long en:close-mid front unrounded vowel: as a in game (not a diphthong) दीर्घ अर्धसंवृत अग्र प्रसृत स्वर ऐ पै / æ: / / pæ: / ai long en:near-open front unrounded vowel: as a in cat दीर्घ लगभग-विवृत अग्र प्रसृत स्वर ओ पो / ο: / / pο: / o long en:close-mid back rounded vowel: as o in tone (not a diphthong) दीर्घ अर्धसंवृत पश्व वर्तुल स्वर औ पौ / ɔ: / / pɔ: / au long en:open-mid back rounded vowel: as au in caught दीर्घ अर्धविवृत पश्व वर्तुल स्वर / ɛ / / pɛ / short en:open-mid front unrounded vowel: as e in get ह्रस्व अर्धविवृत अग्र प्रसृत स्वर इसके अलावा हिन्दी और संस्कृत में ये वर्णाक्षर भी स्वर माने जाते हैं : ऋ — आधुनिक हिन्दी में "रि" की तरह अं — पंचचम वर्ण - न्, म्, ङ्, ञ्, ण् के लिए या स्वर का नासिकीकरण करने के लिए (अनुस्वार) अँ — स्वर का अनुनासिकीकरण करने के लिए (चन्द्रबिन्दु) अः — अघोष "ह्" (निःश्वास) के लिए (विसर्ग) व्यंजन जब किसी स्वर प्रयोग नहीं हो, तो वहाँ पर 'अ' माना जाता है। स्वर के न होने को हलन्त्‌ अथवा विराम से दर्शाया जाता है। जैसे क्‌ ख्‌ ग्‌ घ्‌। %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 भारत (/ˈɪndiə/) आधिकारिक नाम भारत गणराज्य (अंग्रेज़ी:Republic of India, रिपब्लिक ऑफ़ इंडिया) दक्षिण एशिया में स्थित भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा देश है। पूर्ण रूप से उत्तरी गोलार्ध में स्थित भारत, भौगोलिक दृष्टि से विश्व में सातवाँ सबसे बड़ा और जनसंख्या के दृष्टिकोण से दूसरा सबसे बड़ा देश है। भारत के पश्चिम में पाकिस्तान, उत्तर-पूर्व में चीन, नेपाल और भूटान, पूर्व में बांग्लादेश और म्यान्मार और उत्तर पश्चिम में अफगानिस्तान देश स्थित हैं। हिन्द महासागर में इसके दक्षिण पश्चिम में मालदीव, दक्षिण में श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व में इंडोनेशिया से भारत की सामुद्रिक सीमा लगती है। इसके उत्तर की भौतिक सीमा हिमालय पर्वत से और दक्षिण में हिन्द महासागर से लगी हुई है। पूर्व में बंगाल की खाड़ी है तथा पश्चिम में अरब सागर हैं। प्राचीन सिन्धु घाटी सभ्यता, व्यापार मार्गों और बड़े-बड़े साम्रज्यों का विकास स्थान रहे भारतीय उपमहाद्वीप को इसके सांस्कृतिक और आर्थिक सफलता के लंबे इतिहास के लिये जाना जाता रहा है। चार प्रमुख संप्रदायों: हिंदुत्व, बौद्ध, जैन और सिख धर्मों का यहां उदय हुआ, ज़ोरो-एस्ट्रियनी, यहूदी, ईसाई, और मुस्लिम धर्म प्रथम सहस्राब्दी में यहां पहुचे और यहां की विविध संस्कृति को नया रूप दिया। क्रमिक विजयों के परिणामस्वरूप ब्रिटिश ईस्ट ईण्डिया कंपनी ने १८वीं और १९वीं सदी में भारत के ज़्यादतर हिस्सों को अपने राज्य में मिला लिया। १८५७ के विफल विद्रोह के बाद भारत के प्रशासन का भार ब्रिटिश सरकार ने अपने ऊपर ले लिया। ब्रिटिश भारत के रूप में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रमुख अंग भारत ने १९४७ में महात्मा गांधी के नेतृत्व में एक लम्बे और मुख्य रूप से अहिंसक स्वतन्त्रता संग्राम के बाद आज़ादी पाई। १९५० में लागू हुए नये संविधान में इसे सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के आधार पर स्थापित संवैधानिक लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित कर दिया गया और युनाईटेड किंगडम की तर्ज़ पर वेस्टमिंस्टर शैली की संसदीय सरकार स्थापित की गयी। एक संघीय राष्ट्र, भारत को २९ राज्यों और ७ संघ शासित प्रदेशों में गठित किया गया है। लम्बे समय तक समाजवादी आर्थिक नीतियों का पालन करने के बाद 1991 के पश्चात् भारत ने उदारीकरण और वैश्वीकरण की नयी नीतियों के आधार पर सार्थक आर्थिक और सामाजिक प्रगति की है। ३३ लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के साथ भारत भौगोलिक क्षेत्रफल के आधार पर विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा राष्ट्र है। वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था क्रय शक्ति समता के आधार पर विश्व की तीसरी[12] और मानक मूल्यों के आधार पर विश्व की दसवीं सबसे बडी अर्थव्यवस्था है। १९९१ के बाज़ार-आधारित सुधारों के बाद भारत विश्व की सबसे तेज़ विकसित होती बड़ी अर्थ-व्यवस्थाओं में से एक हो गया है और इसे एक नव-औद्योगिकृत राष्ट्र माना जाता है। परंतु भारत के सामने अभी भी गरीबी, भ्रष्टाचार, कुपोषण, अपर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य-सेवा और आतंकवाद की चुनौतियां हैं। आज भारत एक विविध, बहुभाषी, और बहु-जातीय समाज है और भारतीय सेना एक क्षेत्रीय शक्ति है। अनुक्रम [छुपाएँ] 1 नामोत्पत्ति 2 मिथकीय इतिहास 3 राष्ट्रीय प्रतीक 4 इतिहास 5 सरकार 6 राजनीति 7 सैनि‍क शक्ति 8 राज्य और केन्द्रशासित प्रदेश 9 भाषाएँ 10 भूगोल और जलवायु 10.1 भू-आकृतिक विशेषतायें 10.2 जलवायु 11 अर्थव्यवस्था 12 जनसांख्यिकी 13 संस्कृति 14 विदेश-सम्बन्ध 15 सन्दर्भ 16 इन्हें भी देखें 17 बाहरी कड़ियाँ नामोत्पत्ति मुख्य लेख : भारत नाम की उत्पत्ति भारत के दो आधिकारिक नाम हैं- हिन्दी में भारत और अंग्रेज़ी में इण्डिया (India)। इण्डिया नाम की उत्पत्ति सिन्धु नदी के अंग्रेजी नाम "इण्डस" से हुई है।[13] भारत नाम, एक प्राचीन हिन्दू सम्राट भरत जो कि मनु के वंशज ऋषभदेव के सबसे बड़े बेटे थे और जिनकी कथा श्रीमद्भागवत महापुराण में है, के नाम से लिया गया है। भारत (भा + रत) शब्द का मतलब है आन्तरिक प्रकाश या विदेक-रूपी प्रकाश में लीन। एक तीसरा नाम हिन्दुस्तान भी है जिसका अर्थ हिन्द (हिन्दू) की भूमि, यह नाम विशेषकर अरब/ईरान में प्रचलित हुआ। इसका समकालीन उपयोग कम और प्रायः उत्तरी भारत के लिए होता है। इसके अतिरिक्त भारतवर्ष को वैदिक काल से आर्यावर्त "जम्बूद्वीप" और "अजनाभदेश" के नाम से भी जाना जाता रहा है। बहुत पहले भारत का एक मुंहबोला नाम 'सोने की चिड़िया' भी प्रचलित था।[14] मिथकीय इतिहास प्राचीन हिन्दू मिथकों के अनुसार भारत को एक सनातन राष्ट्र माना जाता है क्योंकि यह मानव-सभ्यता का पहला राष्ट्र था। श्रीमद्भागवत के पञ्चम स्कन्ध में भारत राष्ट्र की स्थापना का वर्णन आता है। भारतीय दर्शन के अनुसार सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात ब्रह्मा के मानस पुत्र स्वयंभू मनु ने व्यवस्था संभाली । इनके दो पुत्र, प्रियव्रत और उत्तानपाद थे। उत्तानपाद भक्त ध्रुव के पिता थे। इन्हीं प्रियव्रत के दस पुत्र थे। तीन पुत्र बाल्यकाल से ही विरक्त थे। इस कारण प्रियव्रत ने पृथ्वी को सात भागों में विभक्त कर एक-एक भाग प्रत्येक पुत्र को सौंप दिया। इन्हीं में से एक थे आग्नीध्र जिन्हें जम्बूद्वीप का शासन कार्य सौंपा गया। वृद्धावस्था में आग्नीध्र ने अपने नौ पुत्रों को जम्बूद्वीप के विभिन्न नौ स्थानों का शासन दायित्व सौंपा। इन नौ पुत्रों में सबसे बड़े थे नाभि जिन्हें हिमवर्ष का भू-भाग मिला। इन्होंने हिमवर्ष को स्वयं के नाम अजनाभ से जोड़ कर अजनाभवर्ष प्रचारित किया। यह हिमवर्ष या अजनाभवर्ष ही प्राचीन भारत देश था। राजा नाभि के पुत्र थे ऋषभ। ऋषभदेव के सौ पुत्रों में भरत ज्येष्ठ एवं सबसे गुणवान थे। ऋषभदेव ने वानप्रस्थ लेने पर उन्हें राजपाट सौंप दिया। पहले भारतवर्ष का नाम ॠषभदेव के पिता नाभिराज के नाम पर अजनाभवर्ष प्रसिद्ध था। भरत के नाम से ही लोग अजनाभखण्ड को भारतवर्ष कहने लगे। राष्ट्रीय प्रतीक Flag of भारत भारत के राष्ट्रीय प्रतीक ध्वज तिरंगा राष्ट्रीय चिह्न अशोक की लाट राष्ट्र-गान जन गण मन राष्ट्र-गीत वन्दे मातरम् पशु बाघ जलीय जीव गंगा डालफिन पक्षी मोर पुष्प कमल वृक्ष बरगद फल आम खेल मैदानी हॉकी पञ्चांग शक संवत संदर्भ "भारत के राष्ट्रीय प्रतीक" भारतीय दूतावास, लन्दन Retreived ०३-०९-२००७ भारत का राष्ट्रीय चिह्न सारनाथ स्थित अशोक स्तंभ की अनुकृति है जो सारनाथ के संग्रहालय में सुरक्षित है। भारत सरकार ने यह चिह्न २६ जनवरी १९५० को अपनाया। उसमें केवल तीन सिंह दिखाई पड़ते हैं, चौथा सिंह दृष्टिगोचर नहीं है। राष्ट्रीय चिह्न के नीचे देवनागरी लिपि में 'सत्यमेव जयते' अंकित है। भारत के राष्ट्रीय झंडे में तीन समांतर आयताकार पट्टियाँ हैं। ऊपर की पट्टी केसरिया रंग की, मध्य की पट्टी सफेद रंग की तथा नीचे की पट्टी गहरे हरे रंग की है। झंडे की लंबाई चौड़ाई का अनुपात 3:2 का है। सफेद पट्टी पर चर्खे की जगह सारनाथ के सिंह स्तंभ वाले धर्मचक्र की अनुकृति है जिसका रंग गहरा नीला है। चक्र का व्यास लगभग सफेद पट्टी के चौड़ाई जितना है और उसमें २४ अरे हैं। कवि रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखित 'जन-गण-मन' के प्रथम अंश को भारत के राष्ट्रीय गान के रूप में २४ जनवरी १९५० ई. को अपनाया गया। साथ-साथ यह भी निर्णय किया गया कि बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा लिखित 'वंदे मातरम्' को भी 'जन-गण-मन' के समान ही दर्जा दिया जाएगा, क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम में 'वंदे मातरम्' गान जनता का प्रेरणास्रोत था। भारत सरकार ने देश भर के लिए राष्ट्रीय पंचांग के रूप में शक संवत् को अपनाया है। इसका प्रथम मास 'चैत' है और वर्ष सामान्यत: ३६५ दिन का है। इस पंचांग के दिन स्थायी रूप से अंग्रेजी पंचांग के मास दिनों के अनुरूप बैठते हैं। सरकारी कार्यो के लिए ग्रेगरी कैलेंडर (अंग्रेजी कैलेंडर) के साथ-साथ राष्ट्रीय पंचांग का भी प्रयोग किया जाता है। इतिहास मुख्य लेख : भारत का इतिहास तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक द्वारा बनाया गया मध्य प्रदेश में साँची का स्तूप पाषाण युग भीमबेटका मध्य प्रदेश की गुफाएँ भारत में मानव जीवन का प्राचीनतम प्रमाण हैं। प्रथम स्थाई बस्तियों ने ९००० वर्ष पूर्व स्वरुप लिया। यही आगे चल कर सिन्धु घाटी सभ्यता में विकसित हुई, जो २६०० ईसा पूर्व और १९०० ईसा पूर्व के मध्य अपने चरम पर थी।[15] लगभग १६०० ईसा पूर्व आर्य भारत आए और उन्होंने उत्तर भारतीय क्षेत्रों में वैदिक सभ्यता का सूत्रपात किया। इस सभ्यता के स्रोत वेद और पुराण हैं। किन्तु आर्य-आक्रमण-सिद्धांत अभी तक विवादस्पद है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक सहित कुछ विद्वानों की मान्यता यह है कि आर्य भारतवर्ष के ही स्थायी निवासी रहे हैं तथा वैदिक इतिहास करीब ७५,००० वर्ष प्राचीन है।[16] इसी समय दक्षिण भारत में द्रविड़ सभ्यता का विकास होता रहा। दोनों जातियों ने एक दूसरे की खूबियों को अपनाते हुए भारत में एक मिश्रित-संस्कृति का निर्माण किया। ५०० ईसवी पूर्व कॆ बाद कई स्वतंत्र राज्य बन गए। भारत के प्रारम्भिक राजवंशों में उत्तर भारत का मौर्य राजवंश उल्लेखनीय है जिसके प्रतापी सम्राट अशोक का विश्व इतिहास में विशेष स्थान है।[17] १८० ईसवी के आरम्भ से मध्य एशिया से कई आक्रमण हुए, जिनके परिणामस्वरूप उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप में यूनानी, शक, पार्थी और अंततः कुषाण राजवंश स्थापित हुए। तीसरी शताब्दी के आगे का समय जब भारत पर गुप्त वंश का शासन था, भारत का "स्वर्णिम काल" कहलाया।"[18][19] दक्षिण भारत में भिन्न-भिन्न काल-खण्डों में कई राजवंश चालुक्य, चेर, चोल, पल्लव तथा पांड्य रहे। ईसा के आस-पास संगम-साहित्य अपने चरम पर था, जिसमें तमिळ भाषा का परिवर्धन हुआ। सातवाहनों और चालुक्यों ने मध्य भारत में अपना वर्चस्व स्थापित किया। विज्ञान, कला, साहित्य, गणित, खगोलशास्त्र, प्राचीन प्रौद्योगिकी, धर्म, तथा दर्शन इन्हीं राजाओं के शासनकाल में फले-फूले। १२वीं शताब्दी के प्रारंभ में, भारत पर इस्लामी आक्रमणों के पश्चात, उत्तरी व केन्द्रीय भारत का अधिकांश भाग दिल्ली सल्तनत के शासनाधीन हो गया; और बाद में, अधिकांश उपमहाद्वीप मुगल वंश के अधीन। दक्षिण भारत में विजयनगर साम्राज्य शक्तिशाली निकला। हालाँकि, विशेषतः तुलनात्मक रूप से, संरक्षित दक्षिण में अनेक राज्य शेष रहे, अथवा अस्तित्व में आये। मुगलों के संक्षिप्त अधिकार के बाद सत्रहवीं सदी में दक्षिण और मध्य भारत में मराठों का उत्कर्ष हुआ। उत्तर पश्चिम में सिक्खों की शक्ति में वृद्धि हुई। १७वीं शताब्दी के मध्यकाल में पुर्तगाल, डच, फ्रांस, ब्रिटेन सहित अनेक यूरोपीय देशों, जो भारत से व्यापार करने के इच्छुक थे, उन्होंने देश की आतंरिक शासकीय अराजकता का फायदा उठाया अंग्रेज दूसरे देशों से व्यापार के इच्छुक लोगों को रोकने में सफल रहे और १८४० तक लगभग संपूर्ण देश पर शासन करने में सफल हुए। १८५७ में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के विरुद्ध असफल विद्रोह, जो भारतीय स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम से भी जाना जाता है, के बाद भारत का अधिकांश भाग सीधे अंग्रेजी शासन के प्रशासनिक नियंत्रण में आ गया।[20] कोणार्क-चक्र - १३वीं शताब्दी में बने उड़ीसा के सूर्य मन्दिर में स्थित, यह दुनिया के सब से प्रसिद्घ ऐतिहासिक स्मारकों में से एक है। बीसवी सदी के प्रारम्भ में आधुनिक शिक्षा के प्रसार और विश्वपटल पर बदलती राजनीतिक परिस्थितियों के चलते भारत में एक बौद्धिक आन्दोलन का सूत्रपात हुआ जिसने सामाजिक और राजनीतिक स्तरों पर अनेक परिवर्तनों एवम आन्दोलनों की नीव रखी। १८८५ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ने स्वतन्त्रता आन्दोलन को एक गतिमान स्वरूप दिया। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में लम्बे समय तक स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये विशाल अहिंसावादी संघर्ष चला, जिसका नेतृत्‍व महात्मा गांधी, जो आधिकारिक रुप से आधुनिक भारत के 'राष्ट्रपिता' के रूप में संबोधित किये जाते हैं, ने किया। इसके साथ-साथ चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, वीर सावरकर आदि के नेतृत्‍व मे चले क्रांतिकारी संघर्ष के फलस्वरुप १५ अगस्त, १९४७ भारत ने अंग्रेजी शासन से पूर्णतः स्वतंत्रता प्राप्त की। तदुपरान्त २६ जनवरी, १९५० को भारत एक गणराज्य बना। एक बहुजातीय तथा बहुधार्मिक राष्ट्र होने के कारण भारत को समय-समय पर साम्प्रदायिक तथा जातीय विद्वेष का शिकार होना पड़ा है। क्षेत्रीय असंतोष तथा विद्रोह भी हालाँकि देश के अलग-अलग हिस्सों में होते रहे हैं, पर इसकी धर्मनिरपेक्षता तथा जनतांत्रिकता, केवल १९७५-७७ को छोड़, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी थी, अक्षुण्ण रही है। भारत के पड़ोसी राष्ट्रों के साथ अनसुलझे सीमा विवाद हैं। इसके कारण इसे छोटे पैमानों पर युद्ध का भी सामना करना पड़ा है। १९६२ में चीन के साथ, तथा १९४७, १९६५, १९७१ एवं १९९९ में पाकिस्तान के साथ लड़ाइयाँ हो चुकी हैं। भारत गुटनिरपेक्ष आन्दोलन तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के संस्थापक सदस्य देशों में से एक है। १९७४ में भारत ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया था जिसके बाद १९९८ में ५ और परीक्षण किये गये। १९९० के दशक में किये गये आर्थिक सुधारीकरण की बदौलत आज देश सबसे तेज़ी से विकासशील राष्ट्रों की सूची में आ गया है। सरकार मुख्य लेख : भारत सरकार भारत का संविधान भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य घोषित करता है। भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जिसकी द्विसदनात्मक संसद वेस्टमिन्स्टर शैली की संसदीय प्रणाली द्वारा संचालित है। भारत का प्रशासन संघीय ढांचे के अन्तर्गत चलाया जाता है, जिसके अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र सरकार और राज्य स्तर पर राज्य सरकारें हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का बंटवारा संविधान में दी गई रूपरेखा के आधार पर होता है। वर्तमान में भारत में २९ राज्य और ७ केंद्र-शासित प्रदेश हैं। केंद्र शासित प्रदेशों में, स्थानीय प्रशासन को राज्यों की तुलना में कम शक्तियां प्राप्त होती हैं। भारत का सरकारी ढाँचा, जिसमें केंद्र राज्यों की तुलना में ज़्यादा सशक्त है, उसे आमतौर पर अर्ध-संघीय (सेमि-फ़ेडेरल) कहा जाता रहा है, पर १९९० के दशक के राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक बदलावों के कारण इसकी रूपरेखा धीरे-धीरे और अधिक संघीय (फ़ेडेरल) होती जा रही है। इसके शासन में तीन मुख्य अंग हैं: न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका। व्यवस्थापिका संसद को कहते हैं, जिसके दो सदन हैं - उच्चसदन राज्यसभा, अथवा राज्यपरिषद् और निम्नसदन लोकसभा. राज्यसभा में २४५ सदस्य होते हैं जबकि लोकसभा में ५४५। राज्यसभा एक स्थाई सदन है और इसके सदस्यों का चुनाव, अप्रत्यक्ष विधि से ६ वर्षों के लिये होता है। राज्यसभा के ज़्यादातर सदस्यों का चयन राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा किया जाता है, और हर दूसरे साल राज्य सभा के एक तिहाई सदस्य पदमुक्त हो जाते हैं। लोकसभा के ५४३ सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष विधि से, ५ वर्षों की अवधि के लिये आम चुनावों के माध्यम से किया जाता है जिनमें १८ वर्ष से अधिक उम्र के सभी भारतीय नागरिक मतदान कर सकते हैं। इसके इलावा २ सदस्यों को राष्ट्रपति एंग्लो-इण्डियन समुदाय में से नामित कर सकती है, अगर यह समुदाय संसद में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व ना पा सका हो। कार्यपालिका के तीन अंग हैं - राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और मंत्रिमंडल। राष्ट्रपति, जो राष्ट्र का प्रमुख है, की भूमिका अधिकतर आनुष्ठानिक ही है। उसके दायित्वों में संविधान का अभिव्यक्तिकरण, प्रस्तावित कानूनों (विधेयक) पर अपनी सहमति देना और अध्यादेश जारी करना प्रमुख हैं। वह भारतीय सेनाओं का मुख्य सेनापति भी है। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को एक अप्रत्यक्ष मतदान विधि द्वारा ५ वर्षों के लिये चुना जाता है। प्रधानमन्त्री सरकार का प्रमुख है और कार्यपालिका की सारी शक्तियाँ उसी के पास होती हैं। इसका चुनाव राजनैतिक पार्टियों या गठबन्धन के द्वारा प्रत्यक्ष विधि से संसद में बहुमत प्राप्त करने पर होता है। बहुमत बने रहने की स्थिति में इसका कार्यकाल ५ वर्षों का होता है। संविधान में किसी उप-प्रधानमंत्री का प्रावधान नहीं है पर समय-समय पर इसमें फेरबदल होता रहा है। मंत्रिमंडल का प्रमुख प्रधानमंत्री होता है। मंत्रिमंडल के प्रत्येक मंत्री को संसद का सदस्य होना अनिवार्य है। कार्यपालिका संसद को उत्तरदायी होती है, और प्रधानमंत्री और उनका मंत्रिमण्डल लोक सभा में बहुमत के समर्थन के आधार पर ही अपने कार्यालय में बने रह सकते हैं। भारत की स्वतंत्र न्यायपालिका का ढाँचा त्रिस्तरीय है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय, जिसके प्रधान प्रधान न्यायाधीश है; २४ उच्च न्यायालय और बहुत सारी निचली अदालतें हैं। सर्वोच्च न्यायालय को अपने मूल न्यायाधिकार (ओरिजिनल ज्युरिडिक्शन), और उच्च न्यायालयों के ऊपर अपीलीय न्यायाधिकार के मामलों, दोनो को देखने का अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय के मूल न्ययाधिकार में मौलिक अधिकारों के हनन के इलावा राज्यों और केंद्र, और दो या दो से अधिक राज्यों के बीच के विवाद आते हैं। सर्वोच्च न्यायालय को राज्य और केंद्रीय कानूनों को असंवैधानिक ठहराने के अधिकार है। भारत में २४ उच्च न्यायालयों के अधिकार और उत्तरदायित्व सर्वोच्च न्यायालय की अपेक्षा सीमित हैं। संविधान ने न्यायपालिका को विस्तृत अधिकार दिये हैं, जिनमें संविधान की अंतिम व्याख्या करने का अधिकार भी सम्मिलित है। राजनीति मुख्य लेख : भारत की राजनीति भारत का संसद भवन। भारत विश्व का सबसे बडा लोकतंत्र है। बहुदलीय प्रणाली वाले इस संसदीय गणराज्य में छ: मान्यता-प्राप्त राष्ट्रीय पार्टियां, और ४० से भी ज़्यादा क्षेत्रीय पार्टियां हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), जिसकी नीतियों को केंद्रीय-दक्षिणपंथी या रूढिवादी माना जाता है, के नेतृत्व में केंद्र में सरकार है जिसके प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी हैं। अन्य पार्टियों में सबसे बडी भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस (कॉंग्रेस) है, जिसे भारतीय राजनीति में केंद्र-वामपंथी और उदार माना जाता है। २००४ से २०१४ तक केंद्र में मनमोहन सिंह की गठबन्धन सरकार का सबसे बडा हिस्सा कॉंग्रेस पार्टी का था। १९५० मे गणराज्य के घोषित होने से १९८० के दशक के अन्त तक कॉंग्रेस का संसद में निरंतर बहुमत रहा। पर तब से राजनैतिक पटल पर भाजपा और कॉंग्रेस को अन्य पार्टियों के साथ सत्ता बांटनी पडी है। १९८९ के बाद से क्षेत्रीय पार्टियों के उदय ने केंद्र में गठबंधन सरकारों के नये दौर की शुरुआत की है। गणराज्य के पहले तीन चुनावों (१९५१-५२, १९५७, १९६२) में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कॉंग्रेस ने आसान जीत पाई। १९६४ में नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री कुछ समय के लिये प्रधानमंत्री बने, और १९६६ में उनकी खुद की मौत के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं। १९६७ और १९७१ के चुनावों में जीतने के बाद १९७७ के चुनावों में उन्हें हार का सामना करना पडा। १९७५ में प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने राष्ट्रीय आपात्काल की घोषणा कर दी थी। इस घोषणा और इससे उपजी आम नाराज़गी के कारण १९७७ के चुनावों में नवगठित जनता पार्टी ने कॉंग्रेस को हरा दिया और पूर्व में कॉंग्रेस के सदस्य और नेहरु के केबिनेट में मंत्री रहे मोरारजी देसाई के नेतृत्व में नई सरकार बनी। यह सरकार सिर्फ़ तीन साल चली, और १९८० में हुए चुनावों में जीतकर इंदिरा गांधी फिर से प्रधानमंत्री बनीं। १९८४ में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके बेटे राजीव गांधी कॉंग्रेस के नेता और प्रधानमंत्री बने। १९८४ के चुनावों में ज़बरदस्त जीत के बाद १९८९ में नवगठित जनता दल के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय मोर्चा ने वाम मोर्चा के बाहरी समर्थन से सरकार बनाई, जो केवल दो साल चली। १९९१ के चुनावों में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला, परंतु कॉंग्रेस सबसे बडी पार्टी बनी, और पी वी नरसिंहा राव के नेतृत्व में अल्पमत सरकार बनी जो अपना कार्यकाल पूरा करने में सफल रही। १९९६ के चुनावों के बाद दो साल तक राजनैतिक उथल पुथल का वक्त रहा, जिसमें कई गठबंधन सरकारें आई और गई। १९९६ में भाजपा ने केवल १३ दिन के लिये सरकार बनाई, जो समर्थन ना मिलने के कारण गिर गई। उसके बाद दो संयुक्त मोर्चे की सरकारें आई जो कुछ लंबे वक्त तक चली। ये सरकारें कॉंग्रेस के बाहरी समर्थन से बनी थीं। १९९८ के चुनावों के बाद भाजपा एक सफल गठबंधन बनाने में सफल रही। भाजपा के अटल बिहारी वजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग, या एनडीए) नाम के इस गठबंधन की सरकार पहली ऐसी सरकार बनी जिसने अपना पाँच साल का कार्यकाल पूरा किय। २००४ के चुनावों में भी किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला, पर कॉँंग्रेस सबसे बडी पार्टी बनके उभरी, और इसने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग, या यूपीए) के नाम से नया गठबंधन बनाया। इस गठबंधन ने वामपंथी और गैर-भाजपा सांसदों के सहयोग से मनमोहन सिँह के नेतृत्व में पाँच साल तक शासन चलाया। २००९ के चुनावों में यूपीए और अधिक सीटें जीता जिसके कारण यह साम्यवादी (कॉम्युनिस्ट) दलों के बाहरी सहयोग के बिना ही सरकार बनाने में कामयाब रहा। इसी साल मनमोहन सिँह जवाहरलाल नेहरू के बाद् ऐसे पहले प्रधानमंत्री बने जिन्हे दो लगातार कार्यकाल के लिये प्रधानमंत्री बनने का अवसर प्राप्त हुआ। २०१४ के चुनावों में १९८४ के बाद पहली बार किसी राजनैतिक पार्टी को बहुमत प्राप्त हुआ, और भाजपा ने गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनाई। सैनि‍क शक्ति मुख्य लेख : भारतीय सशस्‍त्र सेनाएँ और भारत के अर्धसैनिक बल भारतीय नौसेना के विमानवाहक पोत - विराट एवं विक्रमादित्य एच.ए.एल तेजस भारत द्वारा विकसित एक हल्‍का सुपरसौनिक लड़ाकू विमान है। युद्ध अभ्यास करते भारतीय टैंक भारतीय प्रक्षेपास्त्र अग्नि की प्रहारक्षमता सीमा लगभग 13 लाख सक्रिय सैनिकों के साथ, भारतीय सेना दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी है। भारत की सशस्त्र सेना में एक थलसेना, नौसेना, वायु सेना और अर्द्धसैनिक बल, तटरक्षक, जैसे सामरिक और सहायक बल विद्यमान हैं। भारत के राष्ट्रपति भारतीय सशस्त्र बलों के सर्वोच्च कमांडर है। वित्त वर्ष 2014-15 के केन्द्रीय अंतरिम बजट में रक्षा आवंटन में 10 प्रतिशत बढ़ोत्‍तरी करते हुए 224,000 करोड़ रूपए आवंटित किए गए। 2013-14 के बजट में यह राशि 203,672 करोड़ रूपए थी।[21] 2012-13 में रक्षा सेवाओं के लिए 1,93,407 करोड़ रुपए[22] का प्रावधान किया गया था, जबकि 2011-2012 में यह राशि 1,64,415 करोइ़[23] थी। साल 2011 में भारतीय रक्षा बजट 36.03 अरब अमरिकी डॉलर रहा (या सकल घरेलू उत्पाद का 1.83%)। 2008 के एक SIRPI रिपोर्ट के अनुसार, भारत क्रय शक्ति के मामले में भारतीय सेना के सैन्य खर्च 72.7 अरब अमेरिकी डॉलर रहा। साल 2011 में भारतीय रक्षा मंत्रालय के वार्षिक रक्षा बजट में 11.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई, हालाँकि यह पैसा सरकार की अन्य शाखाओं के माध्यम से सैन्य की ओर जाते हुए पैसों में शमिल नहीं होता है। भारत दुनिया के सबसे बड़े हथियार आयातक बन गया है। वित्त वर्ष 2007-2008 2008-2009 2009-2010 2011-2012 2012-2013 2013-2014 2014-2015 बजट (करोड़ रूपए) 96,000[23] 1,05,600[23] 1,41,703[23] 1,64,415[23] 1,93,407[22] 2,03,672[21] 2,24,000[21] 1947 में अपनी स्वतंत्रता के बाद से, भारत ने ज्यादातर देशों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखा है। 1950 के दशक में, भारत ने दृढ़ता से अफ्रीका और एशिया में यूरोपीय कालोनियों की स्वतंत्रता का समर्थन किया और गुट निरपेक्ष आंदोलन में एक अग्रणी भूमिका निभाई। 1980 के दशक में भारत ने आमंत्रण पर दो पड़ोसी देशों में संक्षिप्त सैन्य हस्तक्षेप किया। मालदीव, श्रीलंका और अन्य देशों में ऑपरेशन कैक्टस में भारतीय शांति सेना को भेजा गया। हालाँकि, भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान के साथ एक तनावपूर्ण संबंध बने रहे और दोनों देशों में चार बार युध्द (1947, 1965, 1971 और 1999 में) हुए हैं। कश्मीर विवाद इन युद्धों के प्रमुख कारण था, सिवाय 1971 के, जो कि तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में नागरिक अशांति के लिए किया गया था। 1962 के भारत-चीन युद्ध और पाकिस्तान के साथ 1965 के युद्ध के बाद भारत ने अपनी सैन्य और आर्थिक स्थिति का विकास करने का प्रयास किया। सोवियत संघ के साथ अच्छे संबंधों के कारण सन् 1960 के दशक से, सोवियत संघ भारत का सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता के रूप में उभरा। आज रूस के साथ सामरिक संबंधों को जारी रखने के अलावा, भारत विस्तृत इजरायल और फ्रांस के साथ रक्षा संबंध रखा है। हाल के वर्षों में, भारत में क्षेत्रीय सहयोग और विश्व व्यापार संगठन के लिए एक दक्षिण एशियाई एसोसिएशन में प्रभावशाली भूमिका निभाई है। १०,००० राष्ट्र सैन्य और पुलिस कर्मियों को चार महाद्वीपों भर में पैंतीस संयुक्त राष्ट्र शांति अभियानों में सेवा प्रदान की है। भारत भी विभिन्न बहुपक्षीय मंचों, खासकर पूर्वी एशिया शिखर बैठक और जी-८५ बैठक में एक सक्रिय भागीदार रहा है। आर्थिक क्षेत्र में भारत दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के विकासशील देशों के साथ घनिष्ठ संबंध रखते है। अब भारत एक "पूर्व की ओर देखो नीति" में भी संयोग किया है। यह "आसियान" देशों के साथ अपनी भागीदारी को मजबूत बनाने के मुद्दों की एक विस्तृत श्रृंखला है जिसमे जापान और दक्षिण कोरिया ने भी मदद किया है। यह विशेष रूप से आर्थिक निवेश और क्षेत्रीय सुरक्षा का प्रयास है। 1974 में भारत अपनी पहले परमाणु हथियारों का परीक्षण किया और आगे 1998 में भूमिगत परीक्षण किया। जिसके कारण भारत पर कई तरह के प्रतिबन्ध भी लगाये गए। भारत के पास अब तरह-तरह के परमाणु हथियारें है। भारत अभी रूस के साथ मिलकर पाँचवीं पीढ़ के विमान बना रहे है। हाल ही में, भारत का संयुक्त राष्ट्रे अमेरिका और यूरोपीय संघ के साथ आर्थिक, सामरिक और सैन्य सहयोग बढ़ गया है। 2008 में, भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच असैनिक परमाणु समझौते हस्ताक्षर किए गए थे। हालाँकि उस समय भारत के पास परमाणु हथियार था और परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) के पक्ष में नहीं था यह अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी और न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) से छूट प्राप्त है, भारत की परमाणु प्रौद्योगिकी और वाणिज्य पर पहले प्रतिबंध समाप्त . भारत विश्व का छठा वास्तविक परमाणु हथियार राष्ट्रत बन गया है। एनएसजी छूट के बाद भारत भी रूस, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम और कनाडा सहित देशों के साथ असैनिक परमाणु ऊर्जा सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर करने में सक्षम है। राज्य और केन्द्रशासित प्रदेश मुख्य लेख : भारत के राज्य वर्तमान में भारत 29 राज्यों तथा 7 केन्द्रशासित प्रदेशों मे बँटा हुआ है। राज्यों की चुनी हुई स्वतंत्र सरकारें हैं, जबकि केन्द्रशासित प्रदेशों पर केन्द्र द्वारा नियुक्त प्रबंधन शासन करता है, हालाँकि पॉण्डिचेरी और दिल्ली की लोकतांत्रिक सरकार भी हैं। अन्टार्कटिका और दक्षिण गंगोत्री और मैत्री पर भी भारत के वैज्ञानिक-स्थल हैं, यद्यपि अभी तक कोई वास्तविक आधिपत्य स्थापित नहीं किया गया है। राज्यों के नाम निम्नवत हैं- (कोष्टक में राजधानी का नाम) भारत के २९ राज्यों और ७ केंद्र शासित प्रदेशों के एक क्लिक करने योग्य नक्शा अरुणाचल प्रदेश (इटानगर) असम (दिसपुर) उत्तर प्रदेश (लखनऊ) उत्तराखण्ड (देहरादून) ओड़िशा (भुवनेश्वर) आंध्र प्रदेश (हैदराबाद) कर्नाटक (बंगलोर) केरल (तिरुवनंतपुरम) गोआ (पणजी) गुजरात (गांधीनगर) छत्तीसगढ़ (रायपुर) जम्मू और कश्मीर (श्रीनगर/जम्मू) झारखंड (रांची) तमिलनाडु (चेन्नई) तेलंगाना (हैदराबाद) त्रिपुरा (अगरतला) नागालैंड (कोहिमा) पश्चिम बंगाल (कोलकाता) पंजाब (चंडीगढ़†) बिहार (पटना) मणिपुर (इम्फाल) मध्य प्रदेश (भोपाल) महाराष्ट्र (मुंबई) मिज़ोरम (आइजोल) मेघालय (शिलांग) राजस्थान (जयपुर) सिक्किम (गंगटोक) हरियाणा (चंडीगढ़†) हिमाचल प्रदेश (शिमला) केन्द्रशासित प्रदेश अंडमान व निकोबार द्वीपसमूह(पोर्ट ब्लेयर) चंडीगढ़†* (चंडीगढ़) दमन और दीव* (दमन) दादरा और नागर हवेली* (सिलवासा) पॉण्डिचेरी* (पुडुचेरी) लक्षद्वीप* (कवरत्ती) दिल्ली (नई दिल्ली) † चंडीगढ़ एक केंद्रशासित प्रदेश और पंजाब और हरियाणा दोनों राज्यों की राजधानी है। यह भी देखें: भारत के शहर भाषाएँ भाषाओं के मामले में भारतवर्ष विश्व के समृद्धतम देशों में से है। संविधान के अनुसार हिन्दी भारत की राजभाषा है, और अंग्रेजी को सहायक राजाभाषा का स्थान दिया गया है। १९४७-१९५० के संविधान के निर्माण के समय देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी भाषा और हिन्दी-अरबी अंकों के अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप को संघ (केंद्र) सरकार की कामकाज की भाषा बनाया गया था, और गैर-हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी के प्रचलन को बढाकर उन्हें हिन्दी-भाषी राज्यों के समान स्तर तक आने तक के लिये १५ वर्षों तक अङ्ग्रेज़ी के इस्तेमाल की इजाज़त देते हुए इसे सहायक राजभाषा का दर्ज़ा दिया गया था।संविधान के अनुसार यह व्यवस्था १९५० मे समाप्त हो जाने वाली थी, लेकिन् तमिलनाडु राज्य के हिन्दी भाषा विरोधी आन्दोलन और हिन्दी भाषी राज्यों राजनैतिक विरोध के परिणामस्वरूप, संसद ने इस व्यवस्था की समाप्ति को अनिश्चित काल तक स्थगित कर दिया है। इस वजह से वर्तमान समय में केंद्रीय सरकार में काम हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषाओं में होता है और राज्यों में हिन्दी अथवा अपने-अपने क्षेत्रीय भाषाओं में काम होता है।केन्द्र और राज्यों और अन्तर-राज्यीय पत्र-व्यवहार के लिए, यदि कोई राज्य ऐसी मांग करे, तो हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं का होना आवश्यक है। भारतीय संविधान एक राष्ट्रभाषा का वर्णन नहीं करता। हिन्दी और अंग्रेज़ी के इलावा संविधान की आठवीं अनुसूची में २० अन्य भाषाओं का वर्णन है जिन्हें भारत में आधिकारिक कामकाज में इस्तेमाल किया जा सकता है। संविधान के अनुसार सरकार इन भाषाओं के विकास के लिये प्रयास करेगी, और अधिकृत राजभाषा (हिन्दी) को और अधिक समृद्ध बनाने के लिए इन भाषाओं का उपयोग करेगी। आठवीं अनुसूची में दर्ज़ भाषांए ये हैं: संस्कृत हिन्दी अंग्रेजी मराठी नेपाली मैथिली पंजाबी तमिल तेलुगू मलयालम कन्नड गुजराती बांग्ला असमिया ओड़िया या उड़िया कश्मीरी मणिपुरी कोंकणी डोगरी उर्दू सिन्धी संथाली राज्यवार भाषाओं की आधिकारिक स्थिति इस प्रकार है: नंबर. राज्य आधिकारिक भाषा(एं) अन्य मान्यता प्राप्त भाषाएं १. अरुणाचल प्रदेश अंग्रेज़ी[24]:65 २. असम असमिया, अंग्रेज़ी[25] बांग्ला बराक घाटी के तीन ज़िलों में;[26] बोडो बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद् के ज़िलों में.[27] ३. आंध्र प्रदेश तेलुगु[28] उर्दू इन ज़िलों में दूसरी आधिकारिक भाषा है: कुर्नूल, कडपा, अनंतपुर, गुन्टूर, चित्तूर और नेल्लोर जहां १२% से अधिक जनसंख्या उर्दू को प्राथमिक भाषा के तौर पर बोलती है।[29] ४. उत्तर प्रदेश हिन्दी उर्दू[30] ५. उत्तराखण्ड हिन्दी संस्कृत[31] ६. ओडिशा ओडिया ७. कर्नाटक कन्नड ८. केरल मलयालम अंग्रेज़ी[32] ९. गुजरात गुजराती[24]:28 १०. गोआ कोंकणी[33] मराठी,[24]:27 [34] English[35] ११. छत्तीसगढ हिन्दी[24]:pg 29 [36] छत्तीसगढी[37] १२. जम्मू और कश्मीर उर्दू अंग्रेज़ी[38] १३. झारखण्ड हिन्दी संथाली, ओडिया और् बांग्ला[24] १४. तमिल नाडु तमिल अंग्रेज़ी[24] १५. तेलंगाना तेलुगु उर्दू इन ज़िलों में दूसरी आधिकारिक भाषा है: हैदराबाद, रंगा रेड्डी, मेडक, निज़ामाबाद, महबूबनगर, अदीलाबाद और वारंगल [29] १६. त्रिपुरा बांग्ला और कोक्रोबोरोक[39][40] १७. नागालैंड अंग्रेज़ी[24] १८. पंजाब पंजाबी १९. पश्चिमी बंगाल बांग्ला अंग्रेज़ी और नेपाली[24] २०. बिहार हिन्दी[41] उर्दू (कुछ क्षेत्रों और कामों के लिये)[42] २१. मणिपुर मणिपुरी(मेइतेई, या मेइतेईलॉन भी कहा जाता है)[43] अंग्रेज़ी[24] २२. मध्य प्रदेश हिन्दी[44] २३. महाराष्ट्र मराठी २४. मिज़ोरम मिज़ो २५. मेघालय अंग्रेज़ी[45] खासी भाषा और गारो भाषा[46] २६. राजस्थान हिन्दी २७. सिक्किम नेपाली[47] ११ अन्य भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्ज़ा प्राप्त है, लेकिन सिर्फ़ संस्कृति और परंपरा के संरक्षण के नज़रिये से [48] २८. हरियाणा हिन्दी[49] पंजाबी[50] २९. हिमाचल प्रदेश हिन्दी[51] अंग्रेज़ी[24]:13 भूगोल और जलवायु मुख्य लेख : भारत का भूगोल भू-आकृतिक विशेषतायें हिमालय उत्तर में जम्मू और काश्मीर से लेकर पूर्व में अरुणांचल प्रदेश तक भारत की अधिकतर पूर्वी सीमा बनाता है राथोंग शिखर, कंचनजंघा के समीप स्थित, जेमाथांग ग्लेशियर के पास से लिया गया चित्र भारत पूरी तौर पर भारतीय प्लेट के ऊपर स्थित है जो भारतीय आस्ट्रेलियाई प्लेट (Indo-Australian Plate) का उपखण्ड है। प्राचीन काल में यह प्लेट गोंडवानालैण्ड का हिस्सा थी और अफ्रीका और अंटार्कटिका के साथ जुड़ी हुई थी। तकरीबन ९ करोड़ वर्ष पहले क्रीटेशियस काल में भारतीय प्लेट १५ सेमी./वर्ष की गति से उत्तर की ओर बढ़ने लगी और इओसीन पीरियड में यूरेशियन प्लेट से टकराई। भारतीय प्लेट और यूरेशियन प्लेट के मध्य स्थित टेथीज भूसन्नति के अवसादों के वालन द्वारा ऊपर उठने से तिब्बत पठार और हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ। सामने की द्रोणी में बाद में अवसाद जमा हो जाने से सिन्धु-गंगा मैदान बना। भारतीय प्लेट अभी भी लगभग ५ सेमी./वर्ष की गति से उत्तर की ओर गतिशील है और हिमालय की ऊंचाई में अभी भी २ मिमी./वर्ष कि गति से उत्थान हो रहा है। भारत के उत्तर में हिमालय की पर्वतमाला नए और मोड़दार पहाड़ों से बनी है। यह पर्वतश्रेणी कश्मीर से अरुणाचल तक लगभग १,५०० मील तक फैली हुई है। इसकी चौड़ाई १५० से २०० मील तक है। यह संसार की सबसे ऊँची पर्वतमाला है और इसमें अनेक चोटियाँ २४,००० फुट से अधिक ऊँची हैं। हिमालय की सबसे ऊँची चोटी माउंट एवरेस्ट है जिसकी ऊँचाई २९,०२८ फुट है जो नेपाल में स्थित है। हिमालय के दक्षिण सिन्धु-गंगा मैदान है जो सिंधु, गंगा तथा ब्रह्मपुत्र और उनकी सहायक नदियों द्वारा बना है। हिमालय (शिवालिक) की तलहटी में जहाँ नदियाँ पर्वतीय क्षेत्र को छोड़कर मैदान में प्रवेश करती हैं, एक संकीर्ण पेटी में कंकड पत्थर मिश्रित निक्षेप पाया जाता है जिसमें नदियाँ अंतर्धान हो जाती हैं। इस ढलुवाँ क्षेत्र को भाबर कहते हैं। भाबर के दक्षिण में तराई प्रदेश है, जहाँ विलुप्त नदियाँ पुन: प्रकट हो जाती हैं। यह क्षेत्र दलदलों और जंगलों से भरा है। तराई के दक्षिण में जलोढ़ मैदान पाया जाता है। मैदान में जलोढ़ दो किस्म के हैं, पुराना जलोढ़ और नवीन जलोढ़। पुराने जलोढ़ को बाँगर कहते हैं। यह अपेक्षाकृत ऊँची भूमि में पाया जाता है, जहाँ नदियों की बाढ़ का जल नहीं पहुँच पाता। इसमें कहीं कहीं चूने के कंकड मिलते हैं। नवीन जलोढ़ को खादर कहते हैं। यह नदियों की बाढ़ के मैदान तथा डेल्टा प्रदेश में पाया जाता है जहाँ नदियाँ प्रति वर्ष नई तलछट जमा करती हैं। उत्तरी भारत के मैदान के दक्षिण का पूरा भाग एक विस्तृत पठार है जो दुनिया के सबसे पुराने स्थल खंड का अवशेष है और मुख्यत: कड़ी तथा दानेदार कायांतरित चट्टानों से बना है। पठार तीन ओर पहाड़ी श्रेणियों से घिरा है। उत्तर में विंध्याचल तथा सतपुड़ा की पहाड़ियाँ हैं, जिनके बीच नर्मदा नदी पश्चिम की ओर बहती है। नर्मदा घाटी के उत्तर विंध्याचल प्रपाती ढाल बनाता है। सतपुड़ा की पर्वतश्रेणी उत्तर भारत को दक्षिण भारत से अलग करती है और पूर्व की ओर महादेव पहाड़ी तथा मैकाल पहाड़ी के नाम से जानी जाती है। सतपुड़ा के दक्षिण अजंता की पहाड़ियाँ हैं। प्रायद्वीप के पश्चिमी किनारे पर पश्चिमी घाट और पूर्वी किनारे पर पूर्वी घाट नामक पहाडियाँ हैं। कई महत्वपूर्ण और बड़ी नदियाँ जैसे गंगा, ब्रह्मपुत्र, यमुना, गोदावरी और कृष्णा भारत से होकर बहती हैं। जलवायु कोपेन के वर्गीकरण में भारत में छह प्रकार की जलवायु का निरूपण है किन्तु यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि भू-आकृति के प्रभाव में छोटे और स्थानीय स्तर पर भी जलवायु में बहुत विविधता और विशिष्टता मिलती है। भारत की जलवायु दक्षिण में उष्णकटिबंधीय है और हिमालयी क्षेत्रों में अधिक ऊँचाई के कारण अल्पाइन (ध्रुवीय जैसी), एक ओर यह पुर्वोत्तर भारत में उष्ण कटिबंधीय नम प्रकार की है तो पश्चिमी भागों में शुष्क प्रकार की। कोपेन के वर्गीकरण के अनुसार भारत में निम्नलिखित छह प्रकार के जलवायु प्रदेश पाए जाते हैं: अल्पाइन - (ETh) आर्द्र उपोष्ण - (Cwa) उष्ण कटिबंधीय नम और शुष्क - (Aw) उष्ण कटिबंधीय नम - (Am) अर्धशुष्क - (BSh) शुष्क मरुस्थलीय - (BWh) परंपरागत रूप से भारत में छह ऋतुएँ मानी जाती रहीं हैं परन्तु भारतीय मौसम विज्ञान विभाग चार ऋतुओं का वर्णन करता है जिन्हें हम उनके परंपरागत नामों से तुलनात्मक रूप में निम्नवत लिख सकते हैं: शीत ऋतु (Winters)- दिसंबर से मार्च तक, जिसमें दिसंबर और जनवरी सबसे ठंढे महीने होते हैं; उत्तरी भारत में औसत तापमान १० से १५ डिग्री सेल्सियस होता है। ग्रीष्म ऋतु (Summers or Pre-monsoon) - अप्रैल से जून तक जिसमें मई सबसे गर्म महीना होता है, औसत तापमान ३२ से ४० डिग्री सेल्सियस होता है। वर्षा ऋतु (Monsoon or Rainy) - जुलाई से सितम्बर तक, जिसमें सार्वाधिक वर्षा अगस्त महीने में होती है, वस्तुतः मानसून का आगमन और प्रत्यावर्तन (लौटना) दोनों क्रमिक रूप से होते हैं और अलग अलग स्थानों पर इनका समय अलग अलग होता है। सामान्यतः १ जून को केरल तट पर मानसून के आगमन तारीख होती है इसके ठीक बाद यह पूर्वोत्तर भारत में पहुँचता है और क्रमशः पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण की ओर गतिशील होता है इलाहाबाद में मानसून के पहुँचने की तिथि १८ जून मानी जाती है और दिल्ली में २९ जून। शरद ऋतु (Post-monsoon ot Autumn)- उत्तरी भारत में अक्टूबर और नवंबर माह में मौसम साफ़ और शांत रहता है और अक्टूबर में मानसून लौटना शुरू हो जाता है जिससे तमिलनाडु के तट पर लौटते मानसून से वर्षा होती है। भारत के मुख्य शहर हैं - दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, बंगलोर (बेंगलुरु) | ये भी देंखे - भारत के शहर अर्थव्यवस्था मुख्य लेख : भारत की अर्थव्यवस्था भारत के राज्य और संघ क्षेत्र Flag of India.svg क्षेत्रफल | वाहन घनत्व | लिंगानुपात जनसंख्या | राजधानियाँ | राष्ट्रीय महामार्ग उच्चतम बिन्दु | बाल पोषाहार | बेरोज़गारी दर जीडीपी | अपराध दर | आर्थिक मुक्ति कर राजस्व | गृह स्वामित्व | उच्चतम बिन्दू संक्षिप्त नाम | संस्थागत प्रसव प्रतिपादन | मानव तस्करी प्राकृतिक जन्म दर | जीवन प्रत्याशा | मतदाता संख्या टीकाकरण | पूजास्थल संख्या | निर्धनता दर साक्षरता दर | बलात्कार दर | दंगा दर बिजली | पेयजल उपलब्धता | विद्यालय नामांकन दर राजधानियाँ | महिला सुरक्षा | एच॰आई॰वी जागरुकता मीडिया की पहुँच | नाम की व्युत्पत्ति | परिवार का आकार अल्पभार जनसंख्या | टीवी स्वामित्व | ऊर्जा उत्पादन क्षमता इस संदूक को: देखें • संवाद • संपादन सूचना प्रोद्योगिकी (आईटी) भारत के सबसे अधिक विकासशील उद्योगों में से एक है, वार्षिक आय २८५० करोड़ डालर, इन्फोसिस, भारत की सबसे बडी आईटी कम्पनियों में से एक मुद्रा स्थानांतरण की दर से भारत की अर्थव्यवस्था विश्व में दसवें और क्रयशक्ति के अनुसार तीसरे स्थान पर है। वर्ष २००३ में भारत में लगभग ८% की दर से आर्थिक वृद्धि हुई है जो कि विश्व की सबसे तीव्र बढती हुई अर्थव्यवस्थओं में से एक है। परंतु भारत की अत्यधिक जनसंख्या के कारण प्रतिव्यक्ति आय क्रयशक्ति की दर से मात्र ३,२६२ अमेरिकन डॉलर है जो कि विश्व बैंक के अनुसार १२५वें स्थान पर है। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार २६५ (मार्च २००९) अरब अमेरिकी डॉलर है। मुम्बई भारत की आर्थिक राजधानी है और भारतीय रिजर्व बैंक और बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का मुख्यालय भी। यद्यपि एक चौथाई भारतीय अभी भी निर्धनता रेखा से नीचे हैं, तीव्रता से बढ़ती हुई सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों के कारण मध्यमवर्ग में वृद्धि हुई है। १९९१ के बाद भारत में आर्थिक सुधार की नीति ने भारत के सर्वंगीण विकास मे बड़ी भूमिका निभाई है। १९९१ के बाद भारत में हुए आर्थिक सुधारोँ ने भारत के सर्वांगीण विकास मे बड़ी भूमिका निभाई। भारतीय अर्थव्यवस्था ने कृषि पर अपनी ऐतिहासिक निर्भरता कम की है और कृषि अब भारतीय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का केवल २५% है। दूसरे प्रमुख उद्योग हैं उत्खनन, पेट्रोलियम, बहुमूल्य रत्न, चलचित्र, वस्त्र, सूचना प्रौद्योगिकी सेवाएं, तथा सजावटी वस्तुऐं। भारत के अधिकतर औद्योगिक क्षेत्र उसके प्रमुख महानगरों के आसपास स्थित हैं। हाल ही के वर्षों में $१७२० करोड़ अमरीकी डालर वार्षिक आय २००४-२००५ के साथ भारत सॉफ़्टवेयर और बीपीओ सेवाओं का सबसे बडा केन्द्र बन कर उभरा है। इसके साथ ही कई लघु स्तर के उद्योग भी हैं जोकि छोटे भारतीय गाँव और भारतीय नगरों के कई नागरिकों को जीविका प्रदान करते हैं। पिछले वर्षों में भारत में वित्तीय संस्थानों ने विकास में बड़ी भूमिका निभाई है। केवल तीस लाख विदेशी पर्यटकों के प्रतिवर्ष आने के बाद भी भारतीय पर्यटन राष्ट्रीय आय का एक अति आवश्यक, परन्तु कम विकसित स्रोत है। पर्यटन उद्योग भारत के जीडीपी का कुल ५.३% है। पर्यटन १०% भारतीय कामगारों को आजीविका देता है। वास्तविक संख्या ४.२ करोड है। आर्थिक रूप से देखा जाए तो पर्यटन भारतीय अर्थव्यवस्था को लगभग $४०० करोड डालर प्रदान करता है। भारत के प्रमुख व्यापार सहयोगी हैं अमरीका, जापान, चीन और संयुक्त अरब अमीरात। भारत के निर्यातों में कृषि उत्पाद, चाय, कपड़ा, बहुमूल्य रत्न व आभूषण, साफ़्टवेयर सेवायें, इंजीनियरिंग सामान, रसायन तथा चमड़ा उत्पाद प्रमुख हैं जबकि उसके आयातों में कच्चा तेल, मशीनरी, बहुमूल्य रत्न, उर्वरक (फ़र्टिलाइज़र) तथा रसायन प्रमुख हैं। वर्ष २००४ के लिये भारत के कुल निर्यात $६९१८ करोड़ डालर के थे जबकि उसके आयात $८९३३ करोड़ डालर के थे। दिसम्‍बर 2013 के अंत में भारत का कुल विदेशी कर्ज 426.0 अरब अमरीकी डॉलर था, जिसमें कि दीर्घकालिक कर्ज 333.3 अरब (78.2%) तथा अल्‍पकालिक कर्ज 92.7 अरब अमरीकी डॉलर (21.8%) था। कुल विदेशी कर्ज में सरकार का विदेशी कर्ज 76.4 अरब अमरीकी डॉलर (कुल विदेशी कर्ज का 17.9 प्रतिशत) था, बाकी में व्‍यावसायिक उधार, एनआरआई जमा और बहुउद्देश्‍यीय कर्ज आदि हैं।[52] जनसांख्यिकी मुख्य लेख : भारत के लोग भारत में धार्मिक समूह धार्मिक समूह प्रतिशत[53] हिन्दू   80.5% मुस्लिम   13.4% ईसाई   2.33% सिख   1.84% बौद्ध   0.76% जैन   0.40% अन्य   0.77% हिन्दू धर्म भारत का सबसे बडा़ धर्म है - इस चित्र में गोआ का एक मंदिर दर्शाया गया है भारत चीन के बाद विश्व का दूसरा सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है। भारत की विभिन्नताओं से भरी जनता में भाषा, जाति और धर्म, सामाजिक और राजनीतिक सौहार्द्र और समरसता के मुख्य शत्रु हैं। भारत में ६४.८ प्रतिशत साक्षरता है जिस में से ७५.३ % पुरुष और ५३.७% स्त्रियाँ साक्षर हैं। लिंग अनुपात की दृष्टि से भारत में प्रत्येक १००० पुरुषों के पीछे मात्र ९४० महिलायें हैं। कार्य भागीदारी दर (कुल जनसंख्या मे कार्य करने वालों का भाग) ३९.१% है। पुरुषों के लिये यह दर ५१.७% और स्त्रियों के लिये २५.६% है। भारत की १००० जनसंख्या में २२.३२ जन्मों के साथ बढ़ती जनसंख्या के आधे लोग २२.६६ वर्ष से कम आयु के हैं। यद्यपि भारत की ८०.५ प्रतिशत जनसंख्या हिन्दू है, १३.४ प्रतिशत जनसंख्या के साथ भारत विश्व में मुसलमानों की संख्या में भी इंडोनेशिया और पाकिस्तान के बाद तीसरे स्थान पर है। अन्य धर्मावलम्बियों में ईसाई (२.३३ %), सिख (१.८४ %), बौद्ध (०.७६ %), जैन (०.४० %), अय्यावलि (०.