%%%%%%%%%%%%%%%% Godan By Premchand %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%%%%% Source: http://hindisamay.com/contentDetail.aspx id=244&pageno=1 %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%5 होरीराम ने दोनों बैलों को सानी-पानी दे कर अपनी स्त्री धनिया से कहा - गोबर को ऊख गोड़ने भेज देना। मैं न जाने कब लौटूँ। जरा मेरी लाठी दे दे। धनिया के दोनों हाथ गोबर से भरे थे। उपले पाथ कर आई थी। बोली - अरे, कुछ रस-पानी तो कर लो। ऐसी जल्दी क्या है? होरी ने अपने झुर्रियों से भरे हुए माथे को सिकोड़ कर कहा - तुझे रस-पानी की पड़ी है, मुझे यह चिंता है कि अबेर हो गई तो मालिक से भेंट न होगी। असनान-पूजा करने लगेंगे, तो घंटों बैठे बीत जायगा। 'इसी से तो कहती हूँ, कुछ जलपान कर लो और आज न जाओगे तो कौन हरज होगा! अभी तो परसों गए थे।' 'तू जो बात नहीं समझती, उसमें टाँग क्यों अड़ाती है भाई! मेरी लाठी दे दे और अपना काम देख। यह इसी मिलते-जुलते रहने का परसाद है कि अब तक जान बची हुई है, नहीं कहीं पता न लगता कि किधर गए। गाँव में इतने आदमी तो हैं, किस पर बेदखली नहीं आई, किस पर कुड़की नहीं आई। जब दूसरे के पाँवों-तले अपनी गर्दन दबी हुई है, तो उन पाँवों को सहलाने में ही कुसल है।' धनिया इतनी व्यवहार-कुशल न थी। उसका विचार था कि हमने जमींदार के खेत जोते हैं, तो वह अपना लगान ही तो लेगा। उसकी खुशामद क्यों करें, उसके तलवे क्यों सहलाएँ। यद्यपि अपने विवाहित जीवन के इन बीस बरसों में उसे अच्छी तरह अनुभव हो गया था कि चाहे कितनी ही कतर-ब्योंत करो, कितना ही पेट-तन काटो, चाहे एक-एक कौड़ी को दाँत से पकड़ो; मगर लगान का बेबाक होना मुश्किल है। फिर भी वह हार न मानती थी, और इस विषय पर स्त्री-पुरुष में आए दिन संग्राम छिड़ा रहता था। उसकी छ: संतानों में अब केवल तीन जिंदा हैं, एक लड़का गोबर कोई सोलह साल का, और दो लड़कियाँ सोना और रूपा, बारह और आठ साल की। तीन लड़के बचपन ही में मर गए। उसका मन आज भी कहता था, अगर उनकी दवा-दवाई होती तो वे बच जाते; पर वह एक धेले की दवा भी न मँगवा सकी थी। उसकी ही उम्र अभी क्या थी। छत्तीसवाँ ही साल तो था; पर सारे बाल पक गए थे, चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं। सारी देह ढल गई थी, वह सुंदर गेहुँआँ रंग सँवला गया था, और आँखों से भी कम सूझने लगा था। पेट की चिंता ही के कारण तो। कभी तो जीवन का सुख न मिला। इस चिरस्थायी जीर्णावस्था ने उसके आत्मसम्मान को उदासीनता का रूप दे दिया था। जिस गृहस्थी में पेट की रोटियाँ भी न मिलें, उसके लिए इतनी खुशामद क्यों? इस परिस्थिति से उसका मन बराबर विद्रोह किया करता था, और दो-चार घुड़कियाँ खा लेने पर ही उसे यथार्थ का ज्ञान होता था। उसने परास्त हो कर होरी की लाठी, मिरजई, जूते, पगड़ी और तमाखू का बटुआ ला कर सामने पटक दिए। होरी ने उसकी ओर आँखें तरेर कर कहा - क्या ससुराल जाना है, जो पाँचों पोसाक लाई है? ससुराल में भी तो कोई जवान साली-सलहज नहीं बैठी है, जिसे जा कर दिखाऊँ। होरी के गहरे साँवले, पिचके हुए चेहरे पर मुस्कराहट की मृदुता झलक पड़ी। धनिया ने लजाते हुए कहा - ऐसे ही बड़े सजीले जवान हो कि साली-सलहजें तुम्हें देख कर रीझ जाएँगी। होरी ने फटी हुई मिरजई को बड़ी सावधानी से तह करके खाट पर रखते हुए कहा - तो क्या तू समझती है, मैं बूढ़ा हो गया? अभी तो चालीस भी नहीं हुए। मर्द साठे पर पाठे होते हैं। 'जा कर सीसे में मुँह देखो। तुम-जैसे मर्द साठे पर पाठे नहीं होते। दूध-घी अंजन लगाने तक को तो मिलता नहीं, पाठे होंगे। तुम्हारी दसा देख-देख कर तो मैं और भी सूखी जाती हूँ कि भगवान यह बुढ़ापा कैसे कटेगा? किसके द्वार पर भीख माँगेंगे?' होरी की वह क्षणिक मृदुता यथार्थ की इस आँच में झुलस गई। लकड़ी सँभलता हुआ बोला - साठे तक पहुँचने की नौबत न आने पाएगी धनिया, इसके पहले ही चल देंगे। धनिया ने तिरस्कार किया - अच्छा रहने दो, मत असुभ मुँह से निकालो। तुमसे कोई अच्छी बात भी कहे, तो लगते हो कोसने। होरी कंधों पर लाठी रख कर घर से निकला, तो धनिया द्वार पर खड़ी उसे देर तक देखती रही। उसके इन निराशा-भरे शब्दों ने धनिया के चोट खाए हुए हृदय में आतंकमय कंपन-सा डाल दिया था। वह जैसे अपने नारीत्व के संपूर्ण तप और व्रत से अपने पति को अभय-दान दे रही थी। उसके अंत:करण से जैसे आशीर्वादों का व्यूह-सा निकल कर होरी को अपने अंदर छिपाए लेता था। विपन्नता के इस अथाह सागर में सोहाग ही वह तृण था, जिसे पकड़े हुए वह सागर को पार कर रही थी। इन असंगत शब्दों ने यथार्थ के निकट होने पर भी, मानो झटका दे कर उसके हाथ से वह तिनके का सहारा छीन लेना चाहा। बल्कि यथार्थ के निकट होने के कारण ही उनमें इतनी वेदना-शक्ति आ गई थी। काना कहने से काने को जो दु:ख होता है, वह क्या दो आँखों वाले आदमी को हो सकता है? होरी कदम बढ़ाए चला जाता था। पगडंडी के दोनों ओर ऊख के पौधों की लहराती हुई हरियाली देख कर उसने मन में कहा - भगवान कहीं गौं से बरखा कर दे और डाँड़ी भी सुभीते से रहे, तो एक गाय जरूर लेगा। देसी गाएँ तो न दूध दें, न उनके बछवे ही किसी काम के हों। बहुत हुआ तो तेली के कोल्हू में चले। नहीं, वह पछाईं गाय लेगा। उसकी खूब सेवा करेगा। कुछ नहीं तो चार-पाँच सेर दूध होगा? गोबर दूध के लिए तरस-तरस रह जाता है। इस उमिर में न खाया-पिया, तो फिर कब खाएगा? साल-भर भी दूध पी ले, तो देखने लायक हो जाए। बछवे भी अच्छे बैल निकलेंगे। दो सौ से कम की गोंई न होगी। फिर गऊ से ही तो द्वार की सोभा है। सबेरे-सबेरे गऊ के दर्सन हो जायँ तो क्या कहना! न जाने कब यह साध पूरी होगी, कब वह सुभ दिन आएगा! हर एक गृहस्थ की भाँति होरी के मन में भी गऊ की लालसा चिरकाल से संचित चली आती थी। यही उसके जीवन का सबसे बड़ा स्वप्न, सबसे बड़ी साध थी। बैंक के सूद से चैन करने या जमीन खरीदने या महल बनवाने की विशाल आकांक्षाएँ उसके नन्हें-से हृदय में कैसे समातीं ! जेठ का सूर्य आमों के झुरमुट से निकल कर आकाश पर छाई हुई लालिमा को अपने रजत-प्रताप से तेज प्रदान करता हुआ ऊपर चढ़ रहा था और हवा में गरमी आने लगी थी। दोनों ओर खेतों में काम करने वाले किसान उसे देख कर राम-राम करते और सम्मान-भाव से चिलम पीने का निमंत्रण देते थे; पर होरी को इतना अवकाश कहाँ था? उसके अंदर बैठी हुई सम्मान-लालसा ऐसा आदर पा कर उसके सूखे मुख पर गर्व की झलक पैदा कर रही थी। मालिकों से मिलते-जुलते रहने ही का तो यह प्रसाद है कि सब उसका आदर करते हैं, नहीं उसे कौन पूछता- पाँच बीघे के किसान की बिसात ही क्या? यह कम आदर नहीं है कि तीन-तीन, चार-चार हल वाले महतो भी उसके सामने सिर झुकाते हैं। अब वह खेतों के बीच की पगडंडी छोड़ कर एक खलेटी में आ गया था, जहाँ बरसात में पानी भर जाने के कारण तरी रहती थी और जेठ में कुछ हरियाली नजर आती थी। आस-पास के गाँवों की गउएँ यहाँ चरने आया करती थीं। उस उमस में भी यहाँ की हवा में कुछ ताजगी और ठंडक थी। होरी ने दो-तीन साँसें जोर से लीं। उसके जी में आया, कुछ देर यहीं बैठ जाए। दिन-भर तो लू-लपट में मरना है ही। कई किसान इस गड्ढे का पट्टा लिखाने को तैयार थे। अच्छी रकम देते थे; पर ईश्वर भला करे रायसाहब का कि उन्होंने साफ कह दिया, यह जमीन जानवरों की चराई के लिए छोड़ दी गई है और किसी दाम पर भी न उठाई जायगी। कोई स्वार्थी जमींदार होता, तो कहता गाएँ जायँ भाड़ में, हमें रुपए मिलते हैं, क्यों छोड़ें; पर रायसाहब अभी तक पुरानी मर्यादा निभाते आते हैं। जो मालिक प्रजा को न पाले, वह भी कोई आदमी है? सहसा उसने देखा, भोला अपनी गाय लिए इसी तरफ चला आ रहा है। भोला इसी गाँव से मिले हुए पुरवे का ग्वाला था और दूध-मक्खन का व्यवसाय करता था। अच्छा दाम मिल जाने पर कभी-कभी किसानों के हाथ गाएँ बेच भी देता था। होरी का मन उन गायों को देख कर ललचा गया। अगर भोला वह आगे वाली गाय उसे दे तो क्या कहना! रुपए आगे-पीछे देता रहेगा। वह जानता था, घर में रुपए नहीं हैं। अभी तक लगान नहीं चुकाया जा सका; बिसेसर साह का देना भी बाकी है, जिस पर आने रुपए का सूद चढ़ रहा है, लेकिन दरिद्रता में जो एक प्रकार की अदूरदर्शिता होती है, वह निर्लज्जता जो तकाजे, गाली और मार से भी भयभीत नहीं होती, उसने उसे प्रोत्साहित किया। बरसों से जो साध मन को आंदोलित कर रही थी, उसने उसे विचलित कर दिया। भोला के समीप जा कर बोला - राम-राम भोला भाई, कहो क्या रंग-ढंग हैं? सुना अबकी मेले से नई गाएँ लाए हो? भोला ने रूखाई से जवाब दिया। होरी के मन की बात उसने ताड़ ली थी - हाँ, दो बछिएँ और दो गाएँ लाया। पहलेवाली गाएँ सब सूख गई थी। बँधी पर दूध न पहुँचे तो गुजर कैसे हो? होरी ने आगे वाली गाय के पुट्टे पर हाथ रख कर कहा - दुधार तो मालूम होती है। कितने में ली? भोला ने शान जमाई - अबकी बाजार तेज रहा महतो, इसके अस्सी रुपए देने पड़े। आँखें निकल गईं। तीस-तीस रुपए तो दोनों कलोरों के दिए। तिस पर गाहक रुपए का आठ सेर दूध माँगता है। 'बड़ा भारी कलेजा है तुम लोगों का भाई, लेकिन फिर लाए भी तो वह माल कि यहाँ दस-पाँच गाँवों में तो किसी के पास निकलेगी नहीं।' भोला पर नशा चढ़ने लगा। बोला - रायसाहब इसके सौ रुपए देते थे। दोनों कलोरों के पचास-पचास रुपए, लेकिन हमने न दिए। भगवान ने चाहा तो सौ रुपए इसी ब्यान में पीट लूँगा। 'इसमें क्या संदेह है भाई। मालिक क्या खा के लेंगे? नजराने में मिल जाय, तो भले ले लें। यह तुम्हीं लोगों का गुर्दा है कि अंजुली-भर रुपए तकदीर के भरोसे गिन देते हो। यही जी चाहता है कि इसके दरसन करता रहूँ। धन्य है तुम्हारा जीवन कि गऊओं की इतनी सेवा करते हो! हमें तो गाय का गोबर भी मयस्सर नहीं। गिरस्त के घर में एक गाय भी न हो, तो कितनी लज्जा की बात है। साल-के-साल बीत जाते हैं, गोरस के दरसन नहीं होते। घरवाली बार-बार कहती है, भोला भैया से क्यों नहीं कहते? मैं कह देता हूँ, कभी मिलेंगे तो कहूँगा। तुम्हारे सुभाव से बड़ी परसन रहती है। कहती है, ऐसा मर्द ही नहीं देखा कि जब बातें करेंगे, नीची आँखें करके कभी सिर नहीं उठाते।' भोला पर जो नशा चढ़ रहा था, उसे इस भरपूर प्याले ने और गहरा कर दिया। बोला - आदमी वही है, जो दूसरों की बहू-बेटी को अपनी बहू-बेटी समझे। जो दुष्ट किसी मेहरिया की ओर ताके, उसे गोली मार देना चाहिए। 'यह तुमने लाख रुपए की बात कह दी भाई! बस सज्जन वही, जो दूसरों की आबरू समझे।' 'जिस तरह मर्द के मर जाने से औरत अनाथ हो जाती है, उसी तरह औरत के मर जाने से मर्द के हाथ-पाँव टूट जाते हैं। मेरा तो घर उजड़ गया महतो, कोई एक लोटा पानी देने वाला भी नहीं।' गत वर्ष भोला की स्त्री लू लग जाने से मर गई थी। यह होरी जानता था, लेकिन पचास बरस का खंखड़ भोला भीतर से इतना स्निग्ध है, वह न जानता था। स्त्री की लालसा उसकी आँखों में सजल हो गई थी। होरी को आसन मिल गया। उसकी व्यावहारिक कृषक-बुद्धि सजग हो गई। 'पुरानी मसल झूठी थोड़े है - बिन घरनी घर भूत का डेरा। कहीं सगाई क्यों नहीं ठीक कर लेते?' 'ताक में हूँ महतो, पर कोई जल्दी फँसता नहीं। सौ-पचास खरच करने को भी तैयार हूँ। जैसी भगवान की इच्छा।' 'अब मैं भी फिराक में रहूँगा। भगवान चाहेंगे, तो जल्दी घर बस जायगा।' 'बस, यही समझ लो कि उबर जाऊँगा भैया! घर में खाने को भगवान का दिया बहुत है। चार पसेरी रोज दूध हो जाता है, लेकिन किस काम का?' 'मेरे ससुराल में एक मेहरिया है। तीन-चार साल हुए, उसका आदमी उसे छोड़ कर कलकत्ते चला गया। बेचारी पिसाई करके गुजारा कर रही है। बाल-बच्चा भी कोई नहीं। देखने-सुनने में अच्छी है। बस, लच्छमी समझ लो।' भोला का सिकुड़ा हुआ चेहरा जैसे चिकना गया। आशा में कितनी सुधा है! बोला - अब तो तुम्हारा ही आसरा है महतो! छुट्टी हो, तो चलो एक दिन देख आएँ। 'मैं ठीक-ठाक करके तब तुमसे कहूँगा। बहुत उतावली करने से भी काम बिगड़ जाता है।' 'जब तुम्हारी इच्छा हो तब चलो। उतावली काहे की - इस कबरी पर मन ललचाया हो, तो ले लो।' 'यह गाय मेरे मान की नहीं है दादा। मैं तुम्हें नुकसान नहीं पहुँचाना चाहता। अपना धरम यह नहीं है कि मित्रों का गला दबाएँ। जैसे इतने दिन बीते हैं, वैसे और भी बीत जाएँगे।' 'तुम तो ऐसी बातें करते हो होरी, जैसे हम-तुम दो हैं। तुम गाय ले जाओ, दाम जो चाहे देना। जैसे मेरे घर रही, वैसे तुम्हारे घर रही। अस्सी रुपए में ली थी, तुम अस्सी रुपए ही देना देना। जाओ।' 'लेकिन मेरे पास नगद नहीं है दादा, समझ लो।' 'तो तुमसे नगद माँगता कौन है भाई?' होरी की छाती गज-भर की हो गई। अस्सी रुपए में गाय महँगी न थी। ऐसा अच्छा डील-डौल, दोनों जून में छ:-सात सेर दूध, सीधी ऐसी कि बच्चा भी दुह ले। इसका तो एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा। द्वार पर बँधेगी तो द्वार की सोभा बढ़ जायगी। उसे अभी कोई चार सौ रुपए देने थे; लेकिन उधार को वह एक तरह से मुफ्त समझता था। कहीं भोला की सगाई ठीक हो गई, तो साल-दो साल तो वह बोलेगा भी नहीं। सगाई न भी हुई, तो होरी का क्या बिगड़ता है! यही तो होगा, भोला बार-बार तगादा करने आएगा, बिगड़ेगा, गालियाँ देगा; लेकिन होरी को इसकी ज्यादा शर्म न थी। इस व्यवहार का वह आदी था। कृषक के जीवन का तो यह प्रसाद है। भोला के साथ वह छल कर रहा था और यह व्यापार उसकी मर्यादा के अनुकूल न था। अब भी लेन-देन में उसके लिए लिखा-पढ़ी होने और न होने में कोई अंतर न था। सूखे-बूड़े की विपदाएँ उसके मन को भीरु बनाए रहती थीं। ईश्वर का रुद्र रूप सदैव उसके सामने रहता था; पर यह छल उसकी नीति में छल न था। यह केवल स्वार्थ-सिद्धि थी और यह कोई बुरी बात न थी। इस तरह का छल तो वह दिन-रात करता रहता था। घर में दो-चार रुपए पड़े रहने पर भी महाजन के सामने कसमें खा जाता था कि एक पाई भी नहीं है। सन को कुछ गीला कर देना और रूई में कुछ बिनौले भर देना उसकी नीति में जायज था और यहाँ तो केवल स्वार्थ न था, थोड़ा-सा मनोरंजन भी था। बुड्ढों का बुढ़भस हास्यास्पद वस्तु है और ऐसे बुड्ढों से अगर कुछ ऐंठ भी लिया जाय, तो कोई दोष-पाप नहीं। भोला ने गाय की पगहिया होरी के हाथ में देते हुए कहा - ले जाओ महतो, तुम भी क्या याद करोगे। ब्याते ही छ: सेर दूध लेना। चलो, मैं तुम्हारे घर तक पहुँचा दूँ। साइत तुम्हें अनजान समझ कर रास्ते में कुछ दिक करे। अब तुमसे सच कहता हूँ, मालिक नब्बे रुपए देते थे, पर उनके यहाँ गऊओें की क्या कदर। मुझसे ले कर किसी हाकिम-हुक्काम को दे देते। हाकिमों को गऊ की सेवा से मतलब? वह तो खून चूसना-भर जानते हैं। जब तक दूध देती, रखते, फिर किसी के हाथ बेच देते। किसके पल्ले पड़ती, कौन जाने। रूपया ही सब कुछ नहीं है भैया, कुछ अपना धरम भी तो है। तुम्हारे घर आराम से रहेगी तो। यह न होगा कि तुम आप खा कर सो रहो और गऊ भूखी खड़ी रहे। उसकी सेवा करोगे, प्यार करोगे, चुमकारोगे। गऊ हमें आसिरवाद देगी। तुमसे क्या कहूँ भैया, घर में चंगुल-भर भी भूसा नहीं रहा। रुपए सब बाजार में निकल गए। सोचा था, महाजन से कुछ ले कर भूसा ले लेंगे; लेकिन महाजन का पहला ही नहीं चुका। उसने इनकार कर दिया। इतने जानवरों को क्या खिलाएँ, यही चिंता मारे डालती है। चुटकी-चुटकी भर खिलाऊँ, तो मन-भर रोज का खरच है। भगवान ही पार लगाएँ तो लगे। होरी ने सहानुभूति के स्वर में कहा - तुमने हमसे पहले क्यों नहीं कहा - हमने एक गाड़ी भूसा बेच दिया। भोला ने माथा ठोक कर कहा - इसीलिए नहीं कहा - भैया कि सबसे अपना दु:ख क्यों रोऊँ; बाँटता कोई नहीं, हँसते सब हैं। जो गाएँ सूख गई हैं, उनका गम नहीं, पत्ती-सत्ती खिला कर जिला लूँगा; लेकिन अब यह तो रातिब बिना नहीं रह सकती। हो सके, तो दस-बीस रुपए भूसे के लिए दे दो। किसान पक्का स्वार्थी होता है, इसमें संदेह नहीं। उसकी गाँठ से रिश्वत के पैसे बड़ी मुश्किल से निकलते हैं, भाव-ताव में भी वह चौकस होता है, ब्याज की एक-एक पाई छुड़ाने के लिए वह महाजन की घंटों चिरौरी करता है, जब तक पक्का विश्वास न हो जाय, वह किसी के फुसलाने में नहीं आता, लेकिन उसका संपूर्ण जीवन प्रकृति से स्थायी सहयोग है।‌ वृक्षों में फल लगते हैं, उन्हें जनता खाती है, खेती में अनाज होता है, वह संसार के काम आता है; गाय के थन में दूध होता है, वह खुद पीने नहीं जाती, दूसरे ही पीते हैं, मेघों से वर्षा होती है, उससे पृथ्वी तृप्त होती है। ऐसी संगति में कुत्सित स्वार्थ के लिए कहाँ स्थान? होरी किसान था और किसी के जलते हुए घर में हाथ सेंकना उसने सीखा ही न था। भोला की संकट-कथा सुनते ही उसकी मनोवृत्ति बदल गई। पगहिया को भोला के हाथ में लौटाता हुआ बोला - रुपए तो दादा मेरे पास नहीं हैं। हाँ, थोड़ा-सा भूसा बचा है, वह तुम्हें दूँगा। चल कर उठवा लो। भूसे के लिए तुम गाय बेचोगे, और मैं लूँगा! मेरे हाथ न कट जाएँगे? भोला ने आर्द्र कंठ से कहा - तुम्हारे बैल भूखों न मरेंगे। तुम्हारे पास भी ऐसा कौन-सा बहुत-सा भूसा रखा है। 'नहीं दादा, अबकी भूसा अच्छा हो गया था।' 'मैंने तुमसे नाहक भूसे की चर्चा की।' 'तुम न कहते और पीछे से मुझे मालूम होता, तो मुझे बड़ा रंज होता कि तुमने मुझे इतना गैर समझ लिया। अवसर पड़ने पर भाई की मदद भाई न करे, तो काम कैसे चले!' 'मुदा यह गाय तो लेते जाओ।' 'अभी नहीं दादा, फिर ले लूँगा।' 'तो भूसे के दाम दूध में कटवा लेना।' होरी ने दु:खित स्वर में कहा - दाम-कौड़ी की इसमें कौन बात है दादा, मैं एक-दो जून तुम्हारे घर खा लूँ तो तुम मुझसे दाम माँगोगे? 'लेकिन तुम्हारे बैल भूखों मरेंगे कि नही? 'भगवान कोई-न-कोई सबील निकालेंगे ही। आसाढ़ सिर पर है। कड़वी बो लूँगा।' 'मगर यह गाय तुम्हारी हो गई। जिस दिन इच्छा हो, आ कर ले जाना।' 'किसी भाई का लिलाम पर चढ़ा हुआ बैल लेने में जो पाप है, वह इस समय तुम्हारी गाय लेने में है।' होरी में बाल की खाल निकालने की शक्ति होती, तो वह खुशी से गाय ले कर घर की राह लेता। भोला जब नकद रुपए नहीं माँगता, तो स्पष्ट था कि वह भूसे के लिए गाय नहीं बेच रहा है, बल्कि इसका कुछ और आशय है; लेकिन जैसे पत्तों के खड़कने पर घोड़ा अकारण ही ठिठक जाता है और मारने पर भी आगे कदम नहीं उठाता, वही दशा होरी की थी। संकट की चीज लेना पाप है, यह बात जन्म-जन्मांतरों से उसकी आत्मा का अंश बन गई थी। भोला ने गदगद कंठ से कहा - तो किसी को भेज दूँ भूसे के लिए? होरी ने जवाब दिया - अभी मैं रायसाहब की ड्योढ़ी पर जा रहा हूँ। वहाँ से घड़ी-भर में लौटूँगा, तभी किसी को भेजना। भोला की आँखों में आँसू भर आए। बोला - तुमने आज मुझे उबार लिया होरी भाई! मुझे अब मालूम हुआ कि मैं संसार में अकेला नहीं हूँ। मेरा भी कोई हितू है। एक क्षण के बाद उसने फिर कहा - उस बात को भूल न जाना। होरी आगे बढ़ा, तो उसका चित्त प्रसन्न था। मन में एक विचित्र स्फूर्ति हो रही थी। क्या हुआ, दस-पाँच मन भूसा चला जायगा, बेचारे को संकट में पड़ कर अपनी गाय तो न बेचनी पड़ेगी। जब मेरे पास चारा हो जायगा तब गाय खोल लाऊँगा। भगवान करें, मुझे कोई मेहरिया मिल जाए। फिर तो कोई बात ही नहीं। उसने पीछे फिर कर देखा। कबरी गाय पूँछ से मक्खियाँ उड़ाती, सिर हिलाती, मस्तानी, मंद-गति से झूमती चली जाती थी, जैसे बांदियों के बीच में कोई रानी हो। कैसा शुभ होगा वह दिन, जब यह कामधेनु उसके द्वार पर बँधेगी! सेमरी और बेलारी दोनों अवध-प्रांत के गाँव हैं। जिले का नाम बताने की कोई जरूरत नहीं। होरी बेलारी में रहता है, रायसाहब अमरपाल सिंह सेमरी में। दोनों गाँवों में केवल पाँच मील का अंतर है। पिछले सत्याग्रह-संग्राम में रायसाहब ने बड़ा यश कमाया था। कौंसिल की मेंबरी छोड़ कर जेल चले गए थे। तब से उनके इलाके के असामियों को उनसे बड़ी श्रद्धा हो गई थी। यह नहीं कि उनके इलाके में असामियों के साथ कोई खास रियायत की जाती हो, या डाँड़ और बेगार की कड़ाई कुछ कम हो, मगर यह सारी बदनामी मुख्तारों के सिर जाती थी। रायसाहब की कीर्ति पर कोई कलंक न लग सकता था। वह बेचारे भी तो उसी व्यवस्था के गुलाम थे। जाब्ते का काम तो जैसे होता चला आया है, वैसा ही होगा। रायसाहब की सज्जनता उस पर कोई असर न डाल सकती थी, इसलिए आमदनी और अधिकार में जौ-भर की भी कमी न होने पर भी उनका यश मानो बढ़ गया था। असामियों से वह हँस कर बोल लेते थे। यही क्या कम है? सिंह का काम तो शिकार करना है; अगर वह गरजने और गुर्राने के बदले मीठी बोली बोल सकता, तो उसे घर बैठे मनमाना शिकार मिल जाता। शिकार की खोज में जंगल में न भटकना पड़ता। रायसाहब राष्ट्रवादी होने पर भी हुक्काम से मेल-जोल बनाए रखते थे। उनकी नजरें और डालियाँ और कर्मचारियों की दस्तूरियाँ जैसी की तैसी चली आती थीं। साहित्य और संगीत के प्रेमी थे, ड्रामा के शौकीन, अच्छे वक्ता थे, अच्छे लेखक, अच्छे निशानेबाज। उनकी पत्नी को मरे आज दस साल हो चुके थे; मगर दूसरी शादी न की थी। हँस बोल कर अपने विधुर जीवन को बहलाते रहते थे। होरी ड्योढ़ी पर पहुँचा तो देखा, जेठ के दशहरे के अवसर पर होने वाले धनुष-यज्ञ की बड़ी जोरों से तैयारियाँ हो रही हैं! कहीं रंग-मंच बन रहा था, कहीं मंडप, कहीं मेहमानों का आतिथ्य-गृह, कहीं दुकानदारों के लिए दूकानें। धूप तेज हो गई थी, पर रायसाहब खुद काम में लगे हुए थे। अपने पिता से संपत्ति के साथ-साथ उन्होंने राम की भक्ति भी पाई थी और धनुष-यज्ञ को नाटक का रूप दे कर उसे शिष्ट मनोरंजन का साधन बना दिया था। इस अवसर पर उनके यार-दोस्त, हाकिम-हुक्काम सभी निमंत्रित होते थे और दो-तीन दिन इलाके में बड़ी चहल-पहल रहती थी। रायसाहब का परिवार बहुत विशाल था। कोई डेढ़ सौ सरदार एक साथ भोजन करते थे। कई चचा थे। दरजनों चचेरे भाई, कई सगे भाई, बीसियों नाते के भाई। एक चचा साहब राधा के अनन्य उपासक थे और बराबर वृंदावन में रहते थे। भक्ति-रस के कितने ही कवित्त रच डाले थे और समय-समय पर उन्हें छपवा कर दोस्तों की भेंट कर देते थे। एक दूसरे चचा थे, जो राम के परम भक्त थे और फारसी-भाषा में रामायण का अनुवाद कर रहे थे। रियासत से सबक वजीफे बँधे हुए थे। किसी को कोई काम करने की जरूरत न थी। होरी मंडप में खड़ा सोच रहा था कि अपने आने की सूचना कैसे दे कि सहसा रायसाहब उधर ही आ निकले और उसे देखते ही बोले - अरे! तू आ गया होरी, मैं तो तुझे बुलवाने वाला था। देख, अबकी तुझे राजा जनक का माली बनना पडेग़ा। समझ गया न, जिस वक्त श्री जानकी जी मंदिर में पूजा करने जाती हैं, उसी वक्त तू एक गुलदस्ता लिए खड़ा रहेगा और जानकी जी को भेंट करेगा, गलती न करना और देख, असामियों से ताकीद करके यह कह देना कि सब-के-सब शगुन करने आएँ। मेरे साथ कोठी में आ, तुझसे कुछ बातें करनी हैं। वह आगे-आगे कोठी की ओर चले, होरी पीछे-पीछे चला। वहीं एक घने वृक्ष की छाया में एक कुर्सी पर बैठ गए और होरी को जमीन पर बैठने का इशारा करके बोले - समझ गया, मैंने क्या कहा - कारकुन को तो जो कुछ करना है, वह करेगा ही, लेकिन असामी जितने मन से असामी की बात सुनता है, कारकुन की नहीं सुनता। हमें इन्हीं पाँच-सात दिनों में बीस हजार का प्रबंध करना है। कैसे होगा, समझ में नहीं आता। तुम सोचते होगे, मुझ टके के आदमी से मालिक क्यों अपना दुखड़ा ले बैठे। किससे अपने मन की कहूँ? न जाने क्यों तुम्हारे ऊपर विश्वास होता है। इतना जानता हूँ कि तुम मन में मुझ पर हँसोगे नहीं। और हँसो भी, तो तुम्हारी हँसी मैं बर्दाशत कर सकता हूँ। नहीं सह सकता उनकी हँसी, जो अपने बराबर के हैं, क्योंकि उनकी हँसी में ईर्ष्या व्यंग और जलन है। और वे क्यों न हँसेंगे? मैं भी तो उनकी दुर्दशा और विपत्ति और पतन पर हँसता हूँ, दिल खोल कर, तालियाँ बजा कर। संपत्ति और सहृदयता में बैर है। हम भी दान देते हैं, धर्म करते हैं। लेकिन जानते हो, क्यों? केवल अपने बराबर वालों को नीचा दिखाने के लिए। हमारा दान और धर्म कोरा अहंकार है, विशुदध अहंकार। हममें से किसी पर डिगरी हो जाय, कुर्की आ जाय, बकाया मालगुजारी की इल्लत में हवालात हो जाय, किसी का जवान बेटा मर जाय, किसी की विधवा बहू निकल जाय, किसी के घर में आग लग जाय, कोई किसी वेश्या के हाथों उल्लू बन जाय, या अपने असामियों के हाथों पिट जाय, तो उसके और सभी भाई उस पर हँसेंगे, बगलें बजाएँगे, मानों सारे संसार की संपदा मिल गई है और मिलेंगे तो इतने प्रेम से, जैसे हमारे पसीने की जगह खून बहाने को तैयार हैं। अरे, और तो और, हमारे चचेरे, फुफुरे, ममेरे, मौसेरे भाई जो इसी रियासत की बदौलत मौज उड़ा रहे हैं, कविता कर रहे हैं, और जुए खेल रहे हैं, शराबें पी रहे हैं और ऐयाशी कर रहे हैं, वह भी मुझसे जलते हैं, आज मर जाऊँ तो घी के चिराग जलाएँ। मेरे दु:ख को दु:ख समझने वाला कोई नहीं। उनकी नजरों में मुझे दुखी होने का कोई अधिकार ही नहीं है। मैं अगर रोता हूँ, तो दु:ख की हँसी उड़ाता हूँ। मैं अगर बीमार होता हूँ, तो मुझे सुख होता है। मैं अगर अपना ब्याह करके घर में कलह नहीं बढ़ाता, तो यह मेरी नीच स्वार्थपरता है, अगर ब्याह कर लूँ, तो वह विलासांधता होगी। अगर शराब नहीं पीता तो मेरी कंजूसी है। शराब पीने लगूँ, तो वह प्रजा का रक्त होगा। अगर ऐयाशी नहीं करता, तो अरसिक हूँ; ऐयाशी करने लगूँ, तो फिर कहना ही क्या! इन लोगों ने मुझे भोग-विलास में फँसाने के लिए कम चालें नहीं चलीं और अब तक चलते जाते हैं। उनकी यही इच्छा है कि मैं अंधा हो जाऊँ और ये लोग मुझे लूट लें, और मेरा धर्म यह है कि सब कुछ देख कर भी कुछ न देखूँ। सब कुछ जान कर भी गधा बना रहूँ। रायसाहब ने गाड़ी को आगे बढ़ाने के लिए दो बीड़े पान खाए और होरी के मुँह की ओर ताकने लगे, जैसे उसके मनोभावों को पढ़ना चाहते हों। होरी ने साहस बटोर कहा - हम समझते थे कि ऐसी बातें हमीं लोगों में होती हैं, पर जान पड़ता है, बड़े आदमियों में भी उनकी कमी नहीं है। रायसाहब ने मुँह पान से भर कर कहा - तुम हमें बड़ा आदमी समझते हो? हमारे नाम बड़े हैं, पर दर्शन थोड़े। गरीबों में अगर ईर्ष्या या बैर है, तो स्वार्थ के लिए या पेट के लिए। ऐसी ईर्ष्या और बैर को मैं क्षम्य समझता हूँ। हमारे मुँह की रोटी कोई छीन ले, तो उसके गले में उँगली डाल कर निकालना हमारा धर्म हो जाता है। अगर हम छोड़ दें, तो देवता हैं। बड़े आदमियों की ईर्ष्या और बैर केवल आनंद के लिए है। हम इतने बड़े आदमी हो गए हैं कि हमें नीचता और कुटिलता में ही नि:स्वार्थ और परम आनंद मिलता है। हम देवतापन के उस दर्जे पर पहुँच गए हैं, जब हमें दूसरों के रोने पर हँसी आती है। इसे तुम छोटी साधना मत समझो। जब इतना बड़ा कुटुंब है, तो कोई-न-कोई तो हमेशा बीमार रहेगा ही। और बड़े आदमियों के रोग भी बड़े होते हैं। वह बड़ा आदमी ही क्या, जिसे कोई छोटा रोग हो। मामूली ज्वर भी आ जाय, तो हमें सरसाम की दवा दी जाती है; मामूली गुंसी भी निकल आए, तो वह जहरबाद बन जाती है। अब छोटे सर्जन और मझोले सर्जन और बड़े सर्जन तार से बुलाए जा रहे हैं, मसीहुलमुल्क को लाने के लिए दिल्ली आदमी भेजा जा रहा है, भिषगाचार्य को लाने के लिए कलकत्ता। उधर देवालय में दुर्गापाठ हो रहा है और ज्योतिषाचार्य कुंडली का विचार कर रहे हैं और तंत्र के आचार्य अपने अनुष्ठान में लगे हुए हैं। राजा साहब को यमराज के मुँह से निकालने के लिए दौड़ लगी हुई है। वैद्य और डॉक्टर इस ताक में रहते हैं कि कब इनके सिर में दर्द हो और कब उनके घर में सोने की वर्षा हो। और ए रुपए तुमसे और तुम्हारे भाइयों से वसूल किए जाते हैं, भाले की नोंक पर। मुझे तो यही आश्चर्य होता है कि क्यों तुम्हारी आहों का दावानल हमें भस्म नहीं कर डालता; मगर नहीं आश्चर्य करने की कोई बात नहीं। भस्म होने में तो बहुत देर नहीं लगती, वेदना भी थोड़ी ही देर की होती है। हम जौ-जौ और अंगुल-अंगुल और पोर-पोर भस्म हो रहे हैं। उस हाहाकार से बचने के लिए हम पुलिस की, हुक्काम की, अदालत की, वकीलों की शरण लेते हैं और रूपवती स्त्री की भाँति सभी के हाथों का खिलौना बनते हैं। दुनिया समझती है, हम बड़े सुखी हैं। हमारे पास इलाके, महल, सवारियाँ, नौकर-चाकर, कर्ज, वेश्याएँ, क्या नहीं हैं, लेकिन जिसकी आत्मा में बल नहीं, अभिमान नहीं, वह और चाहे कुछ हो, आदमी नहीं है। जिसे दुश्मन के भय के मारे रात को नींद न आती हो, जिसके दु:ख पर सब हँसें और रोने वाला कोई न हो, जिसकी चोटी दूसरों के पैरों की नीचे दबी हो, जो भोग-विलास के नशे में अपने को बिलकुल भूल गया हो, जो हुक्काम के तलवे चाटता हो और अपने अधीनों का खून चूसता हो, मैं उसे सुखी नहीं कहता। वह तो संसार का सबसे अभागा प्राणी है। साहब शिकार खेलने आएँ या दौरे पर, मेरा कर्तव्य है कि उनकी दुम के पीछे लगा रहूँ। उनकी भौंहों पर शिकन पड़ी और हमारे प्राण सूखे। उन्हें प्रसन्न करने के लिए हम क्या नहीं करते; मगर वह पचड़ा सुनाने लगूँ तो शायद तुम्हें विश्वास न आए। डालियों और रिश्वतों तक तो खैर गनीमत है, हम सिजदे करने को भी तैयार रहते हैं। मुफ्तखोरी ने हमें अपंग बना दिया है, हमें अपने पुरुषार्थ पर लेश मात्र भी विश्वास नहीं, केवल अफसरों के सामने दुम हिला-हिला कर किसी तरह उनके कृपापात्र बने रहना और उनकी सहायता से अपने प्रजा पर आतंक जमाना ही हमारा उद्यम है। पिछलगुओं की खुशामदों ने हमें इतना अभिमानी और तुनकमिजाज बना दिया है कि हममें शील, विनय और सेवा का लोप हो गया है। मैं तो कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर सरकार हमारे इलाके छीन कर हमें अपने रोजी के लिए मेहनत करना सिखा दे, तो हमारे साथ महान उपकार करे, और यह तो निश्चय है कि अब सरकार भी हमारी रक्षा न करेगी। हमसे अब उसका कोई स्वार्थ नहीं निकलता। लक्षण कह रहे हैं कि बहुत जल्द हमारे वर्ग की हस्ती मिट जाने वाली है। मैं उस दिन का स्वागत करने को तैयार बैठा हूँ। ईश्वर वह दिन जल्द लाए। वह हमारे उद्धार का दिन होगा। हम परिस्थितियों के शिकार बने हुए हैं। यह परिस्थिति ही हमारा सर्वनाश कर रही है और जब तक संपत्ति की यह बेड़ी हमारे पैरों से न निकलेगी, जब तक यह अभिशाप हमारे सिर पर मँडराता रहेगा, हम मानवता का वह पद न पा सकेंगे, जिस पर पहुँचना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है। रायसाहब ने फिर गिलौरी-दान निकाला और कई गिलौरियाँ निकाल कर मुँह में भर लीं। कुछ और कहने वाले थे कि एक चपरासी ने आ कर कहा - सरकार, बेगारों ने काम करने से इनकार कर दिया है। कहते हैं, जब तक हमें खाने को न मिलेगा, हम काम न करेंगे। हमने धमकाया, तो सब काम छोड़ कर अलग हो गए। रायसाहब के माथे पर बल पड़ गए। आँखें निकाल कर बोले - चलो, मैं इन दुष्टों को ठीक करता हूँ। जब कभी खाने को नहीं दिया, तो आज यह नई बात क्यों? एक आने रोज के हिसाब से मजूरी मिलेगी, जो हमेशा मिलती रही है; और इस मजूरी पर काम करना होगा, सीधे करें या टेढ़े। फिर होरी की ओर देख कर बोले - तुम अब जाओ होरी, अपने तैयारी करो। जो बात मैंने कही है, उसका खयाल रखना। तुम्हारे गाँव से मुझे कम-से-कम पाँच सौ की आशा है। रायसाहब झल्लाते हुए चले गए। होरी ने मन में सोचा, अभी यह कैसी-कैसी नीति और धरम की बातें कर रहे थे और एकाएक इतने गरम हो गए! सूर्य सिर पर आ गया था। उसके तेज से अभिभूत हो कर वृक्ष ने अपना पसार समेट लिया था। आकाश पर मटियाली गर्द छाई हुई थी और सामने की पृथ्वी काँपती हुई जान पड़ती थी। होरी ने अपना डंडा उठाया और घर चला। शगुन के रुपए कहाँ से आएँगे, यही चिंता उसके सिर पर सवार थी। होरी अपने गाँव के समीप पहुँचा, तो देखा, अभी तक गोबर खेत में ऊख गोड़ रहा है और दोनों लड़कियाँ भी उसके साथ काम कर रही हैं। लू चल रहीं थी, बगुले उठ रहे थे, भूतल धधक रहा था। जैसे प्रकृति ने वायु में आग घोल दी हो। यह सब अभी तक खेत में क्यों हैं? क्या काम के पीछे सब जान देने पर तुले हुए हैं? वह खेत की ओर चला और दूर ही से चिल्ला कर बोला - आता क्यों नहीं गोबर, क्या काम ही करता रहेगा? दोपहर ढल गई, कुछ सूझता है कि नहीं? उसे देखते ही तीनों ने कुदालें उठा लीं और उसके साथ हो लिए। गोबर साँवला, लंबा, इकहरा युवक था, जिसे इस काम में रूचि न मालूम होती थी। प्रसन्नता की जगह मुख पर असंतोष और विद्रोह था। वह इसलिए काम में लगा हुआ था कि वह दिखाना चाहता था, उसे खाने-पीने की कोई फिक्र नहीं है। बड़ी लड़की सोना लज्जाशील कुमारी थी, साँवली, सुडौल, प्रसन्न और चपल। गाढ़े की लाल साड़ी, जिसे वह घुटनों से मोड़ कर कमर में बाँधे हुए थी, उसके हलके शरीर पर कुछ लदी हुई-सी थी, और उसे प्रौढ़ता की गरिमा दे रही थी। छोटी रूपा पाँच-छ: साल की छोकरी थी, मैली, सिर पर बालों का एक घोंसला-सा बना हुआ, एक लंगोटी कमर में बाँधे, बहुत ही ढीठ और रोनी। रूपा ने होरी की टाँगो में लिपट कर कहा - काका! देखो, मैंने एक ढेला भी नहीं छोड़ा। बहन कहती है, जा पेड़ तले बैठ। ढेले न तोड़े जाएँगे काका, तो मिट्टी कैसे बराबर होगी? होरी ने उसे गोद में उठा प्यार करते हुए कहा - तूने बहुत अच्छा किया बेटी, चल घर चलें। कुछ देर अपने विद्रोह को दबाए रहने के बाद गोबर बोला - यह तुम रोज-रोज मालिकों की खुशामद करने क्यों जाते हो? बाकी न चुके तो प्यादा आ कर गालियाँ सुनाता है, बेगार देनी ही पड़ती है, नजर-नजराना सब तो हमसे भराया जाता है। फिर किसी की क्यों सलामी करो! इस समय यही भाव होरी के मन में भी आ रहे थे, लेकिन लड़के के इस विद्रोह-भाव को दबाना जरूरी था। बोला - सलामी करने न जायँ, तो रहें कहाँ? भगवान ने जब गुलाम बना दिया है, तो अपना क्या बस है? यह इसी सलामी की बरकत है, कि द्वार पर मँड़ैया डाल ली और किसी ने कुछ नहीं कहा । घूरे ने द्वार पर खूँटा गाड़ा था, जिस पर कारिंदों ने दो रुपए डाँड़ ले लिए थे। तलैया से कितनी मिट्टी हमने खोदी, कारिंदा ने कुछ नहीं कहा। दूसरा खोदे तो नजर देनी पड़े। अपने मतलब के लिए सलामी करने जाता हूँ, पाँव में सनीचर नहीं है और न सलामी करने में कोई बड़ा सुख मिलता है। घंटों खड़े रहो, तब जा कर मालिक को खबर होती है। कभी बाहर निकलते हैं, कभी कहला देते हैं कि फुरसत नहीं हैं। गोबर ने कटाक्ष किया - बड़े आदमियों की हाँ-में-हाँ मिलाने में कुछ-न-कुछ आनंद तो मिलता ही है, नहीं लोग मेंबरी के लिए क्यों खड़े हों? जब सिर पर पड़ेगी तब मालूम होगा बेटा, अभी जो चाहे कह लो। पहले मैं भी यही सब बातें सोचा करता था; पर अब मालूम हुआ कि हमारी गर्दन दूसरों के पैरों के नीचे दबी हुई है, अकड़ कर निबाह नहीं हो सकता।' पिता पर अपना क्रोध उतार कर गोबर कुछ शांत हो गया और चुपचाप चलने लगा। सोना ने देखा, रूपा बाप की गोद में चढ़ी बैठी है तो ईर्ष्या हुई। उसे डाँट कर बोली - अब गोद से उतर कर पाँव-पाँव क्यों नहीं चलती, क्या पाँव टूट गए हैं? रूपा ने बाप की गर्दन में हाथ डाल कर ढिठाई से कहा - न उतरेंगे जाओ। काका, बहन हमको रोज चिढ़ाती है कि तू रूपा है, मैं सोना हूँ। मेरा नाम कुछ और रख दो। होरी ने सोना को बनावटी रोष से देख कर कहा - तू इसे क्यों चिढ़ाती है सोनिया, सोना तो देखने को है। निबाह तो रूपा से होता है। रूपा न हो, तो रुपए कहाँ से बनें, बता? सोना ने अपने पक्ष का समर्थन किया - सोना न हो तो मोहर कैसे बने, नथुनिया कहाँ से आएँ, कंठा कैसे बने? गोबर भी इस विनोदमय विवाद में शरीक हो गया। रूपा से बोला - तू कह दे कि सोना तो सूखी पत्ती की तरह पीला होता है, रूपा तो उजला होता है, जैसे सूरज। सोना बोली - शादी-ब्याह में पीली साड़ी पहनी जाती है, उजली साड़ी कोई नहीं पहनता। रूपा इस दलील से परास्त हो गई। गोबर और होरी की कोई दलील इसके सामने न ठहर सकी। उसने क्षुब्ध आँखों से होरी को देखा। होरी को एक नई युक्ति सूझ गई। बोला - सोना बड़े आदमियों के लिए है। हम गरीबों के लिए तो रूपा ही है। जैसे जौ को राजा कहते हैं, गेहूँ को चमार; इसलिए न कि गेहूँ बड़े आदमी खाते हैं, जौ हम लोग खाते हैं। सोना के पास इस सबल युक्ति का कोई जवाब न था। परास्त हो कर बोली - तुम सब जने एक ओर हो गए, नहीं रुपिया को रुला कर छोड़ती। रूपा ने उँगली मटका कर कहा - ए राम, सोना चमार-ए राम, सोना चमार। इस विजय का उसे इतना आनंद हुआ कि बाप की गोद में रह न सकी। जमीन पर कूद पड़ी और उछल-उछल कर यही रट लगाने लगी - रूपा राजा, सोना चमार - रूपा राजा, सोना चमार! ए लोग घर पहुँचे तो धनिया द्वार पर खड़ी इनकी बाट जोह रही थी। रुष्ट हो कर बोली - आज इतनी देर क्यों की गोबर? काम के पीछे कोई परान थोड़े ही दे देता है। फिर पति से गर्म हो कर कहा - तुम भी वहाँ से कमाई करके लौटे तो खेत में पहुँच गए। खेत कहीं भागा जाता था! द्वार पर कुआँ था। होरी और गोबर ने एक-एक कलसा पानी सिर पर ऊँड़ेला, रूपा को नहलाया और भोजन करने गए। जौ की रोटियाँ थीं, पर गेहूँ-जैसी सफेद और चिकनी। अरहर की दाल थी, जिसमें कच्चे आम पड़े हुए थे। रूपा बाप की थाली में खाने बैठी। सोना ने उसे ईर्ष्या-भरी आँखों से देखा, मानो कह रही थी, वाह रे दुलार! धनिया ने पूछा - मालिक से क्या बातचीत हुई? होरी ने लोटा-भर पानी चढ़ाते हुए कहा - यही तहसील-वसूल की बात थी और क्या। हम लोग समझते हैं, बड़े आदमी बहुत सुखी होंगे, लेकिन सच पूछो तो वह हमसे भी ज्यादा दु:खी हैं। हमें पेट ही की चिंता है, उन्हें हजारों चिंताएँ घेरे रहती हैं। रायसाहब ने और क्या-क्या कहा था, वह कुछ होरी को याद न था। उस सारे कथन का खुलासा-मात्र उसके स्मरण में चिपका हुआ रह गया था। गोबर ने व्यंग्य किया - तो फिर अपना इलाका हमें क्यों नहीं दे देते। हम अपने खेत, बैल, हल, कुदाल सब उन्हें देने को तैयार हैं। करेंगे बदला? यह सब धूर्तता है, निरी मोटमरदी। जिसे दु:ख होता है, वह दरजनों मोटरें नहीं रखता, महलों में नहीं रहता, हलवा-पूरी नहीं खाता और न नाच-रंग में लिप्त रहता है। मजे से राज का सुख भोग रहे हैं, उस पर दु:खी हैं! होरी ने झुँझला कर कहा - अब तुमसे बहस कौन करे भाई! जैजात किसी से छोड़ी जाती है कि वही छोड़ देंगे? हमीं को खेती से क्या मिलता है? एक आने नफरी की मजूरी भी तो नहीं पड़ती। जो दस रुपए महीने का भी नौकर है, वह भी हमसे अच्छा खाता-पहनता है, लेकिन खेतों को छोड़ा तो नहीं जाता। खेती छोड़ दें, तो और करें क्या? नौकरी कहीं मिलती है? फिर मरजाद भी तो पालना ही पड़ता है। खेती में जो मरजाद है, वह नौकरी में तो नहीं है। इसी तरह जमींदारों का हाल भी समझ लो। उनकी जान को भी तो सैकड़ों रोग लगे हुए हैं, हाकिमों को रसद पहुँचाओ, उनकी सलामी करो, अमलों को खुस करो। तारीख पर मालगुजारी न चुका दें, तो हवालात हो जाय, कुड़की आ जाए। हमें तो कोई हवालात नहीं ले जाता। दो-चार गालियाँ-घुड़कियाँ ही तो मिल कर रह जाती हैं। गोबर ने प्रतिवाद किया - यह सब कहने की बातें हैं। हम लोग दाने-दाने को मुहताज हैं, देह पर साबित कपड़े नहीं हैं, चोटी का पसीना एड़ी तक आता है, तब भी गुजर नहीं होता। उन्हें क्या, मजे से गद्दी-मसनद लगाए बैठे हैं, सैकड़ों नौकर-चाकर हैं, हजारों आदमियों पर हुकूमत है। रुपए न जमा होते हों; पर सुख तो सभी तरह का भोगते हैं। धन ले कर आदमी और क्या करता है? 'तुम्हारी समझ में हम और वह बराबर हैं?' 'भगवान ने तो सबको बराबर ही बनाया है।' 'यह बात नहीं है बेटा, छोटे-बड़े भगवान के घर से बन कर आते हैं। संपत्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। उन्होंने पूर्वजन्म में जैसे कर्म किए हैं, उनका आनंद भोग रहे हैं। हमने कुछ नहीं संचा, तो भोगें क्या?' 'यह सब मन को समझाने की बातें हैं। भगवान सबको बराबर बनाते हैं। यहाँ जिसके हाथ में लाठी है, वह गरीबों को कुचल कर बड़ा आदमी बन जाता है।' 'यह तुम्हारा भरम है। मालिक आज भी चार घंटे रोज भगवान का भजन करते हैं।' 'किसके बल पर यह भजन-भाव और दान-धरम होता है; 'अपने बल पर।' 'नहीं, किसानों के बल पर और मजदूरों के बल पर। यह पाप का धन पचे कैसे? इसीलिए दान-धरम करना पड़ता है, भगवान का भजन भी इसीलिए होता है। भूखे-नंगे रह कर भगवान का भजन करें, तो हम भी देखें। हमें कोई दोनों जून खाने को दे, तो हम आठों पहर भगवान का जाप ही करते रहें। एक दिन खेत में ऊख गोड़ना पड़े तो सारी भक्ति भूल जाए।' होरी ने हार कर कहा - अब तुम्हारे मुँह कौन लगे भाई, तुम तो भगवान की लीला में भी टाँग अड़ाते हो। तीसरे पहर गोबर कुदाल ले कर चला, तो होरी ने कहा - जरा ठहर जाओ बेटा, हम भी चलते हैं। तब तक थोड़ा-सा भूसा निकाल कर रख दो। मैंने भोला को देने को कहा है। बेचारा आजकल बहुत तंग है। गोबर ने अवज्ञा-भरी आँखों से देख कर कहा - हमारे पास बेचने को भूसा नहीं है। 'बेचता नहीं हूँ भाई, यों ही दे रहा हूँ। वह संकट में है, उसकी मदद तो करनी ही पड़ेगी।' 'हमें तो उन्होंने कभी एक गाय नहीं दे दी।' 'दे तो रहा था, पर हमने ली ही नहीं।' 'धनिया मटक कर बोली - गाय नहीं वह दे रहा था। इन्हें गाय दे देगा! आँख में अंजन लगाने को कभी चिल्लू-भर दूध तो भेजा नहीं, गाय दे देगा! होरी ने कसम खाई - नहीं, जवानी कसम, अपने पछाई गाय दे रहे थे। हाथ तंग है, भूसा-चारा नहीं रख सके। अब एक गाय बेच कर भूसा लेना चाहते हैं। मैंने सोचा, संकट में पड़े आदमी की गाय क्या लूँ। थोड़ा-सा भूसा दिए देता हूँ, कुछ रुपए हाथ आ जाएँगे तो गाय ले लूँगा। थोड़ा-थोड़ा करके चुका दूँगा। अस्सी रुपए की है, मगर ऐसी कि आदमी देखता रहे। गोबर ने आड़े हाथों लिया - तुम्हारा यही धरमात्मापन तो तुम्हारी दुरगत कर रहा है। साफ-साफ तो बात है। अस्सी रुपए की गाय है, हमसे बीस रुपए का भूसा ले लें और गाय हमें दे दें। साठ रुपए रह जाएँगे, वह हम धीरे-धीरे दे देंगे। होरी रहस्यमय ढंग से मुस्कराया - मैंने ऐसी चाल सोची है कि गाय सेंत-मेंत में हाथ आ जाए। कहीं भोला की सगाई ठीक करनी है, बस! दो-चार मन भूसा तो खाली अपना रंग जमाने को देता हूँ। गोबर ने तिरस्कार किया - तो तुम अब सबकी सगाई ठीक करते फिरोगे? धनिया ने तीखी आँखों से देखा - अब यही एक उद्यम तो रह गया है। नहीं देना है हमें भूसा किसी को। यहाँ भोला-भोली किसी का करज नहीं खाया है। होरी ने अपने सफाई दी - अगर मेरे जतन से किसी का घर बस जाय तो इसमें कौन-सी बुराई है? गोबर ने चिलम उठाई और आग लेने चला गया। उसे यह झमेला बिलकुल नहीं भाता था। धनिया ने सिर हिला कर कहा - जो उनका घर बसाएगा, वह अस्सी रुपए की गाय ले कर चुप न होगा। एक थैली गिनवाएगा। होरी ने पुचारा दिया - यह मैं जानता हूँ; लेकिन उनकी भलमनसी को भी तो देखो। मुझसे जब मिलता है, तेरा बखान ही करता है - ऐसी लक्ष्मी है, ऐसी सलीकेदार है। धनिया के मुख पर स्निग्धता झलक पड़ी। मन भाए मुड़िया हिलाए वाले भाव से बोली - मैं उनके बखान की भूखी नहीं हूँ, अपना बखान धरे रहें। होरी ने स्नेह-भरी मुस्कान के साथ कहा - मैंने तो कह दिया, भैया, वह नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देती, गालियों से बात करती है, लेकिन वह यही कहे जाय कि वह औरत नहीं, लक्ष्मी है। बात यह है कि उसकी घरवाली जबान की बड़ी तेज थी। बेचारा उसके डर के मारे भागा-भागा फिरता था। कहता था, जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह सबेरे देख लेता हूँ, उस दिन कुछ-न-कुछ जरूर हाथ लगता है। मैंने कहा - तुम्हारे हाथ लगता होगा, यहाँ तो रोज देखते हैं, कभी पैसे से भेंट नहीं होती। 'तुम्हारे भाग ही खोटे हैं, तो मैं क्या करूँ।' 'लगा अपने घरवाली की बुराई करने - भिखारी को भीख तक नहीं देती थी, झाड़ू ले कर मारने दौड़ती थी, लालचिन ऐसी थी कि नमक तक दूसरों के घर से माँग लाती थी।' 'मरने पर किसी की क्या बुराई करूँ। मुझे देख कर जल उठती थी।' 'भोला बड़ा गमखोर था कि उसके साथ निबाह कर दिया। दूसरा होता तो जहर खा मर जाता। मुझसे दस साल बड़े होंगे भोला, पर राम-राम पहले ही करते हैं।' 'तो क्या कहते थे कि जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह देख लेता हूँ तो क्या होता है?' 'उस दिन भगवान कहीं-न-कहीं से कुछ भेज देते हैं।; 'बहुएँ भी तो वैसी ही चटोरिन आई हैं। अबकी सबों ने दो रुपए के खरबूजे उधार खा डाले। उधार मिल जाय, फिर उन्हें चिंता नहीं होती कि देना पड़ेगा या नहीं।' 'अरे भोला रोते काहे को हैं?' गोबर आ कर बोला - भोला दादा आ पहुँचे। मन-दो-मन भूसा है, वह उन्हें दे दो, फिर उनकी सगाई ढूँढने निकलो! धनिया ने समझाया - आदमी द्वार पर बैठा है, उसके लिए खाट-वाट तो डाल नहीं दी, ऊपर से लगे भुनभुनाने। कुछ तो भलमनसी सीखो। कलसा ले जाओ, पानी भर कर रख दो, हाथ-मुँह धोएँ, कुछ रस-पानी पिला दो। मुसीबत में ही आदमी दूसरों के सामने हाथ फैलाता है। होरी बोला - रस-वस का काम नहीं है, कौन कोई पाहुने हैं। धनिया बिगड़ी - पाहुने और कैसे होते हैं। रोज-रोज तो तुम्हारे द्वार पर नहीं आते हैं? इतनी दूर से धूप-घाम में आए हैं, प्यास लगी ही होगी। रुपिया, देख डब्बे में तमाखू है कि नहीं, गोबर के मारे काहे को बची होगी। दौड़ कर एक पैसे की तमाखू सहुआइन की दुकान से ले ले। भोला की आज जितनी खातिर हुई, और कभी न हुई होगी। गोबर ने खाट डाल दी, सोना रस घोल लाई, रूपा तमाखू भर लाई। धनिया द्वार पर किवाड़ की आड़ में खड़ी अपने कानों से अपना बखान सुनने के लिए अधीर हो रही थी। भोला ने चिलम हाथ में ले कर कहा - अच्छी घरनी घर में आ जाय, तो समझ लो लक्ष्मी आ गई। वही जानती है, छोटे-बड़े का आदर-सत्कार कैसे करना चाहिए। धनिया के हृदय में उल्लास का कंपन हो रहा था। चिंता और निराशा और अभाव से आहत आत्मा इन शब्दों में एक कोमल, शीतल स्पर्श का अनुभव कर रही थी। होरी जब भोला का खाँचा उठा कर भूसा लाने अंदर चला, तो धनिया भी पीछे-पीछे चली। होरी ने कहा - जाने कहाँ से इतना बड़ा खाँचा मिल गया। किसी भड़भूँजे से माँग लिया होगा। मन-भर से कम में न भरेगा। दो खाँचे भी दिए, तो दो मन निकल जाएँगे। धनिया फूली हुई थी। मलामत की आँखों से देखती हुई बोली - या तो किसी को नेवता न दो, और दो तो भरपेट खिलाओ। तुम्हारे पास फूल-पत्र लेने थोड़े ही आए हैं कि चँगेरी ले कर चलते। देते ही हो, तो तीन खाँचे दे दो। भला आदमी लड़कों को क्यों नहीं लाया? अकेले कहाँ तक ढोएगा? जान निकल जायगी। 'तीन खाँचे तो मेरे दिए न दिए जाएँगे।' 'तब क्या एक खाँचा दे कर टालोगे? गोबर से कह दो, अपना खाँचा भर कर उनके साथ चला जाए।' 'गोबर ऊख गोड़ने जा रहा है।' 'एक दिन न गोड़ने से ऊख सूख न जायगी।' 'यह तो उनका काम था कि किसी को अपने साथ ले लेते। भगवान के दिए दो-दो बेटे हैं।' 'न होंगे घर पर। दूध ले कर बाजार गए होंगे।' 'यह तो अच्छी दिल्लगी है कि अपना माल भी दो और उसे घर तक पहुँचा भी दो। लाद दे, लदा दे, लादने वाला साथ कर दे।' 'अच्छा भाई, कोई मत जाए। मैं पहुँचा दूँगी। बड़ों की सेवा करने में लाज नहीं है।' 'और तीन खाँचे उन्हें दे दूँ, तो अपने बैल क्या खाएँगे?' 'यह सब तो नेवता देने के पहले ही सोच लेना था। न हो, तुम और गोबर दोनों जने चले जाओ।' 'मुरौवत मुरौवत की तरह की जाती है, अपना घर उठा कर नहीं दे दिया जाता!' 'अभी जमींदार का प्यादा आ जाय, तो अपने सिर पर भूसा लाद कर पहुँचाओगे तुम, तुम्हारा लड़का, लड़की सब। और वहाँ साइत मन-दो-मन लकड़ी भी गाड़नी पड़े।' 'जमींदार की बात और है।' 'हाँ, वह डंडे के जोर से काम लेता है न।' 'उसके खेत नहीं जोतते?' 'खेत जोतते हैं, तो लगान नहीं देते?' 'अच्छा भाई, जान न खा, हम दोनों चले जाएँगे। कहाँ-से-कहाँ मैंने इन्हें भूसा देने को कह दिया। या तो चलेगी नहीं, या चलेगी तो दौड़ने लगेगी।' तीनों खाँचे भूसे से भर दिए गए। गोबर कुढ़ रहा था। उसे अपने बाप के व्यवहारों में जरा भी विश्वास न था। वह समझता था, यह जहाँ जाते हैं, वहीं कुछ-न-कुछ घर से खो आते हैं। धनिया प्रसन्न थी। रहा होरी, वह धर्म और स्वार्थ के बीच में डूब-उतरा रहा था। होरी और गोबर मिल कर एक खाँचा बाहर लाए। भोला ने तुरंत अपने-अंगौछे का बींड़ बना कर सिर पर रखते हुए कहा - मैं इसे रख कर अभी भागा आता हूँ। एक खाँचा और लूँगा। होरी बोला - एक नहीं, अभी दो और भरे धरे हैं। और तुम्हें न आना पड़ेगा। मैं और गोबर एक-एक खाँचा ले कर तुम्हारे साथ ही चलते हैं। भोला स्तंभित हो गया। होरी उसे अपना भाई, बल्कि उससे भी निकट जान पड़ा। उसे अपने भीतर एक ऐसी तृप्ति का अनुभव हुआ, जिसने मानों उसके संपूर्ण जीवन को हरा कर दिया। तीनों भूसा ले कर चले, तो राह में बातें होने लगीं। भोला ने पूछा - दसहरा आ रहा है, मालिकों के द्वार पर तो बड़ी धूमधाम होगी? 'हाँ, तंबू-सामियाना गड़ गया है। अबकी लीला में मैं भी काम करूँगा रायसाहब ने कहा है, तुम्हें राजा जनक का माली बनना पड़ेगा।' 'मालिक तुमसे बहुत खुश हैं।' 