%%%%% https://hi.wikipedia.org / Hindi WikiPedia %%%%% CS671 : nishantr (at) iitk (dot) ac (dot) in, Date : 150807 सूगी, पोखरी तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के चमोली जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। आयरलैंड राष्ट्रीय रग्बी यूनियन टीम, आयरलैण्ड के द्वीप (दोनो आयरलैण्ड गणतंत्र और उत्तरी आयरलैंड संयुक्त स्तर पर) की पुरुषों की राष्ट्रीय रग्बी यूनियन टीम है।[1][2] गर्दन शरीर का वह हिस्सा होती है जो मानव और अन्य रीढ़-वाले जीवों१ में सिर को धड़ से जोड़ती है। लातिन भाषा में गर्दन से सम्बंधित चीज़ों के लिए "सर्विकल"२ शब्द इस्तेमाल किया जाता है। निर्देशांक: 25°36′40″N 85°08′38″E / 25.611°N 85.144°E / 25.611; 85.144 सरासत नौबतपुर, पटना, बिहार स्थित एक गाँव है। विलौरी, काफलीगैर तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के बागेश्वर जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। ग्लाइकोजेन एक कार्बनिक यौगिक है। यह एक प्रकार का कार्बोहाइड्रेट है। जन्तुओं में उर्जा संचय का मुख्य माध्यम है। स्टीवन वैनबर्ग संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रसिद्द वैज्ञानिक हैं। 1979 में इन्हें भौतिक विज्ञान में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। "त्रिमुहानी"उत्तर प्रदेश के फैजाबाद मण्डल के अम्बेडकर नगर जिले के राजेसुल्तानपुर नामक शहर से लगभग 3 किलोमीटर पुर्व की दिशा मे है त्रिमुहानी के उपर से राजेसुल्तानपुर आजमगढ मार्ग जाता है त्रिमुहानी मे तीन नदियो का सगम है त्रिमुहानी मे दुर्गा पुजा तथा लक्ष्मी पुजा की सारी मुर्तिया विरसरजित की जाती है ये मुर्तिया राजेसुल्तानपुर शहर मे लगी होती है ग्रे कोड संख्याओं को बाइनरी में कोड करने की एक प्रणाली है। इसका नाम फ्रैंक ग्रे के नाम पर रखा गया है। इसे 'रिफ्लेक्टेड बाइनरी कोड' भी कहते हैं। इसकी विशेषता है कि दो क्रमिक संख्याओं के ग्रे-कोड में केवल एक बिट भिन्न होगी (शेष सभी बिट दोनों क्रमिक संख्याओं में समान होंगे।) फतेहपुरी मस्जिद चांदनी चौक की पुरानी गली के पश्चिमी छोर पर स्थित है। इसका निर्माण मुगल बादशाह शाहजहां की पत्नी फतेहपुरी बेगम ने 1650 में करवाया था। उन्हीं के नाम पर इसका नाम फतेहपुरी मस्जिद पड़ा।[1]) ये बेगम फतेहपुर से थीं।[2] ताज महल परिसर में बनी मस्जिद भी इन्हीं बेगम के नाम पर है।[3]. लाल पत्थरों से बनी यह मस्जिद मुगल वास्तुकला का एक बेहतरीन नमूना है। मस्जिद के दोनों ओर लाल पत्थर से बने स्तंभों की कतारें हैं। इस मस्जिद में एक कुंड भी है जो सफेद संगमरमर से बना है। यह मस्जिद कई धार्मिक वाद-विवाद की गवाह रही है। अंग्रेज़ों ने इस मस्जिद को १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बाद, नीलाम कर दिया था, जिसे राय लाला चुन्ना मल ने मात्र १९,०००/- रुपए में खरीद लिया था।[4] जिनके वंशज आज भी चांदनी चौक में चुन्नामल हवेली में रहते हैं।[5]), जिन्होंने इस मस्जिद को संभाले रखा था। बाद में १८७७ में सरकार ने इसे चार गांवों के बदले में वापस अधिकृत कर मुसलमानों को दे दिया, जब उन्हें दिल्ली में रहने का दोबारा अधिकार दिया गया था। ऐसी ही एक दूसरी मस्जिद, अकबरबादी बेगम द्वारा बनवाई गई थी, जिसे अंग्रेज़ों ने बर्बाद करवा दिया था।[6] हेक्सामिथाइलडाइसिलाजेन एक कार्बनिक यौगिक है। गरीब रथ एक्स्प्रेस २७३५ (ट्रेन सं.: 2735) भारतीय रेल द्वारा संचालित एक गरीब रथ रेल है। यह सिकंदराबाद जंक्शन रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड: SC) से 07:15PM बजे छूटती है व यशवंतपुर जंक्शन रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड: YPR) पर 07:05AM बजे पहुंचती है। यह गाड़ी सप्ताह में को चलती है। इसकी यात्रा की अवधि है 11 घंटे 50 मिनट। यह भूराजनीति के उस अध्याय का नाम है, जो कि सतत् रूप से विश्व राजनीति का पर्याय बन चुका है। फ़रवहर, जिसे प्राचीन फ़ारसी में प्रवहर लिखते थे,[1] पारसी धर्म का सब से अधिक पहचाने जाने वाला चिह्न है। बीसवीं सदी में ईरान पर राज करने वाले पहलवी राजवंश ने इसे अपने साम्राज्य का और ईरानी राष्ट्र का चिह्न भी चुना था। इसमें एक परों वाले चक्र के बीच एक राजसी आकृति का दाढ़ी वाला व्यक्ति दर्शाया जाता है। अवस्ता (पारसी धर्म-ग्रन्थ) में 'फ़्रवशी' दिव्य रक्षक-आत्मा को कहते हैं। इसके विपरीत 'उर्वन' वह आत्मा होती है जो संसार में अच्छे-बुरे की अनंत लड़ाई में अच्छाई के लिए लड़ने भेजी जाती है। यह मान्यता है कि शारीरिक मृत्यु के चार दिन बाद उर्वन फ़्रवशी को लौट जाती है और संसार में हुए अपने अनुभवों को फ़्रवशी को दे देती है। 'फ़रवहर' शब्द इसी 'फ़्रवशी' शब्द से उत्पन्न हुआ है और आधुनिक सोच है कि यह चिह्न उसी रक्षक आत्मा को दर्शाती है।[2] ध्यान दें कि 'फ़्रवशी' शब्द 'फ़्रवर्ती' का एक रूप है, क्योंकि 'र्त' अवस्ताई भाषा में अक्सर 'श' बन जाता था। क्योंकि संस्कृत और अवस्ताई दोनों हिन्द-ईरानी भाषा परिवार की बहनें हैं, इसलिए संस्कृत में इसका सजातीय शब्द 'प्रवर्तिन' होता, जिसका अर्थ है 'वह जो आगे ले जाए'। लेकिन यह शब्द संस्कृत में इस रूप में नहीं मिलता और इसकी बजाए संस्कृत का सही शब्द 'प्रवर्तक' है, जिसका अर्थ है 'वह जो आगे बढ़ाए'।[3] पर-युक्त चक्र या पर-युक्त सूर्य का चिह्न मध्य पूर्व के क्षेत्र में प्राचीनकाल से प्रयोग होता आया है। यह कांस्य युग की मोहरों में भी देखा जा सकता है। कुछ समय बाद इस चक्र के अन्दर एक मनुष्य की आकृति भी डाली जाने लगी थी। असीरियाई लोगों के लिए यह उनके अशूर (ܐܫܘܪ, Ashur) नामक देवता का रूपांकन था। यह फ़रवहर के चिह्न का स्रोत होने के बावजूद यह ज्ञात नहीं है कि जिन ईरानी विद्वानों ने इस चिह्न का प्रयोग पारसी धर्म में आरम्भ किया। वे इस चिह्न के साथ क्या मतलब जोड़ते थे। इतना ज़रूर है कि ईरान में इसे सबसे पहले शाही शिलालेखों में देखा गया इसलिए शायद यह 'ख़्वारनाह​' का प्रतीक रहा हो। 'ख़्वारनाह​' (khvarenah) शब्द का मतलब पारसी धर्म-ग्रंथों में 'सम्राट की दिव्य महानता' निकलता है, यानि वह दिव्य महानता जो किसी शासक या सम्राट के साथ जुड़कर उसकी सहायता करे। संभव है कि फ़रवहर इन शिलालेखों में सम्राट की फ़्रवशी दर्शा रहा हो।[4] पवन कल्याण एक भारतीय फ़िल्म अभिनेता हैं।[4] यह कई तेलुगू फिल्में कर चुके हैं और मार्च 2014 में यह जन सेना पार्टी बना कर राजनीति में आए। इन्होने अभिनय की शुरुआत तेलुगू फ़िल्म अककड़ा अम्माई इककड़ा अब्बाई से किया। हसनपुरा में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत पुर्णिया मण्डल के अररिया जिले का एक गाँव है। संबलपुर एक्स्प्रेस 8302 भारतीय रेल द्वारा संचालित एक मेल एक्स्प्रेस ट्रेन है। यह ट्रेन रायगडा रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:RGDA) से 02:30PM बजे छूटती है और संबलपुर रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:SBP) पर 09:00PM बजे पहुंचती है। इसकी यात्रा अवधि है 6 घंटे 30 मिनट। यहाँ पाकिस्तान के स्वतंत्रता उपरांत गवर्नर-जनरल गण की सूची दी गयी है। इनका पूर्ण काल1947 – 1958 के बीच रहा। उसके बाद पाकिस्तान गणतंत्र बन गया। तब वहाँ राष्ट्रपति होने लगे। फर्नर फान हैडेन्स्टाम नोबेल पुरस्कार साहित्य विजेता, १९१६ यह जीवनचरित लेख अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की सहायता कर सकते है। नईगांव मुंबई में वसई-विरार का एक क्षेत्र है। स्त्री धनम् एक भारतीय टेलीविजन धारावाहिक है जो 02 जून 2012 से एशियानेट पर प्रसारित होता है। यह धारावाहिक दिव्या नाम की एक लड़की की = जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव पर आधारित है। बलूची पाकिस्तान के बलोचिस्तान प्रांत एवं इरान के सिस्तान-बलोचिस्तान प्रांत में बलूची समुदाय के लोगों द्वारा बोले जाने वाली भारत-यूरोपी भाषा समूह की एक भाषा है। बलूची पाकिस्तान की नौ आधिकारिक भाषाओँ में से एक है। बलोचिस्तान के ब्राहुई समुदाय के कई मोग बलूची का एक द्वितीय भाषा का रूप में प्रयोग करते हैं। विश्व भर में लगभग ७०-८० लाख लोग बलूची का एक मात्र भाषा के रूप में प्रयोग करते हैं। बलूची की कुर्दिश व पश्तो जैसी अन्य ईरानी भाषाओँ के साथ कई समान्यताएं हैं। सिंधी भाषा पर भी बलूची का काफी गहरा प्रभाव हैं। १९वीं सदी के पूर्व बलूची एक अलिखित भाषा थी जिस की कोई लिपि या साहित्य नहीं थे। बलोचिस्तान में प्रचलित लिखित भाषा फारसी हुआ करती थी। अँगरेज़ भाषा विशेषज्ञों व राजनीतिक इतिहासकारों ने बलूची के लिए रोमन लिपि का इस्तेमाल शुरू किया परन्तु पाकिस्तान के बन्ने के पश्चात बलोच बुद्धिजीविओं ने बलूची के लिए उर्दू-अरबी लिपि का प्रयोग शुरू किया। बलोची में काव्य लेख का पहला संग्रह, श्री मीर गुल खान नासिर द्वारा लिखित 'गुल्बंग' सन १९५१ में प्रकाशित हुआ। हलाकि काफी समय बाद ही पाकिस्तान में सय्यद जाहुर्शाह हशोमी ने बलोची के लिए उर्दू-अरबी लिपि के इस्तेमाल से सम्बंधित एक विस्तृत मार्गदर्शिका का लेखन किया। सय्यद हशोमी को आज 'बलोची के पितृ' के नाम से संबोधित किया जाता है। उनकी मार्गदर्शिका का आज पूर्वी और पश्चिमी बलोचिस्तान में व्यापक रूप से प्रयोग होता है। अफघानिस्तान में बलोची को पश्तो पे आधारित अरबी लिपि के एक रूप में लिखा जाता है। मैलानी गोंडा 188NR भारतीय रेल द्वारा संचालित एक मेल एक्स्प्रेस ट्रेन है। यह ट्रेन मैलानी रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:MLN) से 03:00AM बजे छूटती है और गोंडा जंक्शन रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:GD) पर 10:30AM बजे पहुंचती है। इसकी यात्रा अवधि है 7 घंटे 30 मिनट। निष्कपता, निष्कपट शब्द का विशेषण रूप है एवं यह कुटिलता का विरोधी भाव है। निष्कपटता शब्द का उपयोग सामान्यतः किसी व्यक्ति के भावों को व्यक्त करने के लिए किया जाता है। लेकिन कभी-कभी इसका उपयोग किसी संस्था अथवा किसी संगठन के लिए भी किया जाता है। प्रकाश क्या है और वह किस रूप में स्थानांतरित होता है, इन प्रश्नों के समाधान के लिये समय समय पर अनेक सिद्धांत बनाए गए थे, किंतु इस समय विद्युतचुंबकीय सिद्धांत तथा क्वांटम सिद्धांत ही सर्वमान्य हैं। नंद किशोर यादव बिहार विधानसभा में नेता विपक्ष हैं। जून 2013 में राजग गठबंधन टूटने से पहले वे बिहार सरकार में सड़क निर्माण और पर्यटन मंत्री थे। वे भाजपा के वरिष्ठ नेता होने के अलावा आरएसएस के सदस्य भी हैं। नंद किशोर यादव का जन्म 28 अगस्त 1953 को हुआ। उनके पिता का नाम पन्ना लाल यादव और माता का नाम श्रीमति राजकुमारी यादव है। जय प्रकाश नारायण आंदोलन में हिस्सा लेने की वजह से वह बी.एस.ई अंतिम वर्ष की परीक्षा नहीं कर पाए। 1969 में नंद किशोर यादव राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के साथ जुड़ गए। 1974 में उनकी सक्रियता जय प्रकाश नारायण आंदोलन में बढ़ गई। वो पटना सिटी छात्र संघर्ष समिति के अध्यक्ष बन गए। नंद किशोर यादव एक छात्र नेता थे। जेपी आंदोलन में उन्होंने हिस्सा लिया और इसी वजह से उन्हें 1974- 1976 के बीच करीब 15 दिन जेल में गुज़ारने पड़े। 1978 में वो पटना नगर निगम के पार्षद चुने गए। 1978 में ही वो जनता युवा मोर्चा के पटना ज़िला अध्यक्ष बने। 1982 में उन्होंने पटना नगर निगम के उप महापहौर का पदभार संभाला। अगले साल उन्हें भाजपा के पटना महागनर अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए चुना गया। 1983 और 1990 के बीच, नंद किशोर यादव ने भारतीय जनता युवा मोर्चा में कई महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वाहन किया। 1990 - 1995 के बीच उन्होंने युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में काम किया। 1995 में पहली बार विधायक पद के लिए चुनाव लड़ा था, उस सीट पर उन्हें हमेशा जीत हासिल हुई है। 1995 में वो पटना पूर्वी क्षेत्र से विधायक चुने गए । अब तक वो लगातार चार बार इस क्षेत्र का विधानसभा में प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। 2003 में उन्होंने एन.डी.ए के प्रदेश संयोजक के तौर पर ज़िम्मेदारी संभाली, साथ वो भाजपा राष्ट्रीय कार्य समिति और केंद्रीय अनुशासन समिति के सदस्य भी बने। 2008 में नंद किशोर यादव को राज्य सरकार में स्वास्थय मंत्रालय का ज़िम्मा सौंपा गया। 2010 में एक बार फिर उन्हें पथ निर्माण और पर्यटन विभाग का कार्यभार संभाला। दास्वत बीघा में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत मगध मण्डल के औरंगाबाद जिले का एक गाँव है। जेफ्रि होवार्ड आर्चर, बारण आर्चर ओफ वेस्टोण-सूपर-मेर (१५ अप्रैल १९४० में जन्मे) अंग्रेजी लेखक और पूर्व राजनैतिग्य हैं। लेखक बनने के पेहले वे संसद के सदस्य (१९६९-७४) थे, लेकिन उन्होंने एक वित्तीय खोट्टले के वचह से उनहें इस्तीफा देना पडा, जो उनहें लगभग दीवाला बना दिया। बाद में अपने लोकप्रिय किताबों के रोयल्टीस से वह भिर से धनी बन गये और कणसेरवेटीव पार्टी के उप अध्य्क्क्ष (१९८५ - ८६) बन गया। बाद में भिर से उन्हें इस्तीफा देना पडा और उनका राजनैतिक जीवन उस खटना से खतम हो गया। उन्हे २००१ -२००३ में जेल जान पडा। उनके पुस्तकें अब तक दो करोड पच्चास लाख काप्पियॉ दुनिया भर में बिक चुके हैं। जेफ़्रि होवर्ड आर्चर का जन्म सिटि लंटन मटेर्निटि अस्पतल में हुआ था। आर्चर ने अपने बचपन के मुख्य भाग वेस्तन-सूपर मेर, सोमेरसेट में बिताया। उनको एक बडा भाई हैं, डेविड ब्रौण। जब आर्चर पैदा हुआ तब उनके पिता का उम्र था ६४। जब वे बालक था, उनका ये सपना था कि वो ब्रिस्टोल रोवेर्स फ़ुट्बोल क्लब का कप्तान बने। १९५१ में, वह वेलिंगटन् स्कूल् सोमरसेट् को एक छात्रवृत्ति जीता।। इस समय उनकी माँ लोला, ने "टि क्प्स" नामक एक् स्तंभ् योगदान् वेस्टन् सुपर् मएर में स्थानीय प्रेस अको दिया है और और उसके बेटे "तुप्पेन्स" के सहसिक कर्य के बारे मे लिखी है, इसी करण आर्चर ने वेलिंगटन स्कूल मे बदमाशी के शिकार बनते है। आर्चर स्कूल छोड़ने के बाद, वह सेना के साथ और पुलिस् के लिए प्रशिक्षण सहित नौकरियों में कुछ महीनों के लिए काम् किया। बाद में आर्चर शारीरिक शिक्षा के अध्यापक बनते है। आर्चर ने तीन साल ओक्स्फोड युणिवेर्सिटी डिपार्टमेंन्ड फोर कण्टिन्यूविंग एटुकेषन (Oxford University Department for Continuing Education) से शैक्षाणिक योग्यता प्राप्त करने के लिए पठाई किया| ए योग्यता ओक्सोफोर्ड के ब्रासनोस कालज से मिलते थे, लेकिन उनहोंने कभी पूर्व स्नातक के रूप में वहॉ दखिल न्हीं हुए थे| आर्चर पर यह आरोप लगाया गया था कि वे अपने शैक्षाणिक योग्यता के बरे में गलत जनकारी दी थी, जैसे कि एक अमरीकी बोडी बिल्डिंग क्लब (Body Building Club) को अपने पठाई के संस्थान के रूप में पेश किया| उन पर यह आरोप भी था कि वे अपने तीन ए-लेवल (A-Level) के बारे में भी अक्सर कहता था, जो उनको कभी नहीं मिला था| आर्चर अपने वेब सैट पर ऑक्स्फोर्ड के प्रिनसिपल के बारे में लिखा हैं, लेकिन अपनी सिक्षा न पूरा होने के बारे में कुछ नहीं बताते हैं| ऑक्सफोर्ड में वह कायिक अभ्यास, जैसे की तेज़ दौडना और कूदना, में माहिर था| परंतू यह स्पषट नहीं था कि अगर वो विश्वविद्यालय के प्रतिनिधी बन सकते थे, क्यों कि वे कालज में दाखिल नहीं हुए थे| आर्चर ने एक बार खेल-कूद प्रतियोगिता में इंग्लेंड का प्रतिनिधी बने और सफल भी हुए | आर्चर ने ओक्स्फॉ चैरिटी के लिए, विश्व विख्यात बीटिल्स (Beatles) के सहायता से धन समहरण किया था | बीटिल्स ने उनका आमंत्रण स्वीकार किया और ब्रास्नोस कलज गया और विद्यार्थियों के साथ तस्वीर खिच्वाया| कलज के दिनों में आर्चर, मेरी टोरीन वीड्न को मिले, जो बाद में उनके पत्नी बनी| मेरी ऑक्सफोर्ड के सेंन्ट आन्स कलज में रसतंत्र के विद्यर्थिनी थी| उनक विवाह जुलै १९६६ में हुए| मेरी बाद में सौरोर्ज में विशेष्ग्या बनी | ९६ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से ९६ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर ९६ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। निर्देशांक: 28°38′10″N 77°17′01″E / 28.636089°N 77.28369°E / 28.636089; 77.28369 लक्ष्मी नगर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र दिल्ली में स्थित एक विधान सभा क्षेत्र है। यह पूर्वी दिल्ली लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। 2013 के रूप में, इस क्षेत्र के विधायक विनोद कुमार बिन्नी हैं। सन् १९५३ ई. हिन्दी प्रचार के साथ भारत की एकता बनाये रखना समिति का प्रधान लक्ष्य है। प्रांतीय भाषा के सहयोग से हिन्दी का विकास करना उसका प्रमुख कार्यक्रम है। जनता में हिन्दी प्रचार करना और उसके लिए उचित सामग्री जुटाना समिति के निरंतर चिन्तन का विषय है। संस्था १९५३ से निरंतर हिन्दी के प्रचार में संलग्न है। संस्था द्वारा हिन्दी प्रचारवाणी नामक पत्रिका का नियमित प्रकाशन किया जा रहा है। इसके अलावा कर्नाटक साहित्य से संबंधित लेख, परीक्षार्थियों के उपयोगी लेख, पुस्तक समीक्षा, प्रश्नोत्तर, सभा समारोह आदि का आयोजन किया जाता है। पत्रिका के लिए करीब पाँच हजार प्रचारकों ने आजीवन प्रचारक चंदा जुटाकर इसके प्रकाशन को नियमित करने में सहयोग दिया है। संस्था द्वारा ली जाने वाली परीक्षाओं के लिए पाठ्यक्रमानुसार पुस्तकें तैयार करने के लिए साहित्य विभाग कार्यरत है। भारत सरकार से विभिन्न परीक्षाओं के लिए स्वीकृत पाठ्यक्रमानुसार पुस्तकें तैयार करने के लिए विद्वानों को आमंत्रित किया जाता है, उनसे परीक्षा स्तर को ध्यान में रखकर पुस्तकों को तैयार किया जाता है। अब तक लगभग ११२ पुस्तकों का प्रकाशन किया जा चुका है। पाठ्यपुस्तकों के अलावा विविध विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों को ध्यान में रखकर पुस्तकों का निर्माण किया जाता है। परस्पर आदान-प्रदान हेतु कन्नड़ के वरिष्ठ विद्वानों की कृतियों को अनुवाद कराने एवं प्रकाशित कराने का कार्य भी चलता रहता है। बेंगलूर के चामराजपेट में स्थित है। हिन्दी प्रचारवाणी, (मासिक), प्रधान संपादक : श्रीमती बी.एस.शांताबाई पता : कर्नाटक महिला हिन्दी सेवा समिति, १७८, ४ मैन रोड, चामराजपेट, बेंगलूर-१८ (कर्नाटक) } निर्देशांक: 24°49′N 85°00′E / 24.81°N 85°E / 24.81; 85 कुसरी डुमरिया, गया, बिहार स्थित एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। सीएनबीसी पाकिस्तान एक पाकिस्तानी टीवी चैनल है। [{श्रेणी:पाकिस्तानी चैनल]] धुबरी लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र भारत के असम राज्य का एक लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र है। १२६१ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से १२६१ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर १२६१ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। वधोन, तानूर‌ मण्डल में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के अदिलाबादु जिले का एक गाँव है। स्वस्तिक विहार छत्तीसगढ़ राज्य के महासमुंद जिले में सिरपुर नगर में स्थित है। यह स्मारक छत्तीसगढ़ राज्य द्वारा संरक्षित है। नन्द गोपाल गुप्ता नंदी (जन्म:२३ अप्रैल १९७४) इलाहबाद से राजनेता, उद्योगपति है। वे २००७ से लेकर २०१२ तक इलाहबाद से विधायक रह चुके है। वें वर्तमान में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी से संलग्न है। इनकी पत्नी अभिलाषा गुप्ता नंदी इलाहबाद की वर्तमान और सबसे युवा महापौर है।[1] यह जीवनचरित लेख अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की सहायता कर सकते है। नर्व , जैपूर मण्डल में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के अदिलाबादु जिले का एक गाँव है। काजल अग्रवाल (जन्म: 19 जून, 1985) एक भारतीय फ़िल्म अभिनेत्री है जों अधिकतर तेलगू फ़िल्मों में कार्य कर चुकी है। वे तमिल और हिन्दी सिनेमा में भी पदार्पण कर चुकी है इंटरनेट मूवी डेटाबेस पर काजल अग्रवाल लिल गोलू "लुंगी डांस" २०१३ की बॉलीवुड फ़िल्म चेन्नई एक्सप्रेस का भारतीय रैपर यो यो हनी सिंह द्वारा गाया एक गाना है।[1] यह गाना फ़िल्म के अन्य गानों के साथ आधिकारिक रूप से १ जुलाई २०१३ को जारी किया गया।[2] यह गाना दक्षिण भारत के प्रमुख अभिनेता रजनीकान्त के सम्मान में गाया गया।[3][4] "लुंगी डांस" एलबम का नौवे गीत के रूप में जारी किया गया। फ़िल्म का मूल संगीत मुम्बई में जारी किया गया।[5] गाने के प्रसारण अधिकार एक टीवी चैनल को ₹ ४८ करोड़ (यू॰एस॰ ७.७ मिलियन) में विक्रय किये।[6] गाने को भारत की पारम्परिक पोषाक लुंगी के कारण काफी अधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई।[7] गाने के उत्साहवर्धक और क्रियात्मक बोल हैं।[8] फ़िल्म के प्रमुख अभिनेता शाहरुख खान के अनुसार यह विशेष गाना दक्षिण भारतीय प्रमुख अभिनेता के सम्मान में था। उन्होंने कहा - "मेरे अनुसार कालसमंजन अच्छा है। यदि आप चेन्नई एक्सप्रेस नामक फ़िल्म रजनी सर को अर्पित नहीं करते हो तो यह अधुरी है।"[9] गाने के बोल के उद्धरण में निम्न पंक्तियाँ शामिल हैं: ऑल द रजनी फैन्स - थलैवा डोंट मिस द चांस - थलैवा ऑल द रजनी फैन्स - थलैवा डोंट मिस द चांस - डू दिस "लुंगी डांस" को भारत में समीक्षकों से मिली जुली प्रतिक्रिया मिली। कोईमोई के मोहर बसु ने अपनी समीक्षा में लिखा - "मैं पूर्णरूप से आश्वासित हूँ कि रजनी का प्रत्येक प्रसंशक लुंगी नहीं रखता और न ही तो उनकी पसंदीदा पोशाक लुंगी है और न ही वो नारियल में लस्सी मिलाते हैं! यह नहीं है कि मैं गाने के बोल से उम्मीद कर रहा था बल्कि गाने के बोल इतने अर्थहीन हैं कि लक्ष्यहीन दीपिका पादुकोन बहुत हताश करने वाली और बहुत अजीब गाने में अपनी टांग हिला रही हैं।"[10] मेघनाद साहा (६ अक्टूबर १८९३ - १६ फरवरी, १९५६) सुप्रसिद्ध भारतीय खगोलविज्ञानी (एस्ट्रोफिजिसिस्ट्) थे। वे साहा समीकरण के प्रतिपादन के लिये प्रसिद्ध हैं। यह समीकरण तारों में भौतिक एवं रासायनिक स्थिति की व्याख्या करता है। उनकी अध्यक्षता में गठित विद्वानों की एक समिति ने भारत के राष्ट्रीय शक पंचांग का भी संशोधन किया, जो २२ मार्च १९५७ (१ चैत्र १८७९ शक) से लागू किया गया।[1] इन्होंने साहा नाभिकीय भौतिकी संस्थान तथा इण्डियन एसोसियेशन फॉर द कल्टिवेशन ऑफ साईन्स नामक दो महत्त्वपूर्ण संस्थाओं की स्थापना की। साहा का जन्म ढाका से ४५ कि॰मी॰ दूर शिओरताली गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम जगन्नाथ साहा तथा माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था।[2] गरीबी के कारण साहा को आगे बढ़ने के लिये बहुत संघर्ष करना पड़ा। उनकी आरम्भिक शिक्षा ढाका कॉलेजिएट स्कूल में हुई। इण्ट्रेंस में पूर्वी बंगाल मे प्रथम रहे। इसके बाद वे ढाका कालेज में पढ़े। वहीं पर विएना से़ डाक्टरेट करके आए प्रो नगेन्द्र नाथ सेन से उन्होंने जर्मन भाषा सीखी। कोलकाता के प्रेसिडेन्सी कॉलेज से भी शिक्षा ग्रहण की। १६ जून १९१८ को उनका विवाह राधा रानी राय से हुआ। १९२० में उनके ४ लेख सौरवर्ण मंडल का आयनीकरण, सूर्य में विद्यमान तत्त्वों पर, गैसों की रूप विकिरण समस्याओं पर तथा तारों के हार्वर्ड वर्गीकरण पर फिलासाफिकल मैगजीन में प्रकाशित हुए। इन लेखों से पूरी दुनिया का ध्यान साहा की ओर गया। सन १९२३ से सन १९३८ तक वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राध्यापक भी रहे। इसके उपरान्त वे जीवन पर्यन्त कलकत्ता विश्वविद्यालय में विज्ञान फैकल्टी के प्राध्यापक एवं डीन रहे। सन १९२७ में वे रॉयल सोसायटी के सदस्य (फेलो) बने। सन १९३४ की भारतीय विज्ञान कांग्रेस के वे अध्यक्ष थे। साहा इस दृष्टि से बहुत भाग्यशाली थे कि उनको प्रतिभाशाली अध्यापक एवं सहपाठी मिले। उनके विद्यार्थी जीवन के समय जगदीश चन्द्र बसु एवं प्रफुल्ल चन्द्र रॉय अपनी प्रसिद्धि के चरम पर थे। सत्येन्द्र नाथ बोस, ज्ञान घोष एवं जे एन मुखर्जी उनके सहपाठी थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रसिद्ध गणितज्ञ अमिय चन्द्र बनर्जी उनकी बहुत नजदीकी रहे। उनका देहान्त दिल्ली मे योजना भवन जाते समय हृदयाघात से हुआ। उन्होंने देश की आजादी में भी योगदान दिया था। अंग्रेज सरकार ने वर्ष १९०५ में बंगाल के आंदोलन को तोड़ने के लिए जब इस राज्य का विभाजन कर दिया तो समूचे मेघनाद भी इससे अछूते नहीं रहे। उस समय पूर्वी बंगाल के गर्वनर सर बामफिल्डे फुल्लर थे। अशांति के इस दौर में जब फुल्लर मेघनाद के ढाका कालिजियट स्कूल में मुआयने के लिए आए तो मेघनाद ने अपने साथियों के साथ फुल्लर का बहिष्कार किया। नतीजतन मेघनाद को स्कूल से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। प्रेसीडेंसी कालेज में पढ़ते हुए ही मेघनाद क्रांतिकारियों के संपर्क में आए। उस समय आजादी के दीवाने नौजवानों के लिए अनुशीलन समिति से जुड़ना देश सेवा का पहला पाठ माना जाता था। मेघनाद भी इस समिति से जुड़ गए। बाद में मेघनाद का संपर्क नेताजी सुभाष चंद्र बोस और देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से भी रहा।[3] खंभात की खाड़ी (पूर्व नाम: कैंबे की खाड़ी) अरब सागर स्थित एक तिकोनी आकृति की खाड़ी है। यह दक्षिणी ओर से अरब सागर में खुलती है। यह भारतीय राज्य गुजरात के सागर तट, पश्चिमी भारत के शहर मुंबई और काठियावाड़ प्रायद्वीप के मध्य स्थित है और उसे पूर्व और पश्चिमी, दो भागों में बांटती है। केन्द्र शासित प्रदेश दमन और दीव के निकट इसका मुहाना लगभग १९० किलोमीटर चौड़ा है, जो तीव्रता सहित २४ किमी तक संकरा हो जाता है। इस खाड़ी में साबरमती, माही, नर्मदा और ताप्ती सहित कई नदियों का विलय होता है।[1] दक्षिण दिशा से दक्षिण पश्चिमी मानसून के सापेक्ष इसकी आकृति और इसकी अवस्थिति, इसकी लगभग १०-१५ मीटर ऊँची उठती और प्रवेश करती लहरों की ६-७ नॉट्स की द्रुत गति के कारण है। इसे शैवाल और रेतीले तट नौपरिवहन के लिए दुर्गम बनाते हैं साथ ही खाड़ी में स्थित सभी बंदरगाहों को लहरों व नदियों में बाढ़ द्वारा लाई गई गाद का बाहुल्य मिलता है। गुजरात से ४ बड़ी, ५ मध्यम, २५ छोटी एवं ५ मरुस्थलीय नदियां खाड़ी में गिरती हैं एवं खाड़ी में प्रतिवर्ष ७१,००० घन मि.मी जल विसर्जित करती हैं।[2] खाड़ी की पूर्व में भरुच नामक भारत का एक प्राचीनतम बंदरगाह शहर एवं सूरत हैं, जो भारत और यूरोप के बीच का आरंभिक वाणिज्यिक संपर्क स्थल के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। ये शहर इसके मुहाने पर स्थित हैं। हालांकि इस खाड़ी में स्थित बंदरगाहों का महत्त्व स्थानीय लोगों हेतु ही है, फिर भी यहाँ पर खनिज तेल के लिये किये गए खोज प्रयासों ने, विशेषकर भरुच के निकट, खाड़ी के मुहाने और बॉम्बे हाई के अपतटीय क्षेत्रों में वाणिज्यिक पुनरुत्थान हुआ है। वर्ष २००० में भारत के तत्कालीन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री, डॉ॰मुरली मनोहर जोशी ने जल के नीचेबड़े स्तर पर मानव-निर्मित ढांचों के मिलने की घोषणा की थी। यद्यपि खाड़ी पर स्थित बंदरगाहों का महत्त्व स्थानीय मात्र ही है, लेकिन यहाँ पर तेल के मिलने और खोज प्रयासों ने, विशेषकर भरुच के निकट, खाड़ी के मुहाने और बॉम्बे हाई के अपतटीय क्षेत्रों में वाणिज्यिक पुनरुत्थान हुआ है। निर्देशांक: 22°10′01″N 72°25′19″E / 22.16694°N 72.42194°E / 22.16694; 72.42194{{#coordinates:}}: cannot have more than one primary tag per page नौसारी, रानीखेत तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। The information in this article appears to be suited for inclusion in a dictionary, and this article's topic meets Wiktionary's criteria for inclusion, has not been transwikied, and is not already represented. It will be copied into Wiktionary's transwiki space from which it can be formatted appropriately. विकार एक हिन्दी शब्द है। === हिंदी में === विकार वास्तविक स्तिथि से अलग कोइ भी बिगदि हुई स्तिथि को विकर कह जाता है। *[[ ]] मोर्ने मोर्केल, दक्षिण अफ़्रीका के प्रमुख क्रिकेट खिलाड़ी हैं। विसेण्टि अलेक्ज़ान्द्रे नोबेल पुरस्कार साहित्य विजेता, १९७७ यह जीवनचरित लेख अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की सहायता कर सकते है। गामा कैसिओपिये, जिसका बायर नाम भी यही (γ Cassiopeiae या γ Cas) है, शर्मिष्ठा तारामंडल का एक तारा है। यह एक परिवर्ती तारा है जिसकी चमक (सापेक्ष कान्तिमान) +२.२० और +३.४० मैग्नीट्यूड के बीच बदलती रहती है। यह तारा बहुत तेज़ी से अपने अक्ष (ऐक्सिस) पर घूर्णन कर रहा है जिस से एक तो इसका अकार पिचक गया है और दूसरा इसकी सतह से कुछ द्रव्य उखड़-उखड़कर इसके इर्द-गिर्द एक छल्ले के रूप में घूमता है। इसी छल्ले की वजह से इस तारे की चमक कम-ज़्यादा होती रहती है। खगोलशास्त्र में ऐसे सभी तारों की एक श्रेणी बनी हुई है जिसके सदस्यों को इसी तारे के नाम पर "गामा कैसिओपिये परिवर्ती" तारे कहा जाता है। यह पृथ्वी से दिखने वाले सब से रोशन तारों में से एक है। गामा कैसिओपिये हमसे लगभग ६१० प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित है।[1] गामा कैसिओपिये तारे का अंग्रेज़ी और अरबी में कोई पारम्परिक नाम नहीं है। कुछ स्रोतों के अनुसार इसे चीनी भाषा में "चिह" (策, Tsih) कहा जाता है। गामा कैसिओपिये B0.5 IVe श्रेणी का एक उपदानव तारा है, जिसका द्रव्यमान हमारे सूरज के द्रव्यमान का १५ गुना और व्यास (डायामीटर) हमारे सूरज के व्यास का १४ गुना है। इसकी तारे की निहित चमक (निरपेक्ष कान्तिमान) सूरज की लगभग ७०,००० गुना है। इसका सतही तापमान २५,००० कैल्विन अनुमानित किया गया है। वास्तव में ग़ौर से देखने पर ज्ञात हुआ है कि इसका एक साथी तारा भी है (यानि यह एक द्वितारा मंडल है), जिसका द्रव्यमान शायद हमारे सूरज के बराबर है। यह गामा कैसिओपिये के मुख्य तारे की एक परिक्रमा हर २०४ दिनों में पूरी कर लेता है। गामा कैसिओपिये से उत्पन्न होने वाली एक्स किरणें (एक्स-रे) अपेक्षा से दस गुना ज़्यादा शक्तिशाली हैं। इसके सही कारण पर खगोल्शात्रियों में आपसी मतभेद है। गामा कैसिओपिये एक दोहरा तारा भी है, जिसके (नज़दीकी साथी के आलावा) दो अन्य ऐसे धुंधले से तारे दिखते हैं जो दूरबीन से इसके पास नज़र आते हैं, हालाँकि शायद हैं नहीं। पहले को गामा कैसिओपिये बी (γ Cas B) और दुसरे को गामा कैसिओपिये सी (γ Cas C) का नाम दिया गया है। याद रहे की मैग्नीट्यूड चमक का ऐसा उल्टा माप है जो जितना अधिक हो तारे की चमक उतनी ही कम होती है। सन् १९३७ में गामा कैसिओपिये की चमक +२.२ मैग्नीट्यूड थी। १९४९ तक यह घटकर +२.९ हो गई। १९६५ में यह बढ़कर +२.७ हुई और २०१० तक यह और भी बढ़कर +२.१४ हो चुकी थी। इस समय यह शर्मिष्ठा तारामंडल के दो अन्य चमकीले तारों (+२.२४ वाले अल्फ़ा कैसिओपिये और +२.२७ वाले बेटा कैसिओपिये) से ज़्यादा रोशन था। तॊट्लवल्लूरु (कृष्णा) में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के कृष्णा जिले का एक गाँव है। ७४११ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से ७४११ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर ७४११ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। ७४५८ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से ७४५८ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर ७४५८ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। ब्राह्मणपल्लॆ (अनंतपुर) में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के अनंतपुर जिले का एक गाँव है। टेल्यूरियम टेट्राक्लोराइड एक अकार्बनिक यौगिक है। सरदार 1955 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। सूचना (Information) एक कॉसेप्ट है। इसके विविध अर्थ होते हैं जैसे - संचार, नियंत्रण, आंकड़ा (डेटा), आदेश, ज्ञान, अर्थ, पैटर्न, आदि। ब्च्ब्व फ्द्व्च फ्ग्द्फ्द्स स्र्फेर्स्फ्स एफ एर एरे ए ए 934 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। व्हाइट कॉलर अमेरिकी टेलिविज़न शृंखला है जिसका प्रीमियर यूएसए नेटवर्क पर अक्टूबर 23, 2009, को हुआ था। इसका निर्माण जैफ़ ईज़टीन ने किया तथा मुख्य भूमिका में मैट बोमर और टिम डीके हैं। शृंखला की कहानी शातिर ठग नील कैफ्री (बोमर) और एफबीआई स्पेशल एजेंट पीटर बर्क के इर्दगिर्द घूमती है। मार्च 9, 2010, को 14 प्रकरणों वाले प्रथम सत्र का अंतिम प्रकरण प्रसारित हुआ। जुलाई 13, 2010, को शृंखला के दूसरे सत्र का प्रीमियर हुआ जो मार्च 8, 2011, तक चला। दूसरे सत्र में प्रथम सत्र की तुलना में तीन अधिक प्रकरण हैं। इतने ही प्रकरण तीसरे और चौथे सत्र में भी हैं जिनका प्रीमियर क्रमशः जून 7, 2011 और जुलाई 10, 2012, को हुआ। मार्च 5, 2013, को चौथे सत्र का सोलहवां प्रकरण प्रसारित हुआ। पाँचवे सत्र का प्रीमियर पिछले सत्रों की तुलना में कुछ महीनों की देरी से अक्टूबर 17, 2013, को हुआ। ईज़टीन की अपनी दूसरी अन्य परियोजनाओं के लिए प्रतिबद्धता के कारण इस सत्र में प्रकरणों की संख्या घटा कर 13 कर दी गई। नील कैफ्री एक शातिर ठग, जालसाज और चोर है जिसे तीन वर्षों के अथक प्रयास के पश्चात एफबीआई स्पेशल एजेंट पीटर बर्क पकड़ लेता है। अपनी चार वर्ष की सजा पूर्ण होने से केवल कुछ महीने पहले कैफ्री जेल से भाग जाता है। वो ऐसा अपनी प्रेमिका केट को ढूंढने के लिए करता है। बर्क उसे फ़िर से ख़ोज कर जेल में पहुँचा देता है। केट को ढूंढने में असफ़ल कैफ्री इस बार एफबीआई के समक्ष एक सौदे का प्रस्ताव रखता है जिसके अंतर्गत उसे जेल से टखने मॉनिटर के साथ मुक्त कर दिया जाए और उसके बदले वह एफबीआई की दूसरे व्हाइट कॉलर अपराध सुलझाने में मदद करेगा। शुरुआती हिचकिचाहट के पश्चात बर्क प्रस्ताव से सहमत हो जाता है और इस तरह एक ऐसी अपरंपरागत व्यवस्था शुरू हो जाती है जिसमें चोर पुलिस की मदद करता है। बृहस्पति देव त्रिगुण (1920 - 2013) एक वैद्य अथवा आयुर्वेदिक चिकित्सक थे। वो पल्स निदान के विशेषज्ञ और पल्स निदान के आयुर्वेदिक तकनिज्ञ थे। उन्हें १९९२ में पद्म भूषण और २००३ में भारत सरकार का द्वितीय सर्वश्रेष्ठ नागरीक सम्मान पद्म विभूषण मिला। त्रिगुण अखिल-भारतीय आयुर्वेदिक कांग्रेस के अध्यक्ष[1] और आयुर्वेद शोध के लिए केन्द्रिय परिषद के निदेशक तथा आयुर्वेद राष्ट्रीय अकादमी के अध्यक्ष सहित विभिन्न सरकारी पदों पर नियुक्त हुये। वो भारत के राष्ट्रपति के निजी चिकित्सक भी रहे।[2] उन्होंने आयुर्वेदिक दवाओं के मानकीकरण तथा भारत के आयुर्वेदिक चिकित्सा महाविद्यालयों के प्रमाणीकरण के क्षेत्र में भी कार्य किया। त्रिगुण ने महाऋषि आयुर्वेद के विकास के लिए महर्षि महेश योगी और अन्य आयुर्वेदिक विशेषज्ञों के साथ सहयोग किया।[3] उनकी प्राथमिक शिक्षा दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के पास सराय काले खान में अभ्यास किया। उन्होंने विश्व के विभिन्न हिस्सों में यात्राएँ की और यूरोप में उन्होंने अपने आयुर्वेदिक क्लिनिक खोले।[4] उनकी अमेरिका यात्रा में चिकित्सा संस्थानों जैसे यूसीएलए, हार्वर्ड और जॉन्स हॉप्किन्स में आयुर्वेद पर संभाषण किया।[5] सन् २००३ में त्रिगुण को भारत सरकार ने द्वितीय सर्वोच्य नागरीक सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित किया।[6] वैद्य बृहस्पति देव त्रिगुण का १ जनवरी २०१३ को सराय काले खान, निजामुद्दीन, नई दिल्ली स्थित उनके घर पर निधन हो गया।[7][8] उनके पुत्र नरेन्द्र त्रिगुण और वैद्य देवेन्द्र त्रिगुण उसी स्थान पर उनके कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं।[9] उमराकोट उर्फ वैडाणू, कर्णप्रयाग तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के चमोली जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। वीरेन्दर लाल चोपड़ा को विज्ञान एवं अभियांत्रिकी के क्षेत्र में सन १९८५ में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया। ये दिल्ली से हैं। बरगड खरसीया मण्डल में भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के अन्तर्गत रायगढ़ जिले का एक गाँव है। सूक्ष्म-इलेक्ट्रॉनिकी (Microelectronics) इलेक्ट्रॉनिकी का एक उपक्षेत्र है। यह अत्यन्त सूक्ष्म आकार के एलेक्ट्रॉनिक अवयवों के अध्ययन एवं उनके विनिर्माण से संबन्धित है। प्रायः (किन्तु हमेशा नहीं) यह आकार माइक्रोमीटर के तुल्य आकार का या इससे छोटा होता है। युक्तियाँ अर्धचालकों से बनायी जाती हैं। आजकल एलेक्ट्रॉनिक डिजाइन में काम आने वाले बहुत से अवयव जैसे ट्रांजिस्टर, संधारित्र, प्रेरकत्व, प्रतिरोध तथा डायोड आदि सूक्ष्मएलेक्ट्रानिक रूप उपलब्ध हैं। फ्रांसीसी गायक और काव्यकार्। लेओ फेरे (गान इस्का वानर ‒ पेपे ‒ के लिए है) निर्देशांक: 27°30′N 79°24′E / 27.5°N 79.4°E / 27.5; 79.4 रम्पुरा फर्रुखाबाद, फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निरल पुरती भारत के झारखण्ड राज्य की मझगांव सीट से झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के विधायक हैं। २०१४ के चुनावों में वे जय भारत समानता पार्टी के उम्मीदवार मधु कोड़ा को 11182 वोटों के अंतर से हराकर निर्वाचित हुए। [1] हरीनगर, कालाढूगी तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के नैनीताल जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। धावा नेपाल के गण्डकी अञ्चल का गोर्खा जिला का एक गांव विकास समिति है। यह जगह मै ८४६ घर है। नेपाल के २००१ का जनगणना अनुसार धावा का जनसंख्या ४०४० है।[1] इसमै पुरुष ४५% और महिला ५५% है। सूरतगढ़ बीकानेर से ११३ मील उत्तर में कुछ पूर्व की तरफ बसा है। यह श्रीगंगानगर जिले में है। यहां एक किला भी है। ई०१८०५ में महाराजा सूरत सिंह ने यहां नया किला बनवाया और इसका नाम 'सूरतगढ़' रखा। पूरा किला ईंटों का बना है जिसमें कुछ महत्व की वस्तुएं अब बीकानेर के किले में सुरक्षित है। इनमें हड़जोरा की पत्तियां, गरुड़, हाथी, राक्षस आदि की आकृतियां बनी है। इसी स्थान से शिव पार्वती, कृष्ण की गोवर्धन लीला तथा एक पुरुष एंव स्री की पकी हुई मिट्टी की बनी हुई मूर्तियां मिली हैं जो अब बीकानेर संग्रहालय में है। निर्देशांक: 26°55′37.80″N 81°11′29.22″E / 26.927167°N 81.19145°E / 26.927167; 81.19145 बाराबंकी भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का एक प्रमुख शहर एवं जिला मुख्यालय है। २८४८ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से २८४८ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर २८४८ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। लिंक एक्स्प्रेस 8189 भारतीय रेल द्वारा संचालित एक मेल एक्स्प्रेस ट्रेन है। यह ट्रेन टाटानगर जंक्शन रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:TATA) से 03:55PM बजे छूटती है और अलाप्पुज्हा रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:ALLP) पर 08:10PM बजे पहुंचती है। इसकी यात्रा अवधि है 52 घंटे 15 मिनट। निर्देशांक: 27°13′N 79°30′E / 27.22°N 79.50°E / 27.22; 79.50 नगला बिशनू छिबरामऊ, कन्नौज, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। आलोक मेहता (जन्म : 07 सितम्बर 1952) हिन्दी के पत्रकार हैं। वे "नई दुनिया" के प्रधान सम्पादक हैं। आलोक मेहता का जन्म 07 सितम्बर 1952 ई॰ को उज्जैन (म॰प्र॰) में हुआ। आपने एम॰ए॰ आधुनिक इतिहास की डिग्री विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से ली। भाषा शैली- सहज, सरल सादगी पूर्ण साहित्यिक खड़ीबोली हिन्दी। यथार्थ परक, सरस, वर्णनात्मक, विचारात्मक, चित्रात्मक शैली। आदि। नवभारत टाईम्नस पटना, हिंदुस्तान . आउटलुक पत्नरिका , नई दुनिया, दिनमान, दैनिक हिन्दुस्तान।[14] पद्मश्री (भारत सरकार) से सम्मानित, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार, हिन्दी अकादमी का साहित्यकार-पत्रकार सम्मान-2006, दिल्ली हिन्दी अकादमी द्वारा श्रेष्ठ लेखन पुरस्कार-1999 पलेण, कांडा तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के बागेश्वर जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। सिएरा इंटरटेनमेंट[1] प्रोटोटाइप (अंग्रेज़ी: Prototype) एक वीडियो गेम है जिसका विकास रैडिकल इंटरटेनमेंट द्वारा व प्रकाशन एक्टिविजन द्वारा किया गया है। इस गेम को उत्तरी अमेरिका में ९ जून २००९ और यूरोप में १२ जून को रिलीज़ किया गया था। यह गेम न्यू योर्क शहर में रचा गया है जहां एक महामारी ब्लैकलाइट पुरे मैनहैटन में फ़ैल रहा है। इससे प्रभावित लोग बदल कर शैतान बन जाते है जो भिन्न भिन्न प्रकार के होते है और जिनका मकसद दूसरे आम लोगो को मारना या प्रभावित करना बन जाता है। इन सब के बिच खेल का मुख्य पात्र एलेक्स मर्सर है जो एक शक्तिशाली रूप बदल सकने वाला इंसान है जिसे अपने भूतकाल की कोई यार्दाश नहीं है। टुकनौली, सल्ट तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 25°36′40″N 85°08′38″E / 25.611°N 85.144°E / 25.611; 85.144 समया-मिलकी घोसवारी, पटना, बिहार स्थित एक गाँव है। इंसान के आपसी और स्वयं अपने साथ संबंधों का एक रुप और स्तर ऐसा भी होता है जो कहानी के आम चालू मुहावरे की पकड़ में अक्सर नहीं आता। ऐसे वक्त शायद कवि की संवेदनशीलता ज्यादा कारगर साबित होती है- न सिर्फ़ अनुभव-तंत्र के एक भिन्न तरंग पर सक्रिय होने के कारण, बल्कि भाषा की सर्जनात्मकता की एक अलग तरह की पहचान और आदत के कारण भी। कवि कुँवर नारायण के कहानी-संग्रह आकारों के आस-पास की कहानियों को पढ़कर इसलिए कुछ ऐसा आस्वाद मिलता है जो आम तौर पर आज की कहानियों से सुखद रुप में अगल है। एक तरह से इन कहानियों की दुनिया कोई खास निजी दुनिया नहीं है, इनमें भी रोज़मर्रा की जिंदगी के ही परिचित अनुभवों को पेश किया गया है। मगर उन्हें देखने वाली नज़र, उसके कोण और इन दोनों के कारण उभरने वाले रूप और भाषाई संगठन का फ़र्क इतना बड़ा है कि इन कहनियों की दुनिया एकदम विशिष्ट और विस्मयकारी जान पड़ती है, जिसमें किसी-न-किसी परिचित संबंध, अनुभव या रुख का या तो कोई अंतर्विरोध या नया अर्थ खुल जाता है, या इसकी कोई नयी परत उभर आती है- जैसा अक्सर कविता के बिम्बों से हुआ करता है। कोई अजब नहीं कि इन कहानियों में यथार्थ और फ़ैंटेसी के बीच लगातार आवाजाही है। दरअसल, फ़ैंटेसी और यथार्थ की मिलावट के अलग-अलग रुप और अनुपात से ही इन कहानियों का अपना अलग-अलग रंग पैदा होता है। ‘संदिग्ध चालें’ में स्त्री-पुरुष संबंधों में तरह-तरह के बाहरी दबावों से उत्पन्न होने वाले तनाव और उनकी टूट-फूट की बड़ी गहरी पीड़ा और करुणा है जो ‘मैं’, महिला, तोते वाला और मूँछोंवाला के इर्द-गिर्द एक फ़ैंटेसी के रूप में बुनी गई है। भाषा में शुरु से आख़ीर तक एक परीकथा-जैसी सहजता और लाक्षणिकता भी है और तीखे तनाव से उत्पन्न काव्यात्मकता भी। ‘उसका यह रुप आईने का मोहताज नहीं, न समय का, क्योंकि वह दोनों से मुक्त आत्मा का उदार सौंदर्य है।‘ या, ‘तुम उनकी ओर मत देखो, केवल मेरी आँखों में देखो जहाँ तुम हो, केवल उत्सव है : जहाँ दूसरे नहीं हैं।‘ और अंत में, ‘स्त्री फ़र्श पर लहूलुहान पड़ी थी : किसी जावन ने उसके कोमल शरीर पर जगह-जगह अपने दाँत और पंजे धँसा दिए थे।‘ ‘दो आदमियों की लड़ाई’ में फ़ैंटेसी कुछ इस अंदाज में ज़ाहिर होती है कि ‘इस सारे झगड़े को कोई कीड़ा देखता होता और उनकी बातचीत को समझता होता तो क्या कभी भी वह आदमी कहलाना पसंद करता?’ अंत में, इस शानदार लड़ाई का इतिहास लिखने का काम पास ही पेड़ पर शांत भाव में बैठे उल्लू को सौंपा गया कि जानवरों की आनेवाली पीढ़ियाँ इस महायुद्ध का वृत्तांत पढ़कर प्रेरणा लें।’ ‘आशंका’ में ‘मैं’ का सामना सीधे एक कीड़े से है। ‘मैं’ को महसूस होता है कि वह कीड़ा ‘अकेला’ नहीं है, अनेक हैं।...इशारा पाते ही वे सब-के-सब कमरे के अंदर रेंग आ सकते थे और मुझे तथा मेरी चीजों को, बल्कि मेरी सारी दुनिया को रौंदकर रख दे सकते थे।’ फैंटेसी के साथ-साथ कुँवर नारायण अपनी बात कहने के लिए तीखे व्यंग की बजाय हलकी विडम्बना या ‘आयरनी’ का इस्तेमाल अधिक करते हैं। इसी से उनके यहाँ फूहड़ अतिरंजना या अति-नाटकीयता नहीं है, एक तरह का सुरुचिपूर्ण संवेदनशील निजीपन है। यह नहीं कि ज़िंदगी के हर स्तर पर फैली हुई कुरुपता, गंदगी, हिंसा, स्वार्थपरता, नीचता उन्हें दीखती नहीं, पर वे उसे घिसे हुए उग्र आक्रामक मुहाविरे की बजाय एक आयासहीन हल्के-धीमे अंदाज में रखते हैं जिससे सचाई की उनकी निजी पहचान शोर में खो नहीं जाती। ‘बड़ा आदमी’ में रेलवे क्रासिंग के चपरासी और डिप्टी कलक्टर के बीच इस प्रकार सामना है : ‘और आज पहली बार एक बड़े आदमी ने दूसरे आदमी के बड़प्पन को पहचाना। वास्तव में बड़ा आदमी वह जिसे कम दिखाई दे, जो अँधेरे और उजाले में फर्क न कर सके।’ ‘चाकू की धार’ में बड़े मियाँ अपने बेटे को अंत में नसीहत देते हैं कि ‘जो चकमा खाकर भी दूसरों को चकमा देना न सीख सके, कभी व्यापार नहीं कर सकता।’ और यह व्यापार ही दुनियादारी है जो घर से शूरू होती है। ‘याद रखो, प्यार या नफरत बच्चे करते हैं, बड़े होकर सिर्फ आदमी व्यापार करते हैं।’ ‘सवाह और सवार’ में कम कपड़े वाले और ज्यादा कपड़े वाले के बीच संघर्ष अंत में यह रुप लेता है : ‘वह मान गया। उसने मेरे सब कपड़े नहीं लिए। कुछ कपड़ों की गठरी बाँधकर चला गया। कह गया, पूरी कोशिश करूँगा कि हम दोनों की इज्ज़त का सवाल है।’ एक साथ कई स्तरों पर व्यंजना की सादगी से ही इन कहानियों में इतनी ताज़गी आती है। मगर इन कहानियों का फैलाव केवल ऐसी प्रतीकात्मक सादगी तक ही सीमित नहीं है। ‘गुड़ियों का खेल’ या ‘कमीज’ जैसी कहानियों में निजी या बाहरी बड़ी गहरी तकलीफ़ मौजूद है। ‘अफ़सर’ में अफ़सरियत की यांत्रिकता, अमानवीयता और साधारण आदमी की पहचान साकार की गई है। ‘जनमति’ में भीड़ के तरल अस्थिर मतामत की एक तस्वीर है, ‘दूसरा चेहरा’ में डरावना और मक्कार दीखनेवाला आदमी के एक बच्चे को ट्रेन से गिरने से बचाने में अपनी जान दे देता है। ‘आत्महत्या’ का कथ्य है : ‘उस मानवीय संविधान को क्या कहा जाए जिसमें जीने और मरने दोनों की संभावनाएँ हों लेकिन साधन की गारंटी एक की भी न हो।’ ‘वह’ में स्त्री-पुरुष के पारस्परिक आकर्षण और उसमें क्रमशः बननेवाले त्रिकोण और चतुष्कोण की बड़ी तल्ख परिणति है। या फिर बड़ी सूक्ष्म प्रतीकात्मकता वाली संग्रह की पहले ही कहानी ‘आकारों के आस-पास’ कहानी और कविता के सीमांत पर रची गई लगती है। दरअसल, ये कहानियाँ काफी फैले हुए फलक पर अनेक मानवीय नैतिक संबंधों, प्रश्नों और मूल्यों को जाँचने, उधेड़ने और परिभाषित करने की कोशिश करती हैं, किसी क्रांतिकारी मुद्रा में नहीं, ब्लकि असलियत की बेझिझक निजी पहचान के इरादे से। बाहरी उत्तेजना भले ही न हो, पर आज की दुनिया में इंसान की हालत को लेकर गहरी बेचैनी और छपटाहट इनमें ज़रूर है। विख्यात व्यक्ति विकोणमान या थिओडोलाइट (Theodolite) उस यंत्र को कहते हैं जो पृथ्वी की सतह पर स्थित किसी बिंदु पर अन्य बिंदुओं द्वारा निर्मित क्षैतिज और उर्ध्व कोण नापने के लिये सर्वेक्षण में व्यापक रूप से प्रयुक्त होता है। सर्वेक्षण का आरंभ ही क्षैतिज और ऊर्ध्व कोण पढ़ने से होता है, जिसके लिये थियोडोलाइट ही सबसे अधिक यथार्थ फल देनेवाला यंत्र है। अत: यह सर्वेक्षण क्रिया का सबसे महत्वपूर्ण यंत्र है। थिओडोलाइट क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर दोनों तरह के कोणों को मापने का उपकरण है, जिसका प्रयोग, त्रिकोणमितीय नेटवर्क में किया जाता है। यह सर्वेक्षण और दुर्गम स्थानों पर किये जाने वाले इंजीनियरिंग काम में प्रयुक्त होने वाला एक सबसे महत्वपूर्ण उपकरण है। आजकल विकोणमान को अनुकूलित कर विशिष्ट उद्देश्यों जैसे कि मौसम विज्ञान और रॉकेट प्रक्षेपण प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में भी उपयोग मे लाया जा रहा है। एक आधुनिक विकोणमान मे एक सचल दूरदर्शी होता है जो दो लम्बवत अक्षों (एक क्षैतिज और दूसरा ऊर्ध्वाधर अक्ष) के बीच स्थित होता है। इस दूरदर्शी को एक इच्छित वस्तु पर इंगित करके इन दोनो अक्षों के कोणों को अति परिशुद्धता के साथ मापा जा सकता है। 19 वीं सदी की शुरुआत में विकसित पारगमन एक विशेष प्रकार का विकोणमान होता था जिसमे दूरदर्शी के लिये कि 'फ्लॉप ओवर' की सुविधा थी जिसके चलते आसानी से पश्च-दृष्टन किया जा सकता था। साथ ही त्रुटि कम करने के लिए कोणों को दोगुना किया जा सकता था। कुछ पारगमन उपकरणों तो सीधे तीस चाप-सेकंड का कोण मापने में सक्षम थे। 20 वीं शताब्दी के मध्य में, पारगमन को एक कम परिशुद्धता के एक साधारण विकोणमान के रूप में जाना जाने लगा था, पर इसमे मापक आवर्धन और यांत्रिक मीटर जैसे सुविधाओं का अभाव था। कॉम्पैक्ट, सटीक इलेक्ट्रॉनिक विकोणमाणों के आने के बाद से पारगमन का महत्व कम हुआ है पर अभी भी निर्माण साइटों पर एक हल्के उपकरण के रूप में इस्तेमाल मे आता है। कुछ पारगमन ऊर्ध्वाधर कोण नहीं माप सकते है। अक्सर एक निर्माण-स्तर को गलती से एक पारगमन मान लिया जाता है, लेकिन वास्तव यह एक तिरछे कोण मापने के यंत्र का एक प्रकार है। यह न तो क्षैतिज और न ही ऊर्ध्वाधर कोण माप सकता है। इसमे एक स्पिरिट-स्तर और एक दूरदर्शी होता है जिसके माध्यम से प्रयोक्ता एक सपाट तल पर एक दृष्य रेखा स्थापित करता है। कोई सैद्धांतिक भिन्नता के न होने पर भी मुख्यत: दो आधारों पर विकोणमानों का वर्गीकरण हुआ है। प्रथम प्रकार के वर्गीकरण का आधार है, दूरबीन ऊर्ध्व समतल में पूरा चक्कर काट सकती है या नहीं। वर्गीकरण का दूसरा आधार है, यंत्रों में लगे अंकित वृत्त के विभाजन-अंश पढ़ने की सुविधा, जैसे वर्नियर विकोणमान, जिसमें वृत्त के विभाजन अंश पढ़ने के लिये वर्नियर मापनी का प्रयोग होता है; माइक्रोमीटर विकोणमान, जिनमें अंश पढ़ने के लिये सूक्ष्ममापी पेचों का प्रयोग होता है; काँच-चाप (glass arc) विकोणमान, जिनमें काँच के अंकित वृत्त होते हैं और उनके पढ़े जानेवाले चापों के प्रतिबिंदु को प्रेक्षक के सामने लाने की प्रकाशीय सुविध की व्यवस्था होती है। वर्नियर थियोडोलाइट ही सबसे पुरानी कल्पना है। पुराने विकोणमानों के अंकित वृत्त बड़े व्यास के होते थे, जिससे कुशल कारीगर इनपर भली प्रकार सही विभाजन कर सकें। इसका निर्माण डेढ़ सौ वर्ष से कुछ पहले भारतीय सर्वेक्षण विभाग के महासर्वेक्षक, कर्नल एवरेस्ट (इन्हीं के नाम पर संसार की सबसे ऊँची, पहाड़ की चोटी का नाम पड़ा है) ने कराया था। वह यंत्र आज भी उक्त विभाग के देहरादून स्थित संग्रहालय में रखा है1 इसके क्षैतिज वृत्त का व्यास एक गज है। काचचाप थियोडोलाइट के क्षैतिज वृत्त का व्यास लगभग 2.5 इंच है। पहले पहल वर्नियर को ही व्यास के आधार पर बाँटा जाता रहा है जैसे 12"", 10"", 8"", 6"" एवं 5"" वर्नियर आदि। वर्नियर की पठनक्षमता 20 सेंकड (किसी-किसी में 10 सेकंड), माइक्रोमीटर की 10 सेकंड यथार्थ और 3 सेंकंड संनिकट तक तथा काचचाप में एक सेकंड तक की है। काचचाप में कुछ विशेष प्रसिद्ध नाम है टैविस्टॉक (Tavistock.), वाइल्ड (Wild), तथा ज़ीस (Ziess) विकोणमान। जिस बिंदु पर अन्य बिंदुओं द्वारा निर्मित कोण ज्ञात करने होते हैं, उसपर तिपाई रखकर यंत्र कस दिया जाता है। ऊध्र्व प्लेट वाली धुरी के नीचेवाले सिरे में एक काँटा लगा रहता है। उसमें एक डोरी से साहुल लटकाकर तिपाई के पैर इस प्रकार जमाए जाते हैं कि साहुल की नोक बिंदु को ठीक इंगित करे। इस क्रिया को केंद्रण कहते हैं। तदुपरांत नेत्रिका को आगे पीछे ऐसे घुमाया जाता है कि मध्यच्छद के क्रूस तंतु स्पष्ट दिखाई दें। फिर दूरबीन पर दिए फोकस पेंच को घुमाकर दूरबीन में दूर की वस्तु का स्पष्ट प्रतिबिंब देखा जाता है। इस क्रिया को फोकस करना कहते हैं। फोकस तब सही माना जाता है जब नेत्रिका के पास आँख धीरे-धीरे ऊपर नीचे करने से प्रतिबिंब तंतुओं से हटता न दिखाई दे। इसे विस्थापनाभास मिटाना कहते हैं। इसके बाद क्षैतिजकारी पेंचों को समुचित रूप से घुमाकर ऊध्र्व प्लेट पर लगे पाणसल का बुलबुला केंद्रित किया जाता है, जिससे प्लेट को घुमाकर किसी भी स्थिति में रखने से बुलबुला केंद्रित रहे। इस क्रिया को क्षैतिजीकरण कहते हैं। पुन: दूरबीन साधने के स्तंभ से लगे एक पेंच से ऊध्र्ववृत्त के वर्नियरों पर लगे पाणसल का बुलबुला केंद्रित कर दिया जाता है। उपर्युक्त क्रियाएँ करने के बाद दूरबीन को घुमाकर ऐसी स्थिति में रोका जाए कि ऊध्र्व वृत्त पढ़ने की, वर्नियरों को शून्यांक रेखा, या निर्देशचिह्न-रेखा, ऊध्र्व वृत्त की रेखा पर संपाती (coincident) हो जाए। तब यदि यंत्र पूर्णतया समंजित (adjusted) हो तो निम्नलिखित प्रमुख दशाएँ प्राप्त होती हैं : (1) यंत्र का ऊध्र्वाधर अक्ष साहुल रेखा पर संपाती होगा। यह नीचे बने स्टेशन बिंदु तथा अंकित क्षैतिज वृत्त के केंद्र से गुजरते हुए दूरबीन के क्षैतिज अक्ष और ऊध्र्व प्लेट पर लगे पाणसल के अक्ष पर समकोण होगा। (2) अंकित क्षैतिज वृत्त, दूरबीन की दृष्टिरेखा और ऊध्र्व वृत्त के वर्नियरों की शून्यांक (निर्देश) रेखा एकदम क्षैतिज होगी। यदि उपयुक्त संबंध स्थापित न हो तो यंत्र पूर्णतया समंजित नहीं है। यंत्र की बनावट में ऐसी सुविधाओं का समावेश रहता है कि इन संबंधों की परीक्षा हो सके और आवश्यक होने पर समंजन क्रिया जा सके। जिंदगी गुल्ज़ार है ज़िंदगी पर आने वाला एक धारावाहिक है। यह 23 जून 2014 से शुरू हुआ।[1] यह कहानी कशाफ मुर्तजा (सनम सईद) और जरून जुनैद (फवाद अफजल खान) के मध्य घूमता रहता है। समर लिन ग्लौ (अंग्रेज़ी: Summer Lyn Glau, जन्म २४ जुलाई १९८१) एक अमेरिकी अभिनेत्री हैं, जो काल्पनिक विज्ञान शृंखला फ़ायरफ़्लाई में "रिवर ताम" व टर्मिनेटर: द सराह कॉनर क्रॉनिकल्स में निभाई, "कैमरोन" की भूमिका के लिए प्रसिद्ध हैं। समर ग्लौ, इंटरनेट मूवी डेटाबेस पर यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 27°11′N 78°01′E / 27.18°N 78.02°E / 27.18; 78.02 बमरौली उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के फ़तेहाबाद प्रखंड में स्थित एक गाँव है।[1]  · अंबेडकर नगर जिला  · आगरा जिला  · अलीगढ़ जिला  · आजमगढ़ जिला  · इलाहाबाद जिला  · उन्नाव जिला  · इटावा जिला  · एटा जिला  · औरैया जिला  · कन्नौज जिला  · कौशम्बी जिला  · कुशीनगर जिला  · कानपुर नगर जिला  · कानपुर देहात जिला  · खैर  · गाजियाबाद जिला  · गोरखपुर जिला  · गोंडा जिला  · गौतम बुद्ध नगर जिला  · चित्रकूट जिला  · जालौन जिला  · चन्दौली जिला  · ज्योतिबा फुले नगर जिला  · झांसी जिला  · जौनपुर जिला  · देवरिया जिला  · पीलीभीत जिला  · प्रतापगढ़ जिला  · फतेहपुर जिला  · फार्रूखाबाद जिला  · फिरोजाबाद जिला  · फैजाबाद जिला  · बलरामपुर जिला  · बरेली जिला  · बलिया जिला  · बस्ती जिला  · बदौन जिला  · बहरैच जिला  · बुलन्दशहर जिला  · बागपत जिला  · बिजनौर जिला  · बाराबांकी जिला  · बांदा जिला  · मैनपुरी जिला  · महामायानगर जिला  · मऊ जिला  · मथुरा जिला  · महोबा जिला  · महाराजगंज जिला  · मिर्जापुर जिला  · मुझफ्फरनगर जिला  · मेरठ जिला  · मुरादाबाद जिला  · रामपुर जिला  · रायबरेली जिला  · लखनऊ जिला  · ललितपुर जिला  · लखीमपुर खीरी जिला  · वाराणसी जिला  · सुल्तानपुर जिला  · शाहजहांपुर जिला  · श्रावस्ती जिला  · सिद्धार्थनगर जिला  · संत कबीर नगर जिला  · सीतापुर जिला  · संत रविदास नगर जिला  · सोनभद्र जिला  · सहारनपुर जिला  · हमीरपुर जिला, उत्तर प्रदेश  · हरदोइ जिला सिलिकॉन मोनोऑक्साइड एक सिलिकॉन यौगिक है। SiBr4 · SiC · SiCl4 · SiF4 · SiI4 · SiO · SiO2 · SiS2 · Si3N4 निर्देशांक: 25°28′N 82°35′E / 25.47°N 82.58°E / 25.47; 82.58 रामपुर लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का एक लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र है। पागकटारा, कोश्याँकुटोली तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के नैनीताल जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। ८०८६ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से ८०८६ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर ८०८६ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 25°27′N 81°51′E / 25.45°N 81.85°E / 25.45; 81.85 हीरामनपुर हंडिया, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। रब्बा मैं क्या करूं[1] अमृत सागर चोपड़ा द्वारा निर्देशित और मोती सागर द्वारा निर्मित 2013 की बॉलीवुड हास्य विधा फ़िल्म है।[2] आकाश चोपड़ा, अरशद वारसी, परेश रावल, ताहिरा कोच्चर और रिया सेन मुख्य अभिनय भूमिकाओं में हैं। इसकी कहानी दो भाइयों की है जिनका विवाह आम भारतीय तरिके से दिल्ली में होता है।[3] फिल्म दो भाइयों (आकाश चोपड़ा और अरशद वारसी) की कहानी है। अरशद वारसी आकाश के छोटे भाई हैं। जो जल्द ही शादी के बंधन में बंधने वाला है। शादी से पहले आकाश को अरशद वारसी और उसके तीन मामा मिलकर खुशहाल शादीशुदा जिंदगी के गुर सिखाते हैं। अन्य राज्यों की तरह उत्तर प्रदेश एड्स नियंत्रण सोसाइटी भी उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार के एड्स नियंत्रण अथवा जन-जागृति का कम करता है।[1] राज्य के सभी जिलों में एड्स को रोकने के लिए और उच्च जोखिम-वाले समूहों और आम जनता में एचआईवी / एड्स के संचरण नियंत्रण में जिला अस्पताल स्तर पर सुरक्षा क्लिनिक नाको द्वारा स्थापित किये गए हैं। वहाँ भी उच्च जोखिम-वाले मामलों जो सामाज की महिला यौन-कार्यकर्ताओं, पुरुषों से यौन सम्बन्ध रखनेवाले पुरुषों और नसों में नशीली दवाओं के उपयोगकर्ताओं और के लिए परामर्श की सुविधा उपलब्ध रहती है।[2] एनईआर रेलवे स्टेशन पर मण्डलीय रेल प्रबन्धक ए के सिंह ने 'माइग्रेन्ट संवेदीकरण परियोजना' का शुभारम्भ करते हुए कहा है कि अन्य प्रदेशों में काम की तलाश में जाने वाले ट्रेन यात्रियों को एचआईवी एड्स के सम्बन्ध में जागरूक करने के लिए रेलवे हर सम्भव सहयोग प्रदान करेगा और इससे सम्बन्धित उपलब्ध सेवाओं के बारे में जानकारी भी उपलब्ध करायेगा। परियोजना के बारे में विस्तार से जानकारी देते हुए उन्होंने कहा कि लोग उत्तर प्रदेश से और खासतौर से पूर्वांचल क्षेत्र से रोजी-रोटी की तलाश में घर परिवार छोड़ कर मुम्बई, सूरत, दिल्ली आदि शहरों में जाते हैं। कुछ अन्तराल के बाद घर वापस आने पर पुनः दूसरे प्रदेश में चले जाते हैं। इस प्रक्रिया को माइग्रेसन कहते हैं। कभी-कभी विस्थापन के दौरान व्यक्ति जानकारी के अभाव में एचआईवी से संक्रमित हो सकता है और घर लौटने के बाद परिवार को भी संक्रमित कर सकता है। इसलिए जरूरी है कि इस तरह के विस्थापितों को एचआईवी एड्स के प्रसार, बचाव, एड्स और यौनरोग से सम्बन्धित जानकारी उपलब्ध करायी जानी आवश्यक है इसलिए इससे सम्बन्धित स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में जागरूक किया जाएगा। राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नाको) के मार्गदर्शन और उप्र राज्य एड्स नियंत्रण सोसाइटी 'माइग्रेन्ट संवेदीकरण परियोजना' का संचालन कर रही है। उत्तर प्रदेश एड्स नियंत्रण सोसाइटी की अपर निदेशक कुमुदलता श्रीवास्तव ने भी बताया कि माईग्रेन्ट संवेदीकरण परियोजना का मुख्य उद्देश्य उत्तर प्रदेश से दूसरे प्रदेशों में काम-धन्धे की तलाश में विस्थापित होने वाले लोगों को एचआईवी/एड्स, एचटीआई ट्रीटमेन्ट एवं कण्डोम प्रमोशन आदि के सम्बन्ध में जानकारी प्रदान करना है, जिससे एचआईवी के संक्रमण को नियंत्रित किया जा सके। उन्होंने कहा कि एचआईवी संक्रमण का प्रसार उत्तर प्रदेश के सामान्य जनसाधारण में अन्य माध्यमों के साथ-साथ विस्थापितों के माध्यम से भी हो रहा है। इसको रोकने के लिए एड्स नियंत्रण सोसाइटी ने रेलवे के सहयोग से 'माइग्रेन्ट संवेदीकरण परियोजना' शुरूआत की है। परियोजना 20 अक्टूबर 2010 से रेलवे स्टेशन चारबाग, वाराणसी कैन्ट रेलवे स्टेशन पर शुरू की जा चुकी है। उनका कहना है कि पलायन करने वाले श्रमिकों के माध्यम से जन समुदाय एवं ग्रामीण क्षेत्र में भी यह बीमारी फैल रही है। बीमारी का कोई टीका और इलाज भी आज तक विकसित नहीं हुआ है, इसलिए एचआईवी एड्स के बारे में जानकारी और सावधानी ही एक मात्र विकल्प है। इस अवसर पर सोसाइटी के अधिकारी, यूनिसेफ के डॉ के भूयन, एडीआरएम रेलवे एके दादरिया, सीनियर डीसीएम राधेश्याम, सीएमएस डॉ किरन मिश्रा और स्टेशन मैनेजर गिरधारी सिंह उपस्थित थे।[3] एचआइवी पॉजिटिव लोगों को मुख्यधारा में लाने के लिएउत्तर प्रदेश एड्स नियंत्रण सोसाइटी मुख्य सचिव और परियोजना के निदेशक ने 2010 में दिशा-निर्देश जरी करके 'एचआइवी/ एड्स के साथ जी रहे लोगों' को सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई सुविधाएँ पहुँचाने को कहा। इन लोगों की समस्याओं को दूर करने के लिए सर्कार ने ग़रीबी-रेखा से निचे रहने की स्थिति के पंजीकरण, जन्म तथा मृत्यु प्रमाणपत्रों के जारी करने और राशन जारी करने के मामलों में प्राथमिकता दी है।[4] उत्तर प्रदेश के ज़िला फ़ैजाबाद[5]में स्थित उत्तर प्रदेश राज्य एड्स नियंत्रण सोसाइटी से जुडी फ़ैजाबाद ज़िला एड्स नियंत्रण सोसाइटी अपने आप में एक निष्क्रिय सरकारी संगठन के रूप में काम कर रही है। इसकी मिसाल इसी साल 2012 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने रक्तदान के लिए जागरूकता पैदा करने के लिए 2012 में एक माह-भर अभियान चलाने का निर्देश से पता चलती है। यह अभियान मई 2012 से 14 जुलाई 2012 तक चलाया जाना था। फैजाबाद जिले में यह जिम्मेदारी जिला एड्स नियंत्रण सोसाइटी की थी कि वह सर्वाधिक बार रक्तदान करने वालों को सूचीबद्ध कर सम्मानित करे तथा पंफलेट, पोस्टर, वालराइटिंग, गोष्ठी, रैली आदि के माध्यम से जनजागरण करे। बावजूद इसके, इस संबंध कार्ययोजना नहीं बनाई गई। इसी से सोसाइटी की इस बाबत गंभीरता को समझा जा सकता है।[6] चंदौली ज़िला एड्स नियंत्रण सोसाइटी उत्तर प्रदेश के ज़िला चंदौली[7] में एड्स रोकथाम का प्रयास प्रयास करती है। चंदौली ज़िला एड्स नियंत्रण सोसाइटी एक सक्रिय भूमिका निभा रही है। सोसाइटी द्वारा २०११ विश्व एड्स दिवस के अवसर पर ज़िला कलेक्ट्रेट से जिला चिकित्सालय तक जागरुकता रैली निकाली गई। रैली का शुभारंभ जिलाधिकारी विजय कुमार त्रिपाठी ने हरी झंडी आगे के लिए रवाना किया। गैर-सरकारी संगठनों के समन्वय की मिसाल इसी समय पर आयोजित खुशी सोसाइटी फॉर सोशल सर्विसेज की ओर से नुक्कड़ नाटक के माध्यम से एड्स की विस्तृत जानकारी में देखने को मिली। एक और गैर-सरकारी संगठन मानव सेवा एवं पर्यावरण संरक्षण समिति के कार्यालय पर गोष्ठी आयोजित कर एड्स के प्रति लोगों को जागरुकता के प्रयास में भी ऐसी ही मिसाल सामने आई। मानव सेवा केंद्र की ओर से भी जिला क्षय रोग अधिकारी के नेतृत्व में जागरुकता रैली निकाली गई।[8] मैनपुरी ज़िला एड्स नियंत्रण सोसाइटी उत्तर प्रदेश के ज़िला मैनपुरी[9] में एड्स रोकथाम का प्रयास प्रयास करती है। मैनपुरी ज़िला एड्स नियंत्रण सोसाइटी एक सक्रिय भूमिका निभा रही है। सोसाइटी द्वारा समय-समय जागरूकता कार्यक्रम आयोजित होते रहे हैं और इसी श्रृंखला में २०११ में विजिला एड्स नियंत्रण सोसाइटी के तत्वावधान में आयोजित स्वैच्छिक रक्तदान शिविर का बड़े पैमाने पर आयोजित हुआ। इस शिवर रक्तदान को पुन्य के काम के रूप में पेश किया गया और एड्स के प्रति भी जागरूकता का प्रयास किया गया।[10] चित्रकूट ज़िला एड्स नियंत्रण सोसाइटी उत्तर प्रदेश के ज़िला चित्रकूट[11] में एड्स रोकथाम का प्रयास करती है। चित्रकूट ज़िला एड्स नियंत्रण सोसाइटी एक सक्रिय भूमिका निभा रही है। सोसाइटी द्वारा समय-समय जागरूकता कार्यक्रम आयोजित होते रहे हैं और इसी श्रृंखला में विश्व एड्स दिवस २०११ पर स्वास्थ्य विभाग सहित अनेक संस्थानों में कार्यक्रम आयोजित किए गए। जिला एड्स नियंत्रण सोसाइटी के तत्वावधान में सीआईसी से महिला जिला चिकित्सालय तक एड्स जागरूकता रैली निकाली गई। जिला चिकित्सालय में संगोष्ठी आयोजित की गई। जिला चिकित्सालय में एड्स विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया।[12] एलिजाह जॉर्डन वुड (अंग्रेजी: Elijah Jordan Wood), एक अमेरिकी अभिनेता है। इलाइज़ा का जन्म 28 जनवरी 1981 को संयुक्त राज्य अमेरिका के आयोवा में हुआ था। इलाइज़ा ने अपने अभिनय की शुरुआत 1989 में बैक टू द फ़्यूचर-भाग II नामक फिल्म में एक छोटी सी भूमिका से की थी, पर उसके बाद निभाई गयी महत्वपूर्ण भूमिकाओं ने उसे 9 साल की उम्र तक एक प्रसिद्ध बाल कलाकार बना दिया था।. विनायक सीताराम सर्वते को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन १९६६ में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। ये मध्य प्रदेश से हैं। गुरुत्व विभव या गुरुत्वीय विभव (अंग्रेज़ी: Gravitational potential) चिरसम्मत यांत्रिकी में उस कार्य को कहा जाता है जो किसी इकाई द्रव्यमान वाली वस्तु को प्रेक्षण बिन्दु तक लाने गुरुत्वीय बल के विरूध करना पडता है। यह विद्युत विभव के समान ही है, केवल आवेश के स्थान पर यहाँ द्रव्यमान का उपयोग होता है। इसकी विमा विद्युत विभव के समान नहीं होती। चूँकि गुरुत्वीय विभव (V) इकाई द्रव्यमान के लिए गुरुत्वीय ऊर्जा (U) के समान होता है, अतः जहाँ m वस्तु का द्रव्यमान है। अनन्त से किसी बिन्दु (प्रेक्षण बिन्दु) तक बिन्दु द्रव्यमान m को M द्रव्यमान वाले बिन्दु द्रव्यमान के गुरुत्वीय क्षेत्र में, इसके गुरुत्वीय क्षेत्र में लाने में किया गया कार्य उस बिन्दु पर गुरुत्वीय विभव (V) होता है: यहाँ G गुरुत्वीय नियतांक है जिसका अन्तर्राष्ट्रीय इकाई प्रणाली में मान 6.67384×10-11घन मीटर प्रति किलोग्राम प्रति वर्ग सैकण्ड होता है।[1][2] लाँग बीच एक शहर हैं लॉस आंजलेस काऊंटि, केलिफ़ोर्निया मैं। पसिफ़िक माहासागर तोह किनारा लगता है। ऑरंज काऊंटि इस शहर दक्षिन पुर्व से किनारा लगता है। लॉस आंजलेस से ३० कि.मि. जादा दक्षिन है। ऑप्टोइलेक्ट्रॉनिक्स भौतिकी की वह शाखा है, जिसमें उन इलेक्ट्रॉनिक युक्तियों का अध्ययन किया जाता है, जो प्रकाश उत्सर्जित, नियंत्रित या प्राप्त करती हैं। भूपिंदर सिंह भल्ला दमन और दीव ऑर दादरा और नगर हवेली के प्रशासक। अरुणाचल प्रदेश: निर्भय शर्मा असम: पद्मनाभ बालकृष्ण आचार्य आंध्र प्रदेश: ई॰ एस॰ एल॰ नरसिंहन उत्तराखंड: कृष्णकांत पॉल उत्तर प्रदेश: राम नाईक ओडिशा: एस सी जमीर कर्नाटक: वजुभाई वाला केरल: पी सतशिवम गुजरात: ओम प्रकाश कोहली गोवा: मृदुला सिन्हा छत्तीसगढ़: बलराम दास टंडन जम्मू कश्मीर: नरिंदर नाथ वोहरा झारखंड: द्रौपदी मुर्मू तमिलनाडु: कोनिजेटी रोसैया त्रिपुरा: पद्मनाभ बालकृष्ण आचार्य तेलंगाना: ई॰ एस॰ एल॰ नरसिंहन नागालैंड: पद्मनाभ बालकृष्ण आचार्य पंजाब: कप्तान सिंह सोलंकी पश्चिम बंगाल: केसरी नाथ त्रिपाठी बिहार: केसरी नाथ त्रिपाठी मणिपुर: के के पॉल मध्य प्रदेश: राम नरेश यादव महाराष्ट्र: चेन्नामनेनी विद्यासागर राव मेघालय: केसरी नाथ त्रिपाठी मिजोरम: अज़ीज़ क़ुरैशी राजस्थान: कल्याण सिंह सिक्किम: श्रीनिवास दादासाहेब पाटील हरियाणा: कप्तान सिंह सोलंकी हिमाचल प्रदेश: कल्याण सिंह अंडमान एवं निकोबार: ए॰के॰ सिंह चंडीगढ़: कप्तान सिँह सोलंकी दादरा और नगर हवेली: आशीष कुंद्रा दिल्ली: नजीब जंग दमन एवं दीव: आशीष कुंद्रा लक्षद्वीप: एच॰ राजेश प्रसाद पुदुच्चेरी: ए॰ के॰ सिंह यह जीवनचरित लेख अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की सहायता कर सकते है। ननकाना साहिब, पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त में स्थित एक शहर है। इसका वर्तमान नाम सिखों के पहले गुरू गुरू नानक देव जी के नाम पर पड़ा है। इसका पुराना नाम 'राय-भोई-दी-तलवंडी' था। यह लाहौर से ८० किमी दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। इसकी जनसंख्या ६०,००० है। चूंकि यह स्थान गुरू नानक देव का जन्मस्थान है, यह सिखों का पवित्र ऐतिहासिक स्थान (तीर्थ) है। यह विश्व भर के सिखों का प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। यहाँ का गुरुद्वारा साहिब बहुत प्रसिद्ध है। महाराजा रणजीत सिंह ने गुरु नानकदेव के जन्म स्थान पर गुरुद्वारा का निर्माण कराया था। गुरु नानक जी का जन्म स्थान होने के कारण यह स्थान सिख मत के सबसे पवित्र स्थलों में से एक है। यहां भव्य एवं दिव्य गुरुद्वारा है। गुरुग्रंथ साहिब के प्रकाश स्थान के चारों ओर लम्बी चौड़ी परिक्रमा है। गुरुग्रंथ साहिब को मत्था टेककर श्रद्धालु इसी परिक्रमा में बैठकर शबद-कीर्तन का आनन्द लेते हैं। परिक्रमा में गुरु नानकदेव जी से संबंधित कई सुन्दर पेंटिग लगी हुई हैं। ननकाना साहिब में सुबह तीन बजे से ही श्रद्धालुओं का तांता लग जाता है। रंग-बिरंगी रोशनियों से जगमग करता ननकाना साहिब एक स्वर्गिक नजारा प्रस्तुत करता है। पवित्र सरोवर में स्नान करने वालों का सैलाब उमड़ पड़ता है। रागी साहिबान द्वारा गुरुवाणी के शबद कीर्तन का प्रवाह रात तक चलता रहता है। हॉल में बैठकर श्रद्धालु लंगर छकते हैं। पहले पंगत फिर संगत की शानदार प्रथा ढेरों गुण समेटे हुए है। दुनियाभर से हजारों हिन्दू, सिख गुरु पर्व से कुछ दिन पहले ननकाना साहिब पहुंचते हैं और दस दिन यहां रहकर विभिन्न समारोहों में भाग लेते हैं। शानदार नगर कीर्तन निकाला जाता है। यात्रियों के ठहरने के लिए यहां कई सराय हैं। यह पाकिस्तान के सबसे तेज गति से विकसित होने वाले स्थानों में से एक है। गुरु नानकदेव के जन्म के समय इस जगह को 'रायपुर' के नाम से भी जाना जाता था। उस समय राय बुलर भट्टी इस इलाके का शासक था और बाबा नानक के पिता उसके कर्मचारी थे। गुरु नानकदेव की आध्यात्मिक रुचियों को सबसे पहले उनकी बहन नानकी और राय बुलर भट्टी ने ही पहचाना। राय बुलर ने तलवंडी शहर के आसपास की 20 हजार एकड़ जमीन गुरु नानकदेव को उपहार में दी थी, जिसे 'ननकाना साहिब' कहा जाने लगा। ननकाना साहिब के आसपास 'गुरुद्वारा जन्मस्थान' सहित नौ गुरुद्वारे हैं। ये सभी गुरु नानकदेव जी के जीवन के महत्त्वपूर्ण पहलुओं से संबंधित हैं। जिस स्थान पर नानकजी को पढ़ने के लिए पाठशाला भेजा गया, वहां आज पट्टी साहिब गुरुद्वारा शोभायमान है। बेवर्ली हिल्स हाई स्कूल (अंग्रेज़ी: Beverly Hills High School) (आमतौर पर "बेवर्ली" या "बीएचएचएस" से संक्षिप्तीकरण किया जाता है) बेवर्ली हिल्स, कैलिफोर्निया में स्थित एकमात्र मुख्य पब्लिक हाई स्कूल है। बेवर्ली बेवर्ली हिल्स यूनिफाइड स्कूल डिस्ट्रिक्ट का हिस्सा है और बेवर्ली हिल्स के पश्चिम की तरफ 19.5 एकड़ (79,000 मी2) में फैला हुआ है, तथा लॉस एंजिंल्स के सेंचुरी शहर क्षेत्र की सीमा पर है। जमीन पहले बेवर्ली हिल्स स्पीडवे बोर्ड ट्रैक का हिस्सा थी, जो सन् 1924 में विध्वंस कर दिया गया था। बेवर्ली की स्थापना पूरे बेवर्ली हिल्स क्षेत्र के लिए 1927 में कि गई। हठीसिंह परिवार अहमदाबाद, गुजरात का एक पुराना जैन परिवार है। अहमदाबाद के कई मंदिर और धर्मार्थ संस्थाओं की स्थापना या निर्माण इस व्यापारिक परिवार ने करवाई है। जवाहरलाल नेहरू की बहन, कृष्णा हठीसिंह, का विवाह इस परिवार में हुआ था। सेर्रानो गोल्डेन मोजेक वाइरस एक विषाणु है। यह पौधों में रोग उत्पन्न करता है। सूखाबुडम, लोहाघाट तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के चम्पावत जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। सेंट मार्टिन, आधिकारिक तौर पर कलेक्टिविटी आफ सेंट मार्टिन कैरेबियन सागर पर स्थित फ्रांस का अलग प्रवासी संघ है। इसका संवैधानिक अस्तित्व 22 फ़रवरी 2007 को आया, जब सेंट मार्टिन द्वीप के उत्तरी हिस्से और छोटे द्वीपों को एक समूह माना गया। द्वीप का दक्षिण हिस्सा, सिंट मार्टान नीदरलैंड एंटीलिज का हिस्सा है। ४०० किलोमीटर लंबा यह राजमार्ग महाराष्ट्र में शोलापुर को औरंगाबाद से जोड़ता है। इसका रूट शोलापुर - ओसमानाबाद – [औरंगाबाद]] है। रूसी लोग (रूसी भाषा: русские, रुस्किये) एक पूर्वी स्लाव जातीय समूह है जो मूल रूप से रूस का निवासी है।[1] रूसी लोग रूसी भाषा बोलते हैं और ज़्यादातर रूस और उसके पड़ोसी देशों में रहते हैं। राष्ट्रीयता के नज़रिए से रूस के सभी नागरिकों को भी कभी-कभी रूसी कहा जाता है हालाँकि उनमें से बहुत से रूसी जाति के नहीं होते हैं, मसलन तातार लोग, निव्ख़ लोग और चरकस लोग। २०१० की जनगणना के अनुसार रूस के ८१% लोग रूसी जाति के थे। दुनिया भर में रूसी जाति के लोगों की कुल आबादी १३.३ करोड़ अनुमानित की गई है।[2] समुन्द्र के तटीय छेत्र में उगने वाले पौधौ का वन, यह समुन्द्र के तटीय छेत्रो में पानी में पैदा होने वाले वनस्पतियो की झाडियों का जंगल भी कहा जाता है। नरसापुरं (कृष्णा) में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के कृष्णा जिले का एक गाँव है। इटली की कुल जनसंख्या 50,000 है।[1] हनीमून 1992 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। राजस्थान और गुजरात के ग्रामीण अंचलों में होली के त्यौहार पर किया जाने वाला समूह नृत्य, प्रमुखतः जिसमें पुरुष नर्तक हाथों में लंबे डंडे थाम कर लोक वाद्यों की ताल पर नाचते हैं। इन डंडो को रंग से सजाए जाते हैँ| कोई इनको बनाने के लिए गीली लकडी पर ही छाल लपेटकर आग मेँ सेँकते है जिसे अच्छी डिजाइन तैयार हो जाती है| मारवाड अंचल खास कर सिरोही व जालोर मेँ इन डंडो को डीडीएँ तथा नाचने वालो को गैरीएँ कहा जाता है| यह नृत्य होली से शूरु होकर शीतला सप्तमी तक चलता है|| निर्देशांक: 26°43′41″N 77°01′59″E / 26.728°N 77.033°E / 26.728; 77.033 हिण्डौन भारत के राज्य राजस्थान का एक उपजिला है। इसे हिंदौन तथा हिंडोन के नाम से भी जाना जाता है। इसका मुख्यालय हिण्डौन है। यहां मुख्यतः सभी समुदाय के लोग रहते हैं। विन्ध्याचल उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले का एक धार्मिक दृष्टि से प्रसिद्ध कस्बा है। यहाँ विन्ध्यवासिनी का मंदिर है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, विन्ध्यवासिनी ने महिषासुर का वध करने के लिये अवतार लिया था। यह नगर गंगा के किनारे स्थित है। भारतीय मानक समय (IST) की रेखा विन्ध्याचल के रेलवे स्टेशन से होकर जाती है। गूडूरु (कृष्णा) में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के कृष्णा जिले का एक गाँव है। G श्रेणी का मुख्य-अनुक्रम तारा (G-type main-sequence star या G.V), जिसे पीला बौना या G बौना भी कहा जाता है, ऐसे मुख्य अनुक्रम तारे को बोलते हैं जिसकी वर्णक्रम श्रेणी G हो और जिसकी (तापमान और चमक पर आधारित) यर्कीज़ श्रेणी V हो। इन तारों का द्रव्यमान (मास) सूरज के द्रव्यमान का ०.८ से १.२ गुना और इनका सतही तापमान ५,३०० कैल्विन से ६,००० कैल्विन के बीच होता है।[1] अन्य मुख्य अनुक्रम तारों की तरह G V तारे भी अपने केंद्र में नाभिकीय संलयन (फ्यूज़न) के ज़रिये हाइड्रोजन से हीलियम बनाते हैं और इसमें बहुत उर्जा बनती है। हमारा सूरज भी एक G V है और प्रति सैकिंड यह ६० करोड़ टन हाइड्रोजन को संलयित करके हीलियम बना देता है जिसमें क़रीब ४० लाख टन पदार्थ ध्वस्त होकर ऊर्जा बन जाता है। हमारे सूरज के अलावा मित्र "ए" (Alpha Centauri A), टाऊ सॅटाए (τ Ceti) और ५१ पॅगासाई (51 Pegasi) भी कुछ अन्य जाने-माने G श्रेणी के मुख्य अनुक्रम तारे हैं।[2][3][4] इन तारों को 'पीला बौना' कहा जाता है लेकिन वास्तव में इनका रंग सफ़ेद से लेकर हल्का पीला होता है। सूरज जैसे अधिक तापमान और चमक वाले तारे सफ़ेद और कम तापमान वाले तारे पीले-से होते हैं। ध्यान दें कि हमारा सूरज वास्तव में श्वेत होने के बावजूद हमारे वातावरण में किरणों के रेले बिखराव (Rayleigh scattering) से पीला प्रतीत होता है। इस बात पर भी ग़ौर करें कि सूरज जैसे तारों को बौना तारा कहा जाता है क्योंकि यह दानव तारों, महादानव तारों और परमदानव तारों से छोटे होते हैं, लेकिन संख्या के हिसाब से हमारे सूरज जैसे पीले बौने हमारी गैलेक्सी में मिलने वाले ९०% तारों से अधिक रोशन होते हैं। यह कम रोशन तारे नारंगी दानव (K श्रेणी के बौने), लाल बौने और सफ़ेद बौने जैसे तारे होते हैं। एक साधारण G V तारा लगभग १० अरब वर्षों तक हाइड्रोजन इंधन का संलयन करता है जिसके बाद इसके केन्द्रीय भाग में हाइड्रोजन लगभग ख़त्म हो जाता है। ऐसे होने पर तारा फूलने लगता है और अपने पहले के आकार से कई अधिक बड़ा होकर एक लाल दानव बन जाता है। ऐसा रोहिणी तारे (उर्फ़ ऐल्डॅबरैन या ऐल्फ़ा टौ) के साथ हो चुका है और आज से अरबों साल बाद हमारे सूरज के साथ भी होगा।[5] अंत में जाकर यह लाल दानव अपनी बाहरी परतें त्याग देता है और वे एक सिकुड़े-हुए घने और ठन्डे केन्द्रीय सफ़ेद बौने तारे के इर्द-गिर्द विस्तृत एक ग्रहीय नीहारिका बन जाती हैं। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 27°53′N 78°04′E / 27.89°N 78.06°E / 27.89; 78.06 जीजाथल अतरौली, अलीगढ़, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। वड्डा-ब०म०-१, सतपुली तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के पौड़ी जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। बायतू विधानसभा क्षेत्र राजस्थान का एक विधानसभा क्षेत्र है।[1][2][3] सूरा-मवाल.-३, चौबटाखाल तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के पौड़ी जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। लूसियन (लगभग ११७ - १८० ई.) यूनानी वक्ता तथा लेखक। वह अपनी आलंकारिक एवं वैधिक वक्तृताओं तथा हास्य व्यंग्य संवादों के लिए प्राचीन साहित्य के इतिहास में प्रसिद्ध है। लुसियन सीरिया में, फरात नदी के किनारे स्थित सैमोसाता नगर के मूर्तिकार परिवार में उत्पन्न हुआ था। प्रारंभ में अपने चाचा से मूर्तियाँ बनाना सीखा, किंतु बाद में उसकी रुचि बदल गई और उसने सोफिस्त विचारकों की आलंकारिक एवं वैधिक संभाषण कला का अध्ययन किया। कुछ समय तक, वह अंतिओक नामक स्थान पर, वकालत करता रहा, पर इस व्यवसाय में उसे कोई विशेष सफलता प्राप्त न हुई। अतएव न्यायालय के दायरे से निकलकर वह सोफिस्त वक्ता बन गया। इस नए व्यवसाय के सहारे उसने एशिया माइनर, मकदूनिया, यूनान, इटली और गाल का भ्रमण किया। रोम में प्लेटो के मतानुयायी निग्रीनस से उसकी मुलाकात हुई थी। १६५ ई. के आसपास वह स्थायी रूप से यूनान के एथेंस नगर में बस गया। वहीं उसने अपने जीवन का शेष भाग लगभग पूरा कर लिया था। इसी काल में उसने लेखनकार्य किया। लूसियन का युग पुराने विश्वासों के ह्रास का युग था। पुरानी परंपराएँ, जो जीवित भी थीं, अपना अर्थ खो चुकी थीं। युग की प्रवृत्तियों के अनुरूप उसने व्यंग्य साहित्य का प्रणयन प्रारंभ किया। उसे अच्छी सफलता मिली। अंतिम दिनों में वह मिस्र देश में किसी उच्च पद पर नियुक्त हो गया था। वहीं उसकी मृत्यु हुई। लूसियन के नाम पर लगभग ७९ गद्य ग्रंथ, २ उपहासात्मक त्रासदियाँ तथा ५३ सूक्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इन रचनाओं की प्रामाणिकता के संबंध में कोई निश्चित स्थापना नहीं की जा सकती। उचित रूप में क्रमनिर्धारण भी संभव नहीं। केवल यही कहा जा सकता है कि उसने अपरिपक्व अवस्था में आलंकारिक तथा प्रौढ़ होने पर व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग किया होगा। उसके विस्तृत साहित्य की मुख्य प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं - इस श्रेणी की दूसरी पुस्तक 'सत्य कथा' है। इसमें जलयात्रियों के एक जत्थे के, जो 'हरक्यूलिस के स्तंभों' से रवाना हुआ था, साहसिक अनुभवों का वर्णन किया गया है। उनका जलपोत वायुमंडल में चला जाता है, जहाँ चंद्रमा और सूर्य के बीच उषा नक्षत्र पर अधिकार का निबटारा करने के लिए युद्ध छिड़ा हुआ था। यात्रियों ने चंद्रमा की ओर से युद्ध में भाग लेकर अपूर्व शौर्य प्रदर्शन किया। लूसियन की इस उपहासात्मक वीर गाथा को अंग्रेज लेखक जोनेथन स्विफ्ट के 'गलीवर्स् ट्रेवेल्स्' का आधार माना जाता है। 'आक्श्न ऑव फ़िलॉसॉफर्स्' (दार्शनिकों का नीलाम) में तो लूसियन ने सुकरात, अरस्तू आदि महान् दार्शनिकों को, बाजार में खड़ा कराकर, सबसे अधिक दाम लगानेवालों के हाथ बिकवाकर, साफ साफ कह दिया है कि प्राचीन काल के भव्य भवनों में सियार और भेड़ियों ने डेरे डाल रखे हैं। इरफ़ान ख़ान (पूरा नाम मोहम्मद इरफ़ान खान- जन्म ४ नवंबर १९६६) का जन्म मध्य प्रदेश के ग्वालियर[1] शहर में हुआ था। स्थानीय अखबार दैनिक भास्कर और स्वदेश में सन ८२-१९८९ तक कार्टून बनाते रहे। दिल्ली की श्रीधरणी आर्ट गैलरी में अपनी प्रदर्शिनी के दौरान वे नवभारत टाइम्स लखनऊ के लिये चुन लिये गए। १९९४ में दिल्ली आकर इकोनोमिक टाइम्स, फ़ाइनेन्शिअल एक्स्प्रेस,एशियन ऐज, में स्टाफ़ कार्टूनिस्ट रहे। २००० में ज़ी न्यूज़ में वरिष्ठ कार्टूनिस्ट के पद पर काम करते हुए अपना टाक शो शख्शियत होस्ट किया, २००३ में एनडीटीवी के शो गुस्ताखी माफ़ की स्क्रिप्ट लिखी और सहारा समय पर इतनी सी बात होस्ट किया। अब तक ३ संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। एन्सीईआरटी के पाठ्यक्रम की पुस्तकों में देश के बच्चे इरफ़ान के कार्टून पढ़ रहे हैं। जापान फ़ाउन्डेशन ने २००५ में उन्हें एशिया के ४ श्रेष्ठ कार्टूनिस्टों में चुना और भारत का नेतृत्व करने के लिये जापान निमन्त्रित किया।