१२ %), यहूदी, पारसी, अहमदी और बहाई आदि सम्मिलित हैं। भारत दो मुख्य भाषा-सूत्रों : आर्य और द्रविड़ भाषाओँ का स्रोत भी है। भारत का संविधान कुल २३ भाषाओं को मान्यता देता है। हिन्दी और अंग्रेजी केन्द्रीय सरकार द्वारा सरकारी कामकाज के लिये उपयोग की जाती हैं। संस्कृत और तमिल जैसी अति प्राचीन भाषाएं भारत में ही जन्मी हैं। संस्कृत, संसार की सर्वाधिक प्राचीन भाषाओँ में से एक है, जिसका विकास पथ्यास्वस्ति नाम की अति प्राचीन भाषा/ बोली से हुआ था। तमिल के अलावा सारी भारतीय भाषाएँ संस्कृत से ही विकसित हुई हैं, हालाँकि संस्कृत और तमिल में कई शब्द समान हैं ! कुल मिला कर भारत में १६५२ से भी अधिक भाषाएं एवं बोलियाँ बोली जातीं हैं। संस्कृति मुख्य लेख : भारतीय संस्कृति ताजमहल विश्व के सबसे प्रसिद्ध पर्यटक स्थलों में गिना जाता है। भारत की सांस्कृतिक धरोहर बहुत संपन्न है। यहाँ की संस्कृति अनोखी है और वर्षों से इसके कई अवयव अब तक अक्षुण्य हैं। आक्रमणकारियों तथा प्रवासियों से विभिन्न चीजों को समेट कर यह एक मिश्रित संस्कृति बन गई है। आधुनिक भारत का समाज, भाषाएं, रीति-रिवाज इत्यादि इसका प्रमाण हैं। ताजमहल और अन्य उदाहरण, इस्लाम प्रभावित स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। गुम्पा नृत्य एक तिब्बती बौद्ध समाज का सिक्किम में छिपा नृत्य है। यह बौद्ध नव वर्ष पर किया जाता है। भारतीय समाज बहुधर्मिक, बहुभाषी तथा मिश्र-सांस्कृतिक है। पारंपरिक भारतीय पारिवारिक मूल्यों को काफी आदर की दृष्टि से देखा जाता है। विभिन्न धर्मों के इस भूभाग पर कई मनभावन पर्व त्यौहार मनाए जाते हैं - दिवाली, होली, दशहरा. पोंगल तथा ओणम . ईद उल-फ़ित्र, ईद-उल-जुहा, मुहर्रम, क्रिसमस, ईस्टर आदि भी काफ़ी लोकप्रिय हैं। हालाँकि हॉकी देश का राष्ट्रीय खेल है, क्रिकेट सबसे अधिक लोकप्रिय है। वर्तमान में फुटबॉल, हॉकी तथा टेनिस में भी बहुत भारतीयों की अभिरुचि है। देश की राष्ट्रीय क्रिकेट टीम १९८३ और २०११ में दो बार विश्व कप और २००७ का २०-२० विश्व-कप जीत चुकी है। इसके अतिरिक्त वर्ष २००३ में वह विश्व कप के फाइनल तक पहुँची थी। १९३० तथा ४० के दशक में हॉकी भारत में अपने चरम पर थी। मेजर ध्यानचंद ने हॉकी में भारत को बहुत प्रसिद्धि दिलाई और एक समय भारत ने अमरीका को २४-० से हराया था जो अब तक विश्व कीर्तिमान है। शतरंज के जनक देश भारत के खिलाड़ी विश्वनाथ आनंद ने अच्छा प्रदर्शन किया है। भारतीय खानपान बहुत ही समृद्ध है। शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों ही तरह का खाना पसन्द किया जाता है। भारतीय व्यंजन विदेशों में भी बहुत पसन्द किए जाते हैं। भारत में संगीत तथा नृत्य की अपनी शैलियां भी विकसित हुईं, जो बहुत ही लोकप्रिय हैं। भरतनाट्यम, ओडिसी, कथक प्रसिद्ध भारतीय नृत्य शैली है। हिन्दुस्तानी संगीत तथा कर्नाटक संगीत भारतीय परंपरागत संगीत की दो मुख्य धाराएं हैं। वैश्वीकरण के इस युग में शेष विश्व की तरह भारतीय समाज पर भी अंग्रेजी तथा यूरोपीय प्रभाव पड़ रहा है। बाहरी लोगों की खूबियों को अपनाने की भारतीय परंपरा का नया दौर कई भारतीयों की दृष्टि में उचित नहीं है। एक खुले समाज के जीवन का यत्न कर रहे लोगों को मध्यमवर्गीय तथा वरिष्ठ नागरिकों की उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। कुछ लोग इसे भारतीय पारंपरिक मूल्यों का हनन भी मानते हैं। विज्ञान तथा साहित्य में अधिक प्रगति न कर पाने की वजह से भारतीय समाज यूरोपीय लोगों पर निर्भर होता जा रहा है। ऐसे समय में लोग विदेशी अविष्कारों का भारत में प्रयोग अनुचित भी समझते हैं। विदेश-सम्बन्ध मुख्य लेख : भारत के वैदेशिक सम्बन्ध चित्र:Dmitry Medvedev at the 34th G8 Summit 7-9 जुलाई 2008-61.jpg भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ रूसी राष्ट्रपति, 34वाँ जी-8 शिखर सम्मेलन 1947 में अपनी स्वतंत्रता के बाद, भारत के अधिकांश देशों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखा है। 1950 के दशक में, भारत ने पुरजोर रूप से अफ्रीका और एशिया में यूरोपीय उपनिवेशों की स्वतंत्रता का समर्थन किया और गुट निरपेक्ष आंदोलन में एक अग्रणी की भूमिका निभाई।[54] 1980 के दशक में भारत दो पड़ोसी देशों के निमंत्रण पर, सेना के द्वारा संक्षिप्त सैन्य हस्तक्षेप किया, एक श्रीलंका मे और दुसरा मालदीव में। भारत के पड़ोसी पाकिस्तान के साथ एक तनाव भरा संबंध है और दोनों देशों के बीच चार बार युद्ध हुआ है, 1947, 1965, 1971 और 1999में। कश्मीर विवाद इन युद्धों का प्रमुख कारण था।[55] 1962 के भारत - चीन युद्ध और पाकिस्तान के साथ 1965 के युद्ध के बाद भारत और सोवियत संघ के साथ सैन्य संबंधों मे॑ काफी बढ़ोतरी हुई। 1960 के दशक के अन्त में सोवियत संघ भारत का सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता के रूप में उभरी थी।[56] रूस के साथ सामरिक संबंधों के अलावा, भारत का इजरायल और फ्रांस के साथ विस्तृत रक्षा संबंध हैं। हाल के वर्षों में, भारत ने क्षेत्रीय सहयोग और विश्व व्यापार संगठन के लिए एक दक्षिण एशियाई एसोसिएशन में प्रभावशाली भूमिका निभाई है|[57] भारत ने 100,000 सैन्य और पुलिस कर्मियों को चार महाद्वीपों भर में संयुक्त राष्ट्र के पैंतीस शांति अभियानों में सेवा प्रदान की है।[58] भारत ने विभिन्न बहुपक्षीय मंचों, सबसे खासकर पूर्वी एशिया के शिखर बैठक और जी-8 5 में एक सक्रिय भागीदारी निभाई है। आर्थिक क्षेत्र में भारत का दक्षिण अमेरिका, एशिया, और अफ्रीका के विकासशील देशों के साथ घनिष्ठ संबंध है।[59] [60] %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%9A%E0%A4%B2_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 हिमाचल प्रदेश (अंग्रेज़ी: Himachal Pradesh, पंजाबी: ਹਿਮਾਚਲ ਪ੍ਰਦੇਸ਼, उच्चारण [hɪmaːtʃəl prəd̪eːʃ] (सहायता·info)) उत्तर-पश्चिमी भारत में स्थित एक राज्य है। यह 21,629 मील² (56019 किमी²)[4] से अधिक क्षेत्र में फ़ैला है तथा उत्तर में जम्मू कश्मीर, पश्चिम तथा दक्षिण-पश्चिम में पंजाब (भारत), दक्षिण में हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश, दक्षिण-पूर्व में उत्तराखण्ड तथा पूर्व में तिब्बत से घिरा हुआ है। हिमाचल प्रदेश का शाब्दिक अर्थ बर्फ़ीले पहाड़ों का प्रांत है।[5] हिमाचल प्रदेश को देव भूमि भी कहा जाता है। इस क्षेत्र में आर्यों का प्रभाव ऋग्वेद से भी पुराना है। आंग्ल-गोरखा युद्ध के बाद, यह ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के हाथ में आ गया। सन 1857 तक यह महाराजा रणजीत सिंह के शासन के अधीन पंजाब राज्य (पंजाब हिल्स के सीबा राज्य को छोड़कर) का हिस्सा था।[6] सन 1950 मे इसे केन्द्र शासित प्रदेश बनाया गया, लेकिन 1971 मे इसे, हिमाचल प्रदेश राज्य अधिनियम-1971 के अन्तर्गत इसे 25 जून 1971 को भारत का अठारहवाँ राज्य बनाया गया। हिमाचल प्रदेश की प्रतिव्यक्ति आय भारत के किसी भी अन्य राज्य की तुलना में अधिक है। बारहमासी नदियों की बहुतायत के कारण, हिमाचल अन्य राज्यों को पनबिजली बेचता है जिनमे प्रमुख हैं दिल्ली, पंजाब (भारत) और राजस्थान। राज्य की अर्थव्यवस्था तीन प्रमुख कारकों पर निर्भर करती है जो हैं, पनबिजली, पर्यटन और कृषि।[7] हिंदु राज्य की जनसंख्या का 95% हैं और प्रमुख समुदायों मे ब्राह्मण, राजपूत, घिर्थ (चौधरी), गद्दी, कन्नेत, राठी और कोली शामिल हैं। ट्रान्सपरेन्सी इंटरनैशनल के 2005 के सर्वेक्षण के अनुसार, हिमाचल प्रदेश देश में केरल के बाद दूसरी सबसे कम भ्रष्ट राज्य है।[8] अनुक्रम [छुपाएँ] 1 इतिहास 2 भूगोल 2.1 नदियां 3 जलवायु 4 कृषि 4.1 बागवानी 4.2 वानिकी 5 सड़कें 6 सिंचाई और जलापूर्ति 7 पर्यटन 7.1 पर्यटन आकर्षण 8 राजनीति 9 परिवहन 10 हिमाचल प्रदेश के जिले 11 जनांकिक 12 संस्कृति 13 पहाड़ी चित्रकला 14 खनिज संपदा 15 संचार माध्यम 16 प्रदेश की बिजली परियोजनाएं 17 संदर्भ 18 बाहरी कड़ियां इतिहास[संपादित करें] मुख्य लेख : हिमाचल प्रदेश का इतिहास Sansar chand.jpg Chamba Kangra Bilaspur Mandi Kulu 1911.jpeg NahanStamp1800s.jpg Punjab 1903.gif Wood Carver at Shimla, pencil and ink drawing by John Lockwood Kipling, 1870.jpg Temple near the waterfall at Shimla, 1853.jpg Narasimha Temple, Brahmaur, Chamba.jpg हिमाचल प्रदेश का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना कि मानव अस्तित्व का अपना इतिहास है। इस बात की सत्यता के प्रमाण हिमाचल प्रदेश के विभिन्न भागों में हुई खुदाई में प्राप्त सामग्रियों से मिलते हैं। प्राचीनकाल में इस प्रदेश के आदि निवासी दास, दस्यु और निषाद के नाम से जाने जाते थे। उन्नीसवीं शताब्दी में रणजीत सिंह ने इस क्षेत्र के अनेक भागों को अपने राज्य में मिला लिया। जब अंग्रेज यहां आए, तो उन्होंने गोरखा लोगों को पराजित करके कुछ राजाओं की रियासतों को अपने साम्राज्य में मिला लिया। शिमला हिल स्टेट्स की स्थापना 1945 ई. तक प्रदेश भर में प्रजा मंडलों का गठन हो चुका था। 1946 ई. में सभी प्रजा मंडलों को एचएचएसआरसी में शामिल कर लिया तथा मुख्यालय मंडी में स्थापित किया गया। मंडी के स्वामी पूर्णानंद को अध्यक्ष, पदमदेव को सचिव तथा शिव नंद रमौल (सिरमौर) को संयुक्त सचिव नियुक्त किया। एचएचएसआरसी के नाहन में 1946 ई. में चुनाव हुए, जिसमें यशवंत सिंह परमार को अध्यक्ष चुना गया। जनवरी, 1947 ई. में राजा दुर्गा चंद (बघाट) की अध्यक्षता में शिमला हिल्स स्टेट्स यूनियन की स्थापना की गई। जनवरी, 1948 ई. में इसका सम्मेलन सोलन में हुआ। हिमाचल प्रदेश के निर्माण की घोषणा इस सम्मेलन में की गई। दूसरी तरफ प्रजा मंडल के नेताओं का शिमला में सम्मेलन हुआ, जिसमें यशवंत सिंह परमार ने इस बात पर जोर दिया कि हिमाचल प्रदेश का निर्माण तभी संभव है, जब शक्ति प्रदेश की जनता तथा राज्य के हाथ सौंप दी जाए। शिवानंद रमौल की अध्यक्षता में हिमालयन प्लांट गर्वनमेंट की स्थापना की गई, जिसका मुख्यालय शिमला में था। दो मार्च, 1948 ई. को शिमला हिल स्टेट के राजाओं का सम्मेलन दिल्ली में हुआ। राजाओं की अगवाई मंडी के राजा जोगेंद्र सेन कर रहे थे। इन राजाओं ने हिमाचल प्रदेश में शामिल होने के लिए 8 मार्च 1948 को एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। 15 अप्रैल 1948 ई. को हिमाचल प्रदेश राज्य का निर्माण किया था। उस समय प्रदेश भर को चार जिलों में बांटा गया और पंजाब हिल स्टेट्स को पटियाला और पूर्व पंजाब राज्य का नाम दिया गया। 1948 ई. में सोलन की नालागढ़ रियासत कों शामिल किया गया। अप्रैल 1948 में इस क्षेत्र की 27,000 वर्ग कि॰मी॰ में फैली लगभग 30 रियासतों को मिलाकर इस राज्य को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया। 1950 ई. में प्रदेश का पुनर्गठन 1950 ई. में प्रदेश के पुनर्गठन के अंतर्गत प्रदेश की सीमाओं का पुनर्गठन किया गया। कोटखाई को उपतहसील का दर्जा देकर खनेटी, दरकोटी, कुमारसैन उपतहसील के कुछ क्षेत्र तथा बलसन के कुछ क्षेत्र तथा बलसन के कुछ क्षेत्र कोटखाई में शामिल किए गए। कोटगढ़ को कुमारसैन उपतहसील में मिला गया। उत्तर प्रदेश के दो गांव संगोस और भांदर जुब्बल तहसील में शामिल कर दिए गए। पंजाब के नालागढ़ से सात गांव लेकर सोलन तहसील में शामिल गए गए। इसके बदले में शिमला के नजदीक कुसुम्पटी, भराड़ी, संजौली, वाक्ना, भारी, काटो, रामपुर। इसके साथ ही पेप्सी (पंजाब) के छबरोट क्षेत्र कुसुम्पटी तहसील में शामिल कर दिया गया। बिलासपुर जिला का विलय बिलासपुर रियासत को 1948 ई. में प्रदेश से अलग रखा गया था। उन दिनों इस क्षेत्र में भाखड़ा-बांध परियोजना का कार्य चलाने के कारण इसे प्रदेश में अलग रखा गया। एक जुलाई, 1954 ई. को कहलूर रियासत को प्रदेश में शामिल करके इसे बिलासपुर का नाम दिया गया। उस समय बिलासपुर तथा घुमारवीं नामक दो तहसीलें बनाई गईं। यह प्रदेश का पांचवां जिला बना। 1954 में जब ‘ग’ श्रेणी की रियासत बिलासपुर को इसमें मिलाया गया, तो इसका क्षेत्रफल बढ़कर 28,241 वर्ग कि.मी.हो गया। किन्नौर जिला की स्थापना एक मई, 1960 को छठे जिला के रूप में किन्नौर का निर्माण किया गया। इस जिला में महासू जिला की चीनी तहसील तथा रामपुर तहसील को 14 गांव शामिल गए गए। इसकी तीन तहसीलें कल्पा, निचार और पूह बनाई गईं। पंजाब का पुनर्गठन वर्ष 1966 में पंजाब का पुनर्गठन किया गया तथा पंजाब व हरियाणा दो राज्य बना दिए गए। भाषा तथा तिहाड़ी क्षेत्र के पंजाब से लेकर हिमाचल प्रदेश में शामिल कर दिए गए। संजौली, भराड़ी, कुसुमपटी आदि क्षेत्र जो पहले पंजाब में थे तथा नालागढ़ आदि जो पंजाब में थे, उन्हें पुनः हिमाचल प्रदेश में शामिल कर दिया गया। सन 1966 में इसमें पंजाब के पहाड़ी क्षेत्रों को मिलाकर इसका पुनर्गठन किया गया तो इसका क्षेत्रफल बढ़कर 55,673 वर्ग कि॰मी॰ हो गया। 1972 ई. में पुनर्गठन हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा २५ जनवरी १९७१ को मिला। 1 नवम्बर 1972 को कांगड़ा ज़िले के तीन ज़िले कांगड़ा, ऊना तथा हमीरपुर बनाए गए। महासू ज़िला के क्षेत्रों में से सोलन ज़िला बनाया गया। भूगोल[संपादित करें] मुख्य लेख : हिमाचल प्रदेश का भूगोल हिमाचल प्रदेश हिमालय पर्वत की शिवालिक श्रेणी का हिस्सा है। शिवालिक पर्वत श्रेणी से ही घग्गर नदी निकलती है। राज्य की अन्य प्रमुख नदियों में सतलुज और व्यास शामिल है। हिमाचल हिमालय का सुदूर उत्तरी भाग लद्दाख के ठंडे मरुस्थल का विस्तार है और लाहौल एवं स्पिति जिले के स्पिति उपमंडल में है। हिमालय की तीनों मुख्य पर्वत श्रंखलाएँ, बृहत हिमालय, लघु हिमालय; जिन्हें हिमाचल में धौलाधार और उत्तरांचल में नागतीभा कहा जाता है और उत्तर-दक्षिण दिशा में फैली शिवालिक श्रेणी, इस हिमालय खंड में स्थित हैं। लघु हिमालय में 1000 से 2000 मीटर ऊँचाई वाले पर्वत ब्रिटिश प्रशासन के लिए मुख्य आकर्षण केंद्र रहे हैं। नदियां[संपादित करें] हिमाचल प्रदेश में पांच प्रमुख नदियां बहती हैं। हिमाचल प्रदेश में बहने वाले पांचों नदियां एवं छोटे-छोटे नाले बारह मासी हैं। इनके स्रोत बर्फ से ढकी पहाडि़यों में स्थित हैं। हिमाचल प्रदेश में बहने वाली पांच नदियों में से चार का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। उस समय ये अन्य नामों से जानी जाती थीं जैसे अरिकरी (चिनाब) पुरूष्णी (रावी), अरिजिकिया (ब्यास) तथा शतदुई (सतलुज) पांचवी नदी यमुना जो यमुनोत्तरी से निकलती है उसका सूर्य देव से पौराणिक संबंध दर्शाया जाता है। रावी नदीः रावी नदी का प्राचीन नाम ‘इरावती और परोष्णी’ है। रावी नदी मध्य हिमालय की धौलाधार शृंखला की शाखा बड़ा भंगाल से निकलती है। रावी नदी ‘भादल’ और ‘तांतागिरि’ दो खड्डों से मिलकर बनती है। ये खड्डें बर्फ पिघलने से बनती है। यह नदी चंबा से खेड़ी के पास पंजाब (भारत) में प्रवेश करती है और पंजाब से पाकिस्तान में प्रवेश करती है। यह भरमौर और चंबा शहर में बहती है। यह बहुत ही उग्र नदी है। इसकी सहायक नदियां तृण दैहण, बलजैडी, स्यूल, साहो, चिडाचंद, छतराड़ी और बैरा हैं। इसकी लंबाई 720 किलोमीटर है, परंतु हिमाचल में इसकी लंबाई 158 किलोमीटर है। सिकंदर महान के साथ आए यूनानी इतिहासकार ने इसे ‘हाइड्रास्टर और रहोआदिस’ का नाम दिया था। ब्यास नदीः ब्यास नदी का पुराना नाम ‘अर्जिकिया’ या ‘विपाशा’ था। यह कुल्लू में व्यास कुंड से निकलती है। व्यास कुंड पीर पंजाल पर्वत शृंखला में स्थित रोहतांग दर्रे में है। यह कुल्लू, मंडी, हमीरपुर और कांगड़ा में बहती है। कांगड़ा से मुरथल के पास पंजाब में चली जाती है। मनाली, कुल्लू, बजौरा, औट, पंडोह, मंडी, सुजानपुर टीहरा, नादौन और देहरा गोपीपुर इसके प्रमुख तटीय स्थान हैं। इसकी कुल लंबाई 460 कि॰मी॰ है। हिमाचल में इसकी लंबाई 260 कि॰मी॰ है। कुल्लू में पतलीकूहल, पार्वती, पिन, मलाणा-नाला, फोजल, सर्वरी और सैज इसकी सहायक नदियां हैं। कांगड़ा में सहायक नदियां बिनवा न्यूगल, गज और चक्की हैं। इस नदी का नाम महर्षि ब्यास के नाम पर रखा गया है। यह प्रदेश की जीवनदायिनी नदियों में से एक है। चिनाव नदीः चिनाव नदी जम्मू-कश्मीर से होती हुई पंजाब राज्य में बहने वाली नदी है। पानी के घनत्व की दृष्टि से यह प्रदेश की सबसे बड़ी नदी है। यह नदी समुद्र तल से लगभग 4900 मीटर की ऊंचाई पर बारालाचा दर्रे (लाहौल स्पीति) के पास से निकलने वाली चन्द्रा और भागा नदियों के तांदी नामक स्थान पर मिलने से बनती है। इस नदी को वैदिक साहित्य में ‘अश्विनी’ नाम से संबोधित किया गया है। ऊपरी हिमालय पर टांडी में ‘चन्द्र’ और ‘भागा’ नदियां मिलती हैं, जो चिनाव नदी कहलाती है। महाभारत काल में इस नदी का नाम ‘चंद्रभागा’ भी प्रचलित हो गया था। ग्रीक लेखकों ने चिनाव नदी को ‘अकेसिनीज’ लिखा है, जो अश्विनी का ही स्पष्ट रूपांतरण है। चंद्रभागा नदी मानसरोवर (तिब्ब्त) के निकट चंद्रभागा नामक पर्वत से निस्तृत होती है और सिंधु नदी में गिर जाती है। चिनाव नदी की ऊपरी धारा को चद्रभागा कहकर, पुःन शेष नदी का प्राचीन नाम अश्विनी कहा गया है। इस नदी को हिमाचल से अदभुत माना गया है। इस नदी का तटवर्ती प्रदेश पूर्व गुप्त काल में म्लेच्छों तथा यवन शव आदि द्वारा शासित था। जलवायु[संपादित करें] मुख्य लेख : हिमाचल प्रदेश की जलवायु हिमाचल में तीन ऋतुएं होती हैं - ग्रीष्म ऋतु, शरद ऋतु और वर्षा ऋतु। हिमाचल प्रदेश की समुद्रतल से ऊंचाई की विविधता के कारण जलवायु में भी भिन्नता है। कहीं सारा वर्ष बर्फ गिरती है, तो कहीं गर्मी होती हे। हिमाचल में गर्म पानी के चशमें भी हैं और हिमनद भी है। ऐसा समुद्रतल से ऊंचाई की भिन्नता की वजह से है। कृषि[संपादित करें] मुख्य लेख : कृषि (हिमाचल प्रदेश) कृषि हिमाचल प्रदेश का प्रमुख व्‍यवसाय है। यह राज्‍य की अर्थव्‍यवस्‍था में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह 69 प्रतिशत कामकाजी आबादी को सीधा रोजगार मुहैया कराती है। कृषि और उससे संबंधित क्षेत्र से होने वाली आय प्रदेश के कुल घरेलू उत्‍पाद का 22.1 प्रतिशत है। कुल भौगोलिक क्षेत्र 55.673 लाख हेक्‍टेयर में से 9.79 लाख हेक्‍टेयर भूमि के स्‍वामी 9.14 लाख किसान हैं। मंझोले और छोटे किसानो के पास कुल भूमि का 86.4 प्रतिशत भाग है। राज्‍य में कृषि भूमि केवल 10.4 प्रतिशत है। लगभग 80 प्रतिशत क्षेत्र वर्षा-सिंचित है और किसान इंद्र देवता पर निर्भर रहते हैं। बागवानी[संपादित करें] प्रकृति ने हिमाचल प्रदेश को व्‍यापक कृषि जलवायु परिस्थितियां प्रदान की हैं जिसकी वजह से किसानों को विविध फल उगाने में सहायता मिली है। बागवानी के अंतर्गत आने वाले प्रमुख फल हैं-सेब, नाशपाती, आडू, बेर, खूमानी, गुठली वाले फल, नींबू प्रजाति के फल, आम, लीची, अमरूद और झरबेरी आदि। 1950 में केवल 792 हेक्‍टेयर क्षेत्र बागवानी के अंतर्गत था, जो बढ़कर 2.23 लाख हेक्‍टेयर हो गया है। इसी तरह,1950 में फल उत्‍पादन 1200 मीट्रिक टन था, जो 2007 में बढकर 6.95 लाख टन हो गया है। वानिकी[संपादित करें] राज्‍य का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 55,673 वर्ग किलोमीटर है। वन रिकार्ड के अनुसार कुल वन क्षेत्र 37,033 वर्ग किलोमीटर है। इसमें से 16,376 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र ऐसा है जहां पहाड़ी चरागाह वाली वनस्‍पतियां नहीं उगाई जा सकतीं क्‍योंकि यह स्‍थायी रूप से बर्फ से ढका रहता है। राज्‍य में 2 राष्‍ट्रीय पार्क और 32 वन्‍यजीवन अभयारण्‍य हैं। वन्‍यजीवन अभयारण्‍य के अंतर्गत कुल क्षेत्र 5,562 कि.मी., राष्‍ट्रीय पार्क के अंतर्गत 1,440 कि॰मी॰ है। इस तरह कुल संरक्षित क्षेत्र 7,002 कि॰मी॰ है। सड़कें[संपादित करें] हिमाचल प्रदेश राज्‍य में यहां की सड़कें ही यहां की जीवन रेखा हैं और ये संचार के प्रमुख साधन हैं। इसके 55,673 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में से 36,700 किलोमीटर में बसाहट है, जिसमें से 16,807 गांव अनेक पर्वतीय श्रृखलाओं और घाटियों के ढलानों पर फैले हुए हैं। जब यह राज्‍य 1948 में अस्तित्‍व में आया, तो यहां केवल 288 कि॰मी॰ लंबी सड़कें थीं जो 15 अगस्‍त 2007 तक बढ़कर 30,264 हो गई हैं। सिंचाई और जलापूर्ति[संपादित करें] साल 2007 तक हिमाचल प्रदेश में कुल बुवाई क्षेत्र 5.83 लाख हेक्‍टेयर था। गांवों में पीने के पानी की सुविधा उपलब्‍ध कराई गई और अब तक राज्‍य में 14,611 हैंडपंप लगाए जा चुके हैं। हिमाचल प्रदेश में भूजल की उलब्धता 36,615.92 हैक्टेयर मीटर (है.मी.) है।[9] पर्यटन[संपादित करें] A Village near Trilokinath temple, Lahaul.jpg After Sliding The Glacier.jpg Chamba Valley, Himachal Pradesh, c1865.jpg Chamba Valley.jpg Marhi between Manali and Rohtang Pass.JPG View of a Himalayan valley, Himchal Pradesh.jpg Dharamkot in Dharamsala.jpg Kufri Simla Himachal Inida (12).JPG पर्यटन उद्योग को हिमाचल प्रदेश में उच्‍च प्राथमिकता दी गई है और हिमाचल सरकार ने इसके विकास के लिए समुचित ढांचा विकसित किया है जिसमें जनोपयोगी सेवाएं, सड़कें, संचार तंत्र हवाई अड्डे यातायात सेवाएं, जलापूर्ति और जन स्‍वास्‍थ्‍य सेवाएं शामिल है। राज्‍य पर्यटन विकास निगम राज्‍य की आय में 10 प्रतिशत का योगदान करता है। राज्‍य में तीर्थो और नृवैज्ञानिक महत्‍व के स्‍थलों का समृद्ध भंडार है। राज्‍य को व्‍यास, पाराशर, वसिष्‍ठ, मार्कण्‍डेय और लोमश आदि ऋषियों के निवास स्‍थल होने का गौरव प्राप्‍त है। गर्म पानी के स्रोत, ऐतिहासिक दुर्ग, प्राकृतिक और मानव निर्मित झीलें, उन्‍मुक्‍त विचरते चरवाहे पर्यटकों के लिए असीम सुख और आनंद का स्रोत हैं। पर्यटन आकर्षण[संपादित करें] चंबा घाटी चंबा घाटी (915 मीटर) की ऊंचाई पर रावी नदी के दाएं किनारे पर है। पुराने समय में राजशाही का राज्‍य होने के नाते यह लगभग एक शताब्‍दी पुराना राज्‍य है और 6वीं शताब्‍दी से इसका इतिहास मिलता है। यह अपनी भव्‍य वास्‍तुकला और अनेक रोमांचक यात्राओं के लिए एक आधार के तौर पर विख्‍यात है। डलहौज़ी पश्चिमी हिमाचल प्रदेश में डलहौज़ी नामक यह पर्वतीय स्‍थान पुरानी दुनिया की चीजों से भरा पड़ा है और यहां राजशाही युग की भाव्‍यता बिखरी पड़ी है। यह लगभग 14 वर्ग किलो मीटर फैला है और यहां काठ लोग, पात्रे, तेहरा, बकरोटा और बलूम नामक 5 पहाडियां है। इसे 19वीं शताब्‍दी में ब्रिटिश गवर्नर जनरल, लॉड डलहौज़ी के नाम पर बनाया गया था। इस कस्‍बे की ऊंचाई लगभग 525 मीटर से 2378 मीटर तक है और इसके आस पास विविध प्रकार की वनस्‍पति-पाइन, देवदार, ओक और फूलों से भरे हुए रोडो डेंड्रॉन पाए जाते हैं डलहौज़ी में मनमोहक उप निवेश यु‍गीन वास्‍तुकला है जिसमें कुछ सुंदर गिरजाघर शामिल है। यह मैदानों के मनोरम दृश्‍यों को प्रस्‍तुत करने के साथ एक लंबी रजत रेखा के समान दिखाई देने वाले रावी नदी के साथ एक अद्भुत दृश्‍य प्रदर्शित करता है जो घूम कर डलहौज़ी के नीचे जाती है। बर्फ से ढका हुआ धोलाधार पर्वत भी इस कस्‍बे से साफ दिखाई देता है। धर्मशाला धर्मशाला की ऊंचाई 1,250 मीटर (4,400 फीट) और 2,000 मीटर (6,460 फीट) के बीच है। यह अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, जहां पाइन के ऊंचे पेड़, चाय के बागान और इमारती लकड़ी पैदा करने वाले बड़े वृक्ष ऊंचाई, शांति तथा पवित्रता के साथ यहां खड़े दिखाई देते हैं। वर्ष 1960 से, जब से दलाई लामा ने अपना अस्‍थायी मुख्‍यालय यहां बनाया, धर्मशाला की अंतरराष्‍ट्रीय ख्‍याति भारत के छोटे ल्‍हासा के रूप में बढ़ गई है। कुफरी अनंत दूरी तक चलता आकाश, बर्फ से ढकी चोटियां, गहरी घाटियां और मीठे पानी के झरने, कुफरी में यह सब है। यह पर्वतीय स्‍थान शिमला के पास समुद्री तल से 2510 मीटर की ऊंचाई पर हिमाचल प्रदेश के दक्षिणी भाग में स्थित है। कुफरी में ठण्‍ड के मौसम में अनेक खेलों का आयोजन किया जाता है जैसे स्‍काइंग और टोबोगेनिंग के साथ चढ़ाडयों पर चढ़ना। ठण्‍ड के मौसम में हर वर्ष खेल कार्निवाल आयोजित किए जाते हैं और यह उन पर्यटकों के लिए एक बड़ा आकर्षण है जो केवल इन्‍हें देखने के लिए यहां आते हैं। यह स्‍थान ट्रेकिंग और पहाड़ी पर चढ़ने के लिए भी जाना जाता है जो रोमांचकारी खेल प्रेमियों का आदर्श स्‍थान है। मनाली कुल्‍लू से उत्तर दिशा में केवल 40 किलो मीटर की दूरी पर लेह की ओर जाने वाले राष्‍ट्रीय राजमार्ग पर घाटी के सिरे के पास मनाली स्थित है। लाहुल, स्‍पीति, बारा भंगल (कांगड़ा) और जनस्‍कर पर्वत श्रृंखला पर चढ़ाई करने वालों के लिए यह एक मनपसंद स्‍थान है। मंदिरों से अनोखी चीजों तक, यहां से मनोरम दृश्‍य और रोमांचकारी गतिविधियां मनाली को हर मौसम और सभी प्रकार के यात्रियों के बीच लोकप्रिय बनाती हैं। कुल्‍लू कुल्लू घाटी को पहले कुलंथपीठ कहा जाता था। कुलंथपीठ का शाब्दिक अर्थ है रहने योग्‍य दुनिया का अंत। कुल्‍लू घाटी भारत में देवताओं की घाटी रही है। यहां के मंदिर, सेब के बागान और दशहरा हजारों पर्यटकों को कुल्‍लू की ओर आकर्षित करते हैं। यहां के स्‍थानीय हस्‍तशिल्‍प कुल्‍लू की सबसे बड़ी विशेषता है। शिमला हिमाचल प्रदेश की राजधानी और ब्रिटिश कालीन समय में ग्रीष्‍म कालीन राजधानी शिमला राज्‍य का सबसे महत्‍वपूर्ण पर्यटन केन्‍द्र है। यहां का नाम देवी श्‍यामला के नाम पर रखा गया है जो काली का अवतार है। शिमला लगभग 7267 फीट की ऊंचाई पर स्थित है और यह अर्ध चक्र आकार में बसा हुआ है। यहां घाटी का सुंदर दृश्‍य दिखाई देता है और महान हिमालय पर्वती की चोटियां चारों ओर दिखाई देती है। शिमला एक पहाड़ी पर फैला हुआ है जो करीब 12 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है। इसके पड़ोस में घने जंगल और टेढ़े-मेढे़ रास्ते हैं, जहां पर हर मोड़ पर मनोहारी दृश्य देखने को मिलते हैं। यह एक आधुनिक व्यावसायिक केंद्र भी है। शिमला विश्व का एक महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। यहां प्रत्येक वर्ष देश-विदेश से बड़ी संख्या में लोग भ्रमण के लिए आते हैं। बर्फ से ढकी हुई यहां की पहाडि़यों में बड़े सुंदर दृश्य देखने को मिलते हैं जो पर्यटकों को बार-बार आने के लिए आकर्षित करते हैं। शिमला संग्रहालय हिमाचल प्रदेश की कला एवं संस्कृति का एक अनुपम नमूना है, जिसमें यहां की विभिन्न कलाकृतियां विशेषकर वास्तुकला, पहाड़ी कलम, सूक्ष्म कला, लकडि़यों पर की गई नक्काशियां, आभूषण एवं अन्य कृतियां संग्रहित हैं। शिमला में दर्शनीय स्थलों के अतिरिक्त कई अध्ययन केंद्र भी हैं, जिनमें लार्ड डफरिन द्वारा 1884-88 में निर्मित भारतीय उच्च अध्ययन केंद्र बहुत ही प्रसिद्ध है। यहां कुछ ऐतिहासिक सरकारी भवन भी हैं, जैसे वार्नेस कोर्ट, गार्टन कैसल व वाइसरीगल लॉज ये भी बड़े ही दर्शनीय स्थल हैं। चैडविक झरना भी एक प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है। इसके साथ ही ग्लेन नामक स्थल भी है। इसके समीप बहता हुआ झरना और सदाबहार जंगल बहुत ही आकर्षक हैं। राजनीति[संपादित करें] YS+Parmar.jpg Thakur Ram Lal.jpg Virbhadra Singh HP.jpg वर्ष 1971 में हिमाचल प्रदेश को राज्य का दर्जा मिलने के बाद यहां कांग्रेस और भाजपा की बारी-बारी से सरकारें बनती रही है। विधान सभा मुख्य लेख : हिमाचल प्रदेश विधान सभा हिमाचल प्रदेश विधान सभा शिमला में स्थित है। वर्तमान हिमाचल प्रदेश विधानसभा एकसदनीय है। विधानसभा चुनाव २०१२ मुख्य लेख : हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव 2012 नवम्बर २०१२ मे हिमाचल प्रदेश की हिमाचल प्रदेश विधानसभा के लिए हुआ चुनाव था। कांग्रेस ने इस चुनाव में जीत हासिल की। ६८ सीटो में से ३६ सीट जीत कर कांग्रेस पार्टी ने सरकार बनाई। हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव २०१२ परिणाम राजनीतिक दल (संक्षिप्त नाम) सदस्यों की संख्या कांग्रेस ३६ भाजपा २६ निर्दलीय ६ कुल ६८ सरकार मुख्य लेख : हिमाचल प्रदेश सरकार नवम्बर २०१२ मे कांग्रेस ने राज्य का विधानसभा चुनाव जीता। वीरभद्र सिंह राज्य के मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह (जन्म २३ जून १९३४) हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। दिसंबर २५, २०१२ को उन्होने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। लोकसभा लोकसभा में हिमाचल प्रदेश के ४ निर्वाचन क्षेत्र हैं। कांगड़ा, मंडी, शिमला और हमीरपुर। हिमाचल प्रदेश से चार सदस्य चुने जाते हैं। प्रदेश विधानसभा में 68 विधानसभा चुनाव क्षेत्र हैं। लोकसभा के चार चुनाव क्षेत्रों के अंतर्गत प्रत्येक चुनाव क्षेत्र में 17-17 विधानसभा क्षेत्र आते हैं। लाहुल-स्पीति, किन्नौर तथा भरमौर जनजातीय क्षेत्र हैं और ठंडे व दुर्गम क्षेत्र हैं। इस कारण इन क्षेत्रों में चुनाव प्रायः गर्मियों में करवाए जाते हैं। परिवहन[संपादित करें] मुख्य लेख : हिमाचल की परिवहन व्यवस्था सड़क मार्ग इस राज्य की यातायात का मुख्य माध्यम है। परंतु मानसून और ठंड के मौसम में भू-स्खलन और अन्य वजहों से यह काफी बाधित होता है। हिमाचल प्रदेश के जिले[संपादित करें] Himachal Pradesh locator map.svgबिलासपुरचंबाहमीरपुरकाँगड़ाकिन्नौरकुल्लूलाहौल और स्पीतीमंडीशिमलासिरमौरसोलनउना मुख्य लेख : हिमाचल प्रदेश के जिले हिमाचल प्रदेश के जिले काँगड़ा जिला हमीरपुर जिला मंडी जिला बिलासपुर जिला उना जिला चंबा जिला लाहौल और स्पीती जिला सिरमौर जिला किन्नौर जिला कुल्लू जिला सोलन जिला शिमला जिला जनांकिक[संपादित करें] रिज शिमला लाहौल के निकट गांव भारत की 2011 जनगणना के अनुसार हिमाचल प्रदेश की कुल जनसंख्या 68,64,602 है। इनमें पुरुषों की जनसंख्या 34,81,873 तथा महिलाओं की जनसंख्या 33,82,729 है। 2011 की जनगणना आंकड़ों के अनुसार हिमाचल प्रदेश का लिंग अनुपात 972/1000 और साक्षरता दर 82.8% है। क्र.सं जिला क्षेत्रफल किमी² मे जनसंख्या मुख्यालय 1 बिलासपुर 1,167 382,056 बिलासपुर 2 चंबा 6,528 518,844 चंबा 3 हमीरपुर 1,118 454, 293 हमीरपुर 4 काँगड़ा 5,739 1,507,223 धर्मशाला 5 किन्नौर 6,401 84,298 रिकाँग पिओ 6 कुल्लू 5,503 437,474 कुल्लू 7 लाहौल और स्पीती 13,835 31,528 केलोन्ग 8 मंडी 3,950 999,518 मंडी 9 शिमला 5,131 813,384 शिमला 10 सिरमौर 2,825 530,164 नाहन 11 सोलन 1,936 576,670 सोलन 12 उना 1,540 521,057 उना संस्कृति[संपादित करें] मुख्य लेख : हिमाचल प्रदेश की संस्कृति राज्य की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी, काँगड़ी, पहाड़ी, पंजाबी और मंडियाली शामिल हैं. हिन्दू, बौद्ध और सिख यहाँ के प्रमुख धर्म हैं। पश्चिम में धर्मशाला, दलाई लामा की शरण स्थली है। पहाड़ी चित्रकला[संपादित करें] हिमाचल प्रदेश में चित्रकला का इतिहास काफी समृद्ध रहा है। प्रदेश की चित्रकला का राष्ट्र के इतिहास में उल्लेखनीय योगदान है। यहां की चित्रकला की संपदा अज्ञात थी। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हिमाचल तथा पंजाब के अनेक स्थानों पर चित्रों के नमूनों की खोज की गई। मैटकाफ प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने कांगड़ा के पुरात्न महलों में चित्रों की खोज की गुलेर, सुजानपुर टीहरा तथा कांगड़ा ऐसे ही स्थान थे, जहां पर यह धरोहर छिपी हुई थी। खनिज संपदा[संपादित करें] हिमाचल में अनेक प्रकार के खनिज होते है। इनमें चूने का पत्थर, डोलोमाइट युक्त चूने की पत्थर, चट्टानी नमक, सिलिका रेत और स्लेट होते है। यहां लौह अयस्क, तांबा, चांदी, शीशा, यूरेनियम और प्राकृतिक गैस भी पाई जाती है। चट्टानी नमकः चट्टानी नमक में स्थानीय भाषा में लेखन कहा जाता है। यह भारत की एकमात्र चट्टानी नमक की खान है। मैगली में नमकीन पानी को सुखाकर नमक तैयार किया जाता है। चट्टानी नमक दवाइयां और पशु चारे के काम में प्रयुक्त होता है। प्राकृतिक तेल गैसः प्राकृतिक तेल गैस स्वारघाट (बिलासपुर) चौमुख (सुंदरनगर), चमकोल (हमीरपुर) तथा दियोटसिद्ध (हमीरपुर) में पाई जाती है। प्राकृतिक तेल गैस ज्वालामुखी (कांगड़ा) और रामशहर (सोलन) में भी पाई जाती है। स्लेट : प्रदेश में स्लेट की लगभग 222 छोटी व बड़ी खाने हैं। खनियारा (धर्मशाला), मंडी, कांगड़ा और चंबा में अच्छी मात्रा में स्लेट प्राप्त होता है। मंडी में स्लेट से टाइलें बनाने का कारखाना है। स्लेट छत्त और फर्श बनाने में प्रयुक्त होता है। अच्छा स्लेट, भारी हिमपात से भी नहीं टूटता है। सिलिका रेत : सिलिका रेत, बिलासपुर, हमीरपुर, कांगड़ा, ऊना और मंडी की खड्डों व नालों में पाई जाती है। ऊना जिला के पलकवा, हरोली, बाथड़ी खड्डों में चमकदार पत्थर व रेत पाई जाती है। यह भवन निर्माण, पुल, बांध और सड़कें बनाने में प्रयुक्त होती है। यूरेनियम : छिंजराढा, जरी (बंजार), ढेला, गढ़सा घाटी (कुल्लू) और हमीरपुर में यूरेनियम होने की संभावना का पता चला है। यह नाभिकीय ऊर्जा का स्रोत है। संचार माध्यम[संपादित करें] प्रदेश के विकास में संचार माध्यम अहम भूमिका निभा रहे है। प्रदेश के दुर्गम इलाकों तक इन संचार माध्यमों का विस्तार हो चुका है। वर्तमान प्रदेश में रेडियो, टेलिविजन, दूरभाष, तार, फैक्स, डाक, ई-मेल, इंटरनेट आदि सुविधाएं उपलब्ध है। 1914 में शिमला में देश का प्रथम स्वचालित दूरभाष केंद्र स्थापित किया गया था। पांच नवंबर, 1983 को लाहुल-स्पीति के हिक्किम क्षेत्र में विश्व का सर्वाधिक ऊंचाई वाला डाकघर खोला गया था। शिमला में प्रदेश का प्रथम आकाशवाणी केंद्र खोला गया। हमीरपुर, धर्मशाला, कुल्लू, कसौली और किन्नौर में आकाशवाणी केंद, प्रसारण केंद्र स्थापित किए गए है। तरंग टावर मंडी जिला के जोगिंदर नगर तहसील में स्थापित किया गया था। प्रदेश की बिजली परियोजनाएं[संपादित करें] हिमाचल प्रदेश में कई प्रकार से विद्युत ऊर्जा प्राप्त होती है। यह नाभिकीय स्रोत, जल विद्युत, सौर ऊर्जा, कोयले और पेट्रोलियम पदार्थ आदि से प्राप्त होती है। हिमाचल प्रदेश में जल विद्युत उत्पादन की अधिक क्षमता है, क्योंकि प्रदेश में पांच प्रमुख नदियां और अनेक सहायक नदियां हैं। नदियों पर बांध बनाकर जल विद्युत उत्पन्न की जाती है। प्रदेश में अनेक परियोजनाएं हैं, जिनमें से कुछ तो पूरी हो चुकी हैं और कुछ निर्माणाधीन हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है। पौंग बांध परियोजना- यह बांध कांगड़ा जिला में व्यास नदी पर देहरा से 35 किलोमीटर दूर पौंग गांव की भूमि पर बना है, जो देश का सबसे ऊंचा राक-फिल डैम है। इसकी ऊंचाई 435 फुट है और इस पर 160 करोड़ रुपए व्यय हुए हैं। इसमें 5.6 मिलियन एकड़ फुट पानी जमा रखा जाता है, हालांकि इसमें कुल 6.6 एकड़ मिलियन फुट पानी जमा किया जा सकता है। भाखड़ा बांध परियोजना-यह बांध सतलुज नदी पर जिला बिलासपुर के भाखड़ा गांव में बना है, जो सन् 1948 में शुरू होकर सन् 1963 में बनकर तैयार हुआ था। इसकी ऊंचाई 226 मीटर है। यह एशिया का सबसे ऊंचा बांध है। इसमें दो विद्युत घर हैं, जिनमें 1200 मेगावाट बिजली पैदा करने की क्षमता है। इस बांध के कारण गोविंद सागर झील बनी है। संदर्भ[संपादित करें] ऊपर जायें ↑ http://himachal.gov.in/cm.htm मुख्यमंत्री ऊपर जायें ↑ http://hpvidhansabha.nic.in/ हिमाचल प्रदेश विधानसभा ऊपर जायें ↑ http://hphighcourt.nic.in/gifs/jprofile.htm हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ऊपर जायें ↑ "भारत के बारे में सांख्यकीय तथ्य". www.indianmirror.com. अभिगमन तिथि: 2006-10-26. ऊपर जायें ↑ "हिमाचल प्रदेश का शाब्दिक अर्थ". www.himachalpradesh.us. अभिगमन तिथि: 2007-05-20. ऊपर जायें ↑ "हिमाचल का इतिहास". Suni system (P). अभिगमन तिथि: 2007-04-28. ऊपर जायें ↑ हिमाचल प्रदेश में अर्थव्यवस्था विकास yesbank.in अभिगमन तिथी- April 2008 ऊपर जायें ↑ "भारतीय भ्रष्टाचार अध्ययन - 2005". Transparency International. अभिगमन तिथि: 2007-05-29. ऊपर जायें ↑ http://hindi.indiawaterportal.org/ केंद्रीय भूजल बोर्ड बाहरी कड़ियां[संपादित करें] हिमाचल सरकार का आधिकारिक जालस्थल 2001 की जनगणना में हिमाचल के आंकड़े हिमाचल विकास रपट-भारतीय योजना आयोग हिमाचल सरकार का पर्यटन जालस्थल हिमाचल पर्यटन विकास निगम का जालस्थल हिमाचल में पर्यटन के बारे में और जानकारी हिमाचल के बारे में समाचार स्थल हिमाचल के विविध पक्षों पर आधारित जालस्थल - देवभूमि हिमाचल हिमाचल मित्र - हिमाचली समाज की रचनात्मक अभिव्यक्ति (हिन्दी वेब-पत्रिका) हिमाचल पर आधारित एक चिट्ठा (ब्लाग) हिमाचल प्रदेश के आर्टिकल्स Portal.svg हिमाचल प्रदेश प्रवेशद्वार जम्मू और कश्मीर पंजाब (भारत) North Flag of the People's Republic of China.svg चीन West हिमाचल प्रदेश East South हरियाणा उत्तर प्रदेश उत्तराखंड %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%A8_%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%B8 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 स्काउट- गाइड संस्था अनुशासन को बढ़ावा देने और अनुशासन में रहने का प्रशिक्षण देती है। इसके सदस्य भी वही हो सकते हैं जो अनुशासित हों और दूसरों को इसका महत्व समझा सके। यह मुख्य रूप से छात्रों में अनुशासन बढ़ाने और अनुशासन का विकास करने के लिये कार्य करती है। जब मैं इस विद्यालय मैं आया, तो उस दिन बुधवार था और अधिकतर बच्चे स्काउट्स एवं गाइड्स के सदस्य थे। यह देखकर मैं उत्साहित हो गया था, इससे पिछले विद्यालय में मैं स्काउट्स एवं गाइड्स का सदस्य था और इस साल भी मैं इसमें सदस्यता प्राप्त करना चाहता था। क्योंकि मुझे इसके बारे में जानकारी थी। यह एक समाज सेवा करने वाली संस्था है, जो एक देश की जनता को देशभक्ति, अनुशासन, कर्तव्य पालन, व समाज सेवा की भावना उत्पन्न करता है। यह खासतौर से युवाओं के लिये है, जिससे युवा पीढ़ी अनुशासन में रहना सीखते हैं, जो जीवन के निर्माण के लिये अत्यंत आवश्यक है। इसका आदर्श वाक्य ही "हमेशा तैयार रहो" है। जिसके कारण सभी स्काउट्स एवं गाइड्स हमेशा सेवा के लिये तत्पर रहते हैं। मैं इस विद्यालय में गर्मियों की छुट्टियों के ३ या ४ दिन पहले आया था, इसलिये मैं स्काउटिंग में हिस्सा नहीं ले पाया, परंतु विद्यालय में लौटने के बाद मैंने इसमें भाग ले लिया। यह मेरे लिये गर्व और सम्मान की बात थी और आज भी मुझे अपने स्काउट होने पर गर्व है। उसके कुछ महीनों बाद दो दिनों का कैंप आयोजित किया गया, जिसमें मैंने पहले दिन भाग लिया परंतु मेरे भाग्य ने मेरा साथ नहीं दिया और मुझे ’डेंगु’ नामक बीमारी हो गयी जिसके कारण मैं विद्यालय नहीं जा पाया और कैंप मैं भाग नहीं ले सका। इसके बाद मुझे प्रवेश का प्रमाण पत्र मिल गया। अगले साल विद्यालय में फिर से दो दिनों का कैंप आयोजित किया गया जिसमें मैंने दोनों दिनों तक हिस्सा लिया और सफ़लता पूर्वक प्रथम सोपान का प्रमाण पत्र प्राप्त किया। यह मेरे लिये अत्यंत हर्ष की बात थी परंतु मुझे यह नहीं पता था कि मेरी खुशी दोगुनी होने वाली है, अगले साल केन्द्रीय विद्यालय, सेक्टर ८, आर. के. पुरम में द्वितीय सोपान कैंप आयोजित किया गया जिसमें प्रत्येक विद्यालय से ८- ८ स्काउट्स और गाइड्स को हिस्सा लेना था। हमारे विद्यालय के स्काउटर या स्काउटिंग के मुख्य प्रशिक्षक श्री शशि कुमार त्रिपाठी जी ने हमारी कक्षा आठवीं ’ब’ से मुझे, मेरे दोस्तों- मोनू और योगेश को इस कैंप के लिये उपर्युक्त स्काउट समझे और दूसरी कक्षा आठवीं ’अ’ से राहुल, अनुराग, साहिल, सुनील और शिवम को कैंप के लिये चुना गया। इसके अगले दिन हम विद्यालय के नियमित समय से ज़ल्दी पहुंच गये और कुछ ही देर में हम आर. के. पुरम विद्यालय के लिये रवाना हो गये। स्काउट्स के साथ श्री मनोज पूनिया सर गए और गाइड्स के श्रीमति शशि पेशिन मैडम गयी। एक घंटे में हम अपने लक्ष्य तक पहुंच गए और हमनें नाश्ता किया। हमें एक कक्षा दी गयी। प्रत्येक कक्षा में दो- दो विद्यालयों को ठहरना था। इन दो दिनों में हमारे बहुत सारी परीक्षाएँ ली गयी, जिसमें हम सब उत्तीर्ण हो गए। हमनें प्रत्येक प्रतिस्पर्धाओं में हिस्सा लिया और कैंप फायर में हमनें "ए वतन, ए वतन" गीत प्रस्तुत किया। दो दिनों बाद सुबह ८:०० बजे हम अपने विद्यालय के लिये निकल पडे। कुछ हफ़्तों बाद हमें हमारे द्वितीय सोपान के प्रमाण पत्र सौंपे गये। पिछ्ले साल तृतीय सोपान उसी विद्यालय- केंद्रीय विद्यालय आर. के. पुरम में तीन दिनों का कैम्प आयोजित किया गया। इस साल भी मुझे, मेरे मित्रों- योगेश और मोनू, इसके अलावा मेरे दो मित्र रणजीत और अक्षय जो हमसे पहले गये थे, उन्हें भी चुना गया और दूसरी कक्षा से राहुल, अनुराग और साहिल को चुना गया। दो दिनों बाद हम निकल पड़े और सुबह ८ बजे हम पहुँचे। सब साथ सब कुछ पिछली बार की तरह ही हुआ। इस बार हमसे मौखिक परीक्षा और क्रियात्मक परीक्षा ली गई। कैम्प में भाग लेने के लिए हमें स्कार्फ और गोगल दिए गए। तीन दिनों की समाप्ति के बाद, जब हम अपने विद्यालय लौट रहे थे तभी हमें हमारे तृतीय सोपान के प्रमाण पत्र प्रदान किए गए। यह था मेरा अनुभव स्काउटिंग में, मुझे उम्मीद है कि सभी स्काउट्स एवं गाइड्स और देश का प्रत्येक नागरिक अपने कर्तव्य को समझें और देश को प्रगति के पथ पर खड़ा कर दें। नाम- नितेश कंसारा कक्षा- आठवीं 'ब' विद्यालय- केंद्रीय विद्यालय न. २, सोहना रोड, गुडगाँव| %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A8_%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 रसायनशास्त्र विज्ञान की वह शाखा है जिसमें पदार्थों के संघटन, संरचना, गुणों और रासायनिक प्रतिक्रिया के दौरान इनमें हुए परिवर्तनों[1] का अध्ययन किया जाता है। इसका शाब्दिक विन्यास रस+अयन है जिसका शाब्दिक अर्थ रसों (द्रवों) का अध्ययन है। यह एक भौतिक विज्ञान है जिसमें पदार्थों के परमाणुओं, अणुओं, क्रिस्टलों (रवों) और रासायनिक प्रक्रिया के दौरान मुक्त हुए या प्रयुक्त हुए ऊर्जा का अध्ययन किया जाता है। संक्षेप में रसायन विज्ञान रासायनिक पदार्थों[2] का वैज्ञानिक अध्ययन है। पदार्थों का संघटन परमाणु या उप-परमाण्विक कणों जैसे इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन[3] से हुआ है। रसायन विज्ञान को केंद्रीय विज्ञान या आधारभूत विज्ञान भी कहा जाता है क्योंकि यह दूसरे विज्ञानों जैसे, खगोलविज्ञान, भौतिकी, पदार्थ विज्ञान, जीवविज्ञान और भूविज्ञान को जोड़ता है।[4][5] अनुक्रम [छुपाएँ] 1 दस सर्वाधित प्रयुक्त रसायन 2 केमिस्ट्री की शब्दोत्पत्ति - भाषा वैज्ञानिक दृष्टि 3 रसायन विज्ञान के क्षेत्र 4 रसायन विज्ञान और हमारा जीवन 4.1 रोगोपचार में रसायन विज्ञान 4.1.1 औषधियों का वर्गीकरण 4.2 गिहिणियों के लिए तथा खाद्य पदार्थो में रसायन 4.3 कांच के निर्माण में रसायन 4.3.1 प्लास्टिक के साथ कांच 4.4 साबुन और अपमार्जक 4.5 स्टेशनरी 4.6 फोटोग्राफी 4.7 कीटाणुनाशक दवाइयां 4.8 सौन्दर्य प्रसाधनों में छिपे रसायन 4.9 कृषि रसायन 4.10 उद्योगों में प्रयुक्त रसायन 4.11 नाभिकीय रसायन विज्ञान 4.12 हरित रसायन 4.13 विभिन्न रहस्यों में छुपे रसायन 4.14 मेंहदी के रंग में रसायन 4.15 धब्बे छुड़ाने वाले रसायन 4.16 घातक रसायन 5 संदर्भ 6 इन्हें भी देखें 7 बाहरी कड़ियाँ दस सर्वाधित प्रयुक्त रसायन रासायनिक पदार्थ उत्पादों की संख्या मात्रा (टनों में) पानी 26,509 2,355,650 टाइटेनियम डाईआक्साइड 4,463 61,790 जाइलीन (Xylene) 4,271 28,568 2-Methyl-4-isothiazolin-3-one 2,953 39 आइसोप्रोपेनॉल 2,881 18,116 ब्यूटिल एसीटेट 2,700 14,186 1,2-Benzisothiazolin-3-one 2,661 98 औसत एरोमटिक विलायक नेप्था 2,439 16,307 एथनॉल (Ethanol) 2,368 443,912 5-Chloro-2-methyl-4-isothiazolin-3-one 2,300 32 विज्ञान रूपबद्ध विज्ञान[दिखाएँ] भौतिक विज्ञान[दिखाएँ] जीवन विज्ञान[दिखाएँ] सामाजिक और व्यावहारिक विज्ञान[दिखाएँ] व्यावहारिक विज्ञान[दिखाएँ] अंतर्विषयी[दिखाएँ] विज्ञान का दर्शन और इतिहास[दिखाएँ] रूपरेखा · प्रवेशद्वार · श्रेणी द वा ब केमिस्ट्री की शब्दोत्पत्ति - भाषा वैज्ञानिक दृष्टि भाषा विज्ञान की दृष्टि में केमिस्ट्री की मूल धातु Chemy की व्युत्पत्ति यूनानी भाषा के खीमिया (Khymeia) से हुई है जिसका तात्पर्य है - 'धातु निर्माण की यूनानी तकनीक'। अन्य मान्यतानुसार केमी का अर्थ - परस्पर एक दूसरे में मिलाना। केमिस्ट्री की मूल धातु Chemy की समानता चीनी शब्द Kim से है, अर्थात् धातुओं के रूपांतर की कला। इसका एक रूप चिन (Chin) है। अरबी और ग्रीक में Chemy शब्द वस्तुतः चीनी भाषा के Kim के रूपांतर है। चीनी (मेंडारिन भाषा) में Chimmi शब्द का अर्थ 'सोना गलाना' है। केमिस्ट्री के अन्तर्गत मोटे तौर पर तत्व और यौगिक के रूपांतरण, निर्माण और उनके गुणधर्मो का अध्ययन किया जाता है। अन्य मान्यतानुसार केमिस्ट्री स्पेनिश भाषा के अलकेमी (Alchemy) से आया माना जाता है जो अरबी के अल-कीमिया (al-kimia) से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ - रूपांतरण है। यद्यपि केमी शब्द की उत्पत्ति के विभिन्न मत है, परंतु इसके बाद भी यह निश्चित है कि इस शब्द का मूलाधार एक ही है। इससे मिलते-जुलते शब्द पूर्व मध्य एशिया और यूरोप की भाषाओं में मिलते हैं अतः इस तथ्य की पुष्टि होती है। इसके अतिरिक्त आयुर्वेद में भी 'रसायन' शब्द का बहुतायत से प्रयोग हुआ है। आयुर्वेद में पारा को 'रसराज' यानी रसों का राजा तथा पारे से निर्मित औषधियाँ 'रसायन' कहलाती थीं। रसायन से 'रसशास्त्र' बना है। रसायन विज्ञान, रसायनों के रहस्यों को समझने की कला है। इस विज्ञान से विदित होता है कि पदार्थ किन-किन चीजों से बने हैं, उनके क्या-क्या गुण हैं और उनमें क्या-क्या परिवर्तन होते हैं। सभी पदार्थ तत्वों से बने हुए हैं। भारतीय विद्वान दार्शनिकों ने उद्घोषित किया कि पदार्थ की रचना पंच महाभूतों, यथा- आकाश, वायु, जल, तेज तथा पृथ्वी से हुई है। वहीं यूनानी विचारकों के अनुसार पदार्थो की रचना चार प्रकार के तत्वों, यथा - पृथ्वी, वायु, जल तथा अग्नि से हुई है। यूरोप में रसायन विज्ञान का प्रारंभ 12वीं शताब्दी में थियोफिलस से हुआ। 15वीं-16वीं शताब्दी में पैरासेलस (1493-1541 ई.) ने औषधि रसायन के क्षेत्र में कार्य किया। 