%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF %%%%% CS671 : gprachi@iitk.ac.in 150803 भारत की संस्कृति कई चीजों को मिला-जुलाकर बनती है जिसमें भारत का लम्बा इतिहास, विलक्षण भूगोल और सिन्धु घाटी की सभ्यता के दौरान बनी और आगे चलकर वैदिक युग में विकसित हुई, बौद्ध धर्म एवं स्वर्ण युग की शुरुआत और उसके अस्तगमन के साथ फली-फूली अपनी खुद की प्राचीन विरासत शामिल हैं। इसके साथ ही पड़ोसी देशों के रिवाज, परम्पराओं और विचारों का भी इसमें समावेश है । पिछली पाँच सहस्राब्दियों से अधिक समय से भारत के रीति-रिवाज, भाषाएँ, प्रथाएँ और परंपराएँ इसके एक-दूसरे से परस्पर संबंधों में महान विविधताओं का एक अद्वितीय उदाहरण देती हैं। भारत कई धार्मिक प्रणालियों, जैसे कि हिन्दू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म जैसे धर्मों का जनक है । इस मिश्रण से भारत में उत्पन्न हुए विभिन्न धर्म और परम्पराओं ने विश्व के अलग - अलग हिस्सों को भी काफी प्रभावित किया है भारतीय संस्कृति की महत्ता[संपादित करें] भारतीय संस्कृति विश्व के इतिहास में कई दृष्टियों से विशेष महत्त्व रखती है । यह संसार की प्राचीनतम संस्कृतियों में से है । मोहनजोदडो की खुदाई के बाद से यह मिस्र, मेसोपोटेमिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं के समकालीन समझी जाने लगी है । प्राचीनता के साथ इसकी दूसरी विशेषता अमरता है । चीनी संस्कृति के अतिरिक्त पुरानी दुनिया की अन्य सभी - मेसोपोटेमिया की सुमेरियन, असीरियन, बेबीलोनियन और खाल्दी प्रभृति तथा मिस्र ईरान, यूनान और रोम की-संस्कृतियाँ काल के कराल गाल में समा चुकी हैं, कुछ ध्वंसावशेष ही उनकी गौरव-गाथा गाने के लिए बचे हैं; किन्तु भारतीय संस्कृति कई हजार वर्ष तक काल के क्रूर थपेडों को खाती हुई आज तक जीवित है । उसकी तीसरी विशेषता उसका जगद्गुरु होना है । उसे इस बात का श्रेय प्राप्त है कि उसने न केवल महाद्वीप-सरीखे भारतवर्ष को सभ्यता का पाठ पढाया, अपितु भारत के बाहर बडे हिस्से की जंगली जातियों को सभ्य बनाया, साइबेरिया के सिंहल (श्रीलंका) तक और मैडीगास्कर टापू, ईरान तथा अफगानिस्तान से प्रशांत महासागर के बोर्नियो, बाली के द्वीपों तक के विशाल भू-खण्डों पर अपनी अमिट प्रभाव छोडा। संस्कृति सर्वांगीणता, विशालता, उदारता और सहिष्णुता की दृष्टि से अन्य संस्कृतियों की अपेक्षा अग्रणी स्थान रखती है । भाषा[संपादित करें] मुख्य लेख भारत में बोली जाने वाली भाषाओँ की बडी संख्या ने यहाँ की संस्कृति और पारंपरिक विविधता को बढाया है । १००० (यदि आप प्रादेशिक बोलियों और प्रादेशिक शब्दों को गिनें तो, जबकि यदि आप उन्हें नहीं गिनते हैं तो ये संख्या घट कर २१६ रह जाती है) भाषाएँ ऐसी हैं जिन्हें १०,००० से ज्यादा लोगों के समूह द्वारा द्वारा बोला जाता है, जबकि कई ऐसी भाषाएँ भी हैं जिन्हें १०,००० से कम लोग ही बोलते है । भारत में कुल मिलाकर ४१५ भाषाएं उपयोग में हैं भारतीय संविधान ने संघ सरकार के संचार के लिए हिंदी और अंग्रेजी, इन दो भाषाओं के इस्तेमाल को आधिकारिक भाषा घोषित किया है व्यक्तिगत राज्यों के उनके अपने आतंरिक संचार के लिए उनकी अपनी राज्य भाषा का इस्तेमाल किया जाता है भारत में दो प्रमुख भाषा सम्बन्धी परिवार हैं - भारतीय-आर्य भाषाएं और द्रविण भाषाएँ, इनमें से पहला भाषा के परिवार मुख्यतः भारत के उत्तरी, पश्चिमी, मध्य और पूर्वी क्षेत्रों के फैला हुआ है जबकि दूसरा भाषा परिवार भारत के दक्षिणी भाग में भारत का अगला सबसे बडा भाषा परिवार है एस्ट्रो-एशियाई भाषा समूह, जिसमें शामिल हैं भारत के मध्य और पूर्व में बोली जाने वाली मुंडा भाषाएँ , उत्तरपूर्व में बोई जाने वाली खासी भाषाएँ और निकोबार द्वीप में बोली जाने वाली निकोबारी भाषाएँ भारत का चौथा सबसे बडा भाषा परिवार है तिब्बती- बर्मन भाषाओँ का परिवार जो अपने आप में चीनी- तिब्बती भाषा परिवार का एक उपसमूह है । धर्म[संपादित करें] मुख्य लेख : भारत में धर्म और भारतीय धार्मिक समुदाय अब्राहमिक के बाद भारतीय धर्म विश्व के धर्मों में प्रमुख है, जिसमें हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म, सिख धर्म, जैन धर्म, आदि जैसे धर्म शामिल हैं आज, हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म क्रमशः दुनिया में तीसरे और चौथे सबसे बडे धर्म हैं, जिनमें लगभग १ ४ बिलियन अनुयायी साथ हैं विश्व भर में भारत में धर्मों में विभिन्नता सबसे ज्यादा है, जिनमें कुछ सबसे कट्टर धार्मिक संस्थायें और संस्कृतियाँ शामिल हैं। आज भी धर्म यहाँ के ज्यादा-से-ज्यादा लोगों के बीच मुख्य और निश्चित भूमिका निभाता है । ८० ४% से ज्यादा लोगों का धर्म हिन्दू धर्म है । कुल भारतीय जनसँख्या का १३ ४% हिस्सा इस्लाम धर्म को मानता है[1] सिख धर्म, जैन धर्म और खासकर के बौद्ध धर्म का केवल भारत में नहीं बल्कि पुरे विश्व भर में प्रभाव है ईसाई धर्म, पारसी धर्म, यहूदी और बहाई धर्म भी प्रभावशाली हैं, लेकिन उनकी संख्या कम है । भारतीय जीवन में धर्म की मजबूत भूमिका के बावजूद नास्तिकता और अज्ञेयवादियों ) का भी प्रभाव दिखाई देता है । समाज[संपादित करें] समीक्षा[संपादित करें] यूजीन एम मकर के अनुसार, भारतीय पारंपरिक संस्कृति अपेक्षाकृत कठोर सामाजिक पदानुक्रम द्वारा परिभाषित किया गया है उन्होंने यह भी कहा कि बच्चों को छोटी उम्र में ही उनकी भूमिकाओं और समाज में उनके स्थान के बारे में बताते रहा जाता है[2] उनको इस बात से और बल मिलता है की और इसका मतलब यह है कि बहुत से लोग इस बात को मानते हैं की उनकी जीवन को निर्धारण करने में देवताओं और आत्माओं की ही पूरी भूमिका होती है[2] धर्म विभाजित संस्कृति जैसे कई मतभेद [2] जबकि, इनसे कहीं ज्यादा शक्तिशाली विभाजन है हिन्दू परंपरा में मान्य अप्रदूषित और प्रदूषित व्यवसायों का [2] सख्त सामाजिक अमान्य लोग इन हजारों लोगों के समूह को नियंत्रित करते हैं[2] हाल के वर्षों, खासकर शहरों में, इनमें से कुछ श्रेणी धुंधली पड गई हैं और कुछ घायब हो गई हैं[2] एकल परिवार भारतीय संस्कृति के लिए केंद्रीय है । महत्वपूर्ण पारिवारिक सम्बन्ध उतनी दूर तक होते हैं जहाँ तक समान गोत्र के सदस्य हैं, गोत्र हिन्दू धर्मं के अनुसार पैतृक यानि पिता की ओर से मिले कुटुंब या पंथ के अनुसार निर्धारित होता है जो की जन्म के साथ ही तय हो जाता है । [2] ग्रामीण क्षेत्रों में, परिवार के तीन या चार पीढियों का एक ही छत के नीचे रहना आम बात है[2]वंश या धर्म प्रधान प्रायः परिवार के मुद्दों को हल करता है । [2] विकासशील देशों में, भारत अपनी निम्न स्तर की भौगोलिक और व्यावसायिक गतिशीलता की वजह से वृहद रूप से दर्शनीय है यहाँ के लोग कुछ ऐसे व्यवसाय को चुनते हैं जो उनके माता-पिता पहले से करते आ रहे हैं और कभी-कभार भौगोलिक रूप से वो अपने समाज से दूर जाते हैं[3] जाति व्यवस्था[संपादित करें] मुख्य लेख भारतीय पारंपरिक संस्कृति अपेक्षाकृत कठोर सामाजिक पदानुक्रम द्वारा परिभाषित किया गया है[2]भारतीय जाति प्रथा भारतीय उपमहाद्वीप में सामाजिक वर्गीकरण और सामाजिक प्रतिबंधों का वर्णन करती हैं, इस प्रथा में समाज के विभिन्न वर्ग हजारों सजातीय विवाह और आनुवाशिकीय समूहों के रूप में पारिभाषित किये जाते हैं जिन्हें प्रायः जाति एस या कास्ट के नाम से जाना जाता है इन जातियों के बीच विजातीय समूह भी मौजूद है, इन समूहों को गोत्र के रूप में जाना जाता है । गोत्र, किसी व्यक्ति को अपने कुटुम्भ द्वारा मिली एक वंशावली की पहचान है, यद्यपि कुछ उपजातियां जैसे की शकाद्विपी ऐसी भी हैं जिनके बीच एक ही गोत्र में विवाह स्वीकार्य है, इन उपजातियों में प्रतिबंधित सजातीय विवाह जानी एक जाति के बीच विवाह को प्रतिबंद्धित करने के लिए कुछ अन्य तरीकों को अपनाया जाता है (उदाहरण के लिए - एक ही उपनाम वाले वंशों के बीच विवाह पर प्रतिबन्ध लगाना) भले ही जाति व्यवस्था को मुख्यतः हिन्दू धर्म के साथ जोडकर पहचाना जाता है लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में अन्य कई धर्म जैसे की मुसलमान और ईसाई धर्म के कुछ समूहों में भी इस तरह की व्यवस्था देखी गई है[4] भारतीय संविधान ने समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र जैसे सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए जाति के ऊपर आधारित भेदभावों को गिअर्कानूनी घोषित कर दिया है[5] बडे शहरों में ज्यादातर इन जाति बंधनों को तोड दिया गया है,[6] हालाँकि ये आज भी देश के ग्रामीण क्षेत्रों में विद्यमान है फिर भी, आधुनिक भारत में, जाति व्यवस्था, जाति के आधार पर बांटे वाली राजनीति और अलग - अलग तरीके की सामाजिक धारणाओं जैसे कई रूप में जीवित भी है और प्रबल भी होता जा रहा है[7][8] सामान्य शब्दों में, जाति के आधार पर पाँच प्रमुख विभाजन हैं:[2] ब्राह्मण - "विद्वान समुदाय," जिनमें याजक, विद्वान, विधि विशेषज्ञ, मंत्री और राजनयिक शामिल हैं। क्षत्रिय - "उच्च और निम्न मान्यवर या सरदार" जिनमें राजा, उच्चपद के लोग, सैनिक और प्रशासक को शामिल है । वैश्य - "व्यापारी और कारीगर समुदाय" जिनमें सौदागर, दुकानदार, व्यापारी और खेत के मालिक शामिल है । क्षुद्र - "सेवक या सेवा प्रदान करने वाली प्रजाति" में अधिकतर गैर-प्रदूषित कार्यो में लगे शारीरिक और कृषक श्रमिक शामिल हैं। इससे पहले भारत में, वहाँ एक अतिरिक्त जाति को 'अछूत' के रूप में जाना जाता था, हालाँकि इस प्रणाली को हिंदू धर्म के कानून के अनुसार अब गैरकानूनी घोषित कर दिया गया है । ब्राह्मण वर्ण स्वयं को हिंदू धर्म के चारों वर्णों में सर्वोच्च स्थान पर काबिज होने का दावा करता है[9] दलित शब्द उन लोगों के समूह के लिए एक स्वयंभू पदनाम है जिनको अछूत या नीची जाति का माना जाता है । स्वतंत्र भारत में जातिवाद से प्रेरित हिंसा और घृणा अपराध को बहुत ज्यादा देखा गया। परिवार[संपादित करें] मुख्य लेख में होने वाली एक हिंदू विवाह समारोह भारतीय समाज सदियों से तयशुदा शादियों की परंपरा रही है । आज भी भारतीय लोगों का एक बडा हिस्सा अपने माता-पिता या अन्य सम्माननीय पारिवारिक सदस्यों द्वारा तय की गई शादियाँ ही करता है, जिसमें दूल्हा-दुल्हन की सहमति भी होती है[10] तयशुदा शादियाँ कई चीजों का मेल कराने के आधार पर उन्हीं को ध्यान में रखकर निर्धारित की जाती हैं जैसे कि उम्र, ऊँचाई, व्यक्तिगत मूल्य और पसंद, साथ ही उनके परिवारों की पृष्ठभूमि (धन, समाज में स्थान) और उनकी जाति के साथ - साथ युगल की कुन्दलिनीय अनुकूलता भारत में शादियों को जीवन भर के लिए माना जाता है[11] और यहाँ तलाक की दर संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की ५०% की तुलना में मात्र १ १% है[12] तयशुदा शादियों में तलाक की दर और भी कम होती है । हाल के वर्षों में तलाकदर में काफी वृद्धि हो रही है: इस बात पर अलग अलग राय है कि इसका मतलब क्या है: पारंपरिक लोगों के लिए ये बढती हुई संख्या समाज के विघटन को प्रदर्शित करती है, जबकि आधुनिक लोगों के अनुसार इससे ये बात पता चलती है कि समाज में महिलाओं का एक नया और स्वस्थ सशक्तिकरण हो रहा है । [13] हालाँकि, बाल विवाह को १८६० में ही गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था लेकिन भारत के कुछ हिस्सों में ये प्रथा आज भी जारी है[14] यूनिसेफ द्वारा संसार के बच्चों की दशा के बारे में जारी रिपोर्ट " स्टेट ऑफ द वर्ल्ड चिल्ड्रेन -२००९" में ४७% ग्रामीण क्षेत्रों में भारतीय महिलाएं जो कि २०-२४ साल की होंगी उनकी शादी को विवाह के लिए वैध १८ साल की उम्र से पहले ही कर दी जाती हैं[15] रिपोर्ट यह भी दिखाती है कि विश्व में ४०% होने वाले बाल विवाह अकेले भारत में ही होते हैं[16] भारतीय नाम भिन्न प्रकार की प्रणालियों और नामकरण प्रथा पर होती हैं, जो की अलग -अलग शेत्रों के अनुसार बदलती रहती हैं नाम भी धर्म और जाति से प्रभावित होती हैं और वो धर्म या महाकाव्यों से लिए जा सकते हैं भारत की आबादी अनेक प्रकार की भाषाएं बोलती हैं समाज में नारी की भूमिका अक्सर घर के काम काज को करने की और समुदायों की नि: स्वार्थ सेवा करने का काम होता है[2] महिलाओं और महिलाओं के मुद्दों समाचारों में केवल ७-१४% ही दिखाई देते हैं[2] अधिकांश भारतीय परिवारों में, महिलाओं को उनके नाम पर संपत्ति नहीं मिलती है और उन्हें पैतृक संपत्ति का एक हिस्सा भी नहीं मिलता है । [17] कानून को लागू करने मे कमजोरी के कारण, महिल्लाएं आज भी जमीन के छोटे से टुकडे और बहुत कम धन मे प्राप्त होता है[18] कई परिवारों में, विशेष रूप से ग्रामीण लोगों मे, लडकियों और महिलाओं को परिवार के भीतर पोषण भेदभाव का सामना करना पडता है और इसी वजह से उनमें खून की कमी की शिकायत रहती है साथ- साथ वो कुपोषित भी होती हैं[17] रंगोली (या कोलम) एक परंपरागत कला है जो कि भारतीय महिलाओं में बहुत लोकप्रिय हैलोकप्रिय महिला पत्रिकाएं जिनमें फेमिना गृहशोभा, वनिता, वूमेनस एरा, आदि शामिल हैं पशु[संपादित करें] में स्थित आलंकृत गोप्पुरम मंदिर]] मे रंगा या चित्रित किया जाता है इन्हें भी देखें कई भारतीयों के पास अपने मवेशी होते हैं जैसे कि गाय-बैल या भेड आज भी हिन्दू बहुसंख्यक देशों जैसे भारत और नेपाल में गाय के दूध का धार्मिक रस्मों में महत्वपूर्ण स्थान है । समाज में अपने इसी ऊंचे स्थान की वजह से गायें भारत के बडे बडे शहरों जैसे कि दिल्ली में भी व्यस्त सडकों के पर खुले आम घूमती हैं। कुछ जगहों पर सुबह के नाश्ते के पहले इन्हें एक भोग लगाना शुभ या सौभाग्यवर्धक माना जाता है । जिन जगहों पर गोहत्या एक अपराध है वहां किसी नागरिक को गाय को मार डालने या उसे चोट पहुँचाने के लिए जेल भी हो सकती है । गाय को खाने के विरुद्ध आदेश में एक प्रणाली विकसित हुई जिसमें सिर्फ एक जातिच्युत मनुष्य को मृत गायों को भोजन के रूप में दिया जाता था और सिर्फ वही उनके चमडे को निकाल सकते थे। सिर्फ दो राज्यों :पश्चिम बंगाल और केरल के अतिरिक्त हर प्रान्त में गोहत्या निषिद्ध है । हालाँकि गाय के वध के उद्देश्य से उन्हें इन राज्यों में ले जाना अवैध है, लेकिन गायों को नियमित रूप से जहाज में सवार कर इन राज्यों में ले जाया जाता है । [19] "गाय हमारी माता है" ऐसा विभिन्न जगह कहा जाता है, खास कर बुंदेलखण्ड की तरफ। परम्परा एवं रीति[संपादित करें] नमस्ते या नमस्कार या नमस्कारम् भारतीय उपमहाद्वीप में अभिनन्दन या अभिवादन करने के सामान्य तरीके हैं। यद्यपि नमस्कार को नमस्ते की तुलना में ज्यादा औपचारिक माना जाता है, दोनों ही गहरे सम्मान के सूचक शब्द हैं। आम तौर पर इसे भारत और नेपाल में हिन्दू, जैन और बौद्ध लोग प्रयोग करते हैं, कई लोग इसे भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर भी प्रयोग करते हैं। भारतीय और नेपाली संस्कृति में ये शब्द लिखित या मौखिक बोलचाल की शुरुआत में प्रयोग किया जाता है । हालाँकि विदा होते समय भी हाथ जोडे हुए यही मुद्रा बिना कुछ कहे बनायी जाती है । योग में, योग गुरु और योग शिष्यों द्वारा बोले जाने वाली बात के आधार पर नमस्ते का मतलब "मेरे भीतर की रोशनी तुम्हारे अन्दर की रोशनी का सत्कार करती है " होता है शाब्दिक अर्थ में, इसका मतलब है "मैं आपको प्रणाम करता हूँ" यह शब्द संस्कृत शब्द (नमस्): प्रणाम, श्रद्धा, आज्ञापालन, वंदन और आदर और (ते): "आपको" से लिया गया है । किसी और व्यक्ति से कहे जाते समय, साधारण रूप से इसके साथ एक ऐसी मुद्रा बनाई जाती है जिसमें सीने या वक्ष के सामने दोनों हाथों की हथेलियाँ एक दूसरे को छूती हुई और उंगलियाँ ऊपर की ओर होती हैं। बिना कुछ कहे भी यही मुद्रा बनकर यही बात कही जा सकती है । भातीय व्यंजनों में से ज्यादातर में मसालों और जडी बूटियों का परिष्कृत और तीव्र प्रयोग होता है इन व्यंजनों के हर प्रकार में पकवानों का एक अच्छा-खासा विन्यास और पकाने के कई तरीकों का प्रयोग होता है यद्यपि पारंपरिक भारितीय भोजन का महत्वपूर्ण हिस्सा शाकाहारी है लेकिन कई परम्परागत भारतीय पकवानों में मुर्गा, बकरी, भेड का बच्चा, मछली और अन्य तरह के मांस भी शामिल हैं भोजन भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो रोजमर्रा के साथ -साथ त्योहारों में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है कई परिवारों में, हर रोज का मुख्य भोजन दो से तीन दौर में, कई तरह की चटनी और अचार के साथ, रोटी और चावल के रूप में कार्बोहाइड्रेट के बडे अंश के साथ मिष्ठान सहित लिया जाता है भोजन एक भारतीय परिवार के लिए सिर्फ खाने के तौर पर ही नहीं बल्कि कई परिवारों के एक साथ एकत्रित होने सामाजिक संसर्ग बढाने के लिए भी महत्वपूर्ण है विविधता भारत के भूगोल, संस्कृति और भोजन की एक पारिभाषिक विशेषता है भारतीय व्यंजन अलग-अलग क्षेत्र के साथ बदलते हैं और इस उपमहाद्वीप की विभिन्न तरह की जनसांख्यिकी और विशिष्ठ संस्कृति को प्रतिबिंबित करते हैं आम तौर पर, भारतीय व्यंजन चार श्रेणियों में बाते जा सकते हैं : उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम भारतीय व्यंजन इस विविधता के बावजूद उन्हें एकीकृत करने वाले कुछ सूत्र भी मौजूद हैं मसालों का विविध प्रयोग भोजन तैयार करने का एक अभिन्न अंग है, ये मसाले व्यंजन का स्वाद बढाने और उसे एक खास स्वाद और सुगंध देने के लिए प्रयोग किये जाते हैं इतिहास में भारत आने वाले अलग-अलग सांस्कृतिक समूहों जैसे की पारसी, मुगल और यूरोपीय शक्तियों ने भी भारत के व्यंजन को काफी प्रभावित किया है वस्त्र-धारण[संपादित करें] त्रिपुरा की की लडकियां पारंपरिक नृत्य महोत्सव में भाग लेते समय एक बिंदी लगाती हैं महिलाओं के लिए पारंपरिक भारतीय कपडों में शामिल हैं, साडी, सलवार कमीज और घाघरा चोली (लहंगा)धोती, लुंगी, और कुर्ता पुरुषों के पारंपरिक वस्त्र हैं बॉम्बे, जिसे मुंबई के नाम से भी जाना जाता है भारत की फैशन राजधानी है भारत के कुछ ग्रामीण हिस्सों में ज्यादातर पारंपरिक कपडे ही पहने जाते हैं दिल्ली, मुंबई,चेन्नई, अहमदाबाद और पुणे ऐसी जगहें हैं जहां खरीदारी करने के शौकीन लोग जा सकते हैं दक्षिण भारत के पुरुष सफेद रंग का लंबा चादर नुमा वस्त्र पहनते हैं जिसे अंग्रेजी में धोती और तमिल में वेष्टी कहा जाता है धोती के ऊपर, पुरुष शर्ट, टी शर्ट या और कुछ भी पहनते हैं जबकि महिलाएं साडी पहनती हैं जो की रंग बिरंगे कपडों और नमूनों वाला एक चादरनुमा वस्त्र हैं यह एक साधारण या फैंसी ब्लाउज के ऊपर पहनी जाती है यह युवा लडकियों और महिलाओं द्वारा पहना जाता है । छोटी लडकियां पवाडा पहनती हैं पवाडा एक लम्बी स्कर्ट है जिसे ब्लाउज के नीचे पहना जाता है । दोनों में अक्सर खुस्नूमा नमूने बने होते हैं बिंदी महिलाओं के श्रृंगार का हिस्सा है । परंपरागत रूप से, लाल बिंदी (या सिन्दूर) केवल शादीशुदा हिंदु महिलाओं द्वारा ही लगाईं जाती है, लेकिन अब यह महिलाओं के फैशन का हिस्सा बन गई है । [20] भारतीय और पश्चिमी पहनावा, पश्चिमी और उपमहाद्वीपीय फैशन का एक मिला जुला स्वरूप हैं अन्य कपडों में शामिल हैं - चूडीदार , दुपट्टा, गमछा, कुरता, मुन्दुम नेरियाथुम, शेरवानी साहित्य[संपादित करें] इतिहास[संपादित करें] मुख्य लेख e रवीन्द्रनाथ टैगोरएशिया के पहले नोबेल विजेता [21] भारतीय साहित्य की सबसे पुरानी या प्रारंभिक कृतियाँ मौखिक रूप से प्रेषित थीं। संस्कृत साहित्य की शुरुआत होती है 5500 से 5200 ईसा पूर्व के बीच संकलित ऋग्वेद से जो की पवित्र भजनों का एक संकलन है । संस्कृत के महाकाव्य रामायण और महाभारत पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व के अंत में आये पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व की पहली कुछ सदियों के दौरान शास्त्रीय संस्कृत खूब फली-फूली, तमिल संगम साहित्य और पाली केनोन ने भी इस समय काफी प्रगति की मध्ययुगीन काल में, क्रमशः ९ वीं और ११ वीं शताब्दी में कन्नड और तेलुगु साहित्य की शुरुआत हुई,[22] इसके बाद १२ वीं शताब्दी में मलयालम साहित्य की पहली रचना हुई बाद में, मराठी, बंगाली, हिंदी की विभिन्न बोलियों, पारसी और उर्दू के साहित्य भी उजागर होने शुरू हो गए ब्रिटिश राज के दौरान, रवीन्द्रनाथ टैगोर के कार्यों द्वारा आधुनिक साहित्य का प्रतिनिधित्व किया गया है, रामधारी सिंह दिनकर, सुब्रमनिया भारती, राहुल सांकृत्यायन, कुवेम्पु, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, माइकल मधुसूदन दत्त, मुंशी प्रेमचन्द, मुहम्मद इकबाल, देवकी नंदन खत्री प्रसीद्ध हो गए हैं समकालीन भारत में, जिन लेखकों को आलोचकों के बीच प्रशंसा मिली वो हैं : गिरीश कर्नाड, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर, वैकोम मुहम्मद बशीर, इंदिरा गोस्वामी, महाश्वेता देवी, अमृता प्रीतम, मास्ति वेंकटेश अयेंगर, कुरतुलियन हैदर और थाकाजी सिवासंकरा पिल्लई और कुछ अन्य लेखकों ने आलोचकों की प्रशंसा प्राप्त की समकालीन भारतीय साहित्य में, दो प्रमुख साहित्यिक पुरस्कार हैं, ये हैं साहित्य अकादमी फैलोशिप और ज्ञानपीठ पुरस्कारहिंदी और कन्नड में सात, मलयालम और मराठी में चार उर्दू में तीन ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए गए हैं[23] काव्य[संपादित करें] मुख्य लेख कुरुक्षेत्र के युद्ध का दृष्टान्त ७४,००० से ज्यादा छंदों, लम्बे गद्य अनुच्छेदों और १ ८ करोड शब्दों वाला महाभारत दुनिया की सबसे लम्बे महाकाव्यों में से एक है भारत में ऋग्वेद के समय से कविता के साथ-साथ गद्य रचनाओं की मजबूत परंपरा हैकविता प्रायः संगीत की परम्पराओं से सम्बद्ध होती है और कविताओं का एक बडा भाग धार्मिक आंदोलनों पर आधारित होता है या उनसे जुडा होता है लेखक और दार्शनिक अक्सर कुशल कवि भी होते थे आधुनिक समय में, भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान राष्ट्र वाद और अहिंसा को प्रोत्साहित करने के लिए कविता ने एक महत्वपूर्ण हथियार की भूमिका निभाई है इस परंपरा उदाहरण आधुनिक काल में रवीन्द्रनाथ टैगोर और के एस नरसिम्हास्वामी की कविताओं, मध्य काल में बासव, कबीर और पुरंदरदास (पद और देवार्नामस) और प्राचीन काल में महाकाव्यों के रूप में मिलता है टगोर की गीतांजलि कविता से दो उदाहरण भारत और बांग्लादेश के राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किये गए हैं महाकाव्य[संपादित करें] मुख्य लेख रामायण और महाभारत प्राचीनतम संरक्षित और आज भी भारत के जाने माने माहाकाव्य है ; उनके कुछ और संस्करण दक्षिण पूर्व एशियाई देशों जैसे की थाईलैंड मलेशिया और इंडोनेशिया में अपनाए गए हैं इसके अलावा, शास्त्रीय तमिल भाषा में पांच महाकाव्य हैं - सिलाप्पधिकाराम जीवागा चिंतामणि वलैयापति और कुण्डलकेसि इनके अन्य क्षेत्रीय रूप और असम्बद्ध महाकाव्यों में शामिल हैं तमिल कंब रामायण, कन्नड में आदिकवि पम्पा द्वारा पम्पा भारता, कुमार वाल्मीकि द्वारा तोरवे रामायण, कुमार व्यास द्वारा कर्नाट भारता कथा मंजरी, हिंदी रामचरितमानस, मलयालम अध्यात्मरामायणम् प्रदर्शन कला[संपादित करें] संगीत[संपादित करें] पंचावाद्यम केरल में एक संगीत मंदिर है । मुख्य लेख भारतीय संगीत में विभिन्न प्रकार के धार्मिक, लोक लोकप्रिय, पॉप और शास्त्रीय संगीत शामिल हैं भारतीय संगीत का सबसे पुराना संरक्षित उदाहरण है सामवेद की कुछ धुनें जो आज भी निश्चित वैदिक श्रोता बलिदान में गाई जाती है भारतीय शास्त्रीय संगीत की परंपरा हिंदू ग्रंथों से काफी प्रभावित है । इसमें कर्नाटक और हिन्दुस्तानी संगीत और कई राग शामिल हैं ये कई युगों के दौरान विकसित हुआ और इसका इतिहास एक सहस्राब्दी तक फैला हुआ है । यह हमेशा से धार्मिक प्रेरणा, सांस्कृतिक अभिव्यक्ति और शुद्ध मनोरंजन का साधन रहा है विशिष्ठ उपमहाद्वीप रूपों के साथ ही इसमें अन्य प्रकार के ओरिएंटल संगीत से भी कुछ समानताएं हैं पुरंदरदास को कर्णाटक संगीत का पिता माना जाता है (कर्नाटक संगीता पितामह ) [24][25][26] उन्होंने अपने गीतों का समापन भगवान पुरंदर विट्टल के वंदन के साथ किया और माना जात है की उन्होंने कन्नड भाषा में ४७५०००[27] गीत रचे हालाँकि, केवल १००० के बारे में आज जाना जाता है । [24][28] नृत्य[संपादित करें] मुख्य लेख संक्षिप्त रूप से कहें तो कलारिप्पयाट्टू या कलारी को दुनिया का सबसे पुराना मार्शल आर्ट माना जाता है । यह मल्लपुराण जैसे ग्रंथों के रूप में संरक्षित है । कलारी और उसके साथ साथ उसके बीद आये मार्शल आर्ट के कुछ रूपों के बारे में ये भी माना जाता है की बौद्ध धर्म की तरह ये भी चीन तक पहुँच चूका है और अंततः इसी से कुंग-फु का विकास हुआ। बाद में आने वाली मार्शल आर्ट्स हैं- गतका, पहलवानी और मल्ल-युद्ध भारतीय मार्शल आर्ट्स को कई महान लोगों ने अपनाया था जिनमें शामिल हैं बोधिधर्मा जो भारतीय मार्शल आर्ट्स को चीन तक ले गए। नाटक और रंगमंच[संपादित करें] भारतीय नाट्य की एकमात्र जीवित परंपरा है (संस्कृत) कुटीयट्टम, जो कि केरल में संरक्षित है । भासा के नाटक अभिषेक नाटक में रावन की भूमिका में गुरु नाट्याचार्य मणि माधव चकयार मुख्य लेख भारतीय संगीत और नृत्य के साथ साथ भारतीय नाटक और थियेटर का भी अपने लम्बा इतिहास है । कालिदास के नाटक शकुंतला और मेघदूत कुछ पुराने नाटक हैं, जिनके बाद भासा के नाटक आये साल पुरानी केरल की कुटियट्टम विश्व की सबसे पुरानी जीवित थियेटर परम्पराओं में से एक है । यह सख्ती से नाट्य शास्त्र का पालन करती है[30] कला के इस रूप में भासा के नाटक बहुत प्रसिद्द हैं। नाट्याचार्य (स्वर्गीय) पद्म श्री मणि माधव चकयार अविवादित रूप से कला के इस रूप और अभिनय के आचार्य - ने इस पुराणी नाट्य परंपरा को लुप्त होने से बचाया और इसे पुनर्जीवित किया। वो रस अभिनय में अपनी महारत के लिए जाने जाते थे। उन्होंने कालिदास के नाटक अभिज्ञान शकुंतला, विक्रमोर्वसिया और मालविकाग्निमित्र; भासा के स्वप्नवासवदत्ता और पंचरात्र; हर्ष के नगनान्दा आदि नाटकों को कुटियट्टम रूप में प्रर्दशित करना शुरू किया[31][32] लोक थिएटर की परंपरा भारत के अधिकाँश भाषाई क्षेत्रों में लोकप्रिय है इसके अलावा, ग्रामीण भारत में कठपुतली थियेटर की समृद्ध परंपरा है जिसकी शुरुआत कम से कम दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व हुई थी इसका पाणिनि पर पतंजलि के वर्णन) में उल्लेख किया गया है समूह थियेटर भी शहरों में पनप रहा है, जिसकी शुरुआत गब्बी वीरंन्ना[33], उत्पल दत्त , ख्वाजा अहमद अब्बास, के वी सुबन्ना जैसे लोगों द्वारा की गई और जो आज भी नंदिकर , निनासम और पृथ्वी थियेटर जैसे समूहों द्वारा बरकरार राखी गई है अजंता की गुफाओं से जतका की कहानियां भारतीय चित्रकला की सबसे शुरूआती कृतियाँ पूर्व ऐतिहासिक काल में रॉक पेंटिंग के रूप में थी। भिम्बेद्का जैसी जगहों पाये गए पेट्रोग्लिफ - जिनमें से कुछ प्रस्तर युग में बने थे - इसका उदारहण है प्राचीन ग्रंथों में दर्राघ के सिद्धांत और उपाख्यानों के जरिये ये बताया गया है कि दरवाजों और घर के भीतरी कमरों, जहाँ मेहमान ठहराए जाते थे, उन्हें पेंट करना एक आम बात थी। अजंता, बाघ एलोरा और सित्तनवासल के गुफा चित्र और मंदिरों में बने चित्र प्रकृति से प्रेम को प्रमाणित करते हैं। सबसे पहली और मध्यकालीन कला, हिन्दू, बौद्ध या जैन है । रंगे हुए आटे से बनी एक ताजा डिजाइन (रंगोली) आज भी कई भारतीय घरों (मुख्यातक दक्षिण भारतीय घरों) के दरवाजे पर आम तौर पर बनी हुई देखी जा सकती है । मधुबनी चित्रकला और बी वेंकटप्पा[33] कुछ आधुनिक चित्रकार हैं। वर्तमान समय के कलाकारों में अतुल डोडिया, बोस कृष्णमक्नाहरी, देवज्योति राय और शिबू नटेसन, भारतीय कला के उस नए युग के प्रतिनिधि हैं जिसमें वैश्विक कला का भारतीय शास्त्रीय शैली के साथ मिलाप होता है । हाल के इन कलाकारों ने अंतर्राष्ट्रीय सम्मान अर्जित किया है । देवज्योति राय के चित्र क्यूबा के राष्ट्रिय कला संग्रहालय में रखे गए है और इसी तरह नई पीढी के कुछ अन्य कलाकारों की कृतियाँ और शोध भी नोटिस किए गए है, इनमें सुमिता अलंग जैसे ख्यात कलाकार भी हैं मुंबई की जहाँगीर आर्ट गैलरी और मैसूर पैलेस में कई अच्छे भारतीय चित्र प्रदर्शन के लिए रखे गए है । मूर्तिकला[संपादित करें] मुख्य लेख मध्य प्रदेश के प्रसिद्व खजुराहो मंदिर की हिन्दू मूर्तिकला भारत की पहली मूर्तिकला के नमूने सिन्धु घाटी सभ्यता के जमाने के हैं जहाँ पत्थर और पीतल की आकृतियों की खोज की गयी। बाद में, जब हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म का और विकास हुआ, भारत के मंदिरों में एवं पीतल की कुछ बहद जटिल नक्काशी के नमूने बने कुछ विशालकाय मंदिर जैसे की एलोरा ऐसे भी थे जिन्हें शिलाखंडों से नहीं बल्कि एक विशालकाय चट्टान को काट कर बनाया गया उत्तर पश्चिम में संगमरमर के चूने, एक प्रकार की शीस्ट, या मिट्टी से उत्पादित मुर्तिकला में भारतीय और शास्त्रीय हेलेनिस्टिक या संभावित रूप से ग्रीक-रोमन प्रभाव का भारी मिश्रण देखने को मिलता है । लगभग इसी के साथ ही मथुरा की गुलाबी बलुए पत्थरों की मूर्तिकला भी विकसित हुई इस दौरान गुप्त के शासनकाल में (६ वीं से 4 थी शताब्दी तक) मूर्तिकला, श्रेष्ठ निष्पादन और मॉडलिंग की बारीकी में एक बहुत ही उच्च स्तर पर पहुंच गयी थी। ये और इसके साथ ही भारत के अन्य क्षेत्रों में विकसित हुई शास्त्रीय भारतीय कला ने समूचे दक्षिण पूर्वी केंद्र और पूर्व एशिया में हिन्दू और बौद्ध मूर्तिकला के विकास में अपना योगदान दिया वास्तुकला[संपादित करें] मुख्य लेख राजस्थान स्थित उमैद भवन पैलेस का मारवाड हॉल भारतीय वास्तुकला में शामिल है- समय और स्थान के साथ साथ लगातार नए विचारों को अपनाती हुई अभिव्यक्ति का बाहुल्य इसके परिणामस्वरूप ऐसे वास्तुशिल्प का उत्पादन हुआ जो इतिहास के दौरान निश्चित रूप से एक निरंतरता रखता है । इसके कुछ बेहद शुरूआती उदहारण मिलते हैं शिन्धु घटी सभ्यता ईसा पूर्व) में जिसमें सुनियोजित शहर और घर पाए जाते थे। इन शहरों का खाका तय करने में धर्म और राजा द्वारा संचालन की कोई महत्वपूर्ण भूमिका रही, ऐसा प्रतीत नहीं होता मौर्य और गुप्त साम्राज्य और उनके उत्तराधिकारियों के शासनकाल में, कई बौद्ध वास्तुशिल्प परिसर, जैसे की अजंता और एलोरा और स्मारकीय सांचीस्तूप पश्चिम से इस्लामिक प्रभाव के आगमन के साथ ही, भारतीय वास्तुकला में भी नए धर्म कि परम्पराओं को अपनाना शुरू के गया। इस युग में बनी कुछ इमारतें हैं- फतेहपुर सीकरी, ताज महल, गोल गुम्बद, कुतुब मीनार दिल्ली का लाल किला आदि, ये इमारतें अक्सर भारत के अपरिवर्तनीय प्रतीक के रूप में उपयोग की जाती हैं। ब्रिटिश साम्राज्य के औपनिवेशिक शासन के दौरान हिंद-अरबी और भारतीय शैली के साथ कई अन्य यूरोपीय शैलियों जैसे गोथिक के मिश्रण को विकसित होते हुए देखा गया, विक्टोरिया मेमोरिय या विक्टोरिया टर्मिनस इसके उल्लेखनीय उदाहरण हैं। कमल मंदिर और भारत की कई आधुनिक शहरी इमारतें इनमें उल्लेखनीय हैं। वास्तुशास्त्र की पारंपरिक प्रणाली फेंग शुई के भारतीय प्रतिरूप की तरह है, जो कि शहर की योजना, वास्तुकला और अर्गोनोमिक्स (यानि कार्य की जगह को तनाव कम करने के लिए और प्रभावशाली बनाने के लिए प्रयोग होने वाला विज्ञान) को प्रभावित करता है । ये अस्पष्ट है कि इनमें से कौन सी प्रणाली पुरानी है, लेकिन दोनों में कुछ निश्चित समानताएं जरूर हैं। तुलनात्मक रूप से देखें तो फेंग श का प्रयोग पूरे विश्व में ज्यादा होता है । यद्यपि वास्तु संकल्पना के आधार पर फेंग शुई के समान है, इन दोनों में घर के अन्दर ऊर्जा के प्रवाह को संतुलित करने की कोशिश कि जाती है, (इसको संस्कृत में प्राण-शक्ति या प्राण कहा जाता है और चीनी भाषा और जापानी भाषा में इसे ची कहा जाता है) लेकिन इनके विस्तृत रूप एक दुसरे से काफी अलग हैं, जैसे की वो निश्चित दिशाएं जिनमें विभिन्न वस्तुओं, कमरों, सामानों आदि को रखना चाहिए बौद्ध धर्म के प्रसार के कारण भारतीय वास्तुकला ने पूर्वी और दक्षिण एशिया को प्रभावित किया है । भारतीय स्थापत्य कला के कुछ महत्वपूर्ण लक्षण जैसे की मंदिर टीला या स्तूप, मंदिर शीर्ष या शिखर, मंदिर टॉवर या पगोडा और मंदिर द्वार या तोरण एशियाई संस्कृति का प्रसिद्ध प्रतीक बन गये हैं और इनका प्रयोग पूर्व एशिय और दक्षिण पूर्व एशिया में बडे पैमाने पर किया जाता है । केन्द्रीय शीर्ष को कभीकभी विमानम् भी कहा जाता है । मंदिर का दक्षिणी द्वार गोपुरम अपनी गूढता और ऐश्वर्य के लिए जाना जाता है । मनोरंजन और खेल[संपादित करें] मुख्य लेख वार्षिक सर्प नाव दौड का प्रदर्शन पथानामथिट्टा के नजदीक अरनमुला पर पम्बा नदी में ओणम उत्सव के दौरान किया जाता है । मनोरंजन और खेल के क्षेत्र में भारत में खेलों की एक बडी संख्या विकसित की गयी थी। आधुनिक पूर्वी मार्शल कला भारत में एक प्राचीन खेल के रूप में शुरू हुई और कुछ लोगों द्वारा ऐसा माना जाता है कि यही खेल विदेशों में प्रेषित किये गए और बाद में उन्ही खेलों का अनुकूलन और आधुनिकीकरण किया गया। ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में आये कुछ खेल यहाँ काफी लोकप्रिय हो गए जैसे फील्ड हॉकी, फुटबॉल (सॉकर) और खासकर क्रिकेट हालांकि फील्ड हॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल है, मुख्य रूप से क्रिकेट भारत का सबसे लोकप्रिय खेल है, बल्कि न केवल भारत बल्कि पूरे उपमहाद्वीप में ये खेल मनोरंजन और पेशेवर तौर पर फल फूल रहा है । यहाँ तक कि हाल ही में क्रिकेट को भारत और पाकिस्तान के बीच राजनयिक संबंधों के लिए एक मंच के रूप में उपयोग किया जा चुका है । दोनों देशों ने क्रिकेट टीमों सालाना एक दुसरे के आमने सामने होती हैं और ऐसी प्रतियोगिता दोनों देशो के लिए काफी जोश भरी होती है । पारंपरिक स्वदेशी खेलों में शामिल हैं कबड्डी और गिल्ली-डंडा, जो देश के अधिकांश भागों में खेला जाता है । इंडोर (घर के भीतर खेले जाने वाले) और आउटडोर (घर के बाहर खेले जाने वाले) खेल जैसे कि शतरंज, सांप और सीढी , ताश, पोलो, कैरम, बैडमिंटन भी लोकप्रिय हैं। शतरंज का आविष्कार भारत में किया गया था। भारत में ताकत और गति के खेलों बहुत समृद्ध हैं। प्राचीन भारत में वजन, कंचे या पास के रूप में पत्थर का प्रोयोग किया जाता था। प्राचीन भारत में रथ दौड, तीरंदाजी, घुडसवारी, सैन्य रणनीति, कुश्ती, भारोत्तोलन, शिकार, तैराकी और दौड प्रतियोगिताएं होती थीं। लोकप्रिय मीडिया[संपादित करें] टेलीविजन[संपादित करें] मुख्य लेख भारतीय टेलिविजन कि शुरुआत १९५९ में शिक्षा कार्यक्रमों के प्रसारण के परीक्षण के साथ हुई [34] भारतीय छोटे परदे के कार्यक्रम १९७० के मध्य में शुरू किये गए। उस समय वहां केवल एक राष्ट्रीय चैनल दूरदर्शन था, जो कि सरकार द्वारा अधिकृत था, १९८२ में भारत में नै दिल्ली एशियाई खेलों के साथ टी वी प्रोग्रामिंग में क्रांति आई, उसी वर्ष भारत में पहली बार रंगीन टी वी आये रामायण और महाभारत कुछ लोकप्रिय टेलीविजन श्रृंखलाओं में से थे। 1980 के दशक के अंतिम हिस्से तक अधिक से अधिक लोगों के पास अपने टीवी सेट हो गए थे। हालांकि चैनल एक ही था, टीवी प्रोग्रामिंग संतृप्ति पर पहुँचा चुकी थी। इसलिए सरकार ने एक अन्य चैनल खोल दिया जिसमें कुछ भाग राष्ट्रीय प्रोग्रामिंग और कुछ भाग क्षेत्रीय प्रोग्रामिंग का था। इस चैनल को डीडी २ और बाद में डीडी मेट्रो के रूप में जाना जाता था। दोनों चैनलों पृथ्वी से प्रसारित थे। १९९१ में, सरकार ने अपने बाजार खोले और केबल टेलीविजन की शुरुआत हुई तब से उपलब्ध चैनलों की संख्या में एक बडा उछाल कर आया है । आज, भारतीय सिल्वर स्क्रीन अपने आप में एक बहुत बडा उद्योग है और इसमें भारत के सभी राज्यों के हजारों कार्यक्रम है । छोटे परदे ने कई सिलेब्रिटी यानि मशहूर हस्तियों को जन्म दिया है और उनमें से कुछ आज अपने लिए राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुके हैं। कामकाजी महिलाओं और यहाँ तक की सभी प्रकार के पुरुषों में भी टी वि धारावाहिक बेहद लोकप्रिय हैं। छोटे परदे पर काम करने वाले कुछ अभिनेताओं ने बॉलीवुड में भी अच्छी जगह बनाई है । भारतीय टीवी, पश्चिमी टीवी की तरह ही विकसित हो चूका है और यहाँ भी कार्टून नेटवर्क, निकेलोदियन, एमटीवी इंडिया जैसे स्टेशन आते हैं। सिनेमा[संपादित करें] मुख्य लेख एक बॉलीवुड डांस नंबर की शूटिंग बॉलीवुड, मुम्बई स्थित भारत के लोकप्रिय फिल्म उद्योग का अनौपचारिक नाम है । बॉलीवुड और अन्य प्रमुख सिनेमाई केन्द्रों (बंगाली, कन्नड, मलयालम, मराठी, तमिल, तेलुगु ) को मिलाकर व्यापक भारतीय फिल्म उद्योग का गठन होता है । सबसे ज्यादा संख्या में फिल्मों के निर्माण और बेचे गए टिकटों की सबसे बडी संख्या के आधार पर इसका उत्पादन दुनिया में सबसे ज्यादा माना जाता है । व्यावसायिक फिल्मों के अलावा, भारत में भी समीक्षकों द्वारा बहुप्रशंसित सिनेमा का निर्माण हुआ है । जैसे की सत्यजीत रे, गिरीश कर्नाड, जी वी अय्यर जैसे निर्माताओं द्वारा बनाई गयी फिल्में भारतीय फिल्म निर्देशक खें) दरअसल, हाल के वर्षों में अर्थव्यवस्था के खुलने और विश्व सिनेमा की झलक मिलने से दर्शकों की पसंद बदल गयी है । इसके अलावा, अधिकांश शहरों में मल्टीप्लेक्स के तेजी से बढे है जिससे, राजस्व का स्वरूप भी बदलने लगा है । रेडियो[संपादित करें] मुंबई में फॉक्सहंट पर अप्रवीण रेडियो ऑपरेटर भारत में रेडियो प्रसारण १९२७ में, निजी स्वामित्व के दो ट्रांसमीटरों द्वारा बॉम्बे और कोलकाता में शुरू हुआ। १९३० में इनका राष्ट्रीयकारन किया गया और १९३६ तक इन्होने "भारतीय प्रसारण सेवा" नाम से काम किया। १९३६ में इनका नाम बदल कर, ऑल इंडिया रेडियो (एआईआर) कर दिया गया। यद्यपि १९५७ में आधिकारिक तौर पर इसका नाम बदल कर आकाशवाणी कर दिया गया लेकिन आज भी यह ऑल इंडिया रेडियो के नाम से लोकप्रिय है । ऑल इंडिया रेडियो प्रसार भारती (ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया) का एक अंग है । जो कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार की एक स्वायत्त संस्था है । यह प्रसार भारती के राष्ट्रीय टेलीविजन प्रसारणकर्ता दूरदर्शन की एक सहयोगी संस्था है । २० वीं शताब्दी के अंत के बाद से भारत में रेडियो आवृत्तियों एफ एम् और ए एम् बैंड को निजी क्षेत्र के प्रसारणकर्ताओं के लिए खोला दिया गया है लेकिन ऐसी सेवा ज्यादातर महानगरीय क्षेत्रों तक ही सीमित है । मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद, बंगलौर जैसे शहरों में कई एनी निजी एफ एम् चैनल लोकप्रिय हिंदी और अंग्रेजी संगीत प्रसारित करते हैं, हालाँकि उन आकाशवाणी की तरह समाचार प्रसारित करने का अधिकार नहीं है । हाल ही में वर्ल्ड स्पेस ने देश की पहली उपग्रह रेडियो सेवा का शुभारंभ किया। इन्हें भी देखें दर्शन शास्त्र[संपादित करें] मुख्य लेख स्वामी विवेकानंद १९ वीं सदी के सबसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली समाज सुधारकों में से एक थे। विभिन्न युगों के दौरान भारतीय दर्शन का पूरे विश्व विशेषकर पूर्व में काफी प्रभाव पडा है । वैदिक काल के बाद, पिछले २५०० सालों में दर्शन के कई विभिन्न अनुयायी वर्ग जैसे कि बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म के कई सम्प्रदाय विकसित हुए हैं। हालांकि, भारत ने भी तर्कवाद, बुद्धिवाद, विज्ञान, गणित, भौतिकवाद, नास्तिकता, अज्ञेयवाद आदि की कुछ सबसे पुराणी और सबसे प्रभावशाली धर्मनिरपेक्ष परम्पराओं को जन्म दिया है जो कई बार इस वजह से अनदेखी कर दी जाती है क्योंकि भारत के बारे में एक लोकप्रिय धारणा ये है की भारत एक रहे हैं और एक 'रहस्यमय' देश है । कई जटिल वैज्ञानिक और गणितीय अवधारणाओं जैसे की शून्य का विचार, अरब की मध्यस्थता में यूरोप तक पहुंचा। कर्वाका, भारत में नास्तिकता का सबसे प्रसिद्द अनुयायी वर्ग है, इसे कुछ लोगों द्वारा विश्व का सबसे पुराना भौतिकवादी अनुयायी वर्ग भी माना जाता है । ये उसी समय बन जब बौद्ध धर्म और जैन धर्म के प्रारभिक दर्शन का निर्माण हो रहा था। ५०० वर्ष ईसा पूर्व के पास की अवधि में भारतीय और वैश्विक दर्शन में एक तीव्र परिवर्तन आया था। और उसी समय समकालीन यूनानी स्कूल भी उभर कर सामने आये थे। कुछ लोगों का मानना है की कुछ भारतीय दर्शन की अवधारणाओं से यूनान को परिचित कराय गया जबकि अन्य पारसी साम्राज्य के माध्यम से भारत में आये; सिकंदर महान के अभियान कजे बाद ऐसे पारस्परिक आदान प्रदान में वृद्धि हुई प्राचीन काल से ही भारत में दर्शन को दिए जाने वाले महत्त्व के अतिरिक्त, आधुनिक भारत ने भी कुछ प्रभावशाली दार्शनिकों को जन्म दिया है, जिन्होंने राष्ट्रीय भाषा के साथ साथ प्रायः अंग्रेजी में भी लिखा है । भारत के ब्रिटिशों द्वारा उपनिवेश बनाये जाने के दौरान, भारत के कुछ धार्मिक विचारकों ने विश्व भर में उतनी ही ख्याति अर्जित की जितनी की प्राचीन भारतीय ग्रंथों ने उनमें से कुछ के कार्य को अंग्रेजी, जर्मन और अन्य भाषाओँ में अनुवादित भी किया गया। स्वामी विवेकानंद अमेरिका गए और वहां उन्होंने विश्व धर्म संसद में हिस्सा लिया, उन्होंने धरती हिला देने वाले या कहिये अत्यंत प्रभावशाली वक्तव्य से सबको प्रभावित किया, वहन आये ज्यादातर प्रतिनिधियों के लिए ये हिन्दू दर्शन से पहला साक्षात्कार था। कई धार्मिक विचारक जैसे की महात्मा गाँधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अन्य सदस्यों ने राजनीतिक दर्शन के नए रूप को जन्म दिया जिसने आधुनिक भारतीय लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और उदारवाद के आधार को बनाया आज, एशिया का पहला आर्थिक विज्ञान में नोबेल मेमोरियल पुरस्कार जीतने वाले अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्री भारत को दुनिया के विचारों में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले एक देश के रूप में प्रतिष्ठित कर रहे है । संस्कृति - सांस्कृतिक विचारों और अभिव्यक्तियों की प्रतिनिधि पत्रिका, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित भारतीयता की पहचान (गूगल पुस्तक ; लेखक - विद्यानिवास मिश्र) संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार पांडुलिपियों के संरक्षण और उन्हें उपलब्ध बनाने के लिए समर्पित भारत सरकार की साइट अंग्रेजी, फ्रांसीसी, स्पेनी, इतालवी, जर्मन और रोमानी में भारतीय परंपराओं और विश्व संस्कृति पर निबंध, वाद विवाद, मल्टीमीडिया वर्णन आदि संस्कृति सामान्य ज्ञान भारतीय राष्ट्रीय सांस्कृतिक अध्ययनपीठ भारतीय संस्कृति का संक्षिप्त इतिहास इ-संस्कृति (अंग्रेजी में) लेख विश्वव्यापी भारतीय संस्कृति (रघूत्तम शुक्ल) शाश्वत है भारतीय संस्कृति और इसकी विरासत (के० के० यादव) भारतीय संस्कृति और उसके मायने (द थर्ड आई) "नथिंग टु गो बैक टु- द फेट ऑफ द विडो ऑफ वृन्दावन, इंडिया" डबल्यू एन एन - विमेन न्यूज नेटवर्क नवम्बर ३, २००७ ट्रेजर हाउस ऑफ इंडियाज आर्ट एंड कल्चर या भारतीय कला और संस्कृति का खजाना इंडियनकल्चरऑनलाइन डॉट कॉम - इंडियन कल्चर फोटोज (भारतीय संस्कृति से जुडी तसवीरें तथा विस्तृत जानकारी) संस्कृति क्षेत्र भारतीय संस्कृति का एक परिचय संस्कृति का विस्तार (अखिल विश्व गायत्री परिवार) %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80 %%%%% CS671 : gprachi@iitk.ac.in 150803 हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है । चीनी के बाद यह विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा भी है । हिन्दी और इसकी बोलियाँ उत्तर एवं मध्य भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। भारत और अन्य देशों में ६० करोड से अधिक लोग हिन्दी बोलते, पढते और लिखते हैं। फिजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम की अधिकतर और नेपाल की कुछ जनता हिन्दी बोलती है । हिन्दी राष्ट्रभाषा, राजभाषा, सम्पर्क भाषा, जनभाषा के सोपानों को पार कर विश्वभाषा बनने की ओर अग्रसर है । भाषा विकास क्षेत्र से जुडे वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी हिन्दी प्रेमियों के लिए बडी सन्तोषजनक है कि आने वाले समय में विश्वस्तर पर अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की जो चन्द भाषाएँ होंगी उनमें हिन्दी भी प्रमुख होगी। हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति हिन्दी शब्द का सम्बन्ध संस्कृत शब्द सिन्धु से माना जाता है । 'सिन्धु' सिन्ध नदी को कहते थे और उसी आधार पर उसके आस-पास की भूमि को सिन्धु कहने लगे। यह सिन्धु शब्द ईरानी में जाकर ‘हिन्दू’, हिन्दी और फिर हिन्द हो गया बाद में ईरानी धीरे-धीरे भारत के अधिक भागों से परिचित होते गए और इस शब्द के अर्थ में विस्तार होता गया तथा हिन्द शब्द पूरे भारत का वाचक हो गया। इसी में ईरानी का ईक प्रत्यय लगने से (हिन्द ईक) बना जिसका अर्थ है हिन्द का। यूनानी शब्द इन्दिका या अंग्रेजी शब्द 'इण्डिया आदि इस हिन्दीक के ही विकसित रूप हैं। हिन्दी भाषा के लिए इस शब्द का प्राचीनतम प्रयोग शरफुद्दीन यज्+दी के जफरनामा(१४२४) में मिलता है । प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने अपने " हिन्दी एवं उर्दू का अद्वैत " शीर्षक आलेख में हिन्दी की व्युत्पत्ति पर विचार करते हुए कहा है कि ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में 'स्' ध्वनि नहीं बोली जाती थी। 'स्' को 'ह्' रूप में बोला जाता था। जैसे संस्कृत के 'असुर' शब्द को वहाँ 'अहुर' कहा जाता था। अफगानिस्तान के बाद सिन्धु नदी के इस पार हिन्दुस्तान के पूरे इलाके को प्राचीन फारसी साहित्य में भी 'हिन्द', 'हिन्दुश' के नामों से पुकारा गया है तथा यहाँ की किसी भी वस्तु, भाषा, विचार को 'एडजेक्टिव' के रूप में 'हिन्दीक' कहा गया है जिसका मतलब है 'हिन्द का'। यही 'हिन्दीक' शब्द अरबी से होता हुआ ग्रीक में 'इन्दिके', इन्दिका, लैटिन में 'इन्दिया' तथा अंग्रेजी में 'इण्डिया' बन गया। अरबी एवँ फारसी साहित्य में हिन्दी में बोली जाने वाली भाषाओं के लिए 'जबान-ए-हिन्दी', पद का उपयोग हुआ है । भारत आने के बाद मुसलमानों ने 'जबान-ए-हिन्दी', 'हिन्दी जुबान' अथवा 'हिन्दी' का प्रयोग दिल्ली-आगरा के चारों ओर बोली जाने वाली भाषा के अर्थ में किया। भारत के गैर-मुस्लिम लोग तो इस क्षेत्र में बोले जाने वाले भाषा-रूप को 'भाखा' नाम से पुकराते थे, 'हिन्दी' नाम से नहीं। हिन्दी एवं उर्दू मुख्य लेख : हिन्दी एवं उर्दू भाषाविद हिन्दी एवं उर्दू को एक ही भाषा समझते है । हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और शब्दावली के स्तर पर अधिकांशत: संस्कृत के शब्दों का प्रयोग करती है । उर्दू, फारसी लिपि में लिखी जाती है और शब्दावली के स्तर पर उस पर फारसी और अरबी भाषाओं का प्रभाव अधिक है । व्याकरणिक रुप से उर्दू और हिन्दी में लगभग शत-प्रतिशत समानता है । केवल कुछ विशेष क्षेत्रों में शब्दावली के स्त्रोत (जैसा कि ऊपर लिखा गया है) में अंतर होता है । कुछ विशेष ध्वनियाँ उर्दू में अरबी और फारसी से ली गयी हैं और इसी प्रकार फारसी और अरबी की कुछ विशेष व्याकरणिक संरचना भी प्रयोग की जाती है । उर्दू और हिन्दी को खडी बोली की दो शैलियाँ कहा जा सकता है । परिवार हिन्दी हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार परिवार के अन्दर आती है । ये हिन्द ईरानी शाखा की हिन्द आर्य उपशाखा के अन्तर्गत वर्गीकृत है । हिन्द-आर्य भाषाएँ वो भाषाएँ हैं जो संस्कृत से उत्पन्न हुई हैं। उर्दू, कश्मीरी, बंगाली, उडिया, पंजाबी, रोमानी, मराठी नेपाली जैसी भाषाएँ भी हिन्द-आर्य भाषाएँ हैं। हिन्दी का निर्माण-काल अपभ्रंश की समाप्ति और आधुनिक भारतीय भाषाओं के जन्मकाल के समय को संक्रांतिकाल कहा जा सकता है । हिन्दी का स्वरूप शौरसेनी और अर्धमागधी अपभ्रंशों से विकसित हुआ है । १००० ई के आसपास इसकी स्वतंत्र सत्ता का परिचय मिलने लगा था, जब अपभ्रंश भाषाएँ साहित्यिक संदर्भों में प्रयोग में आ रही थीं। यही भाषाएँ बाद में विकसित होकर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के रूप में अभिहित हुईं। अपभ्रंश का जो भी कथ्य रुप था - वही आधुनिक बोलियों में विकसित हुआ। अपभ्रंश के सम्बंध में ‘देशी’ शब्द की भी बहुधा चर्चा की जाती है । वास्तव में ‘देशी’ से देशी शब्द एवं देशी भाषा दोनों का बोध होता है । प्रश्न यह कि देशीय शब्द किस भाषा के थे ? भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में उन शब्दों को ‘देशी’ कहा है ‘जो संस्कृत के तत्सम एवं सद्भव रूपों से भिन्न है । ये ‘देशी’ शब्द जनभाषा के प्रचलित शब्द थे, जो स्वभावतया अप्रभंश में भी चले आए थे। जनभाषा व्याकरण के नियमों का अनुसरण नहीं करती, परंतु व्याकरण को जनभाषा की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करना पडता है, प्राकृत-व्याकरणों ने संस्कृत के ढाँचे पर व्याकरण लिखे और संस्कृत को ही प्राकृत आदि की प्रकृति माना। अतः जो शब्द उनके नियमों की पकड में न आ सके, उनको देशी संज्ञा दी गई। इतिहास क्रम मुख्य लेख : हिन्दी भाषा का इतिहास हिन्दी भाषा का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना माना गया है हिन्दी भाषा के जानकार अपभ्रंश की अंतिम 'अवहट्ठ' से हिन्दी का उद्भव स्वीकार करते हैं। चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने इसी अवहट्ठ को 'पुरानी हिन्दी' नाम दिया। हिन्दी की विशेषताएँ एवं शक्ति हिंदी भाषा के उज्ज्वल स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी गुणवत्ता, क्षमता, शिल्प-कौशल और सौंदर्य का सही-सही आकलन किया जाए। यदि ऐसा किया जा सके तो सहज ही सब की समझ में यह आ जाएगा कि - संसार की उन्नत भाषाओं में हिंदी सबसे अधिक व्यवस्थित भाषा है । वह सबसे अधिक सरल भाषा है । वह सबसे अधिक लचीली भाषा है । वह एक मात्र ऐसी भाषा है जिसके अधिकतर नियम अपवादविहीन है । वह सच्चे अर्थों में विश्व भाषा बनने की पूर्ण अधिकारी है । हिन्दी लिखने के लिये प्रयुक्त देवनागरी लिपि अत्यन्त वैज्ञानिक है । हिन्दी को संस्कृत शब्दसंपदा एवं नवीन शब्द-रचना-सामर्थ्य विरासत में मिली है । वह देशी भाषाओं एवं अपनी बोलियों आदि से शब्द लेने में संकोच नहीं करती। अंग्रेजी के मूल शब्द लगभग १०,००० हैं, जबकि हिन्दी के मूल शब्दों की संख्या ढाई लाख से भी अधिक है । हिन्दी बोलने एवं समझने वाली जनता पचास करोड से भी अधिक है । हिन्दी का साहित्य सभी दृष्टियों से समृद्ध है । हिन्दी आम जनता से जुडी भाषा है तथा आम जनता हिन्दी से जुडी हुई है । हिन्दी कभी राजाश्रय की मोहताज नहीं रही। भारत के स्वतंत्रता-संग्राम की वाहिका और वर्तमान में देशप्रेम का अमूर्त-वाहन भारत की सम्पर्क भाषा भारत की राजभाषा हिन्दी के विकास की अन्य विशेषताएँ हिन्दी पत्रकारिता का आरम्भ भारत के उन क्षेत्रों से हुआ जो हिन्दी-भाषी नहीं थे/हैं (कोलकाता, लाहौर आदि। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आन्दोलन अहिन्दी भाषियों (महात्मा गांधी, दयानन्द सरस्वती आदि) ने आरम्भ किया। हिन्दी भाषा सदा से उत्तर-दक्षिण के भेद से परे चहुंदिशी व्यावहारिक होती चली आई है । उदाहरण के लिये दक्षिण के प्रमुख संतो वल्लभाचार्य, विट्ठल, रामानुज, रामानन्द आदि महाराष्ट्र के नामदेव तथा संत ज्ञानेश्वर, गुजरात के नरसी मेहता, राजस्थान के दादू, रज्जव, मीराबाई, पंजाब के गुरु नानक, असम के शंकरदेव, बंगाल के चैतन्य महाप्रभु तथा सूफी संतो ने अपने धर्म और संस्कृति का प्रचार हिन्दी में ही किया है । इन्होने एक मात्र सशक्त साधन हिन्दी को ही माना था। हिन्दी पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी है । हिन्दी के विकास में राजाश्रय का कोई स्थान नहीं है; इसके विपरीत, हिन्दी का सबसे तेज विकास उस दौर में हुआ जब हिन्दी अंग्रेजी-शासन का मुखर विरोध कर रही थी। जब-जब हिन्दी पर दबाव पडा, वह अधिक शक्तिशाली होकर उभरी है । जब बंगाल, उडीसा, गुजरात तथा महाराष्ट्र में उनकी अपनी भाषाएँ राजकाज तथा न्यायालयों की भाषा बन चुकी थी उस समय भी संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश) की भाषा हिन्दुस्तानी थी (और उर्दू को ही हिन्दुस्तानी माना जाता था जो फारसी लिपि में लिखी जाती थी)। १९वीं शताब्दी तक उत्तर प्रदेश की राजभाषा के रूप में हिन्दी का कोई स्थान नहीं था। परन्तु २०वीं सदी के मध्यकाल तक वह भारत की राष्ट्रभाषा बन गई। हिन्दी के विकास में पहले साधु-संत एवं धार्मिक नेताओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा। उसके बाद हिन्दी पत्रकारिता एवं स्वतंत्रता संग्राम से बहुत मदद मिली; फिर बंबइया फिल्मों से सहायता मिली और अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (टीवी) के कारण हिन्दी समझने-बोलने वालों की संख्या में बहुत अधिक वृद्धि हुई है । हिन्दी का मानकीकरण मुख्य लेख : हिन्दी वर्तनी मानकीकरण स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से हिन्दी और देवनागरी के मानकीकरण की दिशा में निम्नलिखित क्षेत्रों में प्रयास हुये हैं :- हिन्दी व्याकरण का मानकीकरण वर्तनी का मानकीकरण शिक्षा मंत्रालय के निर्देश पर केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा देवनागरी का मानकीकरण वैज्ञानिक ढंग से देवनागरी लिखने के लिये एकरूपता के प्रयास यूनिकोड का विकास हिन्दी की शैलियाँ भाषाविदों के अनुसार हिन्दी के चार प्रमुख रूप या शैलियाँ हैं : (१) उच्च हिन्दी - हिन्दी का मानकीकृत रूप, जिसकी लिपि देवनागरी है । इसमें संस्कृत भाषा के कई शब्द है, जिन्होंने फारसी और अरबी के कई शब्दों की जगह ले ली है । इसे शुद्ध हिन्दी भी कहते हैं। आजकल इसमें अंग्रेजी के भी कई शब्द आ गये हैं (खास तौर पर बोलचाल की भाषा में)। यह खडीबोली पर आधारित है, जो दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में बोली जाती थी। (२) दक्खिनी - हिन्दी का वह रूप जो हैदराबाद और उसके आसपास की जगहों में बोला जाता है । इसमें फारसी-अरबी के शब्द उर्दू की अपेक्षा कम होते हैं। (३) रेख्ता - उर्दू का वह रूप जो शायरी में प्रयुक्त होता है । (३) उर्दू - हिन्दी का वह रूप जो देवनागरी लिपि के बजाय फारसी-अरबी लिपि में लिखा जाता है । इसमें संस्कृत के शब्द कम होते हैं, और फारसी-अरबी के शब्द अधिक। यह भी खडीबोली पर ही आधारित है । हिन्दी और उर्दू दोनों को मिलाकर हिन्दुस्तानी भाषा कहा जाता है । हिन्दुस्तानी मानकीकृत हिन्दी और मानकीकृत उर्दू के बोलचाल की भाषा है । इसमें शुद्ध संस्कृत और शुद्ध फारसी-अरबी दोनों के शब्द कम होते हैं और तद्भव शब्द अधिक। उच्च हिन्दी भारतीय संघ की राजभाषा है (अनुच्छेद ३४३, भारतीय संविधान)। यह इन भारयीय राज्यों की भी राजभाषा है : उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तरांचल, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली। इन राज्यों के अतिरिक्त महाराष्ट्र, गुजरात, पश्चिम बंगाल, पंजाब (भारत) और हिन्दी भाषी राज्यों से लगते अन्य राज्यों में भी हिन्दी बोलने वालों की अच्छी संख्या है । उर्दू पाकिस्तान की और भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर की राजभाषा है । यह लगभग सभी ऐसे राज्यों की सह-राजभाषा है; जिनकी मुख्य राजभाषा हिन्दी है । दुर्भाग्यवश हिन्दुस्तानी को कहीं भी संवैधानिक दर्जा नहीं मिला हुआ है । हिन्दी की बोलियाँ मुख्य लेख : हिंदी की विभिन्न बोलियाँ और उनका साहित्य हिन्दी का क्षेत्र विशाल है तथा हिन्दी की अनेक बोलियाँ (उपभाषाएँ) हैं। इनमें से कुछ में अत्यंत उच्च श्रेणी के साहित्य की रचना भी हुई है । ऐसी बोलियों में ब्रजभाषा और अवधी प्रमुख हैं। ये बोलियाँ हिन्दी की विविधता हैं और उसकी शक्ति भी। वे हिन्दी की जडों को गहरा बनाती हैं। हिन्दी की बोलियाँ और उन बोलियों की उपबोलियाँ हैं जो न केवल अपने में एक बडी परंपरा, इतिहास, सभ्यता को समेटे हुए हैं वरन स्वतंत्रता संग्राम, जनसंघर्ष, वर्तमान के बाजारवाद के खिलाफ भी उसका रचना संसार सचेत है । [4] हिन्दी की बोलियों में प्रमुख हैं- अवधी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुंदेली, बघेली, भोजपुरी, हरयाणवी, राजस्थानी, छत्तीसगढी, मालवी, झारखंडी, कुमाउँनी, मगही आदि। किन्तु हिंदी के मुख्य दो भेद हैं - पश्चिमी हिंदी तथा पूर्वी हिंदी। शब्दावली हिन्दी शब्दावली में मुख्यतः दो वर्ग हैं- तत्सम शब्द- ये वो शब्द हैं जिनको संस्कृत से बिना कोई रूप बदले ले लिया गया है । जैसे अग्नि, दुग्ध दन्त, मुख। तद्भव शब्द- ये वो शब्द हैं जिनका जन्म संस्कृत या प्राकृत में हुआ था, लेकिन उनमें काफी ऐतिहासिक बदलाव आया है । जैसे आग, दूध, दाँत, मुँह। इसके अतिरिक्त हिन्दी में कुछ देशज शब्द भी प्रयुक्त होते हैं। देशज का अर्थ है - 'जो देश में ही उपजा या बना हो'। जो न तो विदेशी हो और न किसी दूसरी भाषा के शब्द से बना है । ऐसा शब्द जो न संस्कृत हो, न संस्कृत का अपभ्रंश हो और न किसी दूसरी भाषा के शब्द से बना हो, बल्कि किसी प्रदेश के लोगों ने बोल-चाल में जों ही बना लिया हो। जैसे- खटिया, लुटिया इसके अलावा हिन्दी में कई शब्द अरबी, फारसी, तुर्की, अंग्रेजी आदि से भी आये हैं। इन्हें विदेशी शब्द कह सकते हैं। जिस हिन्दी में अरबी, फारसी और अंग्रेजी के शब्द लगभग पूरी तरह से हटा कर तत्सम शब्दों को ही प्रयोग में लाया जाता है, उसे "शुद्ध हिन्दी" कहते हैं। भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी मुख्य लेख : भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी देवनागरी लिपी में लिखित हिन्दी भारत की प्रथम राजभाषा है । भारतीय संविधान में इससे सम्बन्धित प्राविधानों की जानकारी के लिये विस्तृत लेख भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी देखेँ। हिन्दी की गिनती हिन्दी की गिनती दशमलव पर आधारित है । हिन्दी अंक :- ० १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ व्याकरण मुख्य लेख : हिन्दी व्याकरण हिंदी मे दो लिंग होते हैं - पुल्लिंग और स्त्रीलिंग। संज्ञा में तीन शब्द-रूप हो सकते हैं — प्रत्यक्ष रूप, अप्रत्यक्ष रूप और संबोधन रूप। सर्वनाम में कर्म रूप और सम्बन्ध रूप भी होते हैं, पर सम्बोधन रूप नहीं होता। संज्ञा और आ-कारन्त विशेषण में प्रत्यय द्वारा रूप बदला जाता है । सर्वनाम में लिंग-भेद नहीं होता। क्रिया के भी कई रूप होते हैं, जो प्रत्यय और सहायक क्रियाओं द्वारा बदले जाते हैं। क्रिया के रूप से उसके विषय संज्ञा या सर्वनाम के लिंग और वचन का भी पता चल जात है । हिन्दी में दो वचन होते हैं — एकवचन और बहुवचन। किसी शब्द की वाक्य में जगह बताने के लिये कई कारक होते हैं, जो शब्द के बाद आते हैं । यदि संज्ञा को कारक के साथ ठीक से रखा जाये तो वाक्य में शब्द-क्रम काफी मुक्त होता है । हिन्दी और कम्प्यूटर मुख्य लेख : हिन्दी कम्प्यूटरी, हिन्दी टाइपिंग, कम्प्यूटर और हिन्दी, हिन्दी कम्प्यूटिंग का इतिहास, मोबाइल फोन में हिन्दी समर्थन और अन्तरजाल पर हिन्दी के उपकरण (सॉफ्टवेयर) कम्प्यूटर और इन्टरनेट ने पिछ्ले वर्षों मे विश्व मे सूचना क्रांति ला दी है । आज कोई भी भाषा कम्प्यूटर (तथा कम्प्यूटर सदृश अन्य उपकरणों) से दूर रहकर लोगों से जुडी नही रह सकती। कम्प्यूटर के विकास के आरम्भिक काल में अंग्रेजी को छोडकर विश्व की अन्य भाषाओं के कम्प्यूटर पर प्रयोग की दिशा में बहुत कम ध्यान दिया गया जिससे कारण सामान्य लोगों में यह गलत धारणा फैल गयी कि कम्प्यूटर अंग्रेजी के सिवा किसी दूसरी भाषा (लिपि) में काम ही नही कर सकता। किन्तु यूनिकोड (Unicode) के पदार्पण के बाद स्थिति बहुत तेजी से बदल गयी। इस समय हिन्दी में सजाल (websites), चिट्ठे (Blogs), विपत्र (email), गपशप (chat), खोज (web-search), सरल मोबाइल सन्देश (SMS) तथा अन्य हिन्दी सामग्री उपलब्ध हैं। इस समय अन्तरजाल पर हिन्दी में संगणन के संसाधनों की भी भरमार है और नित नये कम्प्यूटिंग उपकरण आते जा रहे हैं। लोगों मे इनके बारे में जानकारी देकर जागरूकता पैदा करने की जरूरत है ताकि अधिकाधिक लोग कम्प्यूटर पर हिन्दी का प्रयोग करते हुए अपना, हिन्दी का और पूरे हिन्दी समाज का विकास करें। हिन्दी और जनसंचार मुख्य लेख : हिन्दी के संचार माध्यम और हिन्दी सिनेमा हिन्दी सिनेमा का उल्लेख किये बिना हिन्दी का कोई भी लेख अधूरा होगा। मुम्बई मे स्थित "बॉलीवुड" हिन्दी फिल्म उद्योग पर भारत के करोडो लोगों की धडकनें टिकी रहती हैं। हर चलचित्र में कई गाने होते हैं। हिन्दी और उर्दू (खडीबोली) के साथ साथ अवधी, बम्बइया हिन्दी, भोजपुरी, राजस्थानी जैसी बोलियाँ भी संवाद और गानों मे उपयुक्त होती हैं। प्यार, देशभक्ति, परिवार, अपराध, भय, इत्यादि मुख्य विषय होते हैं। अधिकतर गाने उर्दू शायरी पर आधारित होते हैं। कुछ लोकप्रिय चलचित्र हैं: महल (१९४९), श्री ४२० (१९५५), मदर इंडिया (१९५७), मुगल-ए-आजम (१९६०), गाइड (१९६५), पाकीजा (१९७२), बॉबी (१९७३), जंजीर (१९७३), यादों की बारात (१९७३), दीवार (१९७५), शोले (१९७५), मिस्टर इंडिया (१९८७), कयामत से कयामत तक (१९८८), मैंने प्यार किया (१९८९), जो जीता वही सिकन्दर (१९९१), हम आपके हैं कौन (१९९४), दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (१९९५), दिल तो पागल है (१९९७), कुछ कुछ होता है (१९९८), ताल (१९९९), कहो ना प्यार है (२०००), लगान (२००१), दिल चाहता है (२००१), कभी खुशी कभी गम (२००१), देवदास (२००२), साथिया (२००२), मुन्ना भाई एमबीबीएस (२००३), कल हो ना हो (२००३), धूम (२००४), वीर-जारा (२००४), स्वदेस (२००४), सलाम नमस्ते (२००५), रंग दे बसंती (२००६) इत्यादि। हिन्दी का वैश्विक प्रसार मुख्य लेख : आधुनिक हिंदी का अंतर्राष्ट्रीय विकास सन् 1998 के पूर्व, मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के जो आँकडे मिलते थे, उनमें हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था। सन् 