[2] अनेक पुरस्कारों से सम्मानित इरफ़ान अब तक ६ कार्टून प्रदर्शिनियाँ कर चुके हैं। जिनमें क्रिकेट, आतंकवाद, साम्प्रदायिक्ता और ग्लोबल वार्मिन्ग पर प्रदर्शिनियाँ काफ़ी चर्चित रही हैं। २००७ में मिड डे अखबार में भारत के पूर्व मुख्य न्यायधीश पर कार्टून बनाने पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने इरफ़ान को ४ महीने की सज़ा सुनाई। यह मामला अभी उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है। ९६८ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से ९६८ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर ९६८ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। लियाओ राजवंश (चीनी: 遼朝, लियाओ चाओ; ख़ितानी: मोस जैलुत; अंग्रेजी: Liao Dynasty) जिसे ख़ितानी साम्राज्य ( 契丹國, चिदान गुओ, Khitan Empire) भी कहा जाता है पूर्वी एशिया का एक साम्राज्य था जो मंगोलिया, कज़ाख़स्तान के कुछ भागों, रूस के सुदूर पूर्वी भागों और उत्तरी चीन पर विस्तृत था। इसकी स्थापना चीन में तंग राजवंश के पतन के दौरान ख़ितानी लोगों के महान ख़ान अबाओजी ने की थी। यह साम्राज्य ९०७ ईसवी से ११२५ ईसवी तक चला। सन् ११२५ ई में जुरचेन लोगों के जिन राजवंश (१११५–१२३४) ने लियाओ राजवंश का नाश कर दिया।[1] फिर भी इसके कुछ लोग बचकर निकल गए और येलु दाशी नामक नेता के नेतृत्व में उन्होंने कारा-ख़ितान ख़ानत की नीव रखी। यह ख़ानत ११२५ ईसवी से १२२० ईसवी तक चली और इसका प्रभाव मध्य एशिया से ईरान तक फैला हुआ था।[2] १२२० ईसवी में चंगेज़ ख़ान की मंगोल फ़ौज ने इसे ध्वस्त कर दिया। मार्सैय (फ्रांसीसी: Marseille) फ्रांस का दूसरा सबसे बड़ा नगर है। इस नगर की जनसंख्या ८ लाख है और वृहद्तर मार्सेय की जनसंख्या १५ लाख है। फिनिसियन इस क्षेत्र में बसने वाले प्रथम लोग थे और उन्होंने इस क्षेत्र को मासिलिया कहा। वे ईसा से ६०० वर्ष पूर्व यहाँ बसे थे। उन्होंने सफलतापूर्वक इस नगर को बसाया। फिनिसियन लोग बहुत सफल लोग थे और उनके समय में यह नगर एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र बना। वे ही प्रथम लोग थे जिन्होंने पश्विमी यूरोप में प्रथम सीवर प्रणाली विकसित की थी। १२१८ में इस नगर को स्वायत्ता प्रदान हुई। १३४७ में फ्रांस में प्लेग नामक बीमारी आई जो इस क्षेत्र में भी फैली। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नवंबर १९४२ से अगस्त १९४४ तक जर्मनों ने इस नगर पर आधिपत्य कर लिया और बहुत से बन्दरगाह नष्ट कर दिए। बाद में हुई खुदाईयों से क्वै दु पोर्ट और रु कैसेर नामक बन्दरगाहों के अवशेष मिले। ओलम्पीक मार्सेय नगर की फुटबॉल टीम है। यह क्लब फ़्रांसीसी फुटबॉल में एतिहासिक रूप से सबसे बड़े क्लबों में से एक रहा है। ओलम्पीक मार्सेय प्रथम लीग में है और इसकी स्थापना १८९९ में की गई थी। यह क्लब घरेलू मैच वेलोद्रोम स्टेडियम (Stade Vélodrome) में खेलता है जिसकी दर्शक क्षमता ६०,०३१ की है। एयर फ्रांस की उड़ाने इस नगर को पैरिस से होते हुए कोपनहेगन से जोडती हैं। हरडा मौलेखी, सल्ट तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। अरे खप में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत मगध मण्डल के औरंगाबाद जिले का एक गाँव है। फ़र्रूख़ाबाद जिले का एक गाँव। अवाजपुर. अकरखेरा • अकबरगंज गढ़िया • अकबरपुर • अकबरपुर दामोदर • अकराबाद • अचरा  • अचरातकी पुर • अचरिया वाकरपुर • अजीजपुर • अजीजाबाद • अटसेनी • अटेना • अतगापुर • अताईपुर  • अताईपुर कोहना • अताईपुर जदीद • अतुरुइया • अद्दूपुर  • अद्दूपुर डैयामाफी • अब्दर्रहमान पुर • अमरापुर • अमिलापुर  • अमिलैया आशानन्द • अमिलैया मुकेरी • अरियारा • अलमापुर • अल्लापुर  • अल्लाहपुर • अलादासपुर • अलियापुर • अलियापुर मजरा किसरोली • अलेहपुर पतिधवलेश्वर • असगरपुर • अहमद गंज • आजम नगर • आजमपुर  • इकलहरा • इजौर • इमादपुर थमराई • इमादपुर समाचीपुर • ऊगरपुर  • उम्मरपुर  • उलियापुर  • उलीसाबाद  • उस्मानपुर  •  • ऊगरपुर  • ऊधौंपुर  •  • अंगरैया  • ककरोली • कटरा रहमतखान • कटरी तौफीक गड़ियाहैबतपुर • कटरी दुंध • कटरी रम्पुरा • कटरीरूपपुर मंगलीपुर • कटिया  • कनासी • कम्पिल  • कमठारी • कमरुद्दीन नगर • कमलैयापुर • कर्हुली • करनपुर • करनपुर गंगतारा • करीमनगर • कमालगंज  • कमालपुर • कलिआपुर सैनी • कादर दादपुर सराय • कायमगंज  • कायमपुर • कारव • कासिमपुर तराई • काँधेमई • किन्नर नगला • किसरोली  • कुतुबुद्दीनपुर कुइयां सन्त • कुबेरपुर • कुंअरपुर इमलाक • कुंअरपुर खास • कुंइयाखेरा • कुइयांधीर • कुंआखेरा खास  • कुंआखेरा वजीरआलम खान • कुरार • कैराई • कैलिहाई • कैंचिया  • कोकापुर • ख्वाजा अहमदपुर कटिया • खगऊ  • खलवारा  • खलवारा • खानपुर • खिनमिनी • खुदना धमगवाँ • खुदना वैद • खुम्मरपुर  • खेतलपुर सौंरिया • खेमपुर • ग्रासपुर • ग्रिड कायमगंज • गठवाया • गड़िया हैबतपुर • गदनपुर वक्त • गदरपुर चैन • गनीपुर जोगपुर • गिलासपुर  • गुटैटी दक्खिन • गुठिना • गुसरापुर • गूजरपुर • गोविन्दपुर अस्दुल्ला • गोविन्दपुर हकीमखान • गौरखेरा • गौरीमहादेव पुर • गंगरोली मगरिब • गंगलउआ  • गंगलऊ परमनगर • घुमइया रसूलपुर • चन्दपुर • चन्दपुर कच्छ • चम्पतपुर • चरन नगला • चहुरेरा • चँदुइया • चहोरार • चाँदनी • चिचौली • चिलसरा • चिलसरी • चौखड़िया • छछौनापुर  • छिछोना पट्टी • छोटन नगला  • ज्योना • ज्योनी • जटपुरा • जरारा • जरारी • जहानपुर • जिजपुरा • जिजौटा खुर्द जिजौटा बुजुर्ग • जिनौल • जिनवाह • जिरखापुर • जिराऊ • जैदपुर • जैसिंगपुर • जॅसिंगापुर • जोगपुर • जौंरा • झब्बूपुर • झौआ • डेरा शादीनगर • ढुड़ियापुर • त्यौर खास  • त्यौरी इस्माइलपुर  • तलासपुर  • तारापुर भोयापुर  • ताल का नगला  • तुर्क ललैया  • तुर्कीपुर  • तेजपुर  • द्युरियापुर • द्योरा महसौना • दरियापुर • दलेलगंज • दारापुर • दिवरइया • दीपुरनगरिया • दुर्गा नगला  • दुन्धा • दुबरी • धधुलिया पट्टी • धरमपुर • धाउनपुरा • नगरिया  • नगला कलार  • नगला खमानी  • नगला दमू  • नगला थाला  • नगला बसोला  • नगला मकोड़ा • नगला सेठ  • नगलाकेल  • नगलानान  • नटवारा  • नये नगरा  • नरसिंगपुर  • नरायनपुर  • नरु नगला  • नरैनामऊ  • नवाबगंज • नसरुल्लापुर  • नहरोसा  • निजामुद्दीनपुर  • नियामतपुर दिलावली  • नियामतपुर भक्सी  • नीबलपुर  • नुनवारा  • नुनेरा  • नूरपुर गड़िया  • नैगवां  • नैगवाँ  • नौगाँव  • नौली प्रहलादपुर  • प्रहलादपुर संतोषपुर  • पचरौली महादेवपुर  • पथरामई  • पट्टी मदारी  • पट्टीमजरा लालपुर  • पत्योरा  • पदमनगला  • पपड़ी  • पपड़ी खुर्द बुजुर्ग  • पपराभूजी  • परतापुर तराई  • परम नगर  • परसादी नगला  • परौली • परौली खुरदाई  • पलिया  • पहाड़पुर  • पहाडपुर बैरागढ़  • पहाड़पुर मजरा अटसेनी  • पंथरदेहामाफी  • पाराहपुर  • पितौरा  • पिलखना  • पुरौरी  • पैथान  • पैसियापुर  • पितौरा  • पिपरगाँव  • पुरौरी  • पैथान खुर्द बुजुर्ग  • पैलानी दक्खिन  • फतनपुर • फतेहगढ़ • फतेहपुर परौली • फरीदपुर  • फरीदपुर मजरा सैंथरा • फरीदपुर मंगलीपुर • फरीदपुर सैदबाड़ा • फ़र्रूख़ाबाद • बकसुरी • बख्तरपुर • बघऊ  • बघेल • बघौना • बछलइया • बन्तल  • बबना • बबुरारा • बमरुलिया • बरई • बरखेड़ा • बरझाला  • बरतल • बहबल पुर • बरई • बराबिकू  • बलीपुर  • बलीपुर गढ़ी • बलीपुर मजरा अटसेनी • बलीपुर भगवंत • बसईखेड़ा • बाजिदपुर • बारग  • बिछौली • बिजौरी • बिराइमपुर  • बिराहिमपुर जागीर • बिराहिमपुर निरोत्तमपुर • बिरिया डाण्डा • बिरसिंगपुर • बिल्सड़ी • बिलहा • बीरबल का नगला  • बुड़नपुर • बुड़नापुर  • बुढ़नपुर  • बेग  • बेलासराय गजा • बेहटा बल्लू • बेहटा मुरलीधर • बेला(गाँव)  • बैरमपुर  • बौरा • बंगस नगर • बंसखेरा • भटासा • भकुसा  • भगवानपुर • भागीपुर उमराव • भगोरा • भगौतीपुर • भटपुरा • भटमई • भटासा • भरतपुर • भरथरी • भिड़ौर • भैंसारी • भोलेपुर • भौंरुआ • मगतई  • मद्दूपुर  • मन्तपुरा  • मदारपुर  • मधवापुर  • मसूदपुर पट्टी  • महमदीपुर • महमदपुर कामराज  • महमदपुर ढ़ानी  • महमूदपुर पट्टीसफा  • महमूदपुर सिनौरा  • मानिकपुर  • मामपुर  • मिलिक कुरेश  • मिलिक मजमुल्ला  • मिलिक सुल्तान  • मिलिकिया  • मिस्तिनी  • मीरपुर कमरुद्दीन नगर  • मुर्शिदाबाद  • मुराठी  • मेदपुर  • मुजफ्फरपट्टी  • मुजाहिदपुर  • मुहद्दीनपुर  • मुड़ौल 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एटा जिला  · औरैया जिला  · कन्नौज जिला  · कौशम्बी जिला  · कुशीनगर जिला  · कानपुर नगर जिला  · कानपुर देहात जिला  · गाजीपुर जिला  · गाजियाबाद जिला  · गोरखपुर जिला  · गोंडा जिला  · गौतम बुद्ध नगर जिला  · चित्रकूट जिला  · जालौन जिला  · चन्दौली जिला  · ज्योतिबा फुले नगर जिला  · झांसी जिला  · जौनपुर जिला  · देवरिया जिला  · पीलीभीत जिला  · प्रतापगढ़ जिला  · फतेहपुर जिला  · फ़र्रूख़ाबाद जिला  · फिरोजाबाद जिला  · फैजाबाद जिला  · बलरामपुर जिला  · बरेली जिला  · बलिया जिला  · बस्ती जिला  · बदौन जिला  · बहरैच जिला  · बुलन्दशहर जिला  · बागपत जिला  · बिजनौर जिला  · बाराबांकी जिला  · बांदा जिला  · मैनपुरी जिला  · महामायानगर जिला  · मऊ जिला  · मथुरा जिला  · महोबा जिला  · महाराजगंज जिला  · मिर्जापुर जिला  · मुझफ्फरनगर जिला  · मेरठ जिला  · मुरादाबाद जिला  · रामपुर जिला  · रायबरेली जिला  · लखनऊ जिला  · ललितपुर जिला  · लखीमपुर खीरी जिला  · वाराणसी जिला  · सुल्तानपुर जिला  · शाहजहांपुर जिला  · श्रावस्ती जिला  · सिद्धार्थनगर जिला  · संत कबीर नगर जिला  · सीतापुर जिला  · संत रविदास नगर जिला  · सोनभद्र जिला  · सहारनपुर जिला  · हमीरपुर जिला, उत्तर प्रदेश  · हरदोइ जिला यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 25°09′N 85°27′E / 25.15°N 85.45°E / 25.15; 85.45 सबौरा २ बरौनी, बेगूसराय, बिहार स्थित एक गाँव है। छिताड, चौखुटिया तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। 'द डबल हेलिक्स' (The Double helix), जेम्स डी. वाटसन के द्वारा लिखी एक पुस्तक है। जेम्स डी. वाटसन और फ्रांसिस क्रिक ने डी.एन.ए. की बनावट का पता लगाया था। इन दोनो और मॉरिस विल्किंस को १९६२ में इस कार्य के लिये नोबल पुरुस्कार मिला। यह बनावट का पता उन्से किया, इसी का वर्णन वाटसन ने 'द डबल हेलिक्स' (The Double helix) पुस्तक में लिखा है। यह पुस्तक, वाटसन के उस समय की, आत्म जीवनी है। उन्होंने, इसमें तथ्य अपने हिसाब से लिखे हैं जिनकी वास्तविकता कुछ भिन्न हो सकती है पर इससे इस पुस्तक की रोचकता पर कोई फर्क नहीं पड़ता। वाटसन और क्रिक डी.एन.ए. के महत्व को जानते थे और यह भी जानते थे कि जो इसकी बनावट का पता लगायेगा उसे नोबल पुरस्कार मिलेगा। उस समय होड़ लगी थी कि कौन यह पहले कर लरगा। इस बात ने इस वर्णन को रोमांचकारी बना दिया था। इसका अपना प्रवाह है। इस पुस्तक को एक बार पढ़ना शुरू करने पर छोड़ने का मन नहीं करता है। इस पुस्तक की सबसे अच्छी बात यह है कि इस पुस्तक को पढ़ने या समझने के लिये आपको प्राणिशास्त्र के ज्ञान की जरूरत नहीं है। यह इसके बिना भी आसानी से समझ में आती है। इस पुस्तक ने विज्ञान की पुस्तकों का एक नया अध्याय खोला और लोगों में जीव रसायन के विषय पर दिलचस्पी पैदा की। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 25°27′N 81°51′E / 25.45°N 81.85°E / 25.45; 81.85 रनका हंडिया, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। सतखोल, नैनीताल तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के नैनीताल जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 32°13′17″N 76°10′32″E / 32.2215°N 76.1755°E / 32.2215; 76.1755 शाहपुर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र हिमाचल प्रदेश विधानसभा के 68 निर्वाचन क्षेत्रों में से एक है। काँगड़ा जिले में स्थित यह निर्वाचन क्षेत्र अनारक्षित है।[1] 2012 में इस क्षेत्र में कुल 72,593 मतदाता थे।[2] 2012 के विधानसभा चुनाव में सरवीन चौधरी इस क्षेत्र के विधायक चुने गए। 703 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। सफ़ेद गिद्ध (Egyptian Vulture) (Neophron percnopterus) पुरानी दुनिया (जिसमें दोनों अमरीकी महाद्वीप शामिल नहीं होते) का गिद्ध है जो पहले पश्चिमी अफ़्रीका से लेकर उत्तर भारत, पाकिस्तान और नेपाल में काफ़ी तादाद में पाया जाता था किन्तु अब इसकी आबादी में बहुत गिरावट आयी है और इसे अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ ने संकटग्रस्त घोषित कर दिया है।[2] भारत में जो उपप्रजाति पाई जाती है उसका वैज्ञानिक नाम (Neophron percnopterus ginginianus) है। उत्तर भारत के अलावा भारत में अन्य जगह यह प्रवासी पक्षी है। इसकी विभिन्न उपजातियों के रंगों में मामूली फेरबदल दिखने को मिलती है तथा जिन क्षेत्रों में यह रहता है उसके आधार पर भी रंगों में अन्तर पाया जाता है जैसे चेहरे का रंग ज़र्द पीले से लेकर नारंगी तक हो सकता है और पंखों का रंग सलेटी से लेकर कत्थई रंग का हो सकता है। इसके डैनों का अन्दरुनी अगला भाग और गले से लेकर पूँछ तक का अन्दरुनी भाग सफ़ेद होता है और उड़ते समय निचे से देखने वाले को यह सफ़ेद नज़र आता है। इसी कारण से इसका हिन्दी नाम सफ़ेद गिद्ध पड़ा। सफ़ेद गिद्ध अपने अन्य प्रजाति के पक्षियों की तरह मुख्यतः लाशों का ही सेवन करता है लेकिन यह अवसरवादी भी होता है और छोटे पक्षी, स्तनपायी और सरीसृप का शिकार कर लेता है। अन्य पक्षियों के अण्डे भी यह खा लेता है और यदि अण्डे बड़े होते हैं तो यह चोंच में छोटा पत्थर फँसा कर अण्डे पर मारकर तोड़ लेता है। दुनिया के अन्य इलाकों में यह चट्टानी पहाड़ियों के छिद्रों में अपना घोंसला बनाता है लेकिन भारत में इसको ऊँचे पेड़ों पर, ऊँची इमारतों की खिड़कियों के छज्जों पर और बिजली के खम्बों पर घोंसला बनाते देखा गया है। पत्थर से अण्डे तोड़ने के अलावा इसको एक अन्य औज़ार का इस्तेमाल करते हुये भी देखा गया है। घोंसला बनाते समय यह छोटी टहनी चोंच में पकड़कर जानवरों की खाल के बालों को टहनी में लपेटकर अपने घोंसले में रखता है जिससे घोंसले का तापमान बाहर के तापमान से अधिक रहता है। यह जाति आज से कुछ साल पहले अपने पूरे क्षेत्र में पर्याप्त आबादी में पायी जाती थी। १९९० के दशक में इस जाति का ४०% प्रति वर्ष की दर से ९९% पतन हो गया। इसका मूलतः कारण पशु दवाई डाइक्लोफिनॅक (diclofenac) है जो कि पशुओं के जोड़ों के दर्द को मिटाने में मदद करती है। जब यह दवाई खाया हुआ पशु मर जाता है और उसको मरने से थोड़ा पहले यह दवाई दी गई होती है और उसको सफ़ेद गिद्ध खाता है तो उसके गुर्दे बंद हो जाते हैं और वह मर जाता है। अब नई दवाई मॅलॉक्सिकॅम meloxicam आ गई है और यह हमारे गिद्धों के लिये हानिकारक भी नहीं हैं। जब इस दवाई का उत्पादन बढ़ जायेगा तो सारे पशु-पालक इसका इस्तेमाल करेंगे और शायद हमारे गिद्ध बच जायें। भारत सरकार ने अब पशुओं के लिए डाइक्लोफिनॅक (diclofenac) दवाई का इस्तेमाल बन्द करवा दिया है।[2][3] भारतीय संविधान के चौथे भाग में उल्लिखित नीति निदेशक तत्वों में कहा गया है कि प्राथमिक स्तर तक के सभी बच्चों को अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाय। 1948 में डॉ॰ राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के गठन के साथ ही भारत में शिक्षा-प्रणाली को व्यवस्थित करने का काम शुरू हो गया था। 1952 में लक्ष्मीस्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में गठित माध्यमिक शिक्षा आयोग, तथा 1964 में दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में गठित शिक्षा आयोग की अनुशंशाओं के आधार पर 1968 में शिक्षा नीति पर एक प्रस्ताव प्रकाशित किया गया जिसमें ‘राष्ट्रीय विकास के प्रति वचनबद्ध, चरित्रवान तथा कार्यकुशल’ युवक-युवतियों को तैयार करने का लक्ष्य रखा गया। मई 1986 में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की गई, जो अब तक चल रही है। इस बीच राष्ट्रीय शिक्षा नीति की समीक्षा के लिए 1990 में आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में एक समीक्षा समिति, तथा 1993 में प्रो॰ यशपाल की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। पंडित लेखराम आर्य (१८५८-१८९७), आर्य समाज के प्रमुख कार्यकर्ता एवं प्रचारक थे। उन्होने अपना सारा जीवन आर्य समाज के प्रचार प्रसार में लगा दिया। वे अहमदिया मुस्लिम समुदाय के नेता मिर्जा गुलाम अहमद से शास्त्रार्थ एवं उसके दुस्प्रचारों के खण्डन के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। उनका संदेश था कि तहरीर (लेखन) और तकरीर (शास्त्रार्थ) का काम बंद नहीं होना चाहिए। पंडित लेखराम इतिहास की उन महान हस्तियों में शामिल हैं जिन्होंने धर्म की बलिवेदी पर प्राण न्योछावर कर दिए। जीवन के अंतिम क्षण तक आप वैदिक धर्म की रक्षा में लगे रहे। पंडित लेखराम ने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए हिंदुओं को धर्म परिवर्तन से रोका व शुद्धि अभियान के प्रणेता बने। लेखराम जन्म 8 चैत्र, संवत् 1915 (1858 ई.) को झेलम जिला के तहसील चकवाल के सैदपुर गाँव (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। आपके पूर्वज महाराजा रणजीत सिंह की फौज में थे इसलिए वीरता आपको विरासत में मिली थी। आपके पिता का नाम तारा सिंह एवं माता का नाम भाग भरी था। उन्होंने आरंभ में उर्दू-फारसी पढ़ी। बचपन से ही आप स्वाभिमानी और दृढ विचारो के थे। एक बार आपको पाठशाला में प्यास लगी. मौलवी से घर जाकर पानी पीने की इजाजत मांगी. मौलवी ने जूठे मटके से पानी पीने को कहाँ. आपने न दोबारा मौलवी से घर जाने की इजाजत मांगी और न ही जूठा पानी पिया. सारा दिन प्यासा ही बिता दिया. पढने का आपको बहुत शोक था। मुंशी कन्हयालाल अलाख्धारी की पुस्तकों से आपको स्वामी दयानंद जी का पता चला. अब लेखराम जी ने ऋषि दयानंद के सभी ग्रंथो का स्वाध्याय आरंभ कर दिया। सत्रह वर्ष की उम्र में वे सन् १८७५ ईसवी में पेशावर पुलिस में भरती हुए और उन्नति करके सारजेंट बन गए। इन दिनों इनपर 'गीता' का बड़ा प्रभाव था। दयानंद सरस्वती से प्रभावित होकर उन्होंने संवत् १९३७ विक्रमी में पेशावर में आर्यसमाज की स्थापना की। १७ मई सन् १८८० को उन्होंने अजमेर में स्वामी जी से भेंट की। शंकासमाधान के परिणामस्वरूप वे उनके अनन्य भक्त बन गए। लेखराम जी ने सन् १८८४ में पुलिस की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। अब उनका सारा समय वैदिक धर्मप्रचार में लगने लगा। कादियाँ के अहमदियों ने हिंदू धर्म के विरुद्ध कई पुस्तकें लिखी थीं। लेखराम जी ने उनका जोरदार खंडन किया। स्वामी दयानंद का जीवनचरित् लिखने के उद्देश्य से उनके जीवन संबंधी घटनाएँ इकट्ठी करने के सिलसिले में उन्हें भारत के बहुसंख्यक स्थानों का दौरा करना पड़ा। इस कारण उनका नाम 'आर्य मुसाफिर' पड़ गया। पं॰ लेखराम हिंदुओं को मुसलमान होने से बचाते थे। एक कट्टर मुसलमान ने ३ मार्च सन् १८९७ को ईद के दिन, 'शुद्धि' कराने के बहाने, धोखे से लाहौर में उनकी हत्या कर डाली। लेखराम जी ने संवत् 1937 विक्रमी में पेशावर में आर्यसमाज की स्थापना की। पेशावर से चलकर 17 मई सन् 1880 को अजमेर स्वामी दयानंद के दर्शनों के लिए पंडित जी पहुँच गए। जयपुर में एक बंगाली सज्जन ने पंडित जी से एक प्रश्न किया था की आकाश भी व्यापक हैं और ब्रह्मा भी, दो व्यापक किस प्रकार एक साथ रह सकते हैं ? पंडित जी से उसका उत्तर नहीं बन पाया था। पंडित जी ने स्वामी दयानंद से वही प्रश्न पुछा. स्वामी जी ने एक पत्थर उठाकर कहा की इसमें अग्नि व्यापक हैं या नहीं? मैंने कहाँ की व्यापक हैं, फिर कहाँ की क्या मिटटी व्यापक हैं? मैंने कहाँ की व्यापक हैं, फिर कहाँ की क्या जल व्यापक हैं? मैंने कहाँ की व्यापक हैं। फिर कहाँ की क्या आकाश और वायु ? मैंने कहाँ की व्यापक हैं, फिर कहाँ की क्या परमात्मा व्यापक हैं? मैंने कहाँ की व्यापक हैं। फिर स्वामी जी बोले कहाँ की देखो. कितनी चीजें हैं परन्तु सभी इसमें व्यापक हैं। वास्तव में बात यहीं हैं की जो जिससे सूक्षम होती हैं वह उसमे व्यापक हो जाती हैं। ब्रह्मा चूँकि सबसे अति सूक्षम हैं इसलिए वह सर्वव्यापक हैं। यह उत्तर सुन कर पंडित जी की जिज्ञासा शांत हो गयी। आगे पंडित जी ने पुछा जीव ब्रह्मा की भिन्नता में कोई वेद प्रमाण बताएँ. स्वामी जी ने कहाँ यजुर्वेद का ४० वां अध्याय सारा जीव ब्रह्मा का भेद बतलाता हैं। इस प्रकार अपनी शंकाओ का समाधान कर पंडित जी वापस आकार वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार में लग गए। शंकासमाधान के परिणामस्वरूप वे स्वामी जी के अनन्य भक्त बन गए। स्वामी दयानंद का जीवनचरित् लिखने के उद्देश्य से उनके जीवन संबंधी घटनाएँ इकट्ठी करने के सिलसिले में उन्हें भारत के बहुसंख्यक स्थानों का दौरा करना पड़ा। इस कारण उनका नाम "आर्य मुसाफिर" पड़ गया। सत्रह वर्ष की उम्र में वे सन् 1875 ईसवी में पेशावर पुलिस में भरती हुए और उन्नति करके सारजेंट बन गए। पंडित लेखराम ने सन् 1884 में पुलिस की नौकरी से अपनी स्पष्टवादिता एवं अपने मुस्लिम अधिकारियों के असहयोग के कारण छोड़ दी। अब उनका सारा समय वैदिक धर्मप्रचार में लगने लगा। कोट छुट्टा डेरा गाजी खान (अब पाकिस्तान) में कुछ हिन्दू युवक मुस्लमान बनने जा रहे थे। पंडित जी के व्याखान सुनने पर ऐसा रंग चड़ा की आर्य बन गए और इस्लाम को तिलांजलि दे दी.इनके नाम थे महाशय चोखानंद, श्री छबीलदास व महाशय खूबचंद जी, जब तीनो आर्य बन गए तो हिन्दुओं ने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया.कुछ समय के बाद महाशय छबीलदास की माता का देहांत हो गया। उनकी अर्थी को उठाने वाले केवल ये तीन ही थे। महाशय खूबचंद की माता उन्हें वापस ले गयी। आप कमरे का ताला तोड़ कर वापिस संस्कार में आ मिले. तीनो युवको ने वैदिक संस्कार से दाह कर्म किया। पौराणिको ने एक चल चली यह प्रसिद्ध कर दिया की आर्यों ने माता के शव को भुन कर खा लिया हैं। यह तीनो युवक मुसलमान बन जाये तो हिन्दुओं को कोई फरक नहीं पड़ता था परन्तु पंडित लेखराम की कृपा से वैदिक धर्मी बन गए तो दुश्मन बन गए। इस प्रकार की मानसिकता के कारण तो हिन्दू आज भी गुलामी की मानसिकता में जी रहे हैं। जम्मू के श्री ठाकुरदास मुस्लमान होने जा रहे थे। पंडित जी उनसे जम्मू जाकर मिले और उन्हें मुसलमान होने से बचा लिया। १८९१ में हैदराबाद सिंध के श्रीमंत सूर्यमल की संतान ने इस्लाम मत स्वीकार करने का मन बना लिया। पंडित पूर्णानंद जी को लेकर आप हैदराबाद पहुंचे। उस धनी परिवार के लड़के पंडित जी से मिलने के लिए तैयार नहीं थे। पर आप कहाँ मानने वाले थे। चार बार सेठ जी के पुत्र मेवाराम जी से मिलकर यह आग्रह किया की मौल्वियो से उनका शास्त्राथ करवा दे. मौलवी सय्यद मुहम्मद अली शाह को तो प्रथम बार में ही निरुत्तर कर दिया.उसके बाद चार और मौल्वियो से पत्रों से विचार किया। आपने उनके सम्मूख मुस्लमान मौल्वियो को हराकर उनकी धर्म रक्षा की. वही सिंध में पंडित जी को पता चला की कुछ युवक ईसाई बनने वाले हैं। आप वहा पहुच गए और अपने भाषण से वैदिक धर्म के विषय में प्रकाश डाला. एक पुस्तक आदम और इव पर लिख कर बांटी जिससे कई युवक ईसाई होने से बच गए। गंगोह जिला सहारनपुर की आर्यसमाज की स्थापना पंडित जी से दीक्षा लेकर कुछ आर्यों ने १८८५ में करी थी। कुछ वर्ष पहले तीन अग्रवाल भाई पतित होकर मुस्लमान बन गए थे। आर्य समाज ने १८९४ में उन्हें शुद्ध करके वापिस वैदिक धर्मी बना दिया. आर्य समाज के विरुद्ध गंगोह में तूफान ही आ गया। श्री रेह्तूलाल जी भी आर्यसमाज के सदस्य थे। उनके पिता ने उनके शुद्धि में शामिल होने से मन किया पर वे नहीं माने. पिता ने बिरादरी का साथ दिया. उनकी पुत्र से बातचीत बंद हो गयी। पर रेह्तुलाल जी कहाँ मानने वाले थे उनका कहना था गृह त्याग कर सकता हु पर आर्यसमाज नहीं छोड़ सकता हूँ. इस प्रकार पंडित लेखराम के तप का प्रभाव था की उनके शिष्यों में भी वैदिक सिद्धांत की रक्षा हेतु भावना कूट-कूट कर भरी थी। घासीपुर जिला मुज्जफरनगर में कुछ चौधरी मुस्लमान बनने जा रहे थे। पंडित जी वह एक तय की गयी तिथि को पहुँच गए। उनकी दाड़ी बढ़ी हुई थी और साथ में मुछे भी थी। एक मौलाना ने उन्हें मुस्लमान समझा और पूछा क्यों जी यह दाढ़ी तो ठीक हैं पर इन मुछो का क्या राज हैं। पंडित जी बोले दाढ़ी तो बकरे की होती हैं मुछे तो शेर की होती हैं। मौलाना समाज गया की यह व्यक्ति मुस्लमान नहीं हैं। तब पंडित जी ने अपना परिचय देकर शास्त्रार्थ के लिए ललकारा. सभी मौलानाओ को परास्त करने के बाद पंडित जी ने वैदिक धर्म पर भाषण देकर सभी चौधरियो को मुस्लमान बन्ने से बचा लिया। १८९६ की एक घटना पंडित लेखराम के जीवन से हमें सर्वदा प्रेरणा देने वाली बनी रहेगी. पंडित जी प्रचार से वापिस आये तो उन्हें पता चला की उनका पुत्र बीमार हैं। तभी उन्हें पता चला की मुस्तफाबाद में पांच हिन्दू मुस्लमान होने वाले हैं। आप घर जाकर दो घंटे में वापिस आ गए और मुस्तफाबाद के लिए निकल गए। अपने कहाँ की मुझे अपने एक पुत्र से जाति के पांच पुत्र अधिक प्यारे हैं। पीछे से आपका सवा साल का इकलोता पुत्र चल बसा. पंडित जी के पास शोक करने का समय कहाँ था। आप वापिस आकार वेद प्रचार के लिए वजीराबाद चले गए। पंडित जी की तर्क शक्ति गज़ब थी। आपसे एक बार किसी ने प्रश्न किया की हिन्दू इतनी बड़ी संख्या में मुस्लमान कैसे हो गए। अपने सात कारण बताये. १. मुस्लमान आक्रमण में बलातपूर्वक मुसलमान बनाया गया २. मुसलमानी राज में जर, जोरू व जमीन देकर कई प्रतिष्ठित हिन्दुओ को मुस्लमान बनाया गया ३. इस्लामी काल में उर्दू, फारसी की शिक्षा एवं संस्कृत की दुर्गति के कारण बने ४. हिन्दुओं में पुनर्विवाह न होने के कारण व सती प्रथा पर रोक लगने के बाद हिन्दू औरतो ने मुस्लमान के घर की शोभा बढाई तथा अगर किसी हिन्दू युवक का मुस्लमान स्त्री से सम्बन्ध हुआ तो उसे जाति से निकल कर मुस्लमान बना दिया गया। ५. मूर्तिपूजा की कुरीति के कारण कई हिन्दू विधर्मी बने ६. मुसलमानी वेशयायो ने कई हिन्दुओं को फंसा कर मुस्लमान बना दिया ७. वैदिक धर्म का प्रचार न होने के कारण मुस्लमान बने. अगर गहराई से सोचा जाये तो पंडित जी ने हिन्दुओं को जाति रक्षा के लिए उपाय बता दिए हैं, अगर अब भी नहीं सुधरे तो हिन्दू कब सुधरेगे. पंडित जी के काल में कादियान, जिला गुरुदासपुर पंजाब में इस्लाम के एक नए मत की वृद्धि हुई जिसकी स्थापना मिर्जा गुलाम अहमद ने करी थी। इस्लाम के मानने वाले मुहम्मद साहिब को आखिरी पैगम्बर मानते हैं, मिर्जा ने अपने आपको कभी कृष्ण, कभी नानक, कभी ईसा मसीह कभी इस्लाम का आखिरी पैगम्बर घोषित कर दिया तथा अपने नवीन मत को चलने के लिए नई नई भविष्यवानिया और इल्हामो का ढोल पीटने लगा. एक उदहारण मिर्जा द्वारा लिखित पुस्तक “वही हमारा कृष्ण ” से लेते हैं इस पुस्तक में लिखा हैं – उसने (ईश्वर ने) हिन्दुओं की उन्नति और सुधर के लिए निश्कलंकी अवतार को भेज दिया हैं जो ठीक उस युग में आया हैं जिस युग की कृष्ण जी ने पाहिले से सूचना दे रखी हैं। उस निष्कलंक अवतार का नाम मिर्जा गुलाम अहमद हैं जो कादियान जिला गुरुदासपुर में प्रकट हुए हैं। खुदा ने उनके हाथ पर सहस्त्रो निशान दिखये हैं। जो लोग उन पर इमान लेट हैं उनको खुदा ताला बड़ा नूर बख्शता हैं। उनकी प्रार्थनाए सुनता हैं और उनकी सिफारिश पर लोगो के कास्ट दूर करता हैं। प्रतिष्ठा देता हैं। आपको चाहिए की उनकी शिक्षाओ को पढ़ कर नूर प्राप्त करे. यदि कोई संदेह हो तो परमात्मा से प्रार्थना करे की हे परमेश्वर? यदि यह व्यक्ति जो तेरी और से होने की घोषणा करता हैं और अपने आपको निष्कलंक अवतार कहता हैं। अपनी घोषणा में सच्चा हैं तो उसके मानने की हमे शक्ति प्रदान कर और हमारे मन को इस पर इमान लेन को खोल दे. पुन आप देखेगे की परमात्मा अवश्य आपको परोक्ष निशानों से उसकी सत्यता पर निश्चय दिलवाएगा. तो आप सत्य हृदय से मेरी और प्रेरित हो और अपनी कठिनाइयों के लिए प्रार्थना करावे अल्लाह ताला आपकी कठिनाइयों को दूर करेगा और मुराद पूरी करेगा. अल्लाह आपके साथ हो. पृष्ठ ६,७.८ वही हमारा कृष्ण. पाठकगन स्वयं समझ गए होंगे की किस प्रकार मिर्जा अपनी कुटिल नीतिओ से मासूम हिन्दुओं को बेवकूफ बनाने की चेष्ठा कर रहा था पर पंडित लेखराम जैसे रणवीर के रहते उसकी दाल नहीं गली. पंडित जी सत्य असत्य का निर्णय करने के लिए मिर्जा के आगे तीन प्रश्न रखे. १. पहले मिर्जा जी अपने इल्हामी खुदा से धारावाही संस्कृत बोलना सीख कर आर्यसमाज के दो सुयोग्य विद्वानों पंडित देवदत शास्त्री व पंडित श्याम जी कृष्ण वर्मा का संस्कृत वार्तालाप में नाक में दम कर दे. २. ६ दर्शनों में से सिर्फ तीन के आर्ष भाष्य मिलते हैं। शेष तीन के अनुवाद मिर्जा जी अपने खुदा से मंगवा ले तो मैं मिर्जा के मत को स्वीकार कर लूँगा. ३. मुझे २० वर्ष से बवासीर का रोग हैं . यदि तीन मास में मिर्जा अपनी प्रार्थना शक्ति से उन्हें ठीक कर दे तो में मिर्जा के पक्ष को स्वीकार कर लूँगा. पंडित जी ने उससे पत्र लिखना जारी रखा. तंग आकर मिर्जा ने लिखा की यहीं कादियान आकार क्यों नहीं चमत्कार देख लेते. सोचा था की न पंडित जी का कादियान आना होगा और बला भी टल जाएगी.पर पंडित जी अपनी धुन के पक्के थे मिर्जा गुलाम अहमद की कोठी पर कादियान पहुँच गए। दो मास तक पंडित जी क़दियन में रहे पर मिर्जा गुलाम अहमद कोई भी चमत्कार नहीं दिखा सका. इस खीज से आर्यसमाज और पंडित लेखराम को अपना कट्टर दुश्मन मानकर मिर्जा ने आर्यसमाज के विरुद्ध दुष्प्रचार आरंभ कर दिया. मिर्जा ने ब्राहिने अहमदिया नामक पुस्तक चंदा मांग कर छपवाई. पंडित जी ने उसका उत्तर तकज़ीब ब्राहिने अहमदिया लिखकर दिया. मिर्जा ने सुरमाये चश्मे आर्या (आर्यों की आंख का सुरमा) लिखा जिसका पंडित जी ने उत्तर नुस्खाये खब्ते अहमदिया (अहमदी खब्त का ईलाज) लिख कर दिया. मिर्जा ने सुरमाये चश्मे आर्या में यह भविष्यवाणी करी की एक वर्ष के भीतर पंडित जी की मौत हो जाएगी. मिर्जा की यह भविष्यवाणी गलत निकली और पंडित इस बात के ११ वर्ष बाद तक जीवित रहे. पंडित जी की तपस्या से लाखों हिन्दू युवक मुस्लमान होने से बच गए। पण्डित लेखराम ने ३३ पुस्तकों की रचना की। उनकी सभी कृतियों को एकीकृत रूप में कुलयात-ए-आर्य मुसाफिर नाम से प्रकाशित किया गया है। मार्च १८९७ में एक व्यक्ति पंडित लेखराम के पास आया। उसका कहना था की वो पहले हिन्दू था बाद में मुस्लमान हो गया अब फिर से शुद्ध होकर हिन्दू बनना चाहता हैं। वह पंडित जी के घर में ही रहने लगा और वही भोजन करने लगा. 6 मार्च 1897 (१८९७) को पंडित जी घर में स्वामी दयानंद के जीवन चरित्र पर कार्य कर रहे थे। तभी उन्होंने एक अंगड़ाई ली कि उस दुष्ट ने पंडित जी को छुरा मर दिया और भाग गया। पंडित जी को हस्पताल लेकर जाया गया जहाँ रात को दो बजे उन्होंने प्राण त्याग दिए. पंडित जी को अपने प्राणों की चिंता नहीं थी उन्हें चिंता थी तो वैदिक धर्म की। बेन्जाइल अमाइन एक कार्बनिक यौगिक है। सद्भावना एक्स्प्रेस 4008 भारतीय रेल द्वारा संचालित एक मेल एक्स्प्रेस ट्रेन है। यह ट्रेन पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:DLI) से 04:30PM बजे छूटती है और मुजफ्फरपुर जंक्शन रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:MFP) पर 05:50PM बजे पहुंचती है। इसकी यात्रा अवधि है 25 घंटे 20 मिनट। बालेगाव, आसिफाबाद‌ मण्डल में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के अदिलाबादु जिले का एक गाँव है। ठाकुरदास बंग (1917 - 27 जनवरी 2013) गांधीवादी दार्शनिक एवं अर्थशास्त्री थे। उन्होने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाई थी। वे खादी तथा सर्वोदय आन्दोलनों में सक्रिय रहे।[1][2] 10 अप्रैल ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का 100वॉ (लीप वर्ष मे 101 वॉ) दिन है। साल मे अभी और 265 दिन बाकी है। मिसोरी नदी, मिसिसिपी नदी की एक सहायक नदी है और संयुक्त राज्य अमेरिका की सबसे लंबी नदी भी। मिसोरी नदी मैडिसन, जैफ़रसन और गैलेटिन नदियों के संगम से बनती है और यह घाटी में दक्षिण और पूर्व की और बहती हुई सेंट लुइस के उत्तर में मिसिसिपी नदी में जा मिलती है। ४,०९० किमी लंबी ये नदी उत्तर अमेरिका के जल का १/६ वां भाग अपने साथ बहा ले जाती है। अपनी मूल प्राकृतिक स्थिति में ये उत्तर अमेरिका की सबसे लंबी नदी थी। नदी का लगभग ११६ किमी भाग चैनलिंग के कारण कट गया है और अब ये लंबाई में मिसिसिपी नदी के बराबर है। पर्वत (एपलाशियन  · आयरन) मैदान (ग्रेट प्लेन ) द्वीप (डायोमीड द्वीप) कैयट पतंजलि के व्याकरण भाष्य की 'प्रदीप' नामक टीका के रचयिता। देवीशतक के व्याख्याकार कैयट इनसे भिन्न है। उनके पिता का नाम जैयटोपाध्याय था (महामाष्यार्णवाऽवारपारीणंविवृतिप्लवम्। यथागमं विधास्येहं कैयटो जैयटात्मज)। अनुमान है कि वे कश्मीर निवासी थे। पीटर्सन ने कश्मीर की रिपोर्ट में कैयट (और उव्वट) को प्रकाशक ऽर मम्मट का भाई और जैयट का पुत्र कहा है। काव्यप्रकाश की 'सुधासागर' नामक टीका में १८वीं शती के भीमसेन ने भी कैयट और औवट शुक्लयजुर्वेद को सम्मट के भाष्यकार को मम्मट का अनुज और शिष्य बताया है। पर यजुर्वेदभाष्य पुष्पिका में औवट (या उव्वट) के पिता का नाम वज्रट कहा गया है। काश्मीरी ब्राह्मणपंडितों के बीच प्रचलित अनुश्रुति के अनुसार कैयट पामपुर (या येच) गाँव के निवासी थे। महाभाष्यांत पाणिनि व्याकरण को वे कंठस्थ ही पढ़ाया करते थे। आर्थिक स्थिति दयनीय होने के कारण उदरपोषण के लिये उन्हें कृषि आदि शरीरश्रम करना पड़ता था। एक बार दक्षिण देश से कश्मीर आए हुए पंडित कृष्ण भट्ट ने कश्मीरराज से मिलकर तथा अन्य प्रयत्नों द्वारा कैयट के लिए एक गाँव का शासन और धनधान्य संग्रह किया और उसे लेकर जब वे उसे समर्पित करने उनके यहाँ पहुँचे तो उन्होने भिक्षा दान ग्रहण करना अस्वीकार कर दिया। वे कश्मीर से पैदल काशी आए और शास्त्रार्थ मे अनेक पंडितों को हराया। वहीं प्रदीप की रचना हुई। इस टीकाग्रंथ के संबंध में उन्होने लिखा है कि उसका आधार भर्तृहरि (वाक्यपदीयकार) की भाष्यटीका है जो अब पूर्णरूप से अप्राप्य है)। प्रदीप में स्थान स्थान पर पतञ्जलि और भर्तृहरि के स्फोटवाद का अच्छा दार्शनिक विवेचन हुआ है। जावा द्वीप का पर्वत जावा भाषा में गुनुंग मेरबाबु। पास ही मेरापी पर्वत है। आकृति-विज्ञान (अंग्रेजी: Morphology मॉर्फोलॉजी), जीव विज्ञान की एक शाखा है जिसके अंतर्गत किसी जीव की आकृति, उसकी संरचना और उसके विशिष्ट संरचनात्मक गुणों का अध्ययन किया जाता है।[1][2][3][4][5][6][7] आकृति-विज्ञान के अंतर्गत किसी जीव की बाहरी रचना जैसे कि उसका आकृति, संरचना, रंग, पैटर्न[8]आदि पहलुओं के अतिरिक्त उसके आंतरिक अंगों जैसे कि अस्थियां, यकृत इत्यादि की आकृति और संरचना को भी शामिल किया जाता है। आकृति-विज्ञान, जीव विज्ञान की एक अन्य शाखा शरीर क्रिया विज्ञान (अंग्रेजी: Physiology फिजियोलॉजी), का ठीक विपरीत होता है, जिसमें विभिन्न अंगों के कार्यों का अध्ययन किया जाता है। प्रथम विश्व युद्ध के खिलाफ एक जानी-मानी आवाज के रूप में विख्यात विल्फ्रेड एडवर्ड साल्टर ओवेन (१८९३-१९१८) का जन्म वेल्श की सीमा पर ओस्वेस्ट्री में हुआ। उनका लालन पालन बर्केनहेड और श्रेसबरी में हुआ।[1] विल्फ्रेड के पूरे जीवन में उनकी केवल चार कविताएं प्रकाशित हुई लेकिन वे हमेशा एक कवि के रूप में अपनी पहचान बनाने के लिए कटिबद्ध रहे। उन्होंने बहुत छोटी उम्र से ही काव्य के साथ अपने अनूठे प्रयोग आरंभ कर दिए थे। बीस साल की उम्र में जब वे फ्रांस के बोर्डो में (१९१३-१९१८) अध्यापन कर रहे थे, उन्होंने काव्य के विन्यास पर विशेष कार्य किया जो बाद में उनकी पहचान बन गया। लेकिन उनके कार्य को सही स्वर १९१७ में मिला।[2] सन् १९१५ में विल्फ्रेड ओवेन को ब्रिटिश सेना में शामिल कर लिया गया था। जनवरी से अप्रैल १९१७ के बीच वे सर्रे और सान क्वेंतां[3] में लड़ते समय एक धमाके की चपेट में आकर जख्मी हो गए। एडिनबर्ग के क्रेगलॉकहार्ट युद्ध अस्पताल में इलाज के दौरान उनकी मुलाकात अपने साहित्यिक हीरो सिग्फ्रेड सासून से हुई। सासून ने ओवेन को युद्ध के दौरान हुए अनुभवों को अपनी कविता में उतारने के लिए मार्गदर्शन और प्रोत्साहन दिया। करीब एक वर्ष बाद ओवेन वापस पश्चिमी मोर्चे पर चले गए। अक्टूबर १९१८ में जॉनकोर्ट में हाइंडेनबर्ग लाइन को ध्वस्त करने के अभियान में नेतृत्व और शौर्य का प्रदर्शन करने के लिए ओवेन को मिलिटरी क्रॉस से सम्मानित किया गया। ४ नवम्बर १९१८ को महज २५ साल की उम्र में उनकी युद्ध के मोर्चे पर लड़ते वक्त मौत हो गई। अपनी मौत के समय वे एक गुमनाम व्यक्ति थे। वस्तुत: उनकी सभी कविताएं अगस्त १९१७ से सितंबर १९१८ के दौरान रचनात्मकता के उफान में लिखी गई थीं। उन्होंने स्वेच्छा से युद्ध की विभीषिका को दर्शाने और मानवमात्र के प्रति अपनी संवेदनाओं को मुखर करने का दायित्व निभाया। उनका तकनीकी कौशल और सत्य के प्रति आग्रह, ऊर्जा, कविताओं में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।[4] मनुभाई राजाराम पंचोली को भारत सरकार द्वारा सन १९९१ में सार्वजनिक उपक्रम के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया था। ये गुजरात से हैं। संस्कृत काव्यशास्त्र में गिनाए गए चार नाट्य वृत्तियों में से एक कैशिकि है। इसका संबंध केश से है। भरत मुनि ने कैशिकी की पौराणिक व्याख्या की है और अभिनव गुप्त ने वैज्ञानिक। इसके अतिरिक्त मल्लिनाथ, रामचंद्र, राघवन् आदि ने अपने-अपने मतानुसार इसकी व्याख्या की है। भरत ने केश बाँधते समय विष्णु के अंग- विक्षेप से कैशिकी का संबंध मानकर इसे कोमल, सुकुमार शरीर चेष्टाओं के रूप में ग्रहण किया है। अभिनव गुप्त ने पौराणिक आधार न लेते हुए यह माना है कि केश जिस प्रकार अर्थ और भाव से संबंध न रखते हुए भी शरीर की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार यह वृत्ति भी नाट्य में शरीर चेष्टाओं द्वारा शोभा बढ़ाती है। इसी प्रकार केश की शोभा स्त्रियों में होती है। अतः स्त्रियों की चेष्टाओं के समान चेष्टा या स्त्री-चेष्टा प्रधान होने से यह कैशिकी कही जाती है, यह मत है नाट्यदर्पणकार का है। कैशिकी की कथा का कैशिक से संबंध मानक राघवन ने इसे विदर्भ देश से संबंधित ललित वैदर्भी रमणीयता से संबंधित माना है। शैव मत के आधार पर इस वृत्ति का संबंध तांडव से न होकर लास्य से है। भरत मानते हैं कि इस वृत्ति का प्रयोग नाटक में स्त्री पात्रोंको करना चाहिए। इसके अंतर्गत नृत्य, गीत, कामोद्भव, मृदुल, सुकुमार चेष्टाएं रहती है। इस वृत्ति का प्रयोग शृंगार आदि रसों के प्रसंग में किया जाता है। स्त्रियों से युक्त अनेक नृत्य गीतों वाली, नेपथ्य की स्निग्धता- विचित्रता और आकर्षण से संपन्न कैशिकी वृत्ति के चार भेद हैं- नर्म, नर्मस्फूर्ज, नर्मस्फोट और नर्मगर्भ। ईर्ष्या, क्रोध, उपालंभ-वचन से युक्त, विप्रलंभ आदि से संपन्न नर्म कैशिकी वृत्ति होती है। नव मिलन वाले संभोग, तथा के प्रेरक वचन, वेष आदि से युक्त जो भय में अवसान रखती हो वह वृत्ति नर्म स्फूर्ज है। नर्मस्फोट विविध भावों के क्षण-क्षण में विभूषित होने वाली विशिष्ट रूप वाली वृत्ति होती है। जो समग्रतया रसत्व में परिणत न हो जहाँ नायक कार्य वश विशेष ज्ञान युक्त संभावनादि गुणों से पूर्ण प्रच्छन्न व्यवहार करता है वहाँ नर्मगर्भ वृत्ति होती है। हिंदी साहित्य कोष, भाग- १ कोरट्कल , नेरडिगोंड मण्डल में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के अदिलाबादु जिले का एक गाँव है। सत्तैयप्पा दंडपाणि देसीकर को भारत सरकार द्वारा सन १९९० में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। ये तमिलनाडु से हैं। 703 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। मधु मुस्कान हिन्दी मे प्रकाशित होने वाली एक लोकप्रिय साप्ताहिक बाल पत्रिका है।[1] अखंड ज्योति · अर्गला · अनंत अविराम  · आविष्कार (पत्रिका) · अनुभूति · अनुरोध · अभिव्यक्ति · आविष्कार  · अहा जिंदगी · अक्षय जीवन · अक्षर पर्व · आलोचना (पत्रिका) · आजकल · आज तक · इकोनॉमिक्स टाइम्स · इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए · ओशो टाइम्स  · उर्वशी(पत्रिका) ·  · कल्याण · कला प्रयोजन  · कथाक्रम · कथाबिम्‍ब  · कथादेश · कहानीकार · कुरुक्षेत्र (पत्रिका) · गद्य कोश · गूगल समाचार · गृहलक्ष्‍मी · तद्भव · नवनीत · पाखी · रंगवार्ता · लमही · वागर्थ  · हंस पत्रिका · नया ज्ञानोदय  · पहल · प्रारम्‍भ शैक्षिक संवाद · भाषा · भारत दर्शन · भारत संदेश · गीत-पहल  · हिंदीनेस्ट डॉट कॉम · हिंदुस्तान बोल रहा है · जनोक्ति · पूर्वाभास · प्रवक्ता · सीमापुरी टाइम्स · सृजनगाथा · स्वर्गविभा · विचार मीमांसा · युग मानस · मधुमती · राष्‍ट्रधर्म · वर्तमान साहित्‍य  · समकालीन भारतीय साहित्‍य · समकालीन सरोकार · समाज कल्‍याण · संस्कृति  · साहित्‍य अम़ृत · साहित्‍य भारती · शैक्षिक पलाश · आई.सी.एम.आर. · जल चेतना · ड्रीम 2047 · दुधवा लाइव · पर्यावरण डाइजेस्‍ट · पैदावार · विज्ञान कथा  · विज्ञान प्रगति · बिंदिया · मेरी सहेली · मनोरमा · महकता आंचल · वुमेन ऑन टॉप · सखी · सुषमा पत्रिका · चित्रलेखा · फिल्‍मी कलियां · फिल्‍मी दुनिया · अभिनव बालमन · चन्दामामा (बाल पत्रिका) · चंपक (बाल पत्रिका) · चकमक  · देवपुत्र · नंदन · बाल भास्‍कर · बालवाणी · जानकी पुल · भारतीय पक्ष · रचनाकर · लघुकथा.कॉम · लेखक मंच · लेखनी (पत्रिका) · वसुधा · समालोचन · साहित्य कुंज · साहित्य शिल्पी · साहित्य दर्शन · हिन्दी कुंज · हिन्दी नेस्ट · हिन्दी समय · इन.कॉम · तहलका · प्रभासाक्षी · बीबीसी हिन्दी · मीडिया विमर्श · वेबदुनिया · शुक्रवार (पत्रिका) · आईबीएन खबर · पी 7 न्यूज · एनडीटीवी खबर · आज तक · मधु मुस्कान · सरिता (पत्रिका) · सरस सलिल · प्रतियोगिता दर्पण · अक्षय जीवन · निरोग धाम · नफा नुकसान · बिजनेस भास्कर · मोल तोल · मनी मंत्र · साहित्य रागिनी ·  · वटवृक्ष · वनिता · अभिव्यक्ति (पत्रिका) · संचेतना  · संप्रेषण  · कालदीर्घा · दायित्वबोध · अभिनव कदम · आकल्प · साहित्य वैभव  · परिवेश · 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छत्तीसगढ़ राज्य के अन्तर्गत रायगढ़ जिले का एक गाँव है। सेमलिकि फोरेस्ट वाइरस एक विषाणु है। इसकी खोज सर्वप्रथम १९४१ में यूगांडा में हुई। गृह प्रवेश 1979 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। हैम्पशायर (अंग्रेज़ी: Hampshire) एक इंग्लैंड का काउंटी है। बेडफ़र्डशायर | बर्कशायर | सिटी ऑफ़ ब्रिस्टल | बकिंघमशायर | केमब्रिजशायर | चेशायर | कॉर्नवल | कम्ब्रिया | डर्बीशायर | डेवन | डॉर्सेट | डरहम | ईस्ट राइडिंग ऑफ़ यॉर्कशायर | ईस्ट ससेक्स | एसेक्स | ग्लॉस्टरशायर | ग्रेटर लंदन | ग्रेटर मैनचेस्टर | हैम्पशायर | हरफ़र्डशायर | हर्टफ़र्डशायर | आइल ऑफ़ वाइट | केंट | लैंकाशायर | लेस्टरशायर | लिंकनशायर | सिटी ऑफ़ लंदन | मर्सीसाइड | नॉर्फ़क | नॉर्थहैम्पटनशायर | नॉर्थम्बरलैंड | नॉर्थ यॉर्कशायर | नॉटिंघमशायर | ऑक्सफ़र्डशायर | रटलैंड | श्रॉपशायर | समरसेट | साउथ यॉर्कशायर | स्टैफ़र्डशायर | सफ़क | सरी | टाइन ऐंड वेयर | वरिकशायर | वेस्ट मिडलैंड्स | वेस्ट ससेक्स | वेस्ट यॉर्कशायर | विल्टशायर | वॉस्टरशायर स्वामी सारदानन्द (23 दिसम्वर,1865 -19 अगष्ट, 1927) रामकृष्ण परमहंस के संन्यासी शिष्यों मेँ से एक थे। उनका पूर्वाश्रम का नाम शरतचन्द्र चक्रबर्ती था। रामकृष्ण मिशन की स्थापना के बाद वे इसके प्रथम संपादक बने और मृत्यु तक इस पद पर बने रहे। श्रीमाँ शारदा देवी के रहने के लिए उन्होने कोलकाता मेँ उद्वोधन भवन का निर्माण करवाया और बांग्ला पत्रिका उद्वोधन का प्रकाशन किया। सारदानन्दने श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग नामक विख्यात पुस्तक की रचना की। स्वामी सारदानन्द ने रामकृष्ण की प्रामाणिक जीवनी ग्रंथ "श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग" की रचना की। पाँच खंडों में रचित यह ग्रंथ रामकृष्ण की जीवनीयोँ में सर्वश्रेष्ठ हैँ। इसके अतिरिक्त वे 'भारत मेँ शक्तिपूजा' और 'गीतातत्व' नामक दो पुस्तक भी लिखे। यह पन्ना हिन्दी भाषा के कवि-सम्मेलन के लिए बनाया गया है। उर्दू कवि सम्मेलन के लिए मुशायरा पृष्ठ देखें। कवि सम्मेलन एक ऐसा कार्यक्रम है, जहां विभिन्न धारा के कवि मंच से अपनी कविता का पाठ करते हैं। अत: कवि सम्मेलन साहित्य और मंच-कला का मिश्रण है। कवि सम्मेलन का इतिहास बहुत पुराना है। इसलिए कवि-सम्मेलनों के आरम्भ की तिथि ज्ञात करना सम्भव नहीं है। परन्तु १९२० में पहला वृहद कवि सम्मेलन हुआ था जिसमें कई कवि और श्रोता था। उसके बाद कवि सम्मेलन भारतीय संस्कृति का अभिन्न भाग बन गया। आज भारत ही नहीं, वरन पूरे विश्व में कवि सम्मेलनों का आयोजन बड़े पैमाने पर होता है। भारत में स्वतंत्रता (१९४७) के बाद से ८० के दशक के आरम्भिक दिनों तक कवि सम्मेलनों का 'स्वर्णिम काल' कहा जा सकता है। ८० के दशक के उत्तरार्ध से ९० के दशक के अंत तक भारत का युवा बेरोज़गारी जैसी कई समस्याओं में उलझा रहा। इसका प्रभाव कवि-सम्मेलनों पर भी हुआ और भारत का युवा वर्ग इस कला से दूर होता गया। मनोरंजन के नए उपकरण जैसे टेलीविज़न और बाद में इंटरनेट ने सर्कस, जादू के शो और नाटक की ही तरह कवि सम्मेलनों पर भी भारी प्रभाव डाला। कवि सम्मेलन सख्यां और गुणवत्ता, दोनों ही दृष्टि से कमज़ोर होते चले गए। श्रोताओं की संख्या में भी भारी गिरावट आई। इसका मुख्य कारण यह था कि विभ्न्न समस्याओं से घिरे युवा दोबारा कवि-सम्मेलन की ओर नहीं लौटे। साथ ही उन दिनों भीड़ में जमने वाले उत्कृष्ट कवियों की कमी थी। लेकिन नई सहस्त्राब्दी के आरम्भ होते ही युवा वर्ग, जो कि अपना अधिकतर बचा हुआ समय इंटरनेट पर गुज़ारता था, कवि सम्मेलन को पसन्द करने लगा। इंटरनेट के माध्यम से कई कविताओं की वीडियो उस वर्ग तक पहुंचने लगी। युवाओं ने नय वीडियो तलाशना, उन्हें इंटरनेट पर अपलोड करना, डाउनलोड करना और आपस में बांटना आरम्भ किया। लगभग पांच वर्षों के भीतर लाखों युवा कवि सम्मेलनों को पसन्द करने लगे। इस पीढ़ी की कवि सम्मेलनों की ओर ज़ोरदार वापसी का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है, कि यू-ट्यूब नामक वेबसाईट पर एक कवि की प्रस्तुति को साढे मांच लाख से भी अधिक लोगों ने अब तक देखा है[1]। २००४ से ले कर २०१० तक का काल हिन्दी कवि सम्मेलन का दूसरा स्वर्णिम काल भी कहा जा सकता है। श्रोताओं की तेज़ी से बढती हुई संख्या, गुणवत्ता वाले कवियों का आगमन और सबसे बढ़ के, युवाओं का इस कला से वापस जुड़ना इस बात की पुष्टि करता है। पारम्परिक रूप से कवि सम्मेलन सामाजिक कार्यक्रमों, सरकारी कार्यक्रमों, निजी कार्यक्रमों और गिने चुने कार्पोरेट उत्सवों तक सीमित थे। लेकिन इक्कईसवीं शताब्दी के आरम्भ में शैक्षिक संस्थाओं में इसकी बढती संख्या प्रभावित करने वाली है। जिन शैक्षिक संस्थाओं में कवि-सम्मेलन होते हैं, उनमें आई आई टी[2], आई आई एम[3], एन आई टी[4], विश्वविद्यालय, इंजीनियरिंग, मेडिकल, प्रबंधन और अन्य संस्थान शामिल हैं। उपरोक्त सूचनाएं इस बात की तरफ़ इशारा करती है, कि कवि सम्मेलनों का रूप बदल रहा है। हिन्दी प्रेमी पूरी दुनिया में हिन्दी कवि सम्मेलन आयोजित करवाते हैं। विश्व का कोई भी भाग आज कवि सम्मेलनों से अछूता नहीं है। भारत के बाद सबसे अधिक कवि सम्मेलन आयोजित करवाने वाले देशों में अमरीका[5][6], दुबई[7], मस्कट, सिंगापोर[8], ब्रिटेन इत्यादि शामिल हैं। इनमें से अधिकतर कवि सम्मेलनों में भारत के प्रसिद्ध कवियों को आमंत्रित किया जाता है। भारत में वर्ष भर कवि सम्मेलन आयोजित होते रहते हैं। भारत में कवि सम्मेलन के आयोजकों में सामाजिक संस्थाएं, सांस्कृतिक संस्थाएं, सरकारी संस्थान, कार्पोरेट और शैक्षिक संस्थान अग्रणी हैं। पुराने समय में सामाजिक संस्थान सबसे ज़्यादा कवि-सम्मेलन करवाते थे, लेकिन इस सहस्त्राब्दी के शुरूआत से शैक्षिक संस्थानों ने सबसे ज़्यादा सम्मेलन आयोजित किए हैं। कवि सम्मेलनों के आयोजन के ढंग में भी भारी बदलाव आए हैं। यहां तक कि अब कवि सम्मेलन इंटरनेट पर भी बुक किए जाते हैं[9]। कवि सम्मेलन के पारम्परिक रूप में अब तक बहुत अधिक बदलाव नहीं देखे गए हैं। एक पारम्परिक कवि सम्मेलन में अलग अलग रसों के कुछ कवि होते हैं और एक संचालक होता है। कवियों की कुल संख्या वैसे तो २० या ३० तक भी होती है, लेकिन साधरणत: एक कवि सम्मेलन में ७ से १२ तक कवि होते हैं। २००५ के आस पास से कवि सम्मेलन के ढांचे में कुछ बदलाव देख्ने को मिले। अब तो एकल कवि सम्मेलन भी आयोजित किए जाते हैं[10] (हालांकि उसे कवि-सम्मेलन कहना उचित नहीं है क्योंकि सम्मेलन बहुवचन में आता है, परन्तु अब ऐसे भी काव्य पाठ हो रहे हैं)। एक पारम्परिक कवि सम्मेलन में कवि मंच पर रखे गद्दे पर बैठते हैं। मंच पर दो माईकें होती हैं- एक वह, जिस पर खड़े हो कर कवि एक एक कर के कविता-पाठ करते हैं और दूसरा वो, जिसके सामने संचालक बैठा रहता है। संचालक सर्वप्रथम सभी कवियों का परिचय करवाता है और उसके बाद एक एक कर के उन्हें काव्य-पाठ के लिए आमंत्रित करता है। इसका क्रम साधारणतया कनिष्ठतम कवि से वरिष्ठतम कवि तक होता है। कवि सम्मेलन मंचों पर अब तक हज़ारों कवि धाक जमा चुके हैं, लेकिन उनमें से कुछ ऐसे हैं जिनको मंच पर अपनी प्रस्तुति के लिए सदा याद किया जाएगा। उनमें से स्वर्गीय रामधारी सिंह 'दिनकर', स्वर्गीय सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला',हरिवंश राय बच्चन, पद्मभूषण गोपालदास नीरज, स्वर्गीय श्याम नारायण पाण्डेय, स्वर्गीय दामोदर स्वरूप 'विद्रोही', स्वर्गीया महादेवी वर्मा, काका हाथरसी, संतोषानंद, शैल चतुर्वेदी, स्वर्गीय डॉ० उर्मिलेश शंखधार, डा सुरेन्द्र शर्मा, उदय प्रताप सिंह, स्वर्गीय ओम प्रकाश आदित्य, डा कुंअर बेचैन, हुल्लड़ मुरादाबादी, स्वर्गीय अल्हड़ बीकानेरी, अशोक चक्रधर, स्वर्गीय नीरज पुरी, माया गोविन्द, प्रदीप चौबे, स्वर्गीय ओम व्यास 'ओम' और डॉ० कुमार विश्वास अग्रणी हैं। ७८४४ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से ७८४४ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर ७८४४ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। जब किये जाने वाले कामों को बार-बार बाद में करने के लिये छोड़ा जाता है तो उस व्यवहार को दीर्घसूत्रता या 'काम टालना' (Procrastination) कहते हैं। मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि दीर्घसूत्रता, काम को शुरू करने या उसे समाप्त करने या निर्णय लेने से जुड़ी हुई चिन्ता से लड़ने का एक तरीका है। किसी व्यवहार को दीर्घसूत्रता कहने के लिये उसमें तीन विशेषताएं होनी चाहिये - यह व्यवहार उत्पादनविरोधी (counterproductive) हो ; अनावश्यक हो और देरी करने वाला हो। २०३२ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से २०३२ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर २०३२ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। गाजर एक सब्ज़ी का नाम है| यह लाल, काली, नारंगी, कई रंगों में मिलती है। यह पौधे की मूल (जड़) होती है। गाजर के रस का एक गिलास पूर्ण भोजन है। इसके सेवन से रक्त में वृद्धि होती है।[1]मधुमेह आदि को छोड़कर गाजर प्रायः हरेक रोग में सेवन की जा सकती है। गाजर के रस में विटामिन ‘ए’,'बी’, ‘सी’, ‘डी’,'ई’, ‘जी’, और ‘के’ मिलते हैं। गाजर का जूस पीने या कच्ची गाजर खाने से कब्ज की परेशानी खत्म हो जाती है। यह पीलिया की प्राकृतिक औषधि है। इसका सेवन ल्यूकेमिया (ब्लड कैंसर) और पेट के कैंसर में भी लाभदायक है। इसके सेवन से कोषों और धमनियों को संजीवन मिलता है। गाजर में बिटा-केरोटिन नामक औषधीय तत्व होता है, जो कैंसर पर नियंत्रण करने में उपयोगी है।[कृपया उद्धरण जोड़ें] इसके सेवन से इम्यूनिटी सिस्टम तो मजबूत होता ही है साथ ही आँखों की रोशनी भी बढ़ती है। [2] [3] सौभाग्य सिंह शेखावत राजस्थानी भाषा के भारतीय लेखक हैं।[1][2] यद्यपि मामूली शिक्षा के साथ भी वो उच्च श्रेणी के विद्वानों में गिने जाते हैं जिन्होंने राजस्थान के लगभग सभी शोध पत्रिकाओं में अपना योगदान दिया है।[3] तानसेन स्मारक, ग्वालियर अकबर के नवरत्नों में से एक हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के स्तंभ महान संगीतकार तानसेन की स्मृति में उन के शहर ग्वालियर मध्यप्रदॆश में स्थित मुगल-स्थापत्य के आधार पर बनाया गया वह स्मारक है, जहाँ हर वर्ष नवम्बर में अखिल भारतीय संगीत समारोह आयोजित किया जाता है। राग-द्वेष-रहित संतों, साधुओं और ऋषियों को मुनि कहा गया है। मुनियों को यति, तपस्वी, भिक्षु और श्रमण भी कहा जाता है। भगवद्गीता में कहा है कि जिनका चित्त दु:ख से उद्विग्न नहीं होता, जो सुख की इच्छा नहीं करते और जो राग, भय और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निश्चल बुद्धिवाले मुनि कहे जाते हैं। वैदिक ऋषि जंगल के कंदमूल खाकर जीवन निर्वाह करते थे। जैन ग्रंथों में उन निग्रंथ महर्षियों को मुनि कहा गया है जिनकी आत्मा संयम में स्थिर है, सांसारिक वासनाओं से जो रहित हैं और जीवों की जो रक्षा करते हैं। जैन मुनि 28 मूल गणों का पालन करते हैं। वे अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच व्रतों तथा ईर्या (गमन में सावधानी), भाषा, एषणा (भोजन शुद्धि), आदाननिक्षेप (धार्मिक उपकरण उठाने रखने में सावधानी) और प्रतिष्ठापना (मल मूत्र के त्याग में सावधानी), इन पाँच समितियों का पालन करते हैं। वे पाँच इंद्रियों का निग्रह करते हैं, तथा सामायिक, चतुविंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान (त्याग) और कायोत्सर्ग (देह में ममत्व का त्याग) इन छह आवश्यकों को पालते हैं। वे केशलोंच करते हैं, नग्न रहते हैं, स्नान और दातौन नहीं करते, पृथ्वी पर सोते हैं, त्रिशुद्ध आहार ग्रहण करते हैं और दिन में केवल एक बार भोजन करते हैं। ये सब मिलाकर 28 मूल गुण होते हैं। निर्देशांक: 25°09′N 87°01′E / 25.15°N 87.02°E / 25.15; 87.02 नासोपुर सुलतानगंज, भागलपुर, बिहार स्थित एक गाँव है। १२८७ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से १२८७ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर १२८७ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। पि.गोपालपुरं (कडप) में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के कडप जिले का एक गाँव है। आश्रम एक्स्प्रेस 2916 भारतीय रेल द्वारा संचालित एक मेल एक्स्प्रेस ट्रेन है। यह ट्रेन पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:DLI) से 03:00PM बजे छूटती है और अहमदाबाद जंक्शन रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:ADI) पर 07:40AM बजे पहुंचती है। इसकी यात्रा अवधि है 16 घंटे 40 मिनट। कालमेह ज्वर (Black water fever) अथवा मलेरियल हीमोग्लोबिन्युरिया (malarial hemoglobinuria) घातक तृतीयक मलेरिया के कई आक्रमण के उपरांत उपद्रव के रूप में होता है। इसमें मूत्र का रंग काला या गहरा लाल हो जाने से इसका नाम 'कालमेह ज्वर' रखा गया है। इस रोग में रक्त के कणों में से तीव्रता से हीमोग्लोबिन पृथक् हो जाता है (hemolysis), जिससे मूत्र काला हो जाता है, ज्वर आ जाता है, कामला और रक्तन्यूनता हो जाती है तथा वमन होने लगता है। ज्वर प्राय: सर्दी लगने पर होता है। कमर में पीड़ा और आमाशय में कुछ कष्ट हो जाता है। २४ घंटे में रक्त में ५० प्रतिशत की कमी हो जाती है और रक्तचाप कम हो जाता है। रोग के दो रूप होते हैं—मृदु और तीव्र। मृदु में ज्वर जाड़ा लगकर आता है। मूत्र में रक्त होता है। ज्वर बहुत तीव्र नहीं होता। रोगी तीन चार दिन में ठीक हो जाता है और तब मूत्र निर्मल हो जाता है। तीव्र रूप में ज्वर बड़ी तीव्रता से आता है और बहुत अधिक हो जाता है। मस्तिष्क ठीक काम नहीं करता, रोगी मूर्छित हो जाता है (uremia) और अंत में उसकी मृत्यु हो जाती है। कालमेह ज्वर अधिकतर उन्हीं स्थानों में होता है जहाँ मलेरिया उग्र रूप में बराबर पाया जाता है, जैसे भारतवर्ष, उष्ण अफ्रीका, दक्षिण-पूर्वीय यूरोप, दक्षिणी अमरीका और दक्षिण-पूर्वीय एशिया तथा न्यूगाइना आदि। यदि रोगी के रक्त की परीक्षा आक्रमण के आरंभ में की जाए तो उसमें घातक तृतीयक मलेरिया के जीवाणु मिल जाते हैं। कहा जाता है कि कालमेह ज्वर कुनैन और कैमोक्वीन अधिक काल तक देने से हो जाता है। रिलैप्सिंग ज्वर और पीत ज्वरय से इसका भेद समझना चाहिए। रोगी को बिस्तर पर रखना चाहिए। जब मलेरिया ज्वर हो तब उसकी पूर्ण चिकित्सा करनी चाहिए और कुनैन आवश्यक से अधिक मात्रा में न देकर पैत्युड्रिन का उपयोग करना चाहिए। तडेमिया, पिथौरागढ (सदर) तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के पिथोरागढ जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। हम किसी से कम नहीं 2002 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। यह विश्व का एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र है| दिसम्बर २००७ में रूपर्ट मर्डोक की कम्पनी न्यूज़ कॉर्पोरेशन ने इसका अधिग्रहण डो जोन्स और कम्पनी से किया था। तब से अखबार के भविष्य और इसके सम्पादकीय सामग्री को लेकर काफ़ी अटकलें लगायी जाती रही हैं और तब से अखबार ने निश्चित रूप से कुछ हद तक मध्यममार्गी से दक्षिणपंथी पथ ले लिया है। उदाहरण के लिये। अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव, २००८ में यह उन चंद अखबारों में था जिन्होनें राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन प्रत्याशी जॉन मैक्केन का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से काफ़ी हद तक समर्थन किया था। भूमंडलीय ऊष्मीकरण के बारे में उन वैज्ञानिकों को अखबार में लगातार जगह मिलती है जो इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते कि यह मानवजनित है। यह दैनिक समाचार पत्र न्यूयार्क, संयुक्त राज्य अमेरिका से प्रकाशित होता है और इसके यूरोप और एशिया के संस्करण भी हैं। मार्च २०१० में इसके पाठकों की संख्या बीस लाख दस हजार के करीब थी, जिसमें करीब चार लाख ऑनलाइन पाठक भी शामिल हैं। मियामी हेराल्ड · वाशिंटन पोस्ट · लॉस एंजिल्स टाइम्स · शिकागो ट्रिब्यून · बोस्टन ग्लोब · क्रिश्चियन साइंस मानीटर · डेली न्यूज़ · वाल स्ट्रीट जर्नल · न्यूयार्क टाइम्स · न्यूयार्क पोस्ट · यू०एस०ए० टुडे · फिलाडेल्फिया इन्क्यारर · टोरंटो सन · टोरंटो स्टार · ग्लोब एंड मेल · बैंकूवर सन · डेली टेलीग्राफ मिरर · सन · हेराल्ड सन · न्यूजीलैण्ड हेराल्ड · स्टार · ओपिनियन · डेली मेल · डेली मिरर · डेली टेलीग्राफ · गार्डियन · इंडीपेंडेंट · द टाइम्स · डेली स्टार · टुडे · फाइनेंशियल टाइम्स · ग्लास्को हेराल्ड · ला रिपब्लिका · ला गाजेटा डेलो स्पोर्टस · ला मांद · ली फिगारो · क्वेस्ट फ्रांस · बिल्ड · बर्लिन जेतुंग · डी टेलीग्राफ · अल पायस · एक्सप्रेसेन · साबाह · प्रावदा · इजवेस्तिया · ट्रुद् · ड्यूमा (समाचार पत्र) · प्रेस · रोमानिया लिबेरिया · आफेनपोस्टेन · इंटरनेशन हेराल्ड ट्रिब्यून · अल अहरम · डान · पीपुल्स डेली · मर्डेका · साउथ चायना मार्निग पोस्ट · एशियन वाल स्ट्रीट जर्नल · मैनेची सिम्बुम · द राइजिंग नेपाल · मनीला टाइम्स · पालीटिका · सुदे मरदान · डेली एक्सप्रेस · द आइलैंड · खलीफा टाइम्स · मशरीक · डेली जंग · बांग्लादेश आब्जर्वर · कोरिया हेराल्ड · चायना टाइम्स · अलशाब · ईस्टन सन · न्हान डान · रयुड प्रेवो · द टाईम्स ऑफ़ इंडिया · हिन्दुस्तान टाईम्स · दि इंडियन एक्सप्रेस · दैनिक भास्कर · अमर उजाला · दैनिक जागरण टारपाली रायगढ मण्डल में भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के अन्तर्गत रायगढ़ जिले का एक गाँव है। ओल्ड मैंज़ होप (अंग्रेज़ी: Old Man's Hope, बूढ़े की आशा) ऐलन ओक्टेवियन ह्यूम द्वारा लिखी गई एक कविता है जिसमें उन्होंने भारत के युवकों को उठकर अपने राष्ट्र में स्वशासन के लिए प्रेरित करने की कोशिश की। ह्यूम ने यह उसी दौर में लिखी जब वे भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की नीव डाल रहे थे।[1][2] कविता की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं[3][4] - Sons of Ind, why sit ye idle, Wait ye for some Deva's aid? Buckle to, be up and doing! Nations by themselves are made! Yours the land, lives, all, at stake, tho Not by you the cards are played; Are ye dumb? Speak up and claim them! By themselves are nations made! What avail your wealth, your learning, Empty titles, sordid trade? True self-rule were worth them all! Nations by themselves are made! Whispered murmurs darkly creeping, Hidden worms beneath the glade, Not by such shall wrong be righted! Nations by themselves are made! Are ye Serfs or are ye Freemen, Ye that grovel in the shade? In your own hands rest the issues! By themselves are nations made! Sons of Ind, be up and doing, Let your course by none be stayed; Lo! the Dawn is in the East; By themselves are nations made! संज़ ऑफ़ इन्ड, व्हाय सिट यी आइड्ल, वेट यी फॉर सम देवाज़ एड? बकल अप, बी अप ऐण्ड डूईन्ग! नेशन्ज़ बाय दॅमसॅल्व्ज़ आर मेड! यॉर्ज़ द लैण्ड, लाइव्ज़, ऑल, ऐट स्टेक, दो नॉट बाय यू द कार्ड्ज़ आर प्लेड; आर यी डम? स्पीक अप ऐण्ड क्लेम दॅम! बाय दॅमसॅल्व्ज़ आर नेशन्ज़ मेड! व्हॉट अवेल यॉर वॅल्थ़, यॉर लर्निन्ग? ऍम्टी टाइटल्ज़, सॉर्डिड ट्रेड? ट्रू सॅल्फ़-रूल वर वर्थ़ दॅम ऑल! नेशन्ज़ बाय दॅमसॅल्व्ज़ आर मेड! व्हिस्पर्ड मर्मर्ज़ डार्क्ली क्रीपिन्ग, हिडन वर्म्ज़ बिनीथ़ द ग्लेड, नॉट बाय सच शैल रॉन्ग बी राईटिड, नेशन्ज़ बाय दॅमसॅल्व्ज़ आर मेड! आर यी सर्फ़्स ऑर आर यी फ़्रीमॅन, यी थ़ैट ग्रवल इन द शेड? इन यॉर ओन हैन्ड्ज़ रॅस्ट द इशूज़! बाय दॅमसॅल्व्ज़ आर नेशन्ज़ मेड! संज़ ऑफ़ इन्ड, बी अप ऐण्ड डूईन्ग! लॅट यॉर कोर्स बाय नन बी स्टेड; लो! द डॉन इज़ इन दी ईस्ट; बाय दॅमसॅल्व्ज़ आर नेशन्ज़ मेड! हिंद के बेटों, हाथ धरे क्यों बैठे हो, क्या किसी देवता की मदद का इंतज़ार कर रहे हो? कमर कसो, उठो और जुट जाओ! क़ौमें अपने भाग्य ख़ुद बनाती हैं! तुम्हारी धरती, तुम्हारी ज़िंदगियाँ, सब दाव पर लगा है, लेकिन, अपनी बाज़ी तुम ख़ुद नहीं खेल रहे; क्या गूंगे हो? आवाज़ उठाओ और अपनी बाज़ी छीनो! क़ौमें अपने भाग्य ख़ुद बनाती हैं! तुम्हारी दौलत, तुम्हारी विद्या, किस काम की? बेकार की उपाधियाँ, घिनौने सौदे? सच्चा स्वराज्य इन सब से ज़्यादा क़ीमती है! क़ौमें अपने भाग्य ख़ुद बनाती हैं! अंधेरों में खुसर-फुसर करने वाले, कीड़ों की तरह ज़मीन के नीचे छुपने वाले, ऐसों से बिगड़ी कभी नहीं सँवरती! क़ौमें अपने भाग्य ख़ुद बनाती हैं! तुम गुलाम हो या तुम आज़ाद मर्द हो, तुम जो परछाइयों में घुटनों पर चलते हो? अपने मसलों का फैसला तुम्हारे अपने हाथों में है! क़ौमें अपने भाग्य ख़ुद बनाती हैं! हिंद के बेटों, उठो और जुट जाओ, किसी को अपना रस्ता मत रोकने दो; देखो! पूरब में पौ फट रही है; क़ौमें अपने भाग्य ख़ुद बनाती हैं! लारा क्रॉफ्ट: टॉम्ब रेडर (अंग्रेज़ी: Lara Croft: Tomb Raider) २००१ में बनी रोमांचक फ़िल्म है जो टॉम्ब रेडर गेम पर आधारित है। इसका अगला भाग लारा क्रॉफ्ट टॉम्ब रेडर: द क्रेडल ऑफ़ लाइफ़ २००३ में रिलीज़ किया गया था। सायमन वेस्ट द्वारा निर्देशित और लारा क्रॉफ्ट के रूप में एंजेलिना जोली द्वारा अभिनीत इस फिल्म (चलचित्र) को १५ जून २००१ में अमेरिका के सिनेमा घरो में रिलीज़ किया गया था। फिल्म एक व्यावसायिक सफलता थी। १६ जून २०१० तक इस फिल्म ने दुनिया भर में सबसे ज्यादा कमाने वाली वीडियो गेम से रूपांतरित फिल्म का ख़िताब रखा। फिर यह ख़िताब प्रिंस ऑफ़ परसिया: सेंड्स ऑफ़ टाइम ने छीन लिया। फिल्म को नकारात्मक आलोचकों का सामना करना पड़ा पर जोली के अभिनय की तारीफ की गयी। लारा क्रॉफ्ट: टॉम्ब रेडर इण्टरनेट मूवी डेटाबेस पर जोया अख्तर एक समकालीन भारतीय फिल्म निर्देशक हैं। उन्होंने सर्वप्रथम उन्होंने लक बाइ चांस (2009) नामक फ़िल्म से अपना निर्देशन का कार्य आरम्भ किया।[1][2] 2011 में, उन्होंने समीक्षात्मक और वाणिज्यिक रूप से सफल फ़िल्म ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा का निर्देशन किया और फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार जीता। होया अख्तर का जन्म 9 जनवरी 1974 को बोम्बे (मुम्बई) में पटकथा लेखक कवि गीतकार और पटकथा लेखक जावेद अख्तर और पटकथा लेखिका हनी ईरानी के घर हुआ। जोया की सौतेली मां शबाना आज़मी हैं। वो फरहान अख्तर की बहन और शायर जांनिसार अख्तर की पोती हैं। मनेच्क्जी कूपर विद्यालय, मुम्बई से उन्होंने अपनी शिक्षा आरम्भ की और सेंट जेवियर्स कॉलेज, मुम्बई से स्नातक की पढ़ाई पूर्ण की। तत्पश्चात उन्होंने फिल्म निर्माण सिखने के लिए न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय फिल्म स्कूल में चलीं गई।[3] जोया का पालन पोषण एक नास्तिक परिवेस में हुआ, जैसे की उसके पिता जावेद अख्तर ने अपने भाषणों की शुरूआत "अध्यात्म, प्रभामण्डल आदि" से आरम्भ करने लगे।[4] जोया ने अपना कार्य कामसूत्र नामक फ़िल्म में एक छोटे से अभिनय से अभिनेत्री के रूप में आरम्भ किया, जहाँ उन्होंने रेखा की एक शिष्य का अभिनय किया। जोया ने विभिन्न विज्ञापनों में भी कार्य किया जैसे पेप्सी और फिनोलेक्स के लिए किया। उन्होंने रॉक बैण्ड "प्राइस ऑफ़ बुलेट्स" नामक विडियो संगीत के सह-निर्देशन का कार्य भी किया। उन्होंने अपना निर्देशन का कार्य वर्ष 2011 में लक बाइ चांस नामक फ़िल्म से आरम्भ किया जो आलोचनाओं से भरपूर रही[1] लेकिन टिकटघर पर नहीं चल पायी,[5] वर्ष 2011 में, उन्होंने अपने निर्देशन में एक बहु-सितारा फ़िल्म जिसमें ऋतिक रोशन, अभय देयोल, फरहान अख्तर, कैटरीना कैफ और कल्की केकलां ने कार्य किया था, ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा नामक व्यावसायिक रूप से सफल फिल्म दी।[6] जिसके परिणामस्वरूप उन्हें टिकटघर पर भी एक भारी सफलता मिली और फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार भी मिला, जोया अख्तर ने फ़िल्म का एक उत्तर कथा चलचित्र भी बनाने का विचार बनाया। इसके बारे में बोलते हुए उन्होंने बताया कि - "आप नहीं जानते मैं इसके उत्तर कथा चलचित्र बनाने के बारे में सोच रही हूँ अथवा नहीं। It all depends on the right content.",[7] वो वेलेंटाईन डे के अवसर पर अपने भाई फरहान अख्तर के साथ चैरिटी शौ कौन बनेगा करोड़पति में भाग लिया।[9] २४१८ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से २४१८ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर २४१८ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। याहियापुर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर जिले में एक छोटा सा गाँव है। यह गाँव राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 58 से बस थोडा सा ही हटकर, खतौली से लगभग ३ किलोमीटर दूर बिजनौर जाने वाली सड़क (जिसे मीरापुर सड़क भी कहा जाता है) पर स्थित है। यहाँ की अधिकांश आबादी शिक्षित है और कृषि यहाँ के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय है। यह खतौली डाकखाने के अंतर्गत आता है जिसका पिन कोड 251201 है।[1] सलेमपुर मुंगेर, मुंगेर, बिहार स्थित एक गाँव है। चिन राज्य बर्मा का एक राज्य है। बिग बॉस हल्ला बोल बिग बॉस के 8वें संस्करण के समाप्त होने के बाद उसे और बढ़ाने के लिए बनाया गया था। यह कलर्स पर उसी समय रात 9 बजे से 10 बजे तक देता था। इस धारावाहिक में गौतम गुलाटी ने इस धारावाहिक में जीत गए और करिश्मा तन्ना व प्रीतम सिंह क्रमश: बिना निस्कासन के रहे। जिसमें 50 लाख के विजेता गौतम गुलाटी और 25 लाख प्रीतम सिंह ने जीता। बिग बॉस का 8वां संस्करण जनवरी में समाप्त हो चुका था। लेकिन कलर्स में जो नया धारावाहिक आने वाला था उसके बनने में देरी होने के कारण इस धारावाहिक को 1 महीने के लिए बढ़ा दिया गया। जिसका नाम बिग बॉस हल्ला बोल रखा गया। इसके अलावा बिग बॉस के घर में केवल 5 लोग ही बचे थे। इस कारण उस घर में अन्य संस्करण के 5 लोगों को लाया गया। इसके पश्चात उन्हे कार्य के अनूसार जगह मिलता और साथ ही तबादला का भी एक कार्य जोड़ा गया जिसमें घर के लोग किसी एक को विजेता से दावेदार में बदल सकते थे।[1] इस धारावाहिक में सलमान खान ही प्रस्तुत करने वाले थे लेकिन जब इस धारावाहिक को एक महीने और बढ़ा दिया गया तो उनके पास का समय जो किसी और कार्य का था। इस कारण वह अपने कार्य में चले गए और इस धारावाहिक को फराह खान के द्वारा प्रस्तुत किया गया।[2] कटीली चौलाई (वानस्पतिक नाम : अमेरेन्थस स्पिनोसस (Amaranthus spinosus L) ; सामान्य नाम : स्पाईन अमेरेन्थस) एक खरपतवार है। यह एकबीजपत्री, वार्षिक पौधा है। इसका प्रजनन बीज से होता है। इसकी पत्तियां पतली लम्बी नीचे की तरफ लाल होतीं हैं। फूल हरा, हरा-सफेद १ मिमी. लम्बा होता है। बीज गोल चमकदार होते है। यह खरपतवार उपभूमि धान की फसल को प्रभावित करते हैं। बाड़मेर कालका एक्स्प्रेस 4888 भारतीय रेल द्वारा संचालित एक मेल एक्स्प्रेस ट्रेन है। यह ट्रेन बाड़मेर रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:BME) से 06:45AM बजे छूटती है और कालका रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:KLK) पर 06:00AM बजे पहुंचती है। इसकी यात्रा अवधि है 23 घंटे 15 मिनट। गिरीश पंकज हिन्दी के एक व्यंग्यकार हैं। इनके दस व्यंग्य संग्रह, पाँच उपन्यास समेत विभिन्न विधाओं में चालीस पुस्तकें प्रकाशित हैं। इन्हें व्यंग्य लेखन के लिए "अट्टहास सम्मान", "श्री लाल शुक्ल व्यंग्य सम्मान", "लीलारनी सम्मान" समेत अनेक सम्मान, पुरस्कार प्राप्त हुये हैं।[1] मोहब्बत की आरज़ू १९९४ में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। चीनी तीतर (Chinese Francolin) (Francolinus pintadeanus) फ़्रैंकोलिन प्रजाति का एक पक्षी है जो कम्बोडिया, चीन, भारत, हांगकांग, लाओस, म्यानमार, थाइलैंड और वियतनाम में पाया जाता है।[1] यह सूखे उष्णकटिबंधीय वनों में ज़्यादातर पाया जाता है लेकिन इसे नमी वाले वनों में भी देखा जा सकता है। इसकी लंबाई लगभग ३० से ३४ से.मी. और वज़न लगभग २८० से ४०० ग्राम होता है।[2] पन्याली (N.Z.A.), धारी तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के नैनीताल जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। गणित में दो फलन तथा परस्पर लम्बकोणीय (orthogonal) कहलाते हैं यदि उनका आन्तरिक गुणनफल (inner product) सभी f ≠ g के लिए शून्य हो। आन्तरिक गुणफल की परिभाषा भी सन्दर्भ के साथ बदलती रहती है। तथापि आन्तरिक गुणफल की निम्नलिखित परिभाषा दे सकते हैं: इसमें समाकलन की सीमा समुचित रूप से ली जा सकती है। यहाँ 'तारांकित f' का अर्थ f के समिश्र युग्म से है। कस्तूरी संगीत एक कन्नड़ टीवी चैनल है। यह एक नया आने वाला चैनल है। निर्देशांक: 24°49′N 85°00′E / 24.81°N 85°E / 24.81; 85 शेख बीघा खिज़िरसराय, गया, बिहार स्थित एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। जनजातीय मामलों के राज्यमंत्री, भारत सरकार भारत सरकार में एक राज्य मंत्री हैं। पॆद्द अवुटपल्लि (कृष्णा) में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के कृष्णा जिले का एक गाँव है। आर्मीनियाई विकिपीडिया विकिपीडिया का आर्मीनियाई भाषा का संस्करण है। ८ अप्रैल २०११ की स्थिति तक इस संस्करण पर १३,४२६+ लेख हैं और यह ८९वां सबसे बड़ा विकिपीडिया संस्करण है। अंग्रेज़ी (en:) · जर्मन (de:) · फ़्रान्सीसी (fr:) · डच (nl:) इतालवी (it:)  · पोलिश (pl:)  · स्पेनी (es:)  · रूसी (ru:)  · जापानी (ja:)  · पुर्तगाली (pt:) चीनी (zh:)  · वियतनामी (vi:)  · स्वीडिश (sv:) यूक्रेनी (uk:)  · कैटलन (ca:)  · नॉर्वेजियाई (बोक्माल) (no:)  · फ़िनिश (fi:)  · चेक (cs:)  · फ़ारसी (fa:)  · हंगेरियाई (hu:)  · रोमानियाई (ro:)  · कोरियाई (ko:)  · अरबी (ar:)  · तुर्क (tr:)  · इण्डोनेशियाई (id:) · स्लोवाक (sk:) · इस्परान्तो (eo:)  · डैनिश (da:) · कज़ाख़ (kk:)  · सर्बियाई (sr:)  · लिथुआनियाई (lt:) · मलय (ms:)  · हिब्रू (he:)  · बास्क (eu:)  · बुल्गारियाई (bg:) · स्लोवेनियाई (sl:) · वोलापूक (vo:) · क्रोएशियाई (hr:) · हिन्दी (hi:) · 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संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। गडरी-किमगडीगाड-१, चौबटाखाल तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के पौड़ी जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। १५८७ ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। जैस्मिन राइस (थाई: ข้าวหอมมะลิ; उच्चारण: [kʰâo hɔ̌ːm malíʔ]), जिसे कई बार थाई खुश्बूदार चावल भी कहते हैं, चावल की एक लंबा-दाना किस्म है, जिसमें एक नट्टी खुश्बू और पैन्डेनस एमारिफोलियस जैसा फ्लेवर होता है, जो २-एसिटाइल-१-पायरोलाइन के कारण होता है। जैस्मिन राइस मूलतः थाइलैंड से होता है। इसकी खोज काओ होर्म माली १०५ किस्म के रूप में की गई ही (KDML105) जिसे सनथोर्न सीहैनेरन, थाइलैंड के चाचोएन्गसाओ प्रान्त की कृषि मंत्रालय के एक अधिकारी ने १९५४ में की थी। इसके दाने पकने पर चिपक जाते हैं, हालांकि अपेक्षाकृत काफी कम चिपकते हैं, क्योंकि इसमें अन्य किस्मों की अपेक्षा एमाइलोपेक्टिन काफी कम होता है। निर्देशांक: 27°13′N 79°30′E / 27.22°N 79.50°E / 27.22; 79.50 पलियाबूँचपुर छिबरामऊ, कन्नौज, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। टाऊ एक मूलभूत कण है। इसका प्रतीक चिह्न τ है। इसका आवेश इकाई (e) होता है अर्थात इलेक्ट्रॉन के समान होता है। विद्युतणु की भाँति यह कण भी लेप्टॉनों की श्रेणी में आता है। इसका द्रव्यमान 1.777 Gev/c2 है। इसका प्रचक्रण 1/2 होता है। आवेश के कारण यह दो फ्लेवर के साथ पाया जाता है जो एक दूसरे के प्रतिकण होते हैं अर्थात म्यूऑन (τ−) एवं प्रतिटाऊ (τ+)।[1] टाऊ लेप्टॉन श्रेणी में आता है अतः यह दुर्बल अन्योन्य क्रिया में भाग लेता है। चूँकि यह एक आवेशित कण है अतः विद्युत चुम्बकीय अन्योन्य क्रियाओं में भी भाग लेता है।[2] एवियन सार्कोमा ल्यूकोसिस वाइरस एक विषाणु है। ओंग, भारत की एक प्रमुख जनजाति हैं। अण्डमानी • अपात्तानी • अभोर • आका • ईरुला • उत्तरी सेण्टिनली • उराली • ओंग • ओरांव • कच्छा • कबूई • कुकी • कोनयाक • कोरबा • कोली • किन्नर • खातमी • खाम्प्टी • खासी • गड़ावा • गरासिया • गलोंग • गारो • गिनीपोंग • गिरी • गुरुंग • गद्दी • गूजर • गोंड • चकमा • चांग • चिन • चुलीकाटा • चेंचू • जारवा • टोड़िया • टोडा • डफला • डाफर • डिगारी • डूबला • तुंगकुल • नागा • निकोबारी • पंतारम • पटेलिया • पदम • पनियान • पांगी • पासी • बदाली • बिरजा • बिरहोर • बेल्जियास • भील • पावरा • भुइया • भेरात • भोटिया • माल पहाड़िया • मालकुरवान • मालापत्रम • मालेर • मिकिर • मिश्मी • मुण्डा • मुथुबान • मेजू • मेव • मांझी • मीणा • रंगपान • रावत • डोङिया • खोंड • भोई • कहार • यवनजातक ईसा पूर्व रचित ज्योतिष-ग्रंथ है। यह संस्कृत विद्वानों द्वारा भारतीय तथा यूनानी ज्योतिष का किया गया संकलन है। बॊंदलकुंट (कडप) में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के कडप जिले का एक गाँव है। कवाध प्रथम (४८७-५३१ई.) फारस के ससानी वंश का राजा तथा फ़ीरोज का पुत्र था। इसे कवाद, कोबाद या कवात भी कहते हैं। कवाध प्रथम अपने चाचा बलास की जगह गद्दी पर बैठा। कवाध के दीर्घ राज्यकाल का पहला वीरकार्य उन बर्बर खज्रों के विरुद्ध सफल अभियान था जो तुर्की जाति के थे और कोहकाफ लाँघकर कूर की घाटी में प्राय: धावे किया करते थे। मजदक द्वारा स्थापित सामूहिक सत्तावादी सप्रदाय की सहायता करने के कारण कवाध को प्राय: अपना सिंहासन ही छोड़ना पड़ा। उसे गद्दी से उतार दिया गया और सूसियाना के प्रसिद्ध गढ़ में (जिसे साधारणत: 'विस्मृति का गढ़' कहते हैं) कैद कर दिया गया (४९८-५०१ई.)। उसका उत्तराधिकार उसके भाई ज़मास्प को मिला। कवाध अपनी पत्नी की मदद से कैद से निकल भागा। उसने अपनी गद्दी पर भी फिर से अधिकार कर लिया। इस बार उसने मजदकों के संबंध में बुद्धिमत्तापूर्ण व्यवहार किया, उनसे अपनी संरक्षा हटा ली और उनमें से बहुतों को बाद में मरवा तक डाला। रोम के साथ ससानियों का जो मित्रता संबंध अब तक चला आ रहा था, उसे कवाध ने तोड़ दिया। दोनों ओर से एक दूसरे पर लगातार धावे होते रहे और इन धावों ने दोनों पक्षों को कमजोर कर भावी अरब विजयों के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया। श्वेत हूणों के साथ कवाध का संघर्ष प्राय: १० वर्ष (५०३-५१३ ई.) चलता रहा और उसने उनकी शक्ति प्राय: नष्ट कर दी। कवाध दूरदर्शी और शक्तिमान शासक था। तबरी का कहना है कि कवाध ने जितने नगर बसाए उतने किसी अन्य राजा ने नहीं बसाए। उसकी मृत्यु के समय ईरान की शक्ति और मान चोटी पर थे। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 27°53′N 78°04′E / 27.89°N 78.06°E / 27.89; 78.06 माईनाथ कोइल, अलीगढ़, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। डी.हॊन्नूरु (अनंतपुर) में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के अनंतपुर जिले का एक गाँव है। अदरखी मुर्ग एक अवधी व्यंजन है। दून विश्वविद्यालय एक विश्वविद्यालय है जो भारत के उत्तराखण्ड राज्य की राजधानी देहरादून में स्थित है। विश्वविद्यालय की स्थापना उत्तराखण्ड विधानसभा के अक्टूबर २००५[1] के एक अधिनियम के बाद हुई थी। इसका पहला अकादमिक सत्र ९ मई, २००९ से प्रारम्भ हुआ। एदुलमद्दालि (कृष्णा) में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के कृष्णा जिले का एक गाँव है। ट्विटर की एक प्रोफ़ाइल ट्विटर वा चिर्विर एक मुक्त सामाजिक संजाल व सूक्ष्म चिट्ठाकारी सेवा है जो अपने उपयोगकर्ताओं को अपनी अद्यतन जानकारियां, जिन्हें ट्वीट्स वा चिर्विर वाक्य कहते हैं, एक दूसरे को भेजने और पढ़ने की सुविधा देता है। ट्वीट्स १४० अक्षरों तक के पाठ्य-आधारित पोस्ट होते हैं और लेखक के रूपरेखा पृष्ठ पर प्रदर्शित किये जाते हैं, तथा दूसरे उपयोगकर्ता अनुयायी (फॉलोअर) को भेजे जाते हैं।[4][5] प्रेषक अपने यहां उपस्थित मित्रों तक वितरण सीमित कर सकते हैं, या डिफ़ॉल्ट विकल्प में मुक्त उपयोग की अनुमति भी दे सकते हैं। उपयोगकर्ता ट्विटर वेबसाइट या लघु संदेश सेवा (SMS), या बाह्य अनुप्रयोगों के माध्यम से भी ट्विट्स भेज सकते हैं और प्राप्त कर सकते हैं।[6] इंटरनेट पर यह सेवा निःशुल्क है, लेकिन एस.एम.एस के उपयोग के लिए फोन सेवा प्रदाता को शुल्क देना पड़ सकता है। ट्विटर सेवा इंटरनेट पर २००६ में आरंभ की गई थी और अपने आरंभ होने के बाद टेक-सेवी उपभोक्ताओं, विशेषकर युवाओं में खासी लोकप्रिय हो चुकी है। ट्विटर कई सामाजिक नेटवर्क जालस्थलों जैसे माइस्पेस और फेसबुक पर काफी प्रसिद्ध हो चुका है।[4] ट्विटर का मुख्य कार्य होता है यह पता करना होता कि कोई निश्चित व्यक्ति किसी समय क्या कार्य कर रहा है। यह माइक्रो-ब्लॉगिंग की तरह होता है, जिस पर उपयोक्ता बिना विस्तार के अपने विचार व्यक्त कर सकता है। ऐसे ही ट्विटर पर भी मात्र १४० शब्दों में ही विचार व्यक्त हो सकते हैं।[5][7] ट्विटर उपयोक्ता विभिन्न तरीकों से अपना खाता अद्यतन अपडेट कर सकते हैं। वे वेब ब्राउज़र से अपना पाठ संदेश भेजकर अपना ट्विटर खाता अद्यतित कर सकते हैं और ईमेल या फेसबुक जैसे विशेष अन्तरजाल अनुप्रयोगों (वेब एप्लीकेशन्स) का भी प्रयोग कर सकते हैं। संसार भर में कई लोग एक ही घंटे में कई बार अपना ट्विटर खाता अद्यतन करते रहते हैं।[4] इस संदर्भ में कई विवाद भी उठे हैं क्योंकि कई लोग इस अत्यधिक संयोजकता (ओवरकनेक्टिविटी) को, जिस कारण उन्हें लगातार अपने बारे में ताजा सूचना देते रहनी होती है; बोझ समझने लगते हैं।[5] पिछले वर्ष से संसार के कई व्यवसायों में ट्विटर सेवा का प्रयोग ग्राहको को लगातार अद्यतन करने के लिए किया जाने लगा है। कई देशों में समाजसेवी भी इसका प्रयोग करते हैं। कई देशों की सरकारों और बड़े सरकारी संस्थानों में भी इसका अच्छा प्रयोग आरंभ हुआ है। ट्विटर समूह भी लोगों को विभिन्न आयोजनों की सूचना प्रदान करने लगा है। अमेरिका में २००८ के राष्ट्रपति चुनावों में दोनों दलों के राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने आम जनता तक इसके के माध्यम से अपनी पहुंच बनाई थी। माइक्रोब्लॉगिंग विख्यात हस्तियों को भी लुभा रही है। इसीलिये ब्लॉग अड्डा ने अमिताभ बच्चन के ब्लॉग के बाद विशेषकर उनके लिये माइक्रोब्लॉगिंग की सुविधा भी आरंभ की है। बीबीसी[8] व अल ज़जीरा[9] जैसे विख्यात समाचार संस्थानों से लेकर अमरीका के राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी बराक ओबामा[10] भी ट्विटर पर मिलते हैं।