'उनकी दया है।' एक क्षण के बाद भोला ने फिर पूछा - सगुन करने के लिए रुपए का कुछ जुगाड़ कर लिया है? माली बन जाने से तो गला न छूटेगा। होरी ने मुँह का पसीना पोंछ कर कहा - उसी की चिंता तो मारे डालती है दादा - अनाज तो सब-का-सब खलिहान में ही तुल गया। जमींदार ने अपना लिया, महाजन ने अपना लिया। मेरे लिए पाँच सेर अनाज बच रहा। यह भूसा तो मैंने रातों-रात ढो कर छिपा दिया था, नहीं तिनका भी न बचता। जमींदार तो एक ही है, मगर महाजन तीन-तीन हैं, सहुआइन अलग और मँगरू अलग और दातादीन पंडित अलग। किसी का ब्याज भी पूरा न चुका। जमींदार के भी आधे रुपए बाकी पड़ गए। सहुआइन से फिर रुपए उधार लिए तो काम चला। सब तरह किफायत करके देख लिया भैया, कुछ नहीं होता। हमारा जनम इसीलिए हुआ है कि अपना रक्त बहाएँ और बड़ों का घर भरें। मूल का दुगुना सूद भर चुका, पर मूल ज्यों-का-त्यों सिर पर सवार है। लोग कहते हैं, सादी-गमी में, तीरथ-बरत में हाथ बाँध कर खरच करो। मुदा रास्ता कोई नहीं दिखाता। रायसाहब ने बेटे के ब्याह में बीस हजार लुटा दिए। उनसे कोई कुछ नहीं कहता। मँगरू ने अपने बाप के करिया-करम में पाँच हजार लगाए। उनसे कोई कुछ नहीं पूछता। वैसे ही मरजाद तो सबकी है। भोला ने करुण भाव से कहा - बड़े आदमियों की बराबरी तुम कैसे कर सकते हो भाई? 'आदमी तो हम भी हैं।' 'कौन कहता है कि हम-तुम आदमी हैं। हममें आदमियत है कहीं? आदमी वह है, जिनके पास धन है, अख्तियार है, इलम है। हम लोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं। उस पर एक दूसरे को देख नहीं सकता। एका का नाम नहीं। एक किसान दूसरे के खेत पर न चढ़े तो कोई जागा कैसे करे, प्रेम तो संसार से उठ गया।' बूढ़ों के लिए अतीत के सुखों और वर्तमान के दु:खों और भविष्य के सर्वनाश से ज्यादा मनोरंजक और कोई प्रसंग नहीं होता। दोनों मित्र अपने-अपने दुखड़े रोते रहे। भोला ने अपने बेटों के करतूत सुनाए, होरी ने अपने भाइयों का रोना रोया और तब एक कुएँ पर बोझ रख कर पानी पीने के लिए बैठ गए। गोबर ने बनिए से लोटा और गगरा माँगा और पानी खींचने लगा। भोला ने सहृदयता से पूछा - अलगौझे के समय तो तुम्हें बड़ा रंज हुआ होगा। भाइयों को तो तुमने बेटों की तरह पाला था। होरी आर्द्र कंठ से बोला - कुछ न पूछो दादा, यही जी चाहता था कि कहीं जाके डूब मरूँ मेरे जीते-जी सब कुछ हो गया। जिनके पीछे अपने जवानी धूल में मिला दी, वही मेरे मुद्दई हो गए और झगड़े की जड़ क्या थी? यही कि मेरी घरवाली हार में काम करने क्यों नहीं जाती। पूछो, घर देखने वाला भी कोई चाहिए कि नहीं - लेना-देना, धरना-उठाना, सँभालना-सहेजना, यह कौन करे- फिर वह घर बैठी तो नहीं रहती थी, झाड़ू-बुहारू, रसोई, चौका-बरतन, लड़कों की देखभाल यह कोई थोड़ा काम है। सोभा की औरत घर सँभाल लेती कि हीरा की औरत में यह सलीका था - जब से अलगौझा हुआ है, दोनों घरों में एक जून रोटी पकती है, नहीं सबको दिन में चार बार भूख लगती थी। अब खाएँ चार दफे, तो देखूँ। इस मालिकपन में गोबर की माँ की जो दुरगत हुई है, वह मैं ही जानता हूँ। बेचारी देवरानियों के फटे-पुराने कपड़े पहन कर दिन काटती थी। अपने खुद भूखी सो रही होगी, लेकिन बहुओं के जलपान तक का ध्यान रखती थी। अपने देह गहने के नाम कच्चा धागा भी न था, देवरानियों के लिए दो-दो चार-चार गहने बनवा दिए। सोने के न सही, चाँदी के तो हैं। जलन यही थी कि यह मालिक क्यों है। बहुत अच्छा हुआ कि अलग हो गए। मेरे सिर से बला टली। भोला ने एक लोटा पानी चढ़ा कर कहा - यही हाल घर-घर है भैया! भाइयों की बात ही क्या, यहाँ तो लड़कों से भी नहीं पटती और पटती इसलिए नहीं कि मैं किसी की कुचाल देख कर मुँह नहीं बंद कर सकता। तुम जुआ खेलोगे, चरस पीओगे, गाँजे के दम लगाओगे, मगर आए किसके घर से? खरच करना चाहते हो तो कमाओ, मगर कमाई तो किसी से न होगी। खरच दिल खोल कर करेंगे। जेठा कामता सौदा ले कर बाजार जायगा तो आधे पैसे गायब। पूछो तो कोई जवाब नहीं। छोटा जंगी है, वह संगत के पीछे मतवाला रहता है। साँझ हुई और ढोल-मजीरा ले कर बैठ गए। संगत को मैं बुरा नहीं कहता। गाना-बजाना ऐब नहीं, लेकिन यह सब काम फुरसत के हैं। यह नहीं कि घर का तो कोई काम न करो, आठों पहर उसी धुन में पड़े रहो। जाती है मेरे सिर, सानी-पानी मैं करूँ, गाय-भैंस मैं दुहूँ, दूध ले कर बाजार मैं जाऊँ। यह गृहस्थी जी का जंजाल है, सोने की हँसिया, जिसे न उगलते बनता है, न निगलते। लड़की है झुनिया, वह भी नसीब की खोटी। तुम तो उसकी सगाई में आए थे। कितना अच्छा घर-बार था। उसका आदमी बंबई में दूध की दुकान करता था। उन दिनों वहाँ हिंदू-मुसलमानों में दंगा हुआ, तो किसी ने उसके पेट में छुरा भोंक दिया। घर ही चौपट हो गया। वहाँ अब उसका निबाह नहीं, जा कर लिवा लाया कि दूसरी सगाई कर दूँगा, मगर वह राजी ही नहीं होती। और दोनों भावजें हैं कि रात-दिन उसे जलाती रहती हैं। घर में महाभारत मचा रहता है। बिपत की मारी यहाँ आई, यहाँ भी चैन नहीं। इन्हीं दुखड़ों में रास्ता कट गया। भोला का पुरवा था तो छोटा, मगर बहुत गुलजार। अधिकतर अहीर ही बसते थे। और किसानों के देखते इनकी दशा बहुत बुरी न थी। भोला गाँव का मुखिया था। द्वार पर बड़ी-सी चरनी थी, जिस पर दस-बारह गाएँ-भैंसें खड़ी सानी खा रही थीं। ओसारे में एक बड़ा-सा तख्त पड़ा था, जो शायद दस आदमियों से भी न उठता। किसी खूँटी पर ढोलक लटक रही थी, किसी पर मजीरा। एक ताख पर कोई पुस्तक बस्ते में बँधी रखी हुई थी, जो शायद रामायण हो। दोनों बहुएँ सामने बैठी गोबर पाथ रही थीं और झुनिया चौखट पर खड़ी थी। उसकी आँखें लाल थीं और नाक के सिरे पर भी सुर्खी थी। मालूम होता था, अभी रो कर उठी है। उसके माँसल, स्वस्थ, सुगठित अंगों में मानो यौवन लहरें मार रहा था। मुँह बड़ा और गोल था, कपोल फूले हुए, आँखें छोटी और भीतर धँसी हुई, माथा पतला पर वक्ष का उभार और गात का वह गुदगुदापन आँखों को खींचता था। उस पर छपी हुई गुलाबी साड़ी उसे और भी शोभा प्रदान कर रही थी। भोला को देखते ही उसने लपक कर उनके सिर से खाँचा उतरवाया। भोला ने गोबर और होरी के खाँचे उतरवाए और झुनिया से बोले - पहले एक चिलम भर ला, फिर थोड़ा-सा रस बना ले। पानी न हो तो गगरा ला, मैं खींच दूँ। होरी महतो को पहचानती है न? फिर होरी से बोला - घरनी के बिना घर नहीं रहता भैया। पुरानी कहावत है - 'नाटन खेती बहुरियन घर'। नाटे बैल क्या खेती करेंगे और बहुएँ क्या घर सँभालेंगी। जब से इनकी माँ मरी है, जैसे घर की बरक्कत ही उठ गई। बहुएँ आटा पाथ लेती हैं; पर गृहस्थी चलाना क्या जानें। हाँ, मुँह चलाना खूब जानती हैं। लौंडे कहीं फड़ पर जमे होंगे। सब-के-सब आलसी हैं, कामचोर। जब तक जीता हूँ, इनके पीछे मरता हूँ। मर जाऊँगा, तो आप सिर पर हाथ धर कर रोएँगे। लड़की भी वैसी ही। छोटा-सा अढ़ौना भी करेगी, तो भुन-भुना कर। मैं तो सह लेता हूँ, खसम थोड़े ही सहेगा। झुनिया एक हाथ में भरी हुई चिलम, दूसरे में रस का लोटा लिए बड़ी फुर्ती से आ पहुँची। फिर रस्सी और कलसा ले कर पानी भरने चली। गोबर ने उसके हाथ से कलसा लेने के लिए हाथ बढ़ा कर झेंपते हुए कहा - तुम रहने दो, मैं भरे लाता हूँ। झुनिया ने कलसा न दिया। कुएँ के जगत पर जा कर मुस्कराती हुई बोली - तुम हमारे मेहमान हो। कहोगे, एक लोटा पानी भी किसी ने न दिया। 'मेहमान काहे से हो गया। तुम्हारा पड़ोसी ही तो हूँ।' 'पड़ोसी साल-भर में एक बार भी सूरत न दिखाए, तो मेहमान ही है।' 'रोज-रोज आने से मरजाद भी तो नहीं रहती। झुनिया हँस कर तिरछी नजरों से देखती हुई बोली - वही मरजाद तो दे रही हूँ। महीने में एक बार आओगे, ठंडा पानी दूँगी। पंद्रहवें दिन आओगे, चिलम पाओगे। सातवें दिन आओगे, खाली बैठने को माची दूँगी। रोज-रोज आओगे, कुछ न पाओगे। 'दरसन तो दोगी?' 'दरसन के लिए पूजा करनी पड़ेगी।' यह कहते-कहते जैसे उसे कोई भूली हुई बात याद आ गई। उसका मुँह उदास हो गया। वह विधवा है। उसके नारीत्व के द्वार पर पहले उसका पति रक्षक बना बैठा रहता था। वह निश्चिंत थी। अब उस द्वार पर कोई रक्षक न था, इसलिए वह उस द्वार को सदैव बंद रखती है। कभी-कभी घर के सूनेपन से उकता कर वह द्वार खोलती है; पर किसी को आते देख कर भयभीत हो कर दोनों पट भेड़ लेती है। गोबर ने कलसा भर कर निकाला। सबों ने रस पिया और एक चिलम तमाखू और पी कर लौटे। भोला ने कहा - कल तुम आ कर गाय ले जाना गोबर, इस बखत तो सानी खा रही है। गोबर की आँखें उसी गाय पर लगी हुई थीं और मन-ही-मन वह मुग्ध हुआ जाता था। गाय इतनी सुंदर और सुडौल है, इसकी उसने कल्पना भी न की थी। होरी ने लोभ को रोक कर कहा - मँगवा लूँगा, जल्दी क्या है? 'तुम्हें जल्दी न हो, हमें तो जल्दी है। उसे द्वार पर देख कर तुम्हें वह बात याद रहेगी।' 'उसकी मुझे बड़ी फिकर है दादा!' 'तो कल गोबर को भेज देना।' दोनों ने अपने-अपने खाँचे सिर पर रखे और आगे बढ़े। दोनों इतने प्रसन्न थे, मानो ब्याह करके लौटे हों। होरी को तो अपने चिरसंचित अभिलाषा के पूरे होने का हर्ष था, और बिना पैसे के। गोबर को इससे भी बहुमूल्य वस्तु मिल गई थी। उसके मन में अभिलाषा जाग उठी थी। अवसर पा कर उसने पीछे की ओर देखा। झुनिया द्वार पर खड़ी थी, मत्त आशा की भाँति अधीर चंचल। होरी को रात-भर नींद नहीं आई। नीम के पेड़-तले अपने बाँस की खाट पर पड़ा बार-बार तारों की ओर देखता था। गाय के लिए नाँद गाड़नी है। बैलों से अलग उसकी नाँद रहे तो अच्छा। अभी तो रात को बाहर ही रहेगी, लेकिन चौमासे में उसके लिए कोई दूसरी जगह ठीक करनी होगी। बाहर लोग नजर लगा देते हैं। कभी-कभी तो ऐसा टोना-टोटका कर देते हैं कि गाय का दूध ही सूख जाता है। थन में हाथ ही नहीं लगाने देती - लात मारती है। नहीं, बाहर बाँधना ठीक नहीं। और बाहर नाँद भी कौन गाड़ने देगा? कारिंदा साहब नजर के लिए मुँह फैलाएँगे। छोटी-छोटी बात के लिए रायसाहब के पास फरियाद ले जाना भी उचित नहीं। और कारिंदे के सामने मेरी सुनता कौन है? उनसे कुछ कहूँ, तो कारिंदा दुसमन हो जाए। जल में रह कर मगर से बैर करना बुड़बकपन है। भीतर ही बाँधूंगा। आँगन है तो छोटा-सा; लेकिन एक मड़ैया डाल देने से काम चल जायगा। अभी पहला ही ब्यान है। पाँच सेर से कम क्या दूध देगी। सेर-भर तो गोबर ही को चाहिए। रुपिया दूध देख कर कैसी ललचाती रहती है। अब पिए जितना चाहे। कभी-कभी दो-चार सेर मालिकों को दे आया करूँगा। कारिंदा साहब की पूजा भी करनी ही होगी। और भोला के रुपए भी दे देना चाहिए। सगाई के ढकोसले में उसे क्यों डालूँ। जो आदमी अपने ऊपर इतना विश्वास करे, उससे दगा करना नीचता है। अस्सी रुपए की गाय मेरे विश्वास पर दे दी, नहीं यहाँ तो कोई एक पैसे को नहीं पतियाता। सन में क्या कुछ न मिलेगा? अगर पच्चीस रुपए भी दे दूँ, तो भोला को ढाढ़स हो जाए। धनिया से नाहक बता दिया। चुपके से गाय ला कर बाँध देता तो चकरा जाती। लगती पूछने, किसकी गाय है? कहाँ से लाए हो? खूब दिक करके तब बताता, लेकिन जब पेट में बात पचे भी। कभी दो-चार पैसे ऊपर से आ जाते है, उनको भी तो नहीं छिपा सकता। और यह अच्छा भी है। उसे घर की चिंता रहती है; अगर उसे मालूम हो जाय कि इनके पास भी पैसे रहते हैं, तो फिर नखड़े बघारने लगे। गोबर जरा आलसी है, नहीं मैं गऊ की ऐसी सेवा करता कि जैसी चाहिए। आलसी-वालसी कुछ नहीं है। इस उमिर में कौन आलसी नहीं होता? मैं भी दादा के सामने मटरगस्ती ही किया करता था। बेचारे पहर रात से कुट्टी काटने लगते। कभी द्वार पर झाड़ू लगाते, कभी खेत में खाद फेंकते। मैं पड़ा सोता रहता। कभी जगा देते, तो मैं बिगड़ जाता और घर छोड़ कर भाग जाने की धमकी देता था। लड़के जब अपने माँ-बाप के सामने भी जिंदगी का थोड़ा-सा सुख न भोगेंगे, तो फिर जब अपने सिर पड़ गई तो क्या भोगेंगे? दादा के मरते ही क्या मैंने घर नहीं सँभाल लिया? सारा गाँव यही कहता था कि होरी घर बर्बाद कर देगा, लेकिन सिर पर बोझ पड़ते ही मैंने ऐसा चोला बदला कि लोग देखते रह गए। सोभा और हीरा अलग ही हो गए, नहीं आज इस घर की और ही बात होती। तीन हल एक साथ चलते। अब तीनों अलग-अलग चलते हैं। सब, समय का फेर है। धनिया का क्या दोष था? बेचारी जब से घर में आई, कभी तो आराम से न बैठी। डोली से उतरते ही सारा काम सिर पर उठा लिया। अम्माँ को पान की तरह फेरती रहती थी। जिसने घर के पीछे अपने को मिटा दिया, देवरानियों से काम करने को कहती थी, तो क्या बुरा करती थी? आखिर उसे भी तो कुछ आराम मिलना चाहिए। लेकिन भाग्य में आराम लिखा होता तब तो मिलता। तब देवरों के लिए मरती थी, अब अपने बच्चों के लिए मरती है। वह इतनी सीधी, गमखोर, निर्छल न होती, तो आज सोभा और हीरा जो मूँछों पर ताव देते फिरते हैं, कहीं भीख माँगते होते। आदमी कितना स्वार्थी हो जाता है। जिसके लिए मरो, वही जान का दुसमन हो जाता है। होरी ने फिर पूर्व की ओर देखा। साइत भिनसार हो रहा है। गोबर काहे को जागने लगा। नहीं, कहके तो यही सोया था कि मैं अँधरे ही चला जाऊँगा। जा कर नाँद तो गाड़ दूँ, लेकिन नहीं, जब तक गाय द्वार पर न आ जाय, नाँद गाड़ना ठीक नहीं। कहीं भोला बदल गए या और किसी कारण से गाय न दी, तो सारा गाँव तालियाँ पीटने लगेगा, चले थे गाय लेने! पट्ठे ने इतनी फुर्ती से नाँद गाड़ दी, मानो इसी की कसर थी। भोला है तो अपने घर का मालिक, लेकिन जब लड़के सयाने हो गए, तो बाप की कौन चलती है? कामता और जंगी अकड़ जायँ तो क्या भोला अपने मन से गाय मुझे दे देंगे? कभी नहीं। सहसा गोबर चौंक कर उठ बैठा और आँखें मलता हुआ बोला - अरे! यह तो भोर हो गया। तुमने नाँद गाड़ दी दादा? होरी गोबर के सुगठित शरीर और चौड़ी छाती की ओर गर्व से देख कर और मन में यह सोचते हुए कि कहीं इसे गोरस मिलता, तो कैसा पट्ठा हो जाता, बोला - नहीं, अभी नहीं गाड़ी। सोचा, कहीं न मिले, तो नाहक भद्द हो। गोबर ने त्योरी चढ़ा कर कहा - मिलेगी क्यों नहीं? 'उनके मन में कोई चोर पैठ जाय?' 'चोर पैठे या डाय, गाय तो उन्हें देनी ही पड़ेगी।' गोबर ने और कुछ न कहा - लाठी कंधों पर रखी और चल दिया। होरी उसे जाते देखता हुआ अपना कलेजा ठंडा करता रहा। अब लड़के की सगाई में देर न करनी चाहिए। सत्रहवाँ लग गया; मगर करे कैसे? कहीं पैसे के भी दरसन हों। जब से तीनों भाइयों में अलगौझा हो गया, घर की साख जाती रही। महतो लड़का देखने आते हैं, पर घर की दसा देख कर मुँह फीका करके चले जाते हैं। दो-एक राजी भी हुए, तो रुपए माँगते हैं। दो-तीन सौ लड़की का दाम चुकाए और इतना ही ऊपर से खरच करे, तब जा कर ब्याह हो। कहाँ से आवें इतने रुपए? रास खलिहान में तुल जाती है। खाने-भर को भी नहीं बचता। ब्याह कहाँ से हो? और अब तो सोना ब्याहने योग्य हो गई। लड़के का ब्याह न हुआ न सही। लड़की का ब्याह न हुआ, तो सारी बिरादरी में हँसी होगी। पहले तो उसी की सगाई करनी है, पीछे देखी जायगी । एक आदमी ने आ कर राम-राम किया और पूछा - तुम्हारी कोठी में कुछ बाँस होंगे महतो? होरी ने देखा, दमड़ी बँसोर सामने खड़ा है, नाटा, काला, खूब मोटा, चौड़ा मुँह, बड़ी-बड़ी मूँछें, लाल आँखें, कमर में बाँस काटने की कटार खोंसे हुए। साल में एक-दो बार आ कर चिकें, कुर्सियाँ, मोढे, टोकरियाँ आदि बनाने के लिए कुछ बाँस काट ले जाता था। होरी प्रसन्न हो गया। मुट्ठी गर्म होने की कुछ आशा बँधी। चौधरी को ले जा कर अपने तीनों कोठियाँ दिखाई, मोल-भाव किया और पच्चीस रुपए सैकड़े में पचास बाँसों का बयाना ले लिया। फिर दोनों लौटे। होरी ने उसे चिलम पिलाई, जलपान कराया और तब रहस्यमय भाव से बोला - मेरे बाँस कभी तीस रुपए से कम में नहीं जाते, लेकिन तुम घर के आदमी हो, तुमसे क्या मोल-भाव करता। तुम्हारा वह लड़का, जिसकी सगाई हुई थी, अभी परदेस से लौटा कि नहीं? चौधरी ने चिलम का दम लगा कर खाँसते हुए कहा - उस लौंडे के पीछे तो मर मिटा महतो! जवान बहू घर में बैठी थी और वह बिरादरी की एक दूसरी औरत के साथ परदेस में मौज करने चल दिया। बहू भी दूसरे के साथ निकल गई। बड़ी नाकिस जात है महतो, किसी की नहीं होती। कितना समझाया कि तू जो चाहे खा, जो चाहे पहन, मेरी नाक न कटवा, मुदा कौन सुनता है? औरत को भगवान सब कुछ दे, रूप न दे, नहीं तो वह काबू में नहीं रहती। कोठियाँ तो बँट गई होंगी? होरी ने आकाश की ओर देखा और मानो उसकी महानता में उड़ता हुआ बोला - सब कुछ बँट गया चौधरी ! जिनको लड़कों की तरह पाला-पोसा, वह अब बराबर के हिस्सेदार हैं, लेकिन भाई का हिस्सा खाने की अपने नीयत नहीं है। इधर तुमसे रुपए मिलेंगे, उधर दोनों भाइयों को बाँट दूँगा। चार दिन की जिंदगी में क्यों किसी से छल-कपट करूँ? नहीं कह दूँ कि बीस रुपए सैकड़े में बेचे हैं तो उन्हें क्या पता लगेगा। तुम उनसे कहने थोड़े ही जाओगे। तुम्हें तो मैंने बराबर अपना भाई समझा है। व्यवहार में हम 'भाई' के अर्थ का कितना ही दुरुपयोग करें, लेकिन उसकी भावना में जो पवित्रता है, वह हमारी कालिमा से कभी मलिन नहीं होती। होरी ने अप्रत्यक्ष रूप से यह प्रस्ताव करके चौधरी के मुँह की ओर देखा कि वह स्वीकार करता है या नहीं। उसके मुख पर कुछ ऐसा मिथ्या विनीत भाव प्रकट हुआ, जो भिक्षा माँगते समय मोटे भिक्षुकों पर आ जाता है। चौधरी ने होरी का आसन पा कर चाबुक जमाया - हमारा तुम्हारा पुराना भाई-चारा है, महतो, ऐसी बात है भला, लेकिन बात यह है कि ईमान आदमी बेचता है, तो किसी लालच से। बीस रुपए नहीं, मैं पंद्रह रुपए कहूँगा, लेकिन जो बीस रुपए के दाम लो। होरी ने खिसिया कर कहा - तुम तो चौधरी अंधेर करते हो, बीस रुपए में कहीं ऐसे बाँस जाते हैं? 'ऐसे क्या, इससे अच्छे बाँस जाते हैं दस रुपए पर, हाँ, दस कोस और पच्छिम चले जाओ। मोल बाँस का नहीं है, सहर के नगीच होने का है। आदमी सोचता है, जितनी देर वहाँ जाने में लगेगी, उतनी देर में तो दो-चार रुपए का काम हो जायगा।' सौदा पट गया। चौधरी ने मिर्जई उतार कर छान पर रख दी और बाँस काटने लगा। ऊख की सिंचाई हो रही थी। हीरा-बहू कलेवा ले कर कुएँ पर जा रही थी। चौधरी को बाँस काटते देख कर घूँघट के अंदर से बोली - कौन बाँस काटता है? यहाँ बाँस न कटेंगे। चौधरी ने हाथ रोक कर कहा - बाँस मोल लिए हैं, पंद्रह रुपए सैकड़े का बयाना हुआ है। सेंत में नहीं काट रहे हैं। हीरा-बहू अपने घर की मालकिन थी। उसी के विद्रोह से भाइयों में अलगौझा हुआ था। धनिया को परास्त करके शेर हो गई थी। हीरा कभी-कभी उसे पीटता था। अभी हाल में इतना मारा था कि वह कई दिन तक खाट से न उठ सकी, लेकिन अपना पदाधिकार वह किसी तरह न छोड़ती थी। हीरा क्रोध में उसे मारता था, लेकिन चलता था उसी के इशारों पर, उस घोड़े की भाँति, जो कभी-कभी स्वामी को लात मार कर भी उसी के आसन के नीचे चलता है। कलेवे की टोकरी सिर से उतार कर बोली - पंद्रह रुपए में हमारे बाँस न जाएँगे। चौधरी औरत जात से इस विषय में बातचीत करना नीति-विरुद्ध समझते थे। बोले - जा कर अपने आदमी को भेज दो। जो कुछ कहना हो, आ कर कहें। हीरा-बहू का नाम था पुन्नी। बच्चे दो ही हुए थे। लेकिन ढल गई थी। बनाव-सिंगार से समय के आघात का शमन करना चाहती थी, लेकिन गृहस्थी में भोजन ही का ठिकाना न था, सिंगार के लिए पैसे कहाँ से आते? इस अभाव और विवशता ने उसकी प्रकृति का जल सुखा कर कठोर और शुष्क बना दिया था, जिस पर एक बार गावड़ा भी उचट जाता था। समीप आ कर चौधरी का हाथ पकड़ने की चेष्टा करती हुई बोली - आदमी को क्यों भेज दूँ? जो कुछ कहना हो, मुझसे कहो न? मैंने कह दिया, मेरे बाँस न कटेंगे। चौधरी हाथ छुड़ाता था और पुन्नी बार-बार पकड़ लेती थी। एक मिनट तक यही हाथा-पाई होती रही। अंत में चौधरी ने उसे जोर से पीछे ढकेल दिया। पुन्नी धक्का खा कर गिर पड़ी, मगर फिर संभली और पाँव से तल्ली निकाल कर चौधरी के सिर, मुँह, पीठ पर अंधाधुंध जमाने लगी। बँसोर हो कर उसे ढकेल दे? उसका यह अपमान! मारती जाती थी और रोती भी जाती थी। चौधरी उसे धक्का दे कर नारी जाति पर बल का प्रयोग करके गच्चा खा चुका था। खड़े-खड़े मार खाने के सिवा इस संकट से बचने की उसके पास और कोई दवा न थी। पुन्नी का रोना सुन कर होरी भी दौड़ा हुआ आया। पुन्नी ने उसे देख कर और जोर से चिल्लाना शुरू किया। होरी ने समझा, चौधरी ने पुनिया को मारा है। खून ने जोश मारा और अलगौझे की ऊँची बाधा को तोड़ता हुआ, सब कुछ अपने अंदर समेटने के लिए बाहर निकल पड़ा। चौधरी को जोर से एक लात जमा कर बोला - अब अपना भला चाहते हो चौधरी, तो यहाँ से चले जाओ, नहीं तुम्हारी लहास उठेगी। तुमने अपने को समझा क्या है? तुम्हारी इतनी मजाल कि मेरी बहू पर हाथ उठाओ। चौधरी कसमें खा-खा कर अपने सफाई देने लगा। तल्लियों की चोट में उसकी अपराधी आत्मा मौन थी। यह लात उसे निरपराध मिली और उसके फुले हुए गाल आँसुओं से भीग गए। उसने तो बहू को छुआ भी नहीं। क्या वह इतना गँवार है कि महतो के घर की औरतों पर हाथ उठाएगा? होरी ने अविश्वास करके कहा - आँखों में धूल मत झोंको चौधरी, तुमने कुछ कहा नहीं, तो बहू झूठ-मूठ रोती है? रुपए की गरमी है, तो वह निकाल दी जायगी, अलग हैं तो क्या हुआ, है तो एक खून। कोई तिरछी आँख से देखे तो आँख निकाल लें। पुन्नी चंडी बनी हुई थी। गला गाड़ कर बोली - तूने मुझे धक्का दे कर गिरा नहीं दिया? खा जा अपने बेटे की कसम। हीरा को खबर मिली कि चौधरी और पुनिया में लड़ाई हो रही है। चौधरी ने पुनिया को धक्का दिया। पुनिया ने तल्लियों से पीटा। उसने पुर वहीं छोड़ा और औंगी लिए घटनास्थल की ओर चला। गाँव में अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध था। छोटा डील, गठा हुआ शरीर, आँखें कौड़ी की तरह निकल आई थीं और गर्दन की नसें तन गई थीं, मगर उसे चौधरी पर क्रोध न था, क्रोध था पुनिया पर। वह क्यों चौधरी से लड़ी? क्यों उसकी इज्जत मिट्टी में मिला दी। बँसोर से लड़ने-झगड़ने का उसे क्या प्रयोजन था? उसे जा कर हीरा से समाचार कह देना चाहिए था। हीरा जैसा उचित समझता, करता। वह उससे लड़ने क्यों गई? उसका बस होता, तो वह पुनिया को पर्दे में रखता। पुनिया किसी बड़े से मुँह खोल कर बातें करे, यह उसे असह्य था। वह खुद जितना उद्दंड था, पुनिया को उतना ही शांत रखना चाहता था। जब भैया ने पंद्रह रुपए में सौदा कर लिया, तो यह बीच में कूदने वाली कौन। आते ही उसने पुन्नी का हाथ पकड़ लिया और घसीटता हुआ अलग ले जाकर लगा लातें जमाने-हरामजादी, तू हमारी नाक कटाने पर लगी हुई है! तू छोटे-छोटे आदमियों से लड़ती फिरती है, किसकी पगड़ी नीची होती है बता! (एक लात और जमा कर) हम तो वहाँ कलेऊ की बाट देख रहे हैं, तू यहाँ लड़ाई ठाने बैठी है। इतनी बेसर्मी! आँख का पानी ऐसा गिर गया। खोद कर गाड़ दूँगा। पुन्नी हाय-हाय करती जाती थी और कोसती जाती थी। 'तेरी मिट्टी उठे, तुझे हैजा हो जाय, तुझे मरी आवें, देवी मैया तुझे लील जायँ, तुझे इन्फ्लूएँजा हो जाए। भगवान करे, तू कोढ़ी हो जाए। हाथ-पाँव कट-कट गिरें।' और गालियाँ तो हीरा खड़ा-खड़ा सुनता रहा, लेकिन यह पिछली गाली उसे लग गई। हैजा, मरी आदि में कोई विशेष कष्ट न था। इधर बीमार पड़े, उधर विदा हो गए, लेकिन कोढ़! यह घिनौनी मौत, और उससे भी घिनौना जीवन। वह तिलमिला उठा, दाँत पीसता हुआ पुनिया पर झपटा और झोटे पकड़ कर फिर उसका सिर जमीन पर रगड़ता हुआ बोला - हाथ-पाँव कट कर गिर जाएँगे तो मैं तुझे ले कर चाटूँगा। तू ही मेरे बाल-बच्चों को पालेगी? ऐं! तू ही इतनी बड़ी गिरस्ती चलाएगी? तू तो दूसरा भतार करके किनारे खड़ी हो जायगी। चौधरी को पुनिया की इस दुर्गति पर दया आ गई। हीरा को उदारतापूर्वक समझाने लगा - हीरा महतो, अब जाने दो, बहुत हुआ। क्या हुआ, बहू ने मुझे मारा। मैं तो छोटा नहीं हो गया। धन्य भाग कि भगवान ने यह दिन तो दिखाया। हीरा ने चौधरी को डाँटा - तुम चुप रहो चौधरी, नहीं मेरे क्रोध में पड़ जाओगे तो बुरा होगा। औरतजात इसी तरह बहकती है। आज को तुमसे लड़ गई, कल को दूसरों से लड़ जायगी। तुम भले मानुस हो, हँस कर टाल गए, दूसरा तो बरदास न करेगा। कहीं उसने भी हाथ छोड़ दिया, तो कितनी आबरू रह जायगी, बताओ। इस खयाल ने उसके क्रोध को फिर भड़काया। लपका था कि होरी ने दौड़ कर पकड़ लिया और उसे पीछे हटाते हुए बोला - अरे, हो तो गया। देख तो लिया दुनिया ने कि बड़े बहादुर हो। अब क्या उसे पीस कर पी जाओगे? हीरा अब भी बड़े भाई का अदब करता था। सीधे-सीधे न लड़ता था। चाहता तो एक झटके में अपना हाथ छुड़ा लेता, लेकिन इतनी बेअदबी न कर सका। चौधरी की ओर देख कर बोला - अब खड़े क्या ताकते हो? जा कर अपने बाँस काटो। मैंने सही कर दिया। पंद्रह रुपए सैकड़े में तय है। कहाँ तो पुन्नी रो रही थी। कहाँ झमक कर उठी और अपना सिर पीट कर बोली - लगा दे घर में आग, मुझे क्या करना है! भाग फूट गया कि तुझ जैसे कसाई के पाले पड़ी। लगा दे घर में आग। उसने कलेऊ की टोकरी वहीं छोड़ दी और घर की ओर चली। हीरा गरजा - वहाँ कहाँ जाती है, चल कुएँ पर, नहीं खून पी जाऊँगा। पुनिया के पाँव रूक गए। इस नाटक का दूसरा अंक न खेलना चाहती थी। चुपके से टोकरी उठा कर रोती हुई कुएँ की ओर चली। हीरा भी पीछे-पीछे चला। होरी ने कहा - अब फिर मार-धाड़ न करना। इससे औरत बेसरम हो जाती है। धनिया ने द्वार पर आ कर हाँक लगाई - तुम वहाँ खड़े-खड़े क्या तमासा देख रहे हो? कोई तुम्हारी सुनता भी है कि यों ही सिच्छा दे रहे हो। उस दिन इसी बहू ने तुम्हें घूँघट की आड़ में डाढ़ीजार कहा था, भूल गए। बहुरिया हो कर पराए मरदों से लड़ेगी, तो डाँटी न जायगी। होरी द्वार पर आ कर नटखटपन के साथ बोला - और जो मैं इसी तरह तुझे मारूँ? 'क्या कभी मारा नहीं है, जो मारने की साध बनी हुई है।' 'इतनी बेदरदी से मारता, तो तू घर छोड़ कर भाग जाती! पुनिया बड़ी गमखोर है।' 'ओहो! ऐसे ही तो बड़े दरदवाले हो। अभी तक मार का दाग बना हुआ है। हीरा मारता है तो दुलारता भी है। तुमने खाली मारना सीखा, दुलार करना सीखा ही नहीं। मैं ही ऐसी हूँ कि तुम्हारे साथ निबाह हुआ। 'अच्छा रहने दे, बहुत अपना बखान न कर! तू ही रूठ-रूठ नैहर भागती थी। जब महीनों खुसामद करता था, तब जा कर आती थी।' 'जब अपने गरज सताती थी, तब मनाने जाते थे लाला! मेरे दुलार से नहीं जाते थे।' 'इसी से तो मैं सबसे तेरा बखान करता हूँ।' वैवाहिक जीवन के प्रभात में लालसा अपने गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है और हृदय के सारे आकाश को अपने माधुर्य की सुनहरी किरणों से रंजित कर देती है। फिर मध्याह्न का प्रखर ताप आता है, क्षण-क्षण पर बगुले उठते हैं और पृथ्वी काँपने लगती है। लालसा का सुनहरा आवरण हट जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ खड़ी होती है। उसके बाद विश्राममय संध्या आती है, शीतल और शांत, जब हम थके हुए पथिकों की भाँति दिन-भर की यात्रा का वृत्तांत करते और सुनते हैं तटस्थ भाव से, मानो हम किसी ऊँचे शिखर पर जा बैठे हैं, जहाँ नीचे का जन-रव हम तक नहीं पहुँचता। धनिया ने आँखों में रस भर कर कहा - चलो-चलो, बड़े बखान करने वाले! जरा-सा कोई काम बिगड़ जाय, तो गरदन पर सवार हो जाते हो। होरी ने मीठे उलाहने के साथ कहा - ले, अब यही तेरी बेइंसाफी मुझे अच्छी नहीं लगती धनिया! भोला से पूछ, मैंने उनसे तेरे बारे में क्या कहा था? धनिया ने बात बदल कर कहा - देखो, गोबर गाय ले कर आता है कि खाली हाथ। चौधरी ने पसीने में लथपथ आ कर कहा - महतो, चल कर बाँस गिन लो। कल ठेला ला कर उठा ले जाऊँगा। होरी ने बाँस गिनने की जरूरत न समझी। चौधरी ऐसा आदमी नहीं है। फिर एकाध बाँस बेसी काट ही लेगा, तो क्या। रोज ही तो मँगनी बाँस कटते रहते हैं। सहालगों में तो मंडप बनाने के लिए लोग दर्जनों बाँस काट ले जाते हैं। चौधरी ने साढ़े सात रुपए निकाल कर उसके हाथ में रख दिए। होरी ने गिनकर कहा - और निकालो। हिसाब से ढाई और होते हैं। चौधरी ने बेमुरौवती से कहा - पंद्रह रुपए में तय हुए हैं कि नहीं? 'पंद्रह रुपए में नहीं, बीस रुपए में।' 'हीरा महतो ने तुम्हारे सामने पंद्रह रुपए कहे थे। कहो तो बुला लाऊँ?' 'तय तो बीस रुपए में ही हुए थे चौधरी ! अब तुम्हारी जीत है, जो चाहो कहो। ढाई रुपए निकलते हैं, तुम दो ही दे दो।' मगर चौधरी कच्ची गोलियाँ न खेला था। अब उसे किसका डर? होरी के मुँह में तो ताला पड़ा हुआ था। क्या कहे, माथा ठोंक कर रह गया। बस इतना बोला - यह अच्छी बात नहीं है, चौधरी, दो रुपए दबा कर राजा न हो जाओगे। चौधरी तीक्ष्ण स्वर में बोला - और तुम क्या भाइयों के थोड़े-से पैसे दबा कर राजा हो जाओगे? ढाई रुपए पर अपना ईमान बिगाड़ रहे थे, उस पर मुझे उपदेस देते हो। अभी परदा खोल दूँ, तो सिर नीचा हो जाए। होरी पर जैसे सैकड़ों जूते पड़ गए। चौधरी तो रुपए सामने जमीन पर रख कर चला गया, पर वह नीम के नीचे बैठा बड़ी देर तक पछताता रहा। वह कितना लोभी और स्वार्थी है, इसका उसे आज पता चला। चौधरी ने ढाई रुपए दे दिए होते, तो वह खुशी से कितना फूल उठता। अपने चालाकी को सराहता कि बैठे-बैठाए ढाई रुपए मिल गए। ठोकर खा कर ही तो हम सावधानी के साथ पग उठाते हैं। धनिया अंदर चली गई थी। बाहर आई तो रुपए जमीन पर पड़े देखे, गिन कर बोली - और रुपए क्या हुए, दस न चाहिए? होरी ने लंबा मुँह बना कर कहा - हीरा ने पंद्रह रुपए में दे दिए, तो मैं क्या करता। 'हीरा पाँच रुपए में दे दे। हम नहीं देते इन दामों।' 'वहाँ मार-पीट हो रही थी। मैं बीच में क्या बोलता?' होरी ने अपने पराजय अपने मन में ही डाल ली, जैसे कोई चोरी से आम तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़े और गिर पड़ने पर धूल झाड़ता हुआ उठ खड़ा हो कि कोई देख न ले। जीत कर आप अपने धोखेबाजियों की डींग मार सकते हैं, जीत में सब-कुछ माफ है। हार की लज्जा तो पी जाने की ही वस्तु है। धनिया पति को फटकारने लगी। ऐसे अवसर उसे बहुत कम मिलते थे। होरी उससे चतुर था, पर आज बाजी उसके हाथ थी। हाथ मटका कर बोली - क्यों न हो, भाई ने पंद्रह रुपए कह दिए, तो तुम कैसे टोकते? अरे, राम-राम! लाड़ले भाई का दिल छोटा हो जाता कि नहीं! फिर जब इतना बड़ा अनर्थ हो रहा था कि लाड़ली बहू के गले पर छुरी चल रही थी, तो भला तुम कैसे बोलते! उस बखत कोई तुम्हारा सरबस लूट लेता, तो भी तुम्हें सुधा न होती। होरी चुपचाप सुनता रहा। मिनका तक नहीं। झुँझलाहट हुई, क्रोध आया, खून खौला, आँख जली, दाँत पिसे, लेकिन बोला नहीं। चुपके-से कुदाल उठाई और ऊख गोड़ने चला। धनिया ने कुदाल छीन कर कहा - क्या अभी सबेरा है जो ऊख गोड़ने चले? सूरज देवता माथे पर आ गए। नहाने-धोने जाव। रोटी तैयार है। होरी ने घुन्ना कर कहा - मुझे भूख नहीं है। धनिया ने जले पर नोन छिड़का - हाँ, काहे को भूख लगेगी! भाई ने बडे-बड़े लड्डू खिला दिए हैं न। भगवान ऐसे सपूत भाई सबको दें। होरी बिगड़ा। और क्रोध अब रस्सियाँ तुड़ा रहा था? तू आज मार खाने पर लगी हुई है! धनिया ने नकली विनय का नाटक करके कहा - क्या करूँ, तुम दुलार ही इतना करते हो कि मेरा सिर फिर गया है। 'तू घर में रहने देगी कि नहीं?' 'घर तुम्हारा, मालिक तुम, मैं भला कौन होती हूँ तुम्हें घर से निकालने वाली?' होरी आज धनिया से किसी तरह पेश नहीं पा सकता। उसकी अक्ल जैसे कुंद हो गई है। इन व्यंग्य-बाणों के रोकने के लिए उसके पास कोई ढाल नहीं है। धीरे से कुदाल रख दी और गमछा ले कर नहाने चला गया। लौटा कोई आधा घंटे में, मगर गोबर अभी तक न आया था। अकेले कैसे भोजन करे। लौंडा वहाँ जा कर सो रहा। भोला की वह मदमाती छोकरी है न झुनिया। उसके साथ हँसी-दिल्लगी कर रहा होगा। कल भी तो उसके पीछे लगा हुआ था। नहीं गाय दी, तो लौट क्यों नहीं आया। क्या वहाँ ढई देगा। धनिया ने कहा - अब खड़े क्या हो? गोबर साँझ को आएगा। होरी ने और कुछ न कहा - कहीं धनिया फिर न कुछ कह बैठे। भोजन करके नीम की छाँह में लेट रहा। रूपा रोती हुई आई। नंगे बदन एक लँगोटी लगाए, झबरे बाल इधर-उधर बिखरे हुए। होरी की छाती पर लोट गई। उसकी बड़ी बहिन सोना कहती है - गाय आएगी, तो उसका गोबर मैं पाथूँगी। रूपा यह नहीं बर्दाश्त कर सकती है। सोना ऐसी कहाँ की बड़ी रानी है कि सारा गोबर आप पाथ डाले। रूपा उससे किस बात में कम है? सोना रोटी पकाती है, तो क्या रूपा बर्तन नहीं माँजती? सोना पानी लाती है, तो क्या रूपा कुएँ पर रस्सी नहीं ले जाती? सोना तो कलसा भर कर इठलाती चली आती है। रस्सी समेट कर रूपा ही लाती है। गोबर दोनों साथ पाथती हैं। सोना खेत गोड़ने जाती है, तो क्या रूपा बकरी चराने नहीं जाती? फिर सोना क्यों अकेली गोबर पाथेगी? यह अन्याय रूपा कैसे सहे? होरी ने उसके भोलेपन पर मुग्ध हो कर कहा - नहीं, गाय का गोबर तू पार्थना! सोना गाय के पास आय तो भगा देना। रूपा ने पिता के गले में हाथ डाल कर कहा - दूध भी मैं ही दुहूँगी। 'हाँ-हाँ, तू न दुहेगी तो और कौन दुहेगा?' 'वह मेरी गाय होगी।' 'हाँ, सोलहों आने तेरी।' रूपा प्रसन्न हो कर अपने विजय का शुभ समाचार पराजित सोना को सुनाने चली गई। गाय मेरी होगी, उसका दूध मैं दुहूँगी, उसका गोबर मैं पाथूँगी, तुझे कुछ न मिलेगा। सोना उम्र से किशोरी, देह के गठन में युवती और बुद्धि से बालिका थी, जैसे उसका यौवन उसे आगे खींचता था, बालपन पीछे। कुछ बातों में इतनी चतुर कि ग्रेजुएट युवतियों को पढ़ाए, कुछ बातों में इतनी अल्हड़ कि शिशुओं से भी पीछे। लंबा, रूखा, किंतु प्रसन्न मुख, ठोड़ी नीचे को खिंची हुई, आँखों में एक प्रकार की तृप्ति, न केशों में तेल, न आँखों में काजल, न देह पर कोई आभूषण, जैसे गृहस्थी के भार ने यौवन को दबा कर बौना कर दिया हो। सिर को एक झटका दे कर बोली - जा, तू गोबर पाथ। जब तू दूध दुह कर रखेगी तो मैं पी जाऊँगी। 'मैं दूध की हाँड़ी ताले में बंद करके रखूँगी।' 'मैं ताला तोड़ कर दूध निकाल लाऊँगी।' यह कहती हुई वह बाग की तरफ चल दी। आम गदरा गए थे। हवा के झोंकों से एकाध जमीन पर गिर पड़ते थे, लू के मारे चुचके, पीले, लेकिन बाल-वृंद उन्हें टपके समझ कर बाग को घेरे रहते थे। रूपा भी बहन के पीछे हो ली। जो काम सोना करे, वह रूपा जरूर करेगी। सोना के विवाह की बातचीत हो रही थी, रूपा के विवाह की कोई चर्चा नहीं करता, इसलिए वह स्वयं अपने विवाह के लिए आग्रह करती है। उसका दूल्हा कैसा होगा, क्या-क्या लाएगा, उसे कैसे रखेगा, उसे क्या खिलाएगा, क्या पहनाएगा, इसका वह बड़ा विशद वर्णन करती, जिसे सुन कर कदाचित कोई बालक उससे विवाह करने पर राजी न होता। साँझ हो रही थी। होरी ऐसा अलसाया कि ऊख गोड़ने न जा सका। बैलों को नाँद में लगाया, सानी-खली दी और एक चिलम भर कर पीने लगा। इस फसल में सब कुछ खलिहान में तौल देने पर भी कोई तीन सौ कर्ज था, जिस पर कोई सौ रुपए सूद के बढ़ते जाते थे। मँगरू साह से आज पाँच साल हुए, बैल के लिए साठ रुपए लिए थे, उसमें साठ दे चुका था, पर वह साठ रुपए ज्यों-के-त्यों बने हुए थे। दातादीन पंडित से तीस रुपए ले कर आलू बोए थे। आलू तो चोर खोद ले गए, और उस तीस के इन तीन बरसों में सौ हो गए थे। दुलारी विधवा सहुआइन थी, जो गाँव में नोन, तेल, तंबाकू की दुकान रखे हुए थी। बँटवारे के समय उससे चालीस रुपए ले कर भाइयों को देना पड़ा था। उसके भी लगभग सौ रुपए हो गए थे, क्योंकि आने रुपए का ब्याज था। लगान के भी अभी पच्चीस रुपए बाकी पड़े हुए थे और दशहरे के दिन शगुन के रूपयों का भी कोई प्रबंध करना था। बाँसों के रुपए बड़े अच्छे समय पर मिल गए। शगुन की समस्या हल हो जायगी, लेकिन कौन जाने। यहाँ तो एक धोला भी हाथ में आ जाय, तो गाँव में शोर मच जाता है, और लेनदार चारों तरफ से नोचने लगते हैं। ये पाँच रुपए तो वह शगुन में देगा, चाहे कुछ हो जाय, मगर अभी जिंदगी के दो बड़े-बड़े काम सिर पर सवार थे। गोबर और सोना का विवाह। बहुत हाथ बाँधने पर भी तीन सौ से कम खर्च न होंगे। ये तीन सौ किसके घर से आएँगे? कितना चाहता है कि किसी से एक पैसा कर्ज न ले, जिसका आता हो, उसका पाई-पाई चुका दे, लेकिन हर तरह का कष्ट उठाने पर भी गला नहीं छूटता। इसी तरह सूद बढ़ता जायगा और एक दिन उसका घर-द्वार सब नीलाम हो जायगा उसके बाल-बच्चे निराश्रय हो कर भीख माँगते फिरेंगे। होरी जब काम-धंधों से छुट्टी पा कर चिलम पीने लगता था, तो यह चिंता एक काली दीवार की भाँति चारों ओर से घेर लेती थी, जिसमें से निकलने की उसे कोई गली न सूझती थी। अगर संतोष था तो यही कि यह विपत्ति अकेले उसी के सिर न थी। प्राय: सभी किसानों का यही हाल था। अधिकांश की दशा तो इससे भी बदतर थी। सोभा और हीरा को उससे अलग हुए अभी कुल तीन साल हुए थे, मगर दोनों पर चार-चार सौ का बोझ लद गया था। झींगुर दो हल की खेती करता है। उस पर एक हजार से कुछ बेसी ही देना है। जियावन महतो के घर, भिखारी भीख भी नहीं पाता, लेकिन करजे का कोई ठिकाना नहीं। यहाँ कौन बचा है? सहसा सोना और रूपा दोनों दौड़ी हुई आईं और एक साथ बोलीं - भैया गाय ला रहे हैं। आगे-आगे गाय, पीछे-पीछे भैया हैं। रूपा ने पहले गोबर को आते देखा था। यह खबर सुनाने की सुर्खरूई उसे मिलनी चाहिए थी। सोना बराबर की हिस्सेदार हुई जाती है, यह उससे कैसे सहा जाता? उसने आगे बढ़ कर कहा - पहले मैंने देखा था। तभी दौड़ी। बहन ने तो पीछे से देखा। सोना इस दावे को स्वीकार न कर सकी। बोली - तूने भैया को कहाँ पहचाना? तू तो कहती थी, कोई गाय भागी आ रही है। मैंने ही कहा - भैया हैं। दोनों फिर बाग की तरफ दौड़ीं, गाय का स्वागत करने के लिए। धनिया और होरी दोनों गाय बाँधने का प्रबंध करने लगे। होरी बोला - चलो, जल्दी से नाँद गाड़ दें। धनिया के मुख पर जवानी चमक उठी थी। नहीं, पहले थाली में थोड़ा-सा आटा और गुड़ घोल कर रख दें। बेचारी धूप में चली होगी। प्यासी होगी। तुम जा कर नाँद गाड़ो, मैं घोलती हूँ। 'कहीं एक घंटी पड़ी थी। उसे ढूँढ़ ले। उसके गले में बाँधेंगे।' 'सोना कहाँ गई? सहुआइन की दुकान से थोड़ा-सा काला डोरा मँगवा लो, गाय को नजर बहुत लगती है।' 'आज मेरे मन की बड़ी भारी लालसा पूरी हो गई।' धनिया अपने हार्दिक उल्लास को दबाए रखना चाहती थी। इतनी बड़ी संपदा अपने साथ कोई नई बाधा न लाए, यह शंका उसके निराश हृदय में कंपन डाल रही थी। आकाश की ओर देख कर बोली - गाय के आने का आनंद तो तब है कि उसका पौरा भी अच्छा हो। भगवान के मन की बात है। मानो वह भगवान को भी धोखा देना चाहती थी। भगवान को भी दिखाना चाहती थी कि इस गाय के आने से उसे इतना आनंद नहीं हुआ किर ईर्ष्यालु भगवान सुख का पलड़ा ऊँचा करने के लिए कोई नई विपत्ति भेज दें। वह अभी आटा घोल ही रही थी कि गोबर गाय को लिए बालकों के एक जुलूस के साथ द्वार पर आ पहुँचा। होरी दौड़ कर गाय के गले से लिपट गया। धनिया ने आटा छोड़ दिया और जल्दी से एक पुरानी साड़ी का काला किनारा फाड़ कर गाय के गले में बाँध दिया। होरी श्रद्धा-विह्वल नेत्रों से गाय को देख रहा था, मानो साक्षात देवी जी ने घर में पदार्पण किया हो। आज भगवान ने यह दिन दिखाया कि उसका घर गऊ के चरणों से पवित्र हो गया। यह सौभाग्य! न जाने किसके पुण्य-प्रताप से। धनिया ने भयातुर हो कर कहा - खड़े क्या हो, आँगन में नाँद गाड़ दो। 'आँगन में जगह कहाँ है?' 'बहुत जगह है।' 'मैं तो बाहर ही गाड़ता हूँ'। 'पागल न बनो। गाँव का हाल जान कर भी अनजान बनते हो?' 'अरे, बित्ते-भर के आँगन में गाय कहाँ बाँधोगी भाई?' 'जो बात नहीं जानते, उसमें टाँग मत अड़ाया करो। संसार-भर की विद्दा तुम्हीं नहीं पढ़े हो।' होरी सचमुच आपे में न था। गऊ उसके लिए केवल भक्ति और श्रद्धा की वस्तु नहीं, सजीव संपत्ति थी। वह उससे अपने द्वार की शोभा और अपने घर का गौरव बढ़ाना चाहता था। वह चाहता था, लोग गाय को द्वार पर बँधी देख कर पूछें - यह किसका घर है? लोग कहें - होरी महतो का। तभी लड़की वाले भी उसकी विभूति से प्रभावित होंगे। आँगन में बँधी, तो कौन देखेगा? धनिया इसके विपरीत सशंक थी। वह गाय को सात परदों के अंदर छिपा कर रखना चाहती थी। अगर गाय आठों पहर कोठरी में रह सकती, तो शायद वह उसे बाहर न निकलने देती। यों हर बात में होरी की जीत होती थी। वह अपने पक्ष पर अड़ जाता था और धनिया को दबना पड़ता था, लेकिन आज धनिया के सामने होरी की एक न चली। धनिया लड़ने को तैयार हो गई। गोबर, सोना और रूपा, सारा घर होरी के पक्ष में था, पर धनिया ने अकेले सबको परास्त कर दिया। आज उसमें एक विचित्र आत्मविश्वास और होरी में एक विचित्र विनय का उदय हो गया था। मगर तमाशा कैसे रूक सकता था? गाय डोली में बैठ कर तो आई न थी। कैसे संभव था कि गाँव में इतनी बड़ी बात हो जाय और तमाशा न लगे। जिसने सुना, सब काम छोड़ कर देखने दौड़ा। यह मामूली देशी गऊ नहीं है। भोला के घर से अस्सी रुपए में आई है। होरी अस्सी रुपए क्या देंगे, पचास-साठ रुपए में लाए होंगे। गाँव के इतिहास में पचास-साठ रुपए की गाय का आना भी अभूतपूर्व बात थी। बैल तो पचास रुपए के भी आए, सौ के भी आए, लेकिन गाय के लिए इतनी बड़ी रकम किसान क्या खा के खर्च करेगा? यह तो ग्वालों ही का कलेजा है कि अंजुलियों रुपए गिन आते हैं। गाय क्या है, साक्षात देवी का रूप है। दर्शकों और आलोचकों का ताँता लगा हुआ था, और होरी दौड़-दौड़ कर सबका सत्कार कर रहा था। इतना विनम्र, इतना प्रसन्न-चित्त वह कभी न था। जेठ की उदास और गर्म संध्या सेमरी की सड़कों और गलियों में, पानी के छिड़काव से शीतल और प्रसन्न हो रही थी। मंडप के चारों तरफ फूलों और पौधों के गमले सजा दिए गए थे और बिजली के पंखे चल रहे थे। रायसाहब अपने कारखाने में बिजली बनवा लेते थे। उनके सिपाही पीली वर्दियाँ डाटे, नीले साफे बाँधे, जनता पर रोब जमाते फिरते थे। नौकर उजले कुरते पहने और केसरिया पाग बाँधे, मेहमानों और मुखियों का आदर-सत्कार कर रहे थे। उसी वक्त एक मोटर सिंह-द्वार के सामने आ कर रूकी और उसमें से तीन महानुभाव उतरे। वह जो खद्दर का कुरता और चप्पल पहने हुए हैं, उनका नाम पंडित ओंकारनाथ है। आप दैनिक-पत्र 'बिजली' के यशस्वी संपादक हैं, जिन्हें देश-चिंता ने घुला डाला है। दूसरे महाशय जो कोट-पैंट में हैं, वह हैं तो वकील, पर वकालत न चलने के कारण एक बीमा-कंपनी की दलाली करते हैं और ताल्लुकेदारों को महाजनों और बैंकों से कर्ज दिलाने में वकालत से कहीं ज्यादा कमाई करते हैं। इनका नाम है श्यामबिहारी तंखा और तीसरे सज्जन जो रेशमी अचकन और तंग पाजामा पहने हुए हैं, मिस्टर बी. मेहता, युनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के अध्यापक हैं। ये तीनों सज्जन रायसाहब के सहपाठियों में हैं और शगुन के उत्सव पर निमंत्रित हुए हैं। आज सारे इलाके के असामी आएँगे और शगुन के रुपए भेंट करेंगे। रात को धनुष-यज्ञ होगा और मेहमानों की दावत होगी। होरी ने पाँच रुपए शगुन के दे दिए हैं और एक गुलाबी मिर्जई पहने, गुलाबी पगड़ी बाँधे, घुटने तक काछनी काछे, हाथ में एक खुरपी लिए और मुख पर पाउडर लगवाए राजा जनक का माली बन गया है और गरूर से इतना फूल उठा है, मानो यह सारा उत्सव उसी के पुरुषार्थ से हो रहा है। रायसाहब ने मेहमानों का स्वागत किया। दोहरे बदन के ऊँचे आदमी थे, गठा हुआ शरीर, तेजस्वी चेहरा, ऊँचा माथा, गोरा रंग, जिस पर शर्बती रेशमी चादर खूब खिल रही थी। पंडित ओंकारनाथ ने पूछा - अबकी कौन-सा नाटक खेलने का विचार है? मेरे रस की तो यहाँ वही एक वस्तु है। रायसाहब ने तीनों सज्जनों को अपने रावटी के सामने कुर्सियों पर बैठाते हुए कहा - पहले तो धनुष-यज्ञ होगा, उसके बाद एक प्रहसन। नाटक कोई अच्छा न मिला। कोई तो इतना लंबा कि शायद पाँच घंटों में भी खत्म न हो और कोई इतना क्लिष्ट कि शायद यहाँ एक व्यक्ति भी उसका अर्थ न समझे। आखिर मैंने स्वयं एक प्रहसन लिख डाला, जो दो घंटों में पूरा हो जायगा। ओंकारनाथ को रायसाहब की रचना-शक्ति में बहुत संदेह था। उनका ख्याल था कि प्रतिभा तो गरीबों ही में चमकती है दीपक की भाँति, जो अँधेरे ही में अपना प्रकाश दिखाता है। उपेक्षा के साथ, जिसे छिपाने की भी उन्होंने चेष्टा नहीं की, पंडित ओंकारनाथ ने मुँह फेर लिया। मिस्टर तंखा इन बेमतलब की बातों में न पड़ना चाहते थे, फिर भी रायसाहब को दिखा देना चाहते थे कि इस विषय में उन्हें कुछ बोलने का अधिकार है। बोले - नाटक कोई भी अच्छा हो सकता है, अगर उसके अभिनेता अच्छे हों। अच्छा-से-अच्छा नाटक बुरे अभिनेताओं के हाथ में पड़ कर बुरा हो सकता है। जब तक स्टेज पर शिक्षित अभिनेत्रियाँ नहीं आतीं, हमारी नाटयकला का उद्धार नहीं हो सकता। अबकी तो आपने कौंसिल में प्रश्नों की धूम मचा दी। मैं तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि किसी मेंबर का रिकार्ड इतना शानदार नहीं है। दर्शन के अध्यापक मिस्टर मेहता इस प्रशंसा को सहन न कर सकते थे। विरोध तो करना चाहते थे, पर सिद्धांत की आड़ में। उन्होंने हाल ही में एक पुस्तक कई साल के परिश्रम से लिखी थी। उसकी जितनी धूम होनी चाहिए थी, उसकी शतांश भी नहीं हुई थी। इससे बहुत दुखी थे। बोले- भई, मैं प्रश्नों का कायल नहीं। मैं चाहता हूँ, हमारा जीवन हमारे सिद्धांतों के अनुकूल हो। आप कृषकों के शुभेच्छु हैं, उन्हें तरह-तरह की रियायत देना चाहते हैं, जमींदारों के अधिकार छीन लेना चाहते हैं, बल्कि उन्हें आप समाज का शाप कहते हैं, फिर भी आप जमींदार हैं, वैसे ही जमींदार जैसे हजारों और जमींदार हैं। अगर आपकी धारणा है कि कृषकों के साथ रियायत होनी चाहिए, तो पहले आप खुद शुरू करें - काश्तकारों को बगैर नजराने लिए पट्टे लिख दें, बेगार बंद कर दें, इजाफा लगान को तिलांजलि दे दें, चरावर जमीन छोड़ दें। मुझे उन लोगों से जरा भी हमदर्दी नहीं है, जो बातें तो करते हैं कम्युनिस्टों की-सी, मगर जीवन है रईसों का-सा, उतना ही विलासमय, उतना ही स्वार्थ से भरा हुआ। रायसाहब को आघात पहुँचा। वकील साहब के माथे पर बल पड़ गए और संपादक जी के मुँह में जैसे कालिख लग गई। वह खुद समष्टिवाद के पुजारी थे, पर सीधे घर में आग न लगाना चाहते थे। तंखा ने रायसाहब की वकालत की - मैं समझता हूँ, रायसाहब का अपने असामियों के साथ जितना अच्छा व्यवहार है, अगर सभी जमींदार वैसे ही हो जायँ, तो यह प्रश्न ही न रहे। मेहता ने हथौड़े की दूसरी चोट जमाई - मानता हूँ, आपका अपने असामियों के साथ बहुत अच्छा बर्ताव है, मगर प्रश्न यह है कि उसमें स्वार्थ है या नहीं। इसका एक कारण क्या यह नहीं हो सकता कि मद्धिम आँच में भोजन स्वादिष्ट पकता है? गुड़ से मारने वाला जहर से मारने वाले की अपेक्षा कहीं सफल हो सकता है। मैं तो केवल इतना जानता हूँ, हम या तो साम्यवादी हैं या नहीं हैं। हैं तो उसका व्यवहार करें, नहीं हैं, तो बकना छोड़ दें। मैं नकली जिंदगी का विरोधी हूँ। अगर माँस खाना अच्छा समझते हो तो खुल कर खाओ। बुरा समझते हो, तो मत खाओ, यह तो मेरी समझ में आता है, लेकिन अच्छा समझना और छिप कर खाना, यह मेरी समझ में नहीं आता। मैं तो इसे कायरता भी कहता हूँ और धूर्तता भी, जो वास्तव में एक हैं। रायसाहब सभा-चतुर आदमी थे। अपमान और आघात को धैर्य और उदारता से सहने का उन्हें अभ्यास था। कुछ असमंजस में पड़े हुए बोले - आपका विचार बिलकुल ठीक है मेहता जी! आप जानते हैं, मैं आपकी साफगोई का कितना आदर करता हूँ, लेकिन आप यह भूल जाते हैं कि अन्य यात्राओं की भाँति विचारों की यात्रा में भी पड़ाव होते हैं, और आप एक पड़ाव को छोड़ कर दूसरे पड़ाव तक नहीं जा सकते। मानव-जीवन का इतिहास इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। मैं उस वातावरण में पला हूँ, जहाँ राजा ईश्वर है और जमींदार ईश्वर का मंत्र। मेरे स्वर्गवासी पिता असामियों पर इतनी दया करते थे कि पाले या सूखे में कभी आधा और कभी पूरा लगान माफ कर देते थे। अपने बखार से अनाज निकाल कर असामियों को खिला देते थे। घर के गहने बेच कर कन्याओं के विवाह में मदद देते थे, मगर उसी वक्त तक, जब तक प्रजा उनको सरकार और धर्मावतार कहती रहे, उन्हें अपना देवता समझ कर उनकी पूजा करती रहे। प्रजा को पालना उनका सनातन धर्म था, लेकिन अधिकार के नाम पर वह कौड़ी का एक दाँत भी फोड़ कर देना न चाहते थे। मैं उसी वातावरण में पला हूँ, और मुझे गर्व है कि मैं व्यवहार में चाहे जो कुछ करूँ, विचारों में उनसे आगे बढ़ गया हूँ और यह मानने लग गया हूँ कि जब तक किसानों को यह रियायतें अधिकार के रूप में न मिलेंगी, केवल सद्भावना के आधार पर उनकी दशा सुधर नहीं सकती। स्वेच्छा अगर अपना स्वार्थ छोड़ दे, तो अपवाद है। मैं खुद सद्भावना करते हुए भी स्वार्थ नहीं छोड़ सकता और चाहता हूँ कि हमारे वर्ग को शासन और नीति के बल से अपना स्वार्थ छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया जाए। इसे आप कायरता कहेंगे, मैं इसे विवशता कहता हूँ। मैं इसे स्वीकार करता हूँ कि किसी को भी दूसरों के श्रम पर मोटे होने का अधिकार नहीं है। उपजीवी होना घोर लज्जा की बात है। कर्म करना प्राणिमात्र का धर्म है। समाज की ऐसी व्यवस्था, जिसमें कुछ लोग मौज करें और अधिक लोग पिसें और खपें कभी सुखद नहीं हो सकती। पूंजी और शिक्षा, जिसे मैं पूंजी ही का एक रूप समझता हूँ, इनका किला जितनी जल्द टूट जाय, उतना ही अच्छा है। जिन्हें पेट की रोटी मयस्सर नहीं, उनके अफसर और नियोजक दस-दस, पाँच-पाँच हजार फटकारें, यह हास्यास्पद है और लज्जास्पद भी। इस व्यवस्था ने हम जमींदारों में कितनी विलासिता, कितना दुराचार, कितनी पराधीनता और कितनी निर्लज्जता भर दी है, यह मैं खूब जानता हूँ, लेकिन मैं इन कारणों से इस व्यवस्था का विरोध नहीं करता। मेरा तो यह कहना है कि अपने स्वार्थ की दृष्टि से भी इसका अनुमोदन नहीं किया जा सकता। इस शान को निभाने के लिए हमें अपनी आत्मा की इतनी हत्या करनी पड़ती है कि हममें आत्माभिमान का नाम भी नहीं रहा। हम अपने असामियों को लूटने के लिए मजबूर हैं। अगर अफसरों को कीमती-कीमती डालियाँ न दें, तो बागी समझे जायँ, शान से न रहें, तो कंजूस कहलाएँ। प्रगति की जरा-सी आहट पाते ही हम काँप उठते हैं, और अफसरों के पास फरियाद ले कर दौड़ते हैं कि हमारी रक्षा कीजिए। हमें अपने ऊपर विश्वास नहीं रहा, न पुरुषार्थ ही रह गया। बस, हमारी दशा उन बच्चों की-सी है, जिन्हें चम्मच से दूध पिला कर पाला जाता है, बाहर से मोटे, अंदर से दुर्बल, सत्वहीन और मोहताज। मेहता ने ताली बजा कर कहा - हियर, हियर! आपकी जबान में जितनी बुद्धि है, काश उसकी आधी भी मस्तिष्क में होती। खेद यही है कि सब कुछ समझते हुए भी आप अपने विचारों को व्यवहार में नहीं लाते। ओंकारनाथ बोले - अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, मिस्टर मेहता! हमें समय के साथ चलना भी है और उसे अपने साथ चलाना भी। बुरे कामों में ही सहयोग की जरूरत नहीं होती। अच्छे कामों के लिए भी सहयोग उतना ही जरूरी है। आप ही क्यों आठ सौ रुपए महीने हड़पते हैं, जब आपके करोड़ों भाई केवल आठ रुपए में अपना निर्वाह कर रहे हैं? रायसाहब ने ऊपरी खेद, लेकिन भीतरी संतोष से संपादकजी को देखा और बोले - व्यक्तिगत बातों पर आलोचना न कीजिए संपादक जी! हम यहाँ समाज की व्यवस्था पर विचार कर रहे हैं। मिस्टर मेहता उसी ठंडे मन से बोले - नहीं-नहीं, मैं इसे बुरा नहीं समझता। समाज व्यक्ति से ही बनता है। और व्यक्ति को भूल कर हम किसी व्यवस्था पर विचार नहीं कर सकते। मैं इसलिए इतना वेतन लेता हूँ कि मेरा इस व्यवस्था पर विश्वास नहीं है। संपादक जी को अचंभा हुआ - अच्छा, तो आप वर्तमान व्यवस्था के समर्थक हैं? 