1997 में सैन्सस ऑफ इंडिया का भारतीय भाषाओं के विश्लेषण का ग्रन्थ प्रकाशित होने तथा संसार की भाषाओं की रिपोर्ट तैयार करने के लिए यूनेस्को द्वारा सन् 1998 में भेजी गई यूनेस्को प्रश्नावली के आधार पर उन्हें भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन द्वारा भेजी गई विस्तृत रिपोर्ट के बाद अब विश्व स्तर पर यह स्वीकृत है कि मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से संसार की भाषाओं में चीनी भाषा के बाद हिन्दी का दूसरा स्थान है । चीनी भाषा के बोलने वालों की संख्या हिन्दी भाषा से अधिक है किन्तु चीनी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की अपेक्षा सीमित है । अंग्रेजी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की अपेक्षा अधिक है किन्तु मातृभाषियों की संख्या अंग्रेजी भाषियों से अधिक है । विश्व के लगभग बीसवीं शती के अंतिम दो दशकों में हिंदी का अंतर्राष्ट्रीय विकास बहुत तेजी से हुआ है वेब, विज्ञापन, संगीत, सिनेमा और बाजार के क्षेत्र में हिंदी की मांग जिस तेजी से बढी है वैसी किसी और भाषा में नहीं। विश्व के लगभग 150 विश्वविद्यालयों तथा सैंकडों छोटे-बडे केंद्रों में विश्वविद्यालय स्तर से लेकर शोध स्तर तक हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था हुई है । विदेशों से 25 से अधिक पत्र-पत्रिकाएं लगभग नियमित रूप से हिंदी में प्रकाशित हो रही हैं। यूएई के 'हम एफ-एम' सहित अनेक देश हिंदी कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं, जिनमें बीबीसी, जर्मनी के डॉयचे वेले, जापान के एनएचके वर्ल्ड और चीन के चाइना रेडियो इंटरनेशनल की हिंदी सेवा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF %%%%% CS671 : gprachi@iitk.ac.in 150803 हिन्दी भारत और विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है । उसकी जडें प्राचीन भारत की संस्कृत भाषा में तलाशी जा सकती हैं। परंतु हिन्दी साहित्य की जडें मध्ययुगीन भारत की ब्रजभाषा, अवधी, मैथिली और मारवाडी जैसी भाषाओं के साहित्य में पाई जाती हैं। हिंदी में गद्य का विकास बहुत बाद में हुआ और इसने अपनी शुरुआत कविता के माध्यम से जो कि ज्यादातर लोकभाषा के साथ प्रयोग कर विकसित की गई। हिंदी में तीन प्रकार का साहित्य मिलता है । गद्य पद्य और चम्पू। हिंदी की पहली रचना कौन सी है इस विषय में विवाद है लेकिन ज्यादातर साहित्यकार देवकीनन्दन खत्री द्वारा लिखे गये उपन्यास चंद्रकांता को हिन्दी की पहली प्रामाणिक गद्य रचना मानते हैं। हिन्दी साहित्य का इतिहास मुख्य लेख हिंदी साहित्य का इतिहास हिंदी साहित्य का आरंभ आठवीं शताब्दी से माना जाता है । यह वह समय है जब सम्राट् हर्ष की मृत्यु के बाद देश में अनेक छोटे-छोटे शासन केंद्र स्थापित हो गए थे जो परस्पर संघर्षरत रहा करते थे। विदेशी मुसलमानों से भी इनकी टक्कर होती रहती थी। हिन्दी साहित्य के विकास को आलोचक सुविधा के लिये पाँच ऐतिहासिक चरणों में विभाजित कर देखते हैं, जो क्रमवार निम्नलिखित हैं:- आदिकाल (१४०० इसवी से पहले) भक्ति काल रीति काल आधुनिक काल (१८५० ईस्वी के पश्चात) नव्योत्तर काल (१९८० ईस्वी के पश्चात) आदिकाल (१४०० इसवी से पहले) मुख्य लेख : आदिकाल हिन्दी साहित्य के आदिकाल को आलोचक १४०० इसवी से पूर्व का काल मानते हैं जब हिन्दी का उदभव हो ही रहा था। हिन्दी की विकास-यात्रा दिल्ली, कन्नौज और अजमेर क्षेत्रों में हुई मानी जाती है । पृथ्वीराज चौहान का उस वक्त दिल्ली में शासन था और चंदबरदाई नामक उसका एक दरबारी कवि हुआ करता था। कन्नौज का अंतिम राठौड शासक जयचंद था जो संस्कृत का बहुत बडा संरक्षक था। भक्ति काल मुख्य लेख : भक्ति काल हिन्दी साहित्य का भक्ति काल १३७५ से १७०० तक माना जाता है । यह काल समग्रतः भक्ति भावना से ओतप्रोत काल है । इस काल को समृद्ध बनाने वाली चारा प्रमुख काव्य-धाराएं हैं ज्ञानाश्रयी, प्रेमाश्रयी, कृष्णाश्रयी ओर रामाश्रयी। इन चार भक्ति शाखाओ के चार प्रमुख कवि हुए जो अपनी-अपनी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये कवि हैं क्रमश: कबीरदास (१३९९)-(१५१८) मलिक मोहम्मद जायसी (१४७७-१५४२) सूरदास (१४७८-१५८०) तुलसीदास (१५३२-१६०२) रीति काल (१६००-१९००) मुख्य लेख : रीति काल हिंदी साहित्य का रीति काल संवत १६०० से १९०० तक माना जाता है यानि १६४३ई० से १८४३ई० तक। रीति का अर्थ है बना बनाया रास्ता या बंधी-बंधाई परिपाटी। इस काल को रीतिकाल कहा गया क्योंकि इस काल में अधिकांश कवियों ने श्रृंगार वर्णन, अलंकार प्रयोग, छंद बद्धता आदि के बंधे रास्ते की ही कविता की। हालांकि घनानंद, बोधा, ठाकुर, गोबिंद सिंह जैसे रीति-मुक्त कवियों ने अपनी रचना के विषय मुक्त रखे। केशव (१५४६-१६१८), बिहारी (१६०३-१६६४), भूषण (१६१३-१७०५), मतिराम, घनानन्द , सेनापति आदि इस युग के प्रमुख रचनाकार रहे। आधुनिक काल (१८५० ईस्वी के पश्चात) मुख्य लेख : आधुनिक काल आधुनिक काल हिंदी साहित्य पिछली दो सदियों में विकास के अनेक पडावों से गुजरा है । जिसमें गद्य तथा पद्य में अलग अलग विचार धाराओं का विकास हुआ। जहां काव्य में इसे छायावादी युग, प्रगतिवादी युग, प्रयोगवादी युग और यथार्थवादी युग इन चार नामों से जाना गया, वहीं गद्य में इसको, भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, शुक्ल व प्रेमचंद युग तथा अद्यतन युग का नाम दिया गया। अद्यतन युग के गद्य साहित्य में अनेक ऐसी साहित्यिक विधाओं का विकास हुआ जो पहले या तो थीं ही नहीं या फिर इतनी विकसित नहीं थीं कि उनको साहित्य की एक अलग विधा का नाम दिया जा सके। जैसे डायरी, यात्रा विवरण, आत्मकथा, रूपक, रेडियो नाटक, पटकथा लेखन, फिल्म आलेख इत्यादि नव्योत्तर काल (१९८० ईस्वी के पश्चात) मुख्य लेख : नव्योत्तर काल नव्योत्तर काल की कई धाराएं हैं - एक, पश्चिम की नकल को छोड एक अपनी वाणी पाना; दो, अतिशय अलंकार से परे सरलता पाना; तीन, जीवन और समाज के प्रश्नों पर असंदिग्ध विमर्श। कंप्यूटर के आम प्रयोग में आने के साथ साथ हिंदी में कंप्यूटर से जुडी नई विधाओं का भी समावेश हुआ है, जैसे- चिट्ठालेखन और जालघर की रचनाएं। हिन्दी में अनेक स्तरीय हिंदी चिट्ठे, जालघर व जाल पत्रिकायें हैं। यह कंप्यूटर साहित्य केवल भारत में ही नहीं अपितु विश्व के हर कोने से लिखा जा रहा है इसके साथ ही अद्यतन युग में प्रवासी हिंदी साहित्य के एक नए युग का आरंभ भी माना जा सकता है । हिन्दी की विभिन्न बोलियों का साहित्य मुख्य लेख : हिंदी की विभिन्न बोलियों का साहित्य भाषा के विकास-क्रम में अपभ्रंश से हिन्दी की ओर आते हुए भारत के अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग भाषा-शैलियां जन्मीं। हिन्दी इनमें से सबसे अधिक विकसित थी, अतः उसको भाषा की मान्यता मिली। अन्य भाषा शैलियां बोलियां कहलाईं। इनमें से कुछ में हिंदी के महान कवियों ने रचना की जैसे तुलसी ने रामचरित मानस को अवधी में लिखा और सूर ने अपनी रचनाओं के लिए बृज भाषा को चुना, विद्यापति ने मैथिली में और मीराबाई ने राजस्थानी को अपनाया। हिंदी की विभिन्न बोलियों का साहित्य आज भी लोकप्रिय है और आज भी अनेक कवि और लेखक अपना लेखन अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में करते हैं। हिन्दी के प्रमुख ग्रन्थ मुख्य लेख : हिन्दी की सौ श्रेष्ठ पुस्तकें प्रमुख हिंदी साहित्यकार हिन्दी कवि हिन्दी गद्यकार हिन्दी नाटककार यह भी देखें हिन्दी भाषा भारतीय साहित्य आधुनिक हिंदी का अंतर्राष्ट्रीय विकास आधुनिक हिंदी गद्य का इतिहास आधुनिक हिंदी पद्य का इतिहास प्रवासी हिंदी साहित्य ब्रिटिश हिन्दी साहित्य अमेरिकी हिन्दी साहित्य मध्यपूर्व एशियाई हिन्दी साहित्य मारिशस का हिन्दी साहित्य फीजी का हिन्दी साहित्य त्रिनिडाड का हिन्दी साहित्य छायावादी युग दलित साहित्य आदिवासी साहित्य सीमांतीय ज्ञानपीठ हिन्दी गद्यकार बाहरी कडियाँ हिन्दी के गौरवग्रन्थों का कारवां कविता कोश - हिन्दी काव्य का अकूत खजाना हिन्दी समय - हिन्दी की सम्पूर्ण सामग्री, सबके लिये (महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा) हिन्दी काव्य के उत्कृष्ट रचनाओं का उत्तम संग्रह हिन्दीकुंज : हिन्दी साहित्य व भाषा की वेब पत्रिका सृजनगाथा : साहित्य, संस्कृति और भाषा की गंभीर एकमात्र पत्रिका अभिव्यक्ति : हिंदी की वेब पत्रिका अनुभूति : विश्वजाल पर हिंदी की पद्य पत्रिका हिन्दी_नेस्ट : हिन्दी की विविध सामग्री से परिपूर्ण साहित्यिक पत्रिका हिन्दी भाषा और साहित्य पर और कडियाँ आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास हिन्दी-पुस्तकालय - सम्पूर्ण देश के विश्वविद्यालयों में पढाये जाने वाले हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम तथा उससे संबंधित तमाम जानकारियां एवं पाठ्य सामग्री का संग्रह हिन्दी की पुस्तकें डाउनलोड करें %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3 %%%%% CS671 : gprachi@iitk.ac.in 150803 हिंदी व्याकरण हिंदी भाषा को शुद्ध रूप से लिखने और बोलने संबंधी नियमों का बोध कराने वाला शास्त्र है । यह हिंदी भाषा के अध्ययन का महत्वपूर्ण हिस्सा है । इसमें हिंदी के सभी स्वरूपों को चार खंडों के अंतर्गत अध्ययन किया जाता है । इसमें वर्ण विचार के अंतर्गत वर्ण और ध्वनि पर विचार किया गया है तो शब्द विचार के अंतर्गत शब्द के विविध पक्षों से संबंधित नियमों पर विचार किया गया है । वाक्य विचार के अंतर्गत वाक्य संबंधी विभिन्न स्थितियों एवं छंद विचार में साहित्यिक रचनाओं के शिल्पगत पक्षों पर विचार किया गया है । वर्ण विचार मुख्य लेख : वर्ण विभाग वर्ण विचार हिंदी व्याकरण का पहला खंड है जिसमें भाषा की मूल इकाई वर्ण और ध्वनि पर विचार किया जाता है । इसके अंतर्गत हिंदी के मूल अक्षरों की परिभाषा, भेद-उपभेद, उच्चारण संयोग, वर्णमाला, आदि नियमों का वर्णन होता है । वर्ण हिन्दी भाषा की लिपि देवनागरी है । देवनागरी वर्णमाला में कुल ५२ वर्ण हैं, जिनमें से १६ स्वर हैं और ३६ व्यंजन। स्वर हिन्दी भाषा में मूल रूप से ग्यारह स्वर होते हैं। ये ग्यारह स्वर निम्नलिखित हैं। अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ आदि। हिन्दी भाषा में ऋ को आधा स्वर (अर्धस्वर) माना जाता है, अतः इसे स्वर में शामिल किया गया है । हिन्दी भाषा में प्रायः ॠ और ऌ का प्रयोग नहीं होता। अं और अः को भी स्वर में नहीं गिना जाता। इसलिये हम कह सकते हैं कि हिन्दी में 11 स्वर होते हैं। यदि ऍ, ऑ नाम की विदेशी ध्वनियों को शामिल करें तो हिन्दी में 11+2=13 स्वर होते हैं, फिर भी 11 स्वर हिन्दी में मूलभूत हैं अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ऋ ॠ ऌ ऍ ऑ (हिन्दी में ॠ ऌ का प्रयोग प्रायः नहीं होता तथा ऍ ऑ का प्रयोग विदेशी ध्वनियों को दर्शाने के लिए होता है । ) शब्द विचार मुख्य लेख : शब्द और उसके भेद शब्द विचार हिंदी व्याकरण का दूसरा खंड है जिसके अंतर्गत शब्द की परिभाषा, भेद-उपभेद, संधि, विच्छेद, रूपांतरण, निर्माण आदि से संबंधित नियमों पर विचार किया जाता है । शब्द शब्द वर्णों या अक्षरों के सार्थक समूह को कहते हैं। उदाहरण के लिए क, म तथा ल के मेल से 'कमल' बनता है जो एक खास किस्म के फूल का बोध कराता है । अतः 'कमल' एक शब्द है कमल की ही तरह 'लकम' भी इन्हीं तीन अक्षरों का समूह है किंतु यह किसी अर्थ का बोध नहीं कराता है । इसलिए यह शब्द नहीं है । व्याकरण के अनुसार शब्द दो प्रकार के होते हैं- विकारी और अविकारी या अव्यय। विकारी शब्दों को चार भागों में बाँटा गया है- संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया। अविकारी शब्द या अव्यय भी चार प्रकार के होते हैं- क्रिया विशेषण, संबन्ध बोधक, संयोजक और विस्मयादि बोधक इस प्रकार सब मिलाकर निम्नलिखित 8 प्रकार के शब्द-भेद होते हैं: संज्ञा मुख्य लेख : संज्ञा और उसके भेद किसी भी स्थान, व्यक्ति, वस्तु आदि का नाम बताने वाले शब्द को संज्ञा कहते हैं। उदाहरण - राम, भारत, हिमालय, गंगा, मेज, कुर्सी, बिस्तर, चादर, शेर, भालू, साँप, बिच्छू आदि। संज्ञा के भेद- सज्ञा के कुल ६ भेद बताये गए हैं- १- व्यक्तिवाचक: राम, भारत, सूर्य आदि। २-जातिवाचक: बकरी, पहाड, कंप्यूटर आदि। ३-समूह वाचक: कक्षा, बारात, भीड, झुंड आदि। ४-द्रव्यवाचक: पानी, लोहा, मिट्टी, खाद या उर्वरक आदि। ५-संख्यावाचक: दर्जन, जोडा, पांच, हजार आदि। ६-भाववाचक : ममता, बुढापा आदि। सर्वनाम मुख्य लेख : सर्वनाम और उसके भेद संज्ञा के बदले में आने वाले शब्द को सर्वनाम कहते हैं। उदाहरण - मैं, तुम, आप, वह, वे आदि। संज्ञा के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले शब्द को सर्वनाम कहते है । संज्ञा की पुनरुक्ति न करने के लिए सर्वनाम का प्रयोग किया जाता है । जैसे - मैं, तू, तुम, आप, वह, वे आदि। सर्वनाम सार्थक शब्दों के आठ भेदों में एक भेद है । व्याकरण में सर्वनाम एक विकारी शब्द है । सर्वनाम के भेद सर्वनाम के छह प्रकार के भेद हैं- पुरुषवाचक (व्यक्तिवाचक) सर्वनाम। निश्चयवाचक सर्वनाम। अनिश्चयवाचक सर्वनाम। संबन्धवाचक सर्वनाम। प्रश्नवाचक सर्वनाम। निजवाचक सर्वनाम। पुरुषवाचक सर्वनाम जिस सर्वनाम का प्रयोग वक्ता या लेखक द्वारा स्वयं अपने लिए अथवा किसी अन्य के लिए किया जाता है, वह 'पुरुषवाचक (व्यक्तिवाचक्) सर्वनाम' कहलाता है । पुरुषवाचक (व्यक्तिवाचक) सर्वनाम तीन प्रकार के होते हैं- उत्तम पुरुषवाचक सर्वनाम- जिस सर्वनाम का प्रयोग बोलने वाला स्वयं के लिए करता है, उसे उत्तम पुरुषवाचक सर्वनाम कहा जाता है । जैसे - मैं, हम, मुझे, हमारा आदि। मध्यम पुरुषवाचक सर्वनाम- जिस सर्वनाम का प्रयोग बोलने वाला श्रोता के लिए करे, उसे मध्यम पुरुषवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे - तुम, तुझे, तुम्हारा आदि। अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम- जिस सर्वनाम का प्रयोग बोलने वाला श्रोता के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के लिए करे, उसे अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे- वह, वे, उसने, यह, ये, इसने, आदि। निश्चयवाचक सर्वनाम जो (शब्द) सर्वनाम किसी व्यक्ति, वस्तु आदि की ओर निश्चयपूर्वक संकेत करें वे निश्चयवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। जैसे- ‘यह’, ‘वह’, ‘वे’ सर्वनाम शब्द किसी विशेष व्यक्ति का निश्चयपूर्वक बोध करा रहे हैं, अतः ये निश्चयवाचक सर्वनाम हैं। उदाहरण- यह पुस्तक सोनी की है ये पुस्तकें रानी की हैं। वह सडक पर कौन आ रहा है । वे सडक पर कौन आ रहे हैं। अनिश्चयवाचक सर्वनाम जिन सर्वनाम शब्दों के द्वारा किसी निश्चित व्यक्ति अथवा वस्तु का बोध न हो वे अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। जैसे- ‘कोई’ और ‘कुछ’ आदि सर्वनाम शब्द। इनसे किसी विशेष व्यक्ति अथवा वस्तु का निश्चय नहीं हो रहा है । अतः ऐसे शब्द अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। उदाहरण- द्वार पर कोई खडा है । कुछ पत्र देख लिए गए हैं और कुछ देखने हैं। संबन्धवाचक सर्वनाम परस्पर सबन्ध बतलाने के लिए जिन सर्वनामों का प्रयोग होता है उन्हें संबन्धवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे- ‘जो’, ‘वह’, ‘जिसकी’, ‘उसकी’, ‘जैसा’, ‘वैसा’ आदि। उदाहरण- जो सोएगा, सो खोएगा; जो जागेगा, सो पावेगा। जैसी करनी, तैसी पार उतरनी। प्रश्नवाचक सर्वनाम जो सर्वनाम संज्ञा शब्दों के स्थान पर भी आते है और वाक्य को प्रश्नवाचक भी बनाते हैं, वे प्रश्नवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। जैसे- क्या, कौन आदि। उदाहरण- तुम्हारे घर कौन आया है? दिल्ली से क्या मँगाना है? निजवाचक सर्वनाम जहाँ स्वयं के लिए ‘आप’, ‘अपना’ अथवा ‘अपने’, ‘आप’ शब्द का प्रयोग हो वहाँ निजवाचक सर्वनाम होता है । इनमें ‘अपना’ और ‘आप’ शब्द उत्तम, पुरुष मध्यम पुरुष और अन्य पुरुष के (स्वयं का) अपने आप का ज्ञान करा रहे शब्द हें जिन्हें निजवाचक सर्वनाम कहते हैं। विशेष- जहाँ ‘आप’ शब्द का प्रयोग श्रोता के लिए हो वहाँ यह आदर-सूचक मध्यम पुरुष होता है और जहाँ ‘आप’ शब्द का प्रयोग अपने लिए हो वहाँ निजवाचक होता है । उदाहरण- राम अपने दादा को समझाता है । श्यामा आप ही दिल्ली चली गई। राधा अपनी सहेली के घर गई है । सीता ने अपना मकान बेच दिया है । सर्वनाम शब्दों के विशेष प्रयोग आप, वे, ये, हम, तुम शब्द बहुवचन के रूप में हैं, किन्तु आदर प्रकट करने के लिए इनका प्रयोग एक व्यक्ति के लिए भी किया जाता है । ‘आप’ शब्द स्वयं के अर्थ में भी प्रयुक्त हो जाता है । जैसे- मैं यह कार्य आप ही कर लूँगा। विशेषण मुख्य लेख : विशेषण और उसके भेद संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बताने वाले शब्द को विशेषण कहते हैं। उदाहरण - 'हिमालय एक विशाल पर्वत है । ' यहाँ "विशाल" शब्द "हिमालय" की विशेषता बताता है इसलिए वह विशेषण है । विशेषण के भेद संख्यावाचक विशेषण दस लड्डू चाहिए। परिमाणवाचक विशेषण एक किलो चीनी दीजिए। गुणवाचक विशेषण हिमालय विशाल पर्वत है सार्वनामिक विशेषण कमला मेरी बहन है । क्रिया मुख्य लेख : क्रिया और उसके भेद कार्य का बोध कराने वाले शब्द को क्रिया कहते हैं। उदाहरण - आना, जाना, होना, पढना, लिखना, रोना, हंसना, गाना आदि। क्रियाएं दो प्रकार की होतीं हैं- १-सकर्मक क्रिया, २-अकर्मक क्रिया। सकर्मक क्रिया: जिस क्रिया में कोई कर्म (ऑब्जेक्ट) होता है उसे सकर्मक क्रिया कहते हैं। उदाहरण - खाना, पीना, लिखना आदि। बन्दर केला खाता है । इस वाक्य में 'क्या' का उत्तर 'केला' है । अकर्मक क्रिया: इसमें कोई कर्म नहीं होता। उदाहरण - हंसना, रोना आदि। बच्चा रोता है । इस वाक्य में 'क्या' का उत्तर उपलब्ध नहीं है । क्रिया का लिंग एवं काल: क्रिया का लिंग कर्ता के लिंग के अनुसार होता है । उदाहरण - रोना : लडका रोता है । लडकी रोती है । लडका रोता था। लडकी रोती थी। लडका रोएगा। लडकी रोएगी। मुख्य क्रिया के साथ आकर काम के होने या किए जाने का बोध कराने वाली क्रियाएं सहायक क्रियाएं कहलाती हैं। जैसे - है, था, गा, होंगे आदि शब्द सहायक क्रियाएँ हैं। सहायक क्रिया के प्रयोग से वाक्य का अर्थ और अधिक स्पष्ट हो जाता है । इससे वाक्य के काल का तथा कार्य के जारी होने, पूर्ण हो चुकने अथवा आरंभ न होने कि स्थिति का भी पता चलता है । उदाहरण - कुत्ता भौंक रहा है । (वर्तमान काल जारी)। कुत्ता भौंक चुका होगा। (भविष्य काल पूर्ण)। क्रिया विशेषण मुख्य लेख : क्रिया विशेषण और उसके भेद किसी भी क्रिया की विशेषता बताने वाले शब्द को क्रिया विशेषण कहते हैं। उदाहरण - 'मोहन मुरली की अपेक्षा कम पढता है । ' यहाँ "कम" शब्द "पढने" (क्रिया) की विशेषता बताता है इसलिए वह क्रिया विशेषण है । 'मोहन बहुत तेज चलता है । ' यहाँ "बहुत" शब्द "चलना" (क्रिया) की विशेषता बताता है इसलिए यह क्रिया विशेषण है । 'मोहन मुरली की अपेक्षा बहुत कम पढता है । ' यहाँ "बहुत" शब्द "कम" (क्रिया विशेषण) की विशेषता बताता है इसलिए वह क्रिया विशेषण है । क्रिया विशेषण के भेद: 1 रीतिवाचक क्रिया विशेषण : मोहन ने अचानक कहा। 2 कालवाचक क्रिया विशेषण :' मोहन ने कल कहा था। 3 स्थानवाचक क्रिया विशेषण : मोहन यहाँ आया था। 4 परिमाणवाचक क्रिया विशेषण : मोहन कम बोलता है । समुच्चय बोधक मुख्य लेख : समुच्चय बोधक दो शब्दों या वाक्यों को जोडने वाले संयोजक शब्द को समुच्चय बोधक कहते हैं। उदाहरण - 'मोहन और सोहन एक ही शाला में पढते हैं। ' यहाँ "और" शब्द "मोहन" तथा "सोहन" को आपस में जोडता है इसलिए यह संयोजक है । 'मोहन या सोहन में से कोई एक ही कक्षा कप्तान बनेगा। ' यहाँ "या" शब्द "मोहन" तथा "सोहन" को आपस में जोडता है इसलिए यह संयोजक है । विस्मयादि बोधक मुख्य लेख : विस्मयादि बोधक विस्मय प्रकट करने वाले शब्द को विस्मायादिबोधक कहते हैं। उदाहरण - अरे मैं तो भूल ही गया था कि आज मेरा जन्म दिन है । यहाँ "अरे" शब्द से विस्मय का बोध होता है अतः यह विस्मयादिबोधक है । पुरुष हिन्दी में तीन पुरुष होते हैं- उत्तम पुरुष- मैं, हम मध्यम पुरुष - तुम, आप अन्य पुरुष- वह, राम आदि उत्तम पुरुष में मैं और हम शब्द का प्रयोग होता है, जिसमें हम का प्रयोग एकवचन और बहुवचन दोनों के रूप में होता है । इस प्रकार हम उत्तम पुरुष एकवचन भी है और बहुवचन भी है । मिसाल के तौर पर यदि ऐसा कहा जाए कि "हम सब भारतवासी हैं", तो यहाँ हम बहुवचन है और अगर ऐसा लिखा जाए कि "हम विद्युत के कार्य में निपुण हैं", तो यहाँ हम एकवचन के रुप में भी है और बहुवचन के रूप में भी है । हमको सिर्फ तुमसे प्यार है - इस वाक्य में देखें तो, "हम" एकवचन के रुप में प्रयुक्त हुआ है । वक्ता अपने आपको मान देने के लिए भी एकवचन के रूप में हम का प्रयोग करते हैं। लेखक भी कई बार अपने बारे में कहने के लिए हम शब्द का प्रयोग एकवचन के रुप में अपने लेख में करते हैं। इस प्रकार हम एक एकवचन के रुप में मानवाचक सर्वनाम भी है । वचन मुख्य लेख : वचन (व्याकरण) हिन्दी में दो वचन होते हैं: एकवचन- जैसे राम, मैं, काला, आदि एकवचन में हैं। बहुवचन- हम लोग, वे लोग, सारे प्राणी, पेड़ों आदि बहुवचन में हैं। लिंग हिन्दी में सिर्फ दो ही लिंग होते हैं: स्त्रीलिंग और पुल्लिंग। कोई वस्तु या जानवर या वनस्पति या भाववाचक संज्ञा स्त्रीलिंग है या पुल्लिंग, इसका ज्ञान अभ्यास से होता है । कभी-कभी संज्ञा के अन्त-स्वर से भी इसका पता चल जाता है । पुल्लिंग- पुरुष जाति के लिए प्रयुक्त शब्द पुल्लिंग में कहे जाते हैं। जैसे - अजय, बैल, जाता है आदि स्त्रीलिंग- स्त्री जाति के बोधक शब्द जैसे- निर्मला, चींटी, पहाडी, खेलती है, काली बकरी दूध देती है आदि। कारक ८ कारक होते हैं। कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, संबन्ध, अधिकरण, संबोधन। किसी भी वाक्य के सभी शब्दों को इन्हीं ८ कारकों में वर्गीकृत किया जा सकता है । उदाहरण- राम ने अमरूद खाया। यहाँ 'राम' कर्ता है, 'अमरूद' कर्म है । मुख्य लेख : संबन्ध बोधक दो वस्तुओं के मध्य संबन्ध बताने वाले शब्द को संबन्धकारक कहते हैं। उदाहरण - 'यह मोहन की पुस्तक है । ' यहाँ "की" शब्द "मोहन" और "पुस्तक" में संबन्ध बताता है इसलिए यह संबन्धकारक है । उपसर्ग मुख्य लेख : उपसर्ग वे शब्द जो किसी दूसरे शब्द के आरम्भ में लगाये जाते हैं। इनके लगाने से शब्दों के अर्थ परिवर्तन या विशिष्टता आ सकती है । प्र+ मोद = प्रमोद, सु + शील = सुशील उपसर्ग प्रकृति से परतंत्र होते हैँ। उपसर्ग चार प्रकार के होते हैँ - 1) संस्कृत से आए हुए उपसर्ग, 2) कुछ अव्यय जो उपसर्गों की तरह प्रयुक्त होते है, 3) हिन्दी के अपने उपसर्ग (तद्भव), 4) विदेशी भाषा से आए हुए उपसर्ग। प्रत्यय मुख्य लेख : प्रत्यय वे शब्द जो किसी शब्द के अन्त में जोडे जाते हैं, उन्हें प्रत्यय (प्रति + अय = बाद में आने वाला) कहते हैं। जैसे- गाडी + वान = गाडीवान, अपना + पन = अपनापन संधि मुख्य लेख : संधि (व्याकरण) दो शब्दों के पास-पास होने पर उनको जोड देने को सन्धि कहते हैं। जैसे- सूर्य + उदय = सूर्योदय, अति + आवश्यक = अत्यावश्यक, संन्यासी = सम् + न्यासी समास मुख्य लेख : समास दो शब्द आपस में मिलकर एक समस्त पद की रचना करते हैं। जैसे-राज+पुत्र = राजपुत्र, छोटे+बडे = छोटे-बडे आदि समास छ: होते हैं: द्वन्द, द्विगु, तत्पुरुष, कर्मधारय, अव्ययीभाव और बहुब्रीहि । वाक्य विचार वाक्य विचार हिंदी व्याकरण का तीसरा खंड है जिसमें वाक्य की परिभाषा, भेद-उपभेद, संरचना आदि से संबंधित नियमों पर विचार किया जाता है । वाक्य मुख्य लेख : वाक्य और वाक्य के भेद शब्दों के समूह को जिसका पूरा पूरा अर्थ निकलता है, वाक्य कहते हैं। वाक्य के दो अनिवार्य तत्त्व होते हैं- उद्देश्य और विधेय जिसके बारे में बात की जाय उसे उद्देश्य कहते हैं और जो बात की जाय उसे विधेय कहते हैं। उदाहरण के लिए मोहन प्रयाग में रहता है । इसमें उद्देश्य- मोहन है और विधेय है- प्रयाग में रहता है । वाक्य भेद दो प्रकार से किए जा सकते हँ- १- अर्थ के आधार पर वाक्य भेद २- रचना के आधार पर वाक्य भेद अर्थ के आधार पर आठ प्रकार के वाक्य होते हँ- १-विधान वाचक वाक्य, २- निषेधवाचक वाक्य, ३- प्रश्नवाचक वाक्य, ४- विस्म्यादिवाचक वाक्य, ५- आज्ञावाचक वाक्य, ६- इच्छावाचक वाक्य, ७- संदेहवाचक वाक्य। काल मुख्य लेख : काल और काल के भेद वाक्य तीन काल में से किसी एक में हो सकते हैं: वर्तमान काल जैसे मैं खेलने जा रहा हूँ। भूतकाल जैसे 'जय हिन्द' का नारा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने दिया था और भविष्य काल जैसे अगले मंगलवार को मैं नानी के घर जाउँगा। वर्तमान काल के तीन भेद होते हैं- सामान्य वर्तमान काल, संदिग्ध वर्तमानकाल तथा अपूर्ण वर्तमान काल। भूतकाल के भी छे भेद होते हैं समान्य भूत, आसन्न भूत, पूर्ण भूत, अपूर्ण भूत, संदिग्ध भूत और हेतुमद भूत। भविष्य काल के दो भेद होते हैं- सामान्य भविष्यकाल और संभाव्य भविष्यकाल। पदबंध छन्द विचार छन्द विचार हिंदी व्याकरण का चौथा खंड है जिसके अंतर्गत वाक्य के साहित्यिक रूप में प्रयुक्त होने से संबंधित विषयों वर विचार किया जाता है । इसमें छंद की परिभाषा, प्रकार आदि पर विचार किया जाता है । यह भी देखे हिन्दी व्याकरण का इतिहास संस्कृत व्याकरण हिन्दी में सामान्य गलतियाँ बाहरी कडियाँ हिन्दी व्याकरण (हिन्दीकुंज में) हिन्दी व्याकरण : एक नजर में (नई दुनुनिया) व्याकरण बोध तथा रचना - हिन्दी व्याकरण की आनलाइन नि:शुल्क पुस्तिका सुबोध हिन्दी व्याकरण (हिन्दी विकिबुक्स) आदर्श हिन्दी व्याकरण (गूगल पुस्तक ; लेखिका - मीनाक्षी अग्रवाल) सरल हिन्दी व्याकरण (गूगल पुस्तक ; लेखिका - मीनाक्षी अग्रवाल) हिन्दी शिक्षण (१९८७) - लेखक : जय नारायण कौशिक किशोरीदास वाजपेयी ग्रन्थावली, भाग - १ (गूगल पुस्तक ; सम्पादक - विष्णुदत्त राकेश) सामान्य हिन्दी (लेखक - डॉ विजयपाल सिंह ; हिन्दी प्रचारक संस्थान) हिन्दी व्याकरण का संक्षिप्त इतिहास एक जर्मन ने लिखा था हिन्दी-व्याकरण हिन्दी भाषा का प्रथम व्याकरण १०वीं सीबीएसई के लिए हिन्दी कोर्स (गूगल पुस्तक; लेखक - डॉ आरके सिंहल, नीरज सिंहल) भारत की भाषाएँ (गूगल पुस्तक ; लेखक - डॉ राजमल बोस) भारत के प्राचीन भाषा-परिवार और हिन्दी (गूगल पुस्तक ; लेखक - रामविलास शर्मा) हिन्दी भाषा : संरचना एवं विविध आयाम (रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव) हिन्दी भाषा, इतिहास एवं स्वरूप (गूगल पुस्तक ; लेखक - राजमण शर्मा) हिन्दी भाषा की संरचना (गूगल पुस्तक ; लेखक - डॉ भोलानाथ तिवारी) %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A5%80%E0%A4%9C%E0%A5%80_%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80 %%%%% CS671 : gprachi@iitk.ac.in 150803 मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से जिन देशों में फिजी हिन्दी बोली जाती है फिजी हिन्दी फिजी में बोली जाने वाली प्रमुख भाषा है । इसे फिजियन हिन्दी या फिजियन हिन्दुस्तानी[1] भी कहते हैं। यह फिजी की आधिकारिक भाषाओं मे से एक है । यह अधिकांशतः भारतीय मूल के फिजी लोगों द्वारा बोली जाती है । फिजी हिन्दी देवनागरी लिपि और रोमन लिपि दोनों में लिखी जाती है । यह मुख्य रूप से अवधी, भोजपुरी भाषा और हिन्दी की अन्य बोलियों से व्युत्पन्न है, जिसमें अन्य भारतीय भाषाओं का भी समावेश है । इसमें फिजी और अंग्रेजी से बडी संख्या में शब्द उधार लिए गए हैं। फिजी हिन्दी में बडी संख्या में ऐसे अनूठे शब्द भी हैं, जो फिजी में रह रहे भारतीयों के नए माहौल में ढलने के लिए जरूरी थे। फिजी भारतीयों की पहली पीढी, जिसने इस भाषा को बोलचाल के रूप में अपनाया इसे 'फिजी बात' कहते थे। भाषाविदों के हाल के अध्ययन में इस बात की पुष्टि हुई है कि फिजी हिन्दी भारत में बोली जाने वाली हिन्दी भाषा पर आधारित एक विशिष्ट भाषा है, जिसमें फिजी के अनुकूल विशेष व्याकरण और शब्दावली हैं। कुछ प्रमुख देश जहाँ फिजी हिन्दी बोलने वाले लोग हैं- देश संख्या फिजी 313,798[2] न्यू जीलैण्ड 27,882[3] आस्ट्रेलिया 29,750[4] संयुक्त राष्ट्र अमेरिका 24,345[5] कनाडा 22,770[6] युनाइटेड किंघडम 2,000 टोंगा 310[7] कुल योग 420,855 %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A5%87_%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AC%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A5%E0%A4%AE %%%%% CS671 : gprachi@iitk.ac.in 150803 मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से यहाँ पर हिन्दी से सम्बन्धित सबसे पहले साहित्यकारों, पुस्तकों, स्थानों आदि के नाम दिये गये हैं। हिन्दी में प्रथम डी लिट् -- डा पीताम्बर दत्त बडथ्वाल हिंदी के प्रथम एमए -- नलिनी मोहन सान्याल (वे बांग्लाभाषी थे। ) भारत में पहली बार हिंदी में एमए की पढाई -- कोलकाता विश्वविद्यालय में कुलपति सर आशुतोष मुखर्जी ने 1919 में शुरू करवाई थी। विज्ञान में शोधप्रबंध हिंदी में देने वाले प्रथम विद्यार्थी -- मुरली मनोहर जोशी अन्तरराष्ट्रीय संबन्ध पर अपना शोधप्रबंध लिखने वाले प्रथम व्यक्ति -- वेद प्रताप वैदिक हिंदी में बी टेक का प्रोजेक्ट रिपोर्ट प्रस्तुत करने वाले प्रथम विद्यार्थी : श्याम रुद्र पाठक (सन् १९८५) डॉक्टर आफ मेडिसिन (एमडी) की शोधप्रबन्ध पहली बार हिन्दी में प्रस्तुत करने वाले -- डॉ० मुनीश्वर गुप्त (सन् १९८७) हिन्दी माध्यम से एल-एल०एम० उत्तीर्ण करने वाला देश का प्रथम विद्यार्थी -- चन्द्रशेखर उपाध्याय प्रबंधन क्षेत्र में हिन्दी माध्यम से प्रथम शोध-प्रबंध के लेखक -- भानु प्रताप सिंह (पत्रकार) ; विषय था -- उत्तर प्रदेश प्रशासन में मानव संसाधन की उन्नत प्रवत्तियों का एक विश्लेषणात्मक अध्ययन- आगरा मंडल के संदर्भ में हिन्दी का पहला इंजीनियर कवि -- मदन वात्स्यायन हिन्दी में निर्णय देने वाला पहला न्यायधीश -- न्यायमूर्ति श्री प्रेम शंकर गुप्त सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में हिन्दी के प्रथम वक्ता -- नारायण प्रसाद सिंह (सारण-दरभंगा ; 1926) लोकसभा में सबसे पहले हिन्दी में सम्बोधन : सीकर से रामराज्य परिषद के सांसद एन एल शर्मा पहले सदस्य थे जिन्होने पहली लोकसभा की बैठक के प्रथम सत्र के दूसरे दिन 15 मई 1952 को हिन्दी में संबोधन किया था। हिन्दी में संयुक्त राष्ट्र संघ में भाषण देने वाला प्रथम राजनयिक -- अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी का प्रथम महाकवि -- चन्दबरदाई हिंदी का प्रथम महाकाव्य -- पृथ्वीराजरासो हिंदी का प्रथम ग्रंथ -- पुमउ चरउ (स्वयंभू द्वारा रचित) हिन्दी का पहला समाचार पत्र -- उदन्त मार्तण्ड (पं जुगलकिशोर शुक्ल) हिन्दी की प्रथम पत्रिका सबसे पहला हिन्दी-आन्दोलन : हिंदीभाषी प्रदेशों में सबसे पहले बिहार प्रदेश में सन् 1835 में हिंदी आंदोलन शुरू हुआ था। इस अनवरत प्रयास के फलस्वरूप सन् 1875 में बिहार में कचहरियों और स्कूलों में हिंदी प्रतिष्ठित हुई। समीक्षामूलक हिन्दी का प्रथम मासिक -- साहित्य संदेश (आगरा, सन् 1936 से 1942 तक) हिन्दी का प्रथम आत्मचरित -- अर्धकथानक (कृतिकार हैं -- जैन कवि बनारसीदास (कवि) (वि सं १६४३-१७००)) हिन्दी का प्रथम व्याकरण -- 'उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण' (दामोदर पंडित) हिन्दी व्याकरण के पाणिनी -- किशोरीदास वाजपेयी हिन्दी का प्रथम मानक शब्दकोश -- हिंदी शब्दसागर हिन्दी का प्रथम विश्वकोश -- हिन्दी विश्वकोश हिन्दी का प्रथम कवि -- राहुल सांकृत्यायन की हिन्दी काव्यधारा के अनुसार हिन्दी के सबसे पहले मुसलमान कवि अमीर खुसरो नहीं, बल्कि अब्दुर्हमान हुए हैं। ये मुलतान के निवासी और जाति के जुलाहे थे। इनका समय १०१० ई० है । इनकी कविताएँ अपभ्रंश में हैं। -(संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ ४३१) हिन्दी की प्रथम आधुनिक कविता -- 'स्वप्न' (महेश नारायण द्वारा रचित)[1] मुक्तछन्द का पहला हिन्दी कवि -- महेश नारायण[2] हिन्दी की प्रथम कहानी -- हिंदी की सर्वप्रथम कहानी कौनसी है, इस विषय में विद्वानों में जो मतभेद शुरू हुआ था वह आज भी जैसे का तैसा बना हुआ है हिंदी की सर्वप्रथम कहानी समझी जाने वाली कडी के अर्न्तगत सैयद इंशाअल्लाह खाँ की 'रानी केतकी की कहानी' (सन् 1803 या सन् 1808), राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की 'राजा भोज का सपना' वीं सदी का उत्तरार्द्ध), किशोरी लाल गोस्वामी की 'इन्दुमती' (सन् 1900), माधवराव सप्रे की 'एक टोकरी भर मिट्टी' (सन् 1901), आचार्य रामचंद्र शुक्ल की 'ग्यारह वर्ष का समय' (सन् 1903) और बंग महिला की 'दुलाई वाली' (सन् 1907) नामक कहानियाँ आती हैं | परन्तु किशोरी लाल गोस्वामी द्वारा कृत 'इन्दुमती' को मुख्यतः हिंदी की प्रथम कहानी का दर्जा प्रदान किया जाता है| हिन्दी का प्रथम लघुकथाकार -- हिन्दी का प्रथम उपन्यास -- 'देवरानी जेठानी की कहानी' (लेखक -- पंडित गौरीदत्त ; सन् १८७०)। श्रद्धाराम फिल्लौरी की भाग्यवती और लाला श्रीनिवास दास की परीक्षा गुरू को भी हिन्दी के प्रथम उपन्यस होने का श्रेय दिया जाता है । हिंदी का प्रथम विज्ञान गल्प -- ‘आश्चर्यवृत्तांत’ (अंबिका दत्त व्यास ; 1884-1888) हिंदी का प्रथम नाटक -- नहुष (गोपालचंद्र, १८४१) हिंदी का प्रथम काव्य-नाटक -- ‘एक घूँट’ (जयशंकर प्रसाद ; 1915 ई ) हिन्दी का प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता -- सुमित्रानंदन पंत (१९६८) हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास -- भक्तमाल / इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐन्दूई ऐन्दूस्तानी (अर्थात "हिन्दुई और हिन्दुस्तानी साहित्य का इतिहास", लेखक गार्सा-द-तासी) हिन्दी कविता के प्रथम इतिहासग्रन्थ के रचयिता -- शिवसिंह सेंगर ; रचना -- शिवसिंह सरोज हिन्दी साहित्य का प्रथम व्यवस्थित इतिहासकार -- आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिन्दी का प्रथम चलचित्र (मूवी) -- सत्य हरिश्चन्द्र हिन्दी की पहली बोलती फिल्म (टाकी) -- आलम आरा हिन्दी का अध्यापन आरम्भ करने वाला प्रथम विश्वविद्यालय -- कोलकाता विश्वविद्यालय (फोर्ट विलियम् कॉलेज) देवनागरी के प्रथम प्रचारक -- गौरीदत्त हिन्दी का प्रथम चिट्ठा (ब्लॉग) -- "हिन्दी" चिट्ठे 2002 अकटूबर में विनय और आलोक ने हिन्दी (इस में अंग्रेजी लेख भी लिखे जाते हैं) लेख लिखने शुरू करे, 21 अप्रैल 2003 में सिर्फ हिन्दी का प्रथम चिट्ठा बना "नौ दो ग्यारह", जो अब यहाँ है (संगणकों के हिन्दीकरण से सम्बन्धित बंगलोर निवासी आलोक का चिट्ठा) हिन्दी का प्रथम चिट्ठा-संकलक -- चिट्ठाविश्व (सन् २००४ के आरम्भ में बनाया गया था) अन्तरजाल पर हिन्दी का प्रथम समाचारपत्र -- हिन्दी मिलाप / वेबदुनिया हिन्दी का पहला समान्तर कोश बनाने का श्रेय -- अरविन्द कुमार व उनकी पत्नी कुसुम हिन्दी साहित्य का प्रथम राष्ट्रगीत के रचयिता -- पं गिरिधर शर्मा ’नवरत्न‘ हिंदी का प्रथम अर्थशास्त्रीय ग्रंथ -- "संपत्तिशास्त्र" (महावीर प्रसाद द्विवेदी) हिन्दी के प्रथम बालसाहित्यकार -- श्रीधर पाठक (1860 - 1928) हिन्दी की प्रथम वैज्ञानिक पत्रिका -- सन् १९१३ से प्रकाशित विज्ञान (विज्ञान परिषद् प्रयाग द्वारा प्रकाशित) खडीबोली के गद्य की प्रथम पुस्तक -- लल्लू लाल जी की प्रेम सागर (हिन्दी में भागवत का दशम् स्कन्ध) ; हिन्दी गद्य साहित्य का सूत्रपात करनेवाले चार महानुभाव कहे जाते हैं- मुंशी सदासुख लाल, इंशा अल्ला खाँ, लल्लू लाल और सदल मिश्र। ये चारों सं 1860 के आसपास वर्तमान थे। हिंदी की वैज्ञानिक शब्दावली -- १८१० ई में लल्लू लाल जी द्वारा संग्रहीत ३५०० शब्दों की सूची जिसमें हिंदी की वैज्ञानिक शब्दावली को फारसी और अंग्रेजी प्रतिरूपों के साथ प्रस्तुत किया गया है । हिन्दी की प्रथम विज्ञान-विषयक पुस्तक -- १८४७ में स्कूल बुक्स सोसाइटी, आगरा ने 'रसायन प्रकाश प्रश्नोत्तर' का प्रकाशन किया। एशिया का जागरण विषय पर हिन्दी कविता -- सन् 1901 में राधाकृष्ण मित्र ने हिन्दी में एशिया के जागरण पर एक कविता लिखी थी। शायद वह किसी भी भाषा में 'एशिया के जागरण' की कल्पना पर पहली कविता है । हिन्दी का प्रथम संगीत-ग्रन्थ -- मानकुतूहल (ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर द्वारा रचित, 15वीं शती) हिंदी भाषा का सबसे बडा और प्रामाणिक व्याकरण -- कामताप्रसाद गुरु द्वारा रचित "हिंदी व्याकरण" का प्रकाशन सर्वप्रथम नागरीप्रचारिणी सभा, काशी में अपनी लेखमाला में सं १९७४ से सं १९७६ वि के बीच किया और जो सं १९७७ (१९२० ई ) में पहली बार सभा से पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित हुआ। हिन्दी की प्रथम डोमेन सन्दर्भ क्या ‘स्वप्न’ हिंदी की पहली आधुनिक कविता है? मुक्तछंद के प्रथम कवि महेश नारायण (अभिव्यक्ति) %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%B0%E0%A5%80 %%%%% CS671 : gprachi@iitk.ac.in 150803 देवनागरी एक लिपि है जिसमें अनेक भारतीय भाषाएँ तथा कुछ विदेशी भाषाएं लिखीं जाती हैं। देवनागरी बायें से दायें लिखी जाती है, अौर इसकी (साथ ही ज्यादातर उत्तर-भारतीय लिपियों की भी) पहचान एक क्षैतिज रेखा से है । संस्कृत, पालि, हिन्दी, मराठी, कोंकणी, सिन्धी, कश्मीरी, डोगरी, नेपाली, नेपाल भाषा (तथा अन्य नेपाली उपभाषाएँ), तामाङ भाषा, गढवाली, बोडो, अंगिका, मगही, भोजपुरी, मैथिली, संथाली आदि भाषाएँ देवनागरी में लिखी जाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में गुजराती, पंजाबी, बिष्णुपुरिया मणिपुरी, रोमानी और उर्दू भाषाएं भी देवनागरी में लिखी जाती हैं। परिचय अधिकतर भाषाओं की तरह देवनागरी भी बायें से दायें लिखी जाती है । प्रत्येक शब्द के ऊपर एक रेखा खिंची होती है (कुछ वर्णों के ऊपर रेखा नहीं होती है) इसे शिरोरेखा कहते हैं। इसका विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है । यह एक ध्वन्यात्मक लिपि है जो प्रचलित लिपियों (रोमन, अरबी, चीनी आदि) में सबसे अधिक वैज्ञानिक है । इससे वैज्ञानिक और व्यापक लिपि शायद केवल आइपीए लिपि है । भारत की कई लिपियाँ देवनागरी से बहुत अधिक मिलती-जुलती हैं, जैसे- बांग्ला, गुजराती, गुरुमुखी आदि। कम्प्यूटर प्रोग्रामों की सहायता से भारतीय लिपियों को परस्पर परिवर्तन बहुत आसान हो गया है । वाराणसी में देवनागरी लिपि में लिखे विज्ञापन ब्राह्मी लिपि से जन्मी लिपियाँ उत्तरी ब्राह्मी कुषाण तोचरियन मैतै मयेक गुप्त शारदा ल्हांडा प्राचीन कश्मीरी गुरुमुखी खोजकी टाकरी डोगरी चमियाली सिद्धम तिब्बती फाग्स्पा हंगुल (परिकाल्पनिक) लेपचा लिंबु नागरी देवनागरी मोदी नंदीनागरी गुजराती आद्य-बंगाली कैथी सिलहटी नागरी पूर्वी नागरी बंगाली असमिया मिथिलाक्षर उडिया नेपाली भूजिमोल प्रचलित नेपाल रंजना सोयोंबो दक्षिणी ब्राह्मी तमिल ब्राह्मी वट्टेऴुत्तु तमिल सिंहल पल्लव ग्रंथ मलयालम तुळु दिवेस अकुरु सौराष्ट्र ख्मेर लाओ थाई चाम प्राचीन कावी बाली जावाई बबयिन बतक बुहिद हनुओनोओ तगबन्वा सुंदानी लोंतारा रेजंग मोन बर्मी ओझोपथ कलिंग भट्टिप्रोलु लिपि कदंब कन्नड तेलुगु ताई ले नई ताई लुए अहोम भारतीय भाषाओं के किसी भी शब्द या ध्वनि को देवनागरी लिपि में ज्यों का त्यों लिखा जा सकता है और फिर लिखे पाठ को लगभग 'हू-ब-हू' उच्चारण किया जा सकता है, जो कि रोमन लिपि और अन्य कई लिपियों में सम्भव नहीं है, जब तक कि उनका विशेष मानकीकरण न किया जाये, जैसे आइट्रांस या आइएएसटी। मुम्बई के सार्वजनिक यातायात के टिकट पर देवनागरी इसमें कुल ५२ अक्षर हैं, जिसमें १४ स्वर और ३८ व्यंजन हैं। अक्षरों की क्रम व्यवस्था (विन्यास) भी बहुत ही वैज्ञानिक है । स्वर-व्यंजन, कोमल-कठोर, अल्पप्राण-महाप्राण, अनुनासिक्य-अन्तस्थ-उष्म इत्यादि वर्गीकरण भी वैज्ञानिक हैं। एक मत के अनुसार देवनगर (काशी) मे प्रचलन के कारण इसका नाम देवनागरी पडा। भारत तथा एशिया की अनेक लिपियों के संकेत देवनागरी से अलग हैं पर उच्चारण व वर्ण-क्रम आदि देवनागरी के ही समान हैं, क्योंकि वे सभी ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न हुई हैं (उर्दू को छोडकर)। इसलिए इन लिपियों को परस्पर आसानी से लिप्यन्तरित किया जा सकता है । देवनागरी लेखन की दृष्टि से सरल, सौन्दर्य की दृष्टि से सुन्दर और वाचन की दृष्टि से सुपाठ्य है । भारतीय अंकों को उनकी वैज्ञानिकता के कारण विश्व ने सहर्ष स्वीकार कर लिया है । 'देवनागरी' शब्द की व्युत्पत्ति देवनागरी या नागरी नाम का प्रयोग "क्यों" प्रारंभ हुआ और इसका व्युत्पत्तिपरक प्रवृत्तिनिमित्त क्या था- यह अब तक पूर्णत: निश्चित नहीं है । (क) 'नागर' अपभ्रंश या गुजराती "नागर" ब्राह्मणों से उसका संबंध बताया गया है । पर दृढ प्रमाण के अभाव में यह मत संदिग्ध है । (ख) दक्षिण में इसका प्राचीन नाम "नंदिनागरी" था। हो सकता है "नंदिनागर" कोई स्थानसूचक हो और इस लिपि का उससे कुछ संबंध रहा हो। (ग) यह भी हो सकता है कि "नागर" जन इसमें लिखा करते थे, अत: "नागरी" अभिधान पडा और जब संस्कृत के ग्रंथ भी इसमें लिखे जाने लगे तब "देवनागरी" भी कहा गया। (घ) सांकेतिक चिह्नों या देवताओं की उपासना में प्रयुक्त त्रिकोण, चक्र आदि संकेतचिह्नों को "देवनागर" कहते थे। कालांतर में नाम के प्रथमाक्षरों का उनसे बोध होने लगा और जिस लिपि में उनको स्थान मिला- वह "देवनागरी" या नागरी कही गई। इन सब पक्षों के मूल में कल्पना का प्राधान्य है, निश्चयात्मक प्रमाण अनुपलब्ध हैं। इतिहास मुख्य लेख : देवनागरी का इतिहास भारत देवनागरी लिपि की क्षमता से शताब्दियों से परिचित रहा है । 758 ई का राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग का सामगढ ताम्रपट मिलता है जिस पर देवनागरी अंकित है । शिलाहारवंश के गंण्डरादित्य के उत्कीर्ण लेख की लिपि देवनागरी है । इसका समय ग्यारहवीं शताब्दी हैं इसी समय के चोलराजा राजेंद्र के सिक्के मिले हैं जिन पर देवनागरी लिपि अंकित है । राष्ट्रकूट राजा इंद्रराज (दसवीं शती) के लेख में भी देवनागरी का व्यवहार किया है । प्रतीहार राजा महेंद्रपाल (891-907) का दानपत्र भी देवनागरी लिपि में है । कनिंघम की पुस्तक में सबसे प्राचीन मुसलमानों सिक्के के रूप में महमूद गजनबी द्वारा चलाये गए चांदी के सिक्के का वर्णन है जिस पर देवनागरी लिपि में संस्कृत अंकित है । मुहम्मद विनसाम (1192-1205) के सिक्कों पर लक्ष्मी की मूर्ति के साथ देवनागरी लिपि का व्यवहार हुआ है । शमशुद्दीन इल्तुतमिश (1210-1235) के सिक्कों पर भी देवनागरी अंकित है । सानुद्दीन फिरोजशाह प्रथम, जलालुद्दीन रजिया, बहराम शाह, अलालुद्दीन मरूदशाह, नसीरुद्दीन महमूद, मुईजुद्दीन, गयासुद्दीन बलवन, मुईजुद्दीन कैकूबाद, जलालुद्दीन हीरो सानी, अलाउद्दीन महमद शाह आदि ने अपने सिक्कों पर देवनागरी अक्षर अंकित किये हैं। अकबर के सिक्कों पर देवनागरी में ‘राम‘ सिया का नाम अंकित है । गयासुद्दीन तुगलक, शेरशाह सूरी, इस्लाम शाह, मुहम्मद आदिलशाह, गयासुद्दीन इब्ज, ग्यासुद्दीन सानी आदि ने भी इसी परम्परा का पालन किया। भाषाविज्ञान की दृष्टि से देवनागरी भाषावैज्ञानिक दृष्टि से देवनागरी लिपि अक्षरात्मक (सिलेबिक) लिपि मानी जाती है । लिपि के विकाससोपानों की दृष्टि से "चित्रात्मक", "भावात्मक" और "भावचित्रात्मक" लिपियों के अनंतर "अक्षरात्मक" स्तर की लिपियों का विकास माना जाता है । पाश्चात्य और अनेक भारतीय भाषाविज्ञानविज्ञों के मत से लिपि की अक्षरात्मक अवस्था के बाद अल्फाबेटिक (वर्णात्मक) अवस्था का विकास हुआ। सबसे विकसित अवस्था मानी गई है ध्वन्यात्मक (फोनेटिक) लिपि की। "देवनागरी" को अक्षरात्मक इसलिए कहा जाता है कि इसके वर्ण- अक्षर (सिलेबिल) हैं- स्वर भी और व्यंजन भी। "क", "ख" आदि व्यंजन सस्वर हैं- अकारयुक्त हैं। वे केवल ध्वनियाँ नहीं हैं अपितु सस्वर अक्षर हैं। अत: ग्रीक, रोमन आदि वर्णमालाएँ हैं। परंतु यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि भारत की "ब्राह्मी" या "भारती" वर्णमाला की ध्वनियों में व्यंजनों का "पाणिनि" ने वर्णसमाम्नाय के 14 सूत्रों में जो स्वरूप परिचय दिया है- उसके विषय में "पतंजलि" (द्वितीय शती ई पू ) ने यह स्पष्ट बता दिया है कि व्यंजनों में संनियोजित "अकार" स्वर का उपयोग केवल उच्चारण के उद्देश्य से है । वह तत्वत: वर्ण का अंग नहीं है । इस दृष्टि से विचार करते हुए कहा जा सकता है कि इस लिपि की वर्णमाला तत्वत: ध्वन्यात्मक है, अक्षरात्मक नहीं। देवनागरी वर्णमाला देवनागरी की वर्णमाला में १२ स्वर और ३४ व्यंजन हैं। शून्य या एक या अधिक व्यंजनों और एक स्वर के मेल से एक अक्षर बनता है । देवनागरी लिपि के गुण देवनागरी के वर्णों के वर्गीकरण की तालिका भारतीय भाषाओं के लिये वर्णों की पूर्णता एवं सम्पन्नता (५२ वर्ण, न बहुत अधिक न बहुत कम)। एक ध्वनि : एक सांकेतिक चिह्न एक सांकेतिक चिह्न : एक ध्वनि स्वर और व्यंजन में तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक क्रम-विन्यास - देवनागरी के वर्णों का क्रमविन्यास उनके उच्चारण के स्थान को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है । इसके अतिरिक्त वर्ण-क्रम के निर्धारण में भाषा-विज्ञान के कई अन्य पहलुओ का भी ध्यान रखा गया है । देवनागरी की वर्णमाला (वास्तव में, ब्राह्मी से उत्पन्न सभी लिपियों की वर्णमालाएँ) एक अत्यन्त तर्कपूर्ण ध्वन्यात्मक क्रम में व्यवस्थित है । यह क्रम इतना तर्कपूर्ण है कि अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक संघ ने अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला के निर्माण के लिये मामूली परिवर्तनों के साथ इसी क्रम को अंगीकार कर लिया। वर्णों का प्रत्याहार रूप में उपयोग : माहेश्वर सूत्र में देवनागरी वर्णों को एक विशिष्ट क्रम में सजाया गया है । इसमें से किसी वर्ण से आरम्भ करके किसी दूसरे वर्ण तक के वर्णसमूह को दो अक्षर का एक छोटा नाम दे दिया जाता है जिसे 'प्रत्याहार' कहते हैं। प्रत्याहार का प्रयोग करते हुए सन्धि आदि के नियम अत्यन्त सरल और संक्षिप्त ढंग से दिए गये हैं (जैसे, आद् गुणः) देवनागरी लिपि के वर्णों का उपयोग संख्याओं को निरूपित करने के लिये किया जाता रहा है । (देखिये कटपयादि, भूतसंख्या तथा आर्यभट्ट की संख्यापद्धति) मात्राओं की संख्या के आधार पर छन्दों का वर्गीकरण : यह भारतीय लिपियों की अद्भुत विशेषता है कि किसी पद्य के लिखित रूप से मात्राओं और उनके क्रम को गिनकर बताया जा सकता है कि कौन सा छन्द है । रोमन, अरबी एवं अन्य में यह गुण अप्राप्य है । उच्चारण और लेखन में एकरुपता लिपि चिह्नों के नाम और ध्वनि मे कोई अन्तर नहीं (जैसे रोमन में अक्षर का नाम “बी” है और ध्वनि “ब” है) लेखन और मुद्रण मे एकरूपता (रोमन, अरबी और फारसी मे हस्तलिखित और मुद्रित रूप अलग-अलग हैं) देवनागरी, 'स्माल लेटर" और 'कैपिटल लेटर' की अवैज्ञानिक व्यवस्था से मुक्त है । मात्राओं का प्रयोग क के उपर विभिन्न मात्राएं लगाने के बाद का स्वरूप अर्ध-अक्षर के रूप की सुगमता : खडी पाई को हटाकर - दायें से बायें क्रम में लिखकर तथा अर्द्ध अक्षर को ऊपर तथा उसके नीचे पूर्ण अक्षर को लिखकर - ऊपर नीचे क्रम में संयुक्ताक्षर बनाने की दो प्रकार की रीति प्रचलित है । अन्य - बायें से दायें, शिरोरेखा, संयुक्ताक्षरों का प्रयोग, अधिकांश वर्णों में एक उर्ध्व-रेखा की प्रधानता, अनेक ध्वनियों को निरूपित करने की क्षमता आदि। [1] भारतवर्ष के साहित्य में कुछ ऐसे रूप विकसित हुए हैं जो दायें-से-बायें अथवा बाये-से-दायें पढने पर समान रहते हैं। उदाहरणस्वरूप केशवदास का एक सवैया लीजिये : मां सस मोह सजै बन बीन, नवीन बजै सह मोस समा। मार लतानि बनावति सारि, रिसाति वनाबनि ताल रमा ॥ मानव ही रहि मोरद मोद, दमोदर मोहि रही वनमा। माल बनी बल केसबदास, सदा बसकेल बनी बलमा ॥ इस सवैया की किसी भी पंक्ति को किसी ओर से भी पढिये, कोई अंतर नही पडेगा। सदा सील तुम सरद के दरस हर तरह खास। सखा हर तरह सरद के सर सम तुलसीदास॥ देवनागरी पर महापुरुषों के विचार आचार्य विनोबा भावे संसार की अनेक लिपियों के जानकार थे। उनकी स्पष्ट धारणा थी कि देवनागरी लिपि भारत ही नहीं, संसार की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है । अगर भारत की सब भाषाओं के लिए इसका व्यवहार चल पडे तो सारे भारतीय एक दूसरे के बिल्कुल नजदीक आ जाएंगे। हिंदुस्तान की एकता में देवनागरी लिपि हिंदी से ही अधिक उपयोगी हो सकती है । अनन्त शयनम् अयंगार तो दक्षिण भारतीय भाषाओं के लिए भी देवनागरी की संभावना स्वीकार करते थे। सेठ गोविन्ददास इसे राष्ट्रीय लिपि घोषित करने के पक्ष में थे। १) हिन्दुस्तान की एकता के लिये हिन्दी भाषा जितना काम देगी, उससे बहुत अधिक काम देवनागरी लिपि दे सकती है । — आचार्य विनोबा भावे २) देवनागरी किसी भी लिपि की तुलना में अधिक वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित लिपि है । — सर विलियम जोन्स ३) मानव मस्तिष्क से निकली हुई वर्णमालाओं में नागरी सबसे अधिक पूर्ण वर्णमाला है । — जान क्राइस्ट ४) उर्दू लिखने के लिये देवनागरी लिपि अपनाने से उर्दू उत्कर्ष को प्राप्त होगी। — खुशवन्त सिंह ६) एक सर्वमान्य लिपि स्वीकार करने से भारत की विभिन्न भाषाओं में जो ज्ञान का भंडार भरा है उसे प्राप्त करने का एक साधारण व्यक्ति को सहज ही अवसर प्राप्त होगा। हमारे लिए यदि कोई सर्व-मान्य लिपि स्वीकार करना संभव है तो वह देवनागरी है । -- एम सी छागला ७) प्राचीन भारत के महत्तम उपलब्धियों में से एक उसकी विलक्षण वर्णमाला है जिसमें प्रथम स्वर आते हैं और फिर व्यंजन जो सभी उत्पत्ति क्रम के अनुसार अत्यंत वैज्ञानिक ढंग से वर्गीकृत किये गए हैं। इस वर्णमाला का अविचारित रूप से वर्गीकृत तथा अपर्याप्त रोमन वर्णमाला से, जो तीन हजार वर्षों से क्रमशः विकसित हो रही थी, पर्याप्त अंतर है । -- ए एल बाशम, "द वंडर दैट वाज इंडिया" के लेखक और इतिहासविद् भारत के लिये देवनागरी का महत्व मुख्य लेख : भारत के लिये देवनागरी का महत्व विश्वलिपि के रूप में देवनागरी इस लेख की निष्पक्षता विवादित है । कृपया इसके वार्ता पृष्ठ पर चर्चा देखें। बौद्ध संस्कृति से प्रभावित क्षेत्र नागरी के लिए नया नहीं है । चीन और जापान चित्रलिपि का व्यवहार करते हैं। इन चित्रों की संख्या बहुत अधिक होने के कारण भाषा सीखने में बहुत कठिनाई होती है । देववाणी की वाहिका होने के नाते देवनागरी भारत की सीमाओं से बाहर निकलकर चीन और जापान के लिए भी समुचित विकल्प दे सकती है । भारतीय मूल के लोग संसार में जहां-जहां भी रहते हैं, वे देवनागरी से परिचय रखते हैं, विशेषकर मारीशस, सूरीनाम, फिजी, गायना, त्रिनिदाद, टुबैगो आदि के लोग। इस तरह देवनागरी लिपि न केवल भारत के अंदर सारे प्रांतवासियों को प्रेम-बंधन में बांधकर सीमोल्लंघन कर दक्षिण-पूर्व एशिया के पुराने वृहत्तर भारतीय परिवार को भी ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय‘ अनुप्राणित कर सकती है तथा विभिन्न देशों को एक अधिक सुचारू और वैज्ञानिक विकल्प प्रदान कर ‘विश्व नागरी‘ की पदवी का दावा इक्कीसवीं सदी में कर सकती है । उस पर प्रसार लिपिगत साम्राज्यवाद और शोषण का माध्यम न होकर सत्य, अहिंसा, त्याग, संयम जैसे उदात्त मानवमूल्यों का संवाहक होगा, मृत्यु से अमरता की दिशा में। लिपि-विहीन भाषाओं के लिये देवनागरी इस लेख की निष्पक्षता विवादित है । कृपया इसके वार्ता पृष्ठ पर चर्चा देखें। मुख्य लेख : लिपिविहीन भाषाओं के लिये देवनागरी दुनिया की कई भाषाओं के लिये देवनागरी सबसे अच्छा विकल्प हो सकती है क्योंकि यह यह बोलने की पूरी आजादी देता है । दुनिया की और किसी भी लिपि मे यह नही हो सकता है । इन्डोनेशिया, विएतनाम, अफ्रीका आदि के लिये तो यही सबसे सही रहेगा। अष्टाध्यायी को देखकर कोई भी समझ सकता है की दुनिया मे इससे अच्छी कोई भी लिपि नहीं है । अगर दुनिया पक्षपातरहित हो तो देवनागरी ही दुनिया की सर्वमान्य लिपि होगी क्योंकि यह पूर्णत: वैज्ञानिक है । अंग्रेजी भाषा में वर्तनी (स्पेलिंग) की विकराल समस्या के कारगर समाधान के लिये देवनागरी पर आधारित देवग्रीक लिपि प्रस्तावित की गयी है । देवनागरी की वैज्ञानिकता विस्तृत लेख देवनागरी की वैज्ञानिकता देखें। जिस प्रकार भारतीय अंकों को उनकी वैज्ञानिकता के कारण विश्व ने सहर्ष स्वीकार कर लिया वैसे ही देवनागरी भी अपनी वैज्ञानिकता के कारण ही एक दिन विश्वनागरी बनेगी। देवनागरी के सम्पादित्र व अन्य सॉफ्टवेयर इंटरनेट पर हिन्दी के साधन देखिये। %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4_%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82_%E0%A4%87%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AE %%%%% CS671 : gprachi@iitk.ac.in 150803 यह भारतीय गणतंत्र में इस्लाम के बारे में है । "भारत" की व्यापक परिभाषा के लिए दक्षिण एशिया में इस्लाम को देखें। लगभग 17 करोड 80 लाख (2009)[1] महत्वपूर्ण जन्संख्या वाले क्षेत्र जम्मू एवं कश्मीर, असम एवं पश्चिम बंगाल में अधिकतम जनसंख्या घनत्व। उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र एवं केरला में अधिकतर जनसंख्या भाषा उर्दू, हिन्दी, बंगाली, मलयालम, कश्मीरी, भारतीय अंग्रेजी,गुजराती,मराठी,तमिल धर्म मुख्यतः भारतीय गणतंत्र में हिन्दू धर्म के बाद इस्लाम दूसरा सर्वाधिक प्रचलित धर्म है, जो देश की जनसंख्या का 13 4% से भी अधिक है (2001 की जनगणना के अनुसार लगभग 14 करोड)। [2][3] भारत में इस्लाम का आगमन करीब 12वीं शताब्दी में हुआ था और तब से यह भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत का एक अभिन्न अंग बन गया है । [4] वर्षों से, सम्पूर्ण भारत में हिन्दु और मुस्लिम संस्कृतियों का एक अद्भुत मिलन होता आया है[5][6] और भारत के आर्थिक उदय और सांस्कृतिक प्रभुत्व में मुसलमानों ने महती भूमिका निभाई है । भारत में विवाह, विरासत और वक्फ संपत्ति से जुडे मुसलमानों के अधिकार मामले मुस्लिम व्यक्तिगत कानून द्वारा नियंत्रित होते हैं[7] और अदालतों ने यह फैसला दिया कि शरीयत या मुस्लिम कानून की भारतीय नागरिक कानून की अपेक्षा अधिक प्रधानता होगी। [8] विश्व में भारत एकमात्र ऐसा देश है जहां सरकार हज यात्रा के लिए विमान के किराया में सब्सिडी देती है और २००७ के अनुसार प्रति यात्री भारतीय रुपया खर्च करती है । [9][10] जनसंख्या भारत की मुस्लिम आबादी विश्व की तीसरी सर्वाधिक है[11] और दुनिया भर में सबसे अधिक मुस्लिम अल्पसंख्यक आबादी है । [12] भारत में अधिकांश मुसलमान भारतीय जातीय समूह से संबंधित हैं, जिसमें भारत से बाहर के भी कुछ मुस्लिम शामिल हैं, मुख्य रूप से फारस और मध्य एशिया के। [13][14] 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में मुसलमानों की कुल जनसंख्या का सर्वाधिक संकेन्द्रण 47% है - जो तीन राज्य में निवास करते हैं उत्तर प्रदेश (30 7 मिलियन) (18 5%), पश्चिम बंगाल (20 2 मिलियन) (25%) और बिहार (13 7 मिलियन) (16 5%) मुस्लिम, लक्षद्वीप (2001 में 93%) और जम्मू और कश्मीर (2001 में 67%) में स्थानीय जनसंख्या के बहुमत का प्रतिनिधित्व करते हैं। मुसलमानों की उच्च संख्या असम (31%), पश्चिम बंगाल (25%) दक्षिणी राज्य केरल में (24 7%) पाई जाती है । आधिकारिक तौर पर, भारत में मुसलमानों की तीसरी सबसे बडी आबादी है (इंडोनेशिया और पाकिस्तान के बाद)। जनसंख्या वृद्धि दर भारत में देश के अन्य धार्मिक समुदायों की तुलना में मुसलमानों में एक बहुत उच्च कुल प्रजनन दर (टीएफआर) है । [15] उच्च जन्म दर और पड़ोसी देश बांग्लादेश से प्रवासियों के आगम की वजह से भारत में मुसलमानों का प्रतिशत 1991 में 10% से बढ कर 2001 में 13% हो गया है । [16] कुल वृद्धि दर में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर हिंदुओं की वृद्धि दर की तुलना में 10% से भी अधिक है । [17] हालांकि, 1991 से भारत में सभी धार्मिक समूहों की प्रजनन दर में सबसे बडी गिरावट मुसलमानों के बीच हुई है । [18] जनसांख्यिक ने भारत में मुसलमानों के बीच उच्च जन्म दर के पीछे कई कारकों को बताया है । समाजशास्त्री रोजर और पेट्रीसिया जेफ्फेरी के अनुसार धार्मिक नियतिवाद के बजाय सामाजिक, आर्थिक स्थिति को उच्च मुस्लिम जन्म दर के लिए मुख्य कारण मानते है । भारतीय मुसलमान अपने हिन्दू समकक्षों की तुलना में अधिक गरीब और कम शिक्षित हैं। [19] विख्यात भारतीय समाजशास्त्री, प्रसाद का तर्क है कि चूंकि भारत की मुस्लिम आबादी हिंदू समकक्षों की तुलना में शहरी है, मुसलमान शिशु मृत्यु दर करीब 12% है जो कि हिंदुओं की तुलना में कम है । [20] हालांकि, अन्य समाजशास्त्रियों का कहना है कि धार्मिक कारकों को उच्च मुस्लिम जन्म दर समझा सकता है । सर्वेक्षणों से संकेत मिलता है कि भारत में मुसलमान, परिवार नियोजन के उपायों को अपेक्षाकृत कम अपनाने को तैयार होते हैं और मुस्लिम महिलाओं में अधिक प्रजनन अवधि होती है क्योंकि हिन्दू महिलाओं की तुलना में उनका विवाह काफी छोटी उम्र में हो जाता है । [21] 1983 में केरल में के॰सी॰ जचारिया द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि औसत रूप से मुस्लिम महिलाओं ने 4 1 बच्चों को जन्म दिया था, जबकि एक हिंदू महिला ने केवल 2 9 के औसत से ही बच्चों को जन्म दिया। धार्मिक रिवाज और वैवाहिक प्रथाओं को भी उच्च मुस्लिम जन्म दर के कारणों के रूप में उद्धृत किया गया है । [22] पॉल कुर्त्ज के अनुसार भारत में हिंदूओं की तुलना में मुसलमान आधुनिक गर्भनिरोधक उपायों के अधिक प्रतिरोधी हैं और परिणाम के रूप में मुस्लिम महिलाओं की तुलना में हिंदू महिलाओं में प्रजनन दर में गिरावट अधिक है । [15][23] 1998-99 में आयोजित राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार भारतीय मुसलमान दम्पति, भारत के हिन्दू परिवारों की तुलना में अधिक बच्चे पैदा करने को काफी हद तक एक आदर्श मानते हैं। [24] इसी सर्वेक्षण में यह भी बताया गया है कि 49 प्रतिशत से भी अधिक हिन्दू परिवार परिवार नियोजन को सक्रिय रूप से मानते हैं जबकि 37 प्रतिशत ही मुसलमान दम्पति परिवार नियोजन को मानते हैं। [24] 1996 में लखनऊ जिले में आयोजित एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि 34 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं परिवार नियोजन को अपने धर्म खिलाफ मानती थी जबकि सर्वेक्षण से यह पता चलता है कि कोई हिन्दू महिला परिवार योजना के खिलाफ धर्म को अवरोध नहीं मानती। [24] भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त 2006 की समिति के अनुसार, भारत की मुस्लिम आबादी 21वीं सदी के अंत में 320-340 मिलियन तक हो जाएगी (या भारत की कुल अनुमानित जनसंख्या का 18%)। [25] एक प्रमुख भारतीय पत्रकार स्वपन दासगुप्ता ने भारत में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर से संबंधित चिंताओं को उठाया और कहा कि हो सकता है यह भारत के सामाजिक तालमेल को प्रतिकूल तरीके से प्रभावित कर सकता है । [26] एक प्रसिद्ध भूजनांकिकी फिलिप लोंगमैन ने टिप्पणी की है कि हिंदू और मुसलमान के जन्म दर में पर्याप्त अंतर भारत में जातीय तनाव पैदा कर सकते हैं। [27] भारत में इस्लाम का इतिहास चेरामन पेरूमल जुमा मस्जिद, ऐसा माना जाता है कि रामा वर्मा कुलाशेकरा के अनुरोध पर बनाया गया था और संभवतः भारत का पहला मस्जिद जामा मस्जिद, दिल्ली, एशिया प्रशांत क्षेत्र में सबसे बडी मस्जिदों में से एक[28] लोकप्रिय विश्वास के विपरीत, इस्लाम भारत में मुस्लिम आक्रमणों से पहले ही दक्षिण एशिया में आ चुका था। इस्लामी प्रभाव को सबसे पहले अरब व्यापारियों के आगमन के साथ 7वीं शताब्दी के प्रारम्भ में महसूस किया जाने लगा था। प्राचीन काल से ही अरब और भारतीय उपमहाद्वीपों के बीच व्यापार संबंध अस्तित्व में रहा है । यहां तक कि पूर्व-इस्लामी युग में भी अरब व्यापारी मालाबार क्षेत्र में व्यापार करने आते थे, जो कि उन्हें दक्षिण पूर्व एशिया से जोडती थी। इतिहासकार इलियट और डाउसन की पुस्तक द हिस्टरी ऑफ इंडिया एज टोल्ड बाय इट्स ओन हिस्टोरियंस के अनुसार भारतीय तट पर 630 ई॰ में मुस्लिम यात्रियों वाले पहले जहाज को देखा गया था। पारा रौलिंसन अपनी किताब: एसियंट एंड मिडियावल हिस्टरी ऑफ इंडिया[29] में दावा करते हैं कि 7वें ई॰ के अंतिम भाग में प्रथम अरब मुसलमान भारतीय तट पर बसे थे। शेख जैनुद्दीन मखदूम "तुह्फत अल मुजाहिदीन" एक विश्वसनीय स्त्रोत है । [30] इस तथ्य को जे॰ स्तुर्रोक्क द्वारा साउथ कनारा एंड मद्रास डिस्ट्रिक्ट मैनुअल्स[31] में माना गया हैऔर हरिदास भट्टाचार्य द्वारा कल्चरल हेरीटेज ऑफ इंडिया वोल्यूम IV में भी इस तथ्य को प्रमाणित किया गया है । [32] इस्लाम के आगमन के साथ ही अरब वासी दुनिया में एक प्रमुख सांस्कृतिक शक्ति बन गए। अरब व्यापारी और ट्रेडर नए धर्म के वाहक बन गए और जहां भी गए उन्होंने इसका प्रचार किया। [33] दिल्ली में 1852 के लगभग मुस्लिम पडोस यह कथित तौर पर माना जाता है कि राम वर्मा कुलशेखर के आदेश पर भारत में प्रथम मस्जिद का निर्माण ई॰ 629 में हुआ था, जिन्हें मलिक बिन देनार के द्वारा केरल के कोडुंगालूर में मुहम्मद (c 571–632) के जीवन समय के दौरान भारत का पहला मुसलमान भी माना जाता है । [34][35][36] मालाबार में, मप्पिलास इस्लाम में परिवर्तित होने वाले पहले समुदाय हो सकते हैं क्योंकि वे दूसरों के मुकाबले अरब से अधिक जुडें हुए थे। तट के आसपास गहन मिशनरी गतिविधियां चलती रहीं और कई संख्याओं में मूल निवासी इस्लाम को अपना रहे थे। इन नए धर्मान्तरित लोगों को उस समय माप्पीला समुदाय के साथ जोडा गया। इस प्रकार मप्पिलास लोगों में हम स्थानीय महिलाओं के माध्यम से अरब लोगों की उत्पत्ति और स्थानीय लोगों में से धर्मान्तरित, दोनों प्रकार को देख सकते हैं। [37] 8वीं शताब्दी में मुहम्मद बिन कासिम की अगुवाई में अरब सेना द्वारा सिंध प्रांत (वर्तमान में पाकिस्तान) पर विजय प्राप्त की गई। सिंध, उमय्यद खलीफा का पूर्वी प्रांत बन गया। 