[11] हाल के समाचारों में शशि थरूर, ऋतिक रोशन, सचिन तेंदुलकर, अभिषेक बच्चन, शाहरुख खान, आदि भी साइटों पर दिखाई दिये हैं। अभी तक यह सेवा अंग्रेजी में ही उपलब्ध थी, किन्तु अब इसमें अन्य कई भाषाएं भी उपलब्ध होने लगी हैं, जैसे स्पेनिश, जापानी, जर्मन, फ्रेंच और इतालवी भाषाएं अब यहां उपलब्ध हैं। ट्विटर, अलेक्सा इंटरनेट के वेब यातायात विश्लेषण के द्वारा संसार भर की सबसे लोकप्रिय वेबसाइट के रूप में २६वीं श्रेणी पर आयी है।[12] वैसे अनुमानित दैनिक उपयोक्ताओं की संख्या बदलती रहती है, क्योंकि कंपनी सक्रिय खातों की संख्या जारी नहीं करती। हालांकि, फरवरी २००९ compete.com ब्लॉग के द्वारा ट्विटर को सबसे अधिक प्रयोग किये जाने वाले सामाजिक नेटवर्क के रूप में तीसरा स्थान दिया गया।[13] इसके अनुसार मासिक नये आगंतुकों की संख्या मोटे तौर पर ६० लाख और मासिक निरीक्षण की संख्या ५ करोड़ ५० लाख है[13], हालांकि केवल ४०% उपयोगकर्ता ही बने रहते हैं। मार्च २००९ में Nielsen.com ब्लॉग ने ट्विटर को सदस्य समुदाय की श्रेणी में फरवरी २००९ के लिए सबसे तेजी से उभरती हुई साइट के रूप में क्रमित किया है। ट्विटर की मासिक वृद्धि १३८२%, ज़िम्बियो की २४०% और उसके बाद फेसबुक की वृद्धि २२८% है।[14] हाल के दिनों में ट्विटर पर भी कुछ असुरक्षा की खबरें देखने में आयी हैं। ट्विटर एक हफ्ते के भीतर दूसरी बार फिशिंग स्कैम का शिकार हुई थी। इस कारण ट्विटर द्वारा उपयोक्ताओं को चेतावनी दी गई वे डायरेक्ट मेसेज पर आए किसी संदिग्ध लिंक को क्लिक न करें। साइबर अपराधी उपयोक्ता लोगों को झांसा देकर उनके उपयोक्ता नाम और पासवर्ड आदि की चोरी कर लेते हैं।[15] इनके द्वारा उपयोक्ता को ट्विटर पर अपने मित्रों की ओर से डायरेक्ट मेसेज के भीतर छोटा सा लिंक मिल जाता है। इस पर क्लिक करते ही उपयोक्ता एक फर्जी वेबसाइट पर पहुंच जाता है। यह ठीक ट्विटर के होम पेज जैसा दिखता है। यहीं पर उपयोक्ता को अपनी लॉग-इन ब्यौरे एंटर करने को कहा जाता है, ठीक वैसे ही जैसे ट्विटर के मूल पृष्ठ पर होता है। और इस प्रकार ये ब्यौरे चुरा लिये जाते हैं। एक उपयोक्ता, डेविड कैमरन ने अपने ट्विटर पर जैसे ही एंटर की कुंजी दबाई, वह खराब संदेश उनकी ट्विटर मित्र-सूची में शामिल सभी उपयोक्ताओं तक पहुंच गया। इससे यह स्कैम दुनिया भर के इंटरनेट तक पहुंच गया। सुरक्षा विशेषज्ञों के अनुसार साइबर अपराधी चुराई गई सत्रारंभ जानकारी का प्रयोग शेष खातों को भी हैक करने में कर सकते हैं, या फिर इससे किसी दूर के कंप्यूटर में सहेजी जानकारी को हैक कर सकते हैं। इससे बचने हेतु उपयोक्ताओं को अपने खाते का पासवर्ड कोई कठिन शब्द रखना चाहिये और सभी जगह एक ही का प्रयोग न करें। यदि उन्हें यह महसूस होता है कि उनके ट्विटर खाते से संदिग्ध संदेश भेजे जा रहे हैं तो अपने पासवर्ड को तुरंत बदल लें।[15] इसी तरह अपने ट्विटर खाते की सेंटिंग्स या कनेक्शन एरिया भी जांचें। यदि वहां किसी थर्ड पार्टी की ऐप्लिकेशन संदिग्ध लगती है तो खाते को एक्सेस करने की अनुमति न दें। ट्विटर ने भी सुरक्षा कड़ी करने हेतु पासवर्ड के रूप में प्रयोग होने वाले ३७० शब्दों को निषेध कर दिया है। उनके अनुसार पासवर्ड के इन शब्दों के बारे में अनुमान लगाना सरल है। द टेलीग्राफ की रिपोर्ट के अनुसार, ट्विटर ने '12345' और 'Password' जैसे शब्दों के पासवर्ड के रूप में प्रयोग को रोक दिया है। इनका अनुमान लगा अत्यंत सरल होता है और फिर उपयोक्ताओं की जानकारी को खतरा हो सकता है। पासवर्ड के रूप में 'पॉर्शे' और 'फेरारी' जैसी प्रसिद्ध कारों और 'चेल्सी' व 'आर्सनेल' जैसी फुटबॉल टीमों के नाम भी निषेध कर दिये हैं। इसी प्रकार विज्ञान कल्पना (साइंस फिक्शन) के कुछ शब्दों पर भी प्रतिबंध लगाया गया है।[16] माउन्ट पोपा मध्य बर्मा मे स्थित एक मृत ज्वालामुखी है। यह पर्वत समुन्द्र तल से १,५२८ मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। मछली शल्कों वाला एक जलचर है जो कि कम से कम एक जोडा़ पंखों से युक्त होती है। मछलियाँ मीठे पानी के स्त्रोतों और समुद्र मे बहुतायत मे पाई जाती हैं। समुद्र तट के आसपास के इलाकों में मछलियाँ खाने और पोषण का एक प्रमुख स्त्रोत हैं। कई सभ्यताओं के साहित्य, इतिहास एवं उनकी संस्कृति में मछलियों का विशेष स्थान है। इस दुनिया में मछलियों की कम से कम 28,500 प्रजातियां पाई जाती हैं जिन्हें अलग अलग स्थानों पर कोई 2,18,000 भिन्न नामों से जाना जाता है।[1] इसकी परिभाषा कई मछलियों को अन्य जलीय प्रणी से अलग करती है, यथा ह्वेल एक मछली नहीं है। परिभाषा के मुताबिक़, मछली एक ऐसी जलीय प्राणी है जिसकी रीढ़ की हड्डी होती है (कशेरुकी जन्तु), तथा आजीवन गलफड़े (गिल्स) से युक्त होती हैं तथा अगर कोई डालीनुमा अंग होते हैं (लिंब) तो वे फ़िन के रूप में होते हैं। कुछ मछलियाँ न केवल विशालकाय हैं, बल्कि इतनी खतरनाक है कि पूरे इंसान को निगल भी सकती हैं। यह हिमालय की तलहटी में मिलने वाली एक विशाल और नरभक्षी कैटफिश प्रजाति है। जैसा कि इसका नाम है, यह दैत्याकार मछली है। यह दुनिया की सबसे खतरनाक मछलियों में से एक है। यह बड़े से बड़े जीवों को भी निगल जाती है। डीमन फिश अफ्रीका की कांगो नदी में पाई जाती है। थाइलैंड की मीकांग नदी में जेरेमी ने दुनिया की सबसे बड़ी मछलियों मे से एक डेथ रे को खोज निकाला। इसका वजन लगभग 7 सौ पाउंड है। इसके शरीर पर एक जहरीली और कांटेदार पूंछ होती है, जिसके प्रहार से इंसान की जान भी जा सकती है। मछली से ज्यादा गैंगस्टर लगने वाली यह मछली हवा में सांस लेती है और जमीन पर भी रेंग लेती है। अपनी ही प्रजाति के जीवों को यह शौक से खाती है। यह एशिया में मुख्य रूप से चीन और दक्षिण कोरिया में पाई जाती है। अफ्रीका की कांगो नदी में पाई जाने वाली कांगो किलर के खतरनाक होने का अंदाजा इस बात से लगा सकते है कि अफ्रीका में इसके बारे में एक लोककथा है, जिसमें कहा गया है कि यह मछली एक आत्मा के रूप में मछुआरों को ललचा कर उन्हें मौत की तरफ ले जाती है। अलास्का की बर्फीली झील में मिलती है महाकाय अलास्कन हॉरर। इसके बारे में प्रचलित लोककथाओं में इसे आदमखोर माना जाता है। अफ्रीका की रिट वैली में एक विशालकाय जीव रहता है -एम्पुटा या नाइल पर्च। यह अफ्रीका के ताजे पानी की सबसे बड़ी मछली है। वर्ष 1976 में यात्रियों से भरी बस अमेरिका के अमेजॉन नदी में गिर गई और कई लोगों की जान चली गई। जब शवों को बाहर निकाला गया, तो उनमें से कुछ को पिरान्हा मछलियों ने इतनी बुरी तरह खा लिया था कि उनकी पहचान उनके कपड़ों से हुई। यह सादे पानी की ऐसी मछली है, जो इंसानों पर आक्रामक हमले करती है। यह शार्क की तरह खतरनाक और मगरमच्छ की तरह विशाल है। यह यूरोप के ताजे पानी वाली नदियों में अपनी थूथन उठाए घूमती रहती है। आक्रामक वैल्स कैटफिश इंसानों को भी अपना शिकार बना सकती है। अमेजन की गहराइयों में रहने वाली असासिंस शिकार को अपनी जीभ से कुचलती है, जो हड्डी से बनी होती है। यह अफ्रीकन मछली इंसान को निगल सकती है। यह जब हमला करती है, तो शरीर पर छुरा घोंपने जैसा निशान बन जाता है। अमरीकी प्रान्त जॉर्जिया के मछलीघर में एक विशालकाय ग्रूपर अन्य मछलियों के साथ तिरती हुई। flatfish (left‐eyed flounder) sea dragon 3 tonne great white shark Whale shark goldband fusiliers The information in this article appears to be suited for inclusion in a dictionary, and this article's topic meets Wiktionary's criteria for inclusion, has not been transwikied, and is not already represented. It will be copied into Wiktionary's transwiki space from which it can be formatted appropriately. अश्वारोही एक हिन्दी शब्द है। एक भारतीय उपनाम। निओकोलो-कोबा राष्ट्रीय उद्यान सेनेगल मे स्थित एक विश्व धरोहर स्थल है। इस स्थल को यह दर्जा सन 1981 मे मिला। पंजाबी  • उत्तर प्रदेश  • राजस्थानी  • मुगलई - पहाड़ी  • बिहारी  • बंगाली  • कश्मीरी केरल  • तमिल  • आंध्र प्रदेश  • कर्नाटक  • हैदराबाद उड़ीसा  • छत्तीसगढ़  • आदिवासी-झारखंड, उड़ीसा सिक्किम  • असमिया  • त्रिपुरी  • नागा गोआ • गुजराती • मराठी  • मालवानी/कोंकणी  • पारसी इंडो-चाइनीज • फास्ट-फूड · नेपाली • महाद्वीपीय खाना मिठाइयां एवं डेजर्ट सेपु वड़ी एक हिमाचली व्यंजन है। शाकाहारी: कोफ्ते की सब्जी • नरगिसी कोफ्ता • मलाई कोफ़्ता • मटर पुलाव • शाही पनीर • पनीर मसाला • केले की सब्जी • मशरूम बिरयानी • नवरत्न कोरमा • नवरत्न पुलाव • नवाबी करी • पालक पनीर • पनीर कोरमा • पनीर भरे टमाटर • पनीर टिक्का • पापड़ी • तहरी • तिल पापड़ी • वेज बिरयानी • वेज पुलाव • कूटू परांठा • लच्छा परांठा • नान • हरे मटर का परांठा • कचौड़ी • खस्ता कचौड़ी • बूंदी रायता • दही बड़ा • गेंहूँ की रोटी  • मक्के की रोटी  • बाजरे की रोटी  • दाल-भात  • खिचडी  • दलिया  • सत्तू  • पराठा  • चीला  • खीर  • हलुआ  • पूरी  • कचॉरी  • पापड  • रायता  • बेसन  • अरहर की दाल  • उरद की दाल  • मूँग की दाल मांसाहारी: अदरखी मुर्ग • चिकन कोरमा • दही गोश्त • बत्तख के चीले • मछली कबाब • कीमा • लैम्ब कबाब • शामी कबाब • मटन कबाब • मुर्ग मुसल्लम • अल्पाहार: पुट्टु • अप्पम • इडली • उपमा • दोसा • उत्तपम • अढ़ई • दलिया • कुज़ी पनियारम • कोतु परोटा • पूरी • नारतंगै पूरी • वज़कै कटलेट • मिक्स वेज बोंडा • वड़ा • पकोड़ा • कटलेट • मुरुक्कु • तेनकुज़ाल • चावल: टोमैटो राइस • पाज़न कांजी • सांभर सातम • लेमनर इस • टैमारिंड राइस • गार्लिक राइस • लेंटिल राइस • कोकोनट मिल्क राइस • निजी अंतर्राष्ट्रीय कानून (Private international law) से तात्पर्य उन नियमों से है जो किसी राज्य द्वारा ऐसे वादों का निर्णय करने के लिए चुने जाते हैं जिनमें कोई विदेशी तत्व होता है। इन नियमों का प्रयोग इस प्रकार के वाद विषयों के निर्णय में होता है जिनका प्रभाव किसी ऐसे तथ्य, घटना अथवा संव्यवहार पर पड़ता है जो किसी अन्य देशीय विधि प्रणाली से इस प्रकार संबद्ध है कि उस प्रणाली का अवलंबन आवश्यक हो जाता है। 'निजी अंतर्राष्ट्रीय कानून' नाम से ऐसा बोध होता है कि यह विषय अंतर्राष्ट्रीय कानून की ही शाखा है। परंतु वस्तुतः ऐसा है नहीं। निजी अंतर्राष्ट्रीय कानून और सार्वजनिक अंतर्राष्ट्रीय कानून (Public international law) में किसी प्रकार की पारस्परिकता नहीं है। रोमन साम्राज्य में वे सभी परिस्थितियाँ विद्यमान थीं जिनमें अंतर्राष्ट्रीय कानून की आवश्यकता पड़ती है। परंतु पुस्तकों से इस बात का पूरा आभास नहीं मिलता कि रोम-विधि-प्रणाली में उनका किस प्रकार निर्वाह हुआ। रोम राज्य के पतन के पश्चात् स्वीय विधि (पर्सनल लॉ) का युग आया जो प्रायः 10वीं शताब्दी के अंत तक रहा। तदुपरांत पृथक प्रादेशिक विधि प्रणाली का जन्म हुआ। 13वीं शताब्दी में निजी अंतर्राष्ट्रीय कानून को निश्चित रूपरेखा देने के लिए आवश्यक नियम बनाने का भरपूर प्रयत्न इटली में हुआ। 16वीं शताब्दी के फ्रांसीसी न्यायज्ञों ने संविधि सिद्धांत (स्टैच्यूट-थ्योरी) का प्रतिपादन किया और प्रत्येक विधि नियम में उसका प्रयोग किया। वर्तमान युग में निजी अंतर्राष्ट्रीय कानून तीन प्रमुख प्रणालियों में विभक्त हो गया- निजी अंतर्राष्ट्रीय कानून इस तत्व पर आधारित है कि संसार में अलग-अलग अनेक विधि प्रणालियाँ हैं जो जीवन के विभिन्न विधि संबंधों को विनियमित करने वाले नियमों के विषय में एक-दूसरे से अधिकांशतः भिन्न हैं। यद्यपि यह ठीक है कि अपने निजी देश में प्रत्येक शासक संपूर्ण-प्रभुत्व-संपन्न है और देश के प्रत्येक व्यक्ति तथा वस्तु पर उसका अनन्य क्षेत्राधिकार है, फिर भी सभ्यता के वर्तमान युग में व्यावहारिक दृष्टि से यह संभव नहीं है कि अन्यदेशीय कानूनों की अवहेलना की जा सके। बहुधा ऐसे अवसर आते हैं जब एक क्षेत्राधिकार के न्यायालय को दूसरे देश की न्याय प्रणाली का अवलंबन करना अनिवार्य हो जाता है, जिसमें अन्याय न होने पाए तथा निहित अधिकारों की रक्षा हो सके। अन्यदेशीय कानून तथा विदेशी तत्व–निजी अंतर्राष्ट्रीय कानून के प्रयोजन के लिए अन्यदेशीय कानून से तात्पर्य किसी भी ऐसे भौगोलिक क्षेत्र की न्याय प्रणाली से है जिसकी सीमा के बाहर उस क्षेत्र का स्थानीय कानून प्रयोग में नहीं लाया जा सकता। यह स्पष्ट है कि अन्यदेशीय कानून की उपेक्षा से न्याय का उद्देश्य अपूर्ण रह जाएगा। उदाहरणार्थ, जब किसी देश में विधि द्वारा प्राप्त अधिकार का विवाद दूसरे देश के न्यायालय में प्रस्तुत होता है तब वादी को रक्षा प्रदान करने के पूर्व न्यायालय के लिए यह जानना नितांत आवश्यक होता है कि अमुक अधिकार किस प्रकार का है। यह तभी जाना जा सकता है जब न्यायालय उस देश की न्याय प्रणाली का परीक्षण करे जिसके अंतर्गत वह अधिकार प्राप्त हुआ है। विवादों में विदेशी तत्व अनेक रूपों में प्रकट होते हैं। कुछ दृष्टांत इस प्रकार हैं: (1) जब विभिन्न पक्षों में से कोई पक्ष अन्य राष्ट्र का हो अथवा उसकी नागरिकता विदेशी हो; (2) जब कोई व्यवसायी किसी एक देश में दिवालिया करार दिया जाए और उसके ऋणदाता अन्याय देशों में हो; (3) जब वाद किसी ऐसी संपत्ति के विषय में हो जो उस न्यायालय के प्रदेशीय क्षेत्राधिकार में न होकर अन्याय देशों में स्थित ह। निजी अंतर्राष्ट्रीय कानून प्रत्येक देश में अलग-अलग होता है। उदाहरणार्थ, फ्रांस और इंग्लैंड के निजी अंतरराष्ट्रीय कानूनों में अनेक स्थलों पर विरोध मिलता है। इसी प्रकार अंग्रेजी और अमरीकी नियम बहुत कुछ समान होते हुए भी अनेक विषयों में एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। उपर्युक्त बातों के अतिरिक्त विवाह संबंधी प्रश्नों में प्रयोज्य विभिन्न न्याय प्रणालियों के सिद्धांतों में इतनी अधिक विषमता है कि जो स्त्री-पुरुष एक प्रदेश में विवाहित समझे जाते हैं, वही दूसरे प्रदेश में अविवाहित। इस विषमता को दो प्रकार से दूर किया जा सकता है। पहला उपाय यह है कि विभिन्न देशों की विधि प्रणालियों में यथासंभव समरूपता स्थापित की जाए; दूसरा यह कि निजी अंतरराष्ट्रीय कानून का एकीकरण हो। इस दिशा में अनेक प्रयत्न हुए परंतु विशेष सफलता नहीं मिल सकी। सन् 1893, 1894, 1900 और 1904 ई. में हेग नगर में इसके निमित्त कई सम्मेलन हुए और छह विभिन्न अभिसमयों द्वारा विवाह, विवाह-विच्छेद, अभिभावक, निषेध, व्यवहार-प्रक्रिया आदि के संबंध में नियम बनाए गए। इसी प्रयोजन-पूर्ति के लिए विभिन्न राज्यों में व्यक्तिगत अभिसमय भी संपादित हुए। निजी अंतर्राष्ट्रीय कानून के एकीकरण की दिशा में अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय का योग विशेष महत्वपूर्ण है। ११०० ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से ११०० ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर ११०० ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। निकरागुआ की कम्युनिस्ट पार्टी (Partido Comunista de Nicaragua) निकरागुआ का एक साम्यवादी दल राजनीतिक दल है। इस दल की स्थापना १९६७ में हुई थी। १९८४ के संसदीय चुनाव में इस दल को २ सीटें मिले। १९९० के संसदीय चुनाव में इस दल को २ सीटें मिले। यह दल Avance का प्रकाशन करता है। } निर्देशांक: 27°13′N 79°30′E / 27.22°N 79.50°E / 27.22; 79.50 चाँदपुरा छिबरामऊ, कन्नौज, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। सदक या द बरो (अंग्रेज़ी: Southwark या The Borough) केन्द्रीय लंदन में सदक बरो का मुख्य जिला है। बैंकसाइड | बर्मंडसी | केम्बरवेल | क्रिस्टल पैलेस | डलिच | डलिच वुड | ईस्ट डलिच | एलिफ़ैंट ऐंड कासल | हर्न हिल | न्यूइंगटन | ननहेड | पेखम | रॉदरहाइद | सदक (द बरो) | सरी कीज़ | वॉलवर्थ | वेस्ट डलिच ऐक्टन | बार्किंग | बार्न्स | बार्नेट | बैटरसी | बेकनहम | बर्मंडसी | बेथनल ग्रीन | बेक्सलीहीथ | ब्लूम्सबरी | ब्रेंटफ़र्ड | ब्रिक्सटन | ब्रॉमली | केम्बरवेल | कैमडन टाउन | कार्शल्टन | कैटफ़र्ड | चेल्सी | चिंगफ़र्ड | चिसलहर्स्ट | चिज़िक | सिटी | क्लैपहम | क्लर्कनवेल | कूल्सडन | क्रॉयडन | डेगनहम | डेटफ़र्ड | ईलिंग | ईस्ट हैम | एडमंटन | एल्ठम | एनफ़ील्ड टाउन | फ़ेल्ठम | फ़िंचली | फ़ुलहम | ग्रेनिच | हैकनी | हैमरस्मिथ | हैम्पस्टेड | हैरो | हेंडन | हाइबरी | हाइगेट | हिलिंगडन | हॉलबोर्न | हॉर्नचर्च | हाउंस्लो | इलफ़र्ड | आइल ऑफ़ डॉग्स | आइज़लवर्थ | इस्लिंगटन | केंसिंगटन | केंटिश टाउन | किलबर्न | किंग्स्टन अपॉन टेम्स | लैम्बेथ | लूविशम | लेटन | मेफ़ेयर | मिचम | मोर्डेन | नैग्स हेड | न्यू मॉल्डन | ओर्पिंगटन | पैडिंगटन | पेखम | पेंज | पिनर | पॉप्लर | पर्ली | पटनी | रिचमंड | रॉमफ़र्ड | राइस्लिप | शेपर्ड्स बुश | शोरडिच | सिडकप | सोहो | साउथॉल | साउथगेट | स्टेपनी | स्टोक न्यूइंगटन | स्ट्रैटफ़र्ड | स्ट्रेटहम | सर्बिटन | सटन | सिडनहम | टेडिंगटन | टेम्समेड | टूटिंग | टॉटनहम | ट्विकनहम | अपमिनिस्टर | अक्सब्रिज | वल्ठम्सटो | वंड्सवर्थ | वंस्टेड | वैपिंग | वेल्डस्टोन | वेलिंग | वेम्बली | वेस्ट हैम | वेस्टमिंस्टर | ह्वाइटचैपल | विल्सडन | विम्बलडन | वुड ग्रीन | वुडफ़र्ड | वुलिच } निर्देशांक: 27°13′N 79°30′E / 27.22°N 79.50°E / 27.22; 79.50 जगतपुर छिबरामऊ, कन्नौज, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। चमडोली पूर्णिया, रानीखेत तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 27°11′N 78°01′E / 27.18°N 78.02°E / 27.18; 78.02 कुतबपुर गूजर उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के फ़तेहाबाद प्रखंड में स्थित एक गाँव है।[1]  · अंबेडकर नगर जिला  · आगरा जिला  · अलीगढ़ जिला  · आजमगढ़ जिला  · इलाहाबाद जिला  · उन्नाव जिला  · इटावा जिला  · एटा जिला  · औरैया जिला  · कन्नौज जिला  · कौशम्बी जिला  · कुशीनगर जिला  · कानपुर नगर जिला  · कानपुर देहात जिला  · खैर  · गाजियाबाद जिला  · गोरखपुर जिला  · गोंडा जिला  · गौतम बुद्ध नगर जिला  · चित्रकूट जिला  · जालौन जिला  · चन्दौली जिला  · ज्योतिबा फुले नगर जिला  · झांसी जिला  · जौनपुर जिला  · देवरिया जिला  · पीलीभीत जिला  · प्रतापगढ़ जिला  · फतेहपुर जिला  · फार्रूखाबाद जिला  · फिरोजाबाद जिला  · फैजाबाद जिला  · बलरामपुर जिला  · बरेली जिला  · बलिया जिला  · बस्ती जिला  · बदौन जिला  · बहरैच जिला  · बुलन्दशहर जिला  · बागपत जिला  · बिजनौर जिला  · बाराबांकी जिला  · बांदा जिला  · मैनपुरी जिला  · महामायानगर जिला  · मऊ जिला  · मथुरा जिला  · महोबा जिला  · महाराजगंज जिला  · मिर्जापुर जिला  · मुझफ्फरनगर जिला  · मेरठ जिला  · मुरादाबाद जिला  · रामपुर जिला  · रायबरेली जिला  · लखनऊ जिला  · ललितपुर जिला  · लखीमपुर खीरी जिला  · वाराणसी जिला  · सुल्तानपुर जिला  · शाहजहांपुर जिला  · श्रावस्ती जिला  · सिद्धार्थनगर जिला  · संत कबीर नगर जिला  · सीतापुर जिला  · संत रविदास नगर जिला  · सोनभद्र जिला  · सहारनपुर जिला  · हमीरपुर जिला, उत्तर प्रदेश  · हरदोइ जिला गढ़िया कोलकाता का एक क्षेत्र है। यह कोलकाता नगर निगम के अधीन आता है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 25°06′N 85°54′E / 25.10°N 85.90°E / 25.10; 85.90 बरारे लखीसराय, लखीसराय, बिहार स्थित एक गाँव है। सर्वदमन चावला (22 अक्टूबर 1907 – 10 दिसम्बर 1995) एक भारतीय-अमेरिकी गणितज्ञ थे। उनका जन्म ब्रिटेन में हुआ था। उन्होने संख्या सिद्धान्त के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया। गोपथ नदी पर ओरवरियन प्रपात है, ८०मी } यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 27°11′N 78°01′E / 27.18°N 78.02°E / 27.18; 78.02 अरेसेना किरौली, आगरा, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है।  · अंबेडकर नगर जिला  · आगरा जिला  · अलीगढ़ जिला  · आजमगढ़ जिला  · इलाहाबाद जिला  · उन्नाव जिला  · इटावा जिला  · एटा जिला  · औरैया जिला  · कन्नौज जिला  · कौशम्बी जिला  · कुशीनगर जिला  · कानपुर नगर जिला  · कानपुर देहात जिला  · खैर  · गाजियाबाद जिला  · गोरखपुर जिला  · गोंडा जिला  · गौतम बुद्ध नगर जिला  · चित्रकूट जिला  · जालौन जिला  · चन्दौली जिला  · ज्योतिबा फुले नगर जिला  · झांसी जिला  · जौनपुर जिला  · देवरिया जिला  · पीलीभीत जिला  · प्रतापगढ़ जिला  · फतेहपुर जिला  · फार्रूखाबाद जिला  · फिरोजाबाद जिला  · फैजाबाद जिला  · बलरामपुर जिला  · बरेली जिला  · बलिया जिला  · बस्ती जिला  · बदौन जिला  · बहरैच जिला  · बुलन्दशहर जिला  · बागपत जिला  · बिजनौर जिला  · बाराबांकी जिला  · बांदा जिला  · मैनपुरी जिला  · महामायानगर जिला  · मऊ जिला  · मथुरा जिला  · महोबा जिला  · महाराजगंज जिला  · मिर्जापुर जिला  · मुझफ्फरनगर जिला  · मेरठ जिला  · मुरादाबाद जिला  · रामपुर जिला  · रायबरेली जिला  · लखनऊ जिला  · ललितपुर जिला  · लखीमपुर खीरी जिला  · वाराणसी जिला  · सुल्तानपुर जिला  · शाहजहांपुर जिला  · श्रावस्ती जिला  · सिद्धार्थनगर जिला  · संत कबीर नगर जिला  · सीतापुर जिला  · संत रविदास नगर जिला  · सोनभद्र जिला  · सहारनपुर जिला  · हमीरपुर जिला, उत्तर प्रदेश  · हरदोइ जिला यूरोप के इतिहास का एक अध्याय। बापीराजू कानुमुरु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से संबंधित भारतीय राजनीतिज्ञ हैं। वे २००९ में हुए आमचुनाव में आंध्र प्रदेश के नरसापुरम चुनाव क्षेत्र से १५ वीं लोकसभा के लिए सदस्य निर्वाचित हुए हैं।[1] स्टार वॉर्स एपिसोड I: द फैंटम मेनेस (अंग्रेज़ी: Star Wars Episode I: The Phantom Menace) 1999 में रिलिज़ कि गई एक अमरिकी विज्ञान पर आधारित फ़िल्म है। यह स्टार वॉर्स श्रंखला कि चौथी फ़िल्म है व क्रमानुसार पहली है। स्टार वॉर्स एपिसोड I: द फैंटम मेनेस इण्टरनेट मूवी डेटाबेस पर सर एडवर्ड बर्नेट टाइलर (2 अक्टूबर 1832 – 2 जनवरी 1917) एक अंग्रेज़ मानव विज्ञानी थे। टाइलर सांस्कृतिक विकासवाद के प्रतिनिधि हैं। टाइलर ने प्राचीन संस्कृति और मानवविज्ञान में, चार्ल्स लिएल के विकासवाद के सिद्धान्त पर आधारित मानव विज्ञान के वैज्ञानिक अध्ययन के संदर्भ का वर्णन किया है। उनका विश्वास था कि समाज और धर्म के विकास के पीछे एक कार्यात्मक आधार होता है, इनका दृढ़ विश्वास था कि वो आधार सार्वभौमिक होता है। ई. बी. टाइलर को कई लोग सामाजिक मानव विज्ञान का संस्थापक मानते हैं और इस क्षेत्र में उनके द्वारा किया गया कार्य बहुत ही महत्तवपूर्ण और मानवविज्ञान विषय के लिए सदैव सराहा जाने वाला योगदान माना जाता है। मानवविज्ञान 19वीं शताब्दी की शुरूआत में अपना आकार लेने लगा था।[1] उनका यह विश्वास था कि मानव इतिहास और प्रागैतिहासिक काल पर किया गया शोध ब्रिटिश समाज में सुधार की नींव डालने में सहायक होगा.[2] उन्होनें साधारण रूप में प्रयोग होने वाले शब्द जीववाद (प्राणी की आत्मा पर विश्वास, सभी में जीवात्मा का होना और प्राकृतिक आविर्भाव) से दोबारा परिचय कराया.[3] उन्होंने जीववाद को धर्म के विकास का पहला चरण माना. ई.बी. टाइलर का जन्म 1832 में लंदन के कैंबरवेल में हुआ था। वह जोसेफ टाइलर और हैरिएट टाइलर की संतान थे जो आर्थिक रूप से धनी थे और क्वेकर समुदाय से संबंध रखते थे। वे लंदन ब्रास फैक्ट्री के मालिक थे। उनका शिक्षण कार्य टोटेनहैम के ग्रोव हाउस स्कूल में हुआ, लेकिन कच्ची उम्र में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने और अपनी रूढ़िवादी क्वेकर पृष्ठभूमि के चलते वे कभी कोई डिग्री हासिल नहीं कर पाए.[4] अपने माता-पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने स्वयं को अपने परिवार का व्यापार संभालने के लिए तैयार किया, लेकिन तपेदिक के शुरूआती लक्षणों के कारण यह योजना बीच में ही छोड़नी पड़ी. गरम स्थानों पर समय बिताने की सलाह को मानते हुए टाइलर ने 1855 में इंग्लैंड छोड़ दिया और मध्य अमेरिका चले गए। यह अनुभव उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण और रचनात्मक साबित हुआ और इसने उनमें जीवन भर अनजानी संस्कृतियों का अध्ययन करने की रुचि पैदा की. अपनी यात्राओं के दौरान टाइलर हेनरी क्रिस्टी से भी मिले, जो उन्हीं की तरह एक क्वेकर और मानवविज्ञानी और पुरातत्वविद थे। क्रिस्टी से जुड़ने के बाद टाइलर में मानव शास्त्र के प्रति गहरी रूची जगी और इससे प्रागैतिहासिक अध्ययनों को शामिल करने के लिए उनकी जांचों को व्यापक बनाने में मदद मिली.[5] टाइलर का पहला प्रकाशन 1856 में उनकी क्रिस्टी के साथ मैक्सिको की यात्रा का परिणाम था। टाइलर ने लोगों से मिलने पर उनमें धर्म पर विश्वास एवं उनकी धार्मिक प्रथाओं को जाना और उसी आधार पर अपने लेख तैयार किए. इंगलैंड वापस लौटने पर उन्होंने इसे एनाहॉक: या मैक्सिको और मैक्सिकन, पौराणिक और आधुनिक नाम से अपनी कृति को प्रकाशित किया। फिर उन्होंने दोबारा यात्रा नहीं की और पिछड़ी जनजातियों के समकालीन एवं प्रागैतिहासिक काल के (पुरातात्विक नतीजों के आधार पर) विश्वासों और प्रथाओं का अध्ययन करते रहे और फिर इन्होंने अपनी कृति "मानव जाति का प्रारंभिक इतिहास और सभ्यता के विकास पर शोध " को 1865 में प्रकाशित किया। इसके बाद उनकी सबसे ज्यादा प्रभावी कृति मानव संस्कृति (1871) प्रकाशित हुई. इसके बाद भी उन्होने लेखन कार्य जारी रखा और प्रथम विश्वयुद्ध की शुरूआत तक लिखते रहे. उनकी सभी कृतियों में उनका सबसे महत्तवपूर्ण कार्य मानव संस्कृति रहा. यह केवल इसलिए महत्तवपूर्ण नहीं था कि इसमें मानव सभ्यता का गहन अध्ययन और विज्ञान जैसे उभरते हुए क्षेत्र में इसका योगदान था बल्कि यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण था क्योंकि इसका प्रभाव कुछ नौजवान शिक्षार्थियों पर भी पड़ा था, जैसे कि जे.जी. फ्रेजर. फ्रेजर, टाइलर द्वारा विकसित इस नये विषय को समझना चाहते थे और उनकी इच्छा थी कि वे भी आने वाले सालों में मानव विज्ञान के वैज्ञानिक अध्ययन की दिशा में अपना महत्वपूर्ण योगदान दें. 1871 में टाइलर को शाही समाज के विद्वान के रूप में चुना गया और 1875 में इन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से सिविल कानून के डॉक्टर की मानद उपाधि प्राप्त की. 1883 में इनको ऑक्सफोर्ड में विश्वविद्यालय के संग्रहालय में कीपर के रूप में नियुक्त किया गया था। इन्होने यहां पर व्याख्याता के रूप में भी कार्य किया। 1884-1895 की समयावधि में इन्हे पहले मानवविज्ञान के रीडर की भी उपाधि मिली. वे पिट रिवर म्यूजीयम के आंरभिक इतिहास में भी संलग्न थे, हालांकि इसमें इनकी भागीदारी का होना विवाद का विषय है।[6] 1896 में वे ऑक्सफोर्ड में पहले मानव विज्ञान के प्रोफेसर बने उन्हें 1912 में नाइट की उपाधि दी गई। टाइलर की विचारधारा का उनके सबसे प्रसिद्ध कार्य, आदिम संस्कृति में अच्छा वर्णन किया गया है, जो दो खंडों में है। प्रथम खंड, संस्कृति का ऊदय नृवंशविज्ञान के विभिन्न पहलुओं को संबोधित करता है जिसमें सामाजिक विकास, भाषा विज्ञान और मिथक भी शामिल हैं। दूसरा खंड, जिसका शीर्षक आदिम संस्कृति में धर्म है, मुख्य रूप से "जीववाद" की व्याख्या करता है। टाइलर की विचारधारा की वास्तविकता ये है की उन्हें 'धर्म का ज़िम्मेदार' समझा जाता है। बल्कि टाइलर धर्म के प्रति स्पष्ट नकारात्मक भावना रखते है और विशेष रूप से ईसाई धर्म के प्रति. आदिम संस्कृति के पहले पृष्ठ पर, टाइलर ने एक अखिल समावेशी परिभाषा, जो उनके एक नृविज्ञान और धर्म के अध्ययन के लिए सबसे व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त है, लिखी है: "संस्कृति या सभ्यता, इसकी व्यापकता, नृवंशविज्ञान के अर्थ में ले लिया जाये तो यह पूरी तरह जटिल है जिसमे की ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, कानून, रीती रिवाज और अन्य किसी भी तरह की क्षमता जो आदमी ने समाज के एक सदस्य के रूप में ग्रहण की है।"[7] अपने कई पूर्ववर्तियों और समकालीन के विपरीत, टाइलर ने कहा कि मनुष्य का मन और उसकी क्षमताये विश्व स्तर पर सामाजिक विकास में एक विशेष समाज के स्तर के विपरीत एक ही हैं।[8] इसका अनिवार्य रूप से मतलब है कि एक शिकारी समाज में भी उतना ही ज्ञान होगा जितना की एक उन्नत औद्योगिक समाज में. इसमें टाइलर ने यह अंतर पाया कि शिक्षा का ही फर्क होता है, ज्ञान और पद्धति प्राप्त करने के लिए हजारों साल लगते हैं। यही कारण है कि टाइलर आदिम संस्कृति को एक बच्चे कि तरह समझते हैं और यह देखतें हैं कि संस्कृति और मानव मस्तिष्क विकास के मामले में प्रगति शील हैं। इसकी एक वजह जो उन्होंने लिखी वो पतन के सिद्धांत का खंडन करना है, यह उस समय बहुत लोकप्रिय था।[9] आदिम संस्कृति के अंत में, टाइलर ने दावा किया है कि. "संस्कृति का विज्ञान अनिवार्य रूप से एक 'सुधारकों का विज्ञान है।"[10] एक और शब्द जिसका श्रेय टाइलर को जाता है वह है उनके "उत्तरजीविता" का सिद्धांत. टाइलर का दावा किया था कि जब एक समाज विकसित होता है, तो कुछ रीति रिवाज़ जो कि अब समाज में अनावश्यक हैं उन्हें पहले के जैसा ही रहने दिया जाता है जैसे कि घर में पड़ा बेकार का सामान होता है।[11] उनके लिए उत्तरजीवीता का सिद्धांत "प्रक्रिया, रिवाज और विचार, हैं। जो कि हमारी आदत के जोर पर ही नये समाज की ओर बढ़ता है। यह नया समाज अपने पुराने घर से बिल्कुल अलग है और इस तरह से यह पुराने संस्कारों के सबूत की तरह रहता है जिनमें से अब नये संस्कारों ने जन्म ले लिया है।[12] इसमें कुछ पुरानी प्रथायें भी शामिल हैं जैसे कि यूरोपियिन रक्तपात. जो कि लंबे समय तक चली चिकित्सा पद्यतियों जिनपर यह आधारित था बाद में आधुनिक तकनीकों से बदल दिया गया।[13] उत्तरजीविता को लेकर बहुत अधिक आलोचना के बावजूद (आलोचकों ने यह तर्क दिया कि उन्होंने इस शब्द की पहचान की है लेकिन इसके लिए अपर्याप्त कारण दिए हैं जैसे कि उत्तरजीवियों कि उत्तरजीविता कैसे बनी रही) इस शब्द को गढने में उनकी मौलिकता आज भी मानी जाती है। टाइलर के जीवन की अवधारणा (मेमे के समान) उस संस्कृति के लक्षण को परिभाषित करती है जो कि मानव सभ्यता के पहले चरण का प्रतिबिंब है।[14] टाइलर के अनुसार जीवन से मतलब "प्रक्रियाओं, सीमा शुल्क, विचारों और इससे भी कहीं ज्यादा है। ये समाज की वो स्थितियां हैं जो हमारी आदत की मजबूरी से संचालित होती हैं और ये अपने पहले के घर से बदली हुई होती हैं तथा ये हमेशा हमारी पुरानी संस्कृति की स्थिति के सबूत एवं उदारहरण के रूप में रहती है। यह संस्कृति अब नये रूप में विकसित हो रही है".[15] जीवन का अध्ययन करने से मानवजाति के विवरणकारों को पहले से स्थापित सांस्कृतिक लक्षणों का दोबारा से निर्माण करने में मदद मिलती है और संभवत: संस्कृति के विकास कार्य में भी मदद मिलती है।[16] उत्तरजीविता के रूप में धर्म ई. बी टाइलर का यह तर्क था कि भूतकाल में धर्म को लोगों द्वारा संसार की घटनाओं का विवरण करने में प्रयोग किया जाता था।[17] उन्होनें यह पाया कि यह बहुत आवश्यक है कि धर्म में संसार में घटित होने वाली सभी घटनाओं का तर्क सहित विवरण करने की क्षमता हो.[18] उदाहरण के तौर पर भगवान (दैवीय शक्ति) ने हमें सूरज इसलिए दिया ताकि हमें गर्माहट और रोशनी मिलती रहे. टाइलर ने यह तर्क दिया कि जीवात्मा ही वास्तव में धर्म है जो हर धर्म की आवश्यकता है, यही इसका जवाब दे सकती है कि कौन सा धर्म पहले आया और कौन सा धर्म सभी ध्रर्मों का आधार है।[18] उनके लिए तो जीवात्मा ही इन सभी सवालों का जवाब है, इसीलिए यह इन सभी धर्मों का सही आधार होना चाहिये. जीवात्मा का वर्णन करते हुए कहा जाता है कि इसका मतलब सभी प्राणियों में आत्मा होने पर विश्वास करना है।[18] टाइलर ने जिस सत्य को जाना कि समकालीन आधुनिक धर्मपरायण लोग भी आत्मा पर विश्वास करते हैं। यह सत्य इस बात को दर्शाता है कि ये लोग आदिम समाज से ज्यादा प्रगतिशील नहीं थे।[19] उनके लिए इस बात से यह अर्थ निकलता है कि समकालीन आधुनिक धर्मपरायण लोग विश्व की राहों को नहीं जानते हैं और इन लोगों को यह भी नहीं पता है कि जीवन कैसे चलता है क्यों कि उनका ज्ञान को विश्व के बारे में उनकी समझ पर निर्भर करता है।[19] अगर घटनाओं के होने के बारे में इन लोगों की समझ से वैज्ञानिक विवरण हटा दिया जाये तो आज भी ये धर्मपरायण लोग अर्ध विकसित हैं। सबसे आवश्यक बात यह कि टाइलर आधुनिक लोगों की धर्मपरायणता को रूढ़ियों से बंधा अज्ञान मानते हैं।[19] दूसरे शब्दों में इन लोगों का इश्वर में विश्वास जीवित रहने के लिए ही है, क्यों कि विज्ञान अब जिन चीज़ों को परिभाषित करता है वो सब पहले से ही धर्म द्वारा तर्कसंगत बताई जा चुकी हैं। जोन लियोपोल्ड, 1980. तुलनात्मक और विकासवादी परिप्रेक्ष्य में संस्कृति: ई. बी. टाइलर और आदिम संस्कृति का निर्माण. बर्लिन: डिट्रीच रिमर वर्लग (अंग्रेज़ी में) शंकरपुर में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत पुर्णिया मण्डल के अररिया जिले का एक गाँव है। रजा बुन्देला हिन्दी फ़िल्मों के एक अभिनेता हैं। पुर्तगाल का ध्वज पुर्तगाल का राष्ट्रीय ध्वज है। २९१० ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से २९१० ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर २९१० ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। नागायलंक (कृष्णा) में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के कृष्णा जिले का एक गाँव है। रीठाबमनगांव, गरुङ तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के बागेश्वर जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। इस समय जो भी हम देख रहे हैं, सुन रहे है, और महशूश करने के बाद जो भी इस समय मे कर रहे हैं, वही वर्तमान है। सिन्ध, पाकिस्तान का एक नगर। एकरा लैंलूगा मण्डल में भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के अन्तर्गत रायगढ़ जिले का एक गाँव है। प्राणपुर-२ नाथनगर, भागलपुर, बिहार स्थित एक गाँव है। कुँवर रेवती रमन सिंह (जन्म: ५ अक्टूबर १९४३) भारतीय राजनीतिज्ञ हैं जो २००९ के आम चुनाव में इलाहाबाद लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र से सांसद चुने गये थे। बोसी सेन को विज्ञान एवं अभियांत्रिकी के क्षेत्र में सन १९५७ में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। ये पश्चिम बंगाल राज्य से हैं। गंगरउआ आगरा प्रखंड, आगरा, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। आगरा  • बाह  • एतमादपुर  • फ़तेहाबाद  • खैरागढ़ अहीर  • अभयपुर  • अकबरपुर  • अकोला  • अलबतिया  • अंगूठी  • अरतौनी  • इकथरा • इस्लामपुर  • इतौरा  • एतमादपुर मदरा • कबूलपुर  • कहराई  • कहरारी  • ककुआ  • कलल खेरिया  • कलिका नगला  • कलवारी  • करमना मुस्तकिल  • कौलखा  • कौन खेड़ा  • कुंडोल  • कुथवटी  • खाल  • खल्लउवा  • खासपुर मुस्तकिल  • खेड़ा भगोर  • गमारी  • गंगरउआ  • गर्हसानी  • कैथी बनकट में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत मगध मण्डल के औरंगाबाद जिले का एक गाँव है। पलामू व्याघ्र आरक्षित वन झारखंड के छोटा नागपुर पठार के लातेहर जिले में स्थित है। यह १९७४ में बाघ परियोजना के अंतर्गत गठित प्रथम ९ बाघ आरक्षों में से एक है। पलामू व्याघ्र आरक्ष १,०२६ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है, जिसमें पलामू वन्यजीव अभयारण्य का क्षेत्रफल 980 वर्ग किलोमीटर है। अभयारण्य के कोर क्षेत्र 226 वर्ग किलोमीटर को बेतला राष्ट्रीय उद्यान के रूप में अधिसूचित किया गया है। पलामू आरक्ष के मुख्य आकर्षणों में शामिल हैं बाघ, हाथी, तेंदुआ, गौर, सांभर और चीतल। पलामू ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। सन १८५७ की क्रांति में पलामू ने अहम भूमिका निभाई थी। चेरो राजाओं द्वारा निर्मित दो किलों के खंडहर पलामू व्याघ्र आरक्ष में विद्यमान हैं। पलामू में कई प्रकार के वन पाए जाते हैं, जैसे शुष्क मिश्रित वन, साल के वन और बांस के झुरमुट, जिनमें सैकड़ों वन्य जीव रहते हैं। पलामू के वन तीन नदियों के जलग्रहण क्षेत्र को सुरक्षा प्रदान करते हैं। ये नदियां हैं उत्तर कोयल औरंगा और बूढ़ा। २०० से अधिक गांव पलामू व्याघ्र आरक्ष पर आर्थिक दृष्टि से निर्भर हैं। इन गांवों की मुख्य आबादी जनजातीय है। इन गांवों में लगभग १,००,००० लोग रहते हैं। पलामू के खूबसूरत वन, घाटियां और पहाड़ियां तथा वहां के शानदार जीव-जंतु बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। पलामू में वैज्ञानिक संरक्षण प्रयासों का इतिहास काफी लंबा है। देश में बाघों की गणना पहली बार पलामू में ही सन १९३२ को हुई थी। पलामू की प्रथम प्रबंध योजना (१९७४-७५ से १९७८-७९) भारतीय वन सेवा के श्री बी. एन. सिन्हा ने तैयार की। आप उस समय रांची कार्यालय में दक्षिणी अंचल के योजना अधिकारी के पद पर कार्य कर रहे थे। इस योजना के प्रमुख उद्देश्य थे जल-स्रोतों का विकास, अवैध शिकार की रोकथाम, जंगल में मवेशियों की चराई नियंत्रित करना, अग्नि सुरक्षा प्रबंध और आरक्ष के लिए बेहतर संरचनात्मक सुविधाएं प्राप्त करना। यह श्री आर. सी. सहाय, तत्कालीन क्षेत्र निदेशक, पलामू आरक्ष, द्वारा तैयार की गई। इसकी कालावधि १९८७-८८ से १९९६-९७ तक थी। इस योजना के उद्देश्यों में शामिल थे, वैज्ञानिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं पारिस्थितिकीय संतुलन हेतु बाघ और अन्य वन्य जंतुओं और आरक्ष के पेड़-पौधों की उपयुक्त संख्या बनाए रखना। इस योजना के दौरान आरक्ष में चौमुखी प्रगति देखी गई। पानी के मामले में आरक्ष लगभग आत्मनिर्भर हो गया। कोर क्षेत्र में चराई और मानव-जनित आग को सफलतापूर्वक नियंत्रित किया गया। जहां भी खरपतवार हटाए गए, वहां साल और खैर का सफल पुनरुत्पादन हुआ। जंगली जानवरों की संख्या भी बढ़ी। पालतू पशुओं के टीकाकरण पर काफी ध्यान दिया गया, विशेषकर मुंह-खुर रोग के विरुद्ध। इसके कारण इस भयंकर बीमारी के कारण गौरों के मरने की घटनाएं नियंत्रित हुईं। शाकाहारी प्राणियों और बाघ की गणना नियमित रूप से होती रही। पलामू जैविक विविधता की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। पलामू में हैं : पलामू के इस विविध जीव-समुदाय को सहारा देने के लिए वहां वास-स्थलों और पारिस्थितिक तंत्रों की पर्याप्त विविधता है। भारत में पाए जानेवाले लगभग सभी बड़े स्तनधारी प्राणी, मसलन बाघ, हाथी, गौर, तेंदुआ, सोन कुत्ता, सांभर और तेंदुआ पलामू में विद्यमान हैं। कुल मिलाकर पलामू में स्तनधारियों की ४७ जातियां हैं। इनमें से कुछ प्रमुख स्तनधारियों के बारे में पलामू जैसे किसी वन के सबसे आकर्षक एवं रंगबिरंगे निवासी पक्षी ही होते हैं। पलामू में १७४ प्रकार के पक्षी हैं। इनमें शामिल हैं डोगरा चील, शिकरा आदि शिकारी पक्षी, मोर, तीतर, लाल जंगली मुर्गी जैसे जमीन पर रहनेवाले पक्षी, छपका, उल्लू, चुगद आदि रात्रिचर पक्षी, जलमोर, बगुले आदि जलपक्षी। कुछ अन्य सुंदर पक्षियों में शामिल हैं दूधराज, धनेश, किलकिला और कोयल। कोयल झारखंड का प्रतीक पक्षी है। पलामू के पक्षियों की पूर्ण सूची महासागरों में जीवन का उद्भव होने के बाद पृथ्वी के स्थल भागों को आबाद करनेवाले प्रथम जीवों में सरीसृप हैं। इसमें उन्हें मदद मिली उनकी शुष्क शल्कदार चमड़ी, कड़े खोलवाले अंडे जिन्हें जलीय परिवेश में रखना आवश्यक न था और मजबूत पैरों से, जिनकी सहायता से वे जमीन पर चल सकते थे। पक्षियों और स्तनधारियों के विकास के पश्चात सरीसृपों का पराभव शुरू हो गया। आज डायनोसोर जैसे विशालकाय सरीसृप विलुप्त हो चुके हैं। फिर भी पृथ्वी में ४,००० से अधिक प्रकार के सरीसृप पाए जाते हैं। सरीसृपों के पांच मुख्य प्रकार होते हैं – छिपकली, सांप, मगर, कछुए और टुआटारा। पलामू के प्रमुख सरीसृपों में शामिल है अजगर, जो पलामू के वनों का सबसे बड़ा सरीसृप है। वह लंबाई में १० मीटर से भी अधिक हो सकता है। वह एक विषहीन सर्प है जो अपने शिकारों को कुंडलियों में भींचकर उनका दम घोंटकर मारता है। अजगर सामान्यतः चूहे आदि छोटे प्राणियों का शिकार करता है, परंतु वह चीतलों के छौने, सूअरों के बच्चे आदि बड़े प्राणियों को मारने में भी सक्षम है। पलामू के विषैले सर्पों में शामिल हैं करैत, नाग और दबोइया। पलामू में कई प्रकार की छिपकलियां भी पाई जाती हैं, जिनमें से सबसे बड़ी गोह है जो मरे हुए जानवरों का अवशेष भी खाती है और खुद भी छोटे जीवों का शिकार करती है। पलामू के सरीसृपों की सूची पेड़-पौधों की दृष्टि से पलामू अत्यंत समृद्ध है। यहां लगभग ९७० प्रकार के पेड़-पौधे हैं, जिनमें शामिल हैं १३९ जड़ी-बूटियां। पलामू के प्रमुख वनस्पतियों में शामिल हैं साल, पलाश, महुआ, आम, आंवला और बांस। बांस हाथी और गौर समेत अनेक तृणभक्षियों का मुख्य आहार है। साल झारखंड राज्य का प्रतीक वृक्ष है। झारखंड राज्य का प्रतीक पुष्प पलाश है। पलाश गर्मियों में फूलता है और तब उसके बड़े आकार के लाल फूलों से सारा जंगल लाल हो उठता है, मानो जंगल में आग लग गई हो। इसीलिए पलाश को जंगल की ज्वाला के नाम से भी जाना जाता है। उसके अन्य नाम हैं टेसू और ढाक। पलामू में निम्नलिखित प्रकार के वन पाए जाते हैं: पहाड़ियों की खुली चोटियों में और पहाड़ों के दक्षिण और पश्चिम भागों में जहां कम बारिश होती है, ऐसे पेड़-पौधे पाए जाते हैं जो शुष्क जलवायु को बर्दाश्त कर सकते हैं। मैदानों में बेल वृक्ष के वन हैं। इन वनों में अन्य प्रकार के वृक्ष कम ही होते हैं। यह झूम खेती के कारण है। इन मिश्रित वनों में साल के पेड़ लगभग नहीं होते। चूंकि पेड़ों की डालें बार-बार काटी जाती हैं और अति चराई और आग का खतरा बराबर बना रहता है, इसलिए पेड़ बौने और मुड़े-तुड़े होते हैं और उनकी ऊंचाई ६-७ मीटर से अधिक नहीं होती। तीन प्रकार के साल वन पलामू में मौजूद हैं। मैदानों, नीची पहाड़ियों और पहाड़ों के पूर्वी और उत्तरी भागों में मिलते हैं। यद्यपि इन वनों में साल वृक्ष का आधिपत्य है, फिर भी वृक्ष २५ मीटर से अधिक ऊंचाई नहीं प्राप्त करते। पहाड़ों की निचली ढलानों, विशेषकर कोयल नदी के दक्षिण में स्थित बरेसांद वनखंड की घाटियों में मिलते हैं। इन वनों में साल अच्छी तरह बढ़ता है और ३५ मीटर से अधिक ऊंचा होता है। इन वनों के बीच में जगह-जगह खाली स्थान नजर आते हैं। यहां पहले खेत हुआ करते थे। नेत्रहाट पठार में १,००० मीटर की ऊंचाई पर मिलता है। यहां केवल साल वृक्षों के विस्तृत वन हैं। यह वन मूल वन के काटे जाने के बाद उग आया वन है। इस प्रकार के वन घाटियों के निचले भागों और बड़ी नदियों के मोड़ों के पासवाले समतल इलाकों में मिलते हैं। यहां सब मिट्टी में अतिरिक्त नमी रहती है जो गर्मियों के दिनों भी बनी रहती है। यहां वृक्षों की घटा पूर्ण होती है इसलिए जमीन तक अधिक रोशनी नहीं पहुंचती, जिससे जमीन पर घास कम होती है। संतोष यादव भारत की एक पर्वतारोही हैं। वह माउंट एवरेस्ट पर दो बार चढ़ने वाली विश्व की प्रथम महिला हैं।[1] इसके अलावा वे कांगसुंग (Kangshung) की तरफ से माउंट एवरेस्ट पर सफलतापूर्वक चढ़ने वाली विश्व की पहली महिला भी हैं।[2] उन्होने पहले मई १९९२ में और तत्पश्चात मई सन् १९९३ में एवरेस्ट पर चढ़ाई करने में सफलता प्राप्त की। संतोष यादव का जन्म जनवरी सन् १९६९ में हरियाणा के रेवाड़ी जिले में हुआ था। उन्होंने महारानी महाविद्यालय जयपुर से शिक्षा प्राप्त की है। सम्प्रति वह भारत-तिब्बत सीमा पुलिस में एक पुलिस अधिकारी हैं। उन्हें सन २००० में पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया है।  • अनुजा चौहान - (लेखन और विज्ञापन) • अरुणा जयंती  • देवजानी घोष  • किरथिगा रेड्डी  • नीलम धवन  • रूपा कुडवा  • रोशनी नादर  • सारा मैथ्यू  • अकबरटोला, सांरगढ मण्डल में भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के अन्तर्गत रायगढ़] जिले का एक गाँव है। निर्देशांक: 24°49′N 85°00′E / 24.81°N 85°E / 24.81; 85 अडार डुमरिया, गया, बिहार स्थित एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। रघुनाथपुर औरंगाबाद में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत मगध मण्डल के औरंगाबाद जिले का एक गाँव है। सुहासिनी गांगुली भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सेनानी थी।[1] उनका जन्म खुलना में हुआ। पैत्रिक घर ढाका, जिला विक्रमपुर के बाघिया गाँव में था। पिता अविनाश चन्द्र गांगुली और माता सरलासुन्दरी देवी की बेटी सुहासिनी १९२४ में ढाका ईडन हाईस्कूल से मैट्रिक पास करके ईडन कालेज से स्नातक बनीं। एक तैराकी स्कूल में वे कल्याणी दास और कमला दासगुप्ता के सम्पर्क में आईं और क्रांतिकारी दल का साथ देने के लिए प्रशिक्षण लेने लगीं। १९२९ में विप्लवी दल के नेता रसिक लाल दास से परिचय होने के बाद तो वह पूरी तरह से दल में सक्रिय हो गईं। हेमन्त तरफदार ने भी उन्हें इस ओर प्रोत्साहित किया। १९३० के `चटगांव शस्त्रागार कांड' के बाद बहुत से क्रांतिकारी ब्रिटिश पुलिस की धर-पकड़ से बचने के लिए चन्द्रनगर चले गये थे। सुहासिनी गांगुली इन क्रांतिकारियों को सुरक्षा देने के लिए कलकत्ता से चंद्रनगर पहुँचीं। इसके पहले वह कलकत्ता में गूंगे-बहरे बच्चों के एक स्कूल में कार्य कर रहीं थीं। चन्द्रनगर पहुँचकर उन्होंने वहीं के एक स्कूल में अध्यापन-कार्य ले लिया। शाम से सुबह तक वह क्रांतिकारियों की सहायक उनकी प्रिय सुहासिनी दीदी थीं। दिन भर एक समान्य अध्यापिका के रूप में काम पर जाती थीं और घर में शशिधर आचार्य की छद्म पत्नी बन कर रहती थीं ताकि किसी को संदेह न हो और यह घर एक सामान्य गृहस्थ का घर लगे और वह क्रांतिकारियों को सुरक्षा भी दे सकें। गणेश घोष, लोकनाथ बल, जीवन घोषाल, हेमन्त तरफदार आदि क्रांतिकारी बारी-बारी से यहीं आकर ठहरते थे। इतना सब करने पर भी अधिकारियों को संदेह हो गया। उस घर पर चौबीसों घंटे निगाह रखी जाने लगी। फिर १ सितम्बर १९३० को उस मकान पर घेरा डाल दिया गया। आमने-सामने की मुठभेड़ में जीवन घोषाल, गोली से मारे गए। अनन्त सिंह पहले ही पुलिस को आत्म समर्पण कर चुके थे। शेष साथी और सुहासिनी गांगुली अपने तथाकथित पति श्री शशिधर आचार्य के साथ गिरफ्तार हो गईं। उन्हें हिजली जेल भेज दिया गया जहाँ इन्दुमति सिंह भी थीं। आठ साल की लम्बी अवधि के बाद वे १९३८ में रिहा की गईं। १९४२ के आन्दोलन में उन्होंने फिर से स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया फिर जेल गईं और १९४५ में छूटीं। हेमन्त तरफदार तब धनबाद के एक आश्रम में संन्यासी भेष में रह रहे थे। रिहाई के बाद सुहासिनी गांगुली भी उसी आश्रम में पहुँच गईं और आश्रम की ममतामयी सहासिनी दीदी बनकर वहीं रहने लगीं। बाकी का अपना जीवन उन्होंने इसी आश्रम में बिताया। भारतवर्ष की आज़ादी उनके जीवन का सबसे बड़ा सपना था जिसको पूरा करने में उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया। उनके इस त्यागमय जीवन और साहसिक कार्य को सम्मान देने के लिए कोलकाता की एक सड़क का नाम सुहासिनी गांगुली सरनी रखा गया है। रचना भोला यामिनी ने अपनी पुस्तक स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी महिलाएँ में उनके जीवन चरित्र का वर्णन किया है।[2]  • अनुजा चौहान - (लेखन और विज्ञापन) • अरुणा जयंती  • देवजानी घोष  • किरथिगा रेड्डी  • नीलम धवन  • रूपा कुडवा  • रोशनी नादर  • सारा मैथ्यू  • गुंजल , तांसी मण्डल में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के अदिलाबादु जिले का एक गाँव है। एक हिन्दी साहित्यकार। लमजुंग जिला (नेपाली भाषा:लमजुङ्ग जिल्ला) नेपाल के गंडकी अंचल का एक जिला। इस जिला का मुख्यालय बेंसीसहर है। नेपाल के इतिहास में लमजुङ अवस्थित स्थान लिच्छवि काल और पूर्वार्ध मल्लकाल में कभी नेपाल तो कभी खस राज्य के अन्तर्गत रहा। नेपाल में यक्ष मल्ल के समय पश्चात मल्ल गणराज्य के स्थापना के बाद यह स्थान प्रायः खस रजौटाऔं के अधीन रहा। मध्यकालीन नेपाल के गण्डकी नदी से पश्चिम और कर्णाली नदी से पूर्व में बाइसे और चौबिसे नाम से प्रसिद्ध २२ और २४ राज्य स्थापित थे। ऐतिहासिक रुप में लमजुंग राज्य इन राज्यौं में से एक था। यह राज्य का राजा यशोब्रह्म शाह के राजकुमार द्रव्य शाह ने गोरखा राज्य पर कव्जा कर के शासन किया था। उन के वंशज पृथ्वी नारायण शाह ने मल्ल काल में विभाजित हुआ नेपाल का एकीकरण प्रारम्भ किया था। लमजुंग का राजभवन तत्कालीन राजधानी गाउशहर मे स्थित था जो वर्तमान में भी उपस्थित है। १३० किलोमीटर लंबा यह राजमार्ग पालघाट को कोज़ीकोड से जोड़ता है। स्थलाकृतिक विज्ञान में शिखर धरातल पर स्थित वह बिन्दु होता है जिसका उन्नयन उसके आस पास स्थित अन्य सभी बिन्दुओं से अधिक होता है। गणितीय रूप से शिखर उन्नयन का स्थानीय अधिकतम है। स्थलाकृतिक शब्दों में "चोटी", "शीर्ष", "शिखर", "पराकाष्ठा" और "शिरोबिंदु" समानार्थक शब्द हैं। वररुचि कात्यायन पाणिनीय सूत्रों के प्रसिद्ध वार्तिककार हैं। वररुचि कात्यायन के वार्तिक पाणिनीय व्याकरण के लिए अति महत्वशाली सिद्ध हुए हैं। इन वार्तिकों के बिना पाणिनीय व्याकरण अधूरा सा रहा जाता। वार्तिकों के आधार पर ही पीछे से पतंजलि ने महाभाष्य की रचना की। पुरुषोत्तमदेव ने अपने त्रिकांडशेष अभिधानकोश में कात्यायन के ये नाम लिखे हैं - कात्य, पुनर्वसु, मेधाजित्‌ और वररुचि। "कात्य' नाम गोत्रप्रत्यांत है, महाभाष्य में उसका उल्लेख है। पुनर्वसु नाम नक्षत्र संबंधी है, "भाषावृत्ति' में पुनर्वसु को वररुचि का पर्याय कहा गया है। मेधाजित्‌ का कहीं अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त, कथासरित्सागर और बृहत्कथामंजरी में कात्यायन वररुचि का एक नाम 'श्रुतधर' भी आया है। हेमचंद्र एवं मेदिनी कोशों में भी कात्यायन के "वररुचि' नाम का उल्लेख है। कात्यायन वररुचि के वार्तिक पढ़ने पर कुछ तथ्य सामने आते हैं-यद्यपि अधिकांश स्थलों पर कात्यायन ने पाणिनीय सूत्रों का अनुवर्ती होकर अर्थ किया है, तर्क वितर्क और आलोचना करके सूत्रों के संरक्षण की चेष्टा की है, परंतु कहीं-कहीं सूत्रों में परिवर्तन भी किया है और यदा-कदा पाणिनीय सूत्रों में दोष दिखाकर उनका प्रतिषेध किया है और जहाँ तहाँ कात्यायन को परिशिष्ट भी देने पड़े हैं। संभवत: इसी वररुचि कात्यायन ने वेदसर्वानुक्रमणी और प्रातिशाख्य की भी रचना की है। कात्यायन के बनाए कुछ भ्राजसंज्ञक श्लोकों की चर्चा भी महाभाष्य में की गई है। कैयट और नागेश के अनुसार भ्राजसंज्ञक श्लोक वार्तिककार के ही बनाए हुए हैं। प्रातिशाख्यम् वार्तिककार कात्यायन वररुचि और प्राकृतप्रकाशकार वररुचि दो व्यक्ति हैं। प्राकृतप्रकाशकार वररुचि "वासवदत्ता' के प्रणेता सुबंधु के मामा होने से छठी सदी के हर्ष विक्रमादित्य के समसामयिक थे, जबकि पाणिनीय सूत्रों के वार्तिककार इससे बहुत पूर्व हो चुके थे। अशोक के शिलालेख में वररुचि का उल्लेख है। प्राकृतप्रकाशकार वररुचि का गोत्र भी यद्यपि कात्यायन था, इसी एक आधार पर वार्तिककार और प्राकृतप्रकाशकार एक ही व्यक्ति नहीं माने जा सकते, क्योंकि अशोक के लेख की प्राकृत वररुचि की प्राकृत स्पष्ट ही नवीन मालूम पड़ती है। फलत: अशोक के पूर्ववर्ती कात्यायन वररुचि वार्तिककार हैं और अशोक के परवर्ती वररुचि प्राकृतप्रकाशकार। मद्रास से जो "चतुर्भाणी' प्रकाशित हुई है, उसमें "उभयसारिका' नामक भाण वररुचिकृत नहीं है, क्योंकि वार्तिककार वररुचि "तद्धितप्रिय' नाम से प्रसिद्ध रहे हैं और "उभयसारिका' में तद्धितों के प्रयोग अति अल्प मात्रा में हैं। संभवत: यह वररुचि कोई अन्य व्यक्ति है। हुयेनत्सांग ने बुद्धनिर्वाण से प्राय: ३०० वर्ष बाद हुए पालिवैयाकरण जिस कात्यायन की अपने भ्रमण वृत्तांत में चर्चा की है, वह कात्यायन भी वार्तिककार से भिन्न व्यक्ति है। यह कात्यायन एक बौद्ध आचार्य था जिसने "अभिधर्मज्ञानप्रस्थान" नामक बौद्धशास्त्र की रचना की है। कात्याययन नाम का एक प्रधान जैन स्थावर भी हुआ है। आफ्ऱेक्ट की हस्तलिखित ग्रन्थसूची में वररुचि और कात्यायन के बनाए ग्रन्थों की चर्चा की गई है। इन ग्रन्थों में कितने वार्तिककार कात्यायन प्रणीत हैं, इसका निर्णय करना कठिन है। निर्देशांक: 27°30′N 79°24′E / 27.5°N 79.4°E / 27.5; 79.4 लधापुर अमृतपुर, फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। आलोक धन्वा का जन्म 1948 ई० में मुंगेर (बिहार) में हुआ। वे हिंदी के उन बड़े कवियों में हैं, जिन्होंने 70 के दशक में कविता को एक नई पहचान दी। उनका पहला संग्रह है- दुनिया रोज बनती है। ’जनता का आदमी’, ’गोली दागो पोस्टर’, ’कपड़े के जूते’ और ’ब्रूनों की बेटियाँ’ हिन्दी की प्रसिद्ध कविताएँ हैं। अंग्रेज़ी और रूसी में कविताओं के अनुवाद हुये हैं। उन्हें पहल सम्मान, नागार्जुन सम्मान, फ़िराक गोरखपुरी सम्मान, गिरिजा कुमार माथुर सम्मान, भवानी प्रसाद मिश्र स्मृति सम्मान मिले हैं। पटना निवासी आलोक धन्वा इन दिनों महात्मागांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में कार्यरत हैं। सोनाली राऊत एक भारतीय अभिनेत्री हैं। वर्तमान में बिग बॉस में प्रतिभागी हैं।[1] जनरल ए एस वैद्य भारतीय सेना के 13 वे थलसेनाध्यक्ष थे। वर्ष 1986 में पुणे में हरजिंदर और सुखदेव ने जनरल वैद्य की हत्या कर दी थी। वर्ष 1992 में दोनों हत्यारों को फांसी की सजा दी गई।[1] यह जीवनचरित लेख अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की सहायता कर सकते है। निर्देशांक: 22°32′N 88°20′E / 22.53°N 88.33°E / 22.53; 88.33 अलीपुर पश्चिम बंगाल राज्य के दक्षिण २४ परगना जिला का मुख्यालय है। यह कोलकाता शहर का दक्षिणी पड़ोसी शहर है। अलीपुर की स्थिति है 22°32′N 88°20′E / 22.53°N 88.33°E / 22.53; 88.33[1] पर। यहां कीऔसत ऊंचाई १४ मीटर (४६ फीट) है। बिर्र इथियोपिया की आधिकारिक मुद्रा है। १९७६ से पहले, बिर्र का आधिकारिक अंग्रेजी अनुवाद डॉलर किया जाता था। आज, आधिकारिक तौर पर अंग्रेजी में भी बिर्र का इस्तेमाल किया जाता है। 1931 में इथियोपिया के महाराजा हेल सैलेसी प्रथम ने औपचारिक रूप से अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अबेसिनिया के स्थान पर इथियोपिया नाम का इस्तेमाल करने का आग्रह किया था, इसके साथ ही उन्होंने बैंक आफ अबेसेनिया का नाम बदलकर बैंक आफ इथियोपिया किया। इस वजह से १९३१ के पहले की मुद्रा को अबेसेनिया बिर्र और १९३१ के बाद की मुद्रा को इथियोपियन बिर्र कहा जाता है। हालांकि देश वही था और मुद्रा भी वहीं थी। इथियोपिया पर १९३६ में आधिपत्य स्थापित कर इटली ने देश का नाम इटालियन ईस्ट अफ्रीका कर दिया, इसके साथ ही इथियोपियन मुद्रा को हटा कर उसके स्थान पर १५ जुलाई १९३६ से इटेलियन लिरा प्रचलन शुरू किया गया। अपने ईस्ट अफ्रीकन मुहिम के दौरान ब्रिटिश सेना के प्रभुत्व में आने के बाद ईस्ट अफ्रीकन शिलिंग १ जुलाई १९४२ से प्रचलन में आ गई। बिर्र १९४५ में फिर से प्रचलन में आई, इसे सौ सेंटाइम्स से विभाजित किया जाता है। आधिकारिक रूप से १९७६ से सभी भाषाओं में बिर्र शब्द का प्रयोग किया जा रहा है। 66px चर्यापद पुथि बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, काजी नज़रुल इस्लाम बेगम रोकेया, मीर मशाररफ होसेन, शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय बँगला भाषा का साहित्य स्थूल रूप से तीन भागों में बाँटा जा सकता है - 1. प्राचीन (950-1,200 ई.), 2. मध्य कालीन (1,200-1,800 ई.) तथा 3. आधुनिक-(1,800 के बाद)। प्रारंभिक साहित्य बंगाल के जीवन तथा उसके गुण-दोष-विवेचन की दृष्टि से ही अधिक महत्वपूर्ण है। चंडीदास, कृत्तिवास, मालाधर, पिपलाई, लोचनदा, ज्ञानदास, कविकंकण, मुकुंदराम, कृष्णदास, काशीराम दास, भारतचंदराय, गुणाकार आदि कवि इसी काल में हुए हैं। भारत के अन्य विद्वानों की तरह बंगाल के भी विद्वान् संस्कृत की रचनाओं को ही विशेष महत्व देते थे। उनकी दृष्टि में वही "अमर भारती" का पद सुशोभित कर सकती थी। बोलचाल की भाषा को वे परिवर्तनशील और अस्थायी मानते थे। किंतु जनसाधारण तो अपने विचारों और भावों को प्रकट करने के लिए उसी भाषा को पसंद कर सकते थे जो उनके हृदय के अधिक निकट हो। उसी भाषा में वे उपदेश और शिक्षा ग्रहण कर सकते थे। पुरातन बंगाल में इस तरह की दो भाषाएँ प्रचलित थीं-एक तो स्थानीय भाषा, जिसे हम प्राचीन बँगला कह सकते हैं, दूसरी अखिल भारतीय जन साहित्यिक भाषा, जो सामान्यत: समूचे उत्तर भारत में समझी जा सकती थी। इसे नागर या शौरसेनी अपभ्रंश कह सकते हैं जो मोटे तौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पूर्वी पंजाब तथा राजस्थान की भाषा थी। सामान्य जनता के लिए इन दोनों भाषाओं में थोड़ा सा साहित्य विद्यमान था। प्रेम और भक्ति के गीत, कहावतें और लोकगीत मातृभाषा में पाए जाते थे। बौद्ध तथा हिंदू धर्म के उपदेशक जनता में प्रचार करने के लिए जो रचनाएँ तैयार करते थे वे प्राय: पुरानी बँगला तथा नागर अपभ्रंश, दोनों में होती थीं। पुरातन बँगला की उपलब्ध रचनाओं में 47 चर्यापद विशेष महत्व के हैं। ये प्राय: आठ (या कुछ अधिक) पंक्तियों के रहस्यमय गीत हैं जिनका संबंध महायान बौद्धधर्म तथा नाथपंथ, दोनों से संबद्ध गुप्त संप्रदाय से है। इनका सामान्य बाहरी अर्थ तो प्राय: यों ही समझ में आ जाता है और गूढ़ अर्थ भी साथ की संस्कृत टीका की सहायता से, जो इस संग्रह के साथ ही श्री हरप्रसाद शास्त्री को प्राप्त हुई थी, समझा जा सकता है। इन गीतों या पद्यों में "कविता" नाम की चीज तो नहीं है किंतु जीवन की एकाध झलक अवश्य किसी किसी में देख पड़ती है। इससे मिलती जुलती कुछ अन्य पद्यात्मक रचनाएँ नेपाल से भी डॉ॰ प्रबोधचंद्र बागची तथा राहुल सांकृत्यायन आदि को प्राप्त हुई थीं"। 12वीं शताब्दी के अंत तक पुरातन बँगला में यथेष्ट साहित्य तैयार हो चुका था जिससे उस समय के एक बंगाली कवि ने यह गर्वोक्ति की थी "लोग जैसा गंगा में स्नान करने से पवित्र हो जाते हैं, वैसे ही वे 'बंगाल वाणी' में स्नात होकर पवित्र हो सकते हैं।" किंतु दुर्भाग्यवश उक्त 47 चर्यापदों तथा थोड़े से गीतों या पदों के सिवा उस काल की अन्य बहुत ही कम रचनाएँ आज उपलब्ध हैं। गीतगोविंद के रचयिता जयदेव बंगाल के हिंदू राजा लक्ष्मण सेन (लगभग 1180 ई.) के शासनकाल में विद्यमान थे। राधा और कृष्ण के प्रेम का वर्णन करनेवाले इस सुंदर काव्य में 24 गीत हैं जो अतुकांत न होकर, सबके सब तुकांत हैं। संस्कृत में प्राय: तुकांत नहीं मिलता। यह तो अपभ्रंश या नवोदित भारतीय-आर्य भाषाओं की विशेषता है। कुछ विद्वानों का मत है कि इन पदों की रचना मूलत: पुरानी बँगला में या अपभ्रंश में की गई थी और फिर उनमें थोड़ा परिवर्तन कर संस्कृत के अनुरूप बना दिया गया। इस तरह जयदेव पुरातन बंगाल के प्रसिद्ध कवि माने जा सकते हैं जिन्होंने संस्कृत के अतिरिक्त संभवत: पुरानी बँगला में भी रचना की। जो हो, बंगाल के कितने ही परगामी कवियों को उनसे प्रेरणा मिली, इसमें संदेह नहीं। पुरानी बँगला में कोई बड़ा प्रबंध काव्य रचा गया हो, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। उस समय ऐसी रचनाएँ बंगाल में भी प्राय: अपभ्रंश में ही होती थीं। जो हो, मिथिला (बिहार) के प्रसिद्ध कवि विद्यापति ने जब प्रसिद्ध ऐतिहासिक काव्य (कीर्तिलता) की रचना की (लगभग 1,410 ई.) तब उन्होंने भी इसका प्रणयन अपनी मातृभाषा मैथिली में न कर अपभ्रंश में ही किया, यद्यपि बीच-बीच में इसमें मैथिल शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। 15वीं शती तथा विशेष रूप से 16वीं शती से ही बड़े प्रबंध काव्यों एवं वर्णनात्मक रचनाओं का निर्माण प्रारंभ हुआ, उदाहरणार्य आदर्श नारी बिहुला और उसके पति लखीधर की कथा, कालकेतु और फुल्लरा का कथानक, इत्यादि। सन् 1203 में पश्चिमी बंगाल पर तुर्कों का आक्रमण हुआ। व्यापक लूटमार, अपहरण, हत्याकांड, महलों तथा पुस्तकालयों के विनाश तथा बलात् धर्मपरिवर्तन की बाढ़ सी आ गई। ऐसा समय साहित्यिक विकास के अनुकूल हो ही कैसे सकता था। उदार रुख अपनानेवाली सूफी प्रचारकों के आगमन में अभी देर थी। इस समय की साहित्यिक रचनाओं के कोई विशिष्ट प्रामाणिक ग्रंथ नहीं बताए जा सकते। पुराने गायकों और लोकगीतकारों में बिहुला आदि की जो कथाएँ प्रचलित थीं, उन्हीं के आधार पर कुछ अज्ञात कवियों ने रचनाएँ प्रस्तुत की जिन्हें बँगला के प्रारंभिक प्रबंध काव्य की संज्ञा दी जा सकती है। इसी अवधि में बँगला भाषी मुसलिम आबादी का उद्भव हुआ और उसमें क्रमश: वृद्धि होती गई। तुर्क आक्रमणकारियों में से बहुतों ने बंगाल की स्त्रियों से ही विवाह कर लिया और धीरे-धीरे "यहाँ की भाषा, रहन सहन आदि को" अपना लिया। तुर्की को वे भूल ही गए और अरबी केवल धर्म-कर्म की भाषा रह गई। बंगाल में हिंदू जमींदारों और सामंतों की ही व्यवस्था अभी प्रचलित थी, फलत: मुसलिम विचारों और पद्धतियों का जनजीवन पर अभी दृष्टिगोचर होने योग्य विशेष प्रभाव नहीं पड़ने पाया था। कुछ काल के अनंतर बंगाल में शांति स्थापित होने पर जब फिर संस्कृत के अध्ययन, प्रचार आदि की सुविधा प्राप्त हुई तब शिक्षा और साहित्य का मानो प्राथमिक पुनर्जागरण प्रारंभ हुआ। माध्यमिक बँगला के प्रथम महाकवि, जिनके संबंध में हमे कुछ जानकारी है, संभवत: कृत्तिवास ओझा थे (जन्म लगभग 1399 ई.)। संस्कृत रामायण को बँगला में प्रस्तुत करनेवाले (लगभग 1418 ई.) वे पहले लोकप्रिय कवि थे जिन्होंने राम का चित्रण वाल्मीकि की तरह शुद्ध मानव और वीर पुरुष के रूप में न कर भगवान के करुणामय अवतार के रूप में किया जिसकी ओर सीधी सादी भक्तिमय जनता का हृदय सहज भाव से आकर्षित हो सकता था। इसी तरह कृष्णागाथा का वर्णन उसी शताब्दी में (1475 ई.) मालाधर बसु ने किया। यह भागवत पुराण पर आधारित है। बिहुला की कथा, जो विवाह की प्रथम रात्रि में ही मनसा देवी द्वारा प्रेषित सर्प के द्वारा पति के डसे जाने पर विधवा हो गई थी और जिसने बड़ी बड़ी कठिनाइयाँ झेलकर देवताओं को तथा मनसा देवी को भी प्रसन्न कर पति को पुन: जीवित करा लेने में सफलता प्राप्त की थी, पतिव्रता नारी के प्रेम और साहस की वह अपूर्व परिकल्पना है जिसका आविर्भाव कभी किसी भारतीय मस्तिष्क में हुआ हो। यह कथा शायद मुसलमानों के आगमन के पहले से ही प्रचलित थी किंतु उसपर आधारित प्रथम कथाकाव्य बँगला में 15वीं शती में रचे गए। इनमें से एक के रचयिता विजयगुप्त और दूसरी के विप्रदास पिपलाई माने जाते हैं। पूर्वमाध्यमिक बँगला के एक प्रसिद्ध कवि चंडीदास माने जाते हैं। इनके नाम से कोई 1200 पद या कविताएँ प्रचलित हैं। उनकी भाषा, शैली आदि में इतना अंतर है कि वे एक ही व्यक्ति द्वारा रचित नहीं जान पड़तीं। ऐसा प्रतीत होता है कि माध्यमिक बँगला में इस नाम के कम से कम तीन कवि हुए। पहले चंडीदास (अनंत बडु चंडीदास) श्रीकृष्णकीर्तन के प्रणेता थे जो चैतन्य के पहले, लगभग 1400 ई. में, विद्यमान थे। दूसरे चंडीदास द्विज चंडीदास थे जो चैतन्य के बाद में या उत्तर काल में हुए। इन्होंने ही राधा कृष्ण के प्रेमविषयक उन अधिकांश गीतों की रचना की जिनसे चंडीदास को इतनी लोकप्रसिद्धि प्राप्त हुई। तीसरे चंडीदास दीन चंडीदास हुए जो संग्रह के तीन चौथाई भाग के रचयिता प्रतीत होते हैं। चंडीदास की कीर्ति के मुख्य आधार प्रथम दो चंडीदास ही थे, इसमें संदेह नहीं जान पड़ता। 15वीं शताब्दी में बंगाल पर तुर्क तथा पठान सुलतानों का शासन था पर उनमें यथेष्ट बंगालीपन आ गया था और वे बँगला साहित्य के समर्थक बन गए थे। ऐसा एक शासक हुसेनशाह था (1493-1519)। उसने चटगाँव के अपने सूबेदारों और पुत्र नासिरुद्दीन नसरत के द्वारा महाभारत का अनुवाद बँगला में करवाया। यह रचना "पांडवविजय" के नाम से कवींद्र द्वारा प्रस्तुत की गई थी। इसी समय प्रसिद्ध वैष्णव कवि चैतन्य का आविर्भाव हुआ (1486-1533)। समसामयिक कवियों और विचारकों पर उनका गहरा प्रभाव पड़ा। उनके आविर्भाव और मृत्यु के उपरांत संतों तथा भक्तों के जीवनचरित्रों के निर्माण की परंपरा चल पड़ी। इनमें से कुछ ये हैं-वृंदावनदास कृत चैतन्यभागवत (लग. 1573), लोचनदास कृत चैतन्यमंगल; जयानंद का चैतन्यमंगल तथा कृष्णदास कविरत्न का चैतन्यचरितामृत (लग. 1581)। कृष्ण और राधा के दिव्य प्रेम संबंधी बहुत से गीत और पद भी इस समय रचे गए। बंगाल के इस वैष्णव गीत साहित्य पर मिथिला के विद्यापति का भी यथेष्ट प्रभाव पड़ा जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है। इसी समय के लगभग बँगला पर "ब्रजबुलि" का भी प्रभाव पड़ा। मिथिला का राज्य मुसलिम आक्रमणों से प्राय: अछूता रहा। बंगाल के कितने ही शिक्षार्थी स्मृति, न्याय, दर्शन आदि का अध्ययन करने वहाँ जाया करते थे। मिथिला के संस्कृत के विद्वान् अपनी मातृभाषा में भी रचना करते थे। स्वयं विद्यापति ने संस्कृत में ग्रंथरचना की किंतु मैथिली में भी उन्होंने बहुत सुंदर प्रेमगीतों का निर्माण किया। उनके ये गीत बंगाल में बड़े लोकप्रिय हुए और उनके अनुकरण में यहाँ भी रचना होने लगी। बंकिमचंद्र तथा रवींद्रनाथ ठाकुर तक ने इस तरह के गीतों की रचना की। वैष्णव प्रेमगीतकार के रूप में जयदेव कवि की चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं। उनके बाद बडुचंडीदास तथा चैतन्य के अनुयायी आते हैं। इनमें उड़ीसा के एक क्षत्रप रामानंद थे जिन्होंने संस्कृत में भी रचना की। गोविंददास कविराज (1512-1) ने ब्रजबुलि में कितने ही सुंदर गीत प्रस्तुत किए। बर्दवान जिले के कविरंजन विद्यापति ने भी ब्रजवुलि में प्रेमगीत लिखे जिनके कारण वे "छोटे विद्यापति" के नाम से प्रसिद्ध हुए। 16वीं शती के दो कवियों ने कालकेतु और उसकी स्त्री फुल्लरा तथा धनपति और उसके पुत्र श्रीमंत के आख्यान की रचना की जिसमें चंडी या दुर्गादेवी की महिमा वर्णित की गई। कविकंकण मुकुंददास चक्रवर्ती ने चंडीकाव्य बनाया जो आज भी लोकप्रिय है। इसमें तत्कालीन बँगला जीवन की अच्छी झलक देख पड़ती है। पद्यलेखक होते हुए भी वे एक तरह से बंकिमचंद्र तथा शरच्चंद्र चटर्जी के पूर्वग माने जा सकते हैं। वैष्णव गीतकारों तथा जीवनी लेखकों की परंपरा 17वीं शती में चलती रही। जीवनीलेखकों में ईशान नागर (1564) और नित्यानंद (1600 ई.) के बाद यदुनंदनदास (कर्णानंद के लेखक, 1607), राजवल्लभ (कृति मुरलीविलास), मनोहरदास (1652, कृति "अनुरागवल्ली") तथा घनश्याम चक्रवर्ती (कृति, भक्तिरत्नाकर तथा नरोत्तमविलास) का नाम लिया जा सकता है। गीतलेखकों की संख्या 200 से अधिक है। वैष्णव विद्वानों तथा कवियों ने इनके कई संग्रह तैयार किए थे जिनमें से वैष्णवदास (1770 ई.) का "पदकल्पतरु" विशेष प्रसिद्ध है। इसमें 170 कवियों द्वारा रचित 3101 पद आए हैं। इसी समय कुछ धार्मिक ढंग की कथाएँ भी लिखी गईं। इनमें रूपराम कृत धर्ममंगल विशेष प्रसिद्ध है जिसमें लाऊसैन के साहसिक कार्यों का वर्णन है। इस कथा के ढंग पर मानिक गांगुलि तथा घनराम चक्रवर्ती ने भी रचनाएँ प्रस्तुत कीं। एक और कथानक जिसके आधार पर 17वीं, 18वीं शती में रचनाएँ प्रस्तुत की गईं, राजा गोपीचंद का है। वे राजा मानिकचंद्र के पुत्र थे। जब वे गद्दी पर बैठे तो उनकी माता मयनामती को पता चला कि उनके पुत्र को राजपाट तथा स्त्री का परित्याग कर योगी बन जाना चाहिए, नहीं तो उनकी अकालमृत्यु की संभावना है। अत: माता के आदेश से उन्हें ऐसा ही करना पड़ा। भवानीदासकृत "मयनामतिर गान" तथा दुर्लभ मलिक की रचना "गोविंदचंद्र गीत" इसी कथानक पर आधारित हैं। बिहुला की कथा पर 18वीं शती में भी प्रबंध काव्य वंशीदास, केतकादासतथा क्षेमानंद इत्यादि द्वारा-रचे गए। आल्हा के ढंग पर कुछ वीरकाव्य या गाथाकाव्य भी 17वीं शती में रचे गए। इनका एक संग्रह अंग्रेजी अनुवाद सहित दिनेशचंद्र सेन ने तैयार किया जो कलकत्ता वि. विद्यालय द्वारा प्रकाशित किया गया। इसी समय बंगाली मुसलमान लेखकों ने अरबी और फारसी की प्रेम तथा धर्म कथाएँ बंगला में प्रस्तुत करने का प्रयत्न आरंभ किया। इन कवियों ने उस समय के उपलब्ध बँगला साहित्य का ही अध्ययन नहीं किया वरन् संस्कृत, अरबी तथा फारसी के ग्रंथों का भी अनुशीलन किया। उन्होंने अवधी या कोशली से मिलती जुलती एक और भाषा-गोहारी या गोआरी-भी सीखी। इसी तरह पूर्वी हिंदी के क्षेत्र से जो सूफी मुसलमान पूर्वी बंगाल पहुँचे, वे अपने साथ नागरी वर्णमाला भी लेते गए। सिलहट के मुसलमान कवि बहुत दिनों तक इसी सिलेट नागरी" लिपि में बँगला लिखते रहे। उस समय के कुछ मुसलमान कवि ये हैं-दौलत काज़ी, जिसने "लोरचंदा" या "सती मैना" शीर्षक प्रेमकाव्य लिखा, कुरेशी मागन ठाकुर जिसने "चंद्रावती" की रचना की, मुहम्मद खाँ, जिसकी दो रचनाएँ (मौतुलहुसेन तथा केयामतनामा) प्रसिद्ध हैं; तथा अब्दुल नबी जिसने बड़ी सुंदर शैली में "आमीर हामज़ा" का प्रणयन किया। इनके सिवा 17वीं शती के एक और प्रसिद्ध मुसलिम कवि आला ओल हैं जिनकी कृति "पद्मावती" (1651) यथेष्ट लोकप्रिय रही। यह हिंदी कवि मलिक मुहम्मद जायसी की इसी नाम की रचना का रूपांतर है। इनकी अन्य रचनाएँ हैं-सैफुल मुल्क बदीउज्जमाँ (सहस्ररजनीचरित्र के आधार पर रचित प्रेमकाव्य), हफ्त पैकार, सिकंदरनामा तथा तोहफा। 17वीं शती के तीन हिंदू कवियों - काशीरामदास, जिन्होंने महाभारत का अनुवाद बँगला पद्य में किया, उनके बड़े भाई कृष्णकिंकर, जिन्होंने श्रीकृष्णविलास बनाया, तथा जगन्नाथमंगल के लेखक गदाधर। 18वीं शती के कुछ प्रसिद्ध कवि ये हैं - रामप्रसाद सेन (मृत्यु 1775) जिनके दुर्गा संबंधी गीत आज भी लोकप्रिय हैं; भारतचंद्र, जिनका "अन्नदामंगल" (या कालिकामंगल) काव्य बँगला की एक परिष्कृत रचना है; राजा जयनारायण, जिन्होंने पद्मपुराण के काशीखंड का बँगला में अनुवाद किया और उस समय के बनारस का बहुत ही मनोरंजक विवरण उसमें समाविष्ट कर दिया। इस काल में हलके फुलके गीतों तथा समस्यापूर्ति के रूप में लिखे गए सद्य:प्रस्तुत पद्यों का काफी जोर रहा। कुछ मुसलमान कवियों ने मुहर्रम तथा कर्बला के संबंध में रचनाएँ प्रस्तुत कीं (मुहर्रम पर्व या जंगनामा हायत मुहम्मद, नसरुल्ला खाँ तथा याकूब अली द्वारा रचित)। लैला मजनू पर दौलत वज़ीर बहराम ने लिखा और मुहम्मद साहब के जीवन पर भी ग्रंथ प्रस्तुत किए गए। बँगला गद्य के कुछ नमूने सन् 1550 के बाद पत्रों तथा दस्तावेजों के रूप में उपलब्ध हैं। कैथलिक धर्म संबंधी कई रचनाएँ पोर्तगाली तथा अन्य पादरियों द्वारा प्रस्तुत की गईं और 1778 में नथेनियल ब्रासी हलहद ने बंगला व्याकरण तैयार कर प्रकाशित किया। 1799 में फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना के बाद बाइबिल के अनुवाद तथा बँगला गद्य में अन्य ग्रंथ तैयार कराने का उपक्रम किया गया। 19वीं सदी में अंग्रेजी भाषा के प्रसार और संस्कृत के नवीन अध्ययन से बँगला के लेखकों में नए जागरण और उत्साह की लहर सी दौड़ गई। एक ओर जहाँ कंपनी सरकार के अधिकारी बँगला सीखने के इच्छुक अंग्रेज कर्मचारियों के लिए बँगला की पाठ्यपुस्तकें तैयार करा रहे थे और बेपतिस्त मिशन के पादरी कृत्तिवासीय रामायण का प्रकाशन तथा बाइबिल आदि का बँगला अनुवाद प्रस्तुत कराने का प्रयत्न कर रहे थे, वहाँ दूसरी ओर बंगाली लेखक भी गद्य-ग्रंथलेखन की ओर ध्यान देने लगे थे। रामराम बसु ने राजा प्रतापादित्य की जीवनी लिखी और मृत्युजंय विद्यालंकार ने बँगला में "पुरुष परीक्षा" लिखी। 1818 में "समाचारदर्पण" नामक साप्ताहिक के प्रकाशन से बँगला पत्रकारिता की भी नींव पड़ी। राजा राममोहन राय ने भारतीयों के "आधुनिक" बनने पर बल दिया। उन्होंने ब्रह्मसमाज की स्थापना की। उन्होंने कतिपय उपनिषदों का बँगला अनुवाद तैयार किया। अंग्रेजी में बँगला व्याकरण (1826) लिखा और अपने धार्मिक तथा सामाजिक विचारों के प्रचारार्थ बँगला और अंग्रेजी, दोनों में छोटी छोटी पुस्तिकाएँ लिखीं। इसी समय राजा राधाकांत देव ने "शब्दकल्पद्रुम" नामक संस्कृत कोष तैयार किया और भवानीचरण बनर्जी ने कलकतिया समाज पर व्यंग्यात्मक रचनाएँ प्रस्तुत कीं। प्रारंभिक गद्यलेखकों की भाषा, प्रचलित संस्कृत शब्दों के प्रयोग के कारण, कुछ कठिन थी किंतु 1850 के लगभग अधिक सरल और प्रभावपूर्ण शैली का प्रचलन आरंभ हो गया। ईश्वरचंद्र विद्यासागर, प्यारीचंद मित्र आदि का इसमें विशेष हाथ था। विद्यासागर ने अंग्रेजी तथा संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद बँगला में किया और गद्य की सुंदर, सरल शैली का विकास किया। प्यारीचंद मित्र ने "आलालेर घरेर दुलाल" नामक सामाजिक उपन्यास लिखा (1858)। अक्षयकुमार दत्त ने विविध विषयों पर कई निबंध लिखे। अन्य गद्यलेखक थे - राजनारायण बसु, ताराशंकर तर्करत्न (जिन्होंने "कादंबरी" का संक्षिप्त रूपांतर बँगला में प्रस्तुत किया) तथा तारकनाथ गांगुलि (जिन्होंने प्रथम यथार्थवादी सामाजिक उपन्यास "स्वर्णलता" प्रकाशित किया)। माइकेल मधुसूदन दत्त को हम उस समय के "युवक बंगाल" का प्रतिनिधि मान सकते हैं जिसके हृदय में अन्य युवकों की तरह आत्मविकास तथा आत्माभिव्यक्ति का बहुत सीमित अवकाश ही हिंदू समाज में मिलने के कारण एक प्रकार का असंतोष सा व्याप्त हो उठा था। इसका एक विशेष कारण उनका अंग्रेजी तथा अन्य विदेशी साहित्य के संपर्क में आना था। ईसाई धर्म में अभिषिक्त होने के बाद मधुसूदन ने पहले अंग्रेजी में, फिर बँगला में लिखना आरंभ किया। उन्होंने भारतीय विषयों पर ही लेखनी चलाई पर उन्हें युरोपीय ढंग पर सँवारा, सजाया। उनकी मुख्य रचनाएँ हैं - मेघनादवध काव्य, वीरांगना काव्य तथा व्रजांगना काव्य। उन्होंने बँगला में अनुप्रासहीन कविता का प्रचलन किया और इटैलियन सोनेट की तरह चतुर्दशपदियों की भी रचना की। बंकिमचंद्र चट्टोपध्याय रवींद्रनाथ ठाकुर के आगमन के पूर्व बँगला के सर्वश्रेष्ठ लेखक माने जाते हैं। उनका साहित्यिक जीवन अंग्रेजी में लिखित "राजमोहन की स्त्री" नामक उपन्यास (1864) से आरंभ होता है। बँगला में पहला उपन्यास उन्होंने दुगेंशनंदिनी (1865) के नाम से लिखा। इसके बाद उन्होंने एक दर्जन से अधिक सामाजिक तथा ऐतिहासिक उपन्यास लिखे। इनके कारण बँगला साहित्य में उन्हें स्थायी स्थान प्राप्त हो गया और आधुनिक भारत के विचारशील लेखकों तथा चिंतकों में उनकी गणना होने लगी। 1872 में उन्होंने "बंगदर्शन" नामक साहित्यिक पत्र निकाला जिसने बँगला साहित्य को नया मोड़ दिया। उनके ऐतिहासिक उपन्यासों में राजसिंह, सीताराम, तथा चंद्रशेखर मुख्य हैं। सामाजिक उपन्यासों में "विषवृक्ष" तथा "कृष्णकांतेर विल का स्थान ऊँचा है। उनका "कपालकुंडला" शुद्ध प्रेम और कल्पना का उत्कृष्ट नमूना माना जा सकता है। "आनंदमठ" प्रसिद्ध राजनीतिक उपन्यास है जिसका "वंदेमातरम्" गीत चिरकाल तक भारत का राष्ट्रीयगान माना जाता रहा और आज भी इस रूप में इसका समादर है। उनके उपन्यासों तथा अन्य रचनाओं का भारत की प्राय: सभी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। एक और प्रसिद्ध व्यक्ति जिसे भारत के पुनर्जागरण में मुख्य स्थान प्राप्त हैं, स्वामी विवेकानंद हैं। भारत की गरीब जनता ("दरिद्रनारायण") की सेवा ही उनका लक्ष्य था। उन्होंने अमरीका और यूरोप जाकर अपने प्रभावकारी भाषणों द्वारा हिंदू धर्म का ऐसा विशद विवेचन उपस्थित किया कि उसे पश्चिमी देशों में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त हो गई। बँगला तथा अंग्रेजी, दोनों के वे प्रभावशील लेखक थे। रंगलाल बंद्योपाध्याय ने राजपूतों की वीरगाथाओं के आधार पर "पद्मिनी" (1858), कर्मदेवी (1862) तथा सूरसुंदरी (1868) की रचना की। कालिदास के "कुमारसंभव" का बँगला अनुवाद भी उन्होंने प्रस्तुत किया। बँगला नाटकों का उदय 1870 के आसपास माना जा सकता हैं, यद्यपि इसके पहले भी इस दिशा में कुछ प्रयास किया जा चुका था। बंगाल में पहले एक तरह के धार्मिक नाटक प्रचलित थे जिन्हें "यात्रा" नाटक कहते थे। इनमें दृश्य और परदे नहीं होते थे, गायन और वाद्य की प्रधानता होती थी। एक रूसी नागरिक जेरासिम लेबेडेव ने 1795 में कलकत्ता आकर बँगला की प्रथम नाट्यशाला स्थापित की, जो चली नहीं। संस्कृत नाटकों के सिवा अंग्रेजी नाटकों तथा कलकत्ते में स्थापित अंग्रेजी रंगमंच से बँगला लेखकों को प्रेरणा मिली। दीनबंधु मित्र ने कई सुखांत नाटक लिखे। उनके एक नाटक नीलदर्पण (1860) में निलहे गोरों के उत्पीड़न का मार्मिक चित्रण हुआ था जिससे इस प्रथा की बुराइयाँ दूर करने में सहायता मिली। राजा राजेंद्रलाल मित्र (1822-91) इतिहासलेखक और प्रथम बंगाली पुरातत्वज्ञ थे। भूदेव मुखोपाध्याय (1825-94) शिक्षाशास्त्री, गद्यलेखक और पत्रकार थे। समाज और संस्कृति के संरक्षण तथा पुनरुद्धार संबंधी उनके लेखों का आज भी यथेष्ट महत्व है। कालीप्रसन्न सिंह कट्टर हिंदू समाज के एक और प्रगतिशील लेखक थे। उन्होंने महाभारत का बँगला गद्य में तथा संस्कृत के दो नाटकों का भी अनुवाद किया। उन्होंने कलकत्ते की बोलचाल की बँगला में "हुतोम पेंचार नक्शा" नामक रचना प्रस्तुत की जिसमें उस समय के कलकतिया समाज का अच्छा चित्रण किया गया था। बँगला के प्रतिष्ठित साहित्य में इसकी गणना है। हेमचंद बंदोपाध्याय (1838-1903) ने शेक्सयिर के दो नाटकों 'रोमियों और जूलियट' तथा 'टेंपेस्ट' का बँगला में अनुवाद किया। मेघनादवध से प्रोत्साहित होकर उन्होंने "वृत्तसंहार" नामक महाकाव्य की रचना की। नवीनचंद्र सेन (1847- 1909) ने कुरुक्षेत्र, रैवतक तथा प्रभास नाटक बनाए तथा बुद्ध, ईसा और चैतन्य के जीवन पर अमिताभ, ख्रीष्ट तथा अमृताभ नामक लंबी कविताएँ लिखीं। पलासीर युद्ध तथा रंगमती और भानुमती के भी लेखक वही थे। पाँच खंडों में अपनी जीवनी ""आमार जीवन"" भी उन्होंने लिखी। रवींद्रानाथ ठाकुर के सबसे बड़े भाई द्विजेंद्रनाथ ठाकुर (1840-1926) कवि, संगीतज्ञ तथा दर्शनशास्त्री थे। उनकी प्रसिद्ध रचना "स्वप्नप्रयाण" है। रवींद्रनाथ के एक और बड़े भाई ज्योतींद्रनाथ ठाकुर थे। उनके लिखे चार नाटक बड़े लोकप्रिय थे - पुरुविक्रम, सरोजिनी, आशुमती तथा स्वप्नमयी। उन्होंने फ्रेंच भाषा, अंग्रेजी तथा मराठी से भी कई ग्रंथों का अनुवाद किया। रमेशचंद्र दत्त ने ऋग्वेद का बँगला अनुवाद किया। भारतीय अर्थशास्त्र के भी वे लेखक थे और उन्होंने कई उपन्यास भी लिखे- 1. राजपूत जीवनसंध्या, 2. महाराष्ट्र जीवनसंध्या; 3. माधवी कंकण; 4. संसार, तथा 5. समाज। इनके समसामयिक गिरीशचंद्र घोष बँगला के महान नाटककार थे। उन्होंने 90 नाटक, प्रहसन आदि लिखे, जिनमें से कुछ ये हैं - बिल्वमंगल, प्रफुल्ल, पांडव गौरव, बुद्धदेवचरित, चैतन्य लीला, सिराजुद्दौला, अशोक, हारानिधि, शंकराचार्य, शास्ति की शांति। शेक्सपियर के मेकबेथ नाटक का बँगला अनुवाद भी उन्होंने किया। अमृतलाल बसु भी गिरीशचंद्र घोष की तरह अभिनेता नाटककार थे। हास्य रस से पूर्ण उनके नाटक तथा प्रहसन बँगला भाषियों में काफी लोकप्रिय हैं। वे बंगाल के मोलिए कहलाते थे, जिस तरह गिरीशचंद्र बंगाली शेक्सपियर माने जाते थे। हास्यरस के दो और बँगला लेखक इस समय हुए - त्रैलोक्यनाथ मुखेपाध्याय (1847-1919), उपन्यासकार तथा लघुकथा लेखक और इंद्रनाथ बंदोपाध्याय (1849-1911), निबंधलेखक तथा व्यंग्यकार। संस्कृत और इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान् हरप्रसाद शास्त्री (1853-1931) का उल्लेख पहले 47 चर्यापद के सिलसिले में किया जा चुका है। वे उपन्यासकार और अच्छे निबंधलेखक भी थे। उनके दो उपन्यास हैं- "बेणेर मेये" तथा "कांचनमाला"। भारतीय साहित्य, धर्म तथा सभ्यता के संबंध में उनके लेख विशेष महत्वपूर्ण हैं। उनका लिखा "वाल्मीकिर जय" नामक गद्यकाव्य बड़ी सुन्दर और प्रभावोत्पादक बँगला में लिखा गया है। राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत 1857 के आसपास हो चुकी थी। 