'मैं इस सिद्धांत का समर्थक हूँ कि संसार में छोटे-बड़े हमेशा रहेंगे, और उन्हें हमेशा रहना चाहिए। इसे मिटाने की चेष्टा करना मानव-जाति के सर्वनाश का कारण होगा।' कुश्ती का जोड़ बदल गया। रायसाहब किनारे खड़े हो गए। संपादक जी मैदान में उतरे - आप बीसवीं शताब्दी में भी ऊँच-नीच का भेद मानते हैं। 'जी हाँ, मानता हूँ और बडे जोरों से मानता हूँ। जिस मत के आप समर्थक हैं, वह भी तो कोई नई चीज नहीं। कब से मनुष्य में ममत्व का विकास हुआ, तभी उस मत का जन्म हुआ। बुद्ध और प्लेटो और ईसा सभी समाज में समता प्रवर्तक थे। यूनान और रोम और सीरियाई, सभी सभ्यताओं ने उसकी परीक्षा की, पर अप्राकृतिक होने के कारण कभी वह स्थायी न बन सकी। 'आपकी बातें सुन कर मुझे आश्चर्य हो रहा है।' 'आश्चर्य अज्ञान का दूसरा नाम है।' 'मैं आपका कृतज्ञ हूँ! अगर आप इस विषय पर कोई लेखमाला शुरू कर दें।' 'जी, मैं इतना अहमक नहीं हूँ, अच्छी रकम दिलवाइए, तो अलबत्ता।' 'आपने सिद्धांत ही ऐसा लिया है कि खुले खजाने पब्लिक को लूट सकते हैं।' 'मुझमें और आपमें अंतर इतना ही है कि मैं जो कुछ मानता हूँ, उस पर चलता हूँ। आप लोग मानते कुछ हैं, करते कुछ हैं। धन को आप किसी अन्याय से बराबर फैला सकते हैं। लेकिन बुद्धि को, चरित्र को, रूप को, प्रतिभा को और बल को बराबर फैलाना तो आपकी शक्ति के बाहर है। छोटे-बड़े का भेद केवल धन से ही तो नहीं होता। मैंने बड़े-बड़े धनकुबेरों को भिक्षुकों के सामने घुटने टेकते देखा है, और आपने भी देखा होगा। रूप के चौखट पर बड़े-बड़े महीप नाक रगड़ते हैं। क्या यह सामाजिक विषमता नहीं है? आप रूस की मिसाल देंगे। वहाँ इसके सिवाय और क्या है कि मिल के मालिक ने राजकर्मचारी का रूप ले लिया है। बुद्धि तब भी राज करती थी, अब भी करती है और हमेशा करेगी।' तश्तरी में पान आ गए थे। रायसाहब ने मेहमानों को पान और इलायची देते हुए कहा - बुद्धि अगर स्वार्थ से मुक्त हो, तो हमें उसकी प्रभुता मानने में कोई आपत्ति नहीं। समाजवाद का यही आदर्श है। हम साधु-महात्माओं के सामने इसीलिए सिर झुकाते हैं कि उनमें त्याग का बल है। इसी तरह हम बुद्धि के हाथ में अधिकार भी देना चाहते हैं, सम्मान भी, नेतृत्व भी, लेकिन संपत्ति किसी तरह नहीं। बुद्धि का अधिकार और सम्मान व्यक्ति के साथ चला जाता है, लेकिन उसकी संपत्ति विष बोने के लिए उसके बाद और भी प्रबल हो जाती है। बुद्धि के बगैर किसी समाज का संचालन नहीं हो सकता। हम केवल इस बिच्छू का डंक तोड़ देना चाहते हैं। दूसरी मोटर आ पहुँची और मिस्टर खन्ना उतरे, जो एक बैंक के मैनेजर और शक्कर मिल के मैनजिंग डाइरेक्टर हैं। दो देवियाँ भी उनके साथ थीं। रायसाहब ने दोनों देवियाँ को उतारा। वह जो खद्दर की साड़ी पहने बहुत गंभीर और विचारशील-सी हैं, मिस्टर खन्ना की पत्नी, कामिनी खन्ना हैं। दूसरी महिला जो ऊँची एड़ी का जूता पहने हुए हैं और जिनकी मुख-छवि पर हँसी फूटी पड़ती है, मिस मालती हैं। आप इंग्लैंड से डाक्टरी पढ़ आई हैं और अब प्रैक्टिस करती हैं। ताल्लुकेदारों के महलों में उनका बहुत प्रवेश है। आप नवयुग की साक्षात प्रतिमा हैं। गात कोमल, पर चपलता कूट-कूट कर भरी हुई। झिझक या संकोच का कहीं नाम नहीं, मेक-अप में प्रवीण, बला की हाजिर-जवाब, पुरुष-मनोविज्ञान की अच्छी जानकार, आमोद-प्रमोद को जीवन का तत्व समझने वाली, लुभाने और रिझाने की कला में निपुण। जहाँ आत्मा का स्थान है, वहाँ प्रदर्शन, जहाँ हृदय का स्थान है, वहाँ हाव-भाव, मनोद्गारों पर कठोर निग्रह, जिसमें इच्छा या अभिलाषा का लोप-सा हो गया हो। आपने मिस्टर मेहता से हाथ मिलाते हुए कहा - सच कहती हूँ, आप सूरत से ही फिलासफर मालूम होते हैं। इस नई रचना में तो आपने आत्मवादियों को उधेड़ कर रख दिया। पढ़ते-पढ़ते कई बार मेरे जी में ऐसा आया कि आपसे लड़ जाऊँ। फिलासफरों में सहृदयता क्यों गायब हो जाती है? मेहता झेंप गए। बिना ब्याहे थे और नवयुग की रमणियों से पनाह माँगते थे। पुरुषों की मंडली में खूब चहकते थे, मगर ज्यों ही कोई महिला आई और आपकी जबान बंद हुई, जैसे बुद्धि पर ताला लग जाता था। स्त्रियों से शिष्ट व्यवहार तक करने की सुधि न रहती थी। मिस्टर खन्ना ने पूछा - फिलासफरों की सूरत में क्या खास बात होती है देवी जी? मालती ने मेहता की ओर दया-भाव से देख कर कहा - मिस्टर मेहता, बुरा न मानें तो बतला दूँ? खन्ना मिस मालती के उपासकों में थे। जहाँ मिस मालती जायँ, वहाँ खन्ना का पहुँचना लाजिम था। उनके आस-पास भौंरे की तरह मंडराते रहते थे। हर समय उनकी यही इच्छा रहती थी कि मालती से अधिक से अधिक वही बोलें, उनकी निगाह अधिक से अधिक उन्हीं पर रहे। खन्ना ने आँख मार कर कहा - फिलासफर किसी की बात का बुरा नहीं मानते। उनकी यही सिफत है। 'तो सुनिए, फिलासफर हमेशा मुर्दा-दिल होते हैं, जब देखिए, अपने विचारों में मगन बैठे हैं। आपकी तरफ ताकेंगे, मगर आपको देखेंगे नहीं, आप उनसे बातें किए जायँ, कुछ सुनेंगे नहीं, जैसे शून्य में उड़ रहे हों।' सब लोगों ने कहकहा मारा। मिस्टर मेहता जैसे जमीन में गड़ गए। 'आक्सफोर्ड में मेरे फिलासफी के प्रोफेसर हसबेंड थे!' खन्ना ने टोका - नाम तो निराला है। 'जी हाँ, और थे क्वाँरे... 'मिस्टर मेहता भी तो क्वाँरे हैं...' 'यह रोग सभी फिलासफरों को होता है।' अब मेहता को अवसर मिला। बोले - आप भी तो इसी मरज में गिरफ्तार हैं? 'मैंने प्रतिज्ञा की है, कि किसी फिलासफर से शादी करूँगी और यह वर्ग शादी के नाम से घबराता है। हसबेंड साहब तो स्त्री को देख कर घर में छिप जाते थे। उनके शिष्यों में कई लड़कियाँ थीं। अगर उनमें से कोई कभी कुछ पूछने के लिए उनके ऑफिस में चली जाती थी, तो आप ऐसे घबड़ा जाते, जैसे कोई शेर आ गया हो। हम लोग उन्हें खूब छेड़ा करते थे, बेचारे बड़े सरल-हृदय। कई हजार की आमदनी थी, पर मैंने उन्हें हमेशा एक ही सूट पहने देखा। उनकी एक विधवा बहन थी। वही उनके घर का सारा प्रबंध करती थी। मिस्टर हसबेंड को तो खाने की फिक्र ही न रहती थी। मिलने वालों के डर से अपने कमरे का द्वार बंद करके लिखा-पढ़ी करते थे। भोजन का समय आ जाता, तो उनकी बहन आहिस्ता से भीतर के द्वार से उनके पास जा कर किताब बंद कर देती थी, तब उन्हें मालूम होता कि खाने का समय हो गया। रात को भी भोजन का समय बँधा हुआ था। उनकी बहन कमरे की बत्ती बुझा दिया करती थी। एक दिन बहन ने किताब बंद करनी चाही, तो आपने पुस्तक को दोनों हाथों से दबा लिया और बहन-भाई में जोर-आजमाई होने लगी। आखिर बहन उनकी पहिएदार कुर्सी को खींच कर भोजन के कमरे में लाई।' रायसाहब बोले - मगर मेहता साहब तो बड़े खुशमिजाज और मिलनसार हैं, नहीं इस हंगामे में क्यों आते।' 'तो आप फिलासफर न होंगे। जब अपने चिंताओं से हमारे सिर में दर्द होने लगता है, तो विश्व की चिंता सिर पर लाद कर कोई कैसे प्रसन्न रह सकता है।' उधर संपादक जी श्रीमती खन्ना से अपने आर्थिक कठिनाइयों की कथा कह रहे थे - बस यों समझिए श्रीमतीजी, कि संपादक का जीवन एक दीर्घ विलाप है, जिसे सुन कर लोग दया करने के बदले कानों पर हाथ रख लेते हैं। बेचारा न अपना उपकार कर सके, न औरों का। पब्लिक उससे आशा तो यह रखती है कि हर एक आंदोलन में वह सबसे आगे रहे, जेल जाय, मार खाए, घर के माल-असबाब की कुर्की कराए, यह उसका धर्म समझा जाता है, लेकिन उसकी कठिनाइयों की ओर किसी का ध्यान नहीं। हो तो वह सब कुछ। उसे हर एक विद्या, हर एक कला में पारंगत होना चाहिए, लेकिन उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं। आप तो आजकल कुछ लिखती ही नहीं। आपकी सेवा करने का जो थोड़ा-सा सौभाग्य मुझे मिल सकता है, उससे मुझे क्यों वंचित रखती हैं? मिसेज खन्ना को कविता लिखने का शौक था। इस नाते से संपादक जी कभी-कभी उनसे मिल आया करते थे, लेकिन घर के काम-धंधो में व्यस्त रहने के कारण इधर बहुत दिनों से कुछ लिख नहीं सकी थीं। सच बात तो यह है कि संपादक जी ने ही उन्हें प्रोत्साहित करके कवि बनाया था। सच्ची प्रतिभा उनमें बहुत कम थी। क्या लिखूँ कुछ सूझता ही नहीं। आपने कभी मिस मालती से कुछ लिखने को नहीं कहा?' संपादक जी उपेक्षा भाव से बोले - उनका समय मूल्यवान है कामिनी देवी! लिखते तो वह लोग हैं, जिनके अंदर कुछ दर्द है, अनुराग है, लगन है, विचार है। जिन्होंने धन और भोग-विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया, वह क्या लिखेंगे? कामिनी ने ईर्ष्या-मिश्रित विनोद से कहा - अगर आप उनसे कुछ लिखा सकें, तो आपका प्रचार दुगुना हो जाए। लखनऊ में तो ऐसा कोई रसिक नहीं है, जो आपका ग्राहक न बन जाए। 'अगर धन मेरे जीवन का आदर्श होता, तो आज मैं इस दशा में न होता। मुझे भी धन कमाने की कला आती है। आज चाहूँ, तो लाखों कमा सकता हूँ, लेकिन यहाँ तो धन को कभी कुछ समझा ही नहीं। साहित्य की सेवा अपने जीवन का ध्येय है और रहेगा।' 'कम-से-कम मेरा नाम तो ग्राहकों में लिखवा दीजिए।' 'आपका नाम ग्राहकों में नहीं, संरक्षकों में लिखूँगा।' 'संरक्षकों में रानियों-महारानियों को रखिए, जिनकी थोड़ी-सी खुशामद करके आप अपने पत्र को लाभ की चीज बना सकते हैं।' मेरी रानी-महारानी आप हैं। मैं तो आपके सामने किसी रानी-महारानी की हकीकत नहीं समझता। जिसमें दया और विवेक है, वही मेरी रानी है। खुशामद से मुझे घृणा है।' कामिनी ने चुटकी ली - लेकिन मेरी खुशामद तो आप कर रहे हैं संपादक जी! संपादक जी ने गंभीर हो कर श्रद्धापूर्ण स्वर में कहा - यह खुशामद नहीं है देवी जी, हृदय के सच्चे उद्गार हैं। रायसाहब ने पुकारा - संपादक जी, जरा इधर आइएगा। मिस मालती आपसे कुछ कहना चाहती हैं। संपादक जी की वह सारी अकड़ गायब हो गई। नम्रता और विनय की मूर्ति बने हुए आ कर खड़े हो गए! मालती ने उन्हें सदय नेत्रों से देख कर कहा - मैं अभी कह रही थी कि दुनिया में मुझे सबसे ज्यादा डर संपादकों से लगता है। आप लोग जिसे चाहें, एक क्षण में बिगाड़ दें। मुझी से चीफ सेक्रेटरी साहब ने एक बार कहा - अगर मैं इस ब्लडी ओंकारनाथ को जेल में बंद कर सकूँ तो अपने को भाग्यवान समझूँ। ओंकारनाथ की बड़ी-बड़ी मूँछें खड़ी हो गईं। आँखों में गर्व की ज्योति चमक उठी। यों वह बहुत ही शांत प्रकृति के आदमी थे, लेकिन ललकार सुन कर उनका पुरुषत्व उत्तेजित हो जाता था। दृढ़ता-भरे स्वर में बोले - इस कृपा के लिए आपका कृतज्ञ हूँ। उस बज्म (सभा) में अपना जिक्र तो आता है, चाहे किसी तरह आए। आप सेक्रेटरी महोदय से कह दीजिएगा कि ओंकारनाथ उन आदमियों में नहीं है, जो इन धमकियों से डर जाए। उसकी कलम उसी वक्त विश्राम लेगी, जब उसकी जीवन-यात्रा समाप्त हो जायगी। उसने अनीति और स्वेच्छाचार को जड़ से खोद कर फेंक देने का जिम्मा लिया है। मिस मालती ने और उकसाया - मगर मेरी समझ में आपकी यह नीति नहीं आती कि जब आप मामूली शिष्टाचार से अधिकारियों का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं, तो क्यों उनसे कन्नी काटते हैं। अगर आप अपनी आलोचनाओं में आग और विष जरा कम दें, तो मैं वादा करती हूँ कि आपको गवर्नमेंट से काफी मदद दिला सकती हूँ। जनता को तो आपने देख लिया। उससे अपील की, उसकी खुशामद की, अपने कठिनाइयों की कथा कही, मगर कोई नतीजा न निकला। अब जरा अधिकारियों को भी आजमा देखिए। तीसरे महीने आप मोटर पर न निकलने लगें, और सरकारी दावतों में निमंत्रित न होने लगें तो मुझे जितना चाहें कोसिएगा। तब यही रईस और नेशनलिस्ट जो आपकी परवा नहीं करते, आपके द्वार के चक्कर लगाएँगे। ओंकारनाथ अभिमान के साथ बोले - यही तो मैं नहीं कर सकता देवी जी! मैंने अपने सिद्धांतों को सदैव ऊँचा और पवित्र रखा है और जीते-जी उनकी रक्षा करूँगा। दौलत के पुजारी तो गली-गली मिलेंगे, मैं सिद्धांत के पुजारियों में हूँ। 'मैं इसे दंभ कहती हूँ।' 'आपकी इच्छा।' 'धन की आपको परवा नहीं है?' 'सिद्धांतों का खून करके नहीं।' 'तो आपके पत्र में विदेशी वस्तुओं के विज्ञापन क्यों होते हैं? मैंने किसी भी दूसरे पत्र में इतने विदेशी विज्ञापन नहीं देखे। आप बनते तो हैं आदर्शवादी और सिद्धांतवादी, पर अपने फायदे के लिए देश का धन विदेश भेजते हुए आपको जरा भी खेद नहीं होता? आप किसी तर्क से इस नीति का समर्थन नहीं कर सकते।' ओंकारनाथ के पास सचमुच कोई जवाब न था। उन्हें बगलें झाँकते देख कर रायसाहब ने उनकी हिमायत की - तो आखिर आप क्या चाहती हैं? इधर से भी मारे जायँ, उधर से भी मारे जायँ, तो पत्र कैसे चले? मिस मालती ने दया करना न सीखा था। 'पत्र नहीं चलता तो बंद कीजिए। अपना पत्र चलाने के लिए आपको विदेशी वस्तुओं के प्रचार का कोई अधिकार नहीं। अगर आप मजबूर हैं, तो सिद्धांत का ढोंग छोड़िए। मैं तो सिद्धांतवादी पत्रों को देख कर जल उठती हूँ। जी चाहता है, दियासलाई दिखा दूँ। जो व्यक्ति कर्म और वचन में सामंजस्य नहीं रख सकता, वह और चाहे जो कुछ हो, सिद्धांतवादी नहीं है।' मेहता खिल उठा। थोड़ी देर पहले उन्होंने खुद इसी विचार का प्रतिपादन किया था। उन्हें मालूम हुआ कि इस रमणी में विचार की शक्ति भी है, केवल तितली नहीं। संकोच जाता रहा। 'यही बात अभी मैं कह रहा था। विचार और व्यवहार में सामंजस्य का न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है।' मिस मालती प्रसन्नमुख से बोली - तो इस विषय में आप और मैं एक हैं, और मैं भी फिलासफर होने का दावा कर सकती हूँ। खन्ना की जीभ में खुजली हो रही थी। बोले - आपका एक-एक अंग फिलासफी में डूबा हुआ है। मालती ने उनकी लगाम खींची - अच्छा, आपको भी फिलासफी में दखल है। मैं तो समझती थी, आप बहुत पहले अपने फिलासफी को गंगा में डुबो बैठे। नहीं, आप इतने बैंकों और कंपनियों के डाइरेक्टर न होते। रायसाहब ने खन्ना को सँभाला - तो क्या आप समझती हैं कि फिलासफरों को हमेशा फाकेमस्त रहना चाहिए? 'जी हाँ' फिलासफर अगर मोह पर विजय न पा सके, तो फिलासफर कैसा?' 'इस लिहाज से तो शायद मिस्टर मेहता भी फिलासफर न ठहरें।' मेहता ने जैसे आस्तीन चढ़ा कर कहा - मैंने तो कभी यह दावा नहीं किया राय साहब! मैं तो इतना ही जानता हूँ कि जिन औजारों से लोहार काम करता है, उन्हीं औजारों से सोनार नहीं करता। क्या आप चाहते हैं, आम भी उसी दशा में फलें-फूलें जिससे बबूल या ताड़? मेरे लिए धन केवल उन सुविधाओं का नाम है, जिनसे मैं अपना जीवन सार्थक कर सकूँ। धन मेरे लिए फलने-फूलने वाली चीज नहीं, केवल साधन है। मुझे धन की बिलकुल इच्छा नहीं, आप वह साधन जुटा दें, जिसमें मैं अपने जीवन को उपयोग कर सकूँ। ओंकारनाथ समष्टिवादी थे। व्यक्ति की इस प्रधानता को कैसे स्वीकार करते? इसी तरह हर एक मजदूर कह सकता है कि उसे काम करने की सुविधाओं के लिए एक हजार महीने की जरूरत है।' अगर आप समझते हैं कि उस मजदूर के बगैर आपका काम नहीं चल सकता, तो आपको वह सुविधाएँ देनी पड़ेंगी। अगर वही काम दूसरा मजदूर थोड़ी-सी मजदूरी में कर दे, तो कोई वजह नहीं कि आप पहले मजदूर की खुशामद करें।' 'अगर मजदूरों के हाथ में अधिकार होता, तो मजदूरों के लिए स्त्री और शराब भी उतनी ही जरूरी सुविधा हो जाती, जितनी फिलासफरों के लिए। 'तो आप विश्वास मानिए, मैं उनसे ईर्ष्या न करता।' 'जब आपका जीवन सार्थक करने के लिए स्त्री इतनी आवश्यक है, तो आप शादी क्यों नहीं कर लेते?' मेहता ने नि:संकोच भाव से कहा - इसीलिए कि मैं समझता हूँ, मुक्त भोग आत्मा के विकास में बाधक नहीं होता। विवाह तो आत्मा को और जीवन को पिंजरे में बंद कर देता है। खन्ना ने इसका समर्थन किया - बंधन और निग्रह पुरानी थ्योरियाँ हैं। नई थ्योरी है मुक्त भोग। मालती ने चोटी पकड़ी - तो अब मिसेज खन्ना को तलाक के लिए तैयार रहना चाहिए। 'तलाक का बिल तो हो।' 'शायद उसका पहला उपयोग आप ही करेंगे?' कामिनी ने मालती की ओर विष-भरी आँखों से देखा और मुँह सिकोड़ लिया, मानो कह रही है - खन्ना तुम्हें मुबारक रहें, मुझे परवाह नहीं। मालती ने मेहता की तरफ देख कर कहा - इस विषय में आपके क्या विचार हैं मिस्टर मेहता? मेहता गंभीर हो गए। वह किसी प्रश्न पर अपना मत प्रकट करते थे, तो जैसे अपनी सारी आत्मा उसमें डाल देते थे। 'विवाह को मैं सामाजिक समझौता समझता हूँ और उसे तोड़ने का अधिकार न पुरुष को है, न स्त्री को। समझौता करने के पहले आप स्वाधीन हैं, समझौता हो जाने के बाद आपके हाथ कट जाते हैं।' 'तो आप तलाक के विरोधी हैं, क्यों?' 'पक्का।' 'और मुक्त भोग वाला सिद्धांत?' 'वह उनके लिए है, जो विवाह नहीं करना चाहते।' 'अपनी आत्मा का संपूर्ण विकास सभी चाहते हैं, फिर विवाह कौन करे और क्यों करे?' 'इसीलिए कि मुक्ति सभी चाहते हैं, पर ऐसे बहुत कम हैं, जो लोभ से अपना गला छुड़ा सकें'। 'आप श्रेष्ठ किसे समझते हैं, विवाहित जीवन को या अविवाहित जीवन को? 'समाज की दृष्टि से विवाहित जीवन को, व्यक्ति की दृष्टि से अविवाहित जीवन को।' धनुष-यज्ञ का अभिनय निकट था। दस से एक तक धनुष-यज्ञ, एक से तीन तक प्रहसन, यह प्रोगाम था। भोजन की तैयारी शुरू हो गई। मेहमानों के लिए बँगले में रहने का अलग-अलग प्रबंध था। खन्ना-परिवार के लिए दो कमरे रखे गए थे। और भी कितने ही मेहमान आ गए थे। सभी अपने-अपने कमरे में गए और कपड़े बदल-बदल कर भोजनालय में जमा हो गए। यहाँ छूत-छात का कोई भेद न था। सभी जातियों और वर्णों के लोग साथ भोजन करने बैठे। केवल संपादक ओंकारनाथ सबसे अलग अपने कमरे में फलाहार करने गए। और कामिनी खन्ना को सिरदर्द हो रहा था, उन्होंने भोजन करने से इनकार किया। भोजनालय में मेहमानों की संख्या पच्चीस से कम न थी। शराब भी थी और माँस भी। इस उत्सव के लिए रायसाहब अच्छी किस्म की शराब खास तौर पर मँगवाते थे? खींची जाती थी दवा के नाम से, पर होती थी खालिस शराब। माँस भी कई तरह के पकते थे, कोफते, कबाब और पुलाव। मुर्गा, मुर्गियाँ, बकरा, हिरन, तीतर, मोर जिसे जो पसंद हो, वह खाए। भोजन शुरू हो गया तो मिस मालती ने पूछा - संपादक जी कहाँ रह गए? किसी को भेजो रायसाहब, उन्हें पकड़ लाएँ। रायसाहब ने कहा - वह वैष्णव हैं, उन्हें यहाँ बुला कर क्यों बेचारे का धर्म नष्ट करोगी? बड़ा ही आचारनिष्ठ आदमी है। अजी और कुछ न सही, तमाशा तो रहेगा।' सहसा एक सज्जन को देख कर उसने पुकारा - आप भी तशरीफ रखते हैं मिर्जा खुर्शेद, यह काम आपके सुपुर्द। आपकी लियाकत की परीक्षा हो जायगी। मिर्जा खुर्शेद गोरे-चिट्टे आदमी थे, भूरी-भूरी मूँछें, नीली आँखें, दोहरी देह, चाँद के बाल सफाचट। छकलिया अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहने थे। ऊपर से हैट लगा लेते थे। कौंसिल के मेंबर थे, पर फलाहार समय खर्राटे लेते रहते थे। वोटिंग के समय चौंक पड़ते थे और नेशनलिस्टों की तरफ से वोट देते थे। सूफी मुसलमान थे। दो बार हज कर आए थे, मगर शराब खूब पीते थे। कहते थे, जब हम खुदा का एक हुक्म भी कभी नहीं मानते, तो दीन के लिए क्यों जान दें। बड़े दिल्लगीबाज, बेफिकरे जीव थे। पहले बसरे में ठीके का कारोबार करते थे। लाखों कमाए, मगर शामत आई कि एक मेम से आशनाई कर बैठे। मुकदमेबाजी हुई। जेल जाते-जाते बचे। चौबीस घंटे के अंदर मुल्क से निकल जाने का हुक्म हुआ। जो कुछ जहाँ था, वहीं छोड़ा, और सिर्फ पचास हजार ले कर भाग खड़े हुए। बंबई में उनके एजेंट थे। सोचा था, उनसे हिसाब-किताब कर लें और जो कुछ निकलेगा, उसी में जिंदगी काट देंगे, मगर एजेंटों ने जाल करके उनसे वह पचास हजार भी ऐंठ लिए। निराश हो कर वहाँ से लखनऊ चले। गाड़ी में एक महात्मा से साक्षात हुआ। महात्मा जी ने उन्हें सब्जबाग दिखा कर उनकी घड़ी, अंगूठियाँ, रुपए सब उड़ा लिए। बेचारे लखनऊ पहुँचे तो देह के कपड़ों के सिवा कुछ न था। राय साहब से पुरानी मुलाकात थी। कुछ उनकी मदद से और कुछ अन्य मित्रों की मदद से एक जूते की दुकान खोल ली। वह अब लखनऊ की सबसे चलती हुई जूते की दुकान थी, चार-पाँच सौ रोज की बिक्री थी। जनता को उन पर थोड़े ही दिनों में इतना विश्वास हो गया कि एक बड़े भारी मुस्लिम ताल्लुकेदार को नीचा दिखा कर कौंसिल में पहुँच गए। अपने जगह पर बैठे-बैठे बोले - जी नहीं, मैं किसी का दीन नहीं बिगाड़ता। यह काम आपको खुद करना चाहिए। मजा तो जब है कि आप उन्हें शराब पिला कर छोड़ें। यह आपके हुस्न के जादू की आजमाइश है। चारों तरफ से आवाजें आईं - हाँ-हाँ, मिस मालती, आज अपना कमाल दिखाइए। मालती ने मिर्जा को ललकारा - कुछ इनाम दोगे? 'सौ रुपए की एक थैली।' 'हुश! सौ रुपए! लाख रुपए का धर्म बिगाडूँ सौ के लिए।' 'अच्छा, आप खुद अपनी फीस बताइए।' 'एक हजार, कौड़ी कम नहीं।' 'अच्छा, मंजूर।' 'जी नहीं, ला कर मेहता जी के हाथ में रख दीजिए।' मिर्जा जी ने तुरंत सौ रुपए का नोट जेब से निकाला और उसे दिखाते हुए खड़े हो कर बोले- भाइयो! यह हम सब मरदों की इज्जत का मामला है। अगर मिस मालती की फरमाइश न पूरी हुई, तो हमारे लिए कहीं मुँह दिखाने की जगह न रहेगी। अगर मेरे पास रुपए होते, तो मैं मिस मालती की एक-एक अदा पर एक-एक लाख कुरबान कर देता। एक पुराने शायर ने अपने माशूक के एक काले तिल पर समरकंद और बोखारा के सूबे कुरबान कर दिए थे। आज आप सभी साहबों की जवाँमरदी और हुस्नपरस्ती का इम्तहान है। जिसके पास जो कुछ हो, सच्चे सूरमा की तरह निकाल कर रख दे। आपको इल्म की कसम, माशूक की अदाओं की कसम, अपनी इज्जत की कसम, पीछे कदम न हटाइए। मरदों! रुपए खर्च हो जाएँगे, नाम हमेशा के लिए रह जायगा। ऐसा तमाशा लाखों में भी सस्ता है। देखिए, लखनऊ के हसीनों की रानी एक जाहिद पर अपने हुस्न का मंत्र कैसे चलाती है? भाषण समाप्त करते ही मिर्जा जी ने हर एक की जेब की तलाशी शुरू कर दी। पहले मिस्टर खन्ना की तलाशी हुई। उनकी जेब से पाँच रुपए निकले। मिर्जा ने मुँह फीका करके कहा - वाह खन्ना साहब, वाह! नाम बड़े दर्शन थोड़े, इतनी कंपनियों के डाइरेक्टर, लाखों की आमदनी और आपके जेब में पाँच रुपए। लाहौल विला कूवत कहाँ हैं मेहता? आप जरा जा कर मिसेज खन्ना से कम-से कम सौ रुपए वसूल कर लाएँ। खन्ना खिसिया कर बोले - अजी, उनके पास एक पैसा भी न होगा। कौन जानता था कि यहाँ आप तलाशी लेना शुरू करेंगे? 'खैर, आप खामोश रहिए। हम अपनी तकदीर तो आजमा लें।' 'अच्छा, तो मैं जा कर उनसे पूछता हूँ।' 'जी नहीं, आप यहाँ से हिल नहीं सकते। मिस्टर मेहता, आप फिलासफर हैं, मनोविज्ञान के पंडित। देखिए, अपनी भद न कराइएगा।' मेहता शराब पी कर मस्त हो जाते थे। उस मस्ती में उनका दर्शन उड़ जाता था और विनोद सजीव हो जाता था। लपक कर मिसेज खन्ना के पास गए और पाँच मिनट ही में मुँह लटकाए लौट आए। मिर्जा ने पूछा - अरे, क्या खाली हाथ? रायसाहब हँसे - काजी के घर चूहे भी सयाने। मिर्जा ने कहा - हो बड़े खुशनसीब खन्ना, खुदा की कसम। मेहता ने कहकहा मारा और जेब से सौ-सौ रुपए के पाँच नोट निकाले। मिर्जा ने लपक कर उन्हें गले लगा लिया। चारों तरफ से आवाजें आने लगीं - कमाल है, मानता हूँ उस्ताद, क्यों न हो, फिलासफर ही जो ठहरे! मिर्जा ने नोटों को आँखों से लगा कर कहा - भई मेहता, आज से मैं तुम्हारा शागिर्द हो गया। बताओ, क्या जादू मारा? मेहता अकड़ कर, लाल-लाल आँखों से ताकते हुए बोले - अजी, कुछ नहीं। ऐसा कौन-सा बड़ा काम था। जा कर पूछा, अंदर आऊँ? बोलीं - आप हैं मेहता जी, आइए। मैंने अंदर जा कर कहा - वहाँ लोग ब्रिज खेल रहे हैं। मिस मालती पाँच सौ रुपए हार गई हैं और अपने अंगूठी बेच रही हैं। अंगूठी एक हजार से कम की नहीं है। आपने तो देखा है। बस वही। आपके पास रुपए हों, तो पाँच सौ रुपए दे कर एक हजार की चीज ले लीजिए। ऐसा मौका फिर न मिलेगा। मिस मालती ने इस वक्त रुपए न दिए, तो बेदाग निकल जाएँगी। पीछे से कौन देता है, शायद इसीलिए उन्होंने अंगूठी निकाली है कि पाँच सौ रुपए किसके पास धरे होंगे। मुस्कराईं और चट अपने बटुवे से पाँच नोट निकाल कर दे दिए, और बोलीं - मैं बिना कुछ लिए घर से नहीं निकलती। न जाने कब क्या जरूरत पड़े। खन्ना खिसिया कर बोले - जब हमारे प्रोफेसरों का यह हाल है, तो यूनिवर्सिटी का ईश्वर ही मालिक है। खुर्शेद ने घाव पर नमक छिड़का - अरे, तो ऐसी कौन-सी बड़ी रकम है, जिसके लिए आपका दिल बैठा जाता है। खुदा झूठ न बुलवाए तो यह आपकी एक दिन की आमदनी है। समझ लीजिएगा, एक दिन बीमार पड़ गए, और जायगा भी तो मिस मालती ही के हाथ में। आपके दर्दे जिगर की दवा मिस मालती ही के पास तो है। मालती ने ठोकर मारी - देखिए मिर्जा जी, तबेले में लतिआहुज अच्छी नहीं। मिर्जा ने दुम हिलाई - कान पकड़ता हूँ देवी जी! मिस्टर तंखा की तलाशी हुई। मुश्किल से दस रुपए निकले, मेहता की जेब से केवल अठन्नी निकली। कई सज्जनों ने एक-एक, दो-दो रुपए खुद दिए। हिसाब जोड़ा गया, तो तीन सौ की कमी थी। यह कमी रायसाहब ने उदारता के साथ पूरी कर दी। संपादक जी ने मेवे और फल खाए थे और जरा कमर सीधी कर रहे थे कि रायसाहब ने जा कर कहा - आपको मिस मालती याद कर रही हैं। खुश हो कर बोले - मिस मालती मुझे याद कर रही हैं, धन्य-भाग! रायसाहब के साथ ही हाल में आ विराजे। उधर नौकरों ने मेजें साफ कर दी थीं। मालती ने आगे बढ़ कर उनका स्वागत किया। संपादक जी ने नम्रता दिखाई - बैठिए, तकल्लुफ न कीजिए। मैं इतना बड़ा आदमी नहीं हूँ। मालती ने श्रद्धा-भरे स्वर में कहा - आप तकल्लुफ समझते होंगे, मैं समझती हूँ, मैं अपना सम्मान बढ़ा रही हूँ, यों आप अपने को कुछ न समझें और आपको शोभा भी यही देता है, लेकिन यहाँ जितने सज्जन जमा हैं, सभी आपकी राष्ट्र और साहित्य-सेवा से भली-भाँति परिचित हैं। आपने इस क्षेत्र में जो महत्वपूर्ण काम किया है, अभी चाहे लोग उसका मूल्य न समझें, लेकिन वह समय बहुत दूर नहीं है-मैं तो कहती हूँ वह समय आ गया है - जब हर एक नगर में आपके नाम की सड़कें बनेंगी, क्लब बनेंगे, टाऊनहालों में आपके चित्र लटकाए जाएँगे। इस वक्त जो थोड़ी बहुत जागृति है, वह आप ही के महान उद्योगों का प्रसाद है। आपको यह जान कर आनंद होगा कि देश में अब आपके ऐसे अनुयायी पैदा हो गए हैं, जो आपके देहात-सुधर आंदोलन में आपका हाथ बँटाने को उत्सुक हैं, और उन सज्जनों की बड़ी इच्छा है कि यह काम संगठित रूप से किया जाय और एक देहात सुधार-संघ स्थापित किया जाय, जिसके आप सभापति हों। ओंकारनाथ के जीवन में यह पहला अवसर था कि उन्हें चोटी के आदमियों में इतना सम्मान मिले। यों वह कभी-कभी आम जलसों में बोलते थे और कई सभाओं के मंत्री और उपमंत्री भी थे, लेकिन शिक्षित-समाज ने अब तक उनकी उपेक्षा ही की थी। उन लोगों में वह किसी तरह मिल न पाते थे, इसलिए आम जलसों में उनकी निष्क्रियता और स्वार्थांधता की शिकायत किया करते थे, और अपने पत्र में एक-एक को रगेदते थे। कलम तेज थी, वाणी कठोर, साफगोई की जगह उच्छृंखलता कर बैठते थे, इसीलिए लोग उन्हें खाली ढोल समझते थे। उसी समाज में आज उनका इतना सम्मान! कहाँ हैं आज 'स्वराज' और 'स्वाधीन भारत' और 'हंटर' के संपादक, आ कर देखें और अपना कलेजा ठंडा करें। आज अवश्य ही देवताओं की उन पर कृपादृष्टि है। सद्योग कभी निष्फल नहीं जाता, ॠषियों का वाक्य है। वह स्वयं अपने नजरों में उठ गए। कृतज्ञता से पुलकित हो कर बोले - देवी जी, आप तो मुझे काँटों में घसीट रही हैं। मैंने तो जनता की जो कुछ भी सेवा की, अपना कर्तव्य समझ कर की। मैं इस सम्मान को व्यक्ति का सम्मान नहीं, उस उद्देश्य का सम्मान समझ रहा हूँ, जिसके लिए मैंने अपना जीवन अर्पित कर दिया है, लेकिन मेरा नम्र-निवेदन है कि प्रधान का पद किसी प्रभावशाली पुरुष को दिया जाय, मैं पदों में विश्वास नहीं रखता। मैं तो सेवक हूँ और सेवा करना चाहता हूँ। मिस मालती इसे किसी तरह स्वीकार नहीं कर सकती? सभापति पंडित जी को बनना पड़ेगा। नगर में उसे ऐसा प्रभावशाली व्यक्ति दूसरा नहीं दिखाई देता। जिसकी कलम में जादू है, जिसकी जबान में जादू है, जिसके व्यक्तित्व में जादू है, वह कैसे कहता है कि वह प्रभावशाली नहीं है। वह जमाना गया, जब धन और प्रभाव में मेल था। अब प्रतिभा और प्रभाव के मेल का युग है। संपादक जी को यह पद अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा। मंत्री मिस मालती होंगी। इस सभा के लिए एक हजार का चंदा भी हो गया है और अभी तो सारा शहर और प्रांत पड़ा हुआ है। चार-पाँच लाख मिल जाना मामूली बात है। ओंकारनाथ पर कुछ नशा-सा चढ़ने लगा। उनके मन में जो एक प्रकार की फुरहरी-सी उठ रही थी, उसने गंभीर उत्तरदायित्व का रूप धारण कर लिया। बोले - मगर यह आप समझ लें, मिस मालती, कि यह बड़ी जिम्मेदारी का काम है और आपको अपना बहुत समय देना पड़ेगा। मैं अपनी तरफ से आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप सभा-भवन में मुझे सबसे पहले मौजूद पाएँगी। मिर्जा जी ने पुचारा दिया - आपका बड़े-से-बड़ा दुश्मन भी यह नहीं कह सकता कि आप अपना कर्ज अदा करने में कभी किसी से पीछे रहे। मिस मालती ने देखा, शराब कुछ-कुछ असर करने लगी है, तो और भी गंभीर बन कर बोलीं - अगर हम लोग इस काम की महानता न समझते, तो न यह सभा स्थापित होती और न आप इसके सभापति होते। हम किसी रईस या ताल्लुकेदार को सभापति बना कर धन खूब बटोर सकते हैं, और सेवा की आड़ में स्वार्थ सिद्ध कर सकते हैं, लेकिन यह हमारा उद्देश्य नहीं। हमारा एकमात्र उद्देश्य जनता की सेवा करना है। और उसका सबसे बड़ा साधन आपका पत्र है। हमने निश्चय किया है कि हर एक नगर और गाँव में उसका प्रचार किया जाय और जल्द-से-जल्द उसकी ग्राहक-संख्या को बीस हजार तक पहुँचा दिया जाए। प्रांत की सभी म्युनिसिपैलिटियों और जिला बोर्डो के चेयरमैन हमारे मित्र हैं। कई चेयरमैन तो यहीं विराजमान हैं। अगर हर एक ने पाँच-पाँच सौ प्रतियाँ भी ले लीं, तो पचीस हजार प्रतियाँ तो आप यकीनी समझें। फिर रायसाहब और मिर्जा साहब की यह सलाह है कि कौंसिल में इस विषय का एक प्रस्ताव रखा जाय कि प्रत्येक गाँव के लिए 'बिजली' की एक प्रति सरकारी तौर पर मँगाई जाय, या कुछ वार्षिक सहायता स्वीकार की जाय और हमें पूरा विश्वास है कि यह प्रस्ताव पास हो जायगा। ओंकारनाथ ने जैसे नशे में झूमते हुए कहा - हमें गवर्नर के पास डेपुटेशन ले जाना होगा। मिर्जा खुर्शेद बोले - जरूर-जरूर! 'उनसे कहना होगा कि किसी सभ्य शासन के लिए यह कितनी लज्जा और कलंक की बात है कि ग्रामोत्थान का अकेला पत्र होने पर भी 'बिजली' का अस्तित्व तक नहीं स्वीकार किया जाता।' मिर्जा खुर्शेद ने कहा - अवश्य-अवश्य! 'मैं गर्व नहीं करता। अभी गर्व करने का समय नहीं आया, लेकिन मुझे इसका दावा है कि ग्राम्य-संगठन के लिए 'बिजली' ने जितना उद्योग किया है...' मिस्टर मेहता ने सुधारा - नहीं महाशय, तपस्या कहिए। 'मैं मिस्टर मेहता को धन्यवाद देता हूँ। हाँ, इसे तपस्या ही कहना चाहिए, बड़ी कठोर तपस्या। 'बिजली' ने जो तपस्या की है, वह इस प्रांत के ही नहीं, इस राष्ट्र के इतिहास में अभूतपूर्व है।' मिर्जा खुर्शेद बोले - जरूर-जरूर! मिस मालती ने एक पेग और दिया - हमारे संघ ने यह निश्चय भी किया है कि कौंसिल में अब की जो जगह खाली हो, उसके लिए आपको उम्मीदवार खड़ा किया जाए। आपको केवल अपनी स्वीकृति देनी होगी। शेष सारा काम लोग कर लेंगे। आपको न खर्च से मतलब, न प्रोपेगेंडा, न दौड़-धूप से। ओंकारनाथ की आँखों की ज्योति दुगुनी हो गई। गर्वपूर्ण नम्रता से बोले - मैं आप लोगों का सेवक हूँ, मुझसे जो काम चाहे ले लीजिए। हम लोगों को आपसे ऐसी ही आशा है। हम अब तक झूठे देवताओें के सामने नाक रगड़ते-रगड़ते हार गए और कुछ हाथ न लगा। अब हमने आपमें सच्चा पथ-प्रदर्शक, सच्चा गुरू पाया है। और इस शुभ दिन के आनंद में आज हमें एकमन, एकप्राण हो कर अपने अहंकार को, अपने दंभ को तिलांजलि दे देनी चाहिए। हममें आज से कोई ब्राह्मण नहीं है, कोई शूद्र नहीं है, कोई हिंदू नहीं है, कोई मुसलमान नहीं है, कोई ऊँच नहीं है, कोई नीच नहीं है। हम सब एक ही माता के बालक, एक ही गोद के खेलने वाले, एक ही थाली के खाने वाले भाई हैं। जो लोग भेद-भाव में विश्वास रखते हैं, जो लोग पृथकता और कट्टरता के उपासक हैं, उनके लिए हमारी सभा में स्थान नहीं है। जिस सभा के सभापति पूज्य ओंकारनाथ जैसे विशाल-हृदय व्यक्ति हों, उस सभा में ऊँच-नीच का, खान-पान का और जाति-पाँति का भेद नहीं हो सकता। जो महानुभाव एकता में और राष्ट्रीयता में विश्वास न रखते हों, वे कृपा करके यहाँ से उठ जायँ। रायसाहब ने शंका की - मेरे विचार में एकता का यह आशय नहीं है कि सब लोग खान-पान का विचार छोड़ दें। मैं शराब नहीं पीता, तो क्या मुझे इस सभा से अलग हो जाना पडेग़ा? मालती ने निर्मम स्वर में कहा - बेशक अलग हो जाना पड़ेगा। आप इस संघ में रह कर किसी तरह का भेद नहीं रख सकते। मेहता जी ने घड़े को ठोंका - मुझे संदेह है कि हमारे सभापतिजी स्वयं खान-पान की एकता में विश्वास नहीं रखते हैं। ओंकारनाथ का चेहरा जर्द पड़ गया। इस बदमाश ने यह क्या बेवक्त की शहनाई बजा दी। दुष्ट कहीं गड़े मुर्दे न उखाड़ने लगे, नहीं यह सारा सौभाग्य स्वप्न की भाँति शून्य में विलीन हो जायगा। मिस मालती ने उनके मुँह की ओर जिज्ञासा की दृष्टि से देख कर दृढ़ता से कहा - आपका संदेह निराधार है मेहता महोदय! क्या आप समझते हैं कि राष्ट्र की एकता का ऐसा अनन्य उपासक, ऐसा उदारचेता पुरूष, ऐसा रसिक कवि इस निरर्थक और लज्जाजनक भेद को मान्य समझेगा? ऐसी शंका करना उसकी राष्ट्रीयता का अपमान करना है। ओंकारनाथ का मुख-मंडल प्रदीप्त हो गया। प्रसन्नता और संतोष की आभा झलक पड़ी। मालती ने उसी स्वर में कहा - और इससे भी अधिक उनकी पुरुष-भावना का। एक रमणी के हाथों से शराब का प्याला पा कर वह कौन भद्र पुरुष होगा, जो इनकार कर दे - यह तो नारी-जाति का अपमान होगा, उस नारी-जाति का, जिसके नयन-बाणों से अपने हृदय को बिंधवाने की लालसा पुरुष-मात्र में होती है, जिसकी अदाओं पर मर-मिटने के लिए बड़े-बड़े महीप लालायित रहते हैं। लाइए, बोतल और प्याले, और दौर चलने दीजिए। इस महान अवसर पर, किसी तरह की शंका, किसी तरह की आपत्ति राष्ट्र-द्रोह से कम नहीं। पहले हम अपने सभापति की सेहत का जाम पीएँगे। बर्फ, शराब और सोडा पहले ही से तैयार था। मालती ने ओंकारनाथ को अपने हाथों से लाल विष से भरा हुआ ग्लास दिया, और उन्हें कुछ ऐसी जादू-भरी चितवन से देखा कि उनकी सारी निष्ठा, सारी वर्ण-श्रेष्ठता काफूर हो गई। मन ने कहा सारा आचार-विचार परिस्थितियों के अधीन है। आज तुम दरिद्र हो, किसी मोटरकार को धूल उड़ाते देखते हो, तो ऐसा बिगड़ते हो कि उसे पत्थरों से चूर-चूर कर दो, लेकिन क्या तुम्हारे मन में कार की लालसा नहीं है? परिस्थिति ही विधि है और कुछ नहीं। बाप-दादों ने नहीं पी थी, न पी हो। उन्हें ऐसा अवसर ही कब मिला था - उनकी जीविका पोथी-पत्रों पर थी। शराब लाते कहाँ से, और पीते भी तो जाते कहाँ? फिर वह तो रेलगाड़ी पर न चढ़ते थे, कल का पानी न पीते थे, अंग्रेजी पढ़ना पाप समझते थे। समय कितना बदल गया है। समय के साथ अगर नहीं चल सकते, तो वह तुम्हें पीछे छोड़ कर चला जायगा। ऐसी महिला के कोमल हाथों से विष भी मिले, तो शिरोधार्य करना चाहिए। जिस सौभाग्य के लिए बड़े-बड़े राजे तरसते हैं, वह आज उनके सामने खड़ा है। क्या वह उसे ठुकरा सकते हैं? उन्होंने ग्लास ले लिया और सिर झुका कर अपनी कृतज्ञता दिखाते हुए एक ही साँस में पी गए और तब लोगों को गर्व भरी आँखों से देखा, मानो कह रहे हों, अब तो आपको मुझ पर विश्वास आया। क्या समझते हैं, मैं निरा पोंगा पंडित हूँ। अब तो मुझे दंभी और पाखंडी कहने का साहस नहीं कर सकते? हाल में ऐसा शोरगुल मचा कि कुछ न पूछो, जैसे पिटारे में बंद कहकहे निकल पड़े हों! वाह देवी जी! क्या कहना है! कमाल है मिस मालती, कमाल है। तोड़ दिया, नमक का कानून तोड़ दिया, धर्म का किला तोड़ दिया, नेम का घड़ा फोड़ दिया! ओंकारनाथ के कंठ के नीचे शराब का पहुँचना था कि उनकी रसिकता वाचाल हो गई। मुस्करा कर बोले - मैंने अपने धर्म की थाती मिस मालती के कोमल हाथों में सौंप दी और मुझे विश्वास है, वह उसकी यथोचित रक्षा करेंगी। उनके चरण-कमलों के इस प्रसाद पर मैं ऐसे एक हजार धर्मो को न्योछावर कर सकता हूँ। कहकहों से हाल गूँज उठा। संपादक जी का चेहरा फूल उठा था, आँखें झुकी पड़ती थीं। दूसरा ग्लास भर कर बोले - यह मिल मालती की सेहत का जाम है। आप लोग पिएँ और उन्हें आशीर्वाद दें। लोगों ने फिर अपने-अपने ग्लास खाली कर दिए। उसी वक्त मिर्जा खुर्शेद ने एक माला ला कर संपादक जी के गले में डाल दी और बोले - सज्जनों, फिदवी ने अभी अपने पूज्य सदर साहब की शान में एक कसीदा कहा है। आप लोगों की इजाजत हो तो सुनाऊँ। चारों तरफ से आवाजें आई - हाँ-हाँ, जरूर सुनाइए। ओंकारनाथ भंग तो आए दिन पिया करते थे और उनका मस्तिष्क उसका अभ्यस्त हो गया था, मगर शराब पीने का उन्हें यह पहला अवसर था। भंग का नशा मंथर गति से एक स्वप्न की भाँति आता था और मस्तिष्क पर मेघ के समान छा जाता था। उनकी चेतना बनी रहती थी। उन्हें खुद मालूम होता था कि इस समय उनकी वाणी बड़ी लच्छेदार है, और उनकी कल्पना बहुत प्रबल। शराब का नशा उनके ऊपर सिंह की भाँति झपटा और दबोच बैठा। वह कहते कुछ हैं, मुँह से निकलता कुछ है। फिर यह ज्ञान भी जाता रहा। वह क्या कहते हैं और क्या करते हैं, इसकी सुधि ही न रही। यह स्वप्न का रोमानी वैचित्रय न था, जागृति का वह चक्कर था, जिसमें साकार निराकार हो जाता है। न जाने कैसे उनके मस्तिष्क में यह कल्पना जाग उठी कि कसीदा पढ़ना कोई बड़ा अनुचित काम है। मेज पर हाथ पटक कर बोले - नहीं, कदापि नहीं। यहाँ कोई कसीदा नईं ओगा, नईं ओगा। हम सभापति हैं। हमारा हुक्म है। हम अबी इस सब को तोड़ सकते हैं। अबी तोड़ सकते हैं। सभी को निकाल सकते हैं। कोई हमारा कुछ नईं कर सकता। हम सभापति हैं। कोई दूसरा सभापति नईं है। मिर्जा ने हाथ जोड़ कर कहा - हुजूर, इस कसीदे में तो आपकी तारीफ की गई है। संपादक जी ने लाल, पर ज्योतिहीन नेत्रों से देखा - तुम हमारी तारीफ क्यों की? क्यों की? बोलो, क्यों हमारी तारीफ की? हम किसी का नौकर नईं है। किसी के बाप का नौकर नईं है, किसी साले का दिया नहीं खाते। हम खुद संपादक है। हम 'बिजली' का संपादक है। हम उसमें सबका तारीफ करेगा। देवी जी, हम तुम्हारा तारीफ नईं करेगा। हम कोई बड़ा आदमी नईं है। हम सबका गुलाम है। हम आपका चरण-रज है। मालती देवी हमारी लक्ष्मी, हमारी सरस्वती, हमारी राधा... यह कहते हुए वे मालती के चरणों की तरफ झुके और मुँह के बल फर्श पर गिर पड़े। मिर्जा खुर्शेद ने दौड़ कर उन्हें सँभाला और कुर्सियाँ हटा कर वहीं जमीन पर लिटा दिया। फिर उनके कानों के पास मुँह ले जा कर बोले - राम-राम सत्त है! कहिए तो आपका जनाजा निकालें? रायसाहब ने कहा - कल देखना कितना बिगड़ता है। एक-एक को अपने पत्र में रगेदेगा। और ऐसा रगेदेगा कि आप भी याद करेंगे! एक ही दुष्ट है, किसी पर दया नहीं करता। लिखने में तो अपना जोड़ नहीं रखता। ऐसा गधा आदमी कैसे इतना अच्छा लिखता है, यह रहस्य है। कई आदमियों ने संपादक जी को उठाया और ले जा कर उनके कमरे में लिटा दिया। उधर पंडाल में धनुष-यज्ञ हो रहा था। कई बार इन लोगों को बुलाने के लिए आदमी आ चुके थे। कई हुक्काम भी पंडाल में आ पहुँचे थे। लोग उधर जाने को तैयार हो रहे थे कि सहसा एक अफगान आ कर खड़ा हो गया। गोरा रंग, बड़ी-बड़ी मूँछें, ऊँचा कद, चौड़ा सीना, आँखों में निर्भयता का उन्माद भरा हुआ, ढीला नीचा कुरता, पैरों में शलवार, जरी के काम की सदरी, सिर पर पगड़ी और कुलाह, कंधों में चमड़े का बेग लटकाए, कंधों पर बंदूक रखे और कमर में तलवार बाँधे न जाने किधर से आ खड़ा हो गया और गरज कर बोला - खबरदार! कोई यहाँ से मत जाओ। अमारा साथ का आदमी पर डाका पड़ा है। यहाँ का जो सरदार है, वह अमारा आदमी को लूट लिया है, उसका माल तुमको देना होगा। एक-एक कौड़ी देना होगा। कहाँ है सरदार, उसको बुलाओ! रायसाहब ने सामने आ कर क्रोध-भरे स्वर में कहा - कैसी लूट! कैसा डाका? यह तुम लोगों का काम है। यहाँ कोई किसी को नहीं लूटता। साफ-साफ कहो, क्या मामला है? अफगान ने आँखें निकालीं और बंदूक का कुंदा जमीन पर पटक कर बोला - अमसे पूछता है कैसा लूट, कैसा डाका? तुम लूटता है, तुम्हारा आदमी लूटता है। अम यहाँ की कोठी का मालिक है। अमारी कोठी में पचीस जवान हैं। अमारा आदमी रुपए तहसील कर लाता था। एक हजार। वह तुम लूट लिया, और कहता है, कैसा डाका? अम बताएगा, कैसा डाका होता है। अमारा पचीसों जवान अबी आता है। अम तुम्हारा गाँव लूट लेगा। कोई साला कुछ नईं कर सकता, कुछ नईं कर सकता। खन्ना ने अफगान के तेवर देखे तो चुपके से उठे कि निकल जायँ। सरदार ने जोर से डाँटा - कां जाता तुम? कोई कईं नईं जा सकता, नईं अम सबको कतल कर देगा। अबी फैर कर देगा। अमारा तुम कुछ नईं कर सकता। अम तुम्हारा पुलिस से नईं डरता। पुलिस का आदमी अमारा सकल देख कर भागता है। अमारा अपना कांसल है, अम उसको खत लिख कर लाट साहब के पास जा सकता है। अम याँ से किसी को नईं जाने देगा। तुम अमारा एक हजार रूपया लूट लिया। अमारा रूपया नईं देगा, तो अम किसी को जिंदा नईं छोड़ेगा। तुम सब आदमी दूसरों के माल को लूट करता है और याँ माशूक के साथ शराब पीता है। मिस मालती उसकी आँख बचा कर कमरे से निकलने लगीं कि वह बाज की तरह टूट कर उनके सामने आ खड़ा हुआ और बोला - तुम इन बदमाशों से अमारा माल दिलवाए, नईं अम तुमको उठा ले जायगा अपने कोठी में जशन मनाएगा। तुम्हारा हुस्न पर अम आशिक हो गया। या तो अमको एक हजार अबी-अबी दे दे या तुमको अमारे साथ चलना पड़ेगा। तुमको अम नईं छोड़ेगा। अम तुम्हारा आशिक हो गया है। अमारा दिल और जिगर फटा जाता है। अमारा इस जगह पचीस जवान है। इस जिला में हमारा पाँच सौ जवान काम करता है। अम अपने कबीले का खान है। अमारे कबीला में दस हजार सिपाही हैं। अम काबुल के अमीर से लड़ सकता है। अंग्रेज सरकार अमको बीस हजार सालाना खिराज देता है। अगर तुम हमारा रूपया नईं देगा, तो अम गाँव लूट लेगा और तुम्हारा माशूक को उठा ले जायगा। खून करने में अमको लुतफ आता है। अम खून का दरिया बहा देगा। मजलिस पर आतंक छा गया। मिस मालती अपना चहकना भूल गईं। खन्ना की पिंडलियाँ काँप रही थीं। बेचारे चोट-चपेट के भय से एक-मंजिले बँगले में रहते थे। जीने पर चढ़ना उनके लिए सूली पर चढ़ने से कम न था। गरमी में भी डर के मारे कमरे में सोते थे। रायसाहब को ठकुराई का अभिमान था। वह अपने ही गाँव में एक पठान से डर जाना हास्यास्पद समझते थे, लेकिन उसकी बंदूक को क्या करते? उन्होंने जरा भी चीं-चपड़ किया और इसने बंदूक चलाई। हूश तो होते ही हैं यह सब, और निशाना भी इस सबों का कितना अचूक होता है, अगर उसके हाथ में बंदूक न होती, तो रायसाहब उससे सींग मिलाने को भी तैयार हो जाते। मुश्किल यही थी कि दुष्ट किसी को बाहर नहीं जाने देता। नहीं, दम-के-दम में सारा गाँव जमा हो जाता और इसके पूरे जत्थे को पीट-पाट कर रख देता। आखिर उन्होंने दिल मजबूत किया और जान पर खेल कर बोले - हमने आपसे कह दिया कि हम चोर-डाकू नहीं हैं। मैं यहाँ की कौंसिल का मेंबर हूँ और यह देवी जी लखनऊ की सुप्रसिद्ध डाक्टर हैं। यहाँ सभी शरीफ और इज्जतदार लोग जमा हैं। हमें बिलकुल खबर नहीं, आपके आदमियों को किसने लूटा? आप जा कर थाने में रपट कीजिए। खान ने जमीन पर पैर पटका, पैंतरे बदले और बंदूक को कंधों से उतार कर हाथ में लेता हुआ दहाड़ा - मत बक-बक करो। काउंसिल का मेंबर को अम इस तरह पैरों से कुचल देता है (जमीन पर पाँव रगड़ता है) अमारा हाथ मजबूत है, अमारा दिल मजबूत है, अम खुदाताला के सिवा और किसी से नईं डरता। तुम अमारा रूपया नहीं देगा, तो अम (रायसाहब की तरफ इशारा कर) अभी तुमको कतल कर देगा। अपने तरफ बंदूक की दोनाली देख कर रायसाहब झुक कर मेज के बराबर आ गए। अजीब मुसीबत में जान फँसी थी। शैतान बरबस कहे जाता है, तुमने हमारे रुपए लूट लिए। न कुछ सुनता है, न कुछ समझता है, न किसी को बाहर आने-जाने देता है। नौकर-चाकर, सिपाही-प्यादे, सब धनुष-यज्ञ देखने में मग्न थे। जमींदारों के नौकर यों भी आलसी और काम-चोर होते हैं, जब तक दस दफे न पुकारा जाता, बोलते ही नहीं, और इस वक्त तो वे एक शुभ काम में लग हुए थे। धनुष-यज्ञ उनके लिए केवल तमाशा नहीं, भगवान की लीला थी, अगर एक आदमी भी इधर आ जाता, तो सिपाहियों को खबर हो जाती और दम भर में खान का सारा खानपन निकल जाता, दाढ़ी के एक-एक बाल नुच जाते। कितना गुस्सेवर है। होते भी तो जल्लाद हैं। न मरने का गम, न जीने की खुशी। मिर्जा साहब से अंग्रेजी में बोले - अब क्या करना चाहिए? मिर्जा साहब ने चकित नेत्रों से देखा - क्या बताऊँ, कुछ अक्ल काम नहीं करती। मैं आज अपना पिस्तौल घर ही छोड़ आया, नहीं मजा चखा देता। खन्ना रोना मुँह बना कर बोले - कुछ रुपए दे कर किसी तरह इस बला को टालिए। रायसाहब ने मालती की ओर देखा - देवी जी, अब आपकी क्या सलाह है? मालती का मुखमंडल तमतमा रहा था। बोलीं - होगा क्या, मेरी इतनी बेइज्जती हो रही है और आप लोग बैठे देख रहे हैं! बीस मर्दों के होते एक उजड्ड पठान मेरी इतनी दुर्गति कर रहा है और आप लोगों के खून में जरा भी गरमी नहीं आती! आपको जान इतनी प्यारी है? क्यों एक आदमी बाहर जा कर शोर नहीं मचाता? क्यों आप लोग उस पर झपट कर उसके हाथ से बंदूक नहीं छीन लेते? बंदूक ही तो चलाएगा? चलाने दो। एक या दो की जान ही तो जायगी? जाने दो। मगर देवी जी मर जाने को जितना आसान समझती थीं, और लोग न समझते थे। कोई आदमी बाहर निकलने की फिर हिम्मत करे और पठान गुस्से में आ कर दस-पाँच फैर कर दे, तो यहाँ सफाया हो जायगा। बहुत होगा, पुलिस उसे फाँसी सजा दे देगी। वह भी क्या ठीक। एक बड़े कबीले का सरदार है। उसे फाँसी देते हुए सरकार भी सोच-विचार करेगी। ऊपर से दबाव पड़ेगा। राजनीति के सामने न्याय को कौन पूछता है - हमारे ऊपर उलटे मुकदमे दायर हो जायँ और दंडकारी पुलिस बिठा दी जाय, तो आश्चर्य नहीं, कितने मजे से हँसी-मजाक हो रहा था। अब तक ड्रामा का आनंद उठाते होते। इस शैतान ने आ कर एक नई विपत्ति खड़ी कर दी, और ऐसा जान पड़ता है, बिना दो-एक खून किए, मानेगा भी नहीं। खन्ना ने मालती को फटकारा - देवी जी, आप तो हमें ऐसा लताड़ रही हैं, मानो अपने प्राण रक्षा करना कोई पाप है। प्राण का मोह प्राणि-मात्र में होता है और हम लोगों में भी हो, तो कोई लज्जा की बात नहीं। आप हमारी जान इतनी सस्ती समझती हैं, यह देख कर मुझे खेद होता है। एक हजार का ही तो मुआमला है। आपके पास मुफ्त के एक हजार हैं, उसे दे कर क्यों नहीं बिदा कर देतीं। आप खुद अपने बेइज्जती करा रही हैं, इसमें हमारा क्या दोष? रायसाहब ने गर्म हो कर कहा - अगर इसने देवी जी को हाथ लगाया, तो चाहे मेरी लाश यहीं तड़पने लगे, मैं उससे भिड़ जाऊँगा। आखिर वह भी आदमी ही तो है। मिर्जा साहब ने संदेह से सिर हिला कर कहा - रायसाहब, आप अभी तो इन सबों के मिजाज से वाकिफ नहीं हैं। यह फैर करना शुरू करेगा, तो फिर किसी को जिंदा न छोड़ेगा। इनका निशाना बेखता होता है। मि. तंखा बेचारे आने वाले चुनाव की समस्या सुलझाने आए थे। दस-पाँच हजार का वारा-न्यारा करके घर जाने का स्वप्न देख रहे थे। यहाँ जीवन ही संकट में पड़ गया। बोले - सबसे सरल उपाय वही है, जो अभी खन्ना जी ने बतलाया। एक हजार की ही बात और रुपए मौजूद हैं, तो आप लोग क्यों इतना सोच-विचार कर रहे हैं। मिस मालती ने तंखा को तिरस्कार-भरी आँखों से देखा! 