10वीं सदी के प्रथम अर्द्ध भाग में गजनी के महमूद ने पंजाब को गजनविद साम्राज्य में जोडा और आधुनिक समय के भारत में कई छापे मारे। 12वीं शताब्दी के अंत में एक और अधिक सफल आक्रमण घोर के मुहम्मद द्वारा किया गया था। इस प्रकार अंततः यह दिल्ली सल्तनत के गठन के लिए अग्रसर हुआ। अरब-भारतीय संपर्क अरबिया में इस्लाम के आगमन से पहले, इस्लाम के प्रारम्भिक चरणों में भारत और भारतीयों के साथ अरब और मुसलमानों के संपर्क होने से संबंधित पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। अरब व्यापारियों ने भारतीयों द्वारा विकसित अंक प्रणाली को मध्य पूर्व और यूरोप में प्रसारित किया। आठवीं सदी के प्रारम्भ में कई संस्कृत पुस्तकों का अरबी में अनुवाद किया गया। जॉर्ज सलिबा अपनी पुस्तक 'इस्लामिक साइंस एंड द मेकिंग ऑफ द यूरोपियन रेनेसांस' में लिखते हैं कि "द्वितीय अब्बासिद खलीफा अल- मंसूर [754-775] के शासन के दौरान प्रमुख संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद शुरू किया गया था, अगर उससे पहले नहीं तो; यहां तक कि उससे पहले भी तर्क पर कुछ ग्रंथों का अनुवाद किया गया था और आम तौर पर यह स्वीकार किया गया था कि कुछ फारसी और संस्कृत ग्रंथों को जैसे का तैसा रखा गया था, हालांकि वास्तव में पहले से ही उनका अनुवाद किया जा चुका था"। [38] सूफी इस्लाम का प्रसार मुख्य लेख फतेहपुर सीकरी, उत्तर प्रदेश में सूफी संत शेख सलीम चिश्ती के मकबरे भारत में इस्लाम के प्रचार व प्रसार में सूफियों (इस्लामी मनीषियों) ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस्लाम के प्रसार में उन्हें काफी सफलता प्राप्त हुई, क्योंकि कई मायने में सूफियों की विश्वास प्रणाली और अभ्यास भारतीय दार्शनिक साहित्य के साथ समान थी, विशेष रूप से अंहिंसा और अद्वैतवाद। इस्लाम के प्रति सूफी रूढिवादी दृष्टिकोण ने हिंदुओं को इसका अभ्यास करने के लिए आसान बनाया है । हजरत ख्वाजा मुईन-उद-द्दीन चिश्ती, कुतबुद्दीन बख्तियार खुरमा, निजाम-उद-द्दीन औलिया, शाह जलाल, आमिर खुसरो, सरकार साबिर पाक, शेख अल्ला-उल-हक पन्द्वी, अशरफ जहांगीर सेम्नानी, सरकार वारिस पाक, अता हुसैन फनी चिश्ती ने भारत के विभिन्न भागों में इस्लाम के प्रसार के लिए सूफियों को प्रशिक्षित किया। इस्लामी साम्राज्य के भारत में स्थापित हो जाने के बाद सूफियों ने स्पष्ट रूप से प्रेम और सुंदरता का एक स्पर्श प्रदान करते हुए इसे उदासीन और कठोर हूकुमत होने से बचाया। सूफी आंदोलन ने कारीगर और अछूत समुदायों के अनुयायियों को भी आकर्षित किया; साथ ही इस्लाम और स्वदेशी परंपराओं के बीच की दूरी को पाटने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई। नक्शबंदी सूफी के एक प्रमुख सदस्य अहमद सरहिंदी ने इस्लाम के लिए हिंदुओं के शांतिपूर्ण रूपांतरण की वकालत की। इमाम अहमद खान रिदा ने अपनी प्रसिद्ध फतवा रजविया के माध्यम से भारत में पारंपरिक और रूढिवादी इस्लाम का बचाव करते हुए अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया अहले सुन्नत वल जमात अथवा सुन्नी बरेलवी अहले सुन्नत वल जमात अथवा सुन्नी बरेलवी (उर्दू) दक्षिण एशिया में सूफी आंदोलन के अंतर्गत एक उप-आंदोलन को कहा जाता है जिसे उन्नीसवीं एवं बीसवीं सदी के भारत में रोहेलखंड स्थित बरेली से सुन्नी विद्वान अहमद रजा खान ने प्रारंभ किया था,। बरेलवी हनफी मुसलमानों का एक बडा हिस्सा है जो अब बडी संख्या में भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान दक्षिण अफ्रीका एवं ब्रिटेन में संघनित हैं। इमाम अहमद रजा खान ने अपनी प्रसिद्ध फतवा रजविया के माध्यम से भारत में पारंपरिक और रूढिवादी इस्लाम का बचाव करते हुए अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया बरेलवी एक नाम दिया गया है सुन्नी मुसलमान जो सूफिज्म में विश्वास रखते हैं और सैकडों बरसों से इस्लाम सुनियत के मानने वाले हैं उनको आला हजरत इमाम अहमद रजा खान के लगाव की वजह से कुछ लोग बरेलवी बोलते हैं!अहले सुन्नत वाल जमात को वहाबी देओबंदी विचारधारा द्वारा बरेलवी बोलने के अनेक कारण हैं जिसमे खुद को सुन्नी बताना भी लक्ष्य है ! सुन्नी जमाअत में सबसे पहले आला हजरत ने देओबंदी आलिमों की गुस्ताखाना किताबों पर फतावे लगाये और आम मुसलमानों को इनके वहाबी अकीदे के बारे में अवगत कराया! हसमुल हरामेंन लिखकर अपने साफ किया की दारुल उलूम देओबंद हकीकत में वहाबी विचारधारा को मानने वाला स्कूल है! भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में भूमिका अधिक जानकारी के लिए देखें टीपू सुल्तान, जिसे टाइगर ऑफ मैसूर के रूप में जाना जाता है, प्रमुख भारतीय राजाओं में से एक थे जिन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ लडाई की थी। अंग्रेजों के खिलाफ भारत के संघर्ष में मुस्लिम क्रान्तिकारियों, कवियों और लेखकों का योगदान प्रलेखित है । तीतू मीर ने ब्रिटिश के खिलाफ विद्रोह किया था। मौलाना अबुल कलाम आजाद, हकीम अजमल खान और रफी अहमद किदवई ऐसे मुसलमान हैं जो इस उद्देश्य में शामिल थे। अशफाकउल्लाखाँ वारसी'हसरत' शाहजहाँपुर उत्तर प्रदेश के अशफाक उल्ला खाँ (जन्म:1900,मृत्यु:1927) भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रान्तिकारी थे। उन्होंने काकोरी काण्ड में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। ब्रिटिश शासन ने उनके ऊपर अभियोग चलाया और 19 दिसम्बर सन् 1927 को उन्हें फैजाबाद जेल में फाँसी पर लटका कर मार दिया गया। राम प्रसाद बिस्मिल की भाँति अशफाक उल्ला खाँ भी उर्दू भाषा के बेहतरीन शायर थे। उनका उर्दू 'तखल्लुस', जिसे हिन्दी में उपनाम कहते हैं, 'हसरत' था। उर्दू के अतिरिक्त वे हिन्दी व अँग्रेजी में लेख एवं कवितायें भी लिखा करते थे। उनका पूरा नाम अशफाक उल्ला खाँ वारसी 'हसरत' था। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के सम्पूर्ण इतिहास में 'बिस्मिल' और 'अशफाक' की भूमिका निर्विवाद रूप से हिन्दू-मुस्लिम एकता[39] का अनुपम आख्यान है । खान अब्दुल गफ्फार खान (सीमांत गांधी के रूप में प्रसिद्ध) एक महान राष्ट्रवादी थे जिन्होंने अपने 95 वर्ष के जीवन में से 45 वर्ष केवल जेल में बिताया; भोपाल के बरकतुल्लाह गदर पार्टी के संस्थापकों में से एक थे जिसने ब्रिटिश विरोधी संगठनों से नेटवर्क बनाया था; गदर पार्टी के सैयद शाह रहमत ने फ्रांस में एक भूमिगत क्रांतिकारी रूप में काम किया और 1915 में असफल गदर (विद्रोह) में उनकी भूमिका के लिए उन्हें फांसी की सजा दी गई); फैजाबाद (उत्तर प्रदेश) के अली अहमद सिद्दीकी ने जौनपुर के सैयद मुजतबा हुसैन के साथ मलाया और बर्मा में भारतीय विद्रोह की योजना बनाई और 1917 में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया था; केरल के अब्दुल वक्कोम खदिर ने 1942 के 'भारत छोडो' में भाग लिया और 1942 में उन्हें फांसी की सजा दी गई थी, उमर सुभानी जो की बंबई की एक उद्योगपति करोडपति थे, उन्होंने गांधी और कांग्रेस व्यय प्रदान किया था और अंततः स्वतंत्रता आंदोलन में अपने को कुर्बान कर दिया। मुसलमान महिलाओं में हजरत महल, अस्घरी बेगम, बाई अम्मा ने ब्रिटिश के खिलाफ स्वतंत्रता के संघर्ष में योगदान दिया है । 1498 की शुरुआत से यूरोपीय देशों की नौसेना का उदय और व्यापार शक्ति को देखा गया क्योंकि वे भारतीय उपमहाद्वीप पर तेजी से नौसेना शक्ति में वृद्धि और विस्तार करने में रूचि ले रहे थे। ब्रिटेन और यूरोप में औद्योगिक क्रांति के आगमन के बाद यूरोपीय शक्तियों ने मुगल साम्राज्य का पतन करने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकीय और वाणिज्यिक लाभ प्राप्त किया था। उन्होंने धीरे-धीरे इस उपमहाद्वीप पर अपने प्रभाव में वृद्धि करना शुरू किया। हैदर अली और बाद में उनके बेटे टीपू सुल्तान ने ब्रिटिश इस्ट इंडिया कंपनी के प्रारम्भिक खतरे को समझा और उसका विरोध किया। बहरहाल, 1799 में टीपू सुल्तान अंततः श्रीरंगापटनम में पराजित हुए। बंगाल में नवाब सिराजुद्दौला ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के विस्तारवादी उद्देश्य का सामना किया और ब्रिटिशों से युद्ध किया। हालांकि, 1757 में वे प्लासी की लडाई में हार गए। मौलाना आजाद भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख नेता और हिन्दू मुस्लिम एकता की वकालत करने वाले थे। यहां 1940 में सरदार पटेल और महात्मा गांधी के साथ आजाद (बांए) को दिखाया गया है । ब्रिटिश के खिलाफ पहले भारतीय विद्रोही को 10 जुलाई 1806 के वेल्लोर गदर में देखा गया जिसमें लगभग 200 ब्रिटिश अधिकारी और सैनिकों को मृत या घायल के रूप में पाया गया। लेकिन ब्रिटिश द्वारा इसका बदला लिया गया और विद्रोहियों और टीपू सुल्तान के परिवार वालों को वेल्लोर किले में बंदी बनाया गया और उन्हें उस समय इसके लिए भारी कीमत चुकानी पडी। यह स्वतंत्रता का प्रथम युद्ध था जिसे ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने 1857 का सिपाही विद्रोह कहा। सिपाही विद्रोह के परिणामस्वरूप अंग्रेजों द्वारा ज्यादातर ऊपरी वर्ग के मुस्लिम लक्षित थे क्योंकि वहां और दिल्ली के आसपास इन्हें के नेतृत्व में युद्ध किया गया था। हजारों की संख्या में मित्रों और सगे संबंधियों को दिल्ली के लाल किले पर गोली मार दी गई या फांसी पर लटका दिया गया जिसे वर्तमान में खूनी दरवाजा (ब्लडी गेट) कहा जाता है । प्रसिद्ध उर्दू कवि मिर्जा गालिब (1797-1869) ने अपने पत्रों में इस प्रकार के ज्वलंत नरसंहार से संबंधित कई विवरण दिए हैं जिसे वर्तमान में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय प्रेस द्वारा 'गालिब हिज लाइफ एंड लेटर्स' के नाम के प्रकाशित किया है और राल्फ रसेल और खुर्शिदुल इस्लाम द्वारा संकलित और अनुवाद किया गया है (1994) जैसे-जैसे मुगल साम्राज्य समाप्त होने लगा वैसे-वैसे मुसलमानों की सत्ता भी समाप्त होने लगी और भारत के मुसलमानों को एक नई चुनौती का सामना करना पडा - तकनीकी रूप से शक्तिशाली विदेशियों के साथ संपर्क बनाते हुए अपनी संस्कृति की रक्षा और उसके प्रति रूचि जगाना था। इस अवधि में, फिरंगी महल के उलामा ने जो बाराबंकी जिले में सबसे पहले सेहाली में आधारित था और 1690 के दशक से लखनऊ में आधारित था, मुसलमानों को निर्देशित और शिक्षित किया। फिरंगी महल ने भारत के मुसलमानों का नेतृत्व किया और आगे बढाया। दारुल उलूम-, देवबंद (उत्तर प्रदेश) के मौलाना और मौलवी (धार्मिक शिक्षक) भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और घोषणा की कि भी एक अन्यायपूर्ण शासन की अधीनता करना इस्लामी सिद्धांतों के खिलाफ है । अन्य प्रसिद्ध मुसलमान जिन्होंने ब्रिटिश के खिलाफ आजादी के युद्ध में भाग लिया वे हैं; मौलाना अबुल कलाम आजाद, दारूल उलूम देवबंद के मौलाना महमूद हसन जिन्हें एक सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से अंग्रेजों की पराजय के लिए प्रसिद्ध सिल्क लेटर षडयंत्र में दोषी ठहराया गया था, हुसैन अहमद मदनी, दारुल उलूम देवबंद पूर्व शेकहुल हदिथ, मौलाना उबैदुल्लाह सिन्धी, हकीम अजमल खान, हसरत मोहनी डा। सैयद महमूद, प्रोफेसर मौलवी बरकतुल्लाह, डॉ॰ जाकिर हुसैन, सैफुद्दीन किचलू, वक्कोम अब्दुल खदिर, डॉ॰ मंजूर अब्दुल वहाब, बहादुर शाह जफर, हकीम नुसरत हुसैन, खान अब्दुल गफ्फार खान, अब्दुल समद खान अचकजई, शाहनवाज कर्नल डॉ॰ एम॰ ए॰ अन्सरी, रफी अहमद किदवई, फखरुद्दीन अली अहमद, अंसार हर्वानी, तक शेरवानी, नवाब विकरुल मुल्क, नवाब मोह्सिनुल मुल्क, मुस्त्सफा हुसैन, वीएम उबैदुल्लाह, एसआर रहीम, बदरुद्दीन तैयबजी और मौलवी अब्दुल हमीद 1930 में गांधी के साथ खान अब्दुल गफ्फार खान। इसके अलावा फ्रंटियर गांधी के रूप में भी जाने जाते हैं, खान ने ब्रिटिश राज के खिलाफ गैर हिंसक विरोध का नेतृत्व किया और दृढता से भारत के विभाजन का विरोध किया। 1930 के दशक तक, मुहम्मद अली जिन्ना भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य थे और स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा थे। कवि और दार्शनिक, डॉ॰ सर अल्लामा मुहम्मद इकबाल हिंदू - मुस्लिम एकता और 1920 के दशक तक अविभाजित भारत के एक मजबूत प्रस्तावक थे। अपने प्रारम्भिक राजनीतिक कैरियर के दौरान हुसेन शहीद सुहरावर्दी भी बंगाल में राष्ट्रीय कांग्रेस में सक्रिय थे। मौलाना मोहम्मद अली जौहर और मौलाना शौकत अली ने समग्र भारतीय सन्दर्भ में मुसलमानों के लिए मुक्ति के लिए संघर्ष और महात्मा गांधी और फिरंगी महल मौलाना अब्दुल के साथ स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया। 1930 के दशक तक भारत के मुसलमानों ने मोटे तौर पर एक अविभाजित भारत के समग्र सन्दर्भ में अपने देशवासियों के साथ राजनीति की 1920 के दशक के उत्तरार्ध में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और ऑल इंडिया मुस्लिम लीग को अलग-अलग दृष्टिकोण से मान्यता दी गई और डॉ॰ सर अल्लामा मोहम्मद इकबाल ने 1930 के दशक में भारत में एक अलग मुस्लिम राष्ट्र की अवधारणा प्रस्तुत की। नतीजतन, ऑल इंडिया मुस्लिम लीग ने एक अलग मुस्लिम देश बनाने की मांग की। 1940 में लाहौर में इस मांग को उठाया गया (इसे पाकिस्तान रिजुलेशन के रूप में जाना जाता है)। उसके बाद डॉ॰ सर अल्लामा मुहम्मद इकबाल की मृत्यु हो गई और मुहम्मद अली जिन्ना, नवाबजादा लियाकत अली खान, हुसेन शहीद सुहरावर्दी और कई अन्य नेताओं ने पाकिस्तान आंदोलन का नेतृत्व किया। प्रारंभ में, मुसलमानों द्वारा स्वायत्त शासित क्षेत्रों के साथ अलग मुस्लिम देश (एस) के लिए मांग बडे, स्वतंत्र, अविभाजित भारत के एक ढांचे के भीतर थी। साथ ही भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए अन्य विकल्प भी था और एक मुक्त, अविभाजित भारत में पर्याप्त संरक्षण और राजनीतिक प्रतिनिधित्व आदि पर भी बहस की जा रही थी। हालांकि, जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, ऑल इंडिया मुस्लिम लीग और ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के बीच अंग्रेजी साम्राज्य से शीघ्र स्वतंत्रता मांगने को लेकर जब आपस में कोई आम सहमति नहीं बन पाई तब ऑल इंडिया मुस्लिम लीग ने स्पष्ट रूप से पूर्ण स्वतंत्र, संप्रभु देश, पाकिस्तान की मांग पर जोर दिया भारत में प्रमुख मुस्लिम भारत ऐसे कई प्रख्यात मुसलमानों का गढ है जिन्होंने कई क्षेत्रों में अपनी अमिट छाप छोडी है और भारत की आर्थिक वृद्धि और दुनिया भर में सांस्कृतिक प्रभाव छोडने में एक रचनात्मक भूमिका निभाई है । स्वतंत्र भारत के 12 राष्ट्रपतियों में से तीन मुसलमान थे - जाकिर हुसैन डॉ॰ अहमद फखरुद्दीन अली और डॉ॰ ए० पी० जे० अब्दुल कलाम। इसके अलावा, स्वतंत्रता के बाद से विभिन्न अवसरों पर मोहम्मद हिदायतुल्ला, ए० एम० अहमदी और मिर्जा हमीदुल्लाह बेग, चीफ जस्टीस ऑफ इंडिया के पद पर प्रतिष्ठित रहे हैं। मौजूदा भारत के उपराष्ट्रपति, मोहम्मद हामिद अंसारी मुस्लिम हैं। प्रमुख भारतीय नौकरशाहों और राजनयिकों में आबिद हुसैन और आसफ अली शामिल हैं। भारत के प्रभावशाली मुस्लिम नेताओं में शेख अब्दुल्ला, फारूक अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला (जम्मू और कश्मीर के वर्तमान मुख्यमंत्री), मुफ्ती मोहम्मद सईद,मो आजम खान सिकंदर बख्त, ए० आर० अंतुले, सी० एच० मोहम्मद कोया, मुख्तार अब्बास नकवी, सलमान खुर्शीद, सैफुद्दीन सोज, ई० अहमद, गुलाम नबी आजाद और सैयद शाहनवाज हुसैन शामिल हैं। मुंबई आधारित बॉलीवुड में कुछ लोकप्रिय और प्रभावशाली अभिनेता और अभिनेत्रियां मुसलमान हैं। इनमें यूसुफ खान (पर्दे पर दिलीप कुमार),[40] शाहरुख खान,[41] आमिर खान,[42] सलमान खान,[43] सैफ अली खान,[44][44][45] मधुबाला,[46] कैटरीना कैफ और इमरान हाशमी[47] शामिल हैं। भारत में ऐसे कई मुस्लिम अभिनेता भी हैं जिन्हें समीक्षकों द्वारा प्रशंसा प्राप्त है, इनमें नसीरुद्दीन शाह, शबाना आजमी[48] वहीदा रहमान,[49] इरफान खान, फरीदा जलाल, अरशद वारसी, महमूद, जीनत अमान, फारूक शेख और तब्बू शामिल हैं। भारतीय मुसलमान भारत में कला प्रदर्शन के अन्य रूपों में भी निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं विशेष रूप से संगीत, आधुनिक कला और थिएटर में। एम॰एफ॰ हुसैन को भारत के सबसे प्रसिद्ध समकालीन कलाकार के रूप में जाना जाता है और अकादमी पुरस्कार विजेता रेसुल पुकुट्टी और ए॰आर॰ रहमान भारत के महान संगीतकारों में से एक हैं। प्रमुख कवियों और गीतकारों में जावेद अख्तर को शामिल किया जाता है जिन्होंने अपनी प्रतिभा के लिए कई फिल्म फेयर पुरस्कार अर्जित किया है । अन्य लोकप्रिय मुसलमान जाति के भारतीय संगीतकारों और गायकों में मोहम्मद रफी, अनु मलिक, लकी अली और तबला वादक जाकिर हुसैन शामिल हैं। हैदराबाद से सानिया मिर्जा उच्चतम रैंक की टेनिस खिलाडी हैं और व्यापक रूप से भारत में उन्हें युवाओं का आदर्श माना जाता है । क्रिकेट (भारत का सबसे लोकप्रिय खेल) में कई मुस्लिम खिलाडी रहे हैं जिन्होंने अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया है । इस्लाम को मानने वाले कुछ पूर्व क्रिकेटर मुश्ताक अली, नवाब पटौदी और मोहम्मद अजहरुद्दीन हैं। मौजूदा भारतीय क्रिकेट टीम में जहीर खान, इरफान पठान और यूसुफ पठान जैसे कई मुस्लिम खिलाडी हैं। भारत में अन्य प्रमुख मुस्लिम क्रिकेटरों में मोहम्मद कैफ और वसीम जाफर हैं। अजीम प्रेमजी अजीम प्रेमजी, भारत की तीसरी सबसे बडी आईटी कंपनी विप्रो टेक्नोलॉजीज के सीईओ और 17 1 अरब अमेरिकी डॉलर की अनुमानित संपत्ति के साथ भारत में 5 वें स्थान के सबसे अमीर आदमी[50] हैं। भारत में कई प्रभावशाली मुस्लिम व्यापारी हैं। विप्रो, वॉकहार्ट, हमदर्द लेबोरेटोरिज, सिप्ला और मिर्जा टेनर्स जैसी प्रमुख भारतीय कंपनियों की स्थापना मुस्लिम द्वारा की गई है । फोर्ब्स पत्रिका द्वारा दक्षिण एशिया के केवल दो मुस्लिम अरबपतियों यूसुफ हामिद और अजीम प्रेमजी का नाम उल्लिखित किया गया है । भारतीय सशस्त्र बलों में हिंदुओं और सिखों की तुलना में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कम है[51] फिर भी कई भारतीय सैन्य मुस्लिम कर्मियों को राष्ट्र के प्रति उनकी असाधारण सेवा के लिए वीरता पुरस्कार और उच्च रैंक से सम्मानित किया गया है । भारतीय सेना के अब्दुल हमीद को 1965 में असल उत्तर के युद्ध के दौरान एक रिकोइलेस बंदूक द्वारा सात पाकिस्तानी टैंकों को उडा देने के लिए भारत के उच्चतम पुरस्कार, परम वीर चक्र से नवाजा गया। [52][53] दो अन्य मुसलमान - ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान और मोहम्मद इस्माइल - को 1947 के इंडो-पाकिस्तानी युद्ध के दौरान उनकी सेवाओं के लिए महावीर चक्र दिया गया। [54] भारतीय सशस्त्र बलों में उच्च रैंकिंग के मुसलमानों में लेफ्टिनेंट जनरल जमील महमूद (भारतीय सेना में पूर्व जीओसी-इन-सी के पूर्वी कमान)[55] और मेजर जनरल मोहम्मद अमीन नायक शामिल हैं। [56] डॉ॰ अब्दुल कलाम, भारत के सर्वाधिक सम्मानित वैज्ञानिक भारत के इंटेग्रेटेड गाइडेड मिसाइल डेवलपमेंट प्रोग्राम के (आईजीएमडीपी) जनक हैं और उन्हें भारत के 11वें राष्ट्रपति के रूप नियुक्ति देकर सम्मानित किया गया। [57] रक्षा उद्योग में उनके अभूतपूर्व योगदान के चलते उन्हें मिसाइल मैन ऑफ इंडिया की उपाधि दी गई[58] और भारत के राष्ट्रपति के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान उन्हें प्यार से पिपुल्स प्रेसीडेंट कहा जाता था। डॉ॰ एस॰ जे॰ कासिम, राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान के पूर्व निदेशक थे और उन्होंने अंटार्कटिका के पहले वैज्ञानिक अभियान के माध्यम से भारत का नेतृत्व किया और दक्षिण गंगोत्री की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। साथ ही वे जामिया मिलिया इस्लामिया के पूर्व कुलपति, महासागर विकास विभाग के सचिव और भारत में पोलर रिसर्च के संस्थापक हैं। [59] अन्य प्रमुख मुस्लिम वैज्ञानिकों और इंजीनियरों में सी॰एम॰ हबीबुल्ला, डेक्कन कॉलेज ऑफ मेडीकल साइंसेस एंड एलाएड हॉस्पीटल और सेंटर फॉर लीवर रिसर्च एंड डाइग्नोस्टिक, हैदराबाद के एक स्टेम सेल के वैज्ञानिक और निर्देशक हैं;[60] मुशाहिद हुसैन, जामिया मिलिया इस्लामिया के उल्लेखनीय भौतिक विज्ञानी और प्रोफेसर हैं; और डॉ॰ इसरार अहमद, सैद्धांतिक भौतिकी के लिए इंटरनेशनल सेंटर के एक सहयोगी सदस्य हैं, शामिल हैं। यूनानी चिकित्सा क्षेत्र में, हाकिम अजमल खान, हाकिम अब्दुल हमीद और हकीम सैयद रहमान जिल्लुर का नाम काफी प्रसिद्ध है । जॉर्ज टाउन विश्वविद्यालय द्वारा सबसे प्रभावशाली मुसलमानों की सूची में अहले सुन्नत सूफी नेता हजरत सैयद मोहम्मद अमीन मियां कौद्री और शेख अहमद अबूबक्कर मुस्लियर सूची में शामिल किया गया है । सांसद और जमीयत उलेमा ए हिंद के नेता मौलाना महमूद मदनी को दक्षिण एशिया में आतंकवाद के खिलाफ आंदोलन की शुरूआत करने के लिए 36वां स्थान दिया गया था। [61] सैयद अमीन मियां का सूची में 44वां स्थान था। इंडो-इस्लामी कला और स्थापत्य कला आगरा में ताज महल भारत के सबसे प्रतिष्ठित स्मारकों में से एक है । बीजापुर में गोल गुंबज, बाइजंटाइन हेगिया सोफिया के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बडा पूर्वाधुनिक गुंबद दिल्ली में हुमायूं का मकबरा, भारत बहाउद्दीन मकबरा, जूनागढ के वजीर का मकबरा 12वीं सदी के अंत में भारत में इस्लामी शासन के आगमन के साथ ही भारतीय वास्तुकला ने एक नया रूप धारण किया। भारतीय वास्तुकला में जो नए तत्व शामिल हुए वे हैं: आकार का इस्तेमाल (प्राकृतिक स्वरूपों के स्थान पर); सजावटी अभिलेख या सुलेख का उपयोग करते कला; जडने वाली सजावट और रंगीन संगमरमर, पेंट प्लास्टर और चमकीले रंग के चमकते हुए टाइलों का इस्तेमाल 1193 ई॰ में निर्मित कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद भारतीय उपमहाद्वीप में बनने वाली पहली मस्जिद थी, इसके आसपास "टॉवर ऑफ विक्टरी", कुतुब मीनार का निर्माण भी लगभग 1192 ई॰में शुरू किया गया था, जो कि स्थानीय राजपूत राजा पर गजनी, अफगानिस्तान के मुहम्मद गोरी और उनके जनरल कुतबुद्दीन ऐबक की जीत को चिह्नित करता है, वर्तमान में यह दिल्ली में यूनेस्को विश्व विरासत साइट है । स्वदेशी भारतीय वास्तुकला के विपरीत जो कि पट या सीधे क्रम की थी अर्थात सभी रिक्त स्थान क्षैतिज बीम के माध्यम से फैले रहते थे, इस्लामी वास्तुकला धनुषाकार थी यानी एक मेहराब या गुंबद का इस्तेमाल रिक्त स्थान में पूल बनाने की योजना के रूप में अपनाया गया था। मेहराब या गुंबद की अवधारणा मुसलमानों द्वारा आविष्कृत नहीं थी, लेकिन उनके द्वारा उधार ली गई थी और बाद में उनके द्वारा पूर्व रोमन काल की स्थापत्य शैली से अलग करते हुए उसमें और सुधार किया गया। पहले-पहले भारत में भवनों के निर्माण में मुसलमान मोर्टार के रूप में एक सिमेंटिंग एजेंट का इस्तेमाल करते थे। बाद में भी भारत में निर्माण कार्यों में वे कुछ वैज्ञानिक और यांत्रिक सूत्रों का इस्तेमाल करते थे जो कि अन्य सभ्यताओं के उनके अनुभव से प्राप्त था। वैज्ञानिक सिद्धांतों के इस प्रयोग से अधिक मजबूती और निर्माण सामग्री की स्थिरता प्राप्त करने में केवल मदद ही नहीं मिलती थी बल्कि वास्तुकारों और बिल्डरों को और अधिक लचीलापन भी मिलता था। यहां पर एक तथ्य जिस पर जोर दिया जाना चाहिए यह है कि, भारत में इन्हें पेश करने से पहले वास्तुकला के इस्लामी तत्वों को मिस्र, ईरान और इराक जैसे अन्य देशों में विभिन्न प्रयोगात्मक चरणों के माध्यम से पारित किया गया था। इन देशों में अधिकांश इस्लामिक स्मारकों के विपरीत जिसमें बडे पैमाने पर ईंट प्लास्टर और मलबे का इस्तेमाल निर्माण कार्य में किया गया था, भारत और इस्लामी स्मारकों में तैयार किए गए पत्थरों से बने ठेठ मोर्टार-चिनाई कार्य होता था। इस बात पर बल देना जरूरी है कि भारत-इस्लामी वास्तुकला का विकास अधिकांशतः भारतीय कारीगरों के ज्ञान और कौशल द्वारा किया गया था, जिन्होंने कई शताब्दियों के दौरान पाषाण कारीगरी में महारत प्राप्त की थी और उन्होंने भारत में इस्लामी स्मारकों के निर्माण में अपने अनुभवों का इस्तेमाल किया। भारत में इस्लामी वास्तुकला को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है: धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष। मस्जिद और मकबरे धार्मिक वास्तुकला का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि महल और किले धर्मनिरपेक्ष इस्लामी वास्तुकला के उदाहरण हैं। किले अनिवार्य रूप से व्यवहारिक थे और जिसके भीतर एक छोटी सी पूर्ण बस्ती होती थी और दुश्मनों को पीछे हटाने के लिए विभिन्न किलेबंदी संलग्न थी। मस्जिद: मॉस्क या मस्जिद अपने सरलतम रूप में मुस्लिम कला का प्रदर्शन है । मूल रूप से मस्जिद घिरे हुए पिलरों के बीच एक खुला हुआ बरामदा होता है, जिसके ऊपर एक गुंबद होता है । मेहराब, नमाज के लिए किबला दिशा का संकेत करती है । मेहराब के दांए ओर मिमबार या पल्पिट होता है जहां से इमाम कार्यवाही का संचालन करते हैं। एक ऊंचा स्थान, आमतौर पर मीनार होती है जहां से आस्थावानों को नमाज के लिए शामिल किया जाता है, जो कि मस्जिद का एक अचल हिस्सा होता है । बडी मस्जिद जहां श्रद्धालु शुक्रवार की नमाज के लिए इकट्ठा होते हैं उसे जामा मस्जिद कहा जाता है । कब्रिस्तान: यद्यपि वास्तव में यह प्राकृतिक रूप से धार्मिक नहीं है, कब्र या मकबरा ने संपूर्ण रूप से नई वास्तुकला की अवधारणा की शुरूआत की है । मस्जिद को मुख्य रूप से इसकी सादगी के लिए जाना जाता है, जबकि एक कब्र साधारण (औरंगजेब की कब्र) से लेकर एक भव्य संरचना ताजमहल तक होती है । आमतौर पर कब्र, एक एकान्त कक्ष या कब्र कक्ष होती है जिसे हुज्रा के रूप में जाना जाता है जिसके केंद्र में स्मारक या जरिह होता है । पूरी संरचना को एक विस्तृत गुंबद द्वारा आवृत्त किया जाता है । भूमिगत कक्ष में मुर्दाघर या मकबरा होता है जिसमें एक लाश को समाधि या कब्र में दफन किया जाता है । छोटे कब्रों में मेहराब हो सकते हैं, हालांकि बडे मकबरों में मुख्य मकबरे से थोडी ही दूरी पर एक अलग मस्जिद होती है । सामान्य रूप से पूरा मकबरा परिसर या रौजा एक बाडे द्वारा घिरा होता है । मुस्लिम संत के कब्र को दरगाह कहा जाता है । कुरान के अनुसार लगभग सभी इस्लामी स्मारकों का इस्तेमाल मुफ्त होता है और अधिकांश समय दीवारों, छत, खंभे और गुंबदों पर मिनट विवरण नक्काशी में खर्च किए जाते थे। भारत में इस्लामी स्थापत्य को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है: दिल्ली या इम्पीरियल शैली (1191 1557 ई ); प्रांतीय शैली, डेक्कन और जौनपुर जैसे आस-पास के क्षेत्रों को शामिल किया जाता है; और मुगल स्थापत्य शैली (1526 को 1707 ई ),[62] साहित्य इलियट और डाउसन: द हिस्टरी ऑफ इंडिया एज टोल्ड बायइट्स ओन हिस्टोरियंस, नई दिल्ली पुनर्मुद्रण 1990 एलियट, सर एच एम , डौसन, जॉन द्वारा संपादित, द हिस्ट्री ऑफ इंडिया, एज टोल्ड बाई इट्स ओन हिस्टोरियन, द मोहम्मदन पीरियड; लंदन ट्रुब्नर कंपनी द्वारा प्रकाशित 1867-1877 (ऑनलाइन कॉपी : द हिस्ट्री ऑफ इंडिया, एज टोल्ड बाई इट्स ओन हिस्टोरियन द मुहाम्मदन पीरियड; सर एच एम एलियट द्वारा; जॉन डौसन द्वारा संपादित; लंदन ट्रुब्नर कंपनी 1867-1877 - यह ऑनलाइन प्रतिलिपि पोस्ट की गई है: पैकर्ड मानविकी संस्थान, द्वारा अनुवाद में फारसी पाठ; इसके अलावा अन्य ऐतिहासिक पुस्तकें मिलेंगी: लेखक सूची और शीर्षक की सूची) मजूमदार, आर॰ सी॰ (संपादित), द हिस्टरी एंड कल्चर ऑफ द इंडियन पिपुल, वोल्यूम VI, द दिल्ली सल्तनत, बॉम्बे, 1960; वोल्यूम VII, द मुगल एम्पायर, बॉम्बे, 1973 कानून और राजनीति भारत में मुसलमान "मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम, 1937 द्वारा शासित हैं। "[63] यह मुसलमानों के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ को निर्देशित करता है जिसमें शादी, महर (दहेज), तलाक, रखरखाव, उपहार, वक्फ, चाह और विरासत शामिल है । [64] आम तौर पर अदालत सुन्नियों, के लिए हनाफी सुन्नी कानून को लागू करती है, शिया मुसलमान उन स्थानों में सुन्नी कानून से अलग है जहां बाद में सुन्नी कानून से शिया कानून अलग हैं। हालांकि, वर्ष 2005 में, भारतीय शिया ने सबसे महत्वपूर्ण मुस्लिम संगठन ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ से नाता तोड दिया और उन्होंने ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड के रूप में स्वतंत्र लॉ बोर्ड का गठन किया। [65] भारतीय संविधान, बिना धर्म का विचार किए सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान करता है । संविधान का अनुच्छेद 44 समान नागरिक संहिता की सिफारिश करता है । हालांकि, देश में लगातार राजनीतिक नेतृत्वों ने समान नागरिक संहिता के तहत भारतीय समाज को एकीकृत करने के प्रयासों का जोरदार विरोध किया है और भारतीय मुसलमानों द्वारा इसे देश के अल्पसंख्यक समूहों की सांस्कृतिक पहचान को कमजोर करने की कोशिश के रूप में देखा जाता है । इस प्रकार भारत में एक अद्वितीय स्थिति मौजूद है जहां एक धर्मनिरपेक्ष कानून का समर्थन करने वालों को फांसीवादी माना जाता है जबकि जो भारतीय मुसलमानों के लिए शरीयत का समर्थन करते हैं उन्हें धर्मनिरपेक्ष के रूप में समझा जाता है । ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की स्थापना "मुस्लिम पर्सनल लॉ" यानी भारत में शरीयत अनुप्रयोग अधिनियम, सुरक्षा और प्रयोज्यता जारी के लिए किया गया था। अधिक जानकारी के लिए देखें धर्मांतरण विवाद इस्लाम में धर्मांतरण को लेकर विद्वानों और सार्वजनिक राय, दोनों में काफी विवाद मौजूद है और आमतौर निम्नलिखित विचारधाराओं द्वारा प्रदर्शित होता है:[66] मुसलमानों का अधिकांश हिस्सा ईरानी पठार या अरब प्रवासियों का वंशज हैं। [67] मुसलमान जिहाद के माध्यम से धर्मांतरण करते हैं[66] व्यवहारिकता और संरक्षण जैसे गैर धार्मिक कारणों से हुए धर्मांतरण जैसे सत्तारूढ मुस्लिम कुलीन के बीच सामाजिक गतिशीलता या करों से मुक्ति के लिए [66][67] सुन्नी सूफी संतों की गतिविधियों के कारण हुए धर्मांतरण और जिसमें एक वास्तविक हृदय परिवर्तन शामिल था। [66] बौद्धों से आया धर्मांतरण और सामाजिक मुक्ति और दमनकारी हिंदू जाति की बाध्यताओं की अस्वीकृति स्वरूप निम्न जाती समूहों द्वारा सामूहिक धर्मांतरण [67] एक संयोजन, शुरू में दबाव के तहत और जिसके बाद वास्तविक हृदय परिवर्तन हुआ[66] प्रमुख मुस्लिम सभ्यता और वैश्विक राज्य व्यवस्था में एक विस्तृत अवधि के दौरान विसरण और एकीकरण की सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया के रूप में [67] एक विदेशी आरोपण के रूप में इस्लाम की स्थिति और विरोध करने वाले मूल निवासियों की स्वाभाविक रूप से हिन्दू हैसियत इन बातों में निहित है, जिसके परिणामस्वरूप भारतीय उपमहाद्वीप के इस्लामीकरण की परियोजना विफल हो गई और विभाजन की राजनीति और भारत में सांप्रदायिकता काफी उलझ गई। [66] मुस्लिम इतिहास और जनसांख्यिकीय गणना के आधार पर मारे गए लोगों की अनुमानित संख्या के एस लाल की पुस्तक ग्रोथ ऑफ मुस्लिम पोपुलेशन इन मिडियावल इंडिया में दी गई है जिन्होंने दावा किया कि 1000 ई और 1500 ई के बीच हिन्दुओं की जनसंख्या करीब 80 मिलियन कम हुई पूर्व-जनगणना काल में सही डेटा की कमी और इसकी कार्यावली के लिए कई आलोचकों ने उनकी पुस्तक की आलोचना की जैसे सिमोन डिग्बी (स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज) और इरफान हबीब लाल ने अपनी बाद की पुस्तकों में इन आलोचनाओं का जवाब दिया विल डुरंत जैसे इतिहासकार ने तर्क दिया कि हिंसा के माध्यम से इस्लाम को फैलाया गया था। [68][69] सर जदुनाथ सरकार का कहना है कि कई मुस्लिम आक्रमणकारी भारत में हिंदुओं के खिलाफ व्यवस्थित रूप से जिहाद छेड रहे थे, इस हद तक कि "काफिरों के परिवर्तन के लिए निर्दयतापूर्ण नरसंहार के सारे उपायों का सहारा लिया गया। "[70] वे हिंदू जो इस्लाम में धर्मान्तरित हुए थे, वे भी फतवा-ए-जहांदारी में जियाउद्दीन अल-बरनी द्वारा स्थापित मुस्लिम जाति व्यवस्था के कारण अत्याचार से मुक्त नहीं थे,[71] जहां उन्हें "अज्लाफ" जाति के रूप में माना जाता था और "अशरफ" जातियों द्वारा भेदभाव किया जाता था। [72] "तलवार की नोक पर धर्मांतरण सिद्धांत" दक्षिण भारत, श्रीलंका, पश्चिमी बर्मा, बांग्लादेश, दक्षिणी थाईलैंड, इंडोनेशिया और मलेशिया में व्याप्त विशाल मुस्लिम समुदाय की ओर इशारा करता है और भारतीय उप-महाद्वीप में ऐतिहासिक मुस्लिम साम्राज्य के गढ के आसपास बराबर संख्या में मुस्लिम समुदायों की कमी "तलवार की नोक पर धर्मांतरण सिद्धांत" का खंडन करती है । दक्षिण एशिया पर मुस्लिम विजय की विरासत पर आज भी गंभीर बहस जारी है । अर्थशास्त्र के इतिहासकार एंगस मेडीसन और जीन-नोएल बिराबेन ने विभिन्न जनसंख्या अनुमान किया और साथ ही संकेत मिलता है कि 1000 और 1500 के बीच भारत की जनसंख्या में कमी नहीं हुई, लेकिन उस समय के दौरान करीब 35 मिलियन बढी थी। [73][74] सभी मुस्लिम आक्रमणकारी हमलावर नहीं थे। बाद के शासकों ने राज्यों को जीतने के लिए लडाई लडी और नए राजवंशों की स्थापना के लिए वहां निवास किया। इन नए शासकों और उनके बाद के उत्तराधिकारियों (जिनमें से कुछ हिन्दू पत्नियों से जन्मे थे) की प्रथाओं में काफी विविधता थी। जबकि कुछ समान रूप से नफरत करते थे, अन्यों ने बाद में लोकप्रियता हासिल की 14वी सदी में इब्न बतूता के वृतांत के अनुसार जिसने दिल्ली की यात्रा की थी, पिछले सुल्तानों में से एक विशेष रूप से क्रूर था और दिल्ली की आबादी उससे अत्यधिक नफरत करती थी, बतूता का वृतांत यह भी संकेत करता है कि अरब दुनिया, फारस और तुर्की के मुस्लिम अक्सर शाही सुझाव में समर्थन करते हुए कहते थे कि हो सकता है दिल्ली प्रशासन में वहां के स्थानीय लोगों ने कुछ हद तक एक अधीनस्थ भूमिका निभाई होगी "तुर्क" शब्द का इस्तेमाल सामान्यतः उनकी उच्च सामाजिक स्थिति का उल्लेख करने के लिए किया जाता था। हालांकि एस ए ए रिजवी (द वंडर दैट वाज इंडिया - II) ने इंगित किया कि मुहम्मद बिन तुगलक ने न केवल स्थानीय लोगों को प्रोत्साहित किया बल्कि कारीगर समूहों को भी उच्च प्रशासनिक पदों के लिए प्रोत्साहित किया जैसे बावर्ची, नाई और माली उसके शासनकाल में, यह संभावना है कि इस्लाम में धर्मांतरण एक अधिक सामाजिक गतिशीलता और संशोधित सामाजिक सुधार के रूप में हुआ। [75] धार्मिक संघर्ष मुस्लिम-हिंदू संघर्ष 1947 से पहले भारतीय उपमहाद्वीप में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संघर्ष का एक जटिल इतिहास है, कहा जा सकता है 711 में सिंध में उमय्यद खलीफा के जिहाद के साथ यह संघर्ष शुरू हुआ। भारत में मध्ययुगीन काल में इस्लामी विस्तार के दौरान मंदिरों के विनाश के द्वारा हिंदू उत्पीडन को देखा जा सकता है, सोमनाथ[76][77] मंदिर के बार-बार विनाश करने और हिंदू प्रथाओं के विरोधी मुगल सम्राट औरंगजेब का अक्सर इतिहासकारों द्वारा उल्लेख किया गया है । [78] 1947 से 1991 तक 1947 में भारत विभाजन के बाद के परिणामों में बडे पैमाने पर सांप्रदायिक संघर्षों और देश भर में रक्तपात को देखा गया। तब से, भारत में बडे पैमाने पर हिंदू और मुस्लिम समुदायों के वर्गों के बीच निहित तनाव से तेज हिंसा चली आ रही है । ये विवाद हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा बनाम इस्लामी चरमपंथ से भी उत्पन्न होते हैं और आबादी के विशेष तबके में प्रचलित हैं। आजादी के बाद से भारत ने धर्मनिरपेक्षता के लिए संवैधानिक प्रतिबद्धता को हमेशा बनाए रखा है । 1992 के बाद से विभाजन के बाद हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक सौहार्द की भावना को बनाए रखने के बाद पिछले दशक में तनाव को उत्पन्न करने वाली अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद गिराने का मुद्दा है । इसे 1992 में विध्वंस किया गया था और कथित तौर पर हिंदू राष्ट्रवादी, भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों के द्वारा यह कार्य किया गया था। इसके बाद जैसे को तैसा की तर्ज पर सारे देश में मुस्लिम और हिंदू कट्टरपंथियों के बीच हिंसा फैल गई जिसमें शामिल थे मुंबई में मुंबई दंगे और साथ ही 1993 में मुंबई बम धमाका, इन वारदातों में कथित तौर पर माफिया डॉन दाऊद इब्राहिम और मुख्य रूप से मुस्लिम डी-कंपनी आपराधिक गिरोह शामिल थे। 2001 में इस्लामी उग्रवादियों द्वारा भारतीय संसद पर एक हाई प्रोफाइल हमले ने समुदाय के संबंधों में काफी तनाव पैदा कर दिया हाल ही में हुई सबसे हिंसक और शर्मनाक घटनाओं में से एक 2002 में घटित गुजरात दंगा था जिसमें अनुमानित तौर पर करीब एक हजार लोग मारे गए थे, मारे गए लोगों में ज्यादातर मुसलमान थे, कुछ सूत्रों ने करीब 2000 मुस्लिम हत्या का दावा किया है,[79] साथ ही इसमें राज्य सरकार की भागीदारी का भी आरोप लगाया गया है । [80][81] यह दंगा, गोधरा ट्रेन आगजनी के प्रतिशोध में किया गया था जिसमें बाबरी मस्जिद के विवादित स्थल से लौट रहे 50 हिन्दू तीर्थयात्रियों को गोधरा रेलवे स्टेशन की ट्रेन आगजनी में जिंदा जला दिया गया था। गुजरात पुलिस ने इस घटना के योजनाबद्ध होने का दावा किया और कहा कि इसे उग्रवादी मुसलमानों द्वारा हिंदू तीर्थयात्रियों के खिलाफ इस क्षेत्र में किया गया था। जांच के लिए बनर्जी आयोग को नियुक्त किया गया था जिसने इसे एक आग दुर्घटना होने की घोषणा की [82] 2006 में उच्च न्यायालय ने इस समिति के गठन को अवैध घोषित किया क्योंकि न्यायमूर्ति नानावती शाह के नेतृत्व में एक अन्य कमेटी इस मुद्दे की जांच कर रही थी। [83] सितंबर 2008 के अंतिम सप्ताह में नानावती शाह आयोग ने पहले ही अपनी प्रथम रिपोर्ट पेश कर दी थी, जिसमें साफ कहा गया था कि गोधरा में ट्रेन आगजनी पूर्व-योजित थी और इसके लिए भारी मात्रा में पेट्रोल एक मुसलमान समूह द्वारा लाया गया था। [तथ्य वांछित] अहमदाबाद दंगों में शहर से उठता धुँआ अहमदाबाद के क्षितिज धुएं से भरे हुए थे, क्योंकि इमारत और दुकानों में दंगों वाले भीड द्वारा आग लगाया गया था। दंगे जो गोधरा ट्रेन घटना के बाद शुरू हुए, जिसमें 790 से अधिक मुसलमानों और 254 हिंदुओं को मारा गया था, इसमें गोधरा ट्रेन की आग में मारे गए हिन्दू लोग भी शामिल हैं[84] वहां बडे पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा जारी थी, जिसमें मुस्लिम समुदायों को कष्ट भुगतना पडा इन दंगों के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री, नरेंद्र मोदी और उनके कुछ मंत्रियों, पुलिस अधिकारी और अन्य दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों की काफी आलोचना की गई। नरेंद्र मोदी के अंतर्गत गुजरात प्रशासन, गुजरात पुलिस ने जानबूझकर मुसलमानों को निशाना बनाया यहां तक कि नरेंद्र मोदी पर नरसंहार का भी आरोप था लेकिन कोई आरोप सिद्ध नहीं हुआ। मुसलमान-हिंदू विरोध को, SIMI (सिमी) (भारतीय इस्लामिक छात्र आंदोलन) जैसे कुछ इस्लामी संगठनों द्वारा और भी उत्तेजित किया गया जिसका उद्देश्य भारत में इस्लामिक शासन स्थापित करना है । पाकिस्तान आधारित कुछ अन्य समूह जैसे लश्कर-ए तैयबा और जैश-ए मोहम्मद हिंदू आबादी के खिलाफ स्थानीय मुस्लिमों को भडकाने का पक्षपात किया जाता है । इन समूहों को 11 जुलाई 2006 में मुंबई ट्रेन बम विस्फोट के लिए जिम्मेदार माना जाता है, जिसमें करीब 200 लोग मारे गए थे। ऐसे समूहों ने 2001 में भारतीय संसद पर भी हमला किया था और 1999 में भारतीय कश्मीर के कुछ भागों को पाकिस्तान का होने का दावा किया और गुप्त रूप से ऐसे कई हमले किए गए जिसमें भारतीय कश्मीर पर लगातार हमला और भारत की राजधानी नई दिल्ली पर बम धमाका शामिल है । इसी बीच, निर्दोष मुसलमान और हिन्दू, सांप्रदायिक संघर्ष की वेदी पर चढते रहे और इस तरह की घटनाओं में लगातार वृद्धि होती जा रही है । [85] प्रोफेसर एम डी नालापत (मनिपाल एडवांस्ड रिसर्च ग्रुप के उपाध्यक्ष, यूनेस्को पीस चेयर और मनिपाल विश्वविद्यालय के भू-राजनीति के प्रोफेसर) के अनुसार, "हिंदू - मुस्लिम" संघर्ष, "हिन्दू बैकलैश" या "आंशिक" धर्मनिरपेक्षता है, जिसमें केवल हिंदुओं के धर्मनिरपेक्ष होने की उम्मीद है जबकि मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों को बहिष्करण प्रथा को चलाने के लिए स्वतंत्र हैं। [86] 2004 में, भारतीय स्कूल की कई पाठ्यपुस्तकों को राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद द्वारा रद्द कर दिया गया था क्योंकि उसमें उन्होंने मुसलमान विरोधी पूर्वाग्रह से भरा हुआ पाया था। एनसीईआरटी ने दलील दी कि यह किताबें "उन विद्वानों द्वारा लिखी गईं हैं जिन्हें पूर्व के हिंदू राष्ट्रवादी प्रशासन द्वारा चुना गया था" द गार्जियन के अनुसार, पाठ्यपुस्तकों में भारत में पूर्व हिन्दू मुस्लिम शासकों को "असभ्य आक्रमणकारी के रूप में और मध्ययुगीन अवधि को इस्लामी औपनिवेशिक साम्राज्य के रूप में दर्शाया गया था, जिसने भारत की हिन्दू साम्राज्य के गौरव अतीत को पहले समाप्त कर दिया था। "[87] एक पाठ्यपुस्तक में, यह अभिप्राय था कि ताज महल, कुतुब मीनार और लाल किला सभी इस्लामी वास्तुकला के उदाहरण थे- "जिसकी डिजाइन और कमीशन हिन्दुओं द्वारा किया गया था। "[87] 2010 में हुए देगंगा दंगे की शुरूआत 6 सितम्बर को हुई, जब एक इस्लामी गिरोह ने देगंगा पुलिस स्टेशन क्षेत्र के तहत देगंगा, कार्तिकपुर और बलियाघाटा के हिन्दू स्थान पर आगजनी और हिंसा की यह हिंसा शाम को देर से शुरू हुई और रात भर चलती हुई अगली सुबह तक जारी रही जिला पुलिस, रैपिड एक्शन फोर्स, केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल और सीमा सुरक्षा बल सभी रिगोह हिंसा को रोकने में असफल रहे, अंततः इसे रोकने के लिए सेना को तैनात किया गया था। [88][89][90][91] सेना ने ताकि रोड पर एक फ्लैग मार्च का आयोजन किया, जबकि टाकी सडक के भीतरी गांवों में बेरोकटोक इस्लामवादी हिंसा जारी रही, सेना की मौजूदगी और सीआरपीसी के धारा 144 तहत निषेधात्मक आदेश के बावजूद यह बुधवार तक जारी रही मुस्लिम-सिख संघर्ष मुगल अवधि के दौरान पंजाब में सिख धर्म उभरा मुस्लिम सत्ता और सिखों के बीच संघर्ष 1606 में अपने आरम्भिक चरम पर पहुंचा जब सिखों के पांचवे गुरू गुरू अर्जन देव पर मुगल साम्राज्य के जहांगीर द्वारा अत्याचार किया गया और उनकी हत्या कर दी गई। पांचवें गुरु की हत्या कर देने के बाद उनके बेटे गुरु हर गोबिंद ने उनकी जगह ली जिन्होंने सिख धर्म को मूलतः योद्धा धर्म बनाया गुरु जी पहले ऐसे योद्धा थे जिन्होंने मुगल साम्राज्य को एक युद्ध में परास्त किया जो कि वर्तमान में गुरदासपुर में हरगोबिंदपुर है[92] इस बिंदु के बाद सिख, अपनी सुरक्षा के लिए अपने आप को सैन्य बनाने के लिए मजबूर हुए 16वीं सदी के बाद, 1665 में तेग बहादुर गुरु बने और 1675 तक सिखों का नेतृत्व किया। जब मुगल सम्राट द्वारा कश्मीरी पंडितों के इस्लाम न ग्रहण करने पर उन्हें मृत्यु दंड दिया जाने लगा तब कश्मीरी पंडितों के प्रतिनिधि ने तेग बहादुर से सहायता मांगी और हिन्दुओं की सहायता करने के कारण औरंगजेब द्वारा प्राण दंड दिया गया। [93] हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष और मुस्लिम-सिख संघर्ष किस प्रकार आपस में जुडे हैं उसका यह प्रारम्भिक उदाहरण है । 1699 में, खालसा की स्थापना सिखों के अंतिम गुरू गुरु गोबिंद सिंह द्वारा की गई। गोबिंद सिंह द्वारा एक पूर्व तपस्वी को उन लोगों को दंडित करने का कर्तव्य सौंपा गया जिन्होंने सिखों को कष्ट पहुंचाया गुरु की मृत्यु के बाद बाबा बंदा सिंह बहादुर सिख सेना के नेता बन गए और मुगल साम्राज्य पर कई हमलों के लिए वे जिम्मेदार थे। इस्लाम ग्रहण कर लेने पर क्षमा दान की पेशकश को ठुकरा देने के बाद जहांदार शाह द्वारा उन्हें मृत्यु दंड दिया गया। [94] 17वीं और 18वीं शताब्दी के दौरान मुगल सत्ता का ह्रास होने लगा और उसी दौरान सिख महासंघ और बाद में सिख साम्राज्य की ताकत बढने लगी, जिसके परिणामस्वरूप संतुलित शक्ति का निर्माण हुआ जिसने सिखों को अधिक हिंसा से रक्षा की 1849 के आंग्ल-सिख द्वितीय युद्ध के बाद सिख साम्राज्य को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में समाहित कर लिया गया। 1947 में भारत विभाजन के दौरान विशाल जनसंख्या का आदान-प्रदान हुआ और पंजाब का ब्रिटिश भारतीय प्रांत दो भागों में विभाजित हुआ और पश्चिमी भागों को पाकिस्तान के डोमिनियन को दिया गया, जबकि पूर्वी भागों यूनियन ऑफ इंडिया को दिया गया। 5 3 मिलियन मुसलमान भारत से पाकिस्तान के पश्चिम पंजाब में चले गए, 3 4 मिलियन हिंदू और सिख पाकिस्तान से भारत के पूर्वी पंजाब में स्थानांतरित हुए इतने बडे पैमाने पर प्रवास और दोनों सीमाओं में होने वाले भीषण हिंसा और हत्या को रोकने में नवगठित सरकारें पूरी तरह से असमर्थ थीं। मोटे तौर पर मौतों की संख्या लगभग 500,000 थीं और मौतों की अनुमानित संख्या कम से कम 200,000 और अधिक से अधिक 1,000,000 थी। [95] मुस्लिम-ईसाई संघर्ष जमालाबाद किला मार्ग मंगलोरियन कैथोलिक इस मार्ग के माध्यम से अपने सेरिंगपटम के लिए इस रास्ते पर यात्रा की थी बाकुर पांडुलिपि ने उनके बारे में कहा है: "सभी मुसलमानों को एकजुट होना चाहिए और एक पवित्र कर्तव्य के रूप में काफिरों के विनाश पर विचार करना चाहिए, अपने सत्ता के अत्यंत श्रम करने के लिए, उस विषय को पूरा करना है । "[96] 1784 में मंगलौर की संधि के बाद जल्द ही टीपू ने केनरा पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया। [97] उन्होंने केनरा में ईसाइयों की सम्पदा को जब्त कर लेने का फरमान जारी किया,[98] और जमालाबाद किला के माध्यम से अपने साम्राज्य की राजधानी श्रीरन्गापटनम उन्हें निर्वासित किया। [99] हालांकि, उनमें बंदियों में से कोई भी पादरी नहीं था। मिरांडा फादर के साथ मिलकर, सभी गिरफ्तार 21 पादरियों को गोवा में भेजने का आदेश दिया गया, 2 लाख का जुर्माना किया गया और साथ अगर वे कभी लौट कर आएंगे तो फांसी के माध्यम मौत के घाट उतारने की धमकी दी गई। [96] टीपू ने 27 कैथोलिक चर्चों को नष्ट करने का आदेश दिया, सभी चर्चों में विभिन्न संतों की खूबसूरत नक्काशीदार प्रतिमाएं थीं। उनमें मंगलौर का नोसा सेनहोरा डी रोजरियो मिलाग्रेस का चर्च, मोन्टे मेरिएनो का एफआर मिरांडा सेमीनरी, ओमजूर का जेसु मरिए जोसे चर्च, बोलार का चापेल, उल्लाल का चर्च ऑफ मर्सिस, मुल्की का इमाकुलाटा कॉनसिएसियाओ, पेरार का सन जोसे, किरेम का नोसा सेनहोरा डोस रेमेडिएस, कर्काल का साव लॉरेंस, बार्कुर का रोजारिओ, बैडनुर का इमाकुलाटा कॉन्सेसियाओ शामिल था। [96] अपवाद के रूप में होसपेट के द चर्च ऑफ पॉली क्रॉस को छोडकर सभी को नष्ट कर दिया गया, इसे मूद्बिदरी के चौता राजा के लिए अनुकूल कार्यालयों के लिए छोड दिया था। [100] एक स्कॉटिश सैनिक और केनरा के पहले कलेक्टर थोमस मुनरो के अनुसार, उनमें से करीब 60,000[101] यानी सम्पूर्ण मंगलौरियन कैथोलिक समुदाय का लगभग 92 प्रतिशत को कैद कर लिया गया, केवल 7000 ही बच पाए फ्रांसिस बुकानन के अनुसार 80,000 की आबादी में से 70,000 को कैद किया गया और केवल 10000 ही बच पाए पश्चमी घाट के पर्वतों पर जंगलों से होते हुए वे लगभग 4,000 फुट (1,200 मी) चढाई करने के लिए मजबूर थे। यह मंगलौर से श्रीरन्गापटनम के लिए 210 मील (340 किमी) था और यात्रा में छह हफ्ते लगे ब्रिटिश सरकार के रिकॉर्ड के मुताबिक, श्रीरन्गापटनम मार्च के दौरान उनमें से 20,000 का निधन हो गया। एक ब्रिटिश अधिकारी जेम्स स्करी जो मंगलोरियन कैथोलिक के साथ बंदियों के साथ था, के अनुसार उनमें से 30000 को जबरन इस्लाम में परिवर्तित किया गया। युवा महिलाओं और लडकियों को वहां रहने वाले मुसलमानों की जबरन पत्नी बनाया गया। [102] वे युवा पुरुष जिन्होंने प्रतिरोध किया उनके नाक, ऊपरी होंठ और कान को काट कर विकृत कर दिया गया। [103] 1800 में गोवा के आर्कबिशप ने लिखा कि, "समग्र एशिया और विश्व के अन्य भागों में केनरा डोमिनियन के राजा टीपू सुल्तान द्वारा उस समय के दौरान ईसाई धर्म को मानने वालों के खिलाफ एक कठोरचित्त घृणा और ईसाइयों द्वारा उठाए गए अत्याचार और कष्टों से सभी परिचित हैं। "[96] ब्रिटिश अधिकारी जेम्स स्करी, जिसे टीपू सुल्तान द्वारा मंगलोरियन कैथोलिक के साथ 10 साल तक हिरासत में रखा गया टीपू सुल्तान की मालाबार पर आक्रमण से मालाबार तट पर सीरिया के मालाबार नसरानी समुदाय पर प्रतिकूल प्रभाव पडा कोचीन और मालाबार के कई चर्च क्षतिग्रस्त हो गए थे। अंगमाली में पुराने सीरियाई नसरानी मदरसा जो कई शताब्दियों के लिए कैथोलिक धार्मिक शिक्षा का केंद्र थे, टीपू के सैनिकों द्वारा नष्ट कर दिए गए। सदियों पुरानी धार्मिक पांडुलिपि हमेशा के लिए खो गई। बाद में चर्च को कोट्टायम में स्थानांतरण किया गया जो कि अभी भी मौजूद है । अकपराम्बू में स्थित मोर सबोर चर्च और मदरसा से जुडे मार्था मरियम चर्च को भी नष्ट कर दिया गया। 1790 में टीपू की सेना ने पलायूर की चर्च में आग लगा दी और ओल्लुर चर्च पर हमला किया। इसके अलावा, अर्थत चर्च और अम्बज्हक्कड मदरसा को भी नष्ट कर दिया गया था। इस आक्रमण के दौरान, कई सीरियाई मालाबार नसरानी मारे गए या जबरन इस्लाम में परिवर्तित किए गए। सीरिया मालाबार किसानों द्वारा लगाए गए अधिकांश नारियल, सुपारी, काली मिर्च और काजू वृक्षारोपण को भी सेना द्वारा अंधाधुंध नष्ट कर दिया गया। परिणामस्वरूप, जब टीपू की सेनाओं ने गुरूवायूर और आसन्न क्षेत्रों पर आक्रमण किया, सीरियाई ईसाई समुदाय केलिकट और छोटे शहरों से नए स्थानों जैसे कुन्नम्कुलम, चलाकुडी, एन्नाकदु, चेप्पदु, कन्नंकोडे, मवेलिक्कारा आदि में भाग गए जहां ईसाई समाज के लोग रहते थे। उन्हें कोचिन और कार्थिका थिरूनल के शासक, सक्थान तम्बुरन ने शरण दी और त्रावणकोर के शासक जिन्होंने उन्हें भूमि दी, वृक्षारोपण और उनके व्यापार को प्रोत्साहित किया। त्रावणकोर के ब्रिटिश निवासी कर्नल मक्कुलय ने भी उन्हें मदद की [104] उसका उत्पीडन पकडे गए ब्रिटिश सैनिकों पर भी जारी रहा उदाहरण के लिए, 1780 से 1784 के बीच ब्रिटिश बंधकों के जबरन धर्म परिवर्तन की संख्या अधिक थी। पोल्लिलुर की लडाई में उनके विनाशकारी हार के बाद अनगिनत संख्या में महिलाओं के साथ 7,000 ब्रिटिश पुरुषों को टीपू के द्वारा श्रीरन्गापटनम के किले में बंदी बनाया गया। इनमें से, 300 से अधिक लोगों का खतना किया गया और मुस्लिम नाम और कपडे दिए गए और कई ब्रिटिश रेजिमेंट ढंढोरची लडको को दरबारी लोगों के मनोरंजन के लिए नर्तकी या नाचने वाली के रूप में घाघरा चोली पहनने पर मजबूर किया गया। 10 साल की लंबी अवधि की कैद के बाद उन कैदियों में एक जेम्स स्करी भी था, उसने बताया कि कुर्सी पर बैठना और चाकू और कांटा का इस्तेमाल करना भी वह भूल गया था। उसकी अंग्रेजी खराब हो गई थी और अपने सभी स्थानीय भाषा मुहावरा को भूल चुका था। उसकी त्वचा अश्वेत की तरह सांवले रंग की हो गई थी और इसके अलावा यूरोपीय कपडों से उसे नफरत हो गई थी। [105] मंगलौर किले के आत्मसमर्पण के दौरान जब ब्रिटिश द्वारा युद्धविराम हुआ था और बाद में उनके वापसी के दौरान सभी मेस्टीजोस थे और 5,600 मंगलौरियन कैथोलिक के साथ बाकी सभी गैर ब्रिटिश विदेशी एक साथ मारे गए थे। टीपू सुल्तान द्वारा विश्वासघात के लिए दोषी ठहराय गए लोगों को फौरन फांसी पर लटका दिया गया, फांसी का चौखट लाशों की संख्या से लटक जाता था। मृत शरीर के कारण नेत्रावती नदी इतनी बदबूदार हो गई थी कि नदी के किनारे रहने वाले स्थानीय लोग वहां से जाने के लिए मजबूर हो गए। [96] मुस्लिम-बौद्ध संघर्ष 1989 में लेह जिले के मुसलमानों का बौद्धों द्वारा एक सामाजिक बहिष्कार किया गया। बहिष्कार 1992 तक चलता रहा लेह में बहिष्कार के समाप्त होने के बाद मुसलमानों और बौद्धों के बीच संबंधों में काफी सुधार हुआ, हालांकि शक अभी भी बना हुआ है । 2000 के दशक में करगिल के गांव में कुरान को अपवित्र करने और बाद में लेह और करगिल शहर में मुसलमानों और बौद्ध समूहों के बीच हुआ संघर्ष, लद्दाख में दोनों समुदायों के बीच गहरे तनाव का संकेत करता है । [106] दक्षिण एशियाई मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था मुख्य लेख : Caste system among South Asian Muslims दक्षिण एशियाई मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था सामाजिक स्तरीकरण की इकाइयों को सन्दर्भित करता है जो कि दक्षिण एशिया में मुसलमानों के बीच में विकसित हुआ है । मूल सूत्रों से संकेत मिलता है कि मुसलमानों के बीच जाति का विकास काफा (Kafa'a) की अवधारणा के परिणामस्वरूप हुआ। [107][108][109] जिन लोगों को अशरफ्स (शरीफ को भी देंखे) के रूप में सन्दर्भित किया जाता है, उन्हें ऊंचे स्तर का माना जाता है और उन्हें विदेशी अरब वंश का माना जाता है[110][111], जबकि अज्लाफ्स को हिंदू धर्म से धर्मान्तरित होने वाला मुसलमान माना जाता है और उन्हें निचली जाति का माना जाता है । भारत सहित, वास्तविक मुस्लिम सामाजिक व्यवहार, कठोर सामाजिक ढांचे के अस्तित्व की ओर इशारा करता है जिसे कई मुस्लिम विद्वानों ने काफा की धारणा के साथ सम्बंधित फिक के विस्तृत नियम के माध्यम से उचित इस्लामी मंजूरी प्रदान करने की कोशिश की प्रमुख मुस्लिम विद्वान मौलवी अहमद रजा खान बेरलवी और मौलवी अशरफ अली फारूकी थान्वी जन्म पर आधारित श्रेष्ठ जाति की अवधारणा के ज्ञाता हैं। यह तर्क दिया जाता है कि अरब मूल (सैयद और शेख) के मुस्लिम गैर-अरब या अजामी मुस्लिम से श्रेष्ठ जाति के होते हैं और इसलिए जब कोई आदमी अरब मूल का होने का दावा करता है तो वह अजामी महिला से निकाह कर सकता है जबकि इसके विपरीत संभव नहीं है । इसी तरह का तर्क है, एक पठान मुस्लिम आदमी एक जुलाहा (अंसारी) मंसूरी (धुनिया), रईन (कुंजरा) या कुरैशी (कसाई या बूचड) महिलाओं से निकाह कर सकता है लेकिन अंसारी, रईन, मंसूरी और कुरैशी आदमी पठान महिला से निकाह नहीं कर सकता है, चूंकि ऐसा माना जाता है कि पठान के मुकाबले ये जातियां निचली हैं। इनमें से कई उलामा यह भी मानते हैं कि अपनी जाति के भीतर ही निकाह सबसे अच्छा होता है । भारत में सजातीय विवाह का कठोरता से पालन किया जाता है । [112][113] सबसे दिलचस्प बात यह है कि तीन आनुवंशिक अध्ययन, जिसमें दक्षिण एशियाई मुसलमानों का प्रतिनिधित्व है, यह पाया गया कि मुस्लिम आबादी जबर्दस्त ढंग से बढ रही है जिसमें स्थानीय गैर-मुस्लिम में कुछ पहचान प्राप्त विदेशी आबादी भी शामिल है, मुख्य रूप से वे अरबियन पेनिनसुला के बजाए ईरान और मध्य एशिया से हैं। [14] समाजिक स्तरण दक्षिण एशिया के कुछ भागों में मुसलमान, अश्रफ्स और अज्लाफ्स के रूप में विभाजित हैं। [114] अश्रफ्स, विदेशी वंश से उत्पन्न अपनी ऊंची जाति का दावा करते हैं। [110][115] हिंदू धर्म से धर्मान्तरित होने वाले को गैर-अश्रफ्स माना जाता है और इसलिए वे स्वदेशी आबादी होते हैं। वे, वैकल्पिक रूप से कई व्यावसायिक जातियों में विभाजित हो जाते हैं। [115] उलेमा की धारा (इस्लामी न्यायशास्त्र के विद्वानों) काफा की अवधारणा की मदद से धार्मिक जाति वैधता प्रदान करते हैं। मुस्लिम जाति व्यवस्था के विद्वानों की घोषणा का एक शास्त्रीय उदाहरण फतवा-ई जहांदारी है, जिसे तुर्की विद्वानों जियाउद्दीन बरानी द्वारा चौदहवीं शताब्दी में लिखा गया था, जो कि दिल्ली सल्तनत के तुगलक वंश के मुहम्मद बिन तुगलक दरबार के एक सदस्य थे। बरनी को उसके कठोरता पूर्वक जातिवादी विचारों के लिए जाना जाता था और अज्लाफ मुसलमानों से अशरफ मुसलमानों को नस्ली रूप से ऊंचा माना जाता है । उन्होंने मुसलमानों को ग्रेड और उप श्रेणियों में विभाजित किया। उनकी योजना में, सभी उच्च पद और विशेषाधिकार, भारतीय मुसलमानों की बजाए तुर्क में जन्म लेने वाले का एकाधिकार हैं। यहां तक कि उनकी कुरान की अपनी व्याख्या "वास्तव में, आप लोगों के बीच सबसे पवित्र अल्लाह हैं" उन्होंने महान जन्म के साथ धर्मनिष्ठता का जुडे होने को मानते हैं। बर्रानी अपने सिफारिश पर सटीक थे अर्थात "मोहम्मद के बेटे" [यानी अशरफ्स] " को [यानी अज्लाफ] की तुलना में एक उच्च सामाजिक स्थिति दिया [116] फतवा में उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान इस्लाम के लिए सम्मान के साथ जातियों का उनका विश्लेषण था। [116] उनका दावा था कि जातियों को राज्य कानून या "जवाबी" के माध्यम से अनिवार्य किया जाएगा और जब कभी वे संघर्ष में थे शरीयत कानून पर पूर्ववर्तिता को लाया जाएगा [116] फतवा-ई जहांदारी (सलाह XXI) में उन्होंने "उच्च जन्म के गुण" के बारे में "धार्मिक" और "न्यून जन्म" के रूप में "दोष के संरक्षक" लिखा था। हर कार्य जो "दरिद्रता से दूषित और अपयश पर आधारित] नजाकत से [अज्लाफ से] आता है" [116] बरानी के पास अज्लाफ के लिए एक स्पष्ट तिरस्कार था और दृढता से उन्होंने उनके शिक्षा से वंचित करने की सिफारिश की है, क्योंकि ऐसा न हो कि वे अशरफ की स्वामित्व को हडप लें उन्होंने प्रभाव मंजूरी के लिए धार्मिक मांग को उचित माना है । [109] साथ ही बर्रानी ने जाति के आधार पर शाही अधिकारी ("वजीर") की पदोन्नति और पदावनति की एक विस्तृत प्रणाली को विकसित किया। [116] अशरफ/अज्लाफ के विभाजन के अलावा, मुसलमानों में एक अरजल जाति भी होती है, जिन्हें बाबासाहेब अम्बेडकर की तरह जाति-विरोधी कार्यकर्ता के रूप में माना जाता है जो कि एक अछूत की तरह हैं। [117][118] "अरजल" शब्द का संबंध "अपमान" से होता है और अरजल जाति को भनर, हलालखोर, हिजरा, कस्बी, ललबेगी, मौग्टा, मेहतर आदि में प्रतिभाग किया जाता है । [117][118][119] अरजल समूह को 1901 की भारत की जनगणना में दर्ज किया गया था और इन्हें दलित मुस्लिम भी कहा जाता है "इनके साथ और मुहम्मदद नहीं जुडते और इन्हें मस्जिद में प्रवेश करने और सार्वजनिक कब्रिस्तान का इस्तेमाल करने से वर्जित किया जाता है । "उन्हें सफाई करना और मैला ले जाना जैसे "छोटे" व्यवसायों के लिए दूर किया जाता है । [120] कुछ दक्षिण एशियाई मुसलमानों को कुओम्स के अनुसार उनके समाजिक स्तरीकरण के लिए जाना गया है । [121] ये मुसलमान, सामाजिक स्तरीकरण की एक रस्म आधारित प्रणाली को मानते हैं। कुओम्स, जो मानव उत्सर्जन के साथ समझौता करता है उसे निम्नतम स्तर दिया जाता है । भारत में बंगाली मुसलमानों के अध्ययन से संकेत मिलता है कि शुद्धता और अशुद्धता की अवधारणा उन के बीच ही मौजूद हैं और अंतर - समूह के रिश्तों में लागू होता है, चूंकि एक व्यक्ति में स्वच्छता और सफाई का विचार व्यक्ति की सामाजिक स्थिति पर निर्भर होती है, न कि उसकी आर्थिक स्थिति पर [115] भारतीय मुसलमानों में मुस्लिम राजपूत भी एक जाति है । मुस्लिम समुदाय के कुछ पिछडे या निम्न जाति में शामिल अंसारी कुंजर चुरिहारा, धोबी और हलालखोर शामिल हैं। उच्च और मध्यम जाति के मुस्लिम समुदायों में सैयद, शेख, शैख्जदा, खानजादा, पठान, मुगल और मलिक शामिल हैं। [122] आनुवंशिक डेटा भी इस स्तरीकरण समर्थन करता है । [123] इसे ध्यान में रखना चाहिए कि भारत में अरबी वंश के लिए अधिकांश दावे त्रुटिपूर्ण हैं और स्थानीय शरीयत में अरबी प्राथमिकताओं की ओर इशारा करते हैं। सबसे दिलचस्प बात यह है कि तीन आनुवंशिक अध्ययनों में जिसमें दक्षिण एशियाई मुसलमानों का प्रतिनिधित्व है, यह पाया गया कि मुस्लिम आबादी जबर्दस्त ढंग से बढ रही है जिसमें स्थानीय गैर-मुस्लिम में कुछ पहचान प्राप्त विदेशी आबादी भी शामिल है, मुख्य रूप से वे अरबियन पेनिनसुला के बजाए ईरान और मध्य एशिया से हैं। [14] सच्चर समिति की रिपोर्ट भारत सरकार द्वारा मान्यताप्राप्त है और 2006 में जारी हुई थी, समाज स्तरीकरण में मुस्लिम दस्तावेज जारी हैं। संपर्क और गतिशीलता ऊंची जात और नीची जात के बीच संपर्क, स्थापित जजमानी प्रणाली के संरक्षक-ग्राहक संबंधों द्वारा विनियमित है, ऊंची जातियों को 'जजमान' के रूप में सन्दर्भित किया जाता है और निम्न जातियों को 'कमिन' कहा जाता है । निम्न जाति के मुसलमानों के साथ संपर्क में आने से ऊंची जात का मुसलमान लघु स्नान करके अपने को शुद्ध कर सकता है, क्योंकि शुद्धीकरण के लिए कोई विस्तृत विधि नहीं है । [115] भारत के बिहार राज्य में ऐसे मामलों की सूचना दी गई है जिसमें उच्च जाति का मुसलमान, कब्रिस्तान में निम्न जाति के मुसलमानों की अंत्येष्टि का विरोध करता है । [122] कुछ आंकडे इंगित करते है कि हिंदुओं की तरह मुसलमानों के बीच जाति भेद कठोर नहीं है । [124][124] बंगलादेश में एक पुरानी कहावत है: पिछले साल मैं एक जुलाहा था; इस साल एक शेख हूं; और अगले साल यदि फसल ठीक रही तो मैं एक सैय्यद होऊंगा "[125] हालांकि, अम्बेडकर जैसे अन्य विद्वान इस उक्ति से असहमत थे (नीचे आलोचना को देंखे) प्रसिद्ध सूफी, सैयद जलालुद्दीन बुखारी जिन्हें मखदूम जहानियां-ए-जहान्गाष्ट के रूप में जाना जाता है, ने घोषणा की है कुरान से अधिक ज्ञान प्रदान करना और प्रार्थना और उपवास के नियम तथाकथित राजिल (अजलफ्स) जाति के लिए सूअर और कुत्ते के सामने मोती बिखरने की तरह है! उन्होंने कथित तौर पर जोर देकर कहा कि दूसरे मुसलमानों को शराब और सूदखोर के उपभोक्ता के अलावा नाइयों, लाशों को साफ करने वाले, रंगरेज, चर्मकार, मोची, धनुष निर्माताओं और धोबी के साथ खाना नहीं चाहिए मोहम्मद अशरफ अपने 'हिंदुस्तानी माशरा अहद-ए-उस्ता में" लिखते हैं कि कई मध्ययुगीन इस्लामी शासक निम्न वर्ग के लोगों को अपने दरबारों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देते थे, या अगर कोई प्रवेश कर भी जाता था तो उन्हें मुंह खोलने से मना किया जाता था क्योंकि उसे वे 'अशुद्ध' मानते थे। [112] विद्वान शब्बीर अहमद हकीम ने थानवी द्वारा लिखित पुस्तक "मसावात-ए- बहार-ए शरीयत" से उद्धृत करते हैं, जिसमें थनवी तर्क देते हैं कि 'जुलाहों' (बुनकर) और 'नाई' (नाई) को मुसलमानों के घरों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देना चाहिए अपने "बहिश्ती जेवर" में थानवी ने दावा किया है कि एक सैयद पिता और एक गैर सैयद मां के बेटे सामाजिक दृष्टि से एक सैयद जोडी के बच्चों से हीन होता है । अपने "इमदाद उल-फतवा में, थानवी ने घोषणा की कि सय्यैद, शेख, मुगल और पठान सभी 'सम्मानित'(शरीफ) समुदाय हैं और कहा कि तेल-निचोडने वाला (तेली) और बुनकर (जुलाहा) समुदाय 'निम्न' जातियां हैं (राजिल अक्वाम) उन्होंने कहा कि गैर-अरब, इस्लाम में परिवर्तित करने वाले 'नव-मुसलमान' को स्थापित मुसलमान (खानदानी मुसलमान) के साथ कफा, निकाह प्रयोजन के रूप में विचार नहीं किया जा सकता है । तदनुसार उन्होंने तर्क दिया कि पठान गैर-अरब हैं और इसलिए 'नव मुसलमान' हैं और सैय्यद और शैख कफा नहीं हैं, जो अरब वंश का दावा करते हैं, इसलिए उनके साथ अंतर्विवाह नहीं कर सकते हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के पहले अध्यक्ष और देवबंद मदरसे के कुलपति मौलवी कारी मोहम्मद तय्येब सिद्दीकी के कुलपति भी जातिवाद के समर्थक थे और मुफ्ती उस्मानी की किताब के समर्थन में दो पुस्तकें लिखीं: "अन्सब वा काबिल का तफाजुल" और "नस्ब और इस्लाम" जाती को वैध ठहराने की इस परम्परा के अनुसार, आज भी देखा जा सकता है कि आज भी देवबंद मदरसे के प्रवेश फार्म में एक स्तंभ है जिसमें आवेदकों से उनके जाति का नाम लिखने के लिए पूछा जाता है । इसके स्थापित होने के कई साल बाद, गैर-अशरफ छात्र आम तौर पर देवबंद में भर्ती नहीं होते थे और यह व्यवहार अभी भी जारी है । आलोचना कुछ मुस्लिम विद्वानों ने कहा है कि भारतीय मुस्लिम समाज में जिस प्रकार की जाति विशेषता है वह "कुरान की विश्वदृष्टि का खुला उल्लंघन है । " हालांकि, ज्यादातर मुस्लिम विद्वान इसका एक अलग तरीके से अनुमान लगाने और जातिवाद के औचित्य के लिए कुरान औऱ शरीयत की व्याख्या के माध्यम से "कुरान समतावाद और भारतीय मुस्लिम सामाजिक प्रथा" में सामंजस्य स्थापित करने और पुनः ठीक करने की कोशिश करते हैं। [126] हालांकि कुछ विद्वानों का सिद्धांत है कि हिन्दुओं जातियों की तरह मुस्लिम जातियों में भेदभाव नहीं है,[109][124] डॉ॰ अम्बेडकर ने इसके विपरीत अपना तर्क देते हुए लिखा कि मुस्लिम समाज में जिस प्रकार सामाजिक बुराइयां थीं वह "हिन्दू समाज से भी बदतर थीं" [117][118] बाबासाहेब अम्बेडकर भारतीय राजनीति के विख्यात व्यक्ति थे और भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार हैं। वे मुस्लिम जाति व्यवस्था और उनके अभ्यासों के कटु आलोचक थे, उन्होंने उद्धृत किया कि "इन समूहों के जाति के भीतर एकदम हिन्दुओं की ही तरह सामाजिक वरीयता होती है लेकिन कई मायनों में वे हिन्दू जातियों से भी बदतर होती हैं। " अशरफ को कैसे अजलफ और अगजल को "बेकार" माना जाता है के वे कटु आलोचक हैं और वह तथ्य जिसे मुसलमान "भाईचारे" के माध्यम से कठोर बात को कोमल रीति से कहते हुए सांप्रदायिक विभाजन का वर्णन करने की कोशिश करते हैं। साथ ही उन्होंने भारतीय मुसलमानों के बीच शास्त्रों के शाब्दिक अर्थ को अपनाने के लिए भी आलोचना की जो कि मुसलमानों में मुस्लिम जाति व्यवस्था के कठोरता और भेदभाव की ओर अग्रसर हुई उन्होंने मुस्लिम जातिवाद के लिए शरीयत के अनुमोदन की निंदा की यह समाज में विदेशी तत्वों की श्रेष्ठता पर आधारित था जिसने अंततः स्थानीय दलितों के पतन का नेतृत्व किया। यह त्रासदी हिंदुओं की तुलना में अधिक कठोर थी जो कि जातीय आधार पर दलितों के समर्थन से संबंधित है । 