1885 में राष्ट्रीय महासभा की स्थापना से इसे बल मिला और 1905 में लार्ड कर्जन द्वारा किए गए बंगाल के विभाजन ने इसमें आग फूँक दी। स्वदेशी का जोर बढ़ा और भाषा तथा साहित्य पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ा। सन् 1913 में रवींद्रनाथ ठाकुर को नोबेल पुरस्कार मिलने से बंगाल तथा भारत में राष्ट्रीय भावना की प्रबलता बढ़ गई और बँगला साहित्य में एक नए युग का आरंभ हुआ जिसे हम "रवींद्रनाथ युग" की संज्ञा दे सकते हैं। रवींद्रनाथ ठाकुर (1861-1941) में महान लेखक होने के लक्षण शुरू से ही देख पड़ने लगे थे। क्या कविता और क्या नाटक, उपन्यास और लघु कथा, निबंध और आलोचना, सभी में उनकी बहुमुखी प्रतिभा ने नया चमत्कार उत्पन्न कर दिया। उनके विचारों और शैली ने बँगला साहित्य को मानो नया मोड़ दे दिया। व्यापक दृष्टि और गहरी भावना से संपृक्त उत्कृष्ट सौंदर्य तथा अज्ञात की रहस्यमय अनुभूति उनकी रचनाओं में स्थान स्थान पर अभिव्यक्त होती देख पड़ती हैं। गीत रचनाकार के रूप में वे अद्वितीय हैं। प्रेम, प्रकृति, ईश्वर और मानव पर लिखे गए उनके गीतों की संख्या 200 से ऊपर है। ये गीत परमात्म और आधिदैविक शक्ति की रहस्यमय भावना से ओतप्रोत हैं, इस कारण संसार के महान रहस्यवादी लेखकों में उनकी गणना की जाती है। उनके निबंध स्वस्थ चिंतन एव सुस्पष्ट विवेचन के लिए प्रसिद्ध हैं। वे बुद्धिपरक भी हैं तथा कल्पनाप्रधान भी, याथार्थिक भी हैं और काव्यमय भी। उनके उपन्यास तथा लघुकथाएँ तथ्यात्मक, नाटकीयता पूर्ण एवं अंर्तदृष्टि प्रेरक हैं। वे अंतरराष्ट्रीयता एवं मानव एकता के बराबर समर्थक रहे हैं। उन्होंने अथक रूप से इस बात का प्रयत्न किया कि भारत अपनी गौरवपूर्ण प्राचीन बातों की रक्षा करते हुए भी विश्व के अन्य देशों से एकता स्थापित करने के लिए तत्पर रहे। रवींद्रनाथ के समसामयिक लेखकों में कितने ही विशेष उल्लेखनीय हैं। उनके नाम हैं- 1. गोर्विदचंद्रदास, कवि; 2. देवेंद्रनाथ सेन, कवि; 3. अक्षयकुमार बड़ाल, कवि; 4. श्रीमति कामिनी राय, कवयित्री; 5. श्रीमति सुवर्णकुमारी देवी, कवयित्री; 6. अक्षयकुमार मैत्रेय, इतिहासलेखक; 7. रामेद्रसुंदर त्रिवेदी, निबंधलेखक, वैज्ञानिक एवं दर्शनशास्त्री; 8. प्रभातकुमार मुखर्जी, उपन्यासकार तथा लघुकथा लेखक; 9. द्विजेंद्रलाल राय, कवि तथा नाटककार; 10. क्षीरोदचंद्र विद्याविनोद, लगभग 50 नाटकों के प्रणेता; 11. राखालदास वंद्योपाध्याय, इतिहासकार और ऐतिहासिक उपन्यासों के लेखक, 12. रामानंद चटर्जी, सुप्रसिद्ध पत्रकार जिन्होंने 40 वर्ष तक माडर्न रिव्यू तथा बँगला प्रवासी का संपादन किया; 13. जलधर सेन, उपन्यासलेखक तथा पत्रकार; 14. श्रीमति निरुपमा देवी तथा 15. श्रीमति अनुरूपा देवी, सामाजिक उपन्यासों की लेखिका। आधुनिक बँगला के सर्वप्रसिद्ध उपन्यासकार शरच्चंद्र चटर्जी (1876-1938) माने जाते हैं। सरल और सुंदर भाषा में लिखे गए इनके कुछ उपन्यास ये हैं - श्रीकांत, गृहदाह, पल्ली समाज, देना पावना, देवदास, चंद्रनाथ, चरित्रहीन, शेष प्रश्न आदि। यद्यपि समस्त बँगाल प्रदेश में परिनिष्ठ बँगला का ही साहित्य में विशेष प्रयोग होता है फिर भी बहुत से ग्रंथ कलकत्ता तथा आस पास की बोलचाल की भाषा में लिखे गए हैं तथा लिखे जा रहे हैं। उपन्यासों में रंगमंच पर तथा रेडियो और सिनेमा में उसका प्रयोग बहुलता से होता है। पिछले 30-35 वर्ष में, रवींद्रयुग की प्रधानता होते हुए भी, कितने ही युवक लेखकों ने नग्न यथार्थवाद के पथ पर चलने का प्रयत्न किया, यद्यपि इसमें अब यथेष्ट शिथिलता आ गई है। इसके बाद कुछ लेखकों में समाजवाद तथा साम्यवाद (कम्यूनिज्म) की भी प्रवृत्ति देख पड़ी। इसी तरह अंग्रेजी तथा रूसी साहित्य का भी बहुत कुछ प्रभाव बँगला लेखकों पर पड़ा। किंतु वर्तमान बँगला साहित्य में कथासाहित्य की ही विशेष प्रधानता है, जिसका लक्ष्य मानव जीवन और मानव स्वभाव का सम्यग् रूप से चित्रण करना ही है। कितने ही लेखक रवींद्र तथा शरद् बाबू की परंपरा पर चलने का प्रयत्न कर रहे हैं। कुछ के नाम ये हैं - (कवियों में) जतींद्रमोहन बागची, करुणानिधान बंद्योपाध्याय, कुमुदरंजन मलिक, कालिदास राय, मोहितलाल मजूमदार, श्रीमति राधारानी देवी, अमिय चक्रवर्ती प्रेगेंद्र मित्र, सुधींद्रनाथ दत्त, विमलचंद्र घोष, विष्णु दे, इत्यादि। गद्यलेखकों में इनके नाम लिए जा सकते हैं- ताराशंकर बैनर्जी, विभूतिभूषण बैनर्जी (पथेर पांचाली, आरण्यक के लेखक जिन्होंने बंगाल के ग्राम्य जीवन का चित्रण किया है), राजशेखर वसु (हास्य कथालेखक), आनंदशंकर राय, डॉ॰ बलाईचाँद मुखर्जी, सतीनाथ भादुड़ी, मानिक बैनर्जी, शैलजानं मुखर्जी, प्रथमनाथ वसु, नरेंद्र मित्र, गौरीशंकर भट्टाचार्य, समरेश वसु, वाज़िद अली, बुद्धदेव, काजी अब्दुल वदूद, नरेंद्रदेव, डॉ॰ सुकुमार सेन, गोपाल हालदार, श्रीमति शांतादेवी, सीतादेवी, अवधूत, इत्यादि। यहाँ श्री अवनींद्रनाथ ठाकुर (1871-1951) का भी उल्लेख कर देना चाहिए। उन्होंने कितनी ही पुस्तकें बालकों की दृष्टि से लिखीं और उनकी चित्रसज्जा स्वयं प्रस्तुत की। ये पुस्तकें कल्पनात्मक साहित्य के अन्य प्रेमियों के लिए भी अत्यंत रोचक हैं। उन्होंने कुछ छोटे-छोटे नाटक भी लिखे और कला पर कुछ गंभीर निबंध भी प्रकाशित किए। इसी तरह योगी अरविंद घोष का भी नाम यहाँ लिया जाना चाहिए जिनकी महत्वपूर्ण रचनाओं से बँगला साहित्य की श्रीवृद्धि में सहायता मिली। यद्यपि विभाजन के पूर्व कुछ मुसलिम राजनीतिज्ञों की राय थी कि बँगला में मुसलिम भावनाओं से प्रेरित स्वतंत्र मुसलिम साहित्य का विकास होना चाहिए किंतु श्रेष्ठ मुसलिम लेखकों ने भाषा में इस तरह के पार्थक्य की कभी कल्पना नहीं की, भले ही कुछ लेखकों ने अपनी कृतियों में हिंदुओं की अपेक्षा अधिक अरबी-फारसी शब्दों का प्रयोग करना शुरू कर दिया। पुराने मुसलिम कवियों में कैकोवाद अधिक प्रसिद्ध है और उपन्यासलेखकों में मशरफ हुसेन का नाम लिया जा सकता है जिनके जंगनामा की तर्ज पर लिखित "विषाद सिंधु" के एक दर्जन से अधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। शिक्षित मुसलिम समाज में कितने ही लेखक उपन्यास, कहानी, आलोचना तथा निबंध लिखने में ख्याति प्राप्त कर रहे हैं। उपन्यासकार काज़ी अब्दुल वदूद का नाम ऊपर लिया जा चुका है। उन्होंने रवींद्र साहित्य पर विवेचनात्मक पुस्तक लिखने के बाद गेटे पर भी एक ग्रंथ दो खंडों में प्रकाशित किया। केंद्रीय सरकार के पूर्वकालीन वैज्ञानिक अनुसंधान मंत्री हुमायूँ कबीर बँगला के प्रतिभावान् कवि तथा अच्छे गद्यलेखक हैं। कुछ अन्य मुसलिम लेखकों के नाम ये हैं - (कवि) गुलाम मुस्तफा, अब्दुल कादिर, बंदे अली, फारुख अहमद, एहसान हवीब आदि; (गद्यलेखक) डॉ॰ मुहम्मद शहीदुल्ला, अवू सैयिद अयूव, मुताहर हुसेन चौधरी, श्रीमति शमसुन नहर, अबुल मंसूर अहमद, अबुल फ़जल, महबूबुल आलम। विभाजन के बाद यद्यपि पाकिस्तान सरकार ने प्रयत्न किया कि पूर्वी बंगाल के मुसलमान अपनी भाषा अरबी लिपि में लिखने लगें, पर इसमें सफलता नहीं मिली। मुसलिम छात्रों तथा अन्य लोगों ने इस प्रयत्न का तथा बंगालियों पर उर्दू लादने का जोरदार विरोध किया और बंगलादेश का उदय हुआ। तीस के दशक में जो कविगण आये वे बांग्ला कविता की जगत में पश्चिमी प्रभाव को पनपने का अवसर दिया और रबिन्द्रनाथ के बाद के कविता को एक नयी दिशा दी। उनमें प्रधान थे बुद्धदेब बसु, सुधीन्दृनाथ दत्त, विष्णु दे, जीवनानंद दास प्रमुख। चालिस के दशक में बामपंन्थी कवियों का बोलबला रहा जिसमें प्रधान थे बीरेन्द्रनाथ चट्टोपध्याय, सुभाष मुखोपाध्याय, कृष्ण धर प्रमुख। पचास के दशक से पत्रिका-केन्द्रित कवियों का आबिर्भाव हुया, जैसे कि शतभिषा, कृत्तिबास इत्यादि। शतभिषा के आलोक सरकार्, अलोक्रंजन दाशगुप्ता प्रमुखों ने नाम कमाये, जबकि कृत्तिबास के सुनील गंगोपाध्याय, शरतकुमार मुखोपाध्याय, तारापदो राय, समरेन्द्र सेनगुप्ता नाम किये। साठ के दशक में शुरु हुये अंदोलनसमूह जो कविता का चरित्र हि बदल डाला। आंदलनों में प्रधान था भुखी पीढी (हंगरी जेनरेशन) जिसके कवि-लेखकों पर बहुत सारे आरोप लगाये गये। भुखी पीढी के सदस्यों ने समाज को ही बदलने का ऐलान कर डाला। उनलोगों के लेखनप्रक्रिया से बंगालि समाज भी खफा हो गये थे। सदस्यों के विरुद्ध मुकदमें दायर हुये एवम आखिरकार मलय रायचौधुरीको उनके कविताके चलते कारावास का दण्ड दिया गया था। विषय बंगाल का इतिहास · आदिधर्म · ब्रिटिश राज · बांग्ला साहित्य · बांला कविता · बांग्ला संगीत · ब्रह्म समाज · इयं बेंगाल · ब्रिटिश इन्डियन एसोसिएशन · स्वदेशी आन्दोलन · सत्याग्रह · तत्त्वबोधिधिनी पत्रिका · ठाकुर परिवार · रवीन्द्र संगीत · रवीन्द्र नृत्यनाट्य · शान्ति निकेतन · बंगीय साहित्य परिषद · संवाद प्रभाकर संस्थाएँ आनन्दमोहन कलेज · एशिय़ाटिक सोसाइटि · बङ्ग महिला बिद्यालय़ · बङ्गबासी कलेज · बेथुन कलेज · क्यालकाटा सिभिल इञ्जिनिय़ारिं कलेज · क्यालकाटा माद्रासा कलेज · कलकाता मेडिक्याल कलेज ओ हासपाताल · डाफ कलेज · फोर्ट उइलिय़ाम कलेज · फ्रि चार्च इनस्टिटिउशन · जेनारेल अ्यासेम्बिज इनस्टिटिउशन · हिन्दु कलेज · हिन्दु महिला बिद्यालय़ · हिन्दु थिय़ेटार · इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टिवेशन ऑफ साइंस · भारतीय सांख्यिकी संस्थान · बंगीय जातीय शिक्षा परिषद · ओरिएन्टल सेमिनारी · प्रेसिडेंसी कॉलेज · रिपन कॉलेज · संस्कृत कॉलेज · राममोहन कॉलेज · श्रीरामपुर कॉलेज · स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन · स्काटिश चर्च कॉलेज · विद्यासागर कॉलेज · विश्वभारती विश्वविद्यालय · कोलकाता विश्वविद्यालय · ढाका विश्वविद्यालय व्यक्तित्व अरविन्द घोष · राजनारायण बसु · बेथुन · बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय · शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय · अक्षयकुमार दत्त · हेनरी लुई विवियन डिरोजिओ · माइकल मधुसूदन दत्त · रमेशचन्द्र दत्त · द्बारकानाथ गंगोपाध्याय · कादम्बिनी गंगोपाध्याय · मनमोहन घोष · रामगोपाल घोष · अघोरनाथ गुप्त · काजी नजरुल इस्लाम · हरिश्चन्द्र मुखोपाध्याय़ · सुबोधचन्द्र मलिक · शम्भुनाथ पण्डित · रामकृष्ण परमहंस · गौरगोविन्द राय · राममोहन राय · अक्षयचन्द्र सरकार · महेन्द्रलाल सरकार · ब्रजेन्द्रनाथ शील · गिरीशचन्द्र सेन · केशवचन्द्र सेन · हरप्रसाद शास्त्री  · देवेन्द्रनाथ ठाकुर · रवीन्द्रनाथ ठाकुर · सत्येन्द्रनाथ ठाकुर · ब्रह्मबान्धव उपाध्याय · रामचन्द्र विद्यावागीश · द्बारकानाथ विद्याभूषण · ईश्बरचन्द्र विद्यासागर · स्वामी विवेकानन्द · द्बिजेन्द्रनाथ ठाकुर · स्वर्णकुमारी देवी · प्रसन्नकुमार ठाकुर · रमानाथ ठाकुर · ज्ञानेन्द्रमोहन ठाकुर · मोहितलाल मजुमदार सती (रोकथाम) अधिनियम, 1987 राजस्थान सरकार द्वारा १९८७ में कानून बनाया। १९८८ में भारत सरकार ने इसे संघीय कानून में शामिल किया। यह कानून सती प्रथा की रोकथाम के लिए बनाया गया जिसमें जीवित विधवाओं को जिन्दा जला दिया जाता था।[1] साँचा:Use Indian English साँचा:Infobox US Navy The Chief of the Naval Staff is the commander and typically the highest-ranking officer in the Indian Navy. The position is abbreviated CNS in Indian Navy cables and communication. The rank associated with the position is usually that of Admiral. The current Chief of the Naval Staff is Admiral D K Joshi, who took office on 31 अगस्त 2012.[1] replaced Admiral Nirmal Kumar Verma on 31 अगस्त 2012.[2] Taking moral responsibility for the accidents and incidents which have taken place during the past few months, the Chief of Naval Staff Admiral D.K. Joshi on 26-02-2014 resigned from the post of Navy Chief. Vice Chief of Naval Staff Vice Admiral R.K. Dhowan should take over as the Acting Chief till a regular Chief is appointed.[3] The office the Chief of the Naval Staff was created by The Commanders-In-Chief (Change in Designation) Act of the Indian Parliament in 1955, replacing the erstwhile office of the Commander-in-Chief, Indian Navy.[4] The office is based at South Block in Raisina Hill, Old Kondli. Appointments to the office are made by the President of India. The Chief of the Naval Staff generally reaches superannuation upon serving three years or at the age of 62, whichever is earlier. भारत की स्वतंत्रता के बाद से इस पद को सुशोभित करने वाले महानुभावों की सूची इस प्रकार है।[5] (**Seconded from the Royal Navy) चार्ल्स पिज़ी,1955  · स्टीफन कार्लिल, 1955-58  · राम दास Katari, 1958-62  · भास्कर सोमन, 1962-66  · आधार कुमार चटर्जी, 1966-70  · सरदारीलाल नंदा, 1970-73  · सुरेन्द्रनाथ कोहली, 1973-76  · Jal Cursetji, 1976-79  · रोनाल्ड परेरा, 1979-82  · ऑस्कर डॉसन, 1982-84 · आर एच टहिल्यानी, 1984-87 · जयंत नाडकर्णी, 1987-90  · लक्ष्मीनारायण रामदास, 1990-93  · विजय सिंह शेखावत, 1993-96  · विष्णु भागवत, 1996-98  · सुशील कुमार, 1998-2001  · माधवेंद्र सिंह,2001-04  · अरुण प्रकाश, 2004-06 · सुरीश मेहता, 2006-09  · निर्मल वर्मा, 2009-12  · देवेन्द्र कुमार जोशी, 2012-14  · रॉबिन धवन†,2014- किसी मनोचिकित्सक द्वारा किसी मानसिक रोगी के साथ सम्बन्धपूर्वक बातचीत एवं सलाह मनोचिकित्सा या मनश्चिकित्सा (Psychotherapy) कहलाती है। यह लोगों की व्यवहार सम्बन्धी विविध समस्याओं में बहुत उपयोगी होती है। मनोचिकित्सक कई तरह की तकनीकें प्रयोग करते हैं, जैसे- प्रायोगिक सम्बन्ध-निर्माण, संवाद, संचार तथा व्यवहार-परिवर्तन आदि। इनसे रोगी का मानसिक-स्वास्थ्य एवं सामूहिक-सम्बन्ध (group relationships) सुधरते हैं। डॉ॰ विक्टर फ्रैंकलिन ने गहन अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि पूरा मनोविज्ञान और मनोचिकित्सा की पद्धति जीवन की सार्थकता के विचार पर ही आधारित होती हैं। मनोचिकित्सा शास्त्र में किसी रोगी की बुनियादी दिक्कतों को समझने की कोशिश की जाती है। आधुनिक समाज में हम वास्तविक खुशियों से दूर होते जा रहे हैं। आधुनिकता का सही मतलब हम नहीं समझते हैं। जीवन के लिए क्या और कितना जरूरी है। क्या गैर-जरूरी है। आंख मूंद कर, तर्क किए बगैर हम चीजों का अनुसरण करने लग जाते हैं। जीवन का लुत्फ उठाना और पीड़ा की उपेक्षा करना ही केवल मनुष्य को प्रेरित नहीं करती है। मनोचिकित्सा या एक मनोचिकित्सक के साथ व्यक्तिगत परामर्श, एक साभिप्राय अंतर्वैयक्तिक सम्बन्ध होता है, जिसका प्रयोग प्रशिक्षित मनोचिकित्सक एक ग्राहक या रोगी की जीवनयापन संबंधी समस्याओं के निवारण में सहायता के लिए करते हैं। इसका उद्देश्य किसी व्यक्ति में अपने कल्याण के प्रति भावना को बढाना होता है। मनोचिकित्सक अनुभवजनित सम्बन्ध निर्माण, संवाद, संचार और व्यवहार पर आधारित तकनीकों की एक विस्तृत श्रंखला का प्रयोग करते हैं, इन तकनीकों की संरचना ग्राहक या रोगी के मानसिक स्वास्थ अथवा समूह के साथ उसके व्यवहार में सुधार करने वाली होती है, (जैसे परिवार में रोगी का व्यवहार). मनोचिकित्सा भिन्न प्रकार की योग्यताओं से युक्त चिकित्सकों द्वारा अभ्यास में लायी जा सकती है, जिसमे मनोरोग चिकित्सा, नैदानिक मनोविज्ञान, सलाहात्मक मनोविज्ञान, मानसिक स्वास्थ संबंधी परामर्श, नैदानिक या मनोरोग संबंधी सामाजिक कार्य, विवाह और परिवार संबंधी मनोचिकित्सा, पुनर्सुधार परामर्श, संगीत मनोचिकित्सा, व्यवसाय संबंधी मनोचिकित्सा, मनोरोग संबंधी परिचर्या, मनोविश्लेषण और अन्य सम्मिलित हैं। यह अधिकार क्षेत्र के आधार पर वैध रूप से नियमित, ऐच्छिक रूप से नियमित या अनियमित हो सकता है। जर्मनी में, मनोचिकित्सा (PSYchTHG, 1998) मनोचिकित्सा के अभ्यास को मनोविज्ञान और मनोरोग चिकित्सा[1] तक ही सिमित कर देता है; इटली में, द औसुकिनी एक्ट (नंबर. 56/1989, लेख. 3) मनोचिकित्सा के अभ्यास को मनोविज्ञान यां उपचार से स्नातक, जोकि मनोचिकित्सा में राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त किसी प्रशिक्षण केंद्र से एक चार वर्षीय परास्नातक पाठ्यक्रम कर चुके हों;[2] फर्न्सीसी कानून, राष्ट्रीय रजिस्टर में अंकित व्यवसायिओं द्वारा शीर्षक "साइकोथेरेपी" के प्रयोग को अवोरोधित करता है,[3] ऑस्ट्रिया में एक कानून है जो अनेकों बहुशैक्षिक माध्यमों को मान्यता देता है; अन्य यूरोपीय देशों ने अब तक मनोचिकित्सा को नियमित नहीं किया है। यूनाइटेड किंगडम में, मनोचिकित्सा स्वेच्छा से विनियमित है। मनोचिकित्सकों और परामर्शदाताओं की राष्ट्रीय सूची की देखरेख तीन प्रमुख समुच्चयिक हस्तियों द्वारा होगी: द युनाइटेड किंगडम काउंसिल फॉर साइकोथेरेपी (UKCP), द ब्रिटिश एसोसियेशन फॉर काउंसिलिंग एंड साइकोथेरेपी (BACP) और द ब्रिटिश साइकोएनालिटिकल काउंसिल (BPC- जिसका पूर्व नाम ब्रिटिश साइकोथेरेपिस्ट कन्फ़ेडेरेशन).[4] कई छोटे व्यवसायिक व्यक्ति और संसथान, जैसे की द एसोसियेशन ऑफ़ चाइल्डसाइकोथेरेपिस्ट (ACP)[5] और द ब्रिटिश एसोशियेशन ऑफ़ साइकोथेरेपिस्त (BAP)[6]. यूके की हेल्थ प्रोफेशनल काउंसिल ने हाल ही में मनोचिकित्सकों और परामर्शदाताओं के संभावित संवैधानिक नियमों पर विचार विमर्श किया है। एचपीसी एक आधिकारिक राज्य नियंत्रनकर्ता है जो वर्तमान में लगभग 15 प्रकार के व्यवसायों को नियंत्रित करती है। साइकोथेरेपी शब्द की व्युत्पत्ति, प्राचीन ग्रीक शब्द साइकी से हुयी है, जिसका अर्थ होता है श्वास या आत्मा और थेरैपिया या थेरेपिउईन का अर्थ होता है, परिचर्या करना या उपचार करना.[7] इसने प्रथम प्रयोग का उल्लेख 1890 के आसपास है।[8] इसे एक विशिष्ट सिद्धांत या प्रतिमान पर आधारित माध्यम के प्रयोग द्वारा चिंता से आराम या, एक व्यक्ति में किसी दूसरे के द्वारा विकलान्गता के रूप में व्यक्त किया जा सकता है और इस उपचार का संपादन करने वाले प्रतिनिधि के पास इसके निष्पादन के लिए किसी प्रकार का प्रशिक्षण भी होता है। अंत के दोनों बिंदु ही मनोचिकित्सा को परामर्श और देखरेख के अन्य प्रारूपों से अलग करते हैं।[9] मनोचिकित्सा के अधिकांश प्रारूपों में बातचीत का प्रयोग होता है। कुछ संचार के तमाम अन्य माध्यमों का प्रयोग करते हैं जैसे, लिखित शब्द, कलात्मक कार्य, ड्रामा, कथा वर्णन या संगीत. माता-पिता और उनके बच्चों के साथ मनोचिकित्सा में प्रायः नाटक, ड्रामा (अर्थात भूमिका निभाना) और कला करना आदि शामिल होता है जोकि पारस्परिक क्रिया की अमौखिक और विस्थापित विधि से सह-निर्मित वर्णन के साथ किया जाता है।[10] मनोचिकित्सा एक कुशल चिकित्सक और उसके रोगी (ग्राहक) के मध्य एक नियोजित समागम के भीतर की जाती है। उद्देश्य मूलक सैद्धांतिक मनोचिकित्सा की शुरुआत 19 वीं शताब्दी में मनोविश्लेषण से हुयी; और तब ही से, अनेकों अन्य माध्यम विकसित हो रहे हैं और लगातार बन रहे हैं। इस चिकित्सा का उपयोग अनेकों प्रकार की रोग विषयक आधारों पर निदानयोग्य और/या अस्तित्वपरक संकट के विशिष्ट या अविशिष्ट प्रत्यक्षीकरण की प्रतिक्रिया के रूप में किया जाता है। रोजमर्रा की समस्याओं के इलाज को साधारणतया परामर्श (मूल रूप से कार्ल रोजर द्वारा अंगीकृत विभेद) के नाम से जाना जाता है। हालांकि, परामर्श शब्द का प्रयोग कभी-कभी "मनोचिकित्सा" के लिए भी किया जाता है। एक और जहां कुछ मनोचिकित्सकीय मध्यवर्तन रोगी का चिकित्सकीय प्रतिदर्श के आधार पर उपचार करने के लिए बनाये गए हैं, वहीँ दूसरी और कई मनोचिकित्सकीय माध्यम "बीमारी/इलाज" के मात्र लक्षण आधारित माध्यम का ही अनुसरण नहीं करते. कुछ चिकित्सक, जैसे कि मानववादी चिकित्सक, स्वयं को अधिकांशतः सुसाध्यक/सहायक की भूमिका में अधिक देखते हैं। मनोचिकित्सा के दौरान प्रायः संवेदनशील और अधिक निजी विषयों पर चर्चा की जाती है, सामान्य रूप से चिकित्सक से ऐसी आशा की जाती है और इसके लिए वह कानूनी रूप से बाध्य भी होता है कि, वह अपने ग्राहक या रोगी की गोपनीयता का सम्मान करेगा. गोपनीयता की अत्यावश्यक महत्ता मनोचिकित्सकीय संस्थाओं की नियामक आचार संहिता में भी लिखित रूप से प्रतिष्ठित है। मनोचिकित्सा की अनेकों प्रमुख व्यापक प्रणालियाँ हैं: इस समय अनेकों प्रकार के मनोचिकित्सकीय माध्यम या मत प्रचलन में हैं। 1980 तक 250[11] से भी अधिक माध्यम थे; 1996 तक यह 450[12] से भी अधिक हो गए। सैद्धांतिक पृष्ठभूमि की व्यापक विविधता के साथ नए और संकर माध्यमों का विकास जारी है। अनेकों चिकित्सक अपने कार्य में कई शैलियों का प्रयोग करते हैं और रोगी (ग्राहक) की आवश्यकता के अनुसार अपनी शैली बदलते रहते हैं। एक अनौपचारिक मायने में मनोचिकित्सा के लिए उम्र के माध्यम से अभ्यास कर दिया गया है कहा जा सकता है, व्यक्तियों के रूप में दूसरों से मनोवैज्ञानिक सलाह और आश्वासन प्राप्त किया। अनौपचारिक रूप से, यह कहा जा सकता है कि मनोचिकित्सा का अभ्यास कई युगों से चल रहा है, जैसा कि लोग अन्य लोगों के माध्यम से मनोवैज्ञानिक परामर्श और आशवासन प्राप्त करते आये हैं। दर्शन का हेलेनवादी मत और चिकत्सा को मानने वाले दार्शनिक और चिकित्सक लगभग चौथी शताब्दी ईपू और चौथी शताब्दी ईसा पश्चात से प्राचीन ग्रीक और रोमवासियों के बीच इस मनोचिकित्सा का अभ्यास करते आये हैं।[13] ग्रीक चिकित्सक हिप्पोक्रेट (460-377 BC) मानसिक अस्वस्थता को एक ऐसी घटना के रूप में देखता था जिसका अध्ययन और उपचार प्रयोगसिद्ध आधार पर किया जा सकता है।[14] उद्देश्यपूर्ण, सिद्धांत आधारित मनोचिकित्सा का सर्वप्रथम विकास संभवतया मध्य पूर्व में नौवीं शताब्दी में पर्शिया के चिकित्सक और मनोवैज्ञानिक विचारक हेजेस (AD 852-932) द्वारा हुआ था, जो एक समय में बगदाद अस्पताल के प्रमुख चिकित्सक थे।[15] उस समय यूरोप में, गंभीर मानसिक विकार को सामान्यतया पैशाचिक या चिकित्सीय अवस्था के रूप में देखा ह\जाता था जिसमे दंड या कारावास की आवश्यकता होती थी, अट्ठारहवीं शताब्दी में नैतिक उपचार शैली के आगमन से पूर्व तक यही स्थिति थी।[कृपया उद्धरण जोड़ें] इसने मनोवैज्ञानिक हस्तक्षेप की सम्भावना की ओर ध्यान आकर्षित किया - जिसमे तर्क, नैतिक प्रोत्साहन और सामुदायिक क्रियाएं - "उन्मादी" का पुनर्सुधार, शामिल था। संभवतः मनोविश्लेषण मनोचिकित्सा का प्रथम विशिष्ट मत था, जिसका विकास सिगमंड फ्रायड और अन्य ने 1900 की शुरुआत में किया था। एक स्नायुविज्ञानी के रूप में प्रशिक्षित फ्रायड ने उन समस्याओं की और ध्यान केंद्रित करना शुरू किया जिनके लिए कोई ज्ञेय चेतन आधार नहीं था और यह सिद्धान्तीकरण किया कि उनकी इन समस्याओं के पीछे मनोवैज्ञानिक कारण हैं जो अवचेतन मस्तिष्क और बचपन के अनुभवों से पैदा हुए हैं। स्वप्न विवेचना, मुक्त सम्बन्ध, आईडी, स्व और स्व की श्रेष्ठता का रूपांतरण और विश्लेषण, आदि तकनीकों का विकास किया गया। कई सिद्धांतवादी, जिसमे एन्ना फ्रायड, एल्फ्रेड एडलर, कार्ल जंग, केरन हौर्नी, ओट्टो रैंक, एरिक एरिक्सन, मिलैनी क्लेन और हेंज कोहुत शामिल थे, ने फ्रायड के मौलिक विचारों पर सिद्धांतों का निर्माण किया और कई बार उनसे भिन्न अपनी स्वयं की मनोचिकत्सा की विभेदित प्रणालियों का निर्माण किया। इन सभी को बाद में मनोवेगीय की श्रेणी में रखा गया था, जिसका अर्थ किसी भी उस अवस्था से है जिसमे मन का चेतन/अवचेतन प्रभाव बाह्य सम्बन्धों और स्वयं पर पड़े. यह सत्र कई सैकड़ों वर्षों तक चला. 1920 में व्यवहारवाद की शुरुआत हुयी और एक चिकित्सा के रूप में व्यवहार रूपांतर 1950 और 1960 में प्रसिद्द हो गया। प्रमुख योगदान करने वालों में साउथ अफ्रीका में जोसेफ वोल्प, ब्रिटेन में एम.बी.शिप्रियो और हैंस सेंक और संयुक्त राज्य में जोन बी. वाटसन और बी.एफ. स्किनर थे। व्यवहार संबंधी चिकित्सा की शैली औपरेंट कंडीशनिंग, क्लासिकल कंडीशनिंग और सोशल लर्निंग के सिद्धांतों पर आधारित थी जिससे सुस्पष्ट लक्षणों में चिकत्सकीय परिवर्तन लाया जा सके. इस शैली का प्रयोग भीतियों और अन्य विकारों के लिए प्रचलित हो गया। कुछ चिकित्सकीय शैलियां यूरोपीय अस्तित्वाद के दर्शन के मत से विकसित हुईं. यह मुख्यतः किसी व्यक्ति में आजीवन अर्थपूर्णता और उद्देश्य के विकास और संरक्षण के प्रति केन्द्रित रहती है, इस क्षेत्र में यू.एस. से प्रमुख योगदानकर्ता (जैसे., इरविन एलोम, रोलो मे) और यूरोप से (विक्टर फ्रैंकल, ल्युडविग बिन्स्वेंगर, मेड्रड बॉस, आर.डी लेंग, एम्मी वें ड्युरजें) ने ऐसी चिकित्सा पद्धति के निर्माण का प्रयास किया जोकि मानव के स्वचेतना की मूलभूत उदासीनता से जनित सामान्य 'जीवन संकट' के प्रति संवेदनशील हो, जोकि पहले अस्तित्ववादी दर्शनशास्त्रियों (जैसे., सोरेन कियार्कगार्ड, जीन-पॉल सरट्रे, गैबरियल मार्सेल, मार्टिन हेडेगर, फ्रेडरिक नित्ज़ेक) के जटिल लेख के द्वारा ही अभिगम्य थी। इस प्रकार रोगी-चिकित्सक सम्बन्ध की विशेषता चिकित्सकीय जांच के लिए एक माध्यम बनाती है। मनोचिकत्सा में इसीसे सम्बद्ध मत का प्रारंभ 1950 में कार्ल रॉजर्स के साथ हुआ। अस्तित्ववाद और अब्राहम मैस्लो के कार्यों एवम उनके मानव आवश्यकताओं के अनुक्रम के आधार पर, रॉजर्स, व्यक्ति- केन्द्रित मनोचिकित्सा को मुख्यधारा केंद्र में लेकर आये. रॉजर्स की प्राथमिक आवश्यकता यह है कि रोगी (ग्राहक) को अपने परामर्शदाता या चिकित्सक द्वारा तीन मूलभूत 'कंडीशंस' प्राप्त होनी चाहिए: अन्कंडीश्नल पॉजिटिव रिगार्ड, जिसका वर्णन कभी-कभी व्यक्ति को 'पुरस्कृत' करने या व्यक्ति विशेष की मानवता का सम्मान करने के रूप में किया जाता है, कौन्ग्रुएंस (सर्वान्गसमता) [प्रमाणिकता/वास्तविकता/पारदर्शिता] और तदानुभूतिक सहमति. 'कोर कंडीशंस' के प्रयोग का उद्देश्य रोगों की मनोवैज्ञानिक स्वस्थता को प्रोत्साहित करने में सहायक, एक गैर-निर्देशात्मक सम्बन्ध के अंतर्गत चिकित्सकीय परिवर्तनों की सहायता करना है। इस प्रकार की पारस्परिक क्रिया रोगी को स्वयं के पूर्ण अनुभव व् स्वयं को पूर्ण रूप से व्यक्त करने में समर्थ करती है। अन्य लोगों ने भी कई पद्धतियों का विकास किया, जैसे फ्रिट्ज़ और लारा पर्ल्स ने जेस्टाल्ट चिकित्सा का निर्माण किया और नौन वायलेंट कम्युनिकेशन के संस्थापक मार्शल रोजेनबर्ग व् ट्रानजेक्शनल अनालिसिस के संस्थापक एरिक बर्नी ने भी इसमें योगदान दिया. बाद में मनोचिकित्सा के यह क्षेत्र आज के मानववादी मनोचिकित्सा के रूप में बदल गए। स्व सहायता समूह और किताबें व्यापक स्तर पर प्रचलित हो गयीं. 1950 के दशक दौरान, एल्बर्ट एलिस ने रेशनल इमोटिव बेहवियर थेरेपी (REBT) का निर्माण किया। कुछ वर्षों बाद, मनोचिकित्सक एरन टी.बेक ने मनोचिकत्सा का एक प्रारूप विक्सित किया जिसे संज्ञानात्मक चिकित्सा कहते हैं। इन दोनों में ही साधारणतया तुलनात्मक रूप से लघु, संरचानात्नक और वर्तमान केन्द्रित चिकित्सा शामिल थी जिसका उद्देश्य व्यक्ति के विशवास, मूल्याङ्कन और प्रतिक्रिया रीति को पहचानना और बदलना था, यह अधिक स्थायी और निरीक्षण आधारित मनो-वेगीय या मानववादी चिकित्सा की पद्धति के विपरीत थी। संज्ञानात्मक और व्यवहारवादी चिकित्सा पद्धति संयोजित कर दी गयीं और समुच्चयिक शब्दावली और मुख्य बिंदु संज्ञानात्मक व्यवहारवादी चिकित्सा (CBT) के अंतर्गत वर्गबद्ध कर दी गयीं. सीबीटी के भीतर कई पद्धतियां सक्रिय/निर्देश सहयोगी अनुभववाद और मानचित्रण की ओर उन्मुख थी, रोगी के मूलभूत विश्वासों व् दुष्क्रियाशील आतंरिक आरेख का मूल्याङ्कन और सुधार इनका कार्य है। इन पद्धतियों (शैलियीं) को अनेकों विकारों के प्राथमिक उपचार के रूप में व्यापक स्वीकृति प्राप्त हुई. संज्ञानात्मक और व्यवहारवादी चिकित्सा की एक "तीसरी लहर" विकसित हुई, जिसमे अक्सेप्टेंस (स्वीकृति) और कमिटमेंट (प्रतिबद्धता) के सिद्धांत और डायालेक्टिकल बिहेवियर सिद्धांत जिसने इस सिद्धांत का विस्तार अन्य विकारों तक किया और/या इअमे नए घटक और सचेतन अभ्यासों को जोड़ा.समाधान केन्द्रित चिकित्सा और सर्वांगी प्रशिक्षण की परामर्श पद्धतियाँ विकसित हो गयीं. उत्तराधुनिक मनोचिकित्सा जैसे की नैरेटिव चिकिसा और कोहेरेंस चिकित्सा ने मानसिक स्वस्थ और अस्वस्थता की परिभाषा को अधिरोपित नहीं किया, अपितु चिकित्सा के उद्देश्य को इस रूप में देखा कि जिससे रोगी और चिकित्सक समाज के सन्दर्भ में कुछ निर्माण (योगदान) कर सकें. सर्वांगी चिकित्सा और परावैयाक्तिक मनोविज्ञान का भी विकास हुआ, जो मुख्यतः परिवार और समूह की गतिशीलता पर केन्द्रित है और मानवीय अनुभवों के आत्मिक पक्ष पर अधिक ध्यान देती है। अंतिम तीन दशकों में अन्य महत्त्वपूर्ण अभिसंस्करण भी विकसित हुए, जिसमे फेमिनिस्ट थेरेपी, ब्रीफ थेरेपी, सोमेटिक थेरेपी, एक्सप्रेसिव थेरेपी, व्यवहारिक सकारात्मक मनोविज्ञान और ह्युमन गिवेंस सिद्धांत शामिल हैं, जोकि पूर्वघतित घटनाओं से सर्वोत्तम पर विकसित ही रहे हैं।[16] 2006 में यू.एस के 2,500 से भी अधिक चिकित्सकों पर किये गए सर्वेक्षण में पिछले 25 वर्षों में सर्वाधिक प्रयोग की जाने वाली चिकित्सा पद्धति और 10 सर्वाधिक प्रभावशील चिकित्सकों के नाम का खुलासा हुआ।[17] रोगी को अपने सर्वोत्तम सामर्थ्य की प्राप्ति या जीवन की समस्याओं से बेहतर संघर्ष के लिए, मनोचिकित्सा को एक मनोचिकित्सक द्वारा रोगी की सहायता के पारस्परिक आमंत्रण के रूप में देखा जा सकता है। साधारणतया मनोचिकित्सकों को अपना समय व् कौशल लगाने के लिए किसी न किसी रूप में बदले में पारिश्रमिक मिलता है। यह एक तरीका है जिससे इस सम्बन्ध को सहायता के परहितवादी प्रस्ताव से अलग किया जा सकता है। मनोचिकित्सकों व् परामर्शदाताओं को प्रायः एक चिकित्सकीय वातावरण का निर्माण करने की ज़रूरत होती है, जिसे फ्रेम यां ढांचा कहते हैं, इसकी विशेषता एक मुक्त किन्तु सुरक्षित माहौल है जो रोगी को खुलने में समर्थ करता है। रोगी जिस स्तर तक चिकित्सक से जुड़ा हुआ अनुभव करेगा, यह काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि चिकित्सक या परामर्शदाता किन पद्धतियों और माध्यमों का प्रयोग कर रहा है। मनोचिकत्सा में प्रायः जागरूकता बढाने वाली, स्व निरीक्षण, व्यवहार यां संज्ञान परिवर्तन और तदानुभूति एवम दूरदर्शिता को विकसित करने वाली तकनीकों का प्रयोग होता है। ऐच्छिक परिणाम की प्राप्ति से अन्य वैचारिक विकल्पों, भावनाओं और क्रिया को भी सहायता मिलती है, जिससे कल्याण की भावना में वृद्धि होती है और व्यक्तिपरक अशांति या चिंता का बेहतर प्रबंधन हो पाता है। संभवतः वास्तविकता के बोध में भी सुधार होता है। कष्टों पर दुःख व्यक्त करना बढ सकता है जिससे दीर्घकालिक अवसाद कम ही जायेगा. मनोचिकित्सा द्वारा उपचारों की प्रतिक्रिया में भी सुधार आ सकता है, जहाँ इन प्रकार के उपचारों की भी आवश्यकता पड़ती है वहां चिकित्सक और रोगी के बीच आमने- सामने, जोड़ों और पूर्ण परिवार सहित समुदाय चिकित्सा, में मनोचिकित्सा का प्रयोग किया जा सकता है। यह आमने-सामने (व्यक्ति स्तर पर), फोन के द्वारा, या, गैर-प्रचलित रूप से इंटरनेट के द्वारा की जा सकती है। इसकी समयावधि कुछ सप्ताह यां कई वर्ष हो सकती है। चिकित्सा के अंतर्गत नैदानिक मानसिक अस्वस्थता, यां निजी रिश्तों का प्रबंधन व् उनको बनाये रखना और निजी लक्ष्यों की प्राप्ति जैसी रोजमर्रा की समस्याओं के विशिष्ट पहलुओं पर विचार किया जा सकता है, बच्चों वाले परिवार में इस प्रकार की चिकित्सा के द्वारा बच्चों के विकास पर हितकर प्रभाव डाला जा सकता है जो आजीवन उनके साथ रहेगा और आने वली पीदियों में भी. बेहतर परवरिश इसका एक अप्रत्यक्ष परिणाम हो सकता है या इसे उद्देश्यपूर्ण तरीके से परवरिश की तकनीक के रूप में सीखा भी जा सकता है। इसके द्वारा तलाकों को रोका जा सकता है, या उन्हें कम दुखदायी बनाया जा सकता है। रोजमर्रा की समस्याओं का उपचार प्रायः परामर्श (कार्ल रॉजर्स द्वारा अंगीकृत एक विभेद) के नाम से जाना जाता है, लेकिन इस शब्द का प्रयोग कभी-कभी मनोचिकत्सा के लिए भी किया जाता है। चिकित्सकीय कौशल का प्रयोग व्यवसायिक और सामाजिक संस्थाओं के मानसिक स्वस्थता परामर्श के लिए किया जा सकता है, जिससे की उनकी दक्षता में सुधार आ सके और ग्राहक व् सहकर्मियों से सम्बंधित सहायता मिल सके. मनोचिकित्सक रोगी को रोड़ी द्वारा तय दिशा को स्वीकार करने या उसे बदलने हेतु रोगी पर दबाव बनाने और उसे प्रभावित करने के लिए तकनीकों की विस्तृत श्रंखला का प्रयोग करते हैं। यह व्यवहार परिवर्तन की योजना पर उनके विकल्पों की स्पष्ट सोच; अनुभाविक सम्बन्ध निर्माण; संवाद; संचार और अंगीकरण पर आधारित हो सकता है। इनमे से प्रत्येक की रचना रोगी या ग्राहक के मानसिक स्वास्थ के सुधार या सामूहिक सम्बन्ध (जैसे कि परिवार में) के सुधार के लिए होती है, मनोचिकित्सा के कई रूप सिर्फ मौखिक बातचीत का प्रयोग करते हैं, जबकि अन्य संचार के अन्य माध्यमों जैसे लिखित शब्द, कलात्मक कार्य, ड्रामा, कथा वर्णन या चिकित्सकीय स्पर्श का भी प्रयोग करते हैं। मनोचिकित्सा एक चिकित्सक व रोगी के मध्य संरचनात्मक समागम में होती है। क्यूंकि मनोचिकित्सा के दौरान प्रायः संवेदनशील विषयों पर चर्चा होती है, इसलिए चिकित्सकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने ग्राहक या रोगी की गोपनीयता का सम्मान करें और इसके लिए वह कानूनी रूप से बाध्य भी होते हैं। मनोचिकित्सक प्रायः प्रशिक्षित, प्रमाणिक और अनुज्ञापत्र धारक होते हैं और कार्यक्षेत्र की आवश्यकताओं के आधार पर भिन्न भिन्न प्रकार के प्रमाणीकरणों व अनुज्ञापत्र रखते हैं। मनोचिकित्सा का कार्य नैदानिक मनोचिकित्सक, परामर्श मनोचिकित्सक, सामाजिक कार्यकर्ता, परिवार-विवाह परामर्शदाता, वयस्क एवम बाल मनोचिकित्सक और अभिव्यक्तिपरक चिकित्सक, प्रशिक्षित परिचारिकाओं, मनोचिकित्सक, मनोविश्लेषक, मानसिक स्वास्थ परामर्शदाता, विद्यालयीय परामर्शदाता, या अन्य मानसिक स्वास्थ विषयों के पेशेवरों द्वारा किया जा सकता है। मनोचिकित्सकों के पास चिकित्सकीय योग्यता होती है और वह औसध विधि चकित्सा का भी प्रबंध कर सकते हैं। एक मनोचिकित्सक के प्राथमिक प्रशिक्षण में 'जैव-मनो-सामाजिक' प्रतिदर्श, प्रयोगात्मक मनोविज्ञान में चिकित्सकीय प्रशिक्षण और व्यवहारिक मनोचिकित्सा का प्रयोग होता है। मनोचिकित्सकीय प्रशिक्षण चिकित्सा विद्यालय में प्रारंभ होता है, पहले बीमार व्यक्तियों के साथ रोगी- चिकित्सक के सम्बन्ध के रूप में और बाद में विशेषज्ञों के लिए मनोचिकित्सकीय कार्यकाल में. केंद्र साधारणतया संकलक होता है किन्तु इसमें जैविक, सांस्कृतिक और सामाजिक पक्ष शामिल होते हैं। वह चिकित्सकीय प्रशिक्षण के आरम्भ से ही रोगियों को समझने में तीव्र होते हैं। मनोवैज्ञानिक विद्यालय में अपने शुरूआती वर्ष अधिकांशतः बौद्धिक प्रशिक्षण को प्राप्त करने में और मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों को सीखने में लगाते हैं जो, कुछ सीमा तक मनोवैज्ञानिक मूल्याङ्कन और अनुसंधान के लिए प्रयुक्त होते हैं और वह मनोचिकित्सा में गहन प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं लेकिन औपचरिक प्रशिक्षण के अंत में मनोवैज्ञानिकों को लोगों के साथ जो अनुभव प्राप्त होता है वह इसकी तुलना में कहीं अधिक होता है। चिकित्सा में परास्नातक छात्र आवासीय प्रशिक्षण में प्रवेश के समय भी शैक्षिक ज्ञान के मामले में मनोवैज्ञानिकों से पीछे रह जाते हैं। तमाम वर्षों के दौरान मनोवैज्ञानिकों को नैदानिक (यां रोग-विषयक) अनुभन प्राप्त होता है और चिकित्सा में परास्नातक (एमडी) आमतौर पर बौद्धिक स्टार पर सिधार करते हैं जिससे कि दोनों के मध्य प्रतिस्पर्धा में एक प्रकार से समानता आ जाती है। आज मनोविज्ञान में डाक्टरेट के लिए दो उपाधियां हैं, साइडी और पीएचडी. इन उपाधियों के लिए प्रशिक्षण एक ही जैसा है लेकिन साइडी अधिक नै दानिक है और पीएचडी अनुसंधान पर बल देती है और 'अधिक शैक्षिक' है। दोनों ही उपधियोंमे नैदानिक शिक्षा के घटक हैं, सामाजिक कार्यकर्ताओं को मनोवैज्ञानिक मूल्याङ्कन और, मनोचिकित्सा के तत्वों के अतिरिक्त रोगियों को समुदाय और संस्थागत संसाधनों से जोड़ने में विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है। विवाह-परिवार परामर्शदाता को संबंधों और पारिवारिक मुद्दों की क्रियात्मकता के अनुभव के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है। एक अनुज्ञापत्रधारक व्यवसायिक परामर्शदाता (LPC) के पास आमतौर पर कैरियर, मानसिक स्वास्थ, विद्यालय, या पुनर्सुधार परामर्श पर विशेष प्रशिक्षण पता है जिसमे मूल्याङ्कन और समीक्षा एवम साथ ही साथ मनोचिकित्सा भी सम्मिलित होती है। प्रशिक्षण कार्यक्रमों की विस्तृत श्रंखला में से अधिकांश बहुउद्द्यमी होते हैं, अर्थात, मनोचिकित्सक, मनोवैज्ञानिक, मानसिक स्वस्थ परिचारिकाएं और सामाजिक कार्यकर्ता, यह सभी एक ही प्रशिक्षण समूह में पाए जा सकते हैं। यह सभी उपाधियाँ आमतौर पर एक समूह के रूप में साथ में काम करती हैं, विशेषकर संस्थागत परिस्थितियों में. वह सभी जोकि मनोचिकित्सकीय कार्यों में विशेषज्ञता प्राप्त कर रहे हैं, उन्हें कई देशों में मूल उपाधि के बाद भी एक निरंतारात्मक शिक्षक कार्यक्रम की आवश्यकता होती है, या अपनी विशिष्ट उपाधि के साथ जुड़े कई प्रकार के प्रमाणीकरणों और मनोचिकित्सा में; मंडल प्रमाणीकरण' की आवश्यकता होती है। योग्यता को सुनिश्चित करने के लिए विशेष परीक्षाएं होती हैं या मनोवैगानिकों के साथ मंडल परीक्षाएं होती हैं। अनुभवी मनोचिकित्सकों के अभ्यासों में, चिकित्सा विशेष रूप से किसी एक विशुद्ध प्रकार की नहीं होती, अपितु कई विचार-पद्धतियों और दृष्टिकोणों के द्वारा पक्ष को निरुपित करती है।[18][19] मनोविश्लेषण का विकास 18वीं शताब्दी के अंत में सिगमंड फ्रायड द्वारा किया गया था। उनका यह सिद्धांत एक ऐसे मस्तिष्क की गतिशील क्रियात्मकता का अध्ययन करता है जिसके सम्बन्ध में यह मन जाता है कि उसके तीन हिस्से हैं: सुखवादी आईडी (जर्मन:दास एस, 'द इट"), विवेकशील स्व (दास इच, "द आइ") और नैतिक सर्वश्रेष्ठ स्व (दास युबेरिक, "द अबव-आइ"). चूँकि इनमे से अधिकांश गतिशीलातायें लोगों की जानकारी के बगैर घटित मानी जाती हैं, इसलिए फ्रायड का मनोविश्लेषण अनेकों तकनीकों द्वारा अवचेतन को भेदने का प्रयास करता है, जिसमे स्वप्न विवेचना और मुक्त सम्बन्ध भी शामिल हैं। फ्रायड ने यह मत बनाये रखा है कि अवचेतन मष्तिष्क की अवस्था गहन रूप से बचपन के अनुभवों द्वारा प्रभावित होती है। इसलिए, एक अत्यधिक बोझग्रस्त स्व द्वारा प्रयोग की गई रक्षात्मक प्रक्रिया से बरतने के अतिरिक्त, उनका सिद्धांत रोगी की युवावस्था के गहन भेदन के द्वारा असाधारण आसक्ति और अन्य मुद्दों को भी सामने रखता है। मनोचिकित्सकों, मनोवैज्ञानिकों, निजविकास सुकारक, व्यवसायिक चिकित्सक और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा अन्य मनोवेगीय सिद्धांत और तकनीक भी विकसित एवम प्रयोग किये गए हैं। समुदाय चिकित्सा के लिए भी तकनीक विकसित की गयी हैं। कार्य का उद्देश्य प्रायः व्यवहार होता है, कई शैलियों में भावनाओं और विचारों पर कार्य करने को अधिक महत्व दिया जाता है। मनोचिकित्सा के मनोवेगीय विचार-पद्धति, जो आज जुंग के सिद्धांत और साइकोड्रामा (psychodrama) तथा साथ ही साथ मनोविश्लेषिक विचार-पद्धति को भी सम्मिलित करती है, के बारे में यह विशेष रूप से सत्य है। जेसटाल्ट पद्धति मनोविश्लेषण का विस्तृत निरीक्षण है। अपने प्रारंभिक विकास के दौरान इसे इसके संस्थापकों फ्रेडरिक और लारा पर्ल्स द्वारा "कंसंट्रेशन थेरेपी" कहा जाता था। हालांकि, इसके सैद्धांतिक प्रभावों का मिश्रण, जेसटाल्ट मनोवैज्ञानिकों के कार्यों के बीच सर्वाधिक व्यवस्थित पाया गया; इस प्रकार जिस समय तक 'जेसटाल्ट थेरेपी, मानव व्यक्तित्व में उत्साह व् विकास' (पर्ल्स, हेफरलाइन और गुडमैन) को लिखा गया, तब तक यह पद्धति "जेसटाल्ट थेरेपी" के रूप में प्रसिद्द हो चुकी थी। जेसटाल्ट थेरेपी सर्वाधिक भार वहन करने वाली चार अत्यावश्यक सैद्धांतिक दीवारों में सबसे ऊपर स्थित है। कुछ ने इसे अस्तित्ववादी तथ्यवाद के रूप में मन है जबकि अन्य ने इसका वर्णव तथ्यवादात्मक व्यवहारवाद के रूप मे किया है। जेसटाल्ट थेरेपी एक मानववादी, समग्र और आनुभविक पद्धति है जो सिर्फ बातचीत पर निर्भर नहीं है, अपितु क्रियात्मक और प्रत्यक्ष परिस्थितियों से सम्बंधित बातचीत से अपेक्षाकृत भिन्न वर्तमान अनुभव के द्वारा जीवन के तमाम प्रसंगों में जागरूकता को बढावा देती है। आधुनिक नैदानिक अभ्यास में समूहों के चिकित्सकीय प्रयोग की जड़ें 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में पायी जा सकती हैं, जब अमेरिकी छाती चिकित्सक प्रेट ने बोस्टन में कार्य करने के दौरान, क्षयरोग से ग्रस्त 15-20 रोगियों, जिन्हें की अरोग्यनिवास में उपचार के लिए बहिष्कृत कर दिया गया था, की 'कक्षाओं' के निर्माण का वर्णन किया।[कृपया उद्धरण जोड़ें] हालाँकि समूह चिकित्सा, शब्द का प्रथम प्रयोग 1920 के आसपास जेकोब एल. मोरेनो द्वारा मिलता है, जिनका प्रमुख योगदान साइकोड्रामा (psychodrama) के विकास में था, जिसमे नेता के निर्देशन में पुनः व्यवस्थापन के द्वारा व्यक्ति विशेष की समस्याओं का पता लगाने के लिए, समूहों का प्रयोग पात्र व् दर्शक दोनों रूपों में किया जाता था। अस्पताल और आंत्य-रोगियों के सम्बन्ध में समूहों के और अधिक वैश्केशिक और अन्वैशानात्मक प्रयोग का अग्रणी कार्य कुछ यूरोपीय मनोविश्लेषकों द्वारा किया गया था, जोकि यू॰एस॰ए॰ में आकर बस गए, जैसे पॉल शिल्दर, जोकि गंभीर रूप से विक्षिप्त और हल्के विकारग्रस्त आंत्य-रोगियों का इलाज छोटे समूहों के रूप में न्यू यार्क के बैलेव्यु अस्पताल में करते थे। समूहों की शक्ति का सबसे प्रभावशाली प्रदर्शन ब्रिटेन में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हुआ, जन अनेकों मनोविश्लेषकों और मनोचिकित्सकों ने युद्ध कार्यालय चयन समिति के सामने समूह पद्धति के महत्व को सिद्ध कर दिया था। उस समय कई अग्रदूतों को समूह की लकीर पर सेना चिकित्सा ईकाई चलाने का एक अवसर दिया गया था, जिसमे प्रमुखतः विल्फ्रेड बियोन और रिकमैन थे, इनके अतिरिक्त एस.एच. फोल्क्स, मैन और ब्रिद्गर भी शामिल थे। बर्मिंघम के नॉर्थफील्ड अस्पताल ने इसे अपना नाम दिया जो बाद में दो ‘नॉर्थफील्ड प्रयोग’ के नाम से प्रचलित हुआ, जिसने दोनों पद्धतियों, सामाजिक पद्धति, चिकित्सकीय सामुदायिक आंदोलन और विक्षिप्त एवम व्यक्तित्व विकार में छोटे समूहों के प्रयोग, के बीच युद्ध के समय से ही विकास को वेग प्रदान किया। आज समूह पद्धति का प्रयोग नैदानिक और निजी अभ्यास परिस्थितियों में किया जाता है। यह देखा गया है कि यह व्यक्तिपरक पद्धति के सामान ही या उससे अधिक प्रभावशाली है।[20] एक चिकित्सकीय प्रतिदर्श और एक मानववादी प्रतिदर्श का प्रयोग करने वाली मनोचिकित्सकों के बीच भी विभेद संभव है। चिकित्सकीय प्रतिदर्श में रोगी को अस्वस्थ के रूप में देखा जाता है और चिकित्सक रोगी को पुनः स्वस्थ करने के लिए अपने कौशल का प्रयोग करता है। डीएसएम-आइवी जोकि यू.एस. में मानसिक विकारों की एक नैदानिक और संख्याकिय नें-पुस्तिका है, वह विशिष्ट चिकित्सकीय प्रतिदर्श का एक उदहारण है। इसके विपरीत मानववादियों का गैर-चिकित्सकीय प्रतिदर्श मानव अवस्थाओं को गैर-रोगविषयक बनने का प्रयास करता है। इसमें चिकित्सक आत्मीय वातावरण बनाने का प्रयास करता है जोकि आनुभविक अधिगम में सहायक होता है और रोगी में अपनी स्वाभाविक प्रक्रिया पर विश्वास का निर्माण करता है जिसके परिणामस्वरूप स्वयं के प्रति बोध और गहन हो जाता है। इसका एक उदहारण जेसटाल्ट थेरेपी है। कुछ मनोवेगीय चिकित्सक अधिक अभिव्यक्तिपरक और अधिक सहायतामूलक मनोचिकित्सा के बीच विभेद करते हैं। अभिव्यक्तिपरक पद्धति, रोगि की समस्या की जद तक पहुंचाने में रोगी की अंतर्दृष्टि को सहायता प्रदान करने पर जोर देती है। अभिव्यक्तिपरक चिकित्सा का सर्वोत्तम ज्ञात उदहारण क्लासिकल मनोविश्लेषण है। इसके विपरीत सहायतामूलक मनोचिकित्सा रोगी के रक्षात्मक स्त्रोतों के सशक्तीकरण पर जोर देता है और प्रायः प्रोत्साहन व् सलाह प्रदान करता है। रोगी के व्यक्तित्व के आधार पर, एक अधिक सहायतामूलक या एक अधिक अभिव्यक्तिपरक पद्धति सर्वोत्तम हो सकती है। मनोचिकित्सा की अधिकांश पद्धतियां सहायतामूलक और अभिव्यक्तिपरक पद्धतियों के मिश्रण का प्रयोग करती हैं। संज्ञानात्मक व्यवहारगत पद्धति उन तकनीकों की ओर संकेत करती है जोकि व्यक्तियों के संज्ञानों, भावनाओं और व्यवहारों के निर्माण और पुनर्निर्माण पर केंद्रित हैं। साधारणतया CBT में चिकित्सक, रुपत्मकताओं की विस्तृत पंक्ति द्वारा रोगी को विचार, भावाभिव्यक्ति और व्यवहार के दुष्क्रियाशील व् समस्यात्मक ढंग को पहचानने, उनका मूल्यांकन करने और उससे निपटने में सहायता करता है। व्यवहार संबंधी पद्धति रोगी के प्रत्यक्ष व्यवहार को परिष्कृत करने और उसे अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता करता है। यह पद्धति अधिगम के सिद्धांतों पर बनी है, जिनमे औपेरेंट और रिस्पौन्डेंट कंडीशनिंग शामिल हैं, जोकि व्यावहारिक व्यवहार विश्लेषण और व्यवहार परिष्करण के क्षेत्र का निर्माण करता है। इस पद्धति में एक्सेप्टेंस पद्धति और कमिटमेंट पद्धतियाँ, क्रियात्मक वैश्लेषिक मनोचिकित्सा और डायालेकटिकल बिहेवियर थेरेपी शामिल हैं। कभी-कभी यह संज्ञानात्मक पद्धति के साथ एकीकृत होकर संज्ञानात्मक व्यवहारगत पद्धति का निर्माण करता है। स्वाभाव से व्यवहारगत पद्धतियाँ प्रयोगसिद्ध (आंकड़ों पर निर्भर), प्रासंगिक (वातावरण और प्रसंग पर केंद्रित), क्रियात्मक (किसी व्यवहार के अंतिम प्रभाव या परिणाम में रूचि रखने वाले), प्रयिकतावादी (व्यवहार को सांख्यिक रूप से पूर्वोनुमेय मानने वाली), अद्वैत (मस्तिष्क-शरीर के द्वैतवाद का बहिष्कार करने वाली और व्यक्ति को एक ईकाई के रूप में देखने वाली) और समबंधपरक (द्विपक्षीय पारस्परिक क्रियाओं का विश्लेषण करने वाली) होती हैं।[21] शरीर उन्मुख मनोचिकित्सा या शारीरिक मनोचिकित्सा, विशेषकर यू.एस. में सोमैटिक मनोचिकित्सा के नाम से भी जानी जाती है। कई भिन्न प्रकार की मनोचिकित्सकीय पद्धतियाँ प्रचलित हैं। ये साधारणतया शरीर और मस्तिष्क के सम्बन्ध पर केंद्रित होती हैं और भौतिक शरीरर और भावनाओं की अधिक जागरूकता द्वारा मन के गहरे स्तरों तक पहुँचाने का प्रयास करती है, जोकि अनेकों शरीर आधारित पद्धतियों को जन्म देती है, रेकियन (विलियम रेक) कैरेक्टर-अनालितिक वैजेटोथेरेपी एंड और्गोनौमी, नियो-रेकियन एलेक्सेंडर लोवेंस बयोएनर्जेटिक एनालिसिस; पीटर लेविन की सोमेटिक एक्स्पीरियांसिंग; जेक रोजेनबर्ग की इन्टीग्रेटिव बॉडी साइकोथेरेपी; रौन कुट्ज़ की हकोमी साइकोथेरेपी; पेट ओडगें की सेंसरीमोटर साइकोथेरेपी; डेविड बौडेला की बयोसिंथेसिस साइकोथेरेपी; ग्रेडा बॉयसन की बायो डाइनेमिक साइकोथेरेपी; इत्यादि. शरीर अभिविन्यस्त मनोचिकित्सा को शरीर-क्रिया की किसी वैकल्पिक चिकित्सा या शारीरिक चिकित्सा, जो प्राथमिक रूप से शरीर पर प्रत्यक्ष कार्य (स्पर्श एवम परिचालन) द्वारा शारीरिक स्वास्थ को सुधारने का प्रयास करती है, समझकर भ्रमित नहीं होना चाहिए, क्यूंकि इस तथ्य के बावजूद कि शारीरिक क्रिया तकनीक (उदहारण के लिए, एलेक्सजेंडर तकनीक, रौल्फिंग और फेल्डेनक्रेस की पद्धतियाँ) भावनाओं को भी प्रभावित कर सकती हैं, यह तकनीक मनोवैज्ञानिक समस्याओं पर कार्य करने के लिये संरचित नहीं हैं और न ही इसका अभ्यास करने वाले इतने कुशल होते हैं। अभिव्यक्तिपूर्ण पद्धति एक ऐसी पद्धति है जो रोगी का इलाज करने के लिए कलात्मक अभिव्यक्ति को अपने मूलभूत साधन के रूप में प्रयोग करती है। अभिव्यक्तिपूर्ण पद्धति के चिकित्सक सृजनात्मक कला के विभिन्न क्षेत्रों का प्रयोग चिकित्सकीय हस्तक्षेप के रूप में करते हैं। इसमें अन्य के साथ-साथ रूपात्मक नृत्य पद्धति, ड्रामा पद्धति, कला पद्धति, संगीत पद्धति, लिखावट पद्धति शामिल हैं। अभिव्यक्तिपूर्ण पद्धति के चिकित्सक यह मानते हैं कि प्रायः एक रोगी के उपचार का सर्वाधिक प्रभावशाली तरीका किसी सृजनात्मक कार्य द्वारा कल्पना की अभिव्यक्ति और इस कार्य में जनित मुद्दों का एकीकरण और प्रक्रमण है। अंतर्वैयक्तिक मनोचिकित्सा (आइपीटी) एक समय-सीमित मनोचिकित्सा है जो अंतर्वैयक्तिक कुशलताओं के निर्माण और अंतर्वैयक्तिक प्रसंगों पर केन्द्रित है। IPT इस विश्वास पर आधारित है कि अंतर्वैयक्तिक मुद्दे मनिवैज्ञानिक समस्याओं पर काफी प्रभाव डाल सकते हैं। इसे साधारणतया अंतरात्मिक प्रक्रियाओं के स्थान पर अंतर्वैयक्तिक प्रक्रियाओं पर अधिक जोए देने के कारण चिकित्सा की अन्य पद्धतियों से अलग रखा जाता है। IPT का उद्देश्य वर्तमान अंतर्वैयक्तिक भूमिकाओं और अवस्थाओं के प्रति अनुकूलन के प्रोत्साहन द्वारा व्यक्ति के अंतर्वैयक्तिक व्यवहार को बदलना है। वर्णनात्मक पद्धति चिकित्सकीय बातचीत द्वारा प्रत्येक व्यक्ति की "डौमिनेंट स्टोरी" पर ध्यान देती है, जो व्यर्थ विचारों और उनके प्रभावी होने के कारणों की खोज को भी सम्मिलित कर सकती है। यदि रोगी को सहायत के लिए यह उचित लगे तो संभावित सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभावों को भी खोजा जा सकता है। एकीकृत मनोचिकित्सा एक से अधिक चिकित्सकीय पद्धतियों के विचारों और योजनाओं के संयोजन का एक प्रयास है।[22] इन पद्धतियों में मूलभूत धारणाओं और सिद्ध तकनीकों का संयोजन शामिल है। एकीकृत मनोचिकित्सा के प्रकारों में मल्टीमौडल थेरेपी, द ट्रांसथियोरेटिकल मॉडल, साइक्लिकल साइकोडाइनेमिक्स, सिस्टेमेटिक ट्रीटमेंट सलेक्शन, कॉग्निटिव एनालिटिक थेरेपी, इन्टरनल फैमिली सिस्टम्स मॉडल, मल्टीथियोरेटिकल साइकोथेरेपी और कन्सेप्चुअल इंटरएक्शन शामिल हैं। व्यवहार में, अधिकाधिक अनुभवी मनोचिकित्सक समय के साथ अपनी स्वयं की एकीकृत पद्धति विकसित कर लेते हैं। सम्मोहन चिकित्सा एक ऐसी पद्धति है जो एक व्यक्ति को सम्मोहन में लेकर की जाती है। सम्मोहन चिकित्सा प्रायः रोगी के व्यवहार, भावात्मक विचार और प्रवृत्ति को बदलने के लिए प्रयोग की जाती है, इसके साथ ही साथ इसमें परिस्थितियों की श्रंखला होती है जिसमे दुष्क्रियाशील आदतें, चिंता, चिंता सम्बंधित अस्वस्थता, पीड़ा संचालन और व्यक्तिगत विकास शामिल हैं। परामर्श और मनोचिकित्सा को बच्चों की विकास संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अवश्य ही अपनाया जाना चाहिए. परामर्श की तैयारी करने वाले कई कार्यक्रमों में मानव विकास का पाठ्यक्रम भी सम्मिलित होता है। चूंकि प्रायः बच्चे अपनी बह्वानाओं व् विचारों को व्यक्त कर पाने म असमर्थ होते हैं, इसलिए उनके साथ परामर्शदाता कई प्रकार के माध्यमों का प्रयोग करते हैं जैसे मोम के रंग, अन्य रंग, खिलौने बनाने वाली मिट्टी, कठपुतली, किताबें, खिलौने, बोर्ड पर खेले जाने वाले खेल इत्यादि. खेल पद्धति के प्रयोग की जड़ें प्रायः मनोवेगीय पद्धति में होती हैं, लेकिन अन्य पद्धति जैसे समाधान केन्द्रित संक्षिप्त परामर्श में भी परामर्श के लिए खेल पद्धति का प्रयोग किया जा सकता है। कई मामलों में परामर्शदाता बच्चे की देखरेख करने वाले के साथ कार्य करने अधिक उचित समझते हैं, विशेषकर यदि बच्चे की उम्र 4 वर्ष से कम हो. फिर भी, ऐसा करने से परामर्शदाता अनुकूलन में बाधक पारस्परिक अभ्यास और विकास पर इसके विपरीत प्रभावों के जारी रहने का जोखिम लेता है, जोकि पहले ही बच्चे की और से सम्बन्ध[23] को प्रभावित कर चूका है इसीलिए इतनी कम उम्र के बच्चों पर कार्य करने की समकालीन सोच बच्चों के साथ-साथ उनके माता-पिता से भी पारस्परिक क्रिया के अंतर्गत, या आवश्यकतानुसार व्यक्तिगत रूप से, बातचीत की ओर झुकाव रखती है।[24] साधारणतया गोपनीयता चिकित्सकीय संबंधों और मनोचिकित्सा का एक अभिन्न अंग है। मनोचिकित्सकीय समुदाय के भीतर प्रयोगसिद्ध तथ्यों पर आधारित मनोचिकित्सा के सम्बन्ध में कुछ चर्चा हुई है, जैसे.[25] वास्तव मे भिन्न प्रकार की मनोचिकित्सा के मध्य लम्बे समय से कोई तुलना नहीं हुई है।[26] हेलेंसकी द्वारा मनोचिकित्सा पर किया गया अध्ययन एक अनियमित नैदानिक परीक्षण था, जिसमे अध्ययन[27] संबंधी उपचारों के शुरू होने के बाद रोगियों को 12 महीने तक निगरानी में रखा गया था, जिसमे से प्रत्येक लगभग 6 महीने तक जारी रहा. इसका मूल्याङ्कन आधाररेखा परीक्षण पर 3, 7 और 9 महीनों तथा 1, 1.5, 2, 3, 4, 5, 6 और 7 वर्षों में जांच कार्यवाही के दौरान पूरा होना था। इस परीक्षण का अंतिम परिणाम अभी भी प्रकाशित नहीं हो सका है क्यूंकि जांच की कार्यवाही 2009 तक चलती रही. मनोचिकित्सा का कौन सा रूप अधिक प्रभावशाली है, यह काफी विवाद का विषय है और विशेषतः किस प्रकार की पद्धति किस प्रकार के रोगी के उपचार के लिए सर्वोत्कृष्ट होगी यह और भिविवादास्पद है।[28] इससे आगे, यह भी विवादस्पद है कि पद्धति का प्रकार या उभयनिष्ठ तत्वों की उपस्थिति, दोनों में से कौन सबसे अच्छी तरह से प्रभावशाली और अप्रभावशाली पद्धतियों में विभेद कर सकता है। उभयनिष्ठ तत्वों का सिद्धांत यह कहता है कि अधिकांश मनोचिकित्सों में शुद्ध रूप से उभयनिष्ठ तत्व ही वह करक हैं जो किसी मनोचिकित्सा को सफल बनाते हैं: यह चिकित्सकीय संबंधों की विशेषता है। छोड़ने वालों का स्तर काफी उच्च है; 125 अध्ययनों के एक मेटा-विश्लेषण के द्वारा यह निष्कर्ष प्राप्त हुआ कि छोड़ने वालों की माध्य दर 46.86 प्रतिशत है।[29] छोड़ने वालों की उच्च दर ने मनोचिकित्सा की व्यवहारिकता और गुणवत्ता के सम्बन्ध में कुछ आलोचनाएं की हैं। मनोचिकित्सा परिणाम अनुसंधान- जिसमे उपचार के दौरान और उसके बाद मनोचिकित्सा के प्रभाव को मापा जाता है- को भी चिकित्सा की विभिन्न पद्धतियों के बीच सफल और असफल का विभेद करने में कठिनाई हो रही थी। जो अपने चिकित्सक के साथ लम्बी अवधि तक जुड़े रहते हैं, उनसे दीर्घकालिक संबंधों के रूप में विकसित हो जाने के विषय पर सकारात्मक उत्तर प्राप्त करने की आशा अधिक है। ससे यह पता चलता है कि "उपचार" बदती हुई आरती लगत से जुडी चिंता के सम्बन्ध में खुला हो सकता है। 1952 जैसे शुरूआती समय से ही, मनोचिकित्सकीय उपचार के सर्वाधिक प्रारंभिक अध्ययन में, हेंस आइसेंक ने यह बताया कि रोगियों में से दो तिहाई ने महत्त्वपूर्ण सुधार किया या दो वर्ष के भीता स्वयं ही ठीक हो गए, चाहे उन्हें मनोचिकित्सा प्राप्त हुयी या नहीं.[30] कई मनोचिकित्सक यह मानते हैं कि मनोचिकित्सा की बारीकियां प्रश्नावली-शैली के परीक्षण के द्वारा पकड़ में नहीं आ सकतीं और वह किसी भी पद्धति के उपचार के समर्थन के लिए स्वयं के नैदानिक अनुभवों और सैद्धांतिक तर्कों पर अधिक विश्वास करते हैं। 2001 में, विस्कॉन्सिन यूनिवर्सिटी के ब्रूस वैम्पौल्ड ने किताब द ग्रेट साइकोथेरेपी डिबेट प्रकाशित की.[31] इसमें वैम्पौल्ड, जो कि पहले एक संख्या शास्त्री थे और जो एक परामर्श मनोवैज्ञानिक के रूप में प्रशिक्षण देने लगे, उन्होंने बताया कि अंततः वैम्पौल्ड ने यह निष्कर्ष दिया कि "हम नहीं जानते कि मनोचिकित्सा क्यूँ कार्य करती है।" हालांकि पुस्तक द ग्रेट साइकोथेरेपी डिबे ट मुख्यतः अवसाद ग्रस्त रोगियों से सम्बंधित आंकड़ों पर केन्द्रिथई, लेकिन बाद के लेखों ने अभिघात पश्चात चिंता विकार और युवाओं में होने वाले विकारों[32] के सम्बन्ध में भी सामान विश्कर्ष परिणाम प्राप्त किये हैं।[33] कुछ ने यह बताया कि उपचार को योजनाबद्ध करने या नियम आधारित बनाने के प्रयास में, मनोचिकित्सक इसके प्रभाव को घटा रहे हैं, हालांकि अनेकों मनोचिकित्सकों की असंरचनात्मक पद्धति, पूर्व की "गलतियों" से भिन्न विशिष्ट तकनीकों के प्रयोग द्वारा अपनी समस्या का समाधान करने के लिए प्रेरित रोगियों को आकर्षित नहीं करेगी. मनोचिकित्सा के आलोचक मनोचिकित्सकीय संबंधों की आरोग्यकारक क्षमता के विषय मे संशय रखते हैं।[34] क्यूंकि किसी भी हस्तक्षेप में समय लगता है, अतः आलोचकों को यह ध्यान देना चाहिए कि प्रायः बिना किसी मनोचिकित्सकीय हस्तक्षेप के भी अकेले इस समयावधि के द्वारा ही मनो-सामाजिक आरोग्य का परिणाम प्राप्त हुआ है।[35] अन्य लोगों के साथ सामाजिक सम्बन्ध सर्वत्र मनुष्यों के लिए लाभप्रद माने जाते हैं और किसी से नियमित रूप से निर्धारित भेंट संभवतः हलके और गंभीर दिनों प्रकार की भावनात्मक समस्याओं को कम करेगी. भावनात्मक चिंता का अनुभव कर रहे व्यक्ति के लिए अनेक संसाधन उपलब्ध हैं- मित्रों का मित्रवत समर्थन, साथी, परिवार के सदस्य, चर्च के सम्बन्ध, लाभप्रद व्यायाम, अनुसंधान और स्वतंत्र सामना- यह सभी यथेष्ट महत्त्वपूर्ण हैं। आलोचकों ने कहा है कि मनुष्य संकटों का सामना करता आया है, गंभीर सामाजिक समस्याओं से होकर गुजरता है और मनोचिकित्सके अवतार में आने से बहुत पहले से ही अपनी इन समासों के समाधान dhun रहा है। निस्संदेह, यह रोगी के अन्दर स्थित ही कुछ हो सकता है जो उपचार के लिए आवश्यक इस "स्वाभाविक" समर्थन को विकसित नहीं होने देता. फेमिनिस्ट, कंस्ट्रकशनिस्ट और डिसकर्सिव स्त्रोतों के द्वारा और आलोचनाओं का जन्म हुआ है। इनकी कुंजी शक्ति के मुद्दे में है। इस संबध में चिंता का विषय यह है कि रोगी पर दबाव बनाया जाता है- परामर्श कक्ष्के अन्दर और बहार दोनों और से- कि वह स्वयं को और अपनी समस्या को उन विधियों से समझे जो चिकित्सकीय विचारों के अनुरूप हों. इसका अर्थ यह है कि वैकल्पिक विचार (जैसे., फेमिनिस्ट, इकोनोमिक, स्पिरिचुअल) कभी-कभी अस्पष्ट रूप से अवमूल्यांकित किये जाते हैं। आलोचकों का सुझाव है कि जब हम चिकित्सा को मात्र सहायक सम्बन्ध के रूप में सोचते हैं तब हमें उस परिस्थिति के आदर्श स्वरुप को प्रस्तुत करना चाहिए. यह मौलिक रूप से भी एक राजनीतिक प्रथा रही है, जिसमे कुछ सांस्कृतिक विचार और प्रथा को समर्थन मिलता है जबकि अन्य को अवमूल्यांकित कर दिया जाता जय यां अयोग्य बताया जाता है। अतः, चिकित्सक-रोगी का सम्बन्ध सदैव समाज के शक्तिशाली संबंधों और राजनीतिक गतिशील्ताओं में भागीदार होता है, किन्तु ऐसा कभी भी इरादतन नहीं किया जाता.[36] एक ग्लैडीएटर (लातिन : gladiator, "तलवारबाज़", gladius, "तलवार" से) एक सशस्त्र योद्धा हुआ करता था जो अन्य ग्लैडीएटरों, जंगली जानवरों और दंडित अपराधियों के साथ हिंसक मुक़ाबला करके रोमन गणराज्य और रोमन साम्राज्य में दर्शकों का मनोरंजन करता था। कुछ ग्लैडीएटर स्वयंसेवक होते थे जो अखाड़े में उपस्थित होकर अपनी कानूनी और सामाजिक स्थिति और अपने जीवन को खतरे में डालते थे। इनमें से अधिकांश को दास के रूप में तिरस्कृत किया जाता था, इन्हें कठोर परिस्थितियों में पाला जाता था, सामाजिक रूप से हाशिए पर रखा जाता था और मौत के बाद भी पृथक्कृत किया जाता था। अपने मूल की परवाह किए बगैर, ग्लैडिएटर दर्शकों के समक्ष रोम की फौजी नैतिकता का एक उदाहरण प्रस्तुत करते थे और लड़ाई में या अच्छे से मरते हुए, वे सम्मान और लोकप्रिय अभिनंदन को उद्वेलित कर सकते थे। उनकी प्रशंसा उच्च और निम्न कला में होती थी और मनोरंजनकर्ता के रूप में उनके मूल्य को सम्पूर्ण रोमन साम्राज्य में बहुमूल्य और सामान्य वस्तुओं में अभिव्यक्त किया जाता था। ग्लैडीएटर लड़ाइयों की उत्पत्ति एक बहस का मुद्दा है। तीसरी शताब्दी BCE के प्यूनिक युद्धों के दौरान अंत्येष्टि के संस्कारों में इसके सबूत मिलते हैं और उसके बाद यह तेजी से रोमन साम्राज्य में राजनीति और सामाजिक जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन गया। इसकी लोकप्रियता ने इसे और अधिक भव्य और महंगे परिदृश्य या "ग्लैडीएटर खेलों" में इसके उपयोग को प्रेरित किया। ये खेल पहली शताब्दी ईसा पूर्व और दूसरी शताब्दी के बीच अपने चरम पर पहुंचे और वे पतनशील रोमन राज्य के सामाजिक और आर्थिक संकट के दौरान न केवल कायम रहे, बल्कि चौथी शताब्दी में ईसाई धर्म के आधिकारिक धर्म बन जाने के बाद भी चलते रहे. ईसाई सम्राटों ने कम से कम पांचवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक ऐसे मनोरंजन को प्रायोजित करना जारी रखा, जब अंतिम ज्ञात ग्लैडीएटर खेलों का आयोजन हुआ था। आरम्भिक साहित्यिक स्रोत शायद ही कभी ग्लैडीएटर और ग्लैडीएटर खेलों के मूल पर सहमत होते हैं।[1][2] प्रथम शताब्दी ई.पू. के उत्तरार्ध में दमिश्क के निकोलौस का विश्वास था कि वे इट्रस्कन थे।[3] एक पीढ़ी बाद, लिवि ने लिखा कि उन्हें कम्पानियन द्वारा सामनाइट्स पर अपनी जीत के जश्न के रूप में पहली बार 310 ई.पू. में आयोजित किया गया।[4] खेलों के बंद हो जाने के लंबे समय बाद, 7वीं शताब्दी के लेखक सिविल के इसिडोर ने जल्लाद के लिए इट्रस्केन शब्द से लैटिन लानिस्ता (ग्लैडीएटरों का प्रबंधक) निकाला और चारोन (एक अधिकारी जो रोमन ग्लैडीएटर अखाड़े से मृत के साथ चलता था) के शीर्षक को चरून से, जो इट्रस्केन अंडरवर्ल्ड का साइकोपॉम्प था।[5] रोमन इतिहासकारों ने ग्लैडीएटर खेलों को एक विदेशी आयात के रूप में माना है, जो सबसे अधिक संभावित रूप से इट्रस्केन था। आरंभिक आधुनिक युग में इस वरीयता ने रोमन खेलों के अधिकांश मानक इतिहास को प्रेरित किया।[6] सबूत का पुनर्मूल्यांकन कम्पानियन उत्पत्ति का समर्थन करता है, या खेलों और ग्लैडीएटर के मामलों में कम से कम उधार लेने का समर्थन करता है।[7][8] सबसे आरम्भिक ज्ञात रोमन ग्लैडीएटर स्कूल (लुडी) कम्पानिया में थे।[9][10] पेस्तुम (चौथी शताब्दी ई.पू.) के कब्र भित्तिचित्रों में हेलमेट पहने, भाला और ढाल लिए, युगल योद्धाओं को दर्शाया गया है, एक अनुरंजनार्थक अंत्येष्टि रक्त-संस्कार में जो आरम्भिक रोमन ग्लैडीएटर खेलों का संकेत देता है।[11] इन चित्रों की तुलना में, इट्रस्केन कब्र चित्रों के समर्थन साक्ष्य अस्थायी और बाद के हैं। पेस्तुम भित्तिचित्र शायद एक काफी पुरानी परंपरा की निरंतरता को दर्शाते हैं, जिसे आठवीं सदी ई.पू. के ग्रीक उपनिवेशियों से हासिल या विरासत में लिया गया था।[12] लिवि ने प्रारम्भिक रोमन ग्लैडीएटर खेलों के समय काल को 264 ई.पू. माना है, जो कि कार्थेज के खिलाफ रोम का प्रथम प्यूनिक युद्ध था। डेसिमस लुनिअस ब्रूटस स्कैवे ने अपने मृत पिता, ब्रूटस पेरा के सम्मान में रोम के 'मवेशी बाजार' चौपाल में (फोरम बोरिअम) तीन ग्लैडीएटर जोड़ों के बीच मौत की लड़ाई करवाई. इसे मुनस (बहुवचन मुनेरा) के रूप में वर्णित किया गया है: उसके वंश द्वारा मृत पूर्वज के पितर के लिए एक स्मरण कर्तव्य होता था।[13][14] प्रयुक्त ग्लैडीएटर का प्रकार (बाद के, एकल स्रोत के अनुसार) थ्रेसियन था,[15] लेकिन मुनस और उसके ग्लैडीएटर प्रकार का विकास हैनिबल के लिए साम्निअम के जोरदार रूप से समर्थन और रोम और उसके कम्पानियन सहयोगियों द्वारा बाद के दंडात्मक अभियानों से प्रभावित था; सबसे आरम्भिक और सर्वाधिक उल्लिखित प्रकार, सामनाईट था।[16][17][18] इसके तुरंत बाद, साम्निअम में युद्ध को समान खतरे और समान रूप से शानदार समापन के साथ लड़ा गया। दुश्मन, अपनी अन्य जंगी तैयारी के अलावा, लड़ाई के लिए नए और शानदार हथियारों के साथ चमकने के लिए अपनी युद्ध नीति बनाते थे। वहां दो कोर थे: एक की ढाल पर सोने की परत होती थी और दूसरे की चांदी की ... रोम वासियों ने पहले से ही इन शानदार साजोसामान के बारे में सुना था, लेकिन उनके जनरलों ने उन्हें सिखाया था कि एक सैनिक को रुखा दिखना चाहिए, ना कि सोने और चांदी से सजा हुआ, बल्कि उसे अपना विश्वास लोहे और साहस में डालना चाहिए ... जैसा कि सीनेट द्वारा निर्णित था, तानाशाह जीत का एक जश्न मनाता है, जिसमें कब्जा किये गए कवच द्वारा बेहतरीन कार्यक्रम मनाया जाता था। इसलिए रोमन ने अपने देवताओं को सम्मानित करने के लिए अपने दुश्मनों के शानदार कवच का इस्तेमाल किया; जबकि कम्पानियन ने अपने गौरव और सामनाईट के लिए अपनी घृणा की प्रतिक्रिया स्वरूप, इस शैली में ग्लैडीएटरों को सुसज्जित किया जो उन्हें उनकी दावतों के दौरान मनोरंजन प्रदान करते थे और उन्हें सामनाईट नाम दिया. (लिवि 9.40)[19] लिवि के वर्णन में आरंभिक रोमन ग्लैडीएटर लड़ाई के बलि संबंधी समारोह, अंत्येष्टि को दरकिनार कर दिया गया है और ग्लैडीएटर शो के बाद के नाटकीय लोकाचार को रेखांकित किया गया है: शानदार, अद्भुत रूप से सशस्त्र और बख़्तरबंद बर्बर, विश्वासघाती और पतितों पर रोमन लोहे और देशी हिम्मत का नियंत्रण था।[20] उसके सादे रोमन, युद्ध की शानदार लूट को पवित्र रूप से परमेश्वर को समर्पित करते हैं। उनके सहयोगी कम्पानियन, रात के खाने के दौरान मनोरंजन प्रस्तुत करते हैं जिसके लिए वे ग्लैडीएटर का उपयोग करते हैं जो हो सकता है सामनाईट ना हों, लेकिन वे सामनाईट की भूमिका निभाते हैं। रोमन क्षेत्रों के विस्तार के साथ अन्य समूहों और जनजातियों ने कलाकारों की सूची में अपना नाम शामिल किया। अधिकांश ग्लैडीएटर रोम के दुश्मनों के सदृश सशस्त्र और बख़्तरबंद होते थे।[21] मुनस, ऐतिहासिक विधान का नैतिक रूप से शिक्षाप्रद रूप बन गया जिसमें ग्लैडीएटर के सम्मुख सम्माननीय विकल्प या तो अच्छे से लड़ने का होता था या फिर अच्छे से मरने का.[22] 216 ईसा पूर्व में स्वर्गीय सलाहकार और निमित्तज्ञ, मार्कस अमीलियस लेपिडस को उसके पुत्रों द्वारा फोरम रोमानम में तीन दोनों के ग्लैडीएटोरा मुनेरा द्वारा सम्मानित किया गया था, जिसके लिए ग्लैडीएटर के बाईस जोड़े का उपयोग किया गया।[23] दस साल बाद, सीपीओ अफ्रिकानस ने प्यूनिक युद्ध में मारे गए अपने पिता और चाचा की याद में, इबेरिया में एक स्मारक मुनस आयोजित किया। उच्च हैसियत वाले गैर-रोमन और संभवतः रोमन ने भी - स्वेच्छा से उसके ग्लैडीएटर बने.[24] प्यूनिक युद्ध और केनाए (216 ई.पू.) में रोम की विनाशकारी पराजय का सन्दर्भ इन आरंभिक खेलों को दानवीरता, सैन्य जीत का उत्सव और सैन्य त्रासदी के धार्मिक परिहार से जोड़ता है; सैन्य खतरे और साम्राज्य विस्तार के युग में ये मुनेरा मनोबल बढ़ाने के एजेंडे का कार्य करते प्रतीत होता है।[25] अगला दर्ज मुनस, 183 ई.पू. में पब्लिअस लिसिनिअसिन की अंत्येष्टि पर आयोजित किया गया, यह असाधारण था। इसमें 3 दिनों के अंतिम संस्कार के खेल, 120 ग्लैडीएटर और मांस का सार्वजनिक वितरण शामिल था, (विसरेशिओ डेटा)[26] - यह प्रथा कम्पानियन दावतों में ग्लैडीएटर लड़ाई को परिलक्षित करती है जैसा कि लिवि द्वारा वर्णित किया गया है और बाद में सिलिअस इटालिकस द्वारा आलोचना की गई है।[27] रोम के आईबेरियन सहयोगियों द्वारा ग्लैडीएटोरा मुनेरा को उत्साहपूर्वक अपनाने से यह प्रदर्शित होता है कि कितनी आसानी से और कितने पहले ही, ग्लैडीएटर मुनस की संस्कृति खुद रोम से काफी दूर स्थित स्थानों तक पहुंच गई। 174 ई.पू. तक 'छोटे' रोमन मुनेरा (निजी या सार्वजनिक) जो अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण एडिटर द्वारा प्रदान किया जाता था, जो इतना आम और महत्वहीन था कि उसे दर्ज करने लायक नहीं समझा गया:[28] उस वर्ष कई ग्लैडीएटर खेलों को आयोजित किया गया, कुछ महत्वहीन, उनमें से एक बाकी से उल्लेखनीय था - वह था टिटस फ्लेमिनिनस का, जिसे उसने अपने पिता की मृत्यु की याद में दिया था, जो चार दिनों तक चला, इसके दौरान मांस का सार्वजनिक वितरण, भोज और सुंदर प्रदर्शन पेश किया गया। इस कार्यक्रम के समापन प्रदर्शन में जो उस समय के हिसाब से विशाल था कुल चौहत्तर ग्लैडीएटरों ने लड़ाई की.[29] 105 ई.पू. में, सत्तारूढ़ वाणिज्य-दूत ने रोम को राज्य प्रायोजित इस "वहशी लड़ाई" का पहला स्वाद चखाया जिसे सैन्य प्रशिक्षण कार्यक्रम के हिस्से के रूप में कपुआ के ग्लैडीएटरों द्वारा प्रदर्शित किया गया। यह बेहद लोकप्रिय साबित हुआ।[30] लुडी (राज्यीय खेल), सत्तारूढ़ कुलीन द्वारा प्रायोजित और एक देवता की दैवीय शक्ति जैसे कि बृहस्पति को समर्पित, एक दैवीय या नायकत्व से भरे पूर्वज (और बाद में, साम्राज्यवाद के दौरान सम्राट),[31] अब लोकप्रिय समर्थन के लिए निजी रूप से वित्त पोषित मुनेरा के साथ मुकाबला कर सकते थे।[32] राजनीतिक और सामाजिक रूप से अस्थिर उत्तरार्ध गणतंत्र में वर्ष की समाप्ति पर, ग्लैडीएटर खेलों ने अपने प्रायोजकों को अपने ग्राहकों को सस्ता, रोमांचक मनोरंजन पेश करते हुए खुद को विज्ञापित करने के लिए एक अत्यधिक महंगा लेकिन प्रभावी अवसर प्रदान किया।[33][34] ग्लैडीएटर, प्रशिक्षकों और मालिकों के लिए, उभरते राजनीतिज्ञों और जो लोग शीर्ष पर पहुंच चुके हैं उनके लिए एक बड़ा व्यापार बन गया। राजनीतिक रूप से एक महत्वाकांक्षी प्राईवेटस (निजी नागरिक) चुनाव के मौसम में अपने मृत पिता के मुनस को स्थगित कर सकता था, जब एक उदार शो से वोट बटोरने की आशा होती थी; जो लोग सत्ता में थे और जो पहुंचना चाहते थे उन्हें सर्वसाधारण और उनके ट्रिब्यून के समर्थन की आवश्यकता थी और उनके वोट को एक आसाधारण रूप से शानदार कार्यक्रम के माध्यम से हासिल किया जा सकता था - कभी-कभी तो सिर्फ उसके वादे मात्र से.[35][36] सुल्ला ने, प्रेटर के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान अपनी पत्नी के अंतिम संस्कार में रोम में अब तक ना देखे गए सर्वाधिक भव्य मुनस का आयोजन करने के लिए अपने व्ययविषयक कानून को तोड़ने में अपने चिरपरिचित कौशल को प्रदर्शित किया।[37] ग्लैडीएटर या एक ग्लैडीएटर स्कूल के स्वामित्व से रोमन राजनीति के लिए ताकत और जज़्बा मिलता था।[38][39][40] 65 ई.पू. में, नव निर्वाचित कुरुल एडाइल जूलियस सीजर, सुल्ला के प्रदर्शन में अव्वल रहा जिसमें उसने ऐसे खेल रखे जिसे उसने अपने पिता के लिए मुनस के रूप में उचित ठहराया, जिनकी मृत्यु बीस वर्ष पहले हो गई थी। पहले से ही एक भारी निजी कर्ज के बावजूद, उसने चांदी के कवच वाले तीन सौ बीस ग्लैडीएटर जोड़ों का इस्तेमाल किया।[41] वह और अधिक चाहता था लेकिन सहमी सीनेट ने स्पार्टाकस विद्रोह को ध्यान में रखते हुए, सीज़र की बढ़ती निजी सेना के भय से और उससे भी ज्यादा उसकी अभूतपूर्व लोकप्रियता से भयभीत होकर, यह सीमा तय की कि रोम में कोई भी नागरिक ग्लैडीएटरों की 320 जोड़ी से अधिक नहीं रख सकता है।[42] सीज़र का खेल प्रदर्शन न केवल पैमाने और खर्च के हिसाब से अभूतपूर्व था बल्कि लेकिन इस मायने में भी था कि उसने अंतिम संस्कार की भेंट के रूप में मुनेरा की रिपब्लिकन परंपरा को दरकिनार किया।[43] लुडी और मुनेरा के बीच का व्यावहारिक भेद धुंधला होने लगा था।[44] ग्लैडीएटर खेल, जिसे आमतौर पर वहशी प्रदर्शन के साथ जोड़ा जाता है, सम्पूर्ण गणराज्य और उससे बाहर प्रसारित हो गया।[45] 65 और 63 ई.पू. के भ्रष्टाचार-विरोधी कानून ने प्रयास किया लेकिन प्रायोजकों के लिए इसकी राजनीतिक उपयोगिता पर अंकुश लगाने में असफल रहा.[46] सीज़र की हत्या और गृह युद्ध के बाद औगस्टस ने मुनेरा सहित खेलों के ऊपर शाही नियंत्रण हासिल कर लिया और उनके प्रावधान को नागरिक और धार्मिक कर्तव्य के रूप में आधिकारिक बना दिया.[47] व्यय-विषयक कानून के उसके संशोधन ने मुनेरा पर निजी और सार्वजनिक खर्च पर सीमा तय की - और दावा किया इससे उसने रोमन कुलीन लोगों को दिवालिया होने से बचाया - और उसने इनके प्रदर्शन को सैटर्नेलिया और क्विनक्वाट्रिया समारोहों के लिए सीमित कर दिया.[48] इसके बाद से, एक प्रेटर के अधिकतम 120 ग्लैडीएटरों के "किफायती" लेकिन सरकारी मुनस की अधिकतम कीमत 25,000 देनारी ($500000) हो गई। "उदार" शाही लुडी की कीमत 180000 देनारी ($3.6 मिलियन) हो सकती थी।[49][50] पूरे साम्राज्य में, सबसे बड़े और सबसे मशहूर खेल को अब राज्य प्रायोजित शाही पंथ के साथ पहचाना जाने लगा, जिसने सम्राट, उसके कानून और उसके एजेंटों की सार्वजनिक पहचान, सम्मान और समर्थन को पुख्ता किया।[51] 108 और 109 ईस्वी के बीच, ट्राजन ने डासिया पर अपनी जीत के जश्न को 123 दिनों से अधिक चलने वाले समारोह के दौरान 10000 ग्लैडीएटरों (और 11,000 जानवरों) का इस्तेमाल करते हुए मनाया.[52] ग्लैडीएटरों और मुनेरा की लागत नियंत्रण से बाहर आसमान छूने लगी. मार्कस औरिलिअस के 177 ई. के क़ानून ने इसे रोकने में ज्यादा सफलता प्राप्त नहीं की और उसके बेटे कोमोडस ने इस क़ानून को दरकिनार कर दिया.[53] ग्लैडीएटर का व्यापार पूरे साम्राज्य में फैला था और सख्त सरकारी नियंत्रण के अधीन था। रोम की सैन्य सफलता से ऐसे सैन्य-कैदियों की तादाद काफी बढ़ गई जिन्हें राज्य की खदानों, या ऐम्फिथीअटरों में इस्तेमाल के लिए पुनः वितरित किया गया और खुले बाजार में बिक्री के लिए भेजा गया। उदाहरण के लिए, यहूदी विद्रोह के परिणामस्वरूप, ग्लैडीएटर स्कूलों में यहूदियों की बाढ़ आ गई - जिन्हें प्रशिक्षण के लिए अस्वीकार कर दिया गया उन्हें नोक्सी के रूप में सीधे अखाड़े में भेज दिया गया।[54][55] सर्वश्रेष्ठ - सबसे मजबूत - को रोम भेज दिया गया। माना जाता था कि जिन सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया या जिन्होंने अपनी गिरफ्तारी की अनुमति दी उन सैनिकों को गुलाम की हैसियत प्रदान करना बिना सम्मान का जीवनदान होता था और ग्लैडीएटर प्रशिक्षण उनके लिए एक अवसर होता था जिसके द्वारा वे मुनस में अपना सम्मान वापस हासिल कर सकते थे।[56] ग्लैडीएटर के अन्य दो स्रोत, जो प्रिंसीपेट और पैक्स रोमाना के दौरान ज्यादा पाए जाते थे, वे दास होते थे जिन्हें अपराध की सजा के रूप में अखाड़े में, ग्लैडीएटर स्कूलों या खेलों (एड लुडुम ग्लैडीटोरिअम)[57] में भेजा जाता था और भुगतान स्वयंसेवक (औक्टोराटी) होते थे जो गणराज्य के उत्तरार्ध में सभी ग्लैडीएटरों का लगभग आधा हिस्सा थे और संभवतः सबसे सक्षम हिस्सा थे।[58] स्वयंसेवकों का उपयोग इससे पहले सीपीओ अफ्रिकानुस आइबेरियन मुनस में हुआ था; लेकिन उनमें से किसी को भुगतान नहीं किया जाता था।[24] रोम के लिए, "ग्लैडीएटर" का मतलब एक स्कूली लड़ाकू था जो किसी स्वामी के लिए समर्पित और अनुबंधित होता था। जो लोग गरीब या गैर नागरिक थे, उनके लिए ग्लैडीएटर स्कूल एक व्यापार, नियमित भोजन, आवास और प्रसिद्धि और संपदा का एक मौका पेश करते थे। ग्लैडीएटर परम्परानुसार अपनी पुरस्कार राशि और उपहार को अपने पास रखते थे। टिबेरिअस ने कुछ सेवानिवृत्त ग्लैडीएटरों को अखाड़े में वापसी करने के लिए 100,000 सेस्टर्सेस की पेशकश की .[59] नीरो ने स्पिकुलस ग्लैडीएटर को संपत्ति और आवास प्रदान किया जो "विजयी लोगों के बराबर मात्रा का था।"[60] मार्क एंटनी ने ग्लैडीएटरों को निजी रक्षक के रूप में पदोन्नत किया।[61] महिला ग्लैडीएटर का भी इस्तेमाल किया जाता था[62], हालांकि उनके पुरातात्विक साक्ष्य असामान्य हैं[63]. "वह जला दिए जाने, बांधने, मारने और तलवार से मृत कर दिए जाने को सहन करने के लिए शपथ लेता है।" ग्लैडीएटर की शपथ जैसा कि पेट्रोनिअस (सैटिरिकोन, 117) द्वारा उद्धृत है। ग्लैडीएटर की कानूनी स्थिति असंदिग्ध थी: वे दास थे और सिर्फ उन्ही दासों को सजा के रूप में अखाड़े में भेजा जाता था जिन्हें किसी विशिष्ट अपराधों का दोषी पाया जाता था। नागरिकों को कानूनी तौर पर इस सजा से मुक्त रखा गया था, लेकिन जिन लोगों को किसी विशेष अपराध का दोषी पाया जाता था उनसे उनकी नागरिकता छीन ली जाती थी, औपचारिक रूप से ग़ुलाम बना लिया जाता था और तदनुसार निपटा जाता था। मुक्त-पुरुष या मुक्त-स्त्री को अपराध के लिए पुनः दास बनाया जा सकता था।[64] लूट, चोरी और आगजनी के लिए अखाड़े की सजा दी जा सकती थी लेकिन सबसे ऊपर थी गद्दारी के लिए सजा जैसे कि विद्रोह करने, कर चोरी के लिए जनगणना से बचने, कानूनी शपथ की कसम खाने से इनकार करने के लिए.[65] अपराधियों को राज्य (नोक्सी) के लिए घृणित के रूप में देखा जाता था और उन्हें सबसे अपमानजनक सजा मिलती थी।[66] 1 शताब्दी ई.पू. से नोक्सी को अखाड़े में जानवरों के सामने लाया जाता था (डम्नाती एड बेस्टिआस), जहां उनके बचने का कोई मौका नहीं होता था, या उन्हें एक-दूसरे को मारना होता था।[67] आरंभिक शाही युग से, कुछ को, पौराणिक या ऐतिहासिक अभिनयों के अपमानजनक और नवीन रूपों में हिस्सा लेने के लिए मजबूर किया जाता था जिसका समाप्ति उनकी मृत्यु से होती थी।[68][69] जिन लोगों पर कम कठोरता के साथ फैसला लिया जाता था उन्हें एड लुडुम वेनाटोरिअम या एड ग्लैडीएटोरियम - जानवरों या ग्लैडीएटर के साथ लड़ाई की सजा दी जाती थी, जिसमें उन्हें उचित हथियार मुहैय्या कराया जाता था। इन दम्नाती से एक अच्छा कार्यक्रम हो सकता था जिससे कुछ सम्मान हासिल होता था। वे कभी-कभी दूसरे दिन की लड़ाई के लिए बच जाते थे। उनमें से कुछ हो सकता है "उचित" ग्लैडीएटर बन गए होंगे.[70] आधुनिक प्रथाएं और संस्थान, कानूनी और सामाजिक सन्दर्भ के लिए उपयोगी समानताएं कम ही पेश करते हैं जो ग्लैडीएटोरिया मुनेरा को परिभाषित करता हो.[71] कानून के तहत, जिस किसी को भी अखाड़े या ग्लैडीएटर स्कूलों (एड लुडुम) की सजा दी जाती थी वह मृत्यु सजा के अंतर्गत सर्वस पोने होता था, जब तक कि मुक्त ना कर दिया जाए.[72] हैड्रियन का फर्मान, मजिस्ट्रेटों को याद दिलाता था कि "जिन लोगों को तलवार की सजा सुनाई गई है" उन्हें तुरंत भेजा जाना चाहिए "या कम से कम एक साल के भीतर". जिन लोगों को लुडी की सजा सुनाई गई है उन्हें पांच साल या तीन साल से पहले दासता से मुक्ति नहीं दी जानी चाहिए.[73] "स्वयंसेवक" ग्लैडीएटर की स्थिति अधिक समस्याग्रस्त है। घुड़सवारी और प्रशासनिक सहित सभी अनुबंधित स्वयंसेवकों को, उनके औक्टोराटियो द्वारा कानूनी रूप से ग़ुलाम बनाया जाता था क्योंकि इसमें एक स्वामी के प्रति उनका घातक समर्पण शामिल होता था।[74] और न ही नागरिक या मुक्त स्वयंसेवक की "पेशेवर" स्थिति आधुनिक सन्दर्भ में व्याख्यायित होती है। सभी एरेनारी (जो अखाड़े में प्रस्तुत होते थे) वे "प्रतिष्ठा से इन्फेम्स " होते थे, यह सामाजिक अनादर का एक रूप था जो उन्हें नागरिकता के अधिकांश अधिकारों और लाभों से वंचित करता था। इन प्रस्तुतियों के लिए भुगतान उनके इन्फेमिया से जुड़ा होता था।[75] सबसे लोकप्रिय और अमीर औक्टोराटी की कानूनी और सामाजिक स्थिति भी इस प्रकार हाशिये पर होती थी। वे मतदान नहीं कर सकते थे, अदालत में नहीं जा सकते थे और न ही वसीयत बना सकते थे; अगर उन्हें दासता से मुक्ति नहीं मिलती थी तो उनका जीवन और संपत्ति उनके आकाओं की होती थी।[76] पूर्ण कानूनी ना होते हुए ऐसे अनौपचारिक साक्ष्य मौजूद हैं जो बताते हैं कि इस व्यवस्था के विपरीत अभ्यास भी होता था। कुछ "निर्मुक्त" ग्लैडीएटरों ने पत्नियों और बच्चों को विरासत में धन और निजी संपत्ति दी, संभवतः सहानुभूतिपूर्ण मालिक या फमिलिया के माध्यम से; कुछ के पास अपने स्वयं के दास थे और उन्होंने उन्हें अपनी स्वतंत्रता दे दी.[77] एक ग्लैडीएटर को तो पूर्वी रोमन जगत के कई यूनानी शहरों की "नागरिकता" भी दी गई।[78] सबसे प्रशंसित और कुशल औक्टोराटी में वे थे जो गुलामी से मुक्त होने के बाद भी अखाड़े में उतरे.[79] इनमें से कुछ उच्च प्रशिक्षित और अनुभवी विशेषज्ञों के सामने कोई और व्यावहारिक विकल्प नहीं खुला होता होगा. रोमन कानून के तहत, एक पूर्व ग्लैडीएटर "मुक्ति के बाद ऐसी सेवाएं [ग्लैडीएटरों वाली] नहीं दे सकता था, क्योंकि अपनी जान को खतरे में डाले बिना इन्हें प्रदर्शित नहीं किया जा सकता था।"[80] 46 ई.पू. के सीज़र के मुनस में कम से कम एक घुड़सवार, एक प्रेटर का बेटा और संभवतः दो प्रशासनिक स्वयंसेवक शामिल थे।[81] ऑगस्टस के तहत, सीनेटरों और घुड़सवारों और उनके वंश को अखाड़े और उसके कर्मियों (एरेनारी) के सहयोग के इन्फेमिया से औपचारिक रूप से बाहर रखा जाता था। हालांकि कुछ मजिस्ट्रेटों - और बाद के कुछ सम्राटों ने - गर्भित या खुले तौर पर इस तरह के उल्लंघनों को माफ़ किया और कुछ स्वयंसेवक फलित होने वाली प्रतिष्ठा की हानि को स्वीकार करने के लिए तैयार थे। कुछ ने ऐसा भुगतान के लिए किया, कुछ ने सैन्य प्रशंसा के लिए - एक दर्ज मामले में - व्यक्तिगत सम्मान के लिए.[82][83] ग्यारहवीं सदी में ऑगस्टस ने जिसे ये खेल पसंद थे, अपने ही नियमों को परिवर्तित किया और घुड़सवारों को स्वयंसेवा की की अनुमति दी क्योंकि "निषेध का कोई महत्व नहीं था".[84] टिबेरिअस के शासन में, लारिनाम आदेश[85] (19वीं सदी) ने उन कानूनों को दोहराया जिसे खुद ऑगस्टस ने हटा दिया था। इसके बाद कालिगुला ने उनका उल्लंघन किया और क्लाऊडिअस ने उन्हें मजबूत बनाया. नीरो और कोमोडस ने उन्हें नजरअंदाज किया। कुछ सौ साल बाद, वैलेंटीनियन द्वितीय ने समान उल्लंघन के खिलाफ विरोध किया और उसी प्रकार के नियमों को दोहराया: उसका शासन आधिकारिक तौर पर ईसाई साम्राज्य था।[86][87][88] एक बहुत उल्लेखनीय सामाजिक पाखण्डी, ग्राची का एक अभिजाततंत्रीय वंशज था जो एक पुरुष सींग वादक के साथ अपने विवाह (दुल्हन के रूप में) के लिए कुख्यात था। उसने स्वैच्छिक और "बेशर्म" रूप से अखाड़े में प्रस्तुति दी और वह ना केवल एक निम्न रेटायरिअस टुनिकाटस के रूप में प्रस्तुत हुआ बल्कि महिला की पोशाक में स्वर्ण-रिबन जड़ित शंकुनुमा टोपी पहने हुए था। जुवेनल के वर्णन में, उसे परिवादात्मक रूप में आत्म प्रदर्शन, वाहवाही पसंद थी और जो सामना करने से बार-बार बच कर वह अपने दबंग प्रतिद्वंद्वी को अपमानित करता था।[89] कहा जाता है कि कालिगुला, टिटस, हेड्रियन, लुसिअस वेरस, कराकल्ला, गेटा और डिडीअस जुलिआनस ने अखाड़े में प्रदर्शन किया था (या तो निजी रूप से या सार्वजनिक रूप से), लेकिन उनके लिए जोखिम न्यूनतम था।[90] क्लाउडिअस - जिसे उसके इतिहासकारों द्वारा विकृत रूप से क्रूर और वहशी बताया गया है - उसने दर्शकों के समूह के सामने एक बंदरगाह में फंस व्हेल से लड़ाई की.[91] टिप्पणीकारों ने हमेशा ही ऐसे प्रदर्शन को अस्वीकृत किया।[92] सीनेट को शर्मिन्दा करते हुए कोमोडस लुडी में कट्टर हिस्सेदार होता था और वह सीनेट से घृणा करता था और जनता का मनोरंजन करता था। उसने सेक्यूटर के रूप में लड़ाई की और खुद को "हरक्युलिस का पुनर्जन्म" घोषित किया। बेस्टीएरिअस के रूप में कहा जाता है कि उसने एक दिन में 100 शेरों को मार डाला, लगभग निश्चित रूप से एरेना के चारों ओर बने ऐसे मंच से जहां से वह सुरक्षित रूप से अपनी निशानेबाजी दिखा सकता था। एक अन्य अवसर पर, उसने एक विशेष रूप से निर्मित भाले से एक दौड़ते शतुरमुर्ग का गला काट दिया और उसके खून भरे गले और अपनी तलवार को सीनेट के पास ले गया और ऐसे इशारा किया जैसे कि अगला निशाना वे ही हैं।[93] कहा जाता है कि उसने नीरो की विशाल प्रतिमा को अपनी छवि के रूप में परिवर्तित किया और इसे "हरक्यूलिस का पुनर्जन्म" बताया और उसे "सेक्युटोर के चैंपियन" के रूप में पुनः खुद को समर्पित किया; बाएं हाथ का एकमात्र लड़ाकू जिसने एक हजार पुरुषों पर बारह बार विजय प्राप्त की." इसके लिए, वह सार्वजनिक धन से एक भारी वजीफा लेता था।[94] शायद अपने जूनून और प्रशासनिक अक्षमता, दोनों की व्याख्या में, ऐसी चर्चा है कि उसकी मां, फौस्टिना छोटी ने उसे एक ग्लैडीएटर के साथ अपने संबध के परिणामस्वरूप जन्म दिया था।[95] आरंभिक नामित ग्लैडीएटर स्कूल (एक. लुडस, बहु. लुडी) कपुआ में औरिलिअस स्कौरस का है - वह लगभग 105 ई.पू. में राज्य द्वारा नियोजित ग्लैडीएटरों का लानिस्ता था जो सेना को प्रशिक्षण देता था और साथ में जनता का मनोरंजन करता था।