'आप लोग इतने कायर हैं, यह मैं न समझती थी।' 'मैं भी यह न समझता था कि आपको रुपए इतने प्यारे हैं और वह भी मुफ्त के !' 'जब आप लोग मेरा अपमान देख सकते हैं, तो अपने घर की स्त्रियों का अपमान भी देख सकते होंगे?' 'तो आप भी पैसे के लिए अपने घर के पुरुषों को होम करने में संकोच न करेंगी।' खान इतनी देर तक झल्लाया हुआ-सा इन लोगों की गिटपिट सुन रहा था। एकाएक गरज कर बोला - अम अब नइऊ मानेगा। अम इतनी देर यहाँ खड़ा है, तुम लोग कोई जवाब नईं देता। (जेब से सीटी निकाल कर) अम तुमको एक लमहा और देता है, अगर तुम रूपया नईं देता तो अम सीटी बजायगा और अमारा पचीस जवान यहाँ आ जायगा। बस! फिर आँखों में प्रेम की ज्वाला भर कर उसने मिस मालती को देखा। तुम अमारे साथ चलेगा दिलदार! अम तुम्हारे ऊपर फिदा हो जायगा। अपना जान तुम्हारे कदमों पर रख देगा। इतना आदमी तुम्हारा आशिक है, मगर कोई सच्चा आशिक नईं है। सच्चा इश्क क्या है, अम दिखा देगा। तुम्हारा इशारा पाते ही अम अपने सीने में खंजर चुभा सकता है।' मिर्जा ने घिघिया कर कहा - देवी जी, खुदा के लिए इस मूजी को रुपए दे दीजिए। खन्ना ने हाथ जोड़ कर याचना की - हमारे ऊपर दया करो मिस मालती! रायसाहब तन कर बोले - हरगिज नहीं। आज जो कुछ होना है, हो जाने दीजिए। या तो हम खुद मर जाएँगे, या इन जालिमों को हमेशा के लिए सबक दे देंगे। तंखा ने रायसाहब को डाँट बताई - शेर की माँद में घुसना कोई बहादुरी नहीं है। मैं इसे मूर्खता समझता हूँ। मगर मिस मालती के मनोभाव कुछ और ही थे। खान के लालसा-प्रदीप्त नेत्रों ने उन्हें आश्वस्त कर दिया था और अब इस कांड में उन्हें मनचलेपन का आनंद आ रहा था। उनका हृदय कुछ देर इन नरपुंगवों के बीच में रह कर उसके बर्बर प्रेम का आनंद उठाने के लिए ललचा रहा था। शिष्ट प्रेम की दुर्बलता और निर्जीवता का उन्हें अनुभव हो चुका था। आज अक्खड़, अनगढ़ पठानों के उन्मत्त प्रेम के लिए उनका मन दौड़ रहा था, जैसे संगीत का आनंद उठाने के बाद कोई मस्त हाथियों की लड़ाई देखने के लिए दौड़े। उन्होंने खान साहब के सामने जा कर निश्शंक भाव से कहा - तुम्हें रुपए नहीं मिलेंगे। खान ने हाथ बढ़ा कर कहा- तो अम तुमको लूट ले जायगा। 'तुम इतने आदमियों के बीच से हमें नहीं ले जा सकते।' 'अम तुमको एक हजार आदमियों के बीच से ले जा सकता है।' 'तुमको जान से हाथ धोना पड़ेगा।' 'अम अपने माशूक के लिए अपने जिस्म का एक-एक बोटी नुचवा सकता है।' उसने मालती का हाथ पकड़ कर खींचा। उसी वक्त होरी ने कमरे में कदम रखा। वह राजा जनक का माली बना हुआ था और उसके अभिनय ने देहातियों को हँसाते-हँसाते लोटा दिया था। उसने सोचा, मालिक अभी तक क्यों नहीं आए? वह भी तो आ कर देखें कि देहाती इस काम में कितने कुशल होते हैं। उनके यार-दोस्त भी देखें। कैसे मालिक को बुलाए - वह अवसर खोज रहा था, और ज्यों ही मुहलत मिली, दौड़ा हुआ यहाँ आया, मगर यहाँ का दृश्य देख कर भौंचक्का-सा खड़ा रह गया। सब लोग चुप्पी साधे, थर-थर काँपते, कातर नेत्रों से खान को देख रहे थे और खान मालती को अपने तरफ खींच रहा था। उसकी सहज बुद्धि ने परिस्थिति का अनुमान कर लिया। उसी वक्त रायसाहब ने पुकारा- होरी, दौड़ कर जा और सिपाहियों को बुला ला, जल्द दौड़! होरी पीछे मुड़ा था कि खान ने उसके सामने बंदूक तान कर डाँटा - कहाँ जाता है? सुअर अम गोली मार देगा। होरी गँवार था। लाल पगड़ी देख कर उसके प्राण निकल जाते थे, लेकिन मस्त सांड़ पर लाठी ले कर पिल पड़ता था। वह कायर न था, मारना और मरना दोनों ही जानता था, मगर पुलिस के हथकंडों के सामने उसकी एक न चलती थी। बँधे-बँधे कौन फिरे, रिश्वत के रुपए कहाँ से लाए, बाल-बच्चों को किस पर छोड़े; मगर जब मालिक ललकारते हों, तो फिर किसका डर? तब तो वह मौत के मुँह में भी कूद सकता है। उसने झपट कर खान की कमर पकड़ी और ऐसा अड़ंगा मारा कि खान चारों खाने चित्ता जमीन पर आ रहा और लगा पश्तो में गालियाँ देने। होरी उसकी छाती पर चढ़ बैठा और जोर से दाढ़ी पकड़ कर खींची। दाढ़ी उसके हाथ में आ गई। खान ने तुरंत अपनी कुलाह उतार फेंकी और जोर मार कर खड़ा हो गया। अरे! यह तो मिस्टर मेहता हैं। वाह! लोगों ने चारों तरफ से मेहता को घेर लिया। कोई उनके गले लगता, कोई उनकी पीठ पर थपकियाँ देता था और मिस्टर मेहता के चेहरे पर न हँसी थी, न गर्व, चुपचाप खड़े थे, मानो कुछ हुआ ही नहीं। मालती ने नकली रोष से कहा - आपने यह बहुरूपपन कहाँ सीखा? मेरा दिल अभी तक धड़-धड़ कर रहा है। मेहता ने मुस्कराते हुए कहा - जरा इन भले आदमियों की जवाँमर्दी की परीक्षा ले रहा था। जो गुस्ताखी हुई हो, उसे क्षमा कीजिएगा। सत्तर साल के बूढ़े पंडित दातादीन लठिया टेकते हुए आए और पोपले मुँह से बोले - कहाँ हो होरी, तनिक हम भी तुम्हारी गाय देख लें! सुना, बड़ी सुंदर है। होरी ने दौड़ कर पालागन किया और मन में अभिमानमय उल्लास का आनंद उठाता हुआ, बड़े सम्मान से पंडितजी को आँगन में ले गया। महाराज ने गऊ को अपने पुरानी अनुभवी आँखों से देखा, सींगें देखीं, थन देखा, पुट्टा देखा और घनी सफेद भौंहों के नीचे छिपी हुई आँखों में जवानी की उमंग भर कर बोले - कोई दोष नहीं है बेटा, बाल-भौंरी, सब ठीक। भगवान चाहेंगे, तो तुम्हारे भाग खुल जाएँगे, ऐसे अच्छे लच्छन हैं कि वाह! बस रातिब न कम होने पाए। एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा। होरी ने आनंद के सागर में डुबकियाँ खाते हुए कहा - सब आपका असीरबाद है, दादा! दातादीन ने सुरती की पीक थूकते हुए कहा - मेरा असीरबाद नहीं है बेटा, भगवान की दया है। यह सब प्रभु की दया है। रुपए नगद दिए? होरी ने बे-पर की उड़ाई। अपने महाजन के सामने भी अपने समृद्धि-प्रदर्शन का ऐसा अवसर पा कर वह कैसे छोड़े। टके की नई टोपी सिर पर रख कर जब हम अकड़ने लगते हैं, जरा देर के लिए किसी सवारी पर बैठ कर जब हम आकाश में उड़ने लगते हैं, तो इतनी बड़ी विभूति पा कर क्यों न उसका दिमाग आसमान पर चढ़े? बोला - भोला ऐसा भलामानस नहीं है महाराज! नगद गिनाए, पूरे चौकस। अपने महाजन के सामने यह डींग मार कर होरी ने नादानी तो की थी, पर दातादीन के मुख पर असंतोष का कोई चिह्न न दिखाई दिया। इस कथन में कितना सत्य है, यह उनकी उन बुझी आँखों से छिपा न रह सका, जिनमें ज्योति की जगह अनुभव छिपा बैठा था। प्रसन्न हो कर बोले - कोई हरज नहीं बेटा, कोई हरज नहीं। भगवान सब कल्याण करेंगे। पाँच सेर दूध है इसमें, बच्चे के लिए छोड़ कर। धनिया ने तुरंत टोका - अरे नहीं महाराज, इतना दूध कहाँ। बुढ़िया तो हो गई है। फिर यहाँ रातिब कहाँ धरा है। दातादीन ने मर्म-भरी आँखों से देख कर उसकी सतर्कता को स्वीकार किया, मानो कह रहे हों, गृहिणी का यही धर्म है, सीटना मरदों का काम है, उन्हें सीटने दो।' फिर रहस्य-भरे स्वर में बोले - बाहर न बाँधना, इतना कहे देते हैं। धनिया ने पति की ओर विजयी आँखों से देखा, मानो कह रही हो। लो, अब तो मानोगे। दातादीन से बोली - नहीं महाराज, बाहर क्या बाँधेगे, भगवान दें तो इसी आँगन में तीन गाएँ और बँधा सकती हैं। सारा गाँव गाय देखने आया। नहीं आए तो सोभा और हीरा, जो अपने सगे भाई थे। होरी के हृदय में भाइयों के लिए अब भी कोमल स्थान था। वह दोनों आ कर देख लेते और प्रसन्न हो जाते तो उसकी मनोकामना पूरी हो जाती। साँझ हो गई। दोनों पुर ले कर लौट आए। इसी द्वार से निकले, पर पूछा कुछ नहीं। होरी ने डरते-डरते धनिया से कहा - न सोभा आया, न हीरा। सुना न होगा? धनिया बोली - तो यहाँ कौन उन्हें बुलाने जाता है। 'तू बात तो समझती नहीं। लड़ने के लिए तैयार रहती है। भगवान ने जब यह दिन दिखाया है, तो हमें सिर झुका कर चलना चाहिए। आदमी को अपने सगों के मुँह से अपने भलाई-बुराई सुनने की जितनी लालसा होती है, बाहर वालों के मुँह से नहीं। फिर अपने भाई लाख बुरे हों, हैं तो अपने भाई ही। अपने हिस्से-बखरे के लिए सभी लड़ते हैं, पर इससे खून थोड़े ही बँट जाता है। दोनों को बुला कर दिखा देना चाहिए, नहीं कहेंगे गाय लाए, हमसे कहा, तक नहीं।' धनिया ने नाक सिकोड़ कर कहा - मैंने तुमसे सौ बार, हजार बार कह दिया, मेरे मुँह पर भाइयों का बखान न किया करो, उनका नाम सुन कर मेरी देह में आग लग जाती है। सारे गाँव ने सुना, क्या उन्होंने न सुना होगा? कुछ इतनी दूर भी तो नहीं रहते। सारा गाँव देखने आया, उन्हीं के पाँवों में मेंहदी लगी हुई थी, मगर आएँ कैसे ? जलन हो रही होगी कि इसके घर गाय आ गई। छाती फटी जाती होगी। दिया-बत्ती का समय आ गया था। धनिया ने जा कर देखा, तो बोतल में मिट्टी का तेल न था। बोतल उठा कर तेल लाने चली गई। पैसे होते तो रूपा को भेजती, उधार लाना था, कुछ मुँह देखी कहेगी, कुछ लल्लो-चप्पो करेगी, तभी तो तेल उधार मिलेगा। होरी ने रूपा को बुला कर प्यार से गोद में बैठाया और कहा - जरा जा कर देख, हीरा काका आ गए कि नहीं। सोभा काका को भी देखती आना। कहना, दादा ने तुम्हें बुलाया है। न आएँ, हाथ पकड़ कर खींच लाना। रूपा ठुनक कर बोली - छोटी काकी मुझे डाँटती है। 'काकी के पास क्या करने जायगी! फिर सोभा-बहू तो तुझे प्यार करती है?' 'सोभा काका मुझे चिढ़ाते हैं? मैं न कहूँगी।' 'क्या कहते हैं, बता?' 'चिढ़ाते हैं।' 'क्या कह कर चिढ़ाते हैं?' 'कहते हैं, तेरे लिए मूस पकड़ रखा है। ले जा, भून कर खा ले।' होरी के अंतस्तल में गुदगुदी हुई। 'तू कहती नहीं, पहले तुम खा लो, तो मैं खाऊँगी।' 'अम्माँ मने करती हैं। कहती हैं, उन लोगों के घर न जाया करो।' 'तू अम्माँ की बेटी है कि दादा की?' रूपा ने उसके गले में हाथ डाल कर कहा - अम्माँ की और हँसने लगी। 'तो फिर मेरी गोद से उतर जा। आज मैं तुझे अपने थाली में न खिलाऊँगा।' घर में एक ही फूल की थाली थी। होरी उसी थाली में खाता था। थाली में खाने का गौरव पाने के लिए रूपा होरी के साथ खाती थी। इस गौरव का परित्याग कैसे करे? हुमक कर बोली - अच्छा, तुम्हारी। 'तो फिर मेरा कहना मानेगी कि अम्माँ का? 'तुम्हारा।' 'तो जा कर हीरा और सोभा को खींच ला।' 'और जो अम्माँ बिगड़ें?' 'अम्माँ से कहने कौन जायगा।' रूपा कूदती हुई हीरा के घर चली। द्वेष का मायाजाल बड़ी-बड़ी मछलियों को ही फँसाता है। छोटी मछलियाँ या तो उसमें फँसती ही नहीं या तुरंत निकल जाती हैं। उनके लिए वह घातक जाल क्रीड़ा की वस्तु है, भय की नहीं। भाइयों से होरी की बोलचाल बंद थी, पर रूपा दोनों घरों में आती-जाती थी। बच्चों से क्या बैर। लेकिन रूपा घर से निकली ही थी कि धनिया तेल लिए मिल गई। उसने पूछा - साँझ की बेला कहाँ जाती है, चल घर। रूपा माँ को प्रसन्न करने के प्रलोभन को न रोक सकी। धनिया ने डाँटा - चल घर, किसी को बुलाने नहीं जाना है। रूपा का हाथ पकड़े हुए वह घर आई और होरी से बोली - मैंने तुमसे हजार बार कह दिया, मेरे लड़कों को किसी के घर न भेजा करो। किसी ने कुछ कर-करा दिया, तो मैं तुम्हें ले कर चाटूँगी? ऐसा ही बड़ा परेम है, तो आप क्यों नहीं जाते? अभी पेट नहीं भरा जान पड़ता है। होरी नाँद जमा रहा था। हाथों में मिट्टी लपेटे हुए अज्ञान का अभिनय करके बोला - किस बात पर बिगड़ती है भाई? यह तो अच्छा नहीं लगता कि अंधे कूकुर की तरह हवा को भूँका करे। धनिया को कुप्पी में तेल डालना था। इस समय झगड़ा न बढ़ाना चाहती थी। रूपा भी लड़कों में जा मिली। पहर रात से ज्यादा जा चुकी थी। नाँद गड़ चुकी थी। सानी और खली डाल दी गई थी। गाय मन मारे उदास बैठी थी, जैसे कोई वधू ससुराल आई हो। नाँद में मुँह तक न डालती थी। होरी और गोबर खा कर आधी-आधी रोटियाँ उसके लिए लाए, पर उसने सूँघा तक नहीं। मगर यह कोई नई बात न थी। जानवरों को भी बहुधा घर छूट जाने का दु:ख होता है। होरी बाहर खाट पर बैठ कर चिलम पीने लगा, तो फिर भाइयों की याद आई। नहीं, आज इस शुभ अवसर पर वह भाइयों की उपेक्षा नहीं कर सकता। उसका हृदय यह विभूति पा कर विशाल हो गया था। भाइयों से अलग हो गया है, तो क्या हुआ। उनका दुश्मन तो नहीं है। यही गाय तीन साल पहले आई होती, तो सभी का उस पर बराबर अधिकार होता। और कल को यही गाय दूध देने लगेगी, तो क्या वह भाइयों के घर दूध न भेजेगा या दही न भेजेगा? ऐसा तो उसका धरम नहीं है। भाई उसका बुरा चेतें, वह क्यों उनका बुरा चेते? अपनी-अपनी करनी तो अपने-अपने साथ है। उसने नारियल खाट के पाए से लगा कर रख दिया और हीरा के घर की ओर चला। सोभा का घर भी उधर ही था। दोनों अपने-अपने द्वार पर लेटे हुए थे। काफी अँधेरा था। होरी पर उनमें से किसी की निगाह नहीं पड़ी। दोनों में कुछ बातें हो रही थीं। होरी ठिठक गया और उनकी बातें सुनने लगा। ऐसा आदमी कहाँ है, जो अपने चर्चा सुन कर टाल जाय? हीरा ने कहा - जब तक एक में थे, एक बकरी भी नहीं ली। अब पछाईं गाय ली जाती है। भाई का हक मार कर किसी को फलते-फूलते नहीं देखा। सोभा बोला - यह तुम अन्याय कर रहे हो हीरा! भैया ने एक-एक पैसे का हिसाब दे दिया था। यह मैं कभी न मानूँगा कि उन्होंने पहले की कमाई छिपा रखी थी। 'तुम मानो चाहे न मानो, है यह पहले की कमाई।' 'अच्छा, तो यह रुपए कहाँ से आ गए? कहाँ से हुन बरस पड़ा? उतने ही खेत तो हमारे पास भी हैं। उतनी ही उपज हमारी भी है। फिर क्यों हमारे पास कफन को कौड़ी नहीं और उनके घर नई गाय आती है?' 'उधार लाए होंगे।' 'भोला उधार देने वाला आदमी नहीं है।' 'कुछ भी हो, गाय है बड़ी सुंदर। गोबर लिए जाता था, तो मैंने रास्ते में देखा।' 'बेईमानी का धन जैसे आता है, वैसे ही जाता है। भगवान चाहेंगे, तो बहुत दिन गाय घर में न रहेगी।' होरी से और न सुना गया। वह बीती बातों को बिसार कर अपने हृदय में स्नेह और सौहार्द-भरे, भाइयों के पास आया था। इस आघात ने जैसे उसके हृदय में छेद कर दिया और वह रस-भाव उसमें किसी तरह नहीं टिक रहा था। लत्ते और चिथड़े ठूँस कर अब उस प्रवाह को नहीं रोक सकता। जी में एक उबाल आया कि उसी क्षण इस आक्षेप का जवाब दे, लेकिन बात बढ़ जाने के भय से चुप रह गया। अगर उसकी नीयत साफ है, तो कोई कुछ नहीं कर सकता। भगवान के सामने वह निर्दोष है। दूसरों की उसे परवाह नहीं। उलटे पाँव लौट आया। और वह जला हुआ तंबाकू पीने लगा। लेकिन जैसे वह विष प्रतिक्षण उसकी धमनियों में फैलता जाता था। उसने सो जाने का प्रयास किया, पर नींद न आई। बैलों के पास जा कर उन्हें सहलाने लगा, विष शांत न हुआ। दूसरी चिलम भरी, लेकिन उसमें भी कुछ रस न था। विष ने जैसे चेतना को आक्रांत कर दिया हो। जैसे नशे में चेतना एकांगी हो जाती है, जैसे फैला हुआ पानी एक दिशा में बह कर वेगवान हो जाता है, वही मनोवृत्ति उसकी हो रही थी। उसी उन्माद की दशा में वह अंदर गया। अभी द्वार खुला हुआ था। आँगन में एक किनारे चटाई पर लेटी हुई धनिया सोना से देह दबवा रही थी और रूपा जो रोज साँझ होते ही सो जाती थी, आज खड़ी गाय का मुँह सहला रही थी। होरी ने जा कर गाय को खूँटे से खोल लिया और द्वार की ओर ले चला। वह इसी वक्त गाय को भोला के घर पहुँचाने का दृढ़ निश्चय कर चुका था। इतना बड़ा कलंक सिर पर ले कर वह अब गाय को घर में नहीं रख सकता। किसी तरह नहीं। धनिया ने पूछा - कहाँ लिए जाते हो रात को? होरी ने एक पग बढ़ा कर कहा - ले जाता हूँ भोला के घर। लौटा दूँगा। धनिया को विस्मय हुआ, उठ कर सामने आ गई और बोली - लौटा क्यों दोगे? लौटाने के लिए ही लाए थे? 'हाँ, इसके लौटा देने में ही कुसल है।' 'क्यों बात क्या है - इतने अरमान से लाए और अब लौटाने जा रहे हो? क्या भोला रुपए माँगते हैं? 'नहीं, भोला यहाँ कब आया।' 'तो फिर क्या बात हुई।' 'क्या करोगी पूछ कर?' धनिया ने लपक कर पगहिया उसके हाथ से छीन ली। उसकी चपल बुद्धि ने जैसे उड़ती हुई चिड़िया पकड़ ली। बोली - तुम्हें भाइयों का डर हो, तो जा कर उनके पैरों पर गिरो। मैं किसी से नहीं डरती। अगर हमारी बढ़ती देख कर किसी की छाती फटती है, तो फट जाय, मुझे परवाह नहीं है। होरी ने विनीत स्वर में कहा - धीरे-धीरे बोल महरानी! कोई सुने, तो कहे, ये सब इतनी रात गए लड़ रहे हैं! मैं अपने कानों से क्या सुन आया हूँ, तू क्या जाने! यहाँ चरचा हो रही है कि मैंने अलग होते समय रुपए दबा लिए थे और भाइयों को धोखा दिया था, यही रुपए अब निकल रहे हैं।' 'हीरा कहता होगा?' 'सारा गाँव कह रहा है। हीरा को क्यों बदनाम करूँ।' 'सारा गाँव नहीं कह रहा है, अकेला हीरा कह रहा है। मैं अभी जा कर पूछती हूँ न कि तुम्हारे बाप कितने रुपए छोड़ कर मरे थे? डाढ़ीजारों के पीछे हम बरबाद हो गए। सारी जिंदगी मिट्टी में मिला दी, पाल-पोस कर संडा किया, और अब हम बेईमान हैं। मैं कह देती हूँ, अगर गाय घर के बाहर निकली, तो अनर्थ हो जायगा। रख लिए हमने रुपए, दबा लिए, बीच खेत दबा लिए। डंके की चोट कहती हूँ, मैंने हंडे भर असर्फियाँ छिपा लीं। हीरा और सोभा और संसार को जो करना हो, कर ले। क्यों न रुपए रख लें? दो-दो संडों का ब्याह नहीं किया, गौना नहीं किया?' होरी सिटपिटा गया। धनिया ने उसके हाथ से पगहिया छीन ली, और गाय को खूँटे से बाँध कर द्वार की ओर चली। होरी ने उसे पकड़ना चाहा, पर वह बाहर जा चुकी थी। वहीं सिर थाम कर बैठ गया। बाहर उसे पकड़ने की चेष्टा करके वह कोई नाटक नहीं दिखाना चाहता था। धनिया के क्रोध को खूब जानता था। बिगड़ती है, तो चंडी बन जाती है। मारो, काटो, सुनेगी नहीं, लेकिन हीरा भी तो एक ही गुस्सेवर है, कहीं हाथ चला दे तो परलै ही हो जाए। नहीं, हीरा इतना मूरख नहीं है। मैंने कहाँ-से-कहाँ यह आग लगा दी! उसे अपने आप पर क्रोध आने लगा। बात मन में रख लेता, तो क्यों यह टंटा खड़ा होता। सहसा धनिया का कर्कश स्वर कान में आया। हीरा की गरज भी सुन पड़ी। फिर पुन्नी की पैनी पीक भी कानों में चुभी। सहसा उसे गोबर की याद आई। बाहर लपक कर उसकी खाट देखी। गोबर वहाँ न था। गजब हो गया। गोबर भी वहाँ पहुँच गया। अब कुशल नहीं। उसका नया खून है, न जाने क्या कर बैठे, लेकिन होरी वहाँ कैसे जाय? हीरा कहेगा, आप तो बोलते नहीं, जा कर इस डाइन को लड़ने के लिए भेज दिया। कोलाहल प्रतिक्षण प्रचंड होता जाता था। सारे गाँव में जाग पड़ गई। मालूम होता था, कहीं आग लग गई है, और लोग खाट से उठ-उठ बुझाने दौड़े जा रहे हैं। इतनी देर तक तो वह जब्त किए बैठा रहा। फिर न रहा गया। धनिया पर क्रोध आया। वह क्यों चढ़ कर लड़ने गई? अपने घर में आदमी न जाने किसको क्या कहता है। जब तक कोई मुँह पर बात न कहे, यही समझना चाहिए कि उसने कुछ नहीं कहा। होरी की कृषक प्रकृति झगड़े से भागती थी। चार बातें सुन कर गम खा जाना इससे कहीं अच्छा है कि आपस में तनाजा हो। कहीं मार-पीट हो जाय तो थाना-पुलिस हो, बँधे-बँधे फिरो, सबकी चिरौरी करो, अदालत की धूल फाँको, खेती-बारी जहन्नुम में मिल जाए। उसका हीरा पर तो कोई बस न था, मगर धनिया को तो वह जबरदस्ती खींच ला सकता है। बहुत होगा, गालियाँ दे लेगी, एक-दो दिन रुठी रहेगी, थाना-पुलिस की नौबत तो न आएगी। जा कर हीरा के द्वार पर सबसे दूर दीवार की आड़ में खड़ा हो गया। एक सेनापति की भाँति मैदान में आने के पहले परिस्थिति को अच्छी तरह समझ लेना चाहता था। अगर अपने जीत हो रही है, तो बोलने की कोई जरूरत नहीं, हार हो रही है, तो तुरंत कूद पड़ेगा। देखा तो वहाँ पचासों आदमी जमा हो गए हैं। पंडित दातादीन, लाला पटेश्वरी, दोनों ठाकुर, जो गाँव के करता-धरता थे, सभी पहुँचे हुए हैं। धनिया का पल्ला हल्का हो रहा था। उसकी उग्रता जनमत को उसके विरुद्ध किए देती थी। वह रणनीति में कुशल न थी। क्रोध में ऐसी जली-कटी सुना रही थी कि लोगों की सहानुभूति उससे दूर होती जाती थी। वह गरज रही थी - तू हमें देख कर क्यों जलता है? हमें देख कर क्यों तेरी छाती फटती है? पाल-पोस कर जवान कर दिया, यह उसका इनाम है? हमने न पाला होता तो आज कहीं भीख माँगते होते। ईख की छाँह भी न मिलती। होरी को ये शब्द जरूरत से ज्यादा कठोर जान पड़े। भाइयों का पालना-पोसना तो उसका धर्म था। उनके हिस्से की जायदाद तो उसके हाथ में थी। कैसे न पालता-पोसता? दुनिया में कहीं मुँह देखाने लायक रहता? हीरा ने जवाब दिया - हम किसी का कुछ नहीं जानते। तेरे घर में कुत्तों की तरह एक टुकड़ा खाते थे और दिन-दिन भर काम करते थे। जाना ही नहीं कि लड़कपन और जवानी कैसी होती है। दिन-दिन भर सूखा गोबर बीना करते थे। उस पर भी तू बिना दस गाली दिए रोटी न देती थी। तेरी-जैसी राच्छसिन के हाथ में पड़ कर जिंदगी तलख हो गई। धनिया और भी तेज हुई - जबान सँभाल, नहीं जीभ खींच लूँगी। राच्छसिन तेरी औरत होगी। तू है किस फेर में मूँड़ी-काटे, टुकड़े-खोर, नमक-हराम। दातादीन ने टोका - इतना कटु वचन क्यों कहती है धनिया? नारी का धरम है कि गम खाय। वह तो उजड्ड है, क्यों उसके मुँह लगती है? लाला पटेश्वरी पटवारी ने उसका समर्थन किया - बात का जवाब बात है, गाली नहीं। तूने लड़कपन में उसे पाला-पोसा, लेकिन यह क्यों भूल जाती है कि उसकी जायदाद तेरे हाथ में थी? धनिया ने समझा, सब-के-सब मिल कर मुझे नीचा दिखाना चाहते हैं। चौमुख लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो गई - अच्छा, रहने दो लाला! मैं सबको पहचानती हूँ। इस गाँव में रहते बीस साल हो गए। एक-एक की नस-नस पहचानती हूँ। मैं गाली दे रही हूँ, वह फूल बरसा रहा है, क्यों? दुलारी सहुआइन ने आग पर घी डाला - बाकी बड़ी गाल-दराज औरत है भाई! मरद के मुँह लगती है। होरी ही जैसा मरद है कि इसका निबाह होता है। दूसरा मरद होता तो एक दिन न पटती। अगर हीरा इस समय जरा नर्म हो जाता तो उसकी जीत हो जाती, लेकिन ये गालियाँ सुन कर आपे से बाहर हो गया। औरों को अपने पक्ष में देख कर वह कुछ शेर हो रहा था। गला फाड़ कर बोला - चली जा मेरे द्वार से, नहीं जूतों से बात करूँगा। झोंटा पकड़ कर उखाड़ लूँगा। गाली देती है डाइन! बेटे का घमंड हो गया है। खून... पाँसा पलट गया। होरी का खून खौल उठा। बारूद में जैसे चिनगारी पड़ गई हो। आगे आ कर बोला - अच्छा बस, अब चुप हो जाओ हीरा, अब नहीं सुना जाता। मैं इस औरत को क्या कहूँ! जब मेरी पीठ में धूल लगती है, तो इसी के कारन। न जाने क्यों इससे चुप नहीं रहा जाता। चारों ओर से हीरा पर बौछार पड़ने लगी। दातादीन ने निर्लज्ज कह - पटेश्वरी ने गुंडा बनाया, झिंगुरीसिंह ने शैतान की उपाधि दी। दुलारी सहुआइन ने कपूत कहा - एक उद्धंड शब्द ने धनिया का पल्ला हल्का कर दिया था। दूसरे उग्र शब्द ने हीरा को गच्चे में डाल दिया। उस पर होरी के संयत वाक्य ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। हीरा सँभल गया। सारा गाँव उसके विरुद्ध हो गया। अब चुप रहने में ही उसकी कुशल है। क्रोध के नशे में भी इतना होश उसे बाकी था। धनिया का कलेजा दूना हो गया। होरी से बोली - सुन लो कान खोल के। भाइयों के लिए मरते हो। यह भाई हैं, ऐसे भाई को मुँह न देखे। यह मुझे जूतों से मारेगा। खिला-पिला.......... होरी ने डाँटा - फिर क्यों बक-बक करने लगी तू! घर क्यों नहीं जाती? धनिया जमीन पर बैठ गई और आर्त स्वर में बोली - अब तो इसके जूते खा के जाऊँगी। जरा इसकी मरदुमी देख लूँ, कहाँ है गोबर? अब किस दिन काम आएगा? तू देख रहा है बेटा, तेरी माँ को जूते मारे जा रहे हैं! यों विलाप करके उसने अपने क्रोध के साथ होरी के क्रोध को भी क्रियाशील बना डाला। आग को फूँक-फूँक कर उसमें ज्वाला पैदा कर दी। हीरा पराजित-सा पीछे हट गया। पुन्नी उसका हाथ पकड़ कर घर की ओर खींच रही थी। सहसा धनिया ने सिंहनी की भाँति झपट कर हीरा को इतने जोर से धक्का दिया कि वह धम से गिर पड़ा और बोली - कहाँ जाता है, जूते मार, मार जूते, देखूँ तेरी मरदुमी! होरी ने दौड़ कर उसका हाथ पकड़ लिया और घसीटता हुआ घर ले चला। उधर गोबर खाना खा कर अहिराने में जा पहुँचा। आज झुनिया से उसकी बहुत-सी बातें हुई थीं। जब वह गाय ले कर चला था, तो झुनिया आधे रास्ते तक उसके साथ आई थी। गोबर अकेला गाय को कैसे ले जाता! अपरिचित व्यक्ति के साथ जाने में उसे आपत्ति होना स्वाभाविक था। कुछ दूर चलने के बाद झुनिया ने गोबर को मर्म-भरी आँखों से देख कर कहा - अब तुम काहे को यहाँ कभी आओगे? एक दिन पहले तक गोबर कुमार था। गाँव में जितनी युवतियाँ थीं, वह या तो उसकी बहनें थीं या भाभियाँ। बहनों से तो कोई छेड़छाड़ हो ही क्या सकती थी, भाभियाँ अलबत्ता कभी-कभी उससे ठिठोली किया करती थीं, लेकिन वह केवल सरल विनोद होता था। उनकी दृष्टि में अभी उसके यौवन में केवल फूल लगे थे। जब तक फल न लग जायँ, उस पर ढेले फेंकना व्यर्थ की बात थी। और किसी ओर से प्रोत्साहन न पा कर उसका कौमार्य उसके गले से चिपटा हुआ था। झुनिया का वंचित मन, जिसे भाभियों के व्यंग और हास-विलास ने और भी लोलुप बना दिया था, उसके कौमार्य ही पर ललचा उठा। और उस कुमार में भी पत्ता खड़कते ही किसी सोए हुए शिकारी जानवर की तरह यौवन जाग उठा। गोबर ने आवरणहीन रसिकता के साथ कहा - अगर भिक्षुक को भीख मिलने की आसा हो, तो वह दिन-भर और रात-भर दाता के द्वार पर खड़ा रहे। झुनिया ने कटाक्ष करके कहा - तो यह कहो, तुम भी मतलब के यार हो। गोबर की धमनियों का रक्त प्रबल हो उठा। बोला - भूखा आदमी अगर हाथ फैलाए तो उसे क्षमा कर देना चाहिए। झुनिया और गहरे पानी में उतरी - भिक्षुक जब तक दस द्वारे न जाय, उसका पेट कैसे भरेगा? मैं ऐसे भिक्षुकों को मुँह नहीं लगाती। ऐसे तो गली-गली मिलते हैं। फिर भिक्षुक देता क्या है, असीस! असीसों से तो किसी का पेट नहीं भरता। मंद-बुद्धि गोबर झुनिया का आशय न समझ सका। झुनिया छोटी-सी थी, तभी से ग्राहकों के घर दूध ले कर जाया करती थी। ससुराल में उसे ग्राहकों के घर दूध पहुँचाना पड़ता था। आजकल भी दही बेचने का भार उसी पर था। उसे तरह-तरह के मनुष्यों से साबिका पड़ चुका था। दो-चार रुपए उसके हाथ लग जाते थे, घड़ी-भर के लिए मनोरंजन भी हो जाता था, मगर यह आनंद जैसे मँगनी की चीज हो। उसमें टिकाव न था, समर्पण न था, अधिकार न था। वह ऐसा प्रेम चाहती थी, जिसके लिए वह जिए और मरे, जिस पर वह अपने को समर्पित कर दे। वह केवल जुगनू की चमक नहीं, दीपक का स्थायी प्रकाश चाहती थी। वह एक गृहस्थ की बालिका थी, जिसके गृहिणीत्व को रसिकों की लगावटबाजियों ने कुचल नहीं पाया था। गोबर ने कामना से उदीप्त मुख से कहा - भिक्षुक को एक ही द्वार पर भरपेट मिल जाय, तो क्यों द्वार-द्वार घूमे? झुनिया ने सदय भाव से उसकी ओर ताका। कितना भोला है, कुछ समझता ही नहीं। 'भिक्षुक को एक द्वार पर भरपेट कहाँ मिलता है। उसे तो चुटकी ही मिलेगी। सर्बस तो तभी पाओगे, जब अपना सर्बस दोगे।' 'मेरे पास क्या है झुनिया?' 'तुम्हारे पास कुछ नहीं है? मैं तो समझती हूँ, मेरे लिए तुम्हारे पास जो कुछ है, वह बड़े-बड़े लखपतियों के पास नहीं है। तुम मुझसे भीख न माँग कर मुझे मोल ले सकते हो।' गोबर उसे चकित नेत्रों से देखने लगा। झुनिया ने फिर कहा - और जानते हो, दाम क्या देना होगा? मेरा हो कर रहना पड़ेगा। फिर किसी के सामने हाथ फैलाए देखूँगी, तो घर से निकाल दूँगी। गोबर को जैसे अँधेरे में टटोलते हुए इच्छित वस्तु मिल गई। एक विचित्र भयमिश्रित आनंद से उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। लेकिन यह कैसे होगा? झुनिया को रख ले, तो रखेली को ले कर घर में रहेगा कैसे। बिरादरी का झंझट जो है। सारा गाँव काँव-काँव करने लगेगा। सभी दुसमन हो जाएँगे। अम्माँ तो इसे घर में घुसने भी न देगी। लेकिन जब स्त्री हो कर यह नहीं डरती, तो पुरुष हो कर वह क्यों डरे? बहुत होगा, लोग उसे अलग कर देंगे। वह अलग ही रहेगा। झुनिया जैसी औरत गाँव में दूसरी कौन है? कितनी समझदारी की बातें करती है। क्या जानती नहीं कि मैं उसके जोग नहीं हूँ, फिर भी मुझसे प्रेम करती है। मेरी होने को राजी है। गाँव वाले निकाल देंगे, तो क्या संसार में दूसरा गाँव ही नहीं है? और गाँव क्यों छोड़े? मातादीन ने चमारिन बैठी ली, तो किसी ने क्या कर लिया? दातादीन दाँत कटकटा कर रह गए। मातादीन ने इतना जरूर किया कि अपना धरम बचा लिया। अब भी बिना असनान-पूजा किए मुँह में पानी नहीं डालते। दोनों जून अपना भोजन आप पकाते हैं और अब तो अलग भोजन भी नहीं पकाते। दातादीन और वह साथ बैठ कर खाते हैं। झिंगुरीसिंह ने बाम्हनी रख ली, उनका किसी ने क्या कर लिया? उनका जितना आदर-मान तब था, उतना ही आज भी है, बल्कि और बढ़ गया। पहले नौकरी खोजते फिरते थे। अब उसके रुपए से महाजन बन बैठे। ठकुराई का रोब तो था ही, महाजनी का रोब भी जम गया। मगर फिर खयाल आया, कहीं झुनिया दिल्लगी न कर रही हो। पहले इसकी ओर से निश्चिंत हो जाना आवश्यक था। उसने पूछा - मन से कहती हो झूना कि खाली लालच दे रही हो? मैं तो तुम्हारा हो चुका, लेकिन तुम भी मेरी हो जाओगी? 'तुम मेरे हो चुके, कैसे जानूँ?' 'तुम जान भी चाहो, तो दे दूँ'। 'जान देने का अरथ भी समझते हो' 'तुम समझा दो न।' 'जान देने का अरथ है, साथ रह कर निबाह करना। एक बार हाथ पकड़ कर उमिर भर निबाह करते रहना, चाहे दुनिया कुछ कहे, चाहे माँ-बाप, भाई-बंद, घर-द्वार सब कुछ छोड़ना पड़े। मुँह से जान देने वाले बहुतों को देख चुकी। भौरों की भाँति फूल का रस ले कर उड़ जाते हैं। तुम भी वैसे ही न उड़ जाओगे?' गोबर के एक हाथ में गाय की पगहिया थी। दूसरे हाथ से उसने झुनिया का हाथ पकड़ लिया। जैसे बिजली के तार पर हाथ पड़ गया हो। सारी देह यौवन के पहले स्पर्श से काँप उठी। कितनी मुलायम, गुदगुदी, कोमल कलाई। झुनिया ने उसका हाथ हटाया नहीं, मानो इस स्पर्श का उसके लिए कोई महत्व ही न हो। फिर एक क्षण के बाद गंभीर भाव से बोली - आज तुमने मेरा हाथ पकड़ा है, याद रखना। 'खूब याद रखूँगा झूना और मरते दम तक निबाहूँगा।' झुनिया अविश्वास-भरी मुस्कान से बोली - इसी तरह तो सब कहते हैं गोबर! बल्कि इससे भी मीठे, चिकने शब्दों में। अगर मन में कपट हो, मुझे बता दो। सचेत हो जाऊँ। ऐसों को मन नहीं देती। उनसे तो खाली हँस-बोल लेने का नाता रखती हूँ। बरसों से दूध ले कर बाजार जाती हूँ। एक-से-एक बाबू, महाजन, ठाकुर, वकील, अमले, अफसर अपना रसियापन दिखा कर मुझे फँसा लेना चाहते हैं। कोई छाती पर हाथ रख कर कहता है, झुनिया, तरसा मत, कोई मुझे रसीली, नसीली चितवन से घूरता है, मानो मारे प्रेम के बेहोस हो गया है, कोई रूपया दिखाता है, कोई गहने। सब मेरी गुलामी करने को तैयार रहते हैं, उमिर-भर, बल्कि उस जनम में भी, लेकिन मैं उन सबों की नस पहचानती हूँ। सब-के-सब भौंरे रस ले कर उड़ जाने वाले। मैं भी उन्हें ललचाती हूँ, तिरछी नजरों से देखती हूँ, मुस्कराती हूँ। वह मुझे गधी बनाते हैं, मैं उन्हें उल्लू बनाती हूँ। मैं मर जाऊँ, तो उनकी आँखों में आँसू न आएगा। वह मर जायँ, तो मैं कहूँगी, अच्छा हुआ, निगोड़ा मर गया। मैं तो जिसकी हो जाऊँगी, उसकी जनम-भर के लिए हो जाऊँगी, सुख में, दु:ख में, संपत में, विपत में, उसके साथ रहूँगी। हरजाई नहीं हूँ कि सबसे हँसती-बोलती फिरूँ। न रुपए की भूखी हूँ, न गहने-कपड़े की। बस भले आदमी का संग चाहती हूँ, जो मुझे अपना समझे और जिसे मैं भी अपना समझूँ। एक पंडित जी बहुत तिलक-मुद्रा लगाते हैं। आधा सेर दूध लेते हैं। एक दिन उनकी घरवाली कहीं नेवते में गई थी। मुझे क्या मालूम और दिनों की तरह दूध लिए भीतर चली गई। वहाँ पुकारती हूँ, बहूजी, बहूजी! कोई बोलता ही नहीं। इतने में देखती हूँ तो पंडित जी बाहर के किवाड़ बंद किए चले आ रहे हैं। मैं समझ गई इसकी नीयत खराब है। मैंने डाँट कर पूछा - तुमने किवाड़ क्यों बंद कर लिए? क्या बहूजी कहीं गई हैं? घर में सन्नाटा क्यों है? उसने कहा - वह एक नेवते में गई हैं, और मेरी ओर दो पग और बढ़ आया। मैंने कहा - तुम्हें दूध लेना हो तो लो, नहीं मैं जाती हूँ। बोला - आज तो तुम यहाँ से न जाने पाओगी झूनी रानी! रोज-रोज कलेजे पर छुरी चला कर भाग जाती हो, आज मेरे हाथ से न बचोगी। तुमसे सच कहती हूँ, गोबर, मेरे रोएँ खड़े हो गए। गोबर आवेश में आ कर बोला - मैं बचा को देख पाऊँ, तो खोद कर जमीन में गाड़ दूँ। खून चूस लूँ। तुम मुझे दिखा तो देना। सुनो तो, ऐसों का मुँह तोड़ने के लिए मैं ही काफी हूँ। मेरी छाती धक-धक करने लगी। यह कुछ बदमासी कर बैठे, तो क्या करूँगी? कोई चिल्लाना भी तो न सुनेगा, लेकिन मन में यह निश्चय कर लिया था कि मेरी देह छुई, तो दूध की भरी हाँड़ी उसके मुँह पर पटक दूँगी। बला से चार-पाँच सेर दूध जायगा बचा को याद तो हो जायगा। कलेजा मजबूत करके बोली - इस फेर में न रहना पंडित जी! मैं अहीर के लड़की हूँ। मूँछ का एक-एक बाल नुचवा लूँगी। यही लिखा है तुम्हारे पोथी-पत्रों में कि दूसरों की बहू-बेटी को अपने घर में बंद करके बेइज्जत करो। इसीलिए तिलक-मुद्रा का जाल बिछाए बैठे हो? लगा हाथ जोड़ने, पैरों पड़ने, एक प्रेमी का मन रख दोगी, तो तुम्हारा क्या बिगड़ जायगा झूना रानी! कभी-कभी गरीबों पर दया किया करो, नहीं भगवान पूछेंगे, मैंने तुम्हें इतना रूप-धन दिया था, तुमने उससे एक ब्राह्मण का उपकार भी नहीं किया, तो क्या जवाब दोगी? बोले, मैं विप्र हूँ, रूपय-पैसे का दान तो रोज ही पाता हूँ, आज रूप का दान दे दो। मैंने यों ही उसका मन परखने को कह दिया, मैं पचास रुपए लूँगी। सच कहती हूँ गोबर, तुरंत कोठरी में गया और दस-दस के पाँच नोट निकाल कर मेरे हाथों में देने लगा और जब मैंने नोट जमीन पर गिरा दिए और द्वार की ओर चली, तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं तो पहले ही से तैयार थी। हाँड़ी उसके मुँह पर दे मारी। सिर से पाँव तक सराबोर हो गया। चोट भी खूब लगी। सिर पकड़ कर बैठ गया और लगा हाय-हाय करने। मैंने देखा, अब यह कुछ नहीं कर सकता, तो पीठ में दो लातें जमा दीं और किवाड़ खोल कर भागी। गोबर ठट्ठा मार कर बोला - बहुत अच्छा किया तुमने। दूध से नहा गया होगा। तिलक-मुद्रा भी धुल गई होगी। मूँछें भी क्यों न उखाड़ लीं? दूसरे दिन मैं फिर उसके घर गई। उसकी घरवाली आ गई थी। अपने बैठक में सिर में पट्टी बाँधे पड़ा था। मैंने कहा - कहो तो कल की तुम्हारी करतूत खोल दूँ पंडित! लगा हाथ जोड़ने। मैंने कहा - अच्छा थूक कर चाटो, तो छोड़ दूँ। सिर जमीन पर रगड़ कर कहने लगा - अब मेरी इज्जत तुम्हारे हाथ है झूना, यही समझ लो कि पंडिताइन मुझे जीता न छोड़ेंगी। मुझे भी उस पर दया आ गई। गोबर को उसकी दया बुरी लगी - यह तुमने क्या किया? उसकी औरत से जा कर कह क्यों नहीं दिया? जूती से पीटती। ऐसे पाखंडियों पर दया न करनी चाहिए। तुम मुझे कल उसकी सूरत दिखा दो, फिर देखना, कैसी मरम्मत करता हूँ। झुनिया ने उसके अर्द्ध-विकसित यौवन को देख कर कहा - तुम उसे न पाओगे। खास देव है। मुफ्त का माल उड़ाता है कि नहीं। गोबर अपने यौवन का यह तिरस्कार कैसे सहता? डींग मार कर बोला - मोटे होने से क्या होता है। यहाँ फौलाद की हड्डियाँ हैं। तीन सौ डंड रोज मारता हूँ। दूध-घी नहीं मिलता, नहीं अब तक सीना यों निकल आया होता। यह कह कर उसने छाती फैला कर दिखाई। झुनिया ने आश्वस्त आँखों से देखा - अच्छा, कभी दिखा दूँगी लेकिन वहाँ तो सभी एक-से हैं, तुम किस-किसकी मरम्मत करोगे? न जाने मरदों की क्या आदत है कि जहाँ कोई जवान, सुंदर औरत देखी और बस लगे घूरने, छाती पीटने। और यह जो बड़े आदमी कहलाते हैं, ये तो निरे लंपट होते हैं। फिर मैं तो कोई सुंदरी नहीं हूँ... गोबर ने आपत्ति की, तुम! तुम्हें देख कर तो यही जी चाहता है कि कलेजे में बिठा लें। झुनिया ने उसकी पीठ में हलका-सा घूँसा जमाया - लगे औरों की तरह तुम भी चापलूसी करने । मैं जैसी कुछ हूँ, वह मैं जानती हूँ। मगर लोगों को तो जवान मिल जाए। घड़ी-भर मन बहलाने को और क्या चाहिए। गुन तो आदमी उसमें देखता है, जिसके साथ जनम-भर निबाह करना हो। सुनती भी हूँ और देखती भी हूँ, आजकल बड़े घरों की विचित्र लीला है। जिस मुहल्ले में मेरी ससुराल है, उसी में गपडू-गपडू नाम के कासमीरी रहते थे। बड़े भारी आदमी थे। उनके यहाँ पाँच-सेर दूध लगता था। उनकी तीन लड़कियाँ थीं। कोई बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस की होगी। एक-से-एक सुंदर। तीनों बड़े कॉलिज में पढ़ने जाती थी। एक साइत कॉलिज में पढ़ाती भी थी। तीन सौ का महीना पाती थी। सितार वह सब बजावें, हरमुनियाँ वह सब बजावें, नाचें वह, गावें वह, लेकिन ब्याह कोई न करती थी। राम जाने, वह किसी मरद को पसंद नहीं करती थीं कि मरद उन्हीं को पसंद नहीं करता था। एक बार मैंने बड़ी बीबी से पूछा, तो हँस कर बोली - हम लोग यह रोग नहीं पालते, मगर भीतर-ही-भीतर खूब गुलछर्रे उड़ाती थीं। जब देखूँ, दो-चार लौंडे उनको घेरे हुए हैं। जो सबसे बड़ी थी, वह तो कोट-पतलून पहन कर घोड़े पर सवार हो कर मरदों के साथ सैर करने जाती थी। सारे सहर में उनकी लीला मशहूर थी। गपड़ू बाबू सिर नीचा किए, जैसे मुँह में कालिख-सी लगाए रहते थे। लड़कियों को डाँटते थे, समझाते थे, पर सब-की-सब खुल्लमखुल्ला कहती थीं - तुमको हमारे बीच में बोलने का कुछ मजाल नहीं है। हम अपने मन की रानी हैं, जो हमारी इच्छा होगी,वह हम करेंगे। बेचारा बाप जवान-जवान लड़कियों से क्या बोले? मारने-बाँधने से रहा, डाँटने-डपटने से रहा, लेकिन भाई, बड़े आदमियों की बातें कौन चलावे। वह जो कुछ करें, सब ठीक है। उन्हें तो बिरादरी और पंचायत का भी डर नहीं। मेरी समझ में तो यही नहीं आता कि किसी का रोज-रोज मन कैसे बदल जाता है। क्या आदमी गाय-बकरी से भी गया-बीता हो गया? लेकिन किसी को बुरा नहीं कहती भाई! मन को जैसा बनाओ, वैसा बनता है। ऐसों को भी देखती हूँ, जिन्हें रोज-रोज की दाल-रोटी के बाद कभी-कभी मुँह का सवाद बदलने के लिए हलवा-पूरी भी चाहिए। और ऐसों को भी देखती हूँ, जिन्हें घर की रोटी-दाल देख कर ज्वर आता है। कुछ बेचारियाँ ऐसी भी हैं, जो अपने रोटी-दाल में ही मगन रहती हैं। हलवा-पूरी से उन्हें कोई मतलब नहीं। मेरी दोनों भावजों ही को देखो। हमारे भाई काने-कुबड़े नहीं हैं, दस जवानों में एक जवान हैं; लेकिन भावजों को नहीं भाते। उन्हें तो वह चाहिए, जो सोने की बालियाँ बनवाए, महीन साड़ियाँ लाए, रोज चाट खिलाए। बालियाँ और साड़ियाँ और मिठाइयाँ मुझे भी कम अच्छी नहीं लगतीं, लेकिन जो कहो कि इसके लिए अपने लाज बेचती फिरूँ तो भगवान इससे बचाएँ। एक के साथ मोटा-झोटा खा-पहन कर उमिर काट देना, बस अपना तो यही राग है। बहुत करके तो मरद ही औरतों को बिगाड़ते हैं। जब मरद इधर-उधर ताक-झाँक करेगा तो औरत भी आँख लड़ाएगी। मरद दूसरी औरतों के पीछे दौड़ेगा, तो औरत भी जरूर मरदों के पीछे दौड़ेगी। मरद का हरजाईपन औरत को भी उतना ही बुरा लगता है, जितना औरत का मरद को। यही समझ लो। मैंने तो अपने आदमी से साफ-साफ कह दिया था, अगर तुम इधर-उधर लपके, तो मेरी जो भी इच्छा होगी, वह करूँगी। यह चाहो कि तुम तो अपने मन की करो और औरत को मार के डर से अपने काबू में रखो, तो यह न होगा, तुम खुले-खजाने करते हो, वह छिप कर करेगी, तुम उसे जला कर सुखी नहीं रह सकते। गोबर के लिए यह एक नई दुनिया की बातें थीं। तन्मय हो कर सुन रहा था। कभी-कभी तो आप-ही-आप उसके पाँव रूक जाते, फिर सचेत हो कर चलने लगता। झुनिया ने पहले अपने रूप से मोहित किया था। आज उसने अपने ज्ञान और अनुभव से भरी बातें और अपने सतीत्व के बखान से मुग्ध कर लिया। ऐसी रूप, गुण, ज्ञान की आगरी उसे मिल जाय, तो धन्य भाग। फिर वह क्यों पंचायत और बिरादरी से डरे? झुनिया ने जब देख लिया कि उसका गहरा रंग जम गया, तो छाती पर हाथ रख कर जीभ दाँत से काटती हुई बोली - अरे, यह तो तुम्हारा गाँव आ गया! तुम भी बड़े मुरहे हो, मुझसे कहा भी नहीं कि लौट जाओ। यह कह कर वह लौट पड़ी। गोबर ने आग्रह करके कहा - एक छन के लिए मेरे घर क्यों नहीं चली चलती? अम्माँ भी तो देख लें। झुनिया ने लज्जा से आँखें चुरा कर कहा - तुम्हारे घर यों न जाऊँगी। मुझे तो यही अचरज होता है कि मैं इतनी दूर कैसे आ गई। अच्छा बताओ, अब कब आओगे? रात को मेरे द्वार पर अच्छी संगत होगी। चले आना, मैं अपने पिछवाड़े मिलूँगी। 'और जो न मिली?' 'तो लौट जाना।' 'तो फिर मैं न आऊँगा।' 'आना पड़ेगा, नहीं कहे देती हूँ।' 'तुम भी बचन दो कि मिलोगी?' 'मैं बचन नहीं देती।' 'तो मैं भी नहीं आता।' 'मेरी बला से!' झुनिया अँगूठा दिखा कर चल दी। प्रथम-मिलन में ही दोनों एक-दूसरे पर अपना-अपना अधिकार जमा चुके थे। झुनिया जानती थी, वह आएगा, कैसे न आएगा? गोबर जानता था, वह मिलेगी, कैसे न मिलेगी? जब वह अकेला गाय को हाँकता हुआ चला, तो ऐसा लगता था, मानो स्वर्ग से गिर पड़ा है। यह अभिनय जब समाप्त हुआ, तो उधर रंगशाला में धनुष-यज्ञ समाप्त हो चुका था और सामाजिक प्रहसन की तैयारी हो रही थी, मगर इन सज्जनों को उससे विशेष दिलचस्पी न थी। केवल मिस्टर मेहता देखने गए और आदि से अंत तक जमे रहे। उन्हें बड़ा मजा आ रहा था। बीच-बीच में तालियाँ बजाते थे और फिर कहो, फिर कहो' का आग्रह करके अभिनेताओं को प्रोत्साहन भी देते जाते थे। रायसाहब ने इस प्रहसन में एक मुकदमे बाज देहाती जमींदार का खाका उड़ाया था। कहने को तो प्रहसन था, मगर करुणा से भरा हुआ। नायक का बात-बात में कानून की धाराओं का उल्लेख करना, पत्नी पर केवल इसलिए मुकदमा दायर कर देना कि उसने भोजन तैयार करने में जरा-सी देर कर दी, फिर वकीलों के नखरे और देहाती गवाहों की चालाकियाँ और झाँसे, पहले गवाही के लिए चट-पट तैयार हो जाना, मगर इजलास पर तलबी के समय खूब मनावन कराना और नाना प्रकार की गर्माइशें करके उल्लू बनाना, ये सभी दृश्य देख कर लोग हँसी के मारे लोट जाते थे। सबसे सुंदर वह दृश्य था, जिसमें वकील गवाहों को उनके बयान रटा रहा था। गवाहों का बार-बार भूलें करना, वकील का बिगड़ना, फिर नायक का देहाती बोली में गवाहों का समझाना और अंत में इजलास पर गवाहों का बदल जाना, ऐसा सजीव और सत्य था कि मिस्टर मेहता उछल पड़े और तमाशा समाप्त होने पर नायक को गले लगा लिया और सभी नटों को एक-एक मेडल देने की घोषणा की। रायसाहब के प्रति उनके मन में श्रद्धा के भाव जाग उठे। रायसाहब स्टेज के पीछे ड्रामे का संचालन कर रहे थे। मेहता दौड़ कर उनके गले लिपट गए और मुग्ध हो कर बोले - आपकी दृष्टि इतनी पैनी है, इसका मुझे अनुमान न था। दूसरे दिन जलपान के बाद शिकार का प्रोग्राम था। वहीं किसी नदी के तट पर बाग में भोजन बने, खूब जल-क्रीड़ा की जाय और शाम को लोग घर आवें। देहाती जीवन का आनंद उठाया जाए। जिन मेहमानों को विशेष काम था, वह तो बिदा हो गए, केवल वे ही लोग बच रहे, जिनकी रायसाहब से घनिष्ठता थी। मिसेज खन्ना के सिर में दर्द था, न जा सकीं, और संपादक जी इस मंडली से जले हुए थे और इनके विरुद्ध एक लेख-माला निकाल कर इनकी खबर लेने के विचार में मग्न थे। सब-के-सब छटे हुए गुंडे हैं। हराम के पैसे उड़ाते हैं और मूँछों पर ताव देते हैं। दुनिया में क्या हो रहा है, इन्हें क्या खबर। इनके पड़ोस में कौन मर रहा है, इन्हें क्या परवा। इन्हें तो अपने भोग-विलास से काम है। यह मेहता, जो फिलासफर बना फिरता है, उसे यही धुन है कि जीवन को संपूर्ण बनाओ। महीने में एक हजार मार लाते हो, तुम्हें अख्तियार है, जीवन को संपूर्ण बनाओ या परिपूर्ण बनाओ। जिसको यह फिक्र दबाए डालती है कि लड़कों का ब्याह कैसे हो, या बीमार स्त्री के लिए वैद्य कैसे आएँ या अबकी घर का किराया किसके घर से आएगा, वह अपना जीवन कैसे संपूर्ण बनाए। छूटे सांड़ बने दूसरों के खेत में मुँह मारते फिरते हो और समझते हो, संसार में सब सुखी हैं। तुम्हारी आँखें तब खुलेंगी, जब क्रांति होगी और तुमसे कहा जायगा बचा, खेत में चल कर हल जोतो। तब देखें, तुम्हारा जीवन कैसे संपूर्ण होता है। और वह जो है मालती, जो बहत्तर घाटों का पानी पी कर भी मिस बनी फिरती है! शादी नहीं करेगी, इससे जीवन बंधन में पड़ जाता है, और बंधन में जीवन का पूरा विकास नहीं होता। बस, जीवन का पूरा विकास इसी में है कि दुनिया को लूटे जाओ और निर्द्वंद्व विलास किए जाओ! सारे बंधन तोड़ दो, धर्म और समाज को गोली मारो, जीवन कर्तव्यों को पास न फटकने दो, बस तुम्हारा जीवन संपूर्ण हो गया। इससे ज्यादा आसान और क्या होगा! माँ-बाप से नहीं पटती, उन्हें धता बताओ, शादी मत करो, यह बंधन है, बच्चे होंगे, यह मोहपाश है, मगर टैक्स क्यों देते हो? कानून भी तो बंधन है, उसे क्यों नहीं तोड़ते? उससे क्यों कन्नी काटते हो? जानते हो न कि कानून की जरा भी अवज्ञा की और बेड़ियाँ पड़ जाएँगी। बस, वही बंधन तोड़ो जिसमें अपने भोग-लिप्सा में बाधा नहीं पड़ती। रस्सी को साँप बना कर पीटो और तीसमारखाँ बनो। जीते साँप के पास जाओ ही क्यों, वह फुंकार भी मारेगा तो लहरें आने लगेंगी। उसे आते देखो, तो दुम दबा कर भागो। यह तुम्हारा संपूर्ण जीवन है। आठ बजे शिकार-पार्टी चली। खन्ना ने कभी शिकार न खेला था, बंदूक की आवाज से काँपते थे, लेकिन मिस मालती जा रही थीं, वह कैसे रूक सकते थे। मिस्टर तंखा को अभी तक एलेक्शन के विषय में बातचीत करने का अवसर न मिला था। शायद वहाँ वह अवसर मिल जाए। रायसाहब अपने इलाके में बहुत दिनों से नहीं गए थे। वहाँ का रंग-ढंग देखना चाहते थे। कभी-कभी इलाके में आने-जाने से असामियों से एक संबंध भी तो हो जाता है और रोब भी रहता है। कारकुन और प्यादे भी सचेत रहते हैं। मिर्जा खुर्शेद को जीवन के नए अनुभव प्राप्त करने का शौक था, विशेषकर ऐसे, जिनमें कुछ साहस दिखाना पड़े। मिस मालती अकेले कैसे रहतीं। उन्हें तो रसिकों का जमघट चाहिए। केवल मिस्टर मेहता शिकार खेलने के सच्चे उत्साह से जा रहे थे। रायसाहब की इच्छा तो थी कि भोजन की सामग्री, रसोइया, कहा - खिदमतगार, सब साथ चलें, लेकिन मिस्टर मेहता ने इसका विरोध किया। खन्ना ने कहा - आखिर वहाँ भोजन करेंगे या भूखों मरेंगे? मेहता ने जवाब दिया - भोजन क्यों न करेंगे, लेकिन आज हम लोग खुद अपना सारा काम करेंगे। देखना तो चाहिए कि नौकरों के बगैर हम जिंदा रह सकते हैं या नहीं। मिस मालती पकाएगी और हम लोग खाएगें। देहातों में हाँड़ियाँ और पत्तल मिल ही जाते हैं, और ईंधन की कोई कमी नहीं। शिकार हम करेंगे ही। मालती ने गिला किया - क्षमा कीजिए। आपने रात मेरी कलाई इतने जोर से पकड़ी कि अभी तक दर्द हो रहा है। 'काम तो हम लोग करेंगे, आप केवल बताती जाइएगा।' मिर्जा खुर्शेद बोले - अजी आप लोग तमाशा देखते रहिएगा, मैं सारा इंतजाम कर दूँगा। बात ही कौन-सी है। जंगल में हाँड़ी और बर्तन ढूँढ़ना हिमाकत है। हिरन का शिकार कीजिए, भूनिए, खाइए और वहीं दरख्त के साए में खर्राटे लीजिए। यही प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। दो मोटरें चलीं। एक मिस मालती ड्राइव कर रही थीं, दूसरी खुद रायसाहब। कोई बीस-पच्चीस मील पर पहाड़ी प्रांत शुरू हो गया। दोनों तरफ ऊँची पर्वत-माला दौड़ी चली आ रही थी। सड़क भी पेंचदार होती जाती थी। कुछ दूर की चढ़ाई के बाद एकाएक ढाल आ गया और मोटर वेग से नीचे की ओर चली। दूर से नदी का पाट नजर आया, किसी रोगी की भाँति दुर्बल, निस्पंद। कगार पर एक घने वट वृक्ष की छाँह में कारें रोक दी गईं और लोग उतरे। यह सलाह हुई कि दो-दो की टोली बने और शिकार खेल कर बारह बजे तक यहाँ आ जाए। मिस मालती मेहता के साथ चलने को तैयार हो गईं। खन्ना मन में ऐंठ कर रह गए। जिस विचार से आए थे, उसमें जैसे पंचर हो गया। अगर जानते, मालती दगा देगी, तो घर लौट जाते, लेकिन रायसाहब का साथ उतना रोचक न होते हुए भी बुरा न था। उनसे बहुत-सी मुआमले की बातें करनी थीं। खुर्शेद और तंखा बच रहे। उनकी टोली बनी-बनाई थी। तीनों टोलियाँ एक-एक तरफ चल दीं। कुछ दूर तक पथरीली पगडंडी पर मेहता के साथ चलने के बाद मालती ने कहा - तुम तो चले ही जाते हो। जरा दम ले लेने दो। मेहता मुस्कराए - अभी तो हम एक मील भी नहीं आए। अभी से थक गईं? 'थकी नहीं, लेकिन क्यों न जरा दम ले लो।' 'जब तक कोई शिकार हाथ न आ जाय, हमें आराम करने का अधिकार नहीं।' 'मैं शिकार खेलने न आई थी।' मेहता ने अनजान बन कर कहा - अच्छा, यह मैं न जानता था। फिर क्या करने आई थीं? 'अब तुमसे क्या बताऊँ।' हिरनों का एक झुंड चरता हुआ नजर आया। दोनों एक चट्टान की आड़ में छिप गए और निशाना बाँध कर गोली चलाई। निशाना खाली गया। झुंड भाग निकला। मालती ने पूछा - अब? 'कुछ नहीं, चलो फिर कोई शिकार मिलेगा।' दोनों कुछ देर तक चुपचाप चलते रहे। फिर मालती ने जरा रुक कर कहा - गरमी के मारे बुरा हाल हो रहा है। आओ, इस वृक्ष के नीचे बैठ जायँ। 'अभी नहीं। तुम बैठना चाहती हो, तो बैठो। मैं तो नहीं बैठता।' 'बड़े निर्दयी हो तुम। सच कहती हूँ।' 'जब तक कोई शिकार न मिल जाय, मैं बैठ नहीं सकता। 'तब तो तुम मुझे मार ही डालोगे। अच्छा बताओ, रात तुमने मुझे इतना क्यों सताया? मुझे तुम्हारे ऊपर बड़ा क्रोध आ रहा था। याद है, तुमने मुझे क्या कहा था तुम हमारे साथ चलेगा दिलदार? मैं न जानती थी, तुम इतने शरीर हो। अच्छा, सच कहना, तुम उस वक्त मुझे अपने साथ ले जाते?' मेहता ने कोई जवाब न दिया, मानो सुना ही नहीं। दोनों कुछ दूर चलते रहे। एक तो जेठ की धूप, दूसरे पथरीला रास्ता। मालती थक कर बैठ गई। मेहता खड़े-खड़े बोले - अच्छी बात है, तुम आराम कर लो। मैं यहीं आ जाऊँगा। 'मुझे अकेले छोड़ कर चले जाओगे?' 'मैं जानता हूँ, तुम अपने रक्षा कर सकती हो!' 'कैसे जानते हो?' 