16वीं-17वीं शताब्दी में फ्रांसिस बैकन (1561-1636 ई.) ने आधुनिक रसायन विज्ञान की आधारशिला रखी। भारत में रसायन विज्ञान का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। भारतीयों को हड़प्पा-पूर्व काल (4000 ईसापूर्व) से ही रसायन विज्ञान और रसायन प्रौद्योगिकी का ज्ञान था। इतिहास में भारतीय इस्पात की श्रेष्ठता के कई उल्लेख मिलते है। दिल्ली का लौहस्तंभ तथा बिहार के भागलपुर जिले में स्थित बुद्ध की ताम्र प्रतिमा इसके ज्वंलत उदाहरण है। रसायन विज्ञान के क्षेत्र रसायन विज्ञान की भी कई शाखाएं हैं जिन्हें पदार्थों के अध्ययन के दौरान बांटा गया है। रसायन विज्ञान की शाखाओं में कार्बनिक रसायन, अकार्बनिक रसायन, जैव रसायन, भौतिक रसायन, विश्लेषणात्मक रसायन आदि प्रमुख हैं। कार्बनिक रसायन में कार्बनिक पदार्थों, अकार्बनिक रसायन में अकार्बनिक पदार्थों, जैव रसायन में सुक्ष्म जीवों में उपस्थित पदार्थों, भौतिक रसायन में पदार्थ की बनावट, संघटन और उसमें सन्निहित ऊर्जा, विश्लेषणात्मक रसायन में नमूने के विश्लेषण का अध्ययन किया जाता है ताकि उसकी बनावट और संचरना का पता चले। हाल के दिनों में न्यूरो-रसायन जैसी रसायन की कुछ और शाखाओं का उदय हुआ है। रसायन विज्ञान का क्षेत्र बहुत व्यापक है तथा दूसरे विज्ञानों के समन्वय से प्रतिदिन विस्तृत होता जा रहा है। फलत: आज हम भौतिक एवं रसायनभौतिकी, जीव रसायन, शरीर-क्रिया-रसायन, सामान्य रसायन, कृषि रसायन, आदि अनेक नवीन उपांगों में रसायन विज्ञान का अध्ययन देखते हैं। अध्ययन की सुविधा के लिए हम रसायन विज्ञान कई शाखाओं में वर्गीकृत करते हैं- 1. अकार्बनिक रसायन 2. कार्बनिक रसायन 3. भौतिक रसायन 3. वैश्लेषिक रसायन 4. जीव रसायन 5. औद्योगिक रसायन 6. औषधीय रसायन 7. नाभिकीय रसायन 8. कृषि रसायन (Green Chemistry) 9. पर्यावरणीय रसायन (Environmental Chemistry) 10. हरित रसायन (Green Chemistry) इनके अलावा भूरसायन, खगोलरसायन, बहुलक रसायन, क्लस्टर रसायन, विद्युत् रसायन, पर्यावरण रसायन, आहार रसायन, सामान्य रसायन, नैनो रसायन, ठोस अवस्था रसायन, ऊष्मारसायन आदि अन्य शाखायें हैं। रसायन विज्ञान और हमारा जीवन मानव जीवन को समुन्नत करने में रसायन विज्ञान का अक्षुण्ण योगदान है। मानव जाति के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए रसायन विज्ञान का विकास अनिवार्य है। यह तभी संभव होगा जब आमजन इस विज्ञान के प्रति आकर्षित होगा। इस विज्ञान का विवेकपूर्ण उपयोग करना ही समय की मांग है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड रसायनों का विषद् भण्डार है। जिधर भी हमारी दृष्टि जाती है, हमें विविध आकार-प्रकार की वस्तुएं नजर आती हैं। समूचा संसार ही रसायन विज्ञान की प्रयोगशाला है। यह विज्ञान अनेकों आश्चर्यचकित रसायनों से परिपूर्ण है। ब्रह्मांड में रासायनिक अभिक्रियाओं के द्वारा ही तारों की उत्पत्ति, ग्रहों का प्रादूर्भाव तथा ग्रहों पर जीवन संभव हुआ हैं। रसायन विज्ञान को जीवनोपयोगी विज्ञान की संज्ञा भी दी गई है, क्योंकि हमारे शरीर की आंतरिक गतिविधियों में इस विज्ञान की महती भूमिका हैं। पृथ्वी पर समस्त ऊर्जा का एकमेव स्रोत सूर्य है जो विगत लगभग 5 अरब वर्षो से रोशनी तथा ऊष्मा दे रहा है, पेड़-पौधे उग रहे हैं, जीव-जंतु चल फिर रहे हैं, बादल घुमड़ पेड़-पौधे उग रहे हैं, जीव-जंतु चल फिर रहे हैं, बादल घुमड़ रहे हैं, कहीं आकाषीय विद्युत् की चमक तथा कड़क है, कहीं आँधी तो कहीं तूफान अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं, कहीं भूकंप तो कहीं सुनामी की घटनाएं घटित हो रही हैं। इन सभी घटनाओं में रसायन ही अपना करतब दिखा रहे हैं। ये सभी किसी न किसी पदार्थ से निर्मित हैं, जो ठोस, द्रव या गैस रूप में होते हैं परंतु हैं ये भी रसायन। हमारे जीवन का कोई भी पक्ष रसायनों से अछूता नहीं है। वैज्ञानिकों ने हमारे जीवन को भी रासायनिक क्रिया की संज्ञा दी है। जीवन के समस्त लक्षण रासायनिक प्रक्रियाओं की अनुगूंज हैं। सजीवों में पोषण, वृद्धि, पाचन, उत्सर्जन, प्रजनन की प्रक्रियाएं रासायनिक अभिक्रियाएं ही है। मानव के संवेदी अनुभवों जैसे, शब्द स्पर्श, रूप, रस तथा गंध, इन सभी के पीछे रासायनिक क्रियाएं उत्तरदायी हैं। वस्तुतः रसायन विज्ञान का संबंध हमारे दैनिक जीवन से है। शुरुआत हम सुबह की चाय से करते हैं जो कि दूध, चीनी, चाय-पत्ती के साथ उबला हुआ जलीय घोल है। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी आवष्यकताएं पूरी करने में रसायनों की भूमिका है। हम जहाँ कहीं भी देखते हैं, रसायनें के नजारे ही दिखते हैं। दैनंदिन उपयोग की चीजें, जैसे - साबुन, तेल, ब्रश, मंजन, कंघी, शीशा, कागज, कलम, स्याही, दवाइयां, प्लास्टिक आदि रसायन विज्ञान की ही देन हैं। धर्म-कर्म, पूजा-पाठ, स्नान, धूप-दीप, नैवेद्य, अगरबत्ती, रोली, रक्षा तथा कर्पूर इत्यादि सब में रसायन व्याप्त हैं। उत्सवों तथा तीज त्यौहारों में दीये, मोमबत्ती तथा पटाखों के पीछे भी रसायन व्याप्त हैं। यातायात, दूरसंचार, परिवहन तथा ऊर्जा के विविध स्रोत जैसे - कोयला, पेट्रोल, डीजल, मिट्टी का तेल, नैप्था एवं भोजन पकाने की गैस भी विविध रासायनिक यौगिकों के उदाहरण हैं। मानव जीवन को आरामदायक बनाने में रसायन विज्ञान ने अप्रतिम भूमिका निभाई है। हमारे दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाले औजार, उपकरण तथा युक्तियाँ जैसे - कुर्सी, मेज, टी.वी. फ्रिज, घड़ी, कुकर, इस्तरी, मिक्सर, ए.सी., चूल्हा, बर्तन, रंग-रोगन (पेंट्स), कपड़े, वर्णक (पिगमेंट्स) तथा रंजक (डाइज) अपमार्जक (डिटर्जेंट्स), कीटनाशक, विविध सौन्दर्य प्रसाधन अपमार्जक (डिटर्जेंट्स), कीटनाशक, विविध सौन्दर्य प्रसाधन सामग्रियां आदि सभी में रसायन विज्ञान का ही अवदान हैं। वस्तुतः रसायनों का संबंध प्रत्येक गैस, द्रव या ठोस पदार्थ से है। जिस वातावरण में हम रहते हैं तथा सांस लेते हैं वह विविध रसायनों से ही निर्मित है। वायुमंडल में नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड, आर्गन आदि गैसें विद्यमान रहती हैं। रोगोपचार में रसायन विज्ञान चिकित्सा विज्ञान की प्रगति रसायन विज्ञान की ही देन है। वर्तमान में 75 प्रतिशत औषधियों का संश्लेषण रासायनिक पदार्थो से हुआ है। आज लगभग 4000 ज्ञात औषधियाँ हैं परंतु रोगों की संख्या 30,000 के लगभग है। अतः भविष्य में रोगशमन हेतु रसायन विज्ञान का प्राधान्य है। औषधियों का वर्गीकरण 1. सिरदर्द एवं अन्य वेदनानाशक 2. जलने की दवाएं 3. जुकाम खाँसी रोधक 4. निर्जनीकारक 5. मृदुविरेचक (Laxatives) 6. मूर्च्छाकारी, संवेदनहारी औषधियां 7. उत्तेजक (Stimulants) सिरदर्द : ऐस्पिरिन (C9H8O4) - alicylic Acid का ऐसीटिक एस्टर जलने की दवाएं - त्वचा जलन जले भाग पर टैनिक अम्ल तथा बर्नोल जुकाम खाँसी - देश के 75 प्रतिशत लोग ग्रसित कुल्लिया - थाइमाल, मेंथाल टिकिया - ऐसीटनीलाइड नाक से लेने वाली - मेंथाल, कर्पूर, प्रोपिलीन ग्लाइकाल की फुहार निर्जर्मीकारक (Antiseptic) - डेटॉल, मरक्यूरोक्रोम, बोरिक अम्ल मृदुरेचक - एप्सम लवण, फीनाप्थैलीन स्ट्रिकनीन यातना निवारक - निष्चेतक - ईथर, एथिलीन, नाइट्रस ऑक्साइड सम्मोहक या निद्राकारी - फीनोबार्बिटल एंटीबायोटिक - डॉ॰ अलेक्जेडर फ्लेमिंग ने 1928 में पेनिसिलियम कवकों से पेनिसिलीन प्राप्त की - स्ट्रेप्टोमाइसीन, टेट्रामाइसिन, बायोमाइसिन, एरिथ्रोमाइसिन - एंटीबायोटिक शृंखला का संश्लेषण गिहिणियों के लिए तथा खाद्य पदार्थो में रसायन स्टेनलेस स्टील के बर्तन - लोहे में 14% नाइक्रोम (क्रोमियम और निकिल की मिश्र धातु) का मिश्रण ब्रास के बर्तन - (कॉपर और जिंक मिश्र धातु) से बने बर्तन ब्रॉन्ज के बर्तन - (कीमती मिश्र धातु जो 88% कॉपर, 10% टिन तथा 2 प्रतिशत जिंक) ; खेलों में गोल्ड, सिल्वर एवं ब्रॉन्ज मैडल रबड़ - पेट्रोलियम के हाइड्रोकार्बन और ब्यूटाडाइन स्टाइटीन एलुमिनियम के बर्तन - बॉक्साइट (Al2O3) सिल्वर के बर्तन - मुलायम धातु इसमें कॉपर या निकल मिला दिया जाता है। प्लास्टिक की तश्तरियां, प्याले आदि - ये बैकेलाइट के बने होते हैं, जो फीनॉल और फार्मेलडिहाइड से बनाया जाता है। रबड़ - पेट्रोलियम के हाइड्रोकार्बन और ब्यूटाडाइन स्टाइटीन के यौगिक को अन्य रासायनिक पदार्थो के साथ मिलाने पर बने नये पदार्थ को 'कृत्रिम रबड़' कहते है। भारी वाहनों के टायर - क्लोरोप्रोन रबड़ वायुयान के टायर - सुचालक बहुलक खाद्यों में भरा रसायन - आहार के 6 मुख्य रासायनिक घटक - कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, लिपिड, विटामिन, खनिज, जल घरों में तरह-तरह के रसायनों का प्रयोग पेट की शिकायत - सिरका - एसीटिक एसिड लवण एवं जल। खाने का सोडा - सोडियम बाइकार्बोनेट धावन सोडा - सोडियम कार्बोनेट (Na2CO3) खाने का नमक - NaCl सेंधा नमक - KCl फिटकरी - K2SO4, Al2(SO4)3, 24H2O बैटरियों में - H2SO4 बुझा चूना - Ca(OH)2 ऐल्कोहॉलिक पेय पदार्थो में इथेनॉल फूलों की सुगंध - फ्लेवोन्स तथा फ्लेवोनाइड। रास्पबेरी की गंध - आयोनिन केले की गंध - आइसोएमाइल एसीटेट नींबू की ताजगी - लिमोनिन यौगिक खट्टापन - सिट्रिक अम्ल अम्लता (एसिडिटी) होने पर एटांसिड दवाइयां - Mg(OH)2। इससे आमाशय MgCl2 तथा पानी बनाता है जिससे अम्लता में कमी आती है। संगमरमर तथा खड़िया मिट्टी में - CaCO3 यौगिक। टूथपेस्ट का मुख्य घटक Al2O3 माउथवॉश में आयोडीन के यौगिक - कीटाणुरोधी रसायन विज्ञान के द्वारा खाद्य पदार्थो, यथा - दूध, देशी घी, सरसों के तेल, हरी सब्जी, दाल, आटा, चाय तथा मसालों में मिलावट की भी सरल विधियों द्वारा घर पर ही जाँच की जा सकती है। रंग-रोगन तथा वार्निश में टाइटेनियम ऑक्साइड तथा पॉलियूरीथेन का प्रयोग किया जाता है। मकानों में प्रयोग किए जाने वाले पेंट का आधार एक्रीलिक लैटेक्स होता है। कांच के निर्माण में रसायन कांच विश्व का पहला संश्लिष्ट थर्मोप्लास्टिक है। इसे किसी भी रूप में ढाला जा सकता है। रेत (SiO2), चूने का पत्थर (CaO), सोडियम ऑक्साइड (Na2O) और अन्य खनिज तथा धातुओं को परस्पर पिघलाकर कांच बनाया जाता है तथा इसके विभिन्न बर्तन आदि बनाये जाते है। आजकल कांच का कई प्रकार से उपयोग होता है। रंगीन कांच बनाने हेतु इसमें विभिन्न प्रकार के रासायनिक लवण मिलाए जाते हैं - पीला नीला या हरा - Fe2O3 पीला - Fe(OH)3 हल्का पीला - लेड गुलाबी या हल्का पीला गुलाबी - सेलिनियम नीला - कॉपर हरा - अधिक मात्रा में कॉपर लाल - कॉपर ऑक्साइड प्लास्टिक के साथ कांच कांच के फाइबर जब प्लास्टिक के साथ संयोग करते है तो अत्यधिक मजबूत पदार्थ बनता है जिसे प्रबलित प्लास्टिक (Reinforced plastic) कहते हैं इनका छत, नौका, खेल के सामान, सूटकेस तथा ऑटोमोबाइल की बॉडी बनाने में उपयोग किया जाता है। ग्लास वुल - ठीले ग्लास फाइबर का बंडल, अच्छा ऊष्मारोधी, इसका उपयोग - फ्रिज, अवन, कुकर तथा गरम पानी की बोतलों में होता है। साबुन और अपमार्जक साफ-सफाई के लिए साबुन का इस्तेमाल लगभग 2800 ई.पूर्व का है। दूसरी सदी मे यूनानी चिकित्सक गालेन ने क्षारीय घोल से साबुन निर्माण का उल्लेख किया है। साबुन वसा अम्ल का सोडियम लवण है। स्टीएरिक एसिड, पामिटिक एसिड, ओलिक एसिड तथा लिनोलेइक एसिड का सोडियम या पोटैशियम लवण। सोडियम वाले साबुन ठोस व कठोर होते हैं जबकि पोटैशियम वाले मृदु तथा द्रव। साबुन का सूत्र : C17H35COONa शैम्पू भी ऐल्कोहल मिश्रित साबुन। इसमें तेल को गंधक के अम्ल से अभिकृत करके जलविलेय बनाया जाता है। गंजेपन दूर करने हेतु निर्जर्मीकारक- रिसंर्सिनाल अपमार्जक (डिटर्जेट) पर पानी की प्रकृति का प्रभाव नही पड़ता। अतः अघिक लोकप्रिय है। स्टेशनरी रासायनिक प्रक्रिया से ही लकड़ी से कागज की प्राप्ति होती है। कागज की प्राप्ति में सैंकड़ों लीटर पानी के साथ रासायनिक उपचार किया जाता है। पेंसिल, कटर, शार्पनर, इरेजर, ह्वाइटनर, स्याही आदि सभी रसायन है। फोटोग्राफी रसायन विज्ञान पर आधारित फोटोग्राफी प्रक्रिया। निगेटिव से पॉजिटिव चित्र सोडियम थायोसल्फेट से लेपित कागज कीटाणुनाशक दवाइयां डेटॉल - प्रचलित कीटाणुनाशक - घरों मे प्रयोग (क्लोरोजाइलीनॉल) फिनाइल - अधिक प्रचलित घाव तथा शल्य क्रिया में जीवाणुनाशक रसायन (ऐल्कोहॉल) 60-90 प्रतिशत तथा बोरिक एसिड- सर्वतोसुलभ चोट की मरहमपट्टी के लिए पूर्व में H2O2 से सफाई; आयोडीन के टिंचर का भी प्रयोग फीनॉल या कार्बोलिक एसिड - जीवाणुनाशक - सर्जन द्वारा शल्य क्रिया के पूर्व हाथों की सफाई ब्लींचिग पाउडर (CaOCl2) का प्रयोग जल स्रोतों व नालियों, परनालों, की सफाई में प्रयुक्त। सौन्दर्य प्रसाधनों में छिपे रसायन क्रीम या कोल्डक्रीम - जैतून का कोई खनिज तेल, मोम, पानी और बोरेक्स के मिश्रण से चेहरे की क्रीम बनती है। सुगंध हेतु इत्र, एल्कोहॉल, एल्डिहाइड, कीटोन, फीनॉल। पाउडर - खडिया, टैलकम, जिंक ऑक्साइड, चिकनी मिट्टी का चूर्ण, स्टार्च, रंगने का पदार्थ सुगंध लिपिस्टिक - मोम तथा तारकोल से निर्मित रंग सामग्री। मिश्रण में चिकनाई हेतु कोई तेल मिलाया जाता है। शेविंग क्रीम - स्टियरिक अम्ल, तेल, ग्रीस तथा पोटैशियम हाइड्रोक्साइड नेलपॉलिश - जल्दी सूखने वाला एक प्रकार का रोगन जिसमें रंग लाने के लिए टाइटेनियम ऑक्साइड (TiO2) मिलाया जाता है। आजकल नाइट्रोसेल्युलोज, एसीटोन, एमाइल ऐसीटेट आदि। रंग मिटाने हेतु एथिल एसीटेट, ऐसीटोन तथा जैतुन का तेल। कृषि रसायन रासायनिक कीटनाशक (Pesticides), कवकनाशक (Fingicides), विकसित मिट्टीविहीन कृषि - जल कृषि (Hydrophonics) ऊसर भूमि सुधार में गंधक का अम्ल तथा जिप्सम का प्रयोग रासायनिक उर्वरक - यूरिया, म्यूरेट ऑफ पोटाश, सल्फेट ऑफ पोटाश, डी.ए.पी., सी.ए.एन. आदि। उद्योगों में प्रयुक्त रसायन रसायन विज्ञान की भूमिका के बिना उद्योग संभव नही। प्लास्टिक, कपड़ा, उर्वरक, कांच, धातु, कागज, चमड़ा, कोयला, धातु, कागज, चमड़ा, कोयला, गैस, पेट्रोरसायन, गंधक एवं क्लोरीन से प्राप्त रसायन, चूने से प्राप्त रसायन आदि। विस्फोटक पदार्थ : (खान खोदने, इमारत गिराने, तेल और गैस के कुंए खोदने में प्रयुक्त) अनेक नाइट्रेट यथा- सेल्युलोज नाइट्रेट तथा नाइट्रोग्लिसरीन, पोटैशियम नाइट्रेट आदि विस्फोटक है। नाभिकीय रसायन विज्ञान इस रसायन विज्ञान की शाखा के अन्तर्गत रेडियोधर्मिता, तथा नाभिकीय प्रक्रमों का अध्ययन किया जाता है। हरित रसायन यह नवीनतम शाखा है जिसे 'टिकाऊ रसायन विज्ञान' (Green and sustainable Chemistry) भी कहते है। ग्रीन या हरित रसायन का तात्पर्य ऐसे रासायनिक उत्पादों या रासायनिक प्रक्रियाओं के डिजाइन से है जो हानिकारक अपशिष्ट के उत्पादन या इस्तेमाल को कम या समाप्त करता है। ड्राइक्लीनिंग में परक्लोरोइथीलिन (कैंसरकारक) की जगह द्रवित कार्बनडाइ ऑक्साइड का प्रयोग। आइबूप्रोफिन नामक दवा - पीड़ा व ज्वरनाशक का निर्माण 10 से 6 चरणों में संभव, प्रदूषण में 30 प्रतिशत कमी। पेपर मिलों में सेलुलोस विरंजित करने हेतु क्लोरीन के स्थान पर सुरक्षित विकल्प विकसित। रेत के कणों पर ग्रेफाइट ऑक्साइड की नैनों परत चढाकर पानी छानने का एक अत्यंत सरल व प्रभावकारी फिल्टर विकसित। उद्योगों में हरित एंजाइमों का प्रयोग। कृषि संबंधी रसायन, प्लास्टिक फाइबर आदि जैव-उत्प्रेरकों के द्वारा कम लागत पर उपलब्ध। उद्योगों में हरित एंजाइमों का प्रयोग। कार्बनिक रसायन विज्ञान, जैव कार्बनिक रसायन विज्ञान तथा जैव रसायन विज्ञान के मेल से औषधि क्षेत्र में अप्रत्याशित लाभ - हरित रसायन विज्ञान की ही देन। पॉलिलैक्टिक एसिड जो जैव-सुसंगत फाइबेरा, जैव अपघटनीय सीवन और पैकेजिंग में उपयेग। भारत में आई.आई.टी. गुवाहाटी, कानपुर व दिल्ली में हरित उत्प्रेरक विधि विकसित। औषधि उद्योग में कारगर। कार्न सिरप का खाद्य उद्योग में उपयोग विभिन्न रहस्यों में छुपे रसायन आतिशबाजी में रसायनों का करिश्मा - आतिशबाजी के निर्माण तथा उपयोग की तकनीक - पायरोटैक्नीक या अग्निक्रीड़ा। प्रयुक्त रसायन डेक्सट्रिन, चारकोल, रेडगम, एलुमिनियम, पोटैषियम परक्लोरेट तथा अमोनियम परक्लोरेट। जैसे ही आतिशबाजियों में कवच पर आग लगाई जाती है, ईंधन व ऑक्सीकारक 2200 से 36000 से तापमान के बीच क्रिया करते हैं, जिससे आवाज उत्पन्न होती है। आतिशबाजियों को रंगीन बनाने में SrCO3, नाइट्रेट तथा क्लोरेट से हरा रंग आतिशबाजी में प्रयुक्त कागज टच पेपर को KnO3 में भिगोने पर आतिशबाजी-ज्वलनशील। मेंहदी के रंग में रसायन लॉसोन, जो नेफ्थाक्यूनोन वर्ग का रसायन है, हाथों की त्वचा में विद्यमान प्रोटीन की झाल से हाथों की त्वचा में विद्यमान प्रोटीन की झाल से क्रिया करके लाल रंग देता है। गिरगिट के रंग बदलने का कारण : गिरगिट की विशेष रंजक कोशिकाएं मैलेनोफोर - ताप बढ़ने तथा घटने के साथ-साथ सिकुड़ती है। ये कोशिकाएं, इनके शरीर में स्रावित होने वाले हारमोनों - इंटरमेडिन, एसीटिलकोलीन आदि से उत्तेजित होकर रंग बदलती है। फूलों का रंग भगाना - हरे, पीले, नीले व लाल फूलों की पंखुड़ियों को जब सल्फर डाइ ऑक्साइड तथा क्लोरीन से संपर्क करवाया जाता है तो ये गैसे फूलों का रंग उड़ा देती हैं। वृद्धावस्था की झुर्रियाँ भी रसायनों की देन - झुर्रियाँ चमड़ी की ऊपरी सतह में उपस्थित कोलेजन तथा इलास्टिन प्रोटीन फाइबर में हुई कमी के कारण। कलाई घड़ी का सेल - लीथियम - कलाई घड़ी का सेल बटन आकार का होने से 'बटन सेल' कहलाता है। इसमें लीथियम ऋणात्मक इलेक्ट्रोड का कार्य करता है, धनात्मक कोई ऑक्सीकारक। हंसाने तथा रूलाने वाली गैसें - नाइट्रस ऑक्साइड गैस तथा नाइट्रिल ब्रोमाइड ; एथिल आयोडोएसिटेट अश्रु गैस के रूप में पुलिस द्वारा उपयोग। आँसू की संरचना में रसायन - हमारे आँसुओं के द्रव में प्रोटीन, नाइट्रोजन, यूरिया, ग्लूकोज, सोडियम, पोटैषियम के ऑक्साइड, अमोनिया, क्लोरीन, सोडियम क्लोराइड, लाइसोजाइम एंजाइम आदि विद्यमान। पानी में कुबड़ापन एवं बिगड़े दांत - मनुष्य के कुबड़े होने में पानी भी करिश्मा दिखाता है। अधिक समय तक फ्लोराइड युक्त जल का सेवन हड्डियों में तथा दाँत में विकृति प्रदान करता है जिससे कुबड़ापन एवं दाँतों में विकृतियां उत्पन्न होतीं हैं। पानी में आग लगाने वाली धातु - सोडियम की पानी से घनिष्ठ मित्रता है। 2Na + 2H2 -> 2NaOH + H2 जुगनू की चमक का राज : लूसीफेरिन C13H12N2S2O3 प्रकाश उत्पादक जुगनू की धड़ में विद्यमान + Mg = प्रकाश। विश्व का सबसे मीठा पदार्थ : तालीम प्रोटीन जो शक्कर से पाँच हजार गुना मीठा। धूप-छाँव का चश्मा रसायनों से भरा : फोटोक्रोमेटिक चश्मों में सिल्वर आयोडाइड एवं सिल्वर ब्रोमाइड के कण। धूप में अलग एवं छाया में पुनः युग्मित। खाना पकाने की गैस द्रव : एलपीजी (Liquified petroleum gas) में मुख्य रूप से प्रोपेन एवं ब्यूटेन गैस गंधयुक्त थायोएल्कोहल मिश्रित। घरों में उपयोग के लिये इस गैस का अधिक दाब पर भरा गया होता है। फूलों की सुगंध - टर्पीन तथा बैंजीन के व्युत्पन्न कटा सेब बदरंग : काटने के बाद सफेद भाग बादामी - कैफीटेनिन, एपिकैटीचिन नामक टेनिन - हवा के संपर्क से ऑक्सीकरण। मिर्च खाने से जलन में कैप्सिसिन का योगदान। फलों को पकाने में इथिलीन गैस की भूमिका - हरे रंग के फल लाल-पीले रंग के हो जाते हैं। ओजोन छिद्र - पृथ्वी से 15-50 किमी की ऊँचाई पर ओजोन की पतली परत पृथ्वी को घेरे रहती है। यह पृथ्वी को सूर्य की उच्च ऊर्जा वाली पराबैंगनी किरणों से बचाती है और हमारी जीवन रक्षा करती है। 1987 में पहली बार अंटार्कटिका में इस परत को गिरते देखा गया। इसके छिद्र बनने में क्लोरोफ्लोरो कार्बन की भूमिका। नॉन-स्टिक बर्तनों की परत में टेफ्लॉन (पॉलिटेट्राफ्लुरोइथिलीन) पान का रंग - कटेचूनिक अम्ल के कारण। हाइड्रोपॉनिक्स - बिना मिट्टी से कृषि। स्याहियों के राज में रसायन : बॉल प्वांइट पेन की स्याही - रंगीन रंजकों को ओलिक अम्ल, अरंडी का तेल तथा सल्फोनामाइड के साथ मिलाना। चीटिंयों को रास्ता दिखाते रसायन : रानी, पंखयुक्त नर एवं पंखरहित मादा - तीन प्रजातियां चीटिंयां लगातार गंध फीरोमोन को छोड़ती है जिसे रास्ता पता लगता है। स्टैंप पैड स्याही - इंडियुलिन नामक रंग को ग्लिसरीन, फीनोल या क्रीसॉल में घोलकर बनाई जाती है। प्रिटिंग स्याही - मिनरल ऑयल, एनीलोन रंग तथा चुनाव में प्रयुक्त स्याही में सिल्वर साल्ट एवं एनीलीन यौगिक का प्रयोग। महिलाओं की सहेली - बगैर स्टेरायडल, गैर हारमोनल गर्भ निरोधक गोली में सेंटक्रोमेन (Resorcinol से संष्लेषण) का योगदान। ऑस्मियम सबसे भारी धातु और गैलियम, प्लेटीनम से भी महंगी धातु। धब्बे छुड़ाने वाले रसायन वनस्पति के धब्बे - (घास, चाय, सब्जी, कॉफी, फल) गरम पानी, साबुन तथा सुहागा। जैवीय धब्बे - खून, थूक, कफ, अंडे, म्यूककस के दाग हेतु अमोनिया, नमक, नींबू, कार्बन टेट्राक्लोराइड। रसायनजनित धब्बे - लोहा, स्याही, वार्निश, पेंट हेतु ऑक्सेलिक अम्ल एवं H2O2 का प्रयोग, वैसलीन, तेल के धब्बों के लिए सोडियम परबोरेट व क्लोरोफार्म। घातक रसायन आँखों में सुरमा में Sb2S3 के बदले PbS का प्रयोग - ऑख के लिए घातक। सीसा शरीर के लिए अत्यधिक विषालु धातु। सौंदर्य प्रसाधनों में फार्मेल्डीहाइड का अत्यधिक उपयोग। यह शैंपू, परिरक्षक आदि में प्रयुक्त होने से घातक। एलुमीनियम के बर्तन हानिकारक (हल्के, सस्ते, जंगरहित एवं प्रचुर उपलब्ध)। एलुमीनियम के बर्तनों में खट्टी वस्तुएं, नमक व सोडा, दही, चाय, चटनी, सिरका फलों का रस, टमाटर का रस आदि कभी नहीं रखने चाहिए। उच्च एलुमीनियम युक्त भोजन या चाय लगातार सेवन से मस्तिष्क की कोशिकाओं की क्षति। सारांश : उर्जा - सेल, बैटरियाँ, परमाणु भट्ठी, पेट्रोलियम आदि दवाएँ खाद कीटनाशक धातुएँ, प्लास्टिक एवं अन्य निर्माण सामग्री कपड़े सीमेंट साबुन, तेल, सौन्दर्य प्रसाधन आईसी निर्माण के लिये उच्च गुणवत्ता वाली सिलिकॉन वेफर अपराधियों को पकड़ने के लिये सहायक गोला-बारूद, विस्फोटक एवं अन्य युद्ध सामग्री संदर्भ ऊपर जायें ↑ Chemistry. (n.d.). Merriam-Webster's Medical Dictionary. Retrieved August 19, 2007. ऊपर जायें ↑ What is Chemistry? ऊपर जायें ↑ Matter: Atoms from Democritus to Dalton by Anthony Carpi, Ph.D. ऊपर जायें ↑ Theodore L. Brown, H. Eugene Lemay, Bruce Edward Bursten, H. Lemay. Chemistry: The Central Science. Prentice Hall; 8 edition (1999). ISBN 0-13-010310-1. Pages 3-4. ऊपर जायें ↑ यह जीवविज्ञान और भौतिक विज्ञान के मध्य की कड़ी है। रसायन विज्ञान का जन्म किमियागारों के प्रयोगों से हुआ जो कई सौ वर्ष पहले विश्व के विभिन्न हिस्सों, खासकर मध्यपूर्व में काम करते थे।ref>Dictionary of the History of Ideas: Alchemy [1] इन्हें भी देखें रसायन विज्ञान का इतिहास रसायन विज्ञान की समयरेखा रसायन विज्ञान की शब्दावली रासायनिक अभियांत्रिकी बाहरी कड़ियाँ रसायन विज्ञान और हमारा जीवन प्राचीन भारत में रसायन का विकास (गूगल पुस्तक; लेखक - स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती) लोकोपयोगी रसायन विज्ञान (गूगल पुस्तक ; लेखक - शिवगोपाल मिश्र) दैनिक जीवन में रसायन (गूगल पुस्तक ; लेखक - शिवगोपाल मिश्र) रासायनिक गणना (गूगल पुस्तक ; लेखक - ठाकुर सिंह) रसायन वि‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌ज्ञान हेतु लघु पारिभाषिक शब्द-संग्रह पारद तंत्र विज्ञान (गूगल पुस्तक ; लेखक- सुभाष चन्द्र) रसायन विज्ञान में भविष्य (भाषा, शिक्षा और रोजगार) %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%9F%E0%A4%95 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 कर्नाटक (कन्नड़: ಕರ್ನಾಟಕ), जिसे कर्णाटक भी कहते हैं, दक्षिण भारत का एक राज्य है। इस राज्य का गठन १ नवंबर, १९५६ को राज्य पुनर्गठन अधिनियम के अधीन किया गया था। पहले यह मैसूर राज्य कहलाता था। १९७३ में पुनर्नामकरण कर इसका नाम कर्नाटक कर दिया गया। इसकी सीमाएं पश्चिम में अरब सागर, उत्तर पश्चिम में गोआ, उत्तर में महाराष्ट्र, पूर्व में आंध्र प्रदेश, दक्षिण-पूर्व में तमिल नाडु एवं दक्षिण में केरल से लगती हैं। इसका कुल क्षेत्रफल ७४,१२२ वर्ग मील (१,९१,९७६ कि.मी.²) है, जो भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का ५.८३% है। २९ जिलों के साथ यह राज्य आठवां सबसे बड़ा राज्य है। राज्य की आधिकारिक और सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है कन्नड़। कर्नाटक शब्द के उद्गम के कई व्याख्याओं में से सर्वाधिक स्वीकृत व्याख्या यह है कि कर्नाटक शब्द का उद्गम कन्नड़ शब्द करु, अर्थात काली या ऊंची और नाडु अर्थात भूमि या प्रदेश या क्षेत्र से आया है, जिसके संयोजन करुनाडु का पूरा अर्थ हुआ काली भूमि या ऊंचा प्रदेश। काला शब्द यहां के बयालुसीम क्षेत्र की काली मिट्टी से आया है और ऊंचा यानि दक्कन के पठारी भूमि से आया है। ब्रिटिश राज में यहां के लिये कार्नेटिक शब्द का प्रयोग किया जाता था, जो कृष्णा नदी के दक्षिणी ओर की प्रायद्वीपीय भूमि के लिये प्रयुक्त है और मूलतः कर्नाटक शब्द का अपभ्रंश है।[3] प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास देखें तो कर्नाटक क्षेत्र कई बड़े शक्तिशाली साम्राज्यों का क्षेत्र रहा है। इन साम्राज्यों के दरबारों के विचारक, दार्शनिक और भाट व कवियों के सामाजिक, साहित्यिक व धार्मिक संरक्षण में आज का कर्नाटक उपजा है। भारतीय शास्त्रीय संगीत के दोनों ही रूपों, कर्नाटक संगीत और हिन्दुस्तानी संगीत को इस राज्य का महत्त्वपूर्ण योगदान मिला है। आधुनिक युग के कन्नड़ लेखकों को सर्वाधिक ज्ञानपीठ सम्मान मिले हैं।[4] राज्य की राजधानी बंगलुरु शहर है, जो भारत में हो रही त्वरित आर्थिक एवं प्रौद्योगिकी का अग्रणी योगदानकर्त्ता है। अनुक्रम [छुपाएँ] 1 इतिहास 2 भूगोल 3 उप-मंडल 4 जनसांख्यिकी 5 सरकार एवं प्रशासन 6 अर्थव्यवस्था 7 यातायात 8 संस्कृति 9 धर्म 10 भाषा 11 शिक्षा 12 मीडिया 13 क्रीड़ा 14 पर्यटन 15 इन्हें भी देखें 16 सन्दर्भ 17 बाहरी सूत्र इतिहास[संपादित करें] मुख्य लेख : कर्नाटक का इतिहास पत्तदकल में मल्लिकार्जुन और काशी विश्वनाथ मंदिर चालुक्य एवं राष्ट्रकूट वंश द्वारा बनवाये गए थे, जो अब यूनेस्को विश्व धरोहर हैं कर्नाटक का विस्तृत इतिहास है जिसने समय के साथ कई करवटें बदलीं हैं।[5] राज्य का प्रागैतिहास पाषाण युग तक जाता है तथा इसने कई युगों का विकास देखा है। राज्य में मध्य एवं नव पाषाण युगों के साक्ष्य भी पाये गए हैं। हड़प्पा में खोजा गया स्वर्ण कर्नाटक की खानों से निकला था, जिसने इतिहासकारों को ३००० ई.पू के कर्नाटक और सिंधु घाटी सभ्यता के बीच संबंध खोजने पर विवश किया।[6][7] तृतीय शताब्दी ई.पू से पूर्व, अधिकांश कर्नाटक राज्य मौर्य वंश के सम्राट अशोक के अधीन आने से पहले नंद वंश के अधीन रहा था। सातवाहन वंश को शासन की चार शताब्दियां मिलीं जिनमें उन्होंने कर्नाटक के बड़े भूभाग पर शासन किया। सातवाहनों के शासन के पतन के साथ ही स्थानीय शासकों कदंब वंश एवं पश्चिम गंग वंश का उदय हुआ। इसके साथ ही क्षेत्र में स्वतंत्र राजनैतिक शक्तियां अस्तित्त्व में आयीं। कदंब वंश की स्थापना मयूर शर्मा ने ३४५ ई. में की और अपनी राजधानी बनवासी में बनायी;[8][9] एवं पश्चिम गंग वंश की स्थापना कोंगणिवर्मन माधव ने ३५० ई में तालकाड़ में राजधानी के साथ की।[10][11] होयसाल साम्राज्य स्थापत्य, बेलूर में। हाल्मिदी शिलालेख एवं बनवसी में मिले एक ५वीं शताब्दी की ताम्र मुद्रा के अनुसार ये राज्य प्रशासन में कन्नड़ भाषा प्रयोग करने वाले प्रथम दृष्टांत बने[12][13] इन राजवंशों के उपरांत शाही कन्नड़ साम्राज्य बादामी चालुक्य वंश,[14][15] मान्यखेत के राष्ट्रकूट,[16][17] और पश्चिमी चालुक्य वंश[18][19] आये जिन्होंने दक्खिन के बड़े भाग पर शासन किया और राजधानियां वर्तमान कर्नाटक में बनायीं। पश्चिमी चालुक्यों ने एक अनोखी चालुक्य स्थापत्य शैली भी विकसित की। इसके साथही उन्होंने कन्नड़ साहित्य का भी विकास किया जो आगे चलकर १२वीं शताब्दी में होयसाल वंश के कला व साहित्य योगदानों का आधार बना।[20][21] आधुनिक कर्नाटक के भागों पर ९९०-१२१० ई. के बीच चोल वंश ने अधिकार किया।[22] अधिकरण की प्रक्रिया का आरंभ राजराज चोल १ (९८५-१०१४) ने आरंभ किया और ये काम उसके पुत्र राजेन्द्र चोल १ (१०१४-१०४४) के शासन तक चला।[22] आरंभ में राजराज चोल १ ने आधुनिक मैसूर के भाग "गंगापाड़ी, नोलंबपाड़ी एवं तड़िगैपाड़ी' पर अधिकार किया। उसने दोनूर तक चढ़ाई की और बनवसी सहित रायचूर दोआब के बड़े भाग तथा पश्चिमी चालुक्य राजधानी मान्यखेत तक हथिया ली।[22] चालुक्य शासक जयसिंह की राजेन्द्र चोल १ के द्वारा हार उपरांत, तुंगभद्रा नदी को दोनों राज्यों के बीच की सीमा तय किया गया था।[22] राजाधिराज चोल १ (१०४२-१०५६) के शासन में दन्नड़, कुल्पाक, कोप्पम, काम्पिल्य दुर्ग, पुण्डूर, येतिगिरि एवं चालुक्य राजधानी कल्याणी भी छीन ली गईं।[22] १०५३ में, राजेन्द्र चोल २ चालुक्यों को युद्ध में हराकर कोल्लापुरा पहुंचा और कालंतर में अपनी राजधानी गंगाकोंडचोलपुरम वापस पहुंचने से पूर्व वहां एक विजय स्मारक स्तंभ भी बनवाया।[23] १०६६ में पश्चिमी चालुक्य सोमेश्वर की सेना अगले चोल शासक वीरराजेन्द्र से हार गयीं। इसके बाद उसी ने दोबारा पश्चिमी चालुक्य सेना को कुदालसंगम पर मात दी और तुंगभद्रा नदी के तट पर एक विजय स्मारक की स्थापनी की।[23] १०७५ में कुलोत्तुंग चोल १ ने कोलार जिले में नांगिली में विक्रमादित्य ६ को हराकर गंगवाड़ी पर अधिकार किया।[24] चोल साम्राज्य से १११६ में गंगवाड़ी को विष्णुवर्धन के नेतृत्व में होयसालों ने छीन लिया।[22] हम्पी, विश्व धरोहर स्थल मं एक उग्रनरसिंह की मूर्ति। यह विजयनगर साम्राज्य की पूर्व राजधानी विजयनगर के अवशेषों के निकट स्थित है। प्रथम सहस्राब्दी के आरंभ में ही होयसाल वंश का क्षेत्र में पुनरोद्भव हुआ। इसी समय होयसाल साहित्य पनपा साथ ही अनुपम कन्नड़ संगीत और होयसाल स्थापत्य शैली के मंदिर आदि बने।[25][26][27][28] होयसाल साम्राज्य ने अपने शासन के विस्तार के तहत आधुनिक आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के छोटे भागों को विलय किया। १४वीं शताब्दी के आरंभ में हरिहर और बुक्का राय ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की एवं वर्तमान बेल्लारी जिले में तुंगभद्रा नदी के तट होसनपट्ट (बाद में विजयनगर) में अपनी राजधानी बसायी। इस साम्राज्य ने अगली दो शताब्दियों में मुस्लिम शासकों के दक्षिण भारत में विस्तार पर रोक लगाये रखी।[29][30] बादामी गुहा के भीतर १५६५ में समस्त दक्षिण भारत सहित कर्नाटक ने एक बड़ा राजनैतिक बदलाव देख, जिसमें विजयनगर साम्राज्य तालिकोट के युद्ध में हार के बाद इस्लामी सल्तनतों के अधीन हो गया।[31] बीदर के बहमनी सुल्तान की मृत्यु उपरांत उदय हुए बीजापुर सल्तनत ने जल्दी ही दक्खिन पर अधिकार कर लिया और १७वीं शताब्दी के अंत में मुगल साम्राज्य से मात होने तक बनाये रखा।[32][33] बहमनी और बीजापुर के शसकों ने उर्दू एवं फारसी साहित्य तथा भारतीय पुनरोद्धार स्थापत्यकला (इण्डो-सैरेसिनिक) को बढ़ावा दिया। इस शैली का प्रधान उदाहरण है गोल गुम्बज[34] पुर्तगाली शासन द्वारा भारी कर वसूली, खाद्य आपूर्ति में कमी एवं महामारियों के कारण १६वीं शताब्दी में कोंकणी हिन्दू मुख्यतः सैल्सेट, गोआ से विस्थापित होकर]],[35] कर्नाटक में आये और १७वीं तथा १८वीं शताब्दियों में विशेषतः बारदेज़, गोआ से विस्थापित होकर मंगलौरियाई कैथोलिक ईसाई दक्षिण कन्नड़ आकर बस गये।[36] भूगोल[संपादित करें] जोग प्रपात भारत में सबसे ऊंचा जल प्रपात है। यहां शरावती नदी ऊंचाई से नीचे गिरती है। कर्नाटक राज्य में तीन प्रधान मंडल हैं: तटीय क्षेत्र करावली, पहाड़ी क्षेत्र मालेनाडु जिसमें पश्चिमी घाट आते हैं, तथा तीसरा बयालुसीमी क्षेत्र जहां दक्खिन पठार का क्षेत्र है। राज्य का अधिकांश क्षेत्र बयालुसीमी में आता है और इसका उत्तरी क्षेत्र भारत का सबसे बड़ा शुष्क क्षेत्र है।[37] कर्नाटक का सबसे ऊंचा स्थल चिकमंगलूर जिले का मुल्लयनगिरि पर्वत है। यहां की समुद्र सतह से ऊंचाई 1,929 मीटर (6,329 फ़ुट) है। कर्नाटक की महत्त्वपूर्ण नदियों में कावेरी, तुंगभद्रा नदी, कृष्णा नदी, मलयप्रभा नदी और शरावती नदी हैं। कृषि हेतु योग्यता के अनुसार यहां की मृदा को छः प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है: लाल, लैटेरिटिक, काली, ऍल्युवियो-कोल्युविलय एवं तटीय रेतीली मिट्टी। राज्य में चार प्रमुख ऋतुएं आती हैं। जनवरी और फ़रवरी में शीत ऋतु, उसके बाद मार्च-मई तक ग्रीष्म ऋतु, जिसके बाद जून से सितंबर तक वर्षा ऋतु (मॉनसून) और अंततः अक्टूबर से दिसम्बर पर्यन्त मॉनसूनोत्तर काल। मौसम विज्ञान के आधार पर कर्नाटक तीन क्षेत्रों में बांटा जा सकता है: तटीय, उत्तरी आंतरिक और दक्षिणी आंतरिक क्षेत्र। इनमें से तटीय क्षेत्र में सर्वाधिक वर्षा होती है, जिसका लगभग 3,638.5 मिमी (143 इंच) प्रतिवर्ष है, जो राज्य के वार्षिक औसत 1,139 मिमी (45 इंच) से कहीं अधिक है। शिमोगा जिला में अगुम्बे भारत में दूसरा सर्वाधिक वार्षिक औसत वर्षा पाने वाला स्थल है।[38] द्वारा किया गया है। यहां का सर्वाधिक अंकित तापमान ४५.६ ° से. (११४ °फ़ै.) रायचूर में तथा न्यूनतम तापमान 2.8 °से (37 °फ़ै) बीदर में नापा गया है। कर्नाटक का लगभग 38,724 किमी2 (14,951 वर्ग मील) (राज्य के भौगोलिक क्षेत्र का २०%) वनों से आच्छादित है। ये वन संरक्षित, सुरक्षित, खुले, ग्रामीण और निजी वनों में वर्गीकृत किये जा सकते हैं। यहां के वनाच्छादित क्षेत्र भारत के औसत वनीय क्षेत्र २३% से कुछ ही कम हैं, किन्तु राष्ट्रीय वन नीति द्वारा निर्धारित ३३% से कहीं कम हैं।[39] उप-मंडल[संपादित करें] मुख्य लेख : कर्नाटक के जिले कर्नाटक के जिले कर्नाटक राज्य में ३० जिले हैं —बागलकोट, बंगलुरु ग्रामीण, बंगलुरु शहरी, बेलगाम, बेल्लारी, बीदर, बीजापुर, चामराजनगर, चिकबल्लपुर,[40] चिकमंगलूर, चित्रदुर्ग, दक्षिण कन्नड़, दावणगिरि, धारवाड़, गडग, गुलबर्ग, हसन, हवेरी, कोडगु, कोलार, कोप्पल, मांड्या, मैसूर, रायचूर, रामनगर,[40] शिमोगा, तुमकुर, उडुपी, उत्तर कन्नड़ एवं यादगीर। प्रत्येक जिले का प्रशासन एक जिलाधीश या जिलायुक्त के अधीन होता है। ये जिले फिर उप-क्षेत्रों में बंटे हैं, जिनका प्रशासन उपजिलाधीश के अधीन है। उप-जिले ब्लॉक और पंचायतों तथा नगरपालिकाओं द्वारा देखे जाते हैं। २००१ की जनगणना के आंकड़ों से ज्ञात होता है कि जनसंख्यानुसार कर्नाटक के शहरों की सूची में सर्वोच्च छः नगरों में बंगलुरु, हुबली-धारवाड़, मैसूर, गुलबर्ग, बेलगाम एवं मंगलौर आते हैं। १० लाख से अधिक जनसंख्या वाले महानगरों में मात्र बंगलुरु ही आता है। बंगलुरु शहरी, बेलगाम एवं गुलबर्ग सर्वाधिक जनसंख्या वाले जिले हैं। प्रत्येक में ३० लाख से अधिक जनसंख्या है। गडग, चामराजनगर एवं कोडगु जिलों की जनसंख्या १० लाख से कम है।[41] जनसांख्यिकी[संपादित करें] [दिखाएँ]जनसंख्या बढ़ोत्तरी २००१ की भारतीय जनगणना के अनुसार, कर्नाटक की कुल जनसंख्या ५२,८५०,५६२ है, जिसमें से २६,८९८,९१८ (५०.८९%) पुरुष और २५,९५१,६४४ स्त्रियां (४३.११%) हैं। यानि प्रत्येक १००० पुरुष ९६४ स्त्रियां हैं। इसके अनुसार १९९१ की जनसंख्या में १७.२५% की वृद्धि हुई है। राज्य का जनसंख्या घनत्व २७५.६ प्रति वर्ग कि.मी है और ३३.९८% लोग शहरी क्षेत्रों में रहते हैं। यहां की साक्षरता दर ६६.६% है, जिसमें ७६.१% पुरुष और ५६.९% स्त्रियां साक्षर हैं।[1] यहां की कुल जनसंख्या का ८३% हिन्दू हैं और ११% मुस्लिम, ४% ईसाई, ०.७८% जैन, ०.७३% बौद्ध और शेष लोग अन्य धर्मावलंबी हैं।[43] कर्नाटक की आधिकारिक भाषा कन्नड़ है और स्थानीय भाषा के रूप में ६४.७५% लोगों द्वारा बोली जाती है। १९९१ के अनुसार अन्य भाषायी अल्पसंख्यकों में उर्दु (९.७२%), तेलुगु (८.३४%), तमिल (५.४६%), मराठी (३.९५%), टुलु (३.३८%, हिन्दी (१.८७%), कोंकणी (१.७८%), मलयालम (१.६९%) और कोडव तक्क भाषी ०.२५% हैं।[44] राज्य की जन्म दर २.२% और मृत्यु दर ०.७२% है। इसके अलावा शिशु मृत्यु (मॉर्टैलिटी) दर ५.५% एवं मातृ मृत्यु दर ०.१९५% है। कुल प्रजनन (फर्टिलिटी) दर २.२ है।[45] स्वास्थ्य एवं आरोग्य के क्षेत्र (सुपर स्पेशियलिटी हैल्थ केयर) में कर्नाटक की निजी क्षेत्र की कंपनियां विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्थाओं से तुलनीय हैं।[46] कर्नाटक में उत्तम जन स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं, जिनके आंकड़े व स्थिति भारत के अन्य अधिकांश राज्यों की तुलना में काफी बेहतर है। इसके बावजूद भी राज्य के कुछ अति पिछड़े इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है।[47] प्रशासनिक उद्देश्य हेतु, कर्नाटक को चार रेवेन्यु मंडलों, ४९ उप-मंडलों, २९ जिलों, १७५ तालुकों और ७४५ होब्लीज़/रेवेन्यु वृत्तों में बांटा गया है।[48] प्रत्येक जिला प्रशासन का अध्यक्ष जिला उपायुक्त होता है, जो भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई.ए.एस) से होता है और उसके अधीन कर्नाटक राज्य सेवाओं के अनेक अधिकारीगण होते हैं। राज्य के न्याय और कानून व्यवस्था का उत्तरदायित्व पुलिस उपायुक्त पर होता है। ये भारतीय पुलिस सेवा का अधिकारी होता है, जिसके अधीन कर्नाटक राज्य पुलिस सेवा के अधिकारीगण कार्यरत होते हैं। भारतीय वन सेवा से वन उपसंरक्षक अधिकारी तैनात होता है, जो राज्य के वन विभाग की अध्यक्षता करता है। जिलों के सर्वांगीण विकास, प्रत्येक जिले के विकास विभाग जैसे लोक सेवा विभाग, स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, पशु-पालन, आदि विभाग देखते हैं। राज्य की न्यायपालिका बंगलुरु में स्थित कर्नाटक उच्च न्यायालय (अट्टार कचेरी) और प्रत्येक जिले में जिले और सत्र न्यायालय तथा तालुक स्तर के निचले न्यायालय के द्वारा चलती है। सरकार एवं प्रशासन[संपादित करें] मुख्य लेख : कर्नाटक सरकार बंगलुरु स्थित कर्नाटक सरकार का विधान भवन: विधान सौध कर्नाटक राज्य में भारत के अन्य राज्यों कि भांति ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा चुनी गयी एक द्विसदनीय संसदीय सरकार है: विधान सभा एवं विधान परिषद। विधान सभा में २४ सदस्य हैं जो पांच वर्ष की अवधि हेतु चुने जाते हैं।[49] विधान परिषद एक ७५ सदस्यीय स्थायी संस्था है और इसके एक-तिहाई सदस्य (२५) प्रत्येक २ वर्ष में सेवा से निवृत्त होते जाते हैं।[49] कर्नाटक सरकार की अध्यक्षता विधान सभा चुनावों में जीतकर शासन में आयी पार्टी के सदस्य द्वारा चुने गये मुख्य मंत्री करते हैं। मुख्य मंत्री अपने मंत्रिमंडल सहित तय किये गए विधायी एजेंडा का पालन अपनी अधिकांश कार्यकारी शक्तियों के उपयोग से करते हैं।[50] फिर भी राज्य का संवैधानिक एवं औपचारिक अध्यक्ष राज्यपाल ही कहलाता है। राज्यपाल को ५ वर्ष की अवधि हेतु केन्द्र सरकार के परामर्श से भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है।[51] कर्नाटक राज्य की जनता द्वारा आम चुनावों के माध्यम से २८ सदस्य लोक सभा हेतु भी चुने जाते हैं।[52][53] विधान परिषद के सदस्य भारत के संसद के उच्च सदन, राज्य सभा हेतु १२ सदस्य चुन कर भेजते हैं। प्रशासनिक सुविधा हेतु कर्नाटक राज्य को चार राजस्व विभागों, ४९ उप-मंडलों, २९ जिलों, १७५ तालुक तथा ७४५ राजस्व वृत्तों में बांटा गया है।[48] प्रत्येक जिले के प्रशासन का अध्यक्ष वहां का उपायुक्त (डिप्टी कमिश्नर) होता है। उपायुक्त एक भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी होता है तथा उसकी सहायता हेतु राज्य सरकार के अनेक उच्चाधिकारी तत्पर रहते हैं। भारतीय पुलिस सेवा से एक अधिकारी राज्य में उपायुक्त पद पर आसीन रहता है। उसके अधीन भी राज्य पुलिस सेवा के अनेक उच्चाधिकारी तत्पर रहते हैं। पुलिस उपायुक्त जिले में न्याय और प्रशासन संबंधी देखभाल के लिये उत्तरदायी होता है। भारतीय वन सेवा से एक अधिकारी वन उपसंक्षक अधिकारी (डिप्टी कन्ज़र्वेटर ऑफ फ़ॉरेस्ट्स) के पद पर तैनात होता है। ये जिले में वन और पादप संबंधी मामलों हेतु उत्तरदायी रहता है। प्रत्येक विभाग के विकास अनुभाग के जिला अधिकारी राज्य में विभिन्न प्रकार की प्रगति देखते हैं, जैसे राज्य लोक सेवा विभाग, स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, पशुपालन आदि। ] बीच में बना है। इसके ऊपर घेरे हुए चार सिंह चारों दिशाओं में देख रहे हैं। इसे सारनाथ में अशोक स्तंभ से लिया गया है। इस चिह्न में दो शरभ हैं, जिनके हाथी के सिर और सिंह के धड़ हैं।]] राज्य की न्यायपालिका में सर्वोच्च पीठ कर्नाटक उच्च न्यायालय है, जिसे स्थानीय लोग "अट्टार कचेरी" बुलाते हैं। ये राजधानी बंगलुरु में स्थित है। इसके अधीन जिला और सत्र न्यायालय प्रत्येक जिले में तथा निम्न स्तरीय न्यायालय ताल्लुकों में कार्यरत हैं। कर्नाटक राज के आधिकारिक चिह्न में गंद बेरुंड बीच में बना है। इसके ऊपर घेरे हुए चार सिंह चारों दिशाओं में देख रहे हैं। इसे सारनाथ में अशोक स्तंभ से लिया गया है। इस चिह्न में दो शरभ हैं, जिनके हाथी के सिर और सिंह के धड़ हैं। कर्नाटक की राजनीति में मुख्यतः तीन राजनैतिक पार्टियों: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और जनता दल का ही वर्चस्व रहता है।[54] कर्नाटक के राजनीतिज्ञों ने भारत की संघीय सरकार में प्रधानमंत्री तथा उपराष्ट्रपति जैसे उच्च पदों की भी शोभा बढ़ायी है। वर्तमान संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यू.पी.ए सरकार में भी तीन कैबिनेट स्तरीय मंत्री कर्नाटक से हैं। इनमें से उल्लेखनीय हैं पूर्व मुख्यमंत्री एवं वर्तमान क़ानून एवं न्याय मंत्रालय – वीरप्पा मोइली हैं। राज्य के कासरगोड[55] और शोलापुर[56] जिलों पर तथा महाराष्ट्र के बेलगाम पर दावे के विवाद राज्यों के पुनर्संगठन काल से ही चले आ रहे हैं।[57] अर्थव्यवस्था[संपादित करें] हाल के वर्षों में कर्नाटक की आर्थिक स्थिति (सकल राज्य घरेलु उत्पाद) कर्नाटक राज्य का वर्ष २००७-०८ का सकल राज्य घरेलु उत्पाद लगभग Indian Rupee symbol.svg २१५.२८२ हजार करोड़ ($ ५१.२५ बिलियन) रहा।[58] २००७-०८ में इसके सकल घरेलु उत्पाद में ७% की वृद्धी हुई थी।[59] भारत के राष्ट्रीय सकल घरेलु उत्पाद में वर्ष २००४-०५ में इस राज्य का योगदान ५.२% रहा था।[60] कर्नाटक पिछले कुछ दशकों में जीडीपी एवं प्रति व्यक्ति जीडीपी के पदों में तीव्रतम विकासशील राज्यों में रहा है। यह ५६.२% जीडीपी और ४३.९% प्रति व्यक्ति जीडीपी के साथ भारतीय राज्यों में छठे स्थान पर आता है।[61] सितंबर, २००६ तक इसे वित्तीय वर्ष २००६-०७ के लिये ७८.०९७ बिलियन ($ १.७२५५ बिलियन) का विदेशी निवेश प्राप्त हुआ था, जिससे राज्य भारत के अन्य राज्यों में तीसरे स्थान पर था।[62] वर्ष २००४ के अंत तक, राज्य में अनुद्योग दर (बेरोजगार दर) ४.९४% थी, जो राष्ट्रीय अनुद्योग दर ५.९९% से कम थी।[63] वित्तीय वर्ष २००६-०७ में राज्य की मुद्रा स्फीति दर ४.४% थी, जो राष्ट्रीय दर ४.७% से थोड़ी कम थी।[64] वर्ष २००४-०५ में राज्य का अनुमानित गरीबी अनुपात १७% रहा, जो राष्ट्रीय अनुपात २७.५% से कहीं नीचे है।[65] कर्नाटक की लगभग ५६% जनसंख्या कृषि और संबंधित गतिविधियों में संलग्न है।[66] राज्य की कुल भूमि का ६४.६%, यानि १.२३१ करोड़ हेक्टेयर भूमि कृषि कार्यों में संलग्न है।[67] यहाँ के कुल रोपित क्षेत्र का २६.५% ही सिंचित क्षेत्र है। इसलिए यहाँ की अधिकांश खेती दक्षिण-पश्चिम मानसून पर निर्भर है।[67] यहाँ भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के अनेक बड़े उद्योग स्थापित किए गए हैं, जैसे हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड, नेशनल एरोस्पेस लैबोरेटरीज़, भारत हैवी एलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज़, भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड एवं हिन्दुस्तान मशीन टूल्स आदि जो बंगलुरु में ही स्थित हैं। यहाँ भारत के कई प्रमुख विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी अनुसंधान केन्द्र भी हैं, जैसे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन, केन्द्रीय विद्युत अनुसंधान संस्थान, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड एवं केन्द्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान। मैंगलोर रिफाइनरी एंड पेट्रोकैमिकल्स लिमिटेड, मंगलोर में स्थित एक तेल शोधन केन्द्र है। १९८० के दशक से कर्नाटक (विशेषकर बंगलुरु) सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशेष उभरा है। वर्ष २००७ के आंकड़ों के अनुसार कर्नाटक से लगभग २००० आई.टी फर्म संचालित हो रही थीं। इनमें से कई के मुख्यालय भी राज्य में ही स्थित हैं, जिनमें दो सबसे बड़ी आई.टी कंपनियां इन्फोसिस और विप्रो हैं।[68] इन संस्थाओं से निर्यात रु. ५०,००० करोड़ (१२.५ बिलियन) से भी अधिक पहुंचा है, जो भारत के कुल सूचना प्रौद्योगिकी निर्यात का ३८% है।[68] देवनहल्ली के बाहरी ओर का नंदी हिल क्षेत्र में ५० वर्ग कि.मी भाग, आने वाले २२ बिलियन के ब्याल आईटी निवेश क्षेत्र की स्थली है। ये कर्नाटक की मूल संरचना इतिहास की अब तक की सबसे बड़ी परियोजना है।[69] इन सब कारणों के चलते ही बंगलौर को भारत की सिलिकॉन घाटी कहा जाने लगा है।[70] आर्थिक प्रगति में क्षेत्रवार योगदान भारत में कर्नाटक जैवप्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी अग्रणी है। यह भारत के सबसे बड़े जैव आधारित उद्योग समूह का केन्द्र भी है। यहां देश की ३२० जैवप्रौद्योगिकी संस्थाओं व कंपनियों में से १५८ स्थित हैं।[71] इसी राज्य से भारत के कुल पुष्प-उद्योग का ७५% योगदान है। पुष्प उद्योग तेजी से उभरता और फैलता उद्योग है, जिसमें विश्व भर में सजावटी पौधे और फूलों की आपूर्ति की जाती है।[72] भारत के अग्रणी बैंकों में से सात बैंकों, केनरा बैंक, सिंडिकेट बैंक, कार्पोरेशन बैंक, विजया बैंक, कर्नाटक बैंक, वैश्य बैंक और स्टेट बैंक ऑफ मैसूर का उद्गम इसी राज्य से हुआ था।[73] राज्य के तटीय जिलों उडुपी और दक्षिण कन्नड़ में प्रति ५०० व्यक्ति एक बैंक शाखा है। ये भारत का सर्वश्रेष्ठ बैंक वितरण है।[74] मार्च २००२ के अनुसार, कर्नाटक राज्य में विभिन्न बैंकों की ४७६७ शाखाएं हैं, जिनमें से प्रत्येक शाखा औसत ११,००० व्यक्तियों की सेवा करती है। ये आंकड़े राष्ट्रीय औसत १६,००० से काफी कम है।[75] भारत के ३५०० करोड़ के रेशम उद्योग से अधिकांश भाग कर्नाटक राज्य में आधारित है, विशेषकर उत्तरी बंगलौर क्षेत्रों जैसे मुद्दनहल्ली, कनिवेनारायणपुरा एवं दोड्डबल्लपुर, जहां शहर का ७० करोड़ रेशम उद्योग का अंश स्थित है। यहां की बंगलौर सिल्क और मैसूर सिल्क विश्वप्रसिद्ध हैं।[76][77] यातायात[संपादित करें] मुख्य लेख : भारत के राजमार्ग और कर्नाटक में राष्ट्रीय राजमार्गों की सूची किंगफिशर एयरलाइंस बंगलुरु में आधारित विमानसेवा है। कर्नाटक में वायु यातायात देश के अन्य भागों की तरह ही बढ़ता हुआ किंतु कहीं उन्नत है। कर्नाटक राज्य में बंगलुरु, मंगलौर, हुबली, बेलगाम, हम्पी एवं बेल्लारी विमानक्षेत्र में विमानक्षेत्र हैं, जिनमें बंगलुरु एवं मंगलौर अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र हैं। मैसूर, गुलबर्ग, बीजापुर, हस्सन एवं शिमोगा में भी २००७ से प्रचालन कुछ हद तक आरंभ हुआ है।[78] यहां चालू प्रधान वायुसेवाओं में किंगफिशर एयरलाइंस एवं एयर डेक्कन हैं, जो बंगलुरु में आधारित हैं। कर्नाटक का रेल यातायात जाल लगभग 3,089 किलोमीटर (1,919 मील) लंबा है। २००३ में हुबली में मुख्यालय सहित दक्षिण पश्चिमी रेलवे के सृजन से पूर्व राज्य दक्षिणी एवं पश्चिमी रेलवे मंडलों में आता था। अब राज्य के कई भाग दक्षिण पश्चिमी मंडल में आते हैं, व शेष भाग दक्षिण रेलवे मंडल में आते हैं। तटीय कर्नाटक के भाग कोंकण रेलवे नेटवर्क के अंतर्गत आते हैं, जिसे भारत में इस शताब्दी की सबसे बड़ी रेलवे परियोजना के रूप में देखा गया है।[79] बंगलुरु अन्तर्राज्यीय शहरों से रेल यातायात द्वारा भली-भांति जुड़ा हुआ है। राज्य के अन्य शहर अपेक्षाकृत कम जुड़े हैं।[80][81] कर्नाटक में ११ जहाजपत्तन हैं, जिनमें मंगलौर पोर्ट सबसे नया है, जो अन्य दस की अपेक्षा सबसे बड़ा और आधुनिक है।[82] मंगलौर का नया पत्तन भारत के नौंवे प्रधान पत्तन के रूप में ४ मई, १९७४ को राष्ट्र को सौंपा गया था। इस पत्तन में वित्तीय वर्ष २००६-०७ में ३ करोड़ २०.४ लाख टन का निर्यात एवं १४१.२ लाख टन का आयात व्यापार हुआ था। इस वित्तीय वर्ष में यहां कुल १०१५ जलपोतों की आवाजाही हुई, जिसमें १८ क्यूज़ पोत थे। राज्य में अन्तर्राज्यीय जलमार्ग उल्लेखनीय स्तर के विकसित नहीं हैं।[83] कर्नाटक के राष्ट्रीय एवं राज्य राजमार्गों की कुल लंबाइयां क्रमशः 3,973 किलोमीटर (2,469 मील) एवं 9,829 किलोमीटर (6,107 मील) हैं। कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम (के.