[96] कुछ अन्य लानिस्ता को नाम से जाना जाता है: वे अपने फमिलिया ग्लैडीएटोरिया के मुखिया थे, जिनके पास वैध रूप से परिवार के प्रत्येक सदस्य की जीवन और मृत्यु पर अधिकार होता था, जिसमें शामिल था सर्वी पोने, औक्टोराटी और सहायक, लेकिन सामाजिक रूप से वे इन्फेम थे, जिनकी हैसियत दलाल और कसाई से ज्यादा नहीं थी और धन ऐठने वाले के रूप में उनसे घृणा की जाती थी।[97][98] एक अच्छे परिवार, उच्च स्थिति, स्वतन्त्र संसाधनों वाले ग्लैडीएटर मालिक (मुनेरारिअस या एडिटर) के साथ ऐसा कोई कलंक नहीं लगा होता था,[99] सिसरौ ने अपने दोस्त एटिकस को एक शानदार दल खरीदने पर बधाई दी - अगर वह उन्हें किराए पर देता है, तो सिर्फ दो प्रदर्शन के बाद ही वह उनकी पूरी कीमत वसूल कर सकता है।[100] स्पार्टाकस विद्रोह और मुनेरा के राजनीतिक शोषण के बाद, क़ानून ने उत्तरोत्तर स्वामित्व, सदस्य और स्कूलों के संगठन को प्रतिबंधित कर दिया. दोमिटीयन काल तक, इनमें से कई को राज्य द्वारा अवशोषित कर लिया गया, जिसमें पर्गामुम, अलेक्ज़ान्द्रिया, प्रेनेस्ते और कापुआ शामिल थे।[101] रोम शहर में ही चार थे; लुडस मैगनस (सबसे विशाल और सबसे महत्वपूर्ण, जिसमें करीब 2000 ग्लैडीएटर थे), लुडस देसिकस, लुडस गैलिकास, और लुडस मतुतिनस, जो बेस्टीअरी का प्रशिक्षण देता था।[102] औक्टोराटी के रूप में एक स्कूल में शामिल होने के लिए स्वयंसेवकों को मजिस्ट्रेट की अनुमति की आवश्यकता होती थी।[103] यदि यह प्रदान कर दिया जाता था, तो स्कूल का चिकित्सक उनकी उपयुक्तता का मूल्यांकन करता था। उनका अनुबंध (औक्टोरमेंटम) यह निर्धारित करता था कि वे कितनी बार लड़ेंगे, उनकी लड़ाई की शैली और कमाई कितनी होगी. एक घोषित दिवालिया या कर्जदार जिसे नोविसिअस के रूप में स्वीकार किया गया है, वह अपने लानिस्ता या एडिटर से आंशिक या पूर्ण ऋण भुगतान के लिए बातचीत कर सकता है। कुशल औक्टोराटी को शामिल करने के लिए सहज शुल्क के साथ, मार्कस औरीलिअस ने उनकी ऊपरी सीमा को 12,000 सेस्टर्सेस तय किया।[104] सभी संभावित ग्लैडीएटर - चाहे स्वयंसेवक हों या सजायाफ्ता - एक ही शपथ लेते थे (सैक्रामेन्टम).[105] विशेष युद्ध शैलियों के शिक्षकों के प्रशिक्षण के तहत तैयार नोविसेस (नोविसी) ने शायद ग्लैडीएटर को सेवानिवृत्त कर दिया.[106] वे श्रेणी के पदानुक्रम पर (पालुस) ऊपर जा सकते थे जिसमें प्राइमस पालुस सर्वोच्च था।[107] घातक हथियार स्कूलों में निषिद्ध थे - भारित, कुंद लकड़ी के संस्करण शायद उपयोग में लाए जाते थे। लड़ाई की शैलियों को, व्यवस्थित "संख्या" के रूप में लगातार अभ्यास के माध्यम से सीखा जाता था। एक सुरुचिपूर्ण, किफायती शैली को पसंद किया जाता था। प्रशिक्षण में एक भावहीन, बेहिचक मौत की तैयारी भी शामिल होती थी। सफल प्रशिक्षण में गहरी प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती थी।[108] जो सजायाफ्ता एड लुडुम थे उन्हें संभवतः हाथ, चेहरे और/या पांव पर एक टैटू (स्टिग्मा, बहुवचन स्तिग्माटा) द्वारा चिह्नित किया जाता था। स्तिग्माटा पाठ हो सकता है - जो दास भगोड़ा होता था उसके माथे पर चिह्नित किया जाता था और कौन्स्टेटीन ने 325 ई. में चेहरे के इस स्तिग्माटा के उपयोग को प्रतिबंधित किया। सैनिकों के हाथ पर चिह्नित किया जाता था।[109] ग्लैडीएटरों को आमतौर पर एक केंद्रीय अभ्यास मैदान के चारों ओर बने बैरक कमरों में रखा जाता था। जुवेनल ने ग्लैडीएटरों के पृथक्करण को प्रकार और हैसियत के अनुसार वर्णित किया है, जो स्कूलों के अन्दर कठोर पदानुक्रम को सूचित करता है: "अखाड़े के सबसे निचले स्तर में भी इस नियम का पालन किया जाता था; यहां तक कि कारावास में भी वे अलग रहते थे". रेतिआरी को दम्नाटी से दूर रखा जाता था और "बख़्तरबंद फौजी" को "क्लांत योजनाकारी" से. चूंकि अधिकांश ऑर्डिनरी एक ही स्कूल से थे, इससे कानूनी मुनस तक संभावित विरोधियों को एक-दूसरे से अलग और सुरक्षित रखा जाता था।[110] अनुशासन चरम हो सकता था और यहां तक कि घातक भी.[111] पोम्पियन लुडस साईट के अवशेष आपूर्ति, मांग और अनुशासन में विकास के सबूत प्रदान करते हैं; अपने आरम्भिक चरण में, इमारत में 15-20 ग्लैडीएटर रह सकते थे। इसके प्रतिस्थापन में करीब 100 रहते होंगे और इसमें एक बहुत छोटा कक्ष शामिल था, शायद कमतर दंड के लिए और इतना कम कि खड़े होना असंभव था।[112] कठोर अनुशासन के बावजूद, ग्लैडीएटरों ने अपने लानिस्टा के लिए पर्याप्त निवेश प्रदर्शित किया और उनकी देखभाल अच्छी तरह होती थी। उच्च ऊर्जा वाले उनके शाकाहारी आहार में शामिल था दलिया, उबला हुआ सेम, जौ, राख (माना जाता था कि इससे शरीर मजबूत होता है) और सूखे मेवे. आधुनिक एथलीटों की तुलना में, वे शायद अधिक वजन के थे, लेकिन इससे हो सकता है "वे विरोधियों के वार से उनके महत्वपूर्ण अंगों की रक्षा करते होंगे." इसी शोध का यह भी सुझाव है कि वे शायद नंगे पांव लड़ते थे।[113][114] नियमित मालिश और उच्च गुणवत्ता चिकित्सा देखभाल से अन्यथा अत्यंत कठोर प्रशिक्षण नियम की थकान को दूर करने में मदद मिलती होगी. गैलेन के चिकित्सा प्रशिक्षण का एक हिस्सा पेर्गामुम में एक ग्लैडीएटर स्कूल में था जहां उसने ग्लैडीएटरों के प्रशिक्षण, आहार और दीर्घकालीन स्वास्थ्य संभावनाओं को देखा (और बाद में आलोचना की).[115][116] आरम्भिक मुनेरा में, मृत्यु को लड़ाई का उचित परिणाम माना जाता था। बाद में, नामी ग्लैडीएटर अक्सर ऐसे मुकाबले में लड़ाई करते थे जिसे साइने मिसिओने (बिना रिहाई [मौत की सजा से]) विज्ञापित किया जाता था, जिससे यह पता चलता है कि उस समय तक मिसिओ आम हो गया था। एडिटर और लानिस्टा के बीच अनुबंध में अप्रत्याशित मौतों के लिए मुआवजा शामिल हो सकता था।[117] जब ग्लैडीएटर की मांग, आपूर्ति की तुलना अधिक होने लगी तो साइने मिसिओने मैचों पर आधिकारिक तौर पर प्रतिबंध लगा दिया गया, यह औगस्टस का एक व्यावहारिक निर्णय था जो "प्राकृतिक न्याय" के लोकप्रिय मांग को प्रतिबिंबित करता है। कालिगुला और क्लोडिअस द्वारा लोकप्रिय लेकिन पराजित योद्धाओं को छोड़ देने से इनकार कर देने से उनकी लोकप्रियता को बढ़ावा नहीं मिला. अधिकांश परिस्थितियों में, एक ग्लैडीएटर जिसने बेहतर लड़ाई का प्रदर्शन किया उसे छोड़ दिए जाने की संभावना होती थी।[118] दर्शकों को मुनस की एक निश्चित और वैध निष्कर्ष की अपेक्षा रहती थी। आम प्रथा के अनुसार, यह दर्शकों के निर्णय पर छोड़ दिया जाता था कि एक अपराजित ग्लैडीएटर को बख्शा जाना चाहिए या नहीं और वे "अनिर्णित" मुकाबले में विजेता का भी फैसला करते थे, हालांकि यह दुर्लभ था।[119] और भी दुर्लभ रूप से - शायद अद्वितीय - एक गत्यारोध को स्वयं एडिटर द्वारा एक ग्लैडीएटर की हत्या द्वारा समाप्त किया जाता था।[120] अधिकांश मुकाबले में एक वरिष्ठ रेफरी (सुम्मा रुडिस) और एक सहायक होता था, जिसे पच्चीकारी में एक लंबे दंड (रुडेस) के साथ दर्शाया गया है और वह रेफरी उस दंड से मुकाबले के दौरान महत्वपूर्ण मौकों पर प्रतिद्वंद्वियों को चेतावनी देता था या अलग करता था। एक ग्लैडीएटर की स्वयं स्वीकृत हार - जिसका संकेत वह एक उंगली उठा कर (एड डिजिटम) करता था - से रेफरी को लड़ाई को रोकने और एडिटर की ओर मुखातिब होने का इशारा मिलता था और एडिटर का फैसला आम तौर पर भीड़ की इच्छा पर टिका होता था। मैच के दौरान, रेफरी विवेक और फैसले का प्रयोग करता था; वे मुकाबलों को रोक सकते थे ताकि योद्धा आराम, जलपान और "मालिश" कर सकें.[121] ग्लैडीएटरों द्वारा लड़े जाने वाले मुकाबलों की संख्या में बहुत अंतर होता था। ज्यादातर, सालाना दो या तीन मुनेरा लड़ते थे लेकिन अज्ञात संख्या में कई अपने पहले मुकाबले में ही मारे गए। बहुत कम ही व्यक्तियों के लिए 150 से ऊपर के मुकाबले दर्ज हैं।[122] एक एकल मुकाबला शायद 10-15 मिनट, या अधिक से अधिक 20 मिनट तक चलता था।[123] दर्शक, पूरक युद्ध शैलियों वाले बेहतर मिलान वाले ऑर्डिनरी को पसंद करते थे लेकिन अन्य संयोजन भी मिलते हैं, जैसे कि कई ग्लैडीएटरों की एक साथ लड़ाई या एक पराजित ग्लैडीएटर की जगह दूसरे ग्लैडीएटर को विजेता के साथ युद्ध के लिए भेजना.[124] विजेताओं को एडिटर से ताड़ की शाखा और एक पुरस्कार हासिल होता था। एक उत्कृष्ट योद्धा को प्रसन्न भीड़ की तरफ से एक मुकुट और धन मिलता था लेकिन जो व्यक्ति मूल रूप से सजायाफ्ता एड लुडुम था उसके लिए सबसे बड़ा सम्मान मुक्ति थी, जिसके प्रतीक रूप में एडिटर के हाथों से लकड़ी की प्रशिक्षण तलवार का उपहार अथवा दंड (रुडिस) हासिल होता था। मार्शल ने प्रिस्कस और वेरस के बीच एक मुकाबले का वर्णन किया है, जिन्होंने बहादुरी के साथ इतनी देर तक लड़ाई की कि दोनों ने ही एक साथ हार स्वीकार की और टीटस ने दोनों को ही जीत और रुडिस से सम्मानित किया।[125] फ्लम्मा को चार बार रुडिस से सम्मानित किया गया लेकिन उसने ग्लैडीएटर ही बने रहने का चुनाव किया। सिसिली में उसकी कब्र-शिला पर लिखा है: "फ्लम्मा, सेक्यूटर, 30 वर्ष जीवित रहा, 34 बार लड़ा, 21 बार जीता, 9 बार बराबरी पर रहा, 4 बार पराजित हुआ, उसकी राष्ट्रीयता सीरिया की थी। डेलिकेटस ने इसे अपने साथी-योद्धा के लिए बनवाया."[126] इस खेल के और ग्लैडीएटर मुकाबलों के जीवित समकालीन वर्णनों को रोम के अभिजात वर्ग के सदस्यों द्वारा किसी तथ्य की व्याख्या करने या असाधारण का गुणगान करने के लिए लिखा गया था।[127] पुनर्निर्माण या सामान्यीकरण के लिए उनसे बहुत कम सामग्री ही उपलब्ध हो पाती है, लेकिन लिखित इतिहास, समकालीन वर्णनों, प्रस्तरप्रतिमा, क्षणिक-लेखों, संस्मरणों और सुन्दर चित्रमय साक्ष्य के इस्तेमाल से इस खेल की एक रूपरेखा समझी जा सकती है। लगभग सभी, उत्तरार्ध गणराज्य और साम्राज्य से आता है, उसमें से अधिकांश पोम्पेई से.[128][129] प्रारंभिक मुनेरा, मृतक की कब्र पर या पास में होता था और इसे उनके मुनेरेटर द्वारा आयोजित किया जाता था (जो भेंट प्रस्तुत करते थे). बाद के खेलों को एडिटर द्वारा आयोजित किया जाता था, या तो मुनेरेटर के साथ या फिर उसके द्वारा नियोजित एक अधिकारी द्वारा. समय के बीतने के साथ इन उपाधियां का विलय हो गया।[130] प्रिन्सिपेट के बाद से, निजी नागरिकों ने शाही अनुमति और एक लानिस्टा की सहायता से ग्लैडीएटर मुनेरा को व्यक्तिगत रूप वित्तपोषित किया, लेकिन एडिटर की भूमिका तेज़ी से राज्य के नौकरशाही के साथ जुड़ गई। क्लाउडिअस के बाद से, रोमन मजिस्ट्रेट का निम्नतम रैंक, क्वेस्टर, अपने छोटे शहरी समुदाय के लिए इन खेलों के लिए व्यक्तिगत रूप से दो-तिहाई कीमत प्रदान करने के लिए उत्तरदायी थे - जिससे उनकी व्यक्तिगत उदारता और साथ ही उनके कार्यालय का विज्ञापन होता था। बड़े खेलों का जिम्मा वरिष्ठ मजिस्ट्रेटों पर होता था, जो बेहतर तरीके से उन्हें आयोजित कर सकते थे। सबसे विशाल और सबसे भव्य मुकाबलों के खर्चे का वहन खुद राजा करता था।[129][131] औगस्टन विधान - या प्रथा ने मुनस को मुनस लेजीटीमम के रूप में मानकीकृत किया। सुबह के समय ये संयुक्त वेनेशिओनेस (पशु झड़प या पशु शिकार): संक्षिप्त लुड़ी मेरिडियानी दोपहर को और ग्लैडीएटोरेस मध्यान्ह में.[132][133] खेलों को विशाल होर्डिंग पर खेलों की वजह बताते हुए स्पष्ट रूप से विज्ञापित किया जाता था और इसके एडिटर, स्थान, तारीख और ग्लैडीएटर की जोड़ियों की संख्या (ऑर्डिनरी) भी बताई जाती थी। विशेष आकर्षणों में शामिल थे, वेनशिओनेस, सज़ाएं, संगीत और दर्शकों के लिए प्रदान की जाने वाली कोई भी विलासिता; इनमें शामिल हो सकता था धूप में सुसज्जित शामिआना और पानी के फुहारे. खाना, पीना, मिठाई और कभी-कभी "टिकट पुरस्कार" की पेशकश की जा सकती थी। एक अधिक विस्तृत कार्यक्रम (लिबेलस) को मुनस के दिन के लिए तैयार किया जाता था जिस पर ग्लैडीएटर जोड़ों के नाम, प्रकार (दांव लगाने वालों की रूचि के लिए) और मुकाबले के आकड़ें और उनका उतरने का क्रम लिखा होता है। लिबेलस की प्रतियों को मैच के दिन लोगों को वितरित किया जाता था।[134] बाएं हाथ के ग्लैडीएटर को लिबेली पर एक दिलचस्प दुर्लभ वस्तु के रूप में विज्ञापित किया जाता था; उन्हें दाएं हाथ वालों से मुकाबला करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता था, जिससे उनको बेहतर लाभ होता था और इससे बेहद रोचक अपरंपरागत संयोजन तैयार होता था।[135] मुनस से पहले की रात, मुकाबले के लिए सूचीबद्ध योद्धाओं को दावत दी जाती थी, इस अवसर पर वे अपने निजी और गोपनीय मामलों का भी आदेश दे सकते थे; फुट्रेल ने "आखिरी भोजन" के साथ इसकी समानता की चर्चा की है।[136] ये संभवतः पारिवारिक और सार्वजनिक कार्यक्रम होते थे जिसमें नोक्सी और दम्नाटी भी शामिल होते थे और उनका इस्तेमाल आने वाले मुकाबले को अधिक प्रचारित करने के लिए किया जाता था।[137][138] मुनस का दिन वेनेशिओनेस (पशु शिकार) और बेस्टीआरी (पशु युद्ध) ग्लैडीएटर के साथ शुरू होता था। कभी-कभी जानवरों को मारा नहीं जाता था और उन्हें सिर्फ प्रदर्शित किया जाता था।[139] लुड़ी मेरिडियानी की सामग्री परिवर्तित होती थी, लेकिन आमतौर पर इसमें नोक्सी (कभी-कभी "पौराणिक" अभिनय के रूप में) या अखाड़े के अन्य सजायाफ्ता (दम्नाटी) व्यक्तियों की ह्त्या शामिल होती थी।[140] ग्लैडीएटर इनमें शामिल होते थे यद्यपि भीड़ - और खुद ग्लैडीएटर - प्रतियोगिता की "गरिमा" को पसंद करते थे।[141] वहां हास्य लड़ाइयां भी होती थीं; कुछ घातक भी हो सकती थीं। एक कच्चे पोम्पियन भित्तिचित्र से संगीतकारों का व्यंग्य सामने आता है जो उर्सुस टिबिसेन (बांसुरी बजाता भालू) की पोशाक पहने हैं और पुलुस कोर्निसेन (सींग बजाती मुर्गी), जो शायद लुड़ी मेरिडियानी की प्रतियोगिता के दौरान पेग्निआरी द्वारा नौटंकी को दर्शाता है।[142] पोम्पियन कब्र के सबूत मुनस को एक नागरिक और धार्मिक अनुष्ठान के रूप में दर्शाते हैं जिसे एडिटर के रूप में एक मजिस्ट्रेट द्वारा प्रायोजित किया जाता था। एक बारात (पोम्पा) अखाड़े में प्रवेश करती है जिसके आगे शासन चिह्न लिए हुए लिक्टर चलते थे जो जीवन और मृत्यु पर मजिस्ट्रेट की शक्ति को दर्शाते थे। उनके पीछे धूमधाम से तुबिसिनेस का एक छोटा सा बैंड चलता था। देवताओं की छवियों को पोम्पा की महिमा के निमित्त साथ लिया जाता था, जिसके पीछे एक मुंशी होता था (परिणाम दर्ज करने के लिए) और विजेताओं को सम्मानित करने के लिए ताड़ की शाखा लिए एक व्यक्ति. मजिस्ट्रेट एडिटर, परिचारक वर्ग के साथ प्रवेश करता था जिनके पास प्रयोग किये जाने वाले हथियार और कवच होता था; इसके बाद और अधिक संगीतकार आते थे और उसके बाद घोड़े. ग्लैडीएटर शायद आखिरी में आते थे।[143] "अभ्यास" (वार्म-अप) मुकाबलों को भोथरे हथियारों के इस्तेमाल से मुख्य मुकाबलों से पहले लड़ा जाता था, - कुछ मुनेरा में पूरे समय ही भोथरे हथियारों का इस्तेमाल होता था।[144] एडिटर (या उसके सम्मानित प्रतिनिधि) "वास्तविक" मुकाबले के लिए हथियारों (प्रोबाटियो आर्मोरम) की जांच करते थे।[145] ये दिन के आकर्षण होते थे - जो उतने ही नवीन, भिन्न और अनूठे होते थे जितना एडिटर चाहता था। हथियार बहुत महंगे होते थे - कुछ हथियार विदेशी पंख, जवाहरात और कीमती धातुओं से अतिरंजित रूप से सुसज्जित होते थे। आगे चलकर मुनस, एडिटर द्वारा दर्शकों को दिया गया एक उपहार बन गया जो बेहतरीन देखने वहां आते थे।[146][147] लेट रिपब्लिकन मुनेरा में, 10 और 13 के बीच जोड़े एक दिन में लड़ते थे; जिसके अनुसार एक मुकाबला दोपहर को होता था।[137] लीबिया (लगभग 80-10 ईस्वी) में ज़िल्टेन मौज़ेक में प्रांतीय खेलों में संगीतकारों को वाद्य बजाते हुए दिखाया गया है (ग्लैडीएटर, बेस्टीआरी, या वेनातोरेस के साथ और कैदियों पर पशुओं के हमले के साथ). उनका उपकरण एक लंबी सीधी तुरही है (टुबिसेन), एक बड़ा घुमावदार सींग (कोर्नु) और एक जल वाद्य (हाईड्रौलिस) है।[148] इसी प्रकार की प्रस्तुतियों (संगीतकार, ग्लैडीएटर और बेस्टीआरी) को पोम्पेई में कब्र की नक्काशियों में पाया गया है।[149] मुनेरा (और लुडी) के लोकप्रिय गुटों का वर्णन सम्पूर्ण शाही युग में किया गया है।[150] औगस्टन कानून के तहत, सामनाईट प्रकार को सेक्यूटर नाम दिया गया था (एक आयताकार या "बड़ी" ढाल से सुसज्जित), जिसके समर्थक सेक्युटारी थे।[151] खेलों के विकसित होने के साथ, किसी भी हल्के से सशस्त्र, रक्षात्मक सेनानी को इस समूह में शामिल किया जा सकता था। भारी बख़्तरबंद और सशस्त्र थ्रेसियन प्रकार (थ्रैक्स) और मुर्मिलो, जो छोटे ढाल के साथ लड़ते थे, वे पर्मुलरी (छोटे ढाल) थे जैसा कि उनके समर्थक थे। ट्राजन को पर्मुलरी और दोमितियन को सेक्युटारी पसंद थे, मार्कस औरिलिअस ने किसी का पक्ष नहीं लिया। नीरो को उपद्रवी गुटों, उत्साहियों और कभी कभी हिंसक गुटों के बीच लड़ाई पसंद थी, लेकिन अगर वे अति करते तो सेना को बुलाया जाता था।[152][153] एक बार टुनिक्स में पांच रेतिआरियों के एक बैंड ने जिनका मुकाबला समान संख्या वाले सेक्यूटर से हुआ, बिना संघर्ष के परास्त हो गए; लेकिन जब उनकी मृत्यु का आदेश दिया गया तो उनमें से एक ने अपने त्रिशूल से सभी विजेताओं की ह्त्या कर दी. कालिगुला ने दुःख व्यक्त करते हुए इसे सार्वजनिक उद्घोषणा में सबसे क्रूर हत्या करार दिया.[154] वहां स्थानीय प्रतिद्वंद्विता भी थी। पोम्पेई एम्फिथियेटर में, पोम्पियन और नुसेरियन के बीच अपमानितों के व्यापार में सार्वजनिक लुडी के दौरान दर्शकों के बीच पथराव हुआ। कई मारे गए या घायल हो गए। नीरो ने सजा के तौर पर दस साल तक के लिए पोम्पेई में ग्लैडीएटर मुनेरा (खेलों पर नहीं) पर प्रतिबंध लगा दिया. इस कहानी को भित्ति चित्रण और दीवार पर की गई उच्च गुणवत्ता वाली पेंटिंग में बताया गया है, जिसमें नुसेरिया के ऊपर पोम्पेई की जीत पर जोर दिया गया है।[155] अधिकांश दर्शकों ने ग्लैडीएटर लड़ाइयों को अखाड़ों या एम्पिथियेटर में देखा जो पूरे गणराज्य और बाद में साम्राज्य में बने हुए थे।[156] आरंभिक मुनेरा शायद निजी मामले थे और गैर-विशेषाधिकार प्राप्त दर्शकों को इसकी दृश्यता उपलब्ध नहीं थी। जैसे-जैसे ये कार्यक्रम विशाल होते गए, मुक्त स्थान जैसे कि फोरम रोमानम को रोम में कार्यक्रम स्थल के रूप में विकसित किया गया, जहां संरक्षक और उच्च हैसियत वाले दर्शकों के बैठने के लिए अस्थाई, ऊंचा स्थान बनाया गया। ये वास्तव में सार्वजनिक घटनाएं नहीं थीं: बाज़ार में ग्लैडीएटर के प्रदर्शन को दिखाया जाना था और अधिकांश मजिस्ट्रेटों ने चारों तरफ मचान बना लिया था, ताकि उनके देखने में सुविधा हो. कैअस ने उन्हें आज्ञा दी कि वे अपने मचान को नीचे उतार लें, ताकि गरीब लोग बिना कुछ भुगतान के भी खेल देख सकें. लेकिन उनके इस आदेश का पालन किसी ने नहीं किया, उसने मजदूरों को इकट्ठा किया, जो उसके लिए काम करते थे और प्रतियोगिता से पहले वाली रात में सारे मचानों को गिरा दिया. जिससे अगली सुबह बाजार का क्षेत्र साफ था और आम लोगों को शगल देखने का एक मौका मिला. इसमें, आबादी ने सोचा कि उसने एक पुरुष की भूमिका निभाई; लेकिन उसने अपने सहयोगियों के मंचों का अनादर किया, जिन्होंने इस कृत्य को अभिमान से भरा और हिंसक कार्य माना.[157] गणराज्य के अंत की ओर, सिसरौ (मुरेना 72-3), अभी भी इस शो को टिकट वाला शो वर्णित करता है - इसकी उपयोगिता तब होती थी जब ग्रामीण नागरिकों को वहां आमंत्रित किया जाता था और ना कि रोम के सभी लोगों को सामूहिक रूप से - लेकिन शाही काल में - गरीब लोगों को मकई खैरात मुफ्त में बैठने का स्थान आवंटित किया जाता था, संभवतः लॉटरी द्वारा.[158] दूसरों को भुगतान करना पड़ता था। टिकट वितरक (लोकारी) कभी-कभी कम कीमत पर टिकट बेचते थे। मार्शल ने लिखा है कि "हरमीस [एक ग्लैडीएटर जो हमेशा भीड़ को आकर्षित करता था] टिकट वितरकों के लिए फायदे का सौदा हुआ करता था।"[159] मानक एम्फीथियेटर का ढांचा, फैसलों के क्रियान्वयन को देखने के लिए सुलभ बनाता था। यह ऊपर उठा हुआ, अलग स्थान था और फैसले वाली जगह से रोमन समुदाय को दूरी पर रखता था। वह एक थिएटर था, मैदान एक मंच के रूप में था, मनोरंजन और रोकथाम के लिए एक जगह, उसके अभिनेता बदनामी और मौत के साथ अपने सम्बन्ध से दूषित थे। स्टैंड के उस पास से भीड़ और एडिटर एक दूसरे के चरित्र और स्वभाव का आकलन कर सकते थे और स्वतंत्र रूप से अपनी खुशी या नाराजगी को आपस में व्यक्त कर सकते थे। भीड़ के लिए, यह एम्पीथियेटर स्वतंत्र अभिव्यक्ति और मुक्त भाषण का अद्वितीय अवसर प्रदान करता था (थियेत्रालिस लाइसेंसिया). याचिकाओं को समुदाय के सामने एडिटर (मजिस्ट्रेट के रूप में) को प्रस्तुत किया जा सकता था। फैक्सिओनेस और भाड़े के प्रशंसक अपना गुस्सा एक दूसरे पर निकाल सकते थे और कभी कभी सम्राटों पर भी. एम्फीथियेटर की भीड़ को प्रबंधित करने में सम्राट टीटस की गरिमा और आत्मविश्वास से भरा दृष्टिकोण उसकी अपार लोकप्रियता का एक कारण था और उसके साम्राज्य की सच्चाई के रूप में समझा जाता था। इसलिए एम्पीथियेटर मुनस, रोमन समुदाय के लिए एक सजीव थियेटर के रूप में कार्य करता था और लघु रूप में एक अदालत का, जिसमें न्यायाधीशों पर भी निर्णय लिए जाते थे।[160][161][162] मुनेरा के रोमन जीवन का एक स्थापित हिस्सा बनाने के काफी बाद स्थाई एम्पीथियेटर वजूद में आए. स्थायी स्थानों के पूर्व के प्रावधान को अवरुद्ध करना - और विशेष रूप से स्थायी बैठने की जगह के लिए - वास्तविक परेशानी को प्रदर्शित किया, ना सिर्फ राजनीतिक तबके में बल्कि शानदार मुनेरा की जरूरत से जनता के नैतिक उत्साह में कमी को प्रतिबिंबित करता है।[163] पोम्पेई के पहले एम्पीथियेटर को करीब 70 ई.पू. में सुल्ला उपनिवेशकों द्वारा बनाया गया था।[164] रोम शहर में पहला एम्फ़ीथियेटर गयुस स्क्रिबोनियस कुरियो था जिसे असाधारण लकड़ी से बनाया गया था (53 ई.पू. में निर्मित).[165] आंशिक रूप से पत्थर का बना एम्फ़ीथियेटर सबसे पहले रोम में 29-30 ई.पू. में उद्धाटित हुआ, जो ओक्टेवियन (बाद में ऑगस्टस) की तिहरी विजय के साथ हुआ।[166] 64 ई. में इसके जल जाने के कुछ ही समय बाद वेस्पासियन ने इसके प्रतिस्थापन को शुरू किया, जिसे बाद में एम्फ़ीथियेटरम फ्लेवियम (कोलीज़ीयम) के रूप में जाना गया, जिसमें 50,000 दर्शकों के बैठने की जगह थी और वह साम्राज्य का सबसे बड़ा था। इसका उद्घाटन टीटस द्वारा 80 ई. में किया गया, जो जनता के लिए सम्राट का व्यक्तिगत उपहार था, जिसका भुगतान शाही हिस्से के रूप में यहूदी विद्रोह के बाद हुआ।[167] एम्फ़ीथियेटर ने सामाजिक नियंत्रण के लिए भी एक संभावित मॉडल प्रदान किया। बैठने की व्यवस्था "उच्छृंखल और बेतरतीब" थी जब तक कि ऑगस्टस ने अपने सामाजिक सुधारों में इसकी व्यवस्था को निर्धारित नहीं किया। सीनेट को राजी करने के लिए, उसने उस सीनेटर की ओर से दुःख व्यक्त किया जिसे पुटोली में भीड़ भरे स्थान में बैठने की जगह नहीं मिली थी: इसकी प्रतिक्रिया में सीनेट ने यह फैसला सुनाया कि, जब भी कोई सार्वजनिक शो कहीं होगा तो सीटों की पहली पंक्ति सीनेटरों के लिए आरक्षित की जानी चाहिए; और रोम में वह सहयोगी देशों के प्रतिनिधियों को ऑर्केस्ट्रा में बैठने की अनुमति नहीं होगी, क्योंकि उन्हें बताया गया कि कभी-कभी मुक्त व्यक्तियों को भी नियुक्त किया गया था। उसने जनता से सैनिक गुण को अलग कर दिया. उसने आम जनता से विवाहित पुरुषों के लिए विशेष सीटें सौंपी, कम आयु के लड़कों के लिए अपना भाग और अपने बगल वाला अनुभाग गुरुओं के लिए था; और उसने यह फैसला सुनाया कि काला लबादा पहने कोई भी व्यक्ति घर के बीच में नहीं बैठना चाहिए. उसने महिलाओं को ऊपरी सीटों के सिवाय कहीं से भी ग्लैडीएटर को देखने की अनुमति नहीं दी, हालांकि यह पुरुषों और महिलाओं को इस तरह के शो में एक साथ बैठने की परम्परा थी। केवल साध्वी कुंवारियों को खुद के लिए एक जगह सौंपी गई, जो न्यायाधिकरण के विपरीत था।[168] ऐसा प्रतीत होता है कि इन व्यवस्थाओं को कठोरता से लागू नहीं किया गया।[152] सम्बंधित सभी लोगों के लिए मृत्यु की निकटता मुनस को परिभाषित करती थी। श्रेष्ठ मृत्यु के लिए, एक ग्लैडीएटर को ना तो दया की भीख मांगनी चाहिए और न ही रोना चाहिए.[169] एक "श्रेष्ठ मृत्यु" अपराजित ग्लैडीएटर को शर्मनाक कमजोरी और पराजय की निष्क्रियता से मुक्त करती थी और देखने वालों के लिए एक महान उदाहरण प्रस्तुत करती थी:[170] जब मौत हमारे पास खड़ी होती है, तब वह अनुभवहीन पुरुषों को भी वह साहस प्रदान करती है जिससे वे अपरिहार्य परिणति से बचने की तलाश ना करे. इसलिए ग्लैडीएटर, चाहे कितना भी कमज़ोर दिल हो, उसे पूरी लड़ाई के दौरान अपनी गर्दन को अपने प्रतिद्वंद्वी को प्रदान करना चाहिए और लहराती तलवार को महत्वपूर्ण स्थान पर पहुंचाता है। (सेनेका, एपिसल्स, 30.8) कुछ मोज़ाइक में पराजित ग्लैडीएटर को मृत्यु के क्षण के लिए तैयारी में घुटने टेके हुए दिखाया गया है। सेनेका के "महत्वपूर्ण स्थान" का तात्पर्य हो सकता है गर्दन है।[171] इफिसुस से मिले ग्लेडिएटर अवशेष इस बात की पुष्टि करते हैं।[172] पूरी तरह से विकसित सार्वजनिक मुनस में ग्लैडीएटर की मौत के बाद उसके शरीर को एक विधि अनुसार वहां से ले जाया जाता था; इसमें शामिल संस्कारों की उत्पत्ति, विकास और स्वरूप की जानकारी अनिश्चित है। ईसाई लेखक तेर्तुलियन रोमन कार्थेज में इस अभ्यास पर टिप्पणी करते हुए वर्णित करते हैं कि लाशों को वहां से वह हटाता था जो "जोव का भाई" डिस पाटर बनता था। अरेनारिअस एक मुगदर से लाश को मारता था और दूसरा जो बुध के लिबास में होता था, वह गरम डंडे से उसके जीवित होने का परीक्षण करता था। तेर्तुलियन कमेंटरी इस बात पर है कि खोखली अधर्मशीलता के रूप में प्रकट होती है; अपने निष्ठाहीन भक्तों की नज़रों में, रोम के झूठे देवताओं को मनोरंजन के प्रयोजनों के लिए मानव बलिदान और बुराई के लिए जानलेवा व्यक्तियों के रूप में प्रस्तुत किया जाता था। मरने वाला व्यक्ति नोक्सी या ग्लैडीएटर हो सकता है; केली मानता है कि तेर्तुलियन सन्दर्भ लूडी मेरिडियनी का है जिसमें अधिकांश नोक्सी हैं - इसलिए एरेना के ईसाई शहीद भी शामिल हैं - नाटकीय प्रहसन में अपने अंजाम को पाते थे। जबकि हर्मीस साइकोपोम्पस के साथ मरकरी की पहचान लगता है कि मुनेरा के चरम काल द्वारा स्थापित किया गया था और एक मरकरी (या हेमीज़) अरीनेरिअस व्यक्तित्व को इस काल के आसपास शुरू किया गया था, यह लूडी मेरिडियनी की एक नाटकीय नवीनता हो सकती है और ना कि ग्लैडीएटर मुनेरा की एक परंपरा थी। इसिडोर द्वारा इट्रस्केन दानव की बाद की पहचान (एक संभावित साइकोपोम्प) लेकिन एक अनुमानित एम्पीथियेटर "कैरन" (निश्चित रूप से एक साइकोपोम्प लेकिन इस सन्दर्भ में पुष्ट नहीं) के लिए चारून से एक काल्पनिक समर्थन मिल सकता है कि सम्पूर्ण रूप से इस खेल की उत्पत्ति इट्रस्कन थी। निकास संस्कार की कुछ जानकारी अधिक निश्चित है: ग्लैडीएटर जो अच्छी तरह से मरते उन्हें लिबितिना के एक सोफे पर गरिमा के साथ हटाया जाता था और लिबितिनारियन गेट से ले जाया जाता था; जिन्होंने खुद को अपमानित किया है उन्हें वहां जल्दी नहीं मारा जाता था और उन्हें अनुचरों द्वारा हुक से घसीट कर ले जाया जाता था और एक नोक्सी की तरह व्यवहार किया जाता था। इस बात की जानकारी नहीं है कि ऐसे ग्लैडीएटर की लाश को आगे की बदनामी से दोस्तों या फमिलिया द्वारा छुड़ाया जा सकता था या नहीं: तेर्तुलियन इस संबंध में भेद नहीं करता था, पुजारी ने एक स्थानापन्न लातिअरिस के साथ बृहस्पति रक्त शाब्दिक का प्रस्ताव किया होगा ग्लैडीएटर एक विषय विस्तार उसकी बलि - शहीदों के खून की पेशकश की भड़ौआ एक - लेकिन बृहस्पति लातिअरिस स्थानों पर (या एक त्योहार के लिए) मुनस के लिए समर्पित किया जाता था। चूंकि ऐसे किसी अभ्यास को दर्ज नहीं किया गया है, तेर्तुलियन को हो सकता है गलत समझा गया हो या गलत व्याख्या की गई हो. आधुनिक रोग परीक्षा से यह निश्चित किया गया है कि कुछ ग्लैडीएटर की खोपड़ी पर घातक लकड़ी के हथौड़े का उपयोग किया गया:[173] इसके अलावा, शरीर को अनुचरों द्वारा एरेना से हटा दिया गया होगा, चाहे जिस रूप में या चाहे जिस तरीके से और कुछ मामलों में उनका गला काट दिया जाता था ताकि यह सुनिश्चित हो जाए कि वह मर चुका है। इस बीच, मैदान की रेत को अगली लड़ाई के लिए ठीक किया जाता, या ताजी रेत को बिखरा जाता.[174] ग्लैडीएटरों की समग्र मृत्यु दर अज्ञात है, लेकिन कुछ उनमें से कुछ ही 10 मैच से अधिक या 30 की उम्र पार करते थे। एक (फेलिक्स) 45 वर्ष तक जीवित रहा और एक सेवानिवृत्त ग्लैडीएटर 90 तक जीवित रहा. जॉर्ज विले ने ग्लैडीएटर के लिए मृत्यु की औसत 27 वर्ष बताई (क़ब्र के पत्थर के सबूत के आधार पर) और उनकी मृत्यु दर की गणना प्रथम सदी में 19/100 पर थी। पर्जितों के लिए मृत्यु में बढ़ोतरी हुई, शाही काल के उत्तरार्ध में 1/5 से घाट कर 1/4 हो गई, जिसका मतलब है मिसिओ को कम प्रदान किया जाता था।[175] मार्कस जनकलमन ने मृत्यु की उम्र की औसत के लिए विले के विचारों से असहमति दर्शाई है, बहुमत क़ब्र का पत्थर नहीं प्राप्त होता है और उनके कैरियर के शुरू में निधन हो गया होता है उम्र के 18-25 साल से कम है।[कृपया उद्धरण जोड़ें] मौत और निपटान ने प्रभागों और समाज के निर्णय को स्थिर बनाया. पूर्व-ईसाई युग में, सर्वोच्च स्थिति की अंत्येष्टि में शामिल थे महंगे भेंट, लंबे समय तक दाह संस्कार समारोह, जिसे कभी-कभी मुनस के साथ पूरा किया जाता था। इसके चरम विपरीत, नोक्सी (और संभवतः अन्य दम्नती) को नदियों में फेंक दिया जाता था या बिना दफनाएं छोड़ दिया जाता था।[176] मौत से परे इस विस्तारित दम्नातियो में सदा विस्मरण लेमुरेस या लार्वा भयानक पृथ्वी के रूप में करने के लिए बेचैन भटक पर.[177] अन्य सभी नागरिकों को चाहे वे दास, या मुक्त - आम तौर पर शहर या शहर की सीमा के परे अनुष्ठान और उनके समुदाय के भौतिक प्रदूषण से बचने के लिए अंत्येष्टि की जाती थी। ग्लैडीएटर को अलग कब्रिस्तान में दफनाया जाता था। यहां तक कि उन लोगों के लिए जिनकी मौत ने रिहाई लाई हो इन्फेमिया का कलंक सतत था।[178] स्मारक एक बड़ा खर्च थे और जो लोग समृद्ध थे उन्ही की वे गवाही देते हैं। ग्लैडीएटर यूनियन (कोलेजिया) की सदस्यता ले सकते थे, जिससे उचित अंत्येष्टि सुनिश्चित होती थी, जिसमें पत्नी और बच्चों के लिए मुआवजा मिलता था। ग्लैडीएटर की फमिलिया या उसके एक सदस्य को (जिसमें शामिल हैं लानीस्ते, साथी, पत्नी और बच्चे) कभी-कभी पैसा मिलता था।[179] पूर्वी साम्राज्य से मकबरे शिलालेख इन छोटे उदाहरणों में शामिल हैं: "फमिलिया इसे सतर्निलोस की स्मृति में करता था।" "सिनेतोस के पुत्र निकफारोस के लिए, लाकेदैमोनियन और नार्सिसस के लिए सेक्यूटर. टाइटस फ्लेविअस सैतिरस ने अपने खुद के पैसे से उनकी स्मृति में इस स्मारक की स्थापना की. " "हर्मीस के लिए. अपने साथियों के साथ पैत्रैट्स की स्मृति में था।"[180] दासता का हाथ हार बदनामी की ग्लैडीएटर का एक दोष है और उसका स्मारक बदला लेने, कुशल सेनाई के रूप में एक बनाए रखा उसका नैतिकता में शाश्वत के रूप में: "मैं, विक्टर, बाएं हाथ का, यहां हूं, लेकिन मेरी मातृभूमि थिस्सलुनीका में थी। कयामत ने मुझे मारा, ना कि झूठे पिनास ने. उसे और घमंड ना करने दें. मेरा एक साथी ग्लैडीएटर था, पोलिनिकस, जिसने पिनास को मार कर मेरा बदला लिया। मेरी छोड़ी गई विरासत से क्लोडिअस थालुस ने इस स्मारक को बनवाया."[181] वह आदमी जिसे यह पता है कि युद्ध में कैसे जीता जाता है वह ऐसा आदमी है जो जानता है कि कैसे एक भोज की व्यवस्था की जाती है।[182] रोम मूलतः एक जमींदार सैन्य अभिजात वर्ग था। गणतंत्र के शुरुआती दिनों से, सैन्य सेवा के दस साल एक नागरिक के कर्तव्य और सार्वजनिक पद के लिए चुनाव के लिए एक शर्त थी। देवोटियो (अपने जीवन को अधिक अच्छाई के लिए बलिदान करने की इच्छा) आदर्श सैन्य रोमन था करने के लिए केंद्रीय और शपथ रोमन सैन्य था कोर की. यह कमान के क्रम में उच्च से निम्नतम पर सभी पर समान रूप से लागू होता था।[183] जब एक सैनिक एक बड़े उद्देश्य के लिए अपने जीवन को दांव पर लगाता था, अधिक से अधिक कारण रोम में से एक है कम से कम स्वेच्छा से, कम से (उनके जीवन के लिए प्रतिबद्ध है, वह हार जीवित करने के लिए वांछित था नहीं.[184][185] तृतीय शताब्दी ई.पू. के प्यूनिक युद्ध - कनै के निकट रोमन हथियारों की आपत्तिजनक हार के बाद - इसका प्रभाव स्थायी रूप से गणराज्य, उसके नागरिक सेनाओं और ग्लैडीएटर मुनेरा के विकास पर पड़ा. कनै के प्रभाव स्वरूप बाद में, स्सिपियो अफ्रिकानुस भगोड़ों को क्रूस पर चढ़ाया गया और रोमन भगोड़ों को जानवरों के सामने फेंक दिया गया।[186] सीनेट ने हैनिबल के रोमन बड़ियों के लिए फिरौती से इनकार कर दिया: इसके बजाय, उन्होंने कठोर तैयारी की: नियति की पुस्तकें की आज्ञाकारिता में, कुछ अजीब और असामान्य बलिदान दिए गए थे, उनमें मानव बलि भी थी। एक फ्रेंच भाषी आदमी और एक फ्रेंच भाषी औरत और एक ग्रीक आदमी और एक ग्रीक औरत को फोरम बोआरिअम के नीचे जिंदा दफन कर दिया गया था। .. उन्हें एक पत्थर के तहखाने में उतारा गया, जहां पहले भी मानव पीड़ितों का प्रदूषण व्याप्त था, यह अभ्यास रोमन भावनाओं के प्रतिकारक था। जब देवताओं को विधिवत खुश करना माना जाता था। .. कवच, हथियार और इसी तरह की अन्य चीजों को तैयार रखने का आदेश दिया गया और मंदिरों और महलों से दुश्मन की प्राचीन लूट को इकट्ठा किया गया। मुक्त लोगों की कमी के कारण एक नई तरह की आवश्यकता उभरी; गुलामों में से 8000 तगड़े युवकों को सार्वजनिक कीमत पर सशस्त्र रूप से तैयार किया गया और उनसे पूछा गया कि क्या वे सेवा करने के लिए तैयार हैं या नहीं. इन सैनिकों को पसंद किया जाता था क्योंकि उन्हें कम कीमत पर फिरौती देकर छुडाया जा सकता था यदि उन्हें कैदी बना लिया जाए तो.[187] एक स्वैच्छिक शपथ डेवोतियो के द्वारा एक दास रोमन (रोमनिटास) का गुण हासिल कर लेता था और सच्ची नैतिकता का स्वरूप होता था (मर्दानगी का) और विडंबना स्वरूप एक दास होते हुए ही मिसिओ प्राप्त करता था।[162] असुविधाजनक रूप से - इस वर्णन में हाल के मानव बलिदान की निकटता भी है। जबकि सीनेट दास जुटाई उनके लिए तैयार है, हैनिबल मुनस पेशकश अपने अपमान के लिए रोमन रोमन मौका बंदी एक तरह मौत माननीय बहुत कुछ के रूप में वर्णन लिवि के रूप में है। मुनस शपथ था इस प्रकार एक अनिवार्य सैन्य, स्वयं बलि आदर्श है ग्लैडीएटर में, तृप्ति के लिए लिया चरम.[105] विशेषज्ञ लड़ाकू के रूप में ग्लैडीएटर और ग्लैडीएटर स्कूलों का लोकाचार और संगठन, अपने समय का रोमन सैन्य का सबसे ताकतवर और प्रभावी रूप में विकास था।[188][189] 107 ई.पू. में मैरिएन सुधार के रूप में रोमन सेना की स्थापना एक पेशेवर निकाय के रूप में की गई। दो साल बाद, अरौसियो में इसकी हार के बाद: ... सैनिकों को हथियार प्रशिक्षण को पी. रुतिलिअस के साथ सलाहकार सी. मालिस द्वारा दिया गया। उसने, पिछले किसी आम जनरल का उदाहरण ना मानते हुए, ग्लैडीएटर प्रशिक्षण स्कूल से सी. औरेलास स्कौरस को शिक्षकों के साथ तलब किया, पुण्य से बचने और संबंधित एक और कौशल और कौशल के साथ वापस मिश्रित बहादुरी झटका का एक और अधिक परिष्कृत पद्धति प्रत्यारोपित फिर ताकि कौशल जोश और जुनून के साथ इस कला के ज्ञान के साथ और मजबूत बन कर बहादुरी से लड़े.[30] सेना इस खेल की महान प्रशंसक थी और स्कूलों की देखरेख करती थी। कई स्कूलों और एम्फीथियेटर को बैरकों के पास रखा गया था और कुछ प्रांतीय सेना की इकाइयों के पास ग्लैडीएटर मंडलियों का स्वामित्व था।[190] गणतंत्र के पतन के साथ, सेना सेवा की अवधि को दस से बढ़ा कर सोलह वर्ष कर दिया गया जिसे प्रिन्सिपेट में ऑगस्टस द्वारा औपचारिक बना दिया गया। यह बाद में बीस साल होकर, बाद में पच्चीस वर्षों तक के लिए हो गई। रोमन सैन्य अनुशासन क्रूर था; जो कठोर नतीजों के बावजूद विद्रोह को भड़काता था। स्वयंसेवक ग्लैडीएटर के रूप में एक कैरियर कुछ लोगों के लिए एक आकर्षक विकल्प हो सकता था।[191] चार सम्राटों के वर्ष में, बेद्रिआकम में ओथो की सेना में 2000 ग्लैडीएटर शामिल थे। उसके सामने मैदान पर वितेलिअस की सेना में दास, घटिया लोग और ग्लैडीएटर भरे हुए थे।[192] 167 ई. में प्लेग और अभित्यजन के कारण हुए सेना क्षति से मार्कस औरीलिअस ने अपने स्वयं के खर्च पर ग्लैडीएटर को भर्ती किया। ग्लैडीएटर मैदान के लिए एक बेहतर सैनिक नहीं थे लगता करने - उनकी भर्ती को हताशा का कार्य के रूप में एक देखा जाना चाहिए.[193] गृह युद्धों के दौरान प्रिन्सिपेट, ओक्टावियन (बाद में ऑगस्टस) ने अपने पूर्व प्रतिद्वंद्वी, मार्क एंटनी के निजी ग्लैडीएटर सेना को हासिल कर लिया। उन्होंने अनुकरणीय निष्ठा के साथ अपने स्वर्गीय गुरु की सेवा की थी, लेकिन उन्हें चुपचाप निकाल दिया गया। वे सब, आखिरकार इन्फेम्स थे।[61] समग्रता से रोमन लेखन में ग्लैडीएटोरिया मुनेरा के प्रति एक गहरी उभयवृत्तिता दिखती है। यहां तक कि सबसे जटिल और परिष्कृत मुनेरा भी अंडरवर्ल्ड के प्राचीन, पैतृक डी मानेस की याद दिलाता है और इन्हें सैक्रिफिसिंअम की सुरक्षा, वैध संस्कार द्वारा तैयार किया जाता था। उनकी लोकप्रियता अपरिहार्य विकल्प द्वारा राज्य बनाया सह उनके; सिसरो ने प्रायोजक के रूप में उनकी राजनीतिक अनिवार्यता को स्वीकार किया।[194] ग्लैडीएटर के लोकप्रिय मनुहार के बावजूद, वे अलग थे, तुच्छ थे और भीड़ के लिए सिसरौ की अवमानना के बावजूद, वह उनकी प्रशंसा साझा करता था: "यहां तक कि जब [ग्लैडीएटर] गिर जाते थे, अकेले जब वे खड़े कर रहे हैं और लड़ाई के वक्त खुद को वे अपमानित कभी नहीं करते थे। और मान लीजिये एक ग्लैडीएटर को भूमि पर लाया गया है, तो आपको यह कहां देखने को मिलता है कि कोई आदमी उसकी गर्दन मोड़ रहा है दूर के बाद वह इसे मौत उड़ाने के लिए विस्तार करने का आदेश दिया गया है जब? " उसकी अपनी मृत्यु बाद में उसके उदाहरण का अनुकरण करेगी.[195][196] फिर भी सिसरौ अपने लोकप्रिय प्रतिद्वंद्वी क्लोडीअस का सार्वजनिक और हानिकारक रूप से उल्लेख भी करता है, एक बस्तुआरिअस के रूप में - सचमुच, एक "अंतिम संस्कार आदमी", जिसका अर्थ है कि क्लोडीअस ने निचले तरह के ग्लैडीएटर के नैतिक स्वभाव को दिखाया है। ऐसे महीन भेद को अलग कर दें तो, "ग्लैडीएटर" को पूरे रोमन अवधि में अपमान के रूप में उपयोग किया गया होगा.[197] सिलिअस इतालिकस के लिए जो खेल के रूप में लिखा शिखर के पास उनके, पतित कम्पानियन रोम में से एक था तैयार कपड़े नैतिक बहुत खराब में से जो अब धमकी दी है और उदाहरण: "यह उनकी परम्परा थी की वे अपनी दावत को रक्तपात के साथ सजीव करते थे जहां गठबंधन करने के लिए और सशस्त्र लड़ाई पुरुषों की भयंकर दृष्टि, अक्सर लड़ाकों के बहुत कप ऊपर मृत हो गया, जो तालिकाओं खून की धाराओं के साथ दाग रहे थे। इस प्रकार कपुआ हतोत्साहित हुआ।"[198] मौत को सजा के रूप में ठीक समझा सकता है, या युद्ध या शांति में भाग्य के उपहार में मिले फल के साथ धैर्य के रूप में एक है, लेकिन उद्देश्य नैतिक बिना मौत प्रवृत्त नीच था और यह हो सकता है अपवित्र देखा और जो उन पहुंचाना.[199] जबकि खुद मुनस को एक पवित्र आवश्यकता के रूप में व्याख्या की जा सकती है, मुनेरा की बढ़ती लक्ज़ुरिया के द्वारा आवारगी को प्रोत्साहित पुण्य जीर्णशीर्ण रोमन: इस तरह के विदेशी व्यभिचार ने रोमन भूख को बढ़ा दिया था।[200] सीज़र के 46 ई.पू. के लुडी को उसके पिता की मृत्यु के बाद 20 वर्ष के अंतराल पर शायद ही मुनस के रूप में परिभाषित किया जा सकता है मनोरंजन थे पाने के लिए राजनीतिक मात्र जो मामले में वे थे। डियो सड़क दावा रोमन की आवाज का प्रतिनिधित्व करते मुनस है - जीवन को बेकार और पैसे बेहतर उपयोग में थे। बेहतर था कि सेना के जरूरतमंद दिग्गजों के लिए इसे निकाला जता.[201] सेनेका के लिए और मार्कस औरिलिअस के लिए - दोनों पेशेवर बैरागी - धैर्य और, भाग्य और मृत्यु के चेहरे के गुरु उनके बिना शर्त उनके मुनस डाला उदासीन - गुण आज्ञाकारिता करने के लिए अपने में से ग्लैडीएटर गिरावट. "न तो उम्मीद और न ही भ्रम" होने पर, ग्लैडीएटर अपने ही आधारच्युत प्रकृति को पार कर सकता था और मौत के साथ आमने सामने की मुलाक़ात से उसे निरर्थक कर सकता था। साहस, गरिमा, परोपकारिता और निष्ठा, नैतिक रूप से मुक्तिकारक थे; लुसियान ने इस सिद्धांत को अपनी सुसियन की कहानी में आदर्श रूप में स्थापित किया, जिसने एक ग्लैडीएटर के रूप में स्वेच्छा से लड़ाई की और 10,000 ड्राक्मा कमाया और उसका उपयोग अपने मित्र, टोक्सारिस की आजादी खरीदने के लिए किया।[202] कृत्रिम वीर्य सेचन उत्कृष्ट नस्लों के नर पशु के वीर्य को एकत्र कर उसका तनूकरण करके द्रव्य नाइट्रोजन में १९६° से० पर भंडारित करना तथा निम्न कोटि की नस्लवाली मादाओं का सेचन इस वीर्य से करना कृत्रिम वीर्य सेचन या आर्टिफीशियल इन्सेमिनेशन कहलाता है। विकिहाउ (wikiHow) तरह-तरह के काम करने की विधि बताने वाली मार्गदर्शिकाओं का एक भण्डार है। यह विकि-आधारित तथा अन्तरजाल-आधारित जनसमुदाय है। इसका लक्ष्य विश्व की सबसे बड़ी एवं सर्वोत्कृष्ट कार्य-मार्गदर्शिकाएँ निर्मित करना है। यह जालस्थल पहले से ही विद्यमान 'इ-हाउ' (eHow) नामक वेबसाइट का परिवर्धित रूप है। इस समय इसमें लगभग डेढ़ लाख मार्गदर्शी लेख हैं। फ्लूरिन एक कार्बनिक यौगिक है। अरविन्द घोष या श्री अरविन्द (बांग्ला: শ্রী অরবিন্দ, जन्म: १८७२, मृत्यु: १९५०) एक महान योगी एवं दार्शनिक थे। वे १५ अगस्त १८७२ को कलकत्ता में जन्मे थे। इनके पिता एक डाक्टर थे। इन्होंने युवा अवस्था में स्वतन्त्रता संग्राम में क्रान्तिकारी के रूप में भाग लिया, किन्तु बाद में यह एक योगी बन गये और इन्होंने पांडिचेरी में एक आश्रम स्थापित किया। वेद, उपनिषद ग्रन्थों आदि पर टीका लिखी। योग साधना पर मौलिक ग्रन्थ लिखे। उनका पूरे विश्व में दर्शन शास्त्र पर बहुत प्रभाव रहा है और उनकी साधना पद्धति के अनुयायी सब देशों में पाये जाते हैं। यह कवि भी थे और गुरु भी। अरविन्द के पिता डॉक्टर कृष्णधन घोष उन्हें उच्च शिक्षा दिला कर उच्च सरकारी पद दिलाना चाहते थे, अतएव मात्र ७ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने इन्हें इंग्लैण्ड भेज दिया। उन्होंने केवल १८ वर्ष की आयु में ही आई० सी० एस० की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। इसके साथ ही उन्होंने अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, ग्रीक एवं इटैलियन भाषाओँ में भी निपुणता प्राप्त की थी। देशभक्ति से प्रेरित इस युवा ने जानबूझ कर घुड़सवारी की परीक्षा देने से इनकार कर दिया और राष्ट्र-सेवा करने की ठान ली। इनकी प्रतिभा से बड़ौदा नरेश अत्यधिक प्रभावित थे अत: उन्होंने इन्हें अपनी रियासत में शिक्षा शास्त्री के रूप में नियुक्त कर लिया। बडौदा में ये प्राध्यापक, वाइस प्रिंसिपल, निजी सचिव आदि कार्य योग्यता पूर्वक करते रहे और इस दौरान हजारों छात्रों को चरित्रवान देशभक्त बनाया।[1] 1896 से 1905 तक उन्होंने बड़ौदा रियासत में राजस्व अधिकारी से लेकर बड़ौदा कालेज के फ्रेंच अध्यापक और उपाचार्य रहने तक रियासत की सेना में क्रान्तिकारियों को प्रशिक्षण भी दिलाया था। हजारों युवकों को उन्होंने क्रान्ति की दीक्षा दी थी। वे निजी रुपये-पैसे का हिसाब नहीं रखते थे परन्तु राजस्व विभाग में कार्य करते समय उन्होंने जो विश्व की प्रथम आर्थिक विकास योजना बनायी उसका कार्यान्वयन करके बड़ौदा राज्य देशी रियासतों में अन्यतम बन गया था। महाराजा मुम्बई की वार्षिक औद्योगिक प्रदर्शनी के उद्घाटन हेतु आमन्त्रित किये जाने लगे थे। लार्ड कर्जन के बंग-भंग की योजना रखने पर सारा देश तिलमिला उठा। बंगाल में इसके विरोध के लिये जब उग्र आन्दोलन हुआ तो अरविन्द घोष ने इसमे सक्रिय रूप से भाग लिया। नेशनल ला कॉलेज की स्थापना में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। मात्र ७५ रुपये मासिक पर इन्होंने वहाँ अध्यापन-कार्य किया। पैसे की जरूरत होने के बावजूद उन्होंने कठिनाई का मार्ग चुना। अरविन्द कलकत्ता आये तो राजा सुबोध मलिक की अट्टालिका में ठहराये गये। पर जन-साधारण को मिलने में संकोच होता था। अत: वे सभी को विस्मित करते हुए 19/8 छक्कू खानसामा गली में आ गये। उन्होंने किशोरगंज (वर्तमान में बंगलादेश में) में स्वदेशी आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। अब वे केवल धोती, कुर्ता और चादर ही पहनते थे। उसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय विद्यालय से भी अलग होकर अग्निवर्षी पत्रिका वन्देमातरम् का प्रकाशन प्रारम्भ किया। ब्रिटिश सरकार इनके क्रन्तिकारी विचारों और कार्यों से अत्यधिक आतंकित थी अत: २ मई १९०८ को चालीस युवकों के साथ उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इतिहास में इसे 'अलीपुर षडयन्त्र केस' के नाम से जानते है। उन्हें एक वर्ष तक अलीपुर जेल में कैद रखा गया।| अलीपुर जेल में ही उन्हें हिन्दू धर्म एवं हिन्दू-राष्ट्र विषयक अद्भुत आध्यात्मिक अनुभूति हुई। इस षड़यन्त्र में अरविन्द को शामिल करने के लिये सरकार की ओर से जो गवाह तैयार किया था उसकी एक दिन जेल में ही हत्या कर दी गयी। घोष के पक्ष में प्रसिद्ध बैरिस्टर चितरंजन दास ने मुकदमे की पैरवी की थी। उन्होने अपने प्रबल तर्कों के आधार पर अरविन्द को सारे अभियोगों से मुक्त घोषित करा दिया। इससे सम्बन्धित अदालती फैसले ६ मई १९०९ को जनता के सामने आये। ३० मई १९०९ को उत्तरपाड़ा में एक संवर्धन सभा की गयी वहाँ अरविन्द का एक प्रभावशाली व्याख्यान हुआ जो इतिहास में उत्तरपाड़ा अभिभाषण के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने अपने इस अभिभाषण में धर्म एवं राष्ट्र विषयक कारावास-अनुभूति का विशद विवेचन करते हुए कहा था[2]:। चम्पकलाल, नलिनि कान्त गुप्त, कैखुसरो दादाभाई सेठना, निरोदबरन, पवित्र, एम पी पण्डित, प्रणब, सतप्रेम, इन्द्र सेन विषय बंगाल का इतिहास · आदिधर्म · ब्रिटिश राज · बांग्ला साहित्य · बांला कविता · बांग्ला संगीत · ब्रह्म समाज · इयं बेंगाल · ब्रिटिश इन्डियन एसोसिएशन · स्वदेशी आन्दोलन · सत्याग्रह · तत्त्वबोधिधिनी पत्रिका · ठाकुर परिवार · रवीन्द्र संगीत · रवीन्द्र नृत्यनाट्य · शान्ति निकेतन · बंगीय साहित्य परिषद · संवाद प्रभाकर संस्थाएँ आनन्दमोहन कलेज · एशिय़ाटिक सोसाइटि · बङ्ग महिला बिद्यालय़ · बङ्गबासी कलेज · बेथुन कलेज · क्यालकाटा सिभिल इञ्जिनिय़ारिं कलेज · क्यालकाटा माद्रासा कलेज · कलकाता मेडिक्याल कलेज ओ हासपाताल · डाफ कलेज · फोर्ट उइलिय़ाम कलेज · फ्रि चार्च इनस्टिटिउशन · जेनारेल अ्यासेम्बिज इनस्टिटिउशन · हिन्दु कलेज · हिन्दु महिला बिद्यालय़ · हिन्दु थिय़ेटार · इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टिवेशन ऑफ साइंस · भारतीय सांख्यिकी संस्थान · बंगीय जातीय शिक्षा परिषद · ओरिएन्टल सेमिनारी · प्रेसिडेंसी कॉलेज · रिपन कॉलेज · संस्कृत कॉलेज · राममोहन कॉलेज · श्रीरामपुर कॉलेज · स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन · स्काटिश चर्च कॉलेज · विद्यासागर कॉलेज · विश्वभारती विश्वविद्यालय · कोलकाता विश्वविद्यालय · ढाका विश्वविद्यालय व्यक्तित्व अरविन्द घोष · राजनारायण बसु · बेथुन · बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय · शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय · अक्षयकुमार दत्त · हेनरी लुई विवियन डिरोजिओ · माइकल मधुसूदन दत्त · रमेशचन्द्र दत्त · द्बारकानाथ गंगोपाध्याय · कादम्बिनी गंगोपाध्याय · मनमोहन घोष · रामगोपाल घोष · अघोरनाथ गुप्त · काजी नजरुल इस्लाम · हरिश्चन्द्र मुखोपाध्याय़ · सुबोधचन्द्र मलिक · शम्भुनाथ पण्डित · रामकृष्ण परमहंस · गौरगोविन्द राय · राममोहन राय · अक्षयचन्द्र सरकार · महेन्द्रलाल सरकार · ब्रजेन्द्रनाथ शील · गिरीशचन्द्र सेन · केशवचन्द्र सेन · हरप्रसाद शास्त्री  · देवेन्द्रनाथ ठाकुर · रवीन्द्रनाथ ठाकुर · सत्येन्द्रनाथ ठाकुर · ब्रह्मबान्धव उपाध्याय · रामचन्द्र विद्यावागीश · द्बारकानाथ विद्याभूषण · ईश्बरचन्द्र विद्यासागर · स्वामी विवेकानन्द · द्बिजेन्द्रनाथ ठाकुर · स्वर्णकुमारी देवी · प्रसन्नकुमार ठाकुर · रमानाथ ठाकुर · ज्ञानेन्द्रमोहन ठाकुर · मोहितलाल मजुमदार इगोर पावलोव (Ihor Synowijowytsch Pawljuk); 1 जनवरी [1967] में Volhynia (यूक्रेन) एक यूक्रेनी लेखक . उनकी मां 10 दिनों में अपने जन्म के बाद निधन हो गया। वह अपने दादा और शहर से मां से अपनी दादी के घर में पले Chelm (पोलैंड). उन्होंने सैन्य अकादमी में के में अध्ययन सेंट पीटर्सबर्ग, जहां उनके कैरियर के एक लेखक के रूप में शुरू किया। अपनी कविताओं में से कुछ के लिए सज़ा के रूप में, वह एक सजा के रूप में सजा सुनाई गई थी और टैगा कठिन काम में कुछ समय के लिए किया था। वहाँ वह अपने उसके यूक्रेनी मातृभूमि के लिए तरस से भरा काव्य जारी रखा. यह उसकी रिहाई तक चली. वर्षों में 1986-1992 इगोर पावलोव में पत्रकारिता के संकाय में अध्ययन राष्ट्रीय विश्वविद्यालय (Lviv) और धार्मिक और एक ही शहर में प्रेस प्रसारण के लिए एक पत्रकार के रूप में काम किया। 1987 के बाद से वह Lviv में रहता है के बाद से, 2003 वह काम में कीव. वह अंतरराष्ट्रीय साहित्य त्योहारों में एक भागीदार एस्टोनिया, जॉर्जिया, बेलारूस, अमेरिका पोलैंड में तुर्की . उनके ग्रंथों में कई भाषाओं में अनुवाद किया गया है। हिन्दू धर्म पर एक श्रेणी का भाग जब शिशु के दाँत उगने लगे, मानना चाहिए कि प्रकृति ने उसे ठोस आहार, अन्नाहार करने की स्वीकृति प्रदान कर दी है। स्थूल (अन्नमयकोष) के विकास के लिए तो अन्न के विज्ञान सम्मत उपयोग का ज्ञान जरूरी है यह सभी जानते हैं। सूक्ष्म विज्ञान के अनुसार अन्न के संस्कार का प्रभाव व्यक्ति के मानस पर स्वभाव पर भी पड़ता है। कहावत है जैसा खाय अन्न-वैसा बने मन। इसलिए आहार स्वास्थ्यप्रद होने के साथ पवित्र, संस्कार युक्त हो इसके लिए भी अभिभावकों, परिजनों को जागरूक करना जरूरी होता है। अन्न को व्यसन के रूप में नहीं औषधि और प्रसाद के रूप में लिया जाय, इस संकल्प के साथ अन्नप्राशन संस्कार सम्पन्न कराया जाता है। बालक को जब पेय पदार्थ, दूध आदि के अतिरिक्त अन्न देना प्रारम्भ किया जाता है, तो वह शुभारम्भ यज्ञीय वातावरण युक्त धर्मानुष्ठान के रूप में होता है। इसी प्रक्रिया को अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है। बालक को दाँत निकल आने पर उसे पेय के अतिरिक्त खाद्य दिये जाने की पात्रता का संकेत है। तदनुसार अन्नप्राशन ६ माह की आयु के आस-पास कराया जाता है। अन्न का शरीर से गहरा सम्बन्ध है। मनुष्यों और प्राणियों का अधिकांश समय साधन-आहार व्यवस्था में जाता है। उसका उचित महत्त्व समझकर उसे सुसंस्कार युक्त बनाकर लेने का प्रयास करना उचित है। अन्नप्राशन संस्कार में भी यही होता है। अच्छे प्रारम्भ का अर्थ है- आधी सफलता। अस्तु, बालक के अन्नाहार के क्रम को श्रेष्ठतम संस्कारयुक्त वातावरण में करना अभीष्ट है। यर्जुवेद ४० वें अध्याया का पहला मन्त्र 'तेन त्यक्तेन भुंजीथा' (त्याग के साथ भोग करने) का र्निदेश करता है। हमारी परम्परा यही है कि भोजन थाली में आते ही चींटी, कुत्ता आदि का भाग उसमें से निकालकर पंचबलि करते हैं। भोजन ईश्वर को समर्पण कर या अग्नि में आहुति देकर तब खाते हैं। होली का पर्व तो इसी प्रयोजन के लिए है। नई फसल में से एक दाना भी मुख डालने से पूर्व, पहले उसकी आहुतियाँ होलिका यज्ञ में देते हैं। तब उसे खाने का अधिकार मिलता है। किसान फसल मींज-माँड़कर जब अन्नराशि तैयार कर लेता है, तो पहले उसमें से एक टोकरी भर कर धर्म कार्य के लिए अन्न निकालता है, तब घर ले जाता है। त्याग के संस्कार के साथ अन्न को प्रयोग करने की दृष्टि से ही धर्मघट-अन्नघट रखने की परिपाटी प्रचलित है। भोजन के पूर्व बलिवैश्व देव प्रक्रिया भी अन्न को यज्ञीय संस्कार देने के लिए की जाती है यज्ञ को देवपूजन आदि की व्यवस्था के साथ अन्नप्राशन के लिए लिखी व्यवस्था विशेष रूप से बनाकर रखनी चाहिए। अन्नप्राशन के लिए प्रयुक्त होने वाली कटोरी तथा चम्मच। चाटने के लिए चाँदी का उपकरण हो सके, तो अच्छा है। अलग पात्र में बनी हुई चावल या सूजी (रवा) की खीर, शहद, घी, तुलसीदल तथा गङ्गाजल- ये पाँच वस्तुएँ तैयार रखनी चाहिए। विशेष कर्मकाण्ड निर्धारित क्रम में मङ्गलाचरण से लेकर रक्षाविधान तक के क्रम पूरे करके विशेष कर्मकाण्ड कराया जाता है। उसमें - (१) पात्रपूजन, (२) अन्न-संस्कार, (३) विशेष आहुति तथा (४) क्षीर प्राशन सम्मिलित हैं। गुरकीरत सिंह भारत के पंजाब राज्य की खन्ना सीट से कांग्रेस के विधायक हैं। 2012 के चुनावों में वे अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी को 7278 वोटों के अंतर से हराकर निर्वाचित हुए। [1] [2] उगलियासीम, भिकियासैण तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। ७५९४ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से ७५९४ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर ७५९४ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। सुनाऊं, थराली तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के चमोली जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। जहां प्यार मिले १९६९ में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। बिए प्रांत, अंगोला का एक प्रांत है। इसकी राजधानी कुइतो नगर है।[1] यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 27°11′N 78°01′E / 27.18°N 78.02°E / 27.18; 78.02 तीरपुरी किरौली, आगरा, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है।  · अंबेडकर नगर जिला  · आगरा जिला  · अलीगढ़ जिला  · आजमगढ़ जिला  · इलाहाबाद जिला  · उन्नाव जिला  · इटावा जिला  · एटा जिला  · औरैया जिला  · कन्नौज जिला  · कौशम्बी जिला  · कुशीनगर जिला  · कानपुर नगर जिला  · कानपुर देहात जिला  · खैर  · गाजियाबाद जिला  · गोरखपुर जिला  · गोंडा जिला  · गौतम बुद्ध नगर जिला  · चित्रकूट जिला  · जालौन जिला  · चन्दौली जिला  · ज्योतिबा फुले नगर जिला  · झांसी जिला  · जौनपुर जिला  · देवरिया जिला  · पीलीभीत जिला  · प्रतापगढ़ जिला  · फतेहपुर जिला  · फार्रूखाबाद जिला  · फिरोजाबाद जिला  · फैजाबाद जिला  · बलरामपुर जिला  · बरेली जिला  · बलिया जिला  · बस्ती जिला  · बदौन जिला  · बहरैच जिला  · बुलन्दशहर जिला  · बागपत जिला  · बिजनौर जिला  · बाराबांकी जिला  · बांदा जिला  · मैनपुरी जिला  · महामायानगर जिला  · मऊ जिला  · मथुरा जिला  · महोबा जिला  · महाराजगंज जिला  · मिर्जापुर जिला  · मुझफ्फरनगर जिला  · मेरठ जिला  · मुरादाबाद जिला  · रामपुर जिला  · रायबरेली जिला  · लखनऊ जिला  · ललितपुर जिला  · लखीमपुर खीरी जिला  · वाराणसी जिला  · सुल्तानपुर जिला  · शाहजहांपुर जिला  · श्रावस्ती जिला  · सिद्धार्थनगर जिला  · संत कबीर नगर जिला  · सीतापुर जिला  · संत रविदास नगर जिला  · सोनभद्र जिला  · सहारनपुर जिला  · हमीरपुर जिला, उत्तर प्रदेश  · हरदोइ जिला ये बेल्जियम के महान चित्रकार माने जाते हैं | २१ नमम्बर 1898 उनके शुरुआती चित्र प्रभावात्मक थे , जो कि १९१५ के हैं। १५ अगस्त १९६७ भारतीय दंड संहिता की धरा ९ मुख्य रूप से तीन परिस्थितियों में स्त्री कि लज्जा भंग करने पर दंड का प्राविधान करता है १.कोई शब्द कहना २. कोई ध्वनि या अंग विक्षेप करना, या ३. कोई वस्तु प्रदर्शित करके दंड: भारतीय दंड संहिता में इस अपराध के लिए सादा कारावास जिसकी अवधी एक वर्ष तक होगी या जुर्माना अथवा दोंनो की वेवस्था की गयी है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 24°49′N 85°00′E / 24.81°N 85°E / 24.81; 85 मदसारी इमामगंज, गया, बिहार स्थित एक गाँव है। जयपुर वीसा, लालकुआँ तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के नैनीताल जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। जैठा, चौखुटिया तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। महलोई घरघोडा मण्डल में भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के अन्तर्गत रायगढ़ जिले का एक गाँव है। लालपुर नायक, हल्द्वानी तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के नैनीताल जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। झलक 1957 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। किमोला-उ०मौंदा०-२, सतपुली तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के पौड़ी जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। टेट्रामेथ्रिन एक कार्बनिक यौगिक है। लंदन की द रॉयल अकैडमी ऑव आर्ट्स (The Royal Academy of Arts), जार्ज तृतीय के राजाश्रय में सन् 1768 में स्थापित हुई। इसके द्वारा समकालीन चित्रकारों की कलाकृतियों की प्रदर्शनियाँ प्रति वर्ष की जाती हैं। ललित कला का एक विद्यालय भी 2 जनवरी 1768 को इस संस्था द्वारा स्थापित किया गया। पहली बार महिला छात्राएँ 1860 में भरती की गईं। उनके द्वारा चित्रकला, शिल्पकला और स्थापत्य की उन्नति इस संस्था का प्रधान उद्देश्य था। पहली चित्रकला की प्रदर्शनी 26 अप्रैल 1768 को हुई। सर जाशुआ रेनॉल्ड्स इसके 1768 से 1792 ई. तक प्रथम अध्यक्ष (प्रेसिडेंट) थे। इस संस्था में 11,000 ग्रंथों का संग्रहालय है। इनमें कई ग्रंथ बहुत दुर्लभ हैं। इस संस्था द्वारा कई ट्रस्ट फंड चलाए जाते हैं, यथा दि टर्नर फंड, दि क्रेस्विक फंड, लैंडसियर फंड, आर्मिटेज फंड, एडवर्ड स्काट फंड। पहले यह संस्था सामरसेट हाउस में थी, बाद में नेशनल गैलरी में और अब 1869 ई. से वार्लिंग्टन हाउस में है। इस अकादमी के सदस्यों की संख्या चालीस होती है। अकादमी द्वारा कष्टपीड़ित कलाकारों को आर्थिक सहायता भी दी जाती है। श्रेनी:संस्थाएँ निर्देशांक: 29°50′20″N 79°46′19″E / 29.8389°N 79.772°E / 29.8389; 79.772 बागेश्वर उत्तराखण्ड राज्य का एक नगर है। बागेश्वर उत्तराखंड में स्थानीय सरयू और गोमती नदी के संगम पर स्थित एक तीर्थ है। यहाँ बागेश्वर नाथ की प्राचीन मूर्ति है जिसे स्थानीय जनता बाघनाथ के नाम से जानती है। मकर संक्रांति के दिन यहाँ उत्तराखण्ड का सबसे बड़ा मेला लगता है। स्वतंत्रता संग्राम में भी बागेश्वर का बड़ा योगदान है। कुली-बेगार प्रथा के रजिस्टरों को सरयू की धारा में बहाकर यहाँ के लोगों ने अपने अंचल में गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन शुरवात सन १९२० ई. में की. किसमिला मर्छेटा डढौली, गंगोलीहाट तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के पिथोरागढ जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। लाल सिर वाला गिद्ध (Sarcogyps calvus) जिसे एशियाई राजा गिद्ध, भारतीय काला गिद्ध और पौण्डिचैरी गिद्ध भी कहते हैं, भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाने वाला गिद्ध है।[2] यह मध्यम आकार का गिद्ध है जो ७६ से ८६ से. मी. लंबा होता है और जिसके पंखों का फैलाव १.९९ से २.६ मीटर तक का होता है।[3][4] वयस्क का सिर गहरे लाल से नारंगी रंग का होता है और अवयस्क थोड़े हल्के रंग का होता है। इसका शरीर काले रंग का होता है और पंखों का आधार स्लेटी रंग का होता है। नर के आँख की पुतली हल्के सफ़ेद रंग की होती है जबकि मादा की पुतली गाढ़े भूरे रंग की होती है।[5] यह पुरानी दुनिया का गिद्ध है जो लगभग समूचे भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिणी चीन और इंडोचाइना में पाया जाता है। ऐतिहासिक रूप से यह गिद्ध अपने आवासीय क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में पाया जाता था। भारतीय उपमहाद्वीप से लेकर पूर्व में दक्षिण पूर्वी एशिया तक वितरित था और भारत से सिंगापुर तक पाया जाता था। आज इसका आवासीय क्षेत्र उत्तरी भारत तक सिकुड़ कर रह गया है। यह खुले मैदानों में, खेतों में और अर्ध-रेगिस्तानी इलाकों में देखने को मिलता है। यह पतझड़ीय वनों में, पहाड़ों की तलहटी में और नदियों की घाटियों में भी पाया जाता है। प्रायः यह समुद्र सतह से ३००० फ़ुट की ऊँचाई तक ही पाया जाता है।[6] इसकी निरंतर घटती हुई आबादी १९९४ से तेज़ी से घटने लगी और उसके बाद तो हर दूसरे साल इसकी आबादी आधी होने लगी। इसका मूलतः कारण पशु दवाई डाइक्लोफिनॅक है जो कि पशुओं के जोड़ों के दर्द को मिटाने में मदद करती है। जब यह दवाई खाया हुआ पशु मर जाता है और उसको मरने से थोड़ा पहले यह दवाई दी गई होती है और उसको यह गिद्ध खाता है तो उसके गुर्दे बंद हो जाते हैं और वह मर जाता है।[7] दो ही दशकों में यह लुप्त होने की कगार पर आ गया है। फलस्वरूप इसे घोर संकटग्रस्त जाति घोषित कर दिया गया है।[1] अब नई दवाई मॅलॉक्सिकॅम प्रचलन में आ गई है और यह गिद्धों के लिये हानिकारक भी नहीं हैं। मवेशियों के इलाज में इसके इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा रहा है।[8][9] जब इस दवाई का उत्पादन बढ़ जायेगा तो सारे पशु-पालक इसका इस्तेमाल करेंगे और शायद गिद्ध बच जायें। पंजाबी  • उत्तर प्रदेश  • राजस्थानी  • मुगलई - पहाड़ी  • बिहारी  • बंगाली  • कश्मीरी केरल  • तमिल  • आंध्र प्रदेश  • कर्नाटक  • हैदराबाद उड़ीसा  • छत्तीसगढ़  • आदिवासी-झारखंड, उड़ीसा सिक्किम  • असमिया  • त्रिपुरी  • नागा गोआ • गुजराती • मराठी  • मालवानी/कोंकणी  • पारसी इंडो-चाइनीज • फास्ट-फूड · नेपाली • महाद्वीपीय खाना मिठाइयां एवं डेजर्ट शर्बत एक पेय है जो पानी और नींबू या फलों के रसों में मसालों तथा अन्य सामग्रियों को मिला कर बनाया जाता है। प्रायः यह शीतलता प्रदान करने के लिए पिया जाता है। भारत तथा पाकिस्तान में शर्बत में मुख्तः पानी, चीनी और नमक के अलावे कुछ मसाले और नींबू के रस की प्रधानता होती है। पर तुर्की, अरब तथा फ़ारस (ईरान) के शर्बत कई फलों के रसों तथा सुगंधित पुष्पों और वनस्पतियों से मिलकर बने होते हैं। शर्बत शब्द अरबी भाषा के शब्द शरिबा से आता है जिसका अर्थ है 'पीना'। अरबी भाषा में किसी भी पेय को शरबा कहते हैं। तुर्की तथा फ़ारसी में इसे शेर्बत कहते हैं। भारतीय शब्द शराब भी इसी मूल से आया है। सन् 1867 में 'सेलर्स हैंडबुक' में श्राब शब्द का अर्थ कुछ इस तरह दिया गया था - एक मादक द्रव्य जो समुद्री यात्रियों के लिए कलकत्ता के गंदे इलाकों में बनाया जाता है। इसी मूल से अंग्रेजी का यूनानी प्रतीत होता शब्द सीरप तथा पुर्तगाली एवं लैटिन के क्रमशः क्ज़ेरोप (xarope) तथा सीरपस (sirupus) शब्द आए हैं।[1] यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 25°09′N 85°27′E / 25.15°N 85.45°E / 25.15; 85.45 पहारपुर बलिया, बेगूसराय, बिहार स्थित एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 25°09′N 85°27′E / 25.15°N 85.45°E / 25.15; 85.45 रामनगर बेगूसराय, बेगूसराय, बिहार स्थित एक गाँव है। कलौटिया, अल्मोडा तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। इग्लेसिया दे ला वेरगेन दे ला गुइया (ल्यानेस) ल्यानेस, अस्तूरियास स्पेन में मौजूद एक गिरजाघर है। इग्लेसिया दे ला वेरगेन दे ला गुइया (ल्यानेस) अस्तूरियास स्पेन का एक बड़ा गिरजाघर है। १२ अक्टूबर सन् १९३८ ई. को मुम्बई नगर में राजबहादुर सिंह ठाकुर, डॉ॰ मोती चन्द्र, श्री भानु कुमार आदि के सहयोग से बम्बई हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना हुई। विद्यापीठ का अपना एक मुद्रणालय और विशाल भवन है। प्रथमा, मध्यमा, उत्तमा, भाषारत्न और साहित्य-सुधाकर विद्यापीठ की परीक्षाएँ निर्धारित हैं, जिसकी मान्यता मैट्रिक, इण्टर और बी.ए. के समकक्ष हैं। इसका कार्यक्षेत्र अखिल भारतीय है। प्रतिवर्ष विभिन्न क्षेत्रों में संस्था की ओर से प्रचार-शिविरों एवं सम्मेलनों का आयोजन किया जाता है। विद्यापीठ का मासिक मुख्यपत्र 'भारती' नियमित रूप से प्रकाशित हो रहा है। भारती (मासिक), संपादक : श्री दत्तात्रय भि. गुर्जर पता : मुम्बई हिन्दी-विद्यापीठ, उद्योग मन्दिर, धर्मवीर संभाजीराजे मार्ग, माहिम, मुम्बई-१६ (महाराष्ट्र) http://www.mumbaihindividyapeeth.in २०११ यूईएफए यूरोपा लीग फाइनल 18 मई 2011 पर डबलिन, आयरलैंड में अवीवा स्टेडियम में हुए एक फुटबॉल मैच था।[7] यह दो पुर्तगाली क्लब पोर्टो और ब्रागा के बीच खेला गया था। पोर्टो ने फाइनल 1-0 से जीत लिया।[8] यह पहली बार था कि फाइनल दो पुर्तगाली टीमों के बीच था।[9] अवलोकन [11] सामनावीर: रदमेल फल्कओ (पोर्टो)[1] सहायक रेफरी:[4] रोबेर्तो अलोन्सो फेर्नन्देज़ (टचलाइन) जेसुस चल्वो गुअदमुरो (टचलाइन) चर्लोस च्लोस गोमेज़ (पेनाल्टी क्षेत्र) अन्तोनिओ रुबिनोस पेरेज़ (पेनाल्टी क्षेत्र) चौथा अधिकारी:[4] दविद फेर्नन्देज़ बोर्बलन रिजर्व अधिकारी:[4] जुअन युस्ते जिमेनेज़ पोर्टो ने फाइनल में 1-0 से जीत हासिल की अभिनव सोपान हरिवंश राय बच्चन की एक कृति है। बीबीडी बाग कोलकाता का एक क्षेत्र है। यह कोलकाता नगर निगम के अधीन आता है। एस.आर. बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1994 AIR 1918 SC: (1994) SCC1 3) के ऐतिहासिक फैसले में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 356 और इससे जुड़े विभिन्न प्रावधानों पर विस्तार से चर्चा की थी| अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को इस फैसले के द्वारा रोक दिया गया| इस मामले के कारण केन्द्र-राज्य संबंधों पर भारी प्रभाव पड़ा| पर्ताप्पुर में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत मगध मण्डल के औरंगाबाद जिले का एक गाँव है। संतोष गंगवार भारत की सोलहवीं लोकसभा के सांसद हैं। २०१४ के चुनावों में वे उत्तर प्रदेश की बरेली सीट से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर निर्वाचित हुए।[1] इंटरसिटी लिंक एक्स्प्रेस 3225A भारतीय रेल द्वारा संचालित एक मेल एक्स्प्रेस ट्रेन है। यह ट्रेन सहरसा जंक्शन रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:SHC) से 12:50PM बजे छूटती है और दानापुर रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:DNR) पर 08:30PM बजे पहुंचती है। इसकी यात्रा अवधि है 7 घंटे 40 मिनट। गया चेन्नई एक्स्प्रेस 2389 भारतीय रेल द्वारा संचालित एक मेल एक्स्प्रेस ट्रेन है। यह ट्रेन गया जंक्शन रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:GAYA) से 05:45AM बजे छूटती है और चेन्नई एग्मोर रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:MS) पर 08:45PM बजे पहुंचती है। इसकी यात्रा अवधि है 39 घंटे 0 मिनट। धूँढते रह जाओगे 1998 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। निर्देशांक: 27°30′N 79°24′E / 27.5°N 79.4°E / 27.5; 79.4 लहरारजा कुलीपुर कायमगंज, फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। छोटेलाल भारत की सोलहवीं लोकसभा के सांसद हैं। २०१४ के चुनावों में वे उत्तर प्रदेश की रॉबर्ट्सगंज सीट से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर निर्वाचित हुए।[1] महमूद बशीर विर्क एक राजनीतिज्ञ है पाकिस्तान के राष्ट्रीय विधानसभा में | वह NA-97 निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है पाकिस्तानी पंजाब के लिए[1] | १४५६ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से १४५६ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर १४५६ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। डॉ लालमणि मिश्र (एम०ए०, पी०एच्०डी, डी० म्यूज० (वीणा), एम० म्यूज० (कण्ठ-संगीत्), बी० म्यूज० (सितार, तबला), (साहित्य रत्न) डीन व प्रमुख्, संगीत एवं ललित कला संकाय, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणासी भारतीय सगीत जगत के ऐसे मनीषी थे जो अपनी कला के समान ही अपनी विद्वता के लिए जाने जाते थे। माता के संगीत शिक्षक को अपनी प्रतिभा से प्रभावित कर बालक लालमणि की संगीत यात्रा आरम्भ हुई. पण्डित शँकर भट्ट और मुँशी भृगुनाथ लाल से ध्रुपद और धमार की परम्परागत शिक्षा हुई. रामपुर सेनी घराना के उस्ताद वज़ीर खाँ के शागिर्द उस्ताद मेँहदी हुसैन खान से उन्होने खयाल गायन सीखा। ध्रुवपद, भजन और तबला की शिक्षा स्वामी प्रमोदानन्द जी से प्राप्त हुई. उस्ताद अमीर अली खाँ के देख रेख मे अनेक संगीत वाद्योँ जैसे सितार, सुरबहार, सरोद, संतूर, जलतरंग, वायलिन, तबला आदि में महारत हासिल की। जब वह केवल बारह वर्ष के थे, उन्हें कलकत्ता की शहंशाही रिकार्डिंग कम्पनी में सहायक संगीत निर्देशक के पद पर नियुक्ति मिली। अगले दो वर्षों में उन्होने कई फिल्मोँ में संगीत दिया। उस्ताद अमीर अली खाँ का सान्निध्य और संगीत निर्देशन—इन्हीँ दोनोँ के सँयोग से ऑर्केस्ट्रेशन के प्रति उनमें रुझान पैदा हुआ। पिता के स्वर्गवास के बाद सन 1940 में वे कानपुर लौट आए. अपनी नैसर्गिक प्रतिभा से प्रेरित वो बालकोँ को संगीत सिखाने के नये रास्ते ढूँढ रहे थे; वह भी तब जब पारम्परिक समाज मेँ कुलीन व्यक्ति संगीत को हेय दृष्टि से देखते थे। एक एक कर उन्होनेँ कई बाल संगीत विद्यालय स्थापित किए; विद्यार्थी की ज़रूरत के मुताबिक़ औपचारिक, अनौपचारिक पाठ्यक्रमोँ मेँ परिवर्तन किया; वाद्य वृन्द समिति की स्थापना की। क्षेत्र के प्रसिद्ध संस्थान भारतीय संगीत परिषद का गठन किया तथा पहला उच्च शिक्षण का आधार गाँधी संगीत महाविद्यालय आरम्भ किया। संगीत के हर आयाम से परिचित उन्होने शैली, शिक्षण पद्धति, वाद्य-रूप, वादन स्वरूप -- सभी पर कार्य किया जिससे उन्हेँ सभी ओर से आदर और सम्मान मिला। प्रख्यात नृत्य गुरु पण्डित उदय शँकर ने अपनी नृत्य मँडली में उन्हें संगीत निर्देशक के पद पर आमंत्रण दिया जिसे लालमणि जी ने सहर्ष स्वीकार किया। मंडली की अभिनव नृत्य प्रस्तुतिओं तथा पौराणिक एवम आधुनिक विषयों पर आधारित बैले, ऑपेरा आदि के लिये उन्होंने मनोहारी संगीत रचनाएँ की। सन 1951 से 1955 तक भारत के कई नगरों से होता हुआ उदय शँकर जी का ट्रुप श्रीलंका, इंगलैण्ड, फ्रांस, बेल्जियम, अमरीका, कनाडा का भ्रमण करता रहा। इस प्रयोगधर्मी नृत्य मँडली के लिये उनका बहु वाद्य पारंगत होना तथा ऑर्केस्ट्रा में रुचि रखना फलदायी सिद्ध हुआ। उनके लिए भी इसका अनुभव अर्थपूर्ण रहा। स्वदेश लौटते ही उन्होंने मीरा ऑपेरा की रचना की जिसका प्रथम मंचन सन 1956 में कानपुर में किया गया। भगवान कृष्ण की मूर्ति में मीरा का विलीन हो जाना दर्शकों को स्तम्भित कर गया। भारत वापस पहुँचने पर भारतीय शास्त्रीय संगीत के सर्वाधिक ख्यात संगीत संस्थान, "अखिल भारतीय गन्धर्व मंडल महविद्यालय", बम्बई का रजिस्ट्रार नियुक्त किया गया। किंतु अपने नगरवासियों का अनुरोध न टाल पाने के कारण सन 1956 में ही उन्हें कानपुर लौट कर स्वयम द्वारा स्थापित 'गांधी संगीत महाविद्यालय' का प्राचार्य पद सम्भालना पड़ा। इसी दौरान सन 1950 में काशी हिन्दु विश्वविद्यालय, वाराणासी में पण्डित ओँकार नाथ ठाकुर के प्राचार्यत्व में संगीत एवं ललित कला महाविद्यालय की स्थापना हो चुकी थी। सन 55-56 तक प्रारम्भिक समस्याओं से उबर यह विकास के लिए तैयार था। इस की पुनर्संरचना के लिये तत्कालीन कुलपति डॉ सर सी पी रामास्वामी की प्रेरणा से योजना बनायी गयी। पण्डित ओँकार नाथ ठाकुर के आग्रह पर में लालमणि मिश्र तीसरी बार कानपुर छोड़ने को बाध्य हुए और सन 1957 में वाराणासी पहुँच महाविद्यालय में रीडर का पदभार ग्रहण किया। पण्डित ओँकार नाथ ठाकुर और डॉ बी आर देवधर द्वारा स्थापित इस युवा संस्थान को पल्लवित करने की चुनौती को डॉ लालमणि मिश्र ने अत्यंत सहजता से स्वीकारा और इसका कुशलता से निर्वहन किया। उनके निर्देशन में काशी हिन्दु विश्वविद्यालय का संगीत एवं ललित कला महाविद्यालय भारतीय शास्त्रीय संगीत शिक्षण का अद्वितीय संस्थान बन गया। सामान्य पाठ्यक्रमों के साथ साथ प्रदर्शन एवँ रचनाकर्म पर केन्द्रित डिप्लोमा से लेकर स्नातक, स्नातकोत्तर तथा डॉक्टोरल उपाधि -- डी म्यूज़ -- का अनूठा कार्यक्रम आरम्भ किया गया जिसमें विभिन्न देशों के छात्रों ने प्रवेश लिया और आज यहाँ के पूर्व छात्र विश्व भर में संगीत संस्थानों में शीर्ष पदों पर कार्यरत हैं। पेन विश्वविद्यालय, फिलाडेल्फिया ने डॉ मिश्र को विज़िटिंग प्रोफेसर के रूप में आमंत्रित किया जहाँ वे 1969 से 1978 तक जाते रहे। उनके ज्ञान, शिक्षण की सरसता और सँवेदन शील व्यव्हार के कारण दुनिया भर से छात्र उनके पास आते रहे। स्वयँ उदय शँकर जी ने अपने पुत्र आनन्द शँकर को सितार वादन तथा वाद्य वृन्द की बारीकियाँ समझने उनके पास भेजा। बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ मिश्र ने पटियाला के उस्ताद अब्दुल अज़ीज़ खाँ को सुन गुप्त रूप से विचित्र वीणा हेतु वादन तकनीक विकसित करने के साथ साथ भारतीय संगीत वाद्यों के इतिहास तथा विकासक्रम पर अनुसन्धान किया। भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली ने इसे पुस्तक रूप में सन 1973 में (द्वितीय संस्करण 2002, तृतीय 2005) भारतीय संगीत वाद्य शीर्षक से प्रकाशित किया। डॉ मिश्र ने इस पुस्तक में भारतीय संगीत वाद्यों के उद्भव को तर्कपूर्ण आधार से बताते हुए उन से जुड़े अनेक भ्रमों का निवारण किया। आज तक यह पुस्तक वाद्यों की पहचान, वर्गीकरण तथा उनके अंतर्सम्बन्ध को समझने का प्रमुख स्रोत है। इसके अलावा भी उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं। चार युग्म ग्रंथों में से एक, तंत्री नाद सन 1979 में प्रकाशित हुआ; दूसरा ततनिनाद शीघ्र प्रकाश्य है। 1979 में उनके देहावसान उपराँत उनके पुत्र डॉ गोपाल शँकर मिश्र ने पिता की हस्त-लिखित पांडुलिपियों पर कार्य आरम्भ किया किंतु पिता की स्मृति में मधुकली भोपाल द्वारा आयोजित कार्यक्रम की पूर्व सन्ध्या पर 13 अगस्त 1999 को हृदय गति रुक जाने से उनका भी निधन हो गया। उनकी पुत्री डॉ रागिनी त्रिवेदी ने पिता द्वारा लिखे लेखों का सँपादन किया संगीत और समाज, जो भोपाल के मधुकली प्रकाशन द्वारा सन 2000 में प्रकाशित हुई। बाल एवँ किशोरों हेतु लिखी गयी अनेक पुस्तकें जैसे संगीत सरिता, तबला विज्ञान आदि डॉ मिश्र के जीवनकाल में ही प्रकाशित हो चुकीं थीं। अप्रकाशित पांडुलिपियों पर अब उनकी पुत्री कार्य कर रही हैं। वैदिक संगीत पर शोध करते हुए उन्होंने सामिक स्वर व्यवस्था का रहस्य सुलझाया। सामवेद के इन प्राप्त स्वरों को संरक्षित करने के लिए उन्होंने राग सामेश्वरी का निर्माण किया। भरत मुनि द्वारा विधान की गयी बाईस श्रुतिओं को मानव इतिहास में पहली बार डॉ मिश्र द्वारा निर्मित वाद्य यंत्र श्रुति-वीणा पर एक साथ सुनना सम्भव हुआ। इसके निर्माण तथा उपयोग की विधि “श्रुति वीणा” में दी गयी है जिसे नरेन्द्र प्रिंटिंग वर्क, वाराणासी द्वारा 11 फ़रवरी 1964 को प्रकाशित किया गया। सामेश्वरी के अतिरिक्त उन्होंने कई रागोँ की रचना की जैसे श्याम बिहाग, जोग तोड़ी, मधुकली, मधु-भैरव, बालेश्वरी आदि। डॉ मिश्र ने पूर्ण रूप से तंत्री वाद्यों के लिए निहित वादन शैली की रचना की जिसे मिश्रबानी के नाम से जाना जाता है। इस हेतु उन्होंने सैकड़ों रागों में हज़ारों बन्दिशों की रचना की जिनका सँकलन उनकी पुस्तकों के अतिरिक्त उनके शिष्यों की पुस्तकों, संगीत पत्रिकाओं में मिलता है। सन 1996 में युनेस्को द्वारा म्यूज़िक ऑव लालमणि मिश्र के शीर्षक से उनके विचित्र वीणा वादन का कॉम्पैक्ट डिस्क जारी किया गया। प्रतिज्ञाबद्ध 1991 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। अलंकार चन्द्रोदय के अनुसार हिन्दी कविता में प्रयुक्त एक अलंकार किविक्स (Kiwix) एक निःशुल्क सॉफ्टवेयर है जो किसी भी वेबसाइट की सामग्री को बिना इंटरनेट से जुड़े (ऑफलाइन) ही पढ़ पाने की सुविधा प्रदान करता है। मूलतः यह सॉफ्टवेयर विभिन्न भाषाओं की विकिपीडिया की सामग्री को ऑफलाइन प्रयोग करने के उद्देश्य से विकसित किया गया था किन्तु बाद में अन्य प्रकार के निःशुल्क सामग्री का प्रसार करना भी इसके उद्देश्यों में सम्मिलित हो गया। सम्प्रति किविक्स इन प्रचालन तंत्रों के लिये उपलब्ध है- विण्डोज, मैक ओ एस, लिनक्स और एण्ड्रॉयड। फरवरी 2013 में, सोर्सफोर्ज की साइट (SourceForge.net) पर इस प्रोग्राम की संतुष्टि रेटिंग 97% थी। क़ाराक़ालपाक़ (क़ाराक़ालपाक़ भाषा: Qaraqalpaqlar, रूसी: Каракалпаки) उज़बेकिस्तान में बसने वाली एक तुर्की जाति है। यह समुदाय अमु दरिया के अंतिम भाग में और अरल सागर के दक्षिणी किनारे पर रहता है। विश्व भर में इनकी जनसँख्या लगभग ६.५ लाख अनुमानित की जाती है, जिनमें से ५ लाख उज़बेकिस्तान के क़ाराक़ालपाक़स्तान स्वशासित प्रान्त में रहते हैं। इस जाति का नाम तुर्की भाषा के दो शब्दों को जोड़कर बना है: 'क़ारा' (यानि 'काला') और 'क़ालपाक़' यानि (टोपी)। हालांकि इन लोगों का इलाक़ा उज़बेकिस्तान में आता है, इनकी संस्कृति वास्तव में काज़ाख़ समुदाय से ज़्यादा मिलती है। क़ाराक़ालपाक़ लोग अधिकतर सुन्नी इस्लाम की हनफ़ी शाखा के अनुयायी होते हैं।[1][2] 'क़ाराक़ालपाक़' में 'क़' अक्षर के उच्चारण पर ध्यान दें क्योंकि यह बिना बिन्दु वाले 'क' से मिलता-जुलता लेकिन थोड़ा भिन्न है। इसका उच्चारण 'क़ीमत' और 'क़रीब' के 'क़' से मिलता है। यह शब्द हिंदी में काफी प्रयुक्त होता है, यदि आप इसका सटीक अर्थ जानते है तो पृष्ठ को संपादित करने में संकोच ना करें (याद रखें - पृष्ठ को संपादित करने के लिये रजिस्टर करना आवश्यक नहीं है)। दिया गया प्रारूप सिर्फ दिशा निर्देशन के लिये है, आप इसमें अपने अनुसार फेर-बदल कर सकते हैं। सेरिएगोमुएरतो का संता मारिया गिरजाघर (स्पेनी: Iglesia de Santa María de Sariegomuerto) अस्तूरियास, स्पेन का एक गिरजाघर है। भारत मैं चित्रकला का इतिहास बहुत पुराना रहा हैं। पाषाण काल में ही मानव ने गुफा चित्रण करना शुरु कर दिया था। होशंगाबाद और भीमबेटका क्षेत्रों में कंदराओं और गुफाओं में मानव चित्रण के प्रमाण मिले हैं। इन चित्रों में शिकार, शिकार करते मानव समूहों, स्त्रियों तथा पशु-पक्षियों आदि के चित्र मिले हैं। अजंता की गुफाओं में की गई चित्रकारी कई शताब्दियों में तैय्यार हुई थी, इसकी सबसे प्राचिन चित्रकारी ई.पू. प्रथम शताब्दी की हैं। इन चित्रों मे भगवान बुद्ध को विभिन्न रुपों में दर्शाया गया है। गुफाओं से मिले अवशेषों और साहित्यिक स्रोतों के आधार पर यह स्पष्ट है कि भारत में एक कला के रूप में ‘चित्रकला’ बहुत प्राचीन काल से प्रचलित रही है। भारत में चित्रकला और कला का इतिहास मध्यप्रदेश की भीमबेटका गुफाओं की प्रागैतिहासिक काल की चट्टानों पर बने पशुओं के रेखाङ्कन और चित्राङ्कन के नमूनों से प्रारंभ होता है। महाराष्ट्र के नरसिंहगढ़ की गुफाओं के चित्रों में चितकबरे हरिणों की खालों को सूखता हुआ दिखाया गया है। इसके हजारों साल बाद रेखाङ्कन और चित्राङ्कन हड़प्पाकालीन सभ्यता की मुद्राओं पर भी पाया जाता है। हिन्दु और बौद्ध दोनों साहित्य ही कला के विभिन्न तरीकों और तकनीकों के विषय में संकेत करते हैं जैसे लेप्यचित्र, लेखाचित्र और धूलिचित्र। पहली प्रकार की कला का सम्बन्ध लोक कथाओं से है। दूसरी प्रागेतिहासिक वस्त्रों पर बने रेखा चित्र और चित्रकला से संबंद्ध है और तीसरे प्रकार की कला फर्श पर बनाई जाती है। ईसा पूर्व पहली शताब्दी के लगभग षडाङ्ग चित्रकला (छः अंगो वाली कला) का विकास हुआ। वात्स्यायन का जीवनकाल ईसा पश्चात ३री शताब्दी है। उन्होने कामसूत्र में इन छः अंगो का वर्णन किया है। कामसूत्र के प्रथम अधिकरण के तीसरे अध्याय की टीका करते हुए यशोधर पंडित ने आलेख्य (चित्रकला) के छह अंग बताये हैं-[1] बौद्ध धर्म ग्रंथ विनयपिटक (4-3 ईसा पूर्व) में अनेकों शाही इमारतों पर चित्रित आकृतियों के अस्तित्व का वर्णन प्राप्त होता है। मुद्राराक्षस नाटक (पांचवी शती ईसा-पश्चात) में भी अनेकों चित्रों या चित्रपटों का उल्लेख है। छठी शताब्दी के सौंदर्यशास्त्र के ग्रंथ वात्स्यायनकृत ‘कामसूत्र’ ग्रंथ में 64 कलाओं के अंतर्गत चित्रकला का भी उल्लेख है और यह भी कहा गया है कि यह कला वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है। सातवीं शताब्दी (ईसा पश्चात) के विष्णुधर्मोत्तर पुराण में एक अध्याय चित्रकला पर भी है जिसका नाम 'चित्रसूत्र' है। इसमें बताया गया है कि चित्रकला के छह अंग हैं- आकृति की विभिन्नता, अनुपात, भाव, चमक, रंगों का प्रभाव आदि। अतः पुरातत्त्वशास्त्र और साहित्य प्रागैतिहासिक काल से ही चित्रकला के विकास को प्रमाणित करते आ रहे हैं। विष्णुधर्मोत्तर पुराण के चित्रसूत्र में चित्रकला का महत्त्व इन शब्दों में बया गया है- गुप्तकालीन चित्रकला के सर्वोत्तम नमूने अजन्ता में प्राप्त हैं। उनकी विषयवस्तु थी, पशु-पक्षी, वृक्ष, फूल, मानवाकृतियाँ और जातक कथाएँ। भित्तिचित्र, छतों पर और पहाड़ी दीवारों पर बनाए जाते हैं। गुफा नं 9 के चित्र में बौद्ध-भिक्षुओं को स्तूप की ओर जाता हुआ दर्शाया गया है। 