'नए युग की देवियों की यही सिफत है। वह मर्द का आश्रय नहीं चाहतीं, उससे कंधा मिला कर चलना चाहती हैं।' मालती ने झेंपते हुए कहा - तुम कोरे फिलासफर हो मेहता, सच। सामने वृक्ष पर एक मोर बैठा हुआ था। मेहता ने निशाना साधा और बंदूक चलाई। मोर उड़ गया। मालती प्रसन्न हो कर बोली - बहुत अच्छा हुआ। मेरा शाप पड़ा। मेहता ने बंदूक कंधों पर रख कर कहा - तुमने मुझे नहीं, अपने आपको शाप दिया। शिकार मिल जाता, तो मैं दस मिनट की मुहलत देता। अब तो तुमको फौरन चलना पड़ेगा। मालती उठ कर मेहता का हाथ पकड़ती हुई बोली - फिलासफरों के शायद हृदय नहीं होता। तुमने अच्छा किया, विवाह नहीं किया, उस गरीब को मार ही डालते। मगर मैं यों न छोडूँगी। तुम मुझे छोड़ कर नहीं जा सकते। मेहता ने एक झटके से हाथ छुड़ा लिया और आगे बढ़े। मालती सजल नेत्र हो कर बोली - मैं कहती हूँ, मत जाओ। नहीं मैं इसी चट्टान पर सिर पटक दूँगी। मेहता ने तेजी से कदम बढ़ाए। मालती उन्हें देखती रही। जब वह बीस कदम निकल गए, तो झुँझला कर उठी और उनके पीछे दौड़ी। अकेले विश्राम करने में कोई आनंद न था। समीप आ कर बोली- मैं तुम्हें इतना पशु न जानती थी। 'मैं जो हिरन मारूँगा, उसकी खाल तुम्हें भेंट करूँगा।' 'खाल जाय भाड़ में। मैं अब तुमसे बात न करूँगी। 'कहीं हम लोगों के हाथ कुछ न लगा और दूसरों ने अच्छे शिकार मारे तो मुझे बड़ी झेंप होगी।' एक चौड़ा नाला मुँह फैलाए बीच में खड़ा था। बीच की चट्टानें उसके दाँतों-सी लगती थीं। धार में इतना वेग था कि लहरें उछली पड़ती थीं। सूर्य मध्याह्न आ पहुँचा था और उसकी प्यासी किरणें जल में क्रीड़ा कर रही थीं। मालती ने प्रसन्न हो कर कहा - अब तो लौटना पड़ा। 'क्यों उस पार चलेंगे। यहीं तो शिकार मिलेंगे।' 'धारा में कितना वेग है। मैं तो बह जाऊँगी।' 'अच्छी बात है। तुम यहीं बैठो, मैं जाता हूँ।' 'हाँ, आप जाइए। मुझे अपने जान से बैर नहीं है।' मेहता ने पानी में कदम रखा और पाँव साधते हुए चले। ज्यों-ज्यों आगे जाते थे, पानी गहरा होता जाता था। यहाँ तक कि छाती तक आ गया। मालती अधीर हो उठी। शंका से मन चंचल हो उठा। ऐसी विकलता तो उसे कभी न होती थी। ऊँचे स्वर में बोली - पानी गहरा है। ठहर जाओ, मैं भी आती हूँ। 'नहीं-नहीं, तुम फिसल जाओगी। धार तेज है।' 'कोई हरज नहीं, मैं आ रही हूँ। आगे न बढ़ना, खबरदार।' मालती साड़ी ऊपर चढ़ा कर नाले में पैठी। मगर दस हाथ आते-आते पानी उसकी कमर तक आ गया। मेहता घबड़ाए। दोनों हाथ से उसे लौट जाने को कहते हुए बोले - तुम यहाँ मत आओ मालती! यहाँ तुम्हारी गर्दन तक पानी है। मालती ने एक कदम और आगे बढ़ कर कहा - होने दो। तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं मर जाऊँ तो तुम्हारे पास ही मरूँगी। मालती पेट तक पानी में थी। धार इतनी तेज थी कि मालूम होता था, कदम उखड़ा। मेहता लौट पड़े और मालती को एक हाथ से पकड़ लिया। मालती ने नशीली आँखों में रोष भर कर कहा - मैंने तुम्हारे-जैसा बेदर्द आदमी कभी न देखा था। बिलकुल पत्थर हो। खैर, आज सता लो, जितना सताते बने, मैं भी कभी समझूँगी। मालती के पाँव उखड़ते हुए मालूम हुए। वह बंदूक सँभालती हुई उनसे चिमट गई। मेहता ने आश्वासन देते हुए कहा - तुम यहाँ खड़ी नहीं रह सकती। मैं तुम्हें अपने कंधों पर बिठाए लेता हूँ। मालती ने भृकुटी टेढ़ी करके कहा - तो उस पार जाना क्या इतना जरूरी है? मेहता ने कुछ उत्तर न दिया। बंदूक कनपटी से कंधों पर दबा ली और मालती को दोनों हाथों से उठा कर कंधों पर बैठा लिया। मालती अपने पुलक को छिपाती हुई बोली - अगर कोई देख ले? 'भद्दा तो लगता है।' दो पग के बाद उसने करुण स्वर में कहा - अच्छा बताओ, मैं यहीं पानी में डूब जाऊँ, तो तुम्हें रंज हो या न हो? मैं तो समझती हूँ, तुम्हें बिलकुल रंज न होगा। मेहता ने आहत स्वर से कहा - तुम समझती हो, मैं आदमी नहीं हूँ? 'मैं तो यही समझती हूँ, क्यों छिपाऊँ।' 'सच कहती हो मालती?' 'तुम क्या समझते हो?' 'मैं! कभी बतलाऊँगा।' पानी मेहता की गर्दन तक आ गया। कहीं अगला कदम उठाते ही सिर तक न आ जाए। मालती का हृदय धक-धक करने लगा। बोली - मेहता, ईश्वर के लिए अब आगे मत जाओ, नहीं, मैं पानी में कूद पडूँगी। उस संकट में मालती को ईश्वर याद आया, जिसका वह मजाक उड़ाया करती थी। जानती थी, ईश्वर कहीं बैठा नहीं है, जो आ कर उन्हें उबार लेगा, लेकिन मन को जिस अवलंब और शक्ति की जरूरत थी, वह और कहाँ मिल सकती थी? पानी कम होने लगा था। मालती ने प्रसन्न हो कर कहा - अब तुम मुझे उतार दो। 'नहीं-नहीं, चुपचाप बैठी रहो। कहीं आगे कोई गढ़ा मिल जाए।' 'तुम समझते होगे, यह कितनी स्वार्थिन है।' 'मुझे इसकी मजदूरी दे देना।' मालती के मन में गुदगुदी हुई। 'क्या मजदूरी लोगे?' 'यही कि जब तुम्हारे जीवन में ऐसा ही कोई अवसर आए, तो मुझे बुला लेना।' किनारे आ गए। मालती ने रेत पर अपने साड़ी का पानी निचोड़ा, जूते का पानी निकाला, मुँह-हाथ धोया, पर ये शब्द अपने रहस्यमय आशय के साथ उसके सामने नाचते रहे। उसने इस अनुभव का आनंद उठाते हुए कहा - यह दिन याद रहेगा। मेहता ने पूछा - तुम बहुत डर रही थीं? 'पहले तो डरी, लेकिन फिर मुझे विश्वास हो गया कि तुम हम दोनों की रक्षा कर सकते हो।' मेहता ने गर्व से मालती को देखा - उनके मुख पर परिश्रम की लाली के साथ तेज था। 'मुझे यह सुन कर कितना आनंद आ रहा है, तुम यह समझ सकोगी मालती?' 'तुमने समझाया कब? उलटे और जंगलों में घसीटते फिरते हो, और अभी फिर लौटती बार यही नाला पार करना पड़ेगा। तुमने कैसी आफत में जान डाल दी। मुझे तुम्हारे साथ रहना पड़े, तो एक दिन न पटे।' मेहता मुस्कराए। इन शब्दों का संकेत खूब समझ रहे थे। 'तुम मुझे इतना दुष्ट समझती हो! और जो मैं कहूँ कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ, तो तुम मुझसे विवाह करोगी?' 'ऐसे काठ-कठोर से कौन विवाह करेगा। रात-दिन जला कर मार डालोगे।' और मधुर नेत्रों से देखा, मानो कह रही हो - इसका आशय तुम खूब समझते हो। इतने बुद्धू नहीं हो। मेहता ने जैसे सचेत हो कर कहा - तुम सच कहती हो मालती! मैं किसी रमणी को प्रसन्न नहीं रख सकता। मुझसे कोई स्त्री प्रेम का स्वाँग नहीं कर सकती। मैं उसके अंतस्तल तक पहुँच जाऊँगा। फिर मुझे उससे अरुचि हो जायगी। मालती काँप उठी। इन शब्दों में कितना सत्य था। उसने पूछा - अच्छा बताओ, तुम कैसे प्रेम से संतुष्ट होगे? 'बस यही कि जो मन में हो, वही मुख पर हो! मेरे लिए रंग-रूप और हाव-भाव और नाजो-अंदाज का मूल्य उतना ही है, जितना होना चाहिए। मैं वह भोजन चाहता हूँ, जिससे आत्मा की तृप्ति हो। उत्तेजक और शोषक पदार्थो की मुझे जरूरत नहीं।' मालती ने होंठ सिकोड़ कर ऊपर को साँस खींचते हुए कहा - तुमसे कोई पेश न पाएगा। एक ही घाघ हो। अच्छा बताओ, मेरे विषय में तुम्हारा क्या खयाल है? मेहता ने नटखटपन से मुस्करा कर कहा - तुम सब कुछ कर सकती हो, बुद्धिमती हो, चतुर हो, प्रतिभावान हो, दयालु हो, चंचल हो, स्वाभिमानी हो, त्याग कर सकती हो, लेकिन प्रेम नहीं कर सकती। मालती ने पैनी दृष्टि से ताक कर कहा - झूठे हो तुम, बिलकुल झूठे। मुझे तुम्हारा यह दावा निस्सार मालूम होता है कि तुम नारी-हृदय तक पहुँच जाते हो। दोनों नाले के किनारे-किनारे चले जा रहे थे। बारह बज चुके थे, पर अब मालती को न विश्राम की इच्छा थी, न लौटने की। आज के सँभाषण में उसे एक ऐसा आनंद आ रहा था, जो उसके लिए बिलकुल नया था। उसने कितने ही विद्वानों और नेताओं को एक मुस्कान में, एक चितवन में, एक रसीले वाक्य में उल्लू बना कर छोड़ दिया था। ऐसी बालू की दीवार पर वह जीवन का आधार नहीं रख सकती थी। आज उसे वह कठोर, ठोस, पत्थर-सी भूमि मिल गई थी, जो फावड़ों से चिनगारियाँ निकाल रही थी और उसकी कठोरता उसे उत्तरोत्तर मोहे लेती थी। धायँ की आवाज हुई। एक लालसर नाले पर उड़ा जा रहा था। मेहता ने निशाना मारा। चिड़िया चोट खा कर भी कुछ दूर उड़ी, फिर बीच धार में गिर पड़ी और लहरों के साथ बहने लगी। 'अब?' 'अभी जा कर लाता हूँ। जाती कहाँ है!' यह कहने के साथ वह रेत में दौड़े और बंदूक किनारे पर रख गड़ाप से पानी में कूद पड़े और बहाव की ओर तैरने लगे, मगर आधा मील तक पूरा जोर लगाने पर भी चिड़िया न पा सके। चिड़िया मर कर भी जैसे उड़ी जा रही थी। सहसा उन्होंने देखा, एक युवती किनारे की एक झोपड़ी से निकली, चिड़िया को बहते देख कर साड़ी को जाँघों तक चढ़ाया और पानी में घुस पड़ी। एक क्षण में उसने चिड़िया पकड़ ली और मेहता को दिखाती हुई बोली - पानी से निकल आओ बाबूजी, तुम्हारी चिड़िया यह है। मेहता युवती की चपलता और साहस देख कर मुग्ध हो गए। तुरंत किनारे की ओर हाथ चलाए और दो मिनट में युवती के पास जा खड़े हुए। युवती का रंग था तो काला और वह भी गहरा, कपड़े बहुत ही मैले और फूहड़, आभूषण के नाम पर केवल हाथों में दो-दो मोटी चूड़ियाँ, सिर के बाल उलझे अलग-अलग। मुख-मंडल का कोई भाग ऐसा नहीं, जिसे सुंदर या सुघड़ कहा जा सके। लेकिन उस स्वच्छ, निर्मल जलवायु ने उसके कालेपन में ऐसा लावण्य भर दिया था और प्रकृति की गोद में पल कर उसके अंग इतने सुडौल, सुगठित और स्वच्छंद हो गए थे कि यौवन का चित्र खीचने के लिए उससे सुंदर कोई रूप न मिलता। उसका सबल स्वास्थ्य जैसे मेहता के मन में बल और तेज भर रहा था। मेहता ने उसे धन्यवाद देते हुए कहा - तुम बड़े मौके से पहुँच गईं, नहीं मुझे न जाने कितनी दूर तैरना पड़ता। युवती ने प्रसन्नता से कहा - मैंने तुम्हें तैरते आते देखा, तो दौड़ी। सिकार खेलने आए होंगे?' 'हाँ, आए तो थे शिकार ही खेलने, मगर दोपहर हो गया और यही चिड़िया मिली है।' 'तेंदुआ मारना चाहो, तो मैं उसका ठौर दिखा दूँ। रात को यहाँ रोज पानी पीने आता है। कभी-कभी दोपहर में भी आ जाता है।' फिर जरा सकुचा कर सिर झुकाए बोली - उसकी खाल हमें देनी पड़ेगी। चलो, मेरे द्वार पर। वहाँ पीपल की छाया है। यहाँ धूप में कब तक खड़े रहोगे? कपड़े भी तो गीले हो गए हैं। मेहता ने उसकी देह में चिपकी हुई गीली साड़ी की ओर देख कर कहा - तुम्हारे कपड़े भी तो गीले हैं। उसने लापरवाही से कहा - ऊँह हमारा क्या, हम तो जंगल के हैं। दिन-दिन भर धूप और पानी में खड़े रहते हैं, तुम थोड़े ही रह सकते हो। लड़की कितनी समझदार है और बिलकुल गँवार। 'तुम खाल ले कर क्या करोगी?' 'हमारे दादा बाजार में बेचते हैं। यही तो हमारा काम है।' 'लेकिन दोपहरी यहाँ काटें, तुम खिलाओगी क्या?' युवती ने लजाते हुए कहा - तुम्हारे खाने लायक हमारे घर में क्या है। मक्के की रोटियाँ खाओ, तो धरी हैं। चिड़िए का सालन पका दूँगी। तुम बताते जाना, जैसे बनाना हो। थोड़ा-सा दूध भी है। हमारी गैया को एक बार तेंदुए ने घेरा था। उसे सींगों से भगा कर भाग आई, तब से तेंदुआ उससे डरता है। 'लेकिन मैं अकेला नहीं हूँ। मेरे साथ एक औरत भी है।' 'तुम्हारी घरवाली होगी?' 'नहीं, घरवाली तो अभी नहीं है, जान-पहचान की है।' 'तो मैं दौड़ कर उनको बुला लाती हूँ। तुम चल कर छाँह में बैठो।' 'नहीं-नहीं, मैं बुला लाता हूँ।' तुम थक गए होगे। शहर के रहैया, जंगल में काहे आते होंगे। हम तो जंगली आदमी हैं। किनारे ही तो खड़ी होंगी।' जब तक मेहता कुछ बोलें, वह हवा हो गई। मेहता ऊपर चढ़ कर पीपल की छाँह में बैठे, तो इस स्वच्छंद जीवन से उनके मन में अनुराग उत्पन्न हुआ। सामने की पर्वत-माला दर्शन-तत्व की भाँति अगम्य और अनंत फैली हुई, मानो ज्ञान का विस्तार कर रही हो, मानों आत्मा उस ज्ञान को, उस प्रकाश को, उस अगम्यता को, उसके प्रत्यक्ष विराट रूप में देख रही हो। दूर के एक बहुत ऊँचे शिखर पर एक छोटा-सा मंदिर था, जो उस अगम्यता में बुद्धि की भाँति ऊँचा, पर खोया हुआ-सा खड़ा था, मानो वहाँ तक पर मार कर पक्षी विश्राम लेना चाहता है और कहीं स्थान नहीं पाता। मेहता इन्हीं विचारों में डूबे हुए थे कि युवती मिस मालती को साथ लिए आ पहुँची, एक वन-पुष्प की भाँति धूप में खिली हुई, दूसरी गमले के फूल की भाँति धूप में मुरझाई और निर्जीव। मालती ने बेदिली के साथ कहा - पीपल की छाँह बहुत अच्छी लग रही है, क्यों और यहाँ भूख के मारे प्राण निकले जा रहे हैं। युवती दो बड़े-बड़े मटके उठा लाई और बोली - तुम जब तक यहीं बैठो, मैं अभी दौड़ कर पानी लाती हूँ, फिर चूल्हा जला दूँगी, और मेरे हाथ का खाओ, तो मैं एक छन में बाटियाँ सेंक दूँगी, नहीं, अपने आप सेंक लेना। हाँ, गेहूँ का आटा मेरे घर में नहीं है और यहाँ कहीं कोई दुकान भी नहीं है कि ला दूँ। मालती को मेहता पर क्रोध आ रहा था। बोली - तुम यहाँ क्यों आ कर पड़ रहे? मेहता ने चिढ़ाते हुए कहा - एक दिन जरा जीवन का आनंद भी तो उठाओ। देखो, मक्के की रोटियों में कितना स्वाद है। मुझसे मक्के की रोटियाँ खाई ही न जायँगी, और किसी तरह निगल भी जाऊँ तो हजम न होंगी। तुम्हारे साथ आ कर मैं बहुत पछता रही हूँ। रास्ते-भर दौड़ा के मार डाला और अब यहाँ ला कर पटक दिया।' मेहता ने कपड़े उतार दिए थे और केवल एक नीला जांघिया पहने बैठे हुए थे। युवती को मटके ले जाते देखा, तो उसके हाथ से मटके छीन लिए और कुएँ पर पानी भरने चले। दर्शन के गहरे अध्ययन में भी उन्होंने अपने स्वास्थ्य की रक्षा की थी और दोनों मटके ले कर चलते हुए उनकी माँसल और चौड़ी छाती और मछलीदार जाँघें किसी यूनानी प्रतिमा के सुगठित अंगों की भाँति उनके पुरुषार्थ का परिचय दे रही थीं। युवती उन्हें पानी खींचते हुए अनुराग-भरी आँखों से देख रही थी। वह अब उसकी दया के पात्र नहीं, श्रद्धा के पात्र हो गए थे। कुआँ बहुत गहरा था, कोई साठ हाथ, मटके भारी थे और मेहता कसरत का अभ्यास करते रहने पर भी एक मटका खींचते-खींचते शिथिल हो गए। युवती ने दौड़ कर उनके हाथ से रस्सी छीन ली और बोली - तुमसे न खींचेगा। तुम जा कर खाट पर बैठो, मैं खींचे लेती हूँ। मेहता अपने पुरुषत्व का यह अपमान न सह सके। रस्सी उसके हाथ से फिर ले ली और जोर मार कर एक क्षण में दूसरा मटका भी खींच लिया और दोनों हाथों में दोनों मटके लिए, आ कर झोपड़ी के द्वार पर खड़े हो गए। युवती ने चटपट आग जलाई, लालसर के पंख झुलस डाले। छुरे से उसकी बोटियाँ बनाईं और चूल्हे में आग जला कर माँस चढ़ा दिया और चूल्हे के दूसरे ऐले पर कढ़ाई में दूध उबालने लगी। और मालती भौंहें चढ़ाए, खाट पर खिन्न-मन पड़ी इस तरह यह दृश्य देख रही थी, मानो उसके आपरेशन की तैयारी हो रही हो। मेहता झोपड़ी के द्वार पर खड़े हो कर, युवती के गृह-कौशल को अनुरक्त नेत्रों से देखते हुए बोले - मुझे भी तो कोई काम बताओ, मैं क्या करूँ? युवती ने मीठी झिड़की के साथ कहा - तुम्हें कुछ नहीं करना है, जा कर बाई के पास बैठो, बेचारी बहुत भूखी है, दूध गरम हुआ जाता है, उसे पिला देना। उसने एक घड़े से आटा निकाला और गूँधने लगी। मेहता उसके अंगों का विलास देखते रहे। युवती भी रह-रह कर उन्हें कनखियों से देख कर अपना काम करने लगती थी। मालती ने पुकारा - तुम वहाँ क्यों खड़े हो? मेरे सिर में जोर का दर्द हो रहा है। आधा सिर ऐसा फटा पड़ता है, जैसे गिर जायगा। मेहता ने आ कर कहा - मालूम होता है, धूप लग गई है। 'मैं क्या जानती थी, तुम मुझे मार डालने के लिए यहाँ ला रहे हो।' 'तुम्हारे साथ कोई दवा भी तो नहीं है?' 'क्या मैं किसी मरीज को देखने आ रही थी, जो दवा ले कर चलती? मेरा एक दवाओं का बक्स है, वह सेमरी में है! उफ! सिर फटा जाता है।' मेहता ने उसके सिर की ओर जमीन पर बैठ कर धीरे-धीरे उसका सिर सहलाना शुरू किया। मालती ने आँखें बंद कर लीं। युवती हाथों में आटा भरे, सिर के बाल बिखेरे, आँखें धुएँ से लाल और सजल, सारी देह पसीने में तर, जिससे उसका उभरा हुआ वक्ष साफ झलक रहा था, आ कर खड़ी हो गई और मालती को आँखें बंद किए पड़ी देख कर बोली - बाई को क्या हो गया है? 'मेहता बोले- सिर में बड़ा दर्द है। 'पूरे सिर में है कि आधे में?' 'आधे में बतलाती हैं।' 'दाईं ओर है, कि बाईं ओर?' 'बाईं ओर।' 'मैं अभी दौड़ के एक दवा लाती हूँ। घिस कर लगाते ही अच्छा हो जायगा।' 'तुम इस धूप में कहाँ जाओगी?' युवती ने सुना ही नहीं। वेग से एक ओर जा कर पहाड़ियों में छिप गई। कोई आधा घंटे बाद मेहता ने उसे ऊँची पहाड़ी पर चढ़ते देखा। दूर से बिलकुल गुड़िया-सी लग रही थी। मन में सोचा - इस जंगली छोकरी में सेवा का कितना भाव और कितना व्यावहारिक ज्ञान है। लू और धूप में आसमान पर चढ़ी चली जा रही है। मालती ने आँखें खोल कर देखा - कहाँ गई वह कलूटी। गजब की काली है, जैसे आबनूस का कुंदा हो। इसे भेज दो, रायसाहब से कह आए, कार यहाँ भेज दें। इस तपिश में मेरा दम निकल जायगा। 'कोई दवा लेने गई है। कहती है, उससे आधा-सिर का दर्द बहुत जल्द आराम हो जाता है।' इनकी दवाएँ इन्हीं को फायदा करती हैं, मुझे न करेंगी। तुम तो इस छोकरी पर लट्टू हो गए हो। कितने छिछोरे हो। जैसी रूह वैसे फरिश्ते।' मेहता को कटु सत्य कहने में संकोच न होता था। 'कुछ बातें तो उसमें ऐसी हैं कि अगर तुममें होतीं, तो तुम सचमुच देवी हो जातीं।' 'उसकी खूबियाँ उसे मुबारक, मुझे देवी बनने की इच्छा नहीं।' 'तुम्हारी इच्छा हो, तो मैं जा कर कार लाऊँ, यद्यपि कार यहाँ आ भी सकेगी, मैं नहीं कह सकता।' 'उस कलूटी को क्यों नहीं भेज देते?' 'वह तो दवा लेने गई है, फिर भोजन पकाएगी।' 'तो आज आप उसके मेहमान हैं। शायद रात को भी यहीं रहने का विचार होगा। रात को शिकार भी तो अच्छे मिलते हैं।' मेहता ने इस आक्षेप से चिढ़ कर कहा - इस युवती के प्रति मेरे मन में जो प्रेम और श्रद्धा है, वह ऐसी है कि अगर मैं उसकी ओर वासना से देखूँ तो आँखें फूट जायँ। मैं अपने किसी घनिष्ठ मित्र के लिए भी इस धूप और लू में उस ऊँची पहाड़ी पर न जाता। और हम केवल घड़ी-भर के मेहमान हैं, यह वह जानती है। वह किसी गरीब औरत के लिए भी इसी तत्परता से दौड़ जायगी। मैं विश्व-बंधुत्व और विश्व-प्रेम पर केवल लेख लिख सकता हूँ, केवल भाषण दे सकता हूँ, वह उस प्रेम और त्याग का व्यवहार करती है। कहने से करना कहीं कठिन है। इसे तुम भी जानती हो। मालती ने उपहास भाव से कहा - बस-बस, वह देवी है। मैं मान गई। उसके वक्ष में उभार है, नितंबों में भारीपन है, देवी होने के लिए और क्या चाहिए। मेहता तिलमिला उठे। तुरंत उठे और कपड़े पहने, जो सूख गए थे। बंदूक उठाई और चलने को तैयार हुए। मालती ने फुंकार मारी - तुम नहीं जा सकते, मुझे अकेली छोड़ कर। 'तब कौन जायगा?' 'वही तुम्हारी देवी।' मेहता हतबुद्धि-से खड़े थे। नारी पुरुष पर कितनी आसानी से विजय पा सकती है, इसका आज उन्हें जीवन में पहला अनुभव हुआ। वह दौड़ती-हाँफती चली आ रही थी। वही कलूटी युवती, हाथ में एक झाड़ लिए हुए। समीप आ कर मेहता को कहीं जाने को तैयार देख कर बोली - मैं वह जड़ी खोज लाई। अभी घिस कर लगाती हूँ, लेकिन तुम कहाँ जा रहे हो? माँस तो पक गया होगा, मैं रोटियाँ सेंक देती हूँ। दो-एक खा लेना। बाई दूध पी लेगी। ठंडा हो जाय, तो चले जाना। उसने निःसंकोच भाव से मेहता के अचकन की बटनें खोल दीं। मेहता अपने को बहुत रोके हुए थे। जी होता था, इस गँवारिन के चरणों को चूम लें। मालती ने कहा - अपने दवाई रहने दे। नदी के किनारे, बरगद के नीचे हमारी मोटरकार खड़ी है। वहाँ और लोग होंगे। उनसे कहना, कार यहाँ लाएँ। दौड़ी हुई जा। युवती ने दीन नेत्रों से मेहता को देखा। इतनी मेहनत से बूटी लाई, उसका यह अनादर! इस गँवारिन की दवा इन्हें नहीं जँची, तो न सही, उसका मन रखने को ही जरा-सी लगवा लेतीं, तो क्या होता। उसने बूटी जमीन पर रख कर पूछा - तब तक तो चूल्हा ठंडा हो जायगा बाई जी। कहो तो रोटियाँ सेंक कर रख दूँ। बाबूजी खाना खा लें, तुम दूध पी लो और दोनों जने आराम करो। तब तक मैं मोटर वाले को बुला लाऊँगी। वह झोपड़ी में गई, बुझी हुई आग फिर जलाई। देखा तो माँस उबल गया था। कुछ जल भी गया था। जल्दी-जल्दी रोटियाँ सेंकी, दूध गर्म था, उसे ठंडा किया और एक कटोरे में मालती के पास लाई। मालती ने कटोरे के भद्देपन पर मुँह बनाया; लेकिन दूध त्याग न सकी। मेहता झोपड़ी के द्वार पर बैठ कर एक थाली में माँस और रोटियाँ खाने लगे। युवती खड़ी पंख झल रही थी। मालती ने युवती से कहा - उन्हें खाने दो। कहीं भागे नहीं जाते हैं। तू जा कर गाड़ी ला। युवती ने मालती की ओर एक बार सवाल की आँखों से देखा, यह क्या चाहती हैं। इनका आशय क्या है? उसे मालती के चेहरे पर रोगियों की-सी नम्रता और कृतज्ञता और याचना न दिखाई दी। उसकी जगह अभिमान और प्रमाद की झलक थी। गँवारिन मनोभावों को पहचानने में चतुर थी। बोली - मैं किसी की लौंडी नहीं हूँ बाई जी! तुम बड़ी हो, अपने घर की बड़ी हो। मैं तुमसे कुछ माँगने तो नहीं जाती। मैं गाड़ी लेने न जाऊँगी। मालती ने डाँटा - अच्छा, तूने गुस्ताखी पर कमर बाँधी! बता, तू किसके इलाके में रहती है? 'यह रायसाहब का इलाका है।' 'तो तुझे उन्हीं रायसाहब के हाथों हंटरों से पिटवाऊँगी।' 'मुझे पिटवाने से तुम्हें सुख मिले तो पिटवा लेना बाई जी! कोई रानी-महारानी थोड़ी हूँ कि लस्कर भेजनी पड़ेगी।' मेहता ने दो-चार कौर निगले थे कि मालती की यह बातें सुनीं। कौर कंठ में अटक गया। जल्दी से हाथ धोया और बोले - वह नहीं जायगी। मैं जा रहा हूँ। मालती भी खड़ी हो गई - उसे जाना पड़ेगा। मेहता ने अंग्रेजी में कहा - उसका अपमान करके तुम अपना सम्मान बढ़ा नहीं रही हो मालती! मालती ने फटकार बताई - ऐसी ही लौंडियाँ मर्दों को पसंद आती हैं, जिनमें और कोई गुण हो या न हो, उनकी टहल दौड़-दौड़ कर प्रसन्न मन से करें और अपना भाग्य सराहें कि इस पुरुष ने मुझसे यह काम करने को तो कहा - वह देवियाँ हैं, शक्तियाँ हैं, विभूतियाँ हैं। मैं समझती थी, वह पुरुषत्व तुममें कम-से-कम नहीं है, लेकिन अंदर से, संस्कारों से, तुम भी वही बर्बर हो। मेहता मनोविज्ञान के पंडित थे। मालती के मनोरहस्यों को समझ रहे थे। ईर्ष्या का ऐसा अनोखा उदाहरण उन्हें कभी न मिला था। उस रमणी में, जो इतनी मृदु-स्वभाव, इतनी उदार, इतनी प्रसन्न-मुख थी, ईर्ष्या की ऐसी प्रचंड ज्वाला! बोले - कुछ भी कहो, मैं उसे न जाने दूँगा। उसकी सेवाओं और कृपाओं का यह पुरस्कार दे कर मैं अपने नजरों में नीच नहीं बन सकता। मेहता के स्वर में कुछ ऐसा तेज था कि मालती धीरे-से उठी और चलने को तैयार हो गई। उसने जल कर कहा - अच्छा, तो मैं ही जाती हूँ, तुम उसके चरणों की पूजा करके पीछे आना। मालती दो-तीन कदम चली गई, तो मेहता ने युवती से कहा - अब मुझे आज्ञा दो बहन, तुम्हारा यह नेह, तुम्हारी यह नि:स्वार्थ सेवा हमेशा याद रहेगी। युवती ने दोनों हाथों से, सजल नेत्र हो कर उन्हें प्रणाम किया और झोपड़ी के अंदर चली गई। दूसरी टोली रायसाहब और खन्ना की थी। रायसाहब तो अपने उसी रेशमी कुरते और रेशमी चादर में थे। मगर खन्ना ने शिकारी सूट डाँटा था, जो शायद आज ही के लिए बनवाया गया था; क्योंकि खन्ना को असामियों के शिकार से इतनी फुर्सत कहाँ थी कि जानवरों का शिकार करते। खन्ना ठिंगने, इकहरे, रूपवान आदमी थे, गेहुंआ रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, मुँह पर चेचक के दाग, बातचीत में बड़े कुशल। कुछ देर चलने के बाद खन्ना ने मिस्टर मेहता का जिक्र छेड़ दिया, जो कल से ही उनके मस्तिष्क में राहु की भाँति समाए हुए थे। बोले - यह मेहता भी कुछ अजीब आदमी है। मुझे तो कुछ बना हुआ मालूम होता है। रायसाहब मेहता की इज्जत करते थे और उन्हें सच्चा और निष्कपट आदमी समझते थे, पर खन्ना से लेन-देन का व्यवहार था, कुछ स्वभाव से शांतिप्रिय भी थे, विरोध न कर सके। बोले - मैं तो उन्हें केवल मनोरंजन की वस्तु समझता हूँ। कभी उनसे बहस नहीं करता और करना भी चाहूँ तो उतनी विद्या कहाँ से लाऊँ? जिसने जीवन के क्षेत्र में कभी कदम ही नहीं रखा, वह अगर जीवन के विषय में कोई नया सिद्धांत अलापता है, तो मुझे उस पर हँसी आती है। मजे से एक हजार माहवार फटकारते हैं, न जोरू न जाँता, न कोई चिंता न बाधा, वह दर्शन न बघारें तो कौन बघारे ! आप निर्द्वंद्व रह कर जीवन को संपूर्ण बनाने का स्वप्न देखते हैं। ऐसे आदमी से क्या बहस की जाए। 'मैंने सुना, चरित्र का अच्छा नहीं है।' 'बेफिक्री में चरित्र अच्छा रह ही कैसे सकता है। समाज में रहो और समाज के कर्तव्यों और मर्यादाओं का पालन करो, तब पता चले।' 'मालती न जाने क्या देख कर उन पर लट्टू हुई जाती है।' 'मैं समझता हूँ, वह केवल तुम्हें जला रही है।' मुझे वह क्या जलाएँगी, बेचारी। मैं उन्हें खिलौने से ज्यादा नहीं समझता।' 'यह तो न कहो मिस्टर खन्ना, मिस मालती पर जान तो देते हो तुम।' 'यों तो मैं आपको भी यही इलजाम दे सकता हूँ।' 'मैं सचमुच खिलौना समझता हूँ। आप उन्हें प्रतिमा बनाए हुए हैं।' खन्ना ने जोर से कहकहा मारा, हालाँकि हँसी की कोई बात न थी। 'अगर एक लोटा जल चढ़ा देने से वरदान मिल जाय, तो क्या बुरा है।' अबकी रायसाहब ने जोर से कहकहा मारा, जिसका कोई प्रयोजन न था। 'तब आपने उस देवी को समझा ही नहीं। आप जितनी ही उसकी पूजा करेंगे, उतना ही वह आपसे दूर भागेंगी। जितना ही दूर भागिएगा, उतना ही आपकी ओर दौड़ेंगी।' 'तब तो उन्हें आपकी ओर दौड़ना चाहिए था।' 'मेरी ओर! मैं उस रसिक-समाज से बिलकुल बाहर हूँ मिस्टर खन्ना, सच कहता हूँ। मुझमें जितनी बुद्धि, जितना बल है, वह इस इलाके के प्रबंध में ही खर्च हो जाता है। घर के जितने प्राणी हैं, सभी अपनी-अपनी धुन में मस्त, कोई उपासना में, कोई विषय-वासना में। कोऊ काहू में मगन, कोऊ काहू में मगन। और इन सब अजगरों को भक्ष्य देना मेरा काम है, कर्तव्य है। मेरे बहुत से ताल्लुकेदार भाई भोग-विलास करते हैं, यह मैं जानता हूँ। मगर वह लोग घर फूँक कर तमाशा देखते हैं। कर्ज का बोझ सिर पर लदा जा रहा है, रोज डिगरियाँ हो रही हैं। जिससे लेते हैं, उसे देना नहीं जानते, चारों तरफ बदनाम। मैं तो ऐसी जिंदगी से मर जाना अच्छा समझता हूँ! मालूम नहीं, किस संस्कार से मेरी आत्मा में जरा-सी जान बाकी रह गई, जो मुझे देश और समाज के बंधन में बाँधे हुए है। सत्याग्रह-आंदोलन छिड़ा। मेरे सारे भाई शराब-कबाब में मस्त थे। मैं अपने को न रोक सका। जेल गया और लाखों रुपए की जेरबारी उठाई और अभी तक उसका तावान दे रहा हूँ। मुझे उसका पछतावा नहीं है। बिलकुल नहीं। मुझे उसका गर्व है! मैं उस आदमी को आदमी नहीं समझता, जो देश और समाज की भलाई के लिए उद्योग न करे और बलिदान न करे। मुझे क्या यह अच्छा लगता है कि निर्जीव किसानों का रक्त चूसूँ और अपने परिवारवालों की वासनाओं की तृप्ति के साधन जुटाऊँ, मगर क्या करूँ? जिस व्यवस्था में पला और जिया, उससे घृणा होने पर भी उसका मोह त्याग नहीं सकता और उसी चर्खे में रात-दिन पड़ा हुआ हूँ कि किसी तरह इज्जत-आबरू बची रहे, और आत्मा की हत्या न होने पाए। ऐसा आदमी मिस मालती क्या, किसी भी मिस के पीछे नहीं पड़ सकता, और पड़े तो उसका सर्वनाश ही समझिए। हाँ, थोड़ा-सा मनोरंजन कर लेना दूसरी बात है।' मिस्टर खन्ना भी साहसी आदमी थे, संग्राम में आगे बढ़ने वाले। दो बार जेल हो आए थे। किसी से दबना न जानते थे। खद्दर पहनते थे और फ्रांस की शराब पीते थे। अवसर पड़ने पर बड़ी-बड़ी तकलीफे झेल सकते थे। जेल में शराब छुई तक नहीं, और 'ए' क्लास में रह कर भी 'सी' क्लास की रोटियाँ खाते रहे, हालाँकि, उन्हें हर तरह का आराम मिल सकता था, मगर रण-क्षेत्र में जाने वाला रथ भी तो बिना तेल के नहीं चल सकता। उनके जीवन में थोड़ी-सी रसिकता लाजिमी थी। बोले - आप संन्यासी बन सकते हैं, मैं तो नहीं बन सकता। मैं तो समझता हूँ, जो भोगी नहीं है, वह संग्राम में भी पूरे उत्साह से नहीं जा सकता। जो रमणी से प्रेम नहीं कर सकता, उसके देश-प्रेम में मुझे विश्वास नहीं। राय साहब मुस्कराए - आप मुझी पर आवाजें कसने लगे। 'आवाज नहीं है, तत्व की बात है।' 'शायद हो।' 'आप अपने दिल के अंदर पैठ कर देखिए तो पता चले।' 'मैंने तो पैठ कर देखा है, और मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, वहाँ और चाहे जितनी बुराइयाँ हों, विषय की लालसा नहीं है।' 'तब मुझे आपके ऊपर दया आती है। आप जो इतने दुखी और निराश और चिंतित हैं, इसका एकमात्र कारण आपका निग्रह है। मैं तो यह नाटक खेल कर रहूँगा, चाहे दु:खांत ही क्यों न हो। वह मुझसे मजाक करती है, दिखाती है कि मुझे तेरी परवाह नहीं है, लेकिन मैं हिम्मत हारने वाला मनुष्य नहीं हूँ। मैं अब तक उसका मिजाज नहीं समझ पाया। कहाँ निशाना ठीक बैठेगा, इसका निश्चय न कर सका। जिस दिन यह कुंजी मिल गई, बस फतह है।' 'लेकिन वह कुंजी आपको शायद ही मिले। मेहता शायद आपसे बाजी मार ले जायँ।' एक हिरन कई हिरनियों के साथ चर रहा था, बड़ी सींगों वाला, बिलकुल काला। रायसाहब ने निशाना बाँधा। खन्ना ने रोका - क्यों हत्या करते हो यार बेचारा चर रहा है, चरने दो। धूप तेज हो गई। आइए कहीं बैठ जायँ। आपसे कुछ बातें करनी हैं। रायसाहब ने बंदूक चलाई, मगर हिरन भाग गया। बोले - एक शिकार मिला भी तो निशाना खाली गया। 'एक हत्या से बचे।' 'हाँ कहिए, क्या कहने जा रहे थे।' 'आपके इलाके में ऊख होती है?' 'बड़ी कसरत से।' 'तो फिर क्यों न हमारे शुगर मिल में शामिल हो जाइए? हिस्से धड़ाधड़ बिक रहे हैं। आप ज्यादा नहीं, एक हजार हिस्से खरीद लें?' 'गजब किया, मैं इतने रुपए कहाँ से लाऊँगा?' 'इतने नामी इलाकेदार और आपको रूपयों की कमी! कुल पचास हजार ही तो होते हैं। उनमें भी अभी 25 फीसदी ही देना है।' 'नहीं भाई साहब, मेरे पास इस वक्त बिलकुल रुपए नहीं हैं। 'रुपए जितने चाहें, मुझसे लीजिए। बैंक आपका है। हाँ, अभी आपने अपनी जिंदगी इंश्योर्ड न कराई होगी। मेरी कंपनी में एक अच्छी-सी पालिसी लीजिए। सौ-दो सौ रुपए तो आप बड़ी आसानी से हर महीने दे सकते हैं और इकट्टी रकम मिल जायगी - चालीस-पचास हजार। लड़कों के लिए इससे अच्छा प्रबंध आप नहीं कर सकते। हमारी नियमावली देखिए। हम पूर्ण सहकारिता के सिद्धांत पर काम करते हैं। दफ्तर और कर्मचारियों के खर्च के सिवा नफे की एक पाई भी किसी की जेब में नहीं जाती। आपको आश्चर्य होगा कि इस नीति से कंपनी चल कैसे रही हैं! और मेरी सलाह से थोड़ा-सा स्पेकुलेशन का काम भी शुरू कर दीजिए। यह जो सैकड़ों करोड़पति बने हुए हैं, सब इसी स्पेकुलेशन से बने हैं। रूई, शक्कर, गेहूँ, रबर किसी जिंस का सट्टा कीजिए। मिनटों में लाखों का वारा-न्यारा होता है। काम जरा अटपटा है। बहुत से लोग गच्चा खा जाते हैं, लेकिन वही, जो अनाड़ी हैं। आप जैसे अनुभवी, सुशिक्षित और दूरंदेश लोगों के लिए इससे ज्यादा नफे का काम ही नहीं। बाजार का चढ़ाव-उतार कोई आकस्मिक घटना नहीं। इसका भी विज्ञान है। एक बार उसे गौर से देख लीजिए, फिर क्या मजाल कि धोखा हो जाए।' रायसाहब कंपनियों पर अविश्वास करते थे, दो-एक बार इसका उन्हें कड़वा अनुभव हो भी चुका था, लेकिन मिस्टर खन्ना को उन्होंने अपनी आँखों के सामने बढ़ते देखा था और उनकी कार्यक्षमता के कायल हो गए थे। अभी दस साल पहले जो व्यक्ति बैंक में क्लर्क था, वह केवल न अपने अधयवसाय, पुरुषार्थ और प्रतिभा से शहर में पुजता है। उसकी सलाहों की उपेक्षा न की जा सकती थी। इस विषय में अगर खन्ना उनके पथ-प्रदर्शक हो जायँ, तो उन्हें बहुत कुछ कामयाबी हो सकती है। ऐसा अवसर क्यों छोड़ा जाय? तरह-तरह के प्रश्न करते रहे। सहसा एक देहाती एक बड़ी-सी टोकरी में कुछ जड़ें, कुछ पत्तियाँ, कुछ फूल लिए, जाता नजर आया। खन्ना ने पूछा - अरे, क्या बेचता है? देहाती सकपका गया। डरा, कहीं बेगार में न पकड़ जाए। बोला - कुछ तो नहीं मालिक यही घास-पात है?' 'क्या करेगा इनको?' 'बेचूँगा मालिक जड़ी-बूटी है।' 'कौन-कौन-सी जड़ी-बूटी है, बता?' देहाती ने अपना औषधालय खोल कर दिखलाया। मामूली चीजें थीं, जो जंगल के आदमी उखाड़ कर ले जाते हैं और शहर में अत्तारों के हाथ दो-चार आने में बेच आते हैं। जैसे मकोय, कंघी, सहदेइया, कुकरौंधो, धतूरे के बीज, मदार के फूल, करंजे, घुमची आदि। हर एक चीज दिखाता था और रटे हुए शब्दों में उनके गुण भी बयान करता जाता था। यह मकोय है सरकार! ताप हो, मंदाग्नि हो, तिल्ली हो, धड़कन हो, शूल हो, खाँसी हो, एक खुराक में आराम हो जाता है। यह धतूरे के बीज हैं, मालिक गठिया हो, बाई हो........... खन्ना ने दाम पूछा - उसने आठ आने कहे। खन्ना ने एक रूपया फेंक दिया और उसे पड़ाव तक रख आने का हुक्म दिया। गरीब ने मुँह-माँगा दाम ही नहीं पाया, उसका दुगुना पाया। आशीर्वाद देता चला गया। रायसाहब ने पूछा - आप यह घास-पात ले कर क्या करेंगे? खन्ना ने मुस्करा कर कहा - इनकी अशर्फियाँ बनाऊँगा। मैं कीमियागर हूँ। यह आपको शायद नहीं मालूम। 'तो यार, वह मंत्र हमें भी सिखा दो।' 'हाँ-हाँ, शौक से। मेरी शागिर्दी कीजिए। पहले सवा सेर लड्डू ला कर चढ़ाइए, तब बतलाऊँगा। बात यह है कि मेरा तरह-तरह के आदमियों से साबका पड़ता है। कुछ ऐसे लोग भी आते हैं, जो जड़ी-बूटियों पर जान देते हैं। उनको इतना मालूम हो जाय कि यह किसी फकीर की दी हुई बूटी है, फिर आपकी खुशामद करेंगे, नाक रगड़ेंगे, और आप वह चीज उन्हें दे दें, तो हमेशा के लिए आपके ॠणी हो जाएँगे। एक रुपए में अगर दस-बीस बुद्धुओं पर एहसान का नमदा कसा जा सके, तो क्या बुरा है? जरा से एहसान से बड़े-बड़े काम निकल जाते हैं।' रायसाहब ने कौतूहल से पूछा- मगर इन बूटियों के गुण आपको याद कैसे रहेंगे? खन्ना ने कहकहा मारा - आप भी रायसाहब! बड़े मजे की बातें करते हैं। जिस बूटी में जो भी गुण चाहे बता दीजिए, वह आपकी लियाकत पर मुनहसर है। सेहत तो रुपए में आठ आने विश्वास से होती है। आप जो इन बड़े-बड़े अफसरों को देखते हैं, और इन लंबी पूँछवाले विद्वानों को, और इन रईसों को, ये सब अंधविश्वासी होते हैं। मैं तो वनस्पति-शास्त्र के प्रोफेसर को जानता हूँ, जो कुकरौंधो का नाम भी नहीं जानते। इन विद्वानों का मजाक तो हमारे स्वामीजी खूब उड़ाते हैं। आपको तो कभी उनके दर्शन न हुए होंगे। अबकी आप आएँगे, तो उनसे मिलाऊँगा। जब से मेरे बगीचे में ठहरे हैं, रात-दिन लोगों का ताँता लगा रहता है। माया तो उन्हें छू भी नहीं गई। केवल एक बार दूध पीते हैं। ऐसा विद्वान महात्मा मैंने आज तक नहीं देखा। न जाने कितने वर्ष हिमालय पर तप करते रहे। पूरे सिद्ध पुरुष हैं। आप उनसे अवश्य दीक्षा लीजिए। मुझे विश्वास है, आपकी यह सारी कठिनाइयाँ छूमंतर हो जाएँगी। आपको देखते ही आपका भूत-भविष्य सब कह सुनाएँगे। ऐसे प्रसन्न-मुख हैं कि देखते ही मन खिल उठता है। ताज्जुब तो, यह है कि खुद इतने बड़े महात्मा हैं, मगर संन्यास और त्याग, मंदिर और मठ, संप्रदाय और पंथी, इन सबको ढोंग कहते हैं, पाखंड कहते हैं। रूढ़ियों के बंधन को तोड़ो और मनुष्य बनो, देवता बनने का खयाल छोड़ो। देवता बन कर तुम मनुष्य न रहोगे। रायसाहब के मन में शंका हुई। महात्माओं में उन्हें भी वह विश्वास था, जो प्रभुतावालों में आमतौर पर होता है। दु:खी प्राणी को आत्मचेतन में जो शांति मिलती है, उसके लिए वह भी लालायित रहते थे। जब आर्थिक कठिनाइयों से निराश हो जाते, मन में आता, संसार से मुँह मोड़ कर एकांत में जा बैठें और मोक्ष की चिंता करें। संसार के बंधनों को वह भी साधारण मनुष्यों की भाँति आत्मोन्नति के मार्ग की बाधाएँ समझते थे और इनसे दूर हो जाना ही उनके जीवन का भी आदर्श था, लेकिन संन्यास और त्याग के बिना बंधनों को तोड़ने का और क्या उपाय है? 'लेकिन जब वह संन्यास को ढोंग कहते हैं, तो खुद क्यों संन्यास लिया है?' 'उन्होंने संन्यास कब लिया है साहब, वह तो कहते हैं - आदमी को अंत तक काम करते रहना चाहिए। विचार-स्वातंत्र्य उनके उपदेशों का तत्व है।' 'मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। विचार-स्वातंत्रय का आशय क्या है?' 'समझ में तो मेरे भी कुछ नहीं आया, अबकी आइए, तो उनसे बातें हों। वह प्रेम को जीवन का सत्य कहते हैं। और इसकी ऐसी सुंदर व्याख्या करते हैं कि मन मुग्ध हो जाता है।' 'मिस मालती को उनसे मिलाया या नहीं?' 'आप भी दिल्लगी करते हैं। मालती को भला इनसे क्या मिलाता?' वाक्य पूरा न हुआ था कि सामने झाड़ी में सरसराहट की आवाज सुन कर चौंक पड़े और प्राण-रक्षा की प्रेरणा से रायसाहब के पीछे आ गए। झाड़ी में से एक तेंदुआ निकला और मंद गति से सामने की ओर चला। रायसाहब ने बंदूक उठाई और निशाना बाँधना चाहते थे कि खन्ना ने कहा - यह क्या करते हैं आप - ख्वाहमख्वाह उसे छेड़ रहे हैं,। कहीं लौट पड़े तो? 'लौट क्या पड़ेगा, वहीं ढेर हो जायगा।' 'तो मुझे उस टीले पर चढ़ जाने दीजिए। मैं शिकार का ऐसा शौकीन नहीं हूँ।' 'तब क्या शिकार खेलने चले थे?' 'शामत और क्या!' रायसाहब ने बंदूक नीचे कर ली। 'बड़ा अच्छा शिकार निकल गया। ऐसे अवसर कम मिलते हैं।' 'मैं तो अब यहाँ नहीं ठहर सकता। खतरनाक जगह है।' 'एकाध शिकार तो मार लेने दीजिए। खाली हाथ लौटते शर्म आती है।' 'आप मुझे कृपा करके कार के पास पहुँचा दीजिए, फिर चाहे तेंदुए का शिकार कीजिए या चीते का।' 'आप बड़े डरपोक हैं मिस्टर खन्ना, सच।' 'व्यर्थ में अपने जान खतरे में डालना बहादुरी नहीं है!' 'अच्छा तो आप खुशी से लौट सकते हैं।' 'अकेला?' 'रास्ता बिलकुल साफ है।' 'जी नहीं। आपको मेरे साथ चलना पड़ेगा।' रायसाहब ने बहुत समझाया, मगर खन्ना ने एक न मानी। मारे भय के उनका चेहरा पीला पड़ गया था। उस वक्त अगर झाड़ी में से एक गिलहरी भी निकल आती, तो वह चीख मार कर गिर पड़ते। बोटी-बोटी काँप रही थी। पसीने से तर हो गए थे। रायसाहब को लाचार हो कर उनके साथ लौटना पड़ा। जब दोनों आदमी बड़ी दूर निकल आए, तो खन्ना के होश ठिकाने आए। बोले - खतरे से नहीं डरता, लेकिन खतरे के मुँह में उँगली डालना हिमाकत है। 'अजी, जाओ भी। जरा-सा तेंदुआ देख लिया, तो जान निकल गई।' 'मैं शिकार खेलना उस जमाने का संस्कार समझता हूँ, जब आदमी पशु था। तब से संस्कृति बहुत आगे बढ़ गई है।' 'मैं मिस मालती से आपकी कलई खोलूँगा।' 'मैं अहिंसावादी होना लज्जा की बात नहीं समझता।' 'अच्छा, तो यह आपका अहिंसावाद था। शाबाश!' खन्ना ने गर्व से कहा - जी हाँ, यह मेरा अहिंसावाद था। आप बुद्ध और शंकर के नाम पर गर्व करते हैं और पशुओं की हत्या करते हैं, लज्जा आपको आनी चाहिए, न कि मुझे। कुछ दूर दोनों फिर चुपचाप चलते रहे। तब खन्ना बोले- तो आप कब तक आएँगे? मैं चाहता हूँ, आप पालिसी का फार्म आज ही भर दें और शक्कर के हिस्सों का भी। मेरे पास दोनों फार्म भी मौजूद हैं। रायसाहब ने चिंतित स्वर में कहा - जरा सोच लेने दीजिए 'इसमें सोचने की जरूरत नहीं।' तीसरी टोली मिर्जा खुर्शेद और मिस्टर तंखा की थी। मिर्जा खुर्शेद के लिए भूत और भविष्य सादे कागज की भाँति था। वह वर्तमान में रहते थे। न भूत का पछतावा था, न भविष्य की चिंता। जो कुछ सामने आ जाता था, उसमें जी-जान से लग जाते थे। मित्रों की मंडली में वह विनोद के पुतले थे। कौंसिल में उनसे ज्यादा उत्साही मेंबर कोई न था। जिस प्रश्न के पीछे पड़ जाते, मिनिस्टरों को रुला देते। किसी के साथ रू-रियायत करना न जानते थे। बीच-बीच में परिहास भी करते जाते थे। उनके लिए आज जीवन था, कल का पता नहीं। गुस्सेवर भी ऐसे थे कि ताल ठोंक कर सामने आ जाते थे। नम्रता के सामने दंडवत करते थे, लेकिन जहाँ किसी ने शान दिखाई और यह हाथ धो कर उसके पीछे पड़े। न अपना लेना याद रखते थे, न दूसरों का देना। शौक था शायरी का और शराब का। औरत केवल मनोरंजन की वस्तु थी। बहुत दिन हुए हृदय का दिवाला निकाल चुके थे। मिस्टर तंखा दाँव-पेंच के आदमी थे, सौदा पटाने में, मुआमला सुलझाने में, अड़ंगा लगाने में, बालू से तेल निकालने में, गला दबाने में, दुम झाड़ कर निकल जाने में बड़े सिद्धहस्त। कहिए रेत में नाव चला दें, पत्थर पर दूब उगा दें। ताल्लुकेदारों को महाजनों से कर्ज दिलाना, नई कंपनियाँ खोलना, चुनाव के अवसर पर उम्मेदवार खड़े करना, यही उनका व्यवसाय था। खास कर चुनाव के समय उनकी तकदीर चमकती थी। किसी पोढ़े उम्मेदवार को खड़ा करते, दिलोजान से उसका काम करते और दस-बीस हजार बना लेते। जब कांग्रेस का जोर था, तो कांग्रेस के उम्मेदवार के सहायक थे। जब सांप्रदायिक दल का जोर हुआ, तो हिंदूसभा की ओर से काम करने लगे, मगर इस उलटफेर के समर्थन के लिए उनके पास ऐसी दलीलें थीं कि कोई उँगली न दिखा सकता था। शहर के सभी रईस, सभी हुक्काम, सभी अमीरों से उनका याराना था। दिल में चाहे लोग उनकी नीति पसंद न करें, पर वह स्वभाव के इतने नम्र थे कि कोई मुँह पर कुछ न कह सकता था। मिर्जा खुर्शेद ने रूमाल से माथे का पसीना पोंछ कर कहा - आज तो शिकार खेलने के लायक दिन नहीं है। आज तो कोई मुशायरा होना चाहिए था। वकील ने समर्थन किया - जी हाँ, वहीं बाग में। बड़ी बहार रहेगी। थोड़ी देर के बाद मिस्टर तंखा ने मामले की बात छेड़ी। 'अबकी चुनाव में बड़े-बड़े गुल खिलेंगे! आपके लिए भी मुश्किल है।' मिर्जा विरक्त मन से बोले - अबकी मैं खड़ा ही न हूँगा। तंखा ने पूछा - क्यों? 'मुफ्त की बकबक कौन करे? फायदा ही क्या! मुझे अब इस डेमोक्रेसी में भक्ति नहीं रही। जरा-सा काम और महीनों की बहस। हाँ, जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए अच्छा स्वाँग है। इससे तो कहीं अच्छा है कि एक गवर्नर रहे, चाहे वह हिंदुस्तानी हो, या अंग्रेज, इससे बहस नहीं। एक इंजिन जिस गाड़ी को बड़े मजे से हजारों मील खींच ले जा सकता है, उसे दस हजार आदमी मिल कर भी उतनी तेजी से नहीं खींच सकते। मैं तो यह सारा तमाशा देख कर कौंसिल से बेजार हो गया हूँ। मेरा बस चले, तो कौंसिल में आग लगा दूँ। जिसे हम डेमोक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े-बड़े व्यापारियों और जमींदारों का राज्य है, और कुछ नहीं। चुनाव में वही बाजी ले जाता है, जिसके पास रुपए हैं। रुपए के जोर से उसके लिए सभी सुविधाएँ तैयार हो जाती हैं। बड़े-बड़े पंडित, बड़े-बड़े मौलवी, बड़े-बड़े लिखने और बोलने वाले, जो अपने जबान और कलम से पब्लिक को जिस तरफ चाहें फेर दें, सभी सोने के देवता के पैरों पर माथा रगड़ते हैं, मैंने तो इरादा कर लिया है, अब इलेक्शन के पास न जाऊँगा। मेरा प्रोपेगंडा अब डेमोक्रेसी के खिलाफ होगा।' मिर्जा साहब ने कुरान की आयतों से सिद्ध किया कि पुराने जमाने के बादशाहों के आदर्श कितने ऊँचे थे। आज तो हम उसकी तरफ ताक भी नहीं सकते। हमारी आँखों में चकाचौंध आ जायगी। बादशाह को खजाने की एक कौड़ी भी निजी खर्च में लाने का अधिकार न था। वह किताबें नकल करके, कपड़े सी कर, लड़कों को पढ़ा कर अपना गुजर करता था। मिर्जा ने आदर्श महीपों की एक लंबी सूची गिना दी। कहाँ तो वह प्रजा को पालने वाला बादशाह, और कहाँ आजकल के मंत्री और मिनिस्टर, पाँच, छ:, सात, आठ हजार माहवार मिलना चाहिए। यह लूट है या डेमोक्रेसी! हिरनों का झुंड चरता हुआ नजर आया। मिर्जा के मुख पर शिकार का जोश चमक उठा। बंदूक सँभाली और निशाना मारा। एक काला-सा हिरन गिर पड़ा। वह मारा! इस उन्मत्त धवनि के साथ मिर्जा भी बेतहाशा दौड़े - बिलकुल बच्चों की तरह उछलते, कूदते, तालियाँ बजाते। समीप ही एक वृक्ष पर एक आदमी लकड़ियाँ काट रहा था। वह भी चट-पट वृक्ष से उतर कर मिर्जा जी के साथ दौड़ा। हिरन की गर्दन में गोली लगी थी, उसके पैरों में कंपन हो रहा था और आँखें पथरा गई थीं। लकड़हारे ने हिरन को करुण नेत्रों से देख कर कहा - अच्छा पट्ठा था, मन-भर से कम न होगा। हुकुम हो, तो मैं उठा कर पहुँचा दूँ? मिर्जा कुछ बोले नहीं। हिरन की टँगी हुई, दीन, वेदना से भरी आँखें देख रहे थे। अभी एक मिनट पहले इसमें जीवन था। जरा-सा पत्ता भी खड़कता, तो कान खड़े करके चौकड़ियाँ भरता हुआ निकल भागता। अपने मित्रों और बाल-बच्चों के साथ ईश्वर की उगाई हुई घास खा रहा था, मगर अब निस्पंद पड़ा है। उसकी खाल उधेड़ लो, उसकी बोटियाँ कर डालो, उसका कीमा बना डालो, उसे खबर भी न होगी। उसके क्रीड़ामय जीवन में जो आकर्षण था, जो आनंद था, वह क्या इस निर्जीव शव में है? कितनी सुंदर गठन थी, कितनी प्यारी आँखें, कितनी मनोहर छवि! उसकी छलाँगें हृदय में आनंद की तंरगें पैदा कर देती थीं, उसकी चौकड़ियों के साथ हमारा मन भी चौकड़ियाँ भरने लगता था। उसकी स्फूर्ति जीवन-सा बिखेरती चलती थी, जैसे फूल सुगंध बिखेरता है, लेकिन अब! उसे देख कर ग्लानि होती है। लकड़हारे ने पूछा - कहाँ पहुँचाना होगा मालिक? मुझे भी दो-चार पैसे दे देना। मिर्जा जी जैसे ध्यान से चौंक पड़े। बोले- अच्छा, उठा ले। कहाँ चलेगा? 'जहाँ हुकुम हो मालिक।' 'नहीं, जहाँ तेरी इच्छा हो, वहाँ ले जा। मैं तुझे देता हूँ!' लकड़हारे ने मिर्जा की ओर कौतूहल से देखा। कानों पर विश्वास न आया। 'अरे नहीं मालिक, हुजूर ने सिकार किया है, तो हम कैसे खा लें।' 'नहीं-नहीं, मैं खुशी से कहता हूँ, तुम इसे ले जाओ। तुम्हारा घर यहाँ से कितनी दूर है?' 'कोई आधा कोस होगा मालिक!' तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा। देखूँगा, तुम्हारे बाल-बच्चे कैसे खुश होते हैं।' 'ऐसे तो मैं न ले जाऊँगा सरकार! आप इतनी दूर से आए, इस कड़ी धूप में सिकार किया, मैं कैसे उठा ले जाऊँ?' 'उठा उठा, देर न कर। मुझे मालूम हो गया, तू भला आदमी है।' लकड़हारे ने डरते-डरते और रह-रह कर मिर्जा जी के मुख की ओर सशंक नेत्रों से देखते हुए कि कहीं बिगड़ न जायँ, हिरन को उठाया। सहसा उसने हिरन को छोड़ दिया और खड़ा हो कर बोला - मैं समझ गया मालिक, हुजूर ने इसकी हलाली नहीं की। मिर्जा जी ने हँस कर कहा - बस-बस, तूने खूब समझा। अब उठा ले और घर चल। मिर्जा जी धर्म के इतने पाबंद न थे। दस साल से उन्होंने नमाज न पढ़ी थी। दो महीने में एक दिन व्रत रख लेते थे। बिलकुल निराहर, निर्जल, मगर लकड़हारे को इस खयाल से जो संतोष हुआ था कि हिरन अब इन लोगों के लिए अखाद्य हो गया है, उसे फीका न करना चाहते थे। लकड़हारे ने हलके मन से हिरन को गर्दन पर रख लिया और घर की ओर चला। तंखा अभी तक तटस्थ से वहीं पेड़ के नीचे खड़े थे। धूप में हिरन के पास जाने का कष्ट क्यों उठाते? कुछ समझ में न आ रहा था कि मुआमला क्या है, लेकिन जब लकड़हारे को उल्टी दिशा में जाते देखा, तो आ कर मिर्जा से बोले - आप उधर कहाँ जा रहे हैं हजरत। क्या रास्ता भूल गए? मिर्जा ने अपराधी भाव से मुस्करा कर कहा - मैंने शिकार इस गरीब आदमी को दे दिया। अब जरा इसके घर चल रहा हूँ। आप भी आइए न। तंखा ने मिर्जा को कौतूहल की दृष्टि से देखा और बोले - आप अपने होश में हैं या नहीं? 'कह नहीं सकता। मुझे खुद नहीं मालूम।' 'शिकार इसे क्यों दे दिया?' 'इसलिए कि उसे पा कर इसे जितनी खुशी होगी, मुझे या आपको न होगी।' तंखा खिसिया कर बोले - जाइए! सोचा था, खूब कबाब उड़ाएँगे, सो आपने सारा मजा किरकिरा कर दिया। खैर, रायसाहब और मेहता कुछ न कुछ लाएँगे ही। कोई गम नहीं। मैं इस इलेक्शन के बारे में कुछ अर्ज करना चाहता हूँ। आप नहीं खड़ा होना चाहते न सही, आपकी जैसी मर्जी, लेकिन आपको इसमें क्या ताम्मुल है कि जो लोग खड़े हो रहे हैं, उनसे इसकी अच्छी कीमत वसूल की जाए। मैं आपसे सिर्फ इतना चाहता हूँ कि आप किसी पर यह भेद न खुलने दें कि आप नहीं खड़े हो रहे हैं। सिर्फ इतनी मेहरबानी कीजिए मेरे साथ! ख्वाजा जमाल ताहिर इसी शहर से खड़े हो रहे हैं। रईसों के वोट तो सोलहों आने उनकी तरफ हैं ही, हुक्काम भी उनके मददगार हैं। फिर भी पब्लिक पर आपका जो असर है, इससे उनकी कोर दब रही है। आप चाहें तो आपको उनसे दस-बीस हजार रुपए महज यह जाहिर कर देने के मिल सकते हैं कि आप उनकी खातिर बैठ जाते हैं…नहीं मुझे अर्ज कर लेने दीजिए। इस मुआमले में आपको कुछ नहीं करना है। आप बेफिक्र बैठे रहिए। मैं आपकी तरफ से एक मेनिफेस्टो निकाल दूँगा और उसी शाम को आप मुझसे दस हजार नकद वसूल कर लीजिए। मिर्जा साहब ने उनकी ओर हिकारत से देख कर कहा - मैं ऐसे रुपए पर और आप पर लानत भेजता हूँ। मिस्टर तंखा ने जरा भी बुरा नहीं माना। माथे पर बल तक न आने दिया। 'मुझ पर जितनी लानत चाहें भेजें, मगर रुपए पर लानत भेज कर आप अपना ही नुकसान कर रहे हैं।' 'मैं ऐसी रकम को हराम समझता हूँ।' 'आप शरीयत के इतने पाबंद तो नहीं हैं।' 'लूट की कमाई को हराम समझने के लिए शरा का पाबंद होने की जरूरत नहीं है।' 'तो इस मुआमले में क्या आप फैसला तब्दील नहीं कर सकते?' 'जी नहीं।' 'अच्छी बात है, इसे जाने दीजिए। किसी बीमा कंपनी के डाइरेक्टर बनने में तो आपको कोई एतराज नहीं है? आपको कंपनी का एक हिस्सा भी न खरीदना पड़ेगा। आप सिर्फ अपना नाम दे दीजिएगा।' 'जी नहीं, मुझे यह भी मंजूर नहीं है। मैं कई कंपनियों का डाइरेक्टर, कई का मैनेजिंग एजेंट, कई का चेयरमैन था। दौलत मेरे पाँव चूमती थी। मैं जानता हूँ, दौलत से आराम और तकल्लुफ के कितने सामान जमा किए जा सकते हैं, मगर यह भी जानता हूँ कि दौलत इंसान को कितना खुदगरज बना देती है, कितना ऐश-पसंद, कितना मक्कार, कितना बेगैरत।' वकील साहब को फिर कोई प्रस्ताव करने का साहस न हुआ। मिर्जा जी की बुद्धि और प्रभाव में उनका जो विश्वास था, वह बहुत कम हो गया। उनके लिए धन ही सब कुछ था और ऐसे आदमी से, जो लक्ष्मी को ठोकर मारता हो, उनका कोई मेल न हो सकता था। लकड़हारा हिरन को कंधों पर रखे लपका चला जा रहा था। मिर्जा ने भी कदम बढ़ाया, पर स्थूलकाय तंखा पीछे रह गए। उन्होंने पुकारा - जरा सुनिए, मिर्जा जी, आप तो भागे जा रहे हैं। मिर्जा जी ने बिना रूके हुए जवाब दिया - वह गरीब बोझ लिए इतनी तेजी से चला जा रहा है। हम क्या अपना बदन ले कर भी उसके बराबर नहीं चल सकते? लकड़हारे ने हिरन को एक ठूँठ पर उतार कर रख दिया था और दम लेने लगा था। मिर्जा साहब ने आ कर पूछा - थक गए, क्यों? लकड़हारे ने सकुचाते हुए कहा - बहुत भारी है सरकार! 