एस.आर.टी.सी) राज्य का सरकारी लोक यातायात एवं परिवहन निगम है, जिसके द्वारा प्रतिदिन लगभग २२ लाख यात्रियों को परिवहन सुलभ होता है। निगम में २५,००० कर्मचारी सेवारत हैं।[84] १९९० के दशक के अंतिम दौर में निगम को तीन निगमों में विभाजित किया गया था, बंगलौर मेट्रोपॉलिटन ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन, नॉर्थ-वेस्ट कर्नाटक ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन एवं नॉर्थ-ईस्ट कर्नाटक ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन। इनके मुख्यालय क्रमशः बंगलौर, हुबली एवं गुलबर्ग में स्थित हैं।[84] संस्कृति[संपादित करें] मुख्य लेख : कर्नाटक संगीत और कर्नाटक का खानपान एक कलाकार, यक्षगान के रूप में केडिग के संग। कर्नाटक राज्य में विभिन्न बहुभाषायी और धार्मिक जाति-प्रजातियां बसी हुई हैं। इनके लंबे इतिहास ने राज्य की सांस्कृतिक धरोहर में अमूल्य योगदान दिया है। कन्नड़िगों के अलावा, यहां तुलुव, कोडव और कोंकणी जातियां, भी बसी हुई हैं। यहां अनेक अल्पसंख्यक जैसे तिब्बती बौद्ध तथा अनेक जनजातियाँ जैसे सोलिग, येरवा, टोडा और सिद्धि समुदाय हैं जो राज्य में भिन्न रंग घोलते हैं। कर्नाटक की परंपरागत लोक कलाओं में संगीत, नृत्य, नाटक, घुमक्कड़ कथावाचक आदि आते हैं। मालनाड और तटीय क्षेत्र के यक्षगण, शास्त्रीय नृत्य-नाटिकाएं राज्य की प्रधान रंगमंच शैलियों में से एक हैं। यहां की रंगमंच परंपरा अनेक सक्रिय संगठनों जैसे निनासम, रंगशंकर, रंगायन एवं प्रभात कलाविदरु के प्रयासों से जीवंत है। इन संगठनों की आधारशिला यहां गुब्बी वीरन्ना, टी फी कैलाशम, बी वी करंथ, के वी सुबन्ना, प्रसन्ना और कई अन्य द्वारा रखी गयी थी।[85] वीरागेस, कमसेल, कोलाट और डोलुकुनिता यहां की प्रचलित नृत्य शैलियां हैं। मैसूर शैली के भरतनाट्य यहां जत्ती तयम्मा जैसे पारंगतों के प्रयासों से आज शिखर पर पहुंचा है और इस कारण ही कर्नाटक, विशेषकर बंगलौर भरतनाट्य के लिये प्रधान केन्द्रों में गिना जाता है।[86] कर्नाटक का विश्वस्तरीय शास्त्रीय संगीत में विशिष्ट स्थान है, जहां संगीत की[87] कर्नाटक (कार्नेटिक) और हिन्दुस्तानी शैलियां स्थान पाती हैं। राज्य में दोनों ही शैलियों के पारंगत कलाकार हुए हैं। वैसे कर्नाटक संगीत में कर्नाटक नाम कर्नाटक राज्य विशेष का ही नहीं, बल्कि दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत को दिया गया है।१६वीं शताब्दी के हरिदास आंदोलन कर्नाटक संगीत के विकास में अभिन्न योगदान दिया है। सम्मानित हरिदासों में से एक, पुरंदर दास को कर्नाटक संगीत पितामह की उपाधि दी गयी है।[88] कर्नाटक संगीत के कई प्रसिद्ध कलाकार जैसे गंगूबाई हंगल, मल्लिकार्जुन मंसूर, भीमसेन जोशी, बसवराज राजगुरु, सवाई गंधर्व और कई अन्य कर्नाटक राज्य से हैं और इनमें से कुछ को कालिदास सम्मान, पद्म भूषण और पद्म विभूषण से भी भारत सरकार ने सम्मानित किया हुआ है। धारवाड़ पेड़ा कर्नाटक संगीत पर आधारित एक अन्य शास्त्रीय संगीत शैली है, जिसका प्रचलन कर्नाटक राज्य में है। कन्नड़ भगवती शैली आधुनिक कविगणों के भावात्मक रस से प्रेरित प्रसिद्ध संगीत शैली है। मैसूर चित्रकला शैली ने अनेक श्रेष्ठ चित्रकार दिये हैं, जिनमें से सुंदरैया, तंजावुर कोंडव्य, बी.वेंकटप्पा और केशवैय्या हैं। राजा रवि वर्मा के बनाये धार्मिक चित्र पूरे भारत और विश्व में आज भी पूजा अर्चना हेतु प्रयोग होते हैं।[89] मैसूर चित्रकला की शिक्षा हेतु चित्रकला परिषत नामक संगठन यहां विशेष रूप से कार्यरत है। कर्नाटक में महिलाओं की परंपरागत भूषा साड़ी है। कोडगु की महिलाएं एक विशेष प्रकार से साड़ी पहनती हैं, जो शेष कर्नाटक से कुछ भिन्न है।[90] राज्य के पुरुषों का परंपरागत पहनावा धोती है, जिसे यहां पाँचे कहते हैं। वैसे शहरी क्षेत्रों में लोग प्रायः कमीज-पतलून तथा सलवार-कमीज पहना करते हैं। राज्य के दक्षिणी क्षेत्र में विशेष शैली की पगड़ी पहनी जाती है, जिसे मैसूरी पेटा कहते हैं और उत्तरी क्षेत्रों में राजस्थानी शैली जैसी पगड़ी पहनी जाती है और पगड़ी या पटगा कहलाती है। चावल (कन्नड़: ಅಕ್ಕಿ) और रागी राज्य के प्रधान खाद्य में आते हैं और जोलड रोट्टी, सोरघम उत्तरी कर्नाटक के प्रधान खाद्य हैं। इनके अलावा तटीय क्षेत्रों एवं कोडगु में अपनी विशिष्ट खाद्य शैली होती है। बिसे बेले भात, जोलड रोट्टी, रागी बड़ा, उपमा, मसाला दोसा और मद्दूर वड़ा कर्नाटक के कुछ प्रसिद्ध खाद्य पदार्थ हैं। मिष्ठान्न में मैसूर पाक, बेलगावी कुंड, गोकक करदंतु और धारवाड़ पेड़ा मशहूर हैं। धर्म[संपादित करें] श्रवणबेलगोला में गोमतेश्वर (९८२-९८३) की एकाश्म-प्रतिमा, आज जैन धर्मावलंबियों के सर्वप्रिय तीर्थों में से एक है। आदि शंकराचार्य ने शृंगेरी को भारत पर्यन्त चार पीठों में से दक्षिण पीठ हेतु चुना था। विशिष्ट अद्वैत के अग्रणी व्याख्याता रामानुजाचार्य ने मेलकोट में कई वर्ष व्यतीत किये थे। वे कर्नाटक में १०९८ में आये थे और यहां ११२२ तक वास किया। इन्होंने अपना प्रथम वास तोंडानूर में किया और फिर मेलकोट पहुंचे, जहां इन्होंने चेल्लुवनारायण मंदिर और एक सुव्यवस्थित मठ की स्थापना की। इन्हें होयसाल वंश के राजा विष्णुवर्धन का संरक्षण मिला था।[91] १२वीं शताब्दी में जातिवाद और अन्य सामाजिक कुप्रथाओं के विरोध स्वरूप उत्तरी कर्नाटक में वीरशैवधर्म का उदय हुआ। इन आन्दोलन में अग्रणी व्यक्तित्वों में बसव, अक्का महादेवी और अलाम प्रभु थे, जिन्होंने अनुभव मंडप की स्थापना की जहां शक्ति विशिष्टाद्वैत का उदय हुआ। यही आगे चलकर लिंगायत मत का आधार बना जिसके आज कई लाख अनुयायी हैं।[92] कर्नाटक के सांस्कृतिक और धार्मिक ढांचे में जैन साहित्य और दर्शन का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इस्लाम का आरंभिक उदय भारत के पश्चिमी छोर पर १०वीं शताब्दी के लगभग हुआ था। इस धर्म को कर्नाटक में बहमनी साम्राज्य और बीजापुर सल्तनत का संरक्षण मिला।[93] कर्नाटक में ईसाई धर्म १६वीं शताब्दी में पुर्तगालियों और १५४५ में सेंट फ्रांसिस ज़ेवियर के आगमन के साथ फैला।[94] राज्य के गुलबर्ग और बनवासी आदि स्थानों में प्रथम सहस्राब्दी में बौद्ध धर्म की जड़े पनपीं। गुलबर्ग जिले में १९८६ में हुई अकस्मात खोज में मिले मौर्य काल के अवशेष और अभिलेखों से ज्ञात हुआ कि कृष्णा नदी की तराई क्षेत्र में बौद्ध धर्म के महायन और हिनायन मतों का खूब प्रचार हुआ था। मैसूर मैसूर राज्य में नाड हब्बा (राज्योत्सव) के रूप में मनाया जाता है। यह मैसूर के प्रधान त्यौहारों में से एक है।[95] उगादि (कन्नड़ नव वर्ष), मकर संक्रांति, गणेश चतुर्थी, नाग पंचमी, बसव जयंती, दीपावली आदि कर्नाटक के प्रमुख त्यौहारों में से हैं। भाषा[संपादित करें] मुख्य लेख : कन्नड़ भाषा, टुलु, कोंकणी भाषा, और कन्नड़ साहित्य कन्नड़ भाषा में प्राचीनतम अभिलेख ४५० ई. के हल्मिडी शिलालेखों में मिलते हैं। राज्य की आधिकारिक भाषा है कन्नड़, जो स्थानीय निवासियों में से ६५% लोगों द्वारा बोली जाती है।[96][97] कन्नड़ भाषा ने कर्नाटक राज्य की स्थापना में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है, जब १९५६ में राज्यों के सृजन हेतु भाषायी सांख्यिकी मुख्य मानदंड रहा था। राज्य की अन्य भाषाओं में कोंकणी एवं कोडव टक हैं, जिनका राज्य में लंबा इतिहास रहा है। यहां की मुस्लिम जनसंख्या द्वारा उर्दु भी बोली जाती है। अन्य भाषाओं से अपेक्षाकृत कम बोली जाने वाली भाषाओं में बेयरे भाषा व कुछ अन्य बोलियां जैसे संकेती भाषा आती हैं। कन्नड़ भाषा का प्राचीन एवं प्रचुर साहित्य है, जिसके विषयों में काफी भिन्नता है और जैन धर्म, वचन, हरिदास साहित्य एवं आधुनिक कन्नड़ साहित्य है। अशोक के समय की राजाज्ञाओं व अभिलेखों से ज्ञात होता है कि कन्नड़ लिपि एवं साहित्य पर बौद्ध साहित्य का भी प्रभाव रहा है। हल्मिडी शिलालेख ४५० ई. में मिले कन्नड़ भाषा के प्राचीनतम उपलब्ध अभिलेख हैं, जिनमें अच्छी लंबाई का लेखन मिलता है। प्राचीनतम उपलब्ध साहित्य में ८५० ई. के कविराजमार्ग के कार्य मिलते हैं। इस साहित्य से ये भी सिद्ध होता है कि कन्नड़ साहित्य में चट्टान, बेद्दंड एवं मेलवदु छंदों का प्रयोग आरंभिक शताब्दियों से होता आया है।[98] राष्ट्रकवि कुवेंपु, २०वीं शताब्दी के कन्नड़ साहित्य के प्रतिष्ठित कवि कुवेंपु, प्रसिद्ध कन्नड़ कवि एवं लेखक थे, जिन्होंने जय भारत जननीय तनुजते लिखा था, जिसे अब राज्य का गीत (एन्थम) घोषित किया गया है।[99] इन्हें प्रथम कर्नाटक रत्न सम्मान दिया गया था, जो कर्नाटक सरकार द्वारा दिया जाने वाला सर्वोच्च नागरिक सम्मान है। अन्य समकालीन कन्नड़ साहित्य भी भारतीय साहित्य के प्रांगण में अपना प्रतिष्ठित स्थान बनाये हुए है। सात कन्नड़ लेखकों को भारत का सर्वोच्च साहित्य सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार मिल चुका है, जो किसी भी भारतीय भाषा के लिये सबसे बड़ा साहित्यिक सम्मान होता है।[100] टुलु भाषा मुख्यतः राज्य के तटीय जिलों उडुपी और दक्षिण कन्नड़ में बोली जाती है। टुलु महाभरतो, अरुणब्ज द्वारा इस भाषा में लिखा गया पुरातनतम उपलब्ध पाठ है।[101] टुलु लिपि के क्रमिक पतन के कारण टुलु भाषा अब कन्नड़ लिपि में ही लिखी जाती है, किन्तु कुछ शताब्दी पूर्व तक इस लिपि का प्रयोग होता रहा था। कोडव जाति के लोग, जो मुख्यतः कोडगु जिले के निवासी हैं, कोडव टक्क बोलते हैं। इस भाषा की दो क्षेत्रीय बोलियां मिलती हैं: उत्तरी मेन्डले टक्क और दक्षिणी किग्गाति टक।[102] कोंकणी मुख्यतः उत्तर कन्नड़ जिले में और उडुपी एवं दक्षिण कन्नड़ जिलों के कुछ समीपस्थ भागों में बोली जाती है। कोडव टक्क और कोंकणी, दोनों में ही कन्नड़ लिपि का प्रयोग किया जाता है। कई विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी है और अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा प्रौद्योगिकी-संबंधित कंपनियों तथा बीपीओ में अंग्रेज़ी का प्रयोग ही होता है। राज्य की सभी भाषाओं को सरकारी एवं अर्ध-सरकारी संस्थाओं का संरक्षण प्राप्त है। कन्नड़ साहित्य परिषत एवं कन्नड़ साहित्य अकादमी कन्नड़ भाषा के उत्थान हेतु एवं कन्नड़ कोंकणी साहित्य अकादमी कोंकणी साहित्य के लिये कार्यरत है।[103] टुलु साहित्य अकादमी एवं कोडव साहित्य अकादमी अपनी अपनी भाषाओं के विकास में कार्यशील हैं। शिक्षा[संपादित करें] मुख्य लेख : कर्नाटक में शिक्षा और :श्रेणी:कर्नाटक के विश्वविद्यालय भारतीय विज्ञान संस्थान, भारत का एक प्रतिष्ठित विज्ञान संस्थान, बंगलुरु में स्थित है २००१ की जनसंख्या अनुसार, कर्नाटक की साक्षरता दर ६७.०४% है, जिसमें ७६.२९% पुरुष तथा ५७.४५% स्त्रियाँ हैं।[104] राज्य में भारत के कुछ प्रतिष्ठित शैक्षिक और अनुसंधान संस्थान भी स्थित हैं, जैसे भारतीय विज्ञान संस्थान, भारतीय प्रबंधन संस्थान, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कर्नाटक और भारतीय राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय। मार्च २००६ के अनुसार, कर्नाटक में ५४,५२९ प्राथमिक विद्यालय हैं, जिनमें २,५२,८७५ शिक्षक तथा ८४.९५ लाख विद्यार्थी हैं।[105] इसके अलावा ९४९८ माध्यमिक विद्यालय जिनमें ९२,२८७ शिक्षक तथा १३.८४ लाख विद्यार्थी हैं।[105] राज्य में तीन प्रकार के विद्यालय हैं, सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त निजी (सरकार द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त) एवं पूर्णतया निजी (कोई सरकारी सहायता नहीं)। अधिकांश विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम कन्नड़ एवं अंग्रेज़ी है। विद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला पाठ्यक्रम या तो सीबीएसई, आई.सी.एस.ई या कर्नाटक सरकार के शिक्षा विभाग के अधीनस्थ राज्य बोर्ड पाठ्यक्रम (एसएसएलसी) से निर्देशित होता है। कुछ विद्यालय ओपन स्कूल पाठ्यक्रम भी चलाते हैं। राज्य में बीजापुर में एक सैनिक स्कूल भी है। विद्यालयों में अधिकतम उपस्थिति को बढ़ावा देने हेतु, कर्नाटक सरकार ने सरकारी एवं सहायता प्राप्त विद्यालयों में विद्यार्थियों हेतु निःशुल्क अपराह्न-भोजन योजना आरंभ की है।[106] राज्य बोर्ड परीक्षाएं माध्यमिक शिक्षा अवधि के अंत में आयोजित की जाती हैं, जिसमें उत्तीर्ण होने वाले छात्रों को द्विवर्षीय विश्वविद्यालय-पूर्व कोर्स में प्रवेश मिलता है। इसके बाद विद्यार्थी स्नातक पाठ्यक्रम के लिये अर्हक होते हैं। राज्य में छः मुख्य विश्वविद्यालय हैं: बंगलुरु विश्वविद्यालय,गुलबर्ग विश्वविद्यालय, कर्नाटक विश्वविद्यालय, कुवेंपु विश्वविद्यालय, मंगलौर विश्वविद्यालय तथा मैसूर विश्वविद्यालय। इनके अलावा एक मानिव विश्वविद्यालय क्राइस्ट विश्वविद्यालय भी है। इन विश्वविद्यालयों से मान्यता प्राप्त ४८१ स्नातक महाविद्यालय हैं।[107] १९९८ में राज्य भर के अभियांत्रिकी महाविद्यालयों को नवगठित बेलगाम स्थित विश्वेश्वरैया प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अंतर्गत्त लाया गया, जबकि चिकित्सा महाविद्यालयों को राजीव गांधी स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय के अधिकारक्षेत्र में लाया गया था। इनमें से कुछ अच्छे महाविद्यालयों को मानित विश्वविद्यालय का दर्जा भी प्रदान किया गया था। राज्य में १२३ अभियांत्रिकी, ३५ चिकित्सा ४० दंतचिकित्सा महाविद्यालय हैं।[108] राज्य में वैदिक एवं संस्कृत शिक्षा हेतु उडुपी, शृंगेरी, गोकर्ण तथा मेलकोट प्रसिद्ध स्थान हैं। केन्द्र सरकार की ११वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत्त मुदेनहल्ली में एक भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान की स्थापना को स्वीकृति मिल चुकी है। ये राज्य का प्रथम आई.आई.टी संस्थान होगा।[109] इसके अतिरिक्त मेदेनहल्ली-कानिवेनारायणपुरा में विश्वेश्वरैया उन्नत प्रौद्योगिकी संस्थान का ६०० करोड़ रुपये की लागत से निर्माण प्रगति पर है।[110] मीडिया[संपादित करें] राज्य में समाचार पत्रों का इतिहास १८४३ से आरंभ होता है, जब बेसल मिशन के एक मिश्नरी, हर्मैन मोग्लिंग ने प्रथम कन्नड़ समाचार पत्र मंगलुरु समाचार का प्रकाशन आरंभ किया था। प्रथम कन्नड़ सामयिक, मैसुरु वृत्तांत प्रबोधिनी मैसूर में भाष्यम भाष्याचार्य ने निकाला था। भारतीय स्वतंत्रता उपरांत १९४८ में के.एन.गुरुस्वामी ने द प्रिंटर्स (मैसूर) प्रा.लि. की स्थापना की और वहीं से दो समाचार-पत्र डेक्कन हेराल्ड और प्रजावनी का प्रकाशन शुरु किया। आधुनिक युग के पत्रों में द टाइम्स ऑफ इण्डिया और विजय कर्नाटक क्रमशः सर्वाधिक प्रसारित अंग्रेज़ी और कन्नड़ दैनिक हैं।[111][112] दोनों ही भाषाओं में बड़ी संख्या में साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्रिकाओं का प्रकाशन भी प्रगति पर है। राज्य से निकलने वाले कुछ प्रसिद्ध दैनिकों में उदयवाणि, कन्नड़प्रभा, संयुक्त कर्नाटक, वार्ता भारती, संजीवनी, होस दिगंत, एईसंजे और करावली आले आते हैं। दूरदर्शन भारत सरकार द्वारा चलाया गया आधिकारिक सरकारी प्रसारणकर्त्ता है और इसके द्वारा प्रसारित कन्नड़ चैनल है डीडी चंदना। प्रमुख गैर-सरकारी सार्वजनिक कन्नड़ टीवी चैनलों में ईटीवी कन्नड़, ज़ीटीवी कन्नड़, उदय टीवी, यू२, टीवी९, एशियानेट सुवर्ण एवं कस्तूरी टीवी हैं।[113] कर्नाटक का भारतीय रेडियो के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है। भारत का प्रथम निजी रेडियो स्टेशन आकाशवाणी १९३५ में प्रो॰एम॰वी॰ गोपालस्वामी द्वारा मैसूर में आरंभ किया गया था।[114] यह रेडियोस्टेशन काफी लोकप्रिय रहा और बाद में इसे स्थानीय नगरपालिका ने ले लिया था। १९५५ में इसे ऑल इण्डिया रेडियो द्वारा अधिग्रहण कर बंगलुरु ले जाया गया। इसके २ वर्षोपरांत ए.आई.आर ने इसका मूल नाम आकाशवाणी ही अपना लिया। इस चैनल पर प्रसारित होने वाले कुछ प्रसिद्ध कार्यक्रमों में निसर्ग संपदा और सास्य संजीवनी रहे हैं। इनमें गानों, नाटकों या कहानियों के माध्यम से विज्ञान की शिक्षा दी जाती थी। ये कार्यक्रम इतने लोकप्रिय बने कि इनका अनुवाद १८ भाषाओं में हुआ और प्रसारित किया गया। कर्नाटक सरकार ने इस पूरी शृंखला को ऑडियो कैसेटों में रिकॉर्ड कराकर राज्य भर के सैंकड़ों विद्यालयों में बंटवाया था।[114] राज्य में एफ एम प्रसारण रेडियो चैनलों में भी बढ़ोत्तरी हुई है। ये मुख्यतः बंगलुरु, मंगलौर और मैसूर में चलन में हैं।[115][116] क्रीड़ा[संपादित करें] मुख्य लेख : कर्नाटक में खेल भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान, अनिल कुंबले अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में भारत के लिये सर्वाधिक विकेट लेने वाले खिलाड़ी कर्नाटक का एक छोटा सा जिला कोडगु भारतीय हाकी टीम के लिये सर्वाधिक योगदान देता है। यहां से अनेक खिलाड़ियों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हॉकी में भारत का प्रतिनिधित्व किया है।[117] वार्षिक कोडव हॉकी उत्सव विश्व में सबसे बड़ा हॉकी टूर्नामेण्ट है।[118] बंगलुरु शहर में महिला टेनिस संघ (डब्लु.टी.ए का एक टेनिस ईवेन्ट भी हुआ है, तथा १९९७ में शहर भारत के चतुर्थ राष्ट्रीय खेल सम्मेलन का भी आतिथेय रहा है।[119] इसी शहर में भारत के सर्वोच्च क्रीड़ा संस्थान, भारतीय खेल प्राधिकरण तथा नाइके टेनिस अकादमी भी स्थित हैं। अन्य राज्यों की तुलना में तैराकी के भी उच्च आनक भी कर्नाटक में ही मिलते हैं।[120] राज्य का एक लोकप्रिय खेल क्रिकेट है। राज्य की क्रिकेट टीम छः बार रणजी ट्रॉफी जीत चुकी है और जीत के आंकड़ों में मात्र मुंबई क्रिकेट टीम से पीछे रही है।[121] बंगलुरु स्थित चिन्नास्वामी स्टेडियम में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैचों का आयोजन होता रहता है। साथ ही ये २००० में आरंभ हुई राष्ट्रीय क्रिकेट अकादमी का भी केन्द्र रहा है, जहां अकादमी भविष्य के लिए अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों को तैयार करती है। राज्य क्रिकेट टीम के कई प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अग्रणी रहे हैं। १९९० के दशक में हुए एक अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच में यहीं के खिलाड़ियों का बाहुल्य रहा था।[122][123] कर्नाटक प्रीमियर लीग राज्य का एक अंतर्क्षेत्रीय ट्वेन्टी-ट्वेन्टी क्रिकेट टूर्नामेंट है। रॉयल चैलेन्जर्स बैंगलौर भारतीय प्रीमियर लीग का एक फ़्रैंचाइज़ी है जो बंगलुरु में ही स्थित है। राज्य के अंचलिक क्षेत्रों में खो खो, कबड्डी, चिन्नई डांडु तथा कंचे या गोली आदि खेल खूब खेले जाते हैं। राज्य के उल्लेखनीय खिलाड़ियों में १९८० के ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैंपियनशिप विजेता प्रकाश पादुकोन का नाम सम्मान से लिया जाता है। इनके अलावा पंकज आडवाणी भी उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने २० वर्ष की आयु से ही बैडमिंटन स्पर्धाएं आरंभ कर दी थीं तथा तथा क्यू स्पोर्ट्स के तीन उपाधियां धारण की हैं, जिनमें २००३ की विश्व स्नूकर चैंपियनशिप एवं २००५ की विश्व बिलियर्ड्स चैंपियनशिप आती हैं।[124][125] राज्य में साइकिलिंग स्पर्धाएं भी जोरों पर रही हैं। बीजापुर जिले के क्षेत्र से राष्ट्रीय स्तर के अग्रणी सायक्लिस्ट हुए हैं। मलेशिया में आयोजित हुए पर्लिस ओपन ’९९ में प्रेमलता सुरेबान भारतीय प्रतिनिधियों में से एक थीं। जिले की साइक्लिंग प्रतिभा को देखते हुए उनके उत्थान हेतु राज्य सरकार ने जिले में भारतीय रुपये ₹ ४० लाख की लागत से यहां के बी.आर अंबेडकर स्टेडियम में सायक्लिंग ट्रैक बनवाया है।[126] पर्यटन[संपादित करें] मुख्य लेख : कर्नाटक में पर्यटन इन्हें भी देखें: कर्नाटक का स्थापत्य केशव मंदिर, सोमनाथपुर अपने विस्तृत भूगोल, प्राकृतिक सौन्दर्य एवं लम्बे इतिहास के कारण कर्नाटक राज्य बड़ी संख्या में पर्यटन आकर्षणों से परिपूर्ण है। राज्य में जहां एक ओर प्राचीन शिल्पकला से परिपूर्ण मंदिर हैं तो वहीं आधुनिक नगर भी हैं, जहां एक ओर नैसर्गिक पर्वतमालाएं हैं तो वहीं अनान्वेषित वन संपदा भी है और जहां व्यस्त व्यावसायिक कार्यकलापों में उलझे शहरी मार्ग हैं, वहीं दूसरी ओर लम्बे सुनहरे रेतीले एवं शांत सागरतट भी हैं। कर्नाटक राज्य को भारत के राज्यों में सबसे प्रचलित पर्यटन गंतव्यों की सूची में चौथा स्थान मिला है।[127] राज्य में उत्तर प्रदेश के बाद सबसे अधिक राष्ट्रीय संरक्षित उद्यान एवं वन हैं,[128] जिनके साथ ही यहां राज्य पुरातत्त्व एवं संग्रहालय निदेशलय द्वारा संरक्षित ७५२ स्मारक भी हैं। इनके अलावा अन्य २५,००० स्मारक भी संरक्षण प्राप्त करने की सूची में हैं।[129][130] बीजापुर का गोल गुम्बज, बाईज़ैन्टाइन साम्राज्य के हैजिया सोफिया के बाद विश्व का दूसरा सबसे बड़ा गुम्बद है। राज्य के मैसूर शहर में स्थित महाराजा पैलेस इतना आलीशान एवं खूबसूरत बना है, कि उसे सबसे विश्व के दस कुछ सुंदर महलों में गिना जाता है।[131][132] कर्नाटक के पश्चिमी घाट में आने वाले तथा दक्षिणी जिलों में प्रसिद्ध पारिस्थितिकी पर्यटन स्थल हैं जिनमें कुद्रेमुख, मडिकेरी तथा अगुम्बे आते हैं। राज्य में २५ वन्य जीवन अभयारण्य एवं ५ राष्ट्रीय उद्यान हैं। इनमें से कुछ प्रसिद्ध हैं: बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान, बनेरघाटा राष्ट्रीय उद्यान एवं नागरहोल राष्ट्रीय उद्यान। हम्पी में विजयनगर साम्राज्य के अवशेष तथा पत्तदकल में प्राचीन पुरातात्त्विक अवशेष युनेस्को विश्व धरोहर चुने जा चुके हैं। इनके साथ ही बादामी के गुफा मंदिर तथा ऐहोल के पाषाण मंदिर बादामी चालुक्य स्थापात्य के अद्भुत नमूने हैं तथा प्रमुख पर्यटक आकर्षण बने हुए हैं। बेलूर तथा हैलेबिडु में होयसाल मंदिर क्लोरिटिक शीस्ट (एक प्रकार के सोपस्टोन) से बने हुए हैं एवं युनेस्को विश्व धरोहर स्थल बनने हेतु प्रस्तावित हैं।[133] यहाँ बने गोल गुम्बज तथा इब्राहिम रौज़ा दक्खन सल्तनत स्थापत्य शैली के अद्भुत उदाहरण हैं। श्रवणबेलगोला स्थित गोमतेश्वर की १७ मीटर ऊंची मूर्ति जो विश्व की सर्वोच्च एकाश्म प्रतिमा है, वार्षिक महामस्तकाभिषेक उत्सव में सहस्रों श्रद्धालु तीर्थायात्रियों का आकर्षण केन्द्र बनती है।[134] मैसूर पैलेस, मैसूर का रात्रि दृश्य कर्नाटक के जल प्रपात एवं कुद्रेमुख राष्ट्रीय उद्यान "विश्व के १००१ प्राकृतिक आश्चर्य" में गिने गये हैं।[135] जोग प्रपात को भारत के सबसे ऊंचे एकधारीय जल प्रपात के रूप में गोकक प्रपात, उन्चल्ली प्रपात, मगोड प्रपात, एब्बे प्रपात एवं शिवसमुद्रम प्रपात सहित अन्य प्रसिद्ध जल प्रपातों की सूची में शम्मिलित किया गया है। यहां अनेक खूबसूरत सागरतट हैं, जिनमें मुरुदेश्वर, गोकर्ण एवं करवर सागरतट प्रमुख हैं। इनके साथ-साथ कर्नाटक धार्मिक महत्त्व के अनेक स्थलों का केन्द्र भी रहा है। यहां के प्रसिद्ध हिन्दू मंदिरों में उडुपी कृष्ण मंदिर, सिरसी का मरिकंबा मंदिर, धर्मस्थल का श्री मंजुनाथ मंदिर, कुक्के में श्री सुब्रह्मण्यम मंदिर तथा शृंगेरी स्थित शारदाम्बा मंदिर हैं जो देश भर से ढेरों श्रद्धालुओं को आकर्षित करते हैं। लिंगायत मत के अधिकांश पवित्र स्थल जैसे कुदालसंगम एवं बसवन्ना बागेवाड़ी राज्य के उत्तरी भागों में स्थित हैं। श्रवणबेलगोला, मुदबिद्री एवं कर्कला जैन धर्म के ऐतिहासिक स्मारक हैं। इस धर्म की जड़े राज्य में आरंभिक मध्यकाल से ही मजबूत बनी हुई हैं और इनका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है श्रवणबेलगोला मैसूर शैली का एक तैल चित्र हाल के कुछ वर्षों में कर्नाटक स्वास्थ्य रक्षा पर्यटन हेतु एक सक्रिय केन्द्र के रूप में भी उभरा है। राज्य में देश के सर्वाधिक स्वीकृत स्वास्थ्य प्रणालिययाँ और वैकल्पिक चिकित्सा उपलब्ध हैं। राज्य में आईएसओ प्रमाणित सरकारी चिकित्सालयों सहित, अंतर्राष्ट्रीय स्तर की चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने वाले निजी संस्थानों के मिले-जुले योगदान से वर्ष २००४-०५ में स्वास्थ्य-रक्षा उद्योग को ३०% की बढोत्तरी मिली है। राज्य के अस्पतालों में लगभग ८,००० स्वास्थ्य संबंधी सैलानी आते हैं।[46] %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%9C_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%%%%%%% A4%BF %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 समाज और संस्कृति https://hi.wikipedia.org/s/78rv मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से यह लेख विषयवस्तु पर व्यक्तिगत टिप्पणी अथवा निबंध की तरह लिखा है। कृपया इसे ज्ञानकोष की शैली में लिखकर इसे बेहतर बनाने में मदद करें। साहित्य कुछ ताजगी और मन प्रेरक के लिए लिखा है कि इसका मतलब है। यह विचारों और महान दिमाग के भावनाओं को रिकॉर्ड करता है। यह दो मायनों में आकर्षित करती — इसकी बात के माध्यम से और के माध्यम से अपने तरीके से। ऐसी है कि जो लोग इसे पढ़ा कुछ रास्ते में रुचि रखते हैं इस मामले होना चाहिए। तरीके से इस तरह पाठक के लिए मनभावन हो जाएगा और ज्ञान के अपने कोष को जोड़ता है के रूप में होना चाहिए। हम एक ऐसे समाज में रहते हैं। कि है, वहाँ संबंधों और पुरुषों के लिए जो समाज में जीने के बीच अन्तर सम्बन्दि हैं। हम हमारे साथी पुरुष जो समाज, उनके विचारों और भावनाओं को, अपनी पसंद में रहते हैं और नापसंद के बारे में सुनना पसंद है। य२दि हम भावनाओं को व्यक्त करने के लिए भाषा की शक्ति है, स्वाभाविक रूप से, हम रास्ते में अच्छी तरह से कर रहे हैं बनाने के साहित्य के लिए। दूसरे शब्दों में, साहित्य की विषय-वस्तु समाज या अन्य किसी रूप में है। कवि अपनी भावना व्यक्त करता है और हम उनकी कविता पढ़ें जो रुचि रखते हैं और लगता है और उसे खुद के साथ एक पर। सब के बाद, आदमी और आदमी है कि कवि या लेखक चाहता है संचार के माध्यम से के बीच फैलोशिप की इस बॉण्ड समाज है। यदि साहित्य सामाजिक सहानुभूति व्यक्त करता है, स्वाभाविक रूप से यह हमारे मन और रवैये पर कुछ सकारात्मक प्रभाव व्यायाम करने के लिए बाध्य है। समाज के प्रति प्रतिक्रिया करता साहित्य में एक जीवित करने के लिए तरीका है। एक प्रेरक कविता समाज पर सामान्य प्रभाव पैदा करता है। यह हमारी भावनाओं और कल्याण के लिए उत्साह रोउसेस। शेली कवियों अनुत्तरित विधायकों मानव जाति का आह्वान किया है। एक विधायक का कार्य कानून, कार्रवाई की है कि पुरुषों का पालन कर सकते हैं की एक बसे पाठ्यक्रम नीचे रखना करने के लिए है। काव्य और साहित्य आम तौर पर यह एक शांत और विनीत रास्ते में करते हैं। उपन्यास मानव मन की दिशा बदल गया है और कि जीवन के हमारे तरीके बदल दिया है मोशन आंदोलनों में सेट करने के लिए जाना जाता है। साहित्य का प्रभाव समाज पर सीधे या परोक्ष रूप से महसूस किया है। इस प्रकार के स्तोव"अंकल टॉम केबिन ' साहित्य में गुलामी और उन दिनों के संयुक्त राज्य अमेरिका में जीवन के खिलाफ एक आंदोलन के लिए सीधे जिम्मेदार था। समाज में एक लग रहा है बनाने में एक अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा डिकेंस के उपन्यास को विनियमित करने और आवश्यक सुधारों के लिए बुला रहे सामाजिक गलतियों, को हटाने के लिए। शरतचंद्र के उपन्यास हमारे समाज में महिलाओं का संबंध रूढ़िवादिता को तोड़ने में एक लंबा रास्ता चला गया है। यह है, तथापि, स्पष्ट है कि यदि हम साहित्य में रुचि रखते हैं और इसका प्रभाव हमारे कथन ले जाने के लिए बाध्य है। साहित्य जीवन की विद्या से बाहर कर दिया है। कोई संदेह नहीं है, यथार्थवादी कलाकार के लिए एक फोकस कुछ विषमताएं और जीवन के पुनर्प्रचारित पहलुओं उस से भी ज्यादा अलाता। लेकिन न केवल उज्ज्वल पक्ष पर भी जीवन के जोड़दार और अंधेरे पक्ष जीवन पूरी तरह से पता करने के लिए, है जाना जा करने के लिए। इस प्रकार, साहित्य समाज बनाता है। यह समाज के आईने के रूप में वर्णित किया जा सकता। लेकिन गुणवत्ता और प्रतिबिंब का स्वभाव मन, के लेखक के रवैये पर निर्भर करता है कि क्या वह अपने आउटलुक या प्रतिक्रियावादी में प्रगतिशील है। स्वाभाविक रूप से, सामाजिक जीवन, जो परंपरागत तरीके से जीवन का सबसे अच्छा संभव रास्ते में डाल के उन पहलुओं लेखक कंजर्वेटिव दिमाग तनाव होगा। उदाहरण के लिए, वह श्रद्धा के सदियों पुराने आदर्शों के लिए पर एक उच्च मान सेट और इतने पर के लिए धर्म औरत की शुद्धता का सम्मान करेंगे। दूसरी ओर, एक प्रगतिशील लेखक को दिखाने के लिए देते हैं जाएगा कैसे पुराने आदर्शों मानव मन की स्वाभाविक आजादी पर मजबूरी के रूप में कार्य, आदमी और अप्रतिबंधित माहौल मुक्ति नए आदर्शों और चलती समाज कि आगे जीवन के नए तरीकों के लिए लगता है के लिए सेट करें, में महिलाओं की मुक्त आवाजाही पंगु। दिक्चालन सूची अंक परिवर्तन खाता बनाएँलॉग इनलेखसंवादपढ़ेंसम्पादनइतिहास देखें मुखपृष्ठ चौपाल हाल में हुए परिवर्तन समाज मुखपृष्ठ निर्वाचित विषयवस्तु यादृच्छिक लेख योगदान प्रयोगपृष्ठ अनुवाद हेतु लेख आयात अनुरोध विशेषाधिकार निवेदन दान सहायता सहायता स्वशिक्षा अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न देवनागरी कैसे टाइप करें त्वरितवार्ता (आई॰आर॰सी चैनल) दूतावास (Embassy) उपकरण यहाँ क्या जुड़ता है पृष्ठ से जुड़े बदलाव फ़ाइल अपलोड करें विशेष पृष्ठ स्थायी कड़ी इस पृष्ठ पर जानकारी Wikidata प्रविष्टि छोटा यू॰आर॰एल यह लेख उद्धृत करें विकि रुझान आज के रुझान हफ्ते भर के महीने भर के मुद्रण/निर्यात पुस्तक बनायें पीडीएफ़ रूप डाउनलोड करें प्रिन्ट करने लायक भाषाएँ कड़ी जोड़ें अन्तिम परिवर्तन 06:40, 14 सितंबर 2014। यह सामग्री क्रियेटिव कॉमन्स ऍट्रीब्यूशन/शेयर-अलाइक लाइसेंस के तहत उपलब्ध है; अन्य शर्ते लागू हो सकती हैं। विस्तार से जानकारी हेतु देखें उपयोग की शर्तें गोपनीयता नीतिविकिपीडिया के बारे मेंअस्वीकरणडेवेलपर्समोबाइल दृश्य %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%B9%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%%%%%% A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A6_%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी https://hi.wikipedia.org/s/89q मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से हज़ारी प्रसाद द्विवेदी चित्र:Hazari Prasad Dwivedi.JPG जन्म: १९ अगस्त १९०७ दुबे-का-छपरा ग्राम बलिया भारत मृत्यु: १९७९ भारत कार्यक्षेत्र: लेखक, आलोचक, प्राध्यापक राष्ट्रीयता: भारतीय भाषा: हिन्दी काल: आधुनिक काल विधा: उपन्यास हजारी प्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी के मौलिक निबन्धकार, उत्कृष्ट समालोचक एवं सांस्कृतिक विचारधारा के प्रमुख उपन्यासकार थे। अनुक्रम [छुपाएँ] 1 जीवन परिचय 2 रचनाएं 2.1 आलोचना/साहित्‍येतिहास 2.2 निबंध संग्रह 2.3 उपन्‍यास 2.4 अन्‍य 3 वर्ण्य विषय 4 भाषा 5 शैली 6 महत्वपूर्ण कार्य 7 मानवतावाद और द्विवेदी जी 8 सम्मान 9 यह भी देखें 10 बाहरी कड़ियां 11 सन्दर्भ जीवन परिचय[संपादित करें] आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म 19 अगस्त 1907 में बलिया जिले के 'दुबे-का-छपरा' नामक ग्राम में हुआ था। उनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। उनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गांव के स्कूल में ही हुई और वहीं से उन्होंने मिडिल की परीक्षा पास की। इसके पश्चात् उन्होंने इंटर की परीक्षा और ज्योतिष विषय लेकर आचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की। शिक्षा प्राप्ति के पश्चात द्विवेदी जी शांति निकेतन चले गए और कई वर्षों तक वहां हिंदी विभाग में कार्य करते रहे। शांति-निकेतन में रवींद्रनाथ ठाकुर तथा आचार्य क्षितिमोहन सेन के प्रभाव से साहित्य का गहन अध्ययन और उसकी रचना प्रारंभ की। द्विवेदी जी का व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली और उनका स्वभाव बड़ा सरल और उदार था। वे हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत और बांग्ला भाषाओं के विद्वान थे। भक्तिकालीन साहित्य का उन्हें अच्छा ज्ञान था। लखनऊ विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट. की उपाधि देकर उनका विशेष सम्मान किया था। रचनाएं[संपादित करें] द्विवेदी जी की प्रमुख रचनाएँ निन्‍म हैं- आलोचना/साहित्‍येतिहास[संपादित करें] सूर साहित्‍य (1936) हिन्‍दी साहित्‍य की भूमिका (1940) प्राचीन भारत में कलात्मक विनोद (1940) कबीर (1942) नाथ संप्रदाय (1950) हिन्‍दी साहित्‍य का आदिकाल (1952) आधुनिक हिन्‍दी साहित्‍य पर विचार (1949) साहित्‍य का मर्म (1949) मेघदूत: एक पुरानी कहानी (1957) लालित्‍य मीमांसा (1962) साहित्‍य सहचर (1965) कालिदास की लालित्‍य योजना (1967) मध्‍यकालीन बोध का स्‍वरूप (1970) आलोक पर्व (1971) निबंध संग्रह[संपादित करें] अशोक के फूल (1948) कल्‍पलता (1951) विचार और वितर्क (1954) विचार प्रवाह (1959) कुटज (1964) आलोक पर्व (1972) उपन्‍यास[संपादित करें] बाणभट्ट की आत्‍मकथा (1947) चारु चंद्रलेख(1963) पुनर्नवा(1973) अनामदास का पोथा(1976) अन्‍य[संपादित करें] संक्षिप्‍त पृथ्‍वीराज रासो (1957) संदेश रासक (1960) मृत्‍युंजय रवीन्‍द्र (1970) महापुरुषों का स्‍मरण (1977) वर्ण्य विषय[संपादित करें] द्विवेदी जी के निबंधों के विषय भारतीय संस्कृति, इतिहास, ज्योतिष, साहित्य विविध धर्मों और संप्रदायों का विवेचन आदि है। वर्गीकरण की दृष्टि से द्विवेदी जी के निबंध दो भागों में विभाजित किए जा सकते हैं - विचारात्मक और आलोचनात्मक। विचारात्मक निबंधों की दो श्रेणियां हैं। प्रथम श्रेणी के निबंधों में दार्शनिक तत्वों की प्रधानता रहती है। द्वितीय श्रेणी के निबंध सामाजिक जीवन संबंधी होते हैं। आलोचनात्मक निबंध भी दो श्रेणियों में बांटें जा सकते हैं। प्रथम श्रेणी में ऐसे निबंध हैं जिनमें साहित्य के विभिन्न अंगों का शास्त्रीय दृष्टि से विवेचन किया गया है और द्वितीय श्रेणी में वे निबंध आते हैं जिनमें साहित्यकारों की कृतियों पर आलोचनात्मक दृष्टि से विचार हुआ है। द्विवेदी जी के इन निबंधों में विचारों की गहनता, निरीक्षण की नवीनता और विश्लेषण की सूक्ष्मता रहती है। भाषा[संपादित करें] द्विवेदी जी की भाषा परिमार्जित खड़ी बोली है। उन्होंने भाव और विषय के अनुसार भाषा का चयनित प्रयोग किया है। उनकी भाषा के दो रूप दिखलाई पड़ते हैं - (1) प्राँजल व्यावहारिक भाषा, (2) संस्कृतनिष्ठ शास्त्रीय भाषा। प्रथम रूप द्विवेदी जी के सामान्य निबंधों में मिलता है। इस प्रकार की भाषा में उर्दू और अंग्रेज़ी के शब्दों का भी समावेश हुआ है। द्वितीय शैली उपन्यासों और सैद्धांतिक आलोचना के क्रम में परिलक्षित होती है। द्विवेदी जी की विषय प्रतिपादन की शैली अध्यापकीय है। शास्त्रीय भाषा रचने के दौरान भी प्रवाह खण्डित नहीं होता। शैली[संपादित करें] द्विवेदी जी की रचनाओं में उनकी शैली के निम्नलिखित रूप मिलते हैं - (1) गवेषणात्मक शैली द्विवेदी जी के विचारात्मक तथा आलोचनात्मक निबंध इस शैली में लिखे गए हैं। यह शैली द्विवेदी जी की प्रतिनिधि शैली है। इस शैली की भाषा संस्कृत प्रधान और अधिक प्रांजल है। वाक्य कुछ बड़े-बड़े हैं। इस शैली का एक उदाहरण देखिए - लोक और शास्त्र का समन्वय, ग्राहस्थ और वैराग्य का समन्वय, भक्ति और ज्ञान का समन्वय, भाषा और संस्कृति का समन्वय,निर्गुण और सगुण का समन्वय, कथा और तत्व ज्ञान का समन्वय, ब्राह्मण और चांडाल का समन्वय, पांडित्य और अपांडित्य का समन्वय, रामचरित मानस शुरू से आखिर तक समन्वय का काव्य है। (2) वर्णनात्मक शैली द्विवेदी जी की वर्णनात्मक शैली अत्यंत स्वाभाविक एवं रोचक है। इस शैली में हिंदी के शब्दों की प्रधानता है, साथ ही संस्कृत के तत्सम और उर्दू के प्रचलित शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। वाक्य अपेक्षाकृत बड़े हैं। (3) व्यंग्यात्मक शैली द्विवेदी जी के निबंधों में व्यंग्यात्मक शैली का बहुत ही सफल और सुंदर प्रयोग हुआ है। इस शैली में भाषा चलती हुई तथा उर्दू, फारसी आदि के शब्दों का प्रयोग मिलता है। (4) व्यास शैली द्विवेदी जी ने जहां अपने विषय को विस्तारपूर्वक समझाया है, वहां उन्होंने व्यास शैली को अपनाया है। इस शैली के अंतर्गत वे विषय का प्रतिपादन व्याख्यात्मक ढंग से करते हैं और अंत में उसका सार दे देते हैं। महत्वपूर्ण कार्य[संपादित करें] द्विवेदी जी का हिंदी निबंध और आलोचनात्मक क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान है। वे उच्च कोटि के निबंधकार और सफल आलोचक हैं। उन्होंने सूर, कबीर, तुलसी आदि पर जो विद्वत्तापूर्ण आलोचनाएं लिखी हैं, वे हिंदी में पहले नहीं लिखी गईं। उनका निबंध-साहित्य हिंदी की स्थाई निधि है। उनकी समस्त कृतियों पर उनके गहन विचारों और मौलिक चिंतन की छाप है। विश्व-भारती आदि के द्वारा द्विवेदी जी ने संपादन के क्षेत्र में पर्याप्त सफलता प्राप्त की है। मानवतावाद और द्विवेदी जी[संपादित करें] आचार्य द्विवेदी जी के साहित्य में मानवता का परिशीलन सर्वत्र दिखाई देता है। उनके निबंध तथा उपन्यासों में यह दृष्टि विशेष रूप से प्रतीत होती है। सम्मान[संपादित करें] हजारी प्रसाद द्विवेदी को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन १९५७ में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। यह भी देखें[संपादित करें] हिंदी साहित्य हिन्दी गद्यकार आधुनिक हिंदी गद्य का इतिहास बाहरी कड़ियां[संपादित करें] 'अभिव्यक्ति' में हज़ारी प्रसाद द्विवेदी हजारी प्रसाद द्विवेदी (हिंदीकुंज में) प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद (गूगल पुस्तक ; लेखक - हजारी प्रसाद द्विवेदी) हजारीप्रसाद ग्रन्थावली भाग-१ (गूगल पुस्तक ; सम्पादक - मुकुन्द द्विवेदी) हजारी प्रसाद ग्रन्थावली भाग-३ (गूगल पुस्तक ; सम्पादक - मुकुन्द द्विवेदी) हजारी प्रसाद ग्रन्थावली भाग-५ (गूगल पुस्तक ; सम्पादक - मुकुन्द द्विवेदी) हजारी प्रसाद ग्रन्थावली भाग-७ (गूगल पुस्तक ; सम्पादक - मुकुन्द द्विवेदी) हजारी प्रसाद ग्रन्थावली भाग-९ (गूगल पुस्तक ; सम्पादक - मुकुन्द द्विवेदी) तोरोहित : हजारी प्रसाद ग्रन्थावली (गूगल पुस्तक ; सम्पादक - मुकुन्द द्विवेदी) हिन्दी साहित्य की भूमिका (गूगल पुस्तक ; हजारी प्रसाद द्विवेदी) अशोक के फूल (गूगल पुस्तक ; लेखक -हजारी प्रसाद द्विवेदी) मध्यकालीन बोध का स्वरूप (गूगल पुस्तक ; लेखक -हजारी प्रसाद द्विवेदी) सन्दर्भ[संपादित करें] [दिखाएँ] द वा ब हिन्दी के आचार्य व निबंधकार [दिखाएँ] द वा ब हिन्दी साहित्यकार (जन्म १९०१-१९१०) [दिखाएँ] द वा ब Flag of भारत १९५७ में पद्म भूषण धारक Flag of पद्म भूषण [दिखाएँ] द वा ब हिन्दी साहित्यकार श्रेणियाँ: हिन्दी निबन्धकारहिन्दी साहित्यकार (जन्म १९०१-१९१०)१९५७ पद्म भूषणहिन्दी साहित्यहिन्दी साहित्यकारसाहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृतमृत लोग1907 में जन्मे लोग दिक्चालन सूची अंक परिवर्तन खाता बनाएँलॉग इनलेखसंवादपढ़ेंसम्पादनइतिहास देखें मुखपृष्ठ चौपाल हाल में हुए परिवर्तन समाज मुखपृष्ठ निर्वाचित विषयवस्तु यादृच्छिक लेख योगदान प्रयोगपृष्ठ अनुवाद हेतु लेख आयात अनुरोध विशेषाधिकार निवेदन दान सहायता सहायता स्वशिक्षा अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न देवनागरी कैसे टाइप करें त्वरितवार्ता (आई॰आर॰सी चैनल) दूतावास (Embassy) उपकरण यहाँ क्या जुड़ता है पृष्ठ से जुड़े बदलाव फ़ाइल अपलोड करें विशेष पृष्ठ स्थायी कड़ी इस पृष्ठ पर जानकारी Wikidata प्रविष्टि छोटा यू॰आर॰एल यह लेख उद्धृत करें विकि रुझान आज के रुझान हफ्ते भर के महीने भर के मुद्रण/निर्यात पुस्तक बनायें पीडीएफ़ रूप डाउनलोड करें प्रिन्ट करने लायक अन्य भाषाओं में भोजपुरी English Español ગુજરાતી ਪੰਜਾਬੀ संस्कृतम् कड़ी संपादित करें अन्तिम परिवर्तन 17:20, 23 मई 2015। यह सामग्री क्रियेटिव कॉमन्स ऍट्रीब्यूशन/शेयर-अलाइक लाइसेंस के तहत उपलब्ध है; अन्य शर्ते लागू हो सकती हैं। विस्तार से जानकारी हेतु देखें उपयोग की शर्तें गोपनीयता नीतिविकिपीडिया के बारे मेंअस्वीकरणडेवेलपर्समोबाइल दृश्य %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AC%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A7 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 निबन्ध https://hi.wikipedia.org/s/3jx मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से निबन्ध (Essay) गद्य लेखन की एक विधा है। लेकिन इस शब्द का प्रयोग किसी विषय की तार्किक और बौद्धिक विवेचना करने वाले लेखों के लिए भी किया जाता है। निबंध के पर्याय रूप में सन्दर्भ, रचना और प्रस्ताव का भी उल्लेख किया जाता है। लेकिन साहित्यिक आलोचना में सर्वाधिक प्रचलित शब्द निबंध ही है। इसे अंग्रेजी के कम्पोज़ीशन और एस्से के अर्थ में ग्रहण किया जाता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार संस्कृत में भी निबंध का साहित्य है। प्राचीन संस्कृत साहित्य के उन निबंधों में धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों की तार्किक व्याख्या की जाती थी। उनमें व्यक्तित्व की विशेषता नहीं होती थी। किन्तु वर्तमान काल के निबंध संस्कृत के निबंधों से ठीक उलटे हैं। उनमें व्यक्तित्व या वैयक्तिकता का गुण सर्वप्रधान है। इतिहास-बोध परम्परा की रूढ़ियों से मनुष्य के व्यक्तित्व को मुक्त करता है। निबंध की विधा का संबंध इसी इतिहास-बोध से है। यही कारण है कि निबंध की प्रधान विशेषता व्यक्तित्व का प्रकाशन है। निबंध की सबसे अच्छी परिभाषा है- "निबंध, लेखक के व्यक्तित्व को प्रकाशित करने वाली ललित गद्य-रचना है।" इस परिभाषा में अतिव्याप्ति दोष है। लेकिन निबंध का रूप साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा इतना स्वतंत्र है कि उसकी सटीक परिभाषा करना अत्यंत कठिन है। अनुक्रम [छुपाएँ] 1 निबंध की विशेषता 2 हिन्दी साहित्य में निबन्ध 3 प्रमुख हिंदी निबंधकार 4 इन्हें भी देखें 5 बाहरी कड़ियाँ निबंध की विशेषता[संपादित करें] सारी दुनिया की भाषाओं में निबंध को साहित्य की सृजनात्मक विधा के रूप में मान्यता आधुनिक युग में ही मिली है। आधुनिक युग में ही मध्ययुगीन धार्मिक, सामाजिक रूढ़ियों से मुक्ति का द्वार दिखाई पड़ा है। इस मुक्ति से निबंध का गहरा संबंध है। हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- "नए युग में जिन नवीन ढंग के निबंधों का प्रचलन हुआ है वे व्यक्ति की स्वाधीन चिन्ता की उपज है। इस प्रकार निबंध में निबंधकार की स्वच्छंदता का विशेष महत्त्व है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है: " निबंध लेखक अपने मन की प्रवृत्ति के अनुसार स्वच्छंद गति से इधर-उधर फूटी हुई सूत्र शाखाओं पर विचरता चलता है। यही उसकी अर्थ सम्बन्धी व्यक्तिगत विशेषता है। अर्थ-संबंध-सूत्रों की टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ ही भिन्न-भिन्न लेखकों के दृष्टि-पथ को निर्दिष्ट करती हैं। एक ही बात को लेकर किसी का मन किसी सम्बन्ध-सूत्र पर दौड़ता है, किसी का किसी पर। इसी का नाम है एक ही बात को भिन्न दृष्टियों से देखना। व्यक्तिगत विशेषता का मूल आधार यही है। इसका तात्पर्य यह है कि निबंध में किन्हीं ऐसे ठोस रचना-नियमों और तत्वों का निर्देश नहीं दिया जा सकता जिनका पालन करना निबंधकार के लिए आवश्यक है। ऐसा कहा जाता है कि निबंध एक ऐसी कलाकृति है जिसके नियम लेखक द्वारा ही आविष्कृत होते हैं। निबंध में सहज, सरल और आडम्बरहीन ढंग से व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति होती है। “हिन्दी साहित्य कोश” के अनुसार: "लेखक बिना किसी संकोच के अपने पाठकों को अपने जीवन-अनुभव सुनाता है और उन्हें आत्मीयता के साथ उनमें भाग लेने के लिए आमंत्रित करता है। उसकी यह घनिष्ठता जितनी सच्ची और सघन होगी, उसका निबंध पाठकों पर उतना ही सीधा और तीव्र असर करेगा। इसी आत्मीयता के फलस्वरूप निबंध-लेखक पाठकों को अपने पांडित्य से अभिभूत नहीं करना चाहता। इस प्रकार निबंध के दो विशेष गुण हैं- 1. व्यक्तित्व की अभिव्‍यक्ति 2. सहभागिता का आत्मीय या अनौपचारिक स्तर निबंध का आरंभ कैसे हो, बीच में क्या हो और अंत किस प्रकार किया जाए, ऐसे किसी निर्देश और नियम को मानने के लिए निबंधकार बाध्य नहीं है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि निबंध एक उच्छृंखल रचना है और निबंधकार एक उच्छृंखल व्यक्ति। निबंधकार अपनी प्रेरणा और विषय वस्तु की संभावनाओं के अनुसार अपने व्यक्तित्व का प्रकाशन और रचना का संगठन करता है। इसी कारण निबंध में शैली का विशेष महत्त्व है। हिन्दी साहित्य में निबन्ध[संपादित करें] हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग में भारतेन्दु और उनके सहयोगियों से निबंध लिखने की परम्परा का आरंभ होता है। निबंध ही नहीं, गद्य की कई विधाओं का प्रचलन भारतेन्दु से होता है। यह इस बात का प्रमाण है कि गद्य और उसकी विधाएँ आधुनिक मनुष्य के स्वाधीन व्यक्तित्व के अधिक अनुकूल हैं। मोटे रूप में स्वाधीनता आधुनिक मनुष्य का केन्द्रीय भाव है। इस भाव के कारण परम्परा की रूढ़ियाँ दिखाई पड़ती हैं। सामयिक परिस्थितियों का दबाव अनुभव होता है। भविष्य की संभावनाएँ खुलती जान पड़ती हैं। इसी को इतिहास-बोध कहा जाता है। भारतेन्दु युग का साहित्य इस इतिहास-बोध के कारण आधुनिक माना जाता है। प्रमुख हिंदी निबंधकार[संपादित करें] भारतेन्दु हरिश्चंद्र प्रतापनारायण मिश्र बालकृष्‍ण भट्ट बालमुकुंद गुप्‍त सरदार पूर्णसिंह महावीर प्रसाद द्विवेदी चंद्रधर शर्मा गुलेरी हजारी प्रसाद द्विवेदी रामचन्द्र शुक्‍ल महादेवी वर्मा कुबेरनाथ राय विद्यानिवास मिश्र नंददुलारे वाजपेयी इन्हें भी देखें[संपादित करें] ललित निबंध बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें] हिन्दी निबन्ध कैसे लिखें आधुनिक निबन्ध (गूगल पुस्तक) साहित्यिक निबन्ध (गूगल पुस्तक ; लेखक - गणपतिचन्द्र गुप्त) निबंधों की दुनिया (गूगल पुस्तक ; डॉ रामविलास शर्मा) ललित निबंध संचयन - हिंदी के महत्वपूर्ण ललितनिबंधकारों की रचनाए अभिव्यक्ति रचना प्रसंग - हिन्दी दिवस पर विशेष ललित निबन्ध महादेवी वर्मा और रेखाचित्र - गौरा और सोना के सन्दर्भ में - रेखाचित्र निबंध की एक नवीन विधा है। वेबदुनिया निबंध संग्रह - हिन्दी में निबंध संग्रह श्रेणियाँ: साहित्यहिन्दी दिक्चालन सूची अंक परिवर्तन खाता बनाएँलॉग इनलेखसंवादपढ़ेंसम्पादनइतिहास देखें मुखपृष्ठ चौपाल हाल में हुए परिवर्तन समाज मुखपृष्ठ निर्वाचित विषयवस्तु यादृच्छिक लेख योगदान प्रयोगपृष्ठ अनुवाद हेतु लेख आयात अनुरोध विशेषाधिकार निवेदन दान सहायता सहायता स्वशिक्षा अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न देवनागरी कैसे टाइप करें त्वरितवार्ता (आई॰आर॰सी चैनल) दूतावास (Embassy) उपकरण यहाँ क्या जुड़ता है पृष्ठ से जुड़े बदलाव फ़ाइल अपलोड करें विशेष पृष्ठ स्थायी कड़ी इस पृष्ठ पर जानकारी Wikidata प्रविष्टि छोटा यू॰आर॰एल यह लेख उद्धृत करें विकि रुझान आज के रुझान हफ्ते भर के महीने भर के मुद्रण/निर्यात पुस्तक बनायें पीडीएफ़ रूप डाउनलोड करें प्रिन्ट करने लायक अन्य भाषाओं में Afrikaans Alemannisch العربية Azərbaycanca Boarisch Беларуская Беларуская (тарашкевіца)‎ Български বাংলা Bosanski Català Čeština Чӑвашла Cymraeg Dansk Deutsch Ελληνικά English Esperanto Español Eesti Euskara فارسی Suomi Føroyskt Français Frysk Gàidhlig Galego עברית Hrvatski Magyar Հայերեն Interlingua Bahasa Indonesia Ido Italiano 日本語 Basa Jawa ქართული Қазақша 한국어 Kurdî Кыргызча Latina Lietuvių Latviešu Македонски മലയാളം मराठी Bahasa Melayu မြန်မာဘာသာ नेपाली Nederlands Norsk nynorsk Norsk bokmål Occitan Polski Português Română Русский Srpskohrvatski / српскохрватски සිංහල Simple English Slovenčina Slovenščina Shqip Српски / srpski Svenska தமிழ் తెలుగు Тоҷикӣ ไทย Tagalog Türkçe Українська Oʻzbekcha/ўзбекча Tiếng Việt Walon 中文 कड़ी संपादित करें अन्तिम परिवर्तन 11:14, 1 जून 2015। यह सामग्री क्रियेटिव कॉमन्स ऍट्रीब्यूशन/शेयर-अलाइक लाइसेंस के तहत उपलब्ध है; अन्य शर्ते लागू हो सकती हैं। विस्तार से जानकारी हेतु देखें उपयोग की शर्तें गोपनीयता नीतिविकिपीडिया के बारे मेंअस्वीकरणडेवेलपर्समोबाइल दृश्य %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%A4_%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BE %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 संस्कृत भाषा https://hi.wikipedia.org/s/1rl मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से (संस्कृत से अनुप्रेषित) संस्कृत संस्कृतम् उच्चारण [sə̃skɹ̩t̪əm] बोली जाती है भारत, नेपाल कुल बोलने वाले १४,१३५ (भारत की २००१ की जनगणना के अनुसार।)