10 नं. की गुफा में जातक कहानियाँ चित्रित की गई हैं परंतु सर्वोत्कृष्ट चित्र पांचवीं-छठी शताब्दी के गुप्त काल में प्राप्त हुए हैं। ये भित्तिचित्र प्रमुखतया बुद्ध के जीवन और जातक कथाओं में धार्मिक कृत्यों को दर्शाते हैं परंतु कुछ चित्र अन्य विषयों पर भी आधारित हैं। इनमें भारतीय जीवन के विभिन्न पक्षों को दर्शाया गया है। राजप्रासादों में राजकुमार, अन्तःपुरों में महिलाएँ, कन्धों पर भार उठाए कुली, भिक्षुक, किसान, तपस्वी एवं इनके साथ अन्य भारतीय पशु-पक्षियों तथा फूलों का चित्रण किया गया है। चित्रों में प्रयुक्त सामग्री : विभिन्न प्रकार के चित्रों में भिन्न-भिन्न सामग्रियों का प्रयोग किया जाता था। साहित्यिक स्रोतों में चित्रशालाओं और शिल्पशास्त्रों (कला पर तकनीकी ग्रन्थ) के संदर्भ प्राप्त होते हैं। तथापि चित्रों में जिन रंगों का प्रमुख रूप से उपयोग किया गया है, वे है धातु राग, चटख लाल कुमकुम या सिन्दूर, हरीताल (पीला) नीला, लापिसलाजुली नीला, काला, चाक की तरह सफेद खड़ी मिट्टी, (गेरु माटी) और हरा। ये सभी रंग भारत में सुलभ थे सिवाय लापीस लेजुली ही संभवतः पाकिस्तान से आता था। कुछ दुर्लभ अवसरों पर मिश्रित रंग जैसे सलेटी आदि भी प्रयोग किए जाते थे। रंगों के प्रयोग का चुनाव विषय वस्तु और स्थानीय वातावरण के अनुसार सुनिश्चित किया जाता था। बौद्ध चित्रकला के अवशेष उत्तर भारतीय ‘बाघ’ नामक स्थान पर तथा छठी और नौवीं शताब्दी के दक्षिण भारतीय स्थानों पर स्थित बौद्ध गुफाओं में प्राप्त होते हैं। यद्यपि इन चित्रों की विषयवस्तु धार्मिक है परंतु अपने अन्तर्निहित भावों और अर्थों के अनुसार इनसे अधि क धर्मनिरपेक्ष दरबारी और सम्भ्रान्त विषय नहीं हो सकते। यद्यपि इन चित्रों के बहुत कम ही अवशेष पाये जाते हैं परंतु उनमें अनेकों चित्र देवी-देवताओं, देवसदृश किन्नरों और अप्सराओं, विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी, फल-फूलों सहित प्रसन्नता, प्रेम, कृपा और मायाजाल आदि के भावों को भी दर्शाते हैं। इनके अन्य उदाहरण बादामी (कर्नाटक) की गुफा सं 3, कांचीपुरम के मन्दिरों, सितांवसल (तमिलनाडु) की जैनगुफाओं तथा एलोरा (आठवीं और नवीं शताब्दी) तथा कैलाश और जैन गुफाओं में पाए जाते हैं। बहुत से अन्य दक्षिण भारतीय मंदिरों जैसे तंजौर के बृहदेश्वर मंदिर के भित्तिचित्र महाकाव्यों और पुराण कथाओं पर आधारित हैं। जहाँ एक ओर बाघ, अजंता और बदामी के चित्र उत्तर और दक्षिण की शास्त्रीय परम्पराओं के नमूने प्रस्तुत करते हैं, सितानवसल, कांचीपुरम, मलयादिपट्टी, तिरूमलैपुरम के चित्र दक्षिण में इसके विस्तार को भलीप्रकार दर्शाते हैं। सितानवसल (जैनसिद्धों के निवास) के चित्र जैन धर्म की विषयवस्तु से संबद्ध हैं जबकि अन्य तीन स्थानों के चित्र जैन अथवा वैष्णव धर्म के प्रेरक हैं। यद्यपि ये सभी चित्र पारंपरिक धार्मिक विषय वस्तु पर आधारित हैं, तथापि ये चित्र मध्ययुगीन प्रभावों को भी प्रदर्शित करते हैं जैसे एक ओर सपाट और अमूर्त चित्रण और दूसरी ओर कोणीय तथा रेखीय डिज़ाइन। दिल्ली सल्तनत के काल में शाही महलों और शाही अन्तःपुरों और मस्जिदों से मित्ति चित्रों के वर्णन प्राप्त हुए हैं। इनमें मुख्यतया फूलों, पत्तों और पौधों का चित्रण हुआ है। इल्तुमिश (1210-36) के समय में भी हमें चित्रों के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316) के समय में भी हमें भित्ति चित्र तथा वस्त्रों पर चित्रकारी और अलह्कत पाण्डुलिपियों पर लघुचित्र प्राप्त होते हैं। सल्तनत काल में हम भारतीय चित्रकला पर पश्चिमी और अरबी प्रभाव भी देखते हैं। मुस्लिक शिष्टवर्ग के लिए ईरान और अरब देशों से पर्शियन और अरबी की अलंकृत पाण्डुलिपियों के भी आने के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। इस काल में हमें अन्य क्षेत्रीय राज्यों से भी चित्रों के सन्दर्भ मिलते हैं। ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर के महल को अलंकृत करने वाली चित्रकारी ने बाबर और अकबर दोनों को ही प्रभावित किया। 14वीं 15वीं शताब्दियों में सूक्ष्म चित्रकारी गुजरात और राजस्थान में एक शक्तिशाली आन्दोलन के रूप में उभरी और केन्द्रीय, उत्तरी और पूर्वी भारत में अमीर और व्यापारियों के संरक्षण के कारण फैलती चली गई। मध्यप्रदेश में मांडु, पूर्वी उत्तरप्रदेश में जौनपुर और पूर्वी भारत में बंगाल - ये अन्य बड़े केंद्र थे जहाँ पाण्डुलिपियों को चित्रकला से सजाया जाता था। 9-10वीं शती में बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा आदि पूर्वी भारतीय प्रदेशों में पाल शासन के अंतर्गत एक नई प्रकार की चित्रण शैली का प्रादुर्भाव हुआ जिसे 'सूक्ष्म चित्रण' कहा जाता है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, ये सूक्ष्म चित्र नाशवान पदार्थों पर बनाए जाते थे। इसी श्रेणी के अंतर्गत इनसे बौद्ध, जैन और हिन्दु ग्रंथों की पाण्डुलिपियों को भोजपत्रों पर सजाया जाने लगा। ये चित्र अजंता शैली से मिलते जुलते थे परंतु सूक्ष्म स्तर पर। ये पाण्डुलिपियाँ व्यापारियों की प्रार्थना पर तैयार की जाती थीं जिन्हें वे मंदिरों और मठों को दान कर देते थे। तेरहवीं शताब्दी के पश्चात उत्तरी भारत के तुर्की सुलतान अपने साथ पारसी दरबारी संस्कृति के महत्त्वपूर्ण स्वरूपों को भी अपने साथ लाए। पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दियों में पश्चिन प्रभाव की अलङ्कत पाण्डुलिपियाँ मालवा, बंगाल, दिल्ली, जौनपुर, गुजरात और दक्षिण में बनाई जाने लगीं। भारतीय चित्रकारों की पर्शियन परम्पराओं से अन्तःक्रिया दोनों शैलियों के सम्मिश्रण में फलीभूत हुई जो 16वीं शताब्दी के चित्रों में स्पष्ट झलकती है। प्रारम्भिक सल्तनत काल में पश्चिमी भारत में जैन समुदाय द्वारा चित्रकला के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान किया गया। जैन शास्त्रों की अलङ्कत पाण्डुलिपियाँ मन्दिर के पुस्तकालयों को उपहरस्वरूप दे दी गई। इन पाण्डुलिपियों में जैन तीर्थङ्करों के जीवन और कृत्यों को दर्शाया गया है। इन पाठ्यग्रंथों के स्वरूप को अलङ्कत करने की कला को मुगल शासकों के संरक्षण में एक नया जीवन मिला। अकबर और उनके परवर्ती शासक चित्रकला और भोग विषयक उदाहरणों में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाए। इसी काल से किताबों की सजावट या व्यक्तिगत लघुचित्रों में भित्तिचित्रकारी का स्थान एक प्रमुख शैली के रूप में विकसित हुआ। अकबर ने कश्मीर और गुजरात के कलाकारों को संरक्षण दिया। हुमायुं ने अपने दरबार में दो पारसी चित्रकारों को प्रश्रय दिया। पहली बार चित्रकारों के नाम शिलालेखों पर भी अङ्कित किए गए। इस काल के कुछ महान चित्रकार थे अब्दुस्समद, दासवंत तथा बसावन। बाबरनामा और अकबरनामा के पृष्ठों पर चित्रकला के सुंदर उदाहरण पाये जाते हैं। कुछ ही वर्षों में पारसी और भारतीय-शैली के मिश्रण से एक सशक्त शैली विकसित हुई और स्वतंत्र 'मुगल चित्रकला' शैली का विकास हुआ। 1562 और 1577 ई. के मध्य नई शैली के आधार पर प्रायः 1400 वस्त्रचित्रों की रचना हुई और इन्हें शाही कलादीर्घा में रखा गया। अकबर ने प्रतिमूर्त्ति बनाने की कला को भी प्रोत्साहित किया। चित्रकला जहांगीर के काल में अपनी चरम सीमा पर थी। वह स्वयं भी उत्तम चित्रकार और कला का पारखी था। इस समय के कलाकारों ने चटख रंग जैसे मोर के गले सा नीला तथा लाल रंग का प्रयोग करना और चित्रों को त्रि-आयामी प्रभाव देना प्रारंभ कर दिया था। जहांगीर के शासन काल के मशहूर चित्रकार थे मंसूर, बिशनदास तथा मनोहर। मंसूर ने चित्रकार अबुलहसन की अत्यद्भुत प्रतिकृति बनाई थी। उन्होंने पशु-पक्षियों को चित्रित करने में विशेषता प्राप्त की थी। यद्यपि शाहजहाँ भव्य वास्तु कला में अधिक रुचि रखता था, उसके सबसे बड़े बेटे दाराशिकोह ने अपने दादा की तरह ही चित्रकला को बढ़ावा दिया। उसे भी प्राकृतिक तत्त्व जैसे पौधे, पशु आदि को चित्रित करना अधिक पसंद था। तथापि औरंगजेब के समय में शाहीसंरक्षण के अभाव में चित्रकारों को देश के विभिन्न भागों में पनाह लेने को बाध्य होना पड़ा। इससे राजस्थान और पंजाब की पहाड़ियों में चित्रकला के विकास को प्रोत्साहन मिला और चित्रकला की विभिन्न शैलियाँ जैसे राजस्थानी शैली और पहाड़ी शैली विकसित हुईं। ये कृतियाँ एक छोटी सी सतह पर चित्रित की जाती थीं और इन्हें 'सूक्ष्म चित्रकारी' कहां जाने लगा। इन चित्रकारों ने महाकाव्यों, मिथकों और कथाओं को अपने चित्रों की विषयवस्तु बनाया। अन्य विषय थे बारहमासा, रागमाला (लय) और महाकाव्यों के विषय आदि। सूक्ष्म चित्रकला स्थानीय केन्द्रों जैसे कांगड़ा, कुल्लु, बसोली, गुलेर, चम्बा, गढ़वाल, बिलासपुर और जम्मु आदि में विकसित हुई। पन्द्रहवीं और सोलहवीं शती में भक्ति आंदालेन के उद्भव ने वैष्णव भक्तिमार्ग की विषयवस्तु पर चित्र सज्जित पुस्तकों के निर्माण को प्रोत्साहित किया। पूर्व मुगल काल में भारत के उत्तरी प्रदेशों में मंदिरों की दीवारों पर भित्तिचित्रों के निर्माण को प्रोत्साहन मिला। अठारहवीं शती के उत्तरार्ध और उन्नीसवीं शती के प्रारंभ में चित्रकला अर्ध-पाश्चात्य स्थानीय शैलियों पर आधारित थी जिसको ब्रिटिश निवासियों और ब्रिटिश आगुन्तकों ने संरक्षण प्रदान किया। इन चित्रों की विषयवस्तु भारतीय सामाजिक जीवन, लोकप्रिय पर्व और मुगलकालीन स्मारकों पर आधारित होती थीं। इन चित्रों में परिष्कृत मुगल परम्पराओं को प्रतिबिम्बित किया गया था। इस काल की सर्वोत्तम चित्रकला के कुछ उदाहरण हैं- लेडी इम्पे के लिए शेख जियाउद्दीन के पक्षि-अध्ययन, विलियम फ्रेजर और कर्नल स्किनर के लिए गुलाम अली खां के प्रतिकृति चित्र। उन्नीसवीं शती के उत्तरार्ध में कलकत्ता, मुम्बई और मद्रास आदि प्रमुख भारतीय शहरों में यूरोपीय मॉडल पर कला स्कूल स्थापित हुए। त्रावणकोर के राजा रवि वर्मा के मिथकीय और सामाजिक विषयवस्तु पर आधारित तैल चित्र इस काल में सर्वाधिक लोकप्रिय हुए। रवीन्द्रनाथ ठाकुर, अवनीन्द्रनाथ ठाकुर, इ.बी हैवल और आनन्द केहटिश कुमार स्वामी ने बंगाल कला शैली के उदय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। बंगाल कला शैली ‘शांति निकेतन’ में फली-फूली जहाँ पर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘कलाभवन’ की स्थापना की। प्रतिभाशील कलाकार जैसे नंदलाल बोस, विनोद बिहारी मुखर्जी, आदि उभरते कलाकारों को प्रशिक्षण देकर प्रोत्साहित कर रहे थे। नन्दलाल बोस भारतीय लोक कला तथा जापानी चित्रकला से प्रभावित थे और विनोद बिहारी मुकर्जी प्राच्य परम्पराओं में गहरी रुचि रखते थे। इस काल के अन्य चित्रकार जैमिनी राय ने उड़ीसा की पट-चित्रकारी और बंगाल की कालीघाट चित्रकारी से प्रेरणा प्राप्त की। सिख पिता और हंगेरियन माता की पुत्री अमृता शेरगिल ने पेरिस, बुडापेस्ट में शिक्षा प्राप्त की तथापि भारतीय विषयवस्तु को लेकर गहरे चटख रंगों से चित्रकारी की। उन्होंने विशेषरूप से भारतीय नारी और किसानों को अपने चित्रों का विषय बनाया। यद्यपि इनकी मृत्यु अल्पायु में ही हो गई परंतु वह अपने पीछे भारतीय चित्रकला की समृद्ध विरासत छोड़ गई हैं। धीरे-धीरे अंग्रेजी पढ़े-लिखे शहरी मध्यवर्ती लोगों की सोच में भारी परिवर्तन आने लगा और यह परिवर्तन कलाकारों की अभिव्यक्ति में भी दिखाई पड़ने लगा। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध बढ़ती जागरूकता, राष्ट्रीयता की भावना और एक राष्ट्रीय पहचान की तीव्र इच्छा ने ऐसी कलाकृतियों को जन्म दिया जो पूर्ववर्ती कला की परम्पराओं से एकदम अलग थीं। सन् 1943 में द्वितीय विश्वयुद्ध के समय परितोष सेन, निरोद मजुमदार और प्रदोष दासगुप्ता आदि के नेतृत्व में कलकत्ता के चित्रकारों ने एक नया वर्ग बनाया जिसने भारतीय जनता की दशा को नई दृश्य भाषा और नवीन तकनीक के माध्यम से प्रस्तुत किया। दूसरा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन था सन् 1948 में मुंबई में फ्रांसिस न्यूटन सूजा के नेतृत्व में प्रगतिशील कलाकार संघ की स्थापना। इस संघ के अन्य सदस्य थे एस एच रजा, एम एफ हुसैन, के एम अरा, एस के बाकरे तथा एच ए गोडे। यह संस्था बंगाल स्कूल आफ आर्ट से अलग हो गई और इसने स्वतंत्र भारत की आधुनिकतम सशक्त कला को जन्म दिया। 1970 से कलाकारों ने अपने वातावरण का आलोचनातमक दृष्टि से सर्वेक्षण करना प्रारंभ किया। गरीबी और भ्रष्टाचार की दैनिक घटनाएँ, अनैतिक भारतीय राजनीति, विस्फोटक साम्प्रदायिक तनाव, एवं अन्य शहरी समस्याएँ अब उनकी कला का विषय बनने लगीं। देवप्रसाद राय चौधरी एवं के सी एस पणिकर के संरक्षण में मद्रास स्कूल आफ आर्ट संस्था स्वतन्त्रतोत्तर भारत में एक महत्त्वपूर्ण कला केन्द्र के रूप में उभरी और आधुनिक कलाकारों की एक नई पीढ़ी को प्रभावित किया। आधुनिक भारतीय चित्रकला के रूप में जिन कलाकारों ने अपनी पहचान बनाई, वे हैं- तैयब मेहता, सतीश गुजराल, कृष्ण खन्ना, मनजीत बाबा, के जी सुब्रह्मण्यन, रामकुमार, अंजलि इला मेनन, अकबर पप्रश्री, जतिन दास, जहांगीर सबावाला तथा ए. रामचन्द्रन आदि। भारत में कला और संगीत को प्रोत्साहित करने के लिए दो अन्य राजकीय संस्थाएँ स्थापित हुई- भारतीय लोगों की कलात्मक अभिव्यक्ति केवल कागज या पट्ट पर चित्र बनाने तक ही सीमित नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में घर की दीवारों पर अलंकृत कला एक आम दृश्य है। पवित्र अवसरों और पूजा आदि में फर्श पर रंगोली या अलंकृत चित्रकला के डिजाइन ‘रंगोली’ आदि के रूप में बनाए जाते हैं जिनके कलात्मक डिजाइन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानान्तरित होते चले जाते हैं। ये डिजाइन उत्तर में रंगोली, बंगाल में अल्पना, उत्तरांचल में ऐपन, कर्नाटक में रंगावली, तमिलनाडु में कोल्लम और मध्य प्रदेश में मांडना नाम से जाने जाते हैं। साधारणतया रंगोली बनाने में चावल के आटे का प्रयोग किया जाता है लेकिन रंगीन पाउडर या फूल की पंखुड़ियों का प्रयोग भी रंगोली को ज्यादा रंगीन बनाने के लिए किया जाता है। घरों तथा झोपड़ियों की दीवारों को सजाना भी एक पुरानी परंपरा है। इस प्रकार की लोक कला के विभिन्न उदाहरण नीचे दिए जा रहे हैं। मिथिला चित्रकला बिहार प्रदेश के मिथिला क्षेत्र की पारम्परिक कला है। इसे 'मधुबनी लोककला' भी कहते हैं। इस चित्रकारी को गावं की महिलाएं सब्जी के रंगों से तथा त्रि-आयामी मूर्तियों के रूप में मिट्टी के रंगों से गोबर से पुते कागजों पर बनाती हैं और काले रंगों से बनाना समाप्त करती हैं। ये चित्र प्रायः सीता बनवास, राम-लक्ष्मण के वन्य जीवन की कहानियों अथवा लक्ष्मी, गणेश, हनुमान की मूर्त्तियों आदि हिन्दु मिथकों पर बनाए जाते हैं। इनके अतिरिक्त स्त्रियाँ दैवी विभूतियाँ जैसे सूर्य, चन्द्र आदि के भी चित्र बनाती हैं। इन चित्रों में दिव्य पौधे ‘तुलसी’ को भी चित्रित किया जाता है। ये चित्र अदालत के दृश्य, विवाह तथा अन्य सामाजिक घटनाओं को प्रदर्शित करते हैं। मधुबनी शैली के चित्र बहुत वैचारिक होते हैं। पहले चित्रकार सोचता है और फिर अपने विचारों को चित्रकला के माध्यम से प्रस्तुत करता है। चित्रों में कोई बनावटीपन नहीं होता। देखने में यह चित्र ऐसे बिम्ब होते हैं जो रेखाओं और रंगों में मुखर होते हैं। प्रायः ये चित्र कुछ अनुष्ठानों अथवा त्योहारों के अवसर पर अथवा जीवन की विशेष घटनाओं के समय गांव या घरों की दीवारों पर बनाए जाते हैं। रेखागणितीय आकृतियों के बीच में स्थान को भरने के लिए जटिल फूल पत्ते, पशु-पक्षी, बनाए जाते हैं। कुछ मामलों में ये चित्र माताओं द्वारा अपनी बेटियों के विवाह के अवसर पर देने के लिए पहले से ही तैयार करके रख दिए जाते हैं। ये चित्र एक सुखी विवाहित जीवन जीने के तरीकों को भी प्रस्तुत करते हैं। विषय और रंगों के उपयोग में भी ये चित्र विभिन्न होते हैं। चित्रों में प्रयुक्त रंगों से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि यह चित्र किस समुदाय से संबंधित हैं। उच्च स्तरीय वर्ग द्वारा बनाए गए चित्र अधिक रंग बिरंग होते हैं जबकि निम्न वर्ग द्वारा चित्रों में लाल और काली रेखाओं का प्रयोग किया जाता है। मधुबनी कला शैली बड़ी मेहनत से गांव की महिलाओं द्वारा आगे अपने बेटियों तक स्थानान्तरित की जाती हैं। आजकल मधुबनी कला का उपयोग उपहार की सजावटी वस्तुओं, बधाई पत्रों आदि के बनाने में किया जा रहा है और स्थानीय ग्रामीण महिलाओं के लिए एक अच्छी आय का स्रोत भी सिद्ध हो रहा है। 'कलमारी' का शाब्दिक अर्थ है कलम से बनाए गए चित्र। यह कला पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती हुई अधिकाधिक समृद्ध होती चली गई। यह चित्रकारी आंध्र प्रदेश में की जाती है। इस कला शैली में कपड़ों पर हाथ से अथवा ब्लाकों से सब्जियों के रंगों से चित्र बनाए जाते हैं। कलमकारी काम में वानस्पतिक रंग ही प्रयोग किए जाते हैं। एक छोटी-सी जगह 'श्रीकलहस्ती’ कलमकारी चित्रकला का लोकप्रसिद्ध केन्द्र है। यह काम आन्ध्रप्रदेश में मसोलीपट्टनम में भी देखा जाता है। इस कला के अंतर्गत मंदिरों के भीतरी भागों को चित्रित वस्त्रपटलों से सजाया जाता है। 15वीं शताब्दी में विजयनगर के शासकों के संरक्षण में इस कला का विकास हुआ। इन चित्रों में रामायण, महाभारत और अन्य धार्मिक ग्रंथों से दृश्य लिए जाते हैं। यह कला शैली पिता से पुत्र को पीढ़ी दर पीढ़ी उत्तराधिकार के रूप में चलती जाती है। चित्र का विषय चुनने के बाद दृश्य पर दृश्य क्रम से चित्र बनाए जाते हैं। प्रत्येक दृश्य को चारों ओर से पेड़-पौधों और वनस्पतियों से सजाया जाता है। यह चित्रकारी वस्त्रों पर की जाती है। ये चित्र बहुत ही स्थायी होते हैं, आकार में लचीले तथा विषय वस्तु के अनुरूप बनाए जाते हैं। देवताओं के चित्र खूबसूरत बॉर्डर से सजाए जाते हैं और मंदिरों के लिए बनाए जाते हैं। गोलकुण्डा के मुस्लिम शासकों के कारण मसुलीपटनम कलमकारी प्रायः अधिकांश रूप में पारसी चित्रों और डिजाइनों से प्रभावित होती थी। हाथ से खुदे ब्लाकों से इन चित्रों की रूपरेखा और प्रमुख घटक बनाए जाते हैं। बाद में कलम से बारीक चित्रकारी की जाती है। यह कला वस्त्रों, चादरों और पर्दां से प्रारंभ हुई। कलाकार बांस की या खजूर की लकड़ी को तराशकर एक ओर से नुकीली और दूसरी ओर बारीक बालों के गुच्छे से युक्त कर देते थे जो ब्रश या कलम का काम देती थी। कलमकारी के रंग पौधों की जड़ो को या पत्तों को निचोड़ कर प्राप्त किए जाते थे और इनमें लोहे, टिन, तांबें और फिटकरी के साल्ट्स मिलाए जाते थे। कालीघाट के पटचित्रों के समान ही उड़ीसा प्रदेश से एक अन्य प्रकार के पटचित्र प्राप्त होते हैं। उड़ीसा पटचित्र भी अधिकतर कपड़ों पर ही बनाए जाते है फिर भी ये चित्र अधिक विस्तार से बने हुए, अधिक रंगीन और हिन्दु देवी-देवताओं से संबद्ध कथाओं को दर्शाते हैं। फाड़ चित्र एक प्रकार के लंबे मफलर के समान वस्त्रों पर बनाए जाते हैं। स्थानीय देवताओं के ये चित्र प्रायः एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाये जाते हैं। इनके साथ पारम्परिक गीतकारों की टोली जुड़ी होती है जो स्क्राल पर बने चित्रों की कहानी का वर्णन करते जाते हैं। इस प्रकार के चित्र राजस्थान में बहुत अधिक प्रचलित हैं और प्रायः भीलवाड़ा जिले में प्राप्त होते हैं। फाड़ चित्र किसी गायक की वीरता पूर्ण कार्यों की कथा, अथवा किसी चित्रकार/किसान के जीवन ग्राम्य जीवन, पशुपक्षी और फूल-पौधों के वर्णन प्रस्तुत करते हैं। ये चित्र चटख और सूक्ष्म रंगों से बनाए जाते हैं। चित्रों की रूपरेखा पहले काले रंग से बनाई जाती है, बाद में उसमें रंग भर दिए जाते हैं। फाड़ चित्रों की प्रमुख विषयवस्तु देवताओं और इनसे संबंधित कथा-कहानियों से संबद्ध होती है, साथ ही तत्कालीन महाराजाओं के साथ संबद्ध कथानकों पर भी आधारित होती है। इन चित्रों में कच्चे रंग ही प्रयुक्त होते हैं। इन फाड़ चित्रों की अलग एक विशेषता है मोटी रेखाएं और आकृतियों का द्वि-आयामी स्वरूप और पूरी रचना खण्डों में नियोजित की जाती है। फाड़ कला प्रायः 700 वर्ष पुरानी है। ऐसा कहा जाता है कि इसका जन्म पहले शाहपुरा में हुआ जो राजस्थान में भीलवाड़ा से 35 किमी दूर है। निरंतर शाही संरक्षण ने इस कला को निर्णयात्मक रूप से प्रोत्साहित किया जिससे पीढ़ियों से यह कला फलती-फूलती चली आ रही है। भारत के संथाल प्रदेश में उभरी एक बहुत ही उन्नत किस्म की चित्रकारी है जो बहुत ही सुंदर और अमूर्त कला की द्योतक है। गोदावरी बेल्ट की गोंड जाति जो जन जाति की ही एक किस्म है और जो संथाल जितनी ही प्राचीन है, अद्भुत रंगों में खूबसूरत आकृतियाँ बनाती रही है। सभी लोककलाएँ और दस्तकारी मूल में पूरी तरह से भारतीय नहीं है। कुछ दस्तकारी तथा शिल्पकला और उनकी तकनीकी जैसे बाटिक प्राच्य प्रदेश से आयात की गई हैं परंतु अब इनका भारतीयकरण हो चुका है और भारतीय बाटिक एक परिपक्व कला का द्योतक है जो प्रचलित तथा महंगी भी हैं। वर्ली चित्रकला के नाम का संबंध महाराष्ट्र के जनजातीय प्रदेश में रहने वाले एक छोटे से जनजातीय वर्ग से है। ये अलंकृत चित्र गोंड तथा कोल जैसे जनजातीय घरों और पूजाघरों के फर्शों और दीवारों पर बनाए जाते हैं। वृक्ष, पक्षी, नर तथा नारी मिल कर एक वर्ली चित्र को पूर्णता प्रदान करते हैं। ये चित्र शुभ अवसरों पर आदिवासी महिलाओं द्वारा दिनचर्या के एक हिस्से के रूप में बनाए जाते हैं। इन चित्रों की विषयवस्तु प्रमुखतया धार्मिक होती है और ये साधारण और स्थानीय वस्तुओं का प्रयोग करके बनाए जाते हैं जैसे चावल की लेही तथा स्थानीय सब्जियों का गोंद और इनका उपयोग एक अलग रंग की पृष्ठभूमि पर वर्गाकार, त्रिभुजाकार तथा वृत्ताकार आदि रेखागणितीय आकृतियों के माध्यम से किया जाता है। पशु-पक्षी तथा लोगों का दैनिक जीवन भी चित्रों की विषयवस्तु का आंशिक रूप होता है। शृंखला के रूप में अन्य विषय जोड़-जोड़ कर चित्रों का विस्तार किया जाता है। वर्ली जीवन शैली की झांकी सरल आकृतियों में खूबसूरती से प्रस्तुत की जाती है। अन्य आदिवासीय कला के प्रकारों से भिन्न वर्ली चित्रकला में धार्मिक छवियों को प्रश्रय नहीं दिया जाता और इस तरह ये चित्र अधिक धर्मनिरपेक्ष रूप की प्रस्तुति करते हैं। कालीघाट चित्रकला का नाम कोलकात्ता में स्थित 'कालीघाट' नामक स्थान से जुड़ा है। कलकत्ते में काली मंदिर के पास ही कालीघाट नामक बाजार है। 19वीं शती के प्रारंभ में पटुआ चित्रकार ग्रामीण बंगाल से कालीघाट में आकर बस गए, देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाने के लिए। कागज पर पानी में घुले चटख रंगों का प्रयोग करके बनाए गए। इन रेखाचित्रों में स्पष्ट पृष्ठभूमि होती है। काली, लक्ष्मी, कृष्ण, गणेश, शिव और अन्य देवी-देवताओं को इनमें चित्रित किया जाता है। इसी प्रक्रिया में कलाकारों ने एक नए प्रकार की विशिष्ट अभिव्यक्ति को विकसित किया और बंगाल के सामाजिक जीवन से संबंधित विषयों को प्रभावशाली रूप में चित्रित करना प्रारंभ किया। इसी प्रकार की पट-चित्रकला उड़ीसा में भी पाई जाती है। बंगाल की उन्नीसवीं शती की क्रान्ति इस चित्रकला का मूल स्रोत बनी। जैसे-जैसे इन चित्रों का बाजार चढ़ता गया, कलाकारों ने अपने आप को हिन्दु देवी-देवताओं के एक ही प्रकार के चित्रों से मुक्त करना प्रारंभ किया और अपने चित्रों में तत्कालीन सामाजिक-जीवन को चित्रों की विषय वस्तु बनाने के तरीकों को खोजना प्रारंभ कर दिया। फोटोग्राफी के चलन से भी इन कलाकारों ने प्रेरणा प्राप्त की, पश्चिमी थियेटर के कार्यक्रम ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासनिक व्यवस्था से उत्पन्न हुई बंगाल की 'बाबू संस्कृति' तथा कोलकाता के नये-नये बने अमीर लोगों की जीवन शैली ने कला को प्रभावित किया। इन सभी प्रेरक घटकों ने मिलकर बंगला साहित्य, थियेटर और दृश्य कला को एक नवीन कल्पना प्रदान की। कालीघाट चित्रकला इस सांस्कृतिक और सौंदर्यपूर्ण परिवर्तन का आइना बन कर उभरी। हिन्दु देवी देवताओं पर आधारित चित्र बनाने वाले ये कलाकार अब रंगमंच पर नर्तकियों, अभिनेत्रियों, दरबारियों, शानशौकत वाले बाबुओं, घमण्डी छैलों के रंगबिरंगे कपड़ों, उनके बालों की शैली तथा पाइप से धूम्रपान करते हुए और सितार बजाते हुए दृश्यों को अपने चित्र पटल पर उतारने लगे। कालीघाट के चित्र बंगाल से आई कला के सर्वप्रथम उदाहरण माने जाने लगे। करेन्सी बोर्ड एक मौद्रिक प्राधिकरण है, जो कि एक देश की मुद्रा की विदेशी मुद्रा के साथ स्थिर विनिमय दर बनाये रखने के लिए आवश्यक होता है। इस नीति के अन्तर्गत केन्द्रीय बैंक के जो अन्यथा परंपरागत लक्ष्य होते हैं, उन्हें विनिमय दर स्थिर रखने के लक्ष्य के आगे गौण कर दिया जाता है। एक "कट्टर" करेन्सी बोर्ड के मुख्य गुण हैं- इसका लाभ तो यह है कि मुद्रा की स्थिरता का प्रश्न सुलझ जाता है। तथा हानियाँ हैं, कि देश अपनी घरेलू हालातों के अनुसार मौद्रिक नीति नहीं लागू कर पाता, तथा स्थिर विनिमय दर से देश के व्यापार की शर्तें भी स्थिर हो जाती हैं, जो कि व्यापारकर्ता देशों के आपसी आर्थिक अन्तरों पर निर्भर नहीं करतीं। प्रायः करेन्सी बोर्ड, छोटी तथा खुली अर्थव्यवस्थाओं के लिए लाभप्रद होते हैं, जहाँ स्वतंत्र मौद्रिक नीति चल नहीं सकती। तथा इससे मुद्रा स्फीति को कम रखने का आश्वासन भी मिलता है। For a precise definition of what constitutes a currency board, including past examples, see: खानजादा खान एक राजनीतिज्ञ है पाकिस्तान के राष्ट्रीय विधानसभा में | वह NA-11 निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है पाकिस्तान का उत्तर पश्चिम सीमांत प्रान्त मैं | जोग्यूडा डालाकोट, अल्मोडा तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। ७५५४ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से ७५५४ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर ७५५४ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। आंध्र प्रदेश एक्स्प्रेस 2724 भारतीय रेल द्वारा संचालित एक मेल एक्स्प्रेस ट्रेन है। यह ट्रेन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:NDLS) से 05:35PM बजे छूटती है और हैदराबाद डेकन रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:HYB) पर 07:50PM बजे पहुंचती है। इसकी यात्रा अवधि है 26 घंटे 15 मिनट। ईमामनगर पीरपैंती, भागलपुर, बिहार स्थित एक गाँव है। बस्दिहा में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत मगध मण्डल के औरंगाबाद जिले का एक गाँव है। अमित कुमार (झारखण्ड विधायक) भारत के झारखण्ड राज्य की सिल्ली सीट से झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के विधायक हैं। २०१४ के चुनावों में वे आजसु पार्टी के उम्मीदवार सुदेश कुमार महतो को 29740 वोटों के अंतर से हराकर निर्वाचित हुए। [1] १२४६ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से १२४६ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर १२४६ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। This is a list of many of the different language editions of Wikipedia: (The data is not up-to-date.) अंग्रेज़ी (en:) · जर्मन (de:) · फ़्रान्सीसी (fr:) · डच (nl:) इतालवी (it:)  · पोलिश (pl:)  · स्पेनी (es:)  · रूसी (ru:)  · जापानी (ja:)  · पुर्तगाली (pt:) चीनी (zh:)  · वियतनामी (vi:)  · स्वीडिश (sv:) यूक्रेनी (uk:)  · कैटलन (ca:)  · नॉर्वेजियाई (बोक्माल) (no:) 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३४ में जैन लोग हैं, केवल लक्षद्वीप एक मात्र केन्द्र शासित प्रदेश है जिसमें जैन धर्म नहीं है। झारखण्ड जैसे छोटे राज्य में भी 16,301 जैन धर्मावलम्बी हैं और वहाँ पर शिखरजी का पवित्र तीर्थस्थल है। जैनवाद के अनुसार जैन धर्म हमेशा से अस्तित्व में था और हमेशा रहेगा,[2][3][4][5][6] अन्य प्राचीन भारतीय धर्मों के समान ही जैन धर्म का मूल भी सिंधु घाटी सभ्यता से जोड़ा जाता है जो हिन्द आर्य प्रवास से पूर्व की देशी आध्यात्मिकता को दर्शाता है।[7][8][9] अन्य शोधार्थियों के अनुसार श्रमण परम्परा ऐतिहासिक वैदिक धर्म के हिन्द-आर्य प्रथाओं के साथ समकालीन और पृथक हुआ।[10] धर्म के रूप में जैन धर्म सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है। जैन धर्म भी एक राज्य से दूसरे राज्य में बदलता है लेकिन बुनियादी मुल्य समान ही हैं। लुआ त्रुटि package.lua में पंक्ति 80 पर: module 'Module:Portal/images/other' not found। सोर्बिक अम्ल एक कार्बनिक यौगिक है। मनुष्यों की आनुवंशिकी (यानि जॅनॅटिक्स) में मातृवंश समूह ऍल६ या माइटोकांड्रिया-डी॰एन॰ए॰ हैपलोग्रुप L6 एक मातृवंश समूह है। इस मातृवंश समूह के सदस्य स्त्रियों और पुरुषों की तादाद ज़्यादा नहीं है, लेकिन वे यमन और इथियोपिया के कुछ समुदायों में मिलते हैं।[1] वैज्ञानिकों के मुताबिक़ जिस स्त्री से इस मातृवंश की शुरुआत हुई वह पूर्वी अफ़्रीका में आज से लगभग ८१,५०० से १२९,८०० साल पहले रहती थी।[2][3] अंग्रेज़ी में "वंश समूह" को "हैपलोग्रुप" (haplogroup), "पितृवंश समूह" को "वाए क्रोमोज़ोम हैपलोग्रुप" (Y-chromosome haplogroup) और "मातृवंश समूह" को "एम॰टी॰डी॰एन॰ए॰ हैपलोग्रुप" (mtDNA haplogroup) कहते हैं। एक डॉक्टर की मौत 1991 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। 1082 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। २८२ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से २८२ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर २८२ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद (रा.वि.सं.प.), भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अधीन एक स्वशासित संगठन है जिसका मूल उद्देश्य विज्ञान संचार है। यह विज्ञान संचार के क्षेत्र में एक प्रमुख संस्थान है और इसका मुख्यालय कोलकाता पश्चिम बंगाल में है। यह संस्थान पूरे देश के विभिन्न क्षेत्रों में फैले 25 विज्ञान संग्रहालयों / केन्द्रों और केन्द्रीय गवेषणा और प्रशिक्षण प्रयोगशाला, कोलकाता का प्रबंधन करता है। इसके अतिरिक्त इसने अब तक 23 विज्ञान केन्द्रों को विकसित किया है जिन्हें विभिन्न राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों को सुपुर्द किया जा चुका है।[3] रा.वि.सं.प. विज्ञान केन्द्रों और संग्रहालयों का विश्व में सबसे बड़ा व्यवस्था-तंत्र (नेटवर्क) है। ये विज्ञान केन्द्र प्रयोग आधारित शिक्षण परिवेश प्रदान करते हैं। प्रत्येक वर्ष 12.5 करोड़ आगंतुक जिसमें लगभग 3.5 करोड़ विद्यार्थी होते हैं, इन विज्ञान केन्द्रों का दौरा करते हैं। निर्देशांक: 25°36′40″N 85°08′38″E / 25.611°N 85.144°E / 25.611; 85.144 रघुनाथ-भेलुरा नौबतपुर, पटना, बिहार स्थित एक गाँव है। फ़ोर्ट पियर संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिण डकोटा राज्य की स्टैन्ले काउण्टी का एक नगर है। सन २००० की जनगणना में यहाँ की जनसंख्या १,९९१ थी। इस नगर की स्थापना सन १८३२ में पियर छोउटोउ नामक एक फ़र व्यापारी द्वारा की गई थी। एबरडीन  · एलॅक्ज़ेण्ड्रिया · आर्मर · बॅल फ़ोर्श · बाइसन · ब्रैण्डन · ब्रिट्टन · ब्रूकिंग्स · बफ़ैलो · बर्क · कैण्टन · चेम्बरलिन · क्लार्क · क्लियर लेक · कस्टर · डि स्मैट · डॅडवुड · डुप्री · एल्क पौइण्ट · फ़ॉल्कटन · फ़्लैण्ड्रोउ · फ़ोर्ट पियर · गॅन्न वैली · गैटिज़बर्ग · हैटी · हाइमोर · हॉट स्प्रिंग्स · हावर्ड · ह्यूरॉन · इप्सविच · कैडोका · कैनेबैक · लेक एण्डीज़ · लेओला · मैडिसन · मार्टिन · मैकिण्टोश · मिलबैंक · मिलर · मिट्शॅल · माउण्ड सिटी · मुर्डो · ओलिवेट · ओनिडा · पार्कर · फ़िलिप · पियर · प्लैंकिण्टन · रैपिड सिटी · रॅडफ़ील्ड · सेलम · सॅल्बी · सियुक फ़ॉल्स · सिस्सेटन · स्पियरफ़िश · स्टुर्जिस · टिम्बर लेक · टिण्डल · वर्मिलियन · वॉटरटाउन · वॅब्स्टर · वॅसिंग्टन स्प्रिंग्स · व्हाइट रिवर · विनर · वूनसोकेट · होयसल राजवंश का राजा। यह जीवनचरित लेख अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की सहायता कर सकते है। धरमगाँव, द्वाराहाट तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। वेब ट्रैफिक, एक वेबसाइट के लिए आगंतुकों द्वारा भेजे गए और प्राप्त किए गए डेटा की राशि है। यह इंटरनेट ट्रैफिक का एक बड़ा हिस्सा है। इसे आगंतुकों की संख्या और उनके द्वारा खोले गए पृष्ठों की संख्या के आधार पर निर्धारित किया जाता है। साइटें, आवक और जावक ट्रैफिक पर नज़र रखती हैं ताकि यह पता रहे कि उनकी साइट के कौन से पृष्ठ लोकप्रिय हैं या क्या कोई स्पष्ट रुझान दिख रहा है, जैसे कि किसी विशेष देश में किसी विशेष पृष्ठ को देखा जा रहा है। इस ट्रैफिक पर नज़र रखने के कई ज़रिये हैं और एकत्रित डेटा का इस्तेमाल साईट को संरचित करने, सुरक्षा समस्याओं को उजागर करने या बैंडविड्थ की संभावित कमी को इंगित करने में किया जाता है - सभी वेब ट्रैफिक स्वागत योग्य नहीं होते। वर्धित वेब ट्रैफिक (आगंतुकों) के बदले, कुछ कंपनियां विज्ञापन योजनाओं की पेशकश करती हैं, जिसके तहत साइट की स्क्रीन पर स्थान के लिए भुगतान किया जाता है। साइटें अक्सर, खोज इंजन में शामिल होकर और खोज इंजन अनुकूलन के माध्यम से अपने ट्रैफिक में वृद्धि करने की कोशिश करती हैं। वेब विश्लेषिकी, एक वेबसाइट के लिए आगंतुकों के व्यवहार का मापन करता है। एक वाणिज्यिक संदर्भ में, यह विशेष रूप से यह मापन करता है कि वेबसाईट का कौन सा पहलू इंटरनेट मार्केटिंग के व्यावसायिक लक्ष्यों की दिशा में काम करता है; उदाहरण के लिए, कौन से लैंडिंग पृष्ठ लोगों को खरीद के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वेब विश्लेषिकी सॉफ्टवेयर और सेवाओं के उल्लेखनीय विक्रेताओं में शामिल हैं: वेबट्रेंड्स, कोरेमेट्रिक्स, ओम्नीचर और गूगल एनालिटिक्स. वेब साइटों और व्यक्तिगत पृष्ठों या साईट के भीतर किसी हिस्से की लोकप्रियता को जानने के लिए वेब ट्रैफिक का मापन किया जाता है। वेब ट्रैफिक का विश्लेषण वेब सर्वर लॉग फाइल में पाए जाने वाले ट्रैफिक आंकड़ों को देख कर किया जा सकता है, जो सभी प्रयुक्त पृष्ठों की एक स्वतः उत्पन्न सूची होती है। जब कोई फ़ाइल पेश की जाती है तो एक हिट उत्पन्न होता है। पृष्ठ को अपने आप में एक फ़ाइल माना जाता है, लेकिन छवियां भी फाइलें हैं, इस प्रकार 5 छवियों वाला पृष्ठ 6 हिट (5 छवियां और वह पृष्ठ) उत्पन्न कर सकता है। एक पेज व्यू तब उत्पन्न होता है जब एक आगंतुक वेब साइट के भीतर किसी भी पृष्ठ का अनुरोध करता है - एक आगंतुक हमेशा कम से कम एक पेज व्यू को उत्पन्न करेगा (मुख्य पृष्ठ) और कई अधिक भी कर सकता है। वेब साईट से बाहर के अनुप्रयोगों की निगरानी से ट्रैफिक को वेब साईट के प्रत्येक पृष्ठ में एचटीएमएल (HTML) कोड का एक छोटा टुकड़ा डालने से रिकॉर्ड किया जा सकता है। वेब ट्रैफिक को कभी कभी पैकेट स्निफिंग द्वारा मापा जाता है और इस प्रकार ट्रैफिक आंकड़े के यादृच्छिक नमूने प्राप्त किये जाते हैं जिनसे फिर सम्पूर्ण इंटरनेट प्रयोग में वेब ट्रैफिक के बारे में जानकारी निकाली जाती है। वेब ट्रैफिक की निगरानी करते समय निम्नलिखित प्रकार की जानकारियों पर गौर किया जाता है: अलेक्सा इंटरनेट जैसी वेब साइटें, ट्रैफिक रैंकिंग और आंकड़े पेश करती है जो उन लोगों पर आधारित होते हैं जो अलेक्सा टूलबार का उपयोग करते हुए साइटों का प्रयोग करते हैं। इसके साथ कठिनाई यह है कि यह किसी साइट के लिए ट्रैफिक की पूरी तस्वीर नहीं लेता है। बड़ी साइटें आमतौर पर नीलसन नेटरेटिंग्स (Nielsen NetRatings) जैसी अन्य कंपनियों की सेवाएं लेती हैं, लेकिन उनकी रिपोर्ट केवल सदस्यता से ही उपलब्ध होती हैं। एक वेब साइट द्वारा अनुभव किए गए ट्रैफिक की मात्रा इसकी लोकप्रियता का एक माप है। आगंतुकों के आंकड़े का विश्लेषण करके, साइट की कमियों को देखना और उन क्षेत्रों में सुधार करना संभव है। एक साइट की लोकप्रियता और उसका प्रयोग करने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि करना (या, कुछ मामलों में कमी करना) भी संभव है। पासवर्ड द्वारा साइट के कुछ भागों की रक्षा करना कभी-कभी महत्वपूर्ण होता है, जिससे केवल अधिकृत लोग ही विशेष अनुभागों या पृष्ठों का इस्तेमाल कर पाते हैं। कुछ साइट व्यवस्थापकों ने अपने पृष्ठ को कुछ विशिष्ट ट्रैफिक के लिए प्रतिबंधित करने का चुनाव किया है, जैसे कि भौगोलिक स्थान के आधार पर। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू. बुश के पुनर्चुनाव की अभियान साइट (GeorgeWBush.com) को साइट पर एक हमले की खबर के बाद 25 अक्टूबर 2004 को अमेरिका से बाहर के सभी इंटरनेट उपयोगकर्ताओं के लिए अवरुद्ध कर दिया गया।[1] वेब सर्वर के अभिगम को सीमित करना भी संभव है, कनेक्शन की संख्या और प्रत्येक कनेक्शन द्वारा प्रसारित बैंडविड्थ के आधार पर. अपाचे HTTP सर्वर पर, इसे लिमिटिपकोन (limitconn) मॉड्यूल व अन्य द्वारा पूरा किया जाता है। खोज इंजन में किसी साईट को रखकर और विज्ञापन की खरीद द्वारा वेब ट्रैफिक को बढ़ाया जा सकता है, जिसमें थोक ईमेल, पॉप अप एड्स और अंतर-पृष्ठ विज्ञापन शामिल है। वेब ट्रैफिक को गैर- इंटरनेट आधारित विज्ञापन की खरीद द्वारा भी बढ़ाया जा सकता है। यदि एक वेब पेज किसी खोज के प्रथम पृष्ठ में सूचीबद्ध नहीं है, तो किसी व्यक्ति द्वारा इसे खोजे जाने की संभावना काफी कम हो जाती है (विशेषकर यदि वहां पहले पृष्ठ पर अन्य प्रतियोगिता है)। बहुत कम ही लोग पहले पृष्ठ के बाद आगे जाते हैं और आगे के पृष्ठों तक जाने वाले लोगों का प्रतिशत काफी कम है। फलस्वरूप, खोज इंजन पर उचित स्थान हासिल करना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना खुद वेब साइट। वेब ट्रैफिक जो खोज इंजन या निर्देशिका में गैर-भुगतान सूचिबद्धन से आता है उसे सामान्यतः "ऑर्गेनिक" ट्रैफिक के रूप में जाना जाता है। ऑर्गेनिक ट्रैफिक को उत्पन्न करने या बढ़ाने के लिए वेब साईट को डाइरेक्टरी, खोज इंजन, गाइड (जैसे कि यल्लो पेजेस और रेस्तरां गाइड) और पुरस्कार साइटों में शामिल किया जा सकता है। ज्यादातर मामलों में वेब ट्रैफिक को बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका है इसे प्रमुख खोज इंजनों के साथ पंजीकृत करना. सिर्फ पंजीकृत करने से ट्रैफिक की गारंटी नहीं मिलती, क्योंकि खोज इंजन पंजीकृत वेब साइटों को "क्रॉल" करते हुए काम करता है। इन क्रौलिंग प्रोग्रामों (क्रॉलर) को "स्पाइडर" या "रोबोट" के रूप में भी जाना जाता है। क्रौलर, पंजीकृत मुख पृष्ठ पर शुरू होता है और आमतौर पर उन हाइपरलिंक्स का अनुगमन करता है जिन्हें यह पाता है, ताकि वेब साइट (आंतरिक लिंक्स) के भीतर पृष्ठों तक पहुंच सके। क्रौलर उन पृष्ठों के बारे में जानकारी एकत्र करने लगता है और उसे खोज इंजन के डेटाबेस में उनका संग्रहण और अनुक्रमण करता है। हर मामले में, वे पृष्ठ यूआरएल और पृष्ठ शीर्षक को अनुक्रमित करते हैं। अधिकांश मामलों में वे वेब पेज हेडर (मेटा टैग) और पृष्ठ की एक निश्चित मात्रा को क्रमबद्ध करते हैं। इसके बाद, जब एक खोज इंजन उपयोगकर्ता, किसी विशेष शब्द या वाक्यांश की खोज करता है, तो खोज इंजन डेटाबेस में खोजता है और परिणाम उत्पन्न करता है, जो आमतौर पर खोज इंजन एल्गोरिदम के अनुसार प्रासंगिकता के अनुसार छांटा जाता है। आमतौर पर, शीर्ष ऑर्गेनिक परिणाम, वेब उपयोगकर्ताओं की अधिकांश क्लिक हासिल करते हैं। कुछ अध्ययन के अनुसार[तथ्य वांछित], शीर्ष परिणाम को 5% और 10% के बीच क्लिक हासिल होता है। बाद के प्रत्येक परिणाम को पिछले परिणाम की तुलना में 30% और 60% के बीच क्लिक हासिल होता है। इससे यह पता चलता है कि शीर्ष परिणामों में प्रदर्शित होना महत्वपूर्ण है। कुछ कंपनियों हैं जो खोज इंजन विपणन में विशेषज्ञ हैं। हालांकि, वेबमास्टरों के लिए यह आम होता जा रहा है कि उन्हें "बॉयलर-रूम" कंपनियों द्वारा संपर्क किया जाता है, बिना किसी वास्तविक ज्ञान के कि कैसे परिणाम प्राप्त किये जाते हैं। पे-पर-क्लिक के विपरीत, खोज इंजन विपणन का आमतौर पर मासिक या वार्षिक भुगतान किया जाता है और अधिकांश खोज इंजन कंपनियां विशिष्ट परिणामों का वादा नहीं कर सकती जिसके लिए उन्हें भुगतान किया जाता है। वेब पर सूचना की उपलब्ध अपार मात्रा की वजह से, खोजे गए सभी पृष्ठों की समीक्षा और अनुक्रमण को पूरा करने के लिए क्रॉलर कई दिन, सप्ताह या महीनों का समय ले सकता है। उदाहरण के लिए, गूगल ने यथा 2004, आठ बीलियन पृष्ठों को अनुक्रमित किया था। यहां तक कि सैकड़ों या हज़ारों सर्वरों द्वारा पृष्ठों की स्पाइडरिंग पर काम करने के बावजूद एक पूर्ण पुनः अनुक्रमण में समय लगता है। यही कारण है कि कुछ वेब साइटों में हाल ही में अद्यतन पृष्ठ, खोज इंजन पर खोज करते समय तुरंत नहीं मिलते हैं। अत्यधिक वेब ट्रैफिक, किसी वेब साईट के लिए अभिगम को नाटकीय रूप से धीमा या रोक भी सकता है। यह इस वजह से होता है क्योंकि सर्वर जितने अनुरोध संभाल सकता है उससे कहीं अधिक फ़ाइल अनुरोध उसे मिलते हैं और हो सकता है जानबूझकर कोई हमला हो या बस अधिक लोकप्रियता की वजह से हो सकता है। कई सर्वरों वाली बृहद पैमाने की वेब साइटें, अक्सर आवश्यक ट्रैफिक का सामना कर सकती हैं और इसकी अधिक संभावना है कि छोटी सेवाएं ट्रैफिक अधिभार से प्रभावित होती हैं। डिनायल ऑफ़ सर्विस हमले (DOS हमला) ने एक दुर्भावनापूर्ण हमले के बाद वेब साइटों को बंद होने के लिए विवश किया, जिसके तहत इन वेब साइटों को इतने अनुरोधों से भर दिया जितना वे संभाल नहीं सकते थे। बृहद पैमाने के डिनायल ऑफ़ सर्विस हमले का समर्थन करने के लिए वायरस का भी इस्तेमाल किया गया। प्रचार में आकस्मिक विस्फोट के कारण वेब ट्रैफिक अधिभार उत्पन्न हो सकता है। मीडिया में कोई खबर, एक तीव्र प्रसारित ईमेल या किसी लोकप्रिय साइट से एक लिंक इस तरह की आगंतुक बाढ़ का कारण हो सकती है (कभी-कभी इसे स्लैशडॉट प्रभाव या डिग या रेडिट प्रभाव कहा जाता है)। २५ किलोमीटर लंबा यह राजमार्ग उत्तर प्रदेश में सिकन्द्रा को भोगनीपुर से जोड़ता है। हलिमपुर जमालपुर, मुंगेर, बिहार स्थित एक गाँव है। धारण अग्रवाल वैश्य का एक गोत्र हैं।[1] बन्डोला ल० खुगसा-अ०५, पौडी तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के पौड़ी जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। कीप (लाओ: ກີບ; कोड: LAK; चिह्न: ₭ या ₭N) 1952 से लाओस की मुद्रा है। एक कीप सौ अत् (ອັດ). से विभाज्य है। फ्रांसीसी अधिकारियों द्वारा क्षेत्र पर कब्जा किए जाने से पहले वियनितएन की मुक्त कीप सरकार ने 1945-1946 में 10, 20 और 50 अत् और 10 कीप मूल्यवर्ग के नोट जारी किए थे। 1952 में कीप को फ्रांसीसी इंडोचाइना पियास्त्रे के स्थान पर पुनः जारी किया गया। कीप (फ्रांसीसी में पियास्त्रे) सौ अत् (लाओ) अथवा सेंट (फ्रांसीसी) से समविभाजित था। सिक्के फ्रांसीसी और लाओ भाषा में 10, 20 और 50 अत् मूल्यवर्ग के जारी किए गए। चीनी सिक्कों की तरह सभी सिक्के एल्यूमिनियम के बने हुए थे, जिनके बीच में छेद था। सिक्के केवल 1952 में जारी किए गए थे। 1953 में इंस्टीट्यूट देस इतेत्स दू काम्बोज, दू लाओस इत दू वियतनाम की लाओ शाखा ने पियास्त्रे और कीप जारी किए। नोट 1, 5, 100 और 1000 कीप/पियास्त्रे के थे। 1957 में सरकार न केवल कीप में नोट जारी किए। नोट 1, 5, 10, 20, 50, 100 और 500 कीप मूल्यवर्ग के थे। 1963 में 200 और 1000 मूल्यवर्ग के कीप जोड़े गए, जिसके बाद 1975 में 5000 कीप जारी किया गया। सभी बैंकनोट फ्रांस में छापे गए थे। पाथेट लाओ के नियंत्रण वाले क्षेत्र में 1976 से पहले पाथेट लाओ कीप 1, 10, 20, 50, 100, 200 और 500 मूल्यवर्ग में जारी किए गए। नोटों की छपाई चीन में हुई थी। 1976 में पातेट लाओ द्वारा पूरे देश पर अधिकार जमा लेने के बाद शाही कीप के स्थान पर पूरे देश में पाथेट लाओ चलन में आ गए। दोनों मुद्राओं की बीच विनिमय दर एक पाथेट कीप = 20 शाही कीप रखी गई थी। 1980 में 10, 20 और 50 अत् मूल्यवर्ग के सिक्के जारी किए गए, जिसके बाद 1985 में 1, 5, 10, 50 मूल्यवर्ग के कीप सिक्के जारी किए गए। हालांकि, मुद्रास्फिति की वजह से लाओस में वतर्मान समय में सिक्के चलन में नहीं हैं। 1979 में 1, 5, 10, 20, 50 और 100 मूल्यवर्ग के कीप नोट जारी किए गए। 1988 में 500 कीप नोट शामिल किया गया। जिसके बाद में 1992 में 1000 कीप, 1997 में 2000 और 5000 कीप, 2002 में 10,000 और 20,000 कीप और 17 जनवरी 2006 को 50,000 मूल्यवर्ग के कीप जारी किए गए। पर्यावास या प्राकृतिक वास किसी प्रजाति विशेष के पौधों या जीवों या अन्य जीवधारियों के रहने का एक पारिस्थितिक या पर्यावरणीय क्षेत्र है।[1][2] यह वो प्राकृतिक वातावरण है जिसमे कोई जीवधारी रहता है, या यह वो भौतिक वातावरण है जिस में चारों ओर किसी जीव प्रजाति की आबादी उपस्थित रहती है और इस वातावरण को ना सिर्फ अपनी उपस्थिति से प्रभावित करती है अपितु अपने जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु इसके संसाधनों का उपयोग भी करती है।[तथ्य वांछित] "आबादी" शब्द का प्रयोग किसी "जीव" के लिए किया जाता है, उदाहरण के लिए हालाँकि किसी एक काले भालू के पर्यावास का वर्णन करना संभव तो है, पर हमें वो विशेष या अकेला भालू तो मिलता नहीं बल्कि, हम अक्सर भालुओं के उस समूह से दो चार होते हैं जो किसी जैवभौगोलिक क्षेत्र में उस विशेष भालू प्रजाति की आबादी का गठन करता हो। इसके अलावा हो सकता है कि इस समूह का पर्यावास किसी और जगह रहने वाले काले भालू के पर्यावास से पूरी तरह से भिन्न हो। इसलिए पर्यावास शब्द का प्रयोग आमतौर पर किसी प्रजाति या किसी अकेले जीव के लिए नहीं किया जाता। (हिन्दी में जनसंख्या शब्द सिर्फ मानवों की संख्या निर्धारण के लिए प्रयुक्त होता है शेष जीवों के लिए सिर्फ संख्या या आबादी शब्द का प्रयोग होता है, आबादी शब्द का प्रयोग जनसंख्या के पर्यायवाची के तौर पर किया जा सकता है पर जनसंख्या हमेशा आबादी का पर्यायवाची नहीं होता) सूक्ष्मपर्यावास शब्द का प्रयोग अक्सर, किसी खास जीव या आबादी की छोटे पैमाने की भौतिक आवश्यकताओं या वर्णन करने के लिए किया जाता है। एक सूक्ष्मपर्यावास अक्सर किसी बड़े पर्यावास के भीतर एक छोटा पर्यावास होता है। उदाहरण के लिए, जंगल के भीतर गिरा एक पेड़ का तना उन कीड़ों को सूक्ष्मपर्यावास प्रदान कर सकता है जो जंगल के विशाल पर्यावास में अन्यत्र नहीं पाये जाते। सूक्ष्मपर्यावरण किसी विशेष जीव या पौधे के पर्यावास मे उसके सन्निकट परिवेश और अन्य भौतिक कारकों को कहते है। 936 ग्रेगोरी कैलंडर का एक अधिवर्ष है। ढाके की मलमल 1956 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। भारतीय हिंदीतर भाषा के कोशों का निर्माण भी प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक बराबर चल रहा है। तमिल भाषा में कोशनिर्माण की परंपरा बहुत प्राचीन कही जाती है। उनका प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ 'तांलकाप्पियम' कहा जाती है। उसी व्याकरण ग्रंथ में ग्रंथकार ने सूत्र शैली में शब्दकोश तैयार किया था। गंथ के लेखक ने तमिल भाषा के शब्दों को चार वर्गों में विभक्त किया है— (१) सामान्य देशी शब्द० (२) साहित्यिक शब्द, (३) विदेशी भाषाओं से व्युत्पन्न शब्द और (४) संस्कृत से व्युत्पन्न शब्द। इसमें शब्दसंग्रह वर्णानुक्रम से रखा गया है। इसका प्रकाशन यद्यपि अट्ठारहवीं शताब्दी का है तथापि इसकी रचना ईसा की प्रथम द्वितीय शताब्दी में बताई जाती है। तमिल का दूसरा कोश 'तिवाकरम' है। १२ खडों का यह कोश अमरकोश के आधार पर बना है। इसमें दस खंडों में वर्गमूलक शब्दसंचय है, ११ वाँ खंड नानार्थ शब्दों का और १२ वाँ समूहवाचक शब्दों का है। १६७९ ई० में प्रथम तमिल-पुर्तगाली कोश बना और १७१० ई० में फादक वेशली ने पूर्णतः अकारादि क्रम पर निर्मित 'कतुर अकाराति' नामक कोश तैयार किया। तमिल का प्रथम अंग्रेजी कोश लूथर के अनुयायी धर्मप्रचारकों द्वारा १७७९ ई० में मलाबार एंड इंग्लिश डिक्शनरी नाम से प्रकाशित हुआ। उसी का दूसरा संस्करण सशेधित रूप से तमिल में 'इंग्लिश डिक्शनरी' के नाम में १८०९ ई० में मुद्रित हुआ। १८५१ ई० में एक त्रिथाषी कोश (अंग्रेजी, तेलगू और तमिल का) प्रकाशित हुआ। इनकी सहायता से अनेक तमिल कोश बनते आ रहे हैं। इस संपन्न और प्राचीन भाषा में व्याकरण और कौशों की संपन्न परंपरा है। मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा तमिल का एक विशाल कोश तौयार हुआ है जो अनेक जिल्दों में प्रकाशित है। इसकी शब्दयोजना तमिल वर्णमाला के अनुसार है। इसकी भूमिका में तमिल—कोश—परंपरा के विकास का विस्तृत विवरण दिया गया है। इनसे अतिरिक्त प्राचीन और अर्वाचीन कालों में अनेल तमिल कोश निर्मित हुए। इनमें अनेक नवीन कोश ऐसे हैं जिनमें तमिल में अर्थ दिया गया है; कुछ में अग्रेजी द्वारा शब्दार्थ बताया गया है—जैसे 'तमिल लेक्सिकन' और कुछ नए कोश ऐसे भी है जिनमें भारतीय भाषाओं का अर्थबोधन के लिये आश्रय लिया गया है। इन्हीं में एकाध तामिल हिंदी कोश भी है। दक्षिण की अन्य द्रविड भाषाओं में भी १९ वीं शती के पूर्वार्ध से ही कोशों की रचना चली आ रही है। इन भाषाओं में आज अनेक उत्तम और विशाल कोश प्रकाशित है या हो रहे हैं। तेलगू के त्रिभाषी कोश की ऊपर चर्चा हुई है। चार्लिस फिलिप्स ब्राउन द्वारा १८५२ ई० में अंग्रेजी तेलगू कोश निर्मित होकर छापा गया। ए तेलगू—इंग्लिश डिक्शनरी का १९०० ई० में निर्माण पी० शंकरनारायण ने किया। १९१५ ई० में आक्सपोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस से भी एक तेलगू केश प्रकाशित किया गया। विलियम ऐंडर्सन ने इससे बी बहुत पहले ही, अर्थात १८१२ ई० में अंग्रेजी-मलयालम का कोश बनाया ता। जान गैरेट का अंग्रेजी कर्नाटकी (कनारी) कोश १८६५ ई० में प्रकाशित हुआ। बाद में भी एफ्० कितल द्वारा संपादित (१८९४ ई० में) कन्नड का भी एक कोश छपा। बँगला के कोशों की परंपरा—बँगाल भाषा का विकास होने के बाद से—बराबर चल रही है। ईधुनिक ढंग के कोशों में प्रकृति- वाद अभिघान नामक विशाल बँगाल कोश उल्लेखनीय है जिसका संपादन राधाकमल विद्यालंकार ने किया। १८११ ई० में यह प्रकाशित हुआ। यह शब्दोकोश वस्तुतः संस्कृत बँगाल शब्दकोश है। इसका पूर्णतः परिशोधित और परिवर्धित संस्करण १९११ ई० में श्रीशरच्चंद्र शास्त्री द्वारा संपादित होकर प्रकाशित हुआ। इसका षष्ठ संस्करण तक देखने को मिला है। कदाचित् इससे भी पहले बंगला पुर्तगाली डिक्शनरी बन चुकी थी। पादरी मेनुअल ने बँगला व्याकरण के साथ बँगला—पुर्तगाली—बँगला केश (संभवतः) बनाए थे। कहा जाता है कि रामपुर के पादरी केरे साहब ने १८२५ ई० बहुत बँगला—इंगलिश—कोश बनाला था। ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से १८३३ ई० में बँगला—संस्कृत—इंगलिश—डिक्शनरी तैयार करवाई गई थी। हाउंटर और रामकमल सेन का बँगलाइंगलिश कोश भी अत्यंत प्रसिद्ध है। पादरी केरे के बँगला अंग्रेजी कोश में ८०००० शब्द थे। इनके अतिरिक्त भी अनेक छोटे बडे बँगला अंग्रेजी कोश भी बने। केवल बँगला लिपि और भाषा में ही ज्ञानेंद्र मोहन दास का बँगला भाषार आभिधान (द्वितीय संस्कारण १९२७) और पाँच जिल्दोंवाला हरिचरण वंद्योपाध्याय द्वारा निर्मित बंगीय शब्दकोश दोनों उत्कृष्ट रचनाएँ मानी जाती है। बँगला में उन्नीसवीं शताब्दी से आजतक छोटे बडे़ शब्दकोशों के निर्माण की परंपरा चली आ रही है। छोटे कोशों में चलंतिका अत्यंत लोकप्रिय है। सैकडों अन्य कोश भी आज तक रचे गए और प्रकाशित हो चुके हैं। श्री योगेशचंद्र राय का बँगला शब्दकोश भी प्रसिद्ध रचना है। इस ग्रंथ में अनेक आधारिक और सहायक ग्रंथों की चर्चा है। उनमें बँगला से संबद्ध निम्नाकित कोशों के नाम उपलब्ध हैं— (१) डिक्शनरी आव् बंगाली लैंग्वेज (सं० कैरे—१८२५ ई०) (२) ए डिक्शनरी आव् बंगाली लैंग्वेज (सं० जाँन सी० मार्श- मैन—१८२७ ई०) (३) बंगाली वीकैब्यूलरी (सं० एच्० पी० फास्टर—१७९९ ई०) (४) बंगाली वीकैब्यूलरी (मोहनप्रसाद ठाकुर—१८१० ई०) (५) डिक्शनरी आव् बंगाली लैग्वेज (सं० डब्लू० मार्टन— १८२८ ई०) (६१) ए डिक्शनरी आव् हंगाली ऐंड इंगलिश (सं० ताराचंद चक्रवर्ती—१८२७ ई०)। (७) शब्दसिंधु (अमरकोश के संस्कृत शब्दों की आकारादिवर्णा- नुक्रामानुसार योजना तथा बँगला व्याख्या—१८०८ ई०) ग्लासरी आँव जुडिशल ऐंड रेवेन्यू टर्म्स नामक जामसन के अंग्रेजी बँगला कोश का टाड संस्कारण १८३४ ई० में प्रकाशित हुआ एच्० एच्० विलसन का जो कोश १८५५ ई० में प्रकाशित हुआ उसमें अरबी फारसी, हिंदी, हिंदुस्तानी, उडिया, मराठी, गुजराती, तेलगू, कर्नाटकी (कनारी), मलायालम आदि के साथ साथ बँगला के शब्द भी थे। श्रीतारानाथ का शब्दस्तोममहानिधि भी अच्छा कोश कहा जाता है। मराठी भाषा में कोशनिर्माण की परंपरा संभवतः उस यादवकाल से प्रारंभ होती है जब महाराष्ट्री प्राकृत के अनंतर आधुनिक मराठी का स्वतंत्र भाषा के रूप में विकास हुआ और वह प्रौढ़ हो गई। उस युग में कुछ कोश बनाए गए थे। हेमाद्रि पंडितों द्वारा रचित अनेक कोशों का उल्लेख मिलता है। संत ज्ञानेश्वर ने अपनी कृति ज्ञानेश्वरी के क्लिष्ट शब्दों की—अकारादि क्रम से अनुक्रमणिका बनाते हुए उसी के साथ सरल मराठी में पर्याय शब्द दिए हैं। उसी के द्वारा मराठी से संबद्ध १२ वीं शती के उन कोशों का संकेत मिलता है जो आज अनुपलब्ध हैं। शिवाजी द्वारा भी उनके समय में 'राज-व्यवहार-कोश' बना था जिसमें मराठी, फारसी और संस्कृत—तीनों भाषाओं की सहायता ली गई थी। रघुनाथ पंडितराव द्वारा ३८४ पद्यों का यह छंदोबद्ध कोश ऐसा त्रिभाषी कोश है जो अपने ढंग का विशेष कोश कहा जा सकता है। संस्कृत और फारसी के भी अर्थपर्यासूचक ऐसे कोश संस्कृत माध्यम से मुगल शासनकाल में बने थे। आगे चलकर पाश्चात्यों के संपर्क और प्रभाव से 'मराठी इंगलिश' के अनेक कोश बने। चीफ कैप्टन गोल्सवर्थ ने अंग्रेजी—मराठी का एक विशाल कोश १८३१ ई० में बनाया था। थामस कैंडी के सहयोग से उस कोशों के संशोधित और परिवर्धित अनेक संस्करण छपे। मराठी के इन कोशों की परंपरा १९ वीं शताब्दी के आरंभ से अबतक चली आ रही है। कोशों की दृष्टि से मराठी भाषा अत्यंत संपन्न है। अंग्रेजी कोशों में केरी, कर्नल केनेडी और गोल्सवर्थ कैडी के मराठी इंगलिश कोश महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं। इनके अतिरिक्त १९ वीं शती के कुछ प्रमुख मराठी कोश हैं—(१) महाराष्ट्र भाषे चा कोश (इसके प्रथम भाग का प्रकाशन १८२९ ई० से प्रारंभ हो गया था); (२) रघुनाथ भास्कर गाडबोले का हंसकोश (१८६३ ई०); (३) बोडकर का रत्नकोश (१८६९ ई०) और (४) मराठी भाषा का नवीन कोश (१८९० ई०)। बीसवीं सदी के कोशों में—वा० गो० आप्टे का— मराठी शब्दरत्नाकर और विद्याधर का सरस्वती कोश आधिक प्रसिद्ध है। सामान्य शब्दार्थ कोशों के अतिरिक्त मराठी—व्युत्पत्तिकोश (कृष्णाजी पांडुरंगा कुलकर्णी—१९४६ ई०) अत्यंत प्रसिद्ध व्युत्पत्ति- कोश है। इसमें मराठी भाषा का पूर्ण प्रयोग हुआ है। मराठी में विश्वकोश लोकोक्तिकोश, वाक्संप्रदायकोश, (अनेक) ज्ञानकोश और शब्दार्थकोश है। गोविंदराव काले का एक पारिभाषिक शब्दकोश भी है जिसमें अंग्रेजी सैनिक शब्दों का शब्दार्थ संग्रह मिलता है। मराठी हिंदी कोश भी अनेक बने हैं। इनंमें कुछ उत्तम कोटि के भी कोश हैं। लोदियन मिशन द्वारा १८५४ ई० में पंजाबी शब्दकोश बना था जिसमें गुरूमुखी और रोमन में मूल शब्द थे तथा अंग्रेजी में अर्थ था। इसके बाद पंजाबी कोशों का सिलसिला चलता है तथा पंजाबी के कोश बनने लगे। इधर २० वीं शती में भाई विशनदास पुरी के संपादकत्व में प्रकाशित (१९२२ ई०) और पंजाब सरकार के भाषा विभाग, पटियाला से प्रकाश्य- माना पंजाबी कोश अत्यंत महत्व के हैं। द्वितीय कोश कदाचित् पंजाबी का सर्वोत्तम कोश है। काश्मीरी भाषा के अपने मैनुअल में डा० ग्रियर्सन ने व्याकरण बनाया और फ्रजबुक के साथ सात शब्दकोश भी संपादित (१९३२ ई०) किया था। इसके मूलकर्ता ईश्वर कौल थे और संभवतः १८९० ई० के पूर्व इसकी रचना हो चुकी ती। इसका पूर्व भी १८८५ ई० में इस दिशा का कुछ कार्य हो चुका था। टर्नर की नैपाली डिक्शनरी यद्यपि बहुत बाद की है, तथापी उसमें कोशविज्ञान और भाषाविज्ञान का विनियोग जिस सहता के साथ हुआ है वह अत्यंत प्रशंसनीय है। उन उर्दू के कोशों की चर्चा ऊपर हुई है जिन्हें विदेशियों ने बनाया। हिंदी या हिंदुस्तनी कोशों के साथ या इनका मिश्रित रूप ही प्रायः रहा। कभी कभी वे अलग भी थे। इनके पूर्व और बाद में बहुत से ऐसे कोश भी बने जो फारसी लिपि में निर्मित थे। इनमें फरहंगे अस- फिया, तख्मीस्सुल्लुगात, लुगात किसोरी अधिक महत्व के और प्रसिद्ध माने जाते हैं। तत्वतः इनमें हिंदी के शब्दों की संख्या बहुत ज्यादा है। पर लिपिभेद के कारण हिंदी मात्र जानेवाले इनका उपयोग और प्रयोग नहीं कर पाते। 'फरहंगे-ए-इस्तलाहात— वस्तुतः मौं० अब्दुलहक की योजना और प्रेरणा से रचित उर्दू का विशाल कोश है। इनके अतिरिक्त भी अमीर मीनाई का आमीरूल् लुगात तथा करीमुल्लुगात उर्दूकोशों में प्रसिद्ध हैं। श्रीरामचद्र वर्मा, श्रीहरिशंकर शर्मा आदि ने नागरी लिपि में भी कोश बनाए। उत्तर प्रदेश सरकार ने मद्दाह द्वारा संपादित उर्दू हिंदी कोश प्रकाशित किया है जिसे अच्छा कोश कहा जाता है। गुजराती, उडिया और असमिया में भी अनेक आधुनिक कोश बन चुके हैं और निरंतर बनते जा रहे हैं। नवजीवन प्रकाशन मंदिर का सार्थ गुजराती मंउणी कोश, तता शापुरजी दरालजी का गुजराती इंग्रेजी कोश प्रसिद्ध हैं। असमिया में १८३७ ई० में ब्राउन्सन (अमेरिकी मिशनरी) ने असमिया—इंग्लिश डिक्शनरी बनाई थी। हेमचंद्र बरूआ द्वारा निर्मित 'असमिया—अंग्रेजी कोश', विशेष प्रसिद्ध है। उडिया में भी ऐसे अनेक कोश बन चुके हैं। कहने का सारांश यह है कि भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में आधुनिक कोशों की प्रेरणा पाश्चात्यों से मिली और भारतीयों ने उस कार्य को निरंतर आगे बढाने में योगदान किया। मरतिब्पुर में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत पुर्णिया मण्डल के अररिया जिले का एक गाँव है। त्रिकोणमितीय सर्वसमिकाएँ, चरों के त्रिकोणमितीय फलनों के रूप में व्यक्त समतायें होती हैं। To avoid the confusion caused by the ambiguity of sin−1(x), the reciprocals and inverses of trigonometric functions are often displayed as in this table. In representing the cosecant function, the longer form 'cosec' is sometimes used in place of 'csc'. Different angular measures can be appropriate in different situations. This table shows some of the more common systems. Radians is the default angular measure and is the one you use if you use the exponential definitions. All angular measures are unitless. From the two identities above, the following table can be extrapolated. Note however that these conversion equations may not provide the correct sign (+ or −). For example, if sin θ = 1/2, the conversion in the table indicates that , though it is possible that . More information would be needed about which quadrant θ lies in to determine a single, exact answer. Rarely used today, the versine, coversine, haversine, and exsecant have been defined as below and used in navigation, for example the haversine formula was used to calculate the distance between two points on a sphere. इकाई वृत्त (unit circle) का परीक्षण करके हम त्रिकोणमित्तीय फलनों के निम्नलिखित गुणों को स्थापित कर सकते हैं: When the trigonometric functions are reflected from certain values of , The result is often one of the other trigonometric functions. This leads to the following identities: By shifting the function round by certain angles, it is often possible to find different trigonometric functions that express the result more simply. Some examples of this are given shown by shifting functions round by π/2, π and 2π radians. Because the periods of these functions are either π or 2π, there are cases where the new function is exactly the same as the old function without the shift. इनको योग एवं अन्तर के सूत्र भी कहते हैं। इनको यूलर के सूत्र की सहायता से बडी आसानी से सिद्ध किया जा सकता है। (Sines and cosines of sums of infinitely many terms) where "|A| = k" means the index A runs through the set of all subsets of size k of the set { 1, 2, 3, ... }. In these two identities an asymmetry appears that is not seen in the case of sums of finitely many terms: in each product, there are only finitely many sine factors and cofinitely many cosine factors. If only finitely many of the terms θi are nonzero, then only finitely many of the terms on the right side will be nonzero because sine factors will vanish, and in each term, all but finitely many of the cosine factors will be unity. (Tangents of sums of finitely many terms) Let xi = tan(θi ), for i = 1, ..., n. Let ek be the kth-degree elementary symmetric polynomial in the variables xi, i = 1, ..., n, k = 0, ..., n. Then the number of terms depending on n. उदाहरण्के लिये, आदि आदि। इसकी सामान्य स्थिति (general case) गणितीय निगमन (mathematical induction) की सहायता से सिद्ध किया जा सकता है। (Multiple-angle formulae) (x के इस फलन (फंक्शन) को डिरिचलेट कर्नेल (Dirichlet kernel) कहते हैं। (Double-, triple-, and half-angle formulae) इन्हें योग एवं अन्तर की सर्वसमिकाओं की सहायता से या गुणज-कोण की सर्वसमिकाओं की सहायता से प्रदर्शित (सिद्ध) किया जा सकता है। See also Tangent half-angle formula. (Euler's infinite product ) (Power-reduction formulae) इन्हें कोज्या द्वि-गुण कोण सूत्र के द्वीतीय एवं तृतीय रूप का प्रयोग करके प्राप्त किया जा सकता है। (Product-to-sum and sum-to-product identities) If x, y, and z are the three angles of any triangle, or in other words (If any of x, y, z is a right angle, one should take both sides to be ∞. This is neither +∞ nor −∞; for present purposes it makes sense to add just one point at infinity to the real line, that is approached by tan(θ) as tan(θ) either increases through positive values or decreases through negative values. This is a one-point compactification of the real line.) (The first three equalities are trivial; the fourth is the substance of this identity.) Essentially this is Ptolemy's theorem adapted to the language of trigonometry. For some purposes it is important to know that any linear combination of sine waves of the same period but different phase shifts is also a sine wave with the same period, but a different phase shift. In the case of a linear combination of a sine and cosine wave, we have where More generally, for an arbitrary phase shift, we have where and Sum of sines and cosines with arguments in arithmetic progression: For any a and b: where arctan(y, x) is the generalization of arctan(y/x) which covers the entire circular range (see also the account of this same identity in "symmetry, periodicity, and shifts" above for this generalization of arctan). The above identity is sometimes convenient to know when thinking about the Gudermanian function. If x, y, and z are the three angles of any triangle, i.e. if x + y + z = π, then (Inverse trigonometric functions) where i² = −1. साँचा:Split-section Occasionally one sees the notation i.e. "cis" abbreviates "cos + i sin". Though at first glance this notation is redundant, being equivalent to eix, its use is rooted in several advantages. This notation was more common in the post WWII era when typewriters were used to convey mathematical expressions. Superscripts are both offset vertically and smaller than 'cis' or 'exp'; hence, they can be problematic even for hand writing. For example e ix² versus cis(x²) versus exp(ix²). For many readers, cis(x²) is the clearest, easiest to read of the three. The cis notation is sometimes used to emphasize one method of viewing and dealing with a problem over another. The mathematics of trigonometry and exponentials are related but not exactly the same; exponential notation emphasizes the whole, whereas cis and cos + i sin notations emphasize the parts. This can be rhetorically useful to mathematicians and engineers when discussing this function, and further serve as a mnemonic (for cos + i sin). The cis notation is convenient for math students whose knowledge of trigonometry and complex numbers permit this notation, but whose conceptual understanding doesn't yet permit the notation e ix. As students learn concepts that build on prior knowledge, it is important not to force them into levels of math they are not yet prepared for. In some contexts, the cis notation may serve the pedagogical purpose of emphasizing that one has not yet proved that this is an exponential function. In doing trigonometry without complex numbers, one may prove the two identities Similarly in treating multiplication of complex numbers (with no involvement of trigonometry), one may observe that the real and imaginary parts of the product of c1 + is1 and c2 + is2 are respectively Thus one sees this same pattern arising in two disparate contexts: This coincidence can serve as a motivation for conjoining the two contexts and thereby discovering the trigonometric identity and observing that this identity for cis of a sum is simpler than the identities for sin and cos of a sum. Having proved this identity, one can challenge the students to recall which familiar sort of function satisfies this same functional equation The answer is exponential functions. That suggests that cis may be an exponential function Then the question is: what is the base b? The definition of cis and the local behavior of sin and cos near zero suggest that (where dx is an infinitesimal increment of x). Thus the rate of change at 0 is i, so the base should be ei. Thus if this is an exponential function, then it must be (Infinite product formula) For applications to special functions, the following infinite product formulæ for trigonometric functions are useful: The Gudermannian function relates the circular and hyperbolic trigonometric functions without resorting to complex numbers; see that article for details. The curious identity is a special case of an identity that contains one variable: A similar-looking identity is and in addition The following is perhaps not as readily generalized to an identity containing variables: Degree measure ceases to be more felicitous than radian measure when we consider this identity with 21 in the denominators: The factors 1, 2, 4, 5, 8, 10 may start to make the pattern clear: they are those integers less than 21/2 that are relatively prime to (or have no prime factors in common with) 21. The last several examples are corollaries of a basic fact about the irreducible cyclotomic polynomials: the cosines are the real parts of the zeroes of those polynomials; the sum of the zeroes is the Möbius function evaluated at (in the very last case above) 21; only half of the zeroes are present above. The two identities preceding this last one arise in the same fashion with 21 replaced by 10 and 15, respectively. An efficient way to compute π is based on the following identity without variables, due to Machin: or, alternatively, by using Euler's formula: With the golden ratio φ: Also see exact trigonometric constants. In calculus the relations stated below require angles to be measured in radians; the relations would become more complicated if angles were measured in another unit such as degrees. If the trigonometric functions are defined in terms of geometry, their derivatives can be found by verifying two limits. The first is: verified using the unit circle and squeeze theorem. It may be tempting to propose to use L'Hôpital's rule to establish this limit. However, if one uses this limit in order to prove that the derivative of the sine is the cosine, and then uses the fact that the derivative of the sine is the cosine in applying L'Hôpital's rule, one is reasoning circularly—a logical fallacy. The second limit is: verified using the identity tan(x/2) = (1 − cos(x))/sin(x). Having established these two limits, one can use the limit definition of the derivative and the addition theorems to show that sin′(x) = cos(x) and cos′(x) = −sin(x). If the sine and cosine functions are defined by their Taylor series, then the derivatives can be found by differentiating the power series term-by-term. The rest of the trigonometric functions can be differentiated using the above identities and the rules of differentiation: The integral identities can be found in "list of integrals of trigonometric functions". The fact that the differentiation of trigonometric functions (sine and cosine) results in linear combinations of the same two functions is of fundamental importance to many fields of mathematics, including differential equations and fourier transformations. The Dirichlet kernel Dn(x) is the function occurring on both sides of the next identity: The convolution of any integrable function of period 2π with the Dirichlet kernel coincides with the function's nth-degree Fourier approximation. The same holds for any measure or generalized function. यदि हम रखें तो, जहाँ eix और cis(x) एक ही चीज हैं। उपरोक्त सूत्र कैलकुलस में sin(x) और cos(x) के rational functions के समाकलन करने में उपयोगी होते हैं। निर्देशांक: 26°29′N 89°34′E / 26.48°N 89.57°E / 26.48; 89.57 अलीपुर द्वा‍र (बांग्ला: আলীপুর দুয়ার) पश्चिम बंगाल में स्थित एक कस्बा है। यह जलपाइगुड़ी जिला में स्थित है। यहां पश्चिम बंगाल का एक प्रमुख रेलवे स्टेशन है। यह सिक्किम, असम, एवं पश्चिम बंगाल का मिलन क्षेत्र है जहां पर्यटक दार्जिलिंग, गंगटोक इत्यादि घूमने के लिए उतरते हैं। अलीपुरद्वार की स्थिति 26°29′N 89°34′E / 26.48°N 89.57°E / 26.48; 89.57[1] पर है। यहां की औसत ऊंचाई है 93 मीटर (305 फीट). यह जलपाइगुड़ी जिला में स्थित है। यहां पश्चिम बंगाल का एक प्रमुख रेलवे स्टेशन है। यह सिक्किम, असम, एवं पश्चिम बंगाल का मिलन क्षेत्र है जहां पर्यटक दार्जिलिंग, गंगटोक इत्यादि घूमने के लिए उतरते हैं। साँचा:जलपाइगुड़ी जिला भगवान शिव के अन्य नाम हैं - } निर्देशांक: 27°13′N 79°30′E / 27.22°N 79.50°E / 27.22; 79.50 करमुल्लापुर छिबरामऊ, कन्नौज, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। सुशील दोषी (जन्म : ) हिन्दी में क्रिकेट का आँखों देखा हाल (कमेंटरी) सुनाने के लिये प्रसिद्ध हैं। उन्होने ३०० से अधिक एकदिवसीय क्रिकेट मैच, ६० से अधिक टेस्ट मैच, नौ क्रिकेट विश्व कप में क्रिकेट का आंखों देखा हाल सुनाया है। इसके अलावा उन्होने टेनिस और टेबल टेनिस के खेल का आंखों देखा हाल भी सुनाया है। क्रिकेट की कमेंटरी को मध्यम बनाकर क्रिकेट को जन-जन तक पहुँचाने का काम सुशील दोषी ने किया है। उनका जन्म इन्दौर में हुआ। सुशील दोषी ने क्रिकेट की कमेंटरी हिन्दी में शुरू की तब लोग उन पर हँसते थे और कहते थी की क्रिकेट तो अँग्रेजों का खेल है उसकी कमेंटरी हिन्दी में कैसे होगी? लेकिन जब सुशील दोषी ने हिन्दी में अपने शब्द और अपनी शैली विकसित कर ली तब उनके नाम का डंका बजाने लगा। धर्मयुग के संपादक डॉ. धर्मवीर भारती की राय उनके बारे में यह थी कि सुशील दोषी ने क्रिकेट के बहाने हिन्दी की बहुत बड़ी सेवा की है और वे जितने बड़े सेवक क्रिकेट के हैं, उससे बड़े सेवक हिन्दी के हैं। इंदौर के होलकर क्रिकेट स्टेडियम के कमेंटरी बॉक्स का नाम सुशील दोषी के नाम पर रखा गया है। उदोन एक जापानी आटा नूडल है जिसका इस्तेमाल मुख्यतः नूडल सूप बनाने में किया जाता है । इसके व्यंजनों में सॉय सॉस का इस्तेमाल बहुत आम है । साधारण दिखने वाले नूडल (या मैगी) के मुकाबले यह थोड़ा मोटा, चौकोर और लचीला होता है ।इसका इस्तेमाल जापान में तेरहवीं सदी में हुआ । निस्संदेह इससे अलग प्रकार का खाना भी मिलता है, लेकिन यह प्रारूप बारहाँ देखने को मिलता है । एलगडप, कडें मण्डल में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के अदिलाबादु जिले का एक गाँव है। टीआरएफ जमशेदपुर स्थित एक कंपनी है। निर्देशांक: 25°36′40″N 85°08′38″E / 25.611°N 85.144°E / 25.611; 85.144 कटारी-१ बिक्रम, पटना, बिहार स्थित एक गाँव है। तिलक का अर्थ है भारत में पूजा के बाद माथे पर लगाया जानेवाला निशान। शास्त्रानुसार यदि द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य) तिलक नही लगाते तोत उनहे "चाण्डाल" कहते है| तिलक हमेंशा दोनों भौहों के बीच"आग्याचक्र" भ्रुकुटी पर किया जाता है| इसे चेतना केद्रं भी कहते हैं| मृदएतास्तु संपाद्या वर्जयेदन्यमृत्तिका| द्वारवत्युद्भवाद्गोपी चंदनादुर्धपुण्ड्रकम्|| चंदन हमेशा पर्वत के नोंक का, नदी तट की मिट्टी का, पुण्य तिर्थ का, सिंधु नदी के तट का, चिंटी के बॉबी व तुलसी के मुल की मिट्टी का या चंदन वही उत्तम चंदन है| तिलक हमेंशा चंदन या कुंकुंम का ही करना चाहिए| कुम्कुम हल्दी से बना हो तो उत्तम होता हैं| तत्सर्वं निष्फलं यान्ति ललाटे तिलकं विना|| तिलक के बीना ही यदि तिर्थ स्नान, जप कर्म, दानकर्म, यग्य होमादि, पितर हेतु श्राध्धादि कर्म तथा देवो का पुजनार्चन कर्म ये सभी कर्म तिलक न करने से कर्म निष्फल होता है | पुरुष को चंदन व स्त्री को कुंकुंम भाल में लगाना मंगल कारक होता है| तिलक स्थान पर धन्नजय प्राण का रहता है| उसको जागृत करने तिलक लगाना ही चाहीए | जो हमें आध्यात्मिक मार्ग की ओर बढाता है| नित्य तिलक करने वालो को शिर पीडा नही होती...व ब्राह्मणो में तिलक के विना लिए शुकुन को भी अशुभ मानते हैै..| शिखा, धोती, भस्म, तिलकादि चिजों में भी भारत की गरीमा विद्यमान है…|| गिनाईटाना, नैनीताल तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के नैनीताल जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। मल्ली पोखरी, सल्ट तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। नासिक लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र भारत के महाराष्ट्र राज्य का एक लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र है। स्टेपल्स सेंटर, लॉस एंजिल्स, संयुक्त राज्य अमेरिका में स्थित एक प्रसिद्ध इनडोर एरीना हैं।[1] यह आइस हॉकी टीम लॉस एंजिल्स किंग्स और बास्केटबॉल टीम लॉस एंजेल्स क्लिपर्स तथा लॉस एंजेल्स लेकर्स का घर है। रामवरं (कर्नूलु) में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के कर्नूलु जिले का एक गाँव है। आपस में सम्बंधित भाषाओं को भाषा-परिवार कहते हैं। कौन भाषाएँ किस परिवार में आती हैं, इनके लिये वैज्ञानिक आधार हैं। इस समय संसार की भाषाओं की तीन अवस्थाएँ हैं। विभिन्न देशों की प्राचीन भाषाएँ जिनका अध्ययन और वर्गीकरण पर्याप्त सामग्री के अभाव में नहीं हो सका है, पहली अवस्था में है। इनका अस्तित्व इनमें उपलब्ध प्राचीन शिलालेखो, सिक्कों और हस्तलिखित पुस्तकों में अभी सुरक्षित है। मेसोपोटेमिया की पुरानी भाषा ‘सुमेरीय’ तथा इटली की प्राचीन भाषा ‘एत्रस्कन’ इसी तरह की भाषाएँ हैं। दूसरी अवस्था में ऐसी आधुनिक भाषाएँ हैं, जिनका सम्यक् शोध के अभाव में अध्ययन और विभाजन प्रचुर सामग्री के होते हुए भी नहीं हो सका है। बास्क, बुशमन, जापानी, कोरियाई, अंडमानी आदि भाषाएँ इसी अवस्था में हैं। तीसरी अवस्था की भाषाओं में पर्याप्त सामग्री है और उनका अध्ययन एवं वर्गीकरण हो चुका है। ग्रीक, अरबी, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी आदि अनेक विकसित एवं समृद्ध भाषाएँ इसके अन्तर्गत हैं। भाषा का सम्बन्ध व्यक्ति, समाज और देश से होता है। इसलिए प्रत्येक भाषा की निजी विशेषता होती है। इनके आधार पर वह एक ओर कुछ भाषाओं से समानता स्थापित करती है और दूसरी ओर बहुत-सी भाषाओं से असमानता। मुख्यतः यह वैशिष्टयगत साम्य-वैषम्य दो प्रकार का होता है–आकृतिमूलक और अर्थतत्त्व सम्बन्धी। प्रथम के अन्तर्गत शब्दों की आकृति अर्थात् शब्दों और वाक्यों की रचनाशैली की समानता देखी जाती है। दूसरे में अर्थतत्त्व की समानता रहती है। इनके अनुसार भाषाओं के वर्गीकरण की दो पद्धतियाँ होती हैं–आकृतिमूलक और पारिवारिक या ऐतिहासिक। इस विवेचन का सम्बन्ध ऐतिहासिक वर्गीकरण से है इसलिए उसके आधारों को थोड़ा विस्तार से जान लेना चाहिए। इसमें आकृतिमूलक समानता के अतिरिक्त निम्निलिखित समानताएँ भी होनी चाहिए। भौगोलिक दृष्टि से प्रायः समीपस्थ भाषाओं में समानता और दूरस्थ भाषाओं में असमानता पायी जाती है। इस आधार पर संसार की भाषाएँ अफ्रीका, यूरेशिया, प्रशांतमहासागर और अमरीका के खड़ों में विभाजित की गयी हैं। किन्तु यह आधार बहुत अधिक वैज्ञानिक नहीं है। क्योंकि दो समीपस्थ भाषाएँ एक-दूसरे से भिन्न हो सकती हैं और दो दूरस्थ भाषाएँ परस्पर समान। भारत की हिन्दी और मलयालम दो भिन्न परिवार की भाषाएँ हैं किन्तु भारत और इंग्लैंड जैसे दूरस्थ देशों की संस्कृत और अंग्रेजी एक ही परिवार की भाषाएँ हैं। समान शब्दों का प्रचलन जिन भाषाओं में रहता है उन्हें एक कुल के अन्तर्गत रखा जाता है। यह समानता भाषा-भाषियों की समीपता पर आधारित है और दो तरह से सम्भव होती है। एक ही समाज, जाति अथवा परिवार के व्यक्तियों द्वारा शब्दों के समान रूप से व्यवहृत होते रहने से समानता आ जाती है। इसके अतिरिक्त जब भिन्न देश अथवा जाति के लोग सभ्यता और साधनों के विकसित हो जाने पर राजनीतिक अथवा व्यावसायिक हेतु से एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं तो शब्दों के आदान-प्रदान द्वारा उनमें समानता स्थापित हो जाती है। पारिवारिक वर्गीकरण के लिए प्रथम प्रकार की अनुरूपता ही काम की होती है। क्योंकि ऐसे शब्द भाषा के मूल शब्द होते हैं। इनमें भी नित्यप्रति के कौटुम्बिक जीवन में प्रयुक्त होनेवाले संज्ञा, सर्वनाम आदि शब्द ही अधिक उपयोगी होते हैं। इस आधार में सबसे बड़ी कठिनाई यह होती है कि अन्य भाषाओं से आये हुए शब्द भाषा के विकसित होते रहने से मूल शब्दों में ऐसे घुलमिल जाते हैं कि उनको पहचान कर अलग करना कठिन हो जाता है। इस कठिनाई का समाधान एक सीमा तक अर्थगत समानता है। क्योंकि एक परिवार की भाषाओं के अनेक शब्द अर्थ की दृष्टि से समान होते हैं और ऐसे शब्द उन्हें एक परिवार से सम्बन्धित करते हैं। इसलिए अर्थपरक समानता भी एक महत्त्वपूर्ण आधार है। प्रत्येक भाषा का अपना ध्वनि-सिद्धान्त और उच्चारण-नियम होता है। यही कारण है कि वह अन्य भाषाओं की ध्वनियों से जल्दी प्रभावित नहीं होती हैं और जहाँ तक हो सकता है उन्हें ध्वनिनियम के अनुसार अपनी निकटस्थ ध्वनियों से बदल लेती है। जैसे फारसी की क, ख, फ़ आदि ध्वनियाँ हिन्दी में निकटवर्ती क, ख, फ आदि में परिवर्तित होती है। अतः ध्वनिसाम्य का आधार शब्दावली-समता से अधिक विश्वसनीय है। वैसे कभी-कभी एक भाषा के ध्वनिसमूह में दूसरी भाषा की ध्वनियाँ भी मिलकर विकसित हो जाती हैं और तुलनात्मक निष्कर्षों को भ्रामक कर देती हैं। आर्य भाषाओं में वैदिक काल से पहले मूर्धन्य ध्वनियाँ नहीं थी, किन्तु द्रविड़ भाषा के प्रभाव से आगे चलकर विकसित हो गयीं। व्याकरणिक आधार सबसे अधिक प्रामाणिक होता है। क्योंकि भाषा का अनुशासन करने के कारण यह जल्दी बदलता नहीं है। व्याकरण की समानता के अन्तर्गत धातु, धातु में प्रत्यय लगाकर शब्द-निर्माण व्याकरणिक प्रक्रिया द्वारा शब्दों से पदों की रचना तथा वाक्यों में पद-विन्यास के नियम आदि की समानता का निर्धारण आवश्यक है। इन चार आधारों पर भाषाओं की अधिकाधिक समानता निश्चित करते उनका वर्गीकरण किया जाता है। इस सम्बन्ध में स्पष्टरूप से समझ लेना चाहिए कि यह साम्य-वैषम्य सापेक्षिक है। जहाँ एक ओर भारोपीय परिवार की भाषाएँ अन्य परिवार की भाषाओं से भिन्न और आपस में समान हैं वहाँ दूसरी ओर संस्कृत, फारसी, ग्रीक आदि भारोपीय भाषाएँ एक-दूसरे से इन्हीं आधारों पर भिन्न भी हैं। वर्गीकरण करते समय सबसे पहले भौगोलिक समीपता के आधार पर संपूर्ण भाषाएँ यूरेशिया, प्रशांतमहासागर, अफ्रीका और अमरीका खंडों अथवा चक्रों में विभक्त होती हैं। फिर आपसी समानता रखनेवाली भाषाओं को एक कुल या परिवार में रखकर विभिन्न परिवार बनाये जाते हैं। अवेस्ता, फारसी, संस्कृत, ग्रीक आदि की तुलना से पता चला कि उनकी शब्दावली, ध्वनिसमूह और रचना-पद्धति में काफी समानता है। अतः भारत और यूरोप के इस तरह की भाषाओं का एक भारतीय कुल बना दिया गया है। परिवारों को वर्गों में विभक्त किया गया है। भारोपीय परिवार में शतम् और केन्टुम ऐसे ही वर्ग हैं। वर्गों का विभाजन शाशाओं में हुआ है। शतम् वर्ग की ‘ईरानी’ और ‘भारतीय आर्य’ प्रमुख शाखाएँ हैं। शाखाओं को उपशाखा में बाँटा गया है। ग्रियर्सन ने आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं को भीतरी और बाहरी उपशाखा में विभक्त किया है। अतः में उपशाखाएँ भाषा-समुदायों और समुदाय भाषाओं में बँटते हैं। इस तरह भाषा पारिवारिक-वर्गीकरण की इकाई है। इस समय भारोपीय परिवार की भाषाओं का अध्ययन इतना हो चुका है कि यह पूर्ण प्रक्रिया उस पर लागू हो जाती है। इन नामों में थोड़ी हेर-फेर हो सकता है, किन्तु इस प्रक्रिया की अवस्थाओं में प्रायः कोई अन्तर नहीं होता। उन्नीसवीं शती में ही विद्वानों का ध्यान संसार की भाषाओं के वर्गीकरण की ओर आकृष्ट हुआ और आज तक समय-समय पर अनेक विद्वानों ने अपने अलग-अलग वर्गीकरण प्रस्तुत किये है; किन्तु अभी तक कोई वैज्ञानिक और प्रामाणिक वर्गीकरण प्रस्तुत नहीं हो सका है। इस समस्या को लेकर भाषाविदों में बड़ा मतभेद है। यही कारण है कि जहाँ एक ओर फेडरिख मूलर इन परिवारों की संख्या 100 तक मानते हैं वहाँ दूसरी ओर राइस विश्व की समस्त भाषाओं को केवल एक ही परिवार में रखते हैं। किन्तु अधिकांश विद्वान् इनकी संख्या बारह या तेरह मानते हैं। दुनिया भर में बोली जाने वाली क़रीब सात हज़ार भाषाओं को कम से कम दस परिवारों में विभाजित किया जाता है जिनमें से प्रमुख परिवारों का ज़िक्र नीचे है : (Indo-European family) मुख्य लेख हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार यह समूह भाषाओं का सबसे बड़ा परिवार है और सबसे महत्वपूर्ण भी है क्योंकि अंग्रेज़ी,रूसी, प्राचीन फारसी, हिन्दी, पंजाबी, जर्मन - ये तमाम भाषाएँ इसी समूह से संबंध रखती हैं। इसे 'भारोपीय भाषा-परिवार' भी कहते हैं। विश्व जनसंख्या के लगभग आधे लोग (४५%) भारोपीय भाषा बोलते हैं। संस्कृत, ग्रीक और लातीनी जैसी शास्त्रीय भाषाओं का संबंध भी इसी समूह से है। लेकिन अरबी एक बिल्कुल विभिन्न परिवार से संबंध रखती है। इस परिवार की प्राचीन भाषाएँ बहिर्मुखी श्लिष्ट-योगात्मक (end-inflecting) थीं। इसी समूह को पहले आर्य-परिवार भी कहा जाता था। (The Sino - Tibetan Family) विश्व में जनसंख्या के अनुसार सबसे बड़ी भाषा मन्दारिन (उत्तरी चीनी भाषा) इसी परिवार से संबंध रखती है। चीन और तिब्बत में बोली जाने वाली कई भाषाओं के अलावा बर्मी भाषा भी इसी परिवार की है। इनकी स्वरलहरी एक ही है। एक ही शब्द अगर ऊँचे या नीचे स्वर में बोला जाय तो शब्द का अर्थ बदल जाता है। श्री राजेन्द्र सिंह ने भारत के संदर्भ में इस भाषा परिवार को 'नाग भाषा परिवार' नाम दिया है। इसे 'एकाक्षर परिवार' भी कहते हैं। कारण कि इसके मूल शब्द प्राय: एकाक्षर होते हैं। ये भाषाएँ कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल, नेपाल, सिक्किम, पश्चिम बंगाल, भूटान, अरूणाचल प्रदेश, आसाम, नागालैंड, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा और मिजोरम में बोली जाती हैं। (The Afro - Asiatic family or Semito-Hamitic family) इसकी प्रमुख भाषाओं में आरामी, असेरी, सुमेरी, अक्कादी और कनानी वग़ैरा शामिल थीं लेकिन आजकल इस समूह की प्रसिद्धतम भाषाएँ अरबी और इब्रानी हैं। इन भाषाओं में मुख्यतः तीन धातु-अक्षर होते हैं और बीच में स्वर घुसाकर इनसे क्रिया और संज्ञाएँ बनायी जाती हैं (अन्तर्मुखी श्लिष्ट-योगात्मक भाषाएँ)। (The Dravidian Family) भाषाओं का द्रविड़ी परिवार इस लिहाज़ से बड़ा दिलचस्प है कि हालाँकि ये भाषाएँ भारत के दक्षिणी प्रदेशों में बोली जाती हैं लेकिन उनका उत्तरी क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषाओं से कोई संबंध नहीं है (संस्कृत से ऋणशब्द लेने के अलावा)। इसलिए उर्दू या हिंदी का अंग्रेज़ी या जर्मन भाषा से तो कोई रिश्ता निकल सकता है लेकिन मलयालम भाषा से नहीं. दक्षिणी भारत और श्रीलंका में द्रविड़ी समूह की कोई 26 भाषाएँ बोली जाती हैं लेकिन उनमें ज़्यादा मशहूर तमिल, तेलुगु, मलयालम और कन्नड़ हैं। ये अन्त-अश्लिष्ट-योगात्मक भाषाएँ हैं। प्रमुख भाषाओं के आधार पर इसके अन्य नाम – ‘तूरानी’, ‘सीदियन’, ‘फोनी-तातारिक’ और ‘तुर्क-मंगोल-मंचू’ कुल भी हैं। इसका क्षेत्र बहुत विस्तृत है, किन्तु मुख्यतः साइबेरिया, मंचूरिया और मंगोलिया में हैं। प्रमुख भाषाएँ–तुर्की या तातारी, किरगिज, मंगोली और मंचू है, जिनमे सर्व प्रमुख तुर्की है। साहित्यिक भाषा उस्मानली है। तुर्की पर अरबी और फारसी का बहुत अधिक प्रभाव था किन्तु आजकल इसका शब्दसमूह बहुत कुछ अपना है। ध्वनि और शब्दावली की दृष्टि से इस कुल की यूराल और अल्ताई भाषाएँ एक-दूसरे से काफी भिन्न हैं। इसलिए कुछ विद्वान् इन्हें दो पृथक् कुलों में रखने के पक्ष में भी हैं, किन्तु व्याकरणिक साम्य पर निस्सन्देह वे एक ही कुल की भाषाएँ ठहरती हैं। प्रत्ययों के योग से शब्दनिर्माण का नियम, धातुओं की अपरिवर्तनीयता, धातु और प्रत्ययों की स्वरानुरूपता आदि एक कुल की भाषाओं की मुख्य विशेषताएँ हैं। स्वरानुरूपता से अभिप्राय यह है कि मक प्रत्यय यज्धातु में लगने पर यज्मक् किन्तु साधारणतया विशाल आकार और अधिक शक्ति की वस्तुओं के बोधक शब्द पुंल्लिंग तथा दुर्बल एंव लघु आकार की वस्तुओं के सूचक शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। (लिखना) में यज् के अनुरूप रहेगा, किन्तु सेव् में लगने पर, सेवमेक (तुर्की), (प्यार करना) में सेव् के अनुरूप मेक हो जायगा। २८८५ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से २८८५ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर २८८५ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। एक हिन्दी साहित्यकार। जुनेदपुर भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के एटा जिले के अलीगंज प्रखण्ड का एक गाँव है। नन्द ऋषि (1377-1440) कश्मीर के सूफ़ी संत कवि थे। उनकी कविता का अनुवाद जयश्री ओडिन ने किया है।[1] गुडगांव उर्फ झालों, थलीसैंण तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के पौड़ी जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। हिन्दी लेखक २३३४ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से २३३४ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर २३३४ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। नीदरलैंड युरोप महाद्वीप का एक प्रमुख देश है। यह उत्तरी-पूर्वी यूरोप में स्थित है। इसकी उत्तरी तथा पश्चिमी सीमा पर उत्तरी समुद्र स्थित है, दक्षिण में बेल्जियम एवं पूर्व में जर्मनी है। नीदरलैंड की राजधानी एम्सटर्डम है। "द हेग" को प्रशासनिक राजधानी का दर्जा दिया जाता है। नीदरलैंड को अक्सर हॉलैंड के नाम संबोधित किया जाता है एवं सामान्यतः नीदरलैंड के निवासियों तथा इसकी भाषा दोनों के लिए डच शब्द का उपयोग किया जाता है। नीदरलैंड्स यूरोप के उत्तर-पश्चिम में समुद्र के किनारे स्थित स्थित देश है। इसे हॉलैंड भी कहते हैं, किंतु इसका राष्ट्रीय नाम 'नीदरलैंड्स' है। इसका अधिकांश क्षेत्र समुद्रतल से भी नीचे हैं, जिसके कारण इसका नामकरण हुआ है। इसके पूर्व में पश्चिमी, जर्मनी, दक्षिण में बेल्जियम, पश्चिम और उत्तर में उत्तरी सागर हैं। इसका क्षेत्रफल ३३,५९१ वर्ग किमी. है। इस देश की सर्वाधिक लंबाई ३०४ किमी. (उत्तर-दक्षिण) तथा अधिकतम चौड़ाई २५६ किमी. (दक्षिणपश्चिम से उत्तर-पूर्व) है। नीदरलैंड पहली संसदीय लोकतंत्र देशों में से एक है। यह यूरोपीय संघ (ई.यू.), नार्थ एटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन (ना.टो.), आर्थिक एवं विकास संगठन (ओ.इ.सी.डी.) एवं विश्व व्यापार संगठन (डब्लू.टी.ओ.) का संस्थापक सदस्य है। बेल्जियम तथा लक्समबर्ग के साथ यह "बेनेलक्स" आर्थिक संघ का रूप लेता है। यह पांच अंतराष्ट्रीय अदालतों का मेज़बान है : स्थायी मध्यस्थता न्यायालय (पी.सी.ए), अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय, पूर्वी युगोस्लावाकिया के लिए अंतराष्ट्रीय अपराधिक ट्रिब्यूनल (आई.टी.सी.वाई), अंतर्राष्ट्रीय अपराधिक न्यायालय (आई.सी.सी) एवं ट्रिब्यूनल फॉर लेबनान। इनमे से प्रथम चार न्यायलय, यूरोपियन संघ की खुफिया एगेंसी (यूरोपोल) तथा न्यायिक सहयोगी एगेंसी (युरोजस्ट) नीदरलैंड के द हेग शहर में स्थित हैं। यही कारण है की "द हेग" को विश्व की 'न्यायिक राजधानी' कहा जाता है। १५७ देशों की आर्थिक सवतंत्रता की सूची में नीदरलैंड का स्थान १५ है। नीदरलैंड भौगोलिक सन्दर्भ में एक निचला देश है। इसका लगभग २०% क्षेत्र समुद्री तल से नीचे है। लगभग २१% आबादी समुद्री तल से नीचे रहती है एवं लगभग ५०% आबादी समुद्री तल से बस एक मीटर की ऊँचाई पर है। इस देश के क्षेत्रफल में तटीय कटाव के कारण कमी तथा प्रवाह प्रणाली के घुमाव और बाँध द्वारा इसमें वृद्धि होती रहती है। यूरोपीय महाद्वीप के अन्य किसी भी देश के इतने निवासी अपने देश के क्षेत्र निर्माण में नहीं लगे हैं जितने कि नीदरलैंड्स में। इस देश की स्थलीय आकृतियाँ तथा समुद्री सीमाएँ मुख्यतया मास, राइन और स्खेल्डै नदियों के डेल्टा से प्रभावित होती हैं। डेल्टा का निर्माण प्रत्यक्ष रूप से इन नदियों के ज्वारीय क्षेत्र में गिरने से होता है। इससे ऊँचा उठा हुआ भाग समाप्त हो जाता है और पतले तथा लंबे गड्ढों का निर्माण होता है, जो नदियों की वेगवती धाराओं द्वारा लाए गए अवसादों से भर जाते हैं। इस तरह डेल्टा क्षेत्र का विस्तार हुआ है। इस देश की सर्वाधिक ऊँचाई सुदूर दक्षिण पूर्व कोने में नीदरलैंड्स जर्मनी तथा बेल्जियम के मिलनबिंदु पर (३२२ मीटर) है। यहाँ बहुत ही कम क्षेत्र की ऊँचाई समुद्रतल से ४६ मीटर अधिक है। ३५ प्रतिशत से भी अधिक भूमिभाग तो ऐम्सटरडैम के स्तर से भी एक मीटर कम ऊँचा है। इस देश की जलवायु लगभग सभी जगह एक समान है। जनवरी सबसे ठंडा महीना है। यूट्रेख्ट (Utrecht) नगर का औसत वार्षिक ताप १.२ डिग्री है। इसके पूर्व का अधिकांश हिम से ढका रहता है। नीदरलैंड्स में दक्षिण-पश्चिमी हवाएँ वर्ष के नौ महीने चलती हैं, इनसे जाड़े का ताप थोड़ा सा बढ़ जाता है, लेकिन अप्रैल से जून तक पश्चिमी हवाएँ चलती हैं, जो ग्रीष्म ऋतु को थोड़ा सा नम कर देती हैं। वायु की दिशा के कारण देश का पश्चिमी भाग पूर्वी भाग की अपेक्षा नम है। देश के मध्य की औसत वार्षिक वर्षा २७ इंच है। वर्षा के दिनों की संख्या २०० से कुछ अधिक है लेकिन इस काल में सापेक्षिक आर्द्रता बहुत अधिक (८० प्रतिशत) रहती है। इससे धुंध तथा समुद्री तुषार प्राय: पड़ते हैं, जिनका हानिकारक प्रभाव फ्राइसलैंड और ज़ीलैंड पर पड़ता है तथा यहाँ फेफड़े संबंधी बीमारियाँ अधिक होती हैं। इस घने बसे देश में जंगल अल्प मात्रा में हैं। यहाँ की वनस्पति को चार भागों में बाँटा जा सकता है : झाड़ियाँ देश की पूर्वी बालुका प्रदेश में पाई जाती हैं। बालू के टीलों पर वनस्पतियाँ अपनी ही जाति की दूसरी जगह की वनस्पतियों से छोटी तथा पतली होती हैं। यहाँ का मुख्य पौधा डच ऐल्म (Dutch elm) या चिकना नरकट है, जो बालुकाकणों का आपस में बाँधे रखने के लिए प्रति वर्ष उगाया जाता है। इससे चटाइयाँ बनाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त बलूत, देवदार, चीड़, लिंडन, सफेदा आदि वनस्पतियाँ एवं फूलों में डच ट्यूलिप अत्यंत प्रसिद्ध हैं। समुद्र तट पर कुछ पौधों का उपयोग कीचड़वाले भाग को सुखाने तथा निक्षेप को बढ़ाने के लिए किया जाता है। जंगलों की कमी के कारण जंगली जानवर कम पाए जाते हैं। पूर्वी शुष्क जंगली क्षेत्र में हरिण तथा लोमड़ी पर्याप्त संख्या में पाई जाती है। ऊदविलाव तथा रीछ भी कहीं कहीं मिलते हैं। एरेमिन नेवला तथा ध्रुवीय तथा बिल्लियाँ (Pole Cats) प्राय: सभी जगह पाई जाती हैं। यहाँ विभिन्न प्रकार की चिड़ियाँ भी मिलती हैं। जंगली मुर्गा, वाज, नीलकंठ, मैगपाई, कौवा, उल्लू, कबूतर, लावा, चील तथा बुलबुल यहाँ के मुख्य पक्षी हैं। पालतू जानवरों में गाय, बैल, सुअर, घोड़े, भेड़ें, मुर्गियाँ आदि मुख्य हैं। यहीं की मुख्य फसलें गेहूँ, राई, जई, आलू, चुकंदर, जौ इत्यादि हैं। निर्यात के लिए डेफोडिल्स तथा ट्युलिप (एक प्रकार के सुंदर फूल) अधिक उगाए जाते हैं। कोयला, पेट्रोल तथा नमक यहाँ के मुख्य खनिज हैं। कोयले की खानें लिंबर्ग प्रदेश में है। यहाँ विद्युच्छक्ति काफी पैदा की जाती है। यहाँ के उद्योगों में धातु, वस्त्र और भोज्य सामग्री का निर्माण, खनन, रसायन और सिलाई उद्योग मुख्य हैं। इनके अतिरिक्त शीशा, चूना मिट्टी एवं पत्थर की वस्तुएँ बनाने, हीरा जैसे कीमती पत्थरों को काटने तथा पालिश करने, कार्क तथा लकड़ी की विभिन्न वस्तुएँ बनाने, चमड़े और रबर की वस्तुएँ तैयार करने तथा कागज बनाने की उद्योग होते हैं। व्यापार की वृद्धि के लिए नीदरलैंड्स, बेल्जियम और लक्सेमबर्ग ने बैनीलक्स संघ की स्थापना की है जिसके अनुसार एक दूसरे देश के आयात-निर्यात व्यापार पर कर नहीं देना पड़ता। नीदरलैंड्स से व्यापार करनेवाले देश मुख्यत: इंग्लैंड, संयुक्त राज्य अमरीका, पश्चिम जर्मनी, बेल्जियम, लक्सेमबर्ग, फ्रांस तथा स्वीडन हैं। व्यापार में ऐग्सटग्डैम प्रमुख तथा रोटरडैम एवं हेग द्वितीय स्थान रखते हैं। यहाँ यातायात का बहुत विस्तार हुआ है। नौगम्य नदियों एवं नहरों की कुल लंबाई ६,७६८ किमी. है जिसमें से १,७१० किमी. तक १०० या इससे अधिक मीट्रिक टन की क्षमतावाले जहाज जा सकते हैं। रेल मार्गों में भी काफी उन्नति हुई है। संपूर्ण रेलों की व्यवस्था 'दि नीदरलैंड्स रेलवेज' (एन. वी.) नामक एक संयुक्त कंपनी द्वारा होती है। रोटरडैम, ऐम्सटरडैम, हेग प्रसिद्ध हवाई अड्डे हैं। एक लाख से अधिक जनसंख्यावाले नगर ऐम्सटरडैम, आर्नहेम, ब्रेडा, आईयोवेन, एन्सखेडे, ग्रोनिंगेन, हारलेम, हिलवरसम, निजमैगन, रोटरडैम, टिलवर्ग यूट्रेख्ट, दि हेग हैं। यहाँ धर्म संबंधी पूरी स्वतंत्रता है। शाही परिवार डच रिफॉर्म्ड चर्च से संबंध रखता है। इसके अतिरिक्त प्रोटेस्टैंट, ओल्ड कैथोलिक, रोमन कैथोलिक तथा यहूदी अन्य मुख्य धर्म हैं। नीदरलैंड के मूल निवासी डच हैं। फ्रांकिश (Frankish), सेक्सन (saxon) और फ्रीज़न (Frisian) जैसे अलग अलग वंशों के होते हुए भी वे परस्पर भिन्न नहीं दिखाई देते। हाल में इंडोनेशिया से आए लोग, जो प्राय: यूरेशियन हैं, अवश्य सबसे भिन्न मालूम पड़ते हैं। कुछ रक्त मिश्रण के कारण भी पहले जैसे एकरूपता अब डचों में नहीं रह गई है। डच भाषा यहाँ की प्रधान और राजकाज की भाषा है। फ्रीसलैंड (Friesland) में फ्रीजन का प्रचलन है। यह एंगलो-सैक्सन भाषा के निकट पड़ती है, किंतु अनेक रूपों में यह डच से भी मिलती जुलती है। नीदरलैंड के निवासी फ्रांसीसी, अंग्रेजी और जर्मन भी जानते हैं। ये भाषाएँ वहाँ के स्कूलों में पढ़ाई जाती हैं। ४३ प्रतिशत निवासी प्रोटेस्टेंट और ३८ प्रतिशत रोमन कैथोलिक धर्मावलंबी हैं। १७ प्रतिशत असांप्रदायिक हैं और शेष २ प्रतिशत विभिन्न मतों के अनुयायी हैं। प्रोटेस्टेंटों में अधिकतर लोग कैल्विनिस्ट चर्च को मानते हैं। लूथरवादियों की संख्या १ प्रतिशत से अधिक कभी नहीं रही। नीदरलैंड एक समृद्ध और खुली अर्थव्यवस्था वाला देश है एवं १९८० के दशक के पश्चात् सरकार की भूमिका अर्थव्यवस्थायी निर्णयों में कम हो गयी है। यहाँ की प्रमुख औद्योगिक गतिविधियाँ हैं : भोजन प्रसंस्करण (युनीलीवर, हेनेकेन), वित्तीय सेवा (आई.एन.जी.), रासायनिक (डी.एस.एम.), पेट्रोलियम (शेल) एवं विद्युत् मशीनरी (फिलिप्स और ए.एस.एम.एल.)। प्राकृतिक साधनों की कम के कारण नीदरलैंड बाहर से कच्चा माल मँगाकर उनसे विभिन्न प्रकार के समान तैयार करता है, और उनका निर्यात करता है। टेक्सटाइल, धातुकार्मिक (Metallurgical), काष्ठकला, तैल शोधन, आदि यहाँ के मुख्य उद्योग हैं। कृषिगत उत्पादन के एक तिहाई भाग का निर्यात होता है। सारी अर्थव्यवस्था प्राय: अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर आधारित है। इसीलिए अन्य देशों की आर्थिक अवस्थाएँ नीदरलैंड को न्यूनाधिक प्रभावित करती हैं। महाभारत के पश्चात अयोध्या के सूर्यवंशी राजा। ओ पी नैय्यर (16 जनवरी 1926 - 27 जनवरी 2007) हिन्दी फिल्मों के एक प्रसिद्ध संगीतकार थे जो लाहौर में पैदा हुए थे तथा अपने चुलबुले संगीत के लिये जाने जाते थे। ओ पी नैय्यर ने अपना फिल्मी सफर शुरू किया १९४९ में कनीज फिल्म में पार्श्व संगीत के साथ। इसके बाद उन्होंने आसमान (१९५२) को संगीत दिया। गुरुदत्त की आरपार (१९५४) उनकी पहली हिट फिल्म थी। इसके बाद गुरुदत्त के साथ इनकी बनी जोड़ी ने मि्स्टर एडं मिसेज ५५ तथा सी आई डी जैसी फिल्में दीं। नैय्यर मेरे सनम में अपने संगीत को एक नयी ऊंचाईयों पर ले गए जब उन्होंने जाईये आप कहाँ जायेंगे तथा पुकारता चला हूं मैं जैसे गाने दिये। उन्होंने गीतादत्त, आशा भोंसले तथा मों रफी के साथ काम करते हुए उनके कैरियर को नयी ऊंचाईयों पर पहुंचाया। उन्होंने कभी लता जी के साथ काम नहीं किया। कंगंचॆर्ल (कृष्णा) में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के कृष्णा जिले का एक गाँव है। जहांगीरपुरी दिल्ली शहर का एक क्षेत्र है। यह दिल्ली मेट्रो रेल की येलो लाइन शाखा का एक स्टेशन भी है। ध्वज ख़ीवा ख़ानत​ (उज़बेक: خیوه خانلیگی, ख़ीवा ख़ानलीगी; अंग्रेज़ी: Khanate of Khiva) मध्य एशिया के ख़्वारेज़्म क्षेत्र में स्थित १५११ से १९२० तक चलने वाली एक उज़बेक ख़ानत​ थी। इसके ख़ान (शासक) मंगोल साम्राज्य के संस्थापक चंगेज़ ख़ान के ज्येष्ठ पुत्र जोची ख़ान के पाँचवे बेटे शेयबान के वंशज थे और उनके राज में केवल १७४०-१७४६ काल में खलल पड़ा जब ईरान के तुर्क-मूल के अफ़शारी राजवंश के नादिर शाह ने आकर यहाँ ६ वर्षों के अन्तराल के लिए क़ब्ज़ा कर लिया। ख़ीवा ख़ानत आमू दरिया के निचले हिस्से में और अरल सागर के दक्षिण में केन्द्रित थी। इसकी राजधानी ख़ीवा शहर था। १९वीं सदी में रूसी साम्राज्य के यहाँ फैल जाने से पहले आधुनिक पश्चिमी उज़बेकिस्तान, दक्षिणपश्चिमी काज़ाख़स्तान और तुर्कमेनिस्तान का अधिकतर भाग इस ख़ानत में शामिल था। १८७३ में इसका अधिकतर हिस्सा रूस ने ले लिया और बचीकुची सिकुड़ी-हुई ख़ानत भी रूस के अधीनता मानने पर विवश हो गई। जब १९१७ में रूसे में अक्टूबर समाजवादी क्रांति हुई तो यहाँ भी क्रान्ति हो गई और १९२० में ख़ानत की जगह 'ख़ोरेज़्म जनवादी सोवियत गणतंत्र' घोषित कर दिया गया। १९२४ में इसे औपचारिक रूप से सोवियत संघ का भाग बना दिया गया। वर्तमान में इसका अधिकाँश क्षेत्र उज़बेकिस्तान के क़ाराक़ालपाक़स्तान और ख़ोरज़्म प्रान्त में सम्मिलित है। फेनासाइक्लिडिन एक कार्बनिक यौगिक है। पसौली N.Z.A., नैनीताल तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के नैनीताल जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतराये: अमृतकलश हस्ताय सर्वभय विनाशाय सर्वरोगनिवारणाय त्रिलोकपथाय त्रिलोकनाथाय श्री महाविष्णुस्वरूप श्री धन्वंतरी स्वरूप श्री श्री श्री अष्टचक्र नारायणाय नमः॥ धन्वंतरी को हिन्दू धर्म में देवताओं के वैद्य माना जाता है। ये एक महान चिकित्सक थे जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ये भगवान विष्णु के अवतार समझे जाते हैं। इनका पृथ्वी लोक में अवतरण समुद्र मंथन के समय हुआ था। शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरी[4], चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिये दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वंतरी का जन्म धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था।[5] इन्‍हें भगवान विष्णु का रूप कहते हैं जिनकी चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं। जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परंपरा भी है।[6] इन्‍हे आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं। इन्होंने ही अमृतमय औषधियों की खोज की थी। इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने 'शल्य चिकित्सा' का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत बनाये गए थे।[7] सुश्रुत दिवोदास के ही शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र थे। उन्होंने ही सुश्रुत संहिता लिखी थी। सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) थे। दीपावली के अवसर पर कार्तिक त्रयोदशी-धनतेरस को भगवान धन्वंतरि की पूजा करते हैं। कहते हैं कि शंकर ने विषपान किया, धन्वंतरि ने अमृत प्रदान किया और इस प्रकार काशी कालजयी नगरी बन गयी। आयुर्वेद के संबंध में सुश्रुत का मत है कि ब्रह्माजी ने पहली बार एक लाख श्लोक के, आयुर्वेद का प्रकाशन किया था जिसमें एक सहस्र अध्याय थे। उनसे प्रजापति ने पढ़ा तदुपरांत उनसे अश्विनी कुमारों ने पढ़ा और उन से इन्द्र ने पढ़ा। इन्द्रदेव से धन्वंतरि ने पढ़ा और उन्हें सुन कर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की।[7] भावप्रकाश के अनुसार आत्रेय प्रमुख मुनियों ने इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर उसे अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों को दिया। इसके उपरान्त अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों के तन्त्रों को संकलित तथा प्रतिसंस्कृत कर चरक द्वरा 'चरक संहिता' के निर्माण का भी आख्यान है। वेद के संहिता तथा ब्राह्मण भाग में धन्वंतरि का कहीं नामोल्लेख भी नहीं है। महाभारत तथा पुराणों में विष्णु के अंश के रुप में उनका उल्लेख प्राप्त होता है। उनका प्रादुर्भाव समुद्रमंथन के बाद निर्गत कलश से अण्ड के रुप मे हुआ। समुद्र के निकलने के बाद उन्होंने भगवान विष्णु से कहा कि लोक में मेरा स्थान और भाग निश्चित कर दें। इस पर विष्णु ने कहा कि यज्ञ का विभाग तो देवताओं में पहले ही हो चुका है अत: यह अब संभव नहीं है। देवों के बाद आने के कारण तुम (देव) ईश्वर नहीं हो। अत: तुम्हें अगले जन्म में सिद्धियाँ प्राप्त होंगी और तुम लोक में प्रसिद्ध होगे। तुम्हें उसी शरीर से देवत्व प्राप्त होगा और द्विजातिगण तुम्हारी सभी तरह से पूजा करेंगे। तुम आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन भी करोगे। द्वितीय द्वापर युग में तुम पुन: जन्म लोगे इसमें कोई सन्देह नहीं है।[7] इस वर के अनुसार पुत्रकाम काशिराज धन्व की तपस्या से प्रसन्न हो कर अब्ज भगवान ने उसके पुत्र के रुप में जन्म लिया और धन्वंतरि नाम धारण किया। धन्व काशी नगरी के संस्थापक काश के पुत्र थे। वे सभी रोगों के निवराण में निष्णात थे। उन्होंने भरद्वाज से आयुर्वेद ग्रहण कर उसे अष्टांग में विभक्त कर अपने शिष्यों में बाँट दिया। धन्वंतरि की परम्परा इस प्रकार है - यह वंश-परम्परा हरिवंश पुराण के आख्यान के अनुसार है।[9] विष्णुपुराण में यह थोड़ी भिन्न है- वैदिक काल में जो महत्व और स्थान अश्विनी को प्राप्त था वही पौराणिक काल में धन्वंतरि को प्राप्त हुआ। जहाँ अश्विनी के हाथ में मधुकलश था वहाँ धन्वंतरि को अमृत कलश मिला, क्योंकि विष्णु संसार की रक्षा करते हैं अत: रोगों से रक्षा करने वाले धन्वंतरि को विष्णु का अंश माना गया।[7] विषविद्या के संबंध में कश्यप और तक्षक का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धन्वंतरि और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण[10] में आया है। उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया है - भगवाण धन्वंतरी की साधना के लिये एक साधारण मंत्र है: इसके अलावा उनका एक और मंत्र भी है: प्रचलि धन्वंतरी स्तोत्र इस प्रकार से है। २०३ २०० ११३ १०५ चक देवलधार, द्वाराहाट तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। खिलाड़ी 1950 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। स्वर्गारोहण पर्व में कोई उपपर्व नहीं एवं कुल ५ अध्याय हैं। इस पर्व के अन्त में महाभारत की श्रवणविधि तथा महाभारत का माहात्म्य वर्णित है। इस पर्व के प्रथम अध्याय में स्वर्ग में नारद के साथ युधिष्ठिर का संवाद और द्वितीय अध्याय में देवदूत द्वारा युधिष्ठिर को नरकदर्शन और वहाँ भाइयों की चीख-पुकार सुनकर युधिष्ठिर का वहीं रहने का निश्चय वर्णित है। तृतीय अध्याय में इन्द्र और धर्म द्वारा युधिष्ठिर को सांत्वना प्रदान की जाती है। युधिष्ठिर शरीर त्यागकर स्वर्गलोक चले जाते हैं। चतुर्थ अध्याय में युधिष्ठिर दिव्य लोक में श्रीकृष्ण और अर्जुन से मिलते हैं। पंचम अध्याय में वहीं भीष्म आदि स्वजन भी अपने पूर्व स्वरूप में मिलते है। तत्पश्चात महाभारत का उपसंहार वर्णित है। शांतनु · गंगा · भीष्म · सत्यवती · चित्रांगद · विचित्रवीर्य · अम्बा · अम्बिका · अम्बालिका · विदुर · धृतराष्ट्र:कौरव · गांधारी · दुर्योधन · दुःशासन · युयुत्सु · दुःशला · शकुनि · भटिंडा एक्स्प्रेस 9226 भारतीय रेल द्वारा संचालित एक मेल एक्स्प्रेस ट्रेन है। यह ट्रेन जम्मू तवी रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:JAT) से 09:25PM बजे छूटती है और भटिंडा जंक्शन रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:BTI) पर 09:10AM बजे पहुंचती है। इसकी यात्रा अवधि है 11 घंटे 45 मिनट। ढनाण, चौखुटिया तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। अर्जेंटाइन डोगो जिसे अर्जेंटिनियन मस्तिफ्फ़ भी कहा जाता है कुत्तो की एक बड़ी, सफ़ेद, गठीली नसल है। इसका जनम अर्जन्टीना में हुआ, इसे खास तोर पे बड़े शिकार करने के लिए विकसित किया गया था। बहुसंस्कृतिवाद, बहु जातीय संस्कृति की स्वीकृति देना या बढ़ावा देना होता है, एक विशिष्ट स्थान के जनसांख्यिकीय बनावट पर यह लागू होती है, आमतौर पर यह स्कूलों, व्यापारों, पड़ोस, शहरों या राष्ट्रों जैसे संगठनात्मक स्तर पर होते हैं। इस संदर्भ में, बहुसंस्कृतिवादी, केन्द्र के रूप में कोई विशेष जातीय, धार्मिक समूह और/ या सांस्कृतिक समुदाय को बढ़ावा देने के बिना विशिष्ट जातीय और धार्मिक समूहों के लिए विस्तारित न्यायसम्मत मूल्य स्थिति की वकालत करते हैं।[1] बहुसंस्कृतिवाद की नीति अक्सर आत्मसातकरण और सामाजिक एकीकरण अवधारणाओं के साथ विपरीत होती है। बहुसंस्कृतिवाद के समर्थकों द्वारा इसे एक बेहतर प्रणाली के रूप में देखा जाता है जो कि समाज के भीतर लोगों को उनके अस्तित्व को वास्तविक रूप से अभिव्यक्त करने की अनुमति देती है और जो अधिक सहनशील होती है और सामाजिक मुद्दों के लिए बेहतरी को अपनाया जाता है।[2] उन्होंने तर्क दिया कि संस्कृति, एक जाति या धर्म पर आधारित कोई परिभाषा नहीं होती, बल्कि कई कारकों का परिणाम होती है और जैसे-जैसे शब्द में परिवर्तन होता है उसी प्रकार उसमें भी परिवर्तन होता है। बहुसंस्कृतिवाद की आलोचना करने से पहले इस शब्द को परिभाषित करना महत्वपूर्ण है। एंड्रयू हेवुड ने बहुसंस्कृतिवाद के दो समग्र रूपों के बीच फर्क किया है : अवर्णनात्मक और मानक. "'बहुसंस्कृतिवाद' शब्द का इस्तेमाल विभिन्न तरीकों से किया जाता है, वर्णनात्मक और मानक दोनों तरह से. एक वर्णनात्मक शब्द के रूप में, सांस्कृतिक विविधता के उल्लेख के लिए इसे लिया गया है।..एक मानक शब्द के रूप में, बहुसंस्कृतिवाद एक सकारात्मक समर्थन है, यहां तक कि सांप्रदायिक विविधता का उत्सव है, जो कि आमतौर पर या तो सम्मान और मान्यता के लिए विभिन्न समूहों के अधिकार के आधार पर होता है, या नैतिक और सांस्कृतिक विविधता के विस्तृत समाज के लिए कथित लाभ के आधार पर होता है।[3] बहुसंस्कृतिवाद की आलोचना में अक्सर यह कहा जाता है क्या मैत्रीपूर्वक सह-अस्तित्व वाली संस्कृतियां जो एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं और तब भी अलग बनी रहती हैं, टिकाऊ, विडंबनापूर्ण या वांछनीय हैं।[4] यह तर्क दिया गया है कि राष्ट्र राज्य, जिनका पहले से ही अपनी एक विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान के साथ पर्याय होती है, बहुसंस्कृतिवाद लागू करने से समाप्त हो जाती है जो कि अंततः मेज़बान देशों की विशिष्ट संस्कृति का अपक्षरण हो जाता है।[5][6][7] सुसान मोलर ओकिन ने अपने निबंध "इज़ मल्टीकल्चर्लिज्म बैड फॉर वुमेन?" में इस सवाल के बारे में लिखा है। (1999).[8] हार्वर्ड के राजनीति विज्ञान प्रोफेसर रॉबर्ट डी. पुटनम ने लगभग एक दशक के लम्बे अध्ययन का आयोजन किया जिसका विषय सामाजिक विश्वास को बहुसंस्कृतिवाद कैसे प्रभावित करता है।[9] उन्होंने 40 अमेरिकी समुदाय में 26,200 लोगों का सर्वेक्षण किया, जब वर्ग, आय और अन्य कारकों के लिए, जैसे अधिक नस्लीय विविधता वाले समुदाय, अधिक से अधिक विश्वास का नुकसान, डाटा को समायोजित किया गया। पुटनम लिखते हैं, "विविध समुदायों के लोग "स्थानीय मेयर पर विश्वास नहीं करते, वे स्थानीय अखबार पर भरोसा नहीं करते, वे अन्य लोगों पर विश्वास नहीं करते हैं और संस्थानों पर भी भरोसा नहीं करते हैं,".[10] ऐसे जातीय विविधता की उपस्थिति में, पुटनम का कहना है कि [ह]म पुराने ढंग के निम्न हैं। हम कछुओं की तरह काम करते हैं। जो हमने कल्पना की थी उससे भी बदतर है विविधता का प्रभाव. और यह सिर्फ इतना नहीं है कि हम उन पर भरोसा नहीं करते जो हमारी तरह नहीं हैं। विभिन्न समुदायों में, हम उन लोगों पर भरोसा नहीं करते जो हमारी तरह ही दिखते हैं।[9] आचारविज्ञानी फ्रैंक सॉल्टर लिखते हैं: अपेक्षाकृत सजातीय समाज सार्वजनिक वस्तुओं में अधिक निवेश करते हैं, सार्वजनिक परोपकारिता के एक उच्च स्तर का संकेत देते हैं। उदाहरण के लिए, जातीय एकरूपता की डिग्री सरकार के सकल घरेलू उत्पाद के साथ-साथ नागरिकों की औसत संपत्ति के साथ संबद्ध करता है। संयुक्त राज्य अमेरिका, अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया में मामले के अध्ययन में पाया गया हैं कि बहु-जातीय समाज कम धर्मार्थ और सार्वजनिक बुनियादी ढांचे के विकास में कम सहयोग दे पाते हैं। मोस्को भिखारी अन्य प्रजातियों की तुलना में साथी प्रजातियों से अधिक उपहार पाते हैं [sic ]. संयुक्त राज्य अमेरिका में सार्वजनिक वस्तुओं में नगरपालिका के खर्च करने को लेकर हाल ही में हुए अध्ययन में यह पाया गया कि जातीयता या नस्लीय विविधता वाले शहरों में सजातीय शहरों की तुलना में अपने बजट के छोटे हिस्सों का व्यय करते हैं और सार्वजनिक सेवाओं के लिए प्रति व्यक्ति कम खर्च करते हैं।[11] 1970 के दशक के बाद से कई पश्चमी देशों में बहुसंस्कृतिवाद को आधिकारिक नीति के रूप में अपनाया गया, जिसका तर्क अलग-अलग देशों में अलग था।[12][13][14] पश्चिमी दुनिया के बड़े शहरों में तेजी से संस्कृति के मोज़ेक बने.[15] जैसा कि आम तौर पर बहुसंस्कृतिवाद को एक सैद्धांतिक दृष्टिकोण और पश्चमी राष्ट्र-राज्यों में नीतियों की संख्या को अपनाने के लिए संदर्भित किया जाता है, जो कि 18वीं और/या 19वीं सदी के दौरान प्रकट रूप से वास्तविक एकल राष्ट्रीय पहचान को प्राप्त किया था। अफ्रीका, एशिया और अमेरिका सांस्कृतिक रूप से विविध और वर्णनात्मक रूप से बहुसांस्कृतिक रहे हैं। कुछ में, सांप्रदायिकता एक प्रमुख राजनीतिक मुद्दा है। इन राज्यों द्वारा अपनाए गए नीतियां अक्सर पश्चमी दुनिया में बहुसांस्कृतिक नीतियों के साथ समानताएं हैं, लेकिन ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अलग है और लक्ष्य एक एकल संस्कृति या एकल-प्रजाति राष्ट्र-निर्माण को हो सकता है - उदाहरण के लिए मलेशियाई सरकार का 2020 तक एक मलेशियाई जाति का निर्माण करने का प्रयास है।[16] कनाडा के लिए आव्रजन आर्थिक नीति और परिवार एकीकरण द्वारा संचालित है। 2001 में, लगभग 250,640 लोग कनाडा में आकर बसे. अधिकांशतः नए चेहरे टोरंटो, वैंकूवर और मॉन्ट्रियल के प्रमुख शहरी क्षेत्रों में बस गए।[17] 1990 के दशक और 2000 के दशक में कनाडा आप्रवासियों का सबसे बड़ा भाग एशिया से आया, जिसमें मध्य पूर्व, दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व एशिया शामिल है।[18] कनैडियाई समाज को अक्सर अत्यंत प्रगतिशील, विविध और बहुसांस्कृतिक के रूप में दर्शाया जाता है। कनाडा में नस्लवाद का आरोप लगे किसी व्यक्ति को आमतौर पर गंभीर कलंक माना जाता है।[19] कनाडा के राजनीतिक दल अब अपने देश के आव्रजन के उच्च स्तर की आलोचना के बारे में सतर्क हैं क्योंकि यह ग्लोब एंड मेल द्वारा विख्यात है, "1990 के दशक के प्रारम्भ में, पुरानी सुधार पार्टी को 250,000 से 150,000 के कम स्तर के आप्रवास का सुझाव देने के लिए नस्लवादी का ब्रांड दिया गया था।"[20] हालांकि अर्जेंटीना संविधान की प्रस्तावना में जिस प्रकार स्पष्ट रूप से आव्रजन को बढ़ावा दिया जाता है और अन्य देशों से आए नागरिकों को बहु-नागरिकता का मान्यता दिया जाता है उस प्रकार से बहुसंस्कृतिवाद को नहीं देखा जाता है। हालांकि अर्जेंटीना की 86% जनसंख्या अपने आप को यूरोपीय वंश के रूप में मानते हैं[21][22] वर्तमान तक बहुसंस्कृतिवाद का उच्च स्तर अर्जेंटीना संस्कृति की एक विशेषता बनी हुई है,[23]) जो विदेशी समारोहों और छुट्टियों (सेंट पैट्रिक दिवस) की अनुमति देता है, अल्पसंख्यकों के सभी प्रकार के कला और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का समर्थन करता है, साथ ही मीडिया में एक महत्वपूर्ण बहुसांस्कृतिक उपस्थिति के माध्यम से प्रसार करता है; उदाहरण के लिए अर्जेनटीना में अंग्रेजी, जर्मन, इतालवी या गुजराती भाषा में अखबारों[24] या रेडियो कार्यक्रमों में इसे खोजना असामान्य नहीं है। कई सदृश नीतियों के साथ कनैडियाई-शैली की बहुसंस्कृतिवाद को पूरी तरह से अपनाने वाला अन्य देश ऑस्ट्रेलिया है, उदाहरण स्वरूप स्पेशिएल ब्रॉडकास्टिंग सर्विस का निर्माण है।[25] 2006 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या का एक बटा पांच से अधिक लोग विदेश में पैदा हुए थे।[25] इसके अलावा, जनसंख्या का लगभग 50% या तो: 1. विदेशों में पैदा हुए हैं, या 2. एक या माता-पिता दोनों विदेश में पैदा हुए हैं।[25] कुल प्रवास के प्रति व्यक्ति के अर्थ में, ऑस्ट्रेलिया का स्थान 18वां (2008 डेटा) है जो कि कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका और अधिकांश यूरोप से आगे है।[26] संयुक्त राज्य अमेरिका में बहुसंस्कृतिवाद स्पष्ट रूप से संघीय स्तर पर नीति में स्थापित नहीं है। संयुक्त राज्य अमेरिका में, 19वीं सदी के प्रथम भाग से सतत् सामूहिक आप्रवास, अर्थव्यवस्था और समाज की एक विशेषता रही है।[27] आप्रवासियों का सतत् आगमन और उनका शामिल हो जाना, अपने आप में अमेरिका के राष्ट्रीय मिथक की एक प्रमुख विशेषता बन गई। मेल्टिंग पॉट का विचार एक रूपक है जिसका तात्पर्य यह है कि सभी आप्रवासी संस्कृतियां राज्य के हस्तक्षेप के बिना मिश्रित और एकीकृत हुई हैं।[28] मेल्टिंग पॉट, प्रत्येक आप्रवासी व्यक्ति और प्रत्येक आप्रवासी समूह, अमेरिकी समाज में अपनी गति से आत्मसात करने को ध्वनित करता है, जैसा कि ऊपर बताया गया है कि वह बहुसंस्कृतिवाद नहीं है चूंकि यह आत्मसात और एकीकरण के विरोध में है। देश की वास्तविक खाद्य और इसकी छुट्टियों की एक अमेरिकी (और अक्सर पारम्परिक) संस्करण बची हुई थीं। मेल्टिंग पॉट परंपरा अमेरिकी संस्थापक पिता से राष्ट्रीय एकता और डेटिंग की विश्वास के साथ सह-मौजूद है। "ईश्वर इसे एकसूत्र में बंधे हुए देश में एकतावादी लोगों को देकर खूश हैं - एक ही पूर्वज के लोग, एक ही भाषा बोल रहे है, समान धर्म को मान रहे हैं, सदृश सरकार की सिद्धांत के साथ जुड़ें है, उनके व्यवहार और कस्टम काफी सदृश हैं।. .. यह देश और लोगों को देखकर लगता है कि सब एक दूसरे के लिए ही बने हैं, यह प्रकट होता है चूंकि यह ईश्वर की डिजाइन थी जो कि भाइयों के रिश्ते के लिए एक वंशानुक्रम काफी उचित है, एक दूसरे को एक मज़बूत धागे से बांधें हुए है, जो कभी भी असामाजिक, जलन और विदेशी राज्य की भावना से अलग न हुए हों.".[29] दर्शन के रूप में उन्नीसवीं सदी के अंत में यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका में बहुसंस्कृतिवाद की शुरूआत उपयोगितावाद आंदोलन के हिस्से के रूप में हुई, उसके बाद बीसवीं सदी में परिवर्तित होते-होते राजनीतिक और सांस्कृतिक बहुलवाद के रूप में हुई. उप-सहारा अफ्रीका में यूरोपीय साम्राज्यवाद की नई लहर की आंशिक प्रतिक्रिया के रूप में यह थी और संयुक्त राज्य अमेरिका और लैटिन अमेरिका में दक्षिणी और पूर्वी यूरोप की भारी आप्रवासन हुई. दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक और इतिहासकार और प्रारम्भिक समाजशास्त्री जैसे चार्ल्स सैंडर्स पियर्स, विलियम जेम्स, जॉर्ज संटायाना, होरस कालेन, जॉन डेवी, डबल्यू.ई.बी. ड्यू बोइस और अलेन लोके ने सांस्कृतिक बहुलवाद की अवधारणाओं का विकास किया और वहीं से जो कुछ भी उभरा है उसे वर्तमान में बहुसंस्कृतिवाद के रूप में समझते हैं। प्लुरलिस्टिक यूनिवर्स (1909) में विलियम जेम्स ने "एकाधिक समाज" के विचार का समर्थन किया। जेम्स ने एकाधिक समाज को, एक बेहतर, अधिक समतावादी समाज के गठन में मदद के लिए दार्शनिक और सामाजिक मानवतावादी के निर्माण की महत्ता के रूप में देखते हैं।[30] बहुसांस्कृतिक नीतियों को स्थानीय प्रशासन द्वारा 1970 और 1980 के दशक के बाद से अपनाया गया; विशेष रूप से टोनी ब्लेयर की लेबर सरकार द्वारा[31][32] राष्ट्रीय नीति में, कानून में शामिल है रेस रिलेशन ऐक्ट और 1948 का ब्रिटिश नेशनैलिटी ऐक्ट . पिछले दशक के अधिकांश आप्रवासी भारतीय उपमहाद्वीप या कैरेबियन से आए हैं, यानी पूर्व के ब्रिटिश उपनिवेशों से. 2004 में ब्रिटिश नागरिक बनने वाले लोगों की संख्या रिकॉर्ड 140,795 तक पहुंच गई - पिछले साल से 12% अधिक. यह संख्या नाटकीय रूप से 2000 के बाद से बढ़ी थी। नए नागरिकों की अधिकांश संख्या अफ्रीका (32%) और एशिया (40%) से आती है, तीन सबसे बड़े समूहों में पाकिस्तान, भारत और सोमालिया के लोग शामिल हैं।[33] अंग्रेज़ी-भाषी पश्चिमी देशों में, राष्ट्रीय नीति के रूप में बहुसंस्कृतिवाद 1971 में कनाडा में शुरू हुआ और इसके बाद 1973 में ऑस्ट्रेलिया में.[34] इसे शीघ्र ही यूरोपीय संघ के अधिकांश सदस्यों द्वारा आधिकारिक नीति के रूप में अपनाया गया। हाल ही में, कई यूरोपीय देशों में दक्षिण पंथी सरकारों ने - विशेषकर नीदरलैंड और डेनमार्क - राष्ट्रीय नीति को उलट दिया और आधिकारिक एकल-संस्कृतिवाद की ओर लौट गए हैं।[34] ऐसा ही एक परिवर्तन ब्रिटेन में विवाद के तहत है, जिसका कारण है "देशी" आतंकवाद को लेकर आरंभिक अलगाव और चिंताएं.[35] [[चित्र:Poland1937linguistic.jpg|thumb|दूसरा पोलिश गणतंत्र का एथनो-भाषाई नक्शा, 1937. पोलिश, यूक्रेनियाई दुश्मनी 1943-44 के जातीय नरसंहार, जिसमें 100,000 पोल की मृत्यु पहुंचीसन्दर्भ त्रुटि: टैग के लिए समाप्ति टैग नहीं मिला और उस इतिहास को बढ़ावा देना (उदाहरण, राष्ट्रीय नायकों के बारे में प्रदर्शनियों द्वारा) 1950 के दशक में, नीदरलैंड आमतौर पर एक एकल जातीय और एकल संस्कृतिवादी समाज था: यह स्पष्ट रूप से एक भाषावादी नहीं था, लेकिन लगभग हर कोई मानक डच बोल सकता था; फ़्रिसियन लिम्बुर्गिश और डच लो सैक्सन ही केवल स्वदेशी अल्पसंख्यक भाषा थीं। इसके निवासी एक क्लासिक राष्ट्रीय पहचान साझा करते थे, जहां राष्ट्रीय मिथक एक डच स्वर्ण युग पर और राष्ट्रीय नायकों जैसे एडमिरल मिशेल डी रूटर. डच समाज धार्मिक और वैचारिक आधार पर विभाजित किया गया था, कभी कभी सामाजिक वर्ग और जीवन शैली में अंतर भी था। यह विभाजन 19वीं सदी के उत्तरार्ध में एक विशिष्ट डच संस्करण में विकसित हुआ जिसे पिलराईजेशन कहते हैं, जिसने विभिन्न स्तंभों के नेताओं को शांतिपूर्ण सहयोग के लिए सक्षम बनाया, जबकि उनका निर्वाचन क्षेत्र काफी हद तक अलग रहा. इस अलगाव साँचा:Bywhom?को पिम फॉरर्तुइन और गीर्ट वाइल्डर्स राजनीतिज्ञों के 2000 के दशक की सफलता के कारण के लिए जाना जाता है। कई सदियों तक उपनिवेशवाद और भूमि की क्रमिक वृद्धि की वजह से, रूस में 150 से अधिक विभिन्न जातीय समूह हैं। जातीय समूहों के बीच तनाव ने, विशेष रूप से काकेशस क्षेत्र में, कभी-कभी सशस्त्र संघर्ष को जन्म दिया है। इस क्षेत्र में, बेल्जियम, अंतर-संस्कृतिवाद और बहुसंस्कृतिवाद के बीच काफी मतभेदों को दर्शाता है। फ्लेमिश भाग में, फ़्लैंडर्स, सरकारी नीति (जिसका समर्थन सिर्फ एक दक्षिण-पंथी पार्टी को छोड़कर सभी राजनीतिक दलों द्वारा किया गया है) स्पष्ट रूप से अंतर-संस्कृतिवादी है। फ्रेंच भाषी दल हालांकि बहुत ज्यादा बहु-संस्कृतिवादी हैं। एंजेला मार्केल ने कहा है कि मल्टीकल्टी विफल रहा है[38][39] भारत की संस्कृति अपने लंबे इतिहास, अद्वितीय भूगोल और विविध जनसांख्यिकी के द्वारा बनी है। भारत की भाषाओं, धर्मों, नृत्य, संगीत, वास्तुकला और कस्टम देश के भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न होती है, उसके बावजूद उनमें समानता है। भारत की संस्कृति इन विविध उप-संस्कृतियों का मेल है जो कि भारतीय उपमहाद्वीप कि परंपराओं में फैली हुई है और यह सदियों पुरानी है।[40] धार्मिक रूप से हिंदू बहुसंख्यक हैं और दूसरे स्थान पर मुसलमान हैं। वास्तविक आंकड़ा कुछ इस प्रकार से हैं: हिन्दू (80.5%), मुस्लिम (13.4%), ईसाई (2.3%), सिख (2.1%), बौद्ध, बहाई, अहमदी, जैन, यहूदी और पारसी की आबादी है।[41] भारत की गणतंत्र राज्यों की सीमा अधिकांशतः भाषाई समूहों पर तैयार किया गया है; इस फैसले के बाद स्थानीय जातीय-भाषाई संस्कृति का संरक्षण और निरंतरता हो रही है। इस प्रकार राज्य भाषा, संस्कृति, भोजन, वस्त्र, साहित्यिक शैली, वास्तुकला, संगीत और उत्सव के आधार पर भिन्न होते हैं। अधिक जानकारी के लिए भारत की संस्कृति को देखें. इंडोनेशिया में 700 से भी अधिक भाषाएं बोली जाती हैं[42] और हालांकि देश में मुख्य रूप से मुस्लिम आबादी है लेकिन उसके बावजूद ईसाई और हिन्दूओं की भी भारी जनसंख्या मौजूद हैं। इंडोनेशिया का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य, "भिन्नेका तुंग्गल इका " ("विविधता में एकता" रोशनी "बहुत, अभी तक एक"), स्पष्ट रूप से विविधता को बताती है जो कि देश को एक आकार देती है। इंडोनेशिया के भीतर ही प्रवास के कारण (सरकार के स्थानांतरगमन प्रोग्राम या अन्यथा के भाग के रूप में) वहां जातीय समूहों की महत्वपूर्ण आबादी रहती है जो अपने पारम्परिक क्षेत्रों से बाहर निवास करते हैं। कुछ समय बाद ही 1999 में अब्दुर्रहमान वाहिद सत्ता में आए, उन्होंने जल्दी ही जाती संबंधों में सुधार लाने के लिए कुछ भेदभाव के नियमों को समाप्त कर दिया. चीनी इन्डोनेशियाई फिलहाल पुनः खोज के युग में हैं। कई युवा पीढ़ी जो पिछले दशक में पाबंदी होने के कारण मंदारिन बोलने में असमर्थ थे, उन लोगों ने मंदारिन सीखना पसंद किया, चूंकि देश भर में कई प्रशिक्षण केन्द्र खुले थे। अम्बोन, मालुकु ऐसे स्थान हैं जहां ईसाई और मुस्लिम समूहों के बीच सबसे बुरे प्रकार से हिंसा हुई थी जिसने 1999 और 2002 के बीच मालुकु द्वीप को अपने चपेट में ले लिया था।[43] एकरूपता की अपनी विचारधारा के साथ जापानी समाज ने परंपरागत रूप से जापान में जातीय मतभेदों की आवश्यकताओं को अस्वीकार कर दिया, यहां तक कि एइनु के रूप में वैसे जातीय अल्पसंख्यकों द्वारा इस तरह के दावों को रद्द कर दिया गया।[44] जापानी मंत्री तारो असो ने जापान को "एक जाती" का देश कहा.[45] हालांकि, पूरे जापान भर में स्थानीय सरकार द्वारा वित्त पोषित "अंतर्राष्ट्रीय सोसायटी" एनपीओ है।[46] मलेशिया एक बहुजातीय देश है, जहां पर मलयों की बहुसंख्यता है और उनकी आबादी 52% के करीब है। लगभग 30% जनसंख्या चीनी वंश के मलेशियाई हैं। भारतीय वंश के मलेशियाई की जनसंख्या लगभग 8% है। शेष 10% में शामिल हैं: मलेशियाई नई आर्थिक नीति या एनईपी एक सकारात्मक कार्रवाई के रूप में काम करती है (बुमिप्यूटेरा देंखे).[47] यह शिक्षा से आर्थिक से लेकर सामाजिक एकीकरण से जीवन के विभिन्न पहलुओं में संरचनात्मक परिवर्तन करने के लिए बढ़ावा देती है। 13 मई 1969 की नस्लीय दंगों के बाद यह स्थापित हुई थी, इसने आर्थिक नियंत्रण में महत्वपूर्ण असंतुलन की मांग की जहां अल्पसंख्यक चीनी आबादी के पास देश में वाणिज्यिक गतिविधियों पर पर्याप्त नियंत्रण था। मलय पेनिनसुला के पास अंतरराष्ट्रीय व्यापार संपर्क का लम्बा इतिहास रहा है जिसने इसके जातीय और धार्मिक संरचना को प्रभावित किया है। 18 वीं सदी से पहले मुख्य रूप से मलय की जातीय संरचना नाटकीय रूप से बदली जब ब्रिटिशों ने नए उद्योगों और आयातित चीनी और भारतीय श्रम को पेश किया। कई क्षेत्रों में उस समय के पेनांग मलक्का और सिंगापुर जैसे ब्रिटिश मलाया पर चीनी हावी हुए. तीनों जातियों (और अन्य छोटे समूहों) के बीच में काफी हद तक शांतिपूर्ण था, इस तथ्य के बावजूद की आव्रजन मलायी के जनसांख्यिकीय और सांस्कृतिक स्थिति को प्रभावित कर रही है। मलाया की संघ की पूर्ववर्ती स्वतंत्रता को एक नए समाज के आधार पर एक सामाजिक अनुबंध पर बातचीत किया गया था। 1957 मलायी संविधान और सन् 1963 मलेशियाई संविधान में अनुबंध उसी रूप में परिलक्षित हुआ और कहा कि आप्रवासी समूहों को नागरिकता प्रदान किया जा रहा है और 'मलयों को विशेष अधिकार दिए जा रहे हैं। इसे अक्सर बुमीपुत्रा नीति कहा जाता है। यह बहुलवादी नीतियां, जातिवादी मलय पार्टियों द्वारा दबाव में आए, जिसने मलय अधिकारों के कथित तौर पर नष्ट होने का विरोध किया था। यह मुद्दा कभी-कभी मलेशिया में धार्मिक स्वतंत्रता की विवादास्पद स्थिति से संबंधित होता है। बहुसंस्कृतिवाद मॉरीशस द्वीप की एक विशेषता है। मॉरीशस समाज में विभिन्न जातीय और धार्मिक समूह के लोग शामिल हैं: हिन्दू, मुस्लिम और सिख भारतीय-मॉरीशस, मॉरीशस क्रेओलेस (अफ्रीकी और मालागासी वंश के), बौद्ध रोमन कैथोलिक, सिनो-मॉरीशस और फ्रेको मॉरीशस (मूल फ्रेच जाति के वंश)[48] फिलीपींस दुनिया भर में आठवां सबसे बड़ा बहुजातीय राष्ट्र है।[49] यहां विशिष्ट रूप से 10 प्रमुख स्वदेशी जाति समूह हैं, मुख्य रूप से बिकोलानो, इबनाग, इलोकानो, इवाटन, कपमपंगन, मोरो, पंगासिनेंस, संबल, तागालोग और विसयन. फिलीपींस में बाडजो, इगोरोट, लुमड, मंज्ञान और नेग्रितोस जैसे और कई आदिवासी जातियां भी हैं। देश में अमेरिकी, अरबी, चीनी, भारतीय और हिस्पैनिक वंश के विशेष समुदाय हैं। फिलीपीन सरकार देश की जातीय विविधता के समर्थन और संरक्षण से संबंधित विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करती है।[50] सिंगापुर अन्य तीन भाषाओं को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता देता है जिसका नाम मंदारिन चीनी, तमिल और मलय है, जिसमें मलय राष्ट्रीय भाषा है। एक बहुभाषी देश होने के अलावा सिंगापुर इन तीन जातीय समुदायों द्वारा मनाए जाने वाले त्योंहारों को भी मान्यता देती है। सिंगापुर में ऐसे क्षेत्र जहां इस प्रकार के जातीय समूह की जनसंख्या सबसे अधिक हैं वे है चाइनाटाउन, गेलैंग और लिटिल इंडिया. जातीय आधार पर विश्व के सबसे सजातीय देशों के बीच दक्षिण कोरिया है।[51] जो लोग ऐसी विशेषताओं को नहीं मानते उन्हें कोरियाई समाज या रूप भेदभाव द्वारा अक्सर अस्वीकार कर दिया जाता है।[52] यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 27°53′N 78°04′E / 27.89°N 78.06°E / 27.89; 78.06 हैवतपुर पिराथा कोइल, अलीगढ़, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। डोगा राज कॉमिक्स के द्वारा प्रकशित हिन्दी कॉमिक्स श्रुंखला डोगा का प्रमुख पात्र है। नागराज · सुपर कमाण्डो ध्रुव · डोगा · परमाणु · शक्ति · भेडिया · भोकाल · एन्थोनी · फ़ाइटर टोड्सयेबदे बिन्दास है · बांकेलाल · योद्धा · सुपर इण्डियन यह क्वार्क का एक फ्लेवर है अथवा एक प्रकार का क्वार्क है जिसका आवेश +(2/3)e, द्रव्यमान 171.2 GeV/c2 तथा प्रचक्रण 1/2 होता है।[1] देवरपल्ले, हिंदूपुरम् मण्डल में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के अनंतपुर जिले का एक गाँव है। नामांकन प्रक्रिया (नामांकनकर्ता हेतु): श्रीकृष्ण सरल द्वारा रचित काव्य-संग्रह है। संस्कृति के आलोक स्तम्भ कालजयी सुभाष  • आजीवन क्रान्तिकारी  • क्रान्तिकारी आन्दोलन के मनोरंजक प्रसंग  • शहीद-चित्रावली  • सुभाष या गांधी  • क्रान्ति इतिहास की समीक्षा  • रानी चेनम्मा  • नर-नाहर नरगुन्दकर  • अल्लूरी सीताराम राजू  • डॉ॰ चंपकरमन पिल्लई  • चिदम्बरम् पिल्ले  • सुब्रमण्यम शिव  • पद्मनाम आयंगार  • वांची अय्यर  • बाबा पृथ्वीसिंह आजाद  • वासुदेव बलवंत फड़के  • क्रान्तिकारिणी दुर्गा भाभी  • करतारसिंह सराबा  • रासबिहारी बोस  • हिन्दी ज्ञान प्रभाकर  • संसार की महान आत्माएँ  • संसार की प्राचीन सभ्यताएँ  • देश के दीवाने  • क्रान्तिकारी शहीदों की संस्मृतियाँ  • शिक्षाविद् सुभाष  • कुलपति सुभाष  • सुभाष की राजनैतिक भविष्यवाणियाँ  • नेताजी के सपनों का भारत नेताजी  • सुभाष दर्शन  • राष्ट्रपति सुभाषचन्द्र बोस  • नेताजी सुभाष जर्मनी में  • सेनाध्यक्ष सुभाष  • कालजयी सुभाष बिमोला, अल्मोडा तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 25°27′N 81°51′E / 25.45°N 81.85°E / 25.45; 81.85 पुरे कंटा भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के इलाहाबाद जिले के हंडिया प्रखण्ड में स्थित एक गाँव है। चौधरी-बसंतपुर पीरपैंती, भागलपुर, बिहार स्थित एक गाँव है। घण्डियाल, कर्णप्रयाग तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के चमोली जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। मल्लवोलु (कृष्णा) में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के कृष्णा जिले का एक गाँव है। नोकिया ७३८०, नोकिया द्वारा बनाया गया एक मोबाइल फ़ोन उपकरण है। सर फ्रांसिस ड्रेक, वाइस एडमिरल (1540 - 27 जनवरी 1596) महारानी एलिजाबेथ के समय के एक जहाज कप्तान, समुद्री लुटेरा, खोजी और राजनीतिज्ञ थे। महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने 1581 में उन्हें नाइटहुड प्रदान किया था। स्पेनिश अरमाडा के खिलाफ अंग्रेज जहाज बेडे के दूसरे प्रमुख व्यक्ति थे। सान जुआन, पोर्ते रिको पर असफल हमले के बाद इनकी दस्त की वजह से 1596 में मौत हो गई। अपने सफल अभियान की बदौलत जहां ड्रेक एक तरफ अंग्रेजों के लिए हीरो थे, वहीं दूसरी ओर स्पेनिश लोगों के लिए समुद्री लुटेरे थे, जिन्हें वे एल ड्रेक के नाम से बुलाते थे। माना जाता है कि राजा फिलिप द्वितीय ने उन पर 20 हजार डुकाट्स (आज के हिसाब से करीबन 60 लाख डालर) का इनाम रखा था। ड्रेक अन्य बातों के अलावा अपने विश्व भ्रमण के लिए प्रसिद्ध हैं। निर्देशांक: 25°36′40″N 85°08′38″E / 25.611°N 85.144°E / 25.611; 85.144 बरूना नौबतपुर, पटना, बिहार स्थित एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 25°09′N 85°27′E / 25.15°N 85.45°E / 25.15; 85.45 महेन्दरगंज मनसूरचक, बेगूसराय, बिहार स्थित एक गाँव है। कुशराणी मली, गैरसैण तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के चमोली जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। झारखंड से संबंधित यह लेख अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। व्यापारिक कृषि, कृषि करने का एक प्रमुख प्रकार हैं। निर्मली बिहार प्रान्त का एक शहर है। बहबल पुर फ़र्रूख़ाबाद जिले का एक गाँव। अवाजपुर. अकरखेरा • अकबरगंज गढ़िया • अकबरपुर • अकबरपुर दामोदर • अकराबाद • अचरा  • अचरातकी पुर • अचरिया वाकरपुर • अजीजपुर • अजीजाबाद • अटसेनी • अटेना • अतगापुर • अताईपुर  • अताईपुर कोहना • अताईपुर जदीद • अतुरुइया • अद्दूपुर  • अद्दूपुर डैयामाफी • अब्दर्रहमान पुर • अमरापुर • अमिलापुर  • अमिलैया आशानन्द • अमिलैया मुकेरी • अरियारा • अलमापुर • अल्लापुर  • अल्लाहपुर • अलादासपुर • अलियापुर • अलियापुर मजरा किसरोली • अलेहपुर पतिधवलेश्वर • असगरपुर • अहमद गंज • आजम नगर • आजमपुर  • 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रसीदपुर  • रसीदपुर तराई  • रसीदपुर मई  • रसीदपुर मजरा अटसेनी  • रसीदाबाद  • रायपुर  • रायपुर खास  • रायपुर चिंगहाटपुर  • रुटौल • रुटॉल  • रुदायन  • रुटौल  • रुस्तमपुर  • रूपपुर मंगली  • रोशनाबाद  • रौकरी  • लखनपुर  • लपहापानी  • ललई • ललैयातुर्क  • ललौर राजपूताना  • लहरारजा कुलीपुर  • लाखनपुर  • लाड़मपुर द्योना  • लालपुर पट्टी  • लुखड़पुरा  • लुधैया  • लोधीपुर  • वीरपुर  • शम्साबाद  • शम्भूनगला  • शम्भूनगला • शमसपुर भिखारी  • शरीफपुर छिछौनी  • शाद नगर  • शाहआलम पुर  • शाहपुर  • शाहीपुर  • शिवरई बरियार  • शिवरई मठ  • शिवारा  •  • शेशपुर हुसंगा  • शंकरपुर हरहरपुर  • स्यानी  • सन्तोषपुर  • समाधान नगला  • सरपरपुर  • सलेमपुर  • सलेमपुर त्योरी  • सलेमपुर दूँदेमई  • सवितापुर विहारीपुर  • सशा जगदीशपुर  • समुद्दीनपुर  • समेचीपुर छीतर  • समेचीपुर मजरा अथुरैया  • सादिकपुर  • साहबगंज  • सिउरइया • सिकन्दरपुर  • सिकन्दरपुर अगू  • सिकन्दरपुर कोला  • सिकन्दरपुर खास  • सिकन्दरपुर छितमन  • सिकन्दरपुर तिहइया  • सिकन्दरपुर मजरा नहरोश  • सिकन्दरपुर महमूद  • सिलसंडा • सिनौली  • सिरमोरा बांगर  • सिवारा खास 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 · झांसी जिला  · जौनपुर जिला  · देवरिया जिला  · पीलीभीत जिला  · प्रतापगढ़ जिला  · फतेहपुर जिला  · फ़र्रूख़ाबाद जिला  · फिरोजाबाद जिला  · फैजाबाद जिला  · बलरामपुर जिला  · बरेली जिला  · बलिया जिला  · बस्ती जिला  · बदौन जिला  · बहरैच जिला  · बुलन्दशहर जिला  · बागपत जिला  · बिजनौर जिला  · बाराबांकी जिला  · बांदा जिला  · मैनपुरी जिला  · महामायानगर जिला  · मऊ जिला  · मथुरा जिला  · महोबा जिला  · महाराजगंज जिला  · मिर्जापुर जिला  · मुझफ्फरनगर जिला  · मेरठ जिला  · मुरादाबाद जिला  · रामपुर जिला  · रायबरेली जिला  · लखनऊ जिला  · ललितपुर जिला  · लखीमपुर खीरी जिला  · वाराणसी जिला  · सुल्तानपुर जिला  · शाहजहांपुर जिला  · श्रावस्ती जिला  · सिद्धार्थनगर जिला  · संत कबीर नगर जिला  · सीतापुर जिला  · संत रविदास नगर जिला  · सोनभद्र जिला  · सहारनपुर जिला  · हमीरपुर जिला, उत्तर प्रदेश  · हरदोइ जिला निर्देशांक: 25°36′40″N 85°08′38″E / 25.611°N 85.144°E / 25.611; 85.144 भेरहरिया पालीगंज, पटना, बिहार स्थित एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 25°09′N 85°27′E / 25.15°N 85.45°E / 25.15; 85.45 परोरा साहेबपुर-कमाल, बेगूसराय, बिहार स्थित एक गाँव है। घरिया नवगछिया, भागलपुर, बिहार स्थित एक गाँव है। इस्तमरारी बन्दोबस्त सन् १७९३ ई० में बंगाल के गवर्नर-जनरल लार्ड कार्नवालिस ने बंगाल में लागू किया था। इस व्यवस्था के अनुसार जमींदार को एक निश्चित राजस्व की राशि ईस्ट इण्डिया कम्पनी को देनी होती थी । जो जमींदार अपनी निश्चित राशि नहीं चुका पाते थे , उनकी जमींदारियाँ नीलाम कर दी जाती थीं।[1][2] औषधि पर्वत हिमालय पर स्थित एक पर्वत था, जिसका नाम द्रोणाचल था। जब लक्ष्मण को मेघनाद ने शक्तिप्रहार किया था तब लंका के सुप्रसिद्ध वैद्य सुषेन के परामर्श से हनुमान जी ने द्रोणाचल को उखाड कर लंका मे स्थपित किया एवं लक्ष्मण जी को स्वस्थ किया। यह उस क्षेत्र का एकमात्र ऐसा पर्वत है जो आज भी हरियाली से युक्त है। जगाई बिरही में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत मगध मण्डल के औरंगाबाद जिले का एक गाँव है। भारत में खेल प्राचीन काल से आधुनिक काल तक परिवर्तन की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरे हैं। कबड्डी, शतरंज, खो-खो, कुश्ति, तीरंदाजी आदि परंपरागत खेलों के अलावा विभिन्न देशों के संपर्क में आने से भारत में क्रिकेट, जूडो, सूटिंग, टेनिस, बैडमिंटन आदि खेलों का भी खूब प्रचलन हुआ है। भारत के प्राचीनतंम ग्रंथ रामायण और महाभारत में चौपड़, द्यूतक्रीड़ा, रथदौड़, निशानेबाजी प्रतियोगिता आदि का उल्लेख मिलता है। 1855 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। ५७६आई (रोमन: 576i) एक प्रकार का वीडियो प्रारूप है जो उन देशों में प्रयुक्त होता है जहां पहले पैल (PAL) या सीकैम (SECAM) उपयोग में था। यह इन मानकों का अंकीय (डिजिटल) संस्करण है। इस मोड में छवियों का ऊर्ध्वाधर विभेदन (वर्टिकल रिज़ोल्यूशन) है। क्षैतिज विभेदन आमतौर पर ७२० या ७६८ पिक्सलों का होता है। आई (i) अन्तर्गथित (इंटरलेस्ड) के लिए है, जिसका अर्थ है कि प्रत्येक छवि का संचरण दो डेलबिल्डर के रूप में किया जाता है। फिर इनका विलय कर परदे पर छवि बनाने के लिए किया जाता है। आधुनिक शिक्षा के चलते राजस्थान बोर्ड का शिक्षा के प्रति मूल्यान्कन करना एक बहुत ही संशय का विषय है। एक बालिका पवित्रा भदौरिया से मेरी मुलाकात हुई उसने लगातार तीन साल तक दसवीं की परीक्षा दी और लगातार तीनो बार ही वह गणित अंग्रेजी में सप्लीमेंटरी की परीक्षा के लिये चुनी गई, तीनो बार ही उसने दोनो विषयों की परीक्षा दी, दोनो विषयों का पुनर्मूल्यांकन करवाया, मगर एक ही जबाब आया जो कि सभी जानते हैं, कि वह फ़ेल हो गई। उसने अपने तीन साल कितनी परेशानियों से गुजारे, वह गरीब घर में पैदा हो गई उसकी जान पहिचान किसी बोर्ड के अफ़सर से नही थी, जो लोग जा सकते थे, वे गोपनीय शाखा में जाकर विषयों का पुनर्मूल्यांकन करवाकर पास हो गये, लेकिन जो नही जा सकते थे वे फ़ेल के नाम से घोषित कर दिये गये। सचिव की नियुक्ति करते समय ख्याल किया जाता है वह सम्पूर्ण परीक्षा प्रणाली को स्थान, विषय, विद्यार्थी, और माहौल के हिसाब से परखे, फ़िर उसके जीवन का निर्णय करे, और जब सचिव इन बातों का ध्यान नही रखता है तो वह एक बहुत बडी गल्ती के अन्दर आ जाता है, जो कभी किसी भी दंड से पूरित नही की जा सकती है, राजस्थान शिक्षा बोर्ड एक व्यवसायिक स्थान के रूप में जाना जाता है, अधिकतर सिन्धी समुदाय के लोग इस संस्थान में काम करते है, सभी लोग जानते हैं कि सिन्धी समुदाय किसी भी ह्रदय की फ़ीलिन्ग को नही जानता है, वह केवल पैसे को जानता है, जो लोग अपने द्वारा कापियां जांचने के लिये अधिक से अधिक पैसों का बन्दोवस्त करते हैं उनको अधिक कापिंया दी जाती है, साधारण से अध्यापक जो प्राइमरी स्कूल में शिक्षा देते हैं वे ही कापियां जांचते है, आज भी लेख सुधारो का ख्याल उनके मन मे है, जबकि आज का विद्यार्थी केवल कम्प्यूटर का की बोर्ड ही जानता है, और बोल कर लिखने वाला सोफ़्टवेयर भी आ गया है, तब अध्यापक जो कापी जांचता है, वह लेख का ख्याल रखता है, तो आज से पचास साल पीछे वह जाता है और विद्यार्थी को उसके इस पुराने तरीके के कारण अपना साल भर का परिश्रम बेकार करना पडता है। जब जोडने घटाने के लिये केलकुलेटर आ गये है, पलक झपकते ही लेपटोप अपना हिसाब सामने रखदेता है तो जोडने घटाने के लिये और फ़ार्मूला याद करने की कौन जोखिम लेगा, जब अध्यापक कापिंया जांच कर बोर्ड को देता है, तो सुपरवाइजर खाना पूरी के लिये हर लोट से दस कापियां निकालता है और चेकिन्ग के नाम पर वह भी अपनी दिमागी शक्ति को खराब नही करता है और जो भी उसे सौगात पहुंचा देता है, उसका ही लोट सफ़ल जांचकर्ता के रूप में माना जाता है। अध्यापक अपने अवकाश का प्रयोग करने और अतिरिक्त कमाई करने के चक्कर में कापियां जांचने का काम हाथ मे ले लेता है। वह अपने अवकास के कामों के साथ कापियां जांचने का काम करता है, उसके लिये कापियां जांचने का एक समय दे दिया जाता है, भारतीय समय के और हिन्दू शास्त्रीय मतानुसार शादी विवाह का यही समय होता है, कापिंया जांचने वाले के किसी रिस्तेदार की शादी तो होगी ही, और नही होगी तो वह किसी के निमत्रण के अन्दर अपने को शामिल तो करेगा ही, और इधर कापिंया जांचने का काम भी करना है, वह सभी काम करता है, कापियां भी जांचता है, और अपने को अवकास का पूरा फ़ल भी लेने की कोशिश करता है, अधिकतर वे कापियां उसके निजी लोग जांचते है, और जिस प्रकार से बोर्ड के द्वारा फ़ार्मूला लिख दिया जाता है, उसे उसी फ़ार्मूले का प्रयोग करने के बाद सवाल को हल किये हुए विद्यार्थी को पास या फ़ेल करना होता है, अगर विद्यार्थी दो और दो को जोडने में २+२=४, का फ़ार्मूला प्रयोग करता है और यही फ़ार्मूला बोर्ड ने लिख कर दिया है तो वह विद्यार्थी पास हो जाता है, और अगर उसने २ और २ बराबर ४ लिखा है तो वह फ़ेल कर दिया जायेगा, इस प्रकार से विद्यार्थी का दिमागी पावर न देखकर केवल फ़ार्मूलो पर पास फ़ेल करने का काम उसके घर वाले अपने खाली समय में पूरा कर लेते है। अगर अध्यापक की तू तू में में अपनी पत्नी के साथ हो गयी, तो और भी विद्यार्थियों की आफ़त आ जाती है, वह अपने गुस्से को कापियों पर उतारता है, साथ ही राजस्थान मे शराब का चलन भी खूब है, और कापियां जांचने का काम अधिकतर शाम को ही होता है, अवकास का पूरा मजा लेने के चक्कर में अध्यापक शराब का सेवन करके कापियां जांचने बैठता है तो पता नही कौन पास होगा और कौन फ़ेल इसका तो भगवान भी मालिक नही होगा. प्राइवेट स्कूलो मे अनुसाशन की अधिक पालना और अधिक शिक्षित बेरोजगारों का फ़ायदा उठा कर वे विद्यार्थियों को उचित शिक्षा के साथ साप्ताहिक मासिक और अर्धवार्षिक टेस्ट लेकर विद्यार्थी का मूल्यांकन करते रहते हैं, और अगर किसी भी मूल्यांकन मे वह असफ़ल रहता है तो उसे बाहर निकालदेते है, जबकि सरकारी विद्यालय अपने हाजिरी रजिस्टर के अन्दर अधिक से अधिक विद्यार्थियों को दिखाकर अपनी साख तो दिखाते है लेकिन विद्यार्थी के ज्ञान का कोई मूल्यांकन नही किया जाता, नाम मात्र के लिये छमाही का मूल्यांकन कर लिया जाता है, जो कि उसी विद्यालय के शिक्षक करते है, और वे प्रधानाध्यापक की नजर में अपने को न गिरने देने के लिये परीक्षार्थियों को पास या फ़ेल करने के अन्दर केवल पास करने मे ही अपनी भलाई समझते है। तीन लाख विद्यार्थियों का भविष्य जिस प्रकार से राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने बिगाडा है वह एक इतिहास मे लिखने वाली बात है साथ ही जिस प्रकार से जो भी विद्यार्थी सप्लीमेंटरी मे बैठा वह भी बहुत ही प्रयास के बाद पास हो सका और उसमे भी एक चौथाई विद्यार्थी तो पास हुए और बाकी फ़ेल होकर अपने जीवन के प्रति सन्नटे में बैठकर भविष्य के प्रति सिवाय रोने और अपने को इस राजस्थान मे पैदा होने के दुख से पूरित करने के और उनके पास कोई चारा है, सौ में से सत्तर लोगो ने अपने बच्चो को स्कूल छुटा दिये है, या तो उनको बाहर के प्रान्तों मे शिक्षा के प्रति भेज दिया है, या फ़िर शिक्षा को छुडाकर मजदूरी वाले कामों के अन्दर लगा दिया है। पाकिस्तान में रहने वाले या विदेशों में बसे पाकिस्तान मूल के लोग। २४ मई २0१२ को संयुक्त राष्ट्र महासभा के १९३ सदस्यों द्वारा सर्वसम्मति से नवी पिल्लै को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार प्रमुख के पद पर फिर से चुन लिया गया। रोखड, नैनीताल तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के नैनीताल जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 27°30′N 79°24′E / 27.5°N 79.4°E / 27.5; 79.4 बिरिया डाण्डा कायमगंज, फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। मर्करी (II) सेलेनाइड एक अकार्बनिक यौगिक है। माकेमाके हमारे सौर मण्डल के काइपर घेरे में स्थित एक बौना ग्रह है। अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ द्वारा रखा गया इसका औपचारिक नाम "१३६४७२ माकेमाके" है। यह हमारे सौर मण्डल का तीसरा सब से बड़ा बौना ग्रह है और इसका औसत व्यास (डायामीटर) १,३६० से १,४८० किमी के आसपास अनुमानित है, यानि यम (प्लूटो) का लगभग तीन-चौथाई। माकेमाके का कोई ज्ञात उपग्रह नहीं, जो काइपर घेरे की बड़ी वस्तुओं में असामान्य बात है। इसकी खोज २००५ में हुई थी। माकेमाके सूरज से लगभग ५२ खगोलीय इकाईयों (यानि ७.८ अरब किमी) की दूरी पर है। इसकी परिक्रमा कक्षा सौर मण्डल के चपटे चक्र से २९ डिग्री के कोण (ऐंगल) पर है। इसे सूरज की एक परिक्रमा पूरा करने में लगभग ३०१ वर्ष लग जाते हैं। माकेमाके पर बहुत ही ठण्ड है और इसका औसत तापमान -२३२ °सेंटीग्रेड (या ३० कैल्विन) के आसपास है, जिस वजह से इसकी सतह पर मीथेन, इथेन और शायद नाइट्रोजन गैसों की जमी हुई बर्फ़ की मोटी तह है। इसी बर्फ़ीली सतह की वजह से माकेमाके का एल्बीडो (सफ़ेदपन या चमकीलापन) ०.८ है, जो काफ़ी अधिक माना जाता है। इन जमी हुई गैसों की वजह से यह भी सम्भावना है के जब माकेमाके परिक्रमा करता हुआ सूरज के थोड़ा पास आ जाता है तो यह सीमित मात्रा में उबलकर माकेमाके पर एक पतला वायुमंडल बना देती हैं। लेकिन जैसे ही माकेमाके सूरज से दूर होता है तो सम्भावना अधिक है के यह वायुमंडल जमकर बर्फ़ की तरह सतह पर गिर जाता है और फिर सतह के ऊपर सिर्फ़ खुले अंतरिक्ष का व्योम ही होता है। माकेमाके का कोई भी ज्ञात उपग्रह नहीं है। माकेमाके पोलीनेशिया क्षेत्र के ईस्टर द्वीप के धर्म में एक देवता थे जिनको मानवजाति की सृष्टि करने का श्रेय दिया जाता था। इस बौने ग्रह का नाम उन्ही पर रखा गया है। अंग्रेज़ी में माकेमाके को "Makemake" लिखा जाता है। बनाला, घाट तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के चमोली जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। सहारा इंडिया परिवार भारत का बहु-व्यापारिक कंपनी है। इसका कार्य वित्तीय सेवाओं, गृहनिर्माण वित्त (हाउसिंग फाइनेंस), म्युचुअल फंडों, जीवन बीमा, नगर-विकास, रीयल-इस्टेट, अखबार एवं टेलीविजन, फिल्म-निर्माण, खेल, सूचना प्रौद्योगिकी, स्वास्थ्य, पर्यटन, उपभोक्ता सामग्री सहित अनेकों क्षेत्रों में फैला हुआ है। ७८७९ ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म[1] से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से ७८७९ ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से ५७ या ५८ वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के ७८ वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर ७८७९ ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है। 2007 अमरीकी ओपन टेनिस प्रतियोगिता का आयोजन अभी न्यूयॉर्क शहर में बिली जीन किंग नेशनल टेनिस सेंटर में हुआ। पुरुष एकल में पिछले तीन बार के विजेता  स्विट्ज़रलैंड के रॉजर फ़ेडरर का मुक़ाबला  सर्बिया के नोवाक जोकोविच से हुआ। फ़ेडरर ने इस मुकाबले में 7-6 (7-4), 7-6 (7-2), 6-4 से विजय प्राप्त कर चौथी बार यह खिताब जीत लिया। साथ ही उन्होंने १२वाँ ग्रैंड स्लैम जीतकर रॉय इमरसन के १२ ग्रैंड स्लैम जीतने के रिकार्ड की बराबरी भी कर ली। अब केवल पीट सेमप्रास ही उनसे आगे हैं जिन्होंने १४ ग्रैंड स्लैम खिताब जीते हैं। विश्व की शीर्ष वरीयता प्राप्त खिलाड़ी  बेल्ज़ियम की जस्टिन हेनिन ने यह ख़िताब  रूस की स्वेतलाना कुज़नेतसोवा को 6-1, 6-4 से हराकर जीत लिया। गोंडा मैलानी पैसेंजर 187NR भारतीय रेल द्वारा संचालित एक मेल एक्स्प्रेस ट्रेन है। यह ट्रेन गोंडा जंक्शन रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:GD) से 02:30AM बजे छूटती है और मैलानी रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:MLN) पर 09:40AM बजे पहुंचती है। इसकी यात्रा अवधि है 7 घंटे 10 मिनट। १३११ ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। विटामिन, पोषक तत्वों और ऊर्जा अंतर्ग्रहण की गंभीर कमी को भुखमरी कहते हैं। यह कुपोषण का सबसे चरम रूप है। अधिक समय तक भुखमरी के कारण शरीर के कुछ अंग स्थायी रूप से नष्ट हो सकते हैं और[कृपया उद्धरण जोड़ें] अंततः मृत्यु भी हो सकती है। अपक्षय शब्द भुखमरी के लक्षणों और प्रभाव की ओर संकेत करता है। विश्व स्वास्थ संगठन के अनुसार, विश्व के संपूर्ण स्वास्थ के लिए भूख स्वयं में ही एक गंभीर समस्या है।[1] डब्लूएचओ (WHO) यह भी कहता है कि अब तक शिशु मृत्यु के कुल में से आधे मामलों के लिए कुपोषण ही उत्तरदायी है।[1] एफएओ (FAO) के अनुसार, वर्तमान में 1 बिलियन से भी ज्यादा लोग, या इस ग्रह पर प्रति छः में से एक व्यक्ति, भुखमरी से प्रभावित है।[2] भुखमरी का मूल कारण ऊर्जा व्यय और ऊर्जा अंतर्ग्रहण के बीच असंतुलन है। दूसरे शब्दों में, शरीर भोजन के रूप में ग्रहण की गयी ऊर्जा से अधिक ऊर्जा व्यय करता है। यह असंतुलन एक या कई चिकित्सकीय कारणों से हो सकता है और/या पारिस्तिथिक अवस्थाओं के कारण भी हो सकता है, जिसमे निम्न सम्मिलित हो सकते हैं: चिकित्सकीय कारण परिस्थितिजन्य कारण भुखमरी से ग्रसित व्यक्ति में चर्बी (वसा) की मात्रा और मांसपेशियों का भार काफी घट जाता है क्यूंकि शरीर ऊर्जा प्राप्त करने के लिए इन ऊतकों का विघटन करने लगता है। जब शरीर अपने अत्यावश्यक अंगों जैसे तंत्रिका तंत्र और ह्रदय की मांसपेशियों (मायोकार्डियम) की क्रियाशीलता को बनाये रखने के लिए अपनी ही मांसपेशियों और अन्य ऊतकों का विघटन करने लगता है तो इसे केटाबौलिसिस कहते हैं। विटामिन की कमी भुखमरी का सामान्य परिणाम है, जो प्रायः खून की कमी, बेरीबेरी, पेलेग्रा और स्कर्वी का रूप ले लेता है। संयुक्त रूप से यह बीमारियां डायरिया, त्वचा पर होने वाली अन्धौरी, शोफ़ और ह्रदय गति रुकने का कारण भी हो सकती हैं। इसके परिणामस्वरूप इससे ग्रस्त व्यक्ति प्रायः चिड़चिड़ा और आलसी रहता है। पेट की क्षीणता भूख के अनुभव को कम कर देती है, क्यूंकि अनुभव पेट के उस हिस्से द्वारा नियंत्रित होता है जो कि खाली हो. भुखमरी के शिकार व्यक्ति इतने कमज़ोर हो जाते हैं कि उन्हें प्यास का अनुभव नहीं हो पाता और इसलिए निर्जलीकरण से ग्रस्त हो जाते हैं। मांसपेशियों के अपक्षय और शुष्क व फटी त्वचा, जो कि गंभीर निर्जलीकरण के कारण होती है, के परिणामस्वरूप सभी क्रियाएं पीड़ादायक हो जाती हैं। कमज़ोर शरीर के कारण बीमारियां होना साधारण है। उदाहरण के लिए, फंगस प्रायः भोजन नली के अन्दर विकसित होने लगता है, जिससे कि कुछ भी निगलना बहुत ही कष्टदायक हो जाता है। भुखमरी से होने वाली ऊर्जा की स्वाभाविक कमी के कारण थकावट होती है और ऊर्जा की यह कमी लम्बे समय तक रहने पर पीड़ित व्यक्ति को उदासीन बना देती है। क्यूंकि भुखमरी से पीड़ित व्यक्ति इतना कमज़ोर हो जाता है कि वह खाने और हिलने में भी असमर्थ हो जाता है और फिर अपने चारों और के वातावरण से उसका पारस्परिक सम्बन्ध भी कम होने लगता है। वह व्यक्ति रोगों से लड़ने में भी असमर्थ हो जाता है और महिलाओं में मासिकधर्म भी अनियमित हो जाता है। जब भोजन ग्रहण करना बंद हो जाता है तो, शरीर द्वारा संचित ग्लाइकोजेन 24 घंटे में समाप्त हो जाता है।[कृपया उद्धरण जोड़ें] संचारित इंसुलिन का स्तर कम हो जाता है और ग्लूकागोन का स्तर अत्यधिक बढ जाता है। ऊर्जा उत्पादन का प्रमुख साधन लिपोलिसिस होता है। ग्लुकोजेनेसिस ग्लिसरौल को ग्लुकोज़ में बदल देता है और कोरी साइकिल लेक्टेट को प्रयोग योग्य गुओकोज़ में बदल देता है। ग्लुकोजेनिसिस में दो ऊर्जा प्रणालियां कार्य करती है:प्रोटियोलिसिस, पाइरुवेट द्वारा बनायीं गयी एलानाइन और लेक्टेट देता है, जबकि एसिटिल CoA घुलनशील पोषक तत्त्व (कीटोन समूह) बनता है, जिनकी जांच मूत्र द्वारा की जा सकती है और यह मस्तिष्क द्वारा ऊर्जा के स्त्रोत के रूप में प्रयोग किये जाते हैं। इंसुलिन प्रतिरोध की शब्दावली में, भुखमरी की अवस्था में मस्तिष्क के लिए उपलब्ध ग्लुकोज़ से अधिक ग्लुकोज़ बनने लगता है। भुखमरी से पीड़ित रोगियों का उपचार संभव है, लेकिन यह अत्यंत सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए जिससे रीफीडिंग सिंड्रोम से बचा जा सके.[3] किसी व्यक्ति के लिए, रोकथाम में स्वाभाविक रूप से अधिक भोजन लेना सम्मिलित है, इस भोजन में इतनी विविधता हो कि वह पोषण की दृष्टि से एक संपूर्ण आहार हो. एक संभावित भुखमरी से पीड़ित व्यक्ति के सामने बैठकर उसे भोजन कराना, उन सामाजिक व्यवस्थाओं के प्रति आवाज़ उठाना जिसके कारण लोगों को भोजन से वंचित रखा जाता है, आदि अधिक जटिल मामले हैं। खाद्य असुरक्षा वाले क्षेत्रों में मुफ्त और अनुदानिक बीज व् खाद उपलब्ध करा कर किसानों की सहायता करने से फसल बढेगी और दामों में कमी आएगी.[4] मलावी में, 13 मिलियन में से लगभग 5 मिलियन लोगों को अविलम्ब भोजन सहायता की ज़रुरत है। हालांकि सरकार द्वारा किये गए फसल आंकलन के अनुसार, 2006 और 2007 में अच्छी वर्षा के द्वारा सहयोग प्राप्त गहन खाद्य अनुदान और बीज अनुदान, जो कि खाद अनुदान की तुलना में कम था, से किसानों को मक्के की अभूतपूर्व फसल उगाने में सहायता मिली. सरकार ने सूचित किया कि मक्के की फसल 2005 में 1.2 मिलियन मीट्रिक टन (mmt) से बढकर 2006 में 2.7 mmt और 2007 में 3.4 mmt हो गयी। इस पैदावार से खाद्य पदार्थों के दाम घट गए और खेतों में मजदूरी करने वाले किसानों की मजदूरी बढ गयी, जिससे गरीबों की मदद हुई. मलावी खाद्य पदार्थों का एक प्रमुख निर्यातक हो गया, वह संयुक्त राष्ट्रों और विश्व खाद्य कार्यक्रम को दक्षिणी अफ्रीका के अन्य किसी भी देश की तुलना में सर्वाधिक मक्का विक्रय करने लगा. नियमों में किये गए इस परिवर्तन (विश्व बैंक द्वारा बनाया गया कानून) से 20 वर्षों पूर्व तक, मलावी से धनी कुछ देश जोकि विदेशी सहायता पर निर्भर थे, वे मुक्त बाज़ार नियमों के नाम पर बारबार इस पर खाद्य अनुदानों को कम करने या समाप्त करने के लिए दबाव डाल रहे थे। संयुक्त राज्य और यूरोप द्वारा अपने किसानों को व्यापक अनुदान दिए जाने के बावजूद भी यह हो रहा था। हालांकि सब तो नहीं किन्तु फिर भी इसके अधिकांश किसान बाज़ार के दामों पर खाद ले पाने में असमर्थ हैं। किसानों की मदद के प्रस्तावकों में अर्थशास्त्री जेफ्री साक्स भी शामिल हैं, जिन्होनें इस विचार की हिमायत की कि धनी राष्ट्रों को अफ्रीका के किसानों के लिए खाद और बीजों पर निवेश करना चाहिए. ऊन्होने ही मिलेनियम विलेज प्रोजेक्ट (MVP) का विचार रखा, जो योग्य किसानों को बीज, खाद और प्रशिक्षण प्रदान करेगा. केन्या के एक गांव में, इस नियम के अनुप्रयोग के फलस्वरूप उसकी मक्के की फसल तिगुनी हो गयी, जबकि इससे पहले उस गांव में भुखमरी का एक चक्र बीत चुका था। कई संगठन भिन्न भिन्न क्षेत्रों में भुखमरी को घटाने में अत्यंत प्रभावी रहे हैं। सहायता संस्थाएं लोगों को सीधे मदद देती हैं, जबकि राजनीतिक संगठन राजनीतिज्ञों पर वृहद् स्तरीय नियमों को बनाने के लिए दबाव डालती हैं जोकि अकालों की आवृत्ति को कम कर सकें और सहायता दे सकें. 2007 में 923 मिलियन लोग अल्पपोषित के रूप में प्रतिवेदित किये गए, यह 1990-92 की तुलना में 80 मिलियन की बढ़त थी।[5] यह भी सूचित किया गया कि विश्व पहले ही इतने खाद्यान्न का उत्पादन करता है कि जिससे विश्व की पूरी जनसंख्या का पेट भरा जा सकता है-विश्व की कुल जनसंख्या- 6 बिलियन है - जबकि इसके दोगुने लोगों का पेट भरने के लिए खाद्यान्न पैदा होता है- 12 बिलियन लोग.[6] हालांकि कृषि अब काफी हद तक अपूर्य खनिज ईधनों और ताजेपानी के जलायाशों के अधिकाधिक प्रयोग पर निर्भर है; इस्तियुतो नेज़िओनेल देला न्यूट्रीजियोन, रोम के एक वरिष्ठ शोधकर्ता और कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के कॉलेज ऑफ़ लाइफ साइंस एंड एग्रीकल्चर के एक प्रोफेसर ने, अधिकतम वैश्विक जनसंख्या के लगभग 2 बिलियन होने का अनुमान लगाया, यदि यह विशिष्ट रूप से मात्र नवीकरणीय स्त्रोतों पर निर्भर करे तो.[7] (देखें विश्व जनसंख्या और कृषि संबंधी संकट) इतिहास के अनुसार, भुखमरी का प्रयोग मृत्युदंड के रूप में किया जाता था। मानव सभ्यता की शुरुआत से लेकर मध्य युग तक, लोगों को बंद कर दिया जाता था या चार दीवारों में कैद कर दिया जाता था और वो भोजन के अभाव में मर जाते थे। प्राचीन ग्रेको-रोमन सभ्यता में, भुखमरी का प्रयोग कभी कभी ऊंचे दर्जे के दोषी नागरिकों से छुटकारा पाने के लिए भी किया जाता था, खासतौर पर रोम के कुलीन वर्ग की महिलाओं के गलत आचरण के सम्बन्ध में. उदहारण के लिए, 31 वें वर्ष के दौरान, टिबेरियस की भांजी और बहू लिविला को सैजनुस के साथ व्यभिचार पूर्ण सम्बन्ध होने और अपने पति कनिष्ठ द्रुसास की हत्या में सहपराधिता के लिए गुप्त रूप से उसकी मां द्वारा भूख से तड़पा कर मार डाला गया था। टिबेरियास की एक अन्य बहु, जिसका नाम एग्रिपिना द एल्डर (ज्येष्ठ एग्रिपिना) था (अगस्तस की पोती और कैलिग्युला की मां) भी 33 ईपू (AD) भुखमरी के कारण मर गयी थी। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि उसने इस प्रकार भूख से मरने का निर्णय स्वयं लिया था। एग्रिपिना के एक बेटे और बेटी को भी राजनीतिक कारणों के चलते भूख से मार डालने की सजा दी गयी थी; उसका दूसरा बेटा द्रुसास सीज़र, 33 ईपू (AD) में कारागार में डाल दिया गया था और टिबेरियस की आज्ञा द्वारा उसे भूख से तड़पा कर मार डाला गया था (वह 9 दिनों तक अपने बिस्तर में भरे सामान को चबाकर जीवित रहा था); एग्रिपिना की सबसे छोटी बेटी, जूलिया लिविला, को अपने चाचा, सम्राट क्लौडियस, द्वारा 41 वें वर्ष में देशनिकाला देकर एक द्वीप पर छोड़ दिया गया था और इसके कुछ समय बाद ही सम्राज्ञी मेसलिना द्वारा उसे भूख से तड़पा कर मार डालने की व्यवस्था कर दी गयी थी। यह भी संभव है कि पवित्र कुंवारियों को ब्रह्मचर्य का संकल्प तोड़ने का दोषी पाए जाने पर भुखमरी की सजा दी जाती हो. 19वीं शताब्दी में युगोलिनो डेला घेरार्देस्का, उनके बेटे और परिवार के अन्य सदस्यों को मुदा में, जो कि पीसा का एक बुर्ज़ है, में बंद कर दिया गया था और उन्हें भूख से तड़पा कर मार डाला गया था। उनके समकालीन, डेन्टे, ने अपनी उत्कृष्ट कृति डिवाइन कॉमेडी में घेरार्देस्का के बारे में लिखा है। 1317 में स्वीडेन में, स्वीडेन के राजा बिर्गर ने अपने दोनों भाईयों को एक घातक कार्य, जो उन्होंने कई वर्षों पहले किया था, के लिए कारावास में डलवा दिया था। (Nyköping Banquet) कुछ सप्ताह बाद, वह भूख के कारण मर गए। 1671 में कॉर्नवल में, सेंट कोलम्ब मेजर के जॉन ट्रेहेंबेन को दो लड़कियों की हत्या के लिए कैसल ऍन दिनस में एक पिंजरे में भूख से मरने की सज़ा देकर दण्डित किया गया था। एक पोलैंड वासी धार्मिक भिक्षु, मेक्सिमिलन कोल्बे, ने औशविज़ केंद्रीकरण शिविर में एक अन्य कैदी, जिसे मृत्यु की सजा दी गई थी, को बचाने के लिए अपनी मृत्यु का प्रस्ताव रखा. उसे अन्य 9 कैदियों के साथ भूख से तड़पा कर मार डाला गया। दो सप्ताह तक भूख से तड़पने के बाद, सिर्फ कोल्बे और दो अन्य कैदी जीवित रह गए थे और उने फिनॉल की सूई लगाकर प्राणदंड दिया गया। एडगर एलेन पो ने इटली में एक सभ्य व्यक्ति को बंदी बनाये जाने पर एक लघु कथा, द कैस्क्यु ऑफ़ अमौन्तिलेडो लिखी थी। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 25°27′N 81°51′E / 25.45°N 81.85°E / 25.45; 81.85 शेरडीह फूलपुर, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। सिरोली कुकराड, सल्ट तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। नागराज एक संस्कृत शब्द है जो कि नाग तथा राज (राजा) से मिलकर बना है अर्थात नागों का राजा। यह मुख्य रुप से तीन देवताओं हेतु प्रयुक्त होता है - अनन्त (शेषनाग), तक्षक तथा वासुकि। अनन्त, तक्षक तथा वासुकि तीनों भाई महर्षि कश्यप, तथा उनकी पत्नी कद्रु के पुत्र थे जो कि सभी साँपों के जनक माने जाते हैं। मान्यता के अनुसार नाग का वास पाताललोक में है। सबसे बड़े भाई अनन्त भगवान विष्णु के भक्त हैं एवं साँपों का मित्रतापूर्ण पहलू प्रस्तुत करते हैं क्योंकि वे चूहे आदि जीवों से खाद्यान्न की रक्षा करते हैं। भगवान विष्णु जब क्षीरसागर में योगनिद्रा में होते हैं तो अनन्त उनका आसन बनते हैं तथा उनकी यह मुद्रा अनन्तशयनम् कहलाती है। अनन्त ने अपने सिर पर पृथ्वी को धारण किया हुआ है। उन्होंने भगवान विष्णु के साथ रामायण काल में राम के छोटे भाई लक्ष्मण तथा महाभारत काल में कृष्ण के बड़े भाई बलराम के रुप में अवतार लिया। इसके अतिरिक्त रामानुज तथा नित्यानन्द भी उनके अवतार कहे जाते हैं। छोटे भाई वासुकि भगवान शिव के भक्त हैं, भगवान शिव हमेशा उन्हें गर्दन में पहने रहते हैं। तक्षक साँपों के खतरनाक पहलू को प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि उनके जहर के कारण सभी उनसे डरते हैं। देवभूमि उत्तराखण्ड में नागराज के छोटे-बड़े अनेक मन्दिर हैं। वहाँ नागराज को आमतौर पर नागराजा कहा जाता है। सेममुखेम नागराज उत्तराखण्ड का सबसे प्रसिद्ध नागतीर्थ है। यह उत्तराकाशी जिले में है तथा श्रद्धालुओं में सेम नागराजा के नाम से प्रसिद्ध है। एक अन्य प्रसिद्ध मन्दिर डाण्डा नागराज पौड़ी जिले में है। तमिलनाडु के जिले के नागरकोइल में नागराज को समर्पित एक मन्दिर है। इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रसिद्ध मन्दिर मान्नारशाला मन्दिर केरल के अलीप्पी जिले में है। इस मन्दिर में अनन्त तथा वासुकि दोनों के सम्मिलित रुप में देवता हैं। केरल के तिरुअनन्तपुरम् जिले के पूजाप्पुरा में एक नागराज को समर्पित एक मन्दिर है। यह पूजाप्पुरा नगरुकावु मन्दिर के नाम से जाना जाता है। इस मन्दिर की अद्वितीयता यह है कि इसमें यहाँ नागराज का परिवार जिनमें नागरम्मा, नागों की रानी तथा नागकन्या, नाग राजशाही की राजकुमारी शामिल है, एक ही मन्दिर में रखे गये हैं। } निर्देशांक: 27°13′N 79°30′E / 27.22°N 79.50°E / 27.22; 79.50 तेरा रब्बू छिबरामऊ, कन्नौज, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। जालौन भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश का एक जिला है। जिले का मुख्यालय orai उरई है। क्षेत्रफल - वर्ग कि.मी. जनसंख्या - 14,54,000 (2001 जनगणना) साक्षरता - एस. टी. डी (STD) कोड - ०५१६२ (05162) जिलाधिकारी - RAM GANESH (वर्तमान में) समुद्र तल से उचाई - अक्षांश - उत्तर देशांतर - पूर्व औसत वर्षा - मि.मी. पिन : २८५००१ स्यूडा N.Z.A., नैनीताल तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के नैनीताल जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 25°09′N 85°27′E / 25.15°N 85.45°E / 25.15; 85.45 सबौरा ३ बरौनी, बेगूसराय, बिहार स्थित एक गाँव है। भास्विकाम्ल (फोस्फोरिक अम्ल) एक अकार्बनिक यौगिक है। इसका रासायनिक सूत्र H3PO4 है। इसके प्रयोग से जंग लगी वस्तुओं को साफ किया जाता है क्योंकि जंग इसमें घुल जाता है। दंतचिकित्सक इसका प्रयोग दांतो को साफ करने में करते हैं। प्राचीन भारत में अनेकों कलाएं प्रचलित थीं। उनके अंश आज देखने को मिलते हैं। इनमें से कुछ निम्न हैं:- सिन्धु कला । वैदिक कला । मौर्य कला । मौर्यकालीन स्थापत्य या वास्तु कला । हुलणकोटवल्ला, गैरसैण तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के चमोली जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 25°09′N 85°27′E / 25.15°N 85.45°E / 25.15; 85.45 सिहमन करारी मतिहानी, बेगूसराय, बिहार स्थित एक गाँव है। शिकोमोर भाषा कोमोरोस में व्यापक रूप से प्रयुक्त होने वाली भाषा है। यह स्वाहीली बोलियों का एक समूह है लेकिन इसपर अरबी भाषा का प्रभाव मानक स्वाहीली से कहीं अधिक है। प्रत्येक द्वीप की अपनी बोली है; जैसे अञ्जोउन की शिन्दज़ुआनी, मोहेली की शिम्वाली, मायोत की शिमाओरे और ग्रान्द कोमोरे की शिंगाज़िजा। १९९२ तक इसकी कोई लिपि नहीं थी, लेकिन अरबी और लातिन दोनों लिपियाँ उपयोग में थीं। शिमासिवा, शिकोमोर भाषा का एक और नाम है, जिसका अर्थ है "द्वीपों की भाषा"। यह यहाँ के राष्ट्रगान उद्ज़िमा वा या मासिवा की भाषा है। उदाहरण पर आधारित मशीनी अनुवाद यांत्रिक अनुवाद की एक प्रमुख विधि है। इस विधि से अनुवाद करते समय समान्तर पाठ से युक्त द्विभाषी शब्दसंग्रह (bilingual corpus) का उपयोग होता है। वास्तव में यह अनुवाद अनुरूपता (analogy) का सहारा लेकर किया जाता है। तौणजी, पोखरी तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के चमोली जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 27°13′N 79°30′E / 27.22°N 79.50°E / 27.22; 79.50 मुडिया छिबरामऊ, कन्नौज, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। लोईंग रायगढ मण्डल में भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के अन्तर्गत रायगढ़ जिले का एक गाँव है। शीर्षपाद या सेफैलोपोडा (Cephalopoda) अपृष्ठवंशी प्राणियों का एक सुसंगठित वर्ग जो केवल समुद्र ही में पाया जाता है। यह वर्ग मोलस्का (mollusca) संघ के अंतर्गत आता है। इस वर्ग के ज्ञात जीवित वंशों की संख्या लगभग १५० है। इस वर्ग के सुपरिचित उदाहरण अष्टभुज (octopus), स्क्विड (squid) तथा कटल फिश (cuttlefish) हैं। सेफैलोपोडा के विलुप्त प्राणियों की संख्या जीवितों की तुलना में अधिक है। इस वर्ग के अनेक प्राणी पुराजीवी (palaeozoic) तथा मध्यजीवी (mesozoic) समय में पाए जाते थे। विलुप्त प्राणियों के उल्लेखनीय उदाहरण ऐमोनाइट (Ammonite) तथा बेलेम्नाइट (Belemnite) हैं। सेफैलोपोडा की सामान्य रचनाएँ मोलस्का संघ के अन्य प्राणियों के सदृश ही होती हैं। इनका आंतरांग (visceral organs) लंबा और प्रावार (mantle) से ढका रहता है। कवच (shell) का स्राव (secretion) प्रावार द्वारा होता है। प्रावार और कवच के मध्य स्थान को प्रावार गुहा (mantle cavity) कहते हैं। इस गुहा में गिल्स (gills) लटकते रहते हैं। आहार नाल में विशेष प्रकार की रेतन जिह्वा (rasping tongue) या रैड्डला (redula) होता है। सेफोलोपोडा के सिर तथा पैर इतने सन्निकट होते हैं कि मुँह पैरों के मध्य स्थित होता है। पैरों के मुक्त सिरे कई उपांग (हाथ तथा स्पर्शक) बनाते हैं। अधिकांश जीवित प्राणियों में पंख (fins) तथा कवच होते हैं। इन प्राणियों के कवच या तो अल्प विकसित या ह्रसित होते हैं। इस वर्ग के प्राणियों का औसत आकार काफी बड़ा होता है। अर्किट्यूथिस (architeuthis) नामक वंश सबसे बड़ा जीवित अपृष्ठवंशी है। इस वंश के प्रिंसेप्स (princeps) नामक स्पेशीज की कुल लंबाई (स्पर्शक सहित) ५२ फुट है। सेफैलोपोडा, ह्वेल (whale), क्रस्टेशिआ (crustacea) तथा कुछ मछलियों द्वारा विशेष रूप से खाए जाते हैं। नाटिलॉइड (nautiloids) तथा ऐमोनाइट संभवत: उथले जल में समुद्र के पास रहते थे। रक्षा के लिए इनके शरीर के ऊपर कैल्सियमी कवच होता था। इनकी गति (movement) की चाल (speed) संभवत: नगण्य थी। वर्तमान नाटिलस (nautilus) के जीवन में ये सभी संभावनाएँ पाई जाती हैं। डाइब्रैंकिया (dibranchia) इसके विपरीत तेज तैरने वाले हैं। इनके बाह्य संगठन के कुछ मुख्य लक्षण इस प्रकार हैं। सभी सेफौलोपोडा में तंत्रिका तंत्र के मुख्य गुच्छिका (gangleon) के ऊपर आंतरिक उपास्थि का आवरण रहता है। डाइब्रैंकिआ उपवर्ग में यह आवरण अधिक विकसित होकर करोटि सदृश रचना बनाता है। इस उपवर्ग में करोटि सदृश रचना के अतिरिक्त पेशियों के कंकाली आधार भी पंख, ग्रीवा, गिल हाथ आदि पर होते हैं। ये प्राणियों को अधिक गतिशीलता प्रदान करते हैं। सेफैलोपोडा के आहार तंत्र में पेशीय मुख्य गुहा जिसमें एक जोड़े जबड़े तथा कर्तन जिह्वा, ग्रसिका, लाला ग्रंथि (Salivary gland), आमाशय, अंधनाल, यकृत तथा आंध्र होते हैं। कुशल चर्णण का कार्य शक्तिशाली जबड़ों तथा रेतन जिह्वा के दाँतों द्वारा होता है। रेतन जिह्वा किसी-किसी सेफैलोपोडा में नहीं होती। डाइब्रैंकिआ के लगभग सभी प्राणियों में गुदा के करीब आंत्र का एक अधवर्ध (diverticulum) होता है, जिसमें एक प्रकार के गाढ़े द्रव जिसे सीपिआ (Sepia) या स्याही कहते हैं, स्रवण होता है। प्राणियों द्वारा इसके तेज विसर्जन से जल में गहरी धुँधलाहट उत्पन्न होती है। इससे प्राणी अपने शत्रु से अपना बचाव करता है। सेफैलोपोडा में ये तंत्र सर्वाधिक विकसित होते हैं। रुधिर प्रवाह विशिष्ट वाहिकाओं द्वारा होता है। डाइब्रैंकिआ में परिसंचरण तथा ऑक्सीजनीकरण का विशेष रूप से केंद्रीकरण हो जाता है। इसमें नॉटिलस की तरह चार गिल तथा चार आलिंद (auricles) के स्थान पर दो गिल तथा दो आलिंद ही होते हैं। डाइब्रैंकिआ में श्वसन के लिए प्रावार के प्रवाहपूर्ण संकुचन तथा प्रसार से जलधारा गिल के ऊपर से गुजरती है। सेफैलोपोडा के गिल पर (feather) की तरह होते हैं। नाइट्रोजनी उत्सर्ग का उत्सर्जन वृक्क द्वारा होता है। यकृत जो अन्य मोलस्का में पाचन के साथ-साथ उत्सर्जन का भी कार्य करता है, इसमें केवल पाचन का ही कार्य करता है। नॉटिलस में वृक्क चार तथा डाइब्रैंकिआ में दो होते हैं। सेफैलोपोडा का मुख्य गुच्छिका केंद्र सिर में स्थित होता है तथा गुच्छिकाएँ बहुत ही सन्निकट होती हैं। केंद्रीय तंत्रिका का इस प्रकार का संघनन पाया जाता है। सेफैलोपोडा की ज्ञानेंद्रियां आँखें, राइनोफोर (Rhinophore) या घाण अंग, संतुलन पट्टी (तंत्रिका-नियंत्रण-अंग) तथा स्पर्शक रचनाएँ आदि हैं। डाइब्रैंकिआ की आँखें जटिल तथा कार्यक्षमता की दृष्टि से पृष्ठवंशियों की आँखों के समान होती हैं। सेफैलोपोडा में लिंगभेद पाया जाता है। उभयलिंगी प्राणी इस वर्ग में नहीं पाए जाते हैं। लैंगिक द्विरूपता (sexual dimorphism) विकसित होती है। वेलापवर्ती (Pelagic) ऑक्टोपोडा (Octopoda) मे नर, मादा की तुलना में अत्यधिक छोटा होता है। कटलफिश के नर की पहचान उसके पंख की लंबी पूँछ सदृश रचना से की जाती है। लगभग सभी सेफैलोपोडा के नरों में एक या दो जोड़े उपांक 'मैथुन अंग' में परिवर्तित हो जाते हैं। नर जनन तंत्र मादा की अपेक्षा अधिक जटिल होता है। नर सुक्राणुओं को एक नलिका सदृश रचना या शुक्राणुधर (Spermatophore) में स्थानांतरित करता है। वे शक्राणुधर विशेष कोश में स्थित रहते हैं। ये नलिकाएँ मादा के मुँह के समीप जैसा नाटिलस, सीपिआ (sepia), लॉलिगो (loligo) आदि में होता है अथवा मैथुन अंगों की सहायता से प्रावार गुहा में निक्षेपित कर दी जाती है जैसे अष्टभुज में। अष्टभूज के एक उपांग का मुक्त सिरा साधारण चम्मच सदृश रचना में परिवर्तित होकर मैथुन अंग बनाता है। डेकापोडा (Decapoda) से विभिन्न प्रकार के परिवर्तन पाए जाते हैं। इन प्राणियों में एक या एक से अधिक उपांग मैथुन अंग में परिवर्तित हो सकते हैं। त्वचा के स्थायी रंग के अतिरिक्त डाइब्रैंकिआ में संकुचनशील कोशिकाओं का एक त्वचीय तंत्र होता है। इन कोशिकाओं का रंज्यालव (Chromatophore) कहते हैं। इन कोशिकाओं में वर्णक होते हैं। इन कोशिकाओं के प्रसार तथा संकुचन से त्वचा का रंग अस्थायी तौर पर बदल जाता है। कुछ डेकापोडा में, विशेषकर जो गहरे जल में पाए जाते हैं, प्रकाश अंग (light organ) पाए जाते हैं। ये अंग प्रावार, हाथ तथा सिर के विभिन्न भागों में पाए जाते हैं। सभी सेफैलोपोडा के अंडों मं पीतक (Yolk) की असाधारण भाषा में पाई जाने के कारण अन्य मोलस्का के विपरीत इनका खडीभवन (Segmentation) संपूर्ण तथा अंडे के एक सिरे तक ही सीमित रहता है। भ्रूण का विकास भी इसी सिरे पर होता है। पीतक के एक सिरे से बाह्य त्वचा का निर्माण होता है। बाद में इसी बाह्य त्वचा के नीचे कोशिकाओं की एक चादर (sheet) बनती है। यह चादर बाह्य त्वचा के उस सिरे से बननी आरंभ होती है जिससे बाद में गुदा का निर्माण होता है। इसके बाद बाह्य त्वचा से अंदर की ओर जाने वाला कोशिकाओं से मध्यजन स्तर (mesoderm) का निर्माण होता है। यह उल्लेखनीय है कि मुँह पहले हाथों के आद्यांशों (rudiments) से नहीं घिरा रहता है। हाथ के आद्यांग उद्वर्ध (outgrowth) के रूप में मौलिक भ्रूणीय क्षेत्र के पार्श्व (lateral) तथा पश्च (posterior) सिरे से निकलते हैं। ये आद्यांग मुँह की ओर तब तक बढ़ते रहते हैं जब तक वे मुँह के पास पहुँचकर उसको चारों ओर से घेर नहीं लेते हैं। कीप एक जोड़े उद्वर्ध से बनती है। सेफैलोपोडा में परिवर्तन, जनन स्तर (germlayers) बनने के बाद विभिन्न प्राणियों में विभिन्न प्रकार का होता है। परिवर्धन के दौरान अन्य मोलस्का की भाँति कोई डिंबक अवस्था (larval stage) नहीं पाई जाती है। जीवाश्म (fossil) सेफैलोपोडा के कोमल अंगों की रचना का अल्प ज्ञान होने के कारण इस वर्ग के कैंब्रियन कल्प में प्रथम प्रादुर्भाव का दावा मात्र कवचों के अध्ययन पर ही आधारित है। इस प्रकार इस वर्ग का दो उपवर्गों डाइब्रैंकिआ तथा टेट्राब्रैंकिआ (tetrabranchia) में विभाजन नॉटिलस के गिल की रचना तथा आंतरांग लक्षणों के विशेषकों पर ही आधारित है। इस विभाज का आद्य नाटिलॉइड तथा ऐमोनाइड की रचनाओं से बहुत हु अल्प संबंध है। इसी प्रकार ऑक्योपोडा के विकास का ज्ञान, जिसमें कवच अवशेषी तथा अकैल्सियमी होता है, सत्यापनीय (varifiable) जीवाश्मों की अनुपस्थिति में एक प्रकार का समाधान है। भूवैज्ञानिक अभिलेखों द्वारा अभिव्यक्त सेपैलोपोडा के विकास का इतिहास जानने के लिए नॉटिलस के कवच का उल्लेख आवश्यक है। अपने सामान्य संगठन के कारण वह सर्वाधिक आद्य जीवित सेफैलोपोडा है। यह कवच कई बंद तथा कुंडलित कोष्ठों में विभक्त रहता है। अंतिम कोष्ठ में प्राणी निवास करता है। कोष्ठों के इस तंत्र में एक मध्य नलिका या काइफन (siphon) पहले कोष्ठ से लेकर अंतिम कोष्ठ तक पाई जाती है। सबसे पहला सेफैलोपोडा कैंब्रियन चट्टानों में पाया था। ऑरथोसेरेस (Orthoceras) में नाटिलस की तरह कोष्ठवाला कवच तथा मध्य साइफन पाया जाता है; हालाँकि यह कवच कुंडलित न होकर सीधा होता था। बाद में नॉटिलस की तरह कुंडलित कवच भी पाया गया। सिल्यूरियन (Silurion) ऑफिडोसेरेस (Ohidoceras) में कुंडलित कवच पाया गया है। ट्राइऐसिक (triassic) चट्टानों में वर्तमान नॉटिलस के कवच से मिलते-जुलते कवच पाए गए हैं। लेकिन वर्तमान नॉटिलस का कवच तृतीयक समय (Tertiary period) के आरंभ तक नहीं पाया गया था। इस संक्षिप्त रूपरेखा सेफैलोपोडा के विकास की प्रथम अवस्था का संकेत मिल जाता है। यदि हम यह मान लें कि मोलस्का एक सजातीय समूह है, तो यह अनुमान अनुचित न होगा कि आद्य मोलस्का में, जिनसे सेफैलोपोडा की उत्पत्ति हुए हैं। साधारण टोपी के सदृश कवच होता था। इनसे किन विशेष कारणों या तरीकों द्वारा सेफैलोपोडा का विकास हुआ, यह स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है। सर्वप्रथम आद्य टोपी सदृश कवच के सिर पर चूनेदार निक्षेपों के कारण इसका दीर्घीकरण होना आरंभ हुआ। प्रत्येक उत्तरोत्तर वृद्धि के साथ आंतरांग के पिछले भाग से पट (Septum) का स्रवण होता गया। इस प्रकार नॉटिलाइड कवच का निर्माण होने का भय था। गैस्ट्रोपोडा (Gastropoda) में इन्हीं नुकसानों से बचने के कवच लिए कुंडलित हो गया। वर्तमान गेस्ट्रोपोडा में कुंडलित कवच ही पाए जाते हैं। डाइब्रैंकिएटा उपवर्ग के आधुनिक स्क्विड, अष्टभुज तथा कटलफिश में आंतरिक तथा हृसित कवच होता है। इसी आधार पर ये नॉटिलॉइड से विभेदित किए जाते हैं। इस उपवर्स में मात्रा स्पाइरूला (Spirula) ही ऐसा प्राणी है जिसमें आंशिक बाह्य कवच होता है। डाइब्रैंकिआ के कवच की विशेष स्थिति प्राय: द्वारा कवच की अति वृद्धि तथा कवच के चारों ओर द्वितीयक स्वच्छंद (secondary sheath) के निर्माण के कारण होती है। अंत में इस आच्छाद के अन्य स्वयं कवच से बड़े हो जाते हैं। सक्रिय तरण स्वभाव अपनाने के कारण कवच धीरे-धीरे लुप्त होता गया तथा बाह्य रक्षात्मक खोल का स्थान शक्तिशाली प्रावार पेशियों में ले लिया। इस प्रकार की पेशियों से प्राणियों को तैरने में विशेष सुविधा प्राप्त हुई। साथ ही साथ नए अभिविन्यास (orientation) के कारण प्राणियों के गुरुत्वाकर्षण केंद्र के पुन: समजन की भी आवश्यकता पड़ी क्योंकि भारी तथा अपूर्ण अंतस्थ कवच क्षैतिज गति में बाधक होते हैं। जीवित अष्टभुजों में कवच का विशेष स्थूलीकरण हो जाता है। इनमें कवच एक सूक्ष्म उपास्थिसम शूकिका (cartilagenous stylet) या पंख आधार जिन्हें 'सिरेटा' (cirreta) कहते हैं, के रूप में होता है। ये रचनाएँ कवच का ही अवशेष मानी जाती है। यद्यपि विश्वासपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता है कि ये कवच के ही अवशेष हैं। वास्तव में इस समूह के पूर्वज परंपरा (ancestory) की कोई निश्चित जानकारी अभी तक उपलब्ध नहीं है। सेफैलोपोडा के सभी प्राणी केवल समुद्र में ही पाए जाते हैं। इन प्राणियों के अलवण या खारे जल में पाए जाने का कोई उत्साहजनक प्रमाण नहीं प्राप्त हैं। यद्यपि कभी-कभी ये ज्वारनज मुखों (estuaries) तक आ जाते हैं फिर भी ये कम लवणता को सहन नहीं कर सकते हैं। जहाँ तक भौगोलिक वितरण का प्रश्न है कुछ वंश तथा जातियाँ सर्वत्र पाई जाती हैं। क्रैंचिआस्कैब्रा (Cranchiascabra) नामक छोटा सा जीव ऐटलैंटिक, हिंद तथा प्रशांत महासागरों में पाया जाता है। सामान्य यूरोपीय ऑक्टोपस वलगेरिसश् (Octopus vulgaris) तथा ऑक्टोपस मैक्रापस (O. macropus) सुदूर पूर्व में भी पाए जाते हैं। साधारणतया यह कहा जा सकता है कि वंशों तथा जातियों का वितरण उसी प्रकार का है जैसा अन्य समुद्री जीवों के बड़े वर्गों में होता है। बहुत सी भूमध्यसागरीय जातियाँ दक्षिणी ऐटलैंटिक तथा इंडोपैसेफिक क्षेत्र में पाई जाती है। छोटा सा भंगुर क्रैंचिआस्कैब्रा प्रौढ़ावस्था में प्ल्वकों की तरह जीवन व्यतीत करता है अर्थात् यह पानी की धारा के साथ अनियमित रूप से इधर-उधर होता रहता है। ऑक्टोपोडा मुख्यत: समुद्र तल पर रेंगते अथवा तल से कुछ ऊपर तैरते हैं। कुछ जातियाँ समुद्र तल पर ही सीमित न होकर मध्य गहराई में भी पाई जाती है। यद्यपि ऑक्टोपोडा के कुल मुख्यत: उथले जल में ही पाए जाते हैं परंतु कुछ नितांत गहरे जल में भी पाए जाते हैं। जनन ऋतु का इन प्राणियों के वितरण पर विशेष प्रभाव पड़ता है। सामान्य कटल फिश (सीपिआ ऑफिसिनेलिस- Sepia officinalis) वसंत तथा गरमी में प्रजनन के लिए उथले तटवर्ती जल में आ जाते हैं। इस प्रकार के प्रवास (migration) अन्य प्राणियों में भी पाए जाते हैं। सेफैलोपोडा की मैथुन विधि विशेष रूप से ज्ञात नहीं है। सीपिआ, लॉलिगो (Loligo) आदि के संबंध में यह कहा जाता है कि इनके प्रकाश अंग लैंगिक प्रदर्शन का काम करते हैं। लैंगिक द्विरूपता (sexual dimorphism) नियमित रूप से पाई जाती हैं। अधिकांश सेफैलोपोडा द्वारा अंडे तटवर्ती स्थानों पर दिए जाते हैं। ये अंडे अकेले अथवा गुच्छों में होते हैं। वेलापवर्ती (pelagic) जीवों में अंडे देने की विधि कुछ जीवों को छोड़कर लगभग अज्ञात है। अधिकांश सेफैलोपोडा मांसाहारी होते हैं तथा मुख्यत: क्रस्टेशिआ (crustacea) पर ही जीवित रहते हैं। छोटी मछलियाँ तथा अन्य मोलस्का आदि भी इनके भोजन का एक अंग हैं। डेक्रापोडा (Decapoda) की कुछ जातियाँ छोटे-छोटे कोपेपोडा (copepoda) तथा टेरोपोडा (pteropoda) आदि को भी खाती हैं। सेफैलोपोडा; ह्वेल (whale), शिंशुक (porpoises), डॉलफिन (dolphin) आदि द्वारा खाए जाते हैं। सेफैलोपोडा मनुष्यों के लिए महत्वपूर्ण जीव हैं। मनुष्यों की कुछ जातियों द्वारा ये खाए भी जाते हैं। दुनिया के कुछ भाग में सेफैलोपोडा मछलियों को पकड़ने के लिए चारे के रूप में प्रयुक्त होते हैं। नियमित रूप से इन प्राणियों के खाने वाले लोगों के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है परंतु अधिकांश मांसाहारियों द्वारा ये कभी-कभी ही खाए जाते हैं। सेफैलोपोडा से कटल बोन (cuttle bone) नामक एक महत्वपूर्ण वस्तु निकाली जाती थी तथा आदिम जातियों द्वारा कोढ़ तथा हृदय की बीमारियों में प्रयुक्त होती थी। सेफैलोपोडा का प्रथम अध्ययन अरस्तू द्वारा शुरू किया गया था। उसने इस समूह पर अपना विशेष ध्यान केंद्रित किया था। सेफैलोपोडा के आधुनिक आकृति विज्ञान (morphology) का अध्ययन कूवियर (Cuvier) के समय से शुरू हुआ। सर्वप्रथम कूवियर ने ही इन प्राणियों के समूह का नाम सेफैलोपोडा रखा। इंटरनेट पर जब कोई वेब पेज खोलते हैं तो कंप्यूटर पर दर्ज छोटा टैक्स्ट होता है जिसे कुकी कहते हैं। इसका उपयोग हमारी प्राथमिकताओं को हमारे कंप्यूटर पर स्मरण रखने और फिर से उसी वेब पेज के खुलने पर ब्राउजिंग गतिविधियों को देखने के लिए किया जाता है। कुकी से वर्चुअल शॉपिंग कार्ट्स, पेज कस्टमाइजेशन और विज्ञापनों में मदद मिलती है। ये कोई प्रोग्राम नहीं होते और कंप्यूटर को क्षति भी नहीं पहुंचाते। क्योगा झील (अंग्रेज़ी: Lake Kyoga या Lake Kioga) अफ़्रीका के युगान्डा देश में स्थित एक बड़े आकार की लेकिन कम गहराई वाली झील है। १,७२० वर्ग किमी के क्षेत्रफल वाली यह झील १,०३४ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। नील नदी की विक्टोरिया नील नामक ऊपरी शाखा विक्टोरिया झील से निकलती है और क्योगा झील से गुज़रती हुई ऐल्बर्ट झील तक जाती है। क्योगा झील वैसे तो पूर्वी अफ़्रीकी दरार में स्थित है और महान अफ़्रीकी झीलों के क्षेत्रमंडल में ही पड़ती है, लेकिन इसका आकार इतना विशाल नहीं है कि इसे स्वयं महान अफ़्रीकी झीलों में से एक गिना जाए।[1] ऐफ़्रोडाइटी (अंग्रेज़ी : en:Aphrodite, यूनानी : आफ्रोदितै ) प्राचीन यूनानी धर्म की प्रमुख देवियों में से एक थीं। वो प्रेम, ख़ूबसूरती और संभोग की देवी थीं। उनको बेहद ख़ूबसूरत माना जाता था और मिथकों के अनुसार उनकी उत्पत्ति युवतीरूप में ही समुद्र से हुई थी। प्राचीन रोमन धर्म में उनकी समतुल्य देवी थीं वीनस। निर्देशांक: 28°45′53″N 76°46′03″E / 28.76465°N 76.767547°E / 28.76465; 76.767547 गढ़ी साँपला किलोई विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र, हरियाणा हरियाणा के रोहतक जिले में स्थित एक विधान सभा क्षेत्र है। यह रोहतक लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। इस क्षेत्र के वर्तमान विधायक भूपेन्द्र सिंह हुड्डा हैं। अकादमी, मूलतः प्राचीन यूनान में एथेंस नगर में स्थित एक स्थानीय वीर 'अकादेमस' के व्यक्तिगत उद्यान का नाम था। कालांतर में यह वहाँ के नागरिकों को जनोद्यान के रूप में भेंट कर दिया गया था और उनेक लिए खेल, व्यायाम, शिक्षा और चिकित्सा का केंद्र बन गया था। प्रसिद्ध दार्शनिक अफलातून (प्लेटो) ने इसी जनोद्यान में एथेंस के प्रथम दर्शन विद्यापीठ की स्थापना की। आगे चलकर इस विद्यापीठ को ही अकादमी कहा जाने लगा। एथेंस की यह एक ही ऐसी संस्था थी जिसमें नगरवासियों के अतिरिक्त बाहर के लोग भी सम्मिलित हो सकते थे। इसमें विद्या देवियों (म्यूज़ेज़) का एक मंदिर था। प्रति मास यहाँ एक सहभोज हुआ करता था। इसमें संगमरमर की एक अर्धवृताकार शिला थी। कदाचित् इसी पर से अफलातून और उनके उत्तराधिकारी अपने सिद्धांतों और विचारों का प्रसार किया करते थे। गंभीर संवाद एवं विचार विनिमय की शैली में वहाँ दर्शन, नीति, शिक्षा और धर्म की मूल धारणाओं का विश्लेषण होता था। एक, अनेक, संख्या, असीमता, सीमाबद्धता, प्रत्यक्ष, बुद्धि, ज्ञान, संशय, ज्ञेय, अज्ञेय, शुभ, कल्याण, सुखस आनंद, ईश्वर, अमरत्व, सौर मंडल, निस्सरण, सत्य और संभाव्य, ये उदाहरणतः कुछ प्रमुख विषय हैं जिनकी वहाँ व्याख्या होती थी। यह संस्था नौ सौ वर्षों तक जीवित रही और पहले धारणावाद का, फिर संशयवाद का और उसके पश्चात् समन्वयवाद का संदेश देती रही। इसका क्षेत्र भी धीरे-धीरे विस्तृत होता गया और इतिहास, राजनीति आदि सभी विद्याओं और सभी कलाओं का पोषण इसमें होने लगा। परंतु साहसपूर्ण मौलिक रचनात्मक चिंतन का प्रवाह लुप्त सा होता गया। 529 ई. में सम्राट जुस्तिनियन ने अकादमी को बंद कर दिया और इसकी संपत्ति जब्त कर ली। फिर भी कुछ काल पहले से ही यूरोप में इसी के नमूने पर दूसरी अकादमियाँ बनने लग गई थीं। इनमें कुछ नवीनता थी; ये विद्वानों के संघों अथवा संगठनों के रूप में बनीं। इनका उद्देश्य साहित्य, दर्शन, विज्ञान अथवा कला की शुद्ध हेतुरहित अभिवृद्धि था। इनकी सदस्यता थोड़े से चुने हुए विद्वानों तक सीमित होती थी। ये विद्वान बड़े पैमाने पर ज्ञान अथवा कला के किसी संपूर्ण क्षेत्र पर, अर्थात् संपूर्ण प्राकृतिक विज्ञान, संपूर्ण साहित्य, संपूर्ण दर्शन, संपूर्ण इतिहास, संपूर्ण कला क्षेत्र आदि पर दृष्टि रखते थे। प्रायः यह भी समझा जाने लगा कि प्रत्येक अकादमी को राज्य की ओर से यथासंभव संस्थापन, पूर्ण अथवा आंशिक आर्थिक सहायता, एवं संरक्षण के रूप में मान्यता प्राप्त होनी ही चाहिए। कुछ यह भी विश्वास रहा है कि विद्या के क्षेत्रों में उच्च स्तर की योग्यता बहुत थोड़े व्यक्तियों में हो सकती है और इसका समाज के धनी और वैभवशाली अंगों से मेल बना रहना स्वाभाविक तथा आवश्यक भी है। पिछले दो सहस्र वर्षों में बहुत से देशों में इन नवीन विचारों के अनुसार बनी हुई कई-कई अकादमियाँ रही हैं। अधिकांश अकादमियाँ विज्ञान, साहित्य, दर्शन, इतिहास, चिकित्सा अथवा ललित कला में से किसी एक विशेष क्षेत्र में सेवा करती रही हैं। कुछ की सेवाएँ इनमें से कई क्षेत्रों में फैली रही हैं। लोकतंत्रवादी विचारों और भावनाओं की प्रगति से अकादमी की इस धारणा में वर्तमान काल में एक नया परिवर्तन आरंभ हुआ है। आज की कुछ अकादमियाँ जनजीवन के निकट रहने का प्रयत्न करने लगी हैं, जनता की रुचियों, विचारधाराओं और कलाओं को अपनाने लगी हैं और अन्य प्रकार से जनप्रिय बनने का प्रयास करने लगी हैं। भारत में राष्ट्रीय संस्कृति ट्रस्ट द्वारा स्थापित ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और साहित्य अकादमी इस परिवर्तन की प्रतीक हैं। मीडिटेक प्राइवेट लिमिटेड गुड़गाँव, मुम्बई और बंगलौर में स्थित भारतीय टेलीविजन निर्माता कंपनी है।[1] इसकी स्थापना सन् १९९२ में दो भाइयों निरेट अल्वा और निखिल अल्वा ने की। वर्तमान में यह ₹ ५०-करोड़ टेलीविजन सॉफ्टवेयर की कंपनी और एशिया की सबसे अग्रणी स्वतंत्र निर्माता कंपनी है।[2][3] कंपनी टेलीविजन के लिए वृत्तचित्र और कार्यक्रम तैयार करती है। भाई धरम सिंह अथवा भाई धर्म सिंह (१६६६–१७०८) १७वीं सदी के भारत में ख़ालसा पंथ की शुरूआत करने वाले प्रथम पाँच सिखों पंज प्यारे में से एक थे। उनके नाम का महत्व धर्म के प्रति आस्थावान होने से है।[1] एन्टर्र १० एक हिन्दी टी वी चैनल है। यह एक हिन्दी चित्रपट एवं विज्ञापन चैनल है।  • ज़ीजागरण • आस्था टीवी • संस्कार टीवी • श्रद्धा एमेच वन सियरा लोन का ध्वज सियरा लोन का राष्ट्रीय ध्वज है। एज्हुथाचन पुरस्कार या एज्हुथाचन पुरस्कारम केरल साहित्य अकादमी, केरल सरकार द्वारा दिया जाने वाला सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान है। यह प्रति वर्ष मलयालम साहित्य के जनक 'एज्हुथाचन' के नाम पर प्रदान किया जाता है, जिसके अंतर्गत रु 1,50,000/- नकद और प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जाता है। यह पुरस्कार राशि वर्ष 2011 में रु 50,000/- से बढ़ाया गया था।[1] इस पुरस्कार की शुरुआत 1993 में हुई और पहली बार सूरानंद कुंजन पिल्लई को यह प्रदान किया गया था।[2] नैकंणा, गंगोलीहाट तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के पिथोरागढ जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। सफेद हाथी 1977 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। नितिन सक्सेना (जन्म: ३ मई १९८१, इलाहाबाद[1]) गणित एवं सैद्धांतिक संगणक विज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत एक भारतीय संगणक वैज्ञानिक है। उन्होंने मणीन्द्र अग्रवाल और नीरज कयाल के साथ मिलकर ऐकेएस पराएमीलिटी टेस्ट प्रस्तावित किया, जिसके लिए उन्हें उनके सह लेखकों के साथ प्रतिष्ठित गोडेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उल्लेखनीय रूप से यह अनुसंधान उनके अवर अध्ययन का एक हिस्सा था। वर्ष २००६ में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर के संगणक विज्ञान एवं अभियान्त्रिकी विभाग से इन्होंने पीएचडी की डिग्री प्राप्त की। इसके पहले २००२ में सक्सेना ने इसी संस्थान से अपनी स्नातक स्तर की शिक्षा पूरी की। सन् २००८ के पश्चात् सक्सेना जर्मनी के बॉन विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है। कम्प्यूटेशनल जटिलता सिद्धांत में उनके कार्य के लिए आईआईटी कानपुर ने सक्सेना को विशिष्ट छात्र पुरस्कार से पुरस्कृत किया। अफ्रीका का देश। पश्चिम अफ्रीका बेनीन • बुर्कीना फासो • केप वेर्दे • कोटे डी आईवोर • जाम्बिया • घाना • गिनी • गिनिया-बिसाउ • लाइबेरिया • माली  • मौरिशियाना • नाइजर • नाइजीरिया • सेनेगल • सियरा लियोन् • टोगो उत्तरी अफ्रीका अल्जीरिया • मिस्र1 • लीबिया • मॉरिशियाना • मोरक्को • सूडान • ट्यूनीशिया • पश्चिम सहारा मध्य अफ्रीका अंगोला • बुरुंडी • कैमरून • केन्द्रीय अफ्रीकी गणराज्य • चाड • कांगो • इक्वेटोरियल गीनिया • गैबोन • कांगो गणराज्य • रवांडा • साओ तोमे और प्रिन्सीप पूर्वी अफ्रीका बुरूंडी • कोमोरोज़ • जिबूती • ईरीट्रिया • इथियोपिया • कीनिया • दक्षिण सूडान • मैडागास्कर • मलावी • मारीशस • मोजाम्बिक • रवांडा • सेशल्स • सोमालिया • तंजानिया • युगांडा • जाम्बिया • ज़िम्बाबवे दक्षिणी अफ्रीका बोत्सवाना • लेसोथो • नामीबिया • दक्षिण अफ्रीका • स्वाजीलैंड निर्भर  |  अमान्य ब्रिटिश इंडियन ओशन टेरिटोरी संयुक्त राजशाही (ब्रिटेन) • मायोट्ट (फ्रांस) • रियूनियन (फ्रांस) • सेंट हेलेना2 संयुक्त राजशाही (ब्रिटेन)  |  कैनेरी द्वीप (स्पेन) • क्यूटा (स्पेन) • मदेईरा (पुर्तगाल) • मैलिला (स्पेन) • सोकोत्रा (यमन) • पंटलैंड • सोमालीलैंड • सहरावी अरब जनतांत्रिक गणराज्य 1 आंशिक रूप से एशिया में.  2  एशेनशिन द्वीप और त्रिस्तान दी कुन्हा निर्भर राज्य शामिल. श्रेणीःअफ्रीका श्रेणीःदेश फोन्ग न्हा-की बान्ग (वियतनामी: Vườn quốc gia Phong Nha-Kẻ Bàng) क्वान्ग बिन प्रांत, वियतनाम में एक राष्ट्रीय उद्यान है। इस उद्यान में ३०० गुफाएँ हैं, जिनकी कुल लंबाई ७० किमी है, जिसमें से ब्रिटिश और वियतनामी वैज्ञानिकों ने अब तक २० किमी तक का सर्वेक्षण कर लिया है। इस उद्यान में बहुत सी भूमिगत नदियाँ है और यहाँ बहुत जैव विविधता है। सन् २००३ में युनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थलों (प्राकृतिक धरोहर स्थल) में सूचीबद्ध किया। हरिता या मॉस (Moss) अपुष्पक पादप है। ब्रायोफाइटा वर्ग के इस प्रचलित पौधे में वास्तविक जड़ों का अभाव रहता है। यह सामान्यतः १ से १० से. मी. लम्बा होता है। यह छायादार एवं नम जगहों पर समुहों में उगता है। यह बिना जड़ का पौधा है। इसकी १२०० से अधिक जातियाँ हैं।[1] ब्रायोफाइटा के एक वर्ग मसाइ (Musci) या ब्रायोपसिडा (Bryopsida) के अंतर्गत लगभग १४००० जातियाँ पाई जाति हैं। ये पृथ्वी के हर भाग में पाए जाते हैं। ये छाया तथा सर्वथा नम स्थानों में पेड़ की छाल, चट्टानों आदि पर उगते हैं। इनके मुख्य उदाहरण स्फैग्नम (Sphagnum), (जो यूरोप के पीट में बहुत उगता है), एंड्रिया (Andreaea), फ्यूनेरिया (Funaria), पोलीट्राइकम (Polytrichum), बारवुला (Barbula) श् इत्यादि हैं। मॉस एक छोटा सा एक या दो सेमी ऊँचा पौधा हैं, इसमें जड़ों के बजाय मूलामास (Rhizoid) होते हैं जो जल तथा लवण लेने में मदद करते हैं। तना पतला, मुलायम और हरा होता है, इनपर छोटी छोटी मुलायम पत्तियाँ धनी तरह से लगी होती हैं जिसके कारण मॉस पौधों का समूह एक हरे मखमल की चटाई जैसा लगता है। प्रजनन के हेतु इन पौधों में स्त्रीधानी (Archegonium) तथा प्रधानी में नर युग्मक बनते हैं जो इसके बाहर आकर अपनी दो बाल जैसी पक्षाभिका (Celia) की मदद से पानी में तैरकर स्त्रीधानी तक पहुँचते हैं और उसके अंदर मादा युग्मक से मिल जाते हैं। गर्भाधान के पश्चात्‌ बीजाणु उद्भिव या कैप्सूल बनता है जिसके अंदर छोटे छोटे हजारों बीजाणु बनते हैं। ये बीजाणु हवा में तैरते हुए पृथ्वी पर इधर उधर बिखर जाते हैं और एक नए आकार को जन्म देते हैं। इन्हें प्रथमतंतु (Protonema) कहते हैं। ये जल्दी ही नए मॉस पौधे को जन्म देते हैं। मॉस मिट्टी का निर्माण करते हैं। उनकी छोटी छोटी यूलिकाएँ धीरे धीरे कार्य करती हुई चट्टानों को छोटे छोटे कणों में तोड़ देती हैं। समय पाकर वे पत्थरों को धूल में परिणत कर देते हैं। इनकी पत्तियाँ वायु के धूलकणों को रोककर धीरे धीरे मिट्टी को गहरी बना देती हैं। मॉस वर्षा के जल को भी रोक रखता है। इससे मिट्टी गीली रहती है जहाँ अन्य पौधे आकर रुक जाते और पनपते हैं। मिट्टी में जल को रोककर मॉस बाढ़ से भी बचाते हैं। मॉस के बारबार उगने और मर जाने से वहाँ समय पाकर पीट नामक कोयला बनता है जिसका व्यवहार जलावन के रूप में होता है। मिट्टी के साथ मिलकर मॉस उसे उपजाऊ भी बनाता है। मॉस से मिट्टी में जल रोक रखा जाता है। पीट के दलदल अनेक देशों, जैसे जर्मनी, स्वीडन, हॉलैंड आयरलैंड और संयुक्त राज्य अमरीका के अनेक भागों में पाए जाते हैं। झिजाड, अल्मोडा तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। टोयोटा ईटिओस, भारत के ऑटोमोबाइल (वाहन) बाजार के लिए टोयोटा द्वारा विकसित एक कार है। कार को भारत में आधिकारिक तौर पर जनवरी 2010 में एक ऑटो शो के दौरान पेश किया गया था। कार को दिसम्बर 2010 में बाज़ार में उतारा जाएगा। कार हैचबैक और सीडान दोनों संस्करणों में उपलब्ध होगी। ईटिओस को भारत के बंगलौर स्थित संयंत्र एक में निर्मित किया जाएगा। भारत में टोयोटा की यह अब तक की सबसे बड़ी परियोजना है। https://archive.is/20130628203503/www.carfront.com/wp-content/uploads/2010/01/toyota-etios.jpg झारखंड से संबंधित यह लेख अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। 14 सितंबर ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का 257वॉ (लीप वर्ष मे 258 वॉ) दिन है। साल मे अभी और 108 दिन बाकी है। भारत में राजभाषा हिंदी दिवस 1770- डेनमार्क में प्रेस की स्वतंत्रता को मान्यता मिली। 1814- फ्रैंसिस कॉटकी द्वारा अमेरिका के राष्ट्रगान स्टार स्पैंगिल्ड बैनर लिखा गया। 1901- अमेरिकी राष्ट्रपति विलियम मैकेंजी की अमेरीका में गोली मारकर हत्या। 1911- पीटर स्टॉलिपिन रूसी क्रांतिकारी शहीद हुए। 1959- लूना- 2 चंद्रमा की सतह पर उतरा। यह चंद्रमा की सतह तक पहुँचने वाली मानव निर्मित पहली वस्तु थी। इसने सोवियत संघ और अमेरिका में अंतरिक्ष स्पर्धा की शुरुआत की। 1960- खनिज तेल उत्पादक देशों ने मिलकर ओपेक की स्थापना की। 1982- मोनैको की राजकुमारी ग्रेस, जो कार दुर्घटना में घायल हो गई थीं, की मौत। 1998- माइक्रोसॉफ्ट, जेनरल इलेक्ट्रिक को पीछे छोड़कर दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी बनी। न्यूयार् स्टॉक एक्सचेंज में उसकी कीमत 261 अरब डॉलर आँकी गइ। 2001- ओसामा बिन लादेन को पकड़ने के लिए अमेरिका में 40 अरब डॉलर मंजूर किया गया। 2003- युरोपिए संघ में शामिल होने के लिए एस्टोनिया में जनमत संग्रह। इसके बाद एस्टोनिया यूरोपीय संघ में शामिल हो गया। विलियं वेंटिक, भारत में पहला गवर्नर जनरल बनकर आया। 1914- गोपालदास परमानंद सिप्पी जिन्हें जीपी-सिपी के नाम से भी जाना जाता है, इन्होंने ब्रह्मचारी, अंदाज, सीता और गीता, शोले, पत्थर के फूल आदि फिल्में निर्देशित की। 1923- [राम जेठमलानी] प्रख्यात धाराशास्त्री व् भूतपूर्व केन्द्रीय कानून मंत्री 1930- राजकुमार कोहली, नागिन (1976), जानी दुश्मन, राजतिलक, विरोधी आदि के निर्माता 1932- दुर्गा भाभी, प्रसिद्ध भारतीय स्वाधीनता सेनानी और क्रांतिकारी २००८- राल्फ रसेल, ग़ालिब के प्रख्यात विशेषज्ञ एवं उर्दू के विद्वान बगलिहार बाँध भारत के जम्मू क्षेत्र के डोडा ज़िले में बनाया जा रहा है। यह जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर है और जम्मू से लगभग 150 किलोमीटर दूर बटौत शहर के पास है। नींव से इसकी ऊँचाई 144 मीटर और लंबाई 317 मीटर होगी। बगलिहार बाँध की जल धारण क्षमता एक करोड़ पचास लाख घन मीटर होगी। यह परियोजना साढ़े चार सौ मेगावाट बिजली का उत्पादन करने वाली है। बगलिहार बाँध से जो बिजली बनेगी उसे उत्तरी ग्रिड को दिया जाएगा. कुछ बिजली जम्मू-कश्मीर को भी दी जाएगी। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 25°09′N 85°27′E / 25.15°N 85.45°E / 25.15; 85.45 रोहुआ साहेबपुर-कमाल, बेगूसराय, बिहार स्थित एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 27°11′N 78°01′E / 27.18°N 78.02°E / 27.18; 78.02 डाबर किरौली, आगरा, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है।  · अंबेडकर नगर जिला  · आगरा जिला  · अलीगढ़ जिला  · आजमगढ़ जिला  · इलाहाबाद जिला  · उन्नाव जिला  · इटावा जिला  · एटा जिला  · औरैया जिला  · कन्नौज जिला  · कौशम्बी जिला  · कुशीनगर जिला  · कानपुर नगर जिला  · कानपुर देहात जिला  · खैर  · गाजियाबाद जिला  · गोरखपुर जिला  · गोंडा जिला  · गौतम बुद्ध नगर जिला  · चित्रकूट जिला  · जालौन जिला  · चन्दौली जिला  · ज्योतिबा फुले नगर जिला  · झांसी जिला  · जौनपुर जिला  · देवरिया जिला  · पीलीभीत जिला  · प्रतापगढ़ जिला  · फतेहपुर जिला  · फार्रूखाबाद जिला  · फिरोजाबाद जिला  · फैजाबाद जिला  · बलरामपुर जिला  · बरेली जिला  · बलिया जिला  · बस्ती जिला  · बदौन जिला  · बहरैच जिला  · बुलन्दशहर जिला  · बागपत जिला  · बिजनौर जिला  · बाराबांकी जिला  · बांदा जिला  · मैनपुरी जिला  · महामायानगर जिला  · मऊ जिला  · मथुरा जिला  · महोबा जिला  · महाराजगंज जिला  · मिर्जापुर जिला  · मुझफ्फरनगर जिला  · मेरठ जिला  · मुरादाबाद जिला  · रामपुर जिला  · रायबरेली जिला  · लखनऊ जिला  · ललितपुर जिला  · लखीमपुर खीरी जिला  · वाराणसी जिला  · सुल्तानपुर जिला  · शाहजहांपुर जिला  · श्रावस्ती जिला  · सिद्धार्थनगर जिला  · संत कबीर नगर जिला  · सीतापुर जिला  · संत रविदास नगर जिला  · सोनभद्र जिला  · सहारनपुर जिला  · हमीरपुर जिला, उत्तर प्रदेश  · हरदोइ जिला मराल-उ०त०-१, यमकेश्वर तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के पौड़ी जिले का एक गाँव है। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। फ़्रांकिस्ची साले (जर्मन: Fränkische Saale) जर्मनी के बायर्न राज्य में १२५ किमी लम्बी एक नदी है। यह निम्न फ़्रेंकोनिया में बहने वाली मेन नदी के दाहिने तट की सहायक नदी है। यह नदी साक्सचिसे साले (Sächsische Saale) नदी से भ्रमित नहीं होनी चाहिए, जो एल्बे नदी की सहायक नदी है। फ़्रांकिस्ची साल नदी, बाड कोनिग्शोफ़न, बाड न्यूस्ताड, बाड किसिन्जिन, हैमलबर्ग से बहती हुई जीमुन्डेन एम मेन मे बहने वाली मेन नदी में गिरती है। अल्स्लेबेन के निकट "फ़्रांकिस्ची साले क्वैल" (Fränkische Saale Quelle) "फ़्रांकिस्ची साले क्वैल" पर कांस्य पटिका ओबेरेबफेल्ड के निकट "साले क्वैल" निर्देशांक: 23°00′N 84°30′E / 23°N 84.5°E / 23; 84.5 गुमला भारत में झारखंड प्रान्त का एक जिला है। झारखंड से संबंधित यह लेख अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। मारिन सिलिक ने मार्डी फिश को 6–4, 4–6, 6–2 से हराया। फेविकोल एक भारतीय चिपकने वाला ब्रांड है इसका मालिक पिडीलाइट है । फेविकोल सफेद रंग का आता है ।[1][2] गरीब महिलाओं की ऋण सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से सन् 1993 में राष्ट्रीय महिला कोष का गठन किया गया । स्वयं सहायता समूहों के द्वारा सहायता प्रदान कर महिलाओं की आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त करने में इस कोष की महत्त्वपूर्ण भूमिका है ।[1] [2][3][4][5] इसमें यह घोषित किया गया कि गरीब महिलाओं को आर्थिक सहायता के साथ-साथ कई और सहायता प्राप्त होगी । इस उद्देश्य से महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन होगा ।[6][7][8] जालस्थल] राई की गिनती सरसों की जाति में होती है। इसका दाना छोटा व काला होता है। छोटी-छोटी गोल-गोल राई लाल और काले दानों में अक्सर मिलती है। विदेशों में सफेद रंग की राई भी मिलती हैं। राई के दाने सरसों के दानों से काफी मिलते हैं। बस राई सरसों से थोड़ी छोटी होती है। राई ग्रीष्म ऋतु में पककर तैयार होती है। राई के बीजों का तेल भी निकाला जाता है। राई का रबी तिलहनी फसलों में प्रमुख स्थान है। इसकी खेती सीमित सिचाई की दशा में अधिक लाभदायक होती है। चार्ल्स एदुआर् जिआन्नेरे-ग्रि, जो खुद को ली कोर्बुज़िए कहलाना पसंद करते थे (६ अक्टूबर १८८७ – २७ अगस्त १९६५), एक स्विस-फ़्रांसीसी आर्किटेक्ट, रचनाकार, नगरवादी, लेखक व रंगकार, थे और एक नई विधा के अग्रणी थे, जिसे आजकल आधुनिक आर्किटेक्चर या अंतर्राष्ट्रीय शैली कहा जाता है। इनका जन्म स्विट्ज़र्लैंड में हुआ था, लेकिन ३० वर्ष की आयु के बाद वे फ़्रांसीसी नागरिक बन गए। आधुनिक उच्च रचना की पढ़ाई के ये अग्रणी थे और भीड़ भाड़ वाले शहरों में बेहतर स्थितियाँ बनाने के प्रति समर्पित थे। उनका कार्य पाँच दशकों में निहित था और उनकी इमारते केंद्रीय यूरोप, भारत, रूस औ उत्तर व दक्षिण अमरीका में एक एक थीं। वे एक नगर नियोजक, चित्रकार, मूर्तिकार, लेखक, व आधुनिक फ़र्नीचर रचनाकार भी थे। इनका जन्म होने पर चार्ल्स एदुआर् जिआन्नेरे-ग्रि नाम दिया गया। जन्मस्थली थी ला शॉ-दे-फ़ौं, जो कि न्यूशाते कैंटन में पश्चिमोत्तरी स्विट्ज़र्लैंड में जुरा पर्वतमाला, के बीच है, यह जगह फ़्रांस की सरहद से केवल पाँच किलोमीटर के रास्ते पर है। इन्होंने फ़्रोबेलियाई विधियों का प्रयोग करने वाली एक पाठशाला में पढ़ाई की। ली कोर्बुज़िए द्रष्टव्य कलाओं के प्रति आकर्षित थे और उन्होंने बुडापेस्ट व पेरिस में पढ़े शार्ल लीप्लात्तेनिय के अधीन ला शॉ दे फ़ौं कला विद्यालय में पढ़ाई की। कला विद्यालय में उनके आर्किटेक्चर के शिक्षक थे रेने शपला और उनकी प्रारंभिक कृतियों पर इनका गहरा असर रहा। प्रारंभिक वर्षों में अपने शहर के कुछ संकीर्ण माहौल से निकलने के लिए वे यूरोप भ्रमण करते। १९०७ के आसपास वे पेरिस गए, जहाँ उन्हें सरियाजड़ित कंक्रीट के प्रणेता ऑगस्त पेरे के दफ़्तर में काम मिला। अक्तूबर १९१० और मार्च १९११ के दरमियान उन्होंने बर्लिन के आर्किटेक्ट पीटर बेह्रेंस के साथ काम किया और यहीं पर वे लुड्विग मिएस वैन डेर रोहे व वॉल्टर ग्रोपियस से मिले होंगे। उन्होंने जर्मन में निपुणता हासिल की। ये दोनो अनुभव भविष्य में उनके कार्य को प्रभावित करने वाले थे। १९११ का अंत आते आते वे बाल्कन प्रदेश में गए और यूनान व तुर्की हो के आए, वहाँ उन्होंने जो देखा उससे उनकी अभ्यासपुस्तिकाएँ भर गईं। इनमें खास थे पार्थेनन के कुछ मशहूर रेखाचित्र, इस इमारत की तारीफ़ उन्होंने बाद में अपनी कृति एक आर्किटेक्चर की ओर (१९२३) में की। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ली कोर्बुज़िए ने ला शॉ-दे-फ़ौं के अपने पुराने विद्यालय में अध्यापन किया और युद्ध खत्म होने पर पेरिस वापस लौटे। स्विट्ज़र्लैंड में इन चार वर्षों में उन्होंने सैद्धांतिक आर्किटेक्चर पर आधुनिक तकनीकों के जरिए काम किया।[1] इनमें से एक था "डॉम-इनो हाउस" (१९१५-१९१५) के लिए एक परियोजना। इस मॉडल में एक खुली तल योजना थी जिसमें कि कंक्रीट के स्लैब थे, जो किनारे किनारे न्यूनतम पतले सरियाजड़ित कंक्रीट के खंबों के जरिए टिके थे और हर फ़र्श पर एक किनारे पर सीढ़ियों के जरिए जाया जा सकता था। अगले दस साल के उनके वास्तुकारी के लिए यह रचना ही आधार बनी। जल्दी ही उन्होंने अपने भाई पियेरे जॉन्नेरे (१८९६-१९६७) के साथ वास्तुकारी का काम शुरू किया, यह भागीदारी १९४० तक चली। १९१८ में ली कोर्बुज़िए निराश क्यूबवादी चित्रकार अमेदेई ऑज़ेन्फ़ाँ से मिले, इनमें उन्हें अपने जैसा जुनून दिखा। ऑज़ेन्फ़्राँ ने उन्हें चित्रकारी करने को प्रोत्साहित किया और इस प्रकार दोनों ने कुछ समय का सहयोग आरंभ किया। क्यूबवाद को अतार्किक व "रूमानी" कह के तिरस्कृत करते इस जोड़ी ने अपना प्रस्ताव अप्रे ले क्यूबिस्मे प्रकाशित किया और एक नया कलात्मक आंदोलन, शुद्धतावाद शुरू हुआ। ऑज़ेन्फ़ाँ व जॉन्नरे ने शुद्धतावदी पत्रिका लेस्प्री नोव्यू की स्थापना की। वह क्यूबवादी कलाकार फ़र्नां लेज के अच्छे मित्र थे। पत्रिका के पहले अंक में शार्ल-एदुवा जिआन्नेरे ने अपने लिए एक उपनाम चुना, जो कि उनके नाना "लेकोर्बेसिए" के नाम का एक बदला हुआ रूप था - "ली कोर्बुज़िए", यह उनकी इस मान्यता के आधार पर था कि कोई भी अपने आपको पुनराविष्कृत कर सकता है। कुछ इतिहासविदों का कहना है कि इस उपनाम का अर्थ है " कौआ-जैसा।"[2] खासतौर पर पेरिस में उस समय कई कलाकारों द्वारा अपनी पहचान के लिए केवल एक ही नाम चुनने का प्रचलन था। १९१८ और १९२२ के बीच ली कोर्बुज़िए ने कुछ नहीं बनाया, वे केवल शुद्धतावादी सिद्धांतों और चित्रकारी में लगे रहे। १९२२ में ली कोर्बुज़िए और जिआन्नेरे ने ३५ र्यू दे सेव्रे में एक स्टूडियो खोला।[1] उनका सैद्धांतिक अध्ययन जल्द ही एक परिवार वाले घरों की योजनाओं में परिवर्तित हुआ। उनमें एक था, मेइसाँ "सित्रोहाँ", जो कि फ़्रांसीसी कार निर्माता सित्रोएँ पर आधारित था, क्योंकि इस घर को बनाने के लिए ली कोर्बुज़िए ने आधुनिक औद्योगिक विधियों और पदार्थों की हिमायत की थी। यहाँ ली कोर्बुज़िए ने तीन मंज़िला ढाँचा प्रस्तावित किया, जिसमें दोहरी-ऊँचाई का मुख्य कक्ष, दूसरी मंजिल पर शयन कक्ष और तीसरे पर रसोई थी। छत पर धूप के लिए खुली जगह थी। बाहर की तरफ़ दूसरी मंज़िल पर चढ़ने के लिए सीढ़ी थी। इस अवधि की और परियोजनाओं की तरह, यहाँ भी उन्होंने ऐसी दीवारें बनाईं जिनमें कि बड़ी बड़ी बिना अवरोध की खिड़कियों का प्रावधान हो। घर का आकार चौकोर था और जिन बाहरी दीवारों में खिड़कियाँ नहीं थी, उन्हें सफ़ेद स्टकोड स्थान की तरह रखा गया। ली कोर्बुज़िए और जिआन्नेरे ने घर के अंदर काफ़ी कुछ खाली रखा, सारे फ़र्नीचर के ढाँचे ट्यूब वाली धातुओं के थे। रौशनी के लिए कवल एक एक बिना शेड के बल्ब थे। अंदर की दीवारें भी सफ़ेद ही थीं। १९२२ और १९२७ के बीच ली कोर्बुज़िए और पिएरे जिआन्नेरे ने पेरिस के आसपास कई मुवक्किलों के लिए ऐसे मकानों की रचना की। बोलोन-सु-सीन और पेरिस के १६वें एर्रोंडिस्में में ली कार्बूजियर और पिएरे जिएन्नेरे ने विला लिप्शी, मेसाँ कुक (विलियम एडवर्ड्स कुक देखें), मेसाँ प्लेनी और मेसाँ ला रोश/अल्बेर जिआन्नेरे (जिसमें अब फ़ॉण्डेशं ली कार्बूजियर है) की रचना और निर्माण किया। ली कोर्बुज़िए ने १९३० में फ़्रांसीसी नागरिकता ले ली।[1] कई सालों तक फ़्रांसीसी अधिकारी पेरिस की झुग्गियों की गंदगी से असफलतापूर्वक जूझते रहे। नगर में घरों की कमी को पूरा करने के लिए ली कार्बूजियर ने कई तरीके सोचे ताकि अधिक से अधिक लोगों को घर मिल सकें। उनका मानना था कि उनके नए वास्तुशिल्पी सुधार एक नया संगठनीय समाधान प्रदान करेंगे जिससे कि निम्न वर्ग के लोगों का जीवन स्तर बेहतर हो सकेगा। उनका इमूब्येल विला (१९२२) एक ऐसी ही परियोजना थी जिसमें कोशिका जैसे घर एक के ऊपर एक बने हुए थे, इनमें एक मुख्य कमरा, शयन कक्ष व रसोई तथा बगीचा था। केवल कुछ घरों की रचना करने से संतुष्ट न हो के ली कोर्बुज़िए ने संपूर्ण नगरों का अध्ययन शुरू किया। १९२२ में उन्होंने ३० लाख लोगों की "आधुनिक नगरी" (विले कोंतेंपोरैन) की योजना प्रस्तुत की। इस योजना के केंद्र में था साठ मंजिला गगनचुंबियाँ, जो कि स्टील के ढाँचे के दफ़्तरों की इमारतें थी और इनकी दीवारें काँच की थी। ये इमारतें बड़े, चौकोर उद्यान रूपी हरे क्षेत्रों के बीच में थी। ठीक बीच में एक यातायात केंद्र था, जिसमें अलग अलग स्तरों पर बस, ट्रेन, व सड़कों के चौराहे थे और सबसे ऊपर एक हवाई अड्डा था। उनकी यह मान्यता थी कि व्यावसायिक हवाईजहाज़ गगन चुंबियों के बीच उतर पाएँगे। ली कोर्बुज़िए ने पैदल रास्ते सड़कों से अलग किए और यातायात के लिए कारों को अधिक मान्यता दी। केंद्रीय गगन चुंबियों से दूर जाते जाते छोटे, कम ऊँचाई वाले घर शुरू होते थे जो कि सड़क से थोड़ी दूर हरियाली में बने थे, जहाँ नागरिक रहते थे। ली कोर्बुज़िए की आशा थी कि राजनैतिक-महत्वाकांक्षा वाले फ़्रांसीसी उद्योगपति इस दिशा में आगे बढ़ेंगे और टेलरवादी व फ़ोर्डवादी नीतियों का अमरीकी उद्योगों से नकल कर के समाज को नया रूप देंगे। नॉर्मा इवेंसन न कहा है, "प्रस्तावित शहर कुछ लोगों के लिए एक महत्वाकांक्षी दूरदृष्टि थी और कुछ औरों के लिए प्रचलित नागरिक वातवरण का एक विशाल अस्वीकरण।"[3] इस नए औद्योगिक माहौल में ली कोर्बुज़िए ने एक नई पत्रिका "लेस्प्री नोव्यू" में योगदान दिया, आधुनिक औद्योगिक तकनीकों के इस्तेमाल की हिमायत की गई और समाज को एक अधिक प्रभावी वातावरण में परिवर्तित करने की भी हिमायत हुई, जससे कि सभी सामाजिक-आर्थिक स्तरों में जीवन बेहतर हो सके। उन्होंने यह दलील दी कि इस बदलाव न होने पर विद्रोह भड़क सकता है, जो समाज को हिला के रख देगा। उनका ब्रह्मवाक्य, "वास्तुशिल्प या क्रांति", जो कि इस पत्रिका के लेखों के आधार पर तैयार हुआ, उन्हीं की पुस्तक "व उन आर्कितेक्चर" ("एक वास्तुशिल्प की ओर," जिसका पहले अंग्रेज़ी में "एक नए वास्तुशिल्प की ओर" नाम से गलत अनुवाद हुआ था, इसी विचार को आगे बढ़ाती है, इस पुस्तक में उनके "लेस्प्री नोव्यू" में १९२० से १९२३ के बीच छपे लेख हैं। इस किताब में ली कोर्बुज़िए पर वाल्टर ग्रोपियस का प्रभाव दिखता है और उन्होंने इसमें कई उत्तर अमरीकी कारखानों व अनाज वाहक की तस्वीरें भी छापी हैं।[4] सैद्धांतिक नागरिक योजनाओं में ली कोर्बुज़िए की दिलचस्पी बनी रही। १९२५ में एक और वाहन निर्माता द्वारा प्रायोजित होने पर उन्होंने "प्लाँ वोइसीं" का प्रदर्शन किया। इसमें उन्होंने सीन के उत्तर में अधिकतर केंद्रीय पेरिस को तोड़ कर अपने आधुनिक नगर के साठ मंजिली गगनचुंबियों को स्थापित करने की योजना प्रस्तावित की। ये इमारतें चौकोर खानों में बागों की हरियाली में होतीं और आसपास सड़कें। फ़्रांस के नेताओं और उद्योगपतियों ने इस योजना की छीछालेदर ही की, हालाँकि वे इन रचनाओं के पीछे के टेलरवाद व फ़ोर्डवाद के हिमायती ही थे। फिर भी इसके जरिए शहर के घिचपिच वाले और गंदे इलाकों से निपटने से संबंधित चर्चाएँ तो छिड़ी ही। १९३० के दशक में ली कोर्बुज़िए ने नगरवाद के अपने विचारों को और विस्तृत व परिमार्जित किया और अंततः १९३५ में "ला विल रेडियूस" (ओजस्वी नगर) में प्रकाशित किया। शायद आधुनिक नगर व ओजस्वी नगर में सबसे बड़ा फ़र्क यह था कि नए विचार में वर्ग आधारित विभाजन नहीं है, मकान परिवार के आकार के आधार पर निश्चित किए गए हैं, आर्थिक स्थिति के आधार पर नहीं।[5] "ला विल रेडियूस" से ली कोर्बुज़िए का अर्थवाद से असंतुष्टि की ओर मोड़ का भी पता चलता है, अब वे ह्यूबर्ट लगर्देल के दाम-पंथी सिंडिकलवाद की ओर सम्मुख हुए। विची शासन के दौरान ली कोर्बुज़िए को एक योजना समिति में स्थान मिला और उन्होंने अल्जियर्स व अन्य शहरों की रचना की। केंद्र सरकार ने उनकी रचनाओं को अस्वीकार किया और १९४२ के बाद ली कोर्बुज़िए ने राजनैतिक गतिविधियों में भाग लेना बंद कर दिया।[6] द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, ली कोर्बुज़िए ने अपनी नागरिक योजनाओं को छोटे स्तर पर लागू करने के लिए फ़्रांस के कुछ इलाकों में "यूनिते"(ओजस्वी नगर की एक रिहाइशी इकाई) की एक शृंखला का निर्माण किया। इनमें सबसे मशहूर थी मार्सिली की यूनिते द हाबितेशॉ (१९४६-१९५२)। १९५० के दशक में ओजस्वी नगर को एक विशाल रूप में साकार करने का असर चंडीगढ़ के निर्माण के दौरान मिला। यह शहर पंजाब और हरियाणा नामक भारतीय राज्यों की राजधानी थी। अल्बर्ट मेयर की योजना का क्रियान्वयन करने के लिए ली कार्बूजियर को बुलाया गया। डॉक्टरों के निर्देशों को न मानते हुए २७ अगस्त १९६५ को ली कोर्बुज़िए रोकब्रून-कै-मार्तीं, फ़्रांस में भूमध्य सागर में तैरने चले गए। उनका शव अन्य तैराकों को मिला और उन्हें ११ बजे मृत घोषित कर दिया गया। यह माना गया कि उन्हें सतत्तर वर्ष की आयु में दिल का दौरा पड़ा है। उनका अंतिम संस्कार लूव्र महल के अहाते में १ सितंबर १९६५ को लेखक व विचारक आंद्रे मालरॉ के निर्देशन में संपन्न हुआ, वे उस समय फ़्रांस के संस्कृति मंत्री थे। ली कोर्बुज़िए की मृत्यु का सांस्कृतिक व राजनैतिक दुनिया में बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। और कला की दुनिया में ली कोर्बुज़िए के सबसे बड़े विरोधी, जैसे कि सल्वदोर दाली ने भी उनकी महत्ता को पहचाना (दाली ने पुष्पांजली दी)। उस समय के संयुक्त राज्य के राष्ट्रपति लिंडन बी जांसन ने कहा : "उनका प्रभाव वैश्विक था और उनके द्वारा किए कार्यों में ऐसा स्थायित्व है जो कि इतिहास में कुछ ही कलाकार दे पाए हैं।" जापानी टीवी चैनलों ने संस्कार का सीधा प्रसारण टोक्यो के पाश्चात्य कला का राष्ट्रीय संग्रहालय में किया, उस समय के लिए यह समाचार माध्यमों द्वारा अनोखी श्रद्धांजलि थी। उनकी कब्र दक्षिण फ़्रांस में मेंटन व मोनाको के बीच रोक्ब्रून-कै-मार्तीं में कब्रगाह में है। फ़ोंडेशं ली कोर्बुज़िए (या ऍफ़ऍलसी) उनकी आधिकारिक कार्यकारिणी के तौर पर काम करती है[7]। फ़ोंडेशं ली ली कोर्बुज़िए में संयुक्त राज्य सर्वाधिकार का आधिकारिक प्रतिनिधि आर्टिस्ट्स राइट्स सोसाइटी[8] है। ली कोर्बुज़िए की विला सेवोय (१९२९-१९३१) ने उनके वास्तुशिल्प संबंधी पाँच बिंदुओं का सारांश प्रदान किया है। इन बिंदुओं के बारे में उन्होंने अपनी पत्रिका लेस्प्री नोव्यू और पुस्तक वर्स ऊन आर्कितेक्चर में लिखा है, इनका विकास वे १९२० के दशक में कर रहे थे। पहला, ली कोर्बुज़िए ने अधिकतर ढाँचे को ज़मीन के ऊपर कर दिया, सहारे के लिए पिलोतियों – सरियाजडित कंक्रीट के खंबे के जरिए। ये पिलोती घर का ढाँचा संभालते और इनकी बदौलत अगली दो बिंदुओं को समर्थन मिलता - एक मुक्त दीवाल, यानी ऐसी दीवारें जिन्हें वज़न उठानी की ज़रूरत न ती और वास्तुशिल्पी उन्हें जैसे चाहे बना सकता था और एक खुला फ़र्श, यानी हर फ़र्श को जैसे चाहे कमरों में बाँटा जा सकता था, दीवारों की चिंता करने की ज़रूरत नहीं थी। विला सेवॉय की दूसरी मंज़िल में खिड़कियों की लंबी पट्टियाँ ती जो कि चारों और मौजूद खाली स्थान को बिना अवरोध के देखने में मदद करतीं। यह खाली स्थान उनकी प्रणाली की चौथी बिंदु था। पाँचवी बिंदु है छत पर बागीचा - इमारत ने जो हरियाली नष्ट की उसके एवज में छत पर हरियाली। निचले स्तर से तीसरी मंजिल की छत तक जाता एक रैंप ढाँचे को एक वास्तुशिल्पी प्रॉमिनेड प्रदान करता है। सफ़ेद नलीदार रेलिंग "समद्री जहाज़" वाली औद्योगिक सुंदरता की याद दिलाता है जो ली कोर्बुज़िए को बहुत पसंद थी। आधुनिक उद्योग को श्रद्धंजलि प्रदान करती हुई विस्मयकारी चीज़ थी निचले तल पर गाड़ी ले जाने निकालने की जगह, जो कि अर्धगोलाकार थी और गोलाई १९२७ की सित्रोएँ गाड़ी के घुमाव के आधार पर बनाई गई थी। ली कोर्बुज़िए ने वास्तुशिल्पी अनुपात की नाप के लिए अपने मॉड्युलोर प्रणाली में सुनहरे अनुपात का इस्तेमाल किया। इस प्रणाली को उन्होंने वित्रुवियस, लियोनार्दो द विंची के "वित्रुवियन पुरुष", लिओन बतिस्ता अल्बर्ती और अन्यों के काम को आगे बढ़ाने की तरह ही माना, जो कि वास्तुशिल्प के प्रदर्शन और काम को सुधारने में मानव शरीर के अनुपातों का प्रयोग करते आ रहे थे। सुनहरे अनुपात के अलावा, ली कार्बूजियर ने इस प्रणाली को मानवीय नाप, फ़िबोनाची संख्याएँ, व दोहरी इकाई के जरिए भी सुधारा। वे लियोनार्दो के मानवीय अनुपातो में सुनहरे अनुपात के सुझाव को दूसरी हद तक ले गए। उन्होंने मानव शरीर की लंबाई को नाभि पर दो विभागों में सुनहरे अनुपात के आधार पर विभाजित किया, फिर इन विभागों को पैरों व गले पर फिर से सुनहरे अनुपात में विभाजित किया; इन सुनहरे अनुपातों का उन्होंने मॉड्युलोर प्रणाली में इस्तेमाल किया। ली कोर्बुज़िए की १९२७ की गार्चे में विला स्तेईं, मोड्यूलोर प्रणाली का उदाहरण बनी। शहर का चौकौर आकार, ऊँचाई और आंतरिक ढाँचा अंदाज़न सुनहरे चौकोरों के बराबर हैं।[9] ली कोर्बुज़िए ने अनुपात व तारतम्य की प्रणालियों को अपनी रचना दर्शन के केंद्र में रखा और उनका ब्रह्मांड के गणितीय विधान में आस्था सुनहरे अनुपात और फ़िबोनाची शृंखला से जुड़ा था, इन्हें वे "आँखों के सामने मौजूद लय और आपस में संबंधों में भी स्पष्ट। और ये लय ही मनुष्य की सभी गतिविधियों का आधार हैं। ये मनुष्य में अवश्यंभावी है, यही अवश्यंभाविता बच्चों, बूढ़ों और असभ्यों और शिक्षितों द्वारा सुनहरे अनुपात की खोज व प्रयोग से जुड़ी है।"[10] ली कोर्बुज़िए ने कहा था: "कुर्सियाँ वास्तुशिल्प हैं, सोफ़े बुर्जुआ।" ली कोर्बुज़िए ने फ़र्नीचर रचना के साथ प्रयोग १९२८ में शुरू किए जब उन्होंने वास्तुशिल्पी शार्लोट पेरियाँ को अपने स्टूडियो में आमंत्रित किया। उनके भाई पियरे जाँनरे ने भी कई रचनाओं में योगदान दिया। पेरियाँ के पहले अपने परियोजनाओं में ली कोर्बुज़िए बने बनाए फ़र्नीचर का इस्तेमाल करते थे, जैसे कि थोने द्वारा निर्मित छोटे फ़र्नीचर के सामान। यह कंपनी उनकी रचनाओं का १९३० के दशक में निर्माण करती थी। १९२८ में ली कोर्बुज़िए और पेरियाँ, ली कोर्बुज़िए की १९२५ की पुस्तक "ला देकोरेति दॉजूर्द्हुई" में दिए निर्देशों को अमल में लाने लगे। इस पुस्तक में तीन प्रकार के फ़र्नीचर वर्णित ते - "प्रकार-ज़रूरी", "प्रकार-फ़र्नीचर" और "मानवीय-अंग"। मानवीय-अंग वस्तुओं की उन्होंने यह परिभाषा दी थी "हमारे हाथ पैर की तरह ही और मानवीय कामों के लिए प्रयुक्त। प्रकार-ज़रूरी, प्रकार-कार्य, अतः प्रकार-वस्तु और प्रकार-फ़र्नीचर। मानवीय-अंग वस्तु एक आज्ञाकारी नौकर है। अच्छा नौकर काम भी करता है और अपने स्वामी के रास्ते में नहीं आता है। निश्चित ही कलाकृतियाँ, उपकरण हैं, सुंदर उपकरण। और भली भाँति चुने, सही अनुपात में बने, रास्ते में अटकाव न बनने वाले और चुपचाप काम करने वाले ये उपकरण लंबे चलेंगे"। इस सहयोग के पहले परिणाम थे तीन क्रोम-चढ़ी नलीदार स्टील की कुर्सियाँ, जो उनकी दो परियोजनाओं के लिए तैयार की गई थीं - पेरिस की मेइसों ला रोश और बार्बर व हेन्री चर्च के लिए एक पेविलियन। ली कोर्बुज़िए के १९२९ सेलों दातोम्ने, "घर के लिए उपकरण" परियोजना के लिए इस फ़र्नीचर को और विस्तृत किया गया। १९६४ में ली कोर्बुज़िए के जीवन काल में ही मिलान की कसिना ऍसपीए ने उनकी सभी फ़र्नीचर रचनाओं के निर्माण के वैश्विक अधिकार प्राप्त कर लिए। आज के दिन कई प्रतियाँ मौजूद हैं, लेकिन कसिनी ही एकमात्र उत्पादक है जिसे "फ़ोंडेशं ली कोर्बुज़िए" द्वारा अधिकार प्राप्त हैं। ली कोर्बुज़िए १९३० के दशक में फ़्रासीसी राजनीती के चरम-दक्षिणपंथियों में शामिल हुए। उन्होंने जॉर्ज वेलोई ऑर ह्यूबर्ट लगर्देल के साथ सहयोग किया और कुछ समय के लिए सिंडिकलिस्ट पत्रिका प्रेल्यूद के संपादक भी रहे। १९३४ में उन्होंने रोम में वास्तुशिल्प पर एक भाषण दिया, जिसके लिए उन्हें बेनितो मुसोलिनी ने बुलाया था। नागरिक योजना में उन्होंने विची शासन से जगह माँगी और उन्हें नगरवाद पर अध्ययन करने वाली एक समिति में स्थान दिया गया। उन्होंने अल्जियर्स की पुनर्रचना की योजनाएँ बनाईं, इनमें उन्होंने यूरोपियनों और अफ़्रीकियों के रहन सहन में फ़र्क मानने का विरोध किया और इस बात का वर्णन किया कि यहाँ "'सभ्य' लोग चूहों की तरह बिलों में रहते हैं और "जाहिल" लोग एकांत में मजे से रहते हैं।"[11] यह योजना और अन्य शहरों की पुनर्रचना की योजनाएँ नज़रंदाज़ की गईं। इस हार के बाद ली कोर्बुज़िए राजनीति से प्रायः दूर ही रहै। हालाँकि लगर्देल और वेलोई की राजनीति में फ़ासीवाद, यहूदी-विरोधीवाद और अपर-आधुनिकवाद के अंश थे, ली कोर्बुज़िए का इन सब आंदोलनों से कितना जुड़ाव था यह कहना कठिन है। 'ला विल रेडियूस में वे एक अराजनैतिक समाज की परिकल्पना करते हैं, जिसमें आर्थिक प्रशासन की नौकरशाही पूरी तरह से राज्य का स्थान ले लेती है।[12] ली कोर्बुज़िए उन्नीसवीं सदी के फ़्रांसीसी यूटोपियाइओं सें-सिमोन व चार्ल्स फ़ूरियर से काफ़ी प्रभावित थे। यूनिते और फ़ूरियर के फ़लंत्सरी में काफ़ी समानता है।[13] फ़ूरियर से ली कोर्बुज़िए ने कम से कम आंशिक रूप से राजनैतिक के बजाय प्रशासनिक सरकार का विचार लिया। मृत्योपरांत ली कोर्बुज़िए के योगदान पर काफ़ी विवाद हुआ है, क्योंकि वास्तुशिल्प मूल्य और इससे जुड़े परिमाण आधुनिक वास्तुशिल्प में काफ़ी अलग अलग है, अलग अलग विचारधाराओं में भी और अलग अलग वास्तुशिल्पों में भी।[14] निर्माण के स्थर पर उनके बाद के काम से आधुनिकता के जटिल प्रभाव की अच्छी समझ प्रकट होती है, लेकिन उनकी नागरिक रचनाओं की कइयों ने आलोचना भी की है। तकनीकी इतिहासविद व वास्तुशिल्स मसीक्षक लुइस ममफ़ोर्ड ने बीते कल का आने वाले कल का शहर में कहते हैं, नव नगरवाद आंदोलन के सदस्य जेम्स हॉवर्ड कुंस्ट्लर, ने ली कार्बूजियर की नगर आयोजन योजना को विनाशकारी व व्ययशील बताया है: ली कोर्बुज़िए प्रारंभिक उच्च आधुनिकता के अग्रणी वास्तुशिल्पी नेता थे, जिनकी १९२५ की प्लान वओइसिन थी दाएँ तट पर पेरिस के पूरे मराई जिले को तहस नहस कर के चौड़ी सड़कों के बीच समान दिखने वाली गगनचुंबियाँ बना देना। यह पेरिस की किस्मत थी कि जब भी अगले चालीस साल में वे इस योजना को ले के गए, नगर अधिकारी उनपर हँसे ही - और ली कोर्बुज़िए स्व-प्रचारी तो थे ही। लेकिन बदकिस्मती यह है कि प्लान वोईसिन योजना को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दो अमरीकी योजनाकारों ने लागू किया और उसकी बदौलत शिकागो की कुख्यात कब्रिनी ग्रीन रिहायशी परियोजना और उसी तरह की बीसियों और चीज़े पूरे देश में पैदा हुईं।[15] उनके विचारों द्वारा प्रभावित सार्वजनिक गृह परियोजनाओं में यही समस्या पाई गई है कि गरीब समुदायों को एकरूपी गगन चुंबियों तक सीमित कर दिया गया, जिससे कि समुदाय के विकास के लिए आवश्यक सामाजिक संबंध टूट गए। उनके सबसे अधिक प्रभावी विरोधी रही हैं जेन जैकब्स, जिन्होंने ली कोर्बुज़िए की नागरिक रचना सिद्धांतों की कड़ी आलोचना अपनी बौद्धिक रचना महान अमरीकी शहरों की मृत्यु वा जन्म में की है। ली कोर्बुज़िए नगर नियोजन में बहुत अधिक प्रभावी थे और "कांग्रेस इंटर्नेशनल दार्किटेक्चर मोदर्न" (सीआईएएस) के संस्थापक सदस्य थे। ली कोर्बुज़िए मानवीय बस्तियों में ऑटोमोबाइल की वजह से बदलाव आने की संभावना को सबसे पहले समझने वालों में से थे। भविष्य के नगर को ली कोर्बुज़िए ने बड़े अपार्टमेंट इमारत, जो कि पार्क जैसी चीज़ से घिरा होगा और पिलोतियों पर टिका होगा, ऐसा सोचा। ली कोर्बुज़िए के सिद्धांतों को पश्चिमी यूरोप व संयुक्त राज्य में सार्वजनिक रिहाइश के निर्माताओं ने अपनाया। इमारतों की रचना में ली कार्बूजियर ने किसी भी प्रकार की सजावट का विरोध किया। इन बड़ी बड़ी इमारतें जो कि शहर में तो हैं पर शहर की नहीं हैं, का उबाऊ होने और पदयात्री के लिए कठिन होने का आरोप है। कई सालों तक, कई वास्तुशिल्पी ली कोर्बुज़िए के स्टूडियो में उनके साथ काम करते रहे और इनमें से कई अपने आप में भी जाने गए, जैसे कि चित्रकार-वास्तुशिल्पी नादिर अफ़ोंसो जिन्होंने ली कोर्बुज़िए के विचारों को अपनी सुंदरता सिद्धांत में आत्मसात किया। लूशियो कोस्टा की ब्रासिलिया की नगर योजना और फ़्रांतिसेक लिडी गहुरा द्वारा चेक गणराज्य में योजनाबद्ध ज़्लिन नामक औद्योगिक शहर उनके विचारों पर बनी कुछ योजनाएँ हैं और इस वास्तुशिल्पी ने स्वयं ही भारत में चंडीगढ़ की योजना बनाई। ली कोर्बुज़िए की सोच ने सोवियत संघ में शहरी योजना व वास्तुशिल्प को भी प्रभावित किया, खास तौर पर निर्माणवादी युग में। ली कोर्बुज़िए शताब्दी के प्रारंभ में औद्योगिक शहरों में आई समस्याओं से काफ़ी प्रभावित थे। उनका सोचना था कि औद्योगिक गृह तकनीकों से भीड़, गंदगी और अनैतिकता फैलती है। वे समाज में बेहतर घर बना के बेहतर समाज पैदा करने की आधुनिकतावाद के अग्रणी हिमायती थे। एबेनेज़र हॉवर्ड के गार्डन सिटीज़ ऑफ़ टुमॉरो ने ली कार्बूजियर और उनके समकालीनों को काफ़ी प्रभावित क्या है। ली कोर्बुज़िए ने इस विचार को भी लयबद्धता दी कि स्थान, गंतव्यों का एक समूह है जिसमें मानव लगभग लगातार ही आते जाते रहते हैं। अतः वे ऑटोमोबाइल को एक वाहक के तौर पर जायज़ ठहरा पाए और शहरी स्थानो में फ़्रीवे को महत्व दे पाए। अमरीका के द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के समय के शहरी विकास कर्ताओं के हितों के लिए उनका यद दर्शन उपयोगी सिद्ध हुआ, क्योंकि इसके जरिए वे पारंपरिक शहरी स्थान को नष्ट करके अधिक घनत्व वाले अधिक मुनाफ़ा देने वाले व्यावसायिक व रिहायशी शहरी इलाकों को वास्तुशिल्पी व बौद्धिक समर्थन की हिमायत करने में सफल हुए। ली कोर्बुज़िए के विचारों के जरिए पारंपरिक शहरी स्थानों का विनाश और अधिक स्वीकृत हो गया, क्योंकि इस नए नगर को कम घनत्व, कम खर्च (और अधिक मुनाफ़े) वाले उपनगरीय और ग्रामीण इलाकों में चौड़ी सड़कें बनी, जिनकी बदौलत मध्यम वर्गीय एक परिवारीय घरों का निर्माण संभव हुआ। इस आंदोलन में निम्न मध्यम वर्ग व कामगीर वर्गों के अलग थलग पड़े नगरी ग्रामों का अन्य इलाकों से जुड़ाव, अर्थात उपनगरीय व ग्रामीण इलाकों का नगरीय व्यावसायिक केंद्रों से जुड़ाव के लिए ली कार्बूजियर के नियोजन में कोई जगह नहीं थी। ऐसा इसलिए था क्योंकि नियोजन के अनुसार सड़कें कामगीर व निम्न मध्यम वर्गीय वर्गों के रिहायिशी इलाकों के ऊपर से, नीचे से या बगल से निकलती थीं। इस तरह की परियोजनाएँ व इलाकों में सड़क से निकलने का कोई रास्ता नहीं था और सड़कों तक इनके पहुँचने का भी रास्ता नहीं था, जैसे कि कब्रिनी ग्रीन गृह परियोजना में लोग नौकरियों पाने और सेवा प्रदान करने के अवसरों से कट गए क्योंकि ये सब ली कोर्बुज़िए के यातायात-अंत-बिंदुओं तक सीमित थे। जैसे जैसे नौकरियाँ इन सड़कों के अंत में आने वाले उपनगरीय अंतों पर पहुँचते गए, नगरीय ग्रामवासियों ने यह पाया कि उनके समुदाय इन बड़ी सड़कों से कटते गए; न ही इनके पास सार्वजनिक यातायात की सुविधा थी जिससे कि वे किफ़ायत से उपनगरीय केंद्रों में नौकरियाँ कर पाते। युद्धोपरांत काफ़ी समय बाद उपनगरीय केंद्रों ने पाया कि कामगीरों की कमी एक बड़ी समस्या है, अतः वे स्वयं ही नगर से उपनगर की बस सेवाएँ चलाने लगे ताकि वे सब काम करने वाले लोग उपनगरों में पहुँच सकें जिनसे इतनी कमाई नहीं होती है कि लोग कारों में आ जा सकें। यातायात के बढ़ते खर्च (जिसमें ईंधन केवल एक ही हिस्सा है) और मध्यम व उच्च वर्ग के लोगों का उपनगरीय व ग्रामीण जीवनशैली के प्रति मन उचटने की वजह से ली कोर्बुज़िए के विचारों पर प्रश्न चिह्न खड़ा हुआ है। अब नगरीय इलाके ज़्यादा वांछित हैं। कई जगह नगर में कोंडोमिनियम में रहना लोग अधिक पसंद कर रहे हैं। कई केंद्रीय व्यावसायिक केंद्रों में अब रिहाइशी इलाके भी बन गए हैं या बन रहे हैं। ली कोर्बुज़िए ने जानबूझ के अपने बारे में मिथक खड़े किए और अपने जीवन काल में उनका काफ़ी आदर हुआ ही, मृत्योपरांत उनके भक्तों ने उन्हें फ़रिश्ते का जामा पहनाया जो कुछ गलत कर ही नहीं सकते थे। लेकिन १९५० के दशक में पहली शंकाएँ उठनी शुरू हुईं, खास तौर पर उनके अपने ही शिष्यों द्वारा निबंधों में, जैसे कि जेम्स स्टिर्लिंग व कॉलिन रो द्वारा, जिन्होंने उनके नगर संबंधी विचारों को खतरनाक बताया। बाद के आलोचकों ने उनके वास्तुशिल्प में तकनीकी खामियाँ भी निकालीं। ब्रायन ब्रेस टेलर ने अपनी किताब "आर्मे दु सालू" में ली कोर्बुज़िए की तिकड़मी हथकंडों के बारे में लिखा है जिनकी बदौलत उन्होंने अपने लिए आयोग बनवाया। उन्होंने निर्माण विधि और कई बेहूदे समाधानों के बारे में भी लिखा है। ली कोर्बुज़िए की उनके खास चश्मा पहने तस्वीर १० स्विस फ़्रैंक के नोट पर छपी। इन स्थानों को उनके नाम से जाना जाता है: द रेन ट्री होटल, अन्ना सलाई, चेन्नई के अन्ना सलाई में स्थित एक फाइव स्टार होटल हैं । यह द रेन ट्री होटल्स का दूसरा होटल हैं जो जुलाई 2010 में 2000 मिलियन रुपयों की लागत से चेन्नई में खोला गया।[1] चेन्नई भारत का ४था सबसे बड़ा नगर हैं, जो अपने अद्भुत हिन्दू मंदिरों , सांस्कृतिक विरासत, समुद्र तटों, एवं संग्रहालयों के लिए प्रसिद्द हैं । अगस्त 2013 में यह होटल समिट होटल एवं रिसॉर्ट्स, जो प्रीफर्ड होटल समूह का एक ब्रांड हैं उसमे शामिल हुआ। जिसने इस होटल को अपने एशिया पसिफ़िक पोर्टफोलियो में शामिल किया ।[2] यह होटल चेन्नई अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट से 13 किलोमीटर से भी कम दूरी पर हैं जिसके वजह से यह व्यवसाइक कारणों से चेन्नई आने वालों के लिए ठहरने का एक सहज साधन हैं। इस होटल से शहर के अन्य मनोरंजन के लैंडमार्क काफी नजदीक हैं। इस होटल में 230 कमरे हैं । होटल के ये कमरे 154 डीलक्स, 51 क्लब , 4 स्टूडियोज , 12 एग्जीक्यूटिव सुइट्स एवं 1 प्रेसिडेन्टिअल् सुइट में बिभाजित हैं ।[3] इन होटल की बेहतरीन तरीके से सजावट की गयी हैं। जो आपके मन को एक ही नजर में मोह लेंगी। इनकी साज सज्जा भी काफी आकर्षक हैं । इन होटल के हर कमरों में पर्यावरण के अनुकूल नहाने के उत्पादों (बाथ प्रोडक्ट ) का प्रयोग किया गया हैं। यहाँ से शहर का बहुत ही विहंगम दृश्य दीखता हैं जो इस होटल की एक अन्य विशेषता हैं । चेन्नई के बीचोंबीच स्तहपित इस होटल में कई साड़ी आकर्षक सुविधाएं उपलब्ध हैं । यहाँ के स्टाफ काफी विनम्र हैं जो आपकी छोटी -छोटी सुविधाओं का ख्याल रखते हैं एवं इनमे दक्षिण भारतीय परंपरा की झलक भी आपको देखने को मिलेगी । आप अपनी थकान यहाँ के हेल्थ स्पा एवं रूफटोप स्विमिंग पूल में दूर कर सकते हैं । यहाँ के जिम में भी काफी अत्याधुनिक व्याम के साधन उपलब्ध हैं । इन सबके अलावा आप यहाँ उच्च गति का वायरलेस एवं इंटरनेट एक्सेस का भी उपयोग कर सकते हैं । इस होटल में कांफ्रेंस , बैंक्वेट इत्यादि आयोजित करने की भी सुविधा हैं । इन मीटिंग रूम /कांफ्रेंस हाल में 1000 लोगों के बैठने की व्यवस्था हैं। इनमे हाईटेक दृश्य /श्रवण (ऑडियो /विसुअल ) सपोर्ट / एवं इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध हैं। यहाँ छोटे बोर्ड रूम भी उपलब्ध हैं जो आपकी मीटिंग के हर जरुरत को पूरा करेंगें। यहाँ उच्च कोटि की डाइनिंग की व्यवस्था हैं जो दक्षिण भारतीय परम्परा एवं संस्कृति को ध्यान में रखते हुए बनाया गया हैं । जहा अपने पारम्परिक तटीय व्यंजनों के खाने का स्वाद मिलेगा। यहाँ पर निम्नलिखित रेस्टोरेंट्स एवं बार उपलब्ध हैं मद्रास  : एक मल्टी -कुइसिने रेस्टोरेंट माँदेरा : दक्षिण भारतीय व्यंजन के लिए मशहूर इस होटल की डिजाइनिंग उपहासनी डिज़ाइन सेल्स आर्कीटेक्ट्स के द्वारा की गयी थी एवं इंटीरियर्स जेलर & लिम, मलेशिया के द्वारा किया गया था । यह होटल हमेशा से ही अपने दी जाने वाली सुविधा एवं व्यंजोएं के लिए मशहूर रहा हैं एवं इसने कई पुरस्कार भी जीते हैं, उनमे से ये प्रमुख हैं : डब्लूडब्लूडब्लू.रेनट्रीहोटल्स.कॉम नेरडिगोंड , इच्चोड मण्डल में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के अदिलाबादु जिले का एक गाँव है। टाऊ न्यूट्रिनो एक मूलभूत कण है। इसका प्रतीक चिह्न ν τ है। इसका आवेश शून्य होता है अर्थात यह एक उदासीन कण है। न्यूट्रिनों तीन प्रकार के होते हैं जिनमें से यह टाऊ से सम्बद्ध लेप्टॉनों की श्रेणी में आता है। इसका द्रव्यमान लगभग शून्य माना जाता है, प्रायोगिक तौर पर इसका सीमान्त मान 15.5 Mev/c2 से कम है। इसका प्रचक्रण 1/2 होता है। यह दो फ्लेवर के साथ पाया जाता है जो कण और प्रतिकण हैं अर्थात टाऊ न्यूट्रिनो (ν τ) एवं टाऊ प्रतिन्यूट्रिनो (ν τ)।[1] ज्ञात कणों में केवल न्यूट्रिनों ही ऐसे कण हैं जो केवल दुर्बल अन्योन्य क्रिया में भाग लेते हैं। न्यूट्रिनो प्रबल अन्योन्य क्रिया एवं विद्युत चुम्बकीय अन्योन्य क्रियाओं में भाग नहीं लेते। द्रव्यामान अज्ञात होने के कारण इनकी गुरुत्वीय अन्योन्य क्रिया का सही मान प्राप्त करना मुश्किल है।[2] निर्देशांक: 31°46′53″N 35°12′04″E / 31.78139°N 35.20111°E / 31.78139; 35.20111 बैंक ऑफ़ इज़राइल (हिब्रू:בנק ישראל Bank of Israel) इसराइल का केंद्रीय बैंक है। सेरमपुर नाथनगर, भागलपुर, बिहार स्थित एक गाँव है। कमिने विशाल भारद्वाज द्वारा निर्देशित एवं शाहिद कपूर, प्रियंका चोपड़ा और अमोल गुप्ते अभिनीत शरारत भरे रहस्य से भरी 2009 की भारतीय फ़िल्म है। इसमें दो भाईयों की एक दिन की कहानी को दिखाया गया है जिनमें से एक तुतलाता है और दूसरा हकलाता है। गुड्डू और चार्ली (शाहिद कपूर) एक समान जुड़वा भाई हैं और मुम्बई की गलियों में पले बढ़े हैं। दोनों वाक बाधा से ग्रस्त हैं जिनमें चार्ली तुतलाकर बोलता है जबकि गुड्डू बोलते हुए हकलाता है। फ़िल्म की शुरुआत चार्ली के कथा कहने से होती है जिसमें वह कहता है कि वह स्वयं और उसका भाई किसी भी विषय पर एक दूसरे से सहमत नहीं होते और उसका विश्वास है कि पगडंडियों से गुजरकर जीवन के सपने सच करो और वह तीन अपराधी भाइयों के लिए काम करता है। विशाल भारद्वाज ने कमीने के गीतों की रचना की है जिसके गीत गुलज़ार ने लिखे हैं। एलबम में पाँच मुख्य गीत, दो रिमिक्स और एक शीर्षक गीत हैं; यह 6 जुलाई 2009 को जारी किया गया। विशाल भारद्वाज के अनुसार गीत "धन टणन" मूल रूप से फ़िल्म के लिए नहीं था लेकिन टीवी शृंखला गुब्बारे के लिए इसका निर्माण किया गया था। फ़िल्म के संगीत ने वाणिज्यिक रूप से अच्छी सफलता प्राप्त की।[4][5] वॄश्चिक या स्कोर्पियो (अंग्रेज़ी: Scorpio या Scorpius) तारामंडल राशिचक्र का एक तारामंडल है। पुरानी खगोलशास्त्रिय पुस्तकों में इसे अक्सर एक बिच्छु के रूप में दर्शाया जाता था। आकाश में इसके पश्चिम में तुला तारामंडल होता है और इसके पूर्व में धनु तारामंडल। यह एक बड़ा तारामंडल है जो खगोलीय गोले के दक्षिणी भाग में आकाशगंगा (हमारी गैलेक्सी) के बीच में स्थित है। वॄश्चिक तारामंडल में १५ मुख्य तारे हैं, हालांकि वैसे इसमें ४७ ज्ञात तारे स्थित हैं जिनको बायर नाम दिए जा चुके हैं। वैज्ञानिकों को सन् २०१० तक इनमें से १३ तारों के इर्द-गिर्द २६ ग्रह परिक्रमा करते हुए पा लिए थे। इस तारामंडल में बहुत से रोशन तारे है, जैसे की ज्येष्ठा (अन्तारॅस, α Sco), ग्राफियास (β1 Sco), मूल तारा (λ Sco), जुबहा (δ Sco), सरगस (θ Sco), वाग़ैराह। यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 25°27′N 81°51′E / 25.45°N 81.85°E / 25.45; 81.85 शेखपुर हंडिया, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। तारापीठ (बांग्ला: তারাপীঠ) भारत में पश्चिम बंगाल प्रांत के वीरभूमि जिला में एक छोटा शहर है। पूर्वी रेलवे के रामपुर हाल्ट स्टेशन से चार मील दूरी पर स्थित है तारा पीठ। बंगाल क्षेत्र की प्रसिद्द देवी तारा की पूजा का प्रमुख केन्द्र होने के कारण ही इसका नाम तारापीठ है।[1][2][3][4] रामकृष्ण के समकालीन ही वामाक्षेपा, तारा पीठ के सिद्ध अघोरी परम भक्त थे।[5] तारा पीठ (महापीठपुराण के अनुसार) ५२ शक्तिपीठों के अन्तर्गत माना गया है।[2][3][6] यहाँ आसपास के क्षेत्रों को सम्मिलित कर लिया जाय तो तारापीठ तीन हैं। कथा के अनुसार दक्षयज्ञ में ना बुलाये जाने से और स्वयं पहुँचने के बाद उपेक्षा के कारण अपमानित होने बाद सती ने यज्ञकुण्ड में कूद कर आत्मदाह कर लिया था। शिव ने दुःख और क्रोध में वहाँ पहुँचकर यज्ञभंग कर दिया और सती के शव को लेकर दुःखमें डूबे इधर-उधर घूमते फिर रहे थे जिससे उबारने के लिये विष्णु ने सती के शव को अपने चक्र से टुकड़ों में काट कर छितरा दिया। यह माना जाता है कि शक्तिपीठों की स्थापना उन्हीं स्थानों पर हुई है जहाँ जहाँ सती के अंग पृथ्वी पर गिरे थे।[2] इस कथा के मुताबिक सती के देवी के तीनों नेत्रों के तारक बतीस योजन के त्रिकोण का निर्माण करते हुए तीन विभिन्न स्थानों पर गिरे थे। जहाँ, वैद्यनाथ धाम के पूर्व दिशा में उत्तर वाहिनी, द्वारका नदी के पूर्वी तट पर महाश्मशान में श्वेत शिमूल के वृक्ष के मूलस्थान में सती का तीसरा (ऊर्ध्व) नेत्र गिरा था, उसी जगह यह उग्रतारा पीठ स्थित है।[7] इसके आलावा अन्य दो तारापीठ भी हैं। मिथिला के पूर्व दक्षिणी कोने में, भागीरथी के उत्तर दिशा में, त्रियुगी नदी के पूर्व दिशा में "सती" देवी के बाँये नेत्र की मणि गिरी, तो यह स्थान "नील सरस्वती" तारा पीठ के नाम से प्रसिद्ध हैं। बगुड़ा जिले के अन्तर्गत "करतोया नदी के पश्चिम में दाँईं मणि गिरी, तो यह स्थान "एक जटा तारा" और भवानी तारा पीठ के नाम से विख्यात हैं। एक अन्य कथा इसे गौतम बुद्ध के बुद्धावतार से भी जोड़ती है। तारा की उपासना तिब्बती बौद्ध समुदाय में काफ़ी प्रचलित है। वामाक्षेपा, या बंगला भाषा में, बामाखेपा उन्नीसवी सदी के एक संत थे जो तारापीठ के उपासक और साधक के रूप में जाने जाते हैं।[8] अजैविक यौगिक ऐसे यौगिक हैं जो कार्बनिक यौगिक नहीं हैं। पारंपरिक तौर पर यह माना जाता है कि इनकी उत्पत्ति में किसी जैविक क्रिया का योगदान नहीं है। } निर्देशांक: 25°09′N 85°27′E / 25.15°N 85.45°E / 25.15; 85.45 खुदाबंदपुर खुदाबंदपुर, बेगूसराय, बिहार स्थित एक गाँव है। कोयंबतूर विमानक्षेत्र कोयंबतूर मेँ स्थित है। इसका ICAO कोडहै VOCB और IATA कोड है CJB। यह एक नागरिक हवाई अड्डा है। यहां कस्टम्स विभाग उपस्थित नहीं है। इसका रनवे पेव्ड है। इसकी प्रणाली यांत्रिक हाँ है। इसकी उड़ान पट्टी की लंबाई 7500 फी. है। अहमदाबाद →सरदार वल्लभभाई पटेल अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा · अमृतसर →राजा सांसी अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र* · बेंगलुरु → देवनहल्ली अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र  · कालीकट→ कालीकट अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र (करीपुर)* · चेन्नई → मिनाबक्क्म हवाई अड्डा · कोयंबतूर→ कोयंबतूर विमानक्षेत्र (पीलमेदु)* · गुवाहाटी → लोकप्रिय गोपीनाथ बारदोलोइ (बोरझार)  · गया→गया विमानक्षेत्र (बोधगया)* · गोआ →डैबोलिम विमानक्षेत्र * · हैदराबाद →राजीव गाँधी (हैदराबाद (शम्साबाद) · इंदौर →देवी अहिल्याबाई होल्कर*  · जयपुर →सांगानेर हवाई अड्डा)* · कोचीन अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र, नेदुंबस्सरी · कोलकाता→नेताजी सेभाष चंद्र बोस हवाई अड्डा दमदम · लखनऊ→अमौसी अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र* · मंगलौर→मंगलौर अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र (बाजपे)* · मुंबई→छत्रपति शिवाजी अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र, सहर · नागपुर → डॉ.बाबासाहेब अंबेडकर अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र (सोनेगांव) * · नई दिल्ली→ इन्दिरा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा पालम · पटना→लोकनायक जयप्रकाश विमानक्षेत्र* · पुणे→पुणे विमानक्षेत्र (लोहेगांव)* · तिरुवनंतपुरम →त्रिवेंद्रम अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र · तिरुचिरापल्ली →तिरुचिरापल्ली विमानक्षेत्र* · वाराणसी →वाराणसी विमानक्षेत्र (बाबतपुर)* कुडप्पा (कड़पा) · दोनकोंड · श्री सत्य साईं, पुट्टपर्थी · राजामुंद्री · तिरुपति · विजयवाड़ा · (विशाखापट्टनम) · वारंगल अलोंग · डापोरिजो · पासीघाट · तेज़ु · ज़िरो (जीरो) डिब्रुगढ़ · जोरहाट (रोवरिया) · लीलाबाड़ी (उत्तर लखीमपुर) · सिल्चर (कुंभीग्राम) · तेजपुर (सलोनीबाड़ी) मुजफ्फरपुर · पुर्णिया (पूर्णैया) · रक्सौल बिलासपुर · जगदलपुर · रायपुर भावनगर · भुज · कांदला (गाँधीधाम) · जामनगर पोरबंदर · राजकोट · सूरत (सुरत गुजरात) · वडोदरा (नागर विमानक्षेत्र हर्वी) करनाल फ्लाइंग क्लब गग्गल (कांगड़ा) · भुंतर (कुल्लू मनाली) · शिमला जम्मू (सतबाड़ी) · लेह कुशोक बकुला रिम्पोची · श्रीनगर जमशेदपुर · बिरसा मुंडा (रांची) जाक्कुर · बेल्गाम · बेल्लारी · हुबली · मंदकली भोपाल (राजा भोज) · ग्वालियर · जबलपुरपुर · खजुराहो · खंडवा विमानक्षेत्र औरंगाबाद (चिक्कलथाना) · कोल्हापुर · जूहू इम्फाल (तुलिहाल) शिलांग (बड़ापानी/उमरोइ) लेंगपुई दीमापुर बीजू पटनायक (भुवनेश्वर) साहनिवाल · पटियाला एविएशन क्लब अर्कोणम · अंबाला · बागडोगरा · भुज रुद्र माता · कार निकोबार · चाबुआ · चंडीगढ़ · दीमापुर · डिंडीगल · गुवाहाटी · हलवाड़ा · कुंभिर्ग्राम · पालम · सफ़दरजंग · तंजौर · यलहंका बेगमपेट (हैदराबाद) · एच ए एल बंगलुरु अंतर्राष्ट्रीय · बीकानेर · बमरौली · गोरखपुर यह एक भारत के गाँव संबंधी लेख है और अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है, यानि कि एक आधार है। आप इसे बढ़ाकर विकिपीडिया की मदद कर सकते है। निर्देशांक: 24°49′N 85°00′E / 24.81°N 85°E / 24.81; 85 झिकटिया खुर्द इमामगंज, गया, बिहार स्थित एक गाँव है। फ़अ सहायता·सूचना (वियतनामी: Phở) वियतनाम के खाने में एक पतला शोरबा होता है जिसमें नूडल डलें हों। यह नूडल अक्सर चावल के बने होते हैं और उनके साथ शोरबे में एशियाई तुलसी, पोदीना, नीम्बू और मूंग के अंकुर डाले जाते हैं। इसमें अक्सर कोई-न-कोई मांस भी डला होता है हालांकि सोयाबीन से बना टोफ़ू भी डाला जाता है। इस पकवान का वियतनाम की राजधानी हानोई से ख़ास सम्बन्ध है जहाँ दुनिया का सबसे पहला फ़अ परोसने वाला रेस्तरां १९२० के दशक में खुला था।[1] निर्देशांक: 25°09′N 87°01′E / 25.15°N 87.02°E / 25.15; 87.02 देवधा सुलतानगंज, भागलपुर, बिहार स्थित एक गाँव है। रामारावुपेट, जैपूर मण्डल में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के अदिलाबादु जिले का एक गाँव है। लखनऊ इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट एंड टेक्नोलॉजी, लखनऊ का एक प्रबंधन संस्थान है। बाजार: हज़रतगंज • अमीनाबाद • चौक  • निशातगंज • डालीगंज • सदर बाजार • बंगला बाजार • नरही • केसरबाग सोमेश्वरदेव थे छिंदक नागों में सबसे जाने-माने राजा थे। वे अत्यन्त मेधावी और कवि थे। धनुष चलाने में अत्यन्त निपुण थे। उन्होंने अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया। उनका शासनकाल १०९६ से सन् ११११ तक रहा। कीर्तिकौमुदी तथा सुकृतसंकीर्तन नामक उनके दो काव्यग्रंथ हैं। वाइकिंग युग (Viking Age) यूरोप के इतिहास का एक युग था जो 8वीं सदी ईसवी से 11वीं सदी तक चला और विशेष रूप से उत्तरी यूरोप और स्कैंडिनेविया में केन्द्रित था। इस काल में स्कैंडिनेविया के वाइकिंग लोग यूरोप भर में युद्ध और व्यापार करते हुए फैले और आइसलैंड, ग्रीनलैंड, न्यूफिन्लैंड (सुदूर पूर्वी कनाडा में) तथा आनातोलिया तक जा पहुँचे। अक्सर वाइकिंग किसी क्षेत्र में पहुँचकर धावा बोलकर या धावा बोलने की धमकी देकर धन लूटते थे, कभी-कभी शहर जला देते थे या स्त्रियों-बच्चों को उठा ले जाते थे।[1]