'तो लाओ, कुछ दूर मैं ले चलूँ।' लकड़हारा हँसा। मिर्जा डील-डौल में उससे कहीं ऊँचे और मोटे-ताजे थे, फिर भी वह दुबला-पतला आदमी उनकी इस बात पर हँसा। मिर्जा जी पर जैसे चाबुक पड़ गया। 'तुम हँसे क्यों? क्या तुम समझते हो, मैं इसे नहीं उठा सकता?' लकड़हारे ने मानो क्षमा माँगी - सरकार आप बड़े आदमी हैं। बोझ उठाना तो हम-जैसे मजूरों का ही काम है। 'मैं तुम्हारा दुगुना जो हूँ!' 'इससे क्या होता है मालिक!' मिर्जा जी का पुरुषत्व अपना और अपमान न सह सका। उन्होंने बढ़ कर हिरन को गर्दन पर उठा लिया और चले, मगर मुश्किल से पचास कदम चले होंगे कि गर्दन फटने लगी, पाँव थरथराने लगे और आँखों में तितलियाँ उड़ने लगीं। कलेजा मजबूत किया और एक बीस कदम और चले। कंबख्त कहाँ रह गया? जैसे इस लाश में सीसा भर दिया गया हो। जरा मिस्टर तंखा की गर्दन पर रख दूँ, तो मजा आए। मशक की तरह जो फूले चलते हैं, जरा इसका मजा भी देखें, लेकिन बोझा उतारें कैसे? दोनों अपने दिल में कहेंगे, बड़ी जवाँमर्दी दिखाने चले थे। पचास कदम में चीं बोल गए। लकड़हारे ने चुटकी ली - कहो मालिक, कैसे रंग-ढंग हैं? बहुत हलका है न? मिर्जा जी को बोझ कुछ हलका मालूम होने लगा। बोले - उतनी दूर तो ले ही जाऊँगा, जितनी दूर तुम लाए हो। 'कई दिन गर्दन दुखेगी मालिक।' 'तुम क्या समझते हो, मैं यों ही फूला हुआ हूँ।' 'नहीं मालिक, अब तो ऐसा नहीं समझता। मुदा आप हैरान न हों, वह चट्टान है, उस पर उतार दीजिए।' 'मैं अभी इसे इतनी ही दूर और ले जा सकता हूँ।' 'मगर यह अच्छा तो नहीं लगता कि मैं ठाला चलूँ और आप लदे रहें।' मिर्जा साहब ने चट्टान पर हिरन को उतार कर रख दिया। वकील साहब आ पहुँचे। मिर्जा ने दाना फेंका - अब आपको भी कुछ दूर ले चलना पड़ेगा जनाब! वकील साहब की नजरों में अब मिर्जा जी का कोई महत्व न था। बोले - मुआफ कीजिए। मुझे अपनी पहलवानी का दावा नहीं है। 'बहुत भारी नहीं है सच।' 'अजी, रहने भी दीजिए!' 'आप अगर इसे सौ कदम ले चलें, तो मैं वादा करता हूँ, आप मेरे सामने जो तजवीज रखेंगे, उसे मंजूर कर लूँगा।' 'मैं इन चकमों में नहीं आता।' 'मैं चकमा नहीं दे रहा हूँ, वल्लाह! आप जिस हलके से कहेंगे, खड़ा हो जाऊँगा। जब हुक्म देंगे, बैठ जाऊँगा। जिस कंपनी का डाइरेक्टर, मेंबर, मुनीम, कनवेसर, जो कुछ कहिएगा, बन जाऊँगा। बस, सौ कदम ले चलिए। मेरी तो ऐसे ही दोस्तों से निभती है, जो मौका पड़ने पर सब कुछ कर सकते हों।' तंखा का मन चुलबुला उठा। मिर्जा अपने कौल के पक्के हैं। इसमें कोई संदेह न था। हिरन ऐसा क्या बहुत भारी होगा। आखिर मिर्जा इतनी दूर ले ही आए। बहुत ज्यादा थके तो नहीं जान पड़ते, अगर इनकार करते हैं, तो सुनहरा अवसर हाथ से जाता है। आखिर ऐसा क्या कोई पहाड़ है। बहुत होगा, चार-पाँच पंसेरी होगा। दो-चार दिन गर्दन ही तो दुखेगी! जेब में रुपए हों, तो थोड़ी-सी बीमारी सुख की वस्तु है। 'सौ कदम की रही।' 'हाँ, सौ कदम। मैं गिनता चलूँगा।' 'देखिए, निकल न जाइएगा।' 'निकल जाने वाले पर लानत भेजता हूँ। तंखा ने जूते का फीता फिर से बाँधा, कोट उतार कर लकड़हारे को दिया, पतलून ऊपर चढ़ाया, रूमाल से मुँह पोंछा और इस तरह हिरन को देखा, मानो ओखली में सिर देने जा रहे हैं। फिर हिरन को उठा कर गर्दन पर रखने की चेष्टा की। दो-तीन बार जोर लगाने पर लाश गर्दन पर तो आ गई, पर गर्दन न उठ सकी। कमर झुक गई, हाँफ उठे और लाश को जमीन पर पटकने वाले थे कि मिर्जा ने उन्हें सहारा दे कर आगे बढ़ाया। तंखा ने एक डग इस तरह उठाया, जैसे दलदल में पाँव रख रहे हों। मिर्जा ने बढ़ावा दिया - शाबाश! मेरे शेर, वाह-वाह! तंखा ने एक डग और रखा। मालूम हुआ, गर्दन टूटी जाती है। 'मार लिया मैदान! शबाश! जीते रहो पट्ठे।' तंखा दो डग और बढ़े। आँखें निकली पड़ती थीं। 'बस, एक बार और जोर मारो दोस्त! सौ कदम की शर्त गलत। पचास कदम की ही रही।' वकील साहब का बुरा हाल था। वह बेजान हिरन शेर की तरह उनको दबोचे हुए, उनका हृदय-रक्त चूस रहा था। सारी शक्तियाँ जवाब दे चुकी थीं। केवल लोभ, किसी लोहे की धरन की तरह छत को सँभाले हुए था। एक से पच्चीस हजार तक की गोटी थी। मगर अंत में वह शहतीर भी जवाब दे गई। लोभी की कमर भी टूट गई। आँखों के सामने अँधेरा छा गया। सिर में चक्कर आया और वह शिकार गर्दन पर लिए पथरीली जमीन पर गिर पड़े। मिर्जा ने तुरंत उन्हें उठाया और अपने रूमाल से हवा करते हुए उनकी पीठ ठोंकी। 'जोर तो यार तुमने खूब मारा, लेकिन तकदीर के खोटे हो।' तंखा ने हाँफते हुए लंबी साँस खींच कर कहा - आपने तो आज मेरी जान ही ले ली थी। दो मन से कम न होगा ससुर। मिर्जा ने हँसते हुए कहा - लेकिन भाईजान, मैं भी तो इतनी दूर उठा कर लाया ही था। वकील साहब ने खुशामद करनी शुरू की - मुझे तो आपकी फर्माइश पूरी करनी थी। आपको तमाशा देखना था, वह आपने देख लिया। अब आपको अपना वादा पूरा करना होगा। 'आपने मुआहदा कब पूरा किया?' 'कोशिश तो जान तोड़ कर की।' 'इसकी सनद नहीं।' लकड़हारे ने फिर हिरन उठा लिया और भागा चला जा रहा था। वह दिखा देना चाहता था कि तुम लोगों ने काँख-कूँख कर दस कदम इसे उठा लिया, तो यह न समझो कि पास हो गए। इस मैदान में मैं दुर्बल होने पर भी तुमसे आगे रहूँगा। हाँ, कागद तुम चाहे जितना काला करो और झूठे मुकदमे चाहे जितने बनाओ। एक नाला मिला, जिसमें बहुत थोड़ा पानी था। नाले के उस पार टीले पर एक छोटा-सा पाँच-छ: घरों का पुरवा था और कई लड़के इमली के नीचे खेल रहे थे। लकड़हारे को देखते ही सबों ने दौड़ कर उसका स्वागत किया और लगे पूछने- किसने मारा बापू? कैसे मारा, कहाँ मारा, कैसे गोली लगी, कहाँ लगी, इसी को क्यों लगी, और हिरनों को क्यों न लगी? लकड़हारा हूँ-हाँ करता इमली के नीचे पहुँचा और हिरन को उतार कर पास की झोपड़ी से दोनों महानुभावों के लिए खाट लेने दौड़ा। उसके चारों लड़कों और लड़कियों ने शिकार को अपने चार्ज में ले लिया और अन्य लड़कों को भगाने की चेष्टा करने लगे। सबसे छोटे बालक ने कहा - यह हमारा है। उसकी बड़ी बहन ने, जो चौदह-पंद्रह साल की थी, मेहमानों की ओर देख कर छोटे भाई को डाँटा - चुप, नहीं सिपाही पकड़ ले जायगा। मिर्जा ने लड़के को छेड़ा - तुम्हारा नहीं, हमारा है। बालक ने हिरन पर बैठ कर अपना कब्जा सिद्ध कर दिया और बोला - बापू तो लाए हैं। बहन ने सिखाया - कह दे भैया, तुम्हारा है। इन बच्चों की माँ बकरी के लिए पत्तियाँ तोड़ रही थी। दो नए भले आदमियों को देख कर जरा-सा घूँघट निकाल लिया और शरमाई कि उसकी साड़ी कितनी मैली, कितनी फटी, कितनी उटंगी है। वह इस वेश में मेहमानों के सामने कैसे जाय? और गए बिना काम नहीं चलता। पानी-वानी देना है। अभी दोपहर होने में कुछ कसर थी, लेकिन मिर्जा साहब ने दोपहरी इसी गाँव में काटने का निश्चय किया। गाँव के आदमियों को जमा किया। शराब मँगवाई, शिकार पका, समीप के बाजार से घी और मैदा मँगाया और सारे गाँव को भोज दिया। छोटे-बड़े स्त्री-पुरुष सबों ने दावत उड़ाई। मर्दों ने खूब शराब पी और मस्त हो कर शाम तक गाते रहे और मिर्जा जी बालकों के साथ बालक, शराबियों के साथ शराबी, बूढ़ों के साथ बूढ़े, जवानों के साथ जवान बने हुए थे। इतनी ही देर में सारे गाँव से उनका इतना घनिष्ठ परिचय हो गया था, मानो यहीं के निवासी हों। लड़के तो उन पर लदे पड़ते थे। कोई उनकी फुँदनेदार टोपी सिर पर रखे लेता था, कोई उनकी राइफल कंधों पर रख कर अकड़ता हुआ चलता था, कोई उनकी कलाई की घड़ी खोल कर अपने कलाई पर बाँध लेता था। मिर्जा ने खुद खूब देशी शराब पी और झूम-झूम कर जंगली आदमियों के साथ गाते रहे। जब ये लोग सूर्यास्त के समय यहाँ से बिदा हुए तो गाँव-भर के नर-नारी इन्हें बड़ी दूर तक पहुँचाने आए। कई तो रोते थे। ऐसा सौभाग्य उन गरीबों के जीवन में शायद पहली बार आया हो कि किसी शिकारी ने उनकी दावत की हो। जरूर यह कोई राजा है, नहीं तो इतना दरियाव दिल किसका होता है। इनके दर्शन फिर काहे को होंगे। कुछ दूर चलने के बाद मिर्जा ने पीछे फिर कर देखा और बोले - बेचारे कितने खुश थे। काश, मेरी जिंदगी में ऐसे मौके रोज आते। आज का दिन बड़ा मुबारक था। तंखा ने बेरूखी के साथ कहा - आपके लिए मुबारक होगा, मेरे लिए तो मनहूस ही था। मतलब की कोई बात न हुई। दिन-भर जंगलों और पहाड़ों की खाक छानने के बाद अपना-सा मुँह लिए लौटे जाते हैं। मिर्जा ने निर्दयता से कहा - मुझे आपके साथ हमदर्दी नहीं है। दोनों आदमी जब बरगद के नीचे पहुँचे, तो दोनों टोलियाँ लौट चुकी थीं। मेहता मुँह लटकाए हुए थे। मालती विमन-सी अलग बैठी थी, जो नई बात थी। रायसाहब और खन्ना दोनों भूखे रह गए थे और किसी के मुँह से बात न निकलती थी। वकील साहब इसलिए दु:खी थे कि मिर्जा ने उनके साथ बेवफाई की। अकेले मिर्जा साहब प्रसन्न थे और वह प्रसन्नता अलौकिक थी। यह अभिनय जब समाप्त हुआ, तो उधर रंगशाला में धनुष-यज्ञ समाप्त हो चुका था और सामाजिक प्रहसन की तैयारी हो रही थी, मगर इन सज्जनों को उससे विशेष दिलचस्पी न थी। केवल मिस्टर मेहता देखने गए और आदि से अंत तक जमे रहे। उन्हें बड़ा मजा आ रहा था। बीच-बीच में तालियाँ बजाते थे और फिर कहो, फिर कहो' का आग्रह करके अभिनेताओं को प्रोत्साहन भी देते जाते थे। रायसाहब ने इस प्रहसन में एक मुकदमे बाज देहाती जमींदार का खाका उड़ाया था। कहने को तो प्रहसन था, मगर करुणा से भरा हुआ। नायक का बात-बात में कानून की धाराओं का उल्लेख करना, पत्नी पर केवल इसलिए मुकदमा दायर कर देना कि उसने भोजन तैयार करने में जरा-सी देर कर दी, फिर वकीलों के नखरे और देहाती गवाहों की चालाकियाँ और झाँसे, पहले गवाही के लिए चट-पट तैयार हो जाना, मगर इजलास पर तलबी के समय खूब मनावन कराना और नाना प्रकार की गर्माइशें करके उल्लू बनाना, ये सभी दृश्य देख कर लोग हँसी के मारे लोट जाते थे। सबसे सुंदर वह दृश्य था, जिसमें वकील गवाहों को उनके बयान रटा रहा था। गवाहों का बार-बार भूलें करना, वकील का बिगड़ना, फिर नायक का देहाती बोली में गवाहों का समझाना और अंत में इजलास पर गवाहों का बदल जाना, ऐसा सजीव और सत्य था कि मिस्टर मेहता उछल पड़े और तमाशा समाप्त होने पर नायक को गले लगा लिया और सभी नटों को एक-एक मेडल देने की घोषणा की। रायसाहब के प्रति उनके मन में श्रद्धा के भाव जाग उठे। रायसाहब स्टेज के पीछे ड्रामे का संचालन कर रहे थे। मेहता दौड़ कर उनके गले लिपट गए और मुग्ध हो कर बोले - आपकी दृष्टि इतनी पैनी है, इसका मुझे अनुमान न था। दूसरे दिन जलपान के बाद शिकार का प्रोग्राम था। वहीं किसी नदी के तट पर बाग में भोजन बने, खूब जल-क्रीड़ा की जाय और शाम को लोग घर आवें। देहाती जीवन का आनंद उठाया जाए। जिन मेहमानों को विशेष काम था, वह तो बिदा हो गए, केवल वे ही लोग बच रहे, जिनकी रायसाहब से घनिष्ठता थी। मिसेज खन्ना के सिर में दर्द था, न जा सकीं, और संपादक जी इस मंडली से जले हुए थे और इनके विरुद्ध एक लेख-माला निकाल कर इनकी खबर लेने के विचार में मग्न थे। सब-के-सब छटे हुए गुंडे हैं। हराम के पैसे उड़ाते हैं और मूँछों पर ताव देते हैं। दुनिया में क्या हो रहा है, इन्हें क्या खबर। इनके पड़ोस में कौन मर रहा है, इन्हें क्या परवा। इन्हें तो अपने भोग-विलास से काम है। यह मेहता, जो फिलासफर बना फिरता है, उसे यही धुन है कि जीवन को संपूर्ण बनाओ। महीने में एक हजार मार लाते हो, तुम्हें अख्तियार है, जीवन को संपूर्ण बनाओ या परिपूर्ण बनाओ। जिसको यह फिक्र दबाए डालती है कि लड़कों का ब्याह कैसे हो, या बीमार स्त्री के लिए वैद्य कैसे आएँ या अबकी घर का किराया किसके घर से आएगा, वह अपना जीवन कैसे संपूर्ण बनाए। छूटे सांड़ बने दूसरों के खेत में मुँह मारते फिरते हो और समझते हो, संसार में सब सुखी हैं। तुम्हारी आँखें तब खुलेंगी, जब क्रांति होगी और तुमसे कहा जायगा बचा, खेत में चल कर हल जोतो। तब देखें, तुम्हारा जीवन कैसे संपूर्ण होता है। और वह जो है मालती, जो बहत्तर घाटों का पानी पी कर भी मिस बनी फिरती है! शादी नहीं करेगी, इससे जीवन बंधन में पड़ जाता है, और बंधन में जीवन का पूरा विकास नहीं होता। बस, जीवन का पूरा विकास इसी में है कि दुनिया को लूटे जाओ और निर्द्वंद्व विलास किए जाओ! सारे बंधन तोड़ दो, धर्म और समाज को गोली मारो, जीवन कर्तव्यों को पास न फटकने दो, बस तुम्हारा जीवन संपूर्ण हो गया। इससे ज्यादा आसान और क्या होगा! माँ-बाप से नहीं पटती, उन्हें धता बताओ, शादी मत करो, यह बंधन है, बच्चे होंगे, यह मोहपाश है, मगर टैक्स क्यों देते हो? कानून भी तो बंधन है, उसे क्यों नहीं तोड़ते? उससे क्यों कन्नी काटते हो? जानते हो न कि कानून की जरा भी अवज्ञा की और बेड़ियाँ पड़ जाएँगी। बस, वही बंधन तोड़ो जिसमें अपने भोग-लिप्सा में बाधा नहीं पड़ती। रस्सी को साँप बना कर पीटो और तीसमारखाँ बनो। जीते साँप के पास जाओ ही क्यों, वह फुंकार भी मारेगा तो लहरें आने लगेंगी। उसे आते देखो, तो दुम दबा कर भागो। यह तुम्हारा संपूर्ण जीवन है। आठ बजे शिकार-पार्टी चली। खन्ना ने कभी शिकार न खेला था, बंदूक की आवाज से काँपते थे, लेकिन मिस मालती जा रही थीं, वह कैसे रूक सकते थे। मिस्टर तंखा को अभी तक एलेक्शन के विषय में बातचीत करने का अवसर न मिला था। शायद वहाँ वह अवसर मिल जाए। रायसाहब अपने इलाके में बहुत दिनों से नहीं गए थे। वहाँ का रंग-ढंग देखना चाहते थे। कभी-कभी इलाके में आने-जाने से असामियों से एक संबंध भी तो हो जाता है और रोब भी रहता है। कारकुन और प्यादे भी सचेत रहते हैं। मिर्जा खुर्शेद को जीवन के नए अनुभव प्राप्त करने का शौक था, विशेषकर ऐसे, जिनमें कुछ साहस दिखाना पड़े। मिस मालती अकेले कैसे रहतीं। उन्हें तो रसिकों का जमघट चाहिए। केवल मिस्टर मेहता शिकार खेलने के सच्चे उत्साह से जा रहे थे। रायसाहब की इच्छा तो थी कि भोजन की सामग्री, रसोइया, कहा - खिदमतगार, सब साथ चलें, लेकिन मिस्टर मेहता ने इसका विरोध किया। खन्ना ने कहा - आखिर वहाँ भोजन करेंगे या भूखों मरेंगे? मेहता ने जवाब दिया - भोजन क्यों न करेंगे, लेकिन आज हम लोग खुद अपना सारा काम करेंगे। देखना तो चाहिए कि नौकरों के बगैर हम जिंदा रह सकते हैं या नहीं। मिस मालती पकाएगी और हम लोग खाएगें। देहातों में हाँड़ियाँ और पत्तल मिल ही जाते हैं, और ईंधन की कोई कमी नहीं। शिकार हम करेंगे ही। मालती ने गिला किया - क्षमा कीजिए। आपने रात मेरी कलाई इतने जोर से पकड़ी कि अभी तक दर्द हो रहा है। 'काम तो हम लोग करेंगे, आप केवल बताती जाइएगा।' मिर्जा खुर्शेद बोले - अजी आप लोग तमाशा देखते रहिएगा, मैं सारा इंतजाम कर दूँगा। बात ही कौन-सी है। जंगल में हाँड़ी और बर्तन ढूँढ़ना हिमाकत है। हिरन का शिकार कीजिए, भूनिए, खाइए और वहीं दरख्त के साए में खर्राटे लीजिए। यही प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। दो मोटरें चलीं। एक मिस मालती ड्राइव कर रही थीं, दूसरी खुद रायसाहब। कोई बीस-पच्चीस मील पर पहाड़ी प्रांत शुरू हो गया। दोनों तरफ ऊँची पर्वत-माला दौड़ी चली आ रही थी। सड़क भी पेंचदार होती जाती थी। कुछ दूर की चढ़ाई के बाद एकाएक ढाल आ गया और मोटर वेग से नीचे की ओर चली। दूर से नदी का पाट नजर आया, किसी रोगी की भाँति दुर्बल, निस्पंद। कगार पर एक घने वट वृक्ष की छाँह में कारें रोक दी गईं और लोग उतरे। यह सलाह हुई कि दो-दो की टोली बने और शिकार खेल कर बारह बजे तक यहाँ आ जाए। मिस मालती मेहता के साथ चलने को तैयार हो गईं। खन्ना मन में ऐंठ कर रह गए। जिस विचार से आए थे, उसमें जैसे पंचर हो गया। अगर जानते, मालती दगा देगी, तो घर लौट जाते, लेकिन रायसाहब का साथ उतना रोचक न होते हुए भी बुरा न था। उनसे बहुत-सी मुआमले की बातें करनी थीं। खुर्शेद और तंखा बच रहे। उनकी टोली बनी-बनाई थी। तीनों टोलियाँ एक-एक तरफ चल दीं। कुछ दूर तक पथरीली पगडंडी पर मेहता के साथ चलने के बाद मालती ने कहा - तुम तो चले ही जाते हो। जरा दम ले लेने दो। मेहता मुस्कराए - अभी तो हम एक मील भी नहीं आए। अभी से थक गईं? 'थकी नहीं, लेकिन क्यों न जरा दम ले लो।' 'जब तक कोई शिकार हाथ न आ जाय, हमें आराम करने का अधिकार नहीं।' 'मैं शिकार खेलने न आई थी।' मेहता ने अनजान बन कर कहा - अच्छा, यह मैं न जानता था। फिर क्या करने आई थीं? 'अब तुमसे क्या बताऊँ।' हिरनों का एक झुंड चरता हुआ नजर आया। दोनों एक चट्टान की आड़ में छिप गए और निशाना बाँध कर गोली चलाई। निशाना खाली गया। झुंड भाग निकला। मालती ने पूछा - अब? 'कुछ नहीं, चलो फिर कोई शिकार मिलेगा।' दोनों कुछ देर तक चुपचाप चलते रहे। फिर मालती ने जरा रुक कर कहा - गरमी के मारे बुरा हाल हो रहा है। आओ, इस वृक्ष के नीचे बैठ जायँ। 'अभी नहीं। तुम बैठना चाहती हो, तो बैठो। मैं तो नहीं बैठता।' 'बड़े निर्दयी हो तुम। सच कहती हूँ।' 'जब तक कोई शिकार न मिल जाय, मैं बैठ नहीं सकता। 'तब तो तुम मुझे मार ही डालोगे। अच्छा बताओ, रात तुमने मुझे इतना क्यों सताया? मुझे तुम्हारे ऊपर बड़ा क्रोध आ रहा था। याद है, तुमने मुझे क्या कहा था तुम हमारे साथ चलेगा दिलदार? मैं न जानती थी, तुम इतने शरीर हो। अच्छा, सच कहना, तुम उस वक्त मुझे अपने साथ ले जाते?' मेहता ने कोई जवाब न दिया, मानो सुना ही नहीं। दोनों कुछ दूर चलते रहे। एक तो जेठ की धूप, दूसरे पथरीला रास्ता। मालती थक कर बैठ गई। मेहता खड़े-खड़े बोले - अच्छी बात है, तुम आराम कर लो। मैं यहीं आ जाऊँगा। 'मुझे अकेले छोड़ कर चले जाओगे?' 'मैं जानता हूँ, तुम अपने रक्षा कर सकती हो!' 'कैसे जानते हो?' 'नए युग की देवियों की यही सिफत है। वह मर्द का आश्रय नहीं चाहतीं, उससे कंधा मिला कर चलना चाहती हैं।' मालती ने झेंपते हुए कहा - तुम कोरे फिलासफर हो मेहता, सच। सामने वृक्ष पर एक मोर बैठा हुआ था। मेहता ने निशाना साधा और बंदूक चलाई। मोर उड़ गया। मालती प्रसन्न हो कर बोली - बहुत अच्छा हुआ। मेरा शाप पड़ा। मेहता ने बंदूक कंधों पर रख कर कहा - तुमने मुझे नहीं, अपने आपको शाप दिया। शिकार मिल जाता, तो मैं दस मिनट की मुहलत देता। अब तो तुमको फौरन चलना पड़ेगा। मालती उठ कर मेहता का हाथ पकड़ती हुई बोली - फिलासफरों के शायद हृदय नहीं होता। तुमने अच्छा किया, विवाह नहीं किया, उस गरीब को मार ही डालते। मगर मैं यों न छोडूँगी। तुम मुझे छोड़ कर नहीं जा सकते। मेहता ने एक झटके से हाथ छुड़ा लिया और आगे बढ़े। मालती सजल नेत्र हो कर बोली - मैं कहती हूँ, मत जाओ। नहीं मैं इसी चट्टान पर सिर पटक दूँगी। मेहता ने तेजी से कदम बढ़ाए। मालती उन्हें देखती रही। जब वह बीस कदम निकल गए, तो झुँझला कर उठी और उनके पीछे दौड़ी। अकेले विश्राम करने में कोई आनंद न था। समीप आ कर बोली- मैं तुम्हें इतना पशु न जानती थी। 'मैं जो हिरन मारूँगा, उसकी खाल तुम्हें भेंट करूँगा।' 'खाल जाय भाड़ में। मैं अब तुमसे बात न करूँगी। 'कहीं हम लोगों के हाथ कुछ न लगा और दूसरों ने अच्छे शिकार मारे तो मुझे बड़ी झेंप होगी।' एक चौड़ा नाला मुँह फैलाए बीच में खड़ा था। बीच की चट्टानें उसके दाँतों-सी लगती थीं। धार में इतना वेग था कि लहरें उछली पड़ती थीं। सूर्य मध्याह्न आ पहुँचा था और उसकी प्यासी किरणें जल में क्रीड़ा कर रही थीं। मालती ने प्रसन्न हो कर कहा - अब तो लौटना पड़ा। 'क्यों उस पार चलेंगे। यहीं तो शिकार मिलेंगे।' 'धारा में कितना वेग है। मैं तो बह जाऊँगी।' 'अच्छी बात है। तुम यहीं बैठो, मैं जाता हूँ।' 'हाँ, आप जाइए। मुझे अपने जान से बैर नहीं है।' मेहता ने पानी में कदम रखा और पाँव साधते हुए चले। ज्यों-ज्यों आगे जाते थे, पानी गहरा होता जाता था। यहाँ तक कि छाती तक आ गया। मालती अधीर हो उठी। शंका से मन चंचल हो उठा। ऐसी विकलता तो उसे कभी न होती थी। ऊँचे स्वर में बोली - पानी गहरा है। ठहर जाओ, मैं भी आती हूँ। 'नहीं-नहीं, तुम फिसल जाओगी। धार तेज है।' 'कोई हरज नहीं, मैं आ रही हूँ। आगे न बढ़ना, खबरदार।' मालती साड़ी ऊपर चढ़ा कर नाले में पैठी। मगर दस हाथ आते-आते पानी उसकी कमर तक आ गया। मेहता घबड़ाए। दोनों हाथ से उसे लौट जाने को कहते हुए बोले - तुम यहाँ मत आओ मालती! यहाँ तुम्हारी गर्दन तक पानी है। मालती ने एक कदम और आगे बढ़ कर कहा - होने दो। तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं मर जाऊँ तो तुम्हारे पास ही मरूँगी। मालती पेट तक पानी में थी। धार इतनी तेज थी कि मालूम होता था, कदम उखड़ा। मेहता लौट पड़े और मालती को एक हाथ से पकड़ लिया। मालती ने नशीली आँखों में रोष भर कर कहा - मैंने तुम्हारे-जैसा बेदर्द आदमी कभी न देखा था। बिलकुल पत्थर हो। खैर, आज सता लो, जितना सताते बने, मैं भी कभी समझूँगी। मालती के पाँव उखड़ते हुए मालूम हुए। वह बंदूक सँभालती हुई उनसे चिमट गई। मेहता ने आश्वासन देते हुए कहा - तुम यहाँ खड़ी नहीं रह सकती। मैं तुम्हें अपने कंधों पर बिठाए लेता हूँ। मालती ने भृकुटी टेढ़ी करके कहा - तो उस पार जाना क्या इतना जरूरी है? मेहता ने कुछ उत्तर न दिया। बंदूक कनपटी से कंधों पर दबा ली और मालती को दोनों हाथों से उठा कर कंधों पर बैठा लिया। मालती अपने पुलक को छिपाती हुई बोली - अगर कोई देख ले? 'भद्दा तो लगता है।' दो पग के बाद उसने करुण स्वर में कहा - अच्छा बताओ, मैं यहीं पानी में डूब जाऊँ, तो तुम्हें रंज हो या न हो? मैं तो समझती हूँ, तुम्हें बिलकुल रंज न होगा। मेहता ने आहत स्वर से कहा - तुम समझती हो, मैं आदमी नहीं हूँ? 'मैं तो यही समझती हूँ, क्यों छिपाऊँ।' 'सच कहती हो मालती?' 'तुम क्या समझते हो?' 'मैं! कभी बतलाऊँगा।' पानी मेहता की गर्दन तक आ गया। कहीं अगला कदम उठाते ही सिर तक न आ जाए। मालती का हृदय धक-धक करने लगा। बोली - मेहता, ईश्वर के लिए अब आगे मत जाओ, नहीं, मैं पानी में कूद पडूँगी। उस संकट में मालती को ईश्वर याद आया, जिसका वह मजाक उड़ाया करती थी। जानती थी, ईश्वर कहीं बैठा नहीं है, जो आ कर उन्हें उबार लेगा, लेकिन मन को जिस अवलंब और शक्ति की जरूरत थी, वह और कहाँ मिल सकती थी? पानी कम होने लगा था। मालती ने प्रसन्न हो कर कहा - अब तुम मुझे उतार दो। 'नहीं-नहीं, चुपचाप बैठी रहो। कहीं आगे कोई गढ़ा मिल जाए।' 'तुम समझते होगे, यह कितनी स्वार्थिन है।' 'मुझे इसकी मजदूरी दे देना।' मालती के मन में गुदगुदी हुई। 'क्या मजदूरी लोगे?' 'यही कि जब तुम्हारे जीवन में ऐसा ही कोई अवसर आए, तो मुझे बुला लेना।' किनारे आ गए। मालती ने रेत पर अपने साड़ी का पानी निचोड़ा, जूते का पानी निकाला, मुँह-हाथ धोया, पर ये शब्द अपने रहस्यमय आशय के साथ उसके सामने नाचते रहे। उसने इस अनुभव का आनंद उठाते हुए कहा - यह दिन याद रहेगा। मेहता ने पूछा - तुम बहुत डर रही थीं? 'पहले तो डरी, लेकिन फिर मुझे विश्वास हो गया कि तुम हम दोनों की रक्षा कर सकते हो।' मेहता ने गर्व से मालती को देखा - उनके मुख पर परिश्रम की लाली के साथ तेज था। 'मुझे यह सुन कर कितना आनंद आ रहा है, तुम यह समझ सकोगी मालती?' 'तुमने समझाया कब? उलटे और जंगलों में घसीटते फिरते हो, और अभी फिर लौटती बार यही नाला पार करना पड़ेगा। तुमने कैसी आफत में जान डाल दी। मुझे तुम्हारे साथ रहना पड़े, तो एक दिन न पटे।' मेहता मुस्कराए। इन शब्दों का संकेत खूब समझ रहे थे। 'तुम मुझे इतना दुष्ट समझती हो! और जो मैं कहूँ कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ, तो तुम मुझसे विवाह करोगी?' 'ऐसे काठ-कठोर से कौन विवाह करेगा। रात-दिन जला कर मार डालोगे।' और मधुर नेत्रों से देखा, मानो कह रही हो - इसका आशय तुम खूब समझते हो। इतने बुद्धू नहीं हो। मेहता ने जैसे सचेत हो कर कहा - तुम सच कहती हो मालती! मैं किसी रमणी को प्रसन्न नहीं रख सकता। मुझसे कोई स्त्री प्रेम का स्वाँग नहीं कर सकती। मैं उसके अंतस्तल तक पहुँच जाऊँगा। फिर मुझे उससे अरुचि हो जायगी। मालती काँप उठी। इन शब्दों में कितना सत्य था। उसने पूछा - अच्छा बताओ, तुम कैसे प्रेम से संतुष्ट होगे? 'बस यही कि जो मन में हो, वही मुख पर हो! मेरे लिए रंग-रूप और हाव-भाव और नाजो-अंदाज का मूल्य उतना ही है, जितना होना चाहिए। मैं वह भोजन चाहता हूँ, जिससे आत्मा की तृप्ति हो। उत्तेजक और शोषक पदार्थो की मुझे जरूरत नहीं।' मालती ने होंठ सिकोड़ कर ऊपर को साँस खींचते हुए कहा - तुमसे कोई पेश न पाएगा। एक ही घाघ हो। अच्छा बताओ, मेरे विषय में तुम्हारा क्या खयाल है? मेहता ने नटखटपन से मुस्करा कर कहा - तुम सब कुछ कर सकती हो, बुद्धिमती हो, चतुर हो, प्रतिभावान हो, दयालु हो, चंचल हो, स्वाभिमानी हो, त्याग कर सकती हो, लेकिन प्रेम नहीं कर सकती। मालती ने पैनी दृष्टि से ताक कर कहा - झूठे हो तुम, बिलकुल झूठे। मुझे तुम्हारा यह दावा निस्सार मालूम होता है कि तुम नारी-हृदय तक पहुँच जाते हो। दोनों नाले के किनारे-किनारे चले जा रहे थे। बारह बज चुके थे, पर अब मालती को न विश्राम की इच्छा थी, न लौटने की। आज के सँभाषण में उसे एक ऐसा आनंद आ रहा था, जो उसके लिए बिलकुल नया था। उसने कितने ही विद्वानों और नेताओं को एक मुस्कान में, एक चितवन में, एक रसीले वाक्य में उल्लू बना कर छोड़ दिया था। ऐसी बालू की दीवार पर वह जीवन का आधार नहीं रख सकती थी। आज उसे वह कठोर, ठोस, पत्थर-सी भूमि मिल गई थी, जो फावड़ों से चिनगारियाँ निकाल रही थी और उसकी कठोरता उसे उत्तरोत्तर मोहे लेती थी। धायँ की आवाज हुई। एक लालसर नाले पर उड़ा जा रहा था। मेहता ने निशाना मारा। चिड़िया चोट खा कर भी कुछ दूर उड़ी, फिर बीच धार में गिर पड़ी और लहरों के साथ बहने लगी। 'अब?' 'अभी जा कर लाता हूँ। जाती कहाँ है!' यह कहने के साथ वह रेत में दौड़े और बंदूक किनारे पर रख गड़ाप से पानी में कूद पड़े और बहाव की ओर तैरने लगे, मगर आधा मील तक पूरा जोर लगाने पर भी चिड़िया न पा सके। चिड़िया मर कर भी जैसे उड़ी जा रही थी। सहसा उन्होंने देखा, एक युवती किनारे की एक झोपड़ी से निकली, चिड़िया को बहते देख कर साड़ी को जाँघों तक चढ़ाया और पानी में घुस पड़ी। एक क्षण में उसने चिड़िया पकड़ ली और मेहता को दिखाती हुई बोली - पानी से निकल आओ बाबूजी, तुम्हारी चिड़िया यह है। मेहता युवती की चपलता और साहस देख कर मुग्ध हो गए। तुरंत किनारे की ओर हाथ चलाए और दो मिनट में युवती के पास जा खड़े हुए। युवती का रंग था तो काला और वह भी गहरा, कपड़े बहुत ही मैले और फूहड़, आभूषण के नाम पर केवल हाथों में दो-दो मोटी चूड़ियाँ, सिर के बाल उलझे अलग-अलग। मुख-मंडल का कोई भाग ऐसा नहीं, जिसे सुंदर या सुघड़ कहा जा सके। लेकिन उस स्वच्छ, निर्मल जलवायु ने उसके कालेपन में ऐसा लावण्य भर दिया था और प्रकृति की गोद में पल कर उसके अंग इतने सुडौल, सुगठित और स्वच्छंद हो गए थे कि यौवन का चित्र खीचने के लिए उससे सुंदर कोई रूप न मिलता। उसका सबल स्वास्थ्य जैसे मेहता के मन में बल और तेज भर रहा था। मेहता ने उसे धन्यवाद देते हुए कहा - तुम बड़े मौके से पहुँच गईं, नहीं मुझे न जाने कितनी दूर तैरना पड़ता। युवती ने प्रसन्नता से कहा - मैंने तुम्हें तैरते आते देखा, तो दौड़ी। सिकार खेलने आए होंगे?' 'हाँ, आए तो थे शिकार ही खेलने, मगर दोपहर हो गया और यही चिड़िया मिली है।' 'तेंदुआ मारना चाहो, तो मैं उसका ठौर दिखा दूँ। रात को यहाँ रोज पानी पीने आता है। कभी-कभी दोपहर में भी आ जाता है।' फिर जरा सकुचा कर सिर झुकाए बोली - उसकी खाल हमें देनी पड़ेगी। चलो, मेरे द्वार पर। वहाँ पीपल की छाया है। यहाँ धूप में कब तक खड़े रहोगे? कपड़े भी तो गीले हो गए हैं। मेहता ने उसकी देह में चिपकी हुई गीली साड़ी की ओर देख कर कहा - तुम्हारे कपड़े भी तो गीले हैं। उसने लापरवाही से कहा - ऊँह हमारा क्या, हम तो जंगल के हैं। दिन-दिन भर धूप और पानी में खड़े रहते हैं, तुम थोड़े ही रह सकते हो। लड़की कितनी समझदार है और बिलकुल गँवार। 'तुम खाल ले कर क्या करोगी?' 'हमारे दादा बाजार में बेचते हैं। यही तो हमारा काम है।' 'लेकिन दोपहरी यहाँ काटें, तुम खिलाओगी क्या?' युवती ने लजाते हुए कहा - तुम्हारे खाने लायक हमारे घर में क्या है। मक्के की रोटियाँ खाओ, तो धरी हैं। चिड़िए का सालन पका दूँगी। तुम बताते जाना, जैसे बनाना हो। थोड़ा-सा दूध भी है। हमारी गैया को एक बार तेंदुए ने घेरा था। उसे सींगों से भगा कर भाग आई, तब से तेंदुआ उससे डरता है। 'लेकिन मैं अकेला नहीं हूँ। मेरे साथ एक औरत भी है।' 'तुम्हारी घरवाली होगी?' 'नहीं, घरवाली तो अभी नहीं है, जान-पहचान की है।' 'तो मैं दौड़ कर उनको बुला लाती हूँ। तुम चल कर छाँह में बैठो।' 'नहीं-नहीं, मैं बुला लाता हूँ।' तुम थक गए होगे। शहर के रहैया, जंगल में काहे आते होंगे। हम तो जंगली आदमी हैं। किनारे ही तो खड़ी होंगी।' जब तक मेहता कुछ बोलें, वह हवा हो गई। मेहता ऊपर चढ़ कर पीपल की छाँह में बैठे, तो इस स्वच्छंद जीवन से उनके मन में अनुराग उत्पन्न हुआ। सामने की पर्वत-माला दर्शन-तत्व की भाँति अगम्य और अनंत फैली हुई, मानो ज्ञान का विस्तार कर रही हो, मानों आत्मा उस ज्ञान को, उस प्रकाश को, उस अगम्यता को, उसके प्रत्यक्ष विराट रूप में देख रही हो। दूर के एक बहुत ऊँचे शिखर पर एक छोटा-सा मंदिर था, जो उस अगम्यता में बुद्धि की भाँति ऊँचा, पर खोया हुआ-सा खड़ा था, मानो वहाँ तक पर मार कर पक्षी विश्राम लेना चाहता है और कहीं स्थान नहीं पाता। मेहता इन्हीं विचारों में डूबे हुए थे कि युवती मिस मालती को साथ लिए आ पहुँची, एक वन-पुष्प की भाँति धूप में खिली हुई, दूसरी गमले के फूल की भाँति धूप में मुरझाई और निर्जीव। मालती ने बेदिली के साथ कहा - पीपल की छाँह बहुत अच्छी लग रही है, क्यों और यहाँ भूख के मारे प्राण निकले जा रहे हैं। युवती दो बड़े-बड़े मटके उठा लाई और बोली - तुम जब तक यहीं बैठो, मैं अभी दौड़ कर पानी लाती हूँ, फिर चूल्हा जला दूँगी, और मेरे हाथ का खाओ, तो मैं एक छन में बाटियाँ सेंक दूँगी, नहीं, अपने आप सेंक लेना। हाँ, गेहूँ का आटा मेरे घर में नहीं है और यहाँ कहीं कोई दुकान भी नहीं है कि ला दूँ। मालती को मेहता पर क्रोध आ रहा था। बोली - तुम यहाँ क्यों आ कर पड़ रहे? मेहता ने चिढ़ाते हुए कहा - एक दिन जरा जीवन का आनंद भी तो उठाओ। देखो, मक्के की रोटियों में कितना स्वाद है। मुझसे मक्के की रोटियाँ खाई ही न जायँगी, और किसी तरह निगल भी जाऊँ तो हजम न होंगी। तुम्हारे साथ आ कर मैं बहुत पछता रही हूँ। रास्ते-भर दौड़ा के मार डाला और अब यहाँ ला कर पटक दिया।' मेहता ने कपड़े उतार दिए थे और केवल एक नीला जांघिया पहने बैठे हुए थे। युवती को मटके ले जाते देखा, तो उसके हाथ से मटके छीन लिए और कुएँ पर पानी भरने चले। दर्शन के गहरे अध्ययन में भी उन्होंने अपने स्वास्थ्य की रक्षा की थी और दोनों मटके ले कर चलते हुए उनकी माँसल और चौड़ी छाती और मछलीदार जाँघें किसी यूनानी प्रतिमा के सुगठित अंगों की भाँति उनके पुरुषार्थ का परिचय दे रही थीं। युवती उन्हें पानी खींचते हुए अनुराग-भरी आँखों से देख रही थी। वह अब उसकी दया के पात्र नहीं, श्रद्धा के पात्र हो गए थे। कुआँ बहुत गहरा था, कोई साठ हाथ, मटके भारी थे और मेहता कसरत का अभ्यास करते रहने पर भी एक मटका खींचते-खींचते शिथिल हो गए। युवती ने दौड़ कर उनके हाथ से रस्सी छीन ली और बोली - तुमसे न खींचेगा। तुम जा कर खाट पर बैठो, मैं खींचे लेती हूँ। मेहता अपने पुरुषत्व का यह अपमान न सह सके। रस्सी उसके हाथ से फिर ले ली और जोर मार कर एक क्षण में दूसरा मटका भी खींच लिया और दोनों हाथों में दोनों मटके लिए, आ कर झोपड़ी के द्वार पर खड़े हो गए। युवती ने चटपट आग जलाई, लालसर के पंख झुलस डाले। छुरे से उसकी बोटियाँ बनाईं और चूल्हे में आग जला कर माँस चढ़ा दिया और चूल्हे के दूसरे ऐले पर कढ़ाई में दूध उबालने लगी। और मालती भौंहें चढ़ाए, खाट पर खिन्न-मन पड़ी इस तरह यह दृश्य देख रही थी, मानो उसके आपरेशन की तैयारी हो रही हो। मेहता झोपड़ी के द्वार पर खड़े हो कर, युवती के गृह-कौशल को अनुरक्त नेत्रों से देखते हुए बोले - मुझे भी तो कोई काम बताओ, मैं क्या करूँ? युवती ने मीठी झिड़की के साथ कहा - तुम्हें कुछ नहीं करना है, जा कर बाई के पास बैठो, बेचारी बहुत भूखी है, दूध गरम हुआ जाता है, उसे पिला देना। उसने एक घड़े से आटा निकाला और गूँधने लगी। मेहता उसके अंगों का विलास देखते रहे। युवती भी रह-रह कर उन्हें कनखियों से देख कर अपना काम करने लगती थी। मालती ने पुकारा - तुम वहाँ क्यों खड़े हो? मेरे सिर में जोर का दर्द हो रहा है। आधा सिर ऐसा फटा पड़ता है, जैसे गिर जायगा। मेहता ने आ कर कहा - मालूम होता है, धूप लग गई है। 'मैं क्या जानती थी, तुम मुझे मार डालने के लिए यहाँ ला रहे हो।' 'तुम्हारे साथ कोई दवा भी तो नहीं है?' 'क्या मैं किसी मरीज को देखने आ रही थी, जो दवा ले कर चलती? मेरा एक दवाओं का बक्स है, वह सेमरी में है! उफ! सिर फटा जाता है।' मेहता ने उसके सिर की ओर जमीन पर बैठ कर धीरे-धीरे उसका सिर सहलाना शुरू किया। मालती ने आँखें बंद कर लीं। युवती हाथों में आटा भरे, सिर के बाल बिखेरे, आँखें धुएँ से लाल और सजल, सारी देह पसीने में तर, जिससे उसका उभरा हुआ वक्ष साफ झलक रहा था, आ कर खड़ी हो गई और मालती को आँखें बंद किए पड़ी देख कर बोली - बाई को क्या हो गया है? 'मेहता बोले- सिर में बड़ा दर्द है। 'पूरे सिर में है कि आधे में?' 'आधे में बतलाती हैं।' 'दाईं ओर है, कि बाईं ओर?' 'बाईं ओर।' 'मैं अभी दौड़ के एक दवा लाती हूँ। घिस कर लगाते ही अच्छा हो जायगा।' 'तुम इस धूप में कहाँ जाओगी?' युवती ने सुना ही नहीं। वेग से एक ओर जा कर पहाड़ियों में छिप गई। कोई आधा घंटे बाद मेहता ने उसे ऊँची पहाड़ी पर चढ़ते देखा। दूर से बिलकुल गुड़िया-सी लग रही थी। मन में सोचा - इस जंगली छोकरी में सेवा का कितना भाव और कितना व्यावहारिक ज्ञान है। लू और धूप में आसमान पर चढ़ी चली जा रही है। मालती ने आँखें खोल कर देखा - कहाँ गई वह कलूटी। गजब की काली है, जैसे आबनूस का कुंदा हो। इसे भेज दो, रायसाहब से कह आए, कार यहाँ भेज दें। इस तपिश में मेरा दम निकल जायगा। 'कोई दवा लेने गई है। कहती है, उससे आधा-सिर का दर्द बहुत जल्द आराम हो जाता है।' इनकी दवाएँ इन्हीं को फायदा करती हैं, मुझे न करेंगी। तुम तो इस छोकरी पर लट्टू हो गए हो। कितने छिछोरे हो। जैसी रूह वैसे फरिश्ते।' मेहता को कटु सत्य कहने में संकोच न होता था। 'कुछ बातें तो उसमें ऐसी हैं कि अगर तुममें होतीं, तो तुम सचमुच देवी हो जातीं।' 'उसकी खूबियाँ उसे मुबारक, मुझे देवी बनने की इच्छा नहीं।' 'तुम्हारी इच्छा हो, तो मैं जा कर कार लाऊँ, यद्यपि कार यहाँ आ भी सकेगी, मैं नहीं कह सकता।' 'उस कलूटी को क्यों नहीं भेज देते?' 'वह तो दवा लेने गई है, फिर भोजन पकाएगी।' 'तो आज आप उसके मेहमान हैं। शायद रात को भी यहीं रहने का विचार होगा। रात को शिकार भी तो अच्छे मिलते हैं।' मेहता ने इस आक्षेप से चिढ़ कर कहा - इस युवती के प्रति मेरे मन में जो प्रेम और श्रद्धा है, वह ऐसी है कि अगर मैं उसकी ओर वासना से देखूँ तो आँखें फूट जायँ। मैं अपने किसी घनिष्ठ मित्र के लिए भी इस धूप और लू में उस ऊँची पहाड़ी पर न जाता। और हम केवल घड़ी-भर के मेहमान हैं, यह वह जानती है। वह किसी गरीब औरत के लिए भी इसी तत्परता से दौड़ जायगी। मैं विश्व-बंधुत्व और विश्व-प्रेम पर केवल लेख लिख सकता हूँ, केवल भाषण दे सकता हूँ, वह उस प्रेम और त्याग का व्यवहार करती है। कहने से करना कहीं कठिन है। इसे तुम भी जानती हो। मालती ने उपहास भाव से कहा - बस-बस, वह देवी है। मैं मान गई। उसके वक्ष में उभार है, नितंबों में भारीपन है, देवी होने के लिए और क्या चाहिए। मेहता तिलमिला उठे। तुरंत उठे और कपड़े पहने, जो सूख गए थे। बंदूक उठाई और चलने को तैयार हुए। मालती ने फुंकार मारी - तुम नहीं जा सकते, मुझे अकेली छोड़ कर। 'तब कौन जायगा?' 'वही तुम्हारी देवी।' मेहता हतबुद्धि-से खड़े थे। नारी पुरुष पर कितनी आसानी से विजय पा सकती है, इसका आज उन्हें जीवन में पहला अनुभव हुआ। वह दौड़ती-हाँफती चली आ रही थी। वही कलूटी युवती, हाथ में एक झाड़ लिए हुए। समीप आ कर मेहता को कहीं जाने को तैयार देख कर बोली - मैं वह जड़ी खोज लाई। अभी घिस कर लगाती हूँ, लेकिन तुम कहाँ जा रहे हो? माँस तो पक गया होगा, मैं रोटियाँ सेंक देती हूँ। दो-एक खा लेना। बाई दूध पी लेगी। ठंडा हो जाय, तो चले जाना। उसने निःसंकोच भाव से मेहता के अचकन की बटनें खोल दीं। मेहता अपने को बहुत रोके हुए थे। जी होता था, इस गँवारिन के चरणों को चूम लें। मालती ने कहा - अपने दवाई रहने दे। नदी के किनारे, बरगद के नीचे हमारी मोटरकार खड़ी है। वहाँ और लोग होंगे। उनसे कहना, कार यहाँ लाएँ। दौड़ी हुई जा। युवती ने दीन नेत्रों से मेहता को देखा। इतनी मेहनत से बूटी लाई, उसका यह अनादर! इस गँवारिन की दवा इन्हें नहीं जँची, तो न सही, उसका मन रखने को ही जरा-सी लगवा लेतीं, तो क्या होता। उसने बूटी जमीन पर रख कर पूछा - तब तक तो चूल्हा ठंडा हो जायगा बाई जी। कहो तो रोटियाँ सेंक कर रख दूँ। बाबूजी खाना खा लें, तुम दूध पी लो और दोनों जने आराम करो। तब तक मैं मोटर वाले को बुला लाऊँगी। वह झोपड़ी में गई, बुझी हुई आग फिर जलाई। देखा तो माँस उबल गया था। कुछ जल भी गया था। जल्दी-जल्दी रोटियाँ सेंकी, दूध गर्म था, उसे ठंडा किया और एक कटोरे में मालती के पास लाई। मालती ने कटोरे के भद्देपन पर मुँह बनाया; लेकिन दूध त्याग न सकी। मेहता झोपड़ी के द्वार पर बैठ कर एक थाली में माँस और रोटियाँ खाने लगे। युवती खड़ी पंख झल रही थी। मालती ने युवती से कहा - उन्हें खाने दो। कहीं भागे नहीं जाते हैं। तू जा कर गाड़ी ला। युवती ने मालती की ओर एक बार सवाल की आँखों से देखा, यह क्या चाहती हैं। इनका आशय क्या है? उसे मालती के चेहरे पर रोगियों की-सी नम्रता और कृतज्ञता और याचना न दिखाई दी। उसकी जगह अभिमान और प्रमाद की झलक थी। गँवारिन मनोभावों को पहचानने में चतुर थी। बोली - मैं किसी की लौंडी नहीं हूँ बाई जी! तुम बड़ी हो, अपने घर की बड़ी हो। मैं तुमसे कुछ माँगने तो नहीं जाती। मैं गाड़ी लेने न जाऊँगी। मालती ने डाँटा - अच्छा, तूने गुस्ताखी पर कमर बाँधी! बता, तू किसके इलाके में रहती है? 'यह रायसाहब का इलाका है।' 'तो तुझे उन्हीं रायसाहब के हाथों हंटरों से पिटवाऊँगी।' 'मुझे पिटवाने से तुम्हें सुख मिले तो पिटवा लेना बाई जी! कोई रानी-महारानी थोड़ी हूँ कि लस्कर भेजनी पड़ेगी।' मेहता ने दो-चार कौर निगले थे कि मालती की यह बातें सुनीं। कौर कंठ में अटक गया। जल्दी से हाथ धोया और बोले - वह नहीं जायगी। मैं जा रहा हूँ। मालती भी खड़ी हो गई - उसे जाना पड़ेगा। मेहता ने अंग्रेजी में कहा - उसका अपमान करके तुम अपना सम्मान बढ़ा नहीं रही हो मालती! मालती ने फटकार बताई - ऐसी ही लौंडियाँ मर्दों को पसंद आती हैं, जिनमें और कोई गुण हो या न हो, उनकी टहल दौड़-दौड़ कर प्रसन्न मन से करें और अपना भाग्य सराहें कि इस पुरुष ने मुझसे यह काम करने को तो कहा - वह देवियाँ हैं, शक्तियाँ हैं, विभूतियाँ हैं। मैं समझती थी, वह पुरुषत्व तुममें कम-से-कम नहीं है, लेकिन अंदर से, संस्कारों से, तुम भी वही बर्बर हो। मेहता मनोविज्ञान के पंडित थे। मालती के मनोरहस्यों को समझ रहे थे। ईर्ष्या का ऐसा अनोखा उदाहरण उन्हें कभी न मिला था। उस रमणी में, जो इतनी मृदु-स्वभाव, इतनी उदार, इतनी प्रसन्न-मुख थी, ईर्ष्या की ऐसी प्रचंड ज्वाला! बोले - कुछ भी कहो, मैं उसे न जाने दूँगा। उसकी सेवाओं और कृपाओं का यह पुरस्कार दे कर मैं अपने नजरों में नीच नहीं बन सकता। मेहता के स्वर में कुछ ऐसा तेज था कि मालती धीरे-से उठी और चलने को तैयार हो गई। उसने जल कर कहा - अच्छा, तो मैं ही जाती हूँ, तुम उसके चरणों की पूजा करके पीछे आना। मालती दो-तीन कदम चली गई, तो मेहता ने युवती से कहा - अब मुझे आज्ञा दो बहन, तुम्हारा यह नेह, तुम्हारी यह नि:स्वार्थ सेवा हमेशा याद रहेगी। युवती ने दोनों हाथों से, सजल नेत्र हो कर उन्हें प्रणाम किया और झोपड़ी के अंदर चली गई। दूसरी टोली रायसाहब और खन्ना की थी। रायसाहब तो अपने उसी रेशमी कुरते और रेशमी चादर में थे। मगर खन्ना ने शिकारी सूट डाँटा था, जो शायद आज ही के लिए बनवाया गया था; क्योंकि खन्ना को असामियों के शिकार से इतनी फुर्सत कहाँ थी कि जानवरों का शिकार करते। खन्ना ठिंगने, इकहरे, रूपवान आदमी थे, गेहुंआ रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, मुँह पर चेचक के दाग, बातचीत में बड़े कुशल। कुछ देर चलने के बाद खन्ना ने मिस्टर मेहता का जिक्र छेड़ दिया, जो कल से ही उनके मस्तिष्क में राहु की भाँति समाए हुए थे। बोले - यह मेहता भी कुछ अजीब आदमी है। मुझे तो कुछ बना हुआ मालूम होता है। रायसाहब मेहता की इज्जत करते थे और उन्हें सच्चा और निष्कपट आदमी समझते थे, पर खन्ना से लेन-देन का व्यवहार था, कुछ स्वभाव से शांतिप्रिय भी थे, विरोध न कर सके। बोले - मैं तो उन्हें केवल मनोरंजन की वस्तु समझता हूँ। कभी उनसे बहस नहीं करता और करना भी चाहूँ तो उतनी विद्या कहाँ से लाऊँ? जिसने जीवन के क्षेत्र में कभी कदम ही नहीं रखा, वह अगर जीवन के विषय में कोई नया सिद्धांत अलापता है, तो मुझे उस पर हँसी आती है। मजे से एक हजार माहवार फटकारते हैं, न जोरू न जाँता, न कोई चिंता न बाधा, वह दर्शन न बघारें तो कौन बघारे ! आप निर्द्वंद्व रह कर जीवन को संपूर्ण बनाने का स्वप्न देखते हैं। ऐसे आदमी से क्या बहस की जाए। 'मैंने सुना, चरित्र का अच्छा नहीं है।' 'बेफिक्री में चरित्र अच्छा रह ही कैसे सकता है। समाज में रहो और समाज के कर्तव्यों और मर्यादाओं का पालन करो, तब पता चले।' 'मालती न जाने क्या देख कर उन पर लट्टू हुई जाती है।' 'मैं समझता हूँ, वह केवल तुम्हें जला रही है।' मुझे वह क्या जलाएँगी, बेचारी। मैं उन्हें खिलौने से ज्यादा नहीं समझता।' 'यह तो न कहो मिस्टर खन्ना, मिस मालती पर जान तो देते हो तुम।' 'यों तो मैं आपको भी यही इलजाम दे सकता हूँ।' 'मैं सचमुच खिलौना समझता हूँ। आप उन्हें प्रतिमा बनाए हुए हैं।' खन्ना ने जोर से कहकहा मारा, हालाँकि हँसी की कोई बात न थी। 'अगर एक लोटा जल चढ़ा देने से वरदान मिल जाय, तो क्या बुरा है।' अबकी रायसाहब ने जोर से कहकहा मारा, जिसका कोई प्रयोजन न था। 'तब आपने उस देवी को समझा ही नहीं। आप जितनी ही उसकी पूजा करेंगे, उतना ही वह आपसे दूर भागेंगी। जितना ही दूर भागिएगा, उतना ही आपकी ओर दौड़ेंगी।' 'तब तो उन्हें आपकी ओर दौड़ना चाहिए था।' 'मेरी ओर! मैं उस रसिक-समाज से बिलकुल बाहर हूँ मिस्टर खन्ना, सच कहता हूँ। मुझमें जितनी बुद्धि, जितना बल है, वह इस इलाके के प्रबंध में ही खर्च हो जाता है। घर के जितने प्राणी हैं, सभी अपनी-अपनी धुन में मस्त, कोई उपासना में, कोई विषय-वासना में। कोऊ काहू में मगन, कोऊ काहू में मगन। और इन सब अजगरों को भक्ष्य देना मेरा काम है, कर्तव्य है। मेरे बहुत से ताल्लुकेदार भाई भोग-विलास करते हैं, यह मैं जानता हूँ। मगर वह लोग घर फूँक कर तमाशा देखते हैं। कर्ज का बोझ सिर पर लदा जा रहा है, रोज डिगरियाँ हो रही हैं। जिससे लेते हैं, उसे देना नहीं जानते, चारों तरफ बदनाम। मैं तो ऐसी जिंदगी से मर जाना अच्छा समझता हूँ! मालूम नहीं, किस संस्कार से मेरी आत्मा में जरा-सी जान बाकी रह गई, जो मुझे देश और समाज के बंधन में बाँधे हुए है। सत्याग्रह-आंदोलन छिड़ा। मेरे सारे भाई शराब-कबाब में मस्त थे। मैं अपने को न रोक सका। जेल गया और लाखों रुपए की जेरबारी उठाई और अभी तक उसका तावान दे रहा हूँ। मुझे उसका पछतावा नहीं है। बिलकुल नहीं। मुझे उसका गर्व है! मैं उस आदमी को आदमी नहीं समझता, जो देश और समाज की भलाई के लिए उद्योग न करे और बलिदान न करे। मुझे क्या यह अच्छा लगता है कि निर्जीव किसानों का रक्त चूसूँ और अपने परिवारवालों की वासनाओं की तृप्ति के साधन जुटाऊँ, मगर क्या करूँ? जिस व्यवस्था में पला और जिया, उससे घृणा होने पर भी उसका मोह त्याग नहीं सकता और उसी चर्खे में रात-दिन पड़ा हुआ हूँ कि किसी तरह इज्जत-आबरू बची रहे, और आत्मा की हत्या न होने पाए। ऐसा आदमी मिस मालती क्या, किसी भी मिस के पीछे नहीं पड़ सकता, और पड़े तो उसका सर्वनाश ही समझिए। हाँ, थोड़ा-सा मनोरंजन कर लेना दूसरी बात है।' मिस्टर खन्ना भी साहसी आदमी थे, संग्राम में आगे बढ़ने वाले। दो बार जेल हो आए थे। किसी से दबना न जानते थे। खद्दर पहनते थे और फ्रांस की शराब पीते थे। अवसर पड़ने पर बड़ी-बड़ी तकलीफे झेल सकते थे। जेल में शराब छुई तक नहीं, और 'ए' क्लास में रह कर भी 'सी' क्लास की रोटियाँ खाते रहे, हालाँकि, उन्हें हर तरह का आराम मिल सकता था, मगर रण-क्षेत्र में जाने वाला रथ भी तो बिना तेल के नहीं चल सकता। उनके जीवन में थोड़ी-सी रसिकता लाजिमी थी। बोले - आप संन्यासी बन सकते हैं, मैं तो नहीं बन सकता। मैं तो समझता हूँ, जो भोगी नहीं है, वह संग्राम में भी पूरे उत्साह से नहीं जा सकता। जो रमणी से प्रेम नहीं कर सकता, उसके देश-प्रेम में मुझे विश्वास नहीं। राय साहब मुस्कराए - आप मुझी पर आवाजें कसने लगे। 'आवाज नहीं है, तत्व की बात है।' 'शायद हो।' 'आप अपने दिल के अंदर पैठ कर देखिए तो पता चले।' 'मैंने तो पैठ कर देखा है, और मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, वहाँ और चाहे जितनी बुराइयाँ हों, विषय की लालसा नहीं है।' 'तब मुझे आपके ऊपर दया आती है। आप जो इतने दुखी और निराश और चिंतित हैं, इसका एकमात्र कारण आपका निग्रह है। मैं तो यह नाटक खेल कर रहूँगा, चाहे दु:खांत ही क्यों न हो। वह मुझसे मजाक करती है, दिखाती है कि मुझे तेरी परवाह नहीं है, लेकिन मैं हिम्मत हारने वाला मनुष्य नहीं हूँ। मैं अब तक उसका मिजाज नहीं समझ पाया। कहाँ निशाना ठीक बैठेगा, इसका निश्चय न कर सका। जिस दिन यह कुंजी मिल गई, बस फतह है।' 'लेकिन वह कुंजी आपको शायद ही मिले। मेहता शायद आपसे बाजी मार ले जायँ।' एक हिरन कई हिरनियों के साथ चर रहा था, बड़ी सींगों वाला, बिलकुल काला। रायसाहब ने निशाना बाँधा। खन्ना ने रोका - क्यों हत्या करते हो यार बेचारा चर रहा है, चरने दो। धूप तेज हो गई। आइए कहीं बैठ जायँ। आपसे कुछ बातें करनी हैं। रायसाहब ने बंदूक चलाई, मगर हिरन भाग गया। बोले - एक शिकार मिला भी तो निशाना खाली गया। 'एक हत्या से बचे।' 'हाँ कहिए, क्या कहने जा रहे थे।' 'आपके इलाके में ऊख होती है?' 'बड़ी कसरत से।' 'तो फिर क्यों न हमारे शुगर मिल में शामिल हो जाइए? हिस्से धड़ाधड़ बिक रहे हैं। आप ज्यादा नहीं, एक हजार हिस्से खरीद लें?' 'गजब किया, मैं इतने रुपए कहाँ से लाऊँगा?' 'इतने नामी इलाकेदार और आपको रूपयों की कमी! कुल पचास हजार ही तो होते हैं। उनमें भी अभी 25 फीसदी ही देना है।' 'नहीं भाई साहब, मेरे पास इस वक्त बिलकुल रुपए नहीं हैं। 'रुपए जितने चाहें, मुझसे लीजिए। बैंक आपका है। हाँ, अभी आपने अपनी जिंदगी इंश्योर्ड न कराई होगी। मेरी कंपनी में एक अच्छी-सी पालिसी लीजिए। सौ-दो सौ रुपए तो आप बड़ी आसानी से हर महीने दे सकते हैं और इकट्टी रकम मिल जायगी - चालीस-पचास हजार। लड़कों के लिए इससे अच्छा प्रबंध आप नहीं कर सकते। हमारी नियमावली देखिए। हम पूर्ण सहकारिता के सिद्धांत पर काम करते हैं। दफ्तर और कर्मचारियों के खर्च के सिवा नफे की एक पाई भी किसी की जेब में नहीं जाती। आपको आश्चर्य होगा कि इस नीति से कंपनी चल कैसे रही हैं! और मेरी सलाह से थोड़ा-सा स्पेकुलेशन का काम भी शुरू कर दीजिए। यह जो सैकड़ों करोड़पति बने हुए हैं, सब इसी स्पेकुलेशन से बने हैं। रूई, शक्कर, गेहूँ, रबर किसी जिंस का सट्टा कीजिए। मिनटों में लाखों का वारा-न्यारा होता है। काम जरा अटपटा है। बहुत से लोग गच्चा खा जाते हैं, लेकिन वही, जो अनाड़ी हैं। आप जैसे अनुभवी, सुशिक्षित और दूरंदेश लोगों के लिए इससे ज्यादा नफे का काम ही नहीं। बाजार का चढ़ाव-उतार कोई आकस्मिक घटना नहीं। इसका भी विज्ञान है। एक बार उसे गौर से देख लीजिए, फिर क्या मजाल कि धोखा हो जाए।' रायसाहब कंपनियों पर अविश्वास करते थे, दो-एक बार इसका उन्हें कड़वा अनुभव हो भी चुका था, लेकिन मिस्टर खन्ना को उन्होंने अपनी आँखों के सामने बढ़ते देखा था और उनकी कार्यक्षमता के कायल हो गए थे। अभी दस साल पहले जो व्यक्ति बैंक में क्लर्क था, वह केवल न अपने अधयवसाय, पुरुषार्थ और प्रतिभा से शहर में पुजता है। उसकी सलाहों की उपेक्षा न की जा सकती थी। इस विषय में अगर खन्ना उनके पथ-प्रदर्शक हो जायँ, तो उन्हें बहुत कुछ कामयाबी हो सकती है। ऐसा अवसर क्यों छोड़ा जाय? तरह-तरह के प्रश्न करते रहे। सहसा एक देहाती एक बड़ी-सी टोकरी में कुछ जड़ें, कुछ पत्तियाँ, कुछ फूल लिए, जाता नजर आया। खन्ना ने पूछा - अरे, क्या बेचता है? देहाती सकपका गया। डरा, कहीं बेगार में न पकड़ जाए। बोला - कुछ तो नहीं मालिक यही घास-पात है?' 