[1] भाषा परिवार हिन्द ईरानी भाषा हिन्द आर्य भाषा संस्कृत लेखन प्रणाली देवनागरी (वस्तुत:), अन्य ब्राह्मी–लिपि और कभी कभी रोमन आधिकारिक स्तर आधिकारिक भाषा घोषित भारतीय संविधान में अनुसूचित 22 भाषाओं मे से एक। नियामक कोई आधिकारिक नियमन नहीं भाषा कूट ISO 639-1 sa ISO 639-2 san ISO 639-3 san सूचना: इस पन्ने पर यूनीकोड में अ॰ध॰व॰ (आई पी ए) चिह्न हो सकते हैं। संस्कृत (संस्कृतम्) भारत की एक शास्त्रीय भाषा है। इसे देववाणी अथवा सुरभारती भी कहा जाता है। यह दुनिया की सबसे पुरानी उल्लिखित भाषाओं में से एक है[कृपया उद्धरण जोड़ें]। संस्कृत हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की हिन्द-ईरानी शाखा की हिन्द-आर्य उपशाखा में शामिल है। ये आदिम-हिन्द-यूरोपीय भाषा से बहुत अधिक मेल खाती है। आधुनिक भारतीय भाषाएँ जैसे मैथिली, हिन्दी, उर्दू, कश्मीरी, उड़िया, बांग्ला, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, (नेपाली), आदि इसी से उत्पन्न हुई हैं। इन सभी भाषाओं में यूरोपीय बंजारों की रोमानी भाषा भी शामिल है। संस्कृत में हिन्दू धर्म से सम्बंधित लगभग सभी धर्मग्रन्थ लिखे गये हैं। बौद्ध धर्म (विशेषकर महायान) तथा जैन धर्म के भी कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ संस्कृत में लिखे गये हैं। आज भी हिन्दू धर्म के अधिकतर यज्ञ और पूजा संस्कृत में ही होती हैं। संस्कृत को सभी उच्च भाषाओं की जननी माना जाता है। इसका कारण हैं इसकी सर्वाधिक शुद्धता और इसीलिए यह कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर के लिए एक उपयुक्त भाषा है (फ़ोर्ब्स पत्रिका जुलाई 1987 की एक रिपोर्ट में)। अनुक्रम [छुपाएँ] 1 इतिहास 2 व्याकरण 3 ध्वनि-तन्त्र और लिपि 3.1 स्वर 3.2 व्यंजन 4 संस्कृत भाषा की विशेषताएँ 5 भारत और विश्व के लिए संस्कृत का महत्त्व 6 संस्कृत का अन्य भाषाओं पर प्रभाव 7 शिक्षा एवं प्रचार-प्रसार 8 यह भी देखिए 9 सन्दर्भ 10 बाहरी कड़ियाँ 10.1 संस्कृत संसाधन 10.2 संस्कृत सामग्री 10.3 शब्दकोश 10.3.1 डाउनलोड योग्य शब्दकोश 10.4 संस्कृत विषयक लेख 10.5 संस्कृत साफ्टवेयर एवं उपकरण 10.6 संस्कृत जालस्थल इतिहास[संपादित करें] मुख्य लेख : संस्कृत भाषा का इतिहास संस्कृत का इतिहास बहुत पुराना है। वर्तमान समय में प्राप्त सबसे प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ ॠग्वेद है जो कम से कम ढाई हजार ईसापूर्व की रचना है। व्याकरण[संपादित करें] संस्कृत भाषा का व्याकरण अत्यन्त परिमार्जित एवं वैज्ञानिक है। बहुत प्राचीन काल से ही अनेक व्याकरणाचार्यों ने संस्कृत व्याकरण पर बहुत कुछ लिखा है। किन्तु पाणिनि का संस्कृत व्याकरण पर किया गया कार्य सबसे प्रसिद्ध है। उनका अष्टाध्यायी किसी भी भाषा के व्याकरण का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। संस्कृत में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया के कई तरह से शब्द-रूप बनाये जाते हैं, जो व्याकरणिक अर्थ प्रदान करते हैं। अधिकांश शब्द-रूप मूलशब्द के अन्त में प्रत्यय लगाकर बनाये जाते हैं। इस तरह ये कहा जा सकता है कि संस्कृत एक बहिर्मुखी-अन्त-श्लिष्टयोगात्मक भाषा है। संस्कृत के व्याकरण को वागीश शास्त्री ने वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया है। ध्वनि-तन्त्र और लिपि[संपादित करें] संस्कृत भारत की कई लिपियों में लिखी जाती रही है, लेकिन आधुनिक युग में देवनागरी लिपि के साथ इसका विशेष संबंध है। देवनागरी लिपि वास्तव में संस्कृत के लिये ही बनी है, इसलिये इसमें हरेक चिह्न के लिये एक और केवल एक ही ध्वनि है। देवनागरी में १३ स्वर और ३४ व्यंजन हैं। देवनागरी से रोमन लिपि में लिप्यन्तरण के लिये दो पद्धतियाँ अधिक प्रचलित हैं : IAST और ITRANS. शून्य, एक या अधिक व्यंजनों और एक स्वर के मेल से एक अक्षर बनता है। संस्कृत वाक्यांश.png संस्कृत, क्षेत्रीय लिपियों में लिखी जाती रही है। स्वर[संपादित करें] ये स्वर संस्कृत के लिये दिये गये हैं। हिन्दी में इनके उच्चारण थोड़े भिन्न होते हैं। वर्णाक्षर “प” के साथ मात्रा IPA उच्चारण "प्" के साथ उच्चारण IAST समतुल्य अंग्रेज़ी समतुल्य हिन्दी में वर्णन अ प / ə / / pə / a लघु या दीर्घ Schwa: जैसे a, above या ago में मध्य प्रसृत स्वर आ पा / α: / / pα: / ā दीर्घ Open back unrounded vowel: जैसे a, father में दीर्घ विवृत पश्व प्रसृत स्वर इ पि / i / / pi / i लघु close front unrounded vowel: जैसे i, bit में ह्रस्व संवृत अग्र प्रसृत स्वर ई पी / i: / / pi: / ī दीर्घ close front unrounded vowel: जैसे i, machine में दीर्घ संवृत अग्र प्रसृत स्वर उ पु / u / / pu / u लघु close back rounded vowel: जैसे u, put में ह्रस्व संवृत पश्व वर्तुल स्वर ऊ पू / u: / / pu: / ū दीर्घ close back rounded vowel: जैसे oo, school में दीर्घ संवृत पश्व वर्तुल स्वर ए पे / e: / / pe: / e दीर्घ close-mid front unrounded vowel: जैसे a in game (संयुक्त स्वर नहीं) में दीर्घ अर्धसंवृत अग्र प्रसृत स्वर ऐ पै / ai / / pai / ai दीर्घ diphthong: जैसे ei, height में दीर्घ द्विमात्रिक स्वर ओ पो / ο: / / pο: / o दीर्घ close-mid back rounded vowel: जैसे o, tone (संयुक्त स्वर नहीं) में दीर्घ अर्धसंवृत पश्व वर्तुल स्वर औ पौ / au / / pau / au दीर्घ diphthong: जैसे ou, house में दीर्घ द्विमात्रिक स्वर संस्कृत में ऐ दो स्वरों का युग्म होता है और "अ-इ" या "आ-इ" की तरह बोला जाता है। इसी तरह औ "अ-उ" या "आ-उ" की तरह बोला जाता है। इसके अलावा हिन्दी और संस्कृत में ये वर्णाक्षर भी स्वर माने जाते हैं : ऋ -- आधुनिक हिन्दी में "रि" की तरह, संस्कृत में अमेरिकी अंग्रेजी शब्दांश (American English syllabic) / r / की तरह ॠ -- केवल संस्कृत में (दीर्घ ऋ) ऌ -- केवल संस्कृत में (syllabic retroflex l) अं -- आधे न्, म्, ङ्, ञ्, ण् के लिये या स्वर का नासिकीकरण करने के लिये अँ -- स्वर का नासिकीकरण करने के लिये (संस्कृत में नहीं उपयुक्त होता) अः -- अघोष "ह्" (निःश्वास) के लिये व्यंजन[संपादित करें] जब कोई स्वर प्रयोग नहीं हो, तो वहाँ पर 'अ' माना जाता है। स्वर के न होने को हलन्त्‌ अथवा विराम से दर्शाया जाता है। जैसे कि क्‌ ख्‌ ग्‌ घ्‌। स्पर्श अल्पप्राण अघोष महाप्राण अघोष अल्पप्राण घोष महाप्राण घोष नासिक्य कण्ठ्य क / kə / k; अंग्रेजी: skip ख / khə / kh; अंग्रेजी: cat ग / gə / g; अंग्रेजी: game घ / gɦə / gh; महाप्राण /g/ ङ / ŋə / n; अंग्रेजी: ring तालव्य च / cə / or / tʃə / ch; अंग्रेजी: chat छ / chə / or /tʃhə/ chh; महाप्राण /c/ ज / ɟə / or / dʒə / j; अंग्रेजी: jam झ / ɟɦə / or / dʒɦə / jh; महाप्राण /ɟ/ ञ / ɲə / n; अंग्रेजी: finch मूर्धन्य ट / ʈə / t; अमेरिकी अंग्रेजी:: hurting ठ / ʈhə / th; महाप्राण /ʈ/ ड / ɖə / d; अमेरिकी अंग्रेजी:: murder ढ / ɖɦə / dh; महाप्राण /ɖ/ ण / ɳə / n; अमेरिकी अंग्रेजी:: hunter दन्त्य त / t̪ə / t; स्पैनिश: tomate थ / t̪hə / th; महाप्राण /t̪/ द / d̪ə / d; स्पैनिश: donde ध / d̪ɦə / dh; महाप्राण /d̪/ न / nə / n; अंग्रेजी: name ओष्ठ्य प / pə / p; अंग्रेजी: spin फ / phə / ph; अंग्रेजी: pit ब / bə / b; अंग्रेजी: bone भ / bɦə / bh; महाप्राण /b/ म / mə / m; अंग्रेजी: mine स्पर्शरहित तालव्य मूर्धन्य दन्त्य/ वर्त्स्य कण्ठोष्ठ्य/ काकल्य अन्तस्थ य / jə / y; अंग्रेजी: you र / rə / r; स्कॉटिश अंग्रेजी: trip ल / lə / l; अंग्रेजी: love व / ʋə / v; अंग्रेजी: vase ऊष्म/ संघर्षी श / ʃə / sh; अंग्रेजी: ship ष / ʂə / sh; मूर्धन्य /ʃ/ स / sə / s; अंग्रेजी: same ह / ɦə / or / hə / h; अंग्रेजी: behind नोट करें : इनमें से ळ (मूर्धन्य पार्विक अन्तस्थ) एक अतिरिक्त वयंजन है जिसका प्रयोग हिन्दी में नहीं होता है। मराठी और वैदिक संस्कृत में इसका प्रयोग किया जाता है। संस्कृत में ष का उच्चारण ऐसे होता था : जीभ की नोंक को मूर्धा (मुँह की छत) की ओर उठाकर श जैसी आवाज़ करना। शुक्ल यजुर्वेद की माध्यंदिनि शाखा में कुछ वाक्यों में ष का उच्चारण ख की तरह करना मान्य था। आधुनिक हिन्दी में ष का उच्चारण पूरी तरह श की तरह होता है। हिन्दी में ण का उच्चारण ज़्यादातर ड़ँ की तरह होता है, यानि कि जीभ मुँह की छत को एक ज़ोरदार ठोकर मारती है। हिन्दी में क्षणिक और क्शड़िंक में कोई अंतर नहीं है, परन्तु संस्कृत में ण का उच्चारण न की तरह बिना ठोकर मारे होता था, अंतर केवल इतना कि जीभ ण के समय मुँह की छत को कोमलता से छूती है। संस्कृत भाषा की विशेषताएँ[संपादित करें] Unbalanced scales.svg इस लेख की तटस्थता इस समय विवादित है। कृपया वार्ता पन्ने की चर्चा को देखें। जब तक यह विवाद सुलझता नहीं है कृपया इस संदेश को न हटाएँ। (१) संस्कृत, विश्व की सबसे पुरानी पुस्तक (वेद) की भाषा है। इसलिये इसे विश्व की प्रथम भाषा मानने में कहीं किसी संशय की संभावना नहीं है[कृपया उद्धरण जोड़ें]। (२) इसकी सुस्पष्ट व्याकरण और वर्णमाला की वैज्ञानिकता के कारण सर्वश्रेष्ठता भी स्वयं सिद्ध है। (३) सर्वाधिक महत्वपूर्ण साहित्य की धनी होने से इसकी महत्ता भी निर्विवाद है। (४) इसे देवभाषा माना जाता है। (५) संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं बल्कि संस्कारित भाषा भी है अतः इसका नाम संस्कृत है। केवल संस्कृत ही एकमात्र भाषा है जिसका नामकरण उसके बोलने वालों के नाम पर नहीं किया गया है। संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद् नहीं बल्कि महर्षि पाणिनि, महर्षि कात्यायन और योग शास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं। इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट किया है। यही इस भाषा का रहस्य है। (६) शब्द-रूप - विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक या कुछ ही रूप होते हैं, जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 27 रूप होते हैं। (७) द्विवचन - सभी भाषाओं में एक वचन और बहु वचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। (८) सन्धि - संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। संस्कृत में जब दो अक्षर निकट आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। (९) इसे कम्प्यूटर और कृत्रिम बुद्धि के लिये सबसे उपयुक्त भाषा माना जाता है। (१०) शोध से ऐसा पाया गया है कि संस्कृत पढ़ने से स्मरण शक्ति बढ़ती है। (११) संस्कृत वाक्यों में शब्दों को किसी भी क्रम में रखा जा सकता है। इससे अर्थ का अनर्थ होने की बहुत कम या कोई भी सम्भावना नहीं होती। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि सभी शब्द विभक्ति और वचन के अनुसार होते हैं और क्रम बदलने पर भी सही अर्थ सुरक्षित रहता है। जैसे - अहं गृहं गच्छामि या गच्छामि गृहं अहम् दोनो ही ठीक हैं। (१२) संस्कृत विश्व की सर्वाधिक 'पूर्ण' (perfect) एवं तर्कसम्मत भाषा है[कृपया उद्धरण जोड़ें]। (१३)संस्कृत ही एक मात्र साधन हैं जो क्रमश: अंगुलियों एवं जीभ को लचीला बनाते हैं। इसके अध्ययन करने वाले छात्रों को गणित, विज्ञान एवं अन्य भाषाएँ ग्रहण करने में सहायता मिलती है। (१४) संस्कृत भाषा में साहित्य की रचना कम से कम छह हजार वर्षों से निरन्तर होती आ रही है। इसके कई लाख ग्रन्थों के पठन-पाठन और चिन्तन में भारतवर्ष के हजारों पुश्त तक के करोड़ों सर्वोत्तम मस्तिष्क दिन-रात लगे रहे हैं और आज भी लगे हुए हैं। पता नहीं कि संसार के किसी देश में इतने काल तक, इतनी दूरी तक व्याप्त, इतने उत्तम मस्तिष्क में विचरण करने वाली कोई भाषा है या नहीं। शायद नहीं है। (१५) संस्कृत केवल एक मात्र भाषा नहीं है अपितु संस्कृत एक विचार है संस्कृत एक संस्कृति है एक संस्कार है संस्कृत में विश्व का कल्याण है शांति है सहयोग है वसुदैव कुटुम्बकम् कि भावना है | भारत और विश्व के लिए संस्कृत का महत्त्व[संपादित करें] संस्कृत कई भारतीय भाषाओं की जननी है। इनकी अधिकांश शब्दावली या तो संस्कृत से ली गयी है या संस्कृत से प्रभावित है। पूरे भारत में संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन से भारतीय भाषाओं में अधिकाधिक एकरूपता आयेगी जिससे भारतीय एकता बलवती होगी। यदि इच्छा-शक्ति हो तो संस्कृत को हिब्रू की भाँति पुनः प्रचलित भाषा भी बनाया जा सकता है। हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि धर्मों के प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत में हैं। हिन्दुओं के सभी पूजा-पाठ और धार्मिक संस्कार की भाषा संस्कृत ही है। हिन्दुओं, बौद्धों और जैनों के नाम भी संस्कृत पर आधारित होते हैं। भारतीय भाषाओं की तकनीकी शब्दावली भी संस्कृत से ही व्युत्पन्न की जाती है। भारतीय संविधान की धारा 343, धारा 348 (2) तथा 351 का सारांश यह है कि देवनागरी लिपि में लिखी और मूलत: संस्कृत से अपनी पारिभाषिक शब्दावली को लेने वाली हिन्दी राजभाषा है। संस्कृत, भारत को एकता के सूत्र में बाँधती है। संस्कृत का प्राचीन साहित्य अत्यन्त प्राचीन, विशाल और विविधतापूर्ण है। इसमें अध्यात्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान और साहित्य का खजाना है। इसके अध्ययन से ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति को बढ़ावा मिलेगा। संस्कृत को कम्प्यूटर के लिये (कृत्रिम बुद्धि के लिये) सबसे उपयुक्त भाषा माना जाता है। संस्कृत का अन्य भाषाओं पर प्रभाव[संपादित करें] संस्कृत भाषा के शब्द मूलत रूप से सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं में हैं। सभी भारतीय भाषाओं में एकता की रक्षा संस्कृत के माध्यम से ही हो सकती है। मलयालम, कन्नड और तेलुगु आदि दक्षिणात्य भाषाएं संस्कृत से बहुत प्रभावित हैं। तत्सम-तद्भव-समान-शब्द संस्कृत शब्द हिन्दी मलयालम कन्नड तेलुगु ग्रीक लैटिन अंग्रेजी जर्मन मातृ माता मातेर मोथर् मुटेर पितृ पिता पातेर फ़ाथर् फ़ाटेर दुहितृ दाह्तर् भ्रातृ भाई ब्रदर् ब्रुडेर पत्तनम् पट्टणम् वैदूर्यम् वैडूर्यम् वैडूर्यम् सप्तन् सात सेप्तम् सेव्हेन् ज़ीबेन अष्टौ आठ होक्तो ओक्तो ऐय्‌ट् आख़्ट नवन् नौ हेणेअ नोवेम् नायन् नोएन द्वारम् द्वार दोर् टोर नालिकेरः नारियल नाळिकेरम् कोकोस्नुस्स शिक्षा एवं प्रचार-प्रसार[संपादित करें] भारत के संविधान में संस्कृत आठवीं अनुसूची में सम्मिलित अन्य भाषाओं के साथ विराजमान है। त्रिभाषा सूत्र के अन्तर्गत संस्कृत भी आती है। हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं की की वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली संस्कृत से निर्मित है। भारत तथा अन्य देशों के संस्कृत विश्वविद्यालयों की सूची नीचे दी गयी है- स्थापना वर्ष नाम स्थान 1791 सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी 1876 सद्विद्या पाठशाला मैसूर 1961 कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय दरभंगा 1962 राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, तिरुपति तिरुपति 1962 श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ नयी दिल्ली 1970 राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली नयी दिल्ली 1981 श्री जगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय पुरी 1986 नेपाल संस्कृत विश्वविद्यालय नेपाल 1993 श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय कालडी 1997 श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय रामटेक 2001 जगद्गुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय जयपुर 2005 श्री सोमनाथ संस्कृत विश्वविद्यालय वेरावल 2008 महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय उज्जैन 2011 कर्नाटक संस्कृत विश्वविद्यालय बंगलुरु यह भी देखिए[संपादित करें] वैदिक संस्कृत संस्कृत साहित्य भारत की भाषाएँ संस्कृत भाषा का इतिहास संस्कृत में 'ष' का उच्चारण संस्कृत के विकिपिडिया प्रकल्प संस्कृत विकिपीडिया संस्कृत (संस्कृत विकोश:) संस्कृत विकिस्रोतम् (Sanskrit Wikisource) संस्कृत विकि पुस्तकानि (Sanskrit Wiki Books) सन्दर्भ[संपादित करें] ऊपर जायें ↑ "Comparative speaker's strength of scheduled languages -1971, 1981, 1991 and 2001". Census of India, 2001. Office of the Registrar and Census Commissioner, India. अभिगमन तिथि: 31 दिसम्बर 2009. बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें] राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान भारतीय विश्वविद्यालयों में संस्कृत पर आधारित शोध प्रबन्धों की निर्देशिका (राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान) संस्कृत गूगल समूह संस्कृत संसाधन[संपादित करें] हिन्दी-संस्कृत वार्तालाप पुस्तिका (केन्द्रीय हिन्दी संस्थान) Links to Sanskrit resources Sankrit Web Sanskrit Fonts: South Asian Language and Resource Center - Sanskrit Discover Sanskrit Sanskrit Documents Sanskrit Texts and Stotras Omkarananda Ashram's Sanskrit Page संस्कृत सामग्री[संपादित करें] Sanskrit Documents सारस्वतसर्वस्वम् (शब्दकोश, संस्कृत ग्रन्थों आदि का विशाल संग्रह) संस्कृविश्वम् Sanskrit World संस्कृत के अनेकानेक ग्रन्थ, देवनागरी में Virtual e-Text Archive of Indic Texts (Indology page) SARIT वैदिक साहित्य : महर्षि वैदिक विश्वविद्यालय - पी डी एफ़ प्रारूप, देवनागरी गौडीय ग्रन्थ-मन्दिर पर सहस्रों संस्कृत ग्रन्थ, बलराम इनकोडिंग में GRETIL पर सहस्रों संस्कृत ग्रन्थ, अनेक स्रोतों से, अनेक इनकोडिंग में संगणीकृतम बौद्ध संस्कृत त्रिपिटकम् (Digital Sanskrit Buddhistt Canon) TITUS Indica - Indic Texts Internet Sacred Text Archive - यहाँ बहुत से हिन्दू ग्रन्थ अंग्रेजी में अर्थ के साथ उपलब्ध हैं। कहीं-कहीं मूल संस्कृत पाठ भी उपलब्ध है। क्ले संस्कृत पुस्तकालय संस्कृत साहित्य के प्रकाशक हैं; यहाँ पर भी बहुत सारी सामग्री डाउनलोड के लिये उपलब्ध है। मुक्तबोध डिजिटल पुस्तकालय भारत विद्या मुक्तबोध इंडोलोजिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट (तंत्र एवं आगम साहित्य पर विशेष सामग्री) Asian Classic Input Project Sanskit Library Digital Corpus of Sanskrit (a searchable collection of lemmatized Sanskrit texts) शब्दकोश[संपादित करें] आंध्रभारती का संस्कृत कोश गपेषणम् : आनलाइन संस्कृत कोश शोधन ; कई कोशों में एकसाथ खोज ; देवनागरी, बंगला आदि कई भारतीय लिपियों में आउटपुट; कई प्रारूपों में इनपुट की सुविधा संस्कृत-हिन्दी कोश (राज संस्करण) (गूगल पुस्तक ; रचनाकार - वामन शिवराम आप्टे) Monier Williams Dictionary (2006 revision) - इसमें संस्कृत शब्दों के अंग्रेजी अर्थ दिये गये हैं। शब्द इन्पुट Harvard-Kyoto, SLP1 या ITRANS में देने की सुविधा है। आप्टे अंग्रेजी --> संस्कृत शब्दकोश - इसमें परिणाम इच्छानुसार देवनागरी, iTrans, रोमन यूनिकोड आदि में प्राप्त किये जा सकते हैं। संक्षिप्त संस्कृत-आंग्लभाषा शब्दकोश (Concise Sanskrit-English Dictionary) - संस्कृत शब्द देवनागरी में लिखे हुए हैं। अर्थ अंग्रेजी में। लगभग १० हजार शब्द। डाउनलोड करके आफलाइन उपयोग के लिये उत्तम ! The Student's English-Sanskrit Dictionary (गूगल पुस्तक ; लेखक - Vaman Shivaram Apte) Monier-Williams Dictionary, searchable Monier-Williams Dictionary, printable Online Hypertext Dictionary The Sanskrit Heritage Dictionary Sanskrit-->French dictionary (download) (The Sanskrit Heritage Dictionary) Sanskrit Dictionary Glossary of Sanskrit Terms A Brief Sanskrit Glossary with the meanings of common Sanskrit spiritual terms. Recently updated. डाउनलोड योग्य शब्दकोश[संपादित करें] SanDic - Sanskrit-English Dictionary based on V. S. Apte's 'The practical Sanskrit-English dictionary', Arthur Anthony Macdonell's 'A practical Sanskrit dictionary' and Monier Williams 'Sanskrit-English Dictionary'. मुदगलकोश - software, which searches an offline version of the monier-williams dictionary, and integrates with several online tools stardict-mw-Sanskrit-English-2.4.2.tar.bz2 MW Sanskrit-English Dictionary in StarDict format. (can be used with GoldenDict also) Monier-Williams: DICT & HTML संस्कृत विषयक लेख[संपादित करें] संस्कृत विषयक लेख सूची - संस्कृत की महत्ता एवं अन्य पहलुओं पर विविध लेखों के लिंक संस्कृत - विज्ञान और कंप्यूटर की समर्थ भाषा सशक्त भाषा संस्कृत‌ The Wonder that is Sanskrit Sanskrit: The Mother of All Languages, अत्यन्त ज्ञानवर्धक लेख, तीन भागों में। संस्कृत के बारे में महापुरुषों के विचार (अंग्रेजी में) Sanskrit as Indian Networking language (INL) History of Sanskrit संस्कृत बनेगी नासा की भाषा, पढ़ने से गणित और विज्ञान की शिक्षा में आसानी संस्कृत साफ्टवेयर एवं उपकरण[संपादित करें] Diacritic Conversion - diCrunch - Balaram / CSX / (X)HK / ITRANS / Shakti Mac / Unicode / Velthuis / X-Sanskrit / Bengali Unicode / Devanagari Unicode / Oriya Unicode आदि इनकोडिंग का परस्पर परिवर्तक रोमन को यूनिकोड संस्कृत में लिप्यंतरित करने का उपकरण बरह - कम्प्यूटर पर संस्कृत लिखने एवं फाण्ट परिवर्तन का औजार Computational Linguistics R&D at Special Centre for Sanskrit Studies, J.N.U. - यहाँ अनेक भाषाई उपकरण उपलब्ध हैं। PaSSim — Paninian Sanskrit Simulator Sanskrit Verse Metre Recognizer गणकाष्टाध्यायी - संस्कृत व्याकरण का साफ्टवेयर (पाणिनि के सूत्रों पर आधारित) Sanskrit Utilities - Online Transliterator Sanskrit Dictionary, Sandhi, Pratyahara-Decoder and Metric Analyzer संस्कृतटूल्स - संस्कृत टूलबार मेधा ३ - संस्कृत की-बोर्ड (मेधा ३) [medhA 3 - a Sanskrit keyboard for Windows] संसाधनी (संस्कृत टेक्स्ट के विश्लेषण के औजार) संस्कृत जालस्थल[संपादित करें] सुसंस्कृतम् संस्कृतम् संस्कृतम् - संस्कृत के बारे में गूगल चर्चा समूह संस्‍कृतं भारतस्‍य जीवनम् ललितालालितः श्रेणियाँ: प्राचीन भाषाएँनेपाल की भाषाएँसंस्कृतहिन्द-आर्य भाषाएँभारत की भाषाएँ दिक्चालन सूची अंक परिवर्तन खाता बनाएँलॉग इनलेखसंवादपढ़ेंसम्पादनइतिहास देखें मुखपृष्ठ चौपाल हाल में हुए परिवर्तन समाज मुखपृष्ठ निर्वाचित विषयवस्तु यादृच्छिक लेख योगदान प्रयोगपृष्ठ अनुवाद हेतु लेख आयात अनुरोध विशेषाधिकार निवेदन दान सहायता सहायता स्वशिक्षा अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न देवनागरी कैसे टाइप करें त्वरितवार्ता (आई॰आर॰सी चैनल) दूतावास (Embassy) उपकरण यहाँ क्या जुड़ता है पृष्ठ से जुड़े बदलाव फ़ाइल अपलोड करें विशेष पृष्ठ स्थायी कड़ी इस पृष्ठ पर जानकारी Wikidata प्रविष्टि छोटा यू॰आर॰एल यह लेख उद्धृत करें विकि रुझान आज के रुझान हफ्ते भर के महीने भर के मुद्रण/निर्यात पुस्तक बनायें पीडीएफ़ रूप डाउनलोड करें प्रिन्ट करने लायक अन्य भाषाओं में Afrikaans Alemannisch አማርኛ Aragonés العربية مصرى অসমীয়া Asturianu Azərbaycanca Башҡортса Boarisch Žemaitėška Bikol Central Беларуская Беларуская (тарашкевіца)‎ Български भोजपुरी বাংলা བོད་ཡིག বিষ্ণুপ্রিয়া মণিপুরী Brezhoneg Bosanski Буряад Català Mìng-dĕ̤ng-ngṳ̄ Нохчийн Cebuano کوردیی ناوەندی Čeština Cymraeg Dansk Deutsch ދިވެހިބަސް Ελληνικά English Esperanto Español Eesti Euskara فارسی Suomi Français Frysk Gaeilge 贛語 Galego Avañe'ẽ गोवा कोंकणी / Gova Konknni 𐌲𐌿𐍄𐌹𐍃𐌺 ગુજરાતી 客家語/Hak-kâ-ngî עברית Fiji Hindi Hrvatski Magyar Հայերեն Interlingua Bahasa Indonesia Ilokano Ido Íslenska Italiano 日本語 Basa Jawa ქართული Адыгэбзэ Қазақша ភាសាខ្មែរ ಕನ್ನಡ 한국어 कॉशुर / کٲشُر Kurdî Коми Kernowek Latina Лезги Limburgs Ligure Lumbaart Lietuvių Latviešu Malagasy Македонски മലയാളം Монгол मराठी Bahasa Melayu မြန်မာဘာသာ Nāhuatl Plattdüütsch नेपाली नेपाल भाषा Nederlands Norsk nynorsk Norsk bokmål Occitan ଓଡ଼ିଆ ਪੰਜਾਬੀ Polski Piemontèis پنجابی پښتو Português Runa Simi Română Tarandíne Русский Русиньскый Kinyarwanda संस्कृतम् Саха тыла Sicilianu Scots Srpskohrvatski / српскохрватски සිංහල Simple English Slovenčina Slovenščina Српски / srpski Basa Sunda Svenska Kiswahili Ślůnski தமிழ் తెలుగు ไทย Tagalog Türkçe Татарча/tatarça Українська اردو Oʻzbekcha/ўзбекча Vepsän kel’ Tiếng Việt Volapük Winaray Хальмг მარგალური ייִדיש Vahcuengh 中文 文言 Bân-lâm-gú 粵語 Тыва дыл कड़ी संपादित करें अन्तिम परिवर्तन 17:46, 1 जून 2015। यह सामग्री क्रियेटिव कॉमन्स ऍट्रीब्यूशन/शेयर-अलाइक लाइसेंस के तहत उपलब्ध है; अन्य शर्ते लागू हो सकती हैं। विस्तार से जानकारी हेतु देखें उपयोग की शर्तें गोपनीयता नीतिविकिपीडिया के बारे मेंअस्वीकरणडेवेलपर्समोबाइल दृश्य %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%91%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%AB%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A1_%E0%A4%AF%E0%A5%82%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%%%%%%% A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%9F%E0%A5%80_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%B8 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस https://hi.wikipedia.org/s/103o मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से साँचा:Redirect-acronym ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस OUP logo.svg जनक कंपनी University of Oxford स्थापित 1586 उद्गम देश United Kingdom मुख्यालय Oxford प्रकाशन प्रकार Books, Journals, Sheet music आधिकारिक वेबसाइट oup.com ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस (ओयूपी) दुनिया की सबसे बड़ी विश्वविद्यालय प्रेस है।[1] यह ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय का एक विभाग है और इसका संचालन उपकुलपति द्वारा नियुक्त 15 शिक्षाविदों के एक समूह द्वारा किया जाता है जिन्हें प्रेस प्रतिनिधि के नाम से जाना जाता है। उनका नेतृत्व प्रतिनिधियों के सचिव द्वारा किया जाता है जो ओयूपी के मुख्य कार्यकारी और अन्य विश्वविद्यालय निकायों के प्रमुख प्रतिनिधि की भूमिका निभाता है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय सत्रहवीं सदी के बाद से प्रेस की देखरेख के लिए इसी तरह की प्रणाली का इस्तेमाल करता आ रहा है।[2] विश्वविद्यालय ने 1480 के आसपास मुद्रण व्यापार में कदम रखा और बाइबल, प्रार्थना पुस्तकों और अध्ययनशील रचनाओं का प्रमुख मुद्रक बन गया।[3] इसकी प्रेस द्वारा शुरु की गयी एक परियोजना उन्नीसवीं सदी के अंतिम दौर में ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी बन गई और बढ़ती लागतों से निपटने के लिए इसने अपना विस्तार जारी रखा.[4] नतीजतन अपने शैक्षणिक और धार्मिक शीर्षकों से मेल स्थापित करने के लिए ऑक्सफोर्ड ने पिछले सौ सालों में बच्चों की पुस्तकों, स्कूल की पाठ्य पुस्तकों, संगीत, पत्रिकाओं, वर्ल्ड्स क्लासिक्स सीरीज और सबसे ज्यादा बिकने वाली अंग्रेजी भाषा शिक्षण पाठ्य पुस्तकों का प्रकाशन किया है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कदम रखने के फलस्वरूप 1896 में न्यूयॉर्क से शुरुआत करने वाली इस प्रेस ने यूनाइटेड किंगडम के बाहर भी अपना कार्यालय खोलना शुरू कर दिया.[5] कंप्यूटर प्रौद्योगिकी के आगमन और उत्तरोत्तर बढ़ती व्यापारिक दशाओं की वजह से 1989 में ऑक्सफोर्ड में स्थित प्रेस के छापेखाने को बंद कर दिया गया और वोल्वरकोट में स्थित उसकी पूर्व कागज़ की मिल को 2004 में ध्वस्त कर दिया गया। अपनी छपाई और जिल्दसाजी कार्य का ठेका देकर आधुनिक प्रेस हर साल दुनिया भर में लगभग 6000 नए शीर्षकों का प्रकाशन करता है और दुनिया भर में इसके कर्मचारियों की संख्या लगभग 4000 है। एक धर्मार्थ संगठन के हिस्से के रूप में ओयूपी अपने मूल विश्वविद्यालय को अधिक से अधिक वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए और इसके अलावा अपनी प्रकाशन गतिविधियों के माध्यम से छात्रवृत्ति, अनुसन्धान और शिक्षा में बेहतरीन प्रदर्शन करने में विश्वविद्यालय के लक्ष्यों को पूरा करने में उसकी सहायता करने के लिए प्रतिबद्ध है। ओयूपी को सबसे पहले 1972 में यूएस कॉर्पोरेशन टैक्स से और उसके बाद 1978 में यूके कॉर्पोरेशन टैक्स से मुक्त किया गया। एक धर्मार्थ संगठन का एक विभाग होने के नाते ओयूपी को अधिकांश देशों में आयकर और निगम कर से मुक्त कर दिया गया है लेकिन इसे अपने उत्पादों पर बिक्री और अन्य वाणिज्यिक करों का भुगतान करना पड़ता है। प्रति वर्ष कम से कम 12 मिलियन पाउंड का हस्तांतरण करने की वचनबद्धता के साथ यह प्रेस वर्तमान में विश्वविद्यालय के शेष हिस्सों को अपने वार्षिक अधिशेष का 30% हस्तांतरित करता है। प्रकाशन की संख्या की दृष्टि से ओयूपी दुनिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय प्रेस है जो हर साल 4500 से अधिक नई पुस्तकों का प्रकाशन करता है और जहां लगभग 4000 लोग काम करते हैं। ओयूपी ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी, कंसाइस ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी, ऑक्सफोर्ड वर्ल्ड्स क्लासिक्स, ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ऑफ नेशनल बायोग्राफी और कंसाइस डिक्शनरी ऑफ नेशनल बायोग्राफी सहित कई सन्दर्भ, पेशेवर और शैक्षणिक रचनाओं का प्रकाशन करता है। इसके कई सबसे महत्वपूर्ण शीर्षक अब "ऑक्सफोर्ड रेफरेंस ऑनलाइन" नामक एक पैकेज के रूप में इंटरनेट पर उपलब्ध है और इन्हें यूके की कई सार्वजनिक पुस्तकालयों के पाठक कार्ड धारकों को मुफ्त में प्रदान किया जाता है। ऑक्सफोर्ड द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में अंतर्राष्ट्रीय मानक पुस्तक संख्या होती है जो 0-19 से शुरू होती है जो प्रेस को आईएसबीएन सिस्टम में दो-अंकीय पहचान संख्या वाले कई छोटे-छोटे प्रकाशकों में से एक बनाती है। आतंरिक समझौते द्वारा व्यक्तिगत संस्करण संख्या का पहला अंक (0-19- के बाद) एक विशेष प्रभाग का संकेत दे सकता है, उदाहरण के लिए: संगीत के लिए 3 (आईएसएमएन को परिभाषित करने से पहले); न्यूयॉर्क कार्यालय के लिए 5; क्लेयरेंडन प्रेस प्रकाशनों के लिए 8. वाल्टन स्ट्रीट पर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस. अनुक्रम [छुपाएँ] 1 प्रारंभिक इतिहास 2 17वीं सदी: विलियम लॉड और जॉन फेल 3 18वीं सदी: क्लेयरेंडन भवन और ब्लैकस्टोन 4 19वीं सदी: कीमत और कन्नान 4.1 लंदन व्यवसाय 4.2 सचिव पद पर विवाद 5 बीसवीं सदी 5.1 विदेशी व्यापार का विकास 5.1.1 भारतीय शाखा 5.1.2 पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया 5.1.3 उत्तरी अमेरिका 5.1.4 दक्षिण अमेरिका 5.1.5 अफ्रीका 5.1.6 दक्षिणी अफ्रीका 5.2 संगीत विभाग की स्थापना 6 महत्वपूर्ण श्रृंखलाएं और शीर्षक 6.1 शब्दकोश 6.2 इंडोलॉजी (भारत संबंधित) 6.3 पारंपरिक 6.4 इतिहास 6.5 अंग्रेजी भाषा शिक्षण 7 अध्ययनशील पत्रिकाएं 8 टाइपोग्राफी और प्रेसवर्क के क्षेत्र में ओयूपी का योगदान 9 क्लेयरेंडन छात्रवृत्तियां 10 इन्हें भी देखें 11 टिप्पणियां 12 संदर्भग्रन्थ 13 अग्रिम पठन 14 बाह्य कड़ियां प्रारंभिक इतिहास[संपादित करें] ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से जुड़ा पहला प्रिंटर थियोडेरिक रूड था। विलियम काक्सटन के एक व्यवसायिक सहयोगी रूड संभवतः एक नए उद्यम के रूप में अपनी लकड़ी की प्रिंटिंग प्रेस को कोलोन से ऑक्सफोर्ड लेकर आये थे और लगभग 1480 और 1483 के बीच शहर में काम किया था। 1478 में ऑक्सफोर्ड में छापी गई पहली पुस्तक, रुफिनस के एक्स्पोजिशियो इन सिम्बोलम एपोस्टोलोरम के एक संस्करण को एक अन्य बेनाम प्रिंटर द्वारा छापा गया था। यह बात सब को मालूम है कि इसे रोमन अंकों में गलती से "1468" के रूप में दिनांकित किया गया था जो जाहिर तौर पर काक्सटन से पहले का समय है। रूड की छपाई में जॉन एंकिविल का कम्पेंडियम टोटियस ग्रामाटिका शामिल था जिसने लैटिन व्याकरण की पढ़ाई के लिए नए मानक स्थापित किए.[6] रूड के बाद विश्वविद्यालय से जुड़ी छपाई लगभग आधी सदी तक छिटपुट रूप में होती रही. रिकॉर्ड या जीवंत कार्य बस कुछ गिने-चुने रूपों में हैं और ऑक्सफोर्ड की छपाई को 1580 के दशक तक कोई मजबूत आधार नहीं मिला था: इसने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रयासों का अनुसरण किया जिसने 1534 में अपने प्रेस का लाइसेंस प्राप्त किया था। क्राउन (राजा) और स्टेशनर्स कंपनी द्वारा लन्दन के बाहर छपाई करने पर लगाई गई बाध्यताओं के प्रतिक्रियास्वरुप ऑक्सफोर्ड ने विश्वविद्यालय में प्रेस चलाने का औपचारिक अधिकार प्राप्त करने के लिए एलिजाबेथ प्रथम से याचना की. चांसलर रॉबर्ट डूडले, अर्ल ऑफ लीसेस्टर ने ऑक्सफोर्ड के मामले की वकालत की. प्रिंटर जोसेफ बार्न्स द्वारा काम शुरू करने के बाद से कुछ शाही अनुमति प्राप्त की गई और स्टार चैंबर के हुक्मनामे में 1586 में "यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड" में प्रेस के कानूनी वजूद का उल्लेख किया गया।[7] 17वीं सदी: विलियम लॉड और जॉन फेल[संपादित करें] ऑक्सफोर्ड के चांसलर आर्कबिशप विलियम लॉड ने 1630 के दशक में विश्वविद्यालय की छपाई की कानूनी स्थिति को समेकित किया। लॉड ने एक विश्वस्तरीय एकीकृत प्रेस की परिकल्पना की. ऑक्सफोर्ड इसे विश्वविद्यालय की संपत्ति पर स्थापित करेगा, इसकी कार्यवाहियों को नियंत्रित करेगा, इसके कर्मचारियों की नियुक्ति करेगा, इसके छपाई कार्य का निर्धारण करेगा और इससे प्राप्त होने वाली राशि का लाभ उठाएगा. इस मकसद से उन्होंने चार्ल्स प्रथम से उन अधिकारों की याचना की जिसकी सहायता से ऑक्सफोर्ड स्टेशनर्स कंपनी और किंग्स प्रिंटर से प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम होगा और इसकी सहायता के लिए शाही अनुदान का एक उत्तराधिकार प्राप्त किया। इन सबकों 1636 में ऑक्सफोर्ड के "ग्रेट चार्टर" में शामिल किया गया जिसके तहत विश्वविद्यालय को "हर तरह की किताबें" छापने का अधिकार दिया गया। लॉड ने क्राउन से ऑक्सफोर्ड में स्क्रिप्चर के किंग जेम्स या प्राधिकृत संस्करण को छापने का "विशेषाधिकार" भी प्राप्त किया।[8] इस "विशेषाधिकार" से अगले 250 सालों में काफी प्रतिफल प्राप्त हुआ हालांकि शुरू में यह प्रसुप्तावस्था में था। स्टेशनर्स कंपनी इसके व्यापार के खतरे से बहुत चिंतित थी और ऑक्सफोर्ड के साथ एक "सहनशीलता नियम" स्थापित करने में इसका कुछ समय बर्बाद चला गया। इसके तहत स्टेशनर्स ने विश्वविद्यालय को अपने सम्पूर्ण मुद्रण अधिकारों का इस्तेमाल न करने के लिए एक वार्षिक किराए का भुगतान किया - ऑक्सफोर्ड ने उन पैसों का इस्तेमाल छोटे प्रयोजनों के लिए नए मुद्रण उपकरण खरीदने के लिए किया।[9] लॉड ने प्रेस के आतंरिक संगठन का भी विकास किया। प्रतिनिधि प्रणाली की स्थापना करने के अलावा उन्होंने "आर्कीटाइपोग्राफस" नामक एक व्यापक और विस्तृत पर्यवेक्षी पद का भी निर्माण किया: इस शिक्षाविद पर छापेखाने के प्रबंधन से लेकर प्रूफरीडिंग (त्रुटि-सुधार) तक व्यवसाय से संबंधित प्रत्येक कार्य की देखरेख करने की जिम्मेदारी थी। यह पद काफी हद तक एक व्यावहारिक वास्तविकता के बजाय एक आदर्श था लेकिन अठारहवीं सदी तक शिथिल संरचित प्रेस में इसका वजूद (काफी हद तक एक आराम की नौकरी के रूप में) कायम रहा. व्यावहारिक दृष्टि से ऑक्सफोर्ड का वेयरहाउस-कीपर ही बिक्री, लेखांकन और छापेखाने के कर्मचारियों को काम पर रखने और उन्हें काम पर से निकालने का काम करता था।[10] हालांकि लॉड की योजनाओं ने व्यक्तिगत और राजनीतिक दोनों तरह की भयानक बाधाओं पर गहरी चोट की थी। राजनीतिक साजिश में बेईमानी की वजह से 1645 में उन्हें मार डाला गया जिस समय तक अग्रेज़ी गृहयुद्ध छिड़ चुका था। संघर्ष के दौरान ऑक्सफोर्ड राजभक्तों का एक गढ़ बन गया और शहर के कई प्रिंटरों ने राजनीतिक प्रचार या उपदेश पुस्तिकाओं के निर्माण पर ध्यान देना शुरू कर दिया. इस दौरान कुछ उत्कृष्ट गणितीय और प्राच्य विद्या विशारद रचनाएं सामने आई जिनमें हिब्रू के रेजिउस प्रोफ़ेसर एडवर्ड पोकोक द्वारा सम्पादित पुस्तकें उल्लेखनीय हैं लेकिन 1660 में राजशाही की बहाली से पहले लॉड के मॉडल वाला एक भी विश्वविद्यालय प्रेस संभव नहीं था।[11] अंत में इसे वाइस-चांसलर जॉन फेल, क्राइस्ट चर्च के अध्यक्ष (डीन), ऑक्सफोर्ड के बिशप और प्रतिनिधि सचिव (सेक्रेटरी टू द डेलीगेट्स) द्वारा स्थापित किया गया। फेल लॉड को एक शहीद मानते थे और उन्होंने प्रेस से जुड़े उनके सपने को सम्मान देने का निश्चय किया। ग्रेट चार्टर के प्रावधानों का इस्तेमाल करके फेल ने ऑक्सफोर्ड को स्टेशनर्स से अब और भुगतान लेने से इनकार कर देने के लिए राजी किया और विश्वविद्यालय के सभी प्रिंटरों की कार्यप्रणाली को परिसरों के एक समूह में स्थापित कर दिया. इस व्यवसाय को नए शेल्डोनियन थिएटर के तहखानों में स्थापित किया गया जहां फेल ने 1668 में प्रिंटिंग प्रेसन को अधिष्ठापित किया और इसे विश्वविद्यालय का पहला केन्द्रीय छापाखाना बनाया.[12] जब फेल ने हॉलैंड से टाइपोग्राफिकल पंचों और मैट्रिसों एक बड़े स्टॉक पर कब्ज़ा किया तब यहां एक टाइप फाउंड्री (ढलाईखाना) जोड़ दिया गया जिसका नाम "फेल टाइप्स" पड़ा. उन्होंने प्रेस के लिए ऑक्सफोर्ड में काम करने के लिए दो डच टाइपफाउंडर हरमन हर्मंज़ और पीटर डी वाल्पर्गेन को भी राजी किया।[13] अंत में स्टेशनर्स की मागों को नकारते हुए फेल ने व्यक्तिगत रूप से ब्रासेनोज के प्रिंसिपल थॉमस येट और जीसस कॉलेज के प्रिंसिपल सर लियोलाइन जेनकिंस के साथ पार्टनरशिप करके 1672 में विश्वविद्यालय के छपाई के अधिकार को पट्टे पर दे दिया.[14] फेल की योजना महत्वाकांक्षी थी। शैक्षिक और धार्मिक कार्य सम्बन्धी योजनाओं के अलावा 1674 में उन्होंने एक ब्रॉडशीट कैलेण्डर को छापना शुरू किया जिसे ऑक्सफोर्ड अल्मानक के नाम से जाना जाता था। आरंभिक संस्करणों में ऑक्सफोर्ड के प्रतीकात्मक विचारों के दर्शन हुए लेकिन 1766 में इनसे शहर या विश्वविद्यालय के यथार्थवादी अध्ययन का मार्ग प्रशस्त हुआ।[15] अल्मानक को फेल के समय से आज तक बिना किसी रूकावट के लगातार हर साल छापा जाता है।[16] इस काम की शुरुआत के बाद फेल ने विश्वविद्यालय की छपाई के लिए पहले औपचारिक कार्यक्रम की शुरुआत की. 1675 से इस दस्तावेज ने सैकड़ों रचनाओं की परिकल्पना की जिसमें यूनानी में बाइबल, कॉप्टिक गोस्पेल्स के संस्करण और चर्च फादर्स की रचनाएं, अरबी और सिरियक में पाठ्य पुस्तकें, शास्त्रीय दर्शन के व्यापक संस्करण, कविता, गणित, ढेर सारी मध्ययुगीन छात्रवृत्तियां और "अब तक प्रचलित अन्य किसी भी रचना से अधिक परिपूर्ण कीड़ों का एक इतिहास" भी शामिल है।[17] हालांकि इनमें से कुछ प्रस्तावित शीर्षकों को फेल के जीवनकाल में देखा गया था लेकिन फिर भी बाइबल की छपाई उनके दिमाग में सबसे पहले था। स्क्रिप्चर का सम्पूर्ण भिन्नरूप यूनानी पाठ्य पुस्तक असंभव साबित हुआ लेकिन 1675 में ऑक्सफोर्ड ने फेल के शाब्दिक परिवर्तनों और वर्तनी के साथ आठ पृष्ठों वाले एक किंग जेम्स संस्करण को मुद्रित किया। इस काम से स्टेशनर्स कंपनी के साथ संघर्ष में वृद्धि हो गई। जवाबी कार्रवाई में फेल ने तीन दुष्ट स्टेशनर्स मोसेस पिट, पीटर पार्कर और थॉमस गाई को विश्वविद्यालय के बाइबल को छापने का काम पट्टे पर दे दिया जिनकी तीक्ष्ण वाणिज्यिक प्रवृत्तियां ऑक्सफोर्ड के बाइबल व्यापार को उत्तेजित करने में काफी महत्वपूर्ण साबित हुई.[18] बहरहाल उनकी भागीदारी के फलस्वरूप ऑक्सफोर्ड और स्टेशनर्स के बीच एक लंबी कानूनी लड़ाई शुरू हो गई और यह मुकदमेबाजी फेल के शेष जीवन तक चलती रही. 1686 में उनका देहांत हो गया।[19] 18वीं सदी: क्लेयरेंडन भवन और ब्लैकस्टोन[संपादित करें] येट और जेनकींस फेल से पहले चल बसे थे जिससे उनकी मौत के बाद छापेखाने की देखरेख के लिए कोई स्पष्ट उत्तराधिकारी नहीं बचा था। नतीजतन उनकी वसीयत के अनुसार ट्रस्ट में भागीदारों का स्टॉक और पट्टा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के लिए छोड़ दिया गया और उन पर एक साथ "मेरे प्रेस की संस्थापक सामग्रियों" का भार डाल दिया गया।[20] फेल के मुख्य ट्रस्टी डेलीगेट हेनरी एल्ड्रिच, डीन ऑफ क्राइस्ट चर्च थे जिन्होंने ऑक्सफोर्ड की किताबों के सजावटी काम में गहरी दिलचस्पी ली. उन्होंने और उनके सहयोगियों ने पार्कर और गाई के पट्टे के अंत और 1691 में एक नए समझौते की अध्यक्षता की जिसके द्वारा स्टेशनर्स ने अपने न बिके हुए अध्ययनशील स्टॉक सहित ऑक्सफोर्ड के सम्पूर्ण मुद्रण विशेषाधिकार को पट्टे पर दे दिया. शेल्डोनियन के कुछ प्रिंटरों के हिंसक विरोध के बावजूद इससे ऑक्सफोर्ड और स्टेशनर्स के बीच का घर्षण समाप्त हो गया और एक स्थिर विश्वविद्यालय मुद्रण व्यवसाय का प्रभावी आरम्भ हुआ।[21] 1713 में एल्ड्रिच ने क्लेयरेंडन भवन में प्रेस के स्थानांतरण का प्रबंध किया। इसका नामकरण ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के चांसलर एडवर्ड हाइड, फर्स्ट अर्ल ऑफ क्लेयरेंडन के सम्मान में किया गया था। ऑक्सफोर्ड विद्या द्वारा बनाए रखे जाने वाले इसके निर्माण कार्य का वित्तपोषण उनकी पुस्तक *द हिस्ट्री ऑफ द रिबेलियन एण्ड सिविल वॉर्स इन इंग्लैण्ड (1702–04) से प्राप्त राशियों से किया गया। वास्तव में ज्यादातर पैसे ऑक्सफोर्ड के नए बाइबल प्रिंटर जॉन बास्केट से आते थे और वाइस-चांसलर विलियम डेलॉन ने क्लेयरेंडन के कार्य से प्राप्त राशियों में से ज्यादातर राशियों का भुगतान नहीं किया। किसी भी परिस्थिति में इसका व्परिनाम ब्रॉड स्ट्रीट में शेल्डोनियन के अलावा निकोलस हॉक्समूर की सुन्दर लेकिन अव्यावहारिक संरचना थी। प्रेस ने यहाँ 1830 तक काम किया और इसके कार्य भवन के अलग-अलग हिस्सों में तथाकथित लर्न्ड साइड और बाइबल साइड में विभाजित थे।[22] आम तौर पर कहा जाता है कि अठारहवीं सदी के आरम्भ में प्रेस के विस्तार पर विराम लग गया था। इस समय फेल जैसी किसी हस्ती का अभाव था और यह आर्कीटाइपोग्राफस और पुराविद थॉमस हियार्न जैसे निष्प्रभावी या झगड़ालू व्यक्तियों और बास्केट के पहले बाइबल जैसी त्रुटिपूर्ण योजनाओं का समय था जो शानदार ढंग से तैयार किया गया लेकिन गलत छपाई से भरा हुआ खंड था और जिसे सेंट ल्यूक में टंकण त्रुटि देखे जाने के बाद वाइनगार बाइबल के नाम से जाना जाने लगा. इस समय के अन्य मुद्रण में रिचर्ड ऑलेस्ट्री के मननशील ग्रन्थ और थॉमस हैनमर के शेक्सपियर का छः खण्डों वाला संस्करण शामिल था।[23] पीछे मुड़कर देखने पर यह सब अपेक्षाकृत मामूली जीत साबित हुई. वे सब एक विश्वविद्यालय प्रेस के उत्पाद थे जिनमें बढ़ती गड़बड़ी, क्षय और भ्रष्ट प्रथा का समावेश था और जो खुद को जीवित रखने के लिए ज्यादा से ज्यादा अपनी बाइबल और प्रार्थना पुस्तक सम्बन्धी कार्यों को पट्टे पर देने पर निर्भर था। इस व्यवसाय को केवल एक डेलीगेट विलियम ब्लैकस्टोन के हस्तक्षेप द्वारा बचाया गया। प्रेस की अराजक स्थिति से नाराज होकर और वाइस चांसलर जॉर्ज हडेसफोर्ड से दुश्मनी मोल लेकर ब्लैकस्टोन ने छापेखाने की बारीकी से जांच करवाई लेकिन इसके उलझनग्रस्त संगठन और धूर्त प्रक्रियाओं के निष्कर्ष के रूप में उन्हें अपने सहयोगियों के केवल "उदास और तिरस्कारपूर्ण चुप्पी" या "ज्यादा से ज्यादा निस्तेज उदासीनता" का सामना करना पड़ा. गुस्से में आकर ब्लैकस्टोन ने मई 1757 में हडेसफोर्ड के उत्तराधिकारी थॉमस रंडोल्फ को लिखे गए एक लंबे पत्र को प्रकाशित करके विश्वविद्यालय को अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए मजबूर किया। यहाँ, ब्लैकस्टोन ने प्रेस को एक जन्मजात संस्था के रूप में प्रस्तुत किया जिसने "एक आलस भरी गुमनामी... रोबदार यांत्रिकी के एक घोसले में समय बिताते हुए" छात्रवृत्ति की सेवा करने के सभी झूठे दिखावे को छोड़ दिया था। इन शर्मनाक मामलों से छुटकारा पाने के लिए ब्लैकस्टोन ने अंधाधुंध सुधार की मांग की जो डेलीगेटों की शक्तियों और दायित्वों को सख्ती से स्थापित करेगा, आधिकारिक रूप से उनके विचारों और कार्यप्रणाली को रिकॉर्ड करेगा और छापेखाने को एक कुशल आधार प्रदान करेगा.[24] बहरहाल, रंडोल्फ ने इस दस्तावेज को नज़रअंदाज कर दिया और तब तक परिवर्तन शुरू नहीं हुआ जब तक ब्लैकस्टोन ने कानूनी कार्रवाई करने की धमकी नहीं दी. विश्वविद्यालय ने 1760 तक ब्लैकस्टोन के सभी सुधारों को अपनाने की दिशा में कदम उठाया था।[25] 18वीं शताब्दी के अंतिम दौर तक प्रेस ने और अधिक ध्यान आकर्षित कर लिया था। आरंभिक कॉपीराइट क़ानून ने स्टेशनर्स को कमजोर बनाना शुरू कर दिया था और विश्वविद्यालय को अनुभवी प्रिंटरों (मुद्रकों) को अपना बाइबल कार्य पट्टे पर देने में कष्ट होने लगा. जब अमेरिकी स्वाधीनता युद्ध ने ऑक्सफोर्ड को इसके बाइबल के महत्वपूर्ण बाजार से वंचित कर दिया तब यह पट्टा बहुत जोखिम भरा प्रस्ताव बन गया और डेलीगेटों को उन लोगों को प्रेस के शेयरों की पेशकश करने के लिए मजबूर किया गया जो "पारस्परिक लाभ के लिए व्यापार की देखभाल कर सके और परेशानियों को प्रबंधित" कर सके. अड़तालीस शेयरों को जारी किया गया जिसके साथ विश्वविद्यालय के पास एक नियंत्रक हिस्सा था।[26] उसी समय जेरेमियाह मार्कलैंड और पीटर एल्म्सले की रचनाओं के साथ-साथ उन्नीसवीं सदी के आरंभिक दौर में मुख्यभूमि यूरोप के कई शिक्षाविदों द्वारा सम्पादित ग्रंथों से पारंपरिक छात्रवृत्ति में नई जान आई - जिनमें शायद अगस्त इमानुएल बेकर और कार्ल विल्हेल्म डिंडोर्फ़ सबसे प्रमुख थे। दोनों ने 50 सालों तक एक डेलीगेट के रूप में काम करने वाले यूनानी विद्वान थॉमस गैस्फोर्ड के आमंत्रण पर संस्करणों को तैयार किया। उनके समय में विकासशील प्रेस ने लन्दन में वितरकों की स्थापना की और ऑक्सफोर्ड में इसी उद्देश्य से टुर्ल स्ट्रीट में पुस्तकविक्रेता जोसेफ पार्कर को नियुक्त किया। पार्कर ने भी प्रेस में अपने शेयर खरीद लिए.[27] इस विस्तार ने प्रेस को क्लेयरेंडन भवन से बाहर धकेल दिया. 1825 में डेलीगेटों (प्रतिनिधियों) ने वोर्सेस्टर कॉलेज से जमीन ख़रीदा. डैनियल रॉबर्टसन और एडवर्ड बलोर द्वारा निर्मित योजनाओं के आधार पर इमारतों का निर्माण किया गया और 1830 में प्रेस को वहां स्थानांतरित कर दिया गया।[28] ऑक्सफोर्ड सिटी सेंटर से उत्तर पश्चिम में वॉल्टन स्ट्रीट और ग्रेट क्लेयरेंडन स्ट्रीट के कोने में स्थित यह साइट इक्कीसवीं सदी में ओयूपी के मुख्य कार्यालय के रूप में बरक़रार है। 19वीं सदी: कीमत और कन्नान[संपादित करें] प्रेस ने अब भारी बदलाव के युग में प्रवेश किया। 1830 में भी यह शिक्षा के पिछड़े क्षेत्र का एक संयुक्त स्टॉक प्रिंटिंग व्यवसाय था जो विद्वानों और मौलवियों जैसे पाठकों के अपेक्षाकृत छोटे समूह को विद्वतापूर्ण रचनाओं की पेशकश कर रहा था। एक इतिहासकार के मुताबिक यह प्रेस "शर्मीले रोगभ्रमियों के एक समाज" का उत्पाद था।[29] इसका व्यापार बड़े पैमाने पर सस्ते बाइबलों की बिक्री पर निर्भर था और इसके डेलीगेट गैस्फोर्ड या मार्टिन रूथ के प्रतीक थे। वे लंबे समय से काम कर रहे परम्परावादी थे जो हर साल 5 या 10 शीर्षकों को छापने वाले एक विद्वतापूर्ण व्यवसाय की अध्यक्षता कर रहे थे जैसे लिडेल और स्कॉट्स ग्रीक इंग्लिश लेक्सिकन (1843) और इसके व्यापार का विस्तार करने में उनकी रुचि बहुत कम या नहीं थी।[30] 1830 के दशक में मुद्रण के लिए वाष्प शक्ति का बेचैन कर देने वाला प्रस्थान जरूर देखा गया होगा.[31] इस समय थॉमस कॉम्बे प्रेस में शामिल हुए और 1872 में अपनी मौत तक विश्वविद्यालय के मुद्रक बने रहे. कॉम्बे ज्यादातर प्रतिनिधियों की तुलना में एक बेहतर व्यवसायी थे लेकिन अभी भी वहां कोई प्रवर्तक नहीं था: वे भारत के कागज़ की विशाल वाणिज्यिक क्षमता को मूर्त रूप देने में नाकामयाब रहे जो परवर्ती वर्षों में ऑक्सफोर्ड के सबसे लाभदायक व्यापारिक रहस्यों में से एक साबित हुआ।[32] फिर भी, कॉम्बे को व्यवसाय में अपने शेयरों के माध्यम से काफी धन प्राप्त हुआ और वोल्वरकोट के दिवालिया पेपर मिल का अधिग्रहण और नवीकरण का काम भी मिला. उन्होंने प्रेस में स्कूलिंग और ऑक्सफोर्ड में सेंट बर्नाबास चर्च की अक्षय निधि का वित्तपोषण किया।[33] कॉम्बे का धन इतना बढ़ गया कि वे प्री-रफेलिट ब्रदरहूड के पहले संरक्षक बन गए और उन्होंने और उनकी पत्नी मार्था ने इस समूह के आरंभिक कार्यों के अधिकांश हिस्से को खरीद लिया जिनमें विलियम होल्मैन हंट का द लाईट ऑफ द वर्ल्ड भी शामिल था।[34] हालांकि कॉम्बे को प्रेस में सुन्दर मुद्रित रचना के उत्पादन में बहुत कम रुचि थी।[35] उनके छापेखाने से जुड़ा सबसे जाना माना ग्रन्थ एलिसेस एडवेंचर्स इन वंडरलैंड का त्रुटिपूर्ण प्रथम संस्करण था जिसे 1865 में इसके लेखक लेविस कैरोल (चार्ल्स लुट्विज डोग्सन) के खर्च पर ऑक्सफोर्ड द्वारा मुद्रित किया गया था।[36] प्रेस में आमूल परिवर्तन करने के लिए विश्वविद्यालय के कामकाज पर 1850 के रॉयल कमीशन और एक नए सचिव बार्थोलोम्यू प्राइस को लगाया गया।[37] 1868 में नियुक्त होने वाले प्राइस ने पहले ही विश्वविद्यालय को सुझाव दिया था कि व्यवसाय की "चौकस अधीक्षण" के लिए एक कुशल कार्यकारी अधिकारी की जरूरत थी जिसमें अलेक्जेंडर मैकमिलन के साथ की जाने वाली सौदेबाजी भी शामिल थी जो 1863 में ऑक्सफोर्ड की छपाई के प्रकाशक बन गए और 1866 में सस्ते और प्राथमिक स्कूली पुस्तकों की क्लेयरेंडन प्रेस श्रृंखला का निर्माण करने में प्राइस की मदद की - शायद ऐसा पहली बार हुआ था जब ऑक्सफोर्ड ने क्लेयरेंडन छपाई का इस्तेमाल किया।[38] प्राइस के नेतृत्व में प्रेस ने अपना आधुनिक आकार लेना शुरू कर दिया. 1865 तक डेलीगेसी (प्रतिनिधित्व/नुमाइंदगी) का सर्वकालिक होना बंद हो गया और इसकी जगह पांच सर्वकालिक और पांच कनिष्ट पदों का विकास हुआ जिन्हें विश्वविद्यालय की तरफ से होने वाली नियुक्ति के माध्यम से भरा जाता था और इसके साथ ही साथ वाइस चांसलर एक पदेन डेलीगेट होता था: जो गुटबाजी के लिए एक कांचगृह था जिसकी रखवाली और नियंत्रण प्राइस ने बड़ी चतुराई से की.[39] विश्वविद्यालय ने अपने शेयरों को फिर से खरीद लिया क्योंकि उनके धारक या तो रिटायर हो गए थे या उनका देहांत हो गया था।[40] खातों के पर्यवेक्षण का काम 1867 में नवनिर्मित वित्त समिति को दे दिया गया।[41] कार्य की प्रमुख नई लाइनों की शुरुआत हुई. उदाहरण के लिए, 1875 में डेलीगेटों (प्रतिनिधोयों/नुमाइंदों) ने फ्रेडरिक मैक्स मुलर के संपादकत्व के तहत सैक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट श्रृंखला को अनुमोदित किया जिससे एक व्यापक पाठकत्व को धार्मिक विचारों की एक बहुत बड़ी श्रृंखला प्राप्त हुई.[42] प्राइस ने समान रूप से ओयूपी को इसके खुद के अधिकार में प्रकाशन की तरफ स्थानांतरित किया। 1863 में पार्कर के साथ प्रेस का रिश्ता खत्म हो गया और 1870 में कुछ बाइबल रचनाओं के लिए लन्दन में एक छोटे से जिल्दसाजीखाना को ख़रीदा गया।[43] मैकमिलन का अनुबंध 1880 में समाप्त हो गया और उसे फिर से नवीकृत नहीं किया गया। इस समय तक, लन्दन के पैटर्नोस्टर रो में बाइबल के भण्डारण के लिए ऑक्सफोर्ड का एक गोदाम भी था और 1880 में इसके प्रबंधक हेनरी फ्राउड को विश्वविद्यालय के प्रकाशक का औपचारिक ख़िताब दिया गया। फ्राउड को पुस्तक व्यापार से न कि विश्वविद्यालय से फायदा हुआ और वे कई लोगों के लिए एक पहेली बनकर रह गए। ऑक्सफोर्ड के स्टाफ मैगजीन "द क्लेयरेंडनियन" के एक मृत्युलेख के अनुसार "यहाँ ऑक्सफोर्ड में हममें से कुछ लोगों के पास ही उनका व्यक्तिगत ज्ञान था".[44] उसके बावजूद, व्यवसाय में पुस्तकों की नई लाइनों को शामिल करके, 1881 में न्यू टेस्टामेंट के संशोधित संस्करण के विशाल प्रकाशन की अध्यक्षता करके[45] और 1896 में ब्रिटेन के बाहर न्यूयॉर्क में प्रेस का पहला कार्यालय स्थापित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर फ्राउड ओयूपी के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण बन गए।[46] प्राइस ने ओयूपी को रूपांतरित किया। 1884 में जब वे सचिव के पद से रिटायर हुए तब डेलीगेटों ने व्यवसाय के अंतिम शेयरों को वापस खरीद लिया।[47] पेपर मिल, छापेखाने, जिल्दखाना और गोदाम सहित प्रेस पर अब पूरी तरह से विश्वविद्यालय का स्वामित्व था। स्कूली किताबों और आधुनिक विद्वानों के ग्रंथों जैसे जेम्स क्लेर्क मैक्सवेल के ए ट्रीटाइज़ ऑन इलेक्ट्रिसिटी एण्ड मैग्नेटिज्म (1873) के शामिल होने से इसका उत्पादन बढ़ गया था जो आइंस्टीन के विचार का मूल सिद्धांत साबित हुआ।[48] इसकी परंपरा और कार्य की गुणवत्ता को छोड़े बिना इसे सरलतापूर्वक स्थापित करके प्राइस ने ओयूपी को एक सतर्क और आधुनिक प्रकाशक के रूप में परिवर्तित करना शुरू कर दिया. 1879 में उन्होंने प्रकाशन का काम भी अपने हाथ में ले लिया जिसके फलस्वरूप वह प्रक्रिया अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई अर्थात् विशाल परियोजना का आगमन हुआ जो ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी (ओईडी) बना.[49] जेम्स मुर्रे और फिलोलॉजिकल सोसाइटी द्वारा ऑक्सफोर्ड को प्रदान किया गया "न्यू इंगलिश डिक्शनरी" एक शानदार शैक्षिक और देशभक्ति का काम था। लंबी बातचीत के फलस्वरूप एक औपचारिक अनुबंध की स्थापना हुई. मुर्रे को एक रचना को सम्पादित करना था जिसमें लगभग 10 साल का समय लगने वाला था और जिसकी लागत लगभग 9000 पाउंड थी।[50] दोनों आंकड़े बहुत ज्यादा आशावादी लग रहे थे। यह डिक्शनरी 1884 में मुद्रित रूप में दिखाई देने लगी लेकिन पहला संस्करण मुर्रे की मौत के 13 साल बाद 1928 तक पूरा नहीं हुआ जिसकी लागत लगभग 375000 पाउंड थी।[51] यह विशाल वित्तीय बोझ और इसके निहितार्थ प्राइस के उत्तरिधिकारियों के कंधे पर आ गया। अगले सचिव को इस समस्या का समाधान करने में काफी कष्ट उठाना पड़ा. फिलिप लाइटेल्टन गेल को 1884 में वाइस चांसलर बेंजामिन जोवेट द्वारा नियुक्त किया गया। बैलियोल में अपनी शिक्षा और लन्दन प्रकाशन में अपनी पृष्ठभूमि होने के बावजूद प्रेस के कार्य गेल की समझ से बाहर थे। डेलीगेटों ने उनके इर्दगिर्द काम करना शुरू किया और अंत में विश्वविद्यालय ने 1897 में गेल को निकाल दिया.[52] सहायक सचिव चार्ल्स कन्नान ने थोड़ी बहुत परेशानी के साथ और अपने पूर्ववर्ती के प्रति बहुत कम स्नेह के साथ इस काम को अपने हाथ में लिया: "गेल हमेशा यहाँ थे लेकिन मुझे समझ में नहीं आता कि उन्होंने क्या किया।"[53] कन्नान को अपनी नई भूमिका में सार्वजनिक बुद्धि का बहुत कम अवसर मिला था। एक अत्यधिक गुणी क्लासिस्ट के रूप में वे व्यवसाय के प्रमुख बने जो पारंपरिक दृष्टि से सफल था लेकिन अब अज्ञात इलाके में आगे बढ़ रहा था।[54] खुद-ब-खुद विशेषज्ञ शैक्षिक रचनाओं और अनिर्भरशील बाइबल व्यापार डिक्शनरी की बढ़ती लागत और यूनिवर्सिटी चेस्ट के लिए प्रेस के योगदानों से जुड़ी जरूरतों को पूरा न कर सका. इन मांगों को पूरा करने के लिए ओयूपी को बहुत ज्यादा राजस्व की जरूरत थी। कन्नान ने इस लक्ष्य को पाने का बीड़ा उठाया. विश्वविद्यालय की राजनीति और जड़ता को चौंकाते हुए उन्होंने फ्राउड और लन्दन कार्यालय को सम्पूर्ण व्यवसाय का वित्तीय इंजन बनाया. फ्राउड ने 1906 में वर्ल्ड्स क्लासिक्स को अधिग्रहित करते हुए ऑक्सफोर्ड को लोकप्रिय साहित्य के मार्ग पर चलाना शुरू किया। उसी वर्ष उन्होंने बच्चों के साहित्य और चिकित्सा पुस्तकों के प्रकाशन में मदद करने के लिए होडर एण्ड स्टफटन के साथ एक तथाकथित "संयुक्त उद्यम" में प्रवेश किया।[55] कन्नान ने फ्राउड के सहायक के रूप में अपने ऑक्सफोर्ड शागिर्द सहायक सचिव हम्फ्री एस. मिलफोर्ड को नियुक्त करके इन प्रयासों की निरंतरता को सुनिश्चित किया। 1913 में फ्राउड के रिटायर होने के बाद मिलफोर्ड प्रकाशक बने और 1945 में रिटायर होने तक आकर्षक लन्दन व्यवसाय और इसे रिपोर्ट करने वाले शाखा कार्यालयों का शासन कार्य संभाला.[56] प्रेस की वित्तीय स्थिति को देखते हुए कन्नान ने विद्वानों के पुस्तकों या यहां तक कि डिक्शनरी को असंभव देयताओं के रूप में महत्व प्रदान करना बंद कर दिया. उन्होंने टिप्पणी की कि "मुझे नहीं लगता कि विश्वविद्यालय हमें बर्बाद करने के लिए पर्याप्त पुस्तकों का निर्माण कर सकता है".[57] उनके प्रयासों को छापेखाने की कुशलता से काफी मदद मिली. गेल के समय में ही होरेस हार्ट को प्रेस के नियंत्रक के पद पर नियुक्त किया गया लेकिन वे सचिव से कहीं अधिक प्रभावी साबित हुए. असाधारण ऊर्जा और व्यावसायिकता के साथ उन्होंने ऑक्सफोर्ड के मुद्रण संसाधनों में सुधार किया और उनका विस्तार किया और ऑक्सफोर्ड के प्रूफ-रीडरों के लिए पहली शैली वाली गाइड के रूप में हार्ट्स रूल्स का विकास किया। इसके बाद ये दुनिया भर के छापेखाने में मानक बन गए।[58] इसके अलावा, उन्होंने वॉल्टन स्ट्रीट में कर्मचारियों के लिए एक सामाजिक क्लब के रूप में क्लेयरेंडन प्रेस इंस्टिट्यूट के निर्माण का सुझाव दिया. जब 1891 में यह संस्थान खुला तब प्रेस के पास इसमें शामिल होने के लिए प्रशिक्षुओं सहित 540 कर्मचारी थे।[59] अंत में मुद्रण में अपनी सामान्य रुचि के फलस्वरूप हार्ट ने "फेल टाइप्स" की सूची बनाई और उसके बाद 1915 में खराब सेहत की वजह से उनकी मौत से पहले उन्होंने प्रेस के लिए ट्यूडर और स्टुअर्ट प्रतिकृति खण्डों की एक श्रृंखला में उनका इस्तेमाल किया।[60] तब तक ओयूपी एक संकीर्ण मुद्रक से विश्वविद्यालय के स्वामित्व वाले एक व्यापक प्रकाशन प्रतिष्ठान में बदल चुका था जिसकी अंतर्राष्ट्रीय उपस्थिति बढ़ती जा रही थी। लंदन व्यवसाय[संपादित करें] फ्राउड को कोई शक नहीं था कि लन्दन में प्रेस का व्यवसाय काफी हद तक बढ़ गया था और बिक्री के आरम्भ के साथ अनुबंध पर नियुक्त किया गया था। सात साल बाद विश्वविद्यालय के प्रकाशक के रूप में फ्राउड एक छाप के रूप में अपने खुद के नाम के साथ-साथ 'ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस' का इस्तेमाल कर रहे थे। यह शैली हाल के दिनों तक कायम थी और प्रेस के लन्दन कार्यालयों से दो प्रकार के छापों की उत्पत्ति हो रही थी। 'विश्वविद्यालय के प्रकाशक' के नाम से जाने जाने वाले अंतिम व्यक्ति जॉन गिल्बर्ट न्यूटन ब्राउन थे जो अपने सहकर्मियों के बीच 'ब्रुनो' के नाम से जाने जाते थे। छापों के द्वारा गर्भित भेद सूक्ष्म लेकिन महत्वपूर्ण थे। कमीशन (उनके लेखकों द्वारा या किसी पढ़े-लिखे व्यक्तियों के समूह द्वारा भुगतान) पर लन्दन द्वारा जारी किए जाने वाले पुस्तकों की शैली पर 'हेनरी फ्राउड' या 'हम्फ्री मिलफोर्ड' की छाप थी जिस पर ओयूपी का कोई उल्लेख नहीं था मानो प्रकाशक उन्हें अपने आप जारी कर रहे थे जबकि विश्वविद्यालय के शीर्षक के अधीन प्रकाशकों द्वारा जारी किए जाने वाले पुस्तकों पर 'ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस' की छाप थी। इन दोनों श्रेणियों को ज्यादातर लन्दन द्वारा नियंत्रित किया जाता था जबकि ऑक्सफोर्ड (व्यावहारिक दृष्टि से सचिव) क्लेयरेंडन प्रेस पुस्तकों की देखभाल करता था। कमीशन किताबों का मकसद लन्दन व्यवसाय के ऊपरी खर्चों को वित्तपोषित करने के लिए कामधेनु गाय की तरह काम करना था क्योंकि प्रेस ने इस प्रयोजन के लिए अलग से किसी संसाधन की व्यवस्था नहीं की थी। फिर भी फ्राउड विशेष रूप से इस बात पर ध्यान देते थे कि उनके द्वारा प्रकाशित सभी कमीशन पुस्तकों को प्रतिनिधियों का अनुमोदन प्राप्त हो. यह विद्वानों या पुराविदों के प्रेसों के लिए कोई असामान्य व्यवस्था नहीं थी।[कृपया उद्धरण जोड़ें] प्राइस ने तुरंत बाइबल के संशोधित संस्करण के कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस के साथ संयुक्त रूप से निकटवर्ती प्रकाशन के लिए फ्राउड को प्रधानता दी जिसके इस हद तक एक 'बेस्टसेलर' होने की सम्भावना थी जिसे मांग के साथ तालमेल बनाए रखने के लिए प्रेस के सभी संसाधनों को काम में लगाने की जरूरत पड़ती. यह 1611 के प्राधिकृत संस्करण को अधिक्रमित करते हुए सबसे पुराने मूल यूनानी और हिब्रू संस्करणों से बाइबल ग्रन्थ का एक सम्पूर्ण पुनरानुवाद था। फ्राउड की एजेंसी को ठीक समय पर संशोधित संस्करण के लिए स्थापित किया गया जिसे 17 मई 1881 को प्रकाशित किया गया और प्रकाशन से पहले और तब से एक खतरनाक दर पर इसकी एक मिलियन प्रतियों की बिक्री हुई हालांकि अत्यधिक उत्पादन की वजह से अंत में लाभ में कमी आ गई।[कृपया उद्धरण जोड़ें] हालांकि फ्राउड किसी भी तरह से एक ऑक्सफोर्ड व्यक्ति नहीं थे और ऐसा होने का कोई सामाजिक मिथ्याभिमान नहीं था लेकिन फिर भी वह एक अच्छे व्यवसायी थे जो सतर्कता और उद्यम के बीच के जादूई संतुलन को प्रभावित करने में सक्षम थे। उनके मन में बहुत पहले से ही प्रेस के विदेशी व्यापार को सबसे पहले यूरोप में और उसके बाद लगातार अमेरिका, कनाडा, भारत और अफ्रीका में उन्नत बनाने का विचार हिलोर मार रहा था। अमेरिकी शाखा के साथ-साथ एडिनबर्ग, टोरंटो और मेलबोर्न में डिपो स्थापित करने का एकमात्र श्रेय काफी हद तक उन्हीं पर था। फ्राउड ने लेखकों से निपटने, जिल्दसाजी, वितरण और विज्ञापन सहित ओयूपी की छाप वाली किताबों के लिए अधिकांश प्रचालन तंत्रों को नियंत्रित किया और केवल संपादकीय कार्य और छपाई की देखरेख का काम ऑक्सफोर्ड द्वारा किया गया।[कृपया उद्धरण जोड़ें] फ्राउड ऑक्सफोर्ड को नियमित रूप से पैसे भेजते थे लेकिन उन्होंने निजी तौर पर महसूस किया कि इस व्यवसाय की पूंजी काफी कम थी और अगर इसे एक वाणिज्यिक आधार नहीं मिला तो यह बहुत जल्द विश्वविद्यालय के संशाधनों को खाली कर देगा. उन्हें खुद एक निर्धारित सीमा तक व्यवसाय में पैसों का निवेश करने की अधिकार था लेकिन पारिवारिक परेशानियों की वजह से वे ऐसा नहीं कर पा रहे थे। इसलिए विदेशी बिक्री में उनकी रुचि जगी क्योंकि 1880 और 1890 के दशकों तक भारत में पैसा बनाने का अवसर था जबकि यूरपीय पुस्तक बाजार मंदी की मार झेल रहा था। लेकिन प्रेस के फैसले से फ्राउड की दूरी का मतलब था कि जब तक कोई प्रतिनिधि उनकी तरफदारी नहीं करता तब तक वे इस नीति को प्रभावित करने में असमर्थ थे। फ्राउड ने अपना ज्यादातर समय प्रतिनिधियों द्वारा दिए गए जनादेश के तहत काम करने में बिताया. 1905 में पेंशन के लिए आवेदन करते समय उन्होंने तत्कालीन वाइस चांसलर जे. आर. मैग्राथ को लिखा कि बाइबल वेयरहाउस के प्रबंधक के रूप में उनके सात साल के कार्यकाल में लन्दन व्यवसाय की बिक्री का औसत लगभग 20000 पाउंड और लाभ का परिमाण 1887 पाउंड प्रति वर्ष था। 1905 तक प्रकाशक के रूप में उनके प्रबंधन के तहत बिक्री का परिमाण 200000 पाउंड प्रति वर्ष पहुँच गया था और उनके 29 साल के कार्यकाल में लाभ के परिमाण का औसत 8242 प्रति वर्ष पहुँच गया था। सचिव पद पर विवाद[संपादित करें] अपने तरीके से प्रेस की ऐतिहासिक जड़ता के प्रतिरोध के खिलाफ प्रेस को आधुनिकीकरण करने का प्रयास करने वाले प्राइस के पास जरूरत से ज्यादा काम आ गया था और 1883 तक वे अपने काम से इतने थक गए कि वे रिटायर होने की मांग करने लगे. 1882 में बेंजामिन जोवेट विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर बन गए थे। प्राइस के उत्तराधिकारी की नियुक्ति में निस्संदेह भाग लेने वाले अनंत समितियों से अधीर होकर जोवेट ने प्रतिनिधियों से अनुमति प्राप्त की और अपने पूर्व छात्र सहायक फिलिप लाइटेल्टन गेल को प्रतिनिधियों का अगला सचिव बनने के लिए राजी किया। गेल प्रतिनिधियों द्वारा निंदात्मक तरीके से एक वाणिज्यिक फर्म माने जाने वाले कैसेल, पेटर एण्ड गैल्पिन नामक एक प्रकाशन फर्म में खुद के लिए एक नाम का निर्माण कर रहे थे। गेल खुद एक कुलीन व्यक्ति थे जो अपने काम से नाखुश थे जहां उन्होंने खुद को 'एक वर्ग: निम्न मध्य' के स्वाद के लिए खानपान का इंतजाम करते हुए पाया और उन्होंने ओयूपी द्वारा आकर्षित पाठकों और ग्रंथों के साथ काम करने के मौके का फायदा उठाया. जोवेट ने गेल को सुनहरे अवसर प्रदान करने का वादा किया जिनमें से कुछ अवसर प्रदान करने का अधिकार उन्हें भी था। उन्होंने गेल की नियुक्ति को लंबी छुट्टी (जून से सितम्बर तक) और मार्क पैटिसन की मौत के समय में ही निर्धारित किया इसलिए संभावित विपक्षी महत्वपूर्ण बैठकों में भाग न ले सके. जोवेट को अच्छी तरह मालूम था कि गेल का विरोध क्यों किया जाएगा क्योंकि उन्होंने कभी प्रेस के लिए काम नहीं किया था और न ही वे कोई प्रतिनिधि (डेलीगेट) थे और उन्होंने शहर में वाणिज्य सम्बन्धी अपने कच्चे ज्ञान से खुद का करियर मिट्टी में मिला दिया था। उनका डर दूर हुआ। गेल ने चातुर्य की एक चिह्नित कमी के साथ तुरंत प्रेस के सम्पूर्ण आधुनिकीकरण का प्रस्ताव रखा और अपने लिए स्थायी दुश्मनों को जन्म दे दिया. फिर भी उन्होंने फ्राउड के साथ मिलकर बहुत कुछ किया और 1898 तक प्रकाशन कार्यक्रमों और ओयूपी की पहुंच का विस्तार किया। उसके बाद प्रतिनिधियों के असहयोग की वजह से उनके सामने आने वाली असंभव कार्य परिस्थितियों में उनकी सेहत खराब हो गई। उसके बाद प्रतिनिधियों ने उनकी सेवा की समाप्ति का एक नोटिस भेजा जो उनके अनुबंध का उल्लंघन था। हालांकि उन्हें मुकदमा नहीं करने और चुपचाप चले जाने के लिए राजी किया गया।[61] शुरू में प्रतिनिधिगण उनके प्रयासों के विरोधी नहीं थे बल्कि उन्हें क्रियान्वित करने के उनके तरीके और जीवन के शैक्षिक ढंग के साथ उनकी सहानुभति के अभाव के विरोधी थे। उनके विचार से प्रेस विद्वानों का एक संघ था और यह हमेशा ऐसा ही रहेगा. गेल की 'कुशलता' का विचार उस संस्कृति का उल्लंघन करता हुआ दिखाई दिया हालांकि बाद में अंदर से काफी हद तक इसी तरह के सुधार कार्यक्रम को व्यवहार में लाया गया। बीसवीं सदी[संपादित करें] गेल के निष्कासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले चार्ल्स कन्नान को 1898 में गेल की जगह रखा गया और उम्र में उनसे छोटे सहकर्मी हम्फ्री एस. मिलफोर्ड ने 1907 में प्रभावी रूप से फ्राउड की जगह ली. दोनों ऑक्सफोर्ड के आदमी थे जो इसके अंदर-बाहर की प्रणाली से वाकिफ थे और जिस निकट सहयोगिता के साथ वे काम करते थे वह उनकी साझा पृष्ठभूमि और विश्वदृष्टि का फल था। कन्नान चुप्पी को भयभीत करने के लिए मशहूर थे और आमेन हाउस के कर्मचारियों के मुताबिक मिलफोर्ड में कुछ हद तक एक चेशायर बिल्ली की तरह एक कमरे में 'गायब' होने की अलौकिक क्षमता थी और इसी अस्पष्टता के साथ वे अचानक अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को संबोधित करके उन्हें चौंका देते थे। उनके काम करने की शैली का जो भी कारण हो लेकिन कन्नान और मिलफोर्ड दोनों के पास काम करने के लिए आवश्यक एक बहुत कठोर और व्यावहारिक दृष्टिकोण था और उन्होंने यह काम करने के लिए अपना कदम आगे बढ़ाया. वास्तव में लन्दन कार्यालय में [1904 में] मिलफोर्ड के प्रवेश करने के कुछ सप्ताह के भीतर फ्राउड को पता चला कि उन्हें प्रतिस्थापित किया जाएगा. हालांकि मिलफोर्ड हमेशा फ्राउड के साथ बड़ी नरमी से पेश आते थे और 1913 तक फ्राउड एक सलाहकार क्षमता में बने रहे. मिलफोर्ड ने बड़ी तेजी से होडर एण्ड स्टफटन के जे. ई. होडर विलियम्स के साथ हाथ मिलाया और शिक्षा, विज्ञान, चिकित्सा और कल्पना के क्षेत्र में भी तरह-तरह की पुस्तकों को प्रकाशित करने के लिए जिस गठबंधन की स्थापना की उसे ज्वाइंट अकाउंट के नाम से जाना गया। मिलफोर्ड ने कई पहलों या प्रयासों को व्यवहार में लाना शुरू कर दिया जिसमें प्रेस की वैश्विक शाखाओं में से अधिकांश शाखाओं की स्थापना भी शामिल थी। विदेशी व्यापार का विकास[संपादित करें] मिलफोर्ड ने लगभग तुरंत विदेशी व्यापार की जिम्मेदारी ले ली और 1906 तक उन्होंने होडर एण्ड स्टफटन के साथ संयुक्त रूप से भारत और सुदूर पूर्व में एक यात्री को भेजने की योजना बनाना शुरू कर दिया. एन. ग्रेडन (प्रथम नाम अज्ञात) को सबसे पहले 1907 में और उसके बाद 1908 में यात्री के रूप में भेजा गया जब उन्होंने विशेष रूप से भारत, जलडमरूमध्य और सुदूर पूर्व में ओयूपी का प्रतिनिधित्व किया। 1909 में उनकी जगह ए. एच. कोब को रखा गया और 1910 में कोब ने अर्द्ध स्थायी रूप से भारत में ठहरने वाले एक यात्रा प्रबंधक के रूप में कार्य किया। 1911 में ई. वी. रियू को ट्रांस-साइबेरियन रेलवे के माध्यम से पूर्व एशिया भेजा गया जिन्होंने चीन और रूस में कई साहसिक कारनामे किए और उसके बाद वे भारत के दक्षिण में आए और पूरे भारत के शिक्षाविदों और अधिकारियों से मिलने में साल का अधिकांश समय बिताया. 1912 में वह फिर से बम्बई पहुंचे जिसे अब मुंबई के नाम से जाना जाता है। वहां उन्होंने डॉकसाइड क्षेत्र में कार्यालय किराए पर लिया और पहला विदेशी ब्रांच स्थापित किया। 1914 में यूरोप उथलपुथल में डूबा हुआ था। युद्ध की वजह से सबसे पहले कागज़ में कमी और शिपिंग में नुकसान और गड़बड़ी होने लगी और उसके बाद कर्मचारियों की संख्या में बहुत कमी हो गई क्योंकि उन्हें मैदान में सेवा करने के लिए बुला लिया गया। भारतीय शाखा के अग्रदूतों में से दो अग्रदूतों सहित कई कर्मचारी लड़ाई में मारे गए। मजे की बात यह है कि 1914 से 1917 तक बिक्री अच्छी थी और सिर्फ युद्ध के अंतिम समय में हालत सचमुच जरूरत से ज्यादा खराब हो गई। कमी से राहत मिलने के बजाय 1920 के दशक में सामग्रियों और श्रम की कीमतें आकाश छूने लगी. खास तौर पर कागज़ मिलना मुश्किल हो गया था और उसे व्यापारिक कंपनियों के माध्यम से दक्षिण अमेरिका से मंगाना पड़ता था। 1920 के दशक के अंतिम दौर में अर्थव्यवस्था और बाजारों की हालत में धीरे-धीरे सुधार होने लगा. 1928 में प्रेस में छपी सामग्रियों को लन्दन, एडिनबर्ग, ग्लासगो, लीप्ज़िग, टोरंटो, मेलबोर्न, केप टाउन, बम्बई, कलकत्ता, मद्रास और शंघाई में पढ़ा जाता था। इनमें से सभी पूर्ण विकसित शाखाएं नहीं थीं: लीप्ज़िग में एक डिपो था जिसे एच. बोहून बीट द्वारा चलाया जाता था और कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में शहरों में छोटे-छोटे क्रियाशील डिपो और कंपनियों द्वारा प्रकाशित पुस्तकों के साथ-साथ प्रेस के स्टॉक को बेचने के लिए ग्रामीण स्थिरता की जानकारी रखने वाले शैक्षिक प्रतिनिधियों की एक सेना थी जिनकी एजेंसियों पर प्रेस का कब्ज़ा था जिनमें अक्सर काल्पनिक और हल्की-फुल्की पठनीय सामग्रियां शामिल थीं। भारत में बम्बई, मद्रास और कलकत्ता के शाखा डिपो बड़े स्टॉक सूची के साथ प्रतिष्ठानों को प्रभावित कर रहे थे क्योंकि प्रेसिडेंसियां खुद बड़ी बाजार थीं और वहां शैक्षिक प्रतिनिधि ज्यादातर दूरस्थ व्यापार से निपटते थे। 1929 की मंदी ने अमेरिकास के मुनाफे को धीरे-धीरे खत्म कर दिया और भारत अन्य दिर्ष्टि से एक निराशाजनक तस्वीर का 'एक उज्जवल स्थान' बन गया। बम्बई अफ्रिकास के वितरण और ऑस्ट्रेलेशिया की प्रगतिशील बिक्री का केन्द्र बिंदु था और तीन प्रमुख डिपो पर प्रशिक्षित व्यक्ति बाद में अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया के अग्रगामी शाखाओं में स्थानांतरित हो गए।[62] प्रेस ने द्वितीय विश्वयुद्ध में प्रथम विश्वयुद्ध की तरह अनुभव किया, फर्क सिर्फ इतना था कि मिलफोर्ड अब रिटायर होने वाले थे और उन्हें 'युवा व्यक्तियों के गमन से नफरत थी'. इस बार लन्दन में होने वाला हवाई आक्रमण बहुत ज्यादा खतरनाक था और लन्दन व्यवसाय को अस्थायी रूप से ऑक्सफोर्ड स्थानांतरित कर दिया गया था। अब अत्यंत अस्वस्थ हो चुके और कई व्यक्तिगत शोकों में डूबे मिलफोर्ड ने युद्ध के अंत तक रूकने और व्यवसाय को चलाते रहने पर जोर दिया. पहले की तरह सभी चीजों की आपूर्ति कम थी लेकिन यू-नाव संकट ने शिपिंग को दोगुना अनिश्चित बना दिया और पत्र पुस्तिकाएं समुद्र में खो चुके खेपों के मातमी रिकॉर्ड से भरे हुए हैं। कभी-कभी किसी लेखक के साथ-साथ दुनिया के युद्ध के मैदानों में अब विखर चुके कर्मचारियों के भी लापता या मृत होने की खबर दी जाएगी. डोरा, क्षेत्र रक्षा अधिनियम, को आयुध निर्माण के लिए सभी गैर जरूरी धातु को समर्पित करने की जरूरत थी और कई कीमती इलेक्ट्रोटाइप प्लेटों को सरकार के आदेश पर पिघला दिया गया। युद्ध के अंत के साथ मिलफोर्ड की जगह जियोफ्री कम्बरलेग ने ले ली. इस दौरान साम्राज्य के विभाजन के बावजूद एकीकरण और युद्ध के बाद राष्ट्रमंडल का पुनर्गठन देखने को मिला. ब्रिटिश काउंसिल जैसे संस्थानों के साथ मिलकर ओयूपी ने शिक्षा बाजार में खुद को स्थिति को फिर से मजबूत करना शुरू कर दिया. अपनी पुस्तक मूविंग द सेंटर: द स्ट्रगल फॉर कल्चरल फ्रीडम में न्गुगी वा थियोंगो ने दर्ज किया है कि किस तरह अफ्रीका के ऑक्सफोर्ड पाठकों ने अपनी विशाल आंग्ल-केंद्रित विश्वदृष्टि से उन्हें केन्या के एक बच्चे की तरह प्रभावित किया।[63] उसके बाद से यह प्रेस दुनिया भर में फैलने वाले विद्वान और सन्दर्भ पुस्तक बाजार के सबसे बड़े खिलाड़ियों में से एक के रूप में उभर गया है। भारतीय शाखा[संपादित करें] जब ओयूपी भारतीय तटों पर पहुंचा तब यहाँ फ्रेडरिक मैक्स मुलर द्वारा सम्पादित सैक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट की अत्यधिक प्रतिष्ठा पहले से कायम थी और अंत में इसके 50 कष्टकारक खण्डों को पूरा किया गया। हालांकि इस श्रृंखला की वास्तविक खरीदारी अधिकांश भारतीयों की क्षमता से अधिक थी लेकिन फिर भी पुस्तकालयों के खुले सन्दर्भ दराजों में में आम तौर पर भारत सरकार द्वारा उदारतापूर्वक प्रदान किया गया एक सेट उपलब्ध था और भारतीय प्रेस में इन पुस्तकों की काफी चर्चा की जाती थी। हालांकि उनकी खूब आलोचना की गई थी लेकिन फिर भी आम धारणा यह थी कि मैक्स मुलर ने पश्चिम में प्राचीन एशियाई (फ़ारसी, अरबी, भारतीय और सिनिक) दर्शन को लोकप्रिय बनाकर भारत का उपकार किया था।[64] यह पूर्व प्रतिष्ठा उपयोगी थी लेकिन शुरू में इंडोलॉजिकल पुस्तकों को बेचने के लिए बम्बई में भारतीय शाखा नहीं थी जिसके बारे में ओयूपी को पहले से ही मालूम था कि केवल अमेरिका में इसकी अच्छी बिक्री होती थी। ब्रिटिश भारत में तेजी से फ़ैल रहे स्कूल और कॉलेज नेटवर्क द्वारा निर्मित विशाल शैक्षिक बाजार की सेवा करने के लिए यह वहां मौजूद था। युद्ध की वजह से उत्पन्न होने वाले अवरोधों के बावजूद इसे 1915 में सेन्ट्रल प्रोविन्सेस के लिए पाठ्य पुस्तकों को मुद्रित करने का एक महत्वपूर्ण ठेका मिल गया और इससे इस कठिन परिस्थिति में इसे अपने भाग्य को स्थिर करने में काफी मदद मिली. ई. वी. रियू ने अपने कॉलअप में और देरी न करते हुए 1917 में प्रबंधन को तैयार करवाया जो उस समय उनकी पत्नी पत्नी नेली रियू के अधीन था जो अपनी दो ब्रिटिश संतान के सहयोग से एल्थेनियम का संपादन करने वाली एक पूर्व संपादिका थी। ऑक्सफोर्ड से भारत में महत्वपूर्ण इलेक्ट्रोटाइप और स्टीरियोटाइप प्लेटों को भेजने में बहुत देर हो गई थी और खुद ऑक्सफोर्ड छापाखाना सरकारी मुद्रण आदेशों के बोझ टेल दबा हुआ था क्योंकि साम्राज्य के प्रचार मशीन को काम मिल गया था। एक बार ऑक्सफोर्ड में गैर-सरकारी संरचना घटकर 32 पृष्ठ प्रति सप्ताह हो गई थी। 1919 तक रियू बहुत बीमार हो गए और उन्हें घर ले जाना पड़ा. उनकी जगह जियोफ्री कम्बरलेग और नोएल कैरिंगटन ने ली. नोएल डोरा कैरिंगटन नामक कलाकार के भाई थे और उन्होंने उनसे भारतीय बाजार के लिए डॉन किग्जोट के अपने स्टोरीज रिटोल्ड संस्करण की सचित्र व्याख्या भी करवाया था। उनके पिता चार्ल्स कैरिंगटन उन्नीसवीं सदी में भारत में एक रेलवे इंजीनियर थे। भारत में नोएल कैरिंगटन की छः सालों का अप्रकाशित संस्मरण ब्रिटिश लाइब्रेरी के ओरिएंटल एण्ड इंडिया ऑफिस कलेक्शंस में हैं। 1915 तक मद्रास और कलकत्ता में अस्थायी डिपो थे। 1920 में एक उचित शाखा की स्थापना करने के लिए नोएल कैरिंगटन कलकत्ता गए। वहां वे एडवर्ड थॉम्पसन[disambiguation needed] से घुल मिल गए जिन्होंने उन्हें 'ऑक्सफोर्ड बुक ऑफ बंगाली वर्स' का उत्पादन करने की अविकसित योजना में उन्हें शामिल कर लिया।[65] मद्रास में बम्बई और कलकत्ता की तरह कभी कोई औपचारिक शाखा स्थापित नहीं हुई क्योंकि वहां डिपो का प्रबंधन दो स्थानीय शिक्षाविदों के हाथों में था। पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया[संपादित करें] इस क्षेत्र के साथ ओयूपी की पारस्परिक क्रिया भारत में अपने मिशन का हिस्सा थी क्योंकि उनके कई यात्रियों ने भारत जाने या वहां से आने के रास्ते पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया में प्रवेश किया था। 1907 में अपनी पहली यात्रा में ग्रेडन ने 'स्ट्रेट्स सेटलमेंट्स' (काफी हद तक फेडरेटेड मलय राज्य और सिंगापुर), चीन और जापान की यात्रा की थी लेकिन बहुत ज्यादा यात्रा करने में समर्थ नहीं थे। 1909 में ए. एच. कोब ने शंघाई में शिक्षाओं और पुस्तक विक्रेताओं से भेंट की और देखा कि वहां अक्सर सीधी-सादी छपाई वाली ब्रिटिश पुस्तकों के साथ खास तौर पर अमेरिका से आने वाली सस्ती पुस्तकों से प्रतिस्पर्धा चल रही थी।[66] 1891 के चेस अधिनियम के बाद उस समय की कॉपीराइट परिस्थिति ऐसी थी कि अमेरिकी प्रकाशक दंड मुक्त होने के लिए ऐसी किताबों को प्रकाशित कर सकते थे हालांकि उन्हें सभी ब्रिटिश प्रदेशों में वर्जित माना जाता था। दोनों प्रदेशों में कॉपीराइट को सुरक्षित करने के लिए प्रकाशकों को एक साथ प्रकाशन करने का इंतजाम करना पड़ा जो इस युग के वाष्प चालित जलयानों के लिए एक अंतहीन प्रचालन सिरदर्द था। किसी भी एक प्रदेश में पूर्व प्रकाशन के लिए दूसरे प्रदेश में कॉपीराइट संरक्षण के लिए कीमत चुकानी पड़ती थी।[67] कोब ने शंघाई के हेन्जेल एण्ड कंपनी (जिसका संचालन संभवतः किसी प्रोफ़ेसर द्वारा किया जाता था) को उस शहर में ओयूपी का प्रतिनिधित्व करने का काम सौंपा.[कृपया उद्धरण जोड़ें] प्रेस को हेन्जेल से तकलीफ थी जो अनियमित रूप से पत्राचार करते थे। वे एडवर्ड इवांस के साथ भी व्यापार करते थे जो एक अन्य शंघाई पुस्तक विक्रेता था। मिलफोर्ड ने कहा कि 'हमलोग चीन में अब तक जो कुछ कर रहे हैं हमें उससे अधिक करना चाहिए' और 1910 में उन्होंने कोब को शैक्षिक प्राधिकारियों के प्रतिनिधि के रूप में हेन्जेल की जगह किसी और रखने के लिए सुयोग्य प्रतिनिधि की तलाश करने का अधिकार प्रदान किया।[कृपया उद्धरण जोड़ें] उनकी जगह मिस एम. वेर्ने मैक्नीली नामक एक दुर्जेय महिला को रखा गया जो ईसाई ज्ञान प्रचार सोसाइटी की एक सदस्या थीं और एक किताब की दुकान भी चलाती थीं। उन्होंने काफी कुशलतापूर्वक प्रेस के मामलों पर ध्यान दिया और कभी-कभी वह मिलफोर्ड को सम्मानार्थ भेंट स्वरुप सिगारों से भरे डिब्बे भी भेजती थीं। ओयूपी के साथ उनका सहयोग लगभग 1910 से शुरू हुआ था हालांकि उनके पास ओयूपी पुस्तकों के लिए कोई विशेष एजेंसी नहीं थी। सस्ते अमेरिकी किताबों की तुलना में ऑक्सफोर्ड द्वारा आराम से उत्पन्न और महंगे बाइबिल संस्करणों के बहुत ज्यादा प्रतिस्पर्धी न होने के बावजूद चीन में व्यापार की प्रमुख वस्तु बाइबल की किताबें थीं जबकि भारत में शैक्षिक किताबों को सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त था। 1920 के दशक में, भारतीय शाखा की स्थापना की स्थापना हो गई थी और वह चालू हो गई थी तब कर्मचारी सदस्यों के लिए पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया की यात्रा करने के लिए यहां आना-जाना एक रिवाज बन गया। 1928 में मिलफोर्ड का भतीजा आर. क्रिस्टोफर ब्रैडबी वहां गए। वह ठीक उसी समय 18 अक्टूबर 1931 को ब्रिटेन लौट आए जब जापानियों ने मंचुरिया पर हमला कर दिया. मिस एम. वेर्ने मैक्नीली ने राष्ट्र लीग को एक विरोध पत्र लिखा और मिलफोर्ड को एक निराशा पत्र लिखा जिन्होंने उन्हें शांत करने की कोशिश की.[कृपया उद्धरण जोड़ें] जापान ओयूपी के लिए बहुत कम मशहूर बाजार था और जो कुछ थोड़ा बहुत व्यापार होता था वह भी काफी हद तक बिचौलियों के माध्यम से ही होता था। मारुजेन कंपनी अब तक सबसे बड़ी ग्राहक थी और उसके पास मामलों से संबंधित एक विशेष व्यवस्था थी। अन्य व्यवसाय कोबे के सन्नोमिया में आधारित एच. एल. ग्रिफिथ्स नामक एक पेशेवर प्रकाशक प्रतिनिधि के माध्यम से होता था। ग्रिफिथ्स ने प्रेस की तरफ से प्रमुख जापानी स्कूलों और किताबों की दुकानों की यात्रा की और 10 प्रतिशत कमीशन हासिल किया। एडमंड ब्लंडेन कुछ समय तक टोकियो विश्वविद्यालय में रहे थे और विश्वविद्यालय पुस्तक विक्रेता फुकुमोटो स्ट्रोइन के साथ प्रेस का संपर्क स्थापित किया। हालांकि जापान से प्राप्त होने वाला एक महत्वपूर्ण अधिग्रहण ए. एस. हॉर्नबीस एडवांस्ड लर्नर्स डिक्शनरी था। यह हांगकांग में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा पाठ्यक्रम के लिए पाठ्य पुस्तकों का भी प्रकाशन करता है। चीनी भाषी शिक्षण शीर्षकों को ब्रांड कीज प्रेस (啟思出版社) के साथ प्रकाशित किया जाता है। उत्तरी अमेरिका[संपादित करें] संयुक्त राज्य अमेरिका में ऑक्सफोर्ड बाइबल किताबों की बिक्री को सहज बनाने के लिए न्यूयॉर्क शहर के 91 फिफ्थ एवेन्यू में 1896 में उत्तरी अमेरिकी शाखा की स्थापना की गई। बाद में, इसने मैकमिलन के अपने मूल की सभी पुस्तकों के विपणन का काम अपने हाथ में ले लिया। बिक्री की दृष्टि से 1928 से 1936 तक इस कार्यालय का विकास हुआ और अंत में यह संयुक्त राज्य अमेरिका के अग्रणी विश्वविद्यालय प्रेसन में से एक बन गया। यह विद्वानों और सन्दर्भ पुस्तकों, बाइबल और कॉलेज और मेडिकल पाठ्य पुस्तकों पर विशेष ध्यान देती है। 1990 के दशक में इस कार्यालय को 200 मैडिसन एवेन्यू (एक इमारत जिसे इसने पुतनम पब्लिशिंग के साथ शेयर किया था) से 198 मैडिसन एवेन्यू में स्थानांतरित कर दिया गया जो पहले बी. अल्टमैन कंपनी का मुख्यालय था।[68] दक्षिण अमेरिका[संपादित करें] दिसंबर 1909 में कोब लौट आए और उन्होंने उस वर्ष अपनी एशियाई यात्रा का विवरण प्रस्तुत किया। उसके बाद कोब ने मिलफोर्ड के सामने प्रस्ताव रखा कि दक्षिण अमेरिका के आसपास के वाणिज्यिक यात्रियों को भेजने के लिए प्रेस को कंपनियों के समूह में शामिल किया जाना चाहिए जिस पर मिलफोर्ड सैद्धांतिक रूप से सहमत हो गए। कोब ने स्टीयर (प्रथम नाम अज्ञात) नामक एक व्यक्ति को अर्जेंटीना, ब्राजील, उरुग्वे, चिली और संभवतः अन्य देशों की यात्रा करने का काम सौंपा जिसकी जिम्मेदारी कोब पर थी। होडर एण्ड स्टफटन इस उद्यम से बाहर निकल गया लेकिन ओयूपी ने आगे बढ़कर इसमें अपना योगदान दिया. स्टीयर की यात्रा एक मुसीबत थी और मिलफोर्ड ने उदासी भरे लफ्जों में कहा कि सभी यात्रियों की यात्राओं की तुलना में यह यात्रा 'काफी महंगी और बहुत कम फलदायक साबित हुई'. अपने यात्रा कार्यक्रम के आधे से अधिक हिस्से को पूरा करने से पहले ही स्टीयर लौट आए और वापस लौटते समय वे अपने ग्राहकों के भुगतान को वापस करने में विफल रहे जिसके परिणामस्वरूप प्रेस को 210 पाउंड की एक मोटी रकम से हाथ धोना पड़ा. प्रेस को 'आकास्मिक व्यय' के रूप में अपने पुस्तकों के मूल्य का 80 प्रतिशत चुकाने के लिए मजबूर होना पड़ा इसलिए पर्याप्त ऑर्डर मिलने के बावजूद उन्हें नुकसान उठाना पड़ा. वास्तव में कुछ ऑर्डर यात्रा से ही प्राप्त हुए थे और जब स्टीयर के नामूनोने का बॉक्स को वापस किया गया तब लन्दन कार्यालय को पता चला कि उन्हें दूसरी परत से नीचे की तरफ नहीं खोला गया था।[कृपया उद्धरण जोड़ें] अफ्रीका[संपादित करें] पूर्वी अफ्रीका के साथ होने वाले व्यापारों में से कुछ व्यापार बम्बई के माध्यम से होते थे। दक्षिणी अफ्रीका[संपादित करें] यूके में प्रकाशित ओयूपी शीर्षकों के लिए एक वितरण एजेंट के रूप में कुछ समय काम करने के बाद 1960 के दशक में ओयूपी दक्षिणी अफ्रीका ने स्थानीय लेखकों और आम पाठकों के साथ-साथ स्कूलों और विश्वविद्यालयों के लिए भी प्रकाशन करना शुरू कर दिया. इसके कार्यक्षेत्र में बोत्सवाना, लेसोथो, स्वाजीलैंड और नामीबिया के साथ-साथ दक्षिण अफ्रीका भी शामिल है जो पाँचों में से सबसे बड़ा बाजार है। ओयूपी दक्षिणी अफ्रीका अब दक्षिण अफ्रीका के तीन सबसे बड़े शैक्षिक प्रकाशकों में से एक है और यह पाठ्य पुस्तकों, शब्दकोशों, एटलस और स्कूलों की पूरक सामग्रियों और विश्वविद्यालयों के लिए पाठ्यपुस्तकों के प्रकाशन पर अपना ध्यान केंद्रित करती है। इसके लेखक समूहों में काफी हद तक स्थानीय लेखक शामिल हैं और विदेशों में पढ़ने वाले दक्षिण अफ्रीकियों के लिए छात्रवृत्तियों की सहायता के लिए 2008 में इसने मंडेला रोड्स फाउन्डेशन के साथ पार्टनरशिप की. संगीत विभाग की स्थापना[संपादित करें] बीसवीं सड़ी से पहले ऑक्सफोर्ड के प्रेस में कभी-कभार संगीत की कोई रचना या संगीत विद्या से सम्बन्धी कोई किताब छपती थी। इसने 1899 में द याटेंडन हाइमनल भी प्रकाशित किया था और पर्सी डियरमर और उस समय काफी हद तक अज्ञात राल्फ वौघन विलियम्स के संपादकत्व में 1906 में प्रकाशित द इंग्लिश हाइमनल का पहला संस्करण अधिक महत्वपूर्ण था। सर विलियम हेनरी हैडो के कई खंडों वाली ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ म्यूजिक 1901 और 1905 के बीच दिखाई दी. हालांकि इस तरह संगीत प्रकाशन उद्यम बहुत कम थे: "उन्नीसवीं सदी में ऑक्सफोर्ड में इस विचार को महत्व नहीं दिया जाता था कि संगीत किसी अर्थ में शैक्षिक हो सकती है"[69] और कुछ प्रतिनिधि या पूर्व प्रकाशक खुद संगीत से संबंधित थे या उनकी पृष्ठभूमि काफी हद तक संगीत से संबंधित थी। हालांकि लंदन कार्यालय में मिलफोर्ड ने संगीत का मजा लिया था और खास तौर पर चर्च और गिरिजाघर के संगीतकारों की दुनिया के साथ उनका संबंध था। 1921 में मिलफोर्ड ने ह्यूबर्ट जे. फॉस को मूल रूप से शैक्षिक प्रबंधक वी. एच. कॉलिंस के एक सहायक के रूप में काम पर रखा था। उस काम में फॉस ने अपनी ऊर्जा और कल्पना का परिचय दिया. हालांकि सटक्लिफ के अनुसार एक साधारण संगीतकार और प्रतिभाशाली पियानोवादक के रूप में फॉस "की रुचि खास तौर से शिक्षा में नहीं थी; संगीत में उनकी गहरी रुचि थी।[69] उसके बाद बहुत जल्द जब फॉस ने मिलफोर्ड को रेडियो पर अक्सर बजाई जाने वाली रचनाओं के संगीतकारों पर जाने-माने संगीतज्ञों के निबन्धों के समूह को प्रकाशित करने की योजना के बारे में बताया तब मिलफोर्ड ने शायद इसे शिक्षा की तुलना में संगीत से कम संबंधित माना होगा. उस विचार प्रक्रिया का कोई स्पष्ट रिकॉर्ड मौजूदा नहीं है जिसके द्वारा प्रेस ने संगीत के प्रकाशन के क्षेत्र में कदम रखा होगा. फॉस की मौजूदगी और उनका ज्ञान, योग्यता, उत्साह और कल्पना शायद मिलफोर्ड के दिमाग में एक साथ कई असंबंधित गतिविधियों को जन्म देने वाले उत्प्रेरक का काम किया होगा जिसने विदेशी शाखाओं की स्थापना की तरह एक अन्य नए उद्यम को जन्म दिया होगा.[70] हो सकता है कि मिलफोर्ड को पूरी तरह यह बात समझ में नहीं आई होगी कि वह क्या कर रहे थे। 1973 में संगीत विभाग द्वारा पचासवीं सालगिरह पर प्रकाशित पुस्तिका से पता चलता है कि ओयूपी को "संगीत व्यापार का कोई ज्ञान नहीं था और उसके संगीत दुकानों में अपनी रचनाओं को बेचने के लिए कोई प्रतिनिधि भी नहीं था और ऐसा लगता है कि उसे इस बात का भी इल्म नहीं था कि शीट संगीत पुस्तकों से किसी भी तरह से एक अलग चीज थी।"[71] हालांकि मिलफोर्ड ने जानबूझकर या अनजाने में तीन कदम उठाए जिससे ओयूपी ने एक प्रमुख कार्य का शुभारंभ किया। उन्होंने एंग्लो-फ्रेंच म्यूजिक कंपनी और इसके सभी केन्द्रों, संबंधित वस्तुओं और संसाधनों को खरीद लिया। उन्होंने संगीत के लिए एक पूर्णकालिक बिक्री प्रबंधक के रूप में नोर्मैन पीटरकिन नामक एक संयमी मशहूर संगीतज्ञ को काम पर रख लिया। और 1923 में उन्होंने एक अलग प्रभाव संगीत विभाग की स्थापना की जिसके कार्यालय आमेन हाउस में थे और जिसके पहले संगीत संपादक फॉस थे। उसके बाद सामान्य समर्थन के अलावा मिलफोर्ड ने फॉस को बड़े पैमाने पर उनके अपने उपकरणों के हवाले कर दिया.[72] फॉस ने इसका जवाब अविश्वसनीय ऊर्जा के साथ दिया. उन्होंने "सबसे कम संभावित समय में सबसे बड़ी संभावित सूची" का निर्माण किया[73] और लगभग 200 शीर्षक प्रति वर्ष की दर से उसमें शीर्षकों शामिल करना शुरू कर दिया; आठ साल बाद उस सूची में 1750 शीर्षक थे। विभाग की स्थापना के वर्ष में फॉस ने "क्सोफोर्ड कोरल साँग्स" श्रृंखला शीर्षक के तहत सस्ती लेकिन अच्छी तरह से सम्पादित और मुद्रित समवेत रचनाओं की एक श्रृंखला का निर्माण करना शुरू कर दिया. डब्ल्यू. जी. व्हिटटेकर के सामान्य संपादकत्व में यह श्रृंखला पुस्तक रूप में या अध्ययन के बजाय संगीत के प्रकाशन के लिए ओयूपी की पहली वचनबद्धता थी। इस श्रृंखला योजना का विस्तार करके इसी तरह की सस्ती लेकिन उच्च गुणवत्ता वाली "ऑक्सफोर्ड चर्च म्यूजिक" और "ट्यूडर चर्च म्यूजिक" (कार्नेगी यूके ट्रस्ट से अपने हाथों में लिया गया) को शामिल किया गया; इनमें से सभी श्रृंखलाएं आज भी जारी हैं। वास्तव में फॉस द्वारा मिलफोर्ड के सामने प्रकाशन हेतु प्रस्तुत निबन्धों की योजना 1927 में हेरिटेज ऑफ म्यूजिक के रूप में दिखाई दी (अगले तीस सालों में दो और खंड दिखाई दिए होंगे). इसी तरह पर्सी स्कोल्स की लिस्नर्स गाइड टू म्यूजिक (वास्तव में 1919 में प्रकाशित) को आम जनता को सुनाने के लिए संगीत प्रशंसा पर आधारित पुस्तकों की एक श्रृंखला में से पहली श्रृंखला के रूप में नए विभाग में प्रस्तुत किया गया था।[70] ब्रॉडकास्ट और रिकॉर्डेड संगीत के विकास के साथ तालमेल बैठने के लिए ओयूपी के लिए डिजाइन किए गए स्कोल्स के निरंतर कार्यों और पत्रकारिता संगीत आलोचना के क्षेत्र में उनके अन्य कार्यों को बाद में ऑक्सफोर्ड कम्पैनियन टू म्यूजिक में व्यापक रूप से एकीकृत और सारगर्भित किया होगा. शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि फॉस को शायद उन रचनाओं के नए संगीतकारों की तलाश करने की आदत थी जिन रचनाओं को वह विशिष्ट रूप से अंग्रेज़ी संगीत की मान्यता देते थे जो जनता को अधिक प्रिय थी। इस एकाग्रता के फलस्वरूप ओयूपी को दो पारस्परिक सुदृढ़ लाभ प्राप्त हुआ: संभावित प्रतिस्पर्धियों के कब्जे से बचे रहने वाले संगीत प्रकाशन के क्षेत्र में प्रवेश करने का एक मौका और संगीत प्रदर्शन एवं निर्माण के लिए एक शाखा जिसे अब तक खुद अंग्रेजों द्वारा काफी हद तक नजरअंदाज किया जा रहा था। हिनेल्स के प्रस्ताव एके मुताबिक काफी हद तक अज्ञात वाणिज्यिक संभावनाओं वाले संगीत के क्षेत्र में संगीत विभाग का आरंभिक "छात्रवृत्ति एवं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद मिश्रण" इसकी सांस्कृतिक परोपकार (प्रेस की शैक्षिक पृष्ठभूमि को देखते हुए) की भावना और "जर्मन मुख्यधारा के बाहर राष्ट्रीय संगीत" को बढ़ावा देने की इच्छा से प्रेरित था।[74] इसका नतीजा यह हुआ कि फॉस ने सक्रिय रूप से इस कार्य को बढ़ावा देना शुरू कर दिया और राल्फ वौघन विलियम्स, विलियम वॉल्टन, कॉन्स्टन्ट लैम्बर्ट, एलन रॉस्थोर्न, पीटर वॉरलॉक (फिलिप हेसेलटीन), एडमंड रुब्ब्रा और अन्य अंग्रेज़ी संगीतकारों के संगीत के प्रकाशन की इच्छा प्रकट की. जिस सन्दर्भ में प्रेस को "आधुनिक संगीत के इतिहास के सबसे टिकाऊ सज्जन समझौता"[73] कहा गया उस सन्दर्भ में फॉस ने ऐसी किसी भी संगीत के प्रकाशन की गारंटी दी जिसे वौघन विलियम्स उन्हें प्रदान करना चाहेंगे. इसके अलावा, फॉस ने ओयूपी के केवल संगीत के प्रकाशन और जीवंत प्रदर्शन के अधिकारों को ही नहीं बल्कि रिकॉर्डिंग और ब्रॉडकास्ट के "यांत्रिक" अधिकारों को भी सुरक्षित करने की दिशा में कदम उठाया. यह बात पूरी तरह से स्पष्ट नहीं थी कि उस समय यह सब कितना महत्वपूर्ण साबित हुआ होगा. दरअसल फॉस, ओयूपी और कई संगीतकारों ने पहले परफॉमिंग राईट सोसाइटी में शामिल होने या उसका समर्थन करने से इनकार कर दिया था क्योंकि उन्हें डर था कि नई मीडिया के क्षेत्र में होने वाले इस तरह के प्रदर्शन पर इसकी फीस का बुरा असर पड़ेगा. बाद के वर्षों में देखा गया कि इसके विपरीत इस तरह के संगीत, संगीत प्रकाशन के पारंपरिक स्थलों की तुलना में अधिक आकर्षित साबित हुए.[75] संगीत की पेशकश के परिमाण और विस्तार की दृष्टि से और संगीतज्ञों और आम जनता दोनों के दिलों में इसकी प्रतिष्ठा की दृष्टि से संगीत के विभाग ने चाहे जैसा भी विकास किया हो, 1930 के दशक में आखिरकार वित्तीय प्रतिफल का सवाल सबसे प्रमुख था। लन्दन प्रकाशक के रूप में मिलफोर्ड ने संगीत विभाग के निर्माण और विकास के वर्षों में इसे अपना पूरा सहयोग दिया था। हालांकि उन पर लगातार होने वाले खर्चों से चिंतित ऑक्सफोर्ड के प्रतिनिधियों का दबाव बढ़ने लगा जो उन्हें एक लाभहीन उद्यम लग रहा था। उनके दृष्टि में आमेन हाउस का संचालन शैक्षिक दृष्टि से सम्मान योग्य और वित्तीय दृष्टि से लाभकारी था। लन्दन कार्यालय "शिक्षा को बढ़ावा देने के खर्च के लिए क्लेयरेंडन प्रेस के लिए पैसा कमाने के स्रोत के रूप में बना रहा."[76] इसके अलावा, ओयूपी अपने पुस्तक प्रकाशनों को अल्पकालीन परियोजनाएं मानता था: प्रकाशित होने के कुछ वर्षों के भीतर न बिकने वाली किसी भी पुस्तक को बाजार से वापस मंगवा लिया जाता था (अनियोजित या छिपे आय के रूप में दिखाने के लिए हालांकि वास्तव में उन्हें बाद में बेच दिया जाता था). इसके विपरीत, प्रदर्शन के लिए संगीत पर संगीत विभाग का दबाव अपेक्षाकृत दीर्घकालीन और निरंतर था जो खास तौर इसका कारण यह था कि इससे होने वाला आय बार-बार के प्रसारण या रिकॉर्डिंग से प्राप्त होता था और इसलिए क्योंकि यह नए और आगामी संगीतज्ञों के साथ अपने रिश्ते को बनाने में लगा हुआ था। प्रतिनिधिगण फॉस के नजरिए से सहमत नहीं थे: "मुझे अभी भी यही लगता है कि यह शब्द 'नुकसान' एक झूठा शब्द है: क्या यह वास्तव में पूंजी का निवेश नहीं है?" यह वाक्य फॉस ने 1934 में मिलफोर्ड को लिखा था।[77] इस प्रकार 1939 तक संगीत विभाग में किसी भी वर्ष कोई मुनाफा नहीं दिखाई दिया.[78] तब तक मंदी के आर्थिक दबाव के साथ-साथ खर्च को कम करने के अंदरूनी दबाव और संभवतः ऑक्सफोर्ड के मूल निकाय की शैक्षिक पृष्ठभूमि ने एक साथ मिलकर ओयूपी के प्राथमिक संगीत व्यवसाय को जन्म दिया जिसकी प्रकाशन रचनाओं का मुख्य आधार औपचारिक संगीत शिक्षा और संगीत प्रशंसा थी जो एक तरह से प्रसारण और रिकॉर्डिंग का ही एक एक असर था।[78] यह ब्रिटिश स्कूलों की संगीत शिक्षा की सहायक सामग्रियों की बढ़ती मांग के साथ अच्छी तरह से मेल खा रहा था जो 1930 के दशक में शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी सुधारों का परिणाम था।[79] प्रेस ने नए संगीतज्ञों और उनके संगीत की तलाश करने और उन्हें प्रकाशित करने का काम बंद नहीं किया लेकिन व्यवसाय का स्वरुप बदल गया था। व्यक्तिगत स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित और आर्थिक बाधाओं और (युद्ध के लंबा खींचने के कारण) कागज़ की कमी से तंग आकर और द ब्लिट्ज से बचने के लिए लन्दन के सभी कार्य-संचालन तंत्रों को ऑक्सफोर्ड स्थानांतरित किए जाने से बहुत ज्यादा नाराज होकर, फॉस ने 1941 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया और उनकी जगह पीटरकिन को रखा गया।[80] महत्वपूर्ण श्रृंखलाएं और शीर्षक[संपादित करें] शब्दकोश[संपादित करें] ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी कॉम्पेक्ट ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी का कॉम्पैक्ट एडिशन वर्तमान अंग्रेजी का कॉम्पेक्ट ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी कंसाइस ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी नेशनल बायोग्राफी की ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी एडवांस लर्नर्स डिक्शनरी इंडोलॉजी (भारत संबंधित)[संपादित करें] दी रिलीजियस बुक्स ऑफ दी सिख्स सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट रूलर्स ऑफ इंडिया दी अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया पारंपरिक[संपादित करें] स्क्रिप्टोरम क्लासिकोरम बिब्लियोथिका ओग्जोनिएन्सिस, जिसे ऑक्सफोर्ड क्लासिकल टेक्स्ट के नाम से भी जाना जाता है। इतिहास[संपादित करें] प्रोफ़ेसर राम शरण शर्मा द्वारा इंडियाज़ एन्शेंट पास्ट एंड रीथिंकिंग इंडियाज़ पास्ट ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इंग्लैंड ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ दी यूनाइटेड स्टेट्स ऑक्सफोर्ड इलस्ट्रेटेड हिस्ट्री ऑफ आयरलैंड ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इस्लाम दी ऑक्सफोर्ड इलस्ट्रेटेड हिस्ट्री ऑफ दी फस्ट वर्ल्ड वार (ह्यू स्ट्रेकेन) (ऑक्सफोर्ड, 1998) आईएसबीएन 0-19-820614-3 जर्मनी एंड सेकेंड वर्ल्ड वार विलियम डॉयल द्वारा ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ दी फ्रेंच रिवॉल्यूशन Wiki letter w cropped.svg इस अनुभाग को विस्तार की ज़रूरत है। अंग्रेजी भाषा शिक्षण[संपादित करें] हेड्वे स्ट्रीमलाइन इंग्लिश फाइल लेट्स गो पोटेटो पाल अध्ययनशील पत्रिकाएं[संपादित करें] ओयूपी विज्ञान और मानवता दोनों क्षेत्रों में शैक्षिक पत्रिकाओं का एक प्रमुख प्रकाशक भी रहा है। इसे एक मुक्त उपयोग वाली पत्रिका (न्यूक्लिक एसिड्स रिसर्च) को प्रकाशित करने वाले पहले विश्वविद्यालय प्रेसों में से एक के रूप में और संभवतः हाइब्रिड मुक्त उपयोग पत्रिकाओं को शुरू करने वाली पहली प्रेस के रूप में उल्लिखित किया जाता है। टाइपोग्राफी और प्रेसवर्क के क्षेत्र में ओयूपी का योगदान[संपादित करें] यूनिवर्सिटी होरेस हार्ट का प्रिंटर. इसने अपना नाम ऑक्सफोर्ड कॉमा को दिया है। क्लेयरेंडन छात्रवृत्तियां[संपादित करें] 2001 से ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने वित्तीय रूप से क्लेयरेंडन बर्सरी को अपना सहयोग दिया है जो ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की एक स्नातक छात्रवृत्ति योजना है।[कृपया उद्धरण जोड़ें] इन्हें भी देखें[संपादित करें] लुआ त्रुटि package.lua में पंक्ति 80 पर: module 'Module:Portal/images/c' not found। हैशेट हार्ट्स रूल्स फॉर कॉम्पोजिटर्स एंड रीडर्स एट दी यूनिवर्सिटी प्रेस, ऑक्सफोर्ड सबसे बड़े यूके पुस्तक प्रकाशकों की सूची ओपन एक्सेस स्कालर्ली पब्लिशर्स एसोसिएशन, ओयूपी भी इसका एक सदस्य है टिप्पणियां[संपादित करें] ऊपर जायें ↑ Balter, Michael (फ़रवरी 16, 1994). "400 Years Later, Oxford Press Thrives". The New York Times. अभिगमन तिथि: 2009-10-21.[मृत कड़ियाँ] ऊपर जायें ↑ हैरी कार्टर, ए हिस्ट्री ऑफ दी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस (ऑक्सफोर्ड, 1975) पी. 137 ऊपर जायें ↑ कार्टर पास्सिम ऊपर जायें ↑ पीटर सटक्लिफ, दी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस: एन इन्फोर्मल हिस्ट्री (ऑक्सफोर्ड 1975; 2002 के सुधार के साथ पुनःप्रकाशित) पी. 53, 96-7, 156 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ, पास्सिम ऊपर जायें ↑ बार्कर पी. 4; कार्टर पीपी. 7-11 ऊपर जायें ↑ कार्टर पीपी. 17-22 ऊपर जायें ↑ कार्टर चैप्टर. 3 ऊपर जायें ↑ बार्कर पी. 11 ऊपर जायें ↑ कार्टर पीपी 31, 65 ऊपर जायें ↑ कार्टर चैप्टर. 4 ऊपर जायें ↑ कार्टर चैप्टर. 5 ऊपर जायें ↑ कार्टर पीपी. 56-8, 122-7 ऊपर जायें ↑ बार्कर पी. 15 ऊपर जायें ↑ हेलेन एम. पैटर, दी ऑक्सफोर्ड एल्मानेक्स (ऑक्सफोर्ड, 1974) ऊपर जायें ↑ बार्कर पी. 22 ऊपर जायें ↑ कार्टर पी. 63 ऊपर जायें ↑ बार्कर पी. 24 ऊपर जायें ↑ कार्टर चैप्टर. 8 ऊपर जायें ↑ बार्कर पी. 25 ऊपर जायें ↑ कार्टर पीपी. 105-09 ऊपर जायें ↑ कार्टर पी. 199 ऊपर जायें ↑ बार्कर पी. 32 ऊपर जायें ↑ आई.जी. फिलिप, विलियम ब्लैकस्टोन एंड दी रिफोर्म ऑफ दी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, (ऑक्सफोर्ड, 1957) पीपी. 45-72 ऊपर जायें ↑ कार्टर, चैप्टर 21 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पी. XXV ऊपर जायें ↑ बार्कर पीपी. 36-9, 41. सटक्लिफ पी. 16 ऊपर जायें ↑ बार्कर पी. 41. सटक्लिफ पीपी. 4-5 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ, पीपी. 1-2, 12 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पीपी. 2-4 ऊपर जायें ↑ बार्कर पी. 44 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पीपी. 39-40, 110-111 ऊपर जायें ↑ हैरी कार्टर, वोल्वरकोट मिल चैप्टर 4 (द्वितीय संस्करण, ऑक्सफोर्ड, 1974) ऊपर जायें ↑ जेरेमी मास, होल्मन हंट एंड दी लाईट ऑफ दी वर्ल्ड (स्कोलर प्रेस, 1974) ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पी. 6 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पी. 36 ऊपर जायें ↑ बार्कर पीपी. 45-7 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पीपी. 19-26 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पीपी. 14-15 ऊपर जायें ↑ बार्कर पी. 47 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पी. 27 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पीपी. 45-6 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पीपी 16, 19. 37 ऊपर जायें ↑ दी क्लेयरेंडूनियन, 4, संख्या 32, 1927, पी. 47 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पीपी. 48-53 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पीपी. 89-91 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पी. 64 ऊपर जायें ↑ बार्कर पी. 48 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पीपी. 53-8 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पीपी. 56-7 ऊपर जायें ↑ साइमन विनचेस्टर, दी मीनिंग ऑफ एवरीथिंग - दी स्टोरी ऑफ़ दी ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी (ऑक्सफोर्ड, 2003) ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पीपी. 98-107 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पी. 66 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पी. 109 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पीपी. 141-8 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पीपी. 117, 140-4, 164-8 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पी. 155 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पीपी. 113-4 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पी. 79 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पीपी. 124-8, 182-3 ऊपर जायें ↑ रिमी बी. चटर्जी के अध्याय दो को देखें, एम्पायर ऑफ दी माइंड: ए हिस्ट्री ऑफ दी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस इन इंडिया ड्यूरिंग दी राज (न्यू डेल्ही: ओयूपी 2006), गेल को हटाने की सम्पूर्ण कहानी के लिए. ऊपर जायें ↑ मिलफोर्ड का लेटरबुक ऊपर जायें ↑ नगुगी वा थिओंगो, वान्ग्यू वा गोरो और नगुगी वा थिओंगो द्वारा गिकुयु से अनुवादित 'मूविंग दी सेंटर: दी स्ट्रगल फॉर कल्चर फ्रीडम ' में 'इम्पीरीअलिज़म ऑफ लैंग्वेज', (लंदन: कर्रे, 1993), पी. 34. ऊपर जायें ↑ ओयूपी द्वारा स्केयर्ड बुक्स ऑफ दी ईस्ट और उनके हैंडलिंग के एकाउंट के लिए, रिमी बी. चटर्जी के एम्पायर ऑफ दी माइंड: ए हिस्ट्री ऑफ दी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस इन इंडिया ड्यूरिंग दी राज के अध्याय 7 को देखें; न्यू डेल्ही: ओयूपी, 2006 ऊपर जायें ↑ रिमी बी. चटर्जी, 'कैनन विदाउट कन्सेन्सस: रवीन्द्रनाथ टैगोर और ऑक्सफोर्ड बुक ऑफ बंगाली वर्स"'. बुक हिस्ट्री 4:303-33. ऊपर जायें ↑ देखें रिमी बी. चटर्जी, 'पायरेट्स एंड फिलैन्थ्रपिस्ट: ब्रिटिश पब्लिशर्स और कॉपीराइट इन इंडिया, 1880-1935 स्वप्न कुमार चक्रवर्ती और अभिजीत गुप्ता द्वारा संपादित प्रिंट एरियाज़ 2: बुक हिस्ट्री इन इंडिया में, (न्यू डेल्ही: परमानेंट ब्लैक, आगामी 2007 में) ऊपर जायें ↑ देखें साइमन नोवेल स्मिथ, इंटरनेशनल कॉपीराइट लॉ एंड दी पब्लिशर इन दी रीजन ऑफ क्वीन विक्टोरिया: दी ल्येल लेक्चर्स, यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड, 1965-66, (ऑक्सफोर्ड: क्लेयरेंडन प्रेस, 1968). ऊपर जायें ↑ केनेथ टी. जैक्सन, एड: दी एन्साइक्लोपीडिया ऑफ न्यूयॉर्क सिटी पी. 870.: 1995; येल यूनिवर्सिटी प्रेस; न्यू-यॉर्क हिस्टोरिकल सोसायटी. ↑ इस तक ऊपर जायें: अ आ सटक्लिफ पी. 210 ↑ इस तक ऊपर जायें: अ आ हिनेल्स पी. 6 ऊपर जायें ↑ ऑक्सफोर्ड पी. 4 ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पी. 211 ↑ इस तक ऊपर जायें: अ आ ऑक्सफोर्ड पी. 6 ऊपर जायें ↑ हिनेल्स पी. 8 ऊपर जायें ↑ हिनेल्स पी. 18-19; 1936 में ओयूपी शामिल हो गए। ऊपर जायें ↑ सटक्लिफ पी. 168 ऊपर जायें ↑ हिनेल्स पी. 17 ↑ इस तक ऊपर जायें: अ आ सटक्लिफ पी. 212 ऊपर जायें ↑ हैडो द्वारा विभिन्न कमीशंस की अध्यक्षता के तहत ऊपर जायें ↑ हिनेल्स पी. 34 संदर्भग्रन्थ[संपादित करें] हैरी कार्टर, ए हिस्ट्री ऑफ दी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, (ऑक्सफोर्ड: क्लेयरेंडन प्रेस, 1975). रिमी बी. चटर्जी, एम्पायर्स ऑफ दी माइंड: ए हिस्ट्री ऑफ दी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस इन इंडिया ड्यूरिंग दी राज (न्यू डेल्ही: ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2006). डंकन हिनेल्स, एन एक्स्ट्राऑर्डिनरी परफोरमेंस: ह्यूबर्ट फॉस एंड दी अर्ली इयर्स ऑफ म्यूज़िक पब्लिशिंग एट दी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, (ऑक्सफोर्ड: ओयूपी [आईएसबीएन 978-0-19-323200-6], 1998). ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस म्यूज़िक डिपार्टमेंट, ऑक्सफोर्ड म्यूज़िक: दी फस्ट फिफ्टी इयर्स '23-'73, (लंदन: ओयूपी, 1973). पीटर सटक्लिफ, दी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस: एन इन्फोर्मल हिस्ट्री, (ऑक्सफोर्ड: क्लेयरेंडन प्रेस [आईएसबीएन 0-19-951084-9], 1978). पीटर सटक्लिफ, एन इन्फोर्मल हिस्ट्री ऑफ दी ओयूपी (ऑक्सफोर्ड: ओयूपी, 1972). अग्रिम पठन[संपादित करें] नोएल एल. कैरिंगटन, 'इनिशीऐशन इनटू पब्लिशिंग', 'एब्ब टाइड ऑफ दी राज' में, ओरिएंटल एंड इंडिया ऑफिस कलेक्शन, ब्रिटिश लाइब्रेरी के होल्डिंग्स में अप्रकाशित संस्मरण. बाह्य कड़ियां[संपादित करें] ओयूपी वेबसाइट ऑक्सफोर्ड जर्नल्स वेबसाइट ओयूपी से ए शोर्ट हिस्ट्री ऑफ ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस 1903 इलस्ट्रेटेड आर्टिकल दी मोस्ट फेमस प्रेस इन दी वर्ल्डप्रेस श्रेणियाँ: स्क्रिप्ट त्रुटियों वाले पृष्ठArticles with links needing disambiguationलेख जिन्हें May 2008 से विस्तार की आवश्यकता है1891 की स्थापनाएं1896 में स्थापित कंपनियांऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेसब्रिटेन की पुस्तक प्रकाशन कंपनियांसंयुक्त राज्य अमेरिका की प्रकाशन कंपनियांविश्वविद्यालय पुस्तक प्रकाशकऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के विभागऑक्सफोर्ड शब्दकोशशीट म्यूज़िक प्रकाशन कंपनीऑक्सफोर्ड में दुकानें दिक्चालन सूची अंक परिवर्तन खाता बनाएँलॉग इनलेखसंवादपढ़ेंसम्पादनइतिहास देखें मुखपृष्ठ चौपाल हाल में हुए परिवर्तन समाज मुखपृष्ठ निर्वाचित विषयवस्तु यादृच्छिक लेख योगदान प्रयोगपृष्ठ अनुवाद हेतु लेख आयात अनुरोध विशेषाधिकार निवेदन दान सहायता सहायता स्वशिक्षा अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न देवनागरी कैसे टाइप करें त्वरितवार्ता (आई॰आर॰सी चैनल) दूतावास (Embassy) उपकरण यहाँ क्या जुड़ता है पृष्ठ से जुड़े बदलाव फ़ाइल अपलोड करें विशेष पृष्ठ स्थायी कड़ी इस पृष्ठ पर जानकारी Wikidata प्रविष्टि छोटा यू॰आर॰एल यह लेख उद्धृत करें विकि रुझान आज के रुझान हफ्ते भर के महीने भर के मुद्रण/निर्यात पुस्तक बनायें पीडीएफ़ रूप डाउनलोड करें प्रिन्ट करने लायक अन्य भाषाओं में Afrikaans العربية Беларуская বাংলা Català Cymraeg Dansk Deutsch English Esperanto Español Eesti فارسی Suomi Français עברית Bahasa Indonesia Italiano 日本語 ಕನ್ನಡ 한국어 Nederlands Norsk bokmål Polski Português Română Русский Srpskohrvatski / српскохрватски Slovenčina Svenska தமிழ் తెలుగు Türkçe Українська اردو 中文 कड़ी संपादित करें अन्तिम परिवर्तन 05:25, 10 नवम्बर 2014। यह सामग्री क्रियेटिव कॉमन्स ऍट्रीब्यूशन/शेयर-अलाइक लाइसेंस के तहत उपलब्ध है; अन्य शर्ते लागू हो सकती हैं। विस्तार से जानकारी हेतु देखें उपयोग की शर्तें गोपनीयता नीतिविकिपीडिया के बारे मेंअस्वीकरणडेवेलपर्समोबाइल दृश्य %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9F%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%82%E0%A4%85%E0%A4%B0 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 टीमव्यूअर https://hi.wikipedia.org/s/15fi मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से टीमव्यूअर 200px विकासकर्ता टीमव्यूअर GmbH स्थिर रिलीज़ 6.0.10194 (विण्डोज़) / जनवरी 27, 2011; 4 वर्ष पहले प्रचालन तंत्र विण्डोज़, मॅक ओऍस ऍक्स, लिनक्स, आइओऍस, ऍण्ड्रॉइड में उपलब्ध अरबी, चैक, दानिश, अंग्रेजी, फ़िनिश, फ्राँसीसी, जर्मन, इतालवी, जापानी, कोरियन, नॉर्वेयन, पोलिश, पुर्तगीज, रुसी, स्पैनिश, स्वीडिश, तुर्किश प्रकार रिमोट ऍडमिनिस्ट्रेशन सॉफ्टवेयर लाइसेंस मालिकाना, व्यक्तिगत उपयोग हेतु मुफ्त जालस्थल www.teamviewer.com टीमव्यूअर विभिन्न कम्प्यूटरों के बीच रिमोट कण्ट्रोल, डैस्कटॉप शेयरिंग तथा फाइल ट्राँसफर हेतु एक कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर पैकेज है। यह सॉफ्टवेयर माइक्रोसॉफ्ट विण्डोज़, मॅक ओऍस ऍक्स[1][2], लिनक्स[3], आइओऍस[4], तथा ऍण्ड्रॉइड[5] के साथ कार्य करता है। किसी मशीन जिसमें टीमव्यूअर चल रहा हो, को एक वेब ब्राउजर के द्वारा भी नियन्त्रित किया जा सकता है।[6] यद्यपि ऍप्लिकेशन का मुख्य कार्य कम्प्यूटरों का रिमोट कण्ट्रोल है, सहभागिता तथा प्रेजैंटेशन सुविधायें भी शामिल की गयी हैं।[7] टीमव्यूर जीऍमबीऍच सन २००५ में Uhingen, जर्मनी में स्थापित किया गया था। अनुक्रम [छुपाएँ] 1 उपयोग 2 कनैक्शन स्थापित करना 3 सुरक्षा 4 इन्हें भी देखें 5 सन्दर्भ 6 बाहरी कड़ियाँ उपयोग[संपादित करें] इण्टरनेट पर दो पीसी को आपस में जोड़ कर एक से दूसरे को नियन्त्रित करने हेतु। दो पीसी के मध्य फाइल ट्राँसफर हेतु। दो या अधिक पीसी का वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क बनाने हेतु। दूरस्थ रहकर किसी मित्र को इण्टरनेट से कम्प्यूटर सम्बंधी कोई कार्य सिखाने हेतु। दूरस्थ रहकर किसी मित्र के पीसी की कोई समस्या दूर करने हेतु। कनैक्शन स्थापित करना[संपादित करें] टीमव्यूअर को एक इंस्टालेशन प्रक्रिया के द्वारा स्थापित किया जा सकता है, यद्यपि 'क्विक सपोर्ट' संस्करण बिना इंस्टालेशन के भी चलाया जा सकता है।[8] दूसरे कम्प्यूटर से जुड़ने हेतु, टीमव्यूअर दोनों मशीनों पर चालू होना चाहिये: यह किसी प्रयोक्ता द्वारा बिना ऍडमिनिस्ट्रेटर असैस के चलता (परन्तु इंस्टाल नहीं) हो सकता है। जब किसी कम्प्यूटर पर टीमव्यूअर स्टार्ट किया जाय तो यह एक पार्टनर आइडी तथा पासवर्ड उत्पन्न करता है (प्रयोक्ता द्वारा निर्धारित पासवर्ड हेतु भी समर्थन है)। एक लोकल क्लाइंट से रिमोट होस्ट मशीन से कनैक्शन स्थापित करने हेतु लोकल ऑपरेटर को रिमोट कम्प्यूटर से संवाद करना चाहिये, आइडी तथा पासवर्ड हेतु अनुरोध किया जाना चाहिये फिर इन दोनों को लोकल टीमव्यूअर में डाला जाना चाहिये।[9]. सुरक्षा[संपादित करें] टीमव्यूअर RSA प्राइवेट/पब्लिक की ऍक्सचेंज तथा AES (२५६-बिट) सैशन ऍन्कोडिंग का प्रयोग करता है।[10] परन्तु चूँकि यह सुरक्षा उपाय के तौर पर केवल यूजरनेम/पासवर्ड का प्रयोग करता है इसलिये यह फिशिंग का शिकार हो सकता है। इन्हें भी देखें[संपादित करें] रिमोट डैस्कटॉप सॉफ्टवेयर रिमोट डैस्कटॉप सॉफ्टवेयरों की तुलना रिमोट डैस्कटॉप प्रोटोकॉल (RDP) टर्मिनल सेवायें वर्चुअल नेटवर्क कम्प्यूटिंग (VNC) सन्दर्भ[संपादित करें] ऊपर जायें ↑ TeamViewer V4desktop collaboration app now Mac-compatible Philip Michaels, Macworld ऊपर जायें ↑ Article comparing screen-sharing software, Seth Rosenblatt, Cnet download blog ऊपर जायें ↑ "TeamViewer 5 for Linux released". Support.teamviewer.com. 2010-04-15. अभिगमन तिथि: 2010-11-24. ऊपर जायें ↑ TeamViewer iPad App Provides Remote Access to PCs David Roe, CMSWire ऊपर जायें ↑ "TeamViewer App (Beta) for Android released". Support.teamviewer.com. 2010-11-24. अभिगमन तिथि: 2010-11-25. ऊपर जायें ↑ Article on Teamviewer 4.1 Geoff Spick, CMS WIRE ऊपर जायें ↑ TeamViewer improves speed, messaging, presentations, Lee Mathews, Download Squad ऊपर जायें ↑ Teamviewer: Downloads. Retrieved 2009-10-17. ऊपर जायें ↑ Download of the Day, Rick Broida, Lifehacker ऊपर जायें ↑ "TeamViewer Security". Teamviewer.com. अभिगमन तिथि: 2010-11-24. बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें] टीमव्यूअर का आधिकारिक जालस्थल डाउनलोड [छुपाएँ] द वा ब Remote administration software Absolute Manage · AetherPal · Apple Remote Desktop · Back Orifice · Back Orifice 2000 · Citrix XenApp · Crossloop · DameWare Mini Remote Control · NetBus · Netop Remote Control · NetSupport Manager · pcAnywhere · Radmin · RealVNC · Remote Desktop Services · Remote desktop software · Secure Shell · Sub7 · System Center Configuration Manager · TeamViewer · TightVNC · Timbuktu · UltraVNC · Virtual Network Computing श्रेणियाँ: नेटवर्क-सम्बंधी सॉफ्टवेयररिमोट डैस्कटॉपवर्चुअल नेटवर्क कम्प्यूटिंगपोर्टेबल सॉफ्टवेयरइंटरनेट दिक्चालन सूची अंक परिवर्तन खाता बनाएँलॉग इनलेखसंवादपढ़ेंसम्पादनइतिहास देखें मुखपृष्ठ चौपाल हाल में हुए परिवर्तन समाज मुखपृष्ठ निर्वाचित विषयवस्तु यादृच्छिक लेख योगदान प्रयोगपृष्ठ अनुवाद हेतु लेख आयात अनुरोध विशेषाधिकार निवेदन दान सहायता सहायता स्वशिक्षा अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न देवनागरी कैसे टाइप करें त्वरितवार्ता (आई॰आर॰सी चैनल) दूतावास (Embassy) उपकरण यहाँ क्या जुड़ता है पृष्ठ से जुड़े बदलाव फ़ाइल अपलोड करें विशेष पृष्ठ स्थायी कड़ी इस पृष्ठ पर जानकारी Wikidata प्रविष्टि छोटा यू॰आर॰एल यह लेख उद्धृत करें विकि रुझान आज के रुझान हफ्ते भर के महीने भर के मुद्रण/निर्यात पुस्तक बनायें पीडीएफ़ रूप डाउनलोड करें प्रिन्ट करने लायक अन्य भाषाओं में %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 लिनक्स https://hi.wikipedia.org/s/new मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से लिनक्स Tux.svg विकासक बहुल Written in Various प्रचालन तंत्र परिवार यूनिक्स जैसा कार्यकारी स्थिति चालू स्रोत प्रतिरूप मुक्त प्रारम्भिक रिलीज़ १९९१ बाजार लक्ष्य Personal computers, embedded devices, mobile devices, servers में उपलब्ध बहुभाषीय प्लेटफॉर्म DEC Alpha, ARM, AVR32, Blackfin, ETRAX CRIS, FR-V, H8/300, Hexagon, Itanium, M32R, m68k, Microblaze, MIPS, MN103, OpenRISC, PA-RISC, PowerPC, s390, S+core, SuperH, SPARC, TILE64, Unicore32, x86, Xtensa कर्नेल का प्रकार Monolithic उपयोक्ता स्थान Various प्राथमिक यूज़र इंटरफ़ेस बहुल लाइसेंस बहुल[1] ("Linux" trademark owned by Linus Torvalds[2] and administered by the Linux Mark Institute) लिनक्स यूनिक्स जैसा एक ऑपरेटिंग सिस्टम है। यह ओपेन सोर्स सॉफ्टवेयर अथवा मुक्त स्रोत सॉफ्टवेयर का सबसे कामयाब तथा सबसे लोकप्रिय सॉफ्टवेयर है। यह जीपीएल्ड है। और यूनिक्स से बनाया गया है।। यूनिक्स का विकास, 1960 के दशक में ऐ.टी.&टी. की बेल प्रयोगशाला के द्वारा किया गया। उस समय ऐ.टी.&टी. कम्पनी एक नियंत्रित इजारेदारी थी इसलिए वह कमप्यूटर का सौफ्टवेयर नही बेंच सकती थी। उसने इसे, सोर्स कोड के साथ, बिना शर्त, सरकार तथा विश्वविद्यालयों को दे दिया, वे चाहे तो उसमें फेरबदल कर सकते हैं। 1980 के दशक के आते आते यूनिक्स सबसे लोकप्रिय, शक्ति शाली, एवं स्थिर औपरेटिंग सिस्टम बन गया हालांकि उस समय तक उसके कई रूपान्तर आ चुके थे। यूनिक्स में एक कमी थी - इसको समझना तथा चलाना मुश्किल है। एन्डी टेनेनबाम, ऐमस्टरडैम में कमप्यूटर विज्ञान के प्रोफेसर हैं। उन्होंने इसकी सहायता के लिए मिनिक्स नाम का प्रोग्राम लिखा। इसमें भी कुछ कमियाँ थीं। लिनूस टोरवाल्ड फिनलैण्ड के हेलसिन्की विश्‍ववविद्यालय में कमप्यूटर विज्ञान के छात्र थे। उन्होंने मिनिक्स की कमी को दूर करने के लिए एक प्रोग्राम लिखा जो कि बाद में ‘लिनूस का यूनिक्स’ या छोटे में लिनक्स कहलाया। इसका सबसे पहला कोर या करनल उन्होने 1991 में इन्टरनेट में पोस्ट किया। तब तक रिचर्ड स्टालमेन का 'ग्नू' प्रोजेक्ट शुरू हो चुका था। लिनूस टोरवाल्ड ने इससे बहुत सारे प्रोग्राम अपने लिनक्स में लिए। इसलिए रिचर्ड स्टालमेन का कहना है। कि इसे 'ग्न्यू-लिनक्स' (GNU-Linux) कहना चाहिये। पर यह नाम, शायद लम्बा रहने के कारण चल नहीं पाया। पर इसका अर्थ यह नहीं हैं कि लिनक्स की सफलता में ग्न्यू प्रोजेक्ट का हाथ नहीं है। ग्न्यू प्रोजेक्ट के बिना लिनक्स सम्भव नहीं था। अनुक्रम [छुपाएँ] 1 इतिहास 2 करनल, डिस्ट्रीब्यूशन, डेस्कटॉप 3 लिनक्स - मुकदमे 3.1 एस.सी.ओ. बनाम आई.बी.एम. 3.2 एस.सी.ओ. बनाम नौवल 3.3 3-4. एस.सी.ओ. बनाम ओटोजोन तथा डैमलर क्राईसलर 3.4 रेड हैट बनाम एस.सी.ओ. 3.5 लिनक्स ट्रेडमार्क – मुकदमा 4 हिन्दी समर्थन 5 यह भी देखिए 6 सन्दर्भ 7 बाहरी कड़ियाँ इतिहास[संपादित करें] लिनक्स का इतिहास करनल, डिस्ट्रीब्यूशन, डेस्कटॉप[संपादित करें] लिनक्स का कोई भी आफिस नहीं है, कोई भी कम्पनी या व्यक्ति इसका मालिक नहीं है। पर दुनिया भर के प्रोग्रामर इसमें अपना योगदान देते हैं। दुनिया के इतिहास में इससे बडा, इस प्रकार का आन्दोलन, कभी नहीं हुआ। वह भी जो एक अमेरिका से बाहर के विश्वविद्यालय के छात्र ने शुरू किया। क्योंकि कमप्यूटर विज्ञान में नयी दिशायें दिखाने का वर्चस्व तो केवल अमेरिका का था। लिनक्स के सौफ्टवेयर के लिए प्रायौगिक तौर पर पैसा नहीं लिया जा सकता, पर इसका मतलब यह नहीं है कि इससे पैसा नहीं कमाया जा सकता। बहुत सारी कम्पनियाँ इस पर सर्विस देकर पैसा कमा रही हैं और चल रही हैं। रेड हैट तथा सूसे (नौवल) इनमें मुख्य हैं। लिनक्स के तीन स्तर हैं - करनल या कोर: करनल से सीधे कमप्यूटर नहीं चलाया जा सकता उसे चलाने से पहले कमपाईल करना पड़ता है। लिनक्स करनल को लिनूस टोरवाल्डस देखते हैं। डेस्कटौप : आपके कमप्यूटर में औपरेटिंग सिस्टम किस प्रकार से दिखे उसमें अलग अलग काम करने वाले सौफटवेयर किस प्रकार से चले यह डेस्कटौप पर निर्भर करता है। कई तरह के डेस्कटौप हैं पर नोम तथा के.डी.ई. मुख्य हैं। डिस्ट्रीब्यूशन: किसी करनल से कमप्यूटर चलाने के लिए पहले उसे कमपाईल करना पड़ता है। तब वह चलता है। यह कार्य डिस्‍ट्रीब्‍यूशन करते हैं इस तरह के लगभग 100 डिस्ट्रीब्‍यूशन हैं जिसमें रेड हैट, सूसे (नौवल) तथा मैनड्रिवा मुख्य हैं। हर डिस्‍ट्रीब्‍यूशन में कम से कम नोम तथा के.डी.ई. दोनो डेस्कटौप रहते हैं। लिनक्स - मुकदमे[संपादित करें] ए.टी.&टी. ने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बरकले को यूनिक्स का सोर्स कोड शुरू में दिया था। इस विश्वविद्यालय ने उस पर कार्य किया तथा इसे काफी आगे बढाया। विश्वविद्यालय ने इसका अपना रूप भी निकाला जो कि बरकले सौफटवेर डिस्ट्रीब्यूशन के नाम से प्रसिद्ध है। यह ओपेन सोर्स है। ए.टी.&टी. कम्पनी 1984 में टूट गई तथा इसके एक हिस्से के पास कमप्यूटर का काम आया जिसे कमप्यूटर के व्यापार करने की स्वतंत्रता थी। ए.टी.&टी. के इस अलग घटक ने अपना व्यापारिक यूनिक्स निकाला| इस व्यापारिक यूनिक्स तथा विश्वविद्यालय के बी.एस.डी. यूनिक्स में होड़ होने लगी तब ए.टी.&टी. ने विश्वविद्यालय पर एक मुकदमा दायर किया कि केवल ए.टी.&टी. यूनिक्स के बौद्धिक सम्पदा अधिकार की मालिक है।। विश्वविद्यालय का कहना था कि उसे बी.एस.डी. यूनिक्स वितरण करने का हक है, क्योंकि इस पर उसने भी बहुत काम किया है। 1993 में ए.टी.&टी. के इस घटक ने नौवल को यूनिक्स का व्यापार बेच दिया तथा 1995 में नौवल तथा विश्वविद्यालय के बीच मुकदमे में सुलह हो गई। लेकिन उसकी क्या शर्ते हैं यह किसी को मालूम नहीं है। इस समय लिनक्स से सम्बन्धित मुख्य रूप से पांच मुकदमे चल रहे हैं। यह मुकदमें क्यों चल रहे हैं, इसके बारे में कई अटकलें ईन्टरनेट पर हैं। एस.सी.ओ. बनाम आई.बी.एम.[संपादित करें] कैलडरा कम्पनी, पहले इसी नाम से लिनक्स का एक डिस्ट्रीब्यूशन निकालती थी यह बहुत सफल नहीं था - कम से कम रेड हैट, सूसे (नौवल) तथा मैनड्रिवा के जितना तो नहीं| कैलडरा बाद में सैन्टा क्रूज औपरेशन (एस.सी.ओ.) हो गई| एस.सी.ओ. का कहना है। कि उसने नौवल से यूनिक्स के बौद्धिक सम्पदा अधिकार खरीद लिए हैं तथा उसने यूनिक्स का एक्स (ए.आई.ऐक्स) नाम का रूपान्तर निकालने लगी जिसे उसने आई.बी.एम. को दिया है। एस.सी.ओ. ने 2003 में एक मुकदमा आई.बी.एम. पर यह कहते हुये दायर किया कि - आई.बी.एम. ने एस.सी.ओ. के ट्रेड सीक्रेट का हनन किया है। आई.बी.एम. ने ऐक्स यूनिक्‍स का सोर्स कोड लिनक्स में मिला दिया है। आई.बी.एम. ने एस.सी.ओ. के साथ ऐक्‍स के बारे में हुई संविदा का उल्लंघन किया है। आई.बी.एम. ने इस मुकदमें में अपना उल्टा क्लेम दाखिल किया है। कि आई.बी.एम. ने ऐक्स का कोई सोर्स कोड लिनक्स में नहीं मिलाया है। उसने एस.सी.ओ. की संविदा को नहीं तोडा है। संविदा तो एस.सी.ओ. ने तोडी है।। एस.सी.ओ. बनाम नौवल[संपादित करें] यह स्पष्ट नहीं है, कि नौवल ने एस.सी.ओ. को क्या बेचा क्योंकि नौवल के अनुसार उसने एस.सी.ओ. को यूनिक्स के बौद्धिक सम्पदा अधिकार नहीं बेचे हैं। उसने एस.सी.ओ. को केवल यूनिक्स का विकास करने तथा दूसरे को लाइसेंस देने का अधिकार दिया था। इस पर एस. सी. ओ. ने एक मुकदमा नौवल पर चलाया है। कि, नौवल गलत कह रहा है। कि एस.सी.ओ. यूनिक्स के बौद्धिक सम्‍पदा अधिकार का मालिक नहीं है; नौवल का यह कहना कि नौवल यूनिक्स के बौद्धिक सम्पदा अधिकारों का मालिक है। एस.सी.ओ. के व्यापार में रूकावट डाल रहा है। उसे रोका जाय; इस बात कि घोषणा की जाय कि एस.सी.ओ. यूनिक्स के बौद्धिक सम्पपदा अधिकार का मालिक है। न कि नौवल; उसे नौवल से हर्जाना दिलवाया जाय| 3-4. एस.सी.ओ. बनाम ओटोजोन तथा डैमलर क्राईसलर[संपादित करें] एस.सी.ओ. ने १५०० कम्पनियों को नोटिस भेजा है। कि, वे लिनक्स प्रयोग करने से पहले उससे लाइसेंस ले लें; और वह देखें कि यूनिक्स का कोड ओपेन सोर्स सौफटवेर से न मिल जाय। उसने ओटोजोन तथा डैमलर क्राईसलर के खिलाफ अलग अलग मुकदमे अपने अधिकार के उल्लंघन के बारे में दायर किये हैं। डैमलर काईसलर के खिलाफ मुकदमा, अंशत: 9 अगस्त 2004 को खारिज हो गया। फिर मुकदमा 21 दिसंबर 2004 को यह कहते हुये खारिज हो गया कि वह पुन: दूसरा मुकदमा तब तक नहीं ला सकते हैं जब तक डैमलर क्राईसलर के पहले मुकदमे का सारा खर्चा न अदा कर दें। एस.सी.ओ. ने इसके खिलाफ अपील प्रस्‍तुत कर रखी है।। रेड हैट बनाम एस.सी.ओ.[संपादित करें] रेड हैट लिनक्स डिस्ट्रीब्यूशन कम्पनी है। इसने एक मुकदमा इसलिए दायर किया है कि *घोषणा की जाय कि उसने लिनक्स को वितरण करने में एस.सी.ओ. के किसी भी अधिकार का अतिक्रमण नहीं किया है| यह कहना मुश्किल है। कि इन मुकदमों में क्या होगा। यह इन पर आयी गवाही पर निर्भर करेगा| सारे मुकदमे एस.सी.ओ . बनाम आई.बी.एम. के मुकदमे के निर्णय पर निर्भर करेंगे। बहुत सी प्रमुख कम्पनियाँ लिनक्स को अपना रही हैं। इनमें आई.बी.एम., रेड हैट, तथा एच.पी. मुख्य हैं इन्होने इन मुकदमो को मद्दे नज़र रखते हुये, अपने खरीदारों को कहा है। कि यदि यह पाया जाता है। कि उनके कोई भी सौफ्टवेर किसी के बौद्धिक सम्‍पदा अधिकारों का अतिक्रमण कर रहे हैं तो वे न ही उसके पूरे हर्जाने की क्षतिपूर्ति करेंगे पर उन्हें नया सौफ्टवेर बना कर देगें। लिनक्स ट्रेडमार्क – मुकदमा[संपादित करें] लिनक्स, लिनूस टोरवाल्ड का ट्रेडमार्क है और इस समय लिनूस टोरवाल्ड की तरफ से, लिनक्स मार्क इंस्टिट्यूट (एल.एम.आई.) इस नाम के प्रबन्ध का कार्य देखते हैं। 1994 में डेला क्रोस नामक व्यक्ति ने लिनक्स नाम पर अमेरिका में ट्रेडमार्क ले लिया। उसने लिनक्स बेचने वाली कम्पनियों को नोटिस भेजने शुरू किये कि वे उससे लाईसेन्स ले लें। लिनूस टोरवाल्ड और लिनक्स से सम्बन्ध रखने वाली कम्पनियों ने उस पर एक मुक्दमा चलाया| 1997 मई इस मुकदमे में एक सम्झौते के अनुसार, लिनक्स नाम का ट्रेडमार्क लिनूस टोरवाल्ड को दे दिया गया| उसके पश्चात, लिनक्स नाम का गलत प्रयोग न हो इसके लिए लिनूस टोरवाल्ड ने इस नाम के प्रबन्ध करने के कार्य की जिम्मेवारी एल.एम.आई. को दे दी| एल.एम.आई. लिनक्स नाम का प्रयोग करने के लिए लाईसेन्स देती है| लिनूस टोरवाल्ड ने इस बारे में एक ब्यान भी जारी किया है। जो कि यहाँ पर देखा जा सकता हिन्दी समर्थन[संपादित करें] लिनक्स प्रचालन तन्त्र में हिन्दी प्रदर्शन एवं टंकण हेतु पूर्ण समर्थन उपलब्ध है। हिन्दी टंकण हेतु इसमें हिन्दी का मानक कीबोर्ड इन्स्क्रिप्ट अन्तर्निर्मित होता है। इसके अतिरिक्त फोनेटिक टाइपिंग हेतु स्किम के द्वारा कीबोर्ड जोड़ा जा सकता है। लिनक्स का पूर्णतया हिन्दीकरण हो चुका है। इण्डलिनक्स नामक संस्था इस दिशा में कार्यरत है। इसके प्रयासों से लिनक्स के इण्टरफेस सहित सम्पूर्ण प्रचालन तन्त्र हिन्दी में अनुवादित किया जा चुका है। यह भी देखिए[संपादित करें] लिनूस टोरवाल की आत्म कहानी Just for fun: The story of an Accidental Revolutionary यह बहुत अच्छी तथा प्रेरणादायक पुस्तक है। इसमें कुछ चैप्टर बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के बारे में हैं। यह कुछ हमारे पुरातन विचारो से मेल खाते हैं और पश्चिम के समाज पर जिस तरह से इन अधिकारों की परिभाषा तथा व्याख्या की जाती है। उस पर नयी तरह से प्रकाश डालती है। लिनक्स वितरणों की तुलना अधिक जानकारी: लिनक्स से परिचय लाइनेक्स संबंधी ढेरों लेख हिन्दी में सन्दर्भ[संपादित करें] ऊपर जायें ↑ "Debian GNU/Linux Licenses". Ohloh. अभिगमन तिथि: 2009-03-27. ऊपर जायें ↑ "U.S. Reg No: 1916230". United States Patent and Trademark Office. अभिगमन तिथि: 2006-04-01. बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें] लिनक्स सम्बंधी विविध तकनीकी लेख, नुस्खे तथा डाउनलोड लिनक्स सम्बंधी विविध तकनीकी लेख लिनक्स पॉकेट गाइड - लिनक्स सीखने हेतु एक मुफ्त हिन्दी ई-पुस्तक [दिखाएँ] द वा ब लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम [दिखाएँ] द वा ब संचालन प्रणाली श्रेणियाँ: स्क्रिप्ट त्रुटियों वाले पृष्ठलिनक्सप्रचालन तंत्रसंगणक अभियान्त्रिकी दिक्चालन सूची अंक परिवर्तन खाता बनाएँलॉग इनलेखसंवादपढ़ेंसम्पादनइतिहास देखें मुखपृष्ठ चौपाल हाल में हुए परिवर्तन समाज मुखपृष्ठ निर्वाचित विषयवस्तु यादृच्छिक लेख योगदान प्रयोगपृष्ठ अनुवाद हेतु लेख आयात अनुरोध विशेषाधिकार निवेदन दान सहायता सहायता स्वशिक्षा अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न देवनागरी कैसे टाइप करें त्वरितवार्ता (आई॰आर॰सी चैनल) दूतावास (Embassy) उपकरण यहाँ क्या जुड़ता है पृष्ठ से जुड़े बदलाव फ़ाइल अपलोड करें विशेष पृष्ठ स्थायी कड़ी इस पृष्ठ पर जानकारी Wikidata प्रविष्टि छोटा यू॰आर॰एल यह लेख उद्धृत करें विकि रुझान आज के रुझान हफ्ते भर के महीने भर के मुद्रण/निर्यात पुस्तक बनायें पीडीएफ़ रूप डाउनलोड करें प्रिन्ट करने लायक %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AF%E0%A5%82%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 यूनिक्स https://hi.wikipedia.org/s/ka2 मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से यूनिक्स की फिलिएष्ण और यूनिक्स-जैसी प्रणालियां यूनिक्स (अधिकृत ट्रेडमार्क UNIX, कभी-कभी छोटे कैपिटल अक्षरों के साथ Unix भी लिखा जाता है), एक कम्प्यूटर परिचालन तंत्र है। यह मूल रूप से 1969 में बेल प्रयोगशाला में विकसित किया गया था। इसके विकास में एटी एंड टी के कर्मचारी केंन थोम्प्स्न, डेनिस रिची, ब्रियन केर्निघ्ग्न, दोग्ल्स मेक्लेरी और जो ओसाना आदि शामिल थे। आज "यूनिक्स" शब्द का प्रयोग आमतौर पर यूनिक्स मानकों के अनुरूप चलने वाले किसी भी परिचालन तंत्र के लिए किया जाता है। अर्थात भीतरी परिचालन व्यवस्था मूल युनिक्स परिचालन व्यवस्था के अनुरूप चलती है। ए टी एंड टी के साथ-साथ बहुत से व्यवसायिक विक्रेता और गैर लाभ संगठनों द्वारा विकसित आज की यूनिक्स प्रणालियां विभिन्न शाखाओं में विभाजित हैं। 1970 के अंत और 1980 के प्रारंभ के दौरान शैक्षिक समुदाय पर यूनिक्स के प्रभाव के परिणामस्वरूप यूनिक्स को व्यापारिक उद्घाटन द्वारा बड़े पैमाने पर स्वीकार किया गया। विशेषकर इसका केलिफोनिया विश्वविद्यालय, बर्कले से उत्पन्न BSD संस्करण बहुत लोकप्रिय हुआ। इसके अलावा मेक OS X, सोलारिस, HP-UX और AIX आदि भी प्रसिद्ध हुए। आज प्रमाणिक यूनिक्स प्रणालियों क्व अलावा यूनिक्स-जैसे परिचालन तंत्र जैसे कि लिनक्स और BSD आमतौर पर देखे जाते हैं। अनुक्रम [छुपाएँ] 1 विहंगावलोकन 2 इतिहास 2.1 1970 का दशक 2.2 1980 का दशक 2.3 1990 का दशक 2.4 2000 का दशक 3 मानक 4 घटक (अवयव) 5 प्रभाव 5.1 यूनिक्स की तरह स्वतंत्र परिचालन तंत्र 5.2 2038 5.3 अरपानेट (ARPANET) 6 ब्रांडिंग 7 यह भी देखें 8 सन्दर्भ 9 बाहरी लिंक विहंगावलोकन[संपादित करें] यूनिक्स संस्करणों की समय-रेखा यूनिक्स परिचालन तंत्र सर्वरों और कार्यस्थल दोनों में व्यापक रूप से उपयोग की जाती है। यूनीक्स पर्यावरण और ग्राहक-सर्वर कार्यक्रम मॉडल इंटरनेट के विकास और व्यक्तिगत कम्प्यूटर्स की बजाय नेटवर्क से केन्द्रित संगणना को पुन: आकार देने के लिए आवश्यक तत्व थे। यूनिक्स और C प्रोग्रेमिंग भाषा दोनों AT एंव T द्वारा विकसित की गई तथा सरकारी और शैक्षणिक संस्थाओं में वितरित की गई जिससे कि दोनों ने किसी भी अन्य परिचालन तंत्र की बजाय व्यापक किस्म के मशीनी परिवारों के सम्पर्क स्थल का नेतृत्त्व किया। परिणामस्वरूप यूनिक्स "ओपन सिस्टम" का पर्याय बन गया। यूनिक्स की बनावट उठाने योग्य, बहुकार्यन और एक समय विभाजन विन्यास में बहु उपयोगकर्ता के लिए की गई। यूनिक्स व्यवस्था का चरित्रचित्रण विभिन्न अवधारणाओ द्वारा किया गया है: आंकड़ा भंडारण के लिए साधारण पाठ का उपयोग, पदानुक्रमित संचिका तंत्र, ईलाज उपकरण और फ़ाइल के रूप में कुछ प्रकार की अंतर संचार प्रक्रिया (IPC) और बड़ी संख्या के सॉफ्टवेअर उपकरण का उपयोग, छोटे कार्यक्रम एक आदेश पंक्ति दुभाषिया के माध्यम से पाइप का उपयोग करके एक साथ बांधे जा सकते हैं, एक अखंड कार्यक्रम के विरोध में जिसमे सभी एक जैसी कार्यात्मकता शामिल है। यह अवधारनाए सामूहिक रूप में यूनिक्स धारणा के नाम से जानी जाती हैं। यूनिक्स के अंतर्गत "परिचालन तंत्र" में मास्टर नियंत्रण कार्यक्रम, द कर्नेल के साथ और भी बहुत सी उपयोगिताएँ शामिल हैं। कर्नेल, कार्यक्रम शुरू करने और समाप्त करने, फ़ाइल व्यवस्था सँभालने और अन्य "कम स्तर" के सामान्य काम जिसके अधिकतर कार्यक्रम सहभागी होते हैं, की सेवाए प्रदान करता है और सम्भवत: यदि दो कार्यक्रम एक ही संसाधन एक ही समय में उपयोग करने का प्रयत्न करते हैं तो सबसे महत्वपूर्ण, कार्य संघर्ष से बचने के लिए हार्डवेयर का अभिगम देता है। ऐसे अधिगम की मध्यस्थता करने के लिए कर्नेल को प्रणाली में विशेष अधिकार दिए गए थे, जिसके परिणामस्वरूप उपयोगकरता-स्थान और कर्नेल-स्थान के मध्य विभाजन हो गया। माइक्रोकर्नेल अवधारणा एक बड़े कर्नेल की तरफ रुख पलटने के प्रयास में पेश किया गया था और इस प्रणाली की तरफ आने के लिए जहाँ अधिक कार्य छोटी उपयोगिताओं से पूरे किये जाते थे। ऐसे दौर में जब "सामान्य" कम्प्यूटर में भण्डारण के लिए हार्ड डिस्क और निवेश एंव निगम के लिए डाटा टर्मिनल शामिल था, वहां यूनिक्स फ़ाइल मॉडल काफी अच्छा कार्य करता था क्यूंकि ज्यादातर I/O "रैखिक" थे। हालाँकि अधुनकी प्रणाली में नेटवर्किंग और अन्य उपकरण शामिल हैं। जैसे ग्राफिकल उपयोगकर्ता इंटरफेस विकसित हुए, फ़ाइल मॉडल अतुल्यकालिक घटनाओं के काम से निबटने के लिए अपर्याप्त साबित हुआ जैसे कि जो माउस द्वारा उत्पन्न किये गए और 1980 के दशक में गैर-अवरुद्ध I/O और अंतर-प्रक्रिया संचार तंत्र के समूह की स्थापना संवर्धित की गयी (सॉकेट, साझी स्मृति, संदेश कतार, संकेतबाहु) और कार्यात्मकताऍ जैसे नेटवर्क प्रोटोकॉल कर्नेल से निकाल दिए गए। इतिहास[संपादित करें] 1960 के दशक में, मैसाचुएट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलोजी, AT एंव T बेल लैब्ज़ और जनरल इलेक्ट्रिक ने एक प्रयोगात्मक परिचालन तंत्र विकसित की, जो कि मॉलटिक्स कहलाई गई, GE के नवीनतम अधिसंसाधित्र पर, एक GE-645, इसके लिए विशेष रूप से डिजाइन किया गया[1] मॉलटिक्स अत्यधिक नवीन था, पहली बार कई नए कंप्यूटिंग सीमाओं को चुनौती दी, कंप्यूटिंग के लिए एक ही मशीन से एक ही समय में कई प्रयोक्ताओं की सेवा करने की क्षमता भी शामिल है। इसमें कई समस्याएँ थी, लेकिन अंततः मॉलटिक्स एक कार्यात्मक वाणिज्यिक उत्पाद बन गया। बेल लैब्ज़ मुल्टिक्स के आकर और जटिलता से कुंठित पर उद्देश्य से नहीं. धीरे धीरे परियोजना से बाहर निकल गई। मुल्टिक्स को छोड़ने वाले उनके आखिरी शोधकर्ता, केन थोम्पसन, डेनिस रिची, एम्.डी. मेक्लोरी और जे.ऍफ़.ओसाना,[2] ने बहुत छोटे पैमाने पर फिर से कम करने का फैसला किया। उस समय, रिची कहते हैं, "हम प्रोग्रामिंग के लिए केवल एक अच्छा माहौल बनाए रखना नहीं चाहते थे बल्कि ऐसी प्रणाली जिससे सदस्यता बनाई जा सके. हम अनुभव से जानते थे कि साम्प्रदायिक कम्प्यूटिंग का सार जैसे रिमोट अधिगम, समय साँझी मशीन द्वारा उपलब्ध करवाया गया है, केवल एक की-पञ्च के बजाय टर्मिनल में कार्यक्रम छापना नहीं है, बल्कि नजदीकी संचार को प्रोत्साहित करना है।"[2] जबकि केन थोम्पसन की अभी भी मल्टिक्स पर्यावरण तक पहुँच थी, उसने नई फ़ाइल और उस पर पृष्ठ प्रणाली के लिए अनुकरण लिखा. उसने अन्तरिक्ष यात्रा (स्पेस ट्रेवल) के नाम से एक खेल भी योजनाबद्ध किया। लेकिन खेल को चलाने के लिए, एक अधिक कुशल मशीन की जरूरत थी, और अंत में बेल लेबज में एक छोटे-इस्तेमाल किये गए PDP-7 ने काम बना दिया.[3] यह खेल से जुडा कार्य था जिसने जाहिरतौर पर यूनिक्स के जन्म स्थान की ओर अग्रगमन किया, बेल लैब्ज़ में एक PDP7. क्यूंकि मल्टिक्स का अधिगम जल्द ही खत्म हो रहा था और प्रबंधन को कोई भी मशीन खरीदने में दिलचस्पी नहीं थी प्रोग्रामर के उद्देश्य के आगे के विकास के लिए.[5][7] स्पेस ट्रेवल खेल द्वारा प्रस्तुत किये गए PDP7 पर, थॉमसन और रिची ने, रुद्द कानाडे सहित विकासको के एक दल का नेतृत्व किया, बेल लेबोरेटरीज में. उन्होंने एक वर्गीकृत संचिका तंत्र विकसित किया, कंप्यूटर प्रक्रिओं और उपकरण फ़ाइलओं के विचार और एक कमांड-लाइन दुभाषिया, और कुछ छोटे उपयोगिता प्रोग्रामस[2] 1970 का दशक[संपादित करें] 1970 दशक में ब्रायन केरनिघन ने युनिक्स नामक परियोजना खोजी युनिप्लेक्सड सूचना और कंप्यूटिंग सेवा के लिए, मल्टिक्स पर खेल (मल्टीप्लेक्सड सूचना और कंप्यूटिंग सेवा). युनी और मल्टी उपसर्गों को देखें परिचालन तंत्र एक साथ कई उपयोगकर्ताओं का समर्थन कर सकते हैं, इसलिए जब युनिक्स अंततः दो उपयोगकर्ताओं को एक साथ समर्थन दे सका, इसका पुनःनामकरण युनिक्स किया गया था। इस क्षण तक बेल लेबोरेटरीज से कोई वित्तीय सहायता नहीं दी गई थी। जब कंप्यूटर विज्ञान अनुसंधान समूह चाहते थे कि युनीक्स का उपयोग PDP-7 से भी एक बहुत बड़ी मशीन के लिए हो, थॉमसन और रिची ने वादा व्यापार में पाठ प्रसंस्करण क्षमता के लिए युनिक्स को PDP-11/20 मशीन से जोड़ने का प्रबंध किया। इसने बेल से कुछ वित्तीय सहायता के लिए बाध्य किया। पहली बार 1970 में, यूनिक्स परिचालन तंत्र का आधिकारिक नामांकित किया गया और PDP-11/20 पर चलाया गया था। इसने एक पाठ स्वरूपण क्रमादेश जोड़ा जिसे रोफ्फ़ और पाठ संपादक कहते हैं। सभी तीन PDP-11/20 असेम्बली भाषा में लिखे गए। बेल लैब्स ने यूनिक्स, रोफ्फ़ और संपादक से बने इस प्रारंभिक "पाठ संसाधन प्रणाली" को प्रत्यक्ष अनुप्रयोगों के पाठ संसाधन के लिए इस्तेमाल किया। रोफ्फ़ जल्दी ही ट्रोफ में विकसित हो गया, पूर्ण क्षमता के साथ टाइप स्थापित करने वाला, पहला इलेक्ट्रोनिक प्रकाशन कार्यक्रम. युनिक्स कार्यक्रम की नियम पुस्तक 3 नवम्बर 1971 में प्रकाशित हुई थी। 1973 में, यूनिक्स C प्रोग्रामिंग भाषा में पुन: लिखा गया, इस समय की आम धारणा के विपरीत "कि परिचालन तंत्र जितना जटिल कुछ, जिसे समय महत्वपूर्ण घटनाओ के साथ काम करना हो, केवल कोडांतरण भाषा में लिखा होना चाहिए."[9] कोड़ातरन भाषा से उच्च स्तर की भाषा C के पलायन के परिणामस्वरूप अधिक पोर्टेबल सॉफ्टवेयर आया, जिसमें मशीन निर्भर कोड कि केवल एक अपेक्षाकृत छोटे जोड़ की आवश्यकता होती है जिसे तब बदलना होता है जब यूनिक्स को अन्य कमप्यूटिंग प्लेटफार्मों पर ले जाना हो. AT एंड T यूनिक्स विश्वविद्यालयों और व्यावसायिक फर्मों के लिए उपलब्ध करवाई गयी है, साथ ही साथ लाइसेंस के अधीन संयुक्त राज्य सरकार के लिए. लाइसेंस में कर्नेल के मशीन आश्रित भागों सहित सभी स्त्रोत कोड भी शामिल थे, जो PDP-11 कोड़ातरण में लिखे गए थे। एनोटेट Unix कर्नेल के सूत्रों की प्रतियां देर 1970 के दशक में न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय के जों लिओंस की बहुत नक़ल की हुई पुस्तक द लिओंस कोमेंट्री ऑन यूनिक्स 6वें संस्करण स्त्रोत कोड सहित व्यापक रूप में परिचालित की गई, जिसके परिणामस्वरूप यूनिक्स का व्यापक उपयोग हुआ, शैक्षणिक उदाहरण के रूप में. यूनिक्स प्रणाली के संस्करण के उपयोगकर्ता नियम-पुस्तक के संस्करण द्वारा निर्धारित किये गए। उदाहरण के लिए, "पांचवें संस्करण यूनिक्स" और "यूनिक्स संस्करणः 5" दोनों को एक ही संस्करण नामित किया गया है। सन 1975 तक 4, 5 और 6 संस्करण के जारी होने के साथ ही विकास विस्तृत हो गया। इन संस्करणों ने पाइपों की अवधारणा को जोड़ दिया जिससे एक और मॉड्यूलर कोड आधार और तेज विकास चक्र की ओर अग्रसर हुए. 5 संस्करणः और विशेष रूप से संस्करणः 6 के साथ ही बेल लेबोरट्रिस के अंदर ओर बाहर दोनों पी PWB/यूनिक्स ओर प्रथम वनिज्यिकी यूनिक्स, IS/1 सहित, यूनिक्स के संस्करणों का अतिरिक्त प्रवाह हो गया। जैसे जैसे C में और यूनिक्स पुन: लिखे गये पोर्टेबिलिटी भी बढ़ती गई। वॉलोन्गॉन्ग विश्वविद्यालय में एक समूह यूनिक्स को इंटर डाटा 7/32 में ले गया। बेल लैब्ज़ ने अनुसंधान प्रयोजनों और AT & T में आंतरिक उपयोग के लिए कई बंदरगाह विकसित किये. लक्ष्य मशीन एक इंटेल 8,086 आधारित कम्प्यूटर (कस्टम के साथ MMU निर्मित) और UNIVAC 1100.[4] मई 1975 में, ARPA ने यूनिक्स समय सहभाजन प्रणाली के लाभ का दस्तावेज बनाया जो "कई रोचक क्षमताओं को प्रस्तुत करता है" RFC 681 में एक अरपा नेटवर्क मिनी मेज़बान के रूप में. 1978 में, UNIX/32V तब DEC की नए VAX प्रणाली के लिए जारी की गई। इस समय तक 600 से अधिक मशीनों में किसी रूप में यूनिक्स चल रहा था। संस्करण 7 यूनिक्स, अनुसंधान यूनिक्स का अंतिम संस्करण 1979 में व्यापक रूप से जारी किया गया। संस्करण 8, 9 और 10 1980 के दशक के माध्यम से विकसित किये गए, लेकिन कुछ ही विश्वविद्यालयों को जारी किए गए थे, हालांकि उन्होंने नए काम का वर्णन करते हुए कागजात उत्पन्न किये है। इस अनुसंधान ने, बेल लैब्ज़ की योजना 9 को, एक नये पोर्टेबल वितरित प्रणाली की विकास की ओर अग्रसर किया। 1980 का दशक[संपादित करें] एक X विंडो प्रणाली ग्राफिकल यूजर इंटरफेस चलाता यूनिक्स डेस्कटॉप.टॉम विंडो प्रबंधक, X टर्मिनल, Xbiff, xload और एक ग्राफिक मैनुअल पृष्ठ ब्राउज़र सहित MIT X कोंसोर्टियम वितरण के लिए आम ग्राहक आवेदनों की एक संख्या दिखाई है। AT एंड T ने वाणिज्यिक उपयोग के लिए मोटे तौर पर 7 संस्करणः के आधार पर पहला संस्करण 1982 में करने के लिए यूनिक्स प्रणाली III को लाइसेंस दिया. इसमें VAX के लिए समर्थन भी शामिल है AT एंड T के लिए पुराने यूनिक्स संस्करणों के लिए लाइसेंस वितरण करना जारी रखा. अपने सभी आन्तरिक भिन्न संस्करणों के बीच भ्रम की स्थिति का अंत करने के लिए AT एंड T ने उन्हें यूनिक्स प्रणाली V रिलीस 1 में सम्मलित कर दिया. इस ने केल्फोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले में यूनिक्स द्वारा विकसित बर्कले सॉफ्ट वेअर वितरण vi सम्पादक और कर्सिस आदि कुछ विशेषताएँ प्रस्तुत की. इसमें मशीनों की वेस्टर्न इलेक्ट्रिक 3B श्रृंखला के लिए समर्थन शामिल हैं। चूंकि नए व्यापारिक यूनिक्स लाइसेंस शर्तें यूनिक्स के पुराने संस्करणों के रूप में शैक्षणिक उपयोग के लिए अनुकूल नहीं थे, बर्कले शोधकर्ताओं को यूनिक्स प्रणाली III और V, के लिए एक विकल्प के रूप में मूल रूप से PDP 11 वास्तु कला पर BSD यूनिक्स का विकास जारी रखा.(2xBSD विज्ञप्ति, 2.11BSD के साथ समाप्त) और बाद में VAX-11 के लिए (4.x BSD निर्मोचन). यूनिक्स के लिए कई योगदान पहले बीएसडी विज्ञप्ति पर दिखाई दिया, विशेष रूप से C शेल पर काम पर नियंत्रण के साथ (ITS पर मॉडलिंग). शायद BSD विकास के प्रयासों का सबसे महत्वपूर्ण पहलू TCP/IP नेटवर्क कोड यूनिक्स कर्नेल की मुख्य धारा में शामिल किया। BSD प्रयास ने कई महत्वपूर्ण विज्ञप्तियों का उत्पादन किया है जिनमें 4.1cBSD, 4.2BSD, 4.3BSD, 4.3BSD-Tahoe नेटवर्क कोड निहित हैं। ("तेहो" कम्प्यूटर कंसोल इंक का उपनाम पावर 6/32 अर्किटेकचर BSD कर्नेल की पहली गैर DEC विज्ञप्ति), नेट/1,4.3BSD-Reno ("तेहो नामकरण" मैच के लिए और विज्ञप्ति एक प्रकार का जुआ था), Net/2, 4.4BSD और 4.4BSD-lite. इन विज्ञप्ति में पाया नेटवर्क कोड आज बहुत उपयोग किये जाने वाले टीसीपी/आईपी नेटवर्क कोड का पूर्वज है, उस कोड सहित जो बाद में AT एंड T प्रणाली V UNIX और माक्रोसॉफ्ट विंडोस के प्रारम्भिक संस्करण में शामिल कर लिए गए थे। बर्कले सॉकेट के साथ API नेटवर्किंग के वास्तविक मानक हैं और बहुत से प्लेटफार्मों पर अनुकरण किये गए हैं। अन्य कंपनियों ने अपने मिनीकंप्यूटर और कार्यस्थलों के लिए यूनिक्स प्रणाली के व्यावसायिक संस्करण की पेशकश शुरू कर दी. इन नए यूनिक्स की झलक ज्यादातर सिस्टम V के आधार पर AT एंड T से एक लाइसेंस के अंतर्गत विकसित थे, इसकी बजाय अन्य बीएसडी पर आधारित थे। BSC के प्रमुख डेवलपर्समें से एक, बिल जोय ने 1982 में, सन माइक्रो सिस्टमस सह-स्थापित किया और उनके कार्य स्थल कंप्यूटर के लिए SunOS बनाया. 1980 में, माइक्रोसोफ्ट ने एकसएनिक्स (Xenix) नामक 16 बिट माईक्रोकम्प्यूटर के लिए अपने पहले यूनिक्स की घोषणा की. 1983 में सांताक्रूज ऑपरेशन(एससीओ) इंटेल 8086 संसाधक मोड़ा गया और अंतत 1989 में एक्स एनिक्स (Xenix) की शाखा SCO UNIX में बन गई। इस अवधि के दौरान कुछ वर्षों के लिए (पीसी अनुरूप एमएस- डॉस के कंप्यूटर प्रमुख बनने से पहले), उद्योग के पर्यवेक्षकों की उम्मीद थी कि यूनिक्स की, अपनी पोर्टेबिलिटी और प्रयाप्त क्षमताओं के साथ माईक्रोकम्प्यूटर्स के लिए उद्योग मानक परिचालन तंत्र बन जाने की संभावना थी।[5] 1984 कई कंपनियों में X/ओपन यूनिक्स प्रणाली पर आधारित विनिर्देशन बनाने के लक्ष्य के साथ सार्वजनिक संघ की स्थापना की. जल्दी प्रगति के बावजूद, मानकीकरण के प्रयास "यूनिक्स युद्ध" में ढह गई, विभिन्न कंपनियों के प्रतिद्वंद्वी मानकीकरण समूह बनाने के साथ. सबसे सफल यूनिक्स संबंधी मानक IEEE के POSIX विनिर्देशन में बदल गया, एक समझौते के अकार में API ने तत्काल दोनों BSD और सिस्टम V प्लेटफार्मों पर लागू कर दिया, 1988 में प्रकाशित किये अपने कई सिस्टम के लिए जल्दी ही संयुक्त राज्य अमेरिका सरकार द्वारा सौंपा गया। AT&T ने यूनिक्स V प्रणली में ताला फ़ाइल के रूप में विभिन्न विशेषताओं जैसे सिस्टम प्रशासन स्ट्रीम्स IPC के नए रूपों, दूरस्थ फाइल व्यवस्था और टीएलआई (TLI) सहित बहुत सी विशेषताओं को जोड़ा. AT एंड T ने सन माइक्रोसिस्टम्स के साथ काम करवाया और 1987 और 1989 के बीच क्सेनिक्स (Xenix), BSD, सनOS, सिस्टम V से विलय सुविधाओं को सिस्टम V रिलीज़ 4 (SVR4) में X/ओपन के स्वतंत्र रूप से मिला दिया. इस नए रिलीज ने पिछली सभी सुविधाओं को एक पैकेज में समेकित कर दिया और प्रतिस्पर्धा संस्करणों के अंत की शुरुआत हुई. इससे लाइसेंस फीस की भी वृद्धि हुई. इस समय के दौरान कई विक्रेता डिजिटल उपकरण, सूर्य, अदामक्स(addamax) और अन्य ने यूनिक्स के विश्वसनीय संस्करणों का निर्माण शुरू कर दिया उच्च सुरक्षा आवेदनों के लिए, जिनमें ज्यादातर नमूने सेना और कानून प्रवर्तन आवेदनों के थे। 1990 का दशक[संपादित करें] 1990 में ओपन सॉफ्ट वेअर फाउंडेशन ने ओएसऍफ़/1 (OSF/1) जारी किया मेक और BSD पर आधारित उनका मानक यूनिक्स कार्यान्वयन. फाउंडेशन 1988 में शुरू हुआ और कई यूनिक्स संबंधित कम्पनियों द्वारा पोषित किया गया जो एसवीआर4 (SVR4) पर AT एंड T और सन के सहयोग का विरोध करते थे। बाद में, AT&T और अन्य लाइसेंसधारियों के समूह ने OSF का विरोध करने के उद्देश्य से एक ग्रुप बनाया "यूनिक्स इंटरनेशनल". विक्रेताओं की प्रतिस्पर्धा के बीच संघर्ष ने फिर से इस वाक्यांश "यूनिक्स युद्ध" को वृद्धि दी. 1991 में, BSD विकासक के एक समूह डोन सिले, माइक करेल्स, बिल जोलित्ज़ और ट्रेंट हेन ने बर्कले सॉफ्टवेयर डिजाइन, इंक की स्थापना करने के लिए कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय छोड़ दिया. BSDI यूनिक्स की एक पूरी तरह कार्यात्मक सस्ती और सर्वव्यापी इंटेल मंच है, जिसने उत्पादन की गणना के लिये कम खर्चीली हार्डवेयर का उपयोग करने के लिए; दिलचस्पी की एक लहर शुरू की. इसके स्थापित होने के कुछ ही समय बाद, बिल जोलिट्ज़ ने 386BSD वितरण का पीछा करने के लिये BSD को छोड़ दिया, फ्री BSD, ओपन BSD और नेट BSD का मुफ्त सॉफ्ट वेअर पूर्वज. 1993 तक सबसे वाणिज्यिक विक्रेताओं ने यूनिक्स के अपने संस्करण को बदल दिया था, सिस्टम V पर आधारित कई BSD सुविधाओं के साथ शीर्ष पर जोड़ कर. कोस (COSE) के निर्माण के प्रस्ताव से उस साल यूनिक्स के प्रमुख खिलाडियों द्वारा युद्ध के सबसे कुख्यात चरण का अंत हो गया और उसके बाद 1994 में युआई (UI) और ओएसऍफ़ (OFS) का विलय हो गया। नई संयुक्त इकाई, जिसका नाम ओएसऍफ़ (OSF) रखा गया उस साल ओएसऍफ़/1 (OSF/1) पर काम करना बंद कर दिया. उस समय केवल डिजिटल विक्रेता इसेका उपयोग कर रहे थे जिन्होंने अपना विकास जारी रखा, जल्दी 1995 में अपना उत्पाद डिजिटल यूनिक्स पुन:चिन्हित किया। कुछ ही समय बाद यूनिक्स प्रणाली V रिलीज4 का उत्पादन हुआ, AT&T ने अपने सभी अधिकार यूनिक्स से नोवेल को बेच दिए . डेनिस ने इसकी उपमा बाइबल की कहानी एसाव के साथ की अपना जन्मसिद्ध अधिकार कहावत "मेस ऑफ़ पोटेज" के लिए बेचने के लिए.[6] नोवेल ने अपना संस्करण, "यूनिक्सवेअर" का विकास इसके नेटवेअर को यूनिक्स प्रणाली रिलीस 4 के साथ विलय करते हुए किया। नोवेल ने इसे विंडोस NT के खिलाफ लड़ाई के लिए इसका उपयोग करने का प्रयतन किया, लेकिन उनको मुख्य बाजारों में काफी कष्ट का सामना करना पड़ा. 1993 में नोवेल ने यूनिक्स के ट्रेडमार्क और प्रमाणिकता का अधिकार एक्स ओपन (X/open) संघ को हस्तांतरित करने का फैसला किया।[7] 1996 में, एक्स ओपन (X/open) ओपन समूह बनाते हुए OSF के साथ विलय हो गया। ओपन समूह में अब विभिन्न मानक यह परिभाषित करते थे कि यूनिक्स परिचालन तंत्र क्या है और क्या नहीं, विशेषकर 1998 के बाद, एकल यूनिक्स विशिष्टता. 1995 में प्रशासन और मौजूदा यूनिक्स लाइसेस का समर्थन करते हुए साथ ही सिस्टम वी कोड आधार को आगे विकसित करने का अधिकार नोवेल द्वारा सांताक्रूज़ ऑपरेशन को बेच दिया गया।[8] क्या नोवेल ने भी नक़ल का अधिकार (कॉपीराईट) बेचा यह वर्तमान में मुकद्दमे का विषय है (नीचे देखें). 1997 में, एपल कम्प्यूटर्स ने मेकिन्तोस परिचालन तंत्र के लिए एक नई नीव की मांग की और नेक्स्ट द्वारा विकसित एक परिचालन तंत्र नेक्स्ट स्टेप (NEXTSTEP) को चुना. यह मूल परिचालन तंत्र BSD और मेक कर्नेल पर आधारित था और एपल के अधिग्रहण के बाद इसका नाम डार्विन रख दिया गया। मैक OS X में डारविन के परिनियोजन से ऐसा हुआ। युसेनिक्स (USENIX) सम्मेलन में एक एपल कर्मचारी द्वारा दिए गये बयान के अनुसार डेस्कटॉप कम्प्यूटर बाज़ार में सबसे व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाने वाली यूनिक्स आधारित प्रणाली. 2000 का दशक[संपादित करें] सन् 2000 में एससीओ (SCO) ने अपना पूरा यूनिक्स व्यापर और सम्पति काल्डेरा प्रणाली को बेच दी जिससे बाद में इसका नाम SCO समूह कर दिया. डॉट-कोंम बब्ल (2001-2003) यूनिक्स के संस्करणों को महत्वपूर्ण समेकन की और ले गए। यूनिक्स की बहुत से व्यापारी रुचियों में से, जो कि 1980 में उत्पन्न हुई थी केवल सोलारीज,HP-UX और AIX अभी भी बाज़ार मैं अपेक्षाकृत अच्छा कर रहीं है हालाँकि SGI की IRIX कुछ समय के लिए बनी रही. इनमें से, सोलारीज का बाज़ार में सबसे बड़ा हिस्सा है।[9] सन् 2003 में SCO समूह ने विभिन्न उपयोगकर्ताओं और लिनिक्स के विक्रेताओं के खिलाफ कानूनी कार्रवाई शुरू कर दी. SCO ने आरोप लगाया कि लिनिक्स के पास यूनिक्स कोड के बहुत से नक़ल के अधिकार (कोपीराईट) है जिन पर अब SCO का स्वामित्व है। अन्य आरोपों में IBM द्वारा व्यापर रहस्यों का उलंघन करना, या संता क्रूज़ के पूर्व ग्राहकों, जो अब लिनिक्स कि तरफ परिवर्तित हो चुक हैं, द्वारा अनुबंध का उलंघन करना. हालांकि, नोवेल ने यूनिक्स स्त्रोत पर आधारित SCO समूह का कॉपीराईट दावा विवादित बताया. नॉवेल के अनुसार, SCO (और फिर SCO समूह) प्रभावी ढंग से नॉवेल के विशेष विक्रय के प्रचारक थे, जिसने भीतरी कोपीराईट, SCO की भविष्य की गतिविधियों पर वीटो का अधिकार और लाइसेंसिंग राजस्व के 95% को भी कायम रखा. SCO समूह इसके साथ सहमत नहीं है और इस विवाद का परिणाम SCO और नॉवेल के बीच मुकद्दमा है। 10 अगस्त 2007, मामले का एक बड़ा हिस्सा (इस तथ्य पर कि नोवेल यूनिक्स के लिए कॉपीराइट था एससीओ समूह ने नॉवेल के पैसे को अनुचित तरीके से रखा था) नोवेल पक्ष में निर्णय लिया गया। अदालत ने फैसला सुनाया कि "SCO नॉवेल के परित्याग को पहचानने के SCO के IBM और सिकेन्ट के दावे के लिए बाध्य नहीं है". निर्णय के बाद, नोवेल ने घोषणा की और कहा कि उन्हें यूनिक्स के लोगों पर मुकदमा करने में कोई दिलचस्पी नहीं है, हम विश्वास नहीं करते कि यहाँ लिनक्स में यूनिक्स है।[10][11][12] SCO ने 24 अगस्त 2009 को सर्किट कोर्ट के पास दसवी अपील की, यह निर्णय करने के लिए जिसमें मुकदमा वापिस अदालत में भेजा जाए.[13][14][15] इन्हें भी देखें: SCO-Linux controversies सन 2005 में, सन माइक्रोसिस्टम्स ने अपने सोलारिस सिस्टम संकेत का परिमाण (यूनिक्स प्रणाली V रिलीस 4 पर आधारित) एक ओपनसोलारिस नामक खुले स्त्रोत परियोजन में जारी किया। न्यू सन OS तकनीकें अब पहले खुले स्त्रोत संकेत के रूप में ओपनसोलारिस परियोजना के माध्यम से ZFS फ़ाइल प्रणाली के रूप में जारी की जाती हैं; 2006 के अनुसार ओपन सोलारिस ने स्किलिक्स (SchilliX), बेलेनिक्स (Belenix), नेक्सता (Nexenta), जारिस ओएस (Jaris OS) और मर टक्स (MarTux) के रूप में कई गैर सन वितरक पैदा किये हैं। मानक[संपादित करें] 1980 के दशक के देर से एक खुला परिचालन तंत्र मानकीकरण, अब पोसिक्स (POSIX) के नाम से जाना जाने वाला, सभी परिचालन तंत्रों के लिए आम आधाररेखा प्रदान करने का प्रयास करता है। यूनिक्स प्रणाली के प्रमुख प्रति स्पर्धी किस्मो में आईईई(IEEE) आधारित पोसिक्स लगभग साधारण संरचना 1988 में पोसिक्स के प्रथम संस्करण में प्रकाशित किया गया। 1990 के दशक में एक अलग लेकिन काफी इसी तरह का प्रयास एक उद्योग संघ द्वारा शुरू किया था, साझा मुक्त सॉफ्टवेयर पर्यावरण कोस (COSE) की पहल है, जो अंततः ओपन समूह द्वारा प्रशासित एकल यूनिक्स विशिष्ठता बन गया। पोसिक्स (POSIX) और एकल यूनिक्स विशिष्टता को एक आम परिभाषा प्रदान करने के लिए 1998 में ओपन समूह और IEEE ने ऑस्टिन समूह शुरू किया। संगतता के लिए एक प्रयास में, 1999 में कई यूनिक्स प्रणाली विक्रेताओं में दोहरी और वस्तु संकेत फ़ाइलों के लिए मानक के रूप में SVR4 निष्पादन योग्य और संपर्क योग्य स्वरूप (ELF) पर सहमति व्यक्त की. आम प्रारूप, एक ही CPU वास्तुकला पर परिचालित यूनिक्स सिस्टम के बीच ठोस दोहरी संगतता की अनुमति देता है। फ़ाइल-सिस्टम अनुक्रम मानक, यूनिक्स-जैसे परिचालन तंत्र, विशेषकर लिनिक्स, के लिए सन्दर्भ निर्देशिका लेआउट प्रदान करने के लिए बनाया गया था। घटक (अवयव)[संपादित करें] इन्हें भी देखें: List of Unix programs यूनिक्स प्रणाली कई घटकों से बनी है जो कि आम तौर पर एक साथ पैक किये जाते है। परिचालन तंत्र के कर्नेल के अतिरिक्त - विकास पर्यावरण, पुस्तकालयों, दस्तावेजों और वहनीय, परिवर्तनीय स्त्रोत संकेत सहित इन सब घटकों के लिए, यूनिक्स एक आत्म समाहित सॉफ्टवेअर प्रणाली है। एक महत्वपूर्ण अध्यापन और शिक्षण उपकरण के रूप में उभरने का एक मुख्य कारण यह है और इसका व्यापक प्रभाव है। इन घटकों के शामिल किए जाने से प्रणाली बड़ी नहीं बनी - मूल V7 यूनिक्स वितरण, संकलित युग्मक की सभी प्रतियाँ, साथ ही सभी स्त्रोत संकेत और दस्तावेज़ 10 MB से कम भरे हुए और एकल 9 ट्रेक चुम्बकीय टेप पर पहुंचे। मुद्रित दस्तावेज़ीकरण, ऑनलाइन स्रोतों से टाईपसेट, दो संस्करणों में निहित थी। नाम और यूनिक्स घटकों के फ़ाइल व्यवस्था स्थिति ने प्रणाली के इतिहास को काफी बदल दिया है। फिर भी, V7 कार्यान्वयन कई द्वारा विचार के लिए विहित प्रारंभिक संरचना है: कर्नेल - स्रोत कोड में/यूजर/सिस, कई उप घटकों से बना हुआ। कोंफ - विन्यास और मशीन निर्भर भाग, बूट कोड सहित देव - हार्डवेयर के नियंत्रण के लिए यंत्र चालक (और कुछ छद्म हार्डवेयर) सिस - परिचालन तंत्र "कर्नेल", स्मृति प्रबंधन, प्रक्रिया अनुसूचन, प्रणाली निरिक्षण आदि का सञ्चालन. ह - हेडर फाइलें, प्रणाली महत्वपूर्ण संरचनाओं को और महत्वपूर्ण प्रणाली विशेष को सदा एक सा परिभाषित करना. विकास पर्यावरण - यूनिक्स के प्रारंभिक संस्करणों के विकास के लिए पर्याप्त परिवेश को सम्मिलित करने के स्रोत कोड से पूरी प्रणाली फिर से बनाना. सीसी - C भाषा संकलक (पहले V3 यूनिक्स में प्रकाशित) एएस - मशीन-भाषा मशीन के लिए कोडांतरक आईडी - वस्तु फ़ाइलों के संयोजन के लिए संयोजक. लिब - वस्तु-कोड पुस्तकालयों (में स्थापित/लिब्स या/युसर/लिब) लिब्स सी चलाने के समय के साथ समर्थन प्रणाली पुस्तकालय, प्राथमिक पुस्तकालय था, लेकिन वहाँ हमेशा ऐसी बातों के लिए जैसे गणितीय कार्य लिब्म या डेटाबेस का उपयोग करने के लिए अतिरिक्त पुस्तकालय होते हैं। V7 यूनिक्स आधुनिक "मानक I/O" का पहले संस्करण पेश किया पुस्तकालय प्रणाली के भाग के रूप में पुस्तकालय स्टडियो . बाद में परिपालन करने से पुस्तकालयों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। मेक - प्रबंधक का निर्माण (PWB/UNIX में प्रस्तुत), निर्माण प्रबंधन को प्रभावी रूप से स्वचालित बनाने के लिए. शामिल है - सॉफ्टवेयर के विकास के लिए शीर्षक फ़ाइलें, मानक अन्तरापृष्ठ (interfaces) और परिवर्तनीय प्रणाली परिभाषित करते हुए. अन्य भाषाएँ - V7 यूनिक्स में फोरट्रान-77 संकलक सम्मिलित, एक कार्यक्रम करने योग्य अनियंत्रित सूक्षम कैलकुलेटर (बीसी, डीसी) और ऑक (awk) भाषा पटकथा और बाद के संस्करण और परिपालन अन्य कई भाषा संकलनकर्ता और उपकरण सेट समाहित होते हैं। प्रारम्भिक BSD में पास्कल उपकरण, विज्ञप्ति भी शामिल और बहुत से आधुनिक यूनिक्स प्रणालियों को GNU संकलन संग्रह या इस के बजाय एक स्वामित्व संकलक प्रणाली के रूप में शामिल है। अन्य उपकरण - एक वस्तु-कोड संग्रह प्रबंधक (ए आर), प्रतीक सारणी भरती करनेवाला (एनएम), संकलक विकास उपकरण सहित लेक्स और याक और दोषमार्जन जैसे उपकरण. आज्ञा - यूनिक्स आदेश के बीच थोडा अंतर रखता है (उपयोगकर्ता स्तर के कार्यक्रम) प्रणाली संचालन और रखरखाव (जैसे करोंन), सामान्य उपयोगिता का आदेश (जैसे ग्रेप) और सामान्य प्रयोजन-अनुप्रयोगों जैसे पाठ सरुपन टाइपसेटिंग पैकेज के रूप में. फिर भी, कुछ प्रमुख श्रेणियां हैं: श - "शेल" प्रोग्राम कमांड लाइन दुभाषिया यूनिक्स पर प्राथमिक इंटरफ़ेस उपयोगकर्ता विंडो प्रणाली के प्रकट होने से पहले और बाद में भी (एक "कमांड विंडो" के भीतर). उपयोगिताएँ - यूनिक्स आदेश सेट की मूल उपकरण किट सीपी, एलएस, गरेप, फाइन्ड और कई अन्य सहित. उपश्रेणियों में शामिल हैं। प्रणाली उपयोगिताएं - प्रशासनिक उपकरण जैसे कि एमकेऍफ़एस, ऍफ़एससीके और कई अन्य. उपयोगकर्ता उपयोगिताएं - पर्यावरण प्रबंधन उपकरण जैसे कि पासवार्ड, किल व अन्य. दस्तावेज़ स्वरूपण - यूनिक्स प्रणालियां दस्तावेज़ तैयार करने और टाइप तैयार करने की प्रणाली के लिये उपयोग करते थे और इसमें बहुत से सम्बंधित कार्यक्रम शामिल होते थे जैसे न्रोफ़ (nroff), ट्रोफ (tr off), टेबल (tbl), ईक्युएन (enq), रेफर (refer) और पिक (pic). कुछ आधुनिक यूनिक्स प्रणालियों भी ऐसे टेक्स (TeX) और घोस्ट स्क्रिप्ट (Ghostscript) संकुल (पैकेज) के रूप में शामिल हैं। ग्राफिक्स - प्लाट उपतंत्र ने सरल वेक्टर प्लाट को उत्पन्न करने की, एक स्वतंत्र यंत्र प्रारूप में दुभाषिये सहित, ऐसी फाइलें प्रदर्शित करने के लिए सुविधाएँ प्रदान की. आधुनिक यूनिक्स प्रणालियों भी आमतौर पर एक मानक विंडोइंग प्रणाली और GUI के रूप में X11, शामिल करती है और कई ओपन GL का समर्थन करते हैं। . संचार - अर्ली यूनिक्स प्रणालियों में कोई अंतर संचार प्रणाली शामिल नहीं है, लेकिन क्या अंतर उपयोगकर्ता संचार कार्यक्रम मेल और लिखना शामिल हैं। V7 जल्दी अंतर प्रणाली संचार प्रणाली UUCP, प्रस्तुत की और बीएसडी रिलीज़ 4.1c साथ शुरू प्रणाली में TCP/IP सुविधाएं शामिल हैं। 'मेंन' (man) कमांड, सिस्टम पर, अपने सहित, किसी भी कमांड के लिए एक मैन्युअल पृष्ठ प्रदर्शन कर सकती हैं। दस्तावेज़ीकरण - यूनिक्स पहला परिचालन तंत्र है, जिसने अपने दस्तावेज़ीकरण ऑनलाइन मशीन में पठनीय रूप में शामिल किये. दस्तावेज में शामिल: मेन - हर कमांड के लिए नियम पुस्तक पृष्ठ, पुस्तकालय घटक, प्रणाली अधिकार, प्रवेशिका फ़ाइल, आदि डॉक - लम्बे दस्तावेज़ प्रमुख उप-प्रणाली का विस्तार करते हुए, जैसे कि सी भाषा और ट्रोफ . प्रभाव[संपादित करें] इन्हें भी देखें: Unix-like यूनिक्स प्रणाली का अन्य परिचालन तंत्रों पर महत्वपूर्ण प्रभाव था। इसने इसके द्वारा सफलता जीती: सीधा संपर्क. IBM और DEC जैसे व्यवसायों से पूरा नियंत्रण हट गया। AT&T सॉफ्टवेयर मुफ्त देने के लिए इच्छुक. सस्ते हार्डवेयर पर चल रहा है। अपनाने के लिए और विभिन्न मशीनों में ले जाने में आसान. यह असेम्बली भाषा की जगह उच्च स्तर की भाषा में लिखा गया (जो शुरुआती कंप्यूटर पर प्रणाली लागू करने के लिए आवश्यक सोचा था). हालांकि इसने मुल्टिक्स और बुरोस का नेतृत्व किया, लेकिन यह यूनिक्स ही था जिसने यह विचार लोकप्रिय किया। कई समकालीन परिचालन तंत्रों की तुलना में यूनिक्स की फ़ाइल काफी सरल थी, सभी प्रकार की फाइलों से सरल बाइट एरेस की तरह प्रबंध करते हुए. फ़ाइल प्रणाली में पदानुक्रम मशीन की सेवाएं और यंत्र (जैसे कि प्रिंटर, टर्मिनल या डिस्क ड्राइव) शामिल हैं, एक समान अंतरफलक उपलब्ध करते हुए, लेकिन कभी कभी अतिरिक्त तंत्र की आवश्यकता की कीमत पर जैसे कि आइओसटल (ioctl) और हार्ड वेअर की सुविधाओं के उपयोग के लिए फ्लेग मोड़ जो कि सरल मॉडल "स्ट्रीम ऑफ़ बाइट्स"में फिट नहीं बैठता. योजना 9 परिचालन तंत्र के इस मॉडल आगे बढ़ाया और अतिरिक्त व्यवस्था की आवश्यकता को समाप्त कर दिया. यूनिक्स ने भी, मूलत: मुल्टिक्स द्वारा प्रस्तुत, पदानुक्रमित संचिका तंत्र लोकप्रिय किया, स्वेच्छाचारी उप निदेशिका के साथ. युग की अन्य आम परिचालन तंत्र एकाधिक निर्देशिका या वर्गों के भंडारण के यंत्र को विभाजित थी, लेकिन उनके स्तरों की एक निश्चित संख्या थी, अक्सर केवल एक ही स्तर. कई प्रमुख स्वामित्व परिचालन तंत्रों ने अंततः पुनरावर्ती उपनिदेशिका क्षमताओं को जोड़ा और मुट्लिक्स के बाद भी आदर्श बने. DEC की RSX-11M की "समूह उपयोगकर्ता" पदानुक्रम VMS निदेशिका में विकसित, CP/M की संस्करण MS-DOS 2.0+निदेशिकाओं में विकसित और HP के MPE समूह गणनापदानुक्रम और IBM की SSP और OS/400 पुस्तकालय प्रणाली एक व्यापक फ़ाइल प्रणाली में जोड़े गये। आदेश (कमांड) दुभाषिया को एक आम प्रयोक्ता के स्तर के कार्यक्रम बनाना, अतिरिक्त आदेश प्रदान करके अलग कार्यक्रमों के रूप में, मुटिलिक्स की एक और नवीनता थी तो यूनिक्स के द्वारा लोकप्रिय की गई। यूनिक्स शेल पटकथा लेखन के लिए के रूप में इंटरएक्टिव आज्ञाओं के लिए एक ही भाषा का प्रयोग किया (शेल पटकथा IBM के JCL की तरह कोई अलग काम नियंत्रण भाषा नहीं थी). जब कि शेल और OS कमांड "सिर्फ एक और प्रोग्राम", थे, तो उपयोगकर्ता अपने शेल चुन सकते हैं (या लिख भी). शेल बदले बिना ही नई आज्ञा को जोड़ा जा सकता है। यूनिक्स की अभिनव कमांड लाइन सिंटेक्स निर्माता-उपभोक्त संसाधन (पाईपलाइन) की श्रृंखला बनाने के लिए व्यापक रूप से उपलब्ध एक शक्तिशाली प्रोग्रामिंग प्रतिमान (कोरोताइन्स) बनाया. बाद में कई कमांड लाइन दुभाषिय यूनिक्स शेल से प्रेरित हुए. यूनिक्स की सरल बनाने की एक मौलिक धारणा यह थी कि इसने लगभग सभी फ़ाइल स्वरूपों के लिए एएससीआईआई (ASCII) पाठ पर ध्यान केंद्रित किया। वहाँ यूनिक्स के मूल संस्करण में कोई "दोहरे" संपादक नहीं थे। पूरी प्रणाली मौलिक शेल कमांड पटकथा के समानुरूप बनाई गई। आई/ओ प्रणाली में आम भाजक बाइट था, "रिकॉर्ड पर आधारित" फाइल प्रणाली के विपरीत. लगभग सब कुछ का प्रतिनिधित्व करने के लिए पाठ पर ध्यान केंद्रित करने ने यूनिक्स पाइपो को विशेष रूप से उपयोगी बनाया है और सरल, सामान्य उपकरणों का विकास को प्रोत्साहित किया जो कि आसानी से संयुक्त हो कर तदर्थ अधिक जटिल कार्य कर सकते हैं। पाठ और बाइट्स पर ध्यान देने प्रणाली, अन्य प्रणालियों से अधिक परिमाप्य और वहनीय बन गई। समय के साथ, पाठ आधारित अनुप्रयोग भी आवेदन क्षेत्रों में लोकप्रिय साबित हुए है जैसे कि मुद्रण भाषाओं (पोस्टस्क्रिप्ट, ODF) के रूप में और इंटरनेट प्रोटोकॉल के अनुप्रयोग परत में, जैसे, टेलनेट (telnet), ऍफ़टीपी (FTP), एसएसएच (SSH), एसएम्टीपी (SMTP), एचटीटीपी (HHTP), एसओएपी (SOAP) और एसआईपी(SIP). यूनिक्स ने नियमित अभिव्यक्ति के लिए व्यापक उपयोग किये जाने वाले वाक्यविन्यास को लोकप्रिय किया है। यूनिक्स प्रोग्रामिंग अंतरफलक एक व्यापक रूप से लागू किया परिचालन तंत्र अंतरफलक मानक के लिए आधार बन गया। (पोसिक्स (POSIX) उपर देखें) C प्रोग्रामिंग भाषा जल्दी यूनिक्स के बाहर फैल गई और अब प्रणालियों और अनुप्रयोग प्रोग्रामिंग में हर जगह है। आरम्भिक यूनिक्स विकासक सोफ्टवेअर इंजिनयरिंग व्यवहार में प्रतिरुपकता और पुन: उपयोग करने योग्य की अवधारणाएं लाने में महत्वपूर्ण थे, एक "सोफ्टवेअर उपकरण" पैदा करने का आन्दोलन. यूनिक्स ने TCP/IP नेटवर्किंग मूल लिपि में अपेक्षाकृत सस्ते कम्प्यूटर प्रदान किये, जिसने दुनिया भर में वास्तविक समय के साथ जोड़ने में इंटरनेट धमाके का योगदान दिया और जिसने कई और प्लेटफार्म पर लागू का आधार बनाया. इसने नेटवकिंग परिपालन की सुरक्षा में कई खामियां उजागर की. व्यापक ऑनलाइन प्रलेखन (और कई वर्षों के लिए) सभी प्रणाली स्त्रोत संकेत का उपयोग करने की आसान पहुँच ने प्रोग्रामर की उम्मीदें बढ़ा दी और 1983 के स्वतंत्र सोफ्टवेअर आन्दोलन की शुरुआत में योगदान दिया. समय के साथ, यूनिक्स के प्रमुख विकासकों (और प्रोग्राम जो इस पर चलते थे), ने सॉफ्टवेयर का विकास करने के लिए सांस्कृतिक मानकों के सेट की स्थापना की. मानक इतने महत्वपूर्ण और प्रभावशाली बन गये जितनी यूनिक्स की अपनी तकनीक है, इसे यूनिक्स धारणा करार दिया गया। यूनिक्स की तरह स्वतंत्र परिचालन तंत्र[संपादित करें] 1983 में, रिचर्ड स्टालमेन ने यूनिक्स प्रणाली जैसा मुक्त सोफ्टवेअर बनाने का महत्वकांक्षी प्रयास करते हुए GNU परियोजना की घोषणा की, "मुक्त" उसमें जो कोई भी एक प्रति प्राप्त करता है, इसे उपयोग, अध्ययन, संशोधित करने और पुन:वितरित करने के लिए स्वतंत्र होगा. GNU परियोजना की ही कर्नेल विकास परियोजना, GNU हर्ड ने कार्य करने का कर्नेल उत्पन्न नहीं किया लेकिन 1992 में लिनुस टोर्वाल्ड ने GNU जनरल पब्लिक लाइसेंस के तहत मुक्त सोफ्टवेअर के रूप में लिनक्स कर्नेल का विमोचन किया। GNU/लिनक्स परिचालन तंत्र, में उनके उपयोग के अलावा, कई GNU संकुल - जैसे GNU संकलन संग्रह (और शेष GNU उपकरण श्रृंखला) GNU सी पुस्तकालय और GNU मूल सुविधाएं - अन्य मुक्त यूनिक्स प्रणालियों में भी केंद्रीय भूमिका निभाने पर चले गए हैं। लिनक्स वितरण, लिनक्स और अनुकूल सॉफ्टवेयर के बड़े संग्रह जो कि व्यक्तिगत उपयोगकर्ताओं और व्यापार दोनों में लोकप्रिय हो गए हैं। लोकप्रिय वितरण रेड हेट इंटरप्राइज़ लिनक्स, फेडोरा SUSE लिनक्स इंटरप्राइज़, ओपन SUSE, डेबियन GNU/लिनक्स, उबुन्तु, मान्द्रिवा लिनक्स, स्लेक वेअर लिनक्स और गेंटू शामिल हैं। एक मुक्त व्युत्पन्न BSD यूनिक्स, 368BSD 1992 में जारी किया गया था और नेट BSD और मुक्त BSD परियोजनाओं का अग्रणी बना. 1994 में मुकद्दमें के निपटने के साथ यूनिक्स प्रणाली प्रयोगशालाएँ केलिफोर्निया विश्व विद्यालय और बर्कले सोफ्ट वेअर डिजाइन इंक के खिलाफ लायी गयी। (USL v. BSDi), यह स्पष्ट किया गया कि बर्कले मुफ्त BSD यूनिक्स वितरण अधिकार रखता है - यदि वह इच्छुक हो तो. तब से, BSD यूनिक्स ओपन BSD और ड्रेगनफ्लाई BSD सहित कई अलग अलग दिशाओं में विकसित हो चुकी है। लिनक्स और BSD अब स्वामित्व यूनिक्स परिचालन तंत्र द्वारा कब्जा किये हुए बाज़ार पर परंपरागत रूप तेजी से कब्जा कर रही है, साथ ही उपभोक्ता डेस्कटॉप और मोबाइल और सन्निहित उपकरणों के रूप में नए बाजार में विस्तार कर रही है। यूनिक्स डिजाइन की प्रतिरूपकता के कारणअंश सहभाजन और टुकड़े अपेक्षाकृत आम है, परिणामस्वरूप अधिकांश या सभी यूनिक्स और यूनिक्स-जैसी प्रणालियाँ कम से कम कुछ बीएसडी कोड और आधुनिक प्रणालियाँ भी आम तौर पर अपने वितरण में कुछ जीएनयु सुविधाएं शामिल करती हैं। 2038[संपादित करें] मुख्य लेख : Year 2038 problem यूनिक्स स्टोर प्रणाली 1 जनवरी 1970 आधी रात से सेकण्ड की संख्या के रूप में समय का मूल्य करती है, ("यूनिक्स काल") अनित्य प्रकार के समय टी, एतिहासिक रूप से परिभाषित "साइंड 32-बिट इन्टेंजर". 19 जनवरी 2038 को वर्तमान समय के एक 31 एक (0x7FFFFFFF के साथ और 31 शून्य 0x80000000 जो वर्ष 1901 या 1970 पर समय को फिर से सेट करेगा कार्यान्वित पर निर्भर करते हुए क्योंकि यह हस्ताक्षर का अंश. जैसे कि कई आवेदन तिथि की गणना के लिए ओएस पुस्तकालय दिनचर्या का उपयोग करते हैं, इसका प्रभाव,2038 के पहले से महसूस किया जा सकता है, उदाहरण के लिए, 30 साल के लिए बंधक गणना वर्ष 2008 के शुरू में गलत की जा सकती है। 1970 के पहले के समय में शायद ही कभी यूनिक्स समय ने प्रतिनिधित्व किया हो, एक संभव समाधान जो मौजूदा दोहरे प्रारूप के साथ संगत है टाइम_टी को "अहस्ताक्षरित 32-बिट एंटेंजेर के रूप में फिर से परिभाषित किया जा सकता है। हालांकि, ऐसे कलज ने समस्या को केवल 7 फ़रवरी 2106 तक आगे बढ़ा सकते हैं, और सॉफ्टवेयर में बग प्रस्तुत कर सकते हैं जो समय के दो सेट के बीच मतभेद की तुलना कर सके. कुछ यूनिक्स संस्करणों पहले से ही इस को संबोधित किया है। उदाहरण के लिए, सोलारिस और लिनुक्स में 64-बिट मोड के लिए, टाइम_टी 64 बिट्स है, जिसका अर्थ है कि ओएस स्वयम और 64 बिट अनुप्रयोग सही ढंग से कुछ 292 बिलियन वर्ष के लिए तारीखों संभाल लेंगे. मौजूदा 32-बिट आवेदन अ 32-बिट टाइम_टी उपयोग करके 64-बिट सोलारिस प्रणाली पर काम जारी रखा, लेकिन अभी भी 2038 की समस्या से ग्रस्त हैं। अरपानेट (ARPANET)[संपादित करें] मई 1975 में ARPA ने RFC 681 में विशेष तौर पर विस्तृत लिखित प्रमाण दिया क्यों यूनिक्स ही अरपानेट "मिनी मेजबान" की उपयोग के लिए पसंदीदा परिचालन तंत्र है। मूल्यांकन की प्रक्रिया भी लिखित प्रमाण था। यूनिक्स को एक लाइसेंस की जरूरत थी जो बहुत महंगा था,20,000 यूएस डॉलर के साथ गैर विश्वविद्यालय प्रयोक्ताओं और 150 यूएस डॉलर शेक्षिक लाइसेंस के लिए. यह उल्लेख किया था कि एक "एआरपी नेटवर्क व्यापक लाइसेंस" बेल "उस क्षेत्र में सुझाव के लिए खुले थे।" विशिष्ट सुविधाएँ लाभप्रद पायी गई: स्थानीय प्रसंस्करण सुविधाएँ संकलनकर्ता संपादक. दस्तावेज तैयार करने की प्रणाली. कुशल फ़ाइल प्रणाली और अभिगम नियंत्रण. माउंटेबल और डी-माउंटेबल संस्करण. विशेष फ़ाइलों के रूप में बाह्य उपकरणों का एकीकृत वर्णन. नेटवर्क नियंत्रण कार्यक्रम(NCP) यूनिक्स फ़ाइल प्रणाली में एकीकृत है। नेटवर्क संपर्क का विशेष फ़ाइल के रूप में वर्णन किया जाता है, जहाँ मानक यूनिक्स आई/ओ कॉल के माध्यम से पहुंचा जा सकता है। प्रणाली प्रोग्राम से बाहर निकलने पर सभी फाइलों को बंद कर देता है। "बुनियादी यूनिक्स कर्नेल में जोड़े गए कोड की मात्रा कम के इच्छुक". विकास के हार्डवेयर का प्रयोग: "यूनिक्स के लिए नेटवर्क सॉफ्टवेयर एक PDP-11/50 पर विकसित किया गया, स्मृति प्रबंधन, दो RK05 डिस्क पैक, दो नौ ट्रैक मेगटेप ड्राइव, चार डेकटेप ड्राइव, कोर के 32k शब्द और तीन टर्मिनलों के साथ. वर्तमान में यह DH11 टर्मिनल बहु संकेतक घेरने के लिए एक RP03 हेड डिस्क, एक ट्विन प्लेटर RF11 स्थाई हेड डिस्क, फ्लोटिंग बिंदु और कोर के 48k, विस्तृत किये गए। उपयोगकर्ता फाइलें RP03 पर जमा हो जाती है। RF11 एक स्वैप डिस्क के रूप में इस्तेमाल किया और अस्थायी फ़ाइल भंडारण के लिए है, एक RK05 प्लेटर में फ़ाइल प्रणाली शामिल हैं, दूसरी में प्रवेश और लेखांकन जानकारी शामिल हैं। निकट भविष्य में इस प्रणाली में 10 डायल इन और 10 मजबूत तारों वाली टर्मिनल लाइनों के साथ मुख्य स्मृति के 128k शब्दों को विस्तार किया जाएगा" "आधार परिचालन तंत्र की स्मृति के 24.5k शब्द हैं। इस प्रणाली में युक्ति चालक एक बड़ी संख्यामें शामिल हैं और यह स्थान का बहुत बड़ा भाग आई/ओ प्रतिरोधक और प्रणाली सूचीपत्र के लिए उपयोग करती है। एक न्यूनतम सिस्टम हार्डवेयर स्मृति 40k शब्दों की आवश्यकता होगी. यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यूनिक्स को भी स्मृति प्रबंधन की आवश्यकता है" एक तुलना के रूप में "नेटवर्क नियंत्रण कार्यक्रम" (NCP) कर्नेल कोड 3.5k उपयोग करता है और अदला बदली वाले उपयोगकर्ता लगभग 8.5k है। "टेलनेट के खुद को विश्वसनीय साबित कर देने के बाद, खुले सिस्टम कॉल में इसके आगे मानदंड शामिल कर लिए जाएँगे और एक स्थानीय गर्तिका पर सुनने की क्षमता का विस्तार भी" "उन विस्तार के बाद, नेट मेल, फिर नेटवर्क FTP और अंत में नेटवर्क RJE कार्यान्वित किया जाएगा और सभी उपयोगकर्ता के कार्यक्रमों के रूप में चला जाएगा तो कर्नेल प्रणाली के आकार में वृद्धि नहीं होगी." "गैरी ग्रॉसमैन जिसने डिजाइन में भाग लिया और NCP डेमॉन लिखा था" "स्टीव बंच जो हमारे डिजाइन समूह का तीसरा सदस्य था और उसने कर्नेल संदेश सॉफ्टवेयर लिखा था।" ब्रांडिंग[संपादित करें] इन्हें भी देखें: List of Unix systems 1993 अक्टूबर में, नोवेल, कंपनी जिसके पास उस समय पर यूनिक्स सिस्टम V स्रोत के अधिकारों का स्वामित्व था, उसने यूनिक्स के ट्रेडमार्कका हस्तांतरण एक्स ओपन कम्पनी (अब द ओपन ग्रुप)[7] को कर दिया और 1995 में सम्बंधित व्यापर कार्य प्रणाली सांता क्रूज़ ओपरेशन[8] को बेच दिए. क्या नोवेल ने भी कॉपीराइट वास्तविक सॉफ्टवेयर को बेचा, 2006 संघीय मुकदमें का विषय था, SCO v. नोवेल, जो नोवेल जीत गया था, उस मामले की अभी अपील की जा रही है।[कृपया उद्धरण जोड़ें] यूनिक्स विक्रेता SCO समूह इंक ने नोवेल पर शीर्षक की बदनामी का आरोप लगाया. ट्रेडमार्क यूनिक्स के वर्तमान मालिक ओपन समूह एक उद्योग मानक संकाय है। केवल एक प्रणाली पूरी तरह से अनुरूप और प्रमाणित एकल यूनिक्स विशिष्टताए "यूनिक्स" की तरह योग्य है (अन्य युनिक्स प्रणाली के जैसी या यूनिक्स-जैसी कहलाती हैं) ओपन समूह के फरमान से, शब्द "यूनिक्स" एक वर्ग को सन्दर्भित करता है न की एक परिचालन तंत्र के विशिष्ट कार्यान्वयन को, वह परिचालन तंत्र जो ओपन समूह के एकल यूनिक्स विशिष्ट को पूरा करने के लिए यूनिक्स 98 या यूनिक्स 03 ट्रेडमार्क सहन करने के योग्य होती हैं, जिसके बाद परिचालन तंत्र का विक्रेता ओपन समूह को एक शुल्क देता है। यूनिक्स ट्रेडमार्क इस्तेमाल करने के लिए जो लाइसेंस दिया गया उसमें AIX, HP-UX, IRIX, सोलारिस, ट्रू64 (पूर्व में "डिजिटल यूनिक्स"), A/UX, Mac OS X 10.5 इंटेल प्लेटफार्मों[16] पर और z/OS का एक भाग शामिल हैं। कभी कभी "Un*x", "*NIX" या "*N?X" जैसा प्रतिनिधत्व यूनिक्स जैसी सभी परिचालन तंत्रों को संकेत करने के लिए प्रयोग किया जाता है। यह "*" और "?" के इस्तेमाल से आता है वाइल्डकार्ड कई उपयोगिताओं में "चिन्ह" के रूप में वर्ण हैं। इस टिप्पणी को अन्य युनिक्स जैसी प्रणालियों, जैसे लिनक्स, BSD इत्यादि का वर्णन करने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है जिन्हें ओपन समूह से यूनिक्स की आवश्यकताओं के लिए ब्रांडिंग नहीं मिली है। ओपन समूह अनुरोध करता है कि एक सामान्य अवधि, जैसे कि "प्रणाली" का अनुसरण करते हुए, एक सामान्य ट्रेडमार्कके निर्माण से बचने में सहायता करने के लिए, "यूनिक्स" हमेशा एक विशेषण के रूप में प्रयोग किया जाता है। "यूनिक्स" मूल स्वरूपण था, लेकिन इसका उपयोग: "UNIX" व्यापक रहता हैं क्योंकि डेनिस रिची के अनुसार जब अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ़ कोम्प्युटिंग मशीनरी के तीसरे परिचालन तंत्र संगोष्ठी को मूल यूनिक्स पेपर प्रस्तुत करते हैं,"हमारे पास एक नए प्रकार के अक्षर बैठनेवाला था और ट्रोफ का अभी अभी आविष्कार हुआ था और हम छोटे केप्स के उत्पादन में सक्षम होने के नशे में धुत्त थे".[17] परिचालन तंत्र के बहुत से पूर्ववर्ती और समकालीन ने सब उच्च मामले में वर्ण प्रयोग किये थे, बहुत से लोगों ने मज़बूरी की आदत के कारण उच्च मामले में नाम लिखा. यूनिक्स के कई बहुवचन रूपों का प्रयोग यूनिक्स के कई ब्रांडों के लिए और यूनिक्स जैसी प्रणालियों के लिए किया जाता है। सबसे आम, पारंपरिक "युनिक्सिस " (Unixes) है, लेकिन यूनिसिस (Unices) (यूनिक्स को लैटिन संज्ञा के तीसरे ह्रासके रूप में देखते हुए) भी लोकप्रिय है। अंगरेजी़-सेक्सन बहुवचन रूप "युनिक्सन" आम नहीं है फिर भी कभी कभी देखा जाता है। ट्रेडमार्क नाम अलग अलग देशों और कुछ देशों में व्यापर ट्रेडमार्क कानून में विभिन्न संस्थाओं द्वारा पंजीकृत किया जा सकता है, वही ट्रेडमार्क नाम दो विभिन्न संस्थाओं द्वारा नियंत्रित करने की अनुमति देती है, यदि प्रत्येक संस्था आसानी से पहचाने जा सकने वाली श्रेणियों के ट्रेडमार्क का उपयोग करती है। नतीजा यह है कि यूनिक्स पुस्तक अलमारियों, स्याही पेन, बोतलबंद गोंद, लंगोट, बाल ड्रायर और खाद्य कंटेनर सहित विभिन्न उत्पादों के लिए एक ब्रांड नाम के तौर पर इस्तेमाल किया गया है।[18] यह भी देखें[संपादित करें] यूनिक्स उपकरणों की सूची सन्दर्भ[संपादित करें] ऊपर जायें ↑ Stuart, Brian L. (2009). "Principles of operating systems: design & applications". Boston, Massachusetts: Thompson Learning. प॰ 23. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 1-4188-3769-5. ↑ इस तक ऊपर जायें: अ आ इ Ritchie, Dennis M.. "The Evolution of the Unix Time-sharing System". अभिगमन तिथि: 2009-11-29. ऊपर जायें ↑ यूनिक्स* परिचालन तंत्र का निर्माण: प्रसिद्ध PDP-7, बचाव के लिए आता है ऊपर जायें ↑ D. E. Bodenstab, T. F. Houghton, K. A. Kelleman, G. Ronkin, and E. P. Schan (October 1984). "UNIX Operating System Porting Experiences" (PDF). AT&T Bell Laboratories Technical Journal, Vol. 63, No. 8 Part 2. pp. 9. अभिगमन तिथि: 2009-04-09. ऊपर जायें ↑ "UNIX". The Computer Chronicles. 1985. ऊपर जायें ↑ http://groups.google.com/group/comp.unix.questions/browse_frm/thread/2f0b5e719fa3a3ec/3fa5e5fe4d58f96b ↑ इस तक ऊपर जायें: अ आ http://groups.google.com/group/comp.std.unix/msg/c9974cf0022884f8 ↑ इस तक ऊपर जायें: अ आ एच पी, नोवेल और SCO उच्च गति देने के लिए, यूनिक्स OS अग्रिम नेटवर्क और उद्यम सेवाओं के साथ ऊपर जायें ↑ Stephen Shankland (December 7, 2005). "Itanium: A cautionary tale". Tech News. ZDNet. अभिगमन तिथि: 2006-10-04. "In the third quarter of this year, 7,845 Itanium servers were sold, according to research by Gartner. That compares with 62,776 machines with Sun Microsystems' UltraSparc, 31,648 with IBM's Power, and 9,147 with HP's PA-RISC." ऊपर जायें ↑ नोवेल यूनिक्स के कोपी राईट का अनुसरण नहीं करेगा 15 अगस्त 2007 ऊपर जायें ↑ ज्ञापन और निर्णय आदेश सिविल मामला संख्या 2:04 CV139DAK ऊपर जायें ↑ SCO v. नोवेल में ज्ञापन और निर्णय आदेश ऊपर जायें ↑ [1] 24 अगस्त 2009 ऊपर जायें ↑ [2] 24 अगस्त 2009 ऊपर जायें ↑ [3] 24 अगस्त 2009 ऊपर जायें ↑ The Open Group. "Mac OS X Version 10.5 Leopard on Intel-based Macintosh computers certification". अभिगमन तिथि: 2007-06-12. ऊपर जायें ↑ यूनिक्स ऊपर जायें ↑ औट्रेस यूनिक्स, औट्रेस मोयूर्स (अन्य यूनिक्स) रिची, डी.एम.; थोम्प्सं, के, यूनिक्स समय-साझा प्रणाली (बेल सिस्टम तकनीकी पत्रिका, जुलाई-अगस्त 1978, संस्करण 57, संख्या 6, भाग 2) सलुस, पीटर एच: ए क्वार्टर सेंचुरी ऑफ़ यूनिक्स, एडिसन वेस्ले, 1 जून को 1994 ISBN 0-201-54777-5 "UNIX History". www.levenez.com. अभिगमन तिथि: 17 मार्च 2005. "AIX, FreeBSD, HP-UX, Linux, Solaris, Tru64". UNIXguide.net. अभिगमन तिथि: 17 मार्च 2005. "Linux Weekly News, February 21, 2002". lwn.net. अभिगमन तिथि: 7 अप्रैल 2006. लिओंस, जोन: लिओंस "Commentary on the Sixth Edition UNIX Operating System". विद सोर्स कोड पिअर टू पिअर कोम्युनिकेष्ण,1996, आईएसबीएन 1-57398-013-7 यूनिक्स शैल प्रोग्रामिंग, यशवंत कानेटकर बाहरी लिंक[संपादित करें] Guide to Unix पर Commands से सम्बन्धित एक पेज है। यूनिक्स समय सहभाजन प्रणाली के विकास ओपन समूह यूनिक्स प्रणाली सिस्टम मुखपृष्ठ यूनिक्स मंच उपयोगकर्ताओं के लिए यूनिक्स सहयोग यूनिक्स इतिहास, यूनिक्स का एक बड़ा चित्रमय परिवार वृक्ष यूनिक्स शक्ति विभिन्न युनिसिस और डेरिवेटिव का एक और पूरा नक्शा SDF सार्वजनिक प्रवेश यूनिक्स सिस्टम श्रेणी: यूनिक्स दिक्चालन सूची अंक परिवर्तन खाता बनाएँलॉग इनलेखसंवादपढ़ेंसम्पादनइतिहास देखें मुखपृष्ठ चौपाल हाल में हुए परिवर्तन समाज मुखपृष्ठ निर्वाचित विषयवस्तु यादृच्छिक लेख योगदान प्रयोगपृष्ठ अनुवाद हेतु लेख आयात अनुरोध विशेषाधिकार निवेदन दान सहायता सहायता स्वशिक्षा अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न देवनागरी कैसे टाइप करें त्वरितवार्ता (आई॰आर॰सी चैनल) दूतावास (Embassy) उपकरण यहाँ क्या जुड़ता है पृष्ठ से जुड़े बदलाव फ़ाइल अपलोड करें विशेष पृष्ठ स्थायी कड़ी इस पृष्ठ पर जानकारी Wikidata प्रविष्टि छोटा यू॰आर॰एल यह लेख उद्धृत करें विकि रुझान आज के रुझान हफ्ते भर के महीने भर के मुद्रण/निर्यात पुस्तक बनायें पीडीएफ़ रूप डाउनलोड करें प्रिन्ट करने लायक अन्य भाषाओं में %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%80%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE:%E0%A4%86%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%%%%%% A8 %%%%% CS671: rachitac@iitk.ac.in 150805 विकिपीडिया:आकलन https://hi.wikipedia.org/s/26c मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से (विकिपीडिया:आधार से अनुप्रेषित) आकलन विकिपीडिया पर लेखों की रेटिंग प्रक्रिया है। इसमें लेखों को उनकी गुणवत्ता के अनुसार मापा जाता है। आकलन का उद्देश्य है विभिन्न विषयों सम्बंधित लेखों की गुणवत्ता की जानकारी इकट्ठा करना ताकि सदस्य अपनी पसंद के विषयों के अपूर्ण लेखों में सुधार कर सकें, और ताकि विकिपीडिया की गुणवत्ता की जाँच और उसमें सुधार किये जा सकें। अक्सर पूछे जाने वाले सवाल[संपादित करें] लेख आकलन की ज़रूरत क्यों है? लेख आकलन इन चीज़ों के लिए उपयोगी हैः हिन्दी विकिपीडिया पर लेखों की गुणवत्ता आंकने के लिए इन लेखों पर काम को प्राथमिकता देने के लिए विकिपीडिया की स्थिर/ऑफ़्लाइन रिलीज़ (सीडी, डीवीडी आदि) के लिए लेखों का चयन करने के लिए क्या ये आकलन/रेटिंग अधिकृत (official) है? नहीं, ये रेटिंग मुख्य रूप से आंतरिक उपयोग के लिए हैं और विकिमीडिया फाउन्डेशन के आधिकारिक दृष्टिकोण को नहीं दर्शाती है. क्या कोई भी लेखों का आकलन कर सकता है? जी हाँ. सामान्यतः, कोई भी व्यक्ति (आप भी!) लेखों की आकलन रेटिंग जोड़ या बदल सकता है. हालांकि, "प्रमुख" लेबल केवल समीक्षा और चर्चा के बाद ही इस्तेमाल किये जाने चाहिएँ. अगर रेटिंग के बारे में दो या अधिक लोगों की राय अलग हो तो चर्चा के द्वारा विवाद हल करें. मैं एक लेख का आकलन कैसे कर सकता/सकती हूँ? लेख के वार्ता पेज पर यह साँचा जोड़ें - {{विकिपीडिया आकलन | दर्जा = आधार / प्रारम्भिक / मध्यम / अच्छे / श्रेष्ठ / प्रमुख | अनिष्पक्ष = | अपूर्ण = | असत्यापित_तथ्य = | अस्तित्वहीन_श्रेणियाँ = | अस्तित्वहीन_साँचे = | अस्पष्ट_उल्लेखनीयता = | खराब_फ़ॉर्मैटिंग = | गलत_अनुवाद = | गलत_वर्तनी = | गैर_हिन्दी_शब्द = | चित्र_नहीं = | मूल_शोध = | वैश्विक_नज़रिया_नहीं = | सामयिक_नहीं = | अन्य_सुझाव = | आकलनकर्ता = ~~~~ }} यदि मैं किसी दूसरे सदस्य द्वारा दिए गए दर्ज़े से सहमत नहीं हूँ तो? बेझिझक हो कर दर्ज़े को बदल दें, लेकिन जायज़ कारण दें. विवादों के मामले में आम सहमति के लिए अन्य सदस्यों से चर्चा करें. क्या इस तरह का आकलन आकलनकर्ता पर निर्भर नहीं है? क्या अलग-अलग लोगों के विचार अलग-अलग नहीं होंगे? जी हाँ, आकलन कुछ हद तक व्यक्तिपरक है, लेकिन अन्य भाषाओं की विकिपीडिया पर यह अब तक की सबसे सफ़ल प्रणाली साबित हुई है. यदि आप के पास कोई बेहतर विचार है, तो निःसंकोच हमें बताएँ. मुझे एक आधार लेख मिला, मैं क्या करूँ? आप उसे सुधार सकते हैं! जी हाँ, विकिपीडिया पर आप संपादन कर सकते हैं। आप चाहें तो बेहतर संपादन सीखने के लिये स्वशिक्षा ले सकते हैं और प्रयोगस्थल पर संपादन का जितना चाहें अभ्यास कर सकते हैं। गुणवत्ता माप[संपादित करें] दर्जा मापदंड बदलाव के सुझाव उदाहरण आधार विषय का एक बहुत ही बुनियादी विवरण (2-3 पैराग्राफ़, गुणवत्ता ठीक-ठाक हो) अतिरिक्त सामग्री जोड़ें, प्रदर्शन-योग्य आधार बनाएँ भारत पाक युद्ध १९६५ का पूर्व संस्करण (इस लेख में परिणाम जैसी आवश्यक जानकारी नहीं दी गई है), चिलर का पूर्व संस्करण (इस लेख में यह नहीं बताया गया है कि चिलर चीज़ क्या होती है), रैंडम एक्सैस मैमोरी का पूर्व संस्करण प्रारम्भिक 3-4 या ज़्यादा पैराग्राफ़, गुणवत्ता ठीक-ठाक हो अतिरिक्त सामग्री जोड़ें, फ़ॉर्मैटिंग करें, प्रदर्शन-योग्य प्रारम्भिक लेख बनाएँ माईली सायरस का पूर्व संस्करण (यह लेख काफ़ी लम्बा तो है, पर इसकी गुणवत्ता उत्तम नहीं है: इस लेख के इन्फ़ोबॉक्स में इंग्लिश के शब्द हैं, बीच-बीच में फ़ॉर्मटिंग थोड़ी-सी बिगड़ी हुई है - जैसे बोल्ड शब्द, अस्तित्वहीन साँचे हैं आदि), नरेन्द्र कोहली का पूर्व संस्करण (यह लेख काफ़ी लम्बा तो है, पर इसकी गुणवत्ता उत्तम नहीं है. यह लेख निष्पक्ष नहीं है - "कालजयी कथाकार", "यह गौरव का विषय है कि हम उस युग के साक्षी हैं" आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है. लेख के अन्त तक फ़ॉर्मटिंग पूरी तरह से बिगड़ चुकी है) एंजेलिना जोली का पूर्व संस्करण (इस लम्बे-चौड़े लेख में "फ़िल्मोग्राफ़ी" टेबल पूरी तरह से बिगड़ा हुआ है, बीच-बीच में इंग्लिश शब्दों का प्रयोग किया गया है, अस्तित्वहीन साँचों/श्रेणियों का प्रयोग किया गया है आदि) डेटा संचार का पूर्व संस्करण (यह लेख विकीफ़ाइड नहीं है; इसमें एक भी श्रेणी या लिंक नहीं है.), श्वासनली का पूर्व संस्करण आखन का पूर्व संस्करण मध्यम लेख में प्रमुख पहलुओं पर जानकारी है, लेकिन सारे पहलुओं का अभी विवरण नहीं करते। विषय से सम्बंधित सभी पहलुओं की मूलभूत जानकारी जोड़ें और एक अच्छा लेख बनाएँ प्लासी का पहला युद्ध का पूर्व संस्करण (प्रमुख मुद्दों को कवर किया गया है, लेकिन सिर्फ़ एक ही स्रोत है. गैर-भारतियों को यह लेख निष्पक्ष नहीं लगेगा. इन्फ़ोबॉक्स में इंग्लिश 1-2 शब्दों का प्रयोग किया गया है.) अच्छे लेख विषय से सम्बंधित सभी पहलुओं की मूल या थोड़ी जानकारी देता है पर बहुत ही संक्षिप्त में। कुछ पहलुओं की जानकारी में विस्तार की आवश्यकता हो सकती है। विस्तार करके श्रेष्ठ लेख मापदंडों को पूरा करें श्रेष्ठ ऐसे लेख जो श्रेष्ठ लेख मापदंडों को पूरा करते हैं इन्हें बढ़ाएँ और निर्वाचित लेख आवश्यकताओं को पूरा करने की कोशिश करें निर्वाचित श्रेष्ठतम् निर्वाचित लेख जो निर्वाचित लेख आवश्यकताओं के अनुसार तथ्यों की सच्चाई, तटस्थता, सम्पूर्णता तथा लेखन पद्धति के लिए परखे गए हों. ऐसे लेखों का चयन विकिपीडिया की स्थिर/ऑफ़्लाइन रिलीज़ (सीडी, डीवीडी आदि) के लिए किया जा सकता है. अनावश्यक बड़े बदलाव न करें कर्नाटक का पूर्व संस्करण श्रेणी: विकिपीडिया प्रशासन दिक्चालन सूची अंक परिवर्तन खाता बनाएँलॉग इनपरियोजना पृष्ठसंवादपढ़ेंसम्पादनइतिहास देखें मुखपृष्ठ चौपाल हाल में हुए परिवर्तन समाज मुखपृष्ठ निर्वाचित विषयवस्तु यादृच्छिक लेख योगदान प्रयोगपृष्ठ अनुवाद हेतु लेख आयात अनुरोध विशेषाधिकार निवेदन दान सहायता सहायता स्वशिक्षा अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न देवनागरी कैसे टाइप करें त्वरितवार्ता (आई॰आर॰सी चैनल) दूतावास (Embassy) उपकरण यहाँ क्या जुड़ता है पृष्ठ से जुड़े बदलाव फ़ाइल अपलोड करें विशेष पृष्ठ स्थायी कड़ी इस पृष्ठ पर जानकारी Wikidata प्रविष्टि छोटा यू॰आर॰एल विकि रुझान आज के रुझान हफ्ते भर के महीने भर के मुद्रण/निर्यात पुस्तक बनायें पीडीएफ़ रूप डाउनलोड करें प्रिन्ट करने लायक अन्य भाषाओं में भोजपुरी