1300 में भारत में इस्लामी उपस्थिति के दौरान भारतीय मुसलमानों में अरब महत्ता को उच्च और निम्न जाति के हिंदुओं द्वारा बराबर अस्वीकृति की जाती थी। जिस प्रकार दूसरे देशों के मुसलमानों जैसे बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में तुर्कियों ने अपना सुधार किया इसी प्रकार से भारत में मुस्लिम समुदायों के सुधार करने में असमर्थता का उन्होंने निंदा की [117][118] पाकिस्तानी-अमेरिकी समाजशास्त्री आयशा जलाल अपनी पुस्तक "डेमोक्रेसी एंड ऑथोरिटेरिएनिज्म इन साउथ एशिया" (दक्षिण एशिया में लोकतंत्र और निरंकुशवाद) में लिखती हैं कि "समतावादी सिद्धांतों के बावजूद, दक्षिण एशिया में इस्लाम ऐतिहासिक रूप से वर्ग और जाति असमानताओं के प्रभाव से बचने में असमर्थ रहा है । हिंदू धर्म के मामले में, ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था के पदानुक्रमित सिद्धांतों में हमेशा से ही हिंदू समाज के भीतर विवाद रहा है, जिससे यह सुझाव मिलता है कि हिन्दू धर्म में आज भी समानता को महत्व दिया जाता है । "[127] मुस्लिम संस्थान अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय भारत में कई मुस्लिम संस्थान स्थापित हैं। यहां मुसलमानों द्वारा स्थापित प्रतिष्ठित संस्थानों की सूची दी जा रही है । आधुनिक विश्वविद्यालय और संस्थान: अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय अंजुमन-ए-इस्लाम, मुम्बई एरा लखनऊ मेडिकल कॉलेज, लखनऊ जमाल मोहम्मद कॉलेज त्रिचिरापल्ली दार-उस सालम एजुकेशन ट्रस्ट जामिया मिलिया इस्लामिया हमदर्द विश्वविद्यालय अल-बरकात शैक्षिक संस्थान, अलीगढ मौलाना आजाद एजुकेशन सोसाइटी औरंगाबाद डॉ॰ रफीक जकारिया कैम्पस औरंगाबाद अल अमीन एजुकेशनल सोसायटी क्रेसेंट इंजीनियरिंग कॉलेज अल-कबीर शैक्षिक समाज दारुल उलूम देओबंद दारुल-उलूम नडवातुल उलामा इंटीग्रल विश्वविद्यालय इब्न सिना अकादमी ऑफ मिडियावल मेडिसीन एंड साइंस नेशनल कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, तिरुनलवेली अल फलाह स्कूल ऑफ इंजीनियरिंग एण्ड टैक्नोलॉजी, फरीदाबाद दारुल हुडा इस्लामी विश्वविद्यालय उस्मानिया विश्वविद्यालय जामिया निजामिया मुस्लिम एजुकेशनल एसोसिएशन ऑफ साउदर्न इंडिया पारंपरिक इस्लामी विश्वविद्यालय: मर्कजु सकफाठी सुन्निया, केरल जामिया दारुल हुडा इस्लामिया रजा अकादमी राज्यों के अनुसार मुस्लिम आबादी विभिन्न राज्यों में इस्लाम को मानने वालों की जनसंख्या का प्रतिशत: लाल - 50-100%, ऑरेंज - 25-50%, पीला - 20-25%, ग्रीन - 15-20%, ब्लू - 10-15%, (भारतीय राष्ट्रीय औसत), इंडिगो - 5-10%, ग्रे - <5% 2001 की जनगणना के अनुसार भारतीय राज्यों में मुस्लिम आबादी [128] राज्य जनसंख्या प्रतिशत लक्षद्वीप द्वीपसमूह 56353 93 जम्मू व कश्मीर 6,793,240 66 9700 असम 8,240,611 30 9152 पश्चिम बंगाल 20,240,543 25 2451 केरल 7,863,842 24 6969 उत्तर प्रदेश 30,740,158 18 4961 बिहार 13,722,048 16 5329 झारखंड 3,731,308 13 8474 कर्नाटक 6,463,127 12 2291 उत्तरांचल 1,012,141 11 9225 दिल्ली 1,623,520 11 7217 महाराष्ट्र 10,270,485 10 6014 आंध्र प्रदेश 6,986,856 9 1679 गुजरात 4,592,854 9 0641 मणिपुर 190,939 8 8121 राजस्थान 4,788,227 8 4737 अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह 29,265 8 2170 त्रिपुरा 254,442 7 9533 दमण व दीव 12,281 7 7628 गोवा 92,210 6 8422 मध्यप्रदेश 3,841,449 6 3655 पांडिचेरी 59,358 6 0921 हरियाणा 1,222,916 5 7836 तमिलनाडु 3,470,647 5 5614 मेघालय 99,169 4 2767 चंडीगढ 35,548 3 9470 दादरा एवं नागर हवेली 6,524 2 9589 उडीसा 761,985 2 0703 छत्तीसगढ 409,615 1 9661 हिमाचल प्रदेश 119,512 1 9663 अरुणाचल प्रदेश 20,675 1 8830 नगालैंड 35,005 1 7590 पंजाब 80,045 1 5684 सिक्किम 7,693 1 4224 मिजोरम 10,099 1 1365 जनसंख्या का प्रतिशत वितरण (समायोजित) धार्मिक समुदायों द्वारा: भारत - 1961 से 2001 जनगणना (असम और जम्मू कश्मीर को छोडकर) [3] वर्ष प्रतिशत 1951 10 1% 1971 10 4% 1981 11 9% 1991 12 0% 2001 12 8% भारत के धार्मिक समुदाय द्वारा जनसंख्या का प्रतिशत वितरण (असमायोजित) - 1961-2001 की जनगणना (असम और जम्मू व कश्मीर को छोडे बिना) [3] वर्ष प्रतिशत 1961 10 7% 1971 11 2 1981 12 0% 1991 12 8% 2001 13 4% तालिका: 2001 के लिए जनगणना जानकारी: हिन्दू और मुसलमानों की तुलना [α] [β] संरचना हिंदू[129] मुस्लिम[130] 2001 जनसंख्या का कुल % 80 5 13 4 10 वर्ष वृद्धि % ('91-01')[17] [β] 20 3 36 0 लिंग अनुपात (* औसत 933) 931 936 साक्षरता दर (औसत 64 8) 65 1 59 1 सीमांत श्रमिक 40 4 31 3 ग्रामीण लिंग अनुपात[17] 944 953 शहरी लिंग अनुपात[17] 894 907 बच्चे के लिंग अनुपात (0-6 वर्ष) 925 950 दक्षिण एशिया में इस्लामी परंपरा सूफीवाद, इस्लाम का एक रहस्यमय आयाम है, जो अक्सर शरीयत के विधि सम्मत मार्ग के साथ पूरक रहा है, उसका भारत में इस्लाम की वृद्धि पर गहरा प्रभाव पडा अक्सर रूढिवादी व्यवहार के मुहानों पर एक सूफी भगवान के साथ सीधे एकात्मक दृष्टि को प्राप्त करते हैं और इसके बाद एक पीर (जीवित संत) बन सकते हैं जो कि शिष्यता (मुरिद) को ग्रहण कर सकते हैं और आध्यात्मिक वंशावली को स्थापित करते हैं जो कि कई पीढियों तक चल सकता है । मोइनुद्दीन चिश्ती (1142-1236) के शासन के बाद जो कि अजमेर, राजस्थान में बसे थे, तेरहवीं शताब्दी के दौरान सूफियों का पंथ भारत में महत्वपूर्ण हो गया और उन्होंने अपनी पवित्रता के चलते इस्लाम में धर्मान्तरित करने के लिए महत्वपूर्ण संख्याओं में लोगों को आकर्षित किया। उनकी चिश्तिया पंथ भारत में सबसे प्रभावशाली सूफी वंश बन गया, हालांकि मध्य एशिया और दक्षिण पश्चिम एशिया के अन्य क्रम भी भारत में पहंची और इस्माम के प्रसार में प्रमुख भूमिका निभाई इस तरह, उन्होंने क्षेत्रीय भाषा में तमाम साहित्य का सृजन किया जिसमें प्राचीन दक्षिण एशियाई परंपराओं में गहनतम इस्लामी संस्कृति को सन्निहित किया गया। संगठन और नेतृत्व मुस्लिम समुदाय के नेताओं ने भारतीय इस्लाम के विकास में विभिन्न दिशाओं को खंगाला और बीसवीं शताब्दी के दौरान मुस्लिम समुदाय से कई राष्ट्रीय आंदोलन उभरे सबसे रूढिवादी शाखा की निर्भरता, पूरे देश भर में सैकडों धर्म प्रशिक्षण संस्थानों (मदरसा) द्वारा दी जाने वाली शिक्षा प्रणाली पर है जो अरबी और फारसी भाषा में कुरान और इस्लामिक पुस्तकों के अध्ययन के अलावा कुछ और नहीं सिखाते हैं। 2005-2006 के मध्य में अनुमानित 15 करोड के दो-तिहाई भारतीय मुस्लिम आबादी रहस्यवाद सुन्नी बरेलवी विचारधारा और दरगाह भ्रमण, संगीत और योग विद्या जैसे सूफी परम्परा के अनुयायी माने जाते हैं। [131] मंजर-ए-इस्लाम बरेली और अल जमियातुल अशरफिया, बरेलवी मुसलमानों का सबसे प्रसिद्ध सेमिनरी है । 2005-2006 के दौरान मुस्लिम समुदाय के पर्याप्त अल्पसंख्यकों का भारतीय शिया मुसलमान एक रूप है जो कि उस समय के 157 मिलियन की कुल मुस्लिम आबादी का अनुमानित 25%-31% है । टाइम्स ऑफ इंडिया और डीएनए जैसे सूत्रों ने बताया कि उस समय के दौरान भारतीय मुसलमानों की कुल आबादी 157,000,000 का 40,000,000[132][132] से 50,000,000[133]की आबादी शिया मुसलमानों की थी[134][135] उत्तरप्रदेश के सहारनपुर जिले में प्रभावशाली धार्मिक मदरसा दारुल उलूम देवबंद (ज्ञान का निवास/घर) से उत्पन्न भारत के हनाफी विचारधारा के बाद मुस्लिम आबादी का एक और प्रभावशाली भाग देवबंद है । इस मदरसे को अपने राष्ट्रवादी उन्मुखीकरण के लिए जाना जाता है और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई में देवबंदी विद्वानों द्वारा स्थापित जमीयत-उल-उलेमा-ए हिंद ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अपना समर्थन दिया और दारुल उलूम के लिए एक राजनीतिक मुखपत्र बना [136] 1941 में स्थापित जमात-ए-इस्लामी हिन्द (इस्लामी पार्टी) ने एक इस्लामी सरकार की स्थापना की वकालत की और समुदाय के लिए शिक्षा, समाज सेवा और एकतावादी पहुंच को बढावा देने में सक्रिय रहा [137] 1940 के दशक के बाद तब्लीघी जमात (आउटरीच सोसायटी) सक्रिय हो गई क्योंकि विशेष तौर पर उलेमा (धार्मिक नेताओं) के बीच एक आंदोलन शुरू हुई जिसमें व्यक्तिगत नवीनीकरण का तनाव, एक मिशनरी भावना और कट्टरपंथियों के लिए ध्यान जोर दिया गया। इस प्रकार की गतिविधियों की कडी आलोचना की गई जो कि सूफी धार्मिक स्थलों के आसपास शुरू हुई थी और उलेमा के प्रशिक्षण को मजबूर किए जाने के कारण यह सूक्ष्म बन कर रह गई। इसके विपरीत, अन्य उलेमा सामूहिक धर्म की वैधता को बरकरार रखा जिसमें पीर के उल्लास और पैगंबर की स्मृति शामिल है । सैयद अहमद खान के नेतृत्व में एक व्यापक, अधिक आधुनिक और अन्य प्रमुख मुस्लिम विश्वविद्यालयों के साथ अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय (1875 तक मुहम्मदन ओरिएंटल कॉलेज के रूप में) में एक शक्तिशाली धर्मनिरपेक्षता को चलाया गया। भारतीय मुसलमानों का बस्तीकरण हालांकि प्राचीन शहरों में दीवार से घिरे हुए शहर मुसलमानों का पारंपरिक आवास थे, विभाजन के बाद उच्च वर्ग के कई मुसलमान शहर के अन्य भागों में रहने लगे भारतीय मुसलमानों के बीच बस्तीकरण 1970 के दशक के मध्य में शुरू हुआ जब प्रथम सांप्रदायिक दंगे हुए, 1989 के भागलपुर दंगों के बाद इसमें और बढोतरी हुई और 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद यह एक प्रवृत्ति बन गई, उसके बाद शीघ्र ही कई प्रमुख शहरों में मुस्लिम बस्ती या एक अलग क्षेत्रों का विकास हुआ जहां मुस्लिम आबादी रहने लगी [138] हालांकि इस प्रवृत्ति से प्रत्याशित सुरक्षा में कोई मदद नहीं मिली जो कि मुस्लिम बस्ती के गुमनामी को प्रदान करने का सोचा गया था, जैसा कि 2002 के गुजरात दंगों के दौरान देखा गया था, जहां कई मुस्लिम बस्तियों को आसानी से निशाना बनाया गया था, क्योंकि आवासीय कॉलोनियों की रूपरेखा में केवल सहायता मिली थी। [139][140][141][142] बस्तियों में रहने के कारण सामाजिक रूढिबद्धता में विकास हुआ जिसका कारण था पार-सांस्कृतिक संपर्क का अभाव और बडे पैमाने पर आर्थिक और शैक्षिक अवसरों में कमी वहीं दूसरी तरफ, वह बडा समुदाय, जो इस्लामी परंपराओं के साथ सदियों से अपने संपर्कों के कारण लाभान्वित होता रहा और जिसने दो भिन्न परंपराओं के मिलन के माध्यम से निर्मित एक समृद्ध, सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने का विकास किया था, उस पर हो जाने का खतरा तेजी से मंडराने लगा [143] कुछ लोगों के द्वारा भारत में धर्मनिरपेक्षता को लोकतंत्र के लिए अनिवार्य रूप के बजाए एक अल्पसंख्यक के रूप में देखा जा रहा है । [144][145] इन्हें भी देखें बिहारी मुसलमान हिंदू धर्म और इस्लाम भारतीय मुस्लिम राष्ट्रवाद हिंदू राष्ट्रवाद भारतीय मुसलमानों की सूची एनसीईआरटी विवाद %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%% https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B8_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%88%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%BF%E0%A4%A1%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A5%80 %%%%% CS671 : gprachi@iitk.ac.in 150803 मद्रास प्रेसीडेंसी जिसे आधिकारिक तौर पर फोर्ट सेंट जॉर्ज की प्रेसीडेंसी तथा मद्रास प्रोविंस के रूप में भी जाना जाता है, ब्रिटिश भारत का एक प्रशासनिक अनुमंडल था। अपनी सबसे विस्तृत सीमा तक प्रेसीडेंसी में दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्सों सहित वर्तमान भारतीय राज्य तमिलनाडु, उत्तरी केरल का मालाबार क्षेत्र, लक्षद्वीप द्वीपसमूह, तटीय आंध्र प्रदेश और आंध्र प्रदेश के रायलसीमा क्षेत्र, गंजाम, मल्कानगिरी, कोरापुट, रायगढ, नवरंगपुर और दक्षिणी उडीसा के गजपति जिले और बेल्लारी, दक्षिण कन्नड और कर्नाटक के उडुपी जिले शामिल थे। प्रेसीडेंसी की अपनी शीतकालीन राजधानी मद्रास और ग्रीष्मकालीन राजधानी ऊटाकामंड थी। 1639 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने मद्रासपट्टनम गांव को खरीदा था और इसके एक साल बाद मद्रास प्रेसीडेंसी की पूर्ववर्ती, सेंट जॉर्ज किले की एजेंसी की स्थापना की थी, हालांकि मछलीपट्टनम और आर्मागोन में कंपनी के कारखाने 17वीं सदी के प्रारंभ से ही मौजूद थे। 1655 में एक बार फिर से इसकी पूर्व की स्थिति में वापस लाने से पहले एजेंसी को 1652 में एक प्रेसीडेंसी के रूप में उन्नत बनाया गया था। 1684 में इसे फिर से एक प्रेसीडेंसी के रूप में उन्नत बनाया गया और एलीहू येल को पहला प्रेसिडेंट नियुक्त किया गया। 1785 में पिट्स इंडिया एक्ट के प्रावधानों के तहत मद्रास ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा स्थापित तीन प्रांतों में से एक बन गया। उसके बाद क्षेत्र के प्रमुख को "प्रेसिडेंट" की बजाय "गवर्नर" का नाम दिया गया और कलकत्ता में गवर्नर-जनरल का अधीनस्थ बनाया गया, यह एक ऐसा पद था जो 1947 तक कायम रहा न्यायिक, विधायी और कार्यकारी शक्तियां राज्यपाल के साथ रह गयीं जिन्हें एक काउंसिल का सहयोग प्राप्त था जिसके संविधान को 1861, 1909, 1919 और 1935 में अधिनियमित सुधारों द्वारा संशोधित किया गया था। 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिडने के समय तक मद्रास में नियमित चुनाव आयोजित किए गए। 1908 तक प्रांत में 22 जिले शामिल थे जिनमें से प्रत्येक एक जिला कलेक्टर के अधीन था और आगे इसे तालुका तथा फिरका में उपविभाजित किया गया था जिसमें गांव प्रशासन की सबसे छोटी इकाई के रूप में थे। मद्रास ने 20वीं सदी के प्रारंभिक दशकों में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया और यह 1919 के मोंटेग-चेम्सफोर्ड सुधारों के बाद ब्रिटिश भारत में द्विशासन की प्रणाली को लागू करने वाला पहला प्रांत था। इसके बाद गवर्नर ने एक प्रधानमंत्री के साथ-साथ शासन किया। 15 अगस्त 1947 को भारतीय स्वतंत्रता के आगमन के साथ प्रेसीडेंसी को भंग कर दिया गया। 26 जनवरी 1950 को भारतीय गणराज्य के शुभारंभ के अवसर पर मद्रास को भारतीय संघ के राज्यों में से एक के रूप में स्वीकृत किया गया। उद्गम अंग्रेजों के आगमन से पूर्व 1685 और 1947 के बीच विभिन्न राजाओं ने जिलों पर शासन किया जिससे मद्रास प्रेसीडेंसी का गठन हुआ जबकि डोल्मेन की खोज ने यह साबित कर दिया है कि उपमहाद्वीप के इस भाग में आबादी कम से कम पाषाण युग में ही बस गयी थी। [1] सातवाहन राजवंश जिसका अधिपत्य तीसरी सदी ई पू से लेकर तीसरी सदी एडी के संगम काल के दौरान मद्रास प्रेसीडेंसी के उत्तरी भाग पर था, यह इस क्षेत्र का पहला प्रमुख शासक राजवंश बना [2] दक्षिण की ओर चेरस, चोल और पंड्या सातवाहन के समकालीन थे। [2][3] आंध्र के सातवाहनों और तमिलनाडु में चोलों के पतन के बाद इस क्षेत्र पर कलाभ्रस नामक एक अल्प प्रसिद्ध जाति के लोगों ने विजय प्राप्त कर ली [4] इस क्षेत्र ने बाद के पल्लव राजवंश के अधीन अपनी पूर्व स्थिति फिर से बहाल कर ली और इसके बाद चोलों तथा पंड्या वंश के अधीन इसकी सभ्यता अपने सुनहरे युग में पहुंच गयी। [2] 1311 ई में मलिक काफूर द्वारा मदुरै की विजय के बाद वहां एक संक्षिप्त खामोशी छा गयी जब दोनों संस्कृतियों और सभ्यताओं का पतन होगा शुरू हो गया। [5] तमिल और तेलुगू प्रदेशों की पूर्व स्थिति 1336 में स्थापित विजयनगर साम्राज्य के अधीन बहाल हुई साम्राज्य के पतन के बाद यह क्षेत्र अनेक सुल्तानों, पोलिगारों और यूरोपीय कारोबारी कंपनियों के बीच बंटकर रह गया। [5] प्रारंभिक ब्रिटिश व्यापार पोस्ट 31 दिसम्बर 1600 को महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने अंग्रेजी व्यापारियों के एक समूह को एक शुरुआती संयुक्त-शेयर वाली कंपनी, अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी का गठन करने का एक चार्टर प्रदान किया। [6][7][8][9] बाद में किंग जेम्स प्रथम के शासनकाल के दौरान सर विलियम हॉकिन्स और सर थॉमस रो को कंपनी की ओर से भारत में कारोबारी कारखाने स्थापित करने की अनुमति प्राप्त करने के लिए मुगल सम्राट जहांगीर के साथ बातचीत करने के लिए भेजा गया। [10] इनमें से पहला कारखाना देश के पश्चिमी तट पर सूरत[11] में और पूर्वी समुद्रतट पर मसूलीपाटम में बनाया गया था। [12] कम से कम 1611 में मसूलीपाटम भारत के पूर्वी समुद्रतट पर सबसे पुराना व्यापार पोस्ट रहा है । 1625 में दक्षिण की ओर कुछ मील की दूरी पर आर्मागोन में एक और कारखाना स्थापित किया गया था जिसके बाद दोनों कारखाने मछलीपाटम में स्थित एक एजेंसी के पर्यवेक्षण के अंतर्गत आ गए। [12] उसके तुरंत बाद ब्रिटिश अधिकारियों ने कारखानों को और अधिक दक्षिण की ओर स्थानांतरित करने का निर्णय लिया क्योंकि उस समय पूर्वी समुद्रतट पर खरीद के लिए उपलब्ध व्यापार की मुख्य सामग्री, कपास के कपडे की कमी थी। यह समस्या गोलकोंडा के सुल्तान के स्थानीय अधिकारियों द्वारा किये जाने वाले उत्पीडन के कारण कई गुना बढ गयी थी। [12] तब ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यवस्थापक फ्रांसिस डे को दक्षिण भेजा गया था और फिर चंद्रगिरी के राजा के साथ बातचीत के बाद उन्होंने मद्रासपटनम[12] गांव में एक कारखाना स्थापित करने के लिए एक भूमि अनुदान प्राप्त करने में सफल प्राप्त की, यहीं नए सेंट जॉर्ज किले का निर्माण किया गया। नयी बस्ती के नियंत्रण के लिए एक एजेंसी बनायी गयी और कारक मसूलीपटनम के एंड्रयू कोगन को पहला एजेंट नियुक्त किया गया। भारत के पूर्वी तट के पास सभी एजेंसियां जावा में बैंटम की प्रेसीडेंसी की अधीनस्थ थीं। 1641 तक फोर्ट सेंट जॉर्ज कोरोमंडल तट पर कंपनी का मुख्यालय बन गया था। फोर्ट सेंट जॉर्ज की एजेंसी एंड्रयू कोगन का स्थान फ्रांसिस डे ने लिया और उसके बाद थॉमस आइवी और फिर थॉमस ग्रीनहिल ने उनकी जगह ली 1653 में ग्रीनहिल का कार्यकाल समाप्त होने पर फोर्ट सेंट जॉर्ज को बैंटम से अलग[12] एक प्रेसीडेंसी के रूप में और पहले प्रेसिडेंट आरोन बेकर के नेतृत्व में उन्नत किया गया। [12] हालांकि 1655 में किले के दर्जे को एक एजेंसी के रूप में अवनत किया गया और 1684 तक के लिए इसे सूरत में स्थित कारखाने के अधीन बना दिया गया। [13] 1658 में बंगाल के सभी कारखानों का नियंत्रण मद्रास को दे दिया गया जब अंग्रेजों ने पास के गांव ट्रिप्लिकेन को अपने कब्जे में कर लिया। [14][15] इतिहास स्टाफ लॉरेंस जिन्होंने मद्रास आर्मी के साथ मोहम्मद अली खान वलाजन, कर्नाटक नवाब को स्थापित किया विस्तार 1684 में फोर्ट सेंट जॉर्ज का दर्जा फिर से उन्नत कर इसे मद्रास प्रेसीडेंसी बना दिया गया जिसके पहले प्रेसिडेंट विलियम गैफोर्ड बने [16] इस अवधि के दौरान प्रेसीडेंसी का काफी विस्तार किया गया और 19वीं सदी की शुरुआत में यह अपने वर्तमान आयामों तक पहुंच गयी थी। मद्रास प्रेसीडेंसी के शुरुआती वर्षों के दौरान शक्तिशाली मुगलों, मराठों तथा गोलकुंडा के नवाबों और कर्नाटक क्षेत्र द्वारा अंग्रेजों पर बार-बार आक्रमण किये गए। [17] ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के स्वामित्व वाले क्षेत्रों के प्रशासन को एकीकृत और विनियमित करने के लिए ब्रिटिश संसद द्वारा पारित पिट्स इंडिया अधिनियम के जरिये सितंबर 1774 में मद्रास के प्रेसिडेंट को कलकत्ता में स्थित गवर्नर-जनरल का अधीनस्थ बना दिया गया। [18] सितंबर 1746 में फोर्ट सेंट जॉर्ज पर फ्रांसीसियों का अधिकार हो गया जिन्होंने फ्रेंच इंडिया के एक भाग के रूप में मद्रास पर 1749 तक शासन किया जब ऐक्स-ला-चैपल की संधि की शर्तों के तहत मद्रास को वापस अंग्रेजों के अधीन सौंप दिया गया। [19] कंपनी राज के दौरान इन्हें भी देखें 1774 से 1858 तक मद्रास ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा शासित था ब्रिटिश भारत का एक हिस्सा था। 18वीं सदी की अंतिम तिमाही एक तीव्र विस्तार की अवधि थी। टीपू, वेलू थाम्बी, पोलीगारों और सीलोन के खिलाफ सफल युद्धों ने भूमि के विशाल क्षेत्रों को जोडा और प्रेसीडेंसी के घातीय वृद्धि में योगदान दिया नव-विजित सीलोन 1793 और 1798 के बीच मद्रास प्रेसिडेंसी का हिस्सा बना [20] लॉर्ड वेलेस्ली द्वारा शुरू की गयी सहायक गठबंधन की प्रणाली ने भी कई रियासतों को फोर्ट सेंट जॉर्ज के गवर्नर का अधीनस्थ बना दिया [21] गंजाम और विशाखापट्टनम के पहाडी इलाके अंग्रेजों द्वारा कब्जे में किये गए अंतिम क्षेत्र थे। [22] इस अवधि में अनेक विद्रोह भी देखे गए जिसकी शुरुआत 1806 के वेल्लोर विद्रोह के साथ हुई थी। [23][24] वेलू थाम्बी और पलियथ अचान के विद्रोह और पोलिगर का युद्ध ब्रिटिश शासन के खिलाफ अन्य उल्लेखनीय विद्रोह थे हालांकि मद्रास प्रेसीडेंसी 1857 के सिपाही विद्रोह से अपेक्षाकृत अछूता रहा था। [25] मद्रास प्रेसीडेंसी ने कुशासन के आरोपों के कारण 1831 में मैसूर साम्राज्य पर अधिकार कर लिया[26] और 1881 में इसे अपदस्थ मुम्मदी कृष्णराज वोडेयार के पोते और वारिस, चामाराजा वोडेयार को सौंप दिया तंजावुर पर 1855 में शिवाजी द्वितीय की मृत्यु के बाद कब्जा किया गया था जिनका कोई पुरुष उत्तराधिकारी नहीं था। [27] 1913 में मद्रास प्रांत विक्टोरियाई युग इन्हें भी देखें 1858 में महारानी विक्टोरिया द्वारा जारी की गयी महारानी की उद्घोषणा की शर्तों के तहत मद्रास प्रेसीडेंसी के साथ-साथ शेष ब्रिटिश भारत ब्रिटिश क्राउन के प्रत्यक्ष शासन के अधीन आ गया। [28] लॉर्ड हैरिस को क्राउन द्वारा पहला गवर्नर नियुक्त किया गया। इस अवधि के दौरान शिक्षा में सुधार और प्रशासन में भारतीयों के प्रतिनिधित्व को बढाने के उपाय किये गए। भारतीय परिषद अधिनियम 1861 के तहत विधायी शक्तियां गवर्नर के परिषद को दे दी गयीं [29] भारतीय परिषद अधिनियम 1892,[30] 1909 के भारत सरकार अधिनियम 1909,[31][32] भारत सरकार अधिनियम 1919 और भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत परिषद का सुधार और विस्तार किया गया। वी सदगोपाचार्लू परिषद के लिए नियुक्त किये जाने वाले पहले भारतीय थे। [33] कानूनी पेशे में विशेष रूप से शिक्षित भारतीयों के नए-उभरते समूह को मौका दिया गया। [34] एंग्लो-इंडियन मीडिया के भारी विरोध के बावजूद 1877 में टी मुथुस्वामी अय्यर मद्रास उच्च न्यायालय के पहले भारतीय न्यायाधीश बने [35][36][37] 1893 में कुछ समय के लिए उन्होंने मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में भी कार्य किया जिसके कारण वे ऐसा करने वाले पहले भारतीय बने [38]1906 में सी शंकरण नायर मद्रास प्रेसीडेंसी के महाअधिवक्ता के रूप में नियुक्त किये जाने वाले पहले भारतीय बने इस अवधि के दौरान अनेकों सडकों, रेलमार्गों, बांधों और नहरों का निर्माण किया गया। [36] इस अवधि के दौरान मद्रास ने दो भीषण अकालों का सामना किया, 1876-78 का भीषण अकाल और उसके बाद 1896-97 का भारतीय अकाल [39] पहले अकाल के परिणाम स्वरूप प्रेसीडेंसी की जनसंख्या 1871 में 31 2 मिलियन से घटकर 1881 में 30 8 मिलियन हो गयी। इन अकालों और चिंगलेपुट रायट्स मामले तथा सलेम दंगों की सुनवाई में सरकार द्वारा कथित तौर पर दिखाए गए पक्षपात के कारण आबादी के भीतर असंतोष फैल गया। [40] भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन इन्हें भी देखें 1922 में एनी बेसेन्ट 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में राष्ट्रीय जागरूकता की एक सुदृढ भावना मद्रास प्रेसीडेंसी में उभरी प्रांत में पहले राजनीतिक संगठन, मद्रास मूल निवासी संघ की स्थापना 26 फरवरी 1852 को गाजुलू लक्ष्मीनरसू चेट्टी द्वारा की गयी थी। [41] हालांकि संगठन लंबे समय तक नहीं चल पाया। [42] मद्रास मूल निवासी संघ के बाद 16 मई 1884 को मद्रास महाजन सभा शुरू की गयी। दिसंबर 1885 में बंबई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले सत्र में भाग लेने वाले 72 प्रतिनिधियों में से 22 मद्रास प्रेसीडेंसी से संबंधित थे। [43][44] अधिकांश प्रतिनिधि मद्रास महाजन सभा के सदस्य थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तीसरे सत्र का आयोजन दिसंबर 1887 में मद्रास में किया गया[45] और यह काफी सफल रहा जिसमें प्रांत के 362 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। [46] इसके बाद के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सत्र मद्रास में 1894, 1898 1903, 1908, 1914 और 1927 में आयोजित किये गए। [47] मैडम ब्लावत्स्की और कर्नल एच एस ओलकॉट ने 1882 में थियोसोफिकल सोसायटी के मुख्यालय को अड्यार स्थानांतरित कर दिया [48] सोसायटी की सबसे प्रमुख शख्सियत एनी बेसेंट थीं जिन्होंने 1916 में होम रूल लीग की स्थापना की [49] होम रूल आंदोलन का संचालन मद्रास से किया गया और इसे प्रांत में व्यापक समर्थन मिला द हिन्दू, स्वदेशमित्रण और मातृभूमि जैसे राष्ट्रवादी अखबारों ने स्वतंत्रता संग्राम का सक्रिय रूप से समर्थन किया। [50][51][52] भारत की पहली ट्रेड यूनियन की स्थापना 1918 में वी कल्याणसुंदरम और बी पी वाडिया द्वारा मद्रास में की गयी। [53] द्विशासन (1920-1937) मुख्य लेख 1920 में मोंटेग-चेम्सफोर्ड सुधारों के अनुसार मद्रास प्रेसीडेंसी में एक द्विशासन प्रणाली बनायी गयी जिसमें प्रेसीडेंसी में चुनाव कराने के प्रावधान किये गए। [54] इस प्रकार लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकारों ने गवर्नर की निरंकुश सत्ता के साथ शक्तियों को साझा कर लिया। नवंबर में 1920 में हुए पहले चुनावों के बाद जस्टिस पार्टी जो प्रशासन में गैर-ब्राह्मणों के बढते प्रतिनिधित्व के लिए अभियान चलाने के लिए 1916 में गठित एक संगठन था, सत्ता में आया। [55] ए सुब्बारायालू रेड्डियार मद्रास प्रेसीडेंसी के पहले मुख्यमंत्री बने लेकिन गिरते स्वास्थ्य के कारण उन्होंने जल्दी ही इस्तीफा दे दिया और स्थानीय स्वशासन तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य मंत्री, पी रामारायनिंगर ने उनकी जगह ली [56] 1923 के अंत में पार्टी का विभाजन हो गया जब सी आर रेड्डी ने प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और विपक्षी स्वराज्यवादियों के साथ मिलकर एक अलग समूह बना लिया। 27 नवम्बर 1923 को रामरायनिंगर सरकार के खिलाफ एक अविश्वास प्रस्ताव पारित किया गया और यह इसे 65-44 मत से परास्त कर दिया गया। रामरायनिंगर, जो पनागल के राजा के रूप में लोकप्रिय थे, नवंबर 1926 नवम्बर तक सत्ता में बने रहे अगस्त 1921 में पहले सांप्रदायिक सरकारी आदेश (जी ओ संख्या 613),[57] जिसने सरकारी नौकरियों में जाति आधारित सांप्रदायिक आरक्षण की शुरुआत की थी, इसके पारित होने से यह उनके शासन का एक प्रमुख बिंदु बन गया। [57][58] अगले 1926 के चुनावों में जस्टिस पार्टी पराजित हो गयी। हालांकि, किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने के कारण गवर्नर ने पी सुब्बारायन के नेतृत्व में एक स्वतंत्र सरकार का गठन किया और इसके समर्थक सदस्यों को नामित कर दिया [59] 1930 में जस्टिस पार्टी की जीत हुई और पी मुनुस्वामी नायडू मुख्यमंत्री बने [60] मंत्रालय से जमींदारों के बहिष्कार ने जस्टिस पार्टी को एक बार फिर से विभाजित कर दिया अपने खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के डर से मुनुस्वामी नायडू ने नवंबर 1932 में इस्तीफा दे दिया और उनकी जगह बोब्बिली के राजा को मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया। [61] अंततः 1937 के चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के हाथों जस्टिस पार्टी की हार हुई और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी मद्रास प्रेसीडेंसी के मुख्यमंत्री बने [62] 1920 और 1930 के दशक के दौरान मद्रास प्रेसीडेंसी में ब्राह्मण-विरोधी आंदोलन उभर कर सामने आया। इसकी शुरुआत ई वी रामास्वामी नायकर द्वारा की गयी थी जो प्रांतीय कांग्रेस के ब्राह्मण नेतृत्व ब्राह्मण के सिद्धांतों और नीतियों से नाखुश थे, उन्होंने पार्टी को छोडकर एक आत्म-सम्मान आंदोलन शुरू किया था। पेरियार, जिस नाम से उन्हें वैकल्पिक रूप से जाना जाता था, उन्होंने ब्राह्मणों, हिंदुत्व और विदुथालाई तथा जस्टिस जैसे अखबारों एवं पत्रिकाओं में हिंदू अंधविश्वासों की आलोचना की उन्होंने वाइकॉम सत्याग्रह में भी हिस्सा लिया जिसके द्वारा त्रावणकोर में मंदिरों में अछूतों के प्रवेश के अधिकारों के लिए अभियान चलाया गया था। [63] ब्रिटिश शासन के अंतिम दिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 1937 में पहली बार चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (रैली की तस्वीर) के साथ सत्ता में आई और इसके मुख्यमंत्री बने 1937 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को पहली बार सत्ता के लिए चुना गया। [62] चक्रवर्ती राजगोपालाचारी कांग्रेस पार्टी की ओर से आने वाले मद्रास प्रेसीडेंसी के पहले मुख्यमंत्री थे। उन्होंने मंदिर प्रवेश प्राधिकरण एवं क्षतिपूर्ति अधिनियम जारी किया[64][65] और मद्रास प्रेसीडेंसी में निषेधाज्ञा[66] तथा बिक्री करों को शामिल किया। [67] उनके शासन को मुख्यतः शैक्षणिक संस्थानों में हिन्दी को अनिवार्य रूप से शामिल करने के लिए जाना जाता है जिसने उन्हें एक राजनीतिज्ञ के रूप में अत्यधिक अलोकप्रिय बना दिया [68] इस कदम ने व्यापक रूप से हिन्दी-विरोधी आंदोलनों को जन्म दिया जिसके कारण कई स्थानों पर हिंसक घटनाएं भी हुईं 1200 से अधिक पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को हिन्दी-विरोधी आंदोलनों में उनकी भागीदारी के लिए जेल में डाल दिया गया[69] जबकि विरोध प्रदर्शनों के दौरान थालामुथू और नाटरासन की मौत हो गयी। [69] 1940 में कांग्रेस के मंत्रियों ने जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा के विरोध में उनकी सहमति के बिना इस्तीफा दे दिया गवर्नर ने प्रशासन अपने हाथों में ले लिया और अंततः 21 फरवरी 1940 को उनके द्वारा अलोकप्रिय कानून को निरस्त कर दिया गया। [69] ज्यादातर कांग्रेसी नेतृत्व और पूर्व मंत्रियों को 1942 में भारत छोडो आंदोलन में उनकी भागीदारी के बाद गिरफ्तार कर लिया गया था। [70] 1944 में पेरियार ने जस्टिस पार्टी को द्रविडर कषगम का नया नाम दिया और इसे चुनावी राजनीति से अलग कर लिया। [71] द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने फिर से राजनीति में प्रवेश किया और किसी भी गंभीर विपक्ष की अनुपस्थिति में 1946 के चुनाव को आसानी से जीत लिया। [72] उस समय कामराज के समर्थन से तंगुतुरी प्रकाशम को मुख्यमंत्री चुना गया और उन्होंने 11 महीनों तक काम किया। उनकी जगह ओ पी रामास्वामी रेड्डियार ने ली जो 15 अगस्त 1947 को भारत को आजादी दिए जाने के समय मद्रास राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने [73] मद्रास प्रेसीडेंसी स्वतंत्र भारत का मद्रास राज्य बन गया। [74] जनसांख्यिकी इन्हें भी देखें 1822 में मद्रास प्रेसीडेंसी की अपनी पहली जनगणना हुई जिसमें 13,476,923 की आबादी लौट आयी। 1836-37 के बीच एक दूसरी जनगणना की गयी जिसमें 13,967,395 की आबादी दर्ज की गयी जिसमें 15 सालों में सिर्फ 490,472 की वृद्धि हुई थी। जनसंख्या की पहली पंचवार्षिक गणना 1851 से 1852 तक हुई थी। इसमें 22,031,697 की आबादी लौट आयी थी। इसके बाद फिर 1856-57, 1861-62 और 1866-67 में जनगणना की गयी। 1851-52 में मद्रास प्रेसीडेंसी की जनसंख्या का मिलान 22,857,855 पर, 1861-62 में 24,656,509 पर और 1866-67 में 26,539,052 पर किया गया। [75] भारत की पहली सुव्यवस्थित जनगणना 1871 में की गयी और इसमें मद्रास प्रेसीडेंसी में 31,220,973 की आबादी की वापसी हुई [76] तब से हर दस वर्ष में एक बार जनगणना करायी जाती है । ब्रिटिश भारत की अंतिम जनगणना 1941 में करायी गयी थी जिसमें मद्रास प्रेसीडेंसी की आबादी 49,341,810 दर्ज की गयी थी। [77] भाषाएं इन्हें भी देखें मद्रास प्रेसीडेंसी की भाषा-संबंधी मानचित्र मद्रास प्रेसीडेंसी में तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड, उडिया, तुलु और अंग्रेजी सभी भाषाएं बोली जाती थीं। तमिल भाषा मद्रास शहर से कुछ मील उत्तर की ओर प्रेसीडेंसी के दक्षिणी जिलों से लेकर सुदूर पश्चिम दिशा में नीलगिरि पहाडियों और पश्चिमी घाटों तक में बोली जाती थी। [78] तेलुगू भाषा मद्रास शहर के उत्तर के जिलों में और बेल्लारी के पूर्व तथा अनंतपुर जिलों में बोली जाती थी। [78] दक्षिण कनारा के जिलों, बेल्लारी के पश्चिमी भाग और अनंतपुर जिलों तथा मालाबार के कुछ भागों में कन्नड भाषा बोली जाती थी। [79] मलयालम भाषा मालाबार और दक्षिण कनारा के जिलों में और त्रावणकोर तथा कोचीन के रियासती राज्यों में बोली जाती थी जबकि दक्षिण कनारा में तुलु भाषा बोली जाती थी। [79] उडिया भाषा गंजाम जिले में और विजागापटम जिले के कुछ भागों में बोली जाती थी। [79] अंग्रेजी भाषा का प्रयोग एंग्लो-इंडियनों भारतीयों और यूरेशियाइयों द्वारा किया जाता था। यह प्रेसीडेंसी के लिए एक संपर्क भाषा और ब्रिटिश भारत की आधिकारिक भाषा भी थी जिसमें सभी सरकारी कार्यवाहियां तथा अदालती सुनवाई पूरी की जाती थी। [80] 1871 की जनगणना के अनुसार तमिल भाषा बोलने वाले लोगों की संख्या 14,715,000, तेलुगु भाषा बोलने वालों की संख्या 11,610,000, मलयालम भाषा बोलने वालों की संख्या 2,324,000, कैनारीज या कन्नड भाषा बोलने वालों के संख्या 1,699,000 थी और 640,000 लोग उडिया भाषा तथा 29,400 लोग तुलु भाषाओं में बात करते थे। [81] 1901 की जनगणना में तमिल भाषी लोगों की संख्या 15,182,957, तेलुगू भाषी लोगों की संख्या 14,276,509, मलयालम भाषी लोगों की संख्या 2,861,297, कन्नड भाषी लोगों की संख्या 1,518,579, उडिया भाषा बोलने वालों की संख्या 1,809,314 हो गयी जबकि 880,145 लोग हिंदुस्तानी और 1,680,635 लोग अन्य भाषाओं का प्रयोग करते थे। [82] भारत की आजादी के समय प्रेसीडेंसी की कुल आबादी में तमिल और तेलुगू भाषा बोलने वालों की संख्या 78% थी जहां शेष आबादी कन्नड, मलयालम और तुलु भाषी लोगों की थी। [83] धर्म 1901 में जनसंख्या का विभाजन इस प्रकार था: हिंदू (37,026,471), मुसलमान (2,732,931) और ईसाई (1,934,480) 1947 में भारत की आजादी के समय मद्रास की अनुमानित जनसंख्या में 49,799,822 हिंदू, 3,896,452 मुसलमान और 2,047,478 ईसाई शामिल थे। [84] हिंदू धर्म प्रेसीडेंसी का प्रमुख धर्म था और आबादी के लगभग 88% लोगों द्वारा इसका अनुसरण किया जाता था। मुख्य हिंदू समुदाय शैव, वैष्णव और लिंगायत थे। [85] ब्राह्मणों के बीच समर्थ का सिद्धांत काफी लोकप्रिय था। [86] ग्राम देवताओं की पूजा प्रेसीडेंसी के दक्षिणी जिलों में दृढतापूर्वक की जाती थी जबकि कांची, श्रृंगेरी और अहोबिलम के मठों को हिंदू मान्यता के केंद्रों के रूप में माना जाता था। हिंदू मंदिरों में तिरुपति का वेंकटेश्वर मंदिर, तंजौर का बृहदीश्वरार मंदिर, मदुरै का मीनाक्षी अम्मान मंदिर, श्रीरंगम का रंगानाथस्वामी मंदिर, उडुपी का कृष्ण मंदिर और रियासती राज्य त्रावणकोर का पद्मनाभस्वामी मंदिर सबसे बडे और सबसे महत्वपूर्ण मंदिर थे। इस्लाम धर्म अरब व्यापारियों द्वारा भारत के दक्षिणी भाग में लाया गया था, हालांकि ज्यादातर धर्मांतरण 14वीं सदी के बाद किये गए जब मालिक काफूर ने मदुरै पर विजय प्राप्त की थी। नागौर मद्रास प्रेसीडेंसी के मुसलमानों के लिए सबसे पवित्र शहर था। प्रेसीडेंसी में भारत की एक सबसे प्राचीन ईसाई आबादी भी शामिल थी। सीरियाई गिरजाघरों की शाखाओं की स्थापना सेंट थॉमस द्वारा की गयी थी जो यीशु मसीह के एक प्रचारक थे जिन्होंने 52 ईस्वी में मालाबार तट का दौरा किया था,[87] ईसाई मुख्य रूप से मद्रास प्रेसीडेंसी के टिन्नेवेली और मालाबार जिलों में फैले हुए थे जहां रियासती राज्य त्रावणकोर की कुल जनसंख्या में मूल निवासी ईसाइयों की आबादी एक चौथाई थी। [88] नीलगिरि, पलानी और गंजाम क्षेत्रों की पहाडी जनजातियाँ जैसे कि टोडा, बडागा, कोदावा, कोटा, येरुकला और खोंड आदिवासी देवी-देवताओं की पूजा करती थीं और इन्हें अक्सर हिंदुओं के रूप में वर्गीकृत किया जाता था। 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों तक पल्लार, परैयार, सक्किलियार, पुलायार, मडिगा, इझावा और होलेया हिंदू समुदायों को अछूत माना जाता था और इन्हें हिंदू मंदिरों के भीतर जाने की अनुमति नहीं थी। हालांकि, भारतीय महिलाओं की दासत्व से मुक्ति और सामाजिक बुराइयों को मिटाने के साथ-साथ अस्पृश्यता को भी धीरे-धीरे कानून और समाज सुधार के माध्यम से समाप्त कर दिया गया। बोब्बिली के राजा जिन्होंने 1932 से 1936 तक प्रीमियर की सेवा की थी, संपूर्ण प्रेसीडेंसी में मंदिर प्रशासन बोर्डों के लिए अछूतों को नियुक्त किया। [89] 1939 में सी राजगोपालाचारी की कांग्रेस सरकार ने मंदिर प्रवेश प्राधिकार एवं क्षतिपूर्ति अधिनियम को पेश किया जिसने हिंदू मंदिरों में अछूतों के प्रवेश पर लगे सभी प्रतिबंधों को हटा दिया [64] त्रावणकोर की चित्रा थिरूनल ने अपने दीवान सर सी पी रामास्वामी अय्यर की सलाह पर 1937 में इसी तरह का एक कानून, मंदिर प्रवेश उद्घोषणा कानून पहले ही पारित कर दिया था। [90] 1921 में पानागल के राजा की सरकार ने हिंदू धार्मिक दान विधेयक[91] पारित किया था जिसने हिंदू मंदिरों का प्रबंधन करने और उनकी निधियों के संभावित दुरुपयोग को रोकने के लिए मद्रास प्रेसीडेंसी में सरकार-नियंत्रित न्यासों का गठन किया। [91] बोब्बिली के राजा ने भी तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम के प्रशासन में सुधार किया, यह वही न्यास है जो तिरुपति में हिंदू मंदिर का प्रबंधन करता है । [89] प्रशासन 1784 के पिट्स इंडिया अधिनियम ने गवर्नर की सहायता के लिए विधायी शक्तियों वाले एक कार्यकारी परिषद का गठन किया था। परिषद शुरुआत में चार सदस्यों का था जिनमें से दो सदस्य भारतीय सिविल सेवा या अनुबंधित सिविल सेवा से थे और तीसरा सदस्य एक विशिष्ट भारतीय था। [92] चौथा सदस्य मद्रास आर्मी का कमांडर-इन-चीफ था। [93] 1895 में जब मद्रास आर्मी को समाप्त कर दिया गया तब परिषद के सदस्यों की संख्या घटकर तीन रह गयी थी। [93] इस परिषद की विधायी शक्तियां वापस ले ली गयी थीं और इसका दर्जा घटकर सिर्फ एक सलाहकार निकाय का रह गया था। हालांकि 1861 के भारतीय परिषद अधिनियम के अनुसार इन शक्तियों को फिर से बहाल कर दिया गया। सरकारी और गैर-सरकारी सदस्यों को शामिल कर समय-समय पर परिषद का विस्तार किया गया और 1935 तक इसने मुख्य विधायी निकाय के रूप में सेवा की, जब एक और अधिक प्रतिनिधि प्रकृति वाली विधानसभा का गठन किया गया और विधायी शक्तियां विधानसभा को स्थानांतरित कर दी गयीं 15 अगस्त 1947 को भारत की स्वतंत्रता के अवसर पर गवर्नर के तीन सदस्यीय कार्यकारी परिषद को समाप्त कर दिया गया। मद्रास प्रेसीडेंसी की जडें मद्रासपट्टनम गांव में निहित हैं जिसे 1640 में अधिगृहित किया गया था। [94] इसके बाद 1690 में फोर्ट सेंट डेविड का अधिग्रहण किया गया था। चिंगलेपुट जिला जिसे 1763 में अधिगृहित चिंगलेपुट के जघीरे के रूप में जाना जाता है, यह मद्रास प्रेसीडेंसी का पहला जिला था। [94]सलेम और मालाबार जिलों को सेरिंगापाटम की संधि के अनुसार 1792 में टीपू सुलतान से और कोयंबटूर तथा कनारा जिलों को 1799 में चौथे मैसूर युद्ध के बाद प्राप्त किया गया था। [95] तंजौर मराठा साम्राज्य के प्रदेशों को 1799 में एक अलग जिले के रूप में गठित किया गया था। सन 1800 में बेल्लारी और कडप्पा जिलों का निर्माण हैदराबाद के निजाम द्वारा सत्तांतरित क्षेत्र से किया गया था। [94] 1801 में उत्तरी अर्काट, दक्षिण अर्काट, नेल्लोर, त्रिच्नीपोली, मदुरा और टिन्नेवेली जिलों को पूर्ववर्ती कर्नाटक साम्राज्य के प्रदेशों से बनाया गया था। [94] त्रिचिनोपोली जिले को जून 1805 में तंजौर जिले का एक अनुमंडल बनाया गया था और अगस्त 1808 तक यह इसी रूप में रहा जब एक अलग जिले के रूप में इसके दर्जे को फिर से बहाल कर दिया गया। राजमुंदरी, मसूलीपट्टनम और गुंटूर जिले 1823 में बनाए गए थे। [96] इन तीनों जिलों को 1859 में दो जिलों - गोदावरी और कृष्ण जिलों के रूप में पुनर्गठित किया गया। [96] गोदावरी जिले को आगे 1925 में पूर्वी और पश्चिमी गोदावरी जिलों में द्विभाजित कर दिया गया। कुरनूल साम्राज्य को 1839 में शामिल किया गया और इसे मद्रास प्रेसीडेंसी के एक अलग जिले के रूप में गठित किया गया। [94] प्रशासनिक सुविधा के लिए कनारा जिले को 1859 में उत्तर और दक्षिण कनारा में विभाजित कर दिया गया। 1862 में उत्तर कनारा को बंबई प्रेसीडेंसी में स्थानांतरित किया गया। 1859-60 और 1870 के बीच मद्रास और चिंगलेपुट जिलों को एक साथ मिलाकर एक एकल जिले के रूप में रखा गया। [94] 1868 में कोयंबटूर जिले से एक अलग नीलगिरि जिला बनाया गया। [95] 1908 तक मद्रास प्रेसीडेंसी 24 जिलों[93] से मिलकर बना था जिनमें से प्रत्येक भारतीय सिविल सेवा से आने वाले एक जिला कलेक्टर द्वारा प्रशासित था। जिलों को कभी-कभी डिवीजनों में उप-विभाजित कर दिया जाता था जिनमें से प्रत्येक एक डिप्टी कलेक्टर के अधीन होता था। डिवीजनों को आगे तालुकों और संघ पंचायतों या ग्राम समितियों के रूप में उप-विभाजित किया जाता था। ब्रिटिश भारत में एजेंसियों का गठन कभी-कभी प्रेसीडेंसी के अस्थिर, विद्रोह की आशंका वाले क्षेत्रों में से किया जाता था। मद्रास प्रेसीडेंसी की दो महत्वपूर्ण एजेंसियां थीं विजागापाटम हिल ट्रैक्ट्स एजेंसी जो विजागापाटम के जिला कलेक्टर के अधीन था और गंजाम हिल ट्रैक्ट्स एजेंसी जो गंजाम के जिला कलेक्टर के अधीन था। 1936 में गंजाम और विजागापाटम जिलों (विजागापाटम और गंजाम एजेंसियों सहित) को मद्रास और उडीसा के नवनिर्मित प्रांत के बीच विभाजित कर दिया गया था। पांच रियासती राज्य मद्रास सरकार के अधीनस्थ थे। इनके नाम थे बंगानापल्ले, कोचीन, पुदुक्कोट्टई, संदूर और त्रावणकोर [97] इन सभी राज्यों को व्यापक स्तर पर आंतरिक स्वायत्तता थी। हालांकि इनकी विदेश नीति का नियंत्रण पूरी तरह से एक रेजिडेंट के पास था जो फोर्ट सेंट जॉर्ज के गवर्नर का प्रतिनिधित्व करते थे। [98] बंगानापल्ले के मामले में रेजिडेंट कुरनूल का जिला कलेक्टर था जबकि बेल्लारी[99] का जिला कलेक्टर संदूर का रेजिडेंट था। [100] पुदुक्कोट्टई का रेजिडेंट 1800 से 1840 और 1865 से 1873 तक तंजौर का जिला कलेक्टर, 1840 से 1865 तक तंजौर का जिला कलेक्टर और 1873 से 1947 तक त्रिचिनोपोली का जिला कलेक्टर था। [101] आर्मी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को अपनी स्वयं की सेना गठित करने की अनुमति सबसे पहले 1665 में इसकी बस्तियों की सुरक्षा के लिए दी गयी थी। सेना की उल्लेखनीय प्रारंभिक कार्रवाइयों में मुगल एवं मराठा आक्रमणकारियों और कर्नाटक के नवाब की सेनाओं से शहर की रक्षा करना शामिल था। 1713 में लेफ्टिनेंट जॉन डी मॉर्गन के नेतृत्व में मद्रासी सैन्य बलों ने स्वयं फोर्ट सेंट डेविड की घेराबंदी और रिचर्ड रॉवर्थ के विद्रोह को कुचलने में प्रसिद्धि हासिल की [102] जब फ्रेंच भारत के गवर्नर जोसफ फ्राँस्वा डुप्लेक्स ने 1748 में स्वदेशी बटालियनों को बढाना शुरू किया, मद्रास के अंग्रेजों ने मुकदमा दायर कर दिया और मद्रास रेजिमेंट की स्थापना की [103] हालांकि बाद में भारत के अन्य भागों में अंग्रेजों द्वारा स्वदेशी रेजिमेंटों का गठन किया गया, तीन प्रेजिडेंसियों को अलग करने वाली दूरियों के कारण प्रत्येक सैन्य बल द्वारा अलग-अलग सिद्धांत और संगठन विकसित किये गए। सेना का पहला पुनर्गठन 1795 में किया गया जब मद्रास आर्मी को निम्नलिखित इकाइयों में पुनर्गठित किया गया: यूरोपीय पैदल सेना - दस कंपनियों की दो बटालियनें तोपखाने - प्रत्येक पांच कंपनियों की दो यूरोपीय बटालियनें जिसमें लस्करों की पंद्रह कंपनियां शामिल थीं। स्वदेशी कैवेलरी - चार रेजिमेंट स्वदेशी पैदल सेना - दो बटालियनों वाले ग्यारह रेजिमेंट [104] 1824 में एक दूसरा पुनर्गठन किया गया जिसके बाद दोहरी बटालियनों को समाप्त कर दिया गया और मौजूदा बटालियनों को फिर से नया नंबर दिया गया। उस समय मद्रास आर्मी में घुडसवार तोपची सनिकों के एक यूरोपीय और एक स्वदेशी ब्रिगेड, प्रत्येक चार कंपनियों वाले पैदल तोपची सैनिकों की तीन बटालियनें शामिल थीं जिसमें लस्कर की कंपनियां, लाइट कैवलरी के तीन रेजिमेंट, अग्रिम पंक्ति के दो कोर, यूरोपीय पैदल सेना की दो बटालियनें, स्वदेशी पैदल सेना की 52 बटालियनें और तीन स्थानीय बटालियनें संलग्न थीं। [105][106] 1748 और 1895 के बीच बंगाल और बंबई की सेनाओं की तरह मद्रास आर्मी का अपना खुद का कमांडर-इन-चीफ था जो प्रेसिडेंट के अधीनस्थ था और बाद में मद्रास के गवर्नर के अधीनस्थ हो गया। डिफॉल्ट रूप से मद्रास आर्मी का कमांडर-इन-चीफ गवर्नर के कार्यकारी परिषद के एक सदस्य थे। आर्मी के सैनिकों ने 1762 में मनीला की विजय,[107] सीलोन तथा डच के खिलाफ 1795 के अभियानों के साथ-साथ उसी वर्ष स्पाइस द्वीपसमूह की विजय में भाग लिया। उन्होंने मौरूटियस (1810), जावा (1811)[108] के खिलाफ अभियानों, टीपू सुल्तान के खिलाफ युद्धों और 18वीं सदी के कर्नाटक युद्धों, दूसरे एंग्लो-मराठा युद्ध के दौरान कटक पर अंग्रेजों के हमले,[109] भारतीय गदर के दौरान लखनऊ की घेराबंदी और तीसरे एंग्लो-बर्मी युद्ध के दौरान ऊपरी बर्मा पर आक्रमण में भी भाग लिया। [110] 1857 का गदर जो बंगाल और बंबई की सेनाओं में भारी बदलाव का कारण बना था, मद्रास आर्मी पर इसका कोई प्रभाव नहीं पडा 1895 में प्रेजिडेंशियल सेनाओं को अंततः समाप्त कर दिया गया और मद्रास रेजिमेंट को ब्रिटिश भारत के कमांडर-इन-चीफ के प्रत्यक्ष नियंत्रण में ला दिया गया। [111] मद्रास आर्मी मालाबार के मोपलाओं और कोडागू के सैनिकों पर काफी भरोसा करती थी जिन्हें उस समय कूर्ग के रूप में जाना जाता था। [110] भूमि भूमि के किराये से प्राप्त राजस्व के साथ-साथ किरायेदारों की भूमि से उनके शुद्ध लाभों पर आधारित आय कर प्रेसीडेंसी की आय के मुख्य स्रोत थे। [112][112] प्राचीन समय में ऐसा प्रतीत होता है कि भूमि आम तौर पर एक ऐसे व्यक्ति के पास होती थी जो इसे अन्य स्वामियों की सहमति के बिना बेच नहीं सकता था, जो ज्यादातर मामलों में एक ही समुदाय के सदस्य होते थे। [113] अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भूमि के व्यक्तिगत स्वामित्व की अवधारणा भारत के पश्चिमी तट के पास पहले ही उभर चुकी थी[114] जिससे कि नए प्रशासन की भूमि राजस्व प्रणाली इसकी पूर्ववर्ती प्रणाली से सुस्पष्ट रूप से अलग नहीं थी। [115] फिर भी जमींदारों ने भूमि को समुदाय के अन्य सदस्यों की सहमति के बिना कभी नहीं बेचा। [114] इस साम्यवादी संपदा अधिकार प्रणाली को वेल्लालारों के बीच कनियाची के रूप में, ब्राह्मणों के बीच स्वस्तियम के रूप में और मुसलमानों तथा ईसाइयों के बीच मिरासी के रूप में जाना जाता था। [114] तंजौर जिले में गांव की सभी मिरासी एक अकेले व्यक्ति के पास निहित रहती थी जिसे एकाभोगम कहा जाता था। [114] मिरासीदारों को एक निश्चित राशि दान के रूप में देना आवश्यक होता था जिसे ग्राम प्रशासन में मिरेई के रूप में जाना जाता था। [114] उन्होंने सरकार को भी एक निर्दिष्ट राशि का भुगतान किया था। बदले में मिरासीदारों ने सरकार से गांव के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने की मांग की थी। [116] मालिकाना प्रणाली मालाबार जिले और कोचीन तथा त्रावणकोर राज्यों में पूरी तरह से अलग थी जहां भूमि का सांप्रदायिक स्वामित्व मौजूद नहीं था। [117] इसकी बजाय भूमि व्यक्तिगत संपत्ति थी जिसका स्वामित्व अधिकांशतः नम्बूदिरी, नायर और मोपला समुदायों के लोगों के पास था जिन्होंने भूमि कर का भुगतान नहीं किया था। बदले में नायर युद्ध के समय पुरुष लडाकों की आपूर्ति करते थे जबकि नम्बूदिरी हिंदू मंदिरों के रखरखाव का प्रबंधन करते थे। ये जमींदार कुछ हद तक आत्मनिर्भर थे और इनकी अपनी पुलिस और न्यायिक प्रणालियां थीं जिससे राजा के निजी खर्चे न्यूनतम होते थे। [117] हालांकि अगर जमींदार भूमि को बेच देते थे तो इस पर मिलने वाले करों पर छूट से उन्हें वंचित रहना पडता था[118] जिसका अर्थ यह था कि भूमि को बंधक रखना इसे बेचने की तुलना में कहीं अधिक आम था। भूमि का व्यक्तिगत स्वामित्व प्रेसीडेंसी के तेलुगु भाषी क्षेत्रों में भी आम था। [119] तेलुगू-भाषी जिलों के प्रमुखों ने कमोबेश काफी समय से एक स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखा था,[119] जो युद्ध के समय सेनाओं और उपकरणों के साथ अपनी प्रभुता प्रस्तुत करते थे। बदले में भूमि से उनके राजस्व को बाधारहित रखा जाता था। [119] अंग्रेजों के समय के दौरान प्रेसीडेंसी के उत्तरी जिलों में अधिकांश भूमि इन छोटे "राजाओं" के बीच बाँट दी जाती थी। [119] इस्लामी आक्रमणों के कारण भूमि स्वामित्व प्रणाली में छोटे-मोटे बदलाव किये गए जब हिंदू भूस्वामियों पर करों को बढा दिया गया और संपत्ति का निजी स्वामित्व कम हो गया। [120] जब अंग्रेजों ने प्रशासन को अपने हाथों में लिया, उन्होंने भूमि स्वामित्व की सदियों पुरानी प्रणाली को अक्षुण्ण छोड दिया गया। [121] नए शासकों ने उन जमीनों से राजस्व की वसूली के लिए बिचौलियों को नियुक्त किया जो स्थानीय जमींदारों के नियंत्रण में नहीं थे। अधिकांश मामलों में इन बिचौलियों ने किसानों के कल्याण की अनदेखी की और पूरी तरह से उनका फायदा उठाया [121] इस मुद्दे को हल करने के लिए 1786 में एक राजस्व बोर्ड का गठन किया गया लेकिन इसका कोइ फायदा नहीं हुआ। [122] इसी अवधि में लॉर्ड कॉर्नवालिस द्वारा बंगाल में स्थापित जमींदारी बस्तियां काफी सफल सिद्ध हुईं और बाद में 1799 के बाद से इनका प्रयोग मद्रास प्रेसिडेंसी में किया गया। [123] हालांकि स्थायी बस्ती उतनी सफल नहीं हुई जितनी कि यह बंगाल में थी। [112] जब कंपनी अपेक्षित मुनाफे के स्तर तक नहीं पहुंच पायी तो 1804 और 1814 के बीच टिन्नेवेली, त्रिचिनोपोली, कोयंबटूर, उत्तरी अर्काट और दक्षिणी अर्काट जिलों में "ग्रामीण बस्ती" (विलेज सेटलमेंट) के नाम से एक नयी प्रणाली प्रयोग में लाई गयी। [112] इसमें प्रमुख किसानों को भूमि पट्टे पर देना शामिल था जो इसके बदले में भूमि रैयतों या खेतिहर किसानों को पट्टे पर देते थे। [112] हालांकि स्थायी बस्ती की तुलना में ग्रामीण बस्ती में कुछ भिन्नताएं होने के कारण अंततः इसे हटा दिया गया। इसकी जगह 1820 और 1827 के बीच सर थॉमस मुनरो द्वारा प्रयोग में लाई गयी "रैयतवारी बस्ती" ने ली [112] नई व्यवस्था के अनुसार भूमि सीधे तौर पर रैयतों को सौंप दी गयी जिन्होंने इनका किराया सीधे सरकार को भुगतान किया। भूमि का मूल्यांकन और राजस्व के भुगतान का निर्धारण सरकार द्वारा किया गया। [112] इस प्रणाली में रैयतों के लिए कई फायदे और नुकसान थे। [112] 1833 में लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने एक नई प्रणाली लागू की जिसे "महलवारी" या ग्रामीण प्रणाली का नाम दिया गया जिसके तहत जमींदारों के साथ-साथ रैयतों ने सरकार के साथ एक अनुबंध किया। [112] 1911 में भूमि का अधिकांश हिस्सा रैयतों के पास था जो किराए का भुगतान सीधे सरकार को करते थे। जमींदारी संपदाओं में लगभग 26 मिलियन एकड (1,10,000 किमी2) हिस्सा शामिल था जो संपूर्ण प्रेसीडेंसी के एक चौथाई से अधिक था। [124] नित्यता में सरकार को देय पेशकश या भेंट लगभग 330,000 पाउंड प्रति वर्ष थी। [124] धार्मिक दानों या राज्य को दी गयी सेवाओं के लिए इनामों, भूमि के राजस्व-मुक्त या किराया-छोडने के अनुदानों में कुल मिलाकर लगभग 8 मिलियन एकड (32,000 किमी2) क्षेत्र शामिल था। [124] 1945-46 में 2,09,45,456 एकड (84,763 25 किमी2) जमींदारी संपदा मौजूद थी जिससे 97,83,167 रुपये का और 5,89,04,798 एकड (2,38,379 26 किमी2) रैयतवारी भूमि से 7,26,65,330 का राजस्व उत्पन्न हुआ था। [125] मद्रास में 15,782 वर्ग मील (40,880 किमी2) का वन क्षेत्र शामिल था। [126] जमींदारी के किसानों को उत्पीडन से बचाने के लिए मद्रास सरकार द्वारा 1908 का भूमि संपदा अधिनियम पारित किया गया था। [89] अधिनियम के तहत रैयतों को भूमि का स्थायी धारक बना दिया गया था। [127] हालांकि रैयतों की रक्षा से दूर यह कानून प्रेसीडेंसी के उडिया भाषी उत्तरी जिलों में इसके अपेक्षित लाभार्थी किसानों के हितों के लिए हानिकारक साबित हुआ[128] क्योंकि इसने किसानों को उनकी भूमि और जमींदार के साथ निरंतर दासत्व की जंजीर से बांध दिया [89] सन् 1933 में बोब्बिली के राजा द्वारा जमींदारों के अधिकारों पर अंकुश लगाने और शोषण से किसान की रक्षा के लिए अधिनियम में एक संशोधन पेश किया गया। जमींदारों के कडे विरोध के बावजूद इस अधिनियम को विधान परिषद में पारित कर दिया गया। [89] कृषि और सिंचाई मद्रास प्रेसीडेंसी में 1936 में लिए गए चावल स्टेशनों के मानचित्र मद्रास प्रेसीडेंसी की लगभग 71% आबादी कृषि कार्य में लगी हुई थी[129][130] जहां कृषि वर्ष आम तौर पर जुलाई में शुरू होता था। [131] मद्रास प्रेसीडेंसी में उगायी जाने वाली फसलों में चावल, मक्का, कंभु (भारतीय बाजरा) और रागी जैसे अनाजों के साथ-साथ[132] बैंगन, शकरकंद, भिंडी, सेम, प्याज, लहसुन जैसी सब्जियों सहित[133] मिर्च, काली मिर्च और अदरक के अलावा अरंडी के बीजों और मूंगफली से बने वनस्पति तेल शामिल थे। [134] यहाँ उगाये जाने वाले फलों में नींबू, केला, कटहल, काजू, आम, शरीफे और पपीते शामिल थे। [135] इसके अलावा पत्तागोभी, फूलगोभी, पोमेलो, आडू, पान मिर्च, नाइजर सीड और ज्वार जैसी फसलों को एशिया, यूरोप या अफ्रीका से लाकर यहाँ उगाया गया था[132] जबकि अंगूर ऑस्ट्रेलिया से लाये गए थे। [136] खाद्य फसलों के इस्तेमाल किया गया कुल उपज क्षेत्र 80% और नगदी फसलों के लिए 15% था। [137] कुल क्षेत्र में चावल का हिस्सा 26 4 प्रतिशत; कंभु का 10 प्रतिशत; रागी का 5 4 प्रतिशत और चोलम का 13 8 प्रतिशत था। [137] कपास की खेती 17,40,000 एकड (7,000 किमी2), तिलहन की 2 08 मिलियन, मसालों की 0 4 मिलियन और नील की 0 2 मिलियन होती थी। [137] 1898 में मद्रास ने रैयतवारी और ईनाम की 1,93,00,000 एकड (78,000 किमी2) भूमि पर उगाये गए 2,15,70,000 एकड (87,300 किमी2) फसलों से 7 47 मिलियन टन खाद्यान्नों का उत्पादन किया था जिससे 28 मिलियन आबादी को सहयोग मिला [130] चावल की उपज 7 से 10 सीडब्ल्यूटी प्रति एकड, चोलम की पैदावार 3 5 से 6 25 सीडब्ल्यूटी प्रति एकड, कंबु की 3 25 से 5 सीडब्ल्यूटी प्रति एकड और रागी की पैदावार 4 25 से 5 सीडब्ल्यूटी प्रति एकड थी। [137] खाद्य फसलों की औसत पैदावार 6 93 सीडब्ल्यूटी प्रति एकड थी। [130] विद्युत उत्पादन के लिए पेरियार नदी पर मुलापेरियर बांध बनाया गया था पूर्वी तट के आसपास सिंचाई मुख्यतः नदियों पर बने बांधों, झीलों और सिंचाई के टैंकों के माध्यम से की जाती थी। कोयंबटूर जिले में खेती के लिए पानी के मुख्य स्रोत टैंक ही थे। [136] 1884 में पारित भूमि सुधार और कृषक ऋण अधिनियम ने कुओं के निर्माण और भूमि उद्धार परियोजनाओं में उनके उपयोग के लिए धन की व्यवस्था प्रदान की [138] 20वीं सदी के प्रारंभिक भाग में मद्रास सरकार ने बिजली के पंपों से नलकूपों की खुदाई के लिए पम्पिंग एवं बोरिंग विभाग का गठन किया। [135] मेट्टुर बांध,[139] पेरियार परियोजना, कडप्पा-कुरनूल नहर और रुशिकुल्या परियोजना मद्रास सरकार द्वारा शुरू की गयी बडी सिंचाई परियोजनाएं थीं। मद्रास-मैसूर सीमा पर होगेनक्कल फॉल्स के नीचे 1934 में निर्मित मेट्टुर बांध ने प्रेसीडेंसी के पश्चिमी जिलों को पानी की आपूर्ति की त्रावणकोर में सीमा के पास पेरियार नदी पर पेरियार बांध (जिसे अब मुल्लापेरियार बांध के रूप में जाना जाता है) का निर्माण किया गया। [140] इस परियोजना से पेरियार नदी के पानी को वैगई नदी के बेसिन में भेजा गया जिससे कि पश्चिमी घाटों के पूर्व की निर्जल भूमि में सिंचाई की जा सके [140] इसी तरह गंजाम में रुशिकुल्या नदी के पानी को उपयोग करने के लिए रुशिकुल्या परियोजना शुरू की गयी। [141] इस योजना के तहत 1,42,000 एकड (570 किमी2) भूमि को सिंचाई के अंतर्गत लाया गया। [141] अंग्रेजों ने सिंचाई के लिए कई बांधों और नहरों का भी निर्माण किया। श्रीरंगम द्वीप के निकट कोलिदम नदी पर एक ऊपरी बांध का निर्माण किया गया। [142] गोदावरी नदी पर बना दौलाइश्वरम बांध, वैनेतेयम गोदावरी पर गुन्नावरम जलसेतु, कुरनूल-कडप्पा नहर[130] और कृष्णा बांध अंग्रेजों द्वारा किये गए प्रमुख सिंचाई कार्यों के उदाहरण हैं। [141][142] 1946-47 में कुल 97,36,974 एकड (39,404 14 किमी2) एकड क्षेत्र सिंचाई के दायरे में था जिससे पूंजी परिव्यय पर 6 94% की आय की प्राप्ति होती थी। [143] व्यापार, उद्योग और वाणिज्य मद्रास प्रेसीडेंसी के व्यापार में अन्य प्रांतों के साथ प्रेसीडेंसी का और इसका विदेशी व्यापार दोनों शामिल था। विदेशी व्यापार का हिस्सा कुल व्यापार का 93 प्रतिशत था जबकि शेष भाग आंतरिक व्यापार का था। [144] विदेश व्यापार का हिस्सा कुल का 70 प्रतिशत था जबकि 23 प्रतिशत भाग अंतर-प्रांतीय व्यापार का था। [144] 1900-01 में ब्रिटिश भारत के अन्य प्रांतों से आयात की राशि 13 43 करोड रुपये थी जबकि अन्य प्रांतों को निर्यात की राशि 11 52 करोड रुपए थी। उसी वर्ष के दौरान अन्य देशों को किया गया निर्यात 11 74 करोड रुपये पर पहुंच गया जबकि आयात का आंकडा 6 62 करोड रुपए था। [145] भारत की आजादी के समय प्रेसीडेंसी के आयात की राशि 71 32 करोड रुपये प्रति वर्ष थी जबकि निर्यात का आंकडा 64 51 करोड रुपए था। [143] यूनाइटेड किंगडम के साथ किया गया व्यापार प्रेसीडेंसी के कुल व्यापार का 31 54% था जिसमें प्रमुख बंदरगाह मद्रास का हिस्सा कुल व्यापार का 49% था। [143] कपास के पीस-गुड्स, कॉटन ट्विस्ट और धागे, धातु और मिट्टी का तेल आयात की मुख्य वस्तुएं थीं जबकि पशु की चमडी और खाल, कच्चा कपास, कॉफी और पीस-गुड्स निर्यात की मुख्य वस्तुएं थी। [144] कच्चा कपास, जानवरों की खाल, तिलहन, अनाज, दालें, कॉफी, चाय और कपास निर्माण सामग्रियां समुद्री व्यापार की मुख्य वस्तुएं थीं। [146] अधिकांश समुद्री व्यापार मद्रास में प्रेसीडेंसी के प्रमुख बंदरगाह के माध्यम से किया जाता था। पूर्वी तट पर गोपालपुर, कलिंगपत्तनम, बिमलीपत्तनम, विशाखापत्तनम, मसूलीपत्तनम, कोकनाडा, मद्रास, कुड्डालोर, नेगापाटम, पंबन और तूतीकोरिन के साथ-साथ पश्चिमी समुद्रतट पर मंगलौर, कन्नानोर, कालीकट, तेल्लीचेरी, कोचीन, अल्लेप्पी, क्विलोन और कोलाचेल अन्य महत्वपूर्ण बंदरगाह थे। [147] 1 अगस्त 1936 को कोचीन बंदरगाह और 1 अप्रैल 1937 को मद्रास बंदरगाह को भारत सरकार ने अपने नियंत्रण में ले लिया। [143] मद्रास, कोचीन और कोकानाडा में वाणिज्य मंडल मौजूद थे। [148] इनमें से प्रत्येक मंडल ने मद्रास विधान परिषद में एक-एक सदस्य को नामित किया। [148] कपास की गिनिंग और बुनाई मद्रास प्रेसीडेंसी के दो प्रमुख उद्योग थे। कपास का उत्पादन बेल्लारी जिले में भारी मात्रा में किया जाता था और मद्रास के जॉर्जटाउन में इन्हें प्रेस किया जाता था। [149] अमेरिकी गृह युद्ध की वजह से लंकाशायर में कपास की कमी के कारण व्यापार में एक गिरावट आ गयी थी जिसने कपास और वस्त्र निर्माण को प्रोत्साहन दिया और इसने संपूर्ण प्रेसीडेंसी में कपास के प्रेसों की स्थापना को बढावा दिया [149] 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में कोयंबटूर सूती वस्त्रों का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन कर उभरा[150] और इसने "दक्षिण भारत के मैनचेस्टर" की उपाधि हासिल की [151] गोदावरी, विजागापाटम और किस्तना जैसे उत्तरी जिले कपास की बुनाई के सुप्रसिद्ध केंद्र थे। एफ जे वी मिंचिन द्वारा संचालित एक चीनी मिल गंजाम के असका में और ईस्ट इंडिया डिस्टिलरीज एंड सुगर फैक्ट्रीज कंपनी द्वारा संचालित दूसरा चीनी मिल दक्षिण अर्काट जिले के नेल्लिकुप्पम में स्थित था। [152] प्रेसीडेंसी के तेलुगू-भाषी उत्तरी जिलों में भारी मात्रा में तम्बाकू की खेती की जाती थी जिन्हें बाद में सिगारों में भरा जाता था। [153] त्रिचिनोपोली, मद्रास और डिंडीगुल मुख्य सिगार-उत्पादक क्षेत्र थे। [153] कृत्रिम एनिलिन और एलिजरिन रंगों की खोज के समय तक मद्रास के पास एक संपन्न वनस्पति रंग निर्माण उद्योग मौजूद था। [153] इस शहर ने एल्यूमीनियम के बर्तन बनाने के लिए भारी मात्रा में एल्यूमीनियम का आयात भी किया था। [154] 20वीं सदी में सरकार ने क्रोम टैनिंग फैक्ट्री स्थापित की जहां उच्च-गुणवत्ता के चमडे का उत्पादन होता था। [155] प्रेसीडेंसी में पहली शराब की भठ्ठी 1826 में नीलगिरी हिल्स में स्थापित की गयी। [155] कहवा की खेती वायनाड के क्षेत्रों तथा कूर्ग एवं मैसूर[156] राज्यों में की जाती थी जबकि चाय की खेती नीलगिरी हिल्स की ढलानों में की जाती थी। [157] कहवा के बागान त्रावणकोर में भी बनाए गए थे लेकिन 19वीं सदी के अंत में एक गंभीर ओलावृष्टि ने इस राज्य में कहवा की खेती को नष्ट कर दिया और पडोस के वायनाड में कहवा के बागानों को लगभग पूरी तरह से मिटा दिया [156] कहवा-शोधन कार्य कालीकट, तेल्लीचेरी, मंगलोर और कोयंबटूर में किये जाते थे। [157] 1947 में मद्रास में 3,761 कारखानों के साथ-साथ 276,586 कारीगर मौजूद थे। [143] प्रेसीडेंसी का मत्स्य-पालन उद्योग काफी समृद्ध था जहां शार्क के पर,[158] मछलियों के पेट[158] और मत्स्य-शोधन कार्य[159] मछुआरों के लिए आय के मुख्य स्रोत थे। तूतीकोरिन का दक्षिणी बंदरगाह कोंच-फिशिंग का एक केंद्र था[160] लेकिन मद्रास के साथ-साथ सीलोन को मुख्य रूप से इसकी पर्ल फिशरी के लिए जाना जाता था। [161] पर्ल फिशरी परावा समुदायों द्वारा की जाती थी और यह एक आकर्षक पेशा था। 1946-47 में प्रेसीडेंसी का कुल राजस्व 57 करोड रुपए था जिसका वितरण इस प्रकार था: भूमि राजस्व, 8 53 करोड रुपए; आबकारी, 14 68 करोड रुपए; आयकर, 4 48 करोड रुपए; स्टांप राजस्व 4 38 करोड रुपए; वन, 1 61 करोड रुपए; अन्य कर, 8 45 करोड रुपए; असाधारण प्राप्तियां, 2 36 करोड रुपए और राजस्व निधि, 5 02 करोड रुपए 1946-47 के लिए कुल व्यय 56 99 करोड रुपए था। [143] 1948 के अंत में 208,675 केवीए बिजली का उत्पादन किया गया था जिसका 98% भाग सरकार के स्वामित्व के अधीन था। [143] बिजली उत्पादन की कुल मात्रा 467 मिलियन यूनिट थी। [143] मद्रास स्टॉक एक्सचेंज की स्थापना 1920 में मद्रास शहर में की गयी थी जिसमें 100 सदस्य शामिल थे लेकिन धीरे-धीरे यह संख्या कम होती चली गयी और 1923 तक इसकी सदस्यता घटकर तीन रह गयी जब इसे बंद कर देना पडा [162][163] फिर भी सितंबर 1937 में मद्रास स्टॉक एक्सचेंज को सफलतापूर्वक पुनर्जीवित कर लिया गया और इसे मद्रास स्टॉक एक्सचेंज एसोसिएशन लिमिटेड के रूप में निगमित किया गया। [162][164] ईआईडी पैरी, बिन्नी एंड कंपनी और अर्बुथनोट बैंक 20वीं सदी के अंत में सबसे बडे निजी-स्वामित्व वाले व्यावसायिक निगम थे। [165] ईआईडी पैरी रासायनिक उर्वरकों और चीनी का उत्पादन और बिक्री करती थी जबकि बिन्नी एंड कंपनी अपने कताई एवं बुनाई मिलों, ओटेरी के बकिंघम एवं कर्नाटक मिल्स में निर्मित सूती कपडों और यूनिफॉर्म की मार्केटिंग करती थी। [165][166][167] अर्बुथनोट परिवार के स्वामित्व वाला अर्बुथनोट बैंक 1906 में इसके विघटन तक प्रेसीडेंसी का सबसे बडा बैंक बडा था। [168] दरिद्रता की स्थिति में आ गए दिगभ्रमित पूर्व भारतीय निवेशकों ने नत्तुकोट्टाई चेट्टीस द्वारा प्रदत्त दान की निधियों से इंडियन बैंक की स्थापना की [169][170] 1913-14 के बीच मद्रास में 247 कंपनियां मौजूद थीं। [171] 1947 में इस शहर ने पंजीकृत कारखानों की स्थापना का नेतृत्व किया लेकिन कुल उत्पादक पूंजी के केवल 62% भाग को नियोजित किया। [171] भारत का पहला पश्चिमी-शैली का बैंकिंग संस्थान मद्रास बैंक था जिसकी स्थापाना 21 जून 1683 को एक सौ हजार पाउंड स्टर्लिंग की पूंजी से की गयी थी। [172][173] इसके बाद 1788 में कर्नाटक बैंक, 1795 में बैंक ऑफ मद्रास और 1804 में एशियाटिक बैंक का शुभारंभ किया गया था। [172] 1843 में सभी बैंकों का एक साथ विलय कर बैंक ऑफ मद्रास को बनाया गया। [173] बैंक ऑफ मद्रास की शाखाएं कोयंबटूर, मंगलौर, कालीकट, तेल्लीचेरी, अल्लेप्पी, कोकनाडा, गुंटूर, मसूलीपत्तनम, ऊटाकामंड, नेगापटाम, तूतीकोरिन, बैंगलोर, कोचीन और सीलोन के कोलंबो सहित प्रेसीडेंसी के सभी प्रमुख शहरों और रियासती राज्यों में थीं। 1921 में बैंक ऑफ बंबई और बैंक ऑफ बंगाल के साथ बैंक ऑफ मद्रास का विलय कर इम्पीरियल बैंक ऑफ इंडिया बनाया गया। [174] 19वीं सदी में अर्बुथनोट बैंक प्रेसीडेंसी के सबसे बडे निजी-स्वामित्व वाले बैंकों में से एक था। [168] सिटी यूनियन बैंक,[175] इंडियन बैंक,[175] केनरा बैंक,[175] कॉरपोरेशन बैंक,[175] नादर बैंक,[176] करुर वैश्य बैंक,[177] कैथोलिक सीरियन बैंक,[177] कर्नाटक बैंक,[177] बैंक ऑफ चेत्तीनाद,[178] आंध्र बैंक,[179] वैश्य बैंक,[179] विजया बैंक,[177] इंडियन ओवरसीज बैंक[180] और बैंक ऑफ मदुरा कुछ ऐसे अग्रणी बैंक थे जिनके मुख्यालय प्रेसीडेंसी में थे। परिवहन एवं संचार मद्रास और दक्षिणी महराता रेलवे लाइनों के मानचित्र एजेंसी के शुरुआती दिनों में पालकी के साथ-साथ परिवहन के लिए एकमात्र साधन बैलगाडियां थीं जिन्हें झटकों के रूप में जाना जाता था। [181] टीपू सुल्तान को सडकों के निर्माण में अग्रणी माना जाता था। [181] उत्तर में कलकत्ता से और दक्षिण में त्रावणकोर राज्य से मद्रास को जोडने वाली सडकों का मुख्य उद्देश्य युद्धों के दौरान संचार की लाइनों के रूप में सेवाएं प्रदान करना था। [181] 20वीं सदी के प्रारंभ से बैलगाडियों और घोडों की जगह धीरे-धीरे साइकिलों और मोटर वाहनों ने ले ली जबकि निजी सडक परिवहन के लिए मुख्य साधन मोटर बसें थीं। [182][183] प्रेसीडेंसी परिवहन और सिटी मोटर सेवाएं कम से कम 1910 में सिम्पसन एंड कंपनी द्वारा निर्मित पायोनियर, ऑपरेटिंग बसें थीं। [182] मद्रास शहर में पहली सुव्यवस्थित बस प्रणाली मद्रास ट्रामवेज कॉरपोरेशन द्वारा 1925 और 1928 के बीच संचालित की गयी थी। [182] 1939 के मोटर वाहन अधिनियम ने सार्वजनिक-स्वामित्व वाली बस एवं मोटर सेवाओं पर प्रतिबंध लगा दिया [183] अधिकांश शुरुआती बस सेवाएं निजी एजेंसियों द्वारा संचालित थीं। [183] नीलगिरि माउंटेन रेलवे, एक यूनेस्को विश्व विरासत स्थल पंबन रेलवे पुल, जो पंबन द्वीप को भारतीय महाद्वीप के साथ जोडती है, जिसका निर्माण 1914 में हुआ था मालाबार में एक पिछडा हुआ क्षेत्र और नहर, सी 1913 प्रेसीडेंसी में नयी सडकों के निर्माण और मौजूदा सडकों के रखरखाव के लिए पहला संगठित प्रयास 1845 में किया गया जब मुख्य सडकों के रखरखाव के लिए एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति की गयी। [184] विशेष अधिकारी के तत्वावधान में बनी प्रमुख सडकें थीं, मद्रास-बैंगलोर सडक मार्ग, मद्रास-त्रिचिनोपोली सडक मार्ग, मद्रास-कलकत्ता सडक मार्ग, मद्रास-कडप्पा रोड और सुम्पाजी घाट रोड [184] 1852 में लॉर्ड डलहौजी द्वारा एक लोक निर्माण विभाग बनाया गया और उसके बाद 1855 में सुगम नौपरिवहन के प्रयोजन से एक पूर्वी तट नहर का निर्माण किया गया। [184] सडक मार्गों का नियंत्रण लोक निर्माण सचिवालय द्वारा किया गया जो लोक निर्माण कार्य के प्रभार में राज्यपाल के कार्यकारी परिषद के सदस्य के नियंत्रण में था। प्रेसीडेंसी के प्रमुख राजमार्गों में मद्रास-कलकत्ता रोड, मद्रास-त्रावणकोर रोड और मद्रास-कालीकट रोड शामिल थे। [185] 1946-47 तक मद्रास प्रेसीडेंसी के पास 26,201 मील (42,166 किमी) पक्की सडकें, 14,406 मील (23,184 किमी) कच्ची सडकें और 1,403 मील (2,258 किमी) नौवहन योग्य नहरें मौजूद थीं। [143] दक्षिण भारत में यातायात के लिए पहली रेलवे लाइन अर्काट और मद्रास के बीच 1 जुलाई 1856 को बिछाई गई। [186] इस लाइन का निर्माण 1845 में गठित मद्रास रेलवे कंपनी द्वारा किया गया था। [186] रोयापुरम में दक्षिण भारत के पहले स्टेशन स्टेशन का निर्माण 1853 में किया गया था और इसने मद्रास रेलवे कंपनी के मुख्यालय के रूप में काम किया। [186] ग्रेट सदर्न इंडियन रेलवे कंपनी की स्थापना 1853 में युनाइटेड किंगडम में की गयी थी[186] और इसका मुख्यालय त्रिचिनोपोली में था जहां इसने त्रिचिनोपोली और नेगापाटम के बीच 1859 में अपनी पहली रेलवे लाइन का निर्माण किया। [186] मद्रास रेलवे कंपनी ने मानक या ब्रॉड गेज रेलवे लाइनों का संचालन किया जबकि ग्रेट सदर्न इंडियन रेलवे कंपनी ने मीटर गेज रेलवे लाइनों को संचालित किया। [187] 1874 में ग्रेट सदर्न इंडियन रेल कंपनी का कर्नाटक रेलवे कंपनी (1864 में स्थापित) के साथ विलय कर दिया गया और इसका नया नाम सदर्न इंडियन रेलवे कंपनी रखा गया। [188] सदर्न इंडियन रेलवे कंपनी का विलय 1891 में पांडिचेरी रेलवे कंपनी के साथ कर दिया गया जबकि 1908 में सदर्न महरत्ता रेलवे कंपनी के साथ मद्रास रेलवे कंपनी का विलय कर मद्रास एवं साउथ महरत्ता रेलवे कंपनी का गठन किया गया। [186] मद्रास एवं साउथ महरत्ता रेलवे कंपनी के लिए एग्मोर में एक नया टर्मिनस बनाया गया। [186] 1927 में साउथ इंडियन रेलवे कंपनी ने अपना मुख्यालय मदुरै से चेन्नई सेंट्रल में स्थानांतरित कर लिया। कंपनी ने मई 1931 के बाद से मद्रास शहर के लिए एक उपनगरीय इलेक्ट्रिक ट्रेन सेवा संचालित की [188] अप्रैल 1944 में मद्रास सरकार द्वारा मद्रास एवं साउथ महरत्ता रेलवे कंपनी का अधिग्रहण कर लिया गया। 1947 में 136 मील (219 किमी) डिस्ट्रिक्ट बोर्ड लाइनों के अलावा प्रेसीडेंसी में 4,961 मील (7,984 किमी) रेलमार्ग मौजूद था। [143] मद्रास का संपर्क बंबई और कलकत्ता जैसे अन्य भारतीय शहरों और सीलोन के साथ अच्छी तरह जुडा हुआ था। [189] भारतीय महाद्वीप पर मंडपम को पंबन द्वीप के साथ जोडने वाली 6,776 फुट (2,065 मी) पंबन रेलवे ब्रिज को 1914 में यातायात के लिए खोला गया था। [190] मेत्तुपलायम और ऊटाकामंड के बीच नीलगिरि माउंटेन रेलवे का शुभारंभ 1899 में किया गया। [191] मद्रास ट्रामवेज कॉरपोरेशन को हचिन्संस एंड कंपनी द्वारा 1892 में मद्रास शहर में प्रोन्नत किया गया और इसका संचालन 1895 में यहाँ तक कि लंदन की अपनी ट्रामवे प्रणाली बनने से पहले ही शुरू हो गया था। [182] मद्रास में इससे छः रास्ते निकलते थे जो मद्रास शहर के दूरवर्ती भागों को जोडता था और इसमें कुल मिलाकर 17 मील (27 किमी) मार्ग शामिल था। [182] प्रेसीडेंसी में मुख्य नौगम्य जलमार्ग गोदावरी और किस्तना डेल्टाओं की नहरों के रूप में था। [185] बकिंघम नहर को 1806 में 90 लाख की चांदी[192] की लागत पर मद्रास शहर को पेड्डागंजाम में कृष्णा नदी के डेल्टा से जोडने के लिए काट कर निकाला गया था। ब्रिटिश इंडिया स्टीम नेविगेशन कंपनी के जहाज अक्सर मद्रास में उतरते थे और बंबई, कलकत्ता, कोलंबो तथा रंगून को नियमित सेवाएं प्रदान करते थे। [192] 1917 में सिम्पसन एंड कंपनी ने मद्रास में पहले हवाई जहाज द्वारा एक परीक्षण उडान की व्यवस्था की[193] जबकि अक्टूबर 1929 में जी व्लास्टो नामक एक पायलट द्वारा सेंट थॉमस पर्वत के निकट माउंट गोल्फ क्लब मैदान पर एक उडान क्लब की स्थापना की गयी। [194] बाद में इस स्थान का उपयोग मद्रास हवाई अड्डे के रूप में किया गया। [194] क्लब के प्रारंभिक सदस्यों में से एक, राजा सर अन्नामलाई चेत्तियार ने अपनी मातृभूमि चेत्तीनाद में एक हवाई अड्डा स्थापित किया। [194] 15 अक्टूबर 1932 को रॉयल एयर फोर्स के पायलट नेविल विन्सेंट ने जेआरडी टाटा के विमान को संचालित किया जो बंबई से बेल्लारी होकर मद्रास तक हवाई-डाक ले जा रहा था। [195] यह टाटा संस की कराची से मद्रास तक की नियमित घरेलू यात्री सेवा तथा हवाई डाक सेवा की शुरुआत थी। बाद में उडान का नया मार्ग फिर से हैदराबाद होकर बनाया गया और यह द्वि-साप्ताहिक हो गया। [195] 26 नवम्बर 1935 को टाटा संस ने बंबई से गोवा और कन्नानोर होकर तिरुवनंतपुरम तक एक प्रयोगात्मक साप्ताहिक सेवा शुरू की 28 फरवरी 1938 के बाद से टाटा संस विमानन विभाग, जिसे अब टाटा एयरलाइंस का नया नाम दिया गया है, इसने कराची से मद्रास और त्रिचिनोपोली होकर कोलंबो तक एक हवाई डाक सेवा शुरू की [195] 2 मार्च 1938 को बंबई-त्रिवेन्द्रम हवाई सेवा को त्रिचिनोपोली तक बढा दिया गया। [195] पहली संगठित डाक सेवा 1712 में गवर्नर एडवर्ड हैरिसन द्वारा मद्रास और कलकत्ता के बीच स्थापित की गयी थी। [196] सुधार और नियमितीकरण के बाद सर आर्चीबाल्ड कैम्पबेल द्वारा एक नयी डाक प्रणाली शुरू की गयी और 1 जून 1786 को इसका शुभारंभ किया गया। [196] प्रेसीडेंसी को तीन डाक मंडलों में विभाजित कर दिया गया था: मद्रास उत्तर से लेकर गंजाम तक, मद्रास दक्षिण-पश्चिम से एन्जेंगो (तत्कालीन त्रावणकोर) तक और मद्रास पश्चिम से वेल्लोर तक [196] उसी वर्ष बंबई के साथ एक लिंक स्थापित किया गया,[196] उसके बाद 1837 में मद्रास, बम्बई और कलकत्ता डाक सेवाओं को एकीकृत कर ऑल इंडिया सर्विस का गठन किया गया। 1 अक्टूबर 1854 को इम्पीरियल पोस्टल सर्विस द्वारा पहला डाक टिकट जारी किया गया। [197] जनरल पोस्ट ऑफिस (जीपीओ), मद्रास की स्थापना सर आर्चीबाल्ड कैंपबेल द्वारा 1786 में की गयी थी। [197] 1872-73 में मद्रास और रंगून के बीच एक द्विमासिक समुद्री डाक सेवा शुरू हुई इसके बाद मद्रास और पूर्वी तट के बंदरगाहों के बीच एक पाक्षिक समुद्री-डाक सेवा की शुरुआत हुई [36] 1853 में टेलीग्राफ के माध्यम से मद्रास का संपर्क शेष दुनिया से जोड दिया गया और 1 फरवरी 1855 को एक नागरिक टेलीग्राफ सेवा का शुभारंभ किया गया। [197] इसके तुरंत बाद टेलीग्राफ लाइनों के जरिये मद्रास और ऊटाकामंड का संपर्क भारत के अन्य शहरों से जोड दिया गया। 1854 में एक टेलीग्राफ विभाग स्थापित किया गया और एक उप अधीक्षक को मद्रास शहर में नियुक्त कर दिया गया। 1882 में कोलंबो-तलाइमन्नार टेलीग्राफ लाइन, जिसकी स्थापना 1858 में की गए थी, इसे मद्रास तक बढा दिया गया जिससे शहर का संपर्क सीलोन के साथ जुड गया। [198] प्रेसीडेंसी में टेलीफोन सेवा का शुभारंभ 1881 में हुआ और 19 नवम्बर 1881 को 17 कनेक्शन के साथ पहला टेलीफोन एक्सचेंज मद्रास के एराबालू स्ट्रीट में स्थापित किया गया। [199] 1920 में मद्रास तथा पोर्ट ब्लेयर के बीच एक वायरलेस टेलीग्राफी सेवा शुरू की गयी और 1936 में मद्रास तथा रंगून के बीच इंडो-बर्मा रेडियो टेलीफोन सेवा का शुभारंभ किया गया। [200] शिक्षा पश्चिमी शैली की शिक्षा प्रदान करने वाले पहले स्कूलों की स्थापना प्रेसीडेंसी में 18वीं सदी के दौरान की गयी थी। [201] 1822 में सर थॉमस मुनरो की सिफारिशों पर आधारित एक सार्वजनिक निर्देश बोर्ड गठित किया गया जिसके बाद स्वदेशी भाषा में शिक्षा प्रदान करने वाले स्कूलों की स्थापना की गयी। [202] मुनरो की योजना के अनुसार मद्रास में एक केन्द्रीय प्रशिक्षण विद्यालय स्थापित किया गया। [202] हालांकि यह प्रणाली जो विफल होती दिखाई दे रही थी और 1836 में यूरोपीय साहित्य एवं विज्ञान को बढावा देने के लिए इस नीति में संशोधन किया गया। [202] सार्वजनिक निर्देश बोर्ड के ऊपर स्वदेशी शिक्षा की एक समिति बना दी गयी। [203] जनवरी 1840 में वायसराय के रूप में लॉर्ड एलेनबोरो के कार्यकाल के दौरान एक विश्वविद्यालय बोर्ड गठित किया गया जिसमें एलेक्जेंडर जे अर्बुथनोट को सार्वजनिक निर्देश के संयुक्त निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया। [204] अप्रैल 1841 में केंद्रीय विद्यालय को 67 छात्रों के साथ एक उच्च विद्यालय में परिवर्तित किया गया और 1853 में एक कॉलेज विभाग को जोडने के साथ यह प्रेसीडेंसी कॉलेज बन गया। [203][204] 5 सितम्बर 1857 को मद्रास विश्वविद्यालय को एक परीक्षक निकाय के रूप में गठित किया गया जिसके लिए लंदन विश्वविद्यालय को एक मॉडल के रूप में इस्तेमाल किया गया था, यहाँ पहली परीक्षाएं फरवरी 1858 में आयोजित की गयीं [204] सीलों के सी डब्ल्यू थामोथरम पिल्लै और कैरोल वी विश्वनाथ पिल्लै इस विश्वविद्यालय से स्नातक बनने वाले पहले छात्र थे। [204] सर एस सुब्रमण्यम अय्यर विश्वविद्यालय के पहले भारतीय वाइस-चांसलर थे। [204] इसी तरह 1925 के आंध्र विश्वविद्यालय अधिनियम द्वारा आंध्र विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी[205] और 1937 में रियासती राज्य त्रावणकोर में त्रावणकोर विश्वविद्यालय स्थापित किया गया। [206] 1867 में कुंभकोणम में स्थापित गवर्नमेंट आर्ट्स कॉलेज मद्रास के बाहर स्थापित पहले शैक्षिक संस्थानों में से एक था। [207] प्रेसीडेंसी के सबसे प्राचीन इंजीनियरिंग कॉलेज, कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, गिंडी की स्थापना 1794 में एक सरकारी सर्वेक्षण विद्यालय के रूप में की गयी थी जिसके बाद 1861 में इसे एक इंजीनियरिंग कॉलेज के रूप में प्रोन्नत किया गया। [208] प्रारंभ में यहाँ केवल सिविल इंजीनियरिंग की पढाई होती थी[208] जिसमें अगले विषयों के रूप में मेकानिकल इंजीनियरिंग को 1894 में, विद्युत अभियांत्रिकी को 1930 में और दूरसंचार तथा राजमार्गों को 1945 में शामिल किया गया। [209] एसी कॉलेज, जहां वस्त्र तथा चर्म प्रौद्योगिकी पर जोर दिया जाता था, इसकी स्थापना अलगप्पा चेत्तियार द्वारा 1944 में की गयी थी। [210] मद्रास प्रौद्योगिकी संस्थान जिसने एयरोनॉटिकल एवं ऑटोमोबाइल इंजीनियरिंग जैसे पाठ्यक्रमों को शुरू किया था, इसकी स्थापना 1949 में की गयी थी। [210] 1827 में प्रेसीडेंसी के पहले चिकित्सा विद्यालय की स्थापना की गयी जिसके बाद 1835 में मद्रास मेडिकल कॉलेज की स्थापना हुई [211] गवर्नमेंट टीचर्स कॉलेज 1856 में सैदापेट में स्थापित किया गया था। [212] निजी संस्थानों में 1842 में स्थापित पचैयप्पा कॉलेज प्रेसीडेंसी का सबसे प्राचीन हिंदू शिक्षण संस्थान है । [213] राजा सर अन्नामलाई चेत्तियार द्वारा अपनी मातृभूमि चेत्तीनाद में 1929 में स्थापित अन्नामलाई विश्वविद्यालय प्रेसीडेंसी का पहला ऐसा विश्वविद्यालय था जहां छात्रावास की सुविधाएं मौजूद थीं,[214] ईसाई मिशनरियां क्षेत्र में शिक्षा को बढावा देने में अग्रणी थीं। मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज, मंगलौर में सेंट एलॉयसियस कॉलेज, मद्रास में लोयोला कॉलेज और तंजौर में सेंट पीटर्स कॉलेज ईसाई मिशनरियों द्वारा स्थापित कुछ शैक्षिक संस्थान थे। मद्रास प्रेसीडेंसी के पास ब्रिटिश भारत के सभी प्रांतों में उच्चतम साक्षरता दर थी। [215] 1901 में मद्रास में पुरुष साक्षरता दर 11 9 प्रतिशत और महिला साक्षरता दर 0 9 प्रतिशत थी। [216] 1950 में जब मद्रास प्रेसीडेंसी मद्रास राज्य बन गया, इसकी साक्षरता दर 18 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत की तुलना में थोडी अधिक थी। [217] 1901 में यहां 26,771 सार्वजनिक एवं निजी संस्थान मौजूद थे जहां 923,760 विद्वान कार्यरत थे जिनमें 784,621 पुरुष और 139,139 महिलाएं शामिल थीं। [218] 1947 तक शैक्षिक संस्थानों की संख्या बढकर 37,811 हो गयी थी और विद्वानों की संख्या 3,989,686 पर पहुंच गयी थी। [83] कॉलेजों के अलावा 1947 में यहां 31,975 सार्वजनिक तथा प्राथमिक विद्यालय, लडकों के लिए 720 माध्यमिक विद्यालय और लडकियों के लिए 4,173 प्राथमिक तथा 181 माध्यमिक विद्यालय मौजूद थे। [83] प्रारंभ में अधिकांश स्नातक ब्राह्मण थे। [53][219][34]विश्वविद्यालयों और नागरिक प्रशासन में ब्राह्मणों की प्रधानता प्रेसीडेंसी में ब्राह्मण-विरोधी आंदोलन के बढने के प्रमुख कारणों में से एक था। [219] मद्रास ब्रिटिश भारत का पहला ऐसा प्रांत था जहां जाति-आधारित सांप्रदायिक आरक्षण की शुरुआत हुई थी। [57] शिक्षा मंत्री ए पी पात्रो द्वारा मद्रास विश्वविद्यालय अधिनियम को पेश किये जाने के बाद 1923 में इसे पारित कर दिया गया था। [205] विधेयक के प्रावधानों के तहत मद्रास विश्वविद्यालय के संचालक निकाय को पूरी तरह से लोकतांत्रिक ढाँचे पर पुनर्गठित किया गया। विधेयक में कहा गया था कि संचालक निकाय का प्रमुख अब एक कुलाधिपति होगा जिन्हें एक समर्थक-कुलाधिपति का सहयोग प्राप्त होगा जो आम तौर पर शिक्षा मंत्री होगा निर्वाचित कुलाधिपति और समर्थक-कुलाधिपति के अलावा कुलाधिपति द्वारा नियुक्त एक उप-कुलाधिपति भी होगा [205] संस्कृति और समाज हिंदू, मुसलमान और भारतीय ईसाई आम तौर पर एक संयुक्त परिवार प्रणाली का अनुसरण करते थे। [220][221] समाज मोटे तौर पर पितृसत्तात्मक था जिसमें सबसे ज्येष्ठ पुरुष सदस्य परिवार का मुखिया होता था। [221] प्रेसीडेंसी के अधिकांश भाग में विरासत की पितृवंशीय प्रणाली का अनुसरण किया जाता था। [222]इसमें केवल मालाबार जिले और रियासती राज्य त्रावणकोर तथा कोचीन का अपवाद शामिल था जहां मरुमक्कथायम प्रणाली प्रचलन में थी। [223] महिलाओं से स्वयं को घरेलू गतिविधियों तक सीमित रहने और घर-परिवार के रखरखाव की अपेक्षा की जाती थी। मुसलमान और उच्च जाति की हिंदू महिलाएं परदा प्रथा का पालन करती थीं। [220] परिवार में बेटी को शायद ही शिक्षा प्राप्त होती थी और वह आम तौर पर घरेलू गतिविधियों में अपनी माँ की मदद करती थी। [224] शादी के बाद वह अपने ससुराल चली जाती थी जहां उससे अपने पति और उनके परिवार के वरिष्ठ सदस्यों की सेवा करने की अपेक्षा की जाती थी। [225][226] बहुओं को यातना देने और उनके साथ अनुचित व्यवहार करने की घटनाएं दर्ज की गयीं हैं। [225][226] किसी ब्राह्मण विधवा से अपना सिर मुंडा लेने और कई तरह के तिरस्कार सहन करते रहने की अपेक्षा की जाती थी। [227][228] ग्रामीण समाज में ऐसे गांव शामिल होते थे जहां विभिन्न समुदायों के लोग एक साथ मिलकर रहते थे। ब्राह्मण अलग क्षेत्रों में रहते थे जिन्हें अग्रहारम कहा जाता था। अछूत गांव की सीमाओं के बाहर छोटी झोंपडियों में रहते थे जिन्हें चेरिस कहा जाता था और इन्हें गांव में घर बनाने से सख्ती से वंचित रखा जाता था। [229] इनका महत्वपूर्ण हिंदू मंदिरों में प्रवेश करना या उच्च-जाति के हिंदुओं के संपर्क में आना वर्जित था। [229][230] 19वीं सदी के मध्य से शुरू करते हुए पश्चिमी शिक्षा के प्रवाह के साथ पारंपरिक भारतीय समाज की समस्याओं को मिटाने के लिए सामाजिक सुधारों की शुरुआत की गयी। 1896 के मालाबार विवाह अधिनियम ने कानूनी विवाहों के रूप में संबंधम अनुबंध को मान्यता दी जबकि 1933 के मर्मक्कथायम कानून द्वारा मर्मक्कथायम प्रणाली को समाप्त कर दिया गया। [231] भारी संख्या में दलितों के बहिष्कार से निकालने के लिए कई सुधारवादी उपाय किये गए। तिरुमला तिरुपति देवस्थानम अधिनियम (1933) ने दलितों को देवस्थानम के प्रशासन में शामिल किया। [89] प्रेसीडेंसी के मंदिर प्रवेश अधिकार अधिनियम (1939)[65][64] और उसके त्रावणकोर के मंदिर प्रवेश उद्घोषणा (1936) का उद्देश्य दलितों तथा अन्य निम्न जातियों के स्तर को ऊपर उठा कर उन्हें उच्च-जाति के हिन्दुओं के बराबर रखना था। 1872 में टी मुथुस्वामी अय्यर ने मद्रास में विधवा पुनर्विवाह संघ गठित किया और ब्राह्मण विधवाओं के पुनर्विवाह की वकालत की [232] देवदासी प्रथा को 1927 में विनियमित किया गया और 26 नवम्बर 1947 को इसे पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया। [233]कंदुकुरी वीरेशलिंगम ने गोदावरी जिले में विधवा पुनर्विवाह आंदोलन का नेतृत्व किया। [234]सामाजिक सुधार के अग्रदूतों में से अधिकांश भारतीय राष्ट्रवादी थे। [235][236] ग्रामीण क्षेत्रों में परंपरागत खेलकूद और मनोरंजन के साधन मुर्गों की लडाई, सांडों की लडाई, गांव के मेलों और नाटकों के रूप में थे[237] शहरी क्षेत्रों में पुरुष मनोरंजन क्लबों, संगीत समारोहों या सभाओं, नाटकों और कल्याणकारी संगठनों में सामाजिक और साम्यवादी गतिविधियों में संलग्न रहते थे। कर्नाटक संगीत और भरतनाट्यम को विशेष रूप से उच्च और उच्च-मध्यम वर्गीय मद्रास सोसायटी का संरक्षण प्राप्त था। अंग्रेजों द्वारा प्रेसीडेंसी में शुरू किये गए खेलों में क्रिकेट, टेनिस, फुटबॉल और हॉकी सबसे अधिक लोकप्रिय थे। मद्रास प्रेसीडेंसी मैचों के रूप में जाना जाने वाला एक वार्षिक क्रिकेट टूर्नामेंट पोंगल के दौरान भारतीयों और यूरोपीय लोगों के बीच आयोजित किया जाता था। [238] प्रेसीडेंसी का पहला समाचार पत्र मद्रास कूरियर 12 अक्टूबर 1785 को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नियुक्त एक मुद्रक, रिचर्ड जॉनस्टन द्वारा शुरू किया गया था। [239] भारतीय स्वामित्व वाला अंग्रेजी भाषा का पहला समाचार पत्र द मद्रास क्रीसेंट था जिसे स्वतंत्रता सेनानी गाजुलु लक्ष्मीनारासु चेट्टी द्वारा अक्टूबर 1844 में शुरू किया गया था। [240] लक्ष्मीनारासु चेट्टी को मद्रास प्रेसीडेंसी एसोसिएशन की स्थापना का श्रेय भी दिया जाता है जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का एक अग्रदूत था। 1948 में प्रेसीडेंसी में प्रकाशित होने वाले अखबारों और पत्रिकाओं की कुल संख्या 821 थी। जी सुब्रमण्यम अय्यर द्वारा 1878 में स्थापित द हिन्दू और 1868 में गंत्ज परिवार द्वारा मद्रास टाइम्स के रूप में स्थापित द मेल[199] अंग्रेजी भाषा के दो सबसे लोकप्रिय समाचार पत्र थे। [241] प्रेसीडेंसी में नियमित रेडियो सेवा 1938 में शुरू हुई जब ऑल इंडिया रेडियो ने मद्रास में एक रेडियो स्टेशन की स्थापना की [242] सिनेमा 1930 और 1940 के दशक में लोकप्रिय हुआ जिसकी पहली फिल्म एक दक्षिण भारतीय भाषा में थी, यह 1916 में रिलीज हुई आर नटराज मुदलियार की तमिल फिल्म कीचक वधम थी। तमिल और तेलुगु भाषाओं में बनी पहली बोलती फिल्मों का निर्माण 1931 में किया गया था जबकि पहली कन्नड टॉकी सती सुलोचना 1934 में और पहली मलयालम टॉकी बालन 1938 में बनायी गयी थी। [243] कोयंबटूर,[244] सलेम,[245] मद्रास और कराइकुडी में फिल्म स्टूडियो बनाए गए थे। [246] ज्यादातर शुरुआती फिल्में कोयंबटूर और सलेम में बनायी गयी थीं [244][245] लेकिन 1940 के दशक के बाद मद्रास फिल्म निर्माण के एक प्रमुख केंद्र के रूप में उभरने लगा [244][246] 1950 के दशक तक तेलुगू,[247] कन्नड[248] और मलयालम[249] भाषा की ज्यादातर फिल्में मद्रास में बनायी गयी थीं। इन्हें भी देखें तमिलनाडु का इतिहास मद्रास के गवर्नर दक्षिण भारत %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF_%E0%A4%A5%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A4%BE %%%%% CS671 : gprachi@iitk.ac.in 150803 यह लेख आधुनिक भारतीय सेना से सम्बन्धित है । भारत की स्वतन्त्रता से पहले के सैन्य इतिहास के लिए, जिसमें ब्रिटिश-भारतीय सैन्य इतिहास सम्मिलित है, देखें ब्रिटिश-भारतीय सैन्य इतिहास। भारतीय थलसेना भारतीय सशस्त्र सेनाओं की थल इकाई है, इसपर भूमि पर संचालित होने वाले सैन्य कार्यक्रमों का उत्तरदायित्व है| इसके प्राथमिक उद्देश्य भारतीय सीमाओं की बाहरी शक्तियों के आक्रमण से रक्षा करना, देश के अन्दर शान्ति एवं सुरक्षा सुनिश्चित करना, सीमाओं की निगरानी एवं आतंक विरोधी कार्यक्रमों का सञ्चालन करना हैं| आपदा, अशांति और उपद्रव की स्थितियों में भारतीय थलसेना बचाव एवं मानवीय सहायता पहुँचाने में प्रशासन का सहयोग भी करती है| थलसेना का नियंत्रण एवं सञ्चालन का कार्य भारतीय रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत है| ग्यारह लाख तीस हजार सक्रिय सैनिकों एवं बारह लाख आरक्षित सैन्य कर्मियों की सेवाएं ग्रहण करने वाली भारतीय थल सेना विश्व की दूसरी सबसे बडी सेना है| यह पूर्णतः स्वेच्छिक सेवा है, यद्यपि भारत के संविधान में अनिवार्य सैन्य सेवा का प्रावधान भी है, पर इसे आज तक लागू नहीं किया गया| भारतीय थलसेना की स्थापना सन् १९४७ में भारत को स्वतंत्रता मिलने के तुंरत बाद हुई थी| ब्रिटिश राज के समय की अधिकतर रेजीमेंटों को यथावत रहने दिया गया| संयुक्त राष्ट्र की शान्ति सेनाओं के सदस्य के तौर पर भारतीय थलसेना ने विश्व के अधिकतर युद्ध एवं संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों में उत्कृष्ट योगदान दिया है| इसे देश की भौगोलिक विभिन्नताओं के चलते अलग- अलग भौगोलिक क्षेत्रों में युद्ध का बहुमूल्य अनुभव है| दलबीर सिंह सुहाग थलसेना के वर्त्तमान प्रमुख हैं| भारतीय थलसेना में फील्ड मार्शल का पद उच्चतम माना जाता है| यह एक मानद पद है जो की केन्द्र सरकार की अनुशंसा पर राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किया जाता है, परन्तु केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही इसकी अनुशंसा की जाती है भारतीय सेना के छः दशकों के इतिहास में मात्र दो अधिकारीयों को ही फील्ड मार्शल का पद सौंपा गया है| उद्देश्य भारतीय सेना के सिद्धांत के रूप में भारतीय सेना की भूमिका की परिभाषा - " भारतीय सेना भारतीय सशस्त्र बल का मुख्य घटक है जो कि भारत के संविधान के आदर्शों को बनाए रखने के लिए मौजूद हैं" ये राष्ट्रीय शक्ति का एक प्रमुख घटक है और भारतीय नौसेना और भारतीय वायु सेना के साथ के रूप में कार्य करता है । भारतीय सेना की भूमिका इस प्रकार है : प्राथमिक भूमिका : किसी भी बाहरी खतरों के विरुद्ध शक्ति संतुलन के द्वारा या युद्ध छेडने के द्वारा संरक्षित राष्ट्रीय हितों, संप्रभुता की रक्षा, क्षेत्रीय अखंडता और भारत की एकता की रक्षा करना। माध्यमिक भूमिका : सरकारी तन्त्र को छाया युद्ध और आन्तरिक खतरों में मदद करना और आवश्यकता पडने पर नागरिक अधिकारों में सहायता करना। "[2] इतिहास मुख्य लेख : भारत का सैन्य इतिहास १९४७ में आजादी मिलने के बाद ब्रिटिश भारतीय सेना को नये बने राष्ट्र भारत गणराज् और इस्लामी गणराज्य पाकिस्तान की सेवा करने के लिये २ भागों में बांट दिया गया। ज्यादातर इकाइयों को भारत के पास रखा गया। चार गोरखा सैन्य दल को ब्रिटिश सेना में स्थानांतरित किया गया जबकि शेष को भारत के लिए भेजा गया। जैसा कि भारतीय सेना में ब्रिटिश भारतीय सेना से व्युत्पन्न हुयी है तो इसकी संरचना, वर्दी और परंपराओ को अनिवार्य रूप से विरासत में ब्रिटिश से लिया गया हैं| प्रथम कश्मीर युद्ध (१९४७) मुख्य लेख : भारत-पाकिस्तान युद्ध (१९४७) आजादी के लगभग तुरंत बाद से ही भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव पैदा हो गया था और दोनों देशों के बीच पहले तीन पूर्ण पैमाने पर हुये युद्ध के बाद राजसी राज्य कश्मीर का विभाजन कर दिया गय। कश्मीर के महाराजा की भारत या पाकिस्तान मे से किसी भी राष्ट्र कि साथ विलय की अनिच्छा कि बाद पाकिस्तान द्वारा कश्मीर के कुछ हिस्सों मे आदिवासी आक्रमण प्रायोजित करवाया गया। भारत द्वारा आरोपित पुरुषों को भी नियमित रूप से पाकिस्तान की सेना मे शामिल किया गया। जल्द ही पाकिस्तान ने अपने दलों को सभी राज्यों को अपने में संलग्न करने के लिये भेजा। महाराजा हरी सिहं ने भारत और लॉर्ड माउंटबेटन से अपनी मदद करने की याचना की पर उनको कहा गया की भारत के पास उनकी मदद करने के लिये कोई कारण नही है । इस पर उन्होने कश्मीर के विलय के एकतरफा सन्धिपत्र पर हस्ताक्षर किये जिसका निर्णय ब्रिटिश सरकार द्वारा लिया गया पर पाकिस्तान को यह सन्धि कभी भी स्वीकार नहीं हुई। इस सन्धि के तुरन्त बाद ही भारतीय सेना को आक्रमणकारीयों से मुकाबला करने के लिये श्रीनगर भेजा गया। इस दल में जनरल थिम्मैया भी शामिल थे जिन्होने इस कार्यवाही में काफी प्रसिद्धी हासिल की और बाद में भारतीय सेना के प्रमुख बने। पूरे राज्य में एक गहन युद्ध छिड गया और पुराने साथी आपस मे लड रहे थे। दोनो पक्षों मे कुछ को राज्यवार बढत मिली तो साथ ही साथ महत्वपूर्ण नुकसान भी हुआ। १९४८ के अन्त में नियन्त्रण रेखा पर लड रहे सैनिकों में असहज शान्ती हो गई जिसको संयुक्त राष्ट्र द्वारा भारत और पाकिस्तान में विभाजित कर दिया गया। पाकिस्तान और के मध्य कश्मीर में उत्पन्न हुआ तनाव कभी भी पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुआ है । संयुक्त राष्ट्र शान्ति सेना में योगदान कोरिया में सितंबर १९५३ में तटस्थ बफर जोन के साथ शांति स्थापित करने के लिए भारतीय सेना के आगमन पर वर्तमान में भारतीय सेना की एक टुकडी संयुक्त राष्ट्र की सहायता के लिये समर्पित रहती है । भारतीय सेना द्वारा निरंतर कठिन कार्यों में भाग लेने की प्रतिबद्धताओं की हमेशा प्रशंशा की गई है । भारतीय सेना ने संयुक्त राष्ट्र के कई शांती स्थापित करने की कार्यवाहियों में भाग लिया गया है जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं: अंगोला कम्बोडिया साइप्रस लोकतांत्रिक गणराज्य कांगो, अल साल्वाडोर, नामीबिया, लेबनान, लाइबेरिया, मोजाम्बिक, रवाण्डा, सोमालिया, श्रीलंका और वियतनाम| भारतीय सेना ने कोरिया में हुयी लडाई के दौरान घायलों और बीमारों को सुरक्षित लाने के लिये भी अपनी अर्द्ध-सैनिकों की इकाई प्रदान की थी। हैदराबाद का विलय (१९४८) मुख्य लेख : ऑपरेशन पोलो भारत के विभाजन के उपरान्त राजसी राज्य हैदराबाद जो की निजाम द्वारा साशित था ने स्वतन्त्र राज्य के तौर रहना पसन्द किया। निजाम ने हैदराबाद को भारत में मिलाने पर अपनी आपत्ती दर्ज करवाई। भारत सरकार और हैदराबाद के निजाम के बीच पैदा हुई अनिर्णायक स्थिती को समाप्त करने हेतु भारत के उप-प्रधानमन्त्री सरदार बल्लभ भाई पटेल द्वारा १२ सितम्बर १९४८ को भारतीय टुकडियों को हैदराबाद की सुरक्षा करने का आदेश दिया। ५ दिनों की गहन लडाई के बाद वायू सेना के समर्थन से भारतीय सेना ने हैदराबाद की सेना को परास्त कर दिया। उसी दिन हैदराबाद को भारत गणराज्य का भाग घोषित कर दिया गया। पोलो कार्यवाही के अगुआ मेजर जनरल जॉयन्तो नाथ चौधरी को कानून व्यवस्था स्थापित करने के लिये हैदराबाद का सैन्य शाशक (१९४८-१९४९) घोषित किया गया। गोवा, दमन और दीव का विलय (१९६१) इन्हें भी देखें: गोवा मुक्ति संग्राम ब्रिटिश और फ्रान्स द्वारा अपने सभी औपनिवेशिक अधीकारों को समाप्त करने के बाद भी भारतीय उपमहाद्वीप, गोवा, दमन और दीव में पुर्तगालियों का शासन रहा। पुर्तगालियों द्वारा बारबार बातचीत को अस्वीकार कर देने पर नई दिल्ली द्वारा १२ दिसम्बर १९६१ को ऑपरेशन विजय की घोषणा की और अपनी सेना के एक छोटे से दल को पुर्तगाली क्षेत्रों पर आक्रमण करने के आदेश दिए। २६ घंटे चले युद्ध के बाद गोवा और दमन और दीव को सुरक्षित आजाद करा लिया गया और उनको भारत का अंग घोषित कर दिया गया। भारत-चीन युद्ध (१९६२) मुख्य लेख : भारत-चीन युद्ध १९५९ से भारत प्रगत निति का पालन कर रहा है । 'प्रगत निति' के अंतर्गत भारतीय गश्त दलों ने चीन द्वारा भारतीय सीमा के काफी अन्दर तक हथियाई गई चौकियों पर हमला बोल कर उन्हें फिर कब्जे में लिया। भारत के मैक-महोन रेखा को ही अंतरराष्ट्रीय सीमा मान लिए जाने पर जोर डालने के कारण भारत और चीन की सेनाओं के बीच छोटे स्तर पर संघर्ष छिड गया। बहरहाल, भारत और चीन के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों के कारण विवाद ने अधिक तूल नहीं पकडा हैदराबाद और गोवा में अपने सैन्य अभियानों की सफलता से उत्साहित भारत चीन के साथ सीमा विवाद की दिशा में एक और अधिक आक्रामक रुख ले लिया। 1962 में, भारतीय सेना को स्थानांतरित करने का आदेश दिया गया रिज भूटान और [[अरुणाचल प्रदेश] और तीन (5 किमी) के बारे में विवादित के मील उत्तर के बीच की सीमा के पास स्थित मैकमोहन रेखा इस बीच, चीनी सैनिकों को भी दोनों के बीच आयोजित भारतीय क्षेत्र और तनाव में घुसपैठ कर दिया था एक नई उच्च पहुँचे जब भारतीय सेना में चीन द्वारा निर्मित सडक की खोज अक्साई चिन विफल वार्ता के एक श्रृंखला के बाद, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी रिज पर भारतीय सेना के पदों पर हमला चीन द्वारा इस कदम से आश्चर्य द्वारा भारत पकडा और द्वारा 12 अक्टूबर नेहरू चीनी के लिए आदेश दिया अक्साई चिन से निष्कासित किया। हालांकि, भारतीय सेना के विभिन्न प्रभागों और देर विशाल संख्या में भारतीय वायु सेना जुटाने का फैसला के बीच गरीब समन्वय चीन भारत पर एक महत्वपूर्ण सामरिक और रणनीतिक लाभ दिया 20 अक्टूबर को चीनी सैनिकों दोनों उत्तर - पश्चिम और सीमा के उत्तर - पूर्वी भागों में भारत पर हमला किया और अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश के विशाल भाग पर कब्जा कर लिया। के रूप में लड विवादित प्रदेशों से परे चला गया है, चीन भारत सरकार पर बुलाया के लिए बातचीत, लेकिन भारत खो क्षेत्र हासिल करने के लिए निर्धारित बने रहे दृष्टि में कोई शांतिपूर्ण समझौते के साथ, चीन एकतरफा अरुणाचल प्रदेश से अपने बलों को वापस ले लिया। वापसी के लिए कारण भारत चीन के लिए विभिन्न साजो समस्याओं का दावा है और संयुक्त राज्य अमेरिका से राजनयिक का समर्थन करते हुए चीन ने कहा है कि यह अभी भी क्षेत्र में आयोजित किया है कि यह कूटनीतिक दावा किया था पर साथ विवादित हैं। भारतीय और चीनी सेनाओं के बीच विभाजन रेखा [वास्तविक नियंत्रण] [रेखा] के रूप में नाम था। गरीब भारत के सैन्य कमांडरों द्वारा किए गए फैसले कई सवाल उठाए [[रिपोर्ट हेंडरसन - ब्रूक्स | समिति हेंडरसन - ब्रूक्स] जल्द ही भारत सरकार द्वारा स्थापित भारतीय सेना के खराब प्रदर्शन के कारणों का निर्धारण समिति की रिपोर्ट के जाहिरा तौर पर भारतीय सशस्त्र बलों की कमान के ज्यादा गलती है और अपनी नाकामियों के लिए कई मोर्चों पर बुरी तरह कार्यकारी सरकार की आलोचना की समिति ने पाया है कि हार के लिए प्रमुख कारण भारत चीन के साथ सीमा पर सैनिकों की तैनाती कम था के बाद भी दुश्मनी शुरू किया और यह भी के लिए अनुमति देने के लिए भारतीय वायु सेना चीनी परिवहन लाइनों को लक्ष्य चीनी जवाबी हमले हवाई के डर से बाहर नहीं है फैसले की आलोचना की भारतीय नागरिक क्षेत्रों पर ज्यादातर दोष के तत्कालीन रक्षा मंत्री की अक्षमता पर भी निशाना बनाया गया, कृष्ण मेनन अपनी रिहाई के लिए लगातार कॉल के बावजूद, हेंडरसन - ब्रूक्स रिपोर्ट अभी भी वर्गीकृत रहता है । द्वितीय कश्मीर (1965) युद्ध साँचा:में पाकिस्तानी पदों पर भारतीय सेना की 18 वीं कैवलरी के टैंक 1965 के युद्ध के दौरान प्रभारी ले पाकिस्तान के साथ एक दूसरे टकराव पर मोटे तौर पर 1965 में जगह ले ली कश्मीर पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान शुरूऑपरेशन जिब्राल्टर अगस्त में जिसके दौरान कई पाकिस्तानी अर्धसैनिक सैनिकों को भारतीय प्रशासित कश्मीर में घुसपैठ और भारत विरोधी विद्रोह चिंगारी की कोशिश की पाकिस्तानी नेताओं का मानना कि भारत, जो अभी भी विनाशकारी युद्ध भारत - चीन से उबरने था एक सैन्य जोर और विद्रोह के साथ सौदा करने में असमर्थ होगा हालांकि, आपरेशन एक प्रमुख विफलता के बाद से कश्मीरी लोगों को इस तरह के एक विद्रोह के लिए थोडा समर्थन दिखाया और भारत जल्दी बलों स्थानांतरित घुसपैठियों को बाहर निकालने भारतीय जवाबी हमले के प्रक्षेपण के एक पखवाडे के भीतर, घुसपैठियों के सबसे वापस पाकिस्तान के लिए पीछे हट गया था। ऑपरेशन जिब्राल्टर की विफलता से पस्त है और सीमा पार भारतीय बलों द्वारा एक प्रमुख आक्रमण की उम्मीद है, पाकिस्तान [[ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम] 1 सितंबर को शुरू, भारत Chamb - Jaurian क्षेत्र हमलावर जवाबी कार्रवाई में, 6 सितंबर को पश्चिमी मोर्चे पर भारतीय सेना के 15 इन्फैन्ट्री डिवीजन अंतरराष्ट्रीय सीमा पार कर गया। प्रारंभ में, भारतीय सेना के उत्तरी क्षेत्र में काफी सफलता के साथ मुलाकात की पाकिस्तान के खिलाफ लंबे समय तक तोपखाने barrages शुरू करने के बाद, भारत कश्मीर में तीन महत्वपूर्ण पर्वत पदों पर कब्जा करने में सक्षम था। 9 सितंबर तक भारतीय सेना सडकों में काफी पाकिस्तान में बनाया था। भारत पाकिस्तानी टैंकों की सबसे बडी दौड था जब पाकिस्तान के एक बख्तरबंद डिवीजन के आक्रामक [ उत्तर [लडाई]] पर सितंबर 10 वीं पा गया था। छह पाकिस्तानी आर्मड रेजिमेंट लडाई में भाग लिया, अर्थात् 19 (पैटन) लांसर्स, 12 कैवलरी , 24 (पैटन) कैवलरी 4 कैवलरी (पैटन), 5 (पैटन) हार्स और 6 लांसर्स (पैटन) इन तीन अवर टैंक के साथ भारतीय आर्मड रेजिमेंट द्वारा विरोध किया गया, डेकन हार्स (शेरमेन), 3 (सेंचुरियन) कैवलरी और 8 कैवलरी () लडाई इतनी भयंकर और तीव्र है कि समय यह समाप्त हो गया था द्वारा, 4 भारतीय डिवीजन के बारे में या तो नष्ट में 97 पाकिस्तानी टैंक, या क्षतिग्रस्त, या अक्षुण्ण हालत में कब्जा कर लिया था। यह 72 पैटन टैंक और 25 शामिल हैं। 28 सहित 97 टैंक, 32 शर्त में चल रहे थे। भारतीय खेम पर 32 टैंक खो दिया है । के बारे में मोटे तौर पर उनमें से पन्द्रह पाकिस्तानी सेना, ज्यादातर शेरमेन टैंक द्वारा कब्जा कर लिया गया। युद्ध के अंत तक, यह अनुमान लगाया गया था कि 100 से अधिक पाकिस्तानी टैंक को नष्ट कर दिया और गया एक अतिरिक्त 150 भारत द्वारा कब्जा कर लिया गया। भारतीय सेना ने संघर्ष के दौरान 128 टैंक खो दिया है । 23 सितंबर तक भारतीय सेना +३००० रणभूमि मौतों का सामना करना पडा, जबकि पाकिस्तान ३,८०० की तुलना में कम नहीं सामना करना पडा सोवियत संघ दोनों देशों के बीच एक शांति समझौते की मध्यस्थता की थी और बाद में औपचारिक वार्ता में आयोजित किए गए ताशकंद, एक युद्धविराम पर घोषित किया गया था [23 सितंबर]] भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और अयूब खान लगभग सभी युद्ध पूर्व पदों को वापस लेने पर सहमत हुए समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद घंटे, लाल बहादुर शास्त्री ताशकंद विभिन्न षड्यंत्र के सिद्धांत को हवा देने में रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। युद्ध पूर्व पदों के लिए वापस करने का निर्णय के कारण भारत के रूप में नई दिल्ली में राजनीति के बीच एक चिल्लाहट युद्ध के अंत में एक लाभप्रद स्थिति में स्पष्ट रूप से किया गया था। एक स्वतंत्र विश्लेषक के मुताबिक, युद्ध को जारी रखने के आगे नुकसान का नेतृत्व होता है %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%hhttps://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%A8_%E0%A4%AB%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%88%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A8 %%%%% CS671 : gprachi@iitk.ac.in 150803 बेंजामिन फ्रैंकलिन संयुक्त राज्य अमेरिका के संस्थापक जनकों में से एक थे। एक प्रसिद्ध बहुश्रुत, फ्रैंकलिन एक प्रमुख लेखक और मुद्रक, व्यंग्यकार, राजनीतिक विचारक, राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक, आविष्कारक, नागरिक कार्यकर्ता, राजमर्मज्ञ, सैनिक,[1] और राजनयिक थे। एक वैज्ञानिक के रूप में, बिजली के सम्बन्ध में अपनी खोजों और सिद्धांतों के लिए वे प्रबोधन और भौतिक विज्ञान के इतिहास में एक प्रमुख शख्सियत रहे। उन्होंने बिजली की छड, बाईफोकल्स, फ्रैंकलिन स्टोव, एक गाडी के ओडोमीटर और ग्लास 'आर्मोनिका' का आविष्कार किया। उन्होंने अमेरिका में पहला सार्वजनिक ऋण पुस्तकालय और पेंसिल्वेनिया में पहले अग्नि विभाग की स्थापना की। वे औपनिवेशिक एकता के शीघ्र प्रस्तावक थे और एक लेखक और राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में, उन्होंने एक अमेरिकी राष्ट्र के विचार का समर्थन किया। [2] अमेरिकी क्रांति के दौरान एक राजनयिक के रूप में, उन्होंने फ्रेंच गठबंधन हासिल किया, जिसने अमेरिका की स्वतंत्रता को संभव बनाने में मदद की। फ्रेंकलिन को अमेरिकी मूल्यों और चरित्र के आधार निर्माता के रूप में श्रेय दिया जाता है, जिसमें बचत के व्यावहारिक और लोकतांत्रिक अतिनैतिक मूल्यों, कठिन परिश्रम, शिक्षा, सामुदायिक भावना, स्व-शासित संस्थानों और राजनीतिक और धार्मिक स्वैच्छाचारिता के विरोध करने के संग, प्रबोधन के वैज्ञानिक और सहिष्णु मूल्यों का समागम था। हेनरी स्टील कोमगेर के शब्दों में, "फ्रैंकलिन में प्यूरिटनवाद के गुणों को बिना इसके दोषों के और इन्लाईटेनमेंट की प्रदीप्ति को बिना उसकी तपिश के समाहित किया जा सकता है । "[3] वाल्टर आईजेकसन के अनुसार, यह बात फ्रेंकलिन को, "उस काल के सबसे निष्णात अमेरिकी और उस समाज की खोज करने वाले लोगों में सबसे प्रभावशाली बनाती है, जैसे समाज के रूप में बाद में अमेरिका विकसित हुआ। "[4] फ्रेंकलिन, एक अखबार के संपादक, मुद्रक और फिलाडेल्फिया में व्यापारी बन गए, जहां पुअर रिचार्ड्स ऑल्मनैक और द पेन्सिलवेनिया गजेट के लेखन और प्रकाशन से वे बहुत अमीर हो गए। फ्रेंकलिन की विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में दिलचस्पी थी और अपने प्रसिद्ध प्रयोगों के लिए उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय को स्थापित करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और वे अमेरिकी दार्शनिक सोसायटी के पहले अध्यक्ष चुने गए। फ्रेंकलिन अमेरिका में उस वक्त एक राष्ट्रीय नायक बन गए जब उन्होंने उस प्रयास का नेतृत्व किया जिसके तहत संसद पर अलोकप्रिय स्टाम्प अधिनियम को निरस्त करने का दबाव बनाया गया। एक निपुण राजनयिक फ्रैंकलिन को, पेरिस में अमेरिकी मंत्री के रूप में फ्रांसीसियों के बीच व्यापक रूप से सराहा गया और वे फ्रेंको अमेरिकी संबंधों के सकारात्मक विकास में एक प्रमुख व्यक्ति थे। 1775 से 1776 तक, फ्रैंकलिन, कॉन्टिनेंटल कांग्रेस के तहत पोस्टमास्टर जनरल थे और 1785 से 1788 तक, वे सुप्रीम एक्सिक्यूटिव कौंसिल ऑफ पेंसिल्वेनिया के अध्यक्ष रहे। अपने जीवन के आखिरी काल में, वे एक सबसे प्रमुख दासप्रथा-विरोधी बन गए। उनका रंगीन जीवन और वैज्ञानिक और राजनीतिक उपलब्धि की विरासत और अमेरिका के सबसे प्रभावशाली संस्थापक पिता के रूप में उनकी छवि ने फ्रेंकलिन को सिक्कों और पैसों पर; युद्धपोत; कई शहरों के नामों, काउंटियों, शैक्षिक संस्थानों, हमनामों और कंपनियों; और उनकी मृत्यु के दो से अधिक सदियों के बाद अनगिनत सांस्कृतिक सन्दर्भों में सम्मानित होते देखा। जीवनवृत्त पूर्वज फ्रेंकलिन के पिता, जोशिया फ्रैंकलिन का जन्म, एक्टन, नोर्थएम्प्टनशायर, इंग्लैंड में 23 दिसम्बर 1657 को थॉमस फ्रैंकलिन, एक लोहार और किसान और उनकी पत्नी जेन व्हाइट के घर में हुआ। उनकी मां, एबिया फोल्गर का जन्म, नानटाकेट, मेसाचुसेट्स में 15 अगस्त 1667 को, पीटर फोल्गर, एक मिलर और स्कूल शिक्षक और उनकी पत्नी मेरी मोरील एक पूर्व अनुबंधित नौकरानी के यहां हुआ। फोल्गर्स के एक वंशज, जे ए फोल्गर ने 19वीं सदी में फोल्गर्स कॉफी की स्थापना की। जोशिया फ्रेंकलिन की दो पत्नियों से सत्रह बच्चे हुए उन्होंने अपनी पहली पत्नी ऐनी चाइल्ड से एक्टन में लगभग 1677 में शादी की और 1683 में उसके साथ बॉस्टन प्रवास किया; प्रवास से पहले उनके तीन बच्चे हुए और प्रवास के बाद चार उनकी पहली पत्नी की मौत के बाद, 9 जुलाई 1689 को ओल्ड साऊथ मीटिंग हाउस में सैमुएल विलआर्ड ने जोशिया की शादी अबीयाह फोल्गेर से कराई उनका आठवां बच्चा बेंजामिन, जोशिया फ्रैंकलिन का पन्द्रहवां बच्चा था, साथ ही उनका दसवां और आखरी पुत्र भी था। जोशिया फ्रेंकलिन ने, 1670 के दशक में प्यूरिटनवाद को अपनाया प्यूरिटनवाद, रोमन कथोलिक धर्म के तत्वों से एंग्लिकनवाद को शुद्ध करने के लिए इंग्लैंड का एक प्रोटेस्टेंट आन्दोलन था। प्यूरिटन के लिए तीन बातें महत्वपूर्ण थीं: कि प्रत्येक मण्डली स्व-शासी हो; कि मंत्रियों को मास जैसे अनुष्ठान के बजाय उपदेश देने चाहिए; और यह कि प्रत्येक सदस्य बाइबल का अध्ययन करे ताकि वह एक व्यक्तिगत समझ और परमेश्वर के साथ संबंध विकसित कर सके प्यूरिटनवाद ने बेंजामिन फ्रैंकलिन के पिता जैसे मध्यम वर्गीय लोगों को अधिक आकर्षित किया, जो शासन की बैठकों, चर्चाओं, अध्ययन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आनंद लेते थे। [5] अमेरिकी लोकतंत्र की जडों को, स्व-शासन के इन प्यूरिटनवादी मूल्यों में देखा जा सकता है । इन मूल्यों में, जो बेंजामिन फ्रैंकलिन और अन्य संस्थापक जनकों (जैसे जॉन एडम्स) व्यक्तिगत अधिकार का सम्मान और अन्यायपूर्ण शासन के खिलाफ सक्रिय आक्रोश शामिल था। जोशिया का एक मुख्य प्यूरिटनवादी मूल्य यह था कि कठिन परिश्रम के माध्यम से स्वयं के मूल्य का विकास होता है जो मेहनती व्यक्ति को राजाओं के बराबर बनाता है (बेन फ्रेंकलिन ने अपने पिता की समाधि-पत्थर पर 22:29 नीतिवचन खुदवाया, "सीएस्ट दाऊ अ मैन डिलिजेंट इन हिज कॉलिंग, ही शैल स्टैंड बिफोर किंग्स। "[6] कठिन परिश्रम और समानता, दो ऐसे प्यूरिटनवादी मूल्य थे जिसकी शिक्षा बेन फ्रेंकलिन ने आजीवन दी (वही, पृ 78) और पुअर रिचार्ड्स ऑल्मनैक और अपनी आत्मकथा के माध्यम से इसे व्यापक रूप से प्रसारित किया। बेन फ्रेंकलिन की मां, अबिया फोल्गर, एक प्यूरिटन परिवार में जन्मी थीं, जो उन प्रथम तीर्थयात्रियों में से एक था जो तब धार्मिक स्वतंत्रता के लिए मैसाचुसेट्स भाग गया जब इंग्लैंड के किंग चार्ल्स I ने प्रोटेसटेंट को प्रताडित करना शुरू किया। वे 1635 में बॉस्टन के लिए रवाना हुए उनके पिता "ऐसे बागी थे जो औपनिवेशिक अमेरिका को बदलने के लिए निर्दिष्ट थे। "[7] अदालत के क्लर्क के रूप में, उन्हें अमीर जमींदारों के साथ मध्यम-वर्गीय दुकानदारों और कारीगरों की वकालत करने के संघर्ष में स्थानीय मजिस्ट्रेट की अवमानना करने के लिए जेल में बंद कर दिया गया था। अपने दादा के नक्शे कदम पर चलते हुए, बेन फ्रेंकलिन ने पेंसिल्वेनिया कॉलोनी के स्वामित्व वाले अमीर पेन परिवार के खिलाफ लडाई जारी रखी। प्रारम्भिक जीवन फ्रेंकलिन का जन्मस्थान मिल्क स्ट्रीट पर, बॉस्टन, मैसाचुसेट्स फ्रेंकलिन के जन्मस्थान की जगह मिल्क स्ट्रीट पर ओल्ड साउथ मीटिंग हाउस में इस इमारत की दूसरी मंजिल के ऊपर एक अर्ध-प्रतिमा के साथ उन्हें याद किया गया बेंजामिन फ्रेंकलिन का जन्म, बॉस्टन, मैसाचुसेट्स, के मिल्क स्ट्रीट पर 17 जनवरी 1706 को हुआ था,[8] और उनका बपतिस्मा ओल्ड साउथ मीटिंग हाउस में हुआ। वे जोशिया फ्रैंकलिन, एक दुकानदार वसा और साबुन और मोमबत्ती निर्माता और उसकी दूसरी पत्नी, आबिया फोल्गर के बेटे थे। जोशिया के 17 बच्चे थे, बेंजामिन पन्द्रहवें बच्चे और सबसे छोटे बेटे थे। जोशिया चाहते थे कि बेन, पादरी के साथ स्कूल जाए लेकिन उनके पास उन्हें दो साल के लिए ही स्कूल भेजने लायक पैसे थे। वे बॉस्टन लैटिन स्कूल गए, लेकिन स्नातक नहीं किया; उन्होंने अत्यधिक पठन द्वारा अपनी शिक्षा जारी रखी हालांकि "उनके माता-पिता ने फ्रेंकलिन के लिए एक कॅरियर के रूप में चर्च की चर्चा की", उनकी स्कूली शिक्षा तब समाप्त हो गई, जब वे दस वर्ष के थे। इसके बाद उन्होंने कुछ समय तक अपने पिता के लिए काम किया और 12 वर्ष की उम्र में वे अपने भाई जेम्स के एक शिक्षु बन गए, जो एक मुद्रक था जिसने बेन को प्रिंटिंग व्यापार सिखाया जब बेन 15 वर्ष के थे, जेम्स ने द न्यू-इंग्लैंड कुरेंट की स्थापना की जो कालोनियों में पहला सही मायने में स्वतंत्र अखबार था। समाचारपत्र में प्रकाशनार्थ जब एक पत्र लिखने के अवसर से इनकार कर दिया गया, तो फ्रेंकलिन ने एक अधेड विधवा का छद्म नाम "मिसेज डूगुड" अपनाया "मिसेज डूगुड" के पत्र प्रकाशित हुए और शहर में चर्चा का विषय बन गए। न तो जेम्स और न ही कुरेंट के पाठकों को चाल के बारे में पता चला और जेम्स को जब पता चला कि वह लोकप्रिय संवाददाता उसका छोटा भाई है तो वह नाराज हो गया फ्रेंकलिन ने अनुमति के बिना अपने शिक्षु पद को छोड दिया और इस वजह से एक भगोडा बन गए। [9] 17 साल की उम्र में, फ्रैंकलिन एक नए शहर में नई शुरूआत की तलाश में फिलाडेल्फिया, पेनसिल्वेनिया भाग गए। जब वे पहली बार आए तो उन्होंने शहर की विभिन्न मुद्रण दुकानों में काम किया। तथापि, वे तात्कालिक संभावनाओं से संतुष्ट नहीं थे। कुछ महीनों बाद, एक मुद्रक घराने में काम करने के दौरान, पेंसिल्वेनिया के गवर्नर सर विलियम कीथ ने जाहिरा तौर पर फिलाडेल्फिया में एक और समाचार पत्र की स्थापना के लिए, आवश्यक उपकरण प्राप्त करने के लिए फ्रैंकलिन को लंदन जाने के लिए मनाया। समाचार पत्र के समर्थन के कीथ के वादों को खोखला पाकर, फ्रैंकलिन ने एक मुद्रण दुकान में टाइपसेटर के रूप में काम किया जो अब लंदन के स्मिथफील्ड क्षेत्र में सेंट बार्थोलोमे-द-ग्रेट चर्च है । इसके बाद, वे 1726 में एक व्यापारी थॉमस डेन्हम की मदद से फिलाडेल्फिया लौटे, जिसने फ्रैंकलिन को अपने कारोबार में क्लर्क, दुकानदार और मुनीम के रूप में नियुक्त किया। [9] 1727 में, बेंजामिन फ्रेंकलिन ने जो उस वक्त 21 वर्ष के थे, जुन्टो का गठन किया जो "समान विचार वाले महत्वाकांक्षी कारीगरों और दस्तकारों का समूह था, जो अपने समुदाय में सुधार के साथ-साथ खुद में सुधार की उम्मीद रखते थे। " जुन्टो, समसामयिक मुद्दों पर चर्चा के लिए एक समूह था; इसने बाद में फिलाडेल्फिया में कई संगठनों को जन्म दिया। पढना, जून्टो का एक बडा शगल था, लेकिन पुस्तकें दुर्लभ और महंगी थी। सदस्यों ने एक पुस्तकालय बनाया, जिसमें शुरू में अपनी किताबों को इकट्ठा किया। हालांकि, यह पर्याप्त नहीं था। फ्रेंकलिन ने तब एक सदस्यता पुस्तकालय की परिकल्पना पर विचार किया, जो सभी के पढने के लिए किताबें खरीदने की खातिर सदस्यों से निधि का संग्रह करेगा। यह लाइब्रेरी कंपनी फिलाडेल्फिया का जन्म था: इसका चार्टर फ्रेंकलिन द्वारा 1731 में बनाया गया। 1732 में, फ्रैंकलिन ने पहले अमेरिकी लाइब्रेरियन, लुई टिमोथी को काम पर रखा। बेंजामिन फ्रेंकलिन (बीच में) एक प्रिंटिंग प्रेस में काम करते हुए, जैसा कि चार्ल्स ई मिल्स द्वारा चित्रत किया गया मूलतः, किताबों को प्रथम लाइब्रेरियन के घरों पर रखा गया, लेकिन 1739 में संग्रह को स्टेट हाउस ऑफ पेन्सिलवेनिया की दूसरी मंजिल पर स्थानांतरित कर दिया गया, जिसे अब इंडीपेंडेंस हॉल के रूप में जाना जाता है । 1791 में, एक नई इमारत खास तौर पर पुस्तकालय के लिए बनाई गई। लाइब्रेरी कंपनी, अब एक महान विद्वतापूर्ण और अनुसंधान पुस्तकालय है जिसमें 500,000 दुर्लभ किताबें, पर्चे और ब्रॉडसाइड, 160,000 से अधिक पांडुलिपियां और 75,000 ग्राफिक आइटम हैं। डेन्हम की मृत्यु पर, फ्रैंकलिन अपने पूर्व व्यापार में लौट आए 1730 तक, फ्रैंकलिन ने अपने खुद के एक प्रिंटिंग घराने की स्थापना की और एक समाचार पत्र द पेंसिल्वेनिया गजेट का प्रकाशक बनने के लिए उपाय निकाला गजेट ने फ्रेंकलिन को मुद्रित निबंधों और टिप्पणियों के माध्यम से विभिन्न स्थानीय सुधारों और पहल के लिए आंदोलन का एक मंच दिया समय के साथ, उनकी टिप्पणी और एक मेहनती और बौद्धिक युवा व्यक्ति के रूप में उनकी एक सकारात्मक छवि की दक्ष प्रस्तुति को काफी सामाजिक सम्मान प्राप्त हुआ। एक वैज्ञानिक और राजनेता के रूप में प्रसिद्धि हासिल करने के बाद भी फ्रेंकलिन, अपने पत्रों पर आदतन बडे सरल रूप से 'बी फ्रेंकलिन, प्रिंटर' हस्ताक्षर करते थे। [9] 1731 में, फ्रैंकलिन का स्थानीय मेसोनिक लॉज में पदार्पण हुआ। वे 1734 में ग्रैंड मास्टर बन गए, जो पेंसिल्वेनिया में उनकी तेजी से बढती महत्ता का संकेत था। [10][11] उसी साल उन्होंने अमेरिका में पहली मसोनिक किताब संपादित और प्रकाशित की, जो जेम्स एंडरसन की कंस्टीट्यूशन ऑफ फ्री-मेसन का पुनर्मुद्रण थी। फ्रेंकलिन, अपने बाकी जीवन एक फ्रीमेसन रहे [12][13] समान-कानून विवाह और डेबोरा रीड डेबोरा रीड फ्रैंकलिन लगभग 1759 17 साल की उम्र में, रीड होम में फ्रेंकलिन जब एक आवासी थे तो उन्होंने 15 वर्षीय डेबोरा रीड को अपना प्रेम प्रस्ताव दिया उस समय, मां, अपनी युवा बेटी को फ्रैंकलिन के साथ शादी करने की अनुमति देने के बारे में सशंकित थी क्योंकि फ्रैंकलिन, गवर्नर सर विलियम कीथ के अनुरोध पर लंदन रवाना हो रहे थे और उनकी वित्तीय स्थिति अस्थिर थी। हाल ही में उनके अपने पति की मृत्यु हुई थी और श्रीमती रीड ने अपनी बेटी से विवाह करने के फ्रैंकलिन के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया [9] जब फ्रेंकलिन लंदन में थे, उनकी यात्रा लम्बी खिंच गई और सर विलियम के समर्थन करने के वादों से संबंधित समस्याएं उत्पन्न हो गई। इस देरी से उत्पन्न परिस्थितियों के कारण शायद, डेबोरा ने जॉन रोजर्स नामक व्यक्ति से शादी कर ली यह एक दुखद निर्णय साबित हुआ। रोजर्स, अपने ऋण और अभियोजन पक्ष से बचने के लिए डेबोरा के सारे दहेज के साथ शीघ्र ही बारबाडोस भाग गया और उसे छोड दिया रोजर्स के भाग्य का पता नहीं चला और द्विविवाह कानूनों के कारण डेबोरा फिर से विवाह करने के लिए मुक्त नहीं थी। फ्रेंकलिन, ने 1 सितम्बर 1730 को डेबोरा रीड के साथ समान-कानून विवाह की स्थापना की और युवा विलियम को लेने के अलावा, उनके अपने दो बच्चे हुए अक्टूबर 1732 को जन्मा पहला, फ्रांसिस फोल्गर फ्रैंकलिन, 1736 में चेचक से मर गया। सारा फ्रैंकलिन, उपनाम सैली, 1743 में पैदा हुई उसने अंततः रिचर्ड बाख से शादी की, जिससे उसे सात बच्चे हुए और उसने बुढापे में अपने पिता की सेवा की। डेबोरा को समुद्र से भय था जिसका मतलब था कि वह फ्रेंकलिन के साथ, उनके काफी अनुरोध के बावजूद उनकी यूरोप की लम्बी यात्राओं में कभी साथ नहीं गई। हालांकि, फ्रैंकलिन ने डेबोरा से मिलने के लिए लंदन नहीं छोडा, तब भी नहीं जब नवम्बर 1769 में उसने लिखा कि उसकी बीमारी, लंबे समय तक उनकी अनुपस्थिति के कारण उपजी "असंतुष्ट हताशा" के कारण है । [14] जब बेंजामिन इंग्लैंड की लम्बी यात्रा पर थे, तो डेबोरा रीड फ्रेंकलिन, 1774 में एक दौरे से मर गई। नाजायज बेटा विलियम 1730 में, 24 साल की उम्र में, फ्रैंकलिन ने सार्वजनिक रूप से विलियम नाम के एक अवैध बेटे का होना स्वीकार किया, जो बाद में न्यू जर्सी का अंतिम लॉयलिस्ट गवर्नर बना हालांकि विलियम की मां की पहचान अज्ञात रही, शायद एक शिशु बच्चे की जिम्मेदारी ने फ्रेंकलिन को डेबोरा के साथ निवास लेने का एक कारण प्रदान किया। विलियम का पालन-पोषण फ्रेंकलिन के घर में हुआ, लेकिन बाद में ब्रिटिश सरकार द्वारा कालोनियों के साथ किये जा रहे व्यवहार को लेकर उसने अपने पिता के साथ सम्बन्ध तोड लिया। फ्रैंकलिन को, विलियम द्वारा राजा के प्रति अपनी वफादारी घोषित करने का फैसला कतई स्वीकार नहीं था। उनके बीच सुलह की कोई गुंजाइश तब समाप्त हो गई जब विलियम फ्रेंकलिन, द बोर्ड ऑफ एसोसिएटेड लॉयलिस्ट के नेता बन गए - एक अर्ध सैनिक संगठन, जिसका मुख्यालय ब्रिटिश अधिकृत न्यूयॉर्क शहर में था, जिसने अन्य बातों के अलावा, न्यू जर्सी, दक्षिणी कनेक्टिकट और न्यूयॉर्क शहर के उत्तर में काउंटियों में छापामार तबाही छेडी [15] 1782 में ब्रिटेन के साथ शांति की प्रारंभिक बातचीत में " फ्रेंकलिन ने जोर देकर कहा कि लॉयलिस्ट, जिन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका के खिलाफ हथियार उठाया उन्हें इस दलील से बाहर रखा जाएगा (कि उन्हें एक आम माफी दी जा सकती है) वे निस्संदेह विलियम फ्रैंकलिन के बारे में सोच रहे थे। "[16] विलियम ने ब्रिटिश सेना के साथ न्यूयॉर्क छोड दिया वह इंग्लैंड में बस गया और कभी नहीं लौटा। विलियम फ्रेंकलिन (1731-1813) सारा फ्रेंकलिन बाखे (1743-1808) एक लेखक के रूप में सफलता 1733 में, फ्रेंकलिन ने रिचर्ड सौन्डर्स के छद्म नाम के तहत प्रसिद्ध पुअर रिचर्ड्स ऑल्मनैक का प्रकाशन शुरू किया (जिसमें सामग्री मूल और उधार ली गई, दोनों प्रकार की थी), जिस पर उनकी लोकप्रिय प्रतिष्ठा काफी आधारित है । फ्रेंकलिन अक्सर छद्म नाम के तहत लिखते थे। हालांकि यह कोई रहस्य नहीं था कि फ्रैंकलिन ही लेखक थे, उनके रिचर्ड सौन्डर्स चरित्र ने बार-बार इसका खंडन किया। "पुअर रिचर्ड्स के नीतिवचन," इस पंचांग की उक्तियां, जैसे "अ पेन्नी सेव्ड इज टू पेंस डिअर" (जिसे अक्सर "अ पेन्नी सेव्ड इज अ पेन्नी अर्न्ड" के रूप में गलत उद्धृत किया जाता है), "फिश एंड विजिटर्स स्टिंक इन थ्री डेज" वर्तमान आधुनिक दुनिया में आम उद्धरण बने हुए हैं। लोक समाज में ज्ञान का अर्थ होता है किसी भी अवसर के लिए एक उपयुक्त कहावत प्रदान करने की क्षमता और फ्रैंकलिन के पाठक इसमें निपुण हो गए। वे प्रति वर्ष लगभग दस हजार प्रतियां बेचते थे (एक प्रचार संख्या, जो आज के लगभग तीस लाख के बराबर है)। [9] 1758 में, जिस वर्ष उन्होंने अल्मनैक के लिए लिखना बंद कर दिया, उन्होंने फादर अब्रैहम्स सरमन मुद्रित किया, जिसे द वे टू वेल्थ के रूप में भी जाना जाता है । फ्रेंकलिन की मृत्यु के बाद प्रकाशित उनकी आत्मकथा, इस शैली की कालजयी कृतियों में से एक बन गई। डेलाइट सेविंग टाइम (DST) को अक्सर गलती से फ्रैंकलिन द्वारा गुमनाम रूप से प्रकाशित एक 1784 के व्यंग्य को समर्पित किया जाता है । [17] आधुनिक DST को पहली बार 1895 में जॉर्ज वर्नन हडसन द्वारा प्रस्तावित किया गया था। [18] आविष्कार और वैज्ञानिक जांच ग्लास आर्मोनिका फ्रेंकलिन एक बहुत बडे आविष्कारक थे। उनकी कई रचनाओं में बिजली की छड, ग्लास आर्मोनिका (शीशे का एक उपकरण, जिसे धातु हारमोनिका नहीं समझा जाना चाहिए), फ्रैंकलिन स्टोव, बाइफोकल चश्मा और लचीला मूत्र कैथेटर थे। फ्रेंकलिन ने कभी अपने आविष्कारों का पेटेंट नहीं कराया; अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा, " जैसा कि हम दूसरों के आविष्कारों के लाभ से काफी आनंद लेते हैं, हमें अपने किसी भी आविष्कार से दूसरों की सेवा के अवसर से हर्षित होना चाहिए; और ऐसा हमें मुफ्त रूप से और उदारता के साथ करना चाहिए। [19] उनके आविष्कारों में सामाजिक नवाचार भी शामिल हैं, जैसे पेइंग फॉरवर्ड नवीन विकास करने में फ्रेंकलिन के आकर्षण को परोपकार के रूप में देखा जा सकता है; उन्होंने लिखा है कि उनके वैज्ञानिक कार्यों का उपयोग, कार्यक्षमता बढाने और मानव सुधार के लिए किया जाना चाहिए ऐसा ही एक सुधार था अपने प्रिंटिंग प्रेस के माध्यम से समाचार सेवाओं में तेजी लाने का प्रयास [20] उप डाकपाल के रूप में, फ्रैंकलिन उत्तर अटलांटिक महासागर संचलन पद्धति में रूचि रखने लगे 1768 में, पोस्टमास्टर जनरल के रूप में फ्रेंकलिन इंग्लैंड गए और वहां उन्होंने सीमा के औपनिवेशिक बोर्ड द्वारा एक जिज्ञासु शिकायत सुनी: एक औसत व्यापारी जहाज को न्यूपोर्ट, रोड आइलैंड पहुंचने में लगने वाले समय की तुलना में ब्रिटिश मेल जहाज को (जिन्हें पैकेट कहा जाता था) इंग्लैंड से न्यूयॉर्क पहुंचने में कुछ हफ्ते ज्यादा क्यों लगते हैं, इसके बावजूद कि व्यापारी जहाज लन्दन से छूट कर थेम्स के बाद इंग्लिश चैनल से होते हुए बाद में अटलांटिक पार करते हैं, जबकि पैकेट कॉर्नवॉल में फालमाउथ से सीधे सागर में पहुंचते हैं? उलझन में पडे फ्रैंकलिन ने अपने चचेरे भाई टिमोथी फोल्गर को, जो एक नानटाकेट व्हेलर कप्तान था और उस समय लंदन में था, रात के खाने पर आमंत्रित किया। फोल्गर ने उनसे कहा कि व्यापारी जहाज, नियमित रूप से गल्फ स्ट्रीम से परहेज करते हैं, जबकि मेल पैकेट के कप्तान सीधे उसमें घुस जाते हैं, तब भी जब अमेरिकी व्हेलर उन्हें बताते हैं कि वे एक तीन मील प्रति घंटे की धारा में जा रहे हैं। फ्रेंकलिन ने फोल्गर और अन्य अनुभवी जहाज कप्तानों के साथ काम किया और उन्होंने गल्फ स्ट्रीम का नक्शा बनाया और उसे जो नाम दिया वह आज भी प्रयोग हो रहा है । ब्रिटिश समुद्री कप्तानों को उस धारा को फ्रेंकलिन की सलाह के अनुसार पार करने में कई साल लग गए, लेकिन जब वे कर पाए, तो उन्होंने यात्रा समय में दो सप्ताह की बचत की [22][23] फ्रेंकलिन का गल्फ स्ट्रीम चार्ट 1770 में इंग्लैंड में प्रकाशित हुआ, जहां इसे पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया। बाद के संस्करण फ्रांस में 1778 में और अमेरिका में 1786 में छपे चार्ट के ब्रिटिश संस्करण को, जो मूल था, ऐसा नजरअंदाज किया गया कि हर कोई यह मानने लगा कि वह हमेशा के लिए खो गया, पर फिर फिल रिचर्डसन, वुड्स होल समुद्र विज्ञानी और गल्फ स्ट्रीम विशेषज्ञ ने उसे पेरिस में Bibliothèque Nationale में ढूंढ निकाला इसे न्यूयॉर्क टाइम्स में आवरण पृष्ट पर स्थान मिला 1743 में, फ्रैंकलिन ने वैज्ञानिक पुरुषों को अपनी खोजों और सिद्धांतों पर चर्चा करने में मदद करने के लिए, अमेरिकी दार्शनिक सोसायटी की स्थापना की अन्य वैज्ञानिक पडतालों के साथ, उन्होंने बिजली का अनुसंधान शुरू किया, जिसने उन्हें राजनीति और अर्थोपार्जन की अवधि के बीच बाकी जीवन में व्यस्त रखा [9] "वाटर-स्पॉट्स एंड व्हर्लविंड्स" पर फ्रेंकलिन के एक पेपर से चित्रण 1748 में, प्रिंटिंग से सेवानिवृत्त होते हुए वे अन्य व्यवसायों में चले गए। उन्होंने अपने फोरमैन, डेविड हॉल के साथ भागीदारी बनाई, जिसने फ्रैंकलिन को 18 साल तक दुकान का आधा लाभ प्रदान किया। इस लाभकारी व्यापार व्यवस्था ने अध्ययन के लिए खाली समय प्रदान किया और कुछ ही वर्षों में उन्होंने ऐसी खोजें की, जिसने उन्हें पूरे यूरोप में और विशेष रूप से फ्रांस में शिक्षितों के बीच प्रतिष्ठा दी। उनकी खोजों में उनका बिजली का अन्वेषण भी शामिल है । फ्रेंकलिन का प्रस्ताव था कि "विट्रीअस" और "रेसिनस" विद्युत् दो अलग प्रकार के विद्युत् द्रव नहीं हैं (जैसा की विद्युत् को उस समय कहा जाता था), बल्कि अलग-अलग दबावों में एक ही विद्युत् द्रव हैं। उन्हें क्रमशः धनात्मक और ऋणात्मक का नाम देने वाले वे प्रथम व्यक्ति थे,[24] और आवेश संरक्षण सिद्धांत की खोज करने वाले वे प्रथम व्यक्ति थे। [25] 1750 में उन्होंने यह साबित करने के लिए एक प्रयोग का प्रस्ताव प्रकाशित किया कि आकाशीय बिजली विद्युत् है, जिसके लिए उन्होंने एक पतंग को तूफान में उडाया, जो विद्युतीय तूफान बनने में सक्षम प्रतीत होता था। 10 मई 1752 को, फ्रांस के थॉमस-फ्रांकोइस डालीबर्ड ने फ्रेंकलिन के प्रयोग को पतंग के बजाय एक 40 फुट (12 मी)-लम्बे लोहे की छड का उपयोग करके किया और उन्होंने बादलों से विद्युतीय चिंगारियां निकालीं 15 जून को, फ्रैंकलिन ने संभवतः अपना प्रसिद्ध पतंग प्रयोग, फिलाडेल्फिया में किया होगा और एक बादल से सफलतापूर्वक विद्युतीय चिंगारी निकाली होगी, यद्यपि ऐसे सिद्धांत भी हैं जो सुझाते हैं कि उन्होंने यह प्रयोग कभी किया ही नहीं फ्रेंकलिन के प्रयोग को 1767 में जोसेफ प्रीस्टले की लिखी हिस्ट्री एंड प्रेसेंट स्टेटस ऑफ इलेक्ट्रीसिटी से पहले तक दर्ज नहीं किया गया था, सबूतों के अनुसार फ्रैंकलिन विलग थे (एक चालक पथ पर नहीं थे, अन्यथा बिजली कडकने पर उन्हें बिजली का झटका लगने का खतरा रहता) अन्य, जैसे सेंट पीटर्सबर्ग, रूस के जोर्ज विल्हेम रिचमन, फ्रेंकलिन के प्रयोग के कुछ महीने बाद, बिजली के झटके से मारे गए थे। अपने लेखन में, फ्रैंकलिन इंगित करते हैं कि उन्हें खतरे के बारे में पता था और उन्होंने कडकती बिजली के विद्युतीय होने का प्रदर्शन करने के लिए वैकल्पिक तरीकों को पेश किया, जैसा कि विद्युतीय जमीन की अवधारणा के उनके उपयोग में दिखा यदि फ्रेंकलिन ने इस प्रयोग को वाकई किया था, तो उन्होंने इसे उस तरीके से नहीं किया होगा जैसा कि अक्सर बताया गया है, पतंग को उडाना और बिजली के झटके का इंतजार करना, क्योंकि यह खतरनाक हो सकता था। [26] लोकप्रिय टीवी कार्यक्रम मिथबस्टर्स ने कथित "एक धागे के सिरे पर चाभी" वाले फ्रैंकलिन प्रयोग की नकल की और एक निश्चितता के साथ स्थापित किया कि अगर फ्रेंकलिन ने वास्तव में इस तरह से प्रयोग को किया होता तो वे निस्संदेह ही मारे जाते इसके बजाय, उन्होंने पतंग का इस्तेमाल एक तूफानी बादल से विद्युत् आवेश इकठ्ठा करने के लिए किया, जिसका मतलब था कि कडकती बिजली, विद्युतीय थी। 19 अक्टूबर को, इंग्लैंड को लिखे एक पत्र में, प्रयोग को दोहराने के लिए निर्देशों के विवरण में फ्रेंकलिन ने लिखा: फ्रेंकलिन के विद्युत् प्रयोग ने बिजली की छड के उनके आविष्कार को फलित किया। उन्होंने गौर किया कि एक चिकने बिंदु कि बजाय धारदार वाले चालक खामोशी से निरावेशित करने में सक्षम थे और अपेक्षाकृत अधिक दूरी से उनका अंदाजा था कि इस ज्ञान का उपयोग बिजली से इमारतों की रक्षा करने में किया जा सकता है, जिसके तहत "लोहे की एक सीधी छड, जिसे एक सुई की तरह नुकीला और जंग खाने से रोकने के लिए गिल्ट किया गया है और उन छडों के निचले छोर से एक तार भवन के बाहर जमीन के अन्दर जाता है; क्या ये नुकीली छडें एक बादल से चुपचाप निकलने वाली विद्युतीय आग को इमारत के नजदीक आने से पहले ही खींच लें और इस तरह हमें उस सबसे अचानक और भयानक क्षति से सुरक्षित कर दें फ्रेंकलिन के अपने ही घर पर प्रयोगों की एक श्रृंखला के बाद, बिजली की छडों को 1752 में अकैडमी ऑफ फिलाडेल्फिया पर (बाद में पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय) और पेन्सिलवेनिया स्टेट हाउस (बाद में इंडीपेनडेंस हॉल) पर लगाया गया। [28] विद्युत् से संबंधित अपने कार्यों के लिए, फ्रेंकलिन ने 1753 में रॉयल सोसाइटी का कोपले पदक प्राप्त किया और 1756 में वे अठारहवीं सदी के उन कुछ चुनिन्दा अमेरिकियों में से एक बने, जिन्हें सोसाइटी के फेलो के रूप में चुना गया। विद्युत् चार्ज की cgs इकाई को उनके नाम पर रखा गया है: एक फ्रेंकलिन (Fr) एक स्टैटकोलम के बराबर है । फ्रेंकलिन को, अपने समकालीन लिओनार्ड यूलर के साथ, एकमात्र प्रमुख वैज्ञानिक जिसने क्रिस्टीआन ह्युजेंस के वेव थिओरी ऑफ लाईट का समर्थन किया, मूल रूप से शेष वैज्ञानिक समुदाय द्वारा उपेक्षित किया गया। 18वीं सदी के न्यूटन के कोर्पस्कुलर सिद्धांत को सच माना गया; यंग के प्रसिद्ध स्लिट प्रयोग के बाद ही, अधिकांश वैज्ञानिक, ह्युजेंस के सिद्धांत पर विश्वास करने के लिए तैयार हुए। [29] 21 अक्टूबर 1743 को, लोकप्रिय मिथक के अनुसार, दक्षिण पश्चिम से चलते हुए एक तूफान ने फ्रेंकलिन को एक चंद्रग्रहण के साक्षी बनने के अवसर से च्युत कर दिया माना जाता है कि फ्रेंकलिन ने गौर किया कि मौजूदा हवा वास्तव में पूर्वोत्तर से चल रही थी, जो उनके अंदाजे के विपरीत था। अपने भाई के साथ पत्राचार में फ्रेंकलिन ने जाना कि वही तूफान, ग्रहण के बाद तक बॉस्टन नहीं पहुंचा था, इस तथ्य के बावजूद कि बॉस्टन, फिलाडेल्फिया के पूर्वोत्तर में है । उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि तूफान, हमेशा मौजूदा हवा की दिशा में यात्रा नहीं करते, एक अवधारणा जिसने मौसम विज्ञान पर काफी प्रभाव डाला। [30] फ्रेंकलिन ने प्रशीतन के एक सिद्धांत को तब जाना, जब उन्होंने एक अत्यंत गर्म दिन में, बहती हवा में एक सूखी कमीज की तुलना में एक गीली कमीज पहन कर ज्यादा ठंडक महसूस की इस घटना को अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए, फ्रेंकलिन ने प्रयोग किया। 1758 में, कैम्ब्रिज, इंग्लैंड, में फ्रैंकलिन और साथी वैज्ञानिक जॉन हैडली ने एक गर्म दिन में एक पारा थर्मामीटर की गेंद को लगातार ईथर से गीला किया और धौंकनी के उपयोग से ईथर को वाष्पीकृत किया। प्रत्येक वाष्पीकरण के साथ, थर्मामीटर ने कम तापमान पढा और अंततः 7 तक पहुंचा। एक अन्य थर्मामीटर ने कमरे के तापमान को 65 पर स्थिर दिखाया अपने पत्र "कूलिंग बाई इवापोरेशन" में, फ्रेंकलिन ने कहा कि "गर्मी के मौसम के एक गर्म दिन, आदमी ठण्ड से ठिठुरकर मर सकता है । " माइकल फैराडे के अनुसार बर्फ की गैर-चालकता पर फ्रेंकलिन के प्रयोग का उल्लेखनीय है, यद्यपि इलेक्ट्रोलाइट्स पर द्रवीकरण के सामान्य प्रभाव के नियम का श्रेय, फ्रेंकलिन को नहीं दिया जाता [31] हालांकि, पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के प्रो॰ ए डी बाख द्वारा 1836 में प्रकाशित किया गया, गैर-चालकों, जैसे कांच, की चालकता पर ताप के प्रभाव के नियम का श्रेय फ्रैंकलिन को दिया जा सकता है । फ्रेंकलिन लिखते हैं, " ताप की एक निश्चित मात्रा, कुछ वस्तुओं को अच्छा चालक बना देगी, जो अन्यथा चालक नहीं बनाते " और फिर," और पानी, जो हालांकि स्वाभाविक रूप से एक अच्छा चालक है, बर्फ के रूप में जमने पर चालक का कार्य नहीं करेगा "[32] उम्रदराज फ्रेंकलिन ने समुद्र विज्ञान की अपनी सभी खोजों को मैरीटाइम ऑब्सर्वेशन में संकलित किया जिसे 1786 में फिलोसोफिकल सोसायटी के ट्रांजेक्शन द्वारा प्रकाशित किया गया। [33] इसमें समुद्री लंगर, कटमरैन हुल, जल-निरोधी डिब्बे, जहाज की बिजली छड और एक सूप कटोरा जिसे तूफानी मौसम में भी स्थिर रहने के लिए डिजाइन किया गया था। संगीत में प्रयास फ्रेंकलिन को वायलिन, वीणा और गिटार बजाने के लिए जाना जाता है । उन्होंने संगीत रचना भी की, विशेष रूप से प्रारंभिक शास्त्रीय शैली में एक स्ट्रिंग क्वार्टेट और एक ग्लास हारमोनिका के एक ज्यादा बेहतर संस्करण का आविष्कार किया, जिसमें प्रत्येक ग्लास को अपने आप में घूमने के लिए डिजाइन किया गया था और वादक की उंगलियां इसमें स्थिर बनी रहती हैं, बजाय इसके विपरीत तरीके के; इस संस्करण ने जल्द ही यूरोप में अपनी जगह बना ली [34] शतरंज फ्रेंकलिन एक शौकीन शतरंज खिलाडी थे। वे करीब 1733 से शतरंज खेल रहे थे, जिसने उन्हें अमेरिकी उपनिवेशों में अपने नाम से पहचाना जाने वाला प्रथम शतरंज खिलाडी बना दिया [35] कोलंबियन पत्रिका में दिसम्बर 1786 में उनका निबंध "मॉरल्स ऑफ चेस", अमेरिका में शतरंज पर लिखा गया दूसरा ज्ञात लेख है । [35] शतरंज की प्रशंसा और इसके लिए व्यवहार का एक कोड निर्धारित करने पर लिखा गया यह निबंध, व्यापक रूप से पुनर्मुद्रित और अनूदित किया गया है । [36][37][38][39] उन्होंने और उनके एक दोस्त ने, इतालवी भाषा, जिसका दोनों अध्ययन कर रहे थे, सीखने के एक साधन के रूप में भी शतरंज का इस्तेमाल किया; उनके बीच खेल के विजेता को एक काम सौपने का अधिकार मिलता था, जैसे इतालवी व्याकरण के हिस्से को कंठस्थ करना, जिसे अगली बैठक से पहले हारने वाले को करना होता था। [40] फ्रेंकलिन को मरणोपरांत, 1999 में अमेरिकी शतरंज के हॉल ऑफ फेम में शामिल किया गया। [35] सार्वजनिक जीवन पेंसिल्वेनिया अस्पताल, विलियम स्ट्रीकलैंड द्वारा, 1755 मूल टुन टैवर्न का स्केच ज्वाइन और डाई: फ्रेंकलिन के इस राजनीतिक कार्टून ने फ्रेंच और इंडियन युद्ध (सात साल का युद्ध) के दौरान कालोनियों से एकजुट होने का आग्रह किया। बेंजामिन विल्सन द्वारा बेंजामिन फ्रैंकलिन, 1759 बेंजामिन फ्रैंकलिन, अमेरिका के पहले डाक टिकट पर, 1847 1736 में, फ्रैंकलिन ने अमेरिका की प्रथम स्वयंसेवक अग्निशमन कंपनियों में से एक, यूनियन फायर कंपनी का गठन किया। उसी वर्ष, उन्होंने न्यू जर्सी के लिए जाली-विरोधी नवीन तकनीक पर आधारित एक नई मुद्रा को छापा अपने पूरे कॅरियर के दौरान, फ्रैंकलिन ने कागजी मुद्रा की वकालत की और 1729 में ए मोडेस्ट इन्क्वायरी इन्टू द नेचर एंड नेसेसिटी ऑफ ए पेपर करेन्सी और अपने प्रिंटर से छपी मुद्रा का प्रकाशन किया। मध्य कॉलोनियों में वे ज्यादा नियंत्रित और इस तरह सफल मौद्रिक प्रयोग करने में प्रभावशाली रहे, जिसने अत्यधिक मुद्रास्फीति के बिना अपस्फीति को रोक दिया 1766 में, कागजी मुद्रा के लिए उन्होंने ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स के लिए एक मुद्दा बनाया [41] परिपक्व होने के साथ-साथ, फ्रेंकलिन ने खुद को सार्वजनिक मामलों के साथ और अधिक जोडना शुरू किया। 1743 में, उन्होंने द अकैडमी एंड कॉलेज ऑफ फिलाडेल्फिया के लिए एक योजना तैयार की उन्हें 13 नवम्बर 1749 में अकादमी का अध्यक्ष नियुक्त किया गया और यह 13 अगस्त 1751 को खुला 17 मई 1757 को अपनी पहली शुरूआत में, सात पुरुषों ने स्नातक किया; छः कला स्नातक बने और एक कला निष्णात इसे बाद में स्टेट ऑफ पेन्सिलवेनिया के विश्वविद्यालय के साथ विलय करते हुए पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय का निर्माण किया गया। फ्रेंकलिन, फिलाडेल्फिया की राजनीति में शामिल हो गए और उन्होंने तेजी से प्रगति की अक्टूबर 1748 में उन्हें एक काउंसिलमैन के रूप में चुना गया, जून 1749 में, वे फिलाडेल्फिया के लिए शांति के न्यायाधीश बने और 1751 में, उन्हें पेंसिल्वेनिया विधानसभा के लिए चुना गया। 10 अगस्त 1753 को, फ्रैंकलिन को उत्तर अमेरिका का संयुक्त उप डाकपाल-जनरल नियुक्त किया गया। घरेलू राजनीति में उनका सबसे उल्लेखनीय योगदान डाक व्यवस्था का सुधार था, लेकिन एक राजनेता के रूप में उनकी ख्याति मुख्य रूप से ग्रेट ब्रिटेन और फिर फ्रांस के साथ कालोनियों के संबंधों के संबंध में उनकी राजनयिक सेवाओं पर आधारित है । [9] 1751 में, फ्रैंकलिन और डॉ॰ थॉमस बॉण्ड ने एक अस्पताल की स्थापना के लिए पेंसिल्वेनिया विधायिका से एक चार्टर प्राप्त किया। पेंसिल्वेनिया अस्पताल, वजूद में आने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका का पहला अस्पताल था। 1753 में, हार्वर्ड और येल, दोनों ने उन्हें मानद डिग्री से सम्मानित किया। [42] 1754 में, उन्होंने अल्बानी कांग्रेस में पेनसिल्वेनिया के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया। भारतीयों के साथ संबंधों में सुधार और फ्रांस के खिलाफ सुरक्षा के लिए, विभिन्न कॉलोनियों की इस बैठक के लिए इंग्लैंड के बोर्ड ऑफ ट्रेड ने अनुरोध किया था। फ्रेंकलिन ने कॉलोनियों के लिए एक व्यापक प्लान ऑफ यूनियन का प्रस्ताव रखा जबकि योजना को नहीं अपनाया गया, इसके तत्वों को परिसंघ अनुच्छेद और संविधान में समाहित किया गया। 1756 में, फ्रैंकलिन ने पेंसिल्वेनिया मिलिशिया को संगठित किया (कॉनटिनेंटल सेना में पेंसिल्वेनिया की 103वीं आर्टिलरी और 111वीं इन्फैन्ट्री रेजिमेंट के शीर्षक के अंतर्गत "फिलाडेल्फिया के संबद्ध रेजिमेंट" देखें) सैनिकों के एक रेजीमेंट की भर्ती के लिए उन्होंने तुन टैवर्न को इकट्ठा होने की एक जगह के रूप में इस्तेमाल किया, ताकि देशी अमेरिकियों की बगावत के खिलाफ, जिसने अमेरिकी उपनिवेशों की नाक में दम कर रखा था, लडाई कर सके कथित तौर पर, फ्रैंकलिन को एसोसिएटेड रेजिमेंट का "कर्नल" चुना गया लेकिन उन्होंने इस सम्मान को अस्वीकार कर दिया इसके अलावा 1756 में, फ्रैंकलिन, सोसायटी फॉर द इनकरेजमेंट ऑफ आर्ट्स के सदस्य बन गए, विनिर्माण और वाणिज्य (अब रॉयल सोसायटी ऑफ आर्ट्स या RSA, जिसे 1754 में स्थापित किया गया था), जिसकी प्रारंभिक बैठकें लंदन के कवेंट गार्डन जिले में कॉफी शॉप्स में होती थीं, क्रैवेन स्ट्रीट पर फ्रैंकलिन के मुख्य निवास के नजदीक (उनका बचा हुआ एकमात्र घर जिसे 17 जनवरी 2006 को बेंजामिन फ्रैंकलिन हाउस संग्रहालय के रूप में जनता के लिए खोला गया। ) अमेरिका लौटने के बाद, फ्रैंकलिन, सोसायटी के संवादी सदस्य बने रहे और सोसायटी के साथ करीबी रूप से जुडे रहे RSA ने फ्रैंकलिन के जन्म की 250वीं वर्षगांठ और RSA की उनकी सदस्यता की 200वीं वर्षगांठ मनाने के उपलक्ष्य पर, 1956 में बेंजामिन फ्रैंकलिन पदक की स्थापना की 1757 में, उन्हें एक औपनिवेशिक एजेंट के रूप में पेंसिल्वेनिया विधानसभा द्वारा, कॉलोनी के मालिक पेन परिवार के राजनीतिक प्रभाव के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने के लिए इंग्लैंड भेजा गया। वे वहां पांच साल तक रहे और प्रोप्राइटर के निर्वाचित विधानसभा के कानून को बदलने और अपनी जमीन पर कर के भुगतान से उनकी छूट के विशेषाधिकार का अंत करने का प्रयास करते रहे उनके पास व्हाइटहॉल में प्रभावशाली सहयोगियों की कमी के कारण उनका यह अभियान विफल रहा लंदन में रहने के दौरान, फ्रैंकलिन कट्टरपंथी राजनीति में शामिल हो गए। वे क्लब ऑफ ऑनेस्ट व्हिग्स के सदस्य थे, जहां उनके साथ थे रिचर्ड प्राइस जैसे विचारक, जो न्यूइंगटन ग्रीन युनिटेरियन चर्च के मंत्री थे और जिन्होंने क्रांति विवाद को प्रज्वलित किया। क्रैवेन स्ट्रीट में 1757 और 1775 के बीच अपने प्रवास के दौरान, फ्रैंकलिन ने अपनी मकान मालकिन, मार्गरेट स्टीवेन्सन और उनकी मित्रों और सम्बन्धियों के समूह के साथ एक घनिष्ठ सम्बन्ध विकसित कर लिया, विशेष रूप से उनकी बेटी मैरी के साथ, जिसे पोली के रूप में ज्यादा अच्छी तरह से जाना जाता था। 1759 में, वे अपने बेटे के साथ एडिनबर्ग गए और वहां अपनी बातचीत को "मेरे जीवन की सघनतम खुशी" के रूप में याद किया। [43] फरवरी 1759 में, सेंट एंड्रयूज विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टर ऑफ लॉज की मानद डिग्री से सम्मानित किया और उसी वर्ष अक्टूबर में उन्हें सेंट एंड्रयूज का फ्रीडम ऑफ द बरो प्रदान किया गया। [44] 1761 विलियम पोन्सनबाई, द्वितीय अर्ल ऑफ बेसबरो और रॉबर्ट हेम्पडेन-ट्रेवर, प्रथम विस्कोंट हेम्पडेन ब्रिटेन के संयुक्त पोस्टमास्टर जनरल, के ज्ञापन द्वारा 12 अगस्त 1761 की तारीख वाले आयोग ने बेंजामिन फ्रैंकलिन और विलियम हंटर को उत्तर अमेरिका का उप पोस्टमास्टर जनरल पुनर्नियुक्त किया जाता है । [45] 1762 में, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने फ्रेंकलिन को उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियों के लिए डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया और उसके बाद से वे, "डॉक्टर फ्रेंकलिन" कहलाने लगे उन्होंने अपने नाजायज बेटे, विलियम फ्रैंकलिन के लिए न्यू जर्सी के औपनिवेशिक गवर्नर के रूप में एक पद प्राप्त किया। [9] वे बर्मिंघम आधारित प्रभावशाली लूनर सोसायटी में भी शामिल हुए, जिसके साथ उन्होंने नियमित रूप से संवाद बनाए रखा और कभी-कभी, वेस्ट मिडलैंड्स में बर्मिंघम में दौरा भी किया। क्रांति का आगाज 1763 में, फ्रेंकलिन के पेंसिल्वेनिया से लौटने के तत्काल बाद, पश्चिमी सीमा एक तीव्र युद्ध में फंसी थी, जिसे पोंटिएक विद्रोह के रूप में जाना जाता है । पैक्सटन बॉयज, बसे हुए लोगों का एक समूह जिसे विश्वास था कि पेंसिल्वेनिया सरकार अमेरिकी इंडियन छापे से उनकी सुरक्षा के लिए कुछ पर्याप्त नहीं कर रही है, उन्होंने सुसक्वेहानोक के इंडियन के एक शांतिपूर्ण समूह की हत्या कर दी और फिर फिलाडेल्फिया पर चढाई की फ्रेंकलिन ने स्थानीय मिलिशिया को संगठित करने में मदद की ताकि भीड के खिलाफ राजधानी की रक्षा की जा सके और फिर पैक्सटन नेताओं के साथ मुलाकात की और उन्हें बिखर जाने के लिए राजी किया। फ्रेंकलिन ने पैक्सटन बॉयज के नस्लीय पूर्वाग्रह के खिलाफ लेखन के द्वारा जोरदार हमला बोला "अगर एक इंडियन मुझे घायल करता है," उन्होंने कहा, "तो क्या उस चोट के बदले बाद में मैं सभी इंडियन पर हमला करूं?"[46] इस समय तक, पेंसिल्वेनिया विधानसभा के कई सदस्य, विलियम पेन के वारिसों से झगड रहे थे, जिन्होंने मालिक के रूप में कॉलोनी पर नियंत्रण बनाये रखा था। फ्रेंकलिन ने पेन परिवार के खिलाफ संघर्ष में "स्वामित्व-विरोधी पार्टी" का नेतृत्व किया और मई 1764 में उन्हें पेनसिल्वेनिया सभा का अध्यक्ष चुना गया। स्वामित्व से शाही सरकार में परिवर्तन एक दुर्लभ राजनीतिक गलत अनुमान बना, लेकिन: पेनसिल्वेनिया के लोगों को चिंता थी कि इस तरह का कोई कदम उनके राजनैतिक और धार्मिक स्वतंत्रता को खतरे में डाल सकता है । इन आशंकाओं की वजह से और उनके राजनीतिक चरित्र पर हमलों के कारण, फ्रैंकलिन अक्टूबर 1764 में विधानसभा चुनाव में अपना पद हार गए। स्वामित्व-विरोधी पार्टी ने फ्रेंकलिन को पेन परिवार के स्वामित्व के खिलाफ संघर्ष जारी रखने के लिए इंग्लैंड भेजा, लेकिन इस यात्रा के दौरान, घटनाओं ने तेजी से उनके मिशन के स्वरूप को बदला [47] लंदन में, फ्रैंकलिन ने 1765 स्टाम्प अधिनियम का विरोध किया, लेकिन जब वे उसके पारित होने को रोकने में असमर्थ रहे, तो उन्होंने एक अन्य राजनीतिक गलती की और पेन्सिलवेनिया के लिए टिकट वितरक के पद के लिए अपने एक दोस्त की सिफारिश की पेन्सिलवेनिया के लोगों को गुस्सा आ गया, उनको यह विश्वास हो रहा था कि उन्होंने उस विधेयक का समर्थन किया है और उन लोगों ने फिलाडेल्फिया में उनके घर को नष्ट करने की धमकी दी फ्रेंकलिन ने जल्दी ही स्टाम्प अधिनियम के औपनिवेशिक प्रतिरोध की हद को समझा और हाउस ऑफ कॉमन्स के समक्ष उनकी गवाही, इसके निरस्त करने का कारण बनी इस के साथ ही, फ्रैंकलिन अचानक इंग्लैंड में अमेरिकी हितों के लिए अग्रणी प्रवक्ता के रूप में उभरे कॉलोनियों की ओर से उन्होंने लोकप्रिय निबंध लिखे और, जॉर्जिया, न्यू जर्सी और मैसाचुसेट्स ने भी उन्हें राजगद्दी के अपने एजेंट के रूप में नियुक्त किया। [47] 1783 में फ्रैंकलिन, जोसेफ डुप्लेसिस द्वारा एक चित्रकला से एक उत्कीर्णन सितम्बर 1767 में, फ्रैंकलिन ने, अपने हमेशा के यात्रा के साथी, सर जॉन प्रिंगल के साथ पेरिस का दौरा किया। उनकी बिजली की खोजों की खबरें फ्रांस में व्यापक रूप से फैली थी। उनकी प्रतिष्ठा से यह जाहिर था की उनकी मुलाकात कई प्रभावशाली वैज्ञानिकों और नेताओं से हुई और उनकी मुलाकात किंग लुई XV से भी कराई गई[48] लन्दन में 1768 में रहते हुए उन्होंने अ स्कीम फॉर अ न्यू अल्फाबेट एंड अ रिफॉर्म्ड मोड ऑफ स्पेलिंग में एक ध्वन्यात्मक वर्णमाला को विकसित किया। उनकी सुधार की हुई वर्णमाला में उन्होंने ऐसे छह वर्णों को खारिज कर दिया जो उनके अनुसार अनावश्यक थे (c, j, q, w, x और y) और ऐसी ध्वनियों के लिए छः नए वर्णों को प्रतिस्थापित किया जिनका अभाव उन्हें महसूस हुआ। लेकिन उनकी नई वर्णमाला, अपनी पकड नहीं बना पाई और अंततः उन्होंने इस पर दिलचस्पी खो दी [49] 1771 में, फ्रैंकलिन ने इंग्लैंड के विभिन्न भागों से होते हुए लघु यात्राएं की, जिसके दौरान वे लीड्स में जोसेफ प्रिस्टले के साथ, मैनचेस्टर में थॉमस पर्सिवल के साथ और लिचफील्ड में डॉ॰ डारविन के साथ रहे [50] फ्रेंकलिन एक सज्जन क्लब के थे (फ्रेंकलिन द्वारा "ऑनेस्ट व्हिग्स" नाम दिया गया) जो घोषित बैठकें आयोजित करता था और इसमें रिचर्ड प्राइस और एंड्रयू किपिस जैसे सदस्य शामिल थे। वे बर्मिंघम के लूनर सोसायटी के भी संवादी सदस्य थे, जिसके अन्य वैज्ञानिक और औद्योगिक दिग्गज सदस्यों में शामिल थे मैथ्यू बोल्टन, जेम्स वाट, जोसिया वेजवुड और इरास्मस डारविन वे इससे पहले कभी आयरलैंड नहीं गए थे जहां उन्होंने लॉर्ड हिल्सबरो से मुलाकात की और उनके साथ रहे, जो उनके अनुसार विशेष ध्यान देने वाले व्यक्ति थे, लेकिन जिनके बारे में उन्होंने उल्लेख किया है कि सत्य प्रतीत होने वाले सभी व्यवहार, जिसका मैंने वर्णन किया है, उसका मतलब सिर्फ, घोडे को थपथपाकर, उसे और अधिक धैर्यवान बनाना है, जबकि लगाम कसी हुई है और उसके दोनों ओर एड गहरे व्यवस्थित है [51] डबलिन में, फ्रेंकलिन को गैलरी के बजाय आयरिश संसद के सदस्यों के साथ बैठने के लिए आमंत्रित किया गया। वे पहले अमेरिकी थे जिन्हें यह सम्मान दिया गया। [50] आयरलैंड के दौरे के दौरान, वे गरीबी के स्तर को देख कर विह्वल हो गए। आयरलैंड की अर्थव्यवस्था ब्रिटेन के उन्हीं व्यापार नियमों और कानूनों द्वारा प्रभावित थी जिससे अमेरिका नियंत्रित था। फ्रेंकलिन को डर था कि यदि ब्रिटेन का "औपनिवेशिक शोषण" जारी रहा तो अमेरिका को भी वही परिणाम भुगतना पड सकता है । [52] स्कॉटलैंड में, स्टर्लिंग के पास उन्होंने लॉर्ड केम्स के साथ पांच दिन बिताए और डेविड ह्यूम के साथ एडिनबर्ग में तीन सप्ताह तक रहे 1773 में, फ्रैंकलिन ने अपने दो सबसे प्रसिद्ध, अमेरिकी समर्थक व्यंग्य निबंध प्रकाशित किये: रूल्स बाई व्हिच अ ग्रेट इम्पायर मे बी रिड्यूस्ड टु अ स्मॉल वन और ऍन एडिक्ट बाई किंग ऑफ प्रुशिया [53] उन्होंने फ्रांसिस डैशवुड के साथ गुमनाम रूप से एब्रिजमेंट ऑफ द बुक ऑफ कॉमन प्रेयर का भी प्रकाशन किया। इस कृति की असामान्य विशेषताओं में से एक है अंतिम संस्कार, जिसे "जीवित लोगों के स्वास्थ्य और जीवन की रक्षा के लिए" कम करके सिर्फ छः मिनट लम्बा रखा गया। [48] हचिन्सन पत्र फ्रेंकलिन ने मैसाचुसेट्स के गवर्नर थॉमस हचिन्सन और लेफ्टिनेंट गवर्नर एंड्रयू ऑलिवर के निजी पत्र प्राप्त किये जिसने यह साबित कर दिया कि वे लोग बॉस्टन के अधिकारों पर चोट करने के लिए लंदन को प्रोत्साहित कर रहे थे। फ्रेंकलिन ने उन्हें अमेरिका भेजा, जहां उससे और तनाव बढ गया। ब्रिटेन के लिए फ्रेंकलिन अब गंभीर संकट भडकाने वाले प्रतीत होने लगे एक शांतिपूर्ण समाधान के लिए उम्मीदें खत्म हो गई क्योंकि प्रिवी काउंसिल द्वारा उनका व्यवस्थित उपहास उडाया गया और अपमानित किया गया। उन्होंने मार्च, 1775 को लंदन छोड दिया [48] आजादी की घोषणा कांग्रेस को अपना कार्य प्रस्तुत करते कमिटी ऑफ फाइव को जॉन ट्रमबुल ने दर्शाया [54] 5 मई 1775 को फ्रेंकलिन के फिलाडेल्फिया पहुंचने तक, लेक्सिंगटन और कोनकोर्ड में लडाई छिडने के साथ अमेरिकी क्रांति शुरू हो चुकी थी। न्यू इंग्लैंड मिलिशिया ने बॉस्टन में मुख्य ब्रिटिश सेना को घेर लिया था। पेंसिल्वेनिया असेम्बली ने फ्रैंकलिन को सर्वसम्मति से द्वितीय कॉन्टिनेंटल कांग्रेस का अपना प्रतिनिधि चुना जून 1776 में, आजादी के घोषणा पत्र का मसौदा तैयार करने वाली कमिटी ऑफ फाइव का सदस्य नियुक्त किया गया। हालांकि, गाउट ने उन्हें अस्थायी रूप से अक्षम कर दिया था और वे समिति की अधिकांश बैठकों में भाग लेने में असमर्थ रहे, फ्रेंकलिन ने मसौदे में कई छोटे-मोटे परिवर्तन किए जिसे थॉमस जेफरसन ने उनके पास भेजा [48] हस्ताक्षर किए जाने पर, हैनकॉक की एक टिप्पणी का जवाब देते हुए उन्हें यह कहते हुए उद्धृत किया जाता है कि उन सभी को एक साथ सूली पर चढा देना चाहिए: "हां, हम सभी को वास्तव में, एक साथ फांसी पर चढना चाहिए या अधिक विश्वासपूर्वक हम सभी को अलग-अलग फांसी पर चढना चाहिए "[55] फ्रांस में राजदूत: 1776-1785 फ्रेंकलिन ने, अपने फर की टोपी में, फ्रांसीसियों को नए गंवई दुनिया की प्रतिभा लगने वाले के रूप में मोह लिया। [56] दिसम्बर 1776 में, फ्रैंकलिन को संयुक्त राज्य अमेरिका के कमिश्नर के रूप में फ्रांस भेजा गया। वे पासी के पारिसियन उपनगर में एक घर में रहे, जिसे संयुक्त राज्य अमेरिका के समर्थक Jacques-Donatien Le Ray de Chaumont ने दान किया था। फ्रेंकलिन, 1785 तक फ्रांस में रहे उन्होंने फ्रेंच राष्ट्र के प्रति अपने देश के मामलों का बडी सफलता के साथ आयोजन किया जिसमें शामिल है 1778 में एक महत्वपूर्ण सैन्य गठबंधन का निर्माण और 1783 में पेरिस संधि पर वार्ता फ्रांस में अपने प्रवास के दौरान, फ्रीमेसन के रूप में बेंजामिन फ्रैंकलिन 1779 से 1781 तक Les Neuf Sœurs लॉज के ग्रैंड मास्टर थे। लॉज में उनका नंबर 24 था। वे पेन्सिलवेनिया के पास्ट ग्रैंड मास्टर भी थे। 1784 में, जब फ्रांज मेस्मर ने अपने "पशु चुंबकत्व" के सिद्धांत को प्रचारित करना शुरू किया, जिसे कई लोगों द्वारा अपमानजनक माना गया, लुई XVI ने इसकी जांच के लिए एक आयोग को नियुक्त किया। इनमें शामिल थे रसायनज्ञ अंटोनी लवोसिअर, चिकित्सक जोसेफ इग्नासी गुलोटिन, खगोल विज्ञानी जीन सिल्वेन बैली और बेंजामिन फ्रैंकलिन पेरिस में फ्रेंकलिन ने, फ्रांस में स्वीडन के राजदूत काउंट गुस्ताफ फिलिप क्रयूत्ज से मुलाकात की इसलिए, ऐसा विश्वास है कि, स्वीडन वह पहला देश था (ग्रेट ब्रिटेन के बाद), जिसने युवा अमेरिकी गणतंत्र को मान्यता दी और क्रयूत्ज और फ्रैंकलिन ने दोनों देशों के बीच मित्रता और वाणिज्य की संधि का मसौदा तैयार किया। पेरिस में 27 अगस्त 1783 को फ्रेंकलिन, दुनिया के पहले हाइड्रोजन बैलून की उडान के साक्षी बने [57] प्रोफेसर जैक चार्ल्स और लेस फ्रेरेस रॉबर्ट द्वारा निर्मित ले ग्लोब को एक विशाल भीड ने चैम्प डे मार्स (आज के एफिल टॉवर की जगह) से प्रक्षेपित होते देखा [58] इससे, फ्रेंकलिन इतने उत्साहित हुए कि उन्होंने एक मानवयुक्त हाइड्रोजन गुब्बारे की अगली परियोजना के निर्माण के लिए आर्थिक रूप से सदस्यता ले ली [59] 1 दिसम्बर 1783 को, फ्रेंकलिन को सम्मानित अतिथियों के विशेष स्थान पर बिठाया गया, जब जार्डिन डेस तुलेरिस से La Charlière ने उडान भरी, जिसे जैक चार्ल्स और निकोलस-रॉबर्ट लुई द्वारा उडाया जा रहा था। [57][60] संवैधानिक सभा जीन-बैप्टिस्ट ग्रयूजे द्वारा फ्रेंकलिन का एक 1777 का चित्र अंतिम रूप से 1785 में घर लौटने के बाद, फ्रैंकलिन ने अमेरिकी स्वतंत्रता के एक विजेता के रूप में जॉर्ज वॉशिंगटन के बाद दूसरा स्थान ग्रहण किया। ले रे ने उनको, जोसेफ डुपलेसिस द्वारा चित्रित एक कमीशन चित्र से सम्मानित किया, जो अब वॉशिंगटन डी सी में स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूशन के नेशनल पोर्ट्रेट गैलरी में टंगी है । अपनी वापसी के बाद, फ्रैंकलिन दास-विरोधी बन गए और अपने दोनों दासों को मुक्त कर दिया वे अंततः पेंसिल्वेनिया अबॉलिशन सोसायटी के अध्यक्ष बन गए। [61] 1787 में, फ्रैंकलिन ने फिलाडेल्फिया कन्वेंशन के लिए एक प्रतिनिधि के रूप में कार्य किया। उन्होंने एक मानद पद ग्रहण किया और शायद ही कभी बहस में हिस्सा लिया। वे ही एकमात्र ऐसे संस्थापक जनक हैं जो संयुक्त राज्य अमेरिका की स्थापना के सभी चार प्रमुख दस्तावेजों: स्वतंत्रता की घोषणा, पेरिस की संधि, फ्रांस के साथ गठबंधन की संधि और अमेरिकी संविधान के हस्ताक्षरकर्ता हैं। 1787 में, लंकास्टर, पेंसिल्वेनिया में प्रमुख मंत्रियों के एक समूह ने, फ्रेंकलिन के सम्मान में उनके नाम पर आधारित एक नए कॉलेज की स्थापना का प्रस्ताव रखा फ्रेंकलिन ने फ्रेंकलिन कॉलेज के विकास की दिशा में का अनुदान दिया, जिसे अब फ्रैंकलिन और मार्शल कॉलेज कहा जाता है । 1771 और 1788 के बीच उन्होंने अपनी आत्मकथा को समाप्त कर दिया हालांकि यह पहले उनके बेटे को संबोधित थी, बाद में इसे, एक दोस्त के अनुरोध पर मानवता के लाभ के लिए पूरा किया गया। अपने बाद के वर्षों में, जब कांग्रेस को गुलामी के मुद्दे से निपटने के लिए मजबूर किया गया, फ्रैंकलिन ने अमेरिकी समाज में अश्वेतों के एकीकरण और गुलामी के उन्मूलन के महत्व को अपने पाठकों को समझाने के लिए कई निबंध लिखे इन लेखों में शामिल है: ऍन एड्रेस टु द पब्लिक (1789) अ प्लान फॉर इम्प्रूविंग द कंडीशन ऑफ द फ्री ब्लैक्स (1789) सिडी मेहेमेट इब्राहिम ओं द स्लेव ट्रेड (1790) 1790 में, न्यूयॉर्क और पेन्सिलवेनिया के क्वेकर्स ने दास प्रथा खत्म करने के लिए अपनी याचिका प्रस्तुत की गुलामी के खिलाफ उनके तर्क को पेंसिल्वेनिया दास-विरोधी सोसायटी और उसके अध्यक्ष, बेंजामिन फ्रेंकलिन का समर्थन प्राप्त हुआ। पेन्सिलवेनिया के राष्ट्रपति 18 अक्टूबर 1785 को कराये गए विशेष मतदान में, फ्रेंकलिन को सर्वसम्मति से सुप्रीम एक्सिक्यूटिव काउंसिल ऑफ पेंसिल्वेनिया का छठा राष्ट्रपति चुना गया, जिन्होंने जॉन डिकिन्सन को प्रतिस्थापित किया। पेन्सिलवेनिया के राष्ट्रपति का पद, आधुनिक गवर्नर के पद के समकक्ष था। यह स्पष्ट नहीं है कि नियमित चुनाव से दो सप्ताह पहले डिकिन्सन को प्रतिस्थापित करने की क्या जरूरत थी। फ्रेंकलिन उस पद पर, किसी अन्य से अधिक तीन साल से कुछ अधिक समय तक रहे और पद के पूर्ण तीन वर्ष की संवैधानिक सीमा को पूरा किया। अपने प्रारंभिक चुनाव के शीघ्र ही बाद, 29 अक्टूबर 1785 को उन्हें एक पूर्ण अवधि के लिए दुबारा चुना गया और एक बार फिर 1786 के शरद में और 31 अक्टूबर 1787 को आधिकारिक तौर पर, उनका कार्यकाल 5 नवम्बर 1788 को समाप्त हो गया, लेकिन उनके कार्यकाल के वास्तविक अंत के बारे में प्रश्नचिह्न लगा है, जिससे यह संकेत मिलता है कि वृद्ध फ्रैंकलिन, काउंसिल के दैनंदिन कार्यों में, अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में सक्रिय रूप से शामिल नहीं रहे होंगे नैतिकता, धर्म और व्यक्तिगत मान्यताएं जीन-अन्टने हुडोन द्वारा फ्रैंकलिन की एक अर्ध-प्रतिमा प्रजातंत्र राज्य के अन्य पैरोकारों की तरह, फ्रैंकलिन ने जोर दिया कि नया गणतंत्र तभी चल सकता है जब लोग नैतिक हों अपनी सारी जिंदगी उन्होंने नागरिक और व्यक्तिगत नैतिकता की भूमिका का पता लगाया, जैसा कि पुअर रिचर्ड्स की सूक्तियों में व्यक्त किया गया था। फ्रेंकलिन एक गैर-सिद्धांतवादी थे, जिनका मानना था कि अपने साथी मनुष्यों के साथ अच्छा बर्ताव बनाए रखने के लिए मनुष्य को संगठित धर्म की आवश्यकता है, लेकिन शायद ही कभी उन्होंने खुद चर्च में भाग लिया। अमेरिकी क्रांति के उनके समर्थन में, भगवान पर उनका विश्वास एक महत्वपूर्ण कारक था। [62] जब बेन फ्रेंकलिन पेरिस में वॉलटैर से मिले और इनलाइटेनमेन्ट के इस महान दूत से अपने पोते को आशीर्वाद देने का आग्रह किया तो वॉलटेर ने अंग्रेजी में कहा, "गॉड एंड लिबर्टी" (भगवान और स्वतंत्रता) और आगे जोडा, "महाशय फ्रेंकलिन के पोते के लिए यही उपयुक्त मंगल है । "[63] फ्रेंकलिन के माता-पिता, दोनों पवित्र प्यूरिटनवादी थे। [64] यह परिवार, प्राचीन साउथ चर्च जाता था, जो बॉस्टन की सबसे उदार प्यूरिटनवादी मण्डली थी, जहां बेंजामिन फ्रेंकलिन को 1706 में बपतिस्मा दिया गया था। [65] इस ऐतिहासिक मण्डली की क्रांतिकारी युद्ध पीढी में शामिल थे सैमुएल एडम्स; न्यायाधीश और रोजनामचा रखनेवाला सैमुएल सेवॉल; मंत्री और पुस्तक संग्राहक, थॉमस प्रिंस; पॉल रेवेर का 1775 का साथी सवार, विलियम डॉज प्राचीन साउथ चर्च ने ओल्ड साउथ मीटिंग हाउस पर सन्स ऑफ लिबर्टी के साहसिक कार्यों के माध्यम से क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई वहीं, 1773 में, सैमुएल एडम्स ने "युद्ध हूप्स" का संकेत दिया जिसने बॉस्टन टी पार्टी शुरू की जैसा कि कवि जॉन ग्रीनलीफ व्हिटिअर ने लिखा, "जब तक बॉस्टन, बॉस्टन रहेगा और उसकी खाडी की लहरें उठेंगी और गिरेंगी, ओल्ड साउथ चर्च में स्वतंत्रता रहे और सब के अधिकारों के लिए पैरवी करे "[66] फ्रेंकलिन की प्यूरिटनवादी माहौल में परवरिश, उनके जीवन में एक केंद्रीय तत्व बना रहा, एक परोपकारी, नागरिक नेता और क्रांतिकारी युद्ध में एक कार्यकर्ता के रूप में [67] फ्रेंकलिन ने अपनी अधिकांश प्यूरिटनवादी परवरिश को खारिज किया: मुक्ति में विश्वास, नरक, ईसा मसीह की दिव्यता और वास्तव में अधिकांश धार्मिक हठधर्मिता मनुष्य में नैतिकता और अच्छाई के स्रोत के रूप में और अमेरिकी स्वतंत्रता के लिए जिम्मेदार, इतिहास में एक दैवी अभिनेता के रूप में भगवान पर उन्होंने एक मजबूत विश्वास बनाए रखा [68] उन्होंने अमेरिकी क्रांति के समर्थक के रूप में अक्सर भगवान का आह्वान किया, जैसा कि अधिकांश संस्थापक पीढी ने किया। [69] फ्रेंकलिन ने लिखा, "अत्याचारियों के खिलाफ विद्रोह, भगवान की सेवा है । "[70] बेन फ्रेंकलिन के पिता, जो एक गरीब दुकानदार थे, उनके पास प्यूरिटनवादी उपदेशक और पारिवारिक मित्र कॉटन माथर द्वारा लिखित "बोनीफेसिअस: एसेज टु दू गुड," पुस्तक की एक प्रति थी, जिसे "फ्रैंकलिन ने अक्सर अपने जीवन पर एक प्रमुख प्रभाव के रूप में उद्धृत किया है" [71] सत्तर वर्षों बाद, फ्रैंकलिन ने कॉटन माथर के बेटे को लिखा, "यदि मैं एक उपयोगी नागरिक हूं, तो जनता इस लाभ के लिए उस किताब की ऋणी है । " फ्रेंकलिन का पहला उपनाम, साइलेंस डूगुड, किताब को और माथेर द्वारा एक प्रसिद्ध व्याख्यान को श्रद्धांजलि अर्पित करता है । [72] पुस्तक ने समाज के लाभ के लिए स्वैच्छिक संगठनों को बनाने के महत्व को सिखाया कॉटन माथेर ने व्यक्तिगत रूप से एक पडोस सुधार समूह की स्थापना की जिसके कि फ्रैंकलिन के पिता सदस्य थे। "फ्रैंकलिन ने परोपकार संगठनों के गठन के प्रति अपनी रूचि कॉटन माथेर और दूसरों से प्राप्त की, लेकिन उनके संगठनात्मक उत्साह और चुम्बकीय व्यक्तित्व ने उन्हें अमेरिकी जीवन के एक स्थायी अंग के रूप में इन तत्वों को रोपित करने में सबसे प्रभावशाली ताकत बना दिया "[73] वे बेन फ्रेंकलिन ही थे जिन्होंने संवैधानिक सभा में एक विकट गतिरोध के दौरान, 28 जून 1787 को, इन शब्दों के साथ आम दैनिक प्रार्थना के अभ्यास को सम्मेलन में शुरू किया: ग्रेट ब्रिटेन के साथ प्रतियोगिता की शुरूआत में, जब हमें खतरे का एहसास था तो हम दैव संरक्षण के लिए इस कमरे में दैनिक प्रार्थना किया करते थे। - हमारी प्रार्थना, श्रीमान, सुनी गई और उनका बडी कृपा के साथ उत्तर दिया गया। उन सभी लोगों ने जो उस संघर्ष में व्यस्त थे, हमारे पक्ष में एक ईश्वरीय संरक्षण के उदाहरण को अक्सर देखा होगा और अब क्या हम उस ताकतवर दोस्त को भूल गए हैं? या हम यह सोचते हैं कि अब हमें उनकी किसी सहायता की जरूरत नहीं है । श्रीमान, मैंने लंबा जीवन जिया है और जितना अधिक मैं जीता हूं, मुझे इस सच्चाई के अधिक ठोस सबूत देखने को मिलते हैं - कि मनुष्यों के मामलों में भगवान नियंत्रित करता है । और अगर एक गौरैया बिना उनकी जानकारी के भूमि पर नहीं गिर सकती, तो क्या यह संभव है कि उनकी सहायता के बिना एक साम्राज्य का उद्भव हो? पवित्र लेखों में हमें आश्वासन दिया गया है, श्रीमान, कि "भगवान अगर बनाना ना चाहे तो बाकी बनाने वाले व्यर्थ में श्रम करते हैं। " मुझे इस पर पूरा विश्वास है; और मैं यह भी मानता हूं कि बिना उनकी सहायता के, हम इस राजनीतिक इमारत में बेबल के निर्माताओं से ज्यादा सफल नहीं होंगे: इसलिए मैं विनती करता हूं - स्वर्ग से सहायता और हमारे विचार विमर्श पर उसके आशीर्वाद का आग्रह करती प्रार्थना इस सभा में हमारे काम शुरू करने से पहले हर सुबह आयोजित की जानी चाहिए और इस शहर के एक या एक से अधिक पादरी को इस सेवा में कार्य करने का अनुरोध किया जाए [74] फ्रेंकलिन, संक्षिप्त रूप से फिलाडेल्फिया में एक प्रेस्बिटेरियन चर्च के थे। उसके शीघ्र बाद, वे अमेरिका के एक महान इवान्जेलिकल मंत्री, जॉर्ज व्हाईटफील्ड, "महान जागृति के रोविंग प्रचारकों में सबसे लोकप्रिय", के एक उत्साही समर्थक बन गए। [75] फ्रेंकलिन ने व्हाईटफील्ड के धर्मशास्त्र की सदस्यता नहीं ली, लेकिन उन्होंने व्हाईटफील्ड द्वारा अच्छे काम के माध्यम से भगवान की पूजा करने में लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए प्रशंसा की फ्रेंकलिन ने अपने गजट के मुख पृष्ठ पर व्हाईटफील्ड के उपदेश को छापा उन्होंने व्हाईटफील्ड के सभी उपदेशों और पत्रिकाओं के प्रकाशन की व्यवस्था की 1739-41 में फ्रैंकलिन के आधे प्रकाशन व्हाईटफील्ड के थे, जिसने अमेरिका में इवैंजेलिकल आंदोलन की सफलता में मदद की फ्रेंकलिन, व्हाईटफील्ड की 1770 में मृत्यु तक, उनके आजीवन मित्र और समर्थक रहे [76] जब उन्होंने चर्च जाना बंद कर दिया, तो फ्रैंकलिन ने अपनी आत्मकथा में लिखा: रविवार, मेरे अध्ययन का दिन होने के कारण, मैं कभी धार्मिक सिद्धांतों के बिना नहीं रहा मैंने कभी शक नहीं किया, उदाहरण के लिए, देवता का अस्तित्व; कि उसने दुनिया बनाई और अपनी कृपा से उसे नियंत्रित करता है; कि मनुष्य का भला करना परमेश्वर के लिए सबसे स्वीकार्य सेवा है; कि हमारी आत्मा अमर है; और सभी अपराधों की सजा मिलेगी और पुण्यों को पुरस्कार, यहां चाहे वहां [77][78] जिन प्यूरिटनवादी गुण और राजनीतिक मूल्यों के साथ फ्रेंकलिन पले-बढे थे, उनके साथ उन्होंने आजीवन प्रतिबद्धता बरकरार राखी और अपने नागरिक कार्यों और प्रकाशन के माध्यम से, वे अमेरिकी संस्कृति में इन मूल्यों को स्थायी रूप से पारित करने में सफल रहे उनमें "नैतिकता के लिए एक जुनून" था। [79] इन प्यूरिटनवादी मूल्यों में शामिल था समतावाद के प्रति उनका समर्पण, शिक्षा, परिश्रम, बचत, ईमानदारी, संयम, दान और सामुदायिक भावना [80] इन्लाईटेनमेन्ट अवधि में पढे गए शास्त्रीय लेखकों ने राजा, अभिजात और आम जनता के पदानुक्रमित सामाजिक क्रम पर आधारित गणतांत्रिक सरकार के एक अमूर्त आदर्श को सिखाया यह व्यापक रूप से माना जाता था कि अंग्रेजों की स्वतंत्रता, सत्ता के उनके संतुलन पर आश्रित है, लेकिन साथ ही विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के लिए पदानुक्रमित सम्मान पर भी [81] "प्यूरिटनवाद और मध्य अठारहवीं सदी के इवैन्जलवादी महामारी ने सामाजिक स्तरीकरण की परंपरागत धारणाओं को चुनौती दी" यह उपदेश देकर कि बाइबिल सिखाती है कि सभी लोग बराबर हैं, कि एक आदमी की सही कीमत उसके नैतिक आचरण में निहित है, न कि उसके वर्ग में और यह कि सभी लोगों को बचाया जा सकता है । [82] प्यूरिटनवाद में डूबे और इवैंजेलिकल आंदोलन के एक उत्साही समर्थक, फ्रेंकलिन ने, मोक्ष के सिद्धांतवाद को खारिज कर दिया, लेकिन समतावादी लोकतंत्र की कट्टरपंथी धारणा को गले लगाया इन मूल्यों को सिखाने की फ्रेंकलिन की प्रतिबद्धता भी उनकी प्यूरिटनवादी परवरिश से प्रेरित थी, जिसका जोर "स्वयं में और अपने समाज में नैतिकता और चरित्र पैदा करने" पर था। [83] ये प्यूरिटनवादी मूल्य और उन्हें आने वाली पीढी तक पहुंचाने की इच्छा, फ्रैंकलिन की सर्वोत्कृष्ट अमेरिकी विशेषताओं में से एक थी और इसने राष्ट्र के चरित्र को आकार देने में मदद की नैतिकता पर फ्रेंकलिन के लेखन की कुछ यूरोपीय लेखकों द्वारा निंदा की गई, जैसे जैकब फुगर द्वारा उनकी महत्वपूर्ण कृति पोर्ट्रेट ऑफ अमेरिकन कल्चर में मैक्स वेबर ने फ्रेंकलिन के नैतिक लेखन को प्रोटेस्टेंट नीतियों की उपज माना, जिन नीतियों ने उन सामाजिक परिस्थितियों को निर्मित किया जो पूंजीवाद के जन्म के लिए आवश्यक है । [84] फ्रेंकलिन की एक प्रसिद्ध विशेषता थी उनका सभी चर्चों के प्रति सम्मान, सहिष्णुता और बढावा देना फिलाडेल्फिया में अपने अनुभव की चर्चा करते हुए उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा, "पूजा के नए स्थानों की जरूरत हमेशा ही रही और वे आम तौर पर स्वैच्छिक अंशदान से ही बनाये जाते थे, ऐसे प्रयोजन के लिए मेरा अंशदान, चाहे वह जो भी संप्रदाय हो, कभी ठुकराया नहीं गया। "[77] "उन्होंने एक ऐसे नए प्रकार के राष्ट्र के निर्माण में मदद की जिसने अपनी ताकत अपने देश के धार्मिक बहुलवाद से ली "[85] प्यूरिटनवाद की पहली पीढी असहमति के प्रति असहिष्णु थी, लेकिन 1700 दशक की शुरूआत में, जब फ्रेंकलिन प्यूरिटनवादी चर्च में बडे हुए, तब विभिन्न चर्चों के प्रति सहिष्णुता ही आदर्श थी और जॉन एडम्स के शब्दों में मैसाचुसेट्स को "दुनिया में ज्ञात सभी धार्मिक अवस्थापनाओ में सबसे सौम्य और न्यायपूर्ण" के रूप में जाना जाता था। "[86][86] इवैंजेलिकल पुनरुत्थानवादी जो मध्य-सदी में सक्रिय थे, जैसे फ्रेंकलिन के दोस्त व उपदेशक, जॉर्ज व्हाइटफील्ड, धार्मिक स्वतंत्रता के सबसे बडे पैरोकार थे, "जिनका दावा था कि अंतःकरण की स्वतंत्रता 'सभी विवेकशील प्राणियों का अविछिन्न अधिकार है । '"[87][87] फ्रेंकलिन सहित फिलाडेल्फिया में व्हाइटफील्ड के समर्थकों ने मिलकर "एक विशाल, नए हॉल की स्थापना की जो किसी भी आस्था के किसी भी व्यक्ति को एक उपदेश-मंच प्रदान कर सकता था। "[88] फ्रेंकलिन की हठधर्मिता और सिद्धांत की अस्वीकृति, तथा आचार और नैतिकता और नागरिक धर्माचरण के भगवान पर उनके जोर ने उन्हें "सहनशीलता का पैगम्बर" बना दिया [89] हालांकि, फ्रेंकलिन के माता-पिता ने उनके लिए चर्च में कॅरिअर चाहा था, एक युवक के रूप में फ्रैंकलिन ने में इन्लाईटेनमेंट धार्मिक विश्वास को अपनाया, कि भगवान की सत्यता को पूरी तरह से प्रकृति और तर्क के माध्यम से पाया जा सकता है । [90] "मैं जल्द ही एक गहन ईश्वरवादी बन गया। "[91] एक नौजवान युवक के रूप में उन्होंने ईसाई सिद्धांतवाद को 1725 के पैम्फलेट अ डिजर्टेशन ऑन लिबर्टी एंड नेसेसिटी, प्लेजर एंड पेन[92] में खारिज कर दिया जिसे उन्होंने बाद में एक शर्मिंदगी के रूप में देखा,[93] जबकि साथ में यह भी जताया कि भगवान "पूर्ण बुद्धिमान, पूर्ण अच्छे, पूर्ण शक्तिशाली" हैं। [93] उन्होंने इन शब्दों के साथ धार्मिक सिद्धांतवाद की अपनी अस्वीकृति का बचाव किया: "मुझे लगता है कि विचारों का निर्णय उनके प्रभावों और परिणामों से किया जाना चाहिए; और अगर किसी व्यक्ति में ये नहीं है जो उसे कम धार्मिक या अधिक घातक बनाते हैं, तो यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वह ऐसा कोई विचार नहीं रखता है जो खतरनाक हो, जैसा कि मुझे आशा है कि मेरे मामले में है । " अपने और अपने दो मित्रों, जिन्हें लन्दन में फ्रैंकलिन ने ईश्वरवाद में दीक्षित कराया था, के नैतिक स्तर में क्षय को देख कर हुए मोह-भंग भरे अनुभव के बाद, फ्रैंकलिन संगठित धर्म के महत्व में विश्वास करने के लिए वापस लौटे, उन व्यावहारिक आधारों की तरफ जिनका मानना है कि भगवान और संगठित चर्च के बिना मनुष्य अच्छा नहीं रह सकता [94] एक बिंदु पर, उन्होंने थॉमस पैन को उनकी पांडुलिपि, द एज ऑफ रीजन की आलोचना करते हुए पत्र लिखा, डेविड मॉर्गन के मुताबिक,[96] फ्रेंकलिन, सामान्यतः धर्म के एक अधिवक्ता थे। वे "शक्तिशाली अच्छाई " की प्रार्थना करते थे और भगवान को "अनंत" के रूप में निर्दिष्ट करते थे। जॉन एडम्स ने कहा कि फ्रैंकलिन एक दर्पण थे जिसमें लोग अपने धर्म को देखते थे: "कैथोलिक उन्हें लगभग एक पूर्ण कैथोलिक मानते थे। इंग्लैंड के चर्च ने उन्हें, अपने में से एक के रूप में घोषित किया। प्रेस्बिटर पंथी उन्हें एक आधा प्रेस्बिटेरियन मानते थे और दोस्तों ने उन्हें एक भावुक क्वेकर माना " मॉर्गन अंत में कहते हैं कि फ्रैंकलिन, चाहे जो कुछ भी रहे हों, "वे सामान्य धर्म के एक सच्चे पुरोधा थे। " रिचर्ड प्राइस को लिखे एक पत्र में, फ्रेंकलिन ने कहा कि उनका मानना है कि धर्म को सरकार से मदद के बिना, अपनी सहायता खुद करनी चाहिए और दावा किया; "जब एक धर्म अच्छा है तो मैं समझता हूं कि वह खुद की सहायता करेगा; और जब वह अपनी सहायता नहीं कर सकता है और भगवान उसकी सहायता पर ध्यान नहीं देता है और जिसके चलते उसके प्रोफेसरों को राजनैतिक शक्ति की मदद की मांग करनी पडती है, तो मैं समझता हूं कि यह इसके बुरे होने का एक संकेत है । "[97] 1790 में, अपनी मृत्यु के सिर्फ एक महीने पहले, फ्रैंकलिन ने येल विश्वविद्यालय के अध्यक्ष एज्रा स्टाइलेस को एक पत्र लिखा, जिन्होंने उनसे, धर्म पर उनके विचार पूछे थे: 4 जुलाई 1776 को कांग्रेस ने संयुक्त राज्य अमेरिका की महान सील के डिजाइन के लिए एक समिति नियुक्त की जिसमें शामिल थे फ्रैंकलिन, थॉमस जेफरसन और जॉन एडम्स [98] फ्रेंकलिन के प्रस्ताव में एक डिजाइन थी जिसमें एक आदर्श वाक्य था: "अत्याचारियों के खिलाफ विद्रोह भगवान से आज्ञाकारिता है । उनकी डिजाइन में बुक ऑफ इक्सोडस से एक दृश्य को दर्शाया गया था, जिसमें मूसा, इज्रायली, आग का खम्भा और जॉर्ज III को फेरो के रूप में दिखाया गया था। [99] तेरह गुण फ्रेंकलिन ने 20 वर्ष (1726 में) की उम्र में विकसित की गई तेरह गुणों की योजना द्वारा अपने चरित्र का परिष्कार करना चाहा और अपने शेष जीवन में इसका कुछ अभ्यास जारी रखा उनकी आत्मकथा उनके तेरह गुणों को प्रस्तुत करती है: "संयम इतना ही खाओ कि आलस्य ना आए; इतना ना पियो कि नशा हो जाए " "मौन वही बोलो जिससे तुम्हारा या दूसरों का लाभ हो; क्षुद्र बातचीत से बचो " "व्यवस्था। तुम्हारी सभी चीजों की अपनी जगह होनी चाहिए; तुम्हारे हर काम का अपना समय होना चाहिए " "संकल्प तुम्हारे लिए जो आवश्यक है उसे करने का संकल्प लो; जिसे करने का संकल्प तुमने लिया है उसे बिना असफल हुए तुम करो " "मितव्ययिता अपने या दूसरों के भले के लिए ही खर्च करो, अर्थात्, बर्बाद मत करो " "श्रम समय नष्ट मत करो; हमेशा किसी न किसी सार्थक काम में लगे रहो; सभी अनावश्यक कार्यों में कटौती करो " "निष्ठा किसी हानिकारक छल का प्रयोग मत करो; निश्छल और न्यायपूर्ण तरीके से सोचो और, यदि बोलो तो, तदनुसार बोलो " "न्याय घायल करके किसी को गलत मत बनाओ, या वे लाभ देने से मत चूको जो तुम्हारा कर्तव्य है । " "निग्रह अतिवाद से बचो; क्रोध में चोट करने से बचो तब भी जब तुम्हे लगता है वे हकदार हैं। " "स्वच्छता शरीर, वस्त्र, या घर में गन्दगी बर्दाश्त न करो " "शांति तुच्छ बातों पर या आम अथवा अपरिहार्य दुर्घटनाओं से परेशान न हो " "शुचिता स्वास्थ्य या संतानोत्पत्ति के लिए ही संभोग का विरले प्रयोग करो और नीरसता, कमजोरी या अपने या किसी और की शांति या प्रतिष्ठा के प्रतिकूल इसका प्रयोग ना हो "विनम्रता यीशु और सुकरात का अनुगमन करो " फ्रेंकलिन ने एक बार में सभी पर काम करने की कोशिश नहीं की इसके बजाय, वे हफ्ते में एक और केवल एक पर काम करते और "बाकी अन्य को उनके साधारण मौके पर छोड देते " यद्यपि, फ्रेंकलिन पूरी तरह से अपने निर्धारित गुणों के अनुसार नहीं जिए और उन्होंने खुद स्वीकार किया कि वे कई बार असफल रहे, तथापि उन्होंने माना कि इस प्रयास ने उनकी सफलता और खुशी में बहुत बडा योगदान दिया, जिसके कारण उन्होंने अपनी आत्मकथा में किसी भी अन्य एकल बिंदु की अपेक्षा इस योजना के लिए अधिक पन्ने समर्पित किये; फ्रेंकलिन ने अपनी आत्मकथा में लिखा, "मैं आशा करता हूं, कि मेरे कुछ वंशज, हो सकता है इस उदाहरण का अनुसरण करें और लाभान्वित हों "[100] मृत्यु और विरासत बेंजामिन फ्रेंकलिन की कब्र, फिलाडेल्फिया, पेनसिल्वेनिया फ्रेंकलिन की मृत्यु 84 साल की उम्र में 17 अप्रैल 1790 को हुई लगभग 20,000 लोगों ने उनके अंतिम संस्कार में भाग लिया। उन्हें फिलाडेल्फिया में क्राइस्ट चर्च बेरिअल ग्राउंड में दफनाया गया। 1728 में, 22 वर्ष की आयु में, फ्रेंकलिन ने कुछ ऐसा लिखा जो उन्हें आशा थी उनका समाधि-लेख बनेगा: बी फ्रेंकलिन प्रिंटर का शरीर, एक पुरानी किताब के आवरण की तरह, इसकी सामग्री फट चुकी और अपने ज्ञान और सोने के पत्तर से महरूम, यहां पडा है, कीडे के लिए खाद्य लेकिन कृतियां पूर्ण रूप से नहीं खो जायेंगी: बल्कि वे कृतियां, जैसा उन्हें विश्वास था, एक बार फिर सामने आएंगी, एक नए और अधिक बेहतर संस्करण में, जो लेखक द्वारा सुधारा और संशोधित किया गया होगा [101] फ्रेंकलिन की वास्तविक कब्र पर, जैसा उन्होंने अपनी वसीयत में विनिर्दिष्ट किया था, बस इतना लिखा है "बेंजामिन और डेबोरा फ्रैंकलिन "[102] 1773 में, जब फ्रेंकलिन का काम मुद्रण से विज्ञान और राजनीति की दिशा में स्थानांतरित हुआ, तब उन्होंने, एक मृत व्यक्ति को बाद में अधिक उन्नत वैज्ञानिक तरीकों द्वारा पुनर्जीवित करने के लिए संरक्षित करने के विषय पर एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक के साथ बात की, उन्होंने लिखा: मैं एक साधारण मौत को पसंद करना चाहूंगा, मैडिएरा के एक छोटे पीपे में कुछ दोस्तों के साथ डूब जाना चाहूंगा, उस समय तक, जब अपने प्रिय देश की सौर गर्मी से पुनः जीवित ना हो जाऊं! लेकिन सभी संभावना के साथ, हम एक ऐसी सदी में रहते हैं जो बहुत कम उन्नत है और विज्ञान के शैशव काल में है, इसलिए ऐसी कला को इसकी पूर्णता में आते हुए नहीं देख सकते [103] (विस्तारित अंश ऑनलाइन पर भी )[104] उनकी मृत्यु को, पुस्तक द लाइफ ऑफ बेंजामिन फ्रेंकलिन में वर्णित किया गया है, जहां डॉ॰ जॉन जोंस के सौजन्य से उद्धृत किया गया है: जब सांस लेने में दर्द और कठिनाई ने उन्हें पूरी तरह से छोड दिया और उनका परिवार उनके स्वस्थ हो जाने के खयाल से खुश हो रहा था, जब उनके फेफडों में स्वतः गठित एक फोडा अचानक फट गया और कुछ द्रव तब तक निकलता रहा जब तक उनमें शक्ति बची रही; पर जब वह विफल हो गया, श्वसन तंत्र धीरे-धीरे क्षीण हो गया; एक शांत, सुस्त स्थिति ने उन्हें घेर लिया; और 17 को (अप्रैल, 1790) रात के करीब ग्यारह बजे, वे शांति से मर गए और अपने पीछे छोड गए चौरासी साल और तीन महीने का लंबा और उपयोगी जीवन वृत्तान्त [105] बेंजामिन फ्रैंकलिन की संगमरमर की स्मारक मूर्ति न्यूयॉर्क शहर में कोलंबिया विश्वविद्यालय के अभिलेखागार विभाग में फ्रेंकलिन अर्ध-प्रतिमा फ्रेंकलिन ने अपनी विरासत में बॉस्टन और फिलाडेल्फिया के शहरों में प्रत्येक को ट्रस्ट में 1,000 (लगभग $4,400 उस वक्त) दिया, जिसका ब्याज 200 साल तक इकट्ठा होता रहा इस ट्रस्ट की शुरूआत 1785 में हुई जब फ्रांसीसी गणितज्ञ चार्ल्स-जोसेफ मेथन डे ला कूर ने, जो फ्रेंकलिन का एक बडा प्रशंसक था, फ्रैंकलिन के "पुअर रिचार्ड्स ऑल्मनैक" की एक दोस्ताना पैरोडी लिखी "फोर्चुनेट रिचर्ड" मुख्य चरित्र अपनी वसीयत में थोडी सी रकम छोड जाता है, 100 लीवर के पांच ढेर, जिसका ब्याज, एक, दो, तीन, चार या पांच सदियों तक इकठ्ठा करते हुए, परिणामस्वरूप खगोलीय रकम को असंभव काल्पनिक परियोजनाओं पर विस्तृत रूप से खर्च किया जाना था। [106] फ्रेंकलिन ने, जो उस वक्त 79 साल के थे, एक महान विचार के लिए उसे धन्यवाद दिया और उसे बताया कि उन्होंने अपने पैतृक स्थान बॉस्टन और गोद लिए फिलाडेल्फिया में से प्रत्येक को 1,000 पाउंड की एक वसीयत छोडने का फैसला लिया है । यथा 1990, फ्रेंकलिन के फिलाडेल्फिया ट्रस्ट में $2,000,000 से अधिक जमा हो चुके हैं, जिसमें से स्थानीय निवासियों को लोन दिया गया। 1940 से 1990 तक, धन का ज्यादातर उपयोग बंधक ऋण के लिए किया गया। जब ट्रस्ट के पास उधार नहीं रहा, तो फिलाडेल्फिया ने इसे स्थानीय उच्च विद्यालय के छात्रों के लिए छात्रवृत्ति पर खर्च करने का फैसला किया। फ्रेंकलिन के बॉस्टन ट्रस्ट ने उसी समय के दौरान लगभग $5,000,000 एकत्र किये; अपने प्रथम 100 साल के अंत में उसके एक हिस्से को व्यापार स्कूल की स्थापना में मदद के लिए आबंटित किया गया जो फ्रैंकलिन इंस्टीटयूट ऑफ बॉस्टन बना और बाद में सम्पूर्ण निधि को इस संस्थान की सहायता के लिए समर्पित कर दिया गया। [107][108] स्वतंत्रता की घोषणा और संविधान, दोनों के हस्ताक्षरकर्ता फ्रैंकलिन को अमेरिका का एक संस्थापक जनक माना जाता है । संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रारंभिक इतिहास में उनके व्यापक प्रभाव से प्रेरित होकर अक्सर उनके बारे में एक मजाक किया जाता है कि "वे संयुक्त राज्य अमेरिका के ऐसे एकमात्र राष्ट्रपति थे, जो कभी संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति नहीं थे। "[109] फ्रेंकलिन की चाहत सर्वव्यापी है । 1928 से, इसने अमेरिका के $100 बिल को सुशोभित किया है, जिसे कभी-कभी कठबोली में "बेंजामिन" या "फ्रैंकलिन्स" के रूप में निर्दिष्ट किया जाता है । 1948 से 1964 तक, फ्रैंकलिन का चित्र आधे डॉलर पर अंकित था। 1914 और 1918 से वे एक $50 बिल पर और $100 बिल की कई किस्मों पर प्रस्तुत हो चुके हैं। फ्रेंकलिन, $1,000 सिरीज EE बचत बांड पर अंकित हैं। फिलाडेल्फिया शहर में बेंजामिन फ्रैंकलिन की करीब 5,000 प्रतिकृति हैं, जिनमें से लगभग आधी पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय परिसर में स्थित हैं। फिलाडेल्फिया के बेंजामिन फ्रैंकलिन पार्कवे (एक प्रमुख राजमार्ग) और बेंजामिन फ्रैंकलिन ब्रिज (न्यू जर्सी को फिलाडेल्फिया से जोडने वाला प्रथम बडा पुल) का नामकरण उनके सम्मान में किया गया है । सौ डॉलर बिल पर फ्रैंकलिन न्यू ओर्लियंस, लुइसियाना में बेंजामिन फ्रैंकलिन हाई स्कूल के परिकोष्ठ में बेंजामिन फ्रेंकलिन की एक संगमरमर की प्रतिमा 1976 में, द्विशतवार्षिक उत्सव के हिस्से के रूप में, कांग्रेस ने फिलाडेल्फिया के फ्रैंकलिन संस्थान में बेंजामिन फ्रैंकलिन राष्ट्रीय स्मारक के रूप में एक 20 फुट (6 मीटर) की संगमरमर की प्रतिमा समर्पित की फ्रेंकलिन के कई निजी सामान भी इस संस्थान में प्रदर्शित हैं, राष्ट्रीय स्मारकों में से एक जो किसी निजी संपत्ति पर स्थित है । लंदन में, 36 क्रावेन स्ट्रीट के उनके घर को पहले नीली पट्टिका के साथ चिह्नित किया गया था और तब से उसे बेंजामिन फ्रैंकलिन हाउस के रूप में जनता के लिए खोल दिया गया। [110] 1998 में, इस इमारत का जीर्णोद्धार करने वाले कारीगरों को खुदाई में घर के नीचे छिपाए गए छह बच्चों और चार वयस्कों के अवशेष मिले 11 फरवरी 1998 को द टाइम्स ने खबर दी: प्रारंभिक अनुमान के अनुसार ये हड्डियां करीब 200 साल पुरानी हैं और इन्हें उस वक्त गाडा गया था जब फ्रेंकलिन इस घर में रहते थे, जो 1757 से 1762 और 1764 से 1775 तक उनका आवास था। ज्यादातर हड्डियों से उनके चीरे होने, आरी से काटे जाने, या कटे होने के लक्षण दिखते हैं। एक खोपडी में कई छेद किये गए हैं। वेस्टमिंस्टर कोरोनर, पॉल नैपमन ने कल कहा, "मैं अपराध की संभावना से पूरी तरह से इनकार नहीं कर सकता अभी भी संभावना है कि मुझे एक कानूनी जांच करनी पडे " फ्रेंड्स ऑफ बेंजामिन फ्रेंकलिन हाउस (जीर्णोद्धार करने वाला संगठन) का कहना है कि उन हड्डियों को वहां विलियम ह्युसन द्वारा रखे जाने की संभावना है, जो उस घर में दो वर्ष तक रहा और जिसने उस घर के पीछे शरीर रचना विज्ञान के एक छोटे स्कूल का निर्माण किया था। वे इस बात का उल्लेख करते हैं कि जबकि फ्रेंकलिन को इस बात की जानकारी होने की संभावना है कि ह्युसन क्या कर रहा था, उन्होंने शायद उसके किसी भी विच्छेदन में भाग नहीं लिया क्योंकि वे एक चिकित्सा सम्बन्धी आदमी कम और एक भौतिक विज्ञानी अधिक थे। [111] प्रदर्शनियां "द प्रिंसेस एंड द पैट्रियट: एकाटेरिना दश्कोवा, बेंजामिन फ्रैंकलिन एंड द एज ऑफ इन्लाईटेनमेंट" प्रदर्शनी, फिलाडेल्फिया में फरवरी 2006 को शुरू हुई और दिसम्बर 2006 तक चली बेंजामिन फ्रैंकलिन और दश्कोवा, केवल एक बार मिले थे, पेरिस में 1781 में फ्रेंकलिन 75 वर्ष के थे और दश्कोवा की उम्र 37 वर्ष फ्रेंकलिन ने दश्कोवा को अमेरिकन फिलोसॉफिकल सोसायटी में शामिल होने वाली पहली महिला बनने के लिए आमंत्रित किया और अगले 80 साल तक इस सम्मान को पाने वाली वे एकमात्र महिला बनी रहीं बाद में, दश्कोवा ने प्रतिदान में उन्हें रशियन अकैडमी ऑफ साइंसेस का पहला अमेरिकी सदस्य बनाया बेंजामिन फ्रेंकलिन के नाम पर रखे गए स्थानों और चीजों के नाम अधिक जानकारी के लिए देखें संयुक्त राज्य अमेरिका के संस्थापक जनक के रूप में, फ्रैंकलिन का नाम कई चीजों से जुडा है । इनमें शामिल हैं: द स्टेट ऑफ फ्रेंकलिन, कुछ समय अस्तित्व में रहा एक स्वतंत्र राज्य जिसका गठन अमेरिकी क्रांतिकारी युद्ध के दौरान हुआ था। कम से कम 16 अमेरिकी राज्यों में काउन्टीस फिलाडेल्फिया, पेनसिल्वेनिया के आस-पास के कई स्थल, जो फ्रेंकलिन का लंबे समय का घर रहा, जिसमें शामिल है: लंकास्टर के पास फ्रेंकलिन एंड मार्शल कॉलेज फ्रेंकलिन फील्ड, एक फुटबॉल मैदान जो कभी नेशनल फुटबॉल लीग के फिलाडेल्फिया ईगल्स का घर थी और 1895 के बाद से पेन्सिलवेनिया क्वेकर विश्वविद्यालय का गृह मैदान फिलाडेल्फिया और कामडेन, न्यू जर्सी के बीच डेलावेयर नदी पर बना बेंजामिन फ्रेंकलिन ब्रिज द फ्रेंकलिन इंस्टीटयूट, फिलाडेल्फिया स्थित विज्ञान संग्रहालय, जो बेंजामिन फ्रैंकलिन पदक प्रदान करता है फिलाडेल्फिया यूनियन के लिए सन्स ऑफ बेन फुटबॉल समर्थकों का क्लब फ्रेंकलिन टेंपलटन इन्वेस्टमेंट एक निवेश कंपनी जिसका न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज टिकर संक्षिप्त नाम, BEN भी फ्रेंकलिन के सम्मान में है । मनोविज्ञान के क्षेत्र से बेन फ्रेंकलिन प्रभाव बेंजामिन फ्रेंकलिन "हॉकाए" पियर्स, उपन्यास, फिल्म और टेलीविजन कार्यक्रम का काल्पनिक चरित्र संयुक्त राज्य अमेरिका के संस्थापक जनक सामाजिक नवाचार थॉमस बर्च द्वारा फ्रेंकलिन के पत्रों की नवीन खोज %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%98 %%%%% CS671 : gprachi@iitk.ac.in 150803 राष्ट्र संघ (लंदन) पेरिस शांति सम्मेलन के परिणामस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्ववर्ती के रूप में गठित एक अंतर्शासकीय संगठन था। 28 सितम्बर 1934 से 23 फरवरी 1935 तक अपने सबसे बडे प्रसार के समय इसके सदस्यों की संख्या 58 थी। इसके प्रतिज्ञा-पत्र में जैसा कहा गया है, इसके प्राथमिक लक्ष्यों में सामूहिक सुरक्षा द्वारा युद्ध को रोकना, निरस्त्रीकरण, तथा अंतर्राष्ट्रीय विवादों का बातचीत एवं मध्यस्थता द्वारा समाधान करना शामिल थे। [1] इस तथा अन्य संबंधित संधियों में शामिल अन्य लक्ष्यों में श्रम दशाएं, मूल निवासियों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार, मानव एवं दवाओं का अवैध व्यापार, शस्त्र व्यपार, वैश्विक स्वास्थ्य, युद्धबंदी तथा यूरोप में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा थे। [2] संघ के पीछे कूटनीतिक दर्शन ने पूर्ववर्ती सौ साल के विचारों में एक बुनियादी बदलाव का प्रतिनिधित्व किया। चूंकि संघ के पास अपना कोई बल नहीं था, इसलिए इसे अपने किसी संकल्प का प्रवर्तन करने, संघ द्वारा आदेशित आर्थिक प्रतिबंध लगाने या आवश्यकता पडने पर संघ के उपयोग के लिए सेना प्रदान करने के लिए महाशक्तियों पर निर्भर रहना पडता था। हालांकि, वे अक्सर ऐसा करने के लिए अनिच्छुक रहते थे। प्रतिबंधों से संघ के सदस्यों को हानि हो सकती थी, अतः वे उनका पालन करने के लिए अनिच्छुक रहते थे। जब द्वित्तीय इटली-अबीसीनिया युद्ध के दौरान संघ ने इटली के सैनिकों पर रेडक्रॉस के मेडिकल तंबू को लक्ष्य बनाने का आरोप लगाया था, तो बेनिटो मुसोलिनी ने पलट कर जवाब दिया था कि “संघ तभी तक अच्छा है जब गोरैया चिल्लाती हैं, लेकिन जब चीलें झगडती हैं तो संघ बिलकुल भी अच्छा नहीं है” [3] 1920 के दशक में कुछ आरंभिक विफलताओं तथा कई उल्लेखनीय सफलताओं के बाद 1930 के दशक में अंततः संघ धुरी राष्ट्रों के आक्रमऩ को रोकने में अक्षम सिद्ध हुआ। मई 1933 में, एक यहूदी फ्रांज बर्नहीम ने शिकायत की कि ऊपरी सिलेसिया के जर्मन प्रशासन द्वारा एक अल्पसंख्यक के रूप में उसके अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा था जिसने यहूदी-विरोधी कानूनों के प्रवर्तन को कई वर्ष तक टालने के लिए जर्मनों को प्रेरित किया था, जब तक कि 1937 में संबंधित संधि समाप्त नहीं हो गई, उसके बाद उन्होंने संघ के प्राधिकार का आगे पुनर्नवीकरण करने से इंकार कर दिया और यहूदी-विरोधी उत्पाडन को पुनर्नवीकृत कर दिया [4] हिटलर ने दावा किया कि ये धाराएं जर्मनी की संप्रभुता का उल्लंघन करती थी। जर्मनी संघ से हट गया, जल्दी ही कई अन्य आक्रामक शक्तियों ने भी उसका अनुसरण किया। द्वित्तीय विश्व युद्घ की शुरुआत से पता चला कि संघ भविष्य में युद्ध न होने देने के अपने प्राथमिक उद्देश्य में असफल रहा था। युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसका स्थान लिया तथा संघ द्वारा स्थापित कई एजेंसियां और संगठन उत्तराधिकार में प्राप्त किए संघ के स्रोत एक कार्ड जिसके केंद्र में राष्ट्रपति विल्सन की गंभीर मुद्रा में एक श्वेत-श्याम तस्वीर है जो चारों ओर किनारों पर अंकित राष्ट्र संघ के लिए उनके महत्त्व को दर्शाती है । राष्ट्रों के एक शांतिपूर्ण समुदाय की अवधारणा की रूपरेखा तो बहुत पहले 1795 में बह गई थी, जब इम्मानुअल कैण्ट की परपेचुअल पीसः ए फिलोसोफिकल स्केच[5] में एक राष्ट्रों के संघ के विचार की रूपरेखा रखी थी, जो राष्ट्रों के बीच संघर्षों को नियंत्रित करे और शांति को प्रोत्साहित करे [6] वहीं कैंट ने एक शांतिप्रिय विश्व समुदाय की स्थापना के लिए तर्क दिया कि यह इस अर्थ में नहीं होगा कि कोई वैश्विक सरकार बने, बल्कि इस आशा के साथ कि प्रत्येक राष्ट्र खुद को एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करेगा, जो अपने नागरिकों का सम्मान करे और विदेशी पर्यटकों का एक तर्कसंगत साथी प्राणी के रूप में स्वागत करे यह इस युक्तिकरण में है कि स्वतंत्र राष्ट्रों का एक संघ होगा जो वैश्विक रूप से एक शांतिपूर्ण समाज को प्रोत्साहित करेगा, इस प्रकार अंतरराष्ट्रीय समुदायों के बीच एक अनवरत शांति कायम हो सकेगी [7] सामूहिक सुरक्षा को बढावा देने के लिए यूरोप समारोह में उत्पन्न अंतर्राष्ट्रीय सहयोग नेपोलियन युद्धों के बाद उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोपीय राष्ट्रों के बीच यथास्थिति को बनाए रखने और युद्ध को टालने के लिए विकसित हुआ। [8][9] इस अवधि में पहले जिनेवा सम्मेलन में भी युद्ध के दौरान मानवीय सहायता के लिए कानून स्थापित होने तथा 1899 और 1907 के अंतर्राष्ट्रीय हेग सम्मेलन में युद्ध के बारे में तथा अंतर्राष्ट्रीय विवादों के शांतिपूर्ण हल के लिए अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का विकास हुआ। [10][11] शांति कार्यकर्ताओं विलियम हैंडल क्रीमर और फ्रेड्रिक पासी ने 1889 में राष्ट्र संघ के पूर्ववर्ती अंतर्संसदीय संघ (आईपीयू (IPU)) का गठन किया था। यह संगठन विस्तार में अंतर्राष्ट्रीय था जिसमें 24 देशों की संसदों के एक तिहाई सदस्य शामिल थे, जो 1914 तक आईपीयू (IPU) के सदस्यों के रूप में कार्यरत थे। इसका उद्देश्य सरकारों को अंतरराष्ट्रीय विवादों को शांतिपूर्ण तरीकों और मध्यस्थता के माध्यम से हल करने के लिए प्रोत्साहित करना था और सरकारों द्वारा अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता की प्रक्रिया को निखारने के लिए वार्षिक सम्मेलन आयोजित किए गए। आईपीयू (IPU) की संरचना में एक अध्यक्ष की अध्यक्षता में एक परिषद शामिल थी जो बाद में राष्ट्रसंघ की संरचना में भी परिलक्षित हुई [12] बीसवीं शताब्दी की शुरूआत में यूरोप की महाशक्तियों के बीच गठबंधन के माध्यम से दो शक्ति केंद्र उभरे थे। 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध के आरंभ होने के समय ये गठबंधन प्रभावी हुए थे, जिसके कारण यूरोप की सभी बडी शक्तियां इस युद्ध में शामिल हो गई थी। औद्योगिक राष्ट्रों के बीच यूरोप में यह पहला बडा युद्ध था और यह पहला मौका था कि पश्चिमी यूरोप में औद्योगीकरण परिणामों (उदाहरण के लिए व्यापक स्तर पर उत्पादन) को युद्ध को समर्पित किया गया था। इस औद्योगिक युद्ध के परिणामस्वरूप हताहतों की संख्या अभूतपूर्व थी, जहं 85 लाख सशस्त्र सेनाओं के सलस्य मारे गए थे और अनुमानतः 2 करोड 10 लाख लोग घायल हुए थे तथा करीब एक करोड नागिरक मारे गए थे। [13][14] 1918 में जब तक युदध समाप्त हुआ युद्ध ने बहुत गहरे प्रभाव छोडे थे, पूरे यूरोप में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक तंत्रों को प्रभावित किया था तथा उप महाद्वीप को मनोवैज्ञानिक और शारीरिक क्षति पहुंचाई थी। [15] दुनिया भर में युद्ध विरोधी भावना उभरी, प्रथम विश्व युद्ध को “सभी युद्धों का अंत करने वाला युद्ध” बताया गया था। [16][17] पहचाने गए कारणों में हथियारों की दौड, गठबंधन, गुप्त कूटनीति और संप्रभु राष्ट्र की स्वतंत्रता शामिल थे जिनकी वजह से वे अपने हित में युद्ध में गए थे। इनके उपचारों के रूप में एक ऐसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन की रचना को देखा गया जिसका उद्देश्य निरस्त्रीकरण, खुली कूटनीति, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, युद्ध छेडने के अधिकार पर रोक तथा ऐसे दंड जो युद्ध को राष्ट्रों के लिए अनाकर्षक बना दे, था। [18] जबकि प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था फिर भी, बहुत सी सरकारों और समूहों ने पहले से ही युद्ध की पुनरावृत्ति को रोकने की दृष्टि से, जिस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय संबंध चल रहे थे, उनको बदलने की योजनाएं बनाना शुरू कर दिया था। [16] संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति वूड्रो विल्सन और उनके सलाहकार कर्नल एडवर्ड एम हाउस ने उत्साह से प्रथम विश्व युद्ध में देखे गए रक्तपात की पुनरावृत्ति को रोकने के एक माध्यम के रूप में संघ के विचार को प्रोत्साहित किया और संघ बनाना विल्सन के चौदह सूत्री शांति कार्यक्रम का केंद्र था। [19] विशेष रूप से अंतिम बिंदु में प्रावधान थाः "बडे और छोटे राष्ट्रों के लिए समान रूप से राजनीतिक स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता की परस्पर गारंटी देने के उद्देश्य से विशिष्ट कानूनों के अंतर्गत राष्ट्रों का एक महासंघ बनाया जाना चाहिए ”[20] अपने शांति सौदे की विशेष शर्तों का मसौदा तैयार करने से पूर्व विल्सन ने यूरोप की भू-राजनैतिक स्थिति का आकलन करने के लिए जो भी जानकारी आवश्यक हो उसे संकलित करने के लिए कर्नल हाउस के नेतृत्व में एक दल का गठन किया। जनवरी 1918 के आरंभ में विल्सन ने हाउस को वॉशिंगटन बुलाया और दोनों पूर्ण गोपनीयता के साथ गहन मंत्रणा में लग गए, 8 जनवरी 1918 को राष्ट्रपति द्वारा अनजान कांग्रेस को राष्ट्र संघ पर पहला भाषण दिया गया। [21] विल्सन की संघ के लिए अंतिम योजनाएं दक्षिण अफ्रीकी प्रधानमंत्री यैन क्रिस्टियन स्मट्स से अत्यधिक प्रभावित थी। 1918 में स्मट्स ने राष्ट्र संघः एक व्यावहारिक सुझाव शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया था। एप एस क्राफोर्ड द्वारा लिखी स्मट्स की आत्मकथा के अनुसार विल्सन ने स्मट्स के “विचार और शैली दोनों” को अपनाया था। [22] 8 जुलाई 1919 को, वुडरो विल्सन संयुक्त राज्य अमेरिका लौटे और उनके देश के संघ में प्रवेश के लिए अमेरिकी लोगों का समर्थन सुनिश्चित करने के लिए एक देशव्यापी अभियान में लग गए। 10 जुलाई 10 को, विल्सन ने सीनेट को संबोधित करते हुए घोषणा की कि "एक नई भूमिका और एक नई जिम्मेदारी इस महान राष्ट्र के सामने आई है, जिसको हम आशा करते हैं कि हम सेवा और उपलब्धि के और उच्च स्तर तक ले जाएंगे ” सकारात्मक स्वागत, खास कर रिपब्लिकनों की तरफ से, अति दुर्लभ [23] प्रथम विश्व युद्ध के बाद स्थाई शांति कायम करने के लिए बुलाए गए पेरिस शांति सम्मेलन ने 25 जनवरी 1919 को राष्ट्र संघ बनाने के प्रस्तावफ्रान्सीसी: Société des Nations‎ जर्मन : Völkerbund का अनुमोदन कर दिया [24] राष्ट्र संघ के नियमों का मसौदा एक विशेष आयोग द्वारा तैयार किया गया था और वरसाई की संधि के भाग। द्वारा संघ की स्थापना हुई 28 जून 1919 को [25][26] उन 31 राष्ट्रों सहित जिन्होंने तिहरे अटांट की ओर से युद्ध में भाग लिया था या संघर्ष के दौरान शामिल हुए थे, सहित 44 राष्ट्रों ने नियमों पर हस्ताक्षर किए विल्सन के संघ को स्थापित करने और बढावा देने के प्रयासों के बावजूद जिसके लिए उन्हें अक्टूबर 1919 में नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया था,[27] संयुक्त राज्य अमेरिका संघ में शामिल नहीं हुआ। अमेरिकी सीनेट में विपक्ष, खासकर रिपब्लिकन राजनीतिज्ञों हेनरी कैबो लॉज और विलियम ई बोराह दोनों ने साथ मिल कर विल्सन के समझौता करने से इंकार करने पर, यह सुनिश्चित किया कि अमेरिका को इस कानून को पारित नहीं करना चाहिए संघ की पहली परिषद बैठक वरसाई संधि के प्रभावी होने के छः दिन बाद 16 जनवरी 1920 को पेरिस में हुई [28] नवंबर में संघ का मुख्यालय जिनेवा स्थानांतरित किया गया जहां 15 नवम्बर 1920 को इसकी पहली आम सभा की बैठक हुई,[29] इसमें 41 राष्ट्रों के प्रतिनिधि उपस्थित थे। भाषाएं एवं चिह्न राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाएं फ्रांसीसी, अंग्रेजी[30] और स्पैनिश (1920 से) थीं। संघ ने एस्पेरान्तो को अपने कामकाज की भाषा बनाने और इसके उपयोग को सक्रिय रूप से प्रोत्साहित करने के बारे में सोचा था, किंतु दोनों में से कोई सा विकल्प कभी अपनाया नहीं गया। [31] 1921 में लॉर्ड रॉबर्ट सेसिल ने प्रस्ताव रखा कि सदस्य देशों के सरकारी स्कूलों में एस्पेरांतो को शुरू किया जाए और इसकी जांच के लिए एक रिपोर्ट अधिकृत की गई। [32] जब दो वर्ष बाद रिपोर्ट प्रस्तुत की गई तो इसमें विद्यालयों में एस्पेरान्तो के शिक्षण की सिफारिश की गई थी, इस प्रस्ताव को 11 प्रतिनिधियों ने स्वीकार कर लिया। [31] सर्वाधिक कडा विरोध फ्रांसीसी प्रतिनिधि गैब्रियल अनॉटू की ओर से आया, आंशिक रूप से फ्रांसीसी भाषा को बचाने के लिए जिसके लिए उसने तर्क दिया कि वह पहले से ही अंतर्राष्ट्रीय भाषा थी। [33] इस विरोध का मतलब यह हुआ कि उस अनुभाग को जिसमें स्कूलों में एस्पेरांतो को स्वीकार किया गया था, छोडकर रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया गया। [34] राष्ट्र संघ का न तो कोई आधिकारिक झंडा था और न लोगो एक आधिकारिक चिह्न अपनाने के लिए प्रस्ताव 1920 में संघ की शुरुआत में किए गए थे किंतु सदस्य राष्ट्र कभी सहमति पर नहीं पहुंच सके [35] जरूरत पडने पर राष्ट्र संघ के संगठनों ने विभिन्न झंडों और लोगो (या किसी का भी नहीं) का अपने अभियानों में उपयोग किया। [35] 1929 में एक डिजाइन खोजने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता आयोजित की गई थी, जो चिह्न देने में फिर से असफल रही [35] इस विफलता का एक कारण यह रहा होगा कि सदस्य राष्ट्रों को यह डर था कि इस अंतर्राष्ट्रीय संगठन की शक्ति कहीं उनकी अपनी शक्ति से अधिक न हो जाए [35] अंत में, 1939 में, एक अर्द्ध आधिकारिक चिह्न उभर कर आया: एक नीले पंचभुज के अंदर दो पंचकोणीय सितारे [35] वे पृथ्वी के पांच महाद्वीपों और पांच नस्लों के प्रतीक थे। [35] शीर्ष पर एक धनुष तथा नीचे अंग्रेजी (लीग ऑफ नेशन्स) तथा प्रांसीसी में नाम दर्शाया गया था। [35] इस झंडे का उपयोग 1939 और 1940 में न्यू यॉर्क विश्व मेले की इमारत पर किया गया था। संघ के पास एक बहुत सक्रिय डाक विभाग था। बडी संख्या में मुख्यालय से, विशेष एजेंसियों से और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में डाक भेजी जाती थी। कई मामलों में विशेष लिफाफों या अधिमुद्रित डाक टिकटों का उपयोग किया गया। [36] प्रधान अंग ]], जिनेवा, 1929 से इसके बडे सफेद कोर्ट ऑफ इंटरनेशनल जस्टिस तक]] और राष्ट्र संघ के नेता संघ के मुख्य संवैधानिक अंग थे: श्रम संगठन नियम कमोबेश तकनीकी चरित्र के उपलक्षित होते थे। इसलिए, संघ की अनेक एजेंसियां और आयोग थे। सभा सभा में संघ के सभी सदस्यों के प्रतिनिधि शामिल थे। प्रत्येक राष्ट्र को तीन प्रतिनिधियों तक अनुमति थी और मताधिकार एक था। [37] सभा की बैठक जेनेवा में हुई और 1920 में इसके प्रारंभिक सत्रों के बाद[38] इसके सत्र साल में एक बार सितंबर में होते थे। [37] एक सदस्य के अनुरोध पर सभा का विशेष सत्र बुलाया जा सकता था, बशर्ते सदस्यों का बहुमत सहमति दे देता सभा के विशेष कार्यों में नए सदस्यों का प्रवेश, परिषद के गैर-स्थायी सदस्यों के आवधिक चुनाव, स्थाई न्यायालय के न्यायाधीशों की परिषद के चुनाव और बजट का नियंत्रण शामिल थे। व्यवहार में सभा संघ की गतिविधियों की सामान्य निदेशक शक्ति बन गई थी। परिषद संघ परिषद सभा के क्रियाकलापों का निदेशन करने वाले एक कार्यकारी निकाय के रूप में कार्य करती थी। [39] परिषद चार स्थायी सदस्यों (ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, इटली और जापान) तथा चार अस्थायी सदस्यों, जो कि सभा द्वारा तीन साल के लिए निर्वाचित किए जाते थे। [40] पहले चार गैर-स्थायी सदस्य थे बेल्जियम, ब्राजील, ग्रीस और स्पेन संयुक्त राज्य अमेरिका को पांचवां स्थाई सदस्य माना जाता था लेकिन अमेरिकी सीनेट ने 19 मार्च 1920 को वरसाई संधि की पुष्टि के विरोध में मतदान किया, इस प्रकार अमेरिका को संघ में शामल होने से रोक दिया परिषद की संरचना तदनंतर कई बार बदलती रही थी। 22 सितम्बर 1922 को गैर स्थायी सदस्यों की संख्या पहली बार चार से बढ कर छह हुई है तथा 8 सितंबर 1926 को बढकर नौ होगई। जर्मनी की वर्नर डैंकवर्ट ने अपने गृह राष्ट्र जर्मनी पर संघ में शामिल होने के लिए दबाव डाला और वह 1926 में शामिल हो भी गया। जर्मनी परिषद का पांचवां स्थायी सदस्य बना, परिषद के सदस्यों की कुल संख्या पंद्रह हो गई। बाद में, जर्मनी और जापान दोनों के संघ को छोड देने के बाद, अस्थायी सीटों की संख्या नौ से बढा कर ग्यारह कर दी गई। परिषद की बैठकें औसतन एक साल में पांच बार तथा असाधारण सत्र जरूरत पडने पर होता था। 1920 और 1939 के बीच कुल 107 सार्वजनिक सत्र आयोजित किए गए थे। अन्य निकाय संघ अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय और अंतरराष्ट्रीय दबाव की समस्याओं से निपटने के लिए बनाई गई कई अन्य एजेंसियों तथा आयोगों के कार्यों का पर्यवेक्षण करता था। इन में शामिल थे निरस्त्रीकरण आयोग, स्वास्थ्य संगठन, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, जनादेश आयोग, अंतर्राष्ट्रीय बौद्धिक सहयोग पर आयोग (यूनेस्को (UNESCO) का पूर्ववर्ती), स्थायी केंद्रीय अफीम बोर्ड, शरणार्थी आयोग और दासता आयोग इन में से कई संस्थानों को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ को स्थानांतरित कर दिया गया के लिए, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, अंतर्राष्ट्रीय न्याय का स्थायी न्यायालय, (अंतर्राष्ट्रीय न्याय न्यायालय के रूप में) और स्वास्थ्य संगठन (संगठन स्वास्थ्य पुनर्गठन के रूप में विश्व) सभी बने संयुक्त राष्ट्र के संस्थान अंतरराष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय अंतरराष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय के लिए नियम द्वारा प्रदान किया गया था, लेकिन इसके द्वारा स्थापित नहीं किया गया। परिषद और सभा ने अपने संविधान की स्थापना की इसके न्यायाधीश परिषद और सभा द्वारा चुने गए थे और इसका बजट सभा द्वारा प्रदान किया जाता था। न्यायालय की संरचना में ग्यारह न्यायाधीशों और चार उप-न्यायाधीशों को नौ साल के लिए निर्वाचित किया गया था। संबंधित पक्षों द्वारा प्रस्तुत किए गए किसी भी अंतरराष्ट्रीय विवाद को सुनने और फैसला करने में न्यायालय सक्षम रहा था। परिषद या सभा की ओर से भेजे गए किसी भी विवाद या प्रश्न पर यह अपना परामर्शी मत दे सकता था। कोर्ट कुछ व्यापक परिस्थितियों में दुनिया के सभी देशों के लिए खुला था। तथ्य संबंधी प्रश्नों के साथ ही कानून के प्रश्न भी प्रस्तुत किये जा सकते थे। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन मुख्य लेख : अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ (ILO)) का गठन 1919 में वरसाई संधि के भाग तेरह के आधार पर किया गया था और यह संघ के संचालन का हिस्सा बन गया। [41] आईएलओ में हालांकि वही सदस्य थे जो संघ में थे और सभा के बजट नियंत्रण के अधीन यह अपने ही शासकीय निकाय, अपने स्वयं के आम सम्मेलन और अपने स्वयं के सचिवालय के साथ एक स्वायत्त संगठन था। इसका संविधान संघ से अलग था, इसमें न केवल सरकारों को बल्कि कर्मचारी एवं श्रमिक संगठनों के प्रतिनिधियों को प्रतिनिधित्व दिया गया था। इसके पहले निदेशक अल्बर्ट थॉमस थे। [42] आईएलओ ने पेंट में सीसा मिलाए जाने को सफलतापूर्वक प्रतिबंधित किया था[43] और अनेक देशों को आठ घंटे का कार्य दिवस और अडतालीस घंये का सार्य सप्ताह अपनाने के लिए कायल किया था। इसने बालश्रम खत्म करने, कार्यस्थलों पर महिलाओं के अधिकारों में वृद्धि करने तथा जहाजकर्मियों के कारण होने वाली दुर्घटनाओं के लिए जहाज मालिकों को जिम्मेदार ठहराने के काम भी किए [41] संगठन 1946 में संयुक्त राष्ट्र संघ की एक एजेंसी बन कर संघ के समाप्त होने के बाद भी अस्तित्व में बना रहा [44] स्वास्थ्य संगठन संघ के स्वास्थ्य संगठन के तीन निकाय थे, संघ के स्थाई अधिकारियों से युक्त एक स्वास्थ्य ब्यूरो, एक चिकित्सा विशेषज्ञों से युक्त कार्यकारी खंड आम सलाहकार परिषद या सम्मेलन और एक स्वास्थ्य समिति समिति का उद्देश्य जांच आयोजित करना, संघ के स्वास्थ्य कार्यों के संचालन की निगरानी करना और परिषद में प्रस्तुत करने के लिए काम तैयार करवाना था। [45] इस निकाय ने कुष्ठ रोग, मलेरिया तथा पीले बुखार को, बाद वाले दोनों के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय मच्छर उन्मूलन अभियान शपरू करके, समाप्त करने पर ध्यान केंद्रित किया। स्वास्थ्य संगठन ने संघ सोवियत सरकार के साथ भी सन्निपात की महामारी को रोकने के लिए बीमारी के बारे में बडा शिक्षा अभियान आयोजित करके सफलतापूर्वक काम किया था। [46] Alt = एक दर्जन से अधिक बच्चों की एक पंक्ति दूरी में फैली हुई है । वे लकडी के करघों को पकडे बैठे हैं जिनमें से प्रत्येक में से दो धागे निकले हुए हैं। एक आदमी उनके पीछे कुछ लकडी के ढांचों के सामने खडा है । बौद्धिक सहयोग पर समिति राष्ट्र संघ ने अपने निर्माण के बाद से ही अंतर्राष्ट्रीय बौद्धिक सहयोग के सवाल पर गंभीरता से ध्यान समर्पित किया था। पहली सभा (1920 दिसम्बर) ने सिफारिश की थी कि परिषद बौद्धिक कार्य के अंतरराष्ट्रीय संगठन को लक्ष्य करके कार्रवाई करे परिषद ने द्वितीय सभा की पांचवीं समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को अपनाया और अगस्त 1922 में जिनेवा में बौद्धिक सहयोग पर एक प्रतिष्ठित समिति को आमंत्रित किया। समिति के काम के कार्यक्रम में शामिल थे: बौद्धिक जीवन की स्थितियों में जांच, जिन देशों का बौद्धिक जीवन खतरे में था उनको सहायता, बौद्धिक सहयोग के लिए राष्ट्रीय समितियों का गठन, अंतर्राष्ट्रीय बौद्धिक संगठनों के साथ सहयोग, बौद्धिक संपदा की रक्षा, अंतर - विश्वविद्यालय सहयोग, के संरक्षण के साथ सहयोग के लिए राष्ट्रीय समितियों के निर्माण के लिए सहायता, ग्रन्थसूची के काम और प्रकाशनों के अंतरराष्ट्रीय विनिमय का समन्वय, पुरातात्विक अनुसंधान के क्षेत्र में और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग स्थायी केन्द्रीय अफीम बोर्ड संघ औषधि व्यापार को विनियमित करना चाहता था और उसने अफीम तथा इसके उप-उत्पादों के उत्पादन, निर्माण, व्यापार और खुदरा में मध्यस्थता करने वाले दूसरे अंतर्राष्ट्रीय अफीम सम्मेलन द्वारा शुरू की गई सांख्यिकीय नियंत्रण प्रणाली की निगरानी करने के लिए स्थाई केंद्रीय अफीम बोर्ड की स्थापना की बोर्ड ने नशीली दवाओं के वैध अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए आयात प्रमाणपत्र तथा निर्यात प्राधिकरण की प्रणाली स्थापित की [47] नानसेन पासपोर्ट का एक नमूना दासता आयोग दास आयोग ने दुनिया भर में गुलामी और गुलाम व्यापार के उन्मूलन की मांग की और मजबूरन वेश्यावृत्ति के विरूद्ध संघर्ष किया। [48] इसकी मुख्य सफलता वैधानिक राष्ट्रों में सरकारों द्वारा उन देशों में गुलामी समाप्त करने के लिए दबाव डाला जाना था। संघ ने सन 1926 में सदस्यता की एक शर्त के रूप में इथियोपिया से एक प्रतिबद्धता प्राप्त कि की वह गुलामी को समाप्त करेगा और लाइबेरिया के साथ जबरन श्रम और अंतर-आदिवासी गुलामी को समाप्त करने के लिए कार्य किया। [48] यह सिएरा लियोन में 200,000 दासो को मुक्त करने में सफल हुआ और अफ्रीका में बेगार की प्रथा रोकने के प्रयास में दास व्यापारियों के खिलाफ संगठित छापे डाले [कृपया उद्धरण जोडें] यह तंगान्यिका रेलवे निर्माण में कार्यरत श्रमिकों की मृत्यु दर को 55% से 4% तक कम करने में सफल रहा गुलामी, वेश्यावृत्ति और महिलाओं और बच्चों की तस्करी पर नियंत्रण रखने के लिए रिकॉर्ड बना कर रखा गया। [49] शरणार्थी आयोग फ्रिद्त्जोफ नानसें के नेतृत्व में शरणार्थियों के लिए आयोग उनकी स्वदेश वापसी की देखरेख सहित शरणार्थियों के हितों की देखरेख और, जब आवश्यक हो पुनर्वास की व्यवस्था करता था। [50] प्रथम विश्व युद्ध के अंत में रूस भर में बीस से तीस लाख पूर्व युद्ध बंदी फैले हुए थे,[50] आयोग की स्थापना के दो वर्षों के भीतर, सन 1920 तक, इसने 425,000 लोगों को उनके घर लौटने में मदद की थी। [51] इसने 1922 में तुर्की में शरणार्थी संकट से निपटने के लिए शिविरों की स्थापना की, के साथ बीमारी और भूख को रोकने में देश की सहायता की इसने नानसें पासपोर्ट स्थापित किया जो शरणार्थियों के लिए पहचान का साधन था। [52] महिलाओं की कानूनी स्थिति के अध्ययन के लिए समिति महिलाओं की कानूनी स्थिति के अध्ययन के लिए गठित समिति ने पूरी दुनिया में महिलाओं की स्थिति की जांच करने की मांग की यह अप्रैल 1938 में बनाई गई थी और 1939 के शुरू में भंग कर दी गई। समिति के सदस्यों में शामिल थे- ममे पी बस्तिद (फ्रांस), एम डी रुएल्ले (बेल्जियम) ममे अंका गोद्जेवाक (यूगोस्लाविया), श्री एच सी गुत्रिज (ग्रेट ब्रिटेन) मल्ले कर्स्टन हेस्सेल्ग्रें (स्वीडन),[53] सुश्री डोरोथी केन्योन (संयुक्त राज्य अमेरिका), एम पॉल सेबस्त्यें (हंगरी) और सचिवालय श्री ह्यूग मैक् कीनन वुड (ग्रेट ब्रिटेन) सदस्यगण 1920-1945 वर्षों में दुनिया का एक नक्शा, जो इसके इतिहास के दौरान राष्ट्र संघ के सदस्यों को दिखाता है । संघ के 42 संस्थापक सदस्यों में से, 23 (या 24, स्वतंत्र फ्रांस की गिनती) तब तक संघ के सदस्य बने रहे, जब तक यह 1946 में भंग नहीं कर दिया गया था। स्थापना वर्ष में छह अन्य राज्य शामिल हो गए, जिनमें से केवल दो संघ के अस्तित्व के दौरान सदस्य बने रहे बाद के वर्षों में अतिरिक्त 15 देश संघ में शामिल हो गए। 28 सितम्ब 1934 (जब इक्वाडोर शामिल हुआ था) और 23 फरवरी 1935 (जब पराग्वे ने सदस्यता वापस ले ली) के बीच सदस्य देशों की संख्या सबसे अधिक 58 हो गई थी। इस समय तक, केवल कोस्टा रिका (22 जनवरी1925), ब्राजील (14 जून1926), जापान का साम्राज्य (27 मार्च 1933) और जर्मनी (19 सितम्बर 1933) ने न्यून राजनयिक शक्तियों की वजह से नुकसान का हवाला देते हुए अपनी सदस्यता वापस ले ली थी। सोवियत संघ केवल 18 सितंबर 1934 को सदस्य बना,[54] क्योंकि वह जर्मनी के विरोध (जिसने एक वर्ष पूर्व सदस्यता छोड दी थी)[55] में शामिल हुआ और 14 दिसम्बर 1939[54] को संघ से फिनलैंड के खिलाफ आक्रामकता के लिए निष्कासित कर दिया [55] सोवियत संघ निष्कासन में, संघ ने अपने स्वयं के नियमों को तोड दिया; परिषद के 15 में से केवल 7 सदस्यों ने निष्कासन के लिए मतदान किया (ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, बोलीविया, मिस्र, दक्षिण अफ्रीका और डोमिनिकन गणराज्य), जो कि संघ के घोषणा पत्र के अनुसार वोटों के लिए आवश्यक बहुमत के नियम के अनुसार नहीं था। इनमें से तीन सदस्यों (दक्षिण अफ्रीका, बोलीविया और मिस्र) को परिषद के सदस्यों के रूप में मतदान के एक दिन पूर्व चुना गया था। [55] यह संघ के अंतिम कृत्यों में से एक था, इससे पहले कि यह व्यावहारिक रूप से द्वितीय विश्व युद्ध के कारण कार्य करना[56] बंद कर दिया [57] मिस्र संघ से जुडने वाला (26 मई 1937) अंतिम राज्य था। संघ की स्थापना के बाद सबसे पहले सदस्यता वापस लेने वाला राज्य, 22 जनवरी 1925 को कोस्टा रिका था; जो 16 दिसम्बर 1920 में शामिल हुआ था, इससे यह संघ का सदस्य बनने के बाद सबसे तेजी से सदस्यता वापस लेने वाला राज्य बन गया। संघ के अंतिम सदस्य सदस्य के रूप में उसके विघटन से पहले 30 अगस्त 1942 को सदस्यता वापस लेने वाला राज्य लक्जमबर्ग था। ब्राजील सदस्यता छोडने वाला पहला संस्थापक सदस्य था (14 जून 1926) था और हैती सबसे अंतिम (अप्रैल 1942) इराक, जो कि सन 1932 में संघ में शामिल हुआ, जो ऐसा पहला राष्ट्र था जिसके पास संघ से जुडने का जनादेश था। [58] जनादेश मुख्य लेख प्रथम विश्व युद्ध के अंत में, मित्र देश अफ्रीका में पूर्व जर्मनी के कालोनियों और प्रशांत क्षेत्र में और ऑटोमान साम्राज्य के कई गैर-तुर्की प्रांतों के निपटान के सवाल का सामना कर रहे थे। शांति सम्मेलन ने यह सिद्धांत अपनाया कि इन प्रदेशों को विभिन्न सरकारों द्वारा संघ की ओर से - अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षण के अधीन राष्ट्रीय जिम्मेदारी की एक प्रणाली द्वारा प्रशासित किया जाना चाहिए इस योजना को जनादेश प्रणाली के रूप में परिभाषित किया गया, जिसे "दस की परिषद" द्वारा 30 जनवरी 1919 को लागू कर, उसे राष्ट्र संघ को प्रेषित किया गया। राष्ट्र संघ के जनादेश, राष्ट्र संघ के घोषणा पत्र के अनुच्छेद 22 के तहत स्थापित किए गए थे। स्थायी जनादेश आयोग ने राष्ट्र संघ के जनादेश की निगरानी का कार्य किया और विवादित क्षेत्रों में जनमत संग्रह का कार्य करवाया ताकि उस प्रदेश के निवासी इस बात का निर्णय कर सकें कि वे किस देश में शामिल होना पसंद करेंगे ए जनादेश ए जनादेश (पुराने ऑटोमान साम्राज्य के कुछ हिस्सों पर लागू थे) 'निश्चित समुदाय थे' जो बी जनादेश बी जनादेश पूर्व जर्मन कालोनियों पर लागू किया गया जिसकी जिम्मेदारी संघ ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद ली इनको 'लोगों' के रूप में वर्णित किया गया जिन्हें संघ ने कहा अनिवार्य पॉवर्स कुछ प्रदेश अनिवार्य शक्तियों जैसे कि, फिलिस्तीन के जनादेश के मामले में ब्रिटेन और दक्षिण पश्चिम अफ्रीका के मामले में दक्षिण अफ्रीकी संघ, अनिवार्य शक्तियों द्वारा नियंत्रित थे, जब तक उन प्रदेशों को स्वशासन के योग्य नहीं समझा गया। चौदह जनादेश क्षेत्र थे, जो यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस, बेल्जियम, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया और जापान -छह अनिवार्य शक्तियों के मध्य विभाजित किये गये थे। इराकी साम्राज्य, जो 3 अक्टूबर 1932 को संघ में शामिल हुआ एक अपवाद था। ये क्षेत्र द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर सके थे, एक ऐसी प्रक्रिया जो कि सन 1990 तक समाप्त नहीं हुई थी। संघ के पतन के बाद, शेष बचे जनादेशों में से अधिकतर संयुक्त राष्ट्र के ट्रस्ट प्रदेश बने जनादेश के अलावा, संघ ने स्वयं 15 वर्षों तक सार बेसिन के क्षेत्र पर शासन किया। जब तक कि इसे एक जनमत संग्रह के बाद जर्मनी को लौटा नहीं दिया गया और दंजिग का मुक्त शहर (अब गदानास्क, पोलैंड) 15 सितम्बर 1939 से 1 नवम्बर 1920 तक संघ शासन के अधीन रहा क्षेत्रीय विवाद हल करना प्रथम विश्व युद्ध के बाद की परिस्थिति ने कई मुद्दों को देशों के बीच सुलझाने के लिए छोड दिया, जिसमें देशों के सीमाओं की वास्तविक स्थिति और कोई विशेष क्षेत्र किस देश में शामिल होगा आदि इन प्रश्नों में से अधिकांश विजयी मित्र शक्तियों के संबद्ध सुप्रीम परिषद जैसे निकायों के द्वारा संभाले गए। मित्र राष्ट्र विशेष रूप से मुश्किल मामलों को लेकर ही संघ में जाते थे। इसका तात्पर्य यह है कि के पहले तीन वर्षों के दौरान संघ ने युद्ध के परिणामस्वरूप हुई उथलपुथल को हल करने में अल्प भूमिका निभाई थी। संघ ने अपने प्रारंभिक वर्षों में उन प्रश्नों पर विचार किया जो पेरिस शांति संधियों द्वारा नामित थे। [60] जैसे-जैसे संघ का विकास होता गया, वैसे-वैसे इसकी भूमिक भी विस्तृत होती गई और 1920 के दशक के मध्य तक, यह अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों का केंद्र बन गया। यह परिवर्तन संघ और गैर सदस्यों के बीच के संबंधों में देखा जा सकता था। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस, तीव्र गति से संघ के साथ कार्य कर रहे थे। 1920 की दूसरी छमाही के दौरान, फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी सभी राष्ट्र संघ का उपयोग अपने राजनयिक गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कर रहे थे और उनके विदेश सचिवों में से प्रत्येक ने इस अवधि के दौरान जिनेवा में संघ की बैठकों में भाग लिया। उन्होंने संघ की व्यवस्था का उपयोग संबंधों को बेहतर बनाने और अपने मतभेदों को व्यवस्थित करने के लिए किया। [61] ऊपरी सिलेसिया 1921 में ऊपरी सिलेसिया में जनमत संग्रह से पोलिश पोस्टर कहता है: "माँ मुझे याद रखना पोलैंड के लिए वोट देना" मित्र देशों द्वारा ऊपरी सिलेसिया के क्षेत्रीय विवाद को हल करने में असमर्थ रहने पर उन्होंने इस समस्या को संघ को निर्दिष्ट किया। [62] प्रथम विश्व युद्ध के बाद, पोलैंड ने ऊपरी सिलेसिया, जो कि प्रशिया का हिस्सा रहा था, पर अपना दावा किया। वर्साई की संधि ने ऊपरी सिलेसिया में एक जनमत संग्रह कराने की सिफारिश की, ताकि यह तय किया जा सके कि क्षेत्र का कौन सा भाग जर्मनी या पोलैंड का हिस्सा होना चाहिए जर्मन अधिकारियों के रुख के बारे में शिकायतों ने दंगों को जन्म दिया जो अंततः पहले दो सिलेसियन विद्रोह (1919 और 1920) का कारण बना एक जनमत संग्रह 20 मार्च 1921 को संपन्न हुआ जिसमें 59 6% (500000 के आसपास) वोट जर्मनी में शामिल होने के पक्ष में डाले गये, परन्तु पोलैंड ने दावा किया कि उसके आसपास की स्थितियां उचित नहीं थी। इसके परिणामस्वरुप सन 1921 में तीसरा सिलेसियन विद्रोह हुआ। [63] 12 अगस्त 1921, को संघ को मामले को सुलझाने के लिए कहा गया, तब संघ और परिषद् ने स्थिति के अध्ययन के लिए बेल्जियम, ब्राजील, चीन और स्पेन के प्रतिनिधियों के साथ एक आयोग का गठन किया। [64] समिति ने सिफारिश की कि उच्च सिलेसिया को जनमत संग्रह में दिखाई गई प्राथमिकताओं के अनुसार पोलैंड और जर्मनी के बीच विभाजित किया जाना चाहिए और दोनों पक्षों को दोनो क्षेत्रों के बीच बातचीत का ब्यौरा परस्पर तय करना चाहिए उदाहरण के लिए, दोनों क्षेत्रों की आर्थिक और औद्योगिक अंतर्निर्भरता को देखते हुए क्या माल को स्वतन्त्रतापूर्वक सीमा से गुजरने देना चाहिए [65] सन 1921 के नवंबर में जेनेवा में जर्मनी और पोलैंड के बीच बातचीत करने के लिए एक सम्मेलन का आयोजन किया गया। पांच बैठकों के पश्चात एक अंतिम समझौता हुआ, जिसमें अधिकांश क्षेत्र जर्मनी को दिए गए थे लेकिन पोलिश क्षेत्र में खनिज संसाधनों की बहुलता और बहुत सारे उद्योगों से युक्त अनुभाग थे। जब यह समझौता सन 1922 के मई में सार्वजनिक किया गया तब जर्मनी में तीव्र असंतोष की लहर दौड गई, लेकिन संधि को तब भी दोनों देशों द्वारा मान्यता दी गई थी। इस समझौते ने क्षेत्र में शांति कायम रखी, जब तक कि द्वितीय विश्व युद्ध आरम्भ नहीं हो गया। [64] अल्बानिया सन 1919 में हुए पेरिस शांति सम्मेलन के दौरान अल्बानिया की सीमाओं का निर्धारण नहीं किया गया था और इसका निर्णय संघ के करने के लिए छोड दिया गया था, परन्तु सन 1921 के सितम्बर तक भी इसका निर्धारण नहीं किया गया। यूनानी सैनिकों द्वारा सैन्य अभियान के नाम पर अल्बानियाई इलाके में बार बार घुसपैठ के कारण अस्थिर स्थिति पैदा हुई जबकि दूसरी तरफ देश के सुदूर उत्तरी भाग में युगोस्लावियन फौजें अल्बानियाई आदिवासियों के साथ संघर्ष के बाद व्यस्त थीं। संघ ने क्षेत्र की विभिन्न शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हुए एक आयोग भेजा और सन 1921 के नवंबर में संघ ने निर्णय लिया कि अल्बानिया की सीमायें, तीन छोटे बदलावों के साथ जो कि यूगोस्लाविया के पक्ष में थी, के बाद वैसी ही रहेंगी जैसी कि वे सन 1913 में थी। यद्यपि विरोध के तहत, युगोस्लावियन फौजें कुछ सप्ताह बाद ही पीछे हट गईं [66] अल्बानिया की सीमायें एक बार पुन: अंतरराष्ट्रीय संघर्ष का कारण बनीं जब इतालवी जनरल एनरिको तेल्लिनी और उसके चार सहायकों की 24 अगस्त 1923 को एक हमले में हत्या कर दी गई, जब वे यूनान और अल्बानिया के बीच नई नवनिर्धारित सीमा का सीमांकन करने जा रहे थे। इस घटना से इतालवी नेता बेनिटो मुसोलिनी नाराज हो गया और उसने मांग की कि इस घटना की जांच के लिए एक आयोग स्थापित किया जाना चाहिए और इसकी जाँच की कार्यवाही पांच दिनों के भीतर पूरी की जानी चाहिए जांच के परिणाम चाहे जो भी हों, मुसोलिनी ने जोर देकर कहा कि यूनान की सरकार को इसकी क्षतिपूर्ति के रूप में इटली को पाँच करोड लीरा देने चाहिएं यूनानियों ने कहा कि वे जब तक यह साबित नहीं हो जाता है कि यह अपराध यूनानियों के द्वारा किया गया था तब तक वे क्षतिपूर्ति की राशि का नहीं भुगतान नहीं करेंगे [67] मुसोलिनी ने यूनानी द्वीप कोर्फू को जीतने के लिए एक युद्धपोत भेजा और इतालवी सेना ने 31 अगस्त 1923 को कोर्फू पर कब्जा कर लिया। यह संघ के घोषणा पत्र की अवहेलना थी, अत: यूनान ने स्थिति से निपटने के लिए राष्ट्र संघ में अपील की हलांकि, मित्र राष्ट्र (मुसोलिनी के जिद्द करने पर) इस बात पर सहमत हुए कि राजदूतों का सम्मेलन विवाद का समाधान खोजने के लिए जिम्मेदार होगा, क्योंकि यह सम्मेलन ही था, जिसने जनरल टिलानी को नियुक्त किया था। संघ की परिषद ने विवाद की जांच की, लेकिन अपने निष्कर्षों को राजदूतों की परिषद को अंतिम निर्णय पारित करने के लिए सौप दिया सम्मलेन ने संघ की अधिकांश सिफारिशों को स्वीकार कर लिया और यूनान पर इटली को 50 मिलियन लीरा की राशि क्षतिपूर्ति के रूप में देने के लिए दवाब डाला, इसके वाबजूद कि जिन्होंने अपराध किया था उनकी खोज नहीं की जा सकी [68] मुसोलिनी विजेता के रूप में कोर्फू को छोडने में सक्षम था। आलैंड द्वीप मुख्य लेख आलैंड स्वीडन और फिनलैंड के बीच के मार्ग में करीब 6500 के आसपास द्वीपों का एक समूह है । द्वीप में विशेष रूप से स्वीडिश बोलने वाले लोगों की आबादी हैं, परन्तु सन 1809 में स्वीडन ने अपने दोनों द्वीप फिनलैंड और आलैंड साम्राज्यवादी रूस के हाथों खो दिया सन 1917 के दिसम्बर में, रूसी अक्टूबर क्रांति की उथलपुथल के दौरान, फिनलैंड ने स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और अधिकांश आलैंड द्वीप वासियों का विचार पुन: स्वीडन में शामिल होने का था[69] हालंकि फिनिश सरकार ने, महसूस किया है कि यह द्वीप उनके नए राष्ट्र का हिस्सा हो सकता हैं, क्योंकि सन 1809 में, रूसियों ने फिनलैंड के ग्रैंड डच में आलैंड को शामिल किया था। सन 1920 तक, विवाद ऐसे स्तर पर पहुंच गया था कि युद्ध का खतरा मंडराने लगा था। ब्रिटिश सरकार ने संघ की परिषद को समस्या स्थान्तरित कर दी, लेकिन फिनलैंड ने संघ को हस्तक्षेप नहीं करने दिया, क्योंकि वह इसे आंतरिक मामला मानता था। संघ ने एक लघु समिति का गठन किया, जो इस बात का निर्णय लेती कि संघ को मामले की जाँच करनी चाहिए या नहीं सकारात्मक प्रतिक्रिया प्राप्त होने पर एक तटस्थ समिति का गठन किया गया। [69] जून 1921 में, संघ ने अपने निर्णय की घोषणा की, जिसके अनुसार द्वीप समूह फिनलैंड के अंग बने रहेंगे, परन्तु द्वीपवासियों की सुरक्षा की गारंटी पर, जिसमें असैन्यीकरण का शर्त भी शामिल थी। स्वीडन के अनिच्छुक सहमति के साथ, संघ के माध्यम से सीधे संपन्न होने वाला यह पहला यूरोपीय अंतरराष्ट्रीय समझौता था। [70] हैती गणराज्य एक संक्रमणकालीन राजनीतिक इकाई थी जो कि औपचारिक रूप से 7 सितंबर से 1938 से 29 जून 1939 तक अस्तित्व में थी, जो कि सीरिया के फ्रेंच जनादेश के तहत अलेक्जेंड्रिया के संजाक का प्रदेश थी। राष्ट्र संघ के निरीक्षण के अधीन, तुर्की गणराज्य ने 29 जून 1939 को इस प्रदेश पर कब्जा कर लिया और तुर्की हैती प्रांत (एर्जीं, दोर्त्योल, हस्सा के जिलों को छोडकर) में बदल दिया मेमल मुख्य लेख मेमेल का बंदरगाह शहर (जो अब क्लैपेडा के नाम से जाना जाता हैं) और आसपास के क्षेत्र, जो मुख्य रूप से जर्मन जनसंख्या से भरी हुई थी, वर्साई की संधि के अनुच्छेद 99 के अनुसार मित्र राष्ट्रों से संबद्ध नियंत्रण के अधीन थी। फ्रेंच और पोलिश सरकारें मेमेल को एक अंतरराष्ट्रीय शहर के रूप में परिवर्तित करना चाहती थी जबकि लिथुआनिया उस क्षेत्र पर अधिकार करना चाहता था। 1923 तक, इस क्षेत्र के नियंत्रण के बारे में कोई निर्णय नहीं लिया गया था, जिससे उत्साहित होकर लिथुआनियाई बलों ने जनवरी 1923 में आक्रमण करके बंदरगाह को अपने अधिकार में ले लिया। मित्र राष्ट्रों द्वारा लिथुआनिया के साथ समझौता करने में असफल होने पर, उन्होंने इस विषय को राष्ट्र संघ को सौंप दिया दिसम्बर 1923 में संघ परिषद ने जांच के लिए एक जांच आयोग की नियुक्ति की आयोग ने मेमेल को लिथुआनिया को सौंपने और क्षेत्र को स्वायत्त अधिकार देने का फैसला किया। इस क्लैपेडिया सम्मलेन को संघ की परिषद् द्वारा 14 मार्च 1924 को और फिर मित्र देशों और लिथुआनिया द्वारा अनुमोदित किया गया। [71] मोसुल संघ ने 1926 में मोसुल के पूर्व प्रांत ऑटोमान के नियंत्रण को लेकर इराक साम्राज्य और तुर्की गणराज्य के बीच चल रहे विवाद को हल किया था। ब्रिटिश के अनुसार, जिन्हें 1920 में इराक पर राष्ट्र संघ ए-जनादेश दिया गया था और इसलिए इराक के विदेश मामलों में उसका प्रतिनिधित्व करते थे, मोसुल इराक का था; दूसरी तरफ नये तुर्की गणराज्य ने इस प्रांत के अपना ऐतिहासिक केंद्रीय स्खल होने का दावा किया। बेल्जियम, हंगरी और स्वीडन के सदस्यों के साथ एक राष्ट्र संघ जांच आयोग को 1924 में इस क्षेत्र के अध्ययन के लिए भेजा गया था जिसने पाया कि मोसूल के लोग तुर्की का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे और यदि उनसे चुनने को कहा जाता तो वे इराक को चुनते [72] सन् 1925 में आयोग ने सिफारिश की कि यह क्षेत्र इराक का हिस्सा रहेगा, इस शर्त के साथ कि कुर्दिश आबादी के स्वायत्त अधिकार सुनिश्चित करने के लिए अगले 25 वर्ष तक इराक पर ब्रिटिश के पास जनादेश रहेगा संघ परिषद ने सिफारिश को स्वीकीर कर लिया और 16 दिसम्बर 1925 को मोसूल इराक को देने का फैसला किया। हालांकि 1923 में लूसाने की संधि में तुर्की ने राष्ट्र संघ की मध्यस्थता स्वीकार कर ली थी, इसने परिषद के अधिकार पर संघ द्वारा प्रश्नचिह्न लगाने के फैसले को नामंजूर कर दिया मामला अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय को भेज दिया गया, जिसने निर्णय दिया कि यह परिषद का सर्वसमेमत फैसला था जिसको स्वाकार किया जाना चाहिए बहरहाल, ब्रिटेन, इराक और तुर्की ने 5 जून 1926 को एक अलग संधि की पुष्टि की, जिसने संघ के निर्णय का अधिकांशतः पालन किया और मोसूल इराक को दे दिया इस बात पर सहमति हुई तथापि, कि इराक 25 साल के अंदर फिर से संघ की सदस्यता के लिए आवेदन कर सकता है और यह कि सदस्यता स्वीकार होते ही जनादेश समाप्त हो जाएगा [73][74] विल्नियस मुख्य लेख प्रथम विश्व युद्ध के बाद, पोलैंड और लिथुआनिया दोनों ने अपनी स्वतंत्रता वापस प्राप्त की लेकिन वहाँ देशों के बीच सीमाओं के बारे में असहमति थी। [75] पोलिश-सोवियत युद्ध के दौरान लिथुआनिया ने सोवियत संघ के साथ शांति संधि पर हस्ताक्षर किया जिसे लिथुआनिया सीमाओं से बाहर रखा था। इस समझौते ने विल्नियस शहर पर नियंत्रण दिया (लिथुआनियाई : Vilnius, पोलिश : Wilno), लिथुआनिया के लिये उसकी पुरानी लिथुआनियाई राजधानी, जो देश की सरकारी सीट बन गयी थी। [76] लिथुआनिया और पोलैंड के बीच बढे हुए तनाव ने डर जगाया कि वे युद्ध करेंगे, तथा 7 अक्टूबर 1920 को संघ ने एक छोटी बातचीत के साथ युद्धविराम किया। [75] युद्ध के युग के दौरान विल्नियस शहर की अधिकांश आबादी पोलिश थे तथा 9 अक्टूबर 1920 को जनरल जेलिगोव्स्की ने पोलिश सेना बल के साथ शहर का जिम्मा लिया और दावा किया कि लिथुआनिया की केन्द्र सरकार अब उनके अधीन थी। [75] लिथुआनिया ने संघ की सहायता का अनुरोध किया और बदले में संघ परिषद ने क्षेत्र से पोलैंड की वापसी का आह्वान किया। पोलिश सरकार ने संकेत दिया कि वे संघ की आज्ञापालन करेंगे, लेकिन छोडने की बजाय, इसने अधिक पोलिश सैनिकों के साथ शहर को मजबूत बनाया [77] इसने लीग को यह फैसला करने के लिए उकसाया कि विल्नियस का भविष्य एक जनमत संग्रह में अपने निवासियों द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिए और पोलिश बलों को हट जाना चाहिये तथा लीग द्वारा आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय बल द्वारा बदला जाना चाहिये फ्रांस और ब्रिटेन सहित कई लीग देशों ने अंतरराष्ट्रीय बल के भाग के रूप में क्षेत्रों में सैन्य दलों को भेजना शुरू किया। लिथुआनिया और पोलैंड के बीच दुश्मनी 1920 के अंत में फिर से बढ गयी लेकिन 1921 की शुरूआत में, पोलिश सरकार ने एक शांतिपूर्ण निपटारा तलाशना शुरू कर दिया क्षेत्र के लिए लीग की योजना का समर्थन करने, पोलिश सैन्य दलों को हटाने, तथा जनमत संग्रह के साथ सहयोग करने के लिये सहमत हुए लीग को हालांकि अब लिथुआनिया और सोवियत संघ, जिसने लिथुआनिया में किसी भी अंतरराष्ट्रीय बल का विरोध किया था, से विरोध का सामना करना पडा लीग ने मार्च 1921 में जनमत संग्रह और अंतरराष्ट्रीय बल के लिये बनायी गयी योजनाओं को रद्द किया तथा दो पक्षों के बीच बातचीत से मसला हल करने के लिये वापस आया। [78] विल्नियस और आसपास के क्षेत्रों पर औपचारिक रूप से मार्च 1922 में पोलैंड ने कब्जा किया था और 14 मार्च 1923, को संबद्ध सम्मेलन ने विल्नियस को पोलैंड के साथ छोडते हुए लिथुआनिया और पोलैंड के बीच सीमा तय की [79] लिथुआनियाई अधिकारियों ने निर्णय स्वीकार करने से इनकार कर दिया, तथा 1927 तक पोलैंड के साथ आधिकारिक तौर पर युद्ध की अवस्था में रहे [80] जब तक 1938 में पोलैंड ने अल्टीमेटम नहीं दे दिया, लिथुआनिया ने पोलैंड के साथ राजनयिक संबंध पुनर्स्थापित नहीं किए, युद्ध समाप्त नहीं किया तथा पडौसी के साथ वास्तविक सीमाओं को स्वाकर नहीं किया। [81] कोलंबिया और पेरू पेरू के हमले का जवाब देती कोलंबियाई सेना मुख्य लेख वहाँ 20वीं सदी के शुरूआत में कोलंबिया और पेरू के बीच में कई सारे सीमा विवाद थे, तथा 1922 में, उनकी सरकारों ने उन विवादों को सुलझाने के लिये सॉलोमन-लोजानो संधि पर हस्ताक्षर किए [82] इस संधि के रूप में, कोलम्बिया को अमेजन नदी का उपयोग करने देने के साथ, सीमा शहर लेटीका तथा उसके आसपास के क्षेत्र को पेरू से कोलम्बिया तक सत्तान्तरित कर दिया गया। [83] 1 सितम्बर 1932 को पेरूविअन रबर तथा चीनी उद्योगों के व्यापारिक नेता जो अपनी भूमि खो चुके थे जब क्षेत्र को कोलंबिया के हवाले कर दिया गया था जिसने लेटीका का एक सशस्त्र अधिग्रहण का आयोजन किया। [84] सबसे पहले, पेरू सरकार ने सैन्य अधिग्रहण को नही पहचाना लेकिन पेरू के राष्ट्रपति लुइस सांचेज सिरो ने कोलंबिया के पुनः कब्जा करने का विरोध किया। पेरू सेना ने लेटीका पर कब्जा कर लिया, जिसके परिणामस्वरूप दो देशों के बीच सशस्त्र संघर्ष हुआ। [85] महीनों के कूटनीतिक खींचतान के बाद, राष्ट्र संघ द्वारा की गई मध्यस्थता को सरकार ने स्वीकार किया, तथा उनके प्रतिनिधियों ने संघ की परिषद से पहले अपने मामलों प्रस्तुत किया। एक अल्पकालीन शांति समझौता, जिस पर मई 1933 में दोनों पक्षों द्वारा हस्ताक्षर किया गया और जिसे विवादित क्षेत्र पर नियंत्रण मानते हुए द्विपक्षीय वार्ता की तैयारी के साथ संघ को प्रदान किया गया। [86] मई 1934 में, एक अंतिम शांति समझौते पर हस्ताक्षर किया गया, जिसके परिणामस्वरूप लेटीका की कोलंबिया वापसी हुई, 1932 के आक्रमण के लिये पेरू की औपचारिक माफी, लेटीका के आसपास के क्षेत्रों का असैन्यीकरण, अमेजन तथा पुतुमायो नदियों पर मुफ्त नौवहन, तथा गैर-आक्रामकता की एक एक प्रतिज्ञा सार सार एक प्रांत था जो प्रशिया तथा रेनिश पेलेटीनेट के भागों से बना था, जिसको स्थापित किया गया तथा वर्सेलीज की संधियों द्वारा संघ के काबू में रखा गया। यह निर्धारित करने के लिए कि क्या इस क्षेत्र को जर्मनी या फ्रांस से संबंध रखना चाहिये, पंद्रह साल के संघ शासन के बाद एक जनमत संग्रह आयोजित किया गया था। जब 1935 में जनमत संग्रह आयोजित किया गया था, 90 3 प्रतिशत वोट जर्मनी के समर्थन में आया[87][88] 17 जनवरी 1935 को संघ परिषद द्वारा जर्मनी के साथ क्षेत्रों के पुनः एकीकरण को अनुमोदित किया गया। और शांति सुरक्षा क्षेत्रीय विवादों के अलावा, संघ ने देशों के बीच (और देश के अंदर भी) अन्य संघर्षों में हस्तक्षेप करने की प्रयास भी किया। इसकी सफलताओं में उसके अफीम के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और यौन दासता का मुकाबला करने के प्रयास तथा शरणार्थियों खासकर 1926 की अवधि में तुर्की में, की दुर्दशा कम करने के उसके कार्य शामिल थे। इस बाद वाले क्षेत्र में उसके नवाचारों में से एक था 1922 में नानसेन पासपोर्ट शुरू करना, जो कि शरणार्थियों के लिए पहला अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त कार्ड था। संघ की अनेक सफलताएं इसकी विभिन्न एजेंसियों और आयोगों के द्वारा पूर्ण की गई थीं। ग्रीस और बुल्गारिया मुख्य लेख अक्टूबर 1925 में यूनान और बुल्गारिया की सीमा पर संतरियों के बीच हुई घटना के बाद दोनों देशों के बीच लडाई शुरू हो गई। [89] प्रारंभिक घटना के तीन दिन के बाद ग्रीक सैनिकों ने बुल्गारिया पर आक्रमण कर दिया बुल्गेरियाई सरकार ने सैनिकों को केवल सांकेतिक प्रतिरोध करने का आदेश दिया और संघ पर विश्वास करते हुए कि वह इस विवाद को सुलझाएगा, सीमा क्षेत्र से दस से पंद्रह हजार लोगों को खाली करवा दिया [90] संघ ने वास्तव में यूनानी आक्रमण की निंदा की और यूनानियों की वापसी और बुल्गारिया को मुआवजा देने की मांग की यूनान ने पालन किया, लेकिन उसके साथ किए गए व्यवहार और कोर्फू की घटना के बाद इटली के साथ किए गए व्यवहार में असमानता के बारे में शिकायत की लाइबेरिया अमेरिकी स्वामित्व वाले विशाल फायरस्टोन रबड बागान में जबरन मजदूरी के आरोपों तथा दास व्यापार के अमेरिकी आरोपों के बाद लाइबेरियाई सरकार ने राष्ट्र संघ से जांच शुरू करने को कहा [91] जांच के लिए गठित आयोग को संघ, संयुक्त राज्य अमेरिका और लाइबेरिया द्वारा संयुक्त रूप से नियुक्त किया गया था। [92] 1930 में, संघ की एक रिपोर्ट में पुष्टि की गई कि दास प्रथा तथा जबरन मजदूरी प्रचलित थी। रिपोर्ट में कई सरकारी अधिकारियों को बंधुआ मजदूरों की बिक्री में शामिल पाया गया था और सिफारिश की गई कि उनको हटा कर उनकी जगह यूरोपीय या अमेरिकी लगाए जाएं लाइबेरियन सरकार ने दास प्रथा और जबरन मजदूरी को गैरकानूनी घोषित कर दिया और अमेरिका की सहायता मांगी, यह ऐसा कदम था जिसने लाइबेरिया के अंदर गुस्सा पैदा कर दिया जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रपति चार्ल्स डी बी किंग तथा उनके उप-राष्ट्रपति को त्यागपत्र देना पडा [92][93] तब संघ ने धमकी दी कि जब तक सुधारों को लागू नहीं किया जाता लाइबेरिया पर एक न्यासिता की स्थापना कर दी जाएगी राष्ट्रपति एडविन बार्क्ले का ध्यान इन सुधारों को लागू करने पर केंद्रित हो गया। [कृपया उद्धरण जोडें] मुक्देन हादसा मुख्य लेख 18 सितंबर 1931 शेनयांग में प्रवेश करती जापानी सेनाएं मुक्देन का हादसा, जिसे "मंचूरियन हादसा" या "सुदूर पूर्वी संकट" के रूप में भी जाना जाता हैं, संघ की बडी असफलताओं में से एक था, जिसने संगठन से जापान की वापसी के लिए उत्प्रेरक के रूप में काम किया। एक सहमति पट्टे की शर्तों के अधीन जापानी सरकार को यह अधिकार प्राप्त था कि वह दक्षिणी मंचूरियन रेलवे के आस पास के क्षेत्रों में अपनी सेना को तैनात रखे, जो कि चीनी क्षेत्र के मंचूरिया प्रदेश से होकर जाने वाला दोनों देशों के बीच एक प्रमुख व्यापार मार्ग था। [94] सन 1931 के सितम्बर में मंचूरिया के एक आक्रमण के बहाने जापानी क्वांगतुंग सेना[95][96] के अधिकारीयों और सैनिकों के एक दल ने रेलवे के कुछ भाग को थोडा क्षतिग्रस्त कर दिया [95][97] हालाँकि, जापानी सैनिकों ने दावा किया कि रेलवे का विध्वंस चीन के सैनिकों ने किया हैं और इसके स्पष्ट प्रतिशोध में (नागरिक सरकार के आदेश[96] के विपरीत कार्य करते हुए) मंचूरिया के सम्पूर्ण क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। उन्होंने इस क्षेत्र का नामकरण मंचुको किया और 9 मार्च 1932, को एक कठपुतली सरकार चीन के पूर्व महाराजा पु यी के नेतृत्व में स्थापित की [98] अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, इस नये देश को केवल इटली और जर्मनी की सरकारों द्वारा ही मान्यता दी गई थी, जबकि दुनिया के बाकी देश अभी भी मंचूरिया को कानूनी तौर पर चीन का ही हिस्सा मानते थे। सन 1932 में, जापान की वायु और जल सेना ने चीन के शंघाई शहर पर बमवर्षा की, जिसने 28 जनवरी की घटना को चिंगारी प्रदान किया। राष्ट्र संघ चीन की सरकार से अनुरोध करने के लिए सहमत हो गया, परन्तु लम्बी समुद्री यात्रा के कारण संघ के सदस्यों को मामले की जाँच करने में विलम्ब हो गया। वहां पहुँचने पर अधिकारियों को चीनी दावों का सामना करना पडा कि जापान द्वारा किया गया आक्रमण अवैध था, जबकि जापानियों का कहना था कि ऐसा उन्होंने क्षेत्र में शांति-सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए किया हैं। जापान की संघ में उच्च पहुँच के वाबजूद, लिटन द्वारा पेश रिपोर्ट ने जापान को आक्रामक सिद्ध कर दिया और मांग की कि मंचूरिया चीन को वापस लौटा दिया जाये इससे पहले कि रिपोर्ट पर विधानसभा द्वारा मतदान कराया जाता, जापान ने चीन में आगे बढने की अपनी मंशा की घोषणा कर दी सन 1933 में रिपोर्ट विधानसभा में 42-1 के बहुमत से पारित (केवल जापान ने प्रस्ताव के खिलाफ वोट दिया) हुई, परन्तु चीन से अपनी सेना हटाने के बजाय, जापान ने संघ से अपनी सदस्यता वापस ले ली घोषणा -पत्र के अनुसार, राष्ट्र संघ को जापान पर आर्थिक प्रतिबंध लगा कर उसका जवाब देना चाहिए था, या सैन्य एकत्र कर उसके विरूद्ध युद्ध की घोषणा करनी चहिये थी। हालांकि इनमें से कोई भी कार्यवाही की नहीं गई। आर्थिक प्रतिबंध का खतरा लगभग बेकार ही हो गया था क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका राष्ट्र संघ सदस्य नहीं था। किसी भी प्रकार का आर्थिक प्रतिबंध संघ अपने सदस्य राज्यों पर आरोपित करता था वह अप्रभावी हो जाता था, क्योंकि जब एक सदस्य राष्ट्र को दुसरे सदस्य राष्ट्र के साथ व्यापार करने के लिए प्रतिबंधित किया जाता था तो वह संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित कर लेता था। राष्ट्र संघ एक सेना इकट्ठा कर सकता था, लेकिन ब्रिटेन और फ्रांस जैसे प्रमुख शक्तियां भी अपने-अपने मामलों में उलझी हुई थी, जैसे कि अपने व्यापक साम्राज्य पर नियंत्रण, विशेषकर प्रथम विश्व युद्घ के उथल-पुथल के बाद इसलिए मंचूरिया को जापान के नियंत्रण में छोड दिया गया, जब तक कि सोवियत संघ की लाल सेना ने उस क्षेत्र पर कब्जा नहीं जमा लिया और उसे द्वितीय विश्व युद्घ के बाद चीन को वापस लौटा दिया चाको युद्ध मुख्य लेख राष्ट्र संघ सन 1932 में बोलीविया और पराग्वे के मध्य दक्षिणी अमेरिका के शुष्क ग्रान चाको क्षेत्र को लेकर हुए युद्ध को रोकने में नाकाम रहा हालांकि इस क्षेत्र आबादी कम थी, यंहा परागुवे नदी बहती हैं जो कि दो में से एक चारों तरफ से भूमि से घिरे देश को अटलांटिक महासागर[99] से जोडती थी और इसके सम्बन्ध में वहाँ भी अटकलें भी थी कि चाको पेट्रोलियम समृद्ध प्रदेश हैं, जो बाद में गलत साबित हुई [100] सन 1920 के उतरार्द्ध में सतत रूप से सीमा पर होने वाली झडप, अंतत: 1932 में पूर्ण युद्ध का कारण बनी, जब बोलीविया की सेना ने पराग्वे के पितिंयांतुता झील के किनारे स्थित फोर्ट कार्लोस एंटीनियो लोपेज पर आक्रमण कर दिया [101] पराग्वे ने राष्ट्र संघ में अपील किया, परन्तु राष्ट्र संघ ने कोई कार्यवाही नहीं की और इसके बदले पैन अमेरिका सम्मेलन ने मध्यस्थता की पेशकश की यह युद्ध दोनों पक्षों के लिए एक आपदा के समान था, जिसमें बोलीविया, जिसकी आबादी तीस लाख के करीब थी, के हताहतों की संख्या 57,000 और पराग्वे जिसकी आबादी दस लाख थी, के हताहतों की संख्या 36000 थी। [102] इस युद्ध ने दोनों देशों को आर्थिक संकट के कगार पर ला खडा किया। कुछ समय बाद बातचीत के जरिये 12 जून 1935 को युद्ध-विराम घोषित हुआ। पराग्वे ने अधिकांश क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। [103] इसे 1938 के संघर्ष विराम के द्वारा मान्यता प्राप्त हुई जिसमें पराग्वे को उत्तरी चाको का तीन-चौथाई भाग प्राप्त हुआ। अबीसीनिया पर इतालवी आक्रमण मुख्य लेख दूसरे इतालवी-अबीसीनियाई युद्ध में लडने के लिए 1935 में इतालवी सैनिकों की भर्ती अक्टूबर 1935 में, इतालवी तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी ने अबीसीनिया (इथोपिया) पर आक्रमण करने के लिए 400000 सैनिकों को भेजा [104] मार्शल पिएत्रो बदोग्लियो ने सन 1935 के नवंबर से अभियान का नेतृत्व किया। उसने बमबारी करने, रासायनिक हथियारों जैसे कि मस्टर्ड गैस का उपयोग करने और लक्ष्य के विरूद्ध पानी की आपूर्ति को विषाक्त करने, जिसमें असुरक्षित गावँ और चिकित्सा सुविधाएँ शामिल थी, का आदेश दिया [104][105] आधुनिक इतावली सेना ने अत्यंत पिछडी अबीसीनिया की सेना को आसानी से हरा दिया और मई 1936 में अदीस अबाबा पर अधिकार करते हुए सम्राट हेल सेलासी को भागने पर मजबूर का दिया [106] राष्ट्र संघ ने इटली की आक्रामकता की निंदा की और सन 1935 के नवंबर में आर्थिक प्रतिबंध लगाये, लेकिन वे प्रतिबन्ध काफी हद तक अप्रभावी थे, क्योंकि वे तेल की बिक्री पर प्रतिबंध नहीं लगा सके या स्वेज नहर (ब्रिटेन द्वारा नियंत्रित) को बंद नहीं किया गया। [107] स्टेनली बाल्डविन, ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने बाद में कहा कि कोई भी सैन्य रूप से इतना सक्षम नहीं था कि वह इटली के आक्रमण का मुकाबला कर सके [108] सन 1935 के अक्टूबर में अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट ने हाल ही में पारित तटस्थता अधिनियम को लागू किया और हथियारों और गोला - बारूद की बिक्री पर दोनों पक्षों पर व्यापार प्रतिबंध लगा दिया, परन्तु विद्रोही इटली के साथ उसने "नैतिक व्यापार प्रतिबंध" में थोडी ढील दी, जिसमें व्यापार की अन्य वस्तुयें शामिल थी। पहले 5 अक्टूबर और बाद में 4 जुलाई 1936 को संयुक्त राज्य अमेरिका को अपने प्रयासों में आशातीत सफलता प्राप्त हुई और उसने तेल और अन्य सामग्री के निर्यात को सामान्य शांतिकाल के स्तर तक पहुंचा दिया [109] राष्ट्र संघ के प्रतिबंधों को 4 जुलाई 1936 में उठा लिया गया, लेकिन उस समय तक इटली अबीसीनिया के शहरी क्षेत्रों पर नियंत्रण प्राप्त कर चुका था। [110] सन 1935 के दिसम्बर में, होअरे -लावेल संधि ब्रिटिश विदेश मंत्री सैमुएल होअरे और फ्रांस के प्रधानमंत्री पियरे लावेल द्वारा अबीसीनिया के संघर्ष को समाप्त करने का एक प्रयास था, जिसमें देश को दो भागों में विभाजित करने का प्रस्ताव था, - एक इतालवी क्षेत्र और एक अबीसीनिया का क्षेत्र मुसोलिनी इस संधि के लिए सहमत हो गया था, लेकिन लेकिन सौदे की खबर लीक हो गई, फलत: फ्रांसिसी और ब्रिटिश जनता ने इसका कडा विरोध किया और इस संधि को अबीसीनिया के विक्रय का प्रस्ताव कहा होअरे और लावेल को उनके पदों से इस्तीफा देने को मजबूर किया गया और ब्रिटिश और फ्रांसीसी दोनों सरकारें अपने - अपने संबंधित लोगों से अलग हो गई। [111] सन 1936 के जून से पहले, हालांकि राज्य के एक प्रमुख व्यक्ति के द्वारा राष्ट्र संघ के विधानसभा को संबोधित करने काकोई परम्परा नहीं थी, हेल सिलासी, इथियोपिया के सम्राट ने अपने देश की रक्षा करने में सहयोग के लिए सभा से मदद के लिए अपील की [112] यही स्थिति जापान के साथ भी थी, अबीसीनिया के संकट से निपटने में प्रमुख शक्तियों उत्साह उनकी इस धारणा के कारण नहीं था कि इस गरीब और सुदूर देश का भाग्य जो कि गैर यूरोपीय लोगों का निवास स्थान था, उनकी केन्द्रीय रुचि का विषय नहीं हो सकता हैं। [कृपया उद्धरण जोडें] इसके अतिरिक्त, इससे यह भी स्पष्ट होता है कि कैसे राष्ट्र संघ अपने सदस्यों के स्वार्थ से प्रभावित हो सकता है;[113] प्रतिबंध के बहुत कठोर नहीं होने का कारण मुसोलिनी और जर्मन तानाशाह हिटलर के संभावित गठबंधन बनाने को लेकर ब्रिटेन और फ्रांस का भय भी था। [114] स्पेन के गृह युद्ध मुख्य लेख 17 जुलाई 1936 को, स्पेनिश सेना ने राज्य-विप्लव शुरू किया, जिसके कारण स्पेनिश रिपब्लिकनों (स्पेन की वामपंथी सरकार) और राष्ट्रवादियों (रूढिवादी, कम्यूनिस्ट-विरोधी विद्रोही जिनमें स्पेनिश सेना के अधिकतर अधिकारी शामिल थे) के बीच एक लम्बी अवधि का सशस्त्र संघर्ष शुरू हुआ। [115] अल्वारेज डेल वायो, विदेशी मामलों के स्पेनिश मंत्री, ने सितंबर 1936 में संघ से अपनी प्रादेशिक अखण्डता और राजनीतिक स्वतंत्रता की रक्षा हेतु शस्त्रों की मांग की तथापि, संघ के सदस्यों ने, स्पेनिश गृह युद्ध में न तो हस्तक्षेप किया और न ही विदेशी हस्तक्षेप को रोका हिटलर और मुसोलिनी ने निरंतर जनरल फ्रांसिस्को फ्रैंको के राष्ट्रवादी विद्रोहियों को अपना समर्थन जारी रखा और सोवियत संघ ने स्पेनिश गणतंत्रवादियों को समर्थन दिया फरवरी 1937 में, संघ ने अंततः विदेशी राष्ट्रीय स्वयंसेवकों के हस्तक्षेप पर प्रतिबन्ध लगा दिया दूसरा चीन-जापान युद्ध मुख्य लेख सम्पूर्ण 1930 के दशक में क्षेत्रीय संघर्षों को भडकाने के लम्बे रिकॉर्ड के बाद, जापान ने 7 जुलाई 1937 को चीन पर पूर्ण धावा बोल दिया 12 सितंबर को, चीनी प्रतिनिधि, वेलिंगटन कू, ने संघ से एक अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप की अपील की पश्चिमी राष्ट्र जापान के विरूद्ध उनके संघर्ष में चीन के हमदर्द थे, विशेषकर उनके शंघाई की अटल सुरक्षा के लिए, एक शहर जहां विदेशियों की बडी संख्या थी। तथापि, संघ एक निर्णायक वक्तव्य जिसने चीन को “आत्मिक समर्थन” दिया, के अलावा किसी व्यवहारिक उपाय का प्रबंध करने में अक्षम रहा 4 अक्टूबर को, संघ स्थगित हो गया और इस विषय को नौ शक्ति संधि सम्मेलन को हस्तांतरित कर दिया गया। निरस्त्रीकरण और द्वितीय विश्व युद्ध के रास्ते में असफलताएं संघ के प्रसंविदा के अनुच्छेद आठ ने संघ को कार्य दिया कि “शस्त्रीकरण को उस निम्नतम बिन्दु तक सीमित रखें जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जरूरी हो और अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों का सामान्य क्रिया द्वारा प्रवर्तन हो सके ”[116] संघ की समय एवं उर्जा का अधिकांश भाग निरस्त्रीकरण को समर्पित था, हालांकि कई सदस्य सरकारें अनिश्चयी थी कि क्या इतना व्यापक निरस्त्रीकरण प्राप्त किया जा सकता है या यहां तक कि यह वांछनीय था कि नहीं [117] मित्र राष्ट्र भी वर्साय की संधि से बाध्य थे कि निरस्त्र करने के लिए प्रयास करें एवं पराजित राष्ट्रों पर जो शस्त्र प्रतिबंध लागू किए गए हैं उन्हें विश्वव्यापी निरस्त्रीकरण की दिशा में एक प्रथम प्रयास के रूप में वर्णित किया गया। [117] संघ प्रसंविदा ने संघ को प्रत्येक राज्य के लिए एक निरस्रीकरण योजना तैयार करने के लिए निर्दिष्ट किया परंतु परिषद ने इस जिम्मेदारी को 1926 में गठित विशेष आयोग को 1932-34 के विश्व निरस्त्रीकरण सम्मेलन की तैयारी करने के लिए सौंप दिया [118] निरस्त्रीकरण को लेकर संघ के सदस्यों में भिन्न-भिन्न दृषिटिकोण थे। फ्रांसीसी अपने शस्त्रों को इस गारंटी के बिना कम करने के लिए अनिच्छुक थे कि उनपर आक्रमण होने पर सैनिक सहायता मिले पोलेण्ड एवं चेकोस्लोवाकिया ने पश्चिम की तरफ से असुरक्षित महसूस किया और चाहते थे कि संघ द्वारा आक्रामक कार्यवाही एवं उन्हें निशस्त्र करने से पहले सदस्यों को मजबूत बनाया जाए [119] इस गारंटी के बिना वे अपने शस्त्रों को कम नहीं करेंगे क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि जर्मनी से आक्रमण का खतरा बहुत ज्यादा था। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी द्वारा पुर्नशक्ति प्राप्त करने से आक्रमण का खतरा और बढ गया, विशेषकर जब हिटलर ने सत्ता प्राप्त की और 1933 में जर्मनी का चांसलर बना विशेष रूप में जर्मनी द्वारा वर्साय की संधि को उलटने के प्रयास एवं जर्मन सेना के पुर्ननिर्माण के कारण फ्रांस निरस्त्रीकरण के लिए अनिच्छुक होता गया। [118] विश्व निरस्त्रीकरण सम्मेलन 1932 में जेनेवा में राष्ट्रसंघ द्वारा बुलाया गया जिसमें 60 राष्ट्रों के प्रतिनिधि थे। सम्मेलन के शुरू में शस्त्रों के विस्तार पर एक वर्ष का विराम लगाने का प्रस्ताव दिया गया, जिसे बाद में कुछ महीने बढाया गया। [120] निरस्त्रीकरण आयोग ने फ्रांस, इटली, जापान एवं ब्रिटेन से प्रारंभिक सहमति ले ली कि वो अपनी नौ सेनाओं के आकार में कटौती करें केलॉग-ब्रायण्ड समझौता, जिसे आयोग ने 1928 में सम्पन्न कराया, युद्ध को गैर-कानूनी घोषित करने के अपने उद्देश्य में असफल हो गया। अंततः, आयोग 1930 के दशक में जर्मनी इटली, एवं जापान के द्वारा सैनिक तैयारी को रोकने में असफल रहा संघ उन सभी बडी घटनाओं पर अधिकांशतया शांत रहा जिसके कारण द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ यथा- राइनलैंण्ड का हिटलर द्वारा पुनः-सैन्यीकरण, ऑस्ट्रिया के सुडेटनलैण्ड एवं एंसक्लूस पर कब्जा, जिसकी वर्साय संधि ने मनाही की थी। वास्तव में, संघ के सदस्यों ने स्वयं को पुनः-सैन्यीकृत किया। 1933 में जापान ने संघ के निर्णय को मानने की बजाय आसानी से इससे अलग हो गया, जैसा कि जर्मनी ने 1933 में किया (फ्रांस एवं जर्मनी के बीच में शस्त्र समता स्थापित करने में समझौता करा पाने में विश्व निरस्त्रीकरण सम्मेलन की असफलता को बहाना बनाकर) और इटली ने 1937 में डेन्जिंग में संघ कमिश्नर शहर पर जर्मन दावे पर विचार करने में असमर्थ थे, जो 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध के छिडने में महत्वपूर्ण कारण बना [कृपया उद्धरण जोडें] संघ का अंतिम महत्वपूर्ण कार्य था सोवियत संघ का दिसम्बर 1939 में निलंबन जब इसने फिनलैण्ड पर आक्रमण किया। सामान्य कमजोरियों पुल में अंतराल बोर्ड पर लिखा है "इस राष्ट्र संघ पुल को संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा डिजाइन किया गया था" ---- पंच मैगजीन से कार्टून, 10 दिसम्बर 1920, अमेरिका द्वारा खाली छोडी गई जगह का उपहास किया जब वह राष्ट्रसंघ में शामिल नहीं हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारंभ ने दर्शाया कि संघ अपने प्रारंभिक उद्देश्य में असफल रहा, जो भविष्य में किसी विश्वयुद्ध को टालता इस असफलत के लिए विविध कारक जिम्मेवार थे, जिसमें बहुत सारा संगठन के भीतर के सामान्य कमजोरियों से जुडा था। अतिरिक्त रूप से, अमेरिका द्वारा संघ में शामिल होने की मनाही ने संगठन की शक्ति को सीमित किया। [कृपया उद्धरण जोडें] उत्पत्ति और संरचना संघ का एक संगठन के रूप में उद्भव प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के लिए किए जा रहे शांति प्रयासों के हिस्से के रूप में मित्र राष्ट्रों द्वारा किया गया और इसलिए इसे “विजेताओं के संघ” के रूप में देखा गया। [121][122] इसने संघ को वर्साय की संधि से भी बांध दिया, जिससे जब संधि अप्रतिष्ठित एवं अलोकप्रिय हो गया, यह राष्ट्रसंघ में भी प्रतिबिम्बित हुआ। संघ की तथाकथित तटस्थता ने इसे अनिर्णय के रूप में अभिव्यक्त किया। इसे अपने नौ सदस्यों, बाद में चलकर पंद्रह परिषद सदस्यों का सर्वसम्मत वोट किसी अधिनियम को पारित करने के लिए चाहिए; अतः निर्णयात्मक एवं प्रभावी कार्य असंभव नहीं तो मुश्किल था। यह अपने निर्णयों पर आने में धीमा भी था क्योंकि कुछ निर्णयों में संपूर्ण सभा की सर्वसम्मत मंजूरी आवश्यक थी। यह समस्या मुख्यतया इस वास्तविकता से निकली कि राष्ट्रसंघ के मुख्य सदस्य इस संभावना को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे कि उनकी नियति अन्य देशों द्वारा तय की जाएगी और इसलिए इसके परिणामस्वरूप, सर्वसम्मत वोट को लागू करके अपने को वीटो की शक्ति दी वैश्विक प्रतिनिधित्व संघ में प्रतिनिधित्व अक्सर एक समस्या थी। हालांकि इसका अभीष्ट सभी राष्ट्रों को शामिल करना था, कई कभी शामिल नहीं हुए, या उनकी संघ के साथ साझेदारी बहुत छोटी थी। सर्वाधिक उल्लेखनीय अनुपस्थिति अमेरिका की संघ में भूमिका की संभाव्यता को लेकर थी, न केवल वह विश्व शांति एवं सुरक्षा को सुरक्षित करता बल्कि संघ का वित्त प्रबंध भी करता संघ के निर्माण के पीछे अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन प्रेरक बल थे और इसके आकार को मजबूती से प्रभावित किया लेकिन अमेरिकी सिनेट ने 19 नवम्बर 1919 को इसमें शामिल न होने का मत दिया [123] रूथ हेनिंग ने सुझाव दिया कि यदि अमेरिका संघ का सद्स्य होता तो, इसने फ्रांस एवं ब्रिटेन को भी पृष्ठ-समर्थन दिया होता, संभवतया फ्रांस ज्यादा सुरक्षित महसूस करता एवं ऐसा प्रोत्साहन फ्रांस एवं ब्रिटेन को जर्मनी के संबंध में ज्यादा सहयोग करने देता एवं इससे नाजी पार्टी का उदय कम संभव होता [124] इसके विपरीत, हेनिंग स्वीकार करते हैं कि यदि अमेरिका संघ का सदस्य होता, इसका यूरोपीय शक्तियों के साथ युद्ध में उलझने की अनिच्छा एवं आर्थिक प्रतिबंधों को अधिनियमित करने से अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं का सामना करने में संघ की क्षमता को बाधित किया होता [124] अमेरिका में सरकार की संरचना ने भी इसकी सद्स्यता को समस्यापूर्ण बनाया होता क्योंकि संघ में इसके प्रतिनिधिगण अमेरिकी कार्यकारी शाखाओं की तरफ से इसकी विधाई शाखाओं की पूर्व अनुमति के बिना कोई निर्णय नहीं लिया गया होता [125] जनवरी 1920 में, जब संघ शुरू हुआ, जर्मनी को शामिल होने की अनुमति नहीं थी क्योंकि इसे प्रथम विश्व युद्ध में आक्रामक के रूप में देखा गया था। सोवियत रूस भी प्रारंभ में संघ से बहिष्कृत था, क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध के विजेताओं को कम्युनिस्ट विचार पसंद नहीं था। संघ तब और कमजोर हो गया जब 1930 के दशक में महत्वपूर्ण शक्तियों ने इसका साथ छोड दिया जपान ने स्थायी सदस्य के रूप में परिषद में शुरू किया, लेकिन 1933 में तब हट गया जब संघ ने इसके चीन के मंचूरिया क्षेत्र पर आक्रमण का विरोध किया। [126] इटली ने भी परिषद के स्थायी सदस्य के रूप में शुरू किया लेकिन 1937 में हट गया। संघ ने जर्मनी को 1926 में सदस्य के रूप में स्वीकार किया, इसे “शंति प्रेमी देश” माना, लेकिन एडोल्फ हिटलर 1933 में जब सत्ता में आया तो जर्मनी को इससे अलग कर लिया। [127] सामूहिक सुरक्षा एक अन्य महत्वपूर्ण कमजोरी सामूहिक सुरक्षा के विचार, जो संघ का अधार था एवं वैयक्तिक राष्ट्रों के बीच अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के बीच अंतर्विरोध से विकसित हुआ था। [128] सामुहिक सुरक्षा प्रणाली जिसे संघ ने प्रयुक्त किया, का अर्थ था कि राष्ट्रों के लिए आवश्यक था कि वे उन राज्यों के खिलाफ कार्यवाही करें जिन्हें वे मित्र मानते हैं और इस तरीके से उन राज्यों का समर्थन जिनके साथ सामान्य घनिष्ठता नहीं थी, उनके राष्ट्रीय हितों को खतरा हो सकता है । [128] यह कमजोरी अबीसीनिया संकट के समय स्पष्ट हो गई जब ब्रिटेन एवं फ्रांस को संतुलित प्रयत्न करने पडे ताकि यूरोप में सुरक्षा बनाए रखी जा सके, जिसे उन्होंने यूरोप में “आंतरिक व्यवस्था के शत्रु के खिलाफ व्यवस्था बनाए रखने के लिए” अपने लिए बनाया था,[129] जिसमें इटली के समर्थन ने प्रमुख भूमिका निभाई, जिसमें अबीसीनिया को संघ का सद्स्य बनाए रखने की बाध्यता थी। [130] 23 जून 1936 को अबीसीनिया के खिलाफ इटली के युद्ध अभियान को रोकने में संघ के प्रयासों के असफल होने पर, ब्रिटिश प्रधानमंत्री स्टेनले बाल्डविन ने हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा कि सामूहिक सुरक्षा अंततः, ब्रिटेन एवं फ्रांस दोनों ने एडोल्फ हिटलर के अधीन जर्मन सैनिकवाद के बढते प्रभाव के कारण तुष्टिकरण के पक्ष में सामूहिक सुरक्षा कीअवधारणा को त्याग दिया [131] अमनपसंदवाद और निरस्त्रीकरण 28 जुलाई 1920, पंच पत्रिका का कार्टून, संघ की कमजोरी देखकर व्यंग्य कस रहा है । ]] राष्ट्र संघ के पास अपनी एक सशस्त्र सेना की कमी थी और यह अपने संकल्पो को लागू करने के लिये महान शक्तियों पर निर्भर थी, जिसके वे बहुत खिलाफ थे। [132] संघ के दो सबसे महत्वपूर्ण सदस्य, ब्रिटेन और फ्रांस, प्रतिबंधों के खिलाफ थे तथा संघ की ओर से सैन्य कार्रवाई करने के लिये और अधिक खिलाफ थे। प्रथम विश्व युद्ध के तुरंत, दोनों देशों की सरकारों तथा आबादी में शांतिवाद एक मजबूत शक्ती थी। ब्रिटिश परंपरावादी विशेष रूप से संघ पर उत्साहहीन थे तथा सरकार में, संगठन की भागीदारी के बिना समझौता वार्ता करने के इच्छुक थे। [कृपया उद्धरण जोडें] इसके अलावा, संघ द्वारा ब्रिटेन, फ्रांस और इसके अन्य सदस्यों के लिए निरस्त्रीकरण की वकालत जबकि उसी समय सामूहिक सुरक्षा की वकालत का मतलब था कि संघ अपने आपको सशक्त साधनों द्वारा धोखे से वंचित कर रही है जिसके द्वारा इसके अधिकार को बरकरार रखा जाएगा अगर संघ को अंतरराष्ट्रीय कानूनों का पालन करने के लिए देशों को मजबूर करना था, तो इसे लागू करने के लिये रॉयल नेवी तथा फ्रेंच सेना की आवश्यकता होगी जब ब्रिटिश कैबिनेट ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान संघ की अवधारणा के बारे में चर्चा की, तब केबिनेट सचिव, मौरिस हेंकी, ने विषय पर एक ज्ञापन भेजा उसने यह कहते हुए शुरू किया: "आम तौर पर मुझे ऐसा लगता है कि ऐसी कोई योजना हमारे लिए खतरनाक है, क्योंकि यह सुरक्षा का बोध करायेगा जो पूरी तरह से काल्पनिक है । [133] इसने ब्रिटिशों के समझौता की पवित्रता में युद्ध पूर्व विश्वास पर भ्रांतिमूलक रूप से हमला किया और दावे के साथ समाप्त किया। विदेश कार्यालय मंत्री सर आयर क्रो ने भी ब्रिटिश कैबिनेट को एक ज्ञापन लिखा जिसमें वह दावा कर रहे हैं कि "एक गंभीर संघ और अनुबंध" बस "दूसरी संधियों की तरह एक संधि" मात्र होगी : "ऐसा क्या है वहां जो यह सुनिश्चित करे कि यह दूसरी संधियों की तरह नही टूटेगी?" आक्रमणकारियों के खिलाफ "आम कार्रवाई की प्रतिज्ञा" के प्रति क्रो ने संदेह व्यक्त किया क्योंकि उनका विश्वास था कि अलग अलग राज्यों की कार्रवाई अभी भी राष्ट्रीय हितों और शक्ति संतुलन के द्वारा निर्धारित की जायेगी उन्होने संघ के आर्थिक प्रतिबंधों के प्रस्ताव की आलोचना की क्योंकि यह निष्प्रभावी होगा तथा यह "एक वास्तविक सैन्य प्रमुखता का प्रश्न था" क्रो ने चेतावनी दी थी कि यूनिवर्सल निरस्त्रीकरण एक व्यावहारिक असम्भवता थी। [133] मृत्यु और विरासत जेनेवा में राष्ट्र संघ का सभा भवन जैसे कि यूरोप में स्थिति बिगडकर युद्ध में तबदील हुई, कानूनी तौर पर संघ जारी रखने तथा ऑपरेशन में आई मंदी को आगे बढाने की अनुमती देने के लिये 30 सितम्बर 1938, तथा 14 दिसम्बर 1939 को सदन ने पर्याप्त शक्ति महासचिव को हस्तांतरित की [57] जबतक द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ, संघ के मुख्यालय, पैलेस ऑफ पीस, करीब 6 साल के लिये अनधिकृत रहे [134] 1943 के तेहरान सम्मेलन पर, संघ: अमेरिका की जगह एक नया ढाँचा बनाने के लिये संबद्ध शक्ति में सहमती हुई कई संघ गुटों, जैसे कि अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, ने कार्य करना जारी रखा तथा फलतः अमेरिका के साथ सम्बद्ध हुआ। [44] अमेरिका की संरचना इसे संघ से अधिक प्रभावी बनाने के इरादे से हुई थी। देशों के संघ की अंतिम बैठक 12 अप्रैल 1946 को जेनेवा में आयोजित की गई। 34 देशों के प्रतिनिधियों ने सदन में भाग लिया। [135] यह सत्र स्वयं संघ के तरलीकरण से संबंधित है: 1946 में लगभग 22,000,000 डॉलर मूल्य की संपत्ति अमेरिका को दी गयी थी,[136] जिसमें पैलेस ऑफ पीस तथा संघ के अभिलेखागार शामिल हैं, आरक्षित निधि उन देशों को वापस कर दी गयी जिन्होने इसकी आपूर्ति की थी तथा संघ का ऋण चुकाया गया। [135] अंतिम सभा के लिये एक भाषण के दौरान भीड के अहसास को रॉबर्ट सेसिल द्वारा संक्षेप में बताया जाता है जब उन्होंने कहा: प्रस्ताव जिसने संघ को भंग कर दिया वह सर्वसम्मति से पारित हुआ: "अपने मामलों के तरलीकरण के उद्देश्यओ को छोडकर राष्ट्र संघ अस्तित्व बनाये रखने के लिये समाप्त हो जायेगा "[137] जिस दिन सत्र बंद किया गया उसके अगले दिन को प्रस्ताव संघ की समाप्ति की तारीख के रूप में तय करता है । 19 अप्रैल 1946 को, सदन के अध्यक्ष, नोर्वे के कार्ल जे हेम्ब्रो, ने घोषणा की " 21वां तथा राष्ट्र संघ की जनरल सभा का अंतिम सत्र समाप्त हुआ। "[136] परिणामस्वरूप, 20 अप्रैल 1946 को मौजूद होने के लिये राष्ट्र संघ समाप्त हुई [138] प्रोफेसर डेविड केनेडी ने सुझाव दिया कि संघ एक एक अनूठा पल है जब कानून के तरीकों तथा राजनीति के रूप में प्रथम विश्व युद्ध का विरोध करने के लिए अंतरराष्ट्रीय मामले "संस्थापित" किये गये थे। [139] विश्व युद्ध द्वितीय में प्रमुख मित्र राष्ट्र (ब्रिटेन, सोवियत संघ, फ्रांस, अमेरिका, गणतंत्र चीन) संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य बने; इन नई "महान शक्तियों" ने, संघ परिषद को दर्पण बनाते हुए महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव प्राप्त किया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के निर्णय संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्यों पर बाध्यकारी हैं, हालांकि, संघ काउंसिल के विपरीत, सर्वसम्मति निर्णयों की आवश्यकता नही होती संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों को भी अपने महत्वपूर्ण हितों को संरक्षित करने के लिये एक कवच दिया जाता है, जिसने संयुक्त राष्ट्र को कई मामलों में निर्णयात्मक ढंग से काम करने से रोका है । इसी प्रकार, संयुक्त राष्ट्र के पास उसकी स्वयं की स्थायित्व सशस्त्र सेना नही है, लेकिन अपने सदस्यों को सशस्त्र हस्तक्षेप में योगदान करने के लिये बुलाने में संयुक्त राष्ट्र संघ से ज्यादा सफल रहा है, जैसे कोरियाई युद्ध के दौरान तथा पूर्व यूगोस्लाविया में शान्ति बनाये रखने वाले के रूप में कुछ मामलों में आर्थिक प्रतिबंध पर भरोसा करने के लिये संयुक्त राष्ट्र को मजबूर किया गया है । दुनिया के देशों से सदस्यों को आकर्षित करने में संयुक्त राष्ट्र संघ से ज्यादा सफल रहा है, जो इसे ज्यादा प्रतिनिधिक बना रहा है । [कृपया उद्धरण जोडें] इन्हें भी देखें पेरिस शांति सम्मेलन राष्ट्र संघ के अनुबंध के अनुच्छेद एक्स (X) अटलांटिक चार्टर युद्ध के बीच की अवधि लैटिन अमरीका और राष्ट्र संघ अल्पसंख्यक संधियां 1930 के न्यूट्रलिटी एक्ट्स पैलेस ऑफ नेशंस, संघ के मुख्यालय के रूप में बनाया गया। संघ इंटरनेशनल डे ला पैक्स %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%88%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%BE%E0%A4%87%E0%A4%A8 %%%%% CS671 : gprachi@iitk.ac.in 150803 फ्रैंकनस्टाइन; ऑर, द मॉडर्न प्रोमिथियस , जो साधारणतः फ्रैंकनस्टाइन नाम से विख्यात है, मेरी शेली द्वारा लिखा गया एक उपन्यास है । शेली ने अट्ठारह साल की उम्र में इसे लिखना शुरू किया था और उपन्यास के प्रकाशन के समय वह बीस वर्ष की थीं। इसका पहला संस्करण 1818 में लंदन में अज्ञात रूप से प्रकाशित किया गया। शेली का नाम फ्रांस में प्रकाशित दूसरे संस्करण में अंकित था। उपन्यास का शीर्षक का संबंध एक वैज्ञानिक विक्टर फ्रैंकनस्टाइन से है, जो जीवन को उत्पन्न करने का तरीका सीख जाता है और मानव की तरह दिखने वाले एक प्राणी का सृजन करता है, जो औसत से कहीं ज्यादा विशालकाय और शक्तिशाली होता है । लोकप्रिय संस्कृति में, "फ्रैंकनस्टाइन" को एक दैत्य समझा जाता है, जो गलत है । फ्रैंकनस्टाइन में गॉथिक उपन्यासों और रूमानी आंदोलन के कुछ पहलुओं का समावेश है । यह औद्योगिक क्रांति में आधुनिक मानव के विस्तार के खिलाफ भी एक चेतावनी देता है, जिसका संकेत उपन्यास के उपशीर्षक, द मॉर्डन प्रोमिथियस में मिलता है । इस उपन्यास का साहित्य और लोकप्रिय संस्कृति पर काफी प्रभाव रहा है और यह कई डरावनी कहानियों और फिल्मों का आधार भी बना है । कथावस्तु वाल्टन द्वारा परिचायक रूपरेखा फ्रैंकनस्टाइन की शुरूआत, कैप्टन रॉबर्ट वाल्टन और उसकी बहन मार्ग्रेट वाल्टन सैविले के बीच पत्राचार को प्रलेखित करते हुए, पत्राकार रूप में होती है । वाल्टन, उत्तरी ध्रुव की खोज में निकलता है ताकि वह शोहरत और दोस्ती कमाने की आशा में अपने ज्ञान भंडार को बढा सके वॉल्टन का जहाज बर्फ में फंस जाता है और एक दिन चालक दल को कुछ दूरी पर एक डॉगस्लेज दिखता है, जिस पर एक विशालकाय मनुष्य की आकृति होती है । कुछ घंटों बाद, चालक दल को फ्रैंकनस्टाइन मिलता है लेकिन बहुत ही कमजोर और भूख से बेहाल अवस्था में फ्रैंकनस्टाइन अपने दैत्य की खोज में था लेकिन उसके स्लेज के एक कुत्ते के सिवाय बाकी सभी मर चुके थे। उसने अपने डॉगस्लेज को तोड कर पतवार तैयार की और एक आईस राफ्ट के जरिए नाव तक पहुंचा। फ्रैंकनस्टाइन अपने परिश्रम से उबरने लगता है और वॉल्टन को अपनी आपबीती सुनाता है । अपनी कहानी शुरू करने से पहले फ्रैंकनस्टाइन वॉल्टन को सावधान करता है कि अगर इंसान अपनी क्षमता से ज्यादा कुछ पाने की कोशिश करता है तो उसके घातक परिणाम हो सकते हैं। फ्रैंकनस्टाइन अपसिद्धांत वाकई अस्तित्व में था क्योंकि वह एक दैत्य था और सभी सोचते थे कि वह असली नहीं है, जबकि वह असल में था! फ्रैंकनस्टाइन की कथा विक्टर फ्रैंकनस्टाइन अपनी कहानी की शुरूआत अपने बचपन से करता है । एक रईस परिवार में पलने वाले फैंकनस्टाइन को अपनी आस-पास की दुनिया के बारे में बेहतर समझदारी रखने के लिए (विज्ञान के क्षेत्र में) प्रेरित किया जाता था। वह स्नेहपूर्ण परिवार और दोस्तों से घिरे एक सुरक्षित माहौल में बडा होता है । फ्रैंकनस्टाइन अपनी अनाथ बहन एलिजाबेथ लावेंजा से नजदीकी रिश्ते में बंधता है । अपनी मां की मौत के बाद एलिजाबेथ को फ्रैंकनस्टाइन के परिवार के साथ रहने के लिए भेज दिया जाता है । अपनी युवावस्था में फ्रैंकनस्टाइन विज्ञान के उन पुराने सिद्धांतों को लेकर काफी आसक्त होता है, जो प्राकृतिक चमत्कार हासिल करने पर केंद्रित होते थे। वह जर्मनी के इंगोलस्डाट विश्विद्यालय जाने की योजना बनाता है । लेकिन, निर्धारित रवानगी से एक सप्ताह पहले उसे खबर मिलती है कि उसकी मां और बहन एलिजाबेथ स्कारलेट बुखार से पीडित हैं। एलिजाबेथ ठीक हो जाती है, लेकिन फ्रैंकनस्टाइन की मां का देहांत हो जाता है । पूरा परिवार शोकाकुल हो जाता है और फ्रैंकनस्टाइन मौत को अपने जीवन के पहले दुर्भाग्य के रूप में देखता है । विश्वविद्यालय में वह रसायन विज्ञान और दूसरे विज्ञान में महारत हासिल करता है - अंशतऋ यह जानते हुए कि जीवन कैसे नष्ट होता है - और अजीव वस्तुओं में जान फूंकने का रहस्य जान जाता है । वह 1790 के दशक में आविष्कृत तकनीक गैल्वनिज्म में दिलचस्पी लेने लगता है । हालांकि दैत्य की रचना के वास्तविक विवरण अस्पष्ट रहते हैं, फ्रैंकनस्टाइन बताता है कि उसने मुर्दाघरों से मानव हड्डियों को एकत्रित किया और "अपनी नापाक उंगलियों से इंसान के शरीर की संरचना का रहस्य जाना" उसने यह भी कहा कि विच्छेदन कक्ष और कसाईखानों ने उसके लिए अधिकांश सामग्री उपलब्ध कराई फ्रैंकनस्टाइन स्पष्ट करता है कि वह आम आदमी से कहीं विशाल दैत्य बनाने के लिए मजबूर हुआ - वह उसके करीब आठ फीट लंबा होने का अनुमान लगाता है - अंशतः क्योंकि उसे इंसानी शरीर के सूक्ष्म अंगों के पुनर्निर्माण करने में दिक्कतों का सामना करना पडता है । दैत्य के शरीर में जान फूंकने के बाद, फ्रैंकनस्टाइन को दैत्य की बनावट से घिन आती है और वह उससे डरता भी है । फ्रैंकनस्टाइन भाग जाता है । मानव जीवन का सृजन करते-करते थक जाने पर, फ्रैंकनस्टाइन बीमार पड जाता है । उसके बचपन का दोस्त हेनरी क्लरवल उसकी देखभाल करते हुए स्वस्थ होने में मदद करता है । फ्रैंकनस्टाइन को बीमारी से उबरने में करीब चार महीने लग जाते हैं। जब उसे पता चलता कि उसके पांच साल के भाई विलियम का कत्ल हुआ है, तो वह घर लौटने का मन बना लेता है । एलिजाबेथ खुद को विलियम की मौत का दोषी मानती है, क्योंकि उसने विलियम को उसकी मां के लॉकेट को हाथ लगाने दिया था। विलियम की आया जस्टिन को इस हत्या का दोषी मानकर सूली पर चढा दिया जाता है, क्योंकि उसकी जेब से फ्रैंकनस्टाइन की मां का लॉकेट मिलता है । उपन्यास में बाद में व्यक्त होता है कि उस दैत्य ने विलियम की हत्या कर लॉकेट को जस्टिन के कोट की जेब में रख दिया था और दैत्य द्वारा विलियम की हत्या की पूर्वकथा दी गई है । इंसान के साथ कई संघर्षपूर्ण सामना करने के बाद फ्रैंकनस्टाइन का दैत्य उनसे डरने लगता है और एक साल एक घर के पास, उसमें बसे परिवार को देखते हुए बिताता है । वह परिवार अमीर था, लोकिन उसे देश निकाला मिला होता है क्योंकि उस परिवार के मुखिया फेलिक्स डी लेसी ने एक तुर्क व्यापारी की मदद की थी, जिसे एक झूठे मामले में फंसा कर फांसी की सजा सुनाई गई थी। जिसे फेलिक्स ने बचाया था वह उसकी प्रेमिका, सेफी का पिता था। फांसी से बचने के बाद वह व्यापारी अपनी बेटी सैफी की शादी फेलिक्स से करने को तैयार हो जाता है । हालांकि एक ईसाई से अपनी बेटी की शादी का विचार उसके गले नहीं उतरता है और वह सैफी को लेकर भाग जाता है । लेकिन सैफी लौट आती है क्योंकि वह दूसरी यूरोपीय महिलाओं की तरह आजाद रहना चाहती है । डी लेसी परिवार पर गौर करते हुए दैत्य को समझ-बूझ आती है और वह जान जाता है कि उसके शरीर की बनावट दूसरों से बहुत अलग है और वह उनसे बिलकुल जुदा है । अकेलेपन में उसके मन में डी लेसी परिवार से दोस्ती की चाहत जाग उठती है । जब वह उस परिवार से संपर्क करने की कोशिश करता है, तो उसके प्रति उन लोगों का डर आडे आता है । यह तिरस्कार दैत्य को अपने सृष्टिकर्ता से बदला लेने के लिए उकसाती है । फ्रैंकनस्टाइन का दैत्य जेनेवा जाता है और वहां उसकी मुलाकात एक नन्हें बालक से होती है । इस आशा में कि बालक नादान है और शायद उसके भयंकर रूप के प्रति बडों जैसा प्रभावित नहीं होगा और उसका अच्छा साथी बन सकता है, फ्रैंकनस्टाइन का दैत्य बच्चे को अगवा करने की योजना बनाता है । लेकिन वह बच्चा उसे बताता है कि वह फ्रैंकनस्टाइन का रिश्तेदार है, दैत्य को देख वह बच्चा चिल्लाता है और उसे अपमानित करता है जिससे उसे बहुत गुस्सा आता है । बच्चे को चुप करने के लिए दैत्य उसके मुंह पर हाथ रख देता है । लेकिन सांस न ले पाने की वजह से बच्चे की मौत हो जाती है । हालांकि बच्चे की हत्या करना उसकी मंशा कभी नहीं थी लेकिन वह इस घटना को फ्रैंकनस्टाइन के खिलाफ अपना पहला बदला मानता है । वह बच्चे के शरीर से लॉकेट निकालकर घर में सो रही एक लडकी जस्टिन के कपडों की जेब मे रख देता है । जस्टिन के कब्जे से लॉकेट बरामद होता है और उसे दोषी मानकर सूली पर चढा दिया जाता है । मामले की सुनवाई करने वाले जज फांसी की सजा के खिलाफ अपने विचारों के लिए जाने जाते हैं, लेकिन समाज से जाति-बहिष्कार के डर के कारण जस्टिन गुनाह कबूल लेती है और उसे फांसी दे दी जाती है । जब फ्रैंकनस्टाइन को अपने भाई की मौत की जानकारी मिलती है तो वह अपने परिवार के साथ रहने के लिए जेनेवा लौटता है । फ्रैंकनस्टाइन उस दैत्य को जंगल में देखता है जहां उसके भाई की हत्या हुई थी और उसे इस बात पर पूरी तरह से विश्वास हो जाता है कि विलियम का हत्यारा वह दैत्य ही है । इतनी तबाही मचाने वाले दैत्य के सृजन के प्रति दुख और अपराधबोध से परेशान फ्रैंकनस्टाइन शांति की तलाश में पर्वतों की ओर निकल पडता है । कुछ वक्त अकेलेपन में बिताने के बाद दैत्य फ्रैंकनस्टाइन से मिलता है । आरंभ में दैत्य को देखकर फ्रैंग्कस्टीन उसे मारने की मंशा से वह उस पर हमला करने की कोशिश करता है । फ्रैंकनस्टाइन के आकार से काफी विशाल और चुस्त वह दैत्य हमले से आसानी से बच निकलता है और उनके शांत होने का इंतजार करता है । वह दैत्य अपनी छोटी-सी जिंदगी की एक लंबी कहानी सुनाता है, जिसकी शुरूआत वह अपने सृजन से करता है और उसकी इस कहानी में इस बात की झलक मिलती है कि वह शुरूआत में मासूम था जो किसी को चोट नहीं पहुंचा सकता था, लेकिन इंसानों के बर्ताव ने उसे खूंखार बनने पर मजबूर कर दिया वह अपनी कहानी का अंत इस मांग के साथ करता है कि फ्रैंकनस्टाइन उसके लिए एक महिला साथी का भी सृजन करे, क्योंकि वह अकेला है और कोई मानव उसे कबूलने को तैयार नहीं होगा वह तर्क देता है कि एक जीवित प्राणी होने के नाते उसे भी खुश रहने का हक है और उसका सृजनकर्ता होने के नाते फ्रैंकनस्टाइन का दायित्व बनता है कि वह उसकी मांग पूरी करे वह वादा करता है कि अगर फ्रैंकनस्टाइन उसके लिए एक महिला साथी का सृजन करता है, तो वह उसे कभी अपनी शक्ल नहीं दिखाएगा अपने परिवार की सुरक्षा की खातिर फ्रैंकनस्टाइन ना चाहते हुए भी दैत्य की बात मान लेता है और अपना काम करने के लिए इंग्लैंड चला जाता है । उसका दोस्त क्लरवल उसके साथ आता है लेकिन स्कॉटलैंड में वे जुदा हो जाते हैं। ऑर्कनी द्वीपों में दूसरे दैत्य का सृजन करने के दौरान फ्रैंकनस्टाइन को यह चिंता सताने लगती है कि अगर दूसरा दैत्य बना तो वह कितना कहर ढा सकता है । फ्रैंकनस्टाइन अपनी अपूर्ण परियोजना को नष्ट कर देता है । दैत्य इसे देखता है और वह फ्रैंकनस्टाइन की सुहाग रात के दिन बदला लेने की ठान लेता है । फ्रैंकनस्टाइन की आयरलैंड वापसी से पहले दैत्य उसके दोस्त क्लरवल की हत्या कर देता है । जब फ्रैंकनस्टाइन आयरलैंड पहुंचता है, तो उसे इस हत्या के लिए गिरफ्तार कर लिया जाता है और जेल में वह बहुत बुरी तरह से बीमार पड जाता है । जेल से रिहा होने और स्वस्थ होने के बाद फ्रैंकनस्टाइन अपने पिता के साथ घर लौटता है । घर लौटने पर फ्रैंकनस्टाइन अपनी रिश्तेदार एलिजाबेथ से शादी कर लेता है और यह जानते हुए कि वह दैत्य उस पर कभी भी धावा बोल सकता है, उसके खिलाफ लडने की तैयारी करता है । यह नहीं चाहते हुए कि एलिजाबेथ उस दैत्य को देखकर डर जाए, फ्रैंकनस्टाइन एलिजाबेथ को रात को उसके कमरे में रहने की हिदायत देता है । दैत्य एलिजाबेथ को अकेला पाकर उसकी भी हत्या कर देता है । अपनी पत्नी, विलयम, जस्टीन, क्लरवल औऱ एलिजाबेथ की मौत के गम में फ्रैंकनस्टाइन के पिता का निधन हो जाता है । फ्रैंकनस्टाइन ठान लेता है कि वह तब तक उस दैत्य का पीछा करेगा जब तक कि उनमें से कोई एक-दूसरे को ना मार गिराए महीनों की खोज के बाद, दोनों उत्तरी ध्रुव के निकट आर्कटिक सर्कल में पहुंचते हैं। वॉल्टन द्वारा उपन्यास का अंतिम वर्णन फ्रैंकनस्टाइन के वर्णन के अंत में कैप्टन वॉल्टन कहानी दोबारा सुनाना शुरू करता है । फ्रैंकनस्टाइन द्वारा कहानी सुनाना खत्म करने के कुछ दिनों बाद वॉल्टन औऱ उसका चालक दल फैसला करता है कि वे बर्फ को तोड नहीं पाएंगे और उन्हें वापस लौटना चाहिए फ्रैंकनस्टाइन की मौत के समय, दैत्य कमरे में प्रकट होता है । वॉल्टन के सामने दैत्य अपने बदले की भावना को दृढतापूर्वक सही ठहराता है और साथ ही अपने गुनाहों पर खेद व्यक्त करता है, दैत्य वॉल्टन का जहाज छोडकर उत्तरी ध्रुव की ओर निकल पडता है जहां वह अपनी चिता जलाकर खुद को नष्ट कर सके ताकि कोई उसके अस्तित्व के बारे में कभी ना जान पाए रचना 1816 की बारिश वाली गर्मियों में, "बगैर गर्मियों वाले वर्ष", 1815 में माऊंट तम्बोरा के फटने के कारण दुनिया लंबे शीत ज्वालामुखीय लहर की चपेट में आ गई थी। [3] 18 साल की मेरी वोलस्टोनक्राफ्ट गॉडविन और उसके प्रेमी (बाद में पति) पर्सी बायशी शेली, स्विट्जरलैंड में जेनेवा झील के किनारे, विला डायोडाटी बंगले में लॉर्ड बायरन से मिलने पहुंचे। बाहर जाकर छुट्टियां बिताने की उनकी योजना के लिए गर्मियों का मौसम बहुत ही ठंडा और नीरस था, इसलिए समूह ने भोर तक घर के अंदर ही रहने का फैसला किया। अन्य विषयों के साथ, बातचीत गैल्वानिस्म और लाश या संयोजित शरीर के अंगों में जान फूंकने की संभाव्यता और 18वीं सदी के नैसर्गिक दार्शनिक और कवि एरासमस डारविन के प्रयोगों की ओर मुडी, जिन्होंने कथित तौर पर मृत पदार्थों को सजीव किया था। [4] बायरन विला में आग सेकते हुए, समूह ने जर्मन भूत-प्रेत संबंधी कहानिंया पढ कर अपना दिल बहलाया, जिसने बायरन को यह सुझाव देने पर प्रेरित किया कि उनमें से प्रत्येक को अपनी अलौकिक शक्ति पर कहानी लिखनी चाहिए इसके कुछ समय बाद ही, एक जाग्रत स्वप्न में, मेरी गॉडविन के मन में फ्रैंकनस्टाइन का विचार आया। मेरी ने लिखना शुरू किया और ये माना कि ये एक लघु कथा होगी पर्सी शेली के प्रोत्साहन के बाद मेरी ने इस लघु कथा को एक पूर्ण उपन्यास का रूप दे दिया [6] उन्होने बाद में स्विट्जरलैंड में बिताई उन गर्मियों को एक ऐसा पल करार दिया "जब मैं अपने बचपन से बाहर निकलकर जिंदगी में कदम रखा" [7] बायरन, बालकन देशों के अपने दौरे के दौरान सुनी गई वैम्पायर की कहानियों पर आधारित एक छोटा सा ही लेख लिख पाया जो बाद में जॉन पिडोरी की "द वैम्पायर " (1819) का आधार बना, पिडोरी को रोमांटिक वैम्पायर शेली का जनक कहा जाता है । इस तरह एक घटना से दो महान डरावनी गाथाओं का जन्म हुआ। 1818 में प्रकाशित पहले तीन-भाग के संस्करण (1816-1817 के बीच लिखे गए) के लिए मेरी और पर्सी बायशी शेली के हाथों से लिखे गए कागज और मैरी द्वारा अपने प्रकाशक के लिए लिखी गई प्रति आज ऑक्सफॉर्ड के बॉडलियन पुस्तकालय में संग्रहित हैं। बॉडलियन ने 2004 में इन दस्तावेजों का अधिग्रहण किया और अब वे एबिंगर संग्रह का हिस्सा हैं। [8] 1 अक्तुबर, 2008 को बॉडलियन ने फ्रैंकनस्टाइन का एक नया संस्करण प्रकाशित किया जिसमें मेरी शेली द्वारा लिखी गई मूल प्रति और उसमें पर्सी शैली द्वारा दिए गए सुझावों की तुलनात्मक व्याख्या की गई है । इस नए संस्करण का संपादन चार्लस E रोबिनसन ने किया है । और इसका नाम है "द ऑरिजिनल फ्रैंकनस्टाइन " मेरी शेली ने मई 1817 में ये उपन्यास को खत्म किया और फ्रैंकनस्टाइन; या द मॉर्डन प्रोमिथियस का पहला प्रकाशन लंदन में हार्डिंग के एक छोटे से प्रकाशन घर, मेयर एंड जोन्स, द्वारा 1 जनवरी 1818 को प्रकाशित किया गया। इसे बिना किसी लेखक के नाम से प्रकाशित किया गया था, हालांकि इसमें पर्सी बायशी शेली ने मेरी के लिए प्रस्तावना लिखी थी और इसे मेरी कि पिता विलियम गॉडविन को समर्पित किया गया था। इस संस्करण की सिर्फ पांच सौ प्रतियां तीन-भागों में प्रकाशित की गईं, 19वीं सदी में पहले संस्करण को तीन-भागों (ट्रिपल-डेकर) में प्रकाशित करने का रिवाज था। पर्सी बायशी शेली के प्रकाशक, चार्लय ओलियर और बायरन के प्रकाशक, जॉन मरे ने पहले इस उपन्यास को छापने से मना कर दिया था। फ्रैंकनस्टाइन का दूसरा संस्करण 11 अगस्त 1823 में दो भागों में प्रकाशित हुआ (G और W B विटेकर द्वारा) और इस बार लेखक के तौर पर मेरी शेली का नाम छापा गया। 31 अक्तुबर 1831 को हेनरी कॉलबम और रिचर्ड बेन्टले ने इस उपन्यास का पहला भाग का "लोकप्रिय" संस्करण प्रकाशित किया। इस संस्करण में मेरी ने कई संशोधन किए थे और इसमें उन्होंने एक नई प्रस्तावना लिखी थी जिसमें इस उपन्यास की उत्पत्ति की कहानी को संवारकर पेश करने की कोशिश की गई थी। ये संस्करण अब तक छपे उपन्यास के दूसरे संस्करणों से ज्यादा पढा गया संस्करण माना जाता है, हालांकि 1818 के ही मूल विषय वाले संस्करण अब भी छापे जाते हैं। वास्तव में विद्वान 1818 के संस्करण को ही वरीयता देते हैं उनका तर्क है कि ये शेली के मूल प्रकाशन की आत्मा/भावना को जीवित रखता है, के आलोचनातम संस्करण में एन K मेलर द्वारा "चूजिमग अ टेक्स्ट ऑफ फ्रैंकनस्टाइन टू टीच") दैत्य को अक्सर "फ्रैंकनस्टाइन" कहा जाता है, जो बिल्कुल गलत है । 1908 में एक लेखक ने कहा था "ये बहुत अजीब बात है कि "फ्रैंकनस्टाइन" शब्द का इस्तेमाल दुनियाभर में गलत तरीके से किया जाता है, इसमें विद्वान लोग भी शामिल हैं, ये किसी भयानक दैत्य का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है । "[12] 1916 में छपे एडिथ वॉर्टन के द रीफ में एक उपद्रवी बच्चे को "नन्हा फ्रैंकनस्टाइन" कहा गया। [13] 12 जून 1844 में द रोवर में प्रकाशित डेविड लिंड्से के "द ब्राइडल ऑर्नामेंट" में "गरीब फ्रैंकनस्टाइन के सृजनकर्ता" का जिक्र है । 1931 में आई जेम्स वेल्स की मशहूर फिल्म फ्रैंकनस्टाइन देखने के बाद दर्शक दैत्य को ही "फ्रैंग्कंस्टीन" कहने लगे यह सिलसिला ब्राइड ऑफ फ्रैंकनस्टाइन (1935) और इस श्रृंखला की दूसरी फिल्मों में भी जारी रहा, कई फिल्मों के नामों तक में भी इसका गलत इस्तेमाल हुआ जैसे कि एबट एंड कोस्टेलो मीट फ्रैंकनस्टाइन फ्रैंकनस्टाइन मेरी शेली इस बात पर हमेशा कायम रही कि उन्होंने एक सपना देखा था जहां से फ्रैंकनस्टाइन नाम अस्तित्व में आया। नाम के असलीपन को लेकर उनके कई दावों के बावजूद ये कई कयासों और विवादों से घिरा रहा है । वास्तविक तौर पर जर्मन भाषा में फ्रैंकनस्टाइन का अर्थ है "फ्रैंक्स का पत्थर" ये नाम कई जगहों से जुडा है, जैसे कि कासल फ्रैंकनस्टाइन(बर्ग फ्रैंग्कंस्टीन), जिसे उपन्यास लिखने से पहले मेरी शेली ने एक नाव पर यात्रा के दौरान देखा था। फ्रैंकनस्टाइन पेलेटिनेट क्षेत्र में एक कस्बे का नाम भी है; और 1946 से पहले पोलैंड के सिलिसिया में जाबकोविस स्लास्की नाम के शहर को फ्रैंकनस्टाइन इन शलेशियन के तौर पर भी जाना जाता था। हाल में ही, राडू फ्लोरेशु ने अपनी किताब इन सर्च ऑफ फ्रैंकनस्टाइन में दावा किया कि मेरी और पर्सी शेली ने स्विट्जरलैंड जाते समय राइन नदी के किनारे, डार्मस्टेट स्थित कासल फ्रैंकनस्टाइन का दौरा किया था, जहां कोनराड डिपल नाम के एक कुख्यात कीमियागार ने मानव शरीर के साथ प्रयोग किए थे, लेकिन मेरी शेली ने इस यात्रा का जिक्र नहीं किया था ताकि असलीपन का उसका दावा कायम रहे हाल ही के एक साहित्यिक निबंध[14] में ए जे डे ने फ्लोरेशु के इस दावे को सही ठहराया कि मेरी शेली कासल फ्रैंकनस्टाइन के बारे में जानती है और अपना उपन्यास लिखने से पहले वह वहां गई थीं[15] डे ने इसके लिए मेरी शेली के "गुम" हुए दस्तावेजों का हवाला दिया है जिसमें कथित तौर पर फ्रैंकनस्टाइन कासल का जिक्र है । हालांकि इस सिद्धांत को कुछ लोग सही नहीं मानते हैं; फ्रैंकनस्टाइन विशेषज्ञ लियोनार्ड वुल्फ इसे एक "अपुष्ट षडयंत्र का सिद्धांत"[16] करार दिया है, उनके मुताबिक 'गुम हुए दस्तावेजों' और फ्लोरेशु के दावों की पुष्टि नहीं की जा सकती [17] जॉन मिल्टन के महाकाव्य पैराडाइस लॉस्ट का मेरी शेली पर खासा प्रभाव माना जाता है (पैराडाइस लॉस्ट में से एक संविदा भाव कोटेशन का इस्तेमाल फ्रैंकनस्टाइन के पहले पन्ने पर होना और शेली दैत्य को इस संविदा भाव को पढने की इजाजत भी देती है) मिल्टन ने पैराडाइस लॉस्ट में ईश्वर को अक्सर "द विक्टर" कहकर संबोधित किया है और शेली के लिए विक्टर भगवान की तरह ही है क्योंकि वह भी जीवन का सृजन करता है । इसके अलावा, शेली द्वारा दिया गया दैत्य का वर्णन पैराडाइस लॉस्ट में शैतान के चरित्र से काफी हद तक मेल खाता है और दैत्य इस महाकाव्य को पढने के बाद यहां तक कहता है कि वह उसमें शैतान के चरित्र से समानुभूति रखता है । विक्टर और मेरी के पति, पर्सी शेली के बीच भी कई समानताएं हैं। विक्टर, पर्सी शेली का उपनाम था, उन्होंने अपनी बहन एलिजाबेथ के साथ मिलकर लिखे गए कविताओं के एक संग्रह का नाम ऑरिजिनल पोइट्री बाय विक्टर एंड कजायर रखा था। [18] कयास लगाए जाते रहे हैं कि विक्टर फ्रैंकनस्टाइन के चरित्र लिए मेरी शेली ने पर्सी को आदर्श माना था, क्योंकि पर्सी ने ऐटन में "विद्युत और चुम्बकीय शक्ति के साथ और बारूद एवं दूसरे रसायनों के साथ कई प्रयोग किए थे" और उनके ऑक्सफॉर्ड में उनके कमरे वैज्ञानिक उपकरणों से भरे पडे थे। [19] पर्सी शेली, ऊंची राजनीतिक पहुंच के एक अमीर जागीरदार के बडे बेटे थे और कासल गोरिंग के पहले उपसामंत, सर बायशी शेली और एरंडल के 10वें सामंत, रिचर्ड फिट्जलन के वंशज थे। [20] विक्टर का परिवार भी इलाके के रौबदार परिवारों में से था और उसके पूर्वज राजदरबारी हुआ करते थे। पर्सी की एलिजाबेथ नाम की एक बहन थी। विक्टर की एक मुंहबोली बहन थी जिसका नाम भी एलिजाबेथ था। 22 फरवरी 1815 ने समय से दो महीने पहले (प्रीमैच्योर) एक बच्चे को जन्म दिया जिसकी दो हफ्ते बाद मृत्यु हो गई। पर्सी ने इस अवधिपूर्व बच्चे की स्थिति पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और पर्सी के संबंध मेरी की सौतेली बहन क्लैरी के साथ बढने लगे [21] जब विक्टर ने देखा की दैत्य जीवित हो उठा है तो वह कमरा छोडकर भाग गया, हालांकि वह दैत्य उस तरह विक्टर की ओर बढा था जैसे कि एक नवजात शिशु अपने माता-पिता की ओर बढता है । विक्टर का दैत्य के प्रति दायित्व, इस उपन्यास की मुख्य विषय-वस्तु है । मॉर्डन प्रोमिथियस द मॉर्डन प्रोमिथियस उपन्यास का उपशीर्षक है (हालांकि इस उपन्यास के कई नए संस्करण इसका इस्तेमाल नहीं करते और सिर्फ परिचय में ही इसका जिक्र करते हैं) प्रोमिथियस, यूनानी पौराणिक कथाओं के मुताबिक, वह देवता था जिसने मानव जाति का सृजन किया। वह प्रोमिथियस ही था जिसने स्वर्ग से आग्नि चुराकर मानव को दी थी। जब देवताओं के राजा जीयस को यह बात पता चली तो उन्होंने सजा के तौर पर प्रोमिथियस को ताउम्र एक चट्टान के साथ बांधकर रख दिया जहां रोज एक परभक्षी पक्षी आकर उसका कलेजा खाता था, लेकिन वह दोबारा उग जाता था और पक्षी अगले दिन आकर उसे दोबारा खाता था, अंत में प्रोमिथियस को हेराकल्स (हरक्यूलीस) ने इस बंधन से मुक्ति दिलाई प्रोमिथियस लातिन में भी सुनाए जाना वाला एक पौराणिक कथा है लेकिन कहानी बिल्कुल अलग है । इस कहानी में प्रोमिथियस मिट्टी और पानी से मानव का सृजन करता है, जो फ्रैंकनस्टाइन में एक अहम विषय-वस्तु है क्योंकि विक्टर भी प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करता है और परिणामस्वरूप उसकी रचना ही उसे सजा देती है । प्रोमिथियस की यूनानी पौराणिक कथा में जो देवता है, वह विक्टर फ्रैंकनस्टाइन से तुल्य है, जिस तरह विक्टर नए तौर तरीकों से मानव का सृजन करता है ठीक उसी ही तरह देवता भी मानव जाति का सृजन करता है । एक तरह से विक्टर नें भगवान से मानव सृजन का रहस्य छीन लिया ठीक वैसे ही जैसे कि देवता ने स्वर्ग से आग चुराकर मानव को सौंप दी थी। विक्टर औऱ देवता दोनों ही अपने कर्मों की सजा पाते हैं। विक्टर को अपने सगे-संबंधियों की मौत की वजह से बहुत कष्ट झेलना पडता है और उसे डर भी सताता है कि उसके द्वारा किया गया सृजन उसे मार डालेगा मेरी शेली के लिए प्रोमिथियस कोई नायक नहीं था बल्कि कुछ-कुछ शैतान की तरह था, जिसे वह मानव को आग देने का दोषी मानती थी और जिसकी वजह से मानव जाति को मांस खाने की बुरी लत लग गई (आग से पाक कला विकसित हुई और उससे शिकार और हत्याएं भी शुरू हो गईं) [22] इस दावे के प्रति मेरी का समर्थन, उपन्यास के 17वें अध्याय में देखने को मिलता है, जहां "दैत्य" विक्टर फ्रैंकनस्टाइन से कहता है: "मेरा भोजन मनुष्य नहीं है; मैं अपने पेट के लिए मेमने और बच्चे को नहीं मारता; मेरे पोषण के लिए बेर और बंजुफल ही काफी हैं। " आम तौर पर रूमानी दौर के कलाकारों के लिए, मानव को प्रोमिथियस का तोहफा 18वीं सदी के दो महान अव्यवहारिक वादों को दर्शाता है: औद्योगिक क्रांति और फ्रांसिसी क्रांति, जिसमें दोंनों महान वादे और अनकहे-अनसुने सक्षत भय मौजूद थे। बायरन को एशिलस के नाटक प्रोमिथियस बाउंड से खासा लगाव था और पर्सी शेली जल्द ही अपना प्रोमिथियस अनबाउंड (1820) लिखने वाले थे। "मॉर्डन प्रोमिथियस" शब्द इमैनुएल कैंट ने गढा था, जिसमें उन्होंने बेंजामिन फ्रैंकलिन और उस दौरान किए गए उनके विद्युतीय प्रयोगों का जिक्र किया था। [23] शेली के स्रोत शेली ने अपने उपन्यास में कई अलग स्रोतों का समावेश किया, जिनमें से एक थी ओविड की प्रोमिथियन दंतकथा। जॉन मिल्टन के पैराडाइस लॉस्ट और सैम्युल टेलर कोलेरिज के "द राइम ऑफ द एंशियंट मरीनर ", वह किताबें जो दैत्य को कैबिन में मिलती हैं, का असर उपन्यास में साफ देखने को मिलता है । साथ ही शेली दंपत्ति ने विलियम थॉमस बेकफोर्ड के गॉथिक उपन्यास वैथेक को पढा था। [कृपया उद्धरण जोडें] फ्रैंकनस्टाइन में मेरी शेली की मां मेरी वॉल्स्टोनक्राफ्ट का कई जगह जिक्र है और उनकी मुख्य किताब "अ विंडिकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ वुमन " का भी, जिसमें पुरुषों और महिलाओं में समान शिक्षा की कमी का वर्णन किया गया है । अपनी मां के विचारों को अपने काम में शामिल करना भी उपन्यास के सृजन और मातृत्व की विषय-वस्तु से ही जुडा है । मेरी ने फ्रैंकनस्टाइन के चरित्र के लिए हम्फ्री डेवी की किताब एलिमेंट्स ऑफ केमिकल फिलोसॉफी से शायद कुछ प्रेरणा भी ली होगी जिसमें डेवी ने लिखा है कि "विज्ञान ने मानव को कई शक्तियां प्रदान की हैं जिन्हें सृजनात्मक कहा जा सकता है; और जिसकी बदौलत वह अपने आस-पास के जीव-जंतुओं को बदलने और सुधारने में सक्षम हुआ है । " विश्लेषण शेली ने अपने उपन्यास की एक विवेचना का खुद प्रसंगवश उल्लेख किया है, जब वह अपने पिता विलियम गॉडविन की अतिवादी राजनीति का हवाला देती है । शेली के उपन्यास में एक जगह दैत्य और विक्टर एक हिमनद पर आमने-सामने आते हैं। दैत्य अकेलेपन और बहिष्कृत होने की अपनी भावनाओं का वर्णन करता है । विक्टर फिर भी नहीं देख पाता है कि उसने ही इस दैत्य का बहिष्कार किया था और यह उसका दायित्व बनता था कि वह उस दैत्य को प्यार करे और उसको अपना कुछ समय दे, जैसा कि बचपन में उसके माता-पिता ने उसके लिए किया था। विक्टर को इतना अलगाव क्यों है? वह खुद को एक पिता की तरह क्यों नहीं देखता? द नाइटमेअर ऑफ रोमांटिक आईडियलिसम नामक निबंध में लेखक कहता है, "जब फ्रैंकनस्टाइन बाप बनता है […], वह बच्चों के प्रति अपने कर्तव्य को आसानी से भूल जाता है […], एक सृजनकर्ता होते हुए भी उसमें एक गुण की कमी है और वह गुण वह है उसके लिए वह अपने माता-पिता की प्रशंसा करता है: उन्हें इस बात का बोध था कि जिसे उन्होंने जन्म दिया है उसके प्रति उनका दायित्व बनता है । " (शेली 391) यह लेखक यह भी कहता है कि "(फ्रैंकनस्टाइन द्वारा) जिंदगी में […] एक व्यस्क की भूमिका को स्वीकार करने से इनकार करके वह सृजन की शक्ति को कायम रखता है । लेकिन उसी के साथ-साथ वह बिल्कुल गैर-जिम्मेदार भी है […] और उसमें अपने कर्मों के परिणामों को झेलने की हिम्मत नहीं है । "(शेली 391) यह वाक्य अपनी रचना के प्रति विक्टर की मानसिक्ता का वर्णन करते हैं। दुर्भाग्यवश, फ्रैंकनस्टाइन का कोमल बचपन उसे असली दुनिया के लिए तैयार नहीं कर पाया। उसे बढा होकर अपने कर्मों की जिम्मदारी उठाने की कभी जरूरत नहीं पडी फ्रैंकनस्टाइन सृजनकर्ता और सृजन के बीच के रिश्तों को ढूंढने की कोशिश करता है और साथ ही परिजनों और समाज के प्यार और स्वीकृति की वैश्विक जरूरत को भी बयां करता है । विक्टर द्वारा अपनी रचना का बहिष्कार करना दैत्य को बहिष्कृत अनुभव कराता है और उस दैत्य के अंदर गुस्से और खेद की भावना को जन्म देता है और हिंसक प्रतिक्रिया में वह उन लोगों को मार डालता है जो विक्टर के बहुत करीबी थे, यह सिलसिलता अंत तक चलता है जब विक्टर खुद मर जाता है और दैत्य खुद को नष्ट करने के लिए चला जाता है । फ्रैंकनस्टाइन की एक प्रचलित विषय-वस्तु अकेलापन और मनुष्य पर होने वाले अकेलेपन के प्रभाव हैं। यह विषय-वस्तु, उपन्यास के तीन मुख्य पात्रों: वॉल्टन, फ्रैंकनस्टाइन और दैत्य, के विचारों और अनुभवों के जरिए दर्शाई गई है । कहानी की शुरूआत में वॉल्टन के पत्र उसकी अकेलेपन की भावनाओं से भरे हैं क्योंकि वह जिस साहसिक अभियान पर निकला था उसमें कुछ रोचक नहीं रह गया था। विक्टर पूरी किताब में डर और बेचैनी का अनुभव करता है । कहानी की शुरुआत में विक्टर का कार्य उसे उसके परिवार से अलग कर देता है । वह कई वर्ष अकेलेपन में बिताता है । कहानी में आगे चलकर जब उसके परिजन और दोस्त मरने लगते हैं तो उसके अनुभव और भी कडवे जाते हैं। उसने कहा है "यह मनोदशा मेरे उस स्वास्थ्य को खा गई है, जो पहले झटके से बचने के बाद पूरी तरह ठीक हो गया था। मैंने इंसान के चेहरे से किनारा कर लिया था; खुशी से भरी हर एक आवाज मुझे काटती थी; एकांतवास ही मेरा इकलौता सहारा था- घनघोर अंधेरा मौत की तरह सन्नाटा" फ्रैंकनस्टाइन ने इसी तरह की भावनाओं को फिर व्यक्त किया जब उसने कहा "दुनिया के एक सबसे घिनौने काम में लिप्त, मैं अकेलेपन में डूब गया था, जहां कोई भी एक पल के लिए मेरा ध्यान भटका नहीं सकता था, मेरी इच्छाएं मर चुकीं थीं, मैं बैचेन और घबराने लगा था। " दैत्य बताता है कि किस तरह उसके अकेलापन ने उसे बदल दिया जब वह कहता है "मैं यह विश्वास नहीं कर सकता कि मैं वही हूं जिसके विचार कभी श्रेष्ठ और उत्तम सुंदरता और अच्छाई से भरे पडे थे। लेकिन ऐसा भी है, कि एक पतित फरिश्ता एक विद्वेशपूर्ण शैतान बन जाता है । फिर भी उसके सूनेपन में भगवान और इंसान के उस दुशमन के दोस्त थे; लेकिन मैं फिर भी अकेला हूं" शेली स्पष्ट रूप से इस विष्य-वस्तु का अन्वेशण कर रही थी क्योंकि अकेलापन उसके मुख्य चरित्रों की महत्वपूर्ण प्रेरणा है । नाइटमेअर: बर्थ ऑफ हॉरर में क्रिस्टोफर फ्रेलिंग इस विष्य-वस्तु की चर्चा उपन्यास में अभिव्यक्त जीवच्छेदन के विपरीत करते हैं, क्योंकि शेली शाकाहारी थीं। तीसरे अध्याय में विक्टर लिखते हैं कि उन्होंने "अजीव मिट्टी में जान फूंकने के लिए जीवित प्राणी को यातना दी " और दैत्य कहता है: "मेरा भोजन मनुष्य नहीं है; मैं अपने पेट के लिए मेमने और बच्चे को नहीं मारता " एक अल्पसंख्क विचार को रखते हुए, आर्थर बेलेफेंट ने अपनी किताब फ्रैंकनस्टाइन, द मैन एंड द मॉन्स्टर (1999,ISBN 0-9629555-8-2) में दावा करते हैं कि मेरी शेली की मंशा थी कि पाठक यह समझे कि दैत्य कभी विद्यमान ही नहीं था और यह कि विक्टर फ्रैंकनस्टाइन ने ही तीनों हत्याएं की थीं। उनकी इस विवेचना में, यह कहानी विक्टर के नैतिक पतन का अध्य्यन है और इस कहानी में वैज्ञानिक परिकल्पना के पहलू विक्टर की कल्पना हैं। एक और अल्पमत साहित्यिक आलोचक जॉन लौरिस्टन की 2007 की किताब "द मैन हू रोट फ्रैंकनस्टाइन "[25] में किया गया दावा है, जिसमें वह कहते हैं कि मेरी के पति, पर्सी बायशी शेली, उपन्यास के लेखक थे। मेरी शेली के प्रमुख विद्वान इस अनुमान को ज्यादा त्वज्जो नहीं देते हैं[कृपया उद्धरण जोडें], हालांकि आलोचक कैमिली पागलिया ने इसकी उत्साहपूर्वक प्रशंसा की है और जर्मेन ग्रीर[26] ने इसकी तीखी आलोचना की है । [27] डेलावेयर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर चार्लस ई रॉबिन्सन ने 2008 में प्रकाशित फ्रैंकनस्टाइन के अपने संस्करण में इस विवादित लेखन को कुछ हद तक समर्थन दिया है, रॉबिन्सन ने फ्रैंग्कंस्टीन की हस्तलिपियों को दोबारा पढा और उनमें पर्सी शेली द्वारा की गई मदद को मान्यता दी [कृपया उद्धरण जोडें] अभिग्रहण शुरूआत में आलोचको ने इस किताब को ज्यादा पसंद नहीं किया, साथ ही इस बात को लेकर कई अटकलें भी लगती रहीं कि इसका असली लेखक कौन है । सर वॉल्टर स्कॉट ने लिखा कि "सबसे बढकर, यह कार्य हमें प्रभावशाली लगा क्योंकि यह लेखक की वास्तविक निपुणता और व्यक्त करने की खुशनुमा शक्ति का अंदाजा देता है", हालांकि ज्यादातर समालोचकों ने इसे "बेतुकेपन का एक भयानक और घिनौने उतक माना" (क्वाटर्ली रिव्यू) इस तरह की समालोचनाओं के बावजूद, फ्रैंकनस्टाइन ने बहुत जल्द ही प्रसिद्धि हासिल कर ली कई नाटकों और रंगमंचों द्वारा अपनाए जाने के बाद यह और भी मशहूर हो गया — मेरी शेली ने 1823 में रिचर्ड ब्रिंसले पीक के नाटक प्रीसम्पशन: ऑर द फेट ऑफ फ्रैंकनस्टाइन, को भी देखा फ्रैंकनस्टाइन का फ्रांसीसी अनुवाद 1821 में ही प्रकाशित कर दिया गया (जूल्स सालादिन द्वारा अनूदित, फ्रैंकनस्टाइन: ऊ ला प्रोमिथी मॉर्डन) 1818 में गुमनाम प्रकाशन के बाद से ही फ्रैंकनस्टाइन की बहुत प्रशंसा भी हुई है और आलोचना भी उस समय के आलोचकों द्वारा की गई समीक्षा इन दो मतों को दर्शाती है । द बेले एसेंबली ने उपन्यास को "निर्भीक परिकल्पना" (139) करार दिया क्वार्टर्ली रिव्यू ने कहा कि "लेखक के पास कल्पना और भाषा दोनों की शक्ति है"(185) सर वॉल्टर स्कॉट, ने ब्लैकवुड एडिबर्ग मैगजीन में लिखते हुए बधाई दी, "लेखक की वास्तविक निपुणता और व्यक्त करने की खुशनुमा शक्ति", हालांकि जिस तरह से दैत्य ने दुनिया और भाषा का ज्ञान हासिल किया उससे वह कम सहमत थे। [28] द एडिनबर्ग मैगजीन और लिट्ररी मिसलेनी ने उम्मीद व्यक्त की कि "वह इस लेखक के और उपन्यास चाहेंगे"(253) दो अन्य समीक्षाओं में जहां यह मालूम पडता है कि लेखक विलियम गॉडविन की बेटी है, उपन्यास की आलोचना मेरी शेली के स्त्रीयोचित स्वभाव पर हमला है । ब्रिटिश आलोचक ने उपन्यास की कमियों को लेखक की गलती बताया है; "इसकी लेखक, हमारे मुताबिक, एक स्त्री है, यह उसका क्षोभ है और यही इस उपन्यास की सबसे बडी गलती है; लेकिन अगर वह लेखिका अपने लिंग की सौम्यता को भूल जाए, तो हमें ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता है कि क्यों; और इसलिए हम इस उपन्यास को आगे बिना किसी टिप्पणी के खारिज करते हैं। "(438) द लिट्ररी पैनोरमा और नेशनल रजिस्टर ने उपन्यास पर हमला बोलते हुए इसे "एक मशहूर उपन्यासकार की बेटी" द्वारा लिखित "मिस्टर गॉडविन के उपन्यासों की नकल" करार दया इन शुरूआती अस्वीकृतियों के बावजूद, 20वीं शताबदी के मध्य के बाद से इस उपन्यास को आलोचकों ने काफी पसंद किया है । [29] एम ए गोल्डबर्ग और हारोल्ड ब्लूम जैसे प्रमुख आलोचकों ने इस उपन्यास की "सौंदर्यबोधी और नैतिक"[30] अहमियत की प्रशंसा की है और हाल ही के कुछ वर्षों में यह उपन्यास मनोविश्लेषण और नारीवादी आलोचना के लिए एक मशहूर विषय बन चुका है । आज यह उपन्यास आमतौर पर रूमानी और गॉथिक साहित्य और वैज्ञानिक परिकल्पना का एतिहासिक कार्य माना जाता है । [31] आज की लोकप्रिय पागल वैज्ञानिक शेली में मेरी शैली के फ्रैंकनस्टाइन को पहला उपन्यास कहा जाता है । [32] हालांकि प्रचलित संस्कृति ने निष्कपट और सरल विक्टर फ्रैंकनस्टाइन को एक अति दुष्ट चरित्र में तब्दील कर दिया है । जैसा दैत्य को पहले पेश किया गया था, उससे बिल्कुल अलग इसने दैत्य को भी एक सनसनीखेज, अमानुषिक प्राणी में बदल दिया है । असली कहानी में विक्टर जो सबसे बुरा काम करता है वह है डर के मारे दैत्य की उपेक्षा करना वह डर पैदा करना नहीं चाहता दैत्य भी एक मासूम, प्यारे प्राणी की तरह अस्तित्व में आता है । जब दुनिया उस पर अत्याचार करती है तो उसके मन में द्वेष की भावना पनपती है । अंत में विक्टर विज्ञान के ज्ञान को सक्षत शैतान और खतरनाक रूप से आकर्षक बताता है । [33] हालांकि किताब प्रकाशित होने के तुरंत बाद, रंगमंच निर्देशकों को इस कहानी को दृश्यों में पेश करने में कठिनाई महसूस होने लगी 1823 में शुरू हुए प्रदर्शनों के दौरान नाटककार यह बात मानने लगे कि इस उपन्यास को रंगमंच पर पेश करने के लिए वैज्ञानिक और दैत्य के अंतर्भावों के खत्म करना पडेगा अपनी सनसनीखेज हिंसक हरकतों की बदौलत दैत्य कार्यक्रमों का सितारा बन गया। वहीं विक्टर को एक बेवकूफ की तरह पेश किया जाने लगा जो सिर्फ प्रकृति के रहस्यों में उलझा रहता था। इस सब के बावजूद यह नाटक असली उपन्यास से कहीं ज्यादा मेल खाते थे जोकि फिल्मों में नहीं होता था। इसके हास्यप्रद संस्करण भी आए और 1887 में लंदन में "फ्रैंकनस्टाइन, ऑर द वैम्पायर्स विकटिम " नाम से एक खिल्ली उडाता हुआ संगीतमय संस्करण भी प्रदर्शित किया गया। [34] मूक फिल्में कहानी में जान डालने का प्रयास करती रहीं शुरूआती फिल्में जैसे कि, एडिसन कंपनी की एक-रील फ्रैंकनस्टाइन (1910) और लाइफ विदाउट सोल (1915) उपन्यास की कथावस्तु से जुडे रहने में कामयाब रहे हालांकि 1931 में जेम्स वेल ने एक फिल्म का निर्देशन किया जिसने कहानी को बिल्कुल उलट कर रख दिया युनिवर्स सिनेमा में काम करते-करते, वेल की फिल्म ने कथावस्तु में ऐसे कई तत्व जोडे जिन्हें आज के आधुनिक दर्शक बखूबी जानते हैं: "डॉ॰" की तस्वीर फ्रैंकनस्टाइन, जो कि शुरूआत में एक निष्कपट, युवा छात्र था; ईगोर की तरह दिखने वाला चरित्र (फिल्म में नाम: फ्रिट्ज), जो शरीर के अंगों को इकट्ठा करते वक्त गलती से अपने मालिक के लिए एक अपराधी का दिमाग लाता है; और एक सृजन का एक सनसनीखेज दृश्य जो रसायनिक प्रक्रिया की बजाय विद्युतीय शक्ति पर केंद्रित होता है । (शेली के असली उपन्यास में कथावाचक के तौर पर फ्रैंकनस्टाइन जानबूझ के वह प्रक्रिया नहीं बताता जिससे उसने दैत्य का सृजन किया था, क्योंकि उसे डर था कि कोई दूसरा इस प्रयोग को दोबारा करने की कोशिश करेगा) इस फिल्म में वैज्ञानिक एक अहंकारी, होनहार, व्यस्क है, ना कि एक युवा फिल्म में दूसरा वैज्ञानिक स्वेच्छा से दैत्य को मारने का काम करता है, लेकिन फिल्म कभी भी फ्रैंकनस्टाइन को उसके कार्यों की जिम्मेदारी उठाने के लिए दबाव नहीं डालती है । वेल की सीक्वेल ब्राइड ऑफ फ्रैंकनस्टाइन (1935) और इसके बाद के सीक्वेल सन ऑफ फ्रैंकनस्टाइन (1939) और घोस्ट ऑफ फ्रैंग्कंस्टीन (1942) सभी सनसनी, डर और अतिशयोक्ति से भरी पडी थीं और साथ ही साथ डॉ॰ फ्रैंकनस्टाइन और दूसरे चरित्र और भी बुरे होते चले गए। [35] इन्हें भी देखें फ्रैंकनस्टाइन' तर्क फ्रैंकनस्टाइन कॉम्प्लेक्स फ्रैंकनस्टाइन का दैत्य लोकप्रिय संस्कृति में फ्रैंकनस्टाइन होमुनकोलस गोलेम जोहान कॉनरोड डिपेल %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0_%E0%A4%9C%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%BE %%%%% CS671 : gprachi@iitk.ac.in 150806 श्री सत्य साईं बाबा का जन्मस्थान अनंतपुर आंध्र प्रदेश का सबसे पश्चिमी जिला है जो एक ओर इतिहास और आधुनिकता का संगम दिखाता है और दूसरी और किलों के दर्शन कराता है । अनंतपुर 19130 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला है । यह कुर्लूल से, पूर्व में कुड्डापा यह पूरा जिला अपने रेशम व्यापार के आधुनिक रूप के लिए जाना जाता है । पर्यटन की बात करें तो लिपाक्षी मंदिर यहां का प्रमुख आकर्षण है । अनंतपुर आंध्र प्रदेश कुड्डुपा के पूर्वी भाग में अवस्थित है । सन 1800 ई तक अनंतपुर ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रमुख केन्द्र था। अनंतपुर का सम्बन्ध थामस मुनरो से भी रहा है, जो यहाँ का प्रथम कलेक्टर था। अनंतपुर के समीप लेपाक्षी ग्राम अपने अद्भुत भित्ति चित्रोंयुक्त मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है । लिपाक्षी मंदिर लिपाक्षी वास्तव में एक छोटा सा गांव है जो अनंतपुर के हिंदूपुर का हिस्सा है । यह गांव अपने कलात्मक मंदिरों के लिए जाना जाता है जिनका निर्माण 16वीं शताब्दी में किया गया था। विजयनगर शैली के मंदिरों का सुंदर उदाहरण मंदिर है । विशाल मंदिर परिसर में भगवान शिव, भगवान विष्णु के मंदिर हैं। भगवान शिव नायक शासकों के कुलदेवता थे। मंदिर में नागलिंग के संभवत: सबसे बडी प्रतिमा है । पेनुकोंडा किला इस विशाल किले का हर पत्थर उस समय की शान को दर्शाता है । पेनुकोंडा अनंतपुर जिले का एक छोटा का नगर है । प्राचीन काल में यह विजयनगर राजाओं के दूसरी राजधानी के रूप में होता था। अनंतपुर से 70 किमी. दूर यह किला कुर्नूल-बंगलुरु रोड पर स्थित है । उनके शासनकाल में इस किले का निर्माण हुआ था। किले का वास्तु का था कि कोई भी शत्रु यहां तक पहुंच नहीं पाता था। येरामंची द्वार से प्रवेश करने पर भगवान हनुमान की 11 फीट ऊंची विशाल प्रतिमा दिखाई है । 1575 में बना गगन महल शाही परिवार का समर रिजॉर्ट था। पेनुकोंडा किले के वास्तु में हिदु और मुस्लिम शैली का संगम देखने को मिलता है । पुट्टापर्थी श्री सत्य साईं बाबा का जन्मस्थान होने के कारण उनके अनेक अनुयायी यहां आते रहते हैं। 1950 में उन्होंने अपने अनुयायियों के लिए आश्रम की स्थापना की। आश्रम परिसर में बहुत से गेस्टहाउस, रसोईघर और भोजनालय हैं। पिछले सालों में आश्रम के आसपास अनेक इमारतें बन गई हैं जिनमें स्कूल, विश्वविद्यालय, आवासीय कलोनियों, अस्पताल, प्लेनेटेरियम, संग्रहालय शामिल हैं। ये सब इस छोटे से गांव को शहर का रूप देते हैं। श्री कदिरी नारायण मंदिर नरसिम्हा स्वामी मंदिर अनंतपुर का एक प्रमुख तीर्थस्थान है । आसपास के जिलों से भी अनेक श्रद्धालु यहां आते हैं। धर्मग्रंथों के अनुसार नरसिम्हा स्वामी भगवान विष्णु के अवतार थे। मंदिर का निर्माण पथर्लापट्टनम के रंगनायडु जो एक पलेगर थे, ने किया था। रंगमंटप की सीलिंग पर रामायण और लक्ष्मी मंटम की पर भगवत के चित्र उकेरे गए हैं। दीवारों पर बनाई गई तस्वीरों का रंग फीका है लेकिन उनका आकर्षण बरकरार है । मंदिर के अधिकांश शिलालेखों में राजा द्वारा मंदिर में दिए गए उपहारों का उल्लेख किया गया है । माना जाता है कि जो व्यक्ति इस मंदिर में पूजा अर्चना करता है, उसे अपने सारे दु:खों से मुक्ति मिल जाता है । दशहरे और सक्रांत के दौरान यहां विशेष पूजा अर्चना का आयोजन किया जाता है । कदिरी से 35 किमी. और अनंतपुर से 100 किमी. दूर स्थित यह स्थान बरगद के पेड़ के लिए प्रसिद्ध है जिसे स्थानीय भाषा में मरीमनु कहा जाता है । इस पेड़ की शाखाएं पांच एकड तक फैली हुई हैं। 1989 में इसे गिनीज बुक ऑफ वर्लड रिकॉर्ड में शामिल किया गया। मंदिर के नीचे को समर्पित एक छोटा सा मंदिर हे। माना जाता है कि का जन्म सेती बालिजी परिवार में हुआ था। अपने पति बाला वीरय्या के बाद वे सती हो गई। माना जाजा है कि जिस स्थान पर उन्होंने आत्मदाह किया था, उसी स्थान पर यह बरगद का पेड़ स्थित है । यदि कोई नि:संतान दंपत्ति यहां प्रार्थना करता है तो अगले ही साल की कृपा से उनके घर संतान उत्पन्न हो जाती है । शिवरात्रि के अवसर पर यहां जात्रा का आयोजन किया जाता है जिसमें हजारों भक्त यहां आकर पूजा करते हैं। रायदुर्ग किला रायदुर्ग किले का विजयनगर के इतिहास में स्थान है । किले के अंदर अनेक किले हैं और दुश्मनों के लिए यहां तक पहुंचना असंभव था। इसका निर्माण समुद्र तल से 2727 फीट की ऊंचाई पर किया गया था। मूल रूप से यह बेदारों का गढ था जो विजयनगर के शासन में शिथिल हो गया। आज भी पहाडी के नीचे किले के अवशेष देखे जा सकते हैं। माना जाता है कि किले का निर्माण जंग नायक ने करवाया था। किले के पास चार गुफाएं भी हैं जिनके द्वार पत्थर के बने हैं और इन पर सिद्धों की नक्काशी की गई है । किले के आसपास अनेक मंदिर भी हैं जैसे नरसिंहस्वामी, हनुमान मंदिर। यहां भक्तों का आना-जाना लगा रहता है । हरियाली के बीच स्थित यह मंदिर अनंतपुर से 36 किमी. दूर है । दंतकथाओं के अनुसार इस मंदिर का निर्माण भगवान लक्ष्मी नरसिंह स्वामी के पदचिह्मों पर किया गया है । विवाह समारोहों के लिए यह मंदिर पसंदीदा जगह है । अप्रैल के महीने में यहां वार्षिक रथ यात्रा का आयोजन किया जाता है । मंदिर परिसर में ही आदि लक्ष्मी देवी मंदिर और चेंचु लक्ष्मी देवी मंदिर भी हैं। गूटी किला गूटी अनंतपुर से 52 किमी. दूर है । यह किला आंध्र प्रदेश के सबसे पुराने पहाडी किलों में से एक है । किले में मिले प्रारंभिक शिलालेख कन्नड और संस्कृत भाषा में हैं। किले का निर्माण सातवीं शताब्दी के आसपास हुआ था। मुरारी राव में मराठों ने इस पर अधिकार किया। गूटी फियत के अनुसार मीर जुमला ने इस पर शासन किया। उसके बाद यह कुतुब शाही प्रमुख के अधिकार में आ गया। कालांतर में हैदर अली और ब्रिटिशों ने इस पर राज किया। गूटी किला गूटी के मैदानों से 300 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है । किले के अंदर कुल 15 किले और 15 मुख्य द्वार हैं। मंदिर में अनेक कुएं भी हैं जिनमें से एक के बारे में कहा जाता है कि इसकी धारा पहाडी के नीचे से जुडी हुई है ।