'क्या करेगा इनको?' 'बेचूँगा मालिक जड़ी-बूटी है।' 'कौन-कौन-सी जड़ी-बूटी है, बता?' देहाती ने अपना औषधालय खोल कर दिखलाया। मामूली चीजें थीं, जो जंगल के आदमी उखाड़ कर ले जाते हैं और शहर में अत्तारों के हाथ दो-चार आने में बेच आते हैं। जैसे मकोय, कंघी, सहदेइया, कुकरौंधो, धतूरे के बीज, मदार के फूल, करंजे, घुमची आदि। हर एक चीज दिखाता था और रटे हुए शब्दों में उनके गुण भी बयान करता जाता था। यह मकोय है सरकार! ताप हो, मंदाग्नि हो, तिल्ली हो, धड़कन हो, शूल हो, खाँसी हो, एक खुराक में आराम हो जाता है। यह धतूरे के बीज हैं, मालिक गठिया हो, बाई हो........... खन्ना ने दाम पूछा - उसने आठ आने कहे। खन्ना ने एक रूपया फेंक दिया और उसे पड़ाव तक रख आने का हुक्म दिया। गरीब ने मुँह-माँगा दाम ही नहीं पाया, उसका दुगुना पाया। आशीर्वाद देता चला गया। रायसाहब ने पूछा - आप यह घास-पात ले कर क्या करेंगे? खन्ना ने मुस्करा कर कहा - इनकी अशर्फियाँ बनाऊँगा। मैं कीमियागर हूँ। यह आपको शायद नहीं मालूम। 'तो यार, वह मंत्र हमें भी सिखा दो।' 'हाँ-हाँ, शौक से। मेरी शागिर्दी कीजिए। पहले सवा सेर लड्डू ला कर चढ़ाइए, तब बतलाऊँगा। बात यह है कि मेरा तरह-तरह के आदमियों से साबका पड़ता है। कुछ ऐसे लोग भी आते हैं, जो जड़ी-बूटियों पर जान देते हैं। उनको इतना मालूम हो जाय कि यह किसी फकीर की दी हुई बूटी है, फिर आपकी खुशामद करेंगे, नाक रगड़ेंगे, और आप वह चीज उन्हें दे दें, तो हमेशा के लिए आपके ॠणी हो जाएँगे। एक रुपए में अगर दस-बीस बुद्धुओं पर एहसान का नमदा कसा जा सके, तो क्या बुरा है? जरा से एहसान से बड़े-बड़े काम निकल जाते हैं।' रायसाहब ने कौतूहल से पूछा- मगर इन बूटियों के गुण आपको याद कैसे रहेंगे? खन्ना ने कहकहा मारा - आप भी रायसाहब! बड़े मजे की बातें करते हैं। जिस बूटी में जो भी गुण चाहे बता दीजिए, वह आपकी लियाकत पर मुनहसर है। सेहत तो रुपए में आठ आने विश्वास से होती है। आप जो इन बड़े-बड़े अफसरों को देखते हैं, और इन लंबी पूँछवाले विद्वानों को, और इन रईसों को, ये सब अंधविश्वासी होते हैं। मैं तो वनस्पति-शास्त्र के प्रोफेसर को जानता हूँ, जो कुकरौंधो का नाम भी नहीं जानते। इन विद्वानों का मजाक तो हमारे स्वामीजी खूब उड़ाते हैं। आपको तो कभी उनके दर्शन न हुए होंगे। अबकी आप आएँगे, तो उनसे मिलाऊँगा। जब से मेरे बगीचे में ठहरे हैं, रात-दिन लोगों का ताँता लगा रहता है। माया तो उन्हें छू भी नहीं गई। केवल एक बार दूध पीते हैं। ऐसा विद्वान महात्मा मैंने आज तक नहीं देखा। न जाने कितने वर्ष हिमालय पर तप करते रहे। पूरे सिद्ध पुरुष हैं। आप उनसे अवश्य दीक्षा लीजिए। मुझे विश्वास है, आपकी यह सारी कठिनाइयाँ छूमंतर हो जाएँगी। आपको देखते ही आपका भूत-भविष्य सब कह सुनाएँगे। ऐसे प्रसन्न-मुख हैं कि देखते ही मन खिल उठता है। ताज्जुब तो, यह है कि खुद इतने बड़े महात्मा हैं, मगर संन्यास और त्याग, मंदिर और मठ, संप्रदाय और पंथी, इन सबको ढोंग कहते हैं, पाखंड कहते हैं। रूढ़ियों के बंधन को तोड़ो और मनुष्य बनो, देवता बनने का खयाल छोड़ो। देवता बन कर तुम मनुष्य न रहोगे। रायसाहब के मन में शंका हुई। महात्माओं में उन्हें भी वह विश्वास था, जो प्रभुतावालों में आमतौर पर होता है। दु:खी प्राणी को आत्मचेतन में जो शांति मिलती है, उसके लिए वह भी लालायित रहते थे। जब आर्थिक कठिनाइयों से निराश हो जाते, मन में आता, संसार से मुँह मोड़ कर एकांत में जा बैठें और मोक्ष की चिंता करें। संसार के बंधनों को वह भी साधारण मनुष्यों की भाँति आत्मोन्नति के मार्ग की बाधाएँ समझते थे और इनसे दूर हो जाना ही उनके जीवन का भी आदर्श था, लेकिन संन्यास और त्याग के बिना बंधनों को तोड़ने का और क्या उपाय है? 'लेकिन जब वह संन्यास को ढोंग कहते हैं, तो खुद क्यों संन्यास लिया है?' 'उन्होंने संन्यास कब लिया है साहब, वह तो कहते हैं - आदमी को अंत तक काम करते रहना चाहिए। विचार-स्वातंत्र्य उनके उपदेशों का तत्व है।' 'मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। विचार-स्वातंत्रय का आशय क्या है?' 'समझ में तो मेरे भी कुछ नहीं आया, अबकी आइए, तो उनसे बातें हों। वह प्रेम को जीवन का सत्य कहते हैं। और इसकी ऐसी सुंदर व्याख्या करते हैं कि मन मुग्ध हो जाता है।' 'मिस मालती को उनसे मिलाया या नहीं?' 'आप भी दिल्लगी करते हैं। मालती को भला इनसे क्या मिलाता?' वाक्य पूरा न हुआ था कि सामने झाड़ी में सरसराहट की आवाज सुन कर चौंक पड़े और प्राण-रक्षा की प्रेरणा से रायसाहब के पीछे आ गए। झाड़ी में से एक तेंदुआ निकला और मंद गति से सामने की ओर चला। रायसाहब ने बंदूक उठाई और निशाना बाँधना चाहते थे कि खन्ना ने कहा - यह क्या करते हैं आप - ख्वाहमख्वाह उसे छेड़ रहे हैं,। कहीं लौट पड़े तो? 'लौट क्या पड़ेगा, वहीं ढेर हो जायगा।' 'तो मुझे उस टीले पर चढ़ जाने दीजिए। मैं शिकार का ऐसा शौकीन नहीं हूँ।' 'तब क्या शिकार खेलने चले थे?' 'शामत और क्या!' रायसाहब ने बंदूक नीचे कर ली। 'बड़ा अच्छा शिकार निकल गया। ऐसे अवसर कम मिलते हैं।' 'मैं तो अब यहाँ नहीं ठहर सकता। खतरनाक जगह है।' 'एकाध शिकार तो मार लेने दीजिए। खाली हाथ लौटते शर्म आती है।' 'आप मुझे कृपा करके कार के पास पहुँचा दीजिए, फिर चाहे तेंदुए का शिकार कीजिए या चीते का।' 'आप बड़े डरपोक हैं मिस्टर खन्ना, सच।' 'व्यर्थ में अपने जान खतरे में डालना बहादुरी नहीं है!' 'अच्छा तो आप खुशी से लौट सकते हैं।' 'अकेला?' 'रास्ता बिलकुल साफ है।' 'जी नहीं। आपको मेरे साथ चलना पड़ेगा।' रायसाहब ने बहुत समझाया, मगर खन्ना ने एक न मानी। मारे भय के उनका चेहरा पीला पड़ गया था। उस वक्त अगर झाड़ी में से एक गिलहरी भी निकल आती, तो वह चीख मार कर गिर पड़ते। बोटी-बोटी काँप रही थी। पसीने से तर हो गए थे। रायसाहब को लाचार हो कर उनके साथ लौटना पड़ा। जब दोनों आदमी बड़ी दूर निकल आए, तो खन्ना के होश ठिकाने आए। बोले - खतरे से नहीं डरता, लेकिन खतरे के मुँह में उँगली डालना हिमाकत है। 'अजी, जाओ भी। जरा-सा तेंदुआ देख लिया, तो जान निकल गई।' 'मैं शिकार खेलना उस जमाने का संस्कार समझता हूँ, जब आदमी पशु था। तब से संस्कृति बहुत आगे बढ़ गई है।' 'मैं मिस मालती से आपकी कलई खोलूँगा।' 'मैं अहिंसावादी होना लज्जा की बात नहीं समझता।' 'अच्छा, तो यह आपका अहिंसावाद था। शाबाश!' खन्ना ने गर्व से कहा - जी हाँ, यह मेरा अहिंसावाद था। आप बुद्ध और शंकर के नाम पर गर्व करते हैं और पशुओं की हत्या करते हैं, लज्जा आपको आनी चाहिए, न कि मुझे। कुछ दूर दोनों फिर चुपचाप चलते रहे। तब खन्ना बोले- तो आप कब तक आएँगे? मैं चाहता हूँ, आप पालिसी का फार्म आज ही भर दें और शक्कर के हिस्सों का भी। मेरे पास दोनों फार्म भी मौजूद हैं। रायसाहब ने चिंतित स्वर में कहा - जरा सोच लेने दीजिए 'इसमें सोचने की जरूरत नहीं।' तीसरी टोली मिर्जा खुर्शेद और मिस्टर तंखा की थी। मिर्जा खुर्शेद के लिए भूत और भविष्य सादे कागज की भाँति था। वह वर्तमान में रहते थे। न भूत का पछतावा था, न भविष्य की चिंता। जो कुछ सामने आ जाता था, उसमें जी-जान से लग जाते थे। मित्रों की मंडली में वह विनोद के पुतले थे। कौंसिल में उनसे ज्यादा उत्साही मेंबर कोई न था। जिस प्रश्न के पीछे पड़ जाते, मिनिस्टरों को रुला देते। किसी के साथ रू-रियायत करना न जानते थे। बीच-बीच में परिहास भी करते जाते थे। उनके लिए आज जीवन था, कल का पता नहीं। गुस्सेवर भी ऐसे थे कि ताल ठोंक कर सामने आ जाते थे। नम्रता के सामने दंडवत करते थे, लेकिन जहाँ किसी ने शान दिखाई और यह हाथ धो कर उसके पीछे पड़े। न अपना लेना याद रखते थे, न दूसरों का देना। शौक था शायरी का और शराब का। औरत केवल मनोरंजन की वस्तु थी। बहुत दिन हुए हृदय का दिवाला निकाल चुके थे। मिस्टर तंखा दाँव-पेंच के आदमी थे, सौदा पटाने में, मुआमला सुलझाने में, अड़ंगा लगाने में, बालू से तेल निकालने में, गला दबाने में, दुम झाड़ कर निकल जाने में बड़े सिद्धहस्त। कहिए रेत में नाव चला दें, पत्थर पर दूब उगा दें। ताल्लुकेदारों को महाजनों से कर्ज दिलाना, नई कंपनियाँ खोलना, चुनाव के अवसर पर उम्मेदवार खड़े करना, यही उनका व्यवसाय था। खास कर चुनाव के समय उनकी तकदीर चमकती थी। किसी पोढ़े उम्मेदवार को खड़ा करते, दिलोजान से उसका काम करते और दस-बीस हजार बना लेते। जब कांग्रेस का जोर था, तो कांग्रेस के उम्मेदवार के सहायक थे। जब सांप्रदायिक दल का जोर हुआ, तो हिंदूसभा की ओर से काम करने लगे, मगर इस उलटफेर के समर्थन के लिए उनके पास ऐसी दलीलें थीं कि कोई उँगली न दिखा सकता था। शहर के सभी रईस, सभी हुक्काम, सभी अमीरों से उनका याराना था। दिल में चाहे लोग उनकी नीति पसंद न करें, पर वह स्वभाव के इतने नम्र थे कि कोई मुँह पर कुछ न कह सकता था। मिर्जा खुर्शेद ने रूमाल से माथे का पसीना पोंछ कर कहा - आज तो शिकार खेलने के लायक दिन नहीं है। आज तो कोई मुशायरा होना चाहिए था। वकील ने समर्थन किया - जी हाँ, वहीं बाग में। बड़ी बहार रहेगी। थोड़ी देर के बाद मिस्टर तंखा ने मामले की बात छेड़ी। 'अबकी चुनाव में बड़े-बड़े गुल खिलेंगे! आपके लिए भी मुश्किल है।' मिर्जा विरक्त मन से बोले - अबकी मैं खड़ा ही न हूँगा। तंखा ने पूछा - क्यों? 'मुफ्त की बकबक कौन करे? फायदा ही क्या! मुझे अब इस डेमोक्रेसी में भक्ति नहीं रही। जरा-सा काम और महीनों की बहस। हाँ, जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए अच्छा स्वाँग है। इससे तो कहीं अच्छा है कि एक गवर्नर रहे, चाहे वह हिंदुस्तानी हो, या अंग्रेज, इससे बहस नहीं। एक इंजिन जिस गाड़ी को बड़े मजे से हजारों मील खींच ले जा सकता है, उसे दस हजार आदमी मिल कर भी उतनी तेजी से नहीं खींच सकते। मैं तो यह सारा तमाशा देख कर कौंसिल से बेजार हो गया हूँ। मेरा बस चले, तो कौंसिल में आग लगा दूँ। जिसे हम डेमोक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े-बड़े व्यापारियों और जमींदारों का राज्य है, और कुछ नहीं। चुनाव में वही बाजी ले जाता है, जिसके पास रुपए हैं। रुपए के जोर से उसके लिए सभी सुविधाएँ तैयार हो जाती हैं। बड़े-बड़े पंडित, बड़े-बड़े मौलवी, बड़े-बड़े लिखने और बोलने वाले, जो अपने जबान और कलम से पब्लिक को जिस तरफ चाहें फेर दें, सभी सोने के देवता के पैरों पर माथा रगड़ते हैं, मैंने तो इरादा कर लिया है, अब इलेक्शन के पास न जाऊँगा। मेरा प्रोपेगंडा अब डेमोक्रेसी के खिलाफ होगा।' मिर्जा साहब ने कुरान की आयतों से सिद्ध किया कि पुराने जमाने के बादशाहों के आदर्श कितने ऊँचे थे। आज तो हम उसकी तरफ ताक भी नहीं सकते। हमारी आँखों में चकाचौंध आ जायगी। बादशाह को खजाने की एक कौड़ी भी निजी खर्च में लाने का अधिकार न था। वह किताबें नकल करके, कपड़े सी कर, लड़कों को पढ़ा कर अपना गुजर करता था। मिर्जा ने आदर्श महीपों की एक लंबी सूची गिना दी। कहाँ तो वह प्रजा को पालने वाला बादशाह, और कहाँ आजकल के मंत्री और मिनिस्टर, पाँच, छ:, सात, आठ हजार माहवार मिलना चाहिए। यह लूट है या डेमोक्रेसी! हिरनों का झुंड चरता हुआ नजर आया। मिर्जा के मुख पर शिकार का जोश चमक उठा। बंदूक सँभाली और निशाना मारा। एक काला-सा हिरन गिर पड़ा। वह मारा! इस उन्मत्त धवनि के साथ मिर्जा भी बेतहाशा दौड़े - बिलकुल बच्चों की तरह उछलते, कूदते, तालियाँ बजाते। समीप ही एक वृक्ष पर एक आदमी लकड़ियाँ काट रहा था। वह भी चट-पट वृक्ष से उतर कर मिर्जा जी के साथ दौड़ा। हिरन की गर्दन में गोली लगी थी, उसके पैरों में कंपन हो रहा था और आँखें पथरा गई थीं। लकड़हारे ने हिरन को करुण नेत्रों से देख कर कहा - अच्छा पट्ठा था, मन-भर से कम न होगा। हुकुम हो, तो मैं उठा कर पहुँचा दूँ? मिर्जा कुछ बोले नहीं। हिरन की टँगी हुई, दीन, वेदना से भरी आँखें देख रहे थे। अभी एक मिनट पहले इसमें जीवन था। जरा-सा पत्ता भी खड़कता, तो कान खड़े करके चौकड़ियाँ भरता हुआ निकल भागता। अपने मित्रों और बाल-बच्चों के साथ ईश्वर की उगाई हुई घास खा रहा था, मगर अब निस्पंद पड़ा है। उसकी खाल उधेड़ लो, उसकी बोटियाँ कर डालो, उसका कीमा बना डालो, उसे खबर भी न होगी। उसके क्रीड़ामय जीवन में जो आकर्षण था, जो आनंद था, वह क्या इस निर्जीव शव में है? कितनी सुंदर गठन थी, कितनी प्यारी आँखें, कितनी मनोहर छवि! उसकी छलाँगें हृदय में आनंद की तंरगें पैदा कर देती थीं, उसकी चौकड़ियों के साथ हमारा मन भी चौकड़ियाँ भरने लगता था। उसकी स्फूर्ति जीवन-सा बिखेरती चलती थी, जैसे फूल सुगंध बिखेरता है, लेकिन अब! उसे देख कर ग्लानि होती है। लकड़हारे ने पूछा - कहाँ पहुँचाना होगा मालिक? मुझे भी दो-चार पैसे दे देना। मिर्जा जी जैसे ध्यान से चौंक पड़े। बोले- अच्छा, उठा ले। कहाँ चलेगा? 'जहाँ हुकुम हो मालिक।' 'नहीं, जहाँ तेरी इच्छा हो, वहाँ ले जा। मैं तुझे देता हूँ!' लकड़हारे ने मिर्जा की ओर कौतूहल से देखा। कानों पर विश्वास न आया। 'अरे नहीं मालिक, हुजूर ने सिकार किया है, तो हम कैसे खा लें।' 'नहीं-नहीं, मैं खुशी से कहता हूँ, तुम इसे ले जाओ। तुम्हारा घर यहाँ से कितनी दूर है?' 'कोई आधा कोस होगा मालिक!' तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा। देखूँगा, तुम्हारे बाल-बच्चे कैसे खुश होते हैं।' 'ऐसे तो मैं न ले जाऊँगा सरकार! आप इतनी दूर से आए, इस कड़ी धूप में सिकार किया, मैं कैसे उठा ले जाऊँ?' 'उठा उठा, देर न कर। मुझे मालूम हो गया, तू भला आदमी है।' लकड़हारे ने डरते-डरते और रह-रह कर मिर्जा जी के मुख की ओर सशंक नेत्रों से देखते हुए कि कहीं बिगड़ न जायँ, हिरन को उठाया। सहसा उसने हिरन को छोड़ दिया और खड़ा हो कर बोला - मैं समझ गया मालिक, हुजूर ने इसकी हलाली नहीं की। मिर्जा जी ने हँस कर कहा - बस-बस, तूने खूब समझा। अब उठा ले और घर चल। मिर्जा जी धर्म के इतने पाबंद न थे। दस साल से उन्होंने नमाज न पढ़ी थी। दो महीने में एक दिन व्रत रख लेते थे। बिलकुल निराहर, निर्जल, मगर लकड़हारे को इस खयाल से जो संतोष हुआ था कि हिरन अब इन लोगों के लिए अखाद्य हो गया है, उसे फीका न करना चाहते थे। लकड़हारे ने हलके मन से हिरन को गर्दन पर रख लिया और घर की ओर चला। तंखा अभी तक तटस्थ से वहीं पेड़ के नीचे खड़े थे। धूप में हिरन के पास जाने का कष्ट क्यों उठाते? कुछ समझ में न आ रहा था कि मुआमला क्या है, लेकिन जब लकड़हारे को उल्टी दिशा में जाते देखा, तो आ कर मिर्जा से बोले - आप उधर कहाँ जा रहे हैं हजरत। क्या रास्ता भूल गए? मिर्जा ने अपराधी भाव से मुस्करा कर कहा - मैंने शिकार इस गरीब आदमी को दे दिया। अब जरा इसके घर चल रहा हूँ। आप भी आइए न। तंखा ने मिर्जा को कौतूहल की दृष्टि से देखा और बोले - आप अपने होश में हैं या नहीं? 'कह नहीं सकता। मुझे खुद नहीं मालूम।' 'शिकार इसे क्यों दे दिया?' 'इसलिए कि उसे पा कर इसे जितनी खुशी होगी, मुझे या आपको न होगी।' तंखा खिसिया कर बोले - जाइए! सोचा था, खूब कबाब उड़ाएँगे, सो आपने सारा मजा किरकिरा कर दिया। खैर, रायसाहब और मेहता कुछ न कुछ लाएँगे ही। कोई गम नहीं। मैं इस इलेक्शन के बारे में कुछ अर्ज करना चाहता हूँ। आप नहीं खड़ा होना चाहते न सही, आपकी जैसी मर्जी, लेकिन आपको इसमें क्या ताम्मुल है कि जो लोग खड़े हो रहे हैं, उनसे इसकी अच्छी कीमत वसूल की जाए। मैं आपसे सिर्फ इतना चाहता हूँ कि आप किसी पर यह भेद न खुलने दें कि आप नहीं खड़े हो रहे हैं। सिर्फ इतनी मेहरबानी कीजिए मेरे साथ! ख्वाजा जमाल ताहिर इसी शहर से खड़े हो रहे हैं। रईसों के वोट तो सोलहों आने उनकी तरफ हैं ही, हुक्काम भी उनके मददगार हैं। फिर भी पब्लिक पर आपका जो असर है, इससे उनकी कोर दब रही है। आप चाहें तो आपको उनसे दस-बीस हजार रुपए महज यह जाहिर कर देने के मिल सकते हैं कि आप उनकी खातिर बैठ जाते हैं…नहीं मुझे अर्ज कर लेने दीजिए। इस मुआमले में आपको कुछ नहीं करना है। आप बेफिक्र बैठे रहिए। मैं आपकी तरफ से एक मेनिफेस्टो निकाल दूँगा और उसी शाम को आप मुझसे दस हजार नकद वसूल कर लीजिए। मिर्जा साहब ने उनकी ओर हिकारत से देख कर कहा - मैं ऐसे रुपए पर और आप पर लानत भेजता हूँ। मिस्टर तंखा ने जरा भी बुरा नहीं माना। माथे पर बल तक न आने दिया। 'मुझ पर जितनी लानत चाहें भेजें, मगर रुपए पर लानत भेज कर आप अपना ही नुकसान कर रहे हैं।' 'मैं ऐसी रकम को हराम समझता हूँ।' 'आप शरीयत के इतने पाबंद तो नहीं हैं।' 'लूट की कमाई को हराम समझने के लिए शरा का पाबंद होने की जरूरत नहीं है।' 'तो इस मुआमले में क्या आप फैसला तब्दील नहीं कर सकते?' 'जी नहीं।' 'अच्छी बात है, इसे जाने दीजिए। किसी बीमा कंपनी के डाइरेक्टर बनने में तो आपको कोई एतराज नहीं है? आपको कंपनी का एक हिस्सा भी न खरीदना पड़ेगा। आप सिर्फ अपना नाम दे दीजिएगा।' 'जी नहीं, मुझे यह भी मंजूर नहीं है। मैं कई कंपनियों का डाइरेक्टर, कई का मैनेजिंग एजेंट, कई का चेयरमैन था। दौलत मेरे पाँव चूमती थी। मैं जानता हूँ, दौलत से आराम और तकल्लुफ के कितने सामान जमा किए जा सकते हैं, मगर यह भी जानता हूँ कि दौलत इंसान को कितना खुदगरज बना देती है, कितना ऐश-पसंद, कितना मक्कार, कितना बेगैरत।' वकील साहब को फिर कोई प्रस्ताव करने का साहस न हुआ। मिर्जा जी की बुद्धि और प्रभाव में उनका जो विश्वास था, वह बहुत कम हो गया। उनके लिए धन ही सब कुछ था और ऐसे आदमी से, जो लक्ष्मी को ठोकर मारता हो, उनका कोई मेल न हो सकता था। लकड़हारा हिरन को कंधों पर रखे लपका चला जा रहा था। मिर्जा ने भी कदम बढ़ाया, पर स्थूलकाय तंखा पीछे रह गए। उन्होंने पुकारा - जरा सुनिए, मिर्जा जी, आप तो भागे जा रहे हैं। मिर्जा जी ने बिना रूके हुए जवाब दिया - वह गरीब बोझ लिए इतनी तेजी से चला जा रहा है। हम क्या अपना बदन ले कर भी उसके बराबर नहीं चल सकते? लकड़हारे ने हिरन को एक ठूँठ पर उतार कर रख दिया था और दम लेने लगा था। मिर्जा साहब ने आ कर पूछा - थक गए, क्यों? लकड़हारे ने सकुचाते हुए कहा - बहुत भारी है सरकार! 'तो लाओ, कुछ दूर मैं ले चलूँ।' लकड़हारा हँसा। मिर्जा डील-डौल में उससे कहीं ऊँचे और मोटे-ताजे थे, फिर भी वह दुबला-पतला आदमी उनकी इस बात पर हँसा। मिर्जा जी पर जैसे चाबुक पड़ गया। 'तुम हँसे क्यों? क्या तुम समझते हो, मैं इसे नहीं उठा सकता?' लकड़हारे ने मानो क्षमा माँगी - सरकार आप बड़े आदमी हैं। बोझ उठाना तो हम-जैसे मजूरों का ही काम है। 'मैं तुम्हारा दुगुना जो हूँ!' 'इससे क्या होता है मालिक!' मिर्जा जी का पुरुषत्व अपना और अपमान न सह सका। उन्होंने बढ़ कर हिरन को गर्दन पर उठा लिया और चले, मगर मुश्किल से पचास कदम चले होंगे कि गर्दन फटने लगी, पाँव थरथराने लगे और आँखों में तितलियाँ उड़ने लगीं। कलेजा मजबूत किया और एक बीस कदम और चले। कंबख्त कहाँ रह गया? जैसे इस लाश में सीसा भर दिया गया हो। जरा मिस्टर तंखा की गर्दन पर रख दूँ, तो मजा आए। मशक की तरह जो फूले चलते हैं, जरा इसका मजा भी देखें, लेकिन बोझा उतारें कैसे? दोनों अपने दिल में कहेंगे, बड़ी जवाँमर्दी दिखाने चले थे। पचास कदम में चीं बोल गए। लकड़हारे ने चुटकी ली - कहो मालिक, कैसे रंग-ढंग हैं? बहुत हलका है न? मिर्जा जी को बोझ कुछ हलका मालूम होने लगा। बोले - उतनी दूर तो ले ही जाऊँगा, जितनी दूर तुम लाए हो। 'कई दिन गर्दन दुखेगी मालिक।' 'तुम क्या समझते हो, मैं यों ही फूला हुआ हूँ।' 'नहीं मालिक, अब तो ऐसा नहीं समझता। मुदा आप हैरान न हों, वह चट्टान है, उस पर उतार दीजिए।' 'मैं अभी इसे इतनी ही दूर और ले जा सकता हूँ।' 'मगर यह अच्छा तो नहीं लगता कि मैं ठाला चलूँ और आप लदे रहें।' मिर्जा साहब ने चट्टान पर हिरन को उतार कर रख दिया। वकील साहब आ पहुँचे। मिर्जा ने दाना फेंका - अब आपको भी कुछ दूर ले चलना पड़ेगा जनाब! वकील साहब की नजरों में अब मिर्जा जी का कोई महत्व न था। बोले - मुआफ कीजिए। मुझे अपनी पहलवानी का दावा नहीं है। 'बहुत भारी नहीं है सच।' 'अजी, रहने भी दीजिए!' 'आप अगर इसे सौ कदम ले चलें, तो मैं वादा करता हूँ, आप मेरे सामने जो तजवीज रखेंगे, उसे मंजूर कर लूँगा।' 'मैं इन चकमों में नहीं आता।' 'मैं चकमा नहीं दे रहा हूँ, वल्लाह! आप जिस हलके से कहेंगे, खड़ा हो जाऊँगा। जब हुक्म देंगे, बैठ जाऊँगा। जिस कंपनी का डाइरेक्टर, मेंबर, मुनीम, कनवेसर, जो कुछ कहिएगा, बन जाऊँगा। बस, सौ कदम ले चलिए। मेरी तो ऐसे ही दोस्तों से निभती है, जो मौका पड़ने पर सब कुछ कर सकते हों।' तंखा का मन चुलबुला उठा। मिर्जा अपने कौल के पक्के हैं। इसमें कोई संदेह न था। हिरन ऐसा क्या बहुत भारी होगा। आखिर मिर्जा इतनी दूर ले ही आए। बहुत ज्यादा थके तो नहीं जान पड़ते, अगर इनकार करते हैं, तो सुनहरा अवसर हाथ से जाता है। आखिर ऐसा क्या कोई पहाड़ है। बहुत होगा, चार-पाँच पंसेरी होगा। दो-चार दिन गर्दन ही तो दुखेगी! जेब में रुपए हों, तो थोड़ी-सी बीमारी सुख की वस्तु है। 'सौ कदम की रही।' 'हाँ, सौ कदम। मैं गिनता चलूँगा।' 'देखिए, निकल न जाइएगा।' 'निकल जाने वाले पर लानत भेजता हूँ। तंखा ने जूते का फीता फिर से बाँधा, कोट उतार कर लकड़हारे को दिया, पतलून ऊपर चढ़ाया, रूमाल से मुँह पोंछा और इस तरह हिरन को देखा, मानो ओखली में सिर देने जा रहे हैं। फिर हिरन को उठा कर गर्दन पर रखने की चेष्टा की। दो-तीन बार जोर लगाने पर लाश गर्दन पर तो आ गई, पर गर्दन न उठ सकी। कमर झुक गई, हाँफ उठे और लाश को जमीन पर पटकने वाले थे कि मिर्जा ने उन्हें सहारा दे कर आगे बढ़ाया। तंखा ने एक डग इस तरह उठाया, जैसे दलदल में पाँव रख रहे हों। मिर्जा ने बढ़ावा दिया - शाबाश! मेरे शेर, वाह-वाह! तंखा ने एक डग और रखा। मालूम हुआ, गर्दन टूटी जाती है। 'मार लिया मैदान! शबाश! जीते रहो पट्ठे।' तंखा दो डग और बढ़े। आँखें निकली पड़ती थीं। 'बस, एक बार और जोर मारो दोस्त! सौ कदम की शर्त गलत। पचास कदम की ही रही।' वकील साहब का बुरा हाल था। वह बेजान हिरन शेर की तरह उनको दबोचे हुए, उनका हृदय-रक्त चूस रहा था। सारी शक्तियाँ जवाब दे चुकी थीं। केवल लोभ, किसी लोहे की धरन की तरह छत को सँभाले हुए था। एक से पच्चीस हजार तक की गोटी थी। मगर अंत में वह शहतीर भी जवाब दे गई। लोभी की कमर भी टूट गई। आँखों के सामने अँधेरा छा गया। सिर में चक्कर आया और वह शिकार गर्दन पर लिए पथरीली जमीन पर गिर पड़े। मिर्जा ने तुरंत उन्हें उठाया और अपने रूमाल से हवा करते हुए उनकी पीठ ठोंकी। 'जोर तो यार तुमने खूब मारा, लेकिन तकदीर के खोटे हो।' तंखा ने हाँफते हुए लंबी साँस खींच कर कहा - आपने तो आज मेरी जान ही ले ली थी। दो मन से कम न होगा ससुर। मिर्जा ने हँसते हुए कहा - लेकिन भाईजान, मैं भी तो इतनी दूर उठा कर लाया ही था। वकील साहब ने खुशामद करनी शुरू की - मुझे तो आपकी फर्माइश पूरी करनी थी। आपको तमाशा देखना था, वह आपने देख लिया। अब आपको अपना वादा पूरा करना होगा। 'आपने मुआहदा कब पूरा किया?' 'कोशिश तो जान तोड़ कर की।' 'इसकी सनद नहीं।' लकड़हारे ने फिर हिरन उठा लिया और भागा चला जा रहा था। वह दिखा देना चाहता था कि तुम लोगों ने काँख-कूँख कर दस कदम इसे उठा लिया, तो यह न समझो कि पास हो गए। इस मैदान में मैं दुर्बल होने पर भी तुमसे आगे रहूँगा। हाँ, कागद तुम चाहे जितना काला करो और झूठे मुकदमे चाहे जितने बनाओ। एक नाला मिला, जिसमें बहुत थोड़ा पानी था। नाले के उस पार टीले पर एक छोटा-सा पाँच-छ: घरों का पुरवा था और कई लड़के इमली के नीचे खेल रहे थे। लकड़हारे को देखते ही सबों ने दौड़ कर उसका स्वागत किया और लगे पूछने- किसने मारा बापू? कैसे मारा, कहाँ मारा, कैसे गोली लगी, कहाँ लगी, इसी को क्यों लगी, और हिरनों को क्यों न लगी? लकड़हारा हूँ-हाँ करता इमली के नीचे पहुँचा और हिरन को उतार कर पास की झोपड़ी से दोनों महानुभावों के लिए खाट लेने दौड़ा। उसके चारों लड़कों और लड़कियों ने शिकार को अपने चार्ज में ले लिया और अन्य लड़कों को भगाने की चेष्टा करने लगे। सबसे छोटे बालक ने कहा - यह हमारा है। उसकी बड़ी बहन ने, जो चौदह-पंद्रह साल की थी, मेहमानों की ओर देख कर छोटे भाई को डाँटा - चुप, नहीं सिपाही पकड़ ले जायगा। मिर्जा ने लड़के को छेड़ा - तुम्हारा नहीं, हमारा है। बालक ने हिरन पर बैठ कर अपना कब्जा सिद्ध कर दिया और बोला - बापू तो लाए हैं। बहन ने सिखाया - कह दे भैया, तुम्हारा है। इन बच्चों की माँ बकरी के लिए पत्तियाँ तोड़ रही थी। दो नए भले आदमियों को देख कर जरा-सा घूँघट निकाल लिया और शरमाई कि उसकी साड़ी कितनी मैली, कितनी फटी, कितनी उटंगी है। वह इस वेश में मेहमानों के सामने कैसे जाय? और गए बिना काम नहीं चलता। पानी-वानी देना है। अभी दोपहर होने में कुछ कसर थी, लेकिन मिर्जा साहब ने दोपहरी इसी गाँव में काटने का निश्चय किया। गाँव के आदमियों को जमा किया। शराब मँगवाई, शिकार पका, समीप के बाजार से घी और मैदा मँगाया और सारे गाँव को भोज दिया। छोटे-बड़े स्त्री-पुरुष सबों ने दावत उड़ाई। मर्दों ने खूब शराब पी और मस्त हो कर शाम तक गाते रहे और मिर्जा जी बालकों के साथ बालक, शराबियों के साथ शराबी, बूढ़ों के साथ बूढ़े, जवानों के साथ जवान बने हुए थे। इतनी ही देर में सारे गाँव से उनका इतना घनिष्ठ परिचय हो गया था, मानो यहीं के निवासी हों। लड़के तो उन पर लदे पड़ते थे। कोई उनकी फुँदनेदार टोपी सिर पर रखे लेता था, कोई उनकी राइफल कंधों पर रख कर अकड़ता हुआ चलता था, कोई उनकी कलाई की घड़ी खोल कर अपने कलाई पर बाँध लेता था। मिर्जा ने खुद खूब देशी शराब पी और झूम-झूम कर जंगली आदमियों के साथ गाते रहे। जब ये लोग सूर्यास्त के समय यहाँ से बिदा हुए तो गाँव-भर के नर-नारी इन्हें बड़ी दूर तक पहुँचाने आए। कई तो रोते थे। ऐसा सौभाग्य उन गरीबों के जीवन में शायद पहली बार आया हो कि किसी शिकारी ने उनकी दावत की हो। जरूर यह कोई राजा है, नहीं तो इतना दरियाव दिल किसका होता है। इनके दर्शन फिर काहे को होंगे। कुछ दूर चलने के बाद मिर्जा ने पीछे फिर कर देखा और बोले - बेचारे कितने खुश थे। काश, मेरी जिंदगी में ऐसे मौके रोज आते। आज का दिन बड़ा मुबारक था। तंखा ने बेरूखी के साथ कहा - आपके लिए मुबारक होगा, मेरे लिए तो मनहूस ही था। मतलब की कोई बात न हुई। दिन-भर जंगलों और पहाड़ों की खाक छानने के बाद अपना-सा मुँह लिए लौटे जाते हैं। मिर्जा ने निर्दयता से कहा - मुझे आपके साथ हमदर्दी नहीं है। दोनों आदमी जब बरगद के नीचे पहुँचे, तो दोनों टोलियाँ लौट चुकी थीं। मेहता मुँह लटकाए हुए थे। मालती विमन-सी अलग बैठी थी, जो नई बात थी। रायसाहब और खन्ना दोनों भूखे रह गए थे और किसी के मुँह से बात न निकलती थी। वकील साहब इसलिए दु:खी थे कि मिर्जा ने उनके साथ बेवफाई की। अकेले मिर्जा साहब प्रसन्न थे और वह प्रसन्नता अलौकिक थी। प्रात:काल होरी के घर में एक पूरा हंगामा हो गया। होरी धनिया को मार रहा था। धनिया उसे गालियाँ दे रही थी। दोनों लड़कियाँ बाप के पाँवों से लिपटी चिल्ला रही थीं और गोबर माँ को बचा रहा था। बार-बार होरी का हाथ पकड़ कर पीछे ढकेल देता, पर ज्यों ही धनिया के मुँह से कोई गाली निकल जाती, होरी अपने हाथ छुड़ा कर उसे दो-चार घूँसे और लात जमा देता। उसका बूढ़ा क्रोध जैसे किसी गुप्त संचित शक्ति को निकाल लाया हो। सारे गाँव में हलचल पड़ गई। लोग समझाने के बहाने तमाशा देखने आ पहुँचे। सोभा लाठी टेकता आ खड़ा हुआ। दातादीन ने डाँटा - यह क्या है होरी, तुम बावले हो गए हो क्या? कोई इस तरह घर की लच्छमी पर हाथ छोड़ता है। तुम्हें तो यह रोग न था। क्या हीरा की छूत तुम्हें भी लग गई? होरी ने पालागन करके कहा - महाराज, तुम इस बखत न बोलो। मैं आज इसकी बान छुड़ा कर तब दम लूँगा। मैं जितना ही तरह देता हूँ, उतना ही यह सिर चढ़ती जाती है। धनिया सजल क्रोध में बोली - महाराज, तुम गवाह रहना। मैं आज इसे और इसके हत्यारे भाई को जेहल भेजवा कर तब पानी पिऊँगी। इसके भाई ने गाय को माहुर खिला कर मार डाला। अब तो मैं थाने में रपट लिखाने जा रही हूँ, तो यह हत्यारा मुझे मारता है। इसके पीछे अपने जिंदगी चौपट कर दी, उसका यह इनाम दे रहा है। होरी ने दाँत पीस कर और आँखें निकाल कर कहा - फिर वही बात मुँह से निकाली। तूने देखा था हीरा को माहुर खिलाते? 'तू कसम खा जा कि तूने हीरा को गाय की नाँद के पास खड़े नहीं देखा?' 'हाँ, मैंने नहीं देखा, कसम खाता हूँ।' 'बेटे के माथे पर हाथ रखके कसम खा!' होरी ने गोबर के माथे पर काँपता हुआ हाथ रख कर काँपते हुए स्वर में कहा - मैं बेटे की कसम खाता हूँ कि मैंने हीरा को नाँद के पास नहीं देखा। धनिया ने जमीन पर थूक कर कहा - थुड़ी है तेरी झुठाई पर। तूने खुद मुझसे कहा कि हीरा चोरों की तरह नाँद के पास खड़ा था। और अब भाई के पच्छ में झूठ बोलता है। थुड़ी है! अगर मेरे बेटे का बाल भी बाँका हुआ, तो घर में आग लगा दूँगी। सारी गृहस्थी में आग लगा दूँगी। भगवान, आदमी मुँह से बात कह कर इतनी बेसरमी से मुकर जाता है। होरी पाँव पटक कर बोला - धनिया, गुस्सा मत दिला, नहीं बुरा होगा। 'मार तो रहा है, और मार ले। जो, तू अपने बाप का बेटा होगा तो आज मुझे मार कर तब पानी पिएगा। पापी ने मारते-मारते मेरा भुरकस निकाल लिया, फिर भी इसका जी नहीं भरा। मुझे मार कर समझता है, मैं बड़ा वीर हूँ। भाइयों के सामने भीगी बिल्ली बन जाता है, पापी कहीं का, हत्यारा!' फिर वह बैन कह कर रोने लगी - इस घर में आ कर उसने क्या नहीं झेला, किस-किस तरह पेट-तन नहीं काटा, किस तरह एक-एक लत्ते को तरसी, किस तरह एक-एक पैसा प्राणों की तरह संचा, किस तरह घर-भर को खिला कर आप पानी पी कर सो रही। और आज उन सारे बलिदानों का यह पुरस्कार। भगवान बैठे यह अन्याय देख रहे हैं और उसकी रक्षा को नहीं दौड़ते। गज की और द्रौपदी की रक्षा करने बैकुंठ से दौड़े थे। आज क्यों नींद में सोए हुए हैं? जनमत धीरे-धीरे धनिया की ओर आने लगा। इसमें अब किसी को संदेह नहीं रहा कि हीरा ने ही गाय को जहर दिया। होरी ने बिलकुल झूठी कसम खाई है, इसका भी लोगों को विश्वास हो गया। गोबर को भी बाप की इस झूठी कसम और उसके फलस्वरूप आने वाली विपत्ति की शंका ने होरी के विरुद्ध कर दिया। उस पर जो दातादीन ने डाँट बताई, तो होरी परास्त हो गया। चुपके से बाहर चला गया। सत्य ने विजय पाई। दातादीन ने सोभा से पूछा - तुम कुछ जानते हो सोभा, क्या बात हुई? सोभा जमीन पर लेटा हुआ बोला - मैं तो महाराज, आठ दिन से बाहर नहीं निकला। होरी दादा कभी-कभी जा कर कुछ दे आते हैं, उसी से काम चलता है। रात भी वह मेरे पास गए थे। किसने क्या किया, मैं कुछ नहीं जानता। हाँ, कल साँझ को हीरा मेरे घर खुरपी माँगने गया था। कहता था, एक जड़ी खोदना है। फिर तब से मेरी उससे भेंट नहीं हुई। धनिया इतनी शह पा कर बोली - पंडित दादा, वह उसी का काम है। सोभा के घर से खुरपी माँग कर लाया और कोई जड़ी खोद कर गाय को खिला दी। उस रात को जो झगड़ा हुआ था, उसी दिन से वह खार खाए बैठा था। दातादीन बोले - यह बात साबित हो गई, तो उसे हत्या लगेगी। पुलिस कुछ करे या न करे, धरम तो बिना दंड दिए न रहेगा। चली तो जा रुपिया, हीरा को बुला ला। कहना, पंडित दादा बुला रहे हैं। अगर उसने हत्या नहीं की है, तो गंगाजली उठा ले और चौरे पर चढ़ कर कसम खाए। धनिया बोली - महाराज, उसके कसम का भरोसा नहीं। चटपट खा लेगा। जब इसने झूठी कसम खा ली, जो बड़ा धर्मात्मा बनता है, तो हीरा का क्या विश्वास? अब गोबर बोला - खा ले झूठी कसम। बंस का अंत हो जाए। बूढ़े जीते रहें। जवान जीकर क्या करेंगे! रूपा एक क्षण में आ कर बोली - काका घर में नहीं हैं, पंडित दादा! काकी कहती हैं, कहीं चले गए हैं। दातादीन ने लंबी दाढ़ी फटकार कर कहा - तूने पूछा नहीं, कहाँ चले गए हैं? घर में छिपा बैठा न हो। देख तो सोना, भीतर तो नहीं बैठा? धनिया ने टोका - उसे मत भेजो दादा! हीरा के सिर हत्या सवार है, न जाने क्या कर बैठे। दातादीन ने खुद लकड़ी सँभाली और खबर लाए कि हीरा सचमुच कहीं चला गया है। पुनिया कहती है, लुटिया-डोर और डंडा सब ले कर गए हैं। पुनिया ने पूछा भी, कहाँ जाते हो, पर बताया नहीं। उसने पाँच रुपए आले में रखे थे। रुपए वहाँ नहीं हैं। साइत रुपए भी लेता गया। धनिया शीतल हृदय से बोली - मुँह में कालिख लगा कर कहीं भागा होगा। सोभा बोला - भाग के कहाँ जायगा? गंगा नहाने न चला गया हो। धनिया ने शंका की - गंगा जाता तो रुपए क्यों ले जाता, और आजकल कोई परब भी तो नहीं है? इस शंका का कोई समाधान न मिला। धारणा दृढ़ हो गई। आज होरी के घर भोजन नहीं पका। न किसी ने बैलों को सानी-पानी दिया। सारे गाँव में सनसनी फैली हुई थी। दो-दो चार-चार आदमी जगह-जगह जमा हो कर इसी विषय की आलोचना कर रहे थे। हीरा अवश्य कहीं भाग गया। देखा होगा कि भेद खुल गया, अब जेहल जाना पड़ेगा, हत्या अलग लगेगी। बस, कहीं भाग गया। पुनिया अलग रो रही थी, कुछ कहा न सुना, न जाने कहाँ चल दिए। जो कुछ कसर रह गई थी, वह संध्या-समय हल्के के थानेदार ने आ कर पूरी कर दी। गाँव के चौकीदार ने इस घटना की रपट की, जैसा उसका कर्तव्य था, और थानेदार साहब भला, अपने कर्तव्य से कब चूकने वाले थे? अब गाँव वालों को भी उनका सेवा-सत्कार करके अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। दातादीन, झिंगुरीसिंह, नोखेराम, उनके चारों प्यादे, मँगरू साह और लाला पटेश्वरी, सभी आ पहुँचे और दारोगा जी के सामने हाथ बाँध कर खड़े हो गए। होरी की तलबी हुई। जीवन में यह पहला अवसर था कि वह दारोगा के सामने आया। ऐसा डर रहा था, जैसे फाँसी हो जायगी। धनिया को पीटते समय उसका एक-एक अंग गड़क रहा था। दारोगा के सामने कछुए की भाँति भीतर सिमटा जाता था। दारोगा ने उसे आलोचक नेत्रों से देखा और उसके हृदय तक पहुँच गए। आदमियों की नस पहचानने का उन्हें अच्छा अभ्यास था। किताबी मनोविज्ञान में कोरे, पर व्यावहारिक मनोविज्ञान के मर्मज्ञ थे। यकीन हो गया, आज अच्छे का मुँह देख कर उठे हैं। और होरी का चेहरा कहे देता था, इसे केवल एक घुड़की काफी है। दारोगा ने पूछा - तुझे किस पर शुबहा है? होरी ने जमीन छुई और हाथ बाँध कर बोला - मेरा सुबहा किसी पर नही है सरकार, गाय अपने मौत से मरी है। बुड्ढी हो गई थी। धनिया भी आ कर पीछे खड़ी थी। तुरंत बोली - गाय मारी है तुम्हारे भाई हीरा ने। सरकार ऐसे बौड़म नहीं हैं कि जो कुछ तुम कह दोगे, वह मान लेंगे। यहाँ जाँच-तहकियात करने आए हैं। दारोगा जी ने पूछा - यह कौन औरत है? कई आदमियों ने दारोगा जी से कुछ बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए चढ़ा-ऊपरी की। एक साथ बोले और अपने मन को इस कल्पना से संतोष दिया कि पहले मैं बोला - होरी की घरवाली है सरकार! तो इसे बुलाओ, मैं पहले इसी का बयान लिखूँगा। वह कहाँ है हीरा?' विशिष्ट जनों ने एक स्वर से कहा - वह तो आज सबेरे से कहीं चला गया है सरकार। 'मैं उसके घर की तलाशी लूँगा।' तलाशी! होरी की साँस तले-ऊपर होने लगी। उसके भाई हीरा के घर की तलाशी होगी और हीरा घर में नहीं है। और फिर होरी के जीते-जी, उसके देखते यह तलाशी न होने पाएगी, और धनिया से अब उसका कोई संबंध नहीं। जहाँ चाहे जाए। जब वह उसकी इज्जत बिगाड़ने पर आ गई है, तो उसके घर में कैसे रह सकती है? जब गली-गली ठोकर खाएगी, तब पता चलेगा। गाँव के विशिष्ट जनों ने इस महान संकट को टालने के लिए कानाफूसी शुरू की। दातादीन ने गंजा सिर हिला कर कहा - यह सब कमाने के ढंग हैं। पूछो, हीरा के घर में क्या रखा है? पटेश्वरीलाल बहुत लंबे थे; पर लंबे हो कर भी बेवकूफ न थे। अपना लंबा, काला मुँह और लंबा करके बोले - और यहाँ आया है किसलिए, और जब आया है, बिना कुछ लिए दिए गया कब है। झिंगुरीसिंह ने होरी को बुला कर कान में कहा - निकालो, जो कुछ देना हो। यों गला न छूटेगा। दारोगा जी ने अब जरा गरज कर कहा - मैं हीरा के घर की तलाशी लूँगा। होरी के मुख का रंग उड़ गया था, जैसे देह का सारा रक्त सूख गया हो। तलाशी उसके घर हुई तो, उसके भाई के घर हुई तो, एक ही बात है। हीरा अलग सही, पर दुनिया तो जानती है, वह उसका भाई है, मगर इस वक्त उसका कुछ बस नहीं। उसके पास रुपए होते, तो इसी वक्त पचास रुपए ला कर दारोगा जी के चरणों पर रख देता और कहता - सरकार, मेरी इज्जत अब आपके हाथ है। मगर उसके पास तो जहर खाने को भी एक पैसा नहीं है। धनिया के पास चाहे दो-चार रुपए पड़े हों, पर वह चुड़ैल भला क्यों देने लगी? मृत्यु-दंड पाए हुए आदमी की भाँति सिर झुकाए, अपने अपमान की वेदना का तीव्र अनुभव करता हुआ चुपचाप खड़ा रहा। दातादीन ने होरी को सचेत किया - अब इस तरह खड़े रहने से काम न चलेगा होरी! रुपए की कोई जुगत करो। होरी दीन स्वर में बोला - अब मैं क्या अरज करूँ महाराज! अभी तो पहले ही की गठरी सिर पर लदी है, और किस मुँह से माँगूँ, लेकिन इस संकट से उबार लो। जीता रहा, तो कौड़ी-कौड़ी चुका दूँगा। मैं मर भी जाऊँ तो गोबर तो है ही। नेताओं में सलाह होने लगी। दारोगा जी को क्या भेंट किया जाय? दातादीन ने पचास का प्रस्ताव किया। झिंगुरीसिंह के अनुमान में सौ से कम पर सौदा न होगा। नोखेराम भी सौ के पक्ष में थे। और होरी के लिए सौ और पचास में कोई अंतर न था। इस तलाशी का संकट उसके सिर से टल जाए। पूजा चाहे कितनी ही चढ़ानी पड़े। मरे को मन-भर लकड़ी से जलाओ, या दस मन से, उसे क्या चिंता। मगर पटेश्वरी से यह अन्याय न देखा गया। कोई डाका या कतल तो हुआ नहीं। केवल तलाशी हो रही है। इसके लिए बीस रुपए बहुत हैं। नेताओं ने धिक्कारा - तो फिर दारोगा जी से बातचीत करना। हम लोग नगीच न जाएँगे। कौन घुड़कियाँ खाए? होरी ने पटेश्वरी के पाँव पर अपना सिर रख दिया - भैया, मेरा उद्धार करो। जब तक जिऊँगा, तुम्हारी ताबेदारी करूँगा। दारोगा जी ने फिर अपने विशाल वक्ष और विशालतर उदर की पूरी शक्ति से कहा - कहाँ है हीरा का घर? मैं उसके घर की तलाशी लूँगा। पटेश्वरी ने आगे बढ़ कर दारोगा जी के कान में कहा - तलाशी ले कर क्या करोगे हुजूर, उसका भाई आपकी ताबेदारी के लिए हाजिर है। दोनों आदमी जरा अलग जा कर बातें करने लगे। 'कैसा आदमी है?' 'बहुत ही गरीब हुजूर! भोजन का ठिकाना भी नहीं।' 'सच?' 'हाँ, हुजूर, ईमान से कहता हूँ।' 'अरे, तो क्या एक पचासे का डौल भी नहीं है?' 'कहाँ की बात हुजूर! दस मिल जायँ, तो हजार समझिए। पचास तो पचास जनम में भी मुमकिन नहीं और वह भी जब कोई महाजन खड़ा हो जायगा।' दारोगा जी ने एक मिनट तक विचार करके कहा - तो फिर उसे सताने से क्या फायदा? मैं ऐसों को नहीं सताता, जो आप ही मर रहे हों। पटेश्वरी ने देखा, निशाना और आगे जा पड़ा। बोले - नहीं हुजूर, ऐसा न कीजिए, नहीं फिर हम कहाँ जाएँगे। हमारे पास दूसरी और कौन-सी खेती है? 'तुम इलाके के पटवारी हो जी, कैसी बातें करते हो?' 'जब ऐसा कोई अवसर आ जाता है, तो आपकी बदौलत हम भी कुछ पा जाते हैं, नहीं पटवारी को कौन पूछता है?' 'अच्छा जाओ, तीस रुपए दिलवा दो, बीस रुपए हमारे दस रुपए तुम्हारे।' 'चार मुखिया हैं, इसका खयाल कीजिए।' 'अच्छा आधे-आध पर रखो, जल्दी करो। मुझे देर हो रही है।' पटेश्वरी ने झिंगुरी से कहा - झिंगुरी ने होरी को इशारे से बुलाया, अपने घर ले गए, तीस रुपए गिन कर उसके हवाले किए और एहसान से दबाते हुए बोले - आज ही कागद लिखा लेना। तुम्हारा मुँह देख कर रुपए दे रहा हूँ, तुम्हारी भलमंसी पर। होरी ने रुपए लिए और अँगोछे के कोर में बाँधे प्रसन्न-मुख आ कर दारोगा जी की ओर चला। सहसा धनिया झपट कर आगे आई और अँगोछी एक झटके के साथ उसके हाथ से छीन ली। गाँठ पक्की न थी। झटका पाते ही खुल गई और सारे रुपए जमीन पर बिखर गए। नागिन की तरह फुंकार कर बोली - ये रुपए कहाँ लिए जा रहा है, बता? भला चाहता है, तो सब रुपए लौटा दे, नहीं कहे देती हूँ। घर के परानी रात-दिन मरें और दाने-दाने को तरसें, लत्ता भी पहनने को मयस्सर न हो और अंजुली-भर रुपए ले कर चला है इज्जत बचाने! ऐसी बड़ी है तेरी इज्जत जिसके घर में चूहे लोटें, वह भी इज्जत वाला है। दारोगा तलासी ही तो लेगा। ले-ले जहाँ चाहे तलासी। एक तो सौ रुपए की गाय गई, उस पर यह पलेथन! वाह री तेरी इज्जत! होरी खून का घूँट पी कर रह गया। सारा समूह जैसे थर्रा उठा। नेताओं के सिर झुक गए। दारोगा का मुँह जरा-सा निकल आया। अपने जीवन में उसे ऐसी लताड़ न मिली थी। होरी स्तंभित-सा खड़ा रहा। जीवन में आज पहली बार धनिया ने उसे भरे अखाड़े में पटकनी दी, आकाश तका दिया। अब वह कैसे सिर उठाए! मगर दारोगा जी इतनी जल्दी हार मानने वाले न थे। खिसिया कर बोले - मुझे ऐसा मालूम होता है, कि इस शैतान की खाला ने हीरा को फँसाने के लिए खुद गाय को जहर दे दिया। धनिया हाथ मटका कर बोली - हाँ, दे दिया। अपनी गाय थी, मार डाली, फिर किसी दूसरे का जानवर तो नहीं मारा? तुम्हारे तहकियात में यही निकलता है, तो यही लिखो। पहना दो मेरे हाथ में हथकड़ियाँ। देख लिया तुम्हारा न्याय और तुम्हारे अक्कल की दौड़। गरीबों का गला काटना दूसरी बात है। दूध का दूध और पानी का पानी करना दूसरी बात। होरी आँखों से अंगारे बरसाता धनिया की ओर लपका, पर गोबर सामने आ कर खड़ा हो गया और उग्र भाव से बोला - अच्छा दादा, अब बहुत हुआ। पीछे हट जाओ, नहीं मैं कहे देता हूँ, मेरा मुँह न देखोगे। तुम्हारे ऊपर हाथ न उठाऊँगा। ऐसा कपूत नहीं हूँ। यहीं गले में फाँसी लगा लूँगा। होरी पीछे हट गया और धनिया शेर हो कर बोली - तू हट जा गोबर, देखूँ तो क्या करता है मेरा। दारोगा जी बैठे हैं। इसकी हिम्मत देखूँ। घर में तलासी होने से इसकी इज्जत जाती है। अपने मेहरिया को सारे गाँव के सामने लतियाने से इसकी इज्जत नहीं जाती! यही तो वीरों का धरम है। बड़ा वीर है, तो किसी मरद से लड़। जिसकी बाँह पकड़ कर लाया, उसे मार कर बहादुर कहलाएगा। तू समझता होगा, मैं इसे रोटी-कपड़ा देता हूँ। आज से अपना घर सँभाल। देख तो इसी गाँव में तेरी छाती पर मूँग दल कर रहती हूँ कि नहीं, और इससे अच्छा खाऊँ-पहनूँगी। इच्छा हो, देख ले। होरी परास्त हो गया। उसे ज्ञात हुआ, स्त्री के सामने पुरुष कितना निर्बल, कितना निरुपाय है। नेताओं ने रुपए चुन कर उठा लिए थे और दारोगा जी को वहाँ से चलने का इशारा कर रहे थे। धनिया ने एक ठोकर और जमाई - जिसके रुपए हों, ले जा कर उसे दे दो। हमें किसी से उधार नहीं लेना है। और जो देना है, तो उसी से लेना। मैं दमड़ी भी न दूँगी, चाहे मुझे हाकिम के इजलास तक ही चढ़ना पड़े। हम बाकी चुकाने को पच्चीस रुपए माँगते थे, किसी ने न दिया। आज अंजुली-भर रुपए ठनाठन निकाल के दे दिए। मैं सब जानती हूँ। यहाँ तो बाँट-बखरा होने वाला था, सभी के मुँह मीठे होते। ये हत्यारे गाँव के मुखिया हैं, गरीबों का खून चूसने वाले। सूद-ब्याज, डेढ़ी-सवाई, नजर-नजराना, घूस-घास जैसे भी, गरीबों को लूटो। उस पर सुराज चाहिए। जेहल जाने से सुराज न मिलेगा। सुराज मिलेगा धरम से, न्याय से। नेताओं के मुख में कालिख-सी लगी हुई थी। दारोगा जी के मुँह पर झाड़ू-सी फिरी हुई थी। इज्जत बचाने के लिए हीरा के घर की ओर चले। रास्ते में दारोगा ने स्वीकार किया - औरत है बड़ी दिलेर! पटेश्वरी बोले - दिलेर है हुजूर, कर्कशा है। ऐसी औरत को तो गोली मार दे। 'तुम लोगों का काफिया तंग कर दिया उसने। चार-चार तो मिलते ही।' 'हुजूर के भी तो पंद्रह रुपए गए।' 'मेरे कहाँ जा सकते हैं? वह न देगा, गाँव के मुखिया देंगे और पंद्रह रुपए की जगह पूरे पचास रुपए। आप लोग चटपट इंतजाम कीजिए।' पटेश्वरीलाल ने हँस कर कहा - हुजूर बड़े दिल्लगीबाज हैं। दातादीन बोले - बड़े आदमियों के यही लक्षण हैं। ऐसे भाग्यवानों के दर्शन कहाँ होते हैं? दारोगा जी ने कठोर स्वर में कहा - यह खुशामद फिर कीजिएगा। इस वक्त तो मुझे पचास रुपए दिलवाइए, नकद, और यह समझ लो कि आनाकानी की, तो तुम चारों के घर की तलाशी लूँगा। बहुत मुमकिन है कि तुमने हीरा और होरी को फँसा कर उनसे सौ-पचास ऐंठने के लिए पाखंड रचा हो। नेतागण अभी तक यही समझ रहे हैं, दारोगा जी विनोद कर रहे हैं। झिंगुरीसिंह ने आँखें मार कर कहा - निकालो पचास रुपए पटवारी साहब! नोखेराम ने उनका समर्थन किया - पटवारी साहब का इलाका है। उन्हें जरूर आपकी खातिर करनी चाहिए। पंडित दातादीन की चौपाल आ गई। दारोगा जी एक चारपाई पर बैठ गए और बोले - तुम लोगों ने क्या निश्चय किया? रुपए निकालते हो या तलाशी करवाते हो? दातादीन ने आपत्ति की - मगर हुजूर........ 'मैं अगर-मगर कुछ नहीं सुनना चाहता।' झिंगुरीसिंह ने साहस किया - सरकार, यह तो सरासर... 'मैं पंद्रह मिनट का समय देता हूँ। अगर इतनी देर में पूरे पचास रुपए न आए तो तुम चारों के घर की तलाशी होगी। और गंडासिंह को जानते हो? उसका मारा पानी भी नहीं माँगता।' पटेश्वरीलाल ने तेज स्वर से कहा - आपको अख्तियार है, तलाशी ले लें। यह अच्छी दिल्लगी है, काम कौन करे, पकड़ा कौन जाए। 'मैंने पच्चीस साल थानेदारी की है, जानते हो?' 'लेकिन ऐसा अंधेर तो कभी नहीं हुआ।' 'तुमने अभी अंधेर नहीं देखा। कहो तो वह भी दिखा दूँ? एक-एक को पाँच-पाँच साल के लिए भेजवा दूँ। यह मेरे बाएँ हाथ का खेल है। एक डाके में सारे गाँव को काले पानी भेजवा सकता हूँ। इस धोखे में न रहना!' चारों सज्जन चौपाल के अंदर जा कर विचार करने लगे। फिर क्या हुआ, किसी को मालूम नहीं। हाँ, दारोगा जी प्रसन्न दिखाई दे रहे थे और चारों सज्जनों के मुँह पर फटकार बरस रही थी। दारोगा जी घोड़े पर सवार हो कर चले, तो चारों नेता दौड़ रहे थे। घोड़ा दूर निकल गया तो चारों सज्जन लौटे, इस तरह मानो किसी प्रियजन का संस्कार करके श्मशान से लौट रहे हों। सहसा दातादीन बोले - मेरा सराप न पड़े तो मुँह न दिखाऊँ। नोखेराम ने समर्थन किया - ऐसा धन कभी फलते नहीं देखा। पटेश्वरी ने भविष्यवाणी - हराम की कमाई हराम में जायगी। झिंगुरीसिंह को आज ईश्वर की न्यायपरता में संदेह हो गया था। भगवान न जाने कहाँ है कि यह अंधेर देख कर भी पापियों को दंड नहीं देते। इस वक्त इन सज्जनों की तस्वीर खींचने लायक थी। हीरा का कहीं पता न चला और दिन गुजरते जाते थे। होरी से जहाँ तक दौड़-धूप हो सकी, की; फिर हार कर बैठ रहा। खेती-बारी की भी फिक्र करना थी। अकेला आदमी क्या-क्या करता? और अब अपनी खेती से ज्यादा फिक्र थी पुनिया की खेती की। पुनिया अब अकेली हो कर और भी प्रचंड हो गई थी। होरी को अब उसकी खुशामद करते बीतती थी। हीरा था, तो वह पुनिया को दबाए रहता था। उसके चले जाने से अब पुनिया पर कोई अंकुस न रह गया था। होरी की पट्टीदारी हीरा से थी। पुनिया अबला थी। उससे वह क्या तनातनी करता? और पुनिया उसके स्वभाव से परिचित थी और उसकी सज्जनता का उसे खूब दंड देती थी। खैरियत यही हुई कि कारकुन साहब ने पुनिया से बकाया लगान वसूल करने की कोई सख्ती न की, केवल थोड़ी-सी पूजा ले कर राजी हो गए। नहीं, होरी अपने बकाया के साथ उसकी बकाया चुकाने के लिए भी कर्ज लेने को तैयार था। सावन में धान की रोपाई की ऐसी धूम रही कि मजूर न मिले और होरी अपने खेतों में धान न रोप सका, लेकिन पुनिया के खेतों में कैसे न रोपाई होती? होरी ने पहर रात-रात तक काम करके उसके धान रोपे। अब होरी ही तो उसका रक्षक है! अगर पुनिया को कोई कष्ट हुआ, तो दुनिया उसी को तो हँसेगी। नतीजा यह हुआ कि होरी की खरीफ की फसल में बहुत थोड़ा अनाज मिला, और पुनिया के बखार में धान रखने की जगह न रही। होरी और धनिया में उस दिन से बराबर मनमुटाव चला आता था। गोबर से भी होरी की बोलचाल बंद थी। माँ-बेटे ने मिल कर जैसे उसका बहिष्कार कर दिया था। अपने घर में परदेसी बना हुआ था। दो नावों पर सवार होने वालों की जो दुर्गति होती है, वही उसकी हो रही थी। गाँव में भी अब उसका उतना आदर न था। धनिया ने अपने साहस से स्त्रियों का ही नहीं, पुरुषों का नेतृत्व भी प्राप्त कर लिया था। महीनों तक आसपास के इलाकों में इस कांड की खूब चर्चा रही। यहाँ तक कि वह एक अलौकिक रूप तक धारण करता जाता था -'धनिया नाम है उसका जी। भवानी का इष्ट है उसे। दारोगा जी ने ज्यों ही उसके आदमी के हाथ में हथकड़ी डाली कि धनिया ने भवानी का सुमिरन किया। भवानी उसके सिर आ गई। फिर तो उसमें इतनी शक्ति आ गई कि उसने एक झटके में पति की हथकड़ी तोड़ डाली और दारोगा की मूँछें पकड़ कर उखाड़ लीं, फिर उसकी छाती पर चढ़ बैठी। दारोगा ने जब बहुत मानता की, तब जा कर उसे छोड़ा।' कुछ दिन तो लोग धनिया के दर्शनों को आते रहे। वह बात अब पुरानी पड़ गई थी, लेकिन गाँव में धनिया का सम्मान बहुत बढ़ गया था। उसमें अद्भुत साहस है और समय पड़ने पर वह मर्दों के भी कान काट सकती है। मगर धीरे-धीरे धनिया में एक परिवर्तन हो रहा था। होरी को पुनिया की खेती में लगे देख कर भी वह कुछ न बोलती थी। और यह इसलिए नहीं कि वह होरी से विरक्त हो गई थी, बल्कि इसलिए कि पुनिया पर अब उसे भी दया आती थी। हीरा का घर से भाग जाना उसकी प्रतिशोध-भावना की तुष्टि के लिए काफी था। इसी बीच में होरी को ज्वर आने लगा। फस्ली बुखार फैला था ही। होरी उसके चपेट में आ गया। और कई साल के बाद जो ज्वर आया, तो उसने सारी बकाया चुका ली। एक महीने तक होरी खाट पर पड़ा रहा। इस बीमारी ने होरी को तो कुचल डाला ही, पर धनिया पर भी विजय पा गई। पति जब मर रहा है, तो उससे कैसा बैर? ऐसी दशा में तो बैरियों से भी बैर नहीं रहता, वह तो अपना पति है। लाख बुरा हो, पर उसी के साथ जीवन के पचीस साल कटे हैं, सुख किया है तो उसी के साथ, दु:ख भोगा है तो उसी के साथ। अब तो चाहे वह अच्छा है या बुरा, अपना है। दाढ़ीजार ने मुझे सबके सामने मारा, सारे गाँव के सामने मेरा पानी उतार लिया, लेकिन तब से कितना लज्जित है कि सीधे ताकता नहीं। खाने आता है तो सिर झुकाए खा कर उठ जाता है, डरता रहता है कि मैं कुछ कह न बैठूं। होरी जब अच्छा हुआ, तो पति-पत्नी में मेल हो गया था। एक दिन धनिया ने कहा - तुम्हें इतना गुस्सा कैसे आ गया? मुझे तो तुम्हारे ऊपर कितना ही गुस्सा आए, मगर हाथ न उठाऊँगी। होरी लजाता हुआ बोला - अब उसकी चर्चा न कर धनिया! मेरे ऊपर कोई भूत सवार था। इसका मुझे कितना दु:ख हुआ है, वह मैं ही जानता हूँ। और जो मैं भी क्रोध में डूब मरी होती!' तो क्या मैं रोने के लिए बैठा रहता? मेरी लहास भी तेरे साथ चिता पर जाती।' 'अच्छा चुप रहो, बेबात की बात मत करो।' 'गाय गई सो गई, मेरे सिर पर एक विपत्ति डाल गई। पुनिया की फिकर मुझे मारे डालती है।' 'इसीलिए तो कहते हैं, भगवान घर का बड़ा न बनाए। छोटों को कोई नहीं हँसता। नेकी-बदी सब बड़ों के सिर जाती है।' माघ के दिन थे। महावट लगी हुई थी। घटाटोप अँधेरा छाया हुआ था। एक तो जाड़ों की रात, दूसरे माघ की वर्षा। मौत का सा-सन्नाटा छाया हुआ था। अँधेरा तक न सूझता था। होरी भोजन करके पुनिया के मटर के खेत की मेंड़ पर अपने मँड़ैया में लेटा हुआ था। चाहता था, शीत को भूल जाय और सो रहे, लेकिन तार-तार कंबल और गटी हुई मिर्जई और शीत के झोंकों से गीली पुआल। इतने शत्रुओं के सम्मुख आने का नींद में साहस न था। आज तमाखू भी न मिला कि उसी से मन बहलाता। उपला सुलगा लाया था, पर शीत में वह भी बुझ गया। बेवाय फटे पैरों को पेट में डाल कर और हाथों को जाँघों के बीच में दबा कर और कंबल में मुँह छिपा कर अपने ही गर्म साँसों से अपने को गर्म करने की चेष्टा कर रहा था। पाँच साल हुए, यह मिर्जई बनवाई थी। धनिया ने एक प्रकार से जबरदस्ती बनवा दी थी, वही जब एक बार काबुली से कपड़े लिए थे, जिसके पीछे कितनी साँसत हुई, कितनी गालियाँ खानी पड़ीं। और यह कंबल उसके जन्म से भी पहले का है। बचपन में अपने बाप के साथ वह इसी में सोता था, जवानी में गोबर को ले कर इसी कंबल में उसके जाड़े कटे थे और बुढ़ापे में आज वही बूढ़ा कंबल उसका साथी है, पर अब वह भोजन को चबाने वाला दाँत नहीं, दुखने वाला दाँत है। जीवन में ऐसा तो कोई दिन ही नहीं आया कि लगान और महाजन को दे कर कभी कुछ बचा हो। और बैठे-बैठाए यह एक नया जंजाल पड़ गया। न करो तो दुनिया हँसे, करो तो यह संशय बना रहे कि लोग क्या कहते हैं। सब यह समझते हैं कि वह पुनिया को लूट लेता है, उसकी सारी उपज घर में भर लेता है। एहसान तो क्या होगा, उलटा कलंक लग रहा है। और उधर भोला कई बेर याद दिला चुके हैं कि कहीं कोई सगाई का डौल करो, अब काम नहीं चलता। सोभा उससे कई बार कह चुका है कि पुनिया के विचार उसकी ओर से अच्छे नहीं हैं। न हों। पुनिया की गृहस्थी तो उसे सँभालनी ही पड़ेगी, चाहे हँस कर सँभाले या रो कर। धनिया का दिल भी अभी तक साफ नहीं हुआ। अभी तक उसके मन में मलाल बना हुआ है। मुझे सब आदमियों के सामने उसको मारना न चाहिए था। जिसके साथ पच्चीस साल गुजर गए, उसे मारना और सारे गाँव के सामने, मेरी नीचता थी, लेकिन धनिया ने भी तो मेरी आबरू उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मेरे सामने से कैसा कतरा कर निकल जाती है, जैसे कभी की जान-पहचान ही नहीं। कोई बात कहनी होती है, तो सोना या रूपा से कहलाती है। देखता हूँ, उसकी साड़ी फट गई है, मगर कल मुझसे कहा भी, तो सोना की साड़ी के लिए, अपने साड़ी का नाम तक न लिया। सोना की साड़ी अभी दो-एक महीने थेगलियाँ लगा कर चल सकती है। उसकी साड़ी तो मारे पैबंदों के बिलकुल कथरी हो गई है। और फिर मैं ही कौन उसका मनुहार कर रहा हूँ? अगर मैं ही उसके मन की दो-चार बातें करता रहता, तो कौन छोटा हो जाता? यही तो होता, वह थोड़ा-सा अदरावन कराती, दो-चार लगने वाली बातें कहती, तो क्या मुझे चोट लग जाती, लेकिन मैं बुड्ढा हो कर भी उल्लू बना रह गया। वह तो कहो, इस बीमारी ने आ कर उसे नर्म कर दिया, नहीं जाने कब तक मुँह फुलाए रहती। और आज उन दोनों में जो बातें हुई थीं, वह मानो भूखे का भोजन थीं। वह दिल से बोली थी और होरी गदगद हो गया था। उसके जी में आया, उसके पैरों पर सिर रख दे और कहे - मैंने तुझे मारा है तो ले मैं सिर झुकाए लेता हूँ, जितना चाहे मार ले, जितनी गालियाँ देना चाहे दे ले। सहसा उसे मँड़ैया के सामने चूड़ियों की झंकार सुनाई दी। उसने कान लगा कर सुना। हाँ, कोई है। पटवारी की लड़की होगी, चाहे पंडित की घरवाली हो। मटर उखाड़ने आई होगी। न जाने क्यों इन लोगों की नीयत इतनी खोटी है। सारे गाँव से अच्छा पहनते हैं। सारे गाँव से अच्छा खाते हैं, घर में हजारों रुपए गड़े हुए हैं, लेन-देन करते हैं, ड्योढ़ी-सवाई चलाते हैं, घूस लेते हैं, दस्तूरी लेते हैं, एक-न-एक मामला खड़ा करके हमा-सुमा को पीसते ही रहते हैं, फिर भी नीयत का यह हाल! बाप जैसा होगा, वैसी ही संतान भी होगी। और आप नहीं आते, औरतों को भेजते हैं। अभी उठ कर हाथ पकड़ लूँ तो क्या पानी रह जाय! नीच कहने को नीच हैं, जो ऊँचे हैं, उनका मन तो और नीचा है। औरत जात का हाथ पकड़ते भी तो नहीं बनता, आँखें देख कर मक्खी निगलनी पड़ती है। उखाड़ ले भाई, जितना तेरा जी चाहे। समझ ले, मैं नहीं हूँ। बड़े आदमी अपने लाज न रखें, छोटों को तो उनकी लाज रखनी ही पड़ती है। मगर नहीं, यह तो धनिया है। पुकार रही है। धनिया ने पुकारा - सो गए कि जागते हो? होरी झटपट उठा और मँड़ैया के बाहर निकल आया। आज मालूम होता है, देवी प्रसन्न हो गई, उसे वरदान देने आई हैं, इसके साथ ही इस बादल-बूँदी और जाड़े-पाले में इतनी रात गए उसका आना शंकाप्रद भी था। जरूर कोई-न-कोई बात हुई है। बोला - ठंड के मारे नींद भी आती है - तू इस जाड़े-पाले में कैसे आई? सब कुसल तो है? 'हाँ, सब कुसल है।' 'गोबर को भेज कर मुझे क्यों नहीं बुलवा लिया?' धनिया ने कोई उत्तर न दिया। मँड़ैया में आ कर पुआल पर बैठती हुई बोली - गोबर ने तो मुँह में कालिख लगा दी, उसकी करनी क्या पूछते हो! जिस बात को डरती थी, वह हो कर रही। 'क्या हुआ? किसी से मार-पीट कर बैठा?' 'अब मैं क्या जानूँ, क्या कर बैठा, चल कर पूछो उसी राँड़ से?' 'किस राँड़ से? क्या कहती है तू - बौरा तो नहीं गई?' 'हाँ, बौरा क्यों न जाऊँगी। बात ही ऐसी हुई है कि छाती दुगनी हो जाय!' होरी के मन में प्रकाश की एक लंबी रेखा ने प्रवेश किया। 'साफ-साफ क्यों नहीं कहती। किस राँड़ को कह रही है?' 'उसी झुनिया को, और किसको!' 'तो झुनिया क्या यहाँ आई है?' 'और कहाँ जाती, पूछता कौन?' 'गोबर क्या घर में नहीं है?' 'गोबर का कहीं पता नहीं। जाने कहाँ भाग गया। इसे पाँच महीने का पेट है।' होरी सब कुछ समझ गया। गोबर को बार-बार अहिराने जाते देख कर वह खटका था जरूर, मगर उसे ऐसा खिलाड़ी न समझता था। युवकों में कुछ रसिकता होती ही है, इसमें कोई नई बात नहीं। मगर जिस रूई के गोले को उसने नीले आकाश में हवा के झोंके से उड़ते देख कर केवल मुस्करा दिया था, वह सारे आकाश में छा कर उसके मार्ग को इतना अंधकारमय बना देगा, यह तो कोई देवता भी न जान सकता था। गोबर ऐसा लंपट! वह सरल गँवार, जिसे वह अभी बच्चा समझता था! लेकिन उसे भोज की चिंता न थी, पंचायत का भय न था, झुनिया घर में कैसे रहेगी, इसकी चिंता भी उसे न थी। उसे चिंता थी गोबर की। लड़का लज्जाशील है, अनाड़ी है, आत्माभिमानी है, कहीं कोई नादानी न कर बैठे। घबड़ा कर बोला - झुनिया ने कुछ कहा? नहीं, गोबर कहाँ गया? उससे कह कर ही गया होगा? धनिया झुँझला कर बोली - तुम्हारी अक्कल तो घास खा गई है। उसकी चहेती तो यहाँ बैठी है, भाग कर जायगा कहाँ? यहीं कहीं छिपा बैठा होगा। दूध थोड़े ही पीता है कि खो जायगा। मुझे तो इस कलमुँही झुनिया की चिंता है कि इसे क्या करूँ? अपने घर में मैं तो छन-भर भी न रहने दूँगी। जिस दिन गाय लाने गया है, उसी दिन दोनों में ताक-झाँक होने लगी। पेट न रहता तो अभी बात न खुलती। मगर जब पेट रह गया, तो झुनिया लगी घबड़ाने। कहने लगी, कहीं भाग चलो। गोबर टालता रहा। एक औरत को साथ ले के कहाँ जाय, कुछ न सूझा। आखिर जब आज वह सिर हो गई कि मुझे यहाँ से ले चलो, नहीं मैं परान दे दूँगी, तो बोला - तू चल कर मेरे घर में रह, कोई कुछ न बोलेगा, मैं अम्माँ को मना लूँगा। यह गधी उसके साथ चल पड़ी। कुछ दूर तो आगे-आगे आता रहा, फिर न जाने किधर सरक गया। यह खड़ी-खड़ी उसे पुकारती रही। जब रात भीग गई और वह न लौटा, भागी यहाँ चली आई। मैंने तो कह दिया, जैसा किया है, उसका फल भोग। चुड़ैल ने लेके मेरे लड़के को चौपट कर दिया। तब से बैठी रो रही है। उठती ही नहीं। कहती है, अपने घर कौन मुँह ले कर जाऊँ। भगवान ऐसी संतान से तो बाँझ ही रखें तो अच्छा। सबेरा होते-होते सारे गाँव में काँव-काँव मच जायगी। ऐसा जी होता है, माहुर खा लूँ। मैं तुमसे कहे देती हूँ, मैं अपने घर में न रखूँगी। गोबर को रखना हो, अपने सिर पर रखे। मेरे घर में ऐसी छत्तीसियों के लिए जगह नहीं है और अगर तुम बीच में बोले, तो फिर या तो तुम्हीं रहोगे, या मैं ही रहूँगी। होरी बोला - तुझसे बना नहीं। उसे घर में आने ही न देना चाहिए था। 'सब कुछ कह के हार गई। टलती ही नहीं। धरना दिए बैठी है।' 'अच्छा चल, देखूँ कैसे नहीं उठती, घसीट कर बाहर निकाल दूँगा।' 'दाढ़ीजार भोला सब कुछ देख रहा था, पर चुप्पी साधे बैठा रहा। बाप भी ऐसे बेहया होते हैं।' 'वह क्या जानता था, इनके बीच क्या खिचड़ी पक रही है।' 'जानता क्यों नहीं था? गोबर दिन-रात घेरे रहता था तो क्या उसकी आँखें फूट गईं थीं! सोचना चाहिए था न, कि यहाँ क्यों दौड़-दौड़ आता है।' 'चल, मैं झुनिया से पूछता हूँ न!' दोनों मँड़ैया से निकल कर गाँव की ओर चले। होरी ने कहा - पाँच घड़ी के ऊपर रात गई होगी। धनिया बोली - हाँ, और क्या, मगर कैसा सोता पड़ गया है! कोई चोर आए, तो सारे गाँव को मूस ले जाए। 'चोर ऐसे गाँव में नहीं आते। धनियों के घर जाते हैं।' धनिया ने ठिठक कर होरी का हाथ पकड़ लिया और बोली - देखो, हल्ला न मचाना, नहीं सारा गाँव जाग उठेगा और बात फैल जायगी। होरी ने कठोर स्वर में कहा - मैं यह कुछ नहीं जानता। हाथ पकड़ कर घसीट लाऊँगा और गाँव के बाहर कर दूँगा। बात तो एक दिन खुलनी ही है, फिर आज ही क्यों न खुल जाय? वह मेरे घर आई क्यों? जाय जहाँ गोबर है। उसके साथ कुकरम किया, तो क्या हमसे पूछ कर किया था? धनिया ने फिर उसका हाथ पकड़ा और धीरे-से बोली - तुम उसका हाथ पकड़ोगे तो वह चिल्लाएगी। 'तो चिल्लाया करे।' 'मुदा इतनी रात गए, अँधेरे सन्नाटे रात में जायगी कहाँ, यह तो सोचो।' 'जाय जहाँ उसके सगे हों। हमारे घर में उसका क्या रखा है?' 'हाँ, लेकिन इतनी रात गए, घर से निकालना उचित नहीं। पाँव भारी है, कहीं डर-डरा जाय, तो और अगत हो। ऐसी दसा में कुछ करते-धरते भी तो नहीं बनता!' 'हमें क्या करना है, मरे या जिए। जहाँ चाहे जाए। क्यों अपने मुँह में कालिख लगाऊँ? मैं तो गोबर को भी निकाल बाहर करूँगा। धनिया ने गंभीर चिंता से कहा - कालिख जो लगनी थी, वह तो अब लग चुकी। वह अब जीते-जी नहीं छूट सकती। गोबर ने नौका डुबा दी। 'गोबर ने नहीं, डुबाई इसी ने। वह तो बच्चा था। इसके पंजे में आ गया।' 'किसी ने डुबाई, अब तो डूब गई।' दोनों द्वार के सामने पहुँच गए। सहसा धनिया ने होरी के गले में हाथ डाल कर कहा - देखो, तुम्हें मेरी सौंह, उस पर हाथ न उठाना। वह तो आप ही रो रही है। भाग की खोटी न होती, तो यह दिन ही क्यों आता? होरी की आँखें आर्द्र हो गईं। धनिया का यह मातृ-स्नेह उस अँधेरे में भी जैसे दीपक के समान उसकी चिंता-जर्जर आकृति को शोभा प्रदान करने लगा। दोनों ही के हृदय में जैसे अतीत-यौवन सचेत हो उठा। होरी को इस वीत-यौवना में भी वही कोमल हृदय बालिका नजर आई, जिसने पच्चीस साल पहले उसके जीवन में प्रवेश किया था। उस आलिंगन में कितना अथाह वात्सल्य था, जो सारे कलंक, सारी बाधाओं और सारी मूलबद्ध परंपराओं को अपने अंदर समेटे लेता था। दोनों ने द्वार पर आ कर किवाड़ों के दराज से अंदर झाँका। दीवट पर तेल की कुप्पी जल रही थी और उसके मद्धम प्रकाश में झुनिया घुटने पर सिर रखे, द्वार की ओर मुँह किए, अंधकार में उस आनंद को खोज रही थी, जो एक क्षण पहले अपने मोहिनी छवि दिखा कर विलीन हो गया था। वह आगत की मारी, व्यंग-बाणों से आहत और जीवन के आघातों से व्यथित किसी वृक्ष की छाँह खोजती फिरती थी, और उसे एक भवन मिल गया था, जिसके आश्रय में वह अपने को सुरक्षित और सुखी समझ रही थी, पर आज वह भवन अपना सारा सुख-विलास लिए अलादीन के राजमहल की भाँति गायब हो गया था और भविष्य एक विकराल दानव के समान उसे निगल जाने को खड़ा था। एकाएक द्वार खुलते और होरी को आते देख कर वह भय से काँपती हुई उठी और होरी के पैरों पर गिर कर रोती हुई बोली - दादा, अब तुम्हारे सिवाय मुझे दूसरा ठौर नहीं है, चाहे मारो चाहे काटो, लेकिन अपने द्वार से दुरदुराओ मत। होरी ने झुक कर उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए प्यार-भरे स्वर में कहा - डर मत बेटी, डर मत। तेरा घर है, तेरा द्वार है, तेरे हम हैं। आराम से रह। जैसी तू भोला की बेटी है, वैसी ही मेरी बेटी है। जब तक हम जीते हैं, किसी बात की चिंता मत कर। हमारे रहते, कोई तुझे तिरछी आँखों से न देख सकेगा। भोज-भात जो लगेगा, वह हम सब दे लेंगे, तू खातिर जमा रख। झुनिया, सांत्वना पा कर और भी होरी के पैरों से चिमट गई और बोली - दादा, अब तुम्हीं मेरे बाप हो, और अम्माँ, तुम्हीं मेरी माँ हो। मैं अनाथ हूँ। मुझे सरन दो, नहीं मेरे काका और भाई मुझे कच्चा ही खा जाएँगे। धनिया अपने करुणा के आवेश को अब न रोक सकी। बोली - तू चल घर में बैठ, मैं देख लूँगी काका और भैया को। संसार में उन्हीं का राज नहीं है। बहुत करेंगे, अपने गहने ले लेंगे। फेंक देना उतार कर। अभी जरा देर पहले धनिया ने क्रोध के आवेश में झुनिया को कुलटा और कलंकिनी और कलमुँही, न जाने क्या-क्या कह डाला था। झाड़ू मार कर घर से निकालने जा रही थी। अब जो झुनिया ने स्नेह, क्षमा और आश्वासन से भरे यह वाक्य सुने, तो होरी के पाँव छोड़ कर धनिया के पाँव से लिपट गई और वही साध्वी, जिसने होरी के सिवा किसी पुरुष को आँख भर कर देखा भी न था, इस पापिष्ठा को गले लगाए, उसके आँसू पोंछ रही थी और उसके त्रस्त हृदय को कोमल शब्दों से शांत कर रही थी, जैसे कोई चिड़िया अपने बच्चे को परों में छिपाए बैठी हो। होरी ने धनिया को संकेत किया कि इसे कुछ खिला-पिला दे और झुनिया से पूछा - क्यों बेटी, तुझे कुछ मालूम है, गोबर किधर गया। झुनिया ने सिसकते हुए कहा - मुझसे तो कुछ नहीं कहा। मेरे कारन तुम्हारे ऊपर...यह कहते-कहते उसकी आवाज आँसुओं में डूब गई। होरी अपने व्याकुलता न छिपा सका। 'जब तूने आज उसे देखा, तो कुछ दु:खी था?' 'बातें तो हँस-हँस कर रहे थे। मन का हाल भगवान जाने।' 'तेरा मन क्या कहता है, है गाँव में ही कि कहीं बाहर चला गया?' 'मुझे तो शंका होती है, कहीं बाहर चले गए हैं।' 'यही मेरा मन भी कहता है, कैसी नादानी की। हम उसके दुसमन थोड़े ही थे। जब भली या बुरी एक बात हो गई, तो वह निभानी पड़ती है। इस तरह भाग कर तो उसने हमारी जान आफत में डाल दी।' धनिया ने झुनिया का हाथ पकड़ कर अंदर ले जाते हुए कहा - कायर कहीं का! जिसकी बाँह पकड़ी, उसका निबाह करना चाहिए कि मुँह में कालिख लगा कर भाग जाना चाहिए! अब जो आए, तो घर में पैठने न दूँ। होरी वहीं पुआल पर लेटा। गोबर कहाँ गया? यह प्रश्न उसके हृदयाकाश में किसी पक्षी की भाँति मँडराने लगा। ऐसे असाधारण कांड पर गाँव में जो कुछ हलचल मचनी चाहिए, वह मची और महीनों तक मचती रही। झुनिया के दोनों भाई लाठियाँ लिए गोबर को खोजते फिरते थे। भोला ने कसम खाई कि अब न झुनिया का मुँह देखेंगे और न इस गाँव का। होरी से उन्होंने अपनी सगाई की जो बातचीत की थी, वह अब टूट गई। अब वह अपने गाय के दाम लेंगे और नकद, और इसमें विलंब हुआ तो होरी पर दावा करके उसका घर-द्वार नीलाम करा लेंगे। गाँव वालों ने होरी को जाति-बाहर कर दिया। कोई उसका हुक्का नहीं पीता, न उसके घर का पानी पीता है। पानी बंद कर देने की कुछ बातचीत थी, लेकिन धनिया का चंडी-रूप सब देख चुके थे, इसलिए किसी की आगे आने की हिम्मत न पड़ी। धनिया ने सबको सुना-सुना कर कह दिया - किसी ने उसे पानी भरने से रोका, तो उसका और अपना खून एक कर देगी। इस ललकार ने सभी के पित्ते पानी कर दिए। सबसे दुखी है झुनिया, जिसके कारण यह सब उपद्रव हो रहा है, और गोबर की कोई खोज-खबर न मिलना, इस दुख को और भी दारुण बना रहा है। सारे दिन मुँह छिपाए घर में पड़ी रहती है। बाहर निकले तो चारों ओर से वाग्बाणों की ऐसी वर्षा हो कि जान बचना मुश्किल हो जाए। दिन-भर घर के धंधे करती रहती है और जब अवसर पाती है, रो लेती है। हरदम थर-थर काँपती रहती है कि कहीं धनिया कुछ कह न बैठे। अकेला भोजन तो नहीं पका सकती, क्योंकि कोई उसके हाथ का खाएगा नहीं, बाकी सारा काम उसने अपने ऊपर ले लिया। गाँव में जहाँ चार स्त्री-पुरुष जमा हो जाते हैं, यही कुत्सा होने लगती है। एक दिन धनिया हाट से चली आ रही थी कि रास्ते में पंडित दातादीन मिल गए। धनिया ने सिर नीचा कर लिया और चाहती थी कि कतरा कर निकल जाय, पर पंडित जी छेड़ने का अवसर पा कर कब चूकने वाले थे? छेड़ ही तो दिया - गोबर का कुछ सर-संदेस मिला कि नहीं धनिया? ऐसा कपूत निकला कि घर की सारी मरजाद बिगाड़ दी। धनिया के मन में स्वयं यही भाव आते रहते थे। उदास मन से बोली - बुरे दिन आते हैं, बाबा, तो आदमी की मति फिर जाती है, और क्या कहूँ। दातादीन बोले - तुम्हें इस दुष्टा को घर में न रखना चाहिए था। दूध में मक्खी पड़ जाती है, तो आदमी उसे निकाल कर फेंक देता है और दूध पी जाता है। सोचो, कितनी बदनामी और जग-हँसाई हो रही है। वह कुलटा घर में न रहती, तो कुछ न होता। लड़कों से इस तरह की भूल-चूक होती रहती है। जब तक बिरादरी को भात न दोगे, बाम्हनों को भोज न दोगे, कैसे 'उद्धार होगा? उसे घर में न रखते, तो कुछ न होता। होरी तो पागल है ही, तू कैसे धोखा खा गई? दातादीन का लड़का मातादीन एक चमारिन से फँसा हुआ था। इसे सारा गाँव जानता था, पर वह तिलक लगाता था,पोथी-पत्रे बाँचता था, कथा-भागवत कहता था, धर्म-संस्कार कराता था। उसकी प्रतिष्ठा में जरा भी कमी न थी। वह नित्य स्नान-पूजा करके अपने पापों का प्रायश्चित कर लेता था। धनिया जानती थी, झुनिया को आश्रय देने ही से यह सारी विपत्ति आई है। उसे न जाने कैसे दया आ गई, नहीं उसी रात को झुनिया को निकाल देती, तो क्यों इतना उपहास होता, लेकिन यह भय भी तो था कि तब उसके लिए नदी या कुआँ के सिवा और ठिकाना कहाँ था? एक प्राण का मूल्य दे कर - एक नहीं दो प्राणों का - वह अपने मरजाद की रक्षा कैसे करती? फिर झुनिया के गर्भ में जो बालक है, वह धनिया ही के हृदय का टुकड़ा तो है। हँसी के डर से उसके प्राण कैसे ले लेती! और फिर झुनिया की नम्रता और दीनता भी उसे निरस्त्र करती रहती थी। वह जली-भुनी बाहर से आती, पर ज्यों ही झुनिया लोटे का पानी ला कर रख देती और उसके पाँव दबाने लगती, उसका क्रोध पानी हो जाता। बेचारी अपनी लज्जा और दु:ख से आप दबी हुई है, उसे और क्या दबाए, मरे को क्या मारे? उसने तीव्र स्वर में कहा - हमको कुल-परतिसठा इतनी प्यारी नहीं है महाराज, कि उसके पीछे एक जीवन की हत्या कर डालते। ब्याहता न सही, पर उसकी बाँह तो पकड़ी है मेरे बेटे ने ही। किस मुँह से निकाल देती? वही काम बड़े-बड़े करते हैं, मुदा उनसे कोई नहीं बोलता, उन्हें कलंक ही नहीं लगता। वही काम छोटे आदमी करते हैं, उनकी मरजाद बिगड़ जाती है। नाक कट जाती है। बड़े आदमियों को अपनी नाक दूसरों की जान से प्यारी होगी, हमें तो अपनी नाक इतनी प्यारी नहीं। दातादीन हार मानने वाले जीव न थे। वह इस गाँव के नारद थे। यहाँ की वहाँ, वहाँ की यहाँ, यही उनका व्यवसाय था। वह चोरी तो न करते थे, उसमें जान-जोखिम था, पर चोरी के माल में हिस्सा बँटाने के समय अवश्य पहुँच जाते थे। कहीं पीठ में धूल न लगने देते थे। जमींदार को आज तक लगान की एक पाई न दी थी, कुर्की आती, तो कुएँ में गिरने चलते, नोखेराम के किए कुछ न बनता, मगर असामियों को सूद पर रुपए उधर देते थे। किसी स्त्री को आभूषण बनवाना है, दातादीन उसकी सेवा के लिए हाजिर हैं। शादी-ब्याह तय करने में उन्हें बड़ा आनंद आता है, यश भी मिलता है, दक्षिणा भी मिलती है। बीमारी में दवा-दारू भी करते हैं, झाड़-फूँक भी, जैसी मरीज की इच्छा हो। और सभा-चतुर इतने हैं कि जवानों में जवान बन जाते हैं, बालकों में बालक और बूढ़ों में बूढ़े। चोर के भी मित्र हैं और साह के भी। गाँव में किसी को उन पर विश्वास नहीं है, पर उनकी वाणी में कुछ ऐसा आकर्षण है कि लोग बार-बार धोखा खा कर भी उन्हीं की शरण जाते हैं। सिर और दाढ़ी हिला कर बोले - यह तू ठीक कहती है धनिया! धर्मात्मा लोगों का यही धरम है, लेकिन लोक-रीति का निबाह तो करना ही पड़ता है। इसी तरह एक दिन लाला पटेश्वरी ने होरी को छेड़ा। वह गाँव में पुण्यात्मा मशहूर थे। पूर्णमासी को नित्य सत्यनारायण की कथा सुनते, पर पटवारी होने के नाते खेत बेगार में जुतवाते थे, सिंचाई बेगार में करवाते थे और असामियों को एक-दूसरे से लड़ा कर रकमें मारते थे। सारा गाँव उनसे काँपता था! गरीबों को दस-दस, पाँच-पाँच कर्ज दे कर उन्होंने कई हजार की संपत्ति बना ली थी। फसल की चीजें असामियों से ले कर कचहरी और पुलिस के अमलों की भेंट करते रहते थे। इससे इलाके भर में उनकी अच्छी धाक थी। अगर कोई उनके हत्थे नहीं चढ़ा, तो वह दारोगा गंडासिंह थे, जो हाल में इस इलाके में आए थे। परमार्थी भी थे। बुखार के दिनों में सरकारी कुनैन बाँट कर यश कमाते थे, कोई बीमार-आराम हो, तो उसकी कुशल पूछने अवश्य जाते थे। छोटे-मोटे झगड़े आपस में ही तय करा देते थे। शादी-ब्याह में अपने पालकी, कालीन और महफिल के सामान मँगनी दे कर लोगों का उबार कर देते थे। मौका पा कर न चूकते थे, पर जिसका खाते थे, उसका काम भी करते थे। बोले - यह तुमने क्या रोग पाल लिया होरी? होरी ने पीछे फिर कर पूछा - तुमने क्या कहा? लाला - मैंने सुना नहीं। पटेश्वरी पीछे से कदम बढ़ाते हुए बराबर आ कर बोले - यही कह रहा था कि धनिया के साथ क्या तुम्हारी बुद्धि भी घास खा गई? झुनिया को क्यों नहीं उसके बाप के घर भेज देते, सेंत-मेंत में अपने हँसी करा रहे हो। न जाने किसका लड़का ले कर आ गई और तुमने घर में बैठा लिया। अभी तुम्हारी दो-दो लड़कियाँ ब्याहने को बैठी हुई हैं, सोचो, कैसे बेड़ा पार होगा? होरी इस तरह की आलोचनाएँ और शुभकामनाएँ सुनते-सुनते तंग आ गया था। खिन्न हो कर बोला - यह सब मैं समझता हूँ लाला। लेकिन तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूँ! मैं झुनिया को निकाल दूँ, तो भोला उसे रख लेंगे? अगर वह राजी हों, तो आज मैं उनके घर पहुँचा दूँ। अगर तुम उन्हें राजी कर दो, तो जनम-भर तुम्हारा औसान मानूँ, मगर वहाँ तो उनके दोनों लड़के खून करने को उतारू हो रहे हैं। फिर मैं उसे कैसे निकाल दूँ? एक तो नालायक आदमी मिला कि उसकी बाँह पकड़ कर दगा दे गया। मैं भी निकाल दूँगा, तो इस दसा में वह कहीं मेहनत-मजूरी भी तो न कर सकेगी। कहीं डूब-धँस मरी तो किसे अपराध लगेगा! रहा लड़कियों का ब्याह, सो भगवान मालिक है। जब उसका समय आएगा, कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा। लड़की तो हमारी बिरादरी में आज तक कभी कुँआरी नहीं रही। बिरादरी के डर से हत्यारे का काम नहीं कर सकता। होरी नम्र स्वभाव का आदमी था। सदा सिर झुका कर चलता और चार बातें गम खा लेता था। हीरा को छोड़ कर गाँव में कोई उसका अहित न चाहता था, पर समाज इतना बड़ा अनर्थ कैसे सह ले! और उसकी मुटमर्दी तो देखो कि समझाने पर भी नहीं समझता। स्त्री-पुरुष दोनों जैसे समाज को चुनौती दे रहे हैं कि देखें, कोई उनका क्या कर लेता है। तो समाज भी दिखा देगा कि उसकी मर्यादा तोड़ने वाले सुख की नींद नहीं सो सकते। उसी रात को इस समस्या पर विचार करने के लिए गाँव के विधाताओं की बैठक हुई। दातादीन बोले - मेरी आदत किसी की निंदा करने की नहीं है। संसार में क्या-क्या कुकर्म नहीं होता, अपने से क्या मतलब? मगर वह राँड़ धनिया तो मुझसे लड़ने पर उतारू हो गई। भाइयों का हिस्सा दबा कर हाथ में चार पैसे हो गए, तो अब कुपंथ के सिवा और क्या सूझेगी? नीच जात, जहाँ पेट-भर रोटी खाई और टेढ़े चले, इसी से तो सासतरों में कहा है! नीच जात लतियाए अच्छा। पटेश्वरी ने नारियल का कश लगाते हुए कहा - यही तो इनमें बुराई है कि चार पैसे देखे और आँखें बदलीं। आज होरी ने ऐसी हेकड़ी जताई कि मैं अपना-सा मुँह ले कर रह गया। न जाने अपने को क्या समझता है! अब सोचो, इस अनीति का गाँव में क्या फल होगा? झुनिया को देख कर दूसरी विधवाओं का मन बढ़ेगा कि नहीं? आज भोला के घर में यह बात हुई। कल हमारे-तुम्हारे घर में भी होगी। समाज तो भय के बल से चलता है। आज समाज का आँकुस जाता रहे, फिर देखो संसार में क्या-क्या अनर्थ होने लगते हैं। झिंगुरी सिंह दो स्त्रियों के पति थे। पहली स्त्री पाँच लड़के-लड़कियाँ छोड़ कर मरी थी। उस समय इनकी अवस्था पैंतालीस के लगभग थी, पर आपने दूसरा ब्याह किया और जब उससे कोई संतान न हुई, तो तीसरा ब्याह कर डाला। अब इनकी पचास की अवस्था थी और दो जवान पत्नियाँ घर में बैठी थीं। उन दोनों ही के विषय में तरह-तरह की बातें फैल रही थीं, पर ठाकुर साहब के डर से कोई कुछ न कह सकता था, और कहने का अवसर भी तो हो। पति की आड़ में सब कुछ जायज है। मुसीबत तो उसको है, जिसे कोई आड़ नहीं। ठाकुर साहब स्त्रियों पर बड़ा कठोर शासन रखते थे और उन्हें घमंड था कि उनकी पत्नियों का घूँघट किसी ने न देखा होगा। मगर घूँघट की आड़ में क्या होता है, उसकी उन्हें क्या खबर? बोले - ऐसी औरत का तो सिर काट ले। होरी ने इस कुलटा को घर में रख कर समाज में विष बोया है। ऐसे आदमी को गाँव में रहने देना सारे गाँव को भ्रष्ट करना है। रायसाहब को इसकी सूचना देनी चाहिए। साफ-साफ कह देना चाहिए, अगर गाँव में यह अनीति चली तो किसी की आबरू सलामत न रहेगी। पंडित नोखेराम कारकुन बड़े कुलीन ब्राह्मण थे। इनके दादा किसी राजा के दीवान थे। पर अपना सब कुछ भगवान के चरणों में भेंट करके साधु हो गए थे। इनके बाप ने भी राम-नाम की खेती में उम्र काट दी। नोखेराम ने भी वही भक्ति तरके में पाई थी। प्रात:काल पूजा पर बैठ जाते थे और दस बजे तक बैठे राम-नाम लिखा करते थे, मगर भगवान के सामने से उठते ही उनकी मानवता इस अवरोध से विकृत हो कर उनके मन, वचन और कर्म सभी को विषाक्त कर देती थी। इस प्रस्ताव में उनके अधिकार का अपमान होता था। फूले हुए गालों में धँसी हुई आँखें निकाल कर बोले - इसमें रायसाहब से क्या पूछना है। मैं जो चाहूँ, कर सकता हूँ। लगा दो सौ रुपए डाँड़। आप गाँव छोड़ कर भागेगा। इधर बेदखली भी दायर किए देता हूँ। पटेश्वरी ने कहा - मगर लगान तो बेबाक कर चुका है। झिंगुरीसिंह ने समर्थन किया - हाँ, लगान के लिए ही तो हमसे तीस रुपए लिए हैं। नोखेराम ने घमंड के साथ कहा - लेकिन अभी रसीद तो नहीं दी। सबूत क्या है कि लगान बेबाक कर दिया? सर्वसम्मति से यही तय हुआ कि होरी पर सौ रुपए तावान लगा दिया जाए। केवल एक दिन गाँव के आदमियों को बटोर कर उनकी मंजूरी ले लेने का अभिनय आवश्यक था। संभव था, इसमें दस-पाँच दिन की देर हो जाती। पर आज ही रात को झुनिया के लड़का पैदा हो गया। और दूसरे ही दिन गाँव वालों की पंचायत बैठ गई। होरी और धनिया, दोनों अपनी किस्मत का फैसला सुनने के लिए बुलाए गए। चौपाल में इतनी भीड़ थी कि कहीं तिल रखने की जगह न थी। पंचायत ने फैसला किया कि होरी पर सौ रुपए नकद और तीस मन अनाज डाँड़ लगाया जाए। धनिया भरी सभा में रुँधे हुए कंठ से बोली - पंचो, गरीब को सता कर सुख न पाओगे, इतना समझ लेना। हम तो मिट जाएँगे, कौन जाने, इस गाँव में रहें या न रहें, लेकिन मेरा सराप तुमको भी जरूर लगेगा। मुझसे इतना कड़ा जरीबाना इसलिए लिया जा रहा है कि मैंने अपने बहू को क्यों अपने घर में रखा। क्यों उसे घर से निकाल कर सड़क की भिखारिन नहीं बना दिया। यही न्याय है-ऐं? पटेश्वरी बोले - वह तेरी बहू नहीं है, हरजाई है। होरी ने धनिया को डाँटा - तू क्यों बोलती है धनिया! पंच में परमेसर रहते हैं। उनका जो न्याय है, वह सिर आँखों पर। अगर भगवान की यही इच्छा है कि हम गाँव छोड़ कर भाग जायँ, तो हमारा क्या बस। पंचो, हमारे पास जो कुछ है, वह अभी खलिहान में है। एक दाना भी घर में नहीं आया, जितना चाहे, ले लो। सब लेना चाहो, सब ले लो। हमारा भगवान मालिक है, जितनी कमी पड़े, उसमें हमारे दोनों बैल ले लेना। धनिया दाँत कटकटा कर बोली - मैं एक दाना न अनाज दूँगी, न कौड़ी डाँड़। जिसमें बूता हो, चल कर मुझसे ले। अच्छी दिल्लगी है। सोचा होगा, डाँड़ के बहाने इसकी सब जैजात ले लो और नजराना ले कर दूसरों को दे दो। बाग-बगीचा बेच कर मजे से तर माल उड़ाओ। धनिया के जीते-जी यह नहीं होने का, और तुम्हारी लालसा तुम्हारे मन में ही रहेगी। हमें नहीं रहना है बिरादरी में। बिरादरी में रह कर हमारी मुकुत न हो जायगी। अब भी अपने पसीने की कमाई खाते हैं, तब भी अपने पसीने की कमाई खाएँगे। होरी ने उसके सामने हाथ जोड़ कर कहा - धनिया, तेरे पैरों पड़ता हूँ, चुप रह। हम सब बिरादरी के चाकर हैं, उसके बाहर नहीं जा सकते। वह जो डाँड़ लगाती है, उसे सिर झुका कर मंजूर कर। नकू बन कर जीने से तो गले में फाँसी लगा लेना अच्छा है। आज मर जायँ, तो बिरादरी ही तो इस मिट्टी को पार लगाएगी? बिरादरी ही तारेगी तो तरेंगे। पंचों, मुझे अपने जवान बेटे का मुँह देखना नसीब न हो, अगर मेरे पास खलिहान के अनाज के सिवा और कोई चीज हो। मैं बिरादरी से दगा न करूँगा। पंचों को मेरे बाल-बच्चों पर दया आए, तो उनकी कुछ परवरिस करें, नहीं मुझे तो उनकी आज्ञा पालनी है। धनिया झल्ला कर वहाँ से चली गई और होरी पहर रात तक खलिहान से अनाज ढो-ढो कर झिंगुरीसिंह की चौपाल में ढेर करता रहा। बीस मन जौ था, पाँच मन गेहूँ और इतना ही मटर, थोड़ा-सा चना और तेलहन भी था। अकेला आदमी और दो गृहस्थियों का बोझ। यह जो कुछ हुआ, धनिया के पुरुषार्थ से हुआ। झुनिया भीतर का सारा काम कर लेती थी और धनिया अपनी लड़कियों के साथ खेती में जुट गई थी। दोनों ने सोचा था, गेहूँ और तिलहन से लगान की एक किस्त अदा हो जायगी और हो सके तो थोड़ा-थोड़ा सूद भी दे देंगे। जौ खाने के काम आएगा। लंगे-तंगे पाँच-छ: महीने कट जाएँगे, तब तक जुआर, मक्का, सांवा, धान के दिन आ जाएँगे। वह सारी आशा मिट्टी में मिल गई। अनाज तो हाथ से गया ही, सौ रुपए की गठरी और सिर पर लद गई। अब भोजन का कहीं ठिकाना नहीं। और गोबर का क्या हाल हुआ, भगवान जाने। न हाल न हवाल। अगर दिल इतना कच्चा था, तो ऐसा काम ही क्यों किया? मगर होनहार कौन टाल सकता है! बिरादरी का वह आतंक था कि अपने सिर पर लाद कर अनाज ढो रहा था, मानो अपने हाथों से अपने कब्र खोद रहा हो। जमींदार, साहूकार, सरकार, किसका इतना रोब था? कल बाल-बच्चे क्या खाएँगे, इसकी चिंता प्राणों को सोखे लेती थी, पर बिरादरी का भय पिशाच की भाँति सर पर सवार आँकुस दिए जा रहा था। बिरादरी से पृथक जीवन की वह कोई कल्पना ही न कर सकता था। शादी-ब्याह, मूँड़न-छेदन, जन्म-मरण सब कुछ बिरादरी के हाथ में है। बिरादरी उसके जीवन में वृक्ष की भाँति जड़ जमाए हुए थी और उसकी नसें उसके रोम-रोम में बिंधी हुई थीं। बिरादरी से निकल कर उसका जीवन विश्रृंखल हो जायगा? तार-तार हो जायगा। जब खलिहान में केवल डेढ़-दो मन जौ रह गया, तो धनिया ने दौड़ कर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली - अच्छा अब रहने दो। ढो तो चुके बिरादरी की लाज! बच्चों के लिए भी कुछ छोड़ोगे कि सब बिरादरी के भाड़ में झोंक दोगे? मैं तुमसे हार जाती हूँ। मेरे भाग्य में तुम्हीं जैसे बुद्धू का संग लिखा था। होरी ने अपना हाथ छुड़ा कर टोकरी में अनाज भरते हुए कहा - यह न होगा, पंचों की आँख बचा कर एक दाना भी रख लेना मेरे लिए हराम है। मैं ले जा कर सब-का-सब वहाँ ढेर कर देता हूँ। फिर पंचों के मन में दया उपजेगी, तो कुछ मेरे बाल-बच्चों के लिए देंगे, नहीं भगवान मालिक है! धनिया तिलमिला कर बोली - यह पंच नहीं हैं, राच्छस हैं, पक्के राच्छस! यह सब हमारी जगह-जमीन छीन कर माल मारना चाहते हैं। डाँड़ तो बहाना है। समझाती जाती हूँ, पर तुम्हारी आँखें नहीं खुलतीं। तुम इन पिसाचों से दया की आसा रखते हो? सोचते हो, दस-पाँच मन निकाल कर तुम्हें दे देंगे। मुँह धो रखो। जब होरी ने न माना और टोकरी सिर पर रखने लगा, तो धनिया ने दोनों हाथों से पूरी शक्ति के साथ टोकरी पकड़ ली और बोली - इसे तो मैं न ले जाने दूँगी, चाहे तुम मेरी जान ही ले लो। मर-मर कर हमने कमाया, पहर रात-रात को सींचा, अगोरा, इसलिए कि पंच लोग मूँछों पर ताव दे कर भोग लगाएँ और हमारे बच्चे दाने-दाने को तरसें! तुमने अकेले ही सब कुछ नहीं कर लिया है। मैं भी अपने बच्चियों के साथ सती हुई हूँ। सीधे से टोकरी रख दो, नहीं आज सदा के लिए नाता टूट जायगा। कहे देती हूँ। होरी सोच में पड़ गया। धनिया के कथन में सत्य था। उसे अपने बाल-बच्चों की कमाई छीन कर तावान देने का क्या अधिकार है। वह घर का स्वामी इसलिए है कि सबका पालन करे, इसलिए नहीं कि उनकी कमाई छीन कर बिरादरी की नजर में सुर्खई बने। टोकरी उसके हाथ से छूट गई। धीरे से बोला - तू ठीक कहती है धनिया! दूसरों के हिस्से पर मेरा कोई जोर नहीं है। जो कुछ बचा है, वह ले जा। मैं जा कर पंचों से कहे देता हूँ। धनिया अनाज की टोकरी घर में रख कर अपने लड़कियों के साथ पोते के जन्मोत्सव में गला फाड़-फाड़ कर सोहर गा रही थी, जिससे सारा गाँव सुन ले। आज यह पहला मौका था कि ऐसे शुभ अवसरों पर बिरादरी की कोई औरत न थी। सौर से झुनिया ने कहला भेजा था, सोहर गाने का काम नहीं है, लेकिन धनिया कब मानने लगी। अगर बिरादरी को उसकी परवा नहीं है, तो वह भी बिरादरी की परवा नहीं करती। उसी वक्त होरी अपने घर को अस्सी रुपए पर झिंगुरीसिंह के हाथ गिरों रख रहा था। डाँड़ के रुपए का इसके सिवा वह और कोई प्रबंध न कर सका था। बीस रुपए तो तेलहन, गेहूँ और मटर से मिल गए। शेष के लिए घर लिखना पड़ गया। नोखेराम तो चाहते थे कि बैल बिकवा लिए जायँ, लेकिन पटेश्वरी और दातादीन ने इसका विरोध किया। बैल बिक गए, तो होरी खेती कैसे करेगा? बिरादरी उसकी जायदाद से रुपए वसूल करे, पर ऐसा तो न करे कि वह गाँव छोड़ कर भाग जाए। इस तरह बैल बच गए। होरी रेहननामा लिख कर कोई ग्यारह बजे रात घर आया, तो धनिया ने पूछा - इतनी रात तक वहाँ क्या करते रहे? होरी ने जुलाहे का गुस्सा दाढ़ी पर उतारते हुए कहा - करता क्या रहा, इस लौंडे की करनी भरता रहा। अभागा आप तो चिनगारी छोड़ कर भागा, आग मुझे बुझानी पड़ रही है। अस्सी रुपए में घर रेहन लिखना पड़ा। करता क्या! अब हुक्का खुल गया। बिरादरी ने अपराध क्षमा कर दिया। धनिया ने होंठ चबा कर कहा - न हुक्का खुलता, तो हमारा क्या बिगड़ा जाता था? चार-पाँच महीने नहीं किसी का हुक्का पिया, तो क्या छोटे हो गए? मैं कहती हूँ, तुम इतने भोंदू क्यों हो? मेरे सामने तो बड़े बुद्धिमान बनते हो, बाहर तुम्हारा मुँह क्यों बंद हो जाता है? ले-दे के बाप-दादों की निसानी एक घर बच रहा था, आज तुमने उसका भी वारा-न्यारा का दिया। इसी तरह कल तीन-चार बीघे जमीन है, इसे भी लिख देना और तब गली-गली भीख माँगना। मैं पूछती हूँ, तुम्हारे मुँह में जीभ न थी कि उन पंचों से पूछते, तुम कहाँ के बड़े धर्मात्मा हो, जो दूसरों पर डाँड़ लगाते फिरते हो, तुम्हारा तो मुँह देखना भी पाप है। होरी ने डाँटा - चुप रह, बहुत बढ़-चढ़ न बोल। बिरादरी के चक्कर में अभी पड़ी नहीं है, नहीं मुँह से बात न निकलती। धनिया उत्तेजित हो गई - कौन-सा पाप किया है, जिसके लिए बिरादरी से डरें? किसी की चोरी की है, किसी का माल काटा है? मेहरिया रख लेना पाप नहीं है, हाँ, रख के छोड़ देना पाप है। आदमी का बहुत सीधा होना भी बुरा है। उसके सीधेपन का फल यही होता है कि कुत्ते भी मुँह चाटने लगते हैं। आज उधर तुम्हारी वाह-वाह हो रही होगी कि बिरादरी की कैसी मरजाद रख ली। मेरे भाग फूट गए थे कि तुम-जैसे मर्द से पाला पड़ा। कभी सुख की रोटी न मिली। 'मैं तेरे बाप के पाँव पड़ने गया था? वही तुझे मेरे गले बाँध गया था!' 'पत्थर पड़ गया था उनकी अक्कल पर और उन्हें क्या कहूँ? न जाने क्या देख कर लट्टू हो गए। ऐसे कोई बड़े सुंदर भी तो न थे तुम।' विवाद विनोद के क्षेत्र में आ गया। अस्सी रुपए गए, लाख रुपए का बालक तो मिल गया! उसे तो कोई न छीन लेगा। गोबर घर लौट आए, धनिया अलग झोपड़ी में सुखी रहेगी। होरी ने पूछा - बच्चा किसको पड़ा है? धनिया ने प्रसन्न मुख हो कर जवाब दिया - बिलकुल गोबर को पड़ा है। सच! 'रिस्ट-पुस्ट तो है?' 'हाँ, अच्छा है।' रात को गोबर झुनिया के साथ चला, तो ऐसा काँप रहा था, जैसे उसकी नाक कटी हुई हो। झुनिया को देखते ही सारे गाँव में कुहराम मच जायगा लोग चारों ओर से कैसी हाय-हाय मचाएँगे, धनिया कितनी गालियाँ देगी, यह सोच-सोच कर उसके पाँव पीछे रह जाते थे। होरी का तो उसे भय न था। वह केवल एक बार दहाड़ेंगे, फिर शांत हो जाएँगे। डर था धनिया का, जहर खाने लगेगी, घर में आग लगाने लगेगी। नहीं, इस वक्त वह झुनिया के साथ घर नहीं जा सकता। लेकिन कहीं धनिया ने झुनिया को घर में घुसने ही न दिया और झाड़ू ले कर मारने दौड़ी, तो वह बेचारी कहाँ जायगी? अपने घर तो लौट नहीं सकती। कहीं कुएँ में कूद पड़े या गले में फाँसी लगा ले, तो क्या हो? उसने लंबी साँस ली। किसकी शरण ले? मगर अम्माँ इतनी निर्दयी नहीं हैं कि मारने दौड़ें। क्रोध में दो-चार गालियाँ देंगी! लेकिन जब झुनिया उनके पाँव पकड़ कर रोने लगेगी, तो उन्हें जरूर दया आ जायगी। तब तक वह खुद कहीं छिपा रहेगा। जब उपद्रव शांत हो जायगा तब वह एक दिन धीरे से आएगा और अम्माँ को मना लेगा। अगर इस बीच उसे कहीं मजूरी मिल जाय और दो-चार रुपए ले कर घर लौटे, तो फिर धनिया का मुँह बंद हो जायगा। झुनिया बोली - मेरी छाती धक-धक कर रही है। मैं क्या जानती थी, तुम मेरे गले यह रोग मढ़ दोगे। न जाने किस बुरी साइत में तुमको देखा। न तुम गाय लेने आते, न यह सब कुछ होता। तुम आगे-आगे जा कर जो कुछ कहना-सुनना हो, कह-सुन लेना। मैं पीछे से जाऊँगी। गोबर ने कहा - नहीं-नहीं, पहले तुम जाना और कहना, मैं बाजार से सौदा बेच कर घर जा रही थी। रात हो गई है, अब कैसे जाऊँ? तब तक मैं आ जाऊँगा। झुनिया चिंतित मन से कहा - तुम्हारी अम्माँ बड़ी गुस्सैल हैं। मेरा तो जी काँपता है। कहीं मुझे मारने लगें तो क्या करूँगी? गोबर ने धीरज दिलाया - अम्माँ की आदत ऐसी नहीं। हम लोगों तक को तो कभी एक तमाचा मारा नहीं, तुम्हें क्या मारेंगी। उनको जो कुछ कहना होगा, मुझे कहेंगी, तुमसे तो बोलेंगी भी नहीं। गाँव समीप आ गया। गोबर ने ठिठक कर कहा - अब तुम जाओ। झुनिया ने अनुरोध किया - तुम भी देर न करना' 'नहीं-नहीं, छन भर में आता हूँ, तू चल तो।' 'मेरा जी न जाने कैसा हो रहा है! तुम्हारे ऊपर क्रोध आता है।' 'तुम इतना डरती क्यों हो? मैं तो आ ही रहा हूँ।' 'इससे तो कहीं अच्छा था कि किसी दूसरी जगह भाग चलते।' 'जब अपना घर है तो क्यों कहीं भागें? तुम नाहक डर रही हो।' 'जल्दी से आओगे न?' 'हाँ-हाँ, अभी आता हूँ।' 'मुझसे दगा तो नहीं कर रहे हो? मुझे घर भेज कर आप कहीं चलते बनो?' 'इतना नीच नहीं हूँ झूना! जब तेरी बाँह पकड़ी है, तो मरते दम तक निभाऊँगा।' झुनिया घर की ओर चली। गोबर एक क्षण दुविधा में पड़ा खड़ा रहा। फिर एकाएक सिर पर मँडराने वाली धिक्कार की कल्पना भयंकर रूप धारण करके उसके सामने खड़ी हो गई। कहीं सचमुच अम्माँ मारने दौड़ें, तो क्या हो? उसके पाँव जैसे धरती से चिमट गए। उसके और उसके घर के बीच केवल आमों का छोटा-सा बाग था। झुनिया की काली परछाईं धीरे-धीरे जाती हुई दीख रही थी। उसकी ज्ञानेंद्रियाँ बहुत तेज हो गई थीं। उसके कानों में ऐसी भनक पड़ी, जैसे अम्माँ झुनिया को गाली दे रही हैं। उसके मन की कुछ ऐसी दशा हो रही थी, मानो सिर पर गड़ांसे का हाथ पड़ने वाला हो। देह का सारा रक्त सूख गया हो। एक क्षण के बाद उसने देखा, जैसे धनिया घर से निकल कर कहीं जा रही हो। दादा के पास जाती होगी। साइत दादा खा-पी कर मटर अगोरने चले गए हैं। वह मटर के खेत की ओर चला। जौ-गेहूँ के खेतों को रौंदता हुआ वह इस तरह भागा जा रहा था, मानो पीछे दौड़ आ रही है। वह है दादा की मँड़ैया। वह रूक गया और दबे पाँव आ कर मँड़ैया के पीछे बैठ गया। उसका अनुमान ठीक निकला। वह पहुँचा ही था कि धनिया की बोली सुनाई दी। ओह! गजब हो गया। अम्माँ इतनी कठोर हैं। एक अनाथ लड़की पर इन्हें तनिक भी दया नहीं आती। और जो मैं सामने जा कर फटकार दूँ कि तुमको झुनिया से बोलने का कोई मजाल नहीं है, तो सारी सेखी निकल जाए। अच्छा! दादा भी बिगड़ रहे हैं। केले के लिए आज ठीकरा भी तेज हो गया। मैं जरा अदब करता हूँ, उसी का फल है। यह तो दादा भी वहीं जा रहे हैं। अगर झुनिया को इन्होंने मारा-पीटा तो मुझसे न सहा जायगा। भगवान! अब तुम्हारा ही भरोसा है। मैं न जानता था, इस विपत में जान फँसेगी। झुनिया मुझे अपने मन में कितना धूर्त, कायर और नीच समझ रही होगी, मगर उसे मार कैसे सकते हैं? घर से निकाल भी कैसे सकते हैं? क्या घर में मेरा हिस्सा नहीं है? अगर झुनिया पर किसी ने हाथ उठाया, तो आज महाभारत हो जायगा। माँ-बाप जब तक लड़कों की रक्षा करें, तब तक माँ-बाप हैं। जब उनमें ममता ही नहीं है, तो कैसे माँ-बाप ! होरी ज्यों ही मँड़ैया से निकला, गोबर भी दबे पाँव धीरे-धीरे पीछे-पीछे चला, लेकिन द्वार पर प्रकाश देख कर उसके पाँव बँध गए। उस प्रकाश-रेखा के अंदर वह पाँव नहीं रख सकता। वह अँधेरे में ही दीवार से चिमट कर खड़ा हो गया। उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया। हाय! बेचारी झुनिया पर निरपराध यह लोग झल्ला रहे हैं, और वह कुछ नहीं कर सकता। उसने खेल-खेल में जो एक चिनगारी फेंक दी थी, वह सारे खलिहान को भस्म कर देगी, यह उसने न समझा था। और अब उसमें इतना साहस न था कि सामने आ कर कहे - हाँ, मैंने चिनगारी फेंकी थी। जिन टिकौनों से उसने अपने मन को सँभाला था, वे सब इस भूकंप में नीचे आ रहे और वह झोंपड़ा नीचे गिर पड़ा। वह पीछे लौटा। अब वह झुनिया को क्या मुँह दिखाए! वह सौ कदम चला, पर इस तरह जैसे कोई सिपाही मैदान से भागे। उसने झुनिया से प्रीति और विवाह की जो बातें की थीं, वह सब याद आने लगीं। वह अभिसार की मीठी स्मृतियाँ याद आईं, जब वह अपनी उन्मत्त उसाँसों में, अपनी नशीली चितवनों में मानो अपने प्राण निकाल कर उसके चरणों पर रख देता था। झुनिया किसी वियोगी पक्षी की भाँति अपने छोटे-से घोंसले में एकांत-जीवन काट रही थी। वहाँ नर का मत्त आग्रह न था, न वह उदीप्त उल्लास, न शावकों की मीठी आवाजें, मगर बहेलिए का जाल और छल भी तो वहाँ न था। गोबर ने उसके एकांत घोंसले में जा कर उसे कुछ आनंद पहुँचाया या नहीं, कौन जाने, पर उसे विपत्ति में डाल ही दिया। वह सँभल गया। भागता हुआ सिपाही मानो अपने एक साथी का बढ़ावा सुन कर पीछे लौट पड़ा। उसने द्वार पर आ कर देखा, तो किवाड़ बंद हो गए थे। किवाड़ों के दराजों से प्रकाश की रेखाएँ बाहर निकल रही थीं। उसने एक दरार से अंदर झाँका। धनिया और झुनिया बैठी हुई थीं। होरी खड़ा था। झुनिया की सिसकियाँ सुनाई दे रही थीं और धनिया उसे समझा रही थी - बेटी, तू चल कर घर में बैठ। मैं तेरे काका और भाइयों को देख लूँगी। जब तक हम जीते हैं, किसी बात की चिंता नहीं है। हमारे रहते कोई तुझे तिरछी आँखों देख भी न सकेगा। गोबर गदगद हो गया। आज वह किसी लायक होता, तो दादा और अम्माँ को सोने से मढ़ देता और कहता - अब तुम कुछ परवा न करो, आराम से बैठे खाओ और जितना दान-पुन्न करना चाहो, करो। झुनिया के प्रति अब उसे कोई शंका नहीं है। वह उसे जो आश्रय देना चाहता था, वह मिल गया। झुनिया उसे दगाबाज समझती है, तो समझे। वह तो अब तभी घर आएगा, जब वह पैसे के बल से सारे गाँव का मुँह बंद कर सके और दादा और अम्माँ उसे कुल का कलंक न समझ कर कुल का तिलक समझें। मन पर जितना ही गहरा आघात होता है उसकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही गहरी होती है। इस अपकीर्ति और कलंक ने गोबर के अंतस्तल को मथ कर वह रत्न निकाल लिया, जो अभी तक छिपा पड़ा था। आज पहली बार उसे अपने दायित्व का ज्ञान हुआ और उसके साथ ही संकल्प भी। अब तक वह कम-से-कम काम करना और ज्यादा-से-ज्यादा खाना अपना हक समझता था। उसके मन में कभी यह विचार ही नहीं उठा कि घरवालों के साथ उसका भी कुछ कर्तव्य है। आज माता-पिता की उदात्त क्षमा ने जैसे उसके हृदय में प्रकाश डाल दिया। जब धनिया और झुनिया भीतर चली गईं, तो वह होरी की उसी मँड़ैया में जा बैठा और भविष्य के मंसूबे बाँधने लगा। शहर के बेलदारों को पाँच-छ: आने रोज मिलते हैं, यह उसने सुन रखा था। अगर उसे छ: आने रोज मिलें और वह एक आने में गुजर कर ले, तो पाँच आने रोज बच जायँ। महीने में दस रुपए होते हैं, और साल-भर में सवा सौ। वह सवा-सौ की थैली ले कर घर आए, तो किसकी मजाल है, जो उसके सामने मुँह खोल सके? यही दातादीन और यही पटेसरी आ कर उसकी हाँ में हाँ मिलाएँगे और झुनिया तो मारे गर्व के फूल जाए। दो-चार साल वह इसी तरह कमाता रहे, तो सारे घर का दलिद्दर मिट जाए। अभी तो सारे घर की कमाई भी सवा सौ नहीं होती। अब वह अकेला सवा सौ कमाएगा। यही तो लोग कहेंगे कि मजूरी करता है। कहने दो। मजूरी करना कोई पाप तो नहीं है। और सदा छ: आने थोड़े मिलेंगे। जैसे-जैसे वह काम में होशियार होगा, मजूरी भी तो बढ़ेगी। तब वह दादा से कहेगा, अब तुम घर में बैठ कर भगवान का भजन करो। इस खेती में जान खपाने के सिवा और क्या रखा है? सबसे पहले वह एक पछाईं गाय लाएगा, जो चार-पाँच सेर दूध देगी और दादा से कहेगा, तुम गऊ माता की सेवा करो। इससे तुम्हारा लोक भी बनेगा, परलोक भी। और क्या, एक आने में उसका गुजर आराम से न होगा? घर-द्वार ले कर क्या करना है? किसी के ओसारे में पड़ा रहेगा। सैकड़ों मंदिर हैं, धरमसाले हैं। और फिर जिसकी वह मजूरी करेगा, क्या वह उसे रहने के लिए जगह न देगा। आटा रुपए का दस सेर आता है। एक आने में ढाई पाव हुआ। एक आने का तो वह आटा ही खा जायगा। लकड़ी, दाल, नमक, साग यह सब कहाँ से आएगा? दोनों जून के लिए सेर भर तो आटा ही चाहिए। ओह! खाने की तो कुछ न पूछो। मुट्ठी-भर चने में भी काम चल सकता है। हलुवा और पूरी खा कर भी काम चल सकता है। जैसी कमाई हो। वह आधा सेर आटा खा कर दिन-भर मजे से काम कर सकता है। इधर-उधर से उपले चुन लिए, लकड़ी का काम चल गया। कभी एक पैसे की दाल ले ली, कभी आलू। आलू भून कर भुरता बना लिया। यहाँ दिन काटना है कि चैन करना है। पत्तल पर आटा गूँधा, उपलों पर बाटियाँ सेंकीं, आलू भून कर भुरता बनाया और मजे से खा कर सो रहे। घर ही पर कौन दोनों जून रोटी मिलती है, एक जून तो चबेना ही मिलता है। वहाँ भी एक जून चबेने पर काटेंगे। उसे शंका हुई, अगर कभी मजूरी न मिली, तो वह क्या करेगा? मगर मजूरी क्यों न मिलेगी? जब वह जी तोड़ कर काम करेगा, तो सौ आदमी उसे बुलाएँगे। काम सबको प्यारा होता है, चाम नहीं प्यारा होता। यहाँ भी तो सूखा पड़ता है, पाला गिरता है, ऊख में दीमक लगते हैं, जौ में गेरूई लगती है, सरसों में लाही लग जाती है। उसे रात को कोई काम मिल जायगा तो उसे भी न छोड़ेगा। दिन-भर मजूरी की, रात कहीं चौकीदारी करलेगा। दो आने भी रात के काम में मिल जायँ, तो चाँदी है। जब वह लौटेगा, तो सबके लिए साड़ियाँ लाएगा। झुनिया के लिए हाथ का कंगन जरूर बनवायगा और दादा के लिए एक मुंड़ासा लाएगा। इन्हीं मनमोदकों का स्वाद लेता हुआ वह सो गया, लेकिन ठंड में नींद कहाँ! किसी तरह रात काटी और तड़के उठ कर लखनऊ की सड़क पकड़ ली। बीस कोस ही तो है। साँझ तक पहुँच जायगा। गाँव का कौन आदमी वहाँ आता-जाता है और वह अपना ठिकाना ही क्यों लिखेगा, नहीं दादा दूसरे ही दिन सिर पर सवार हो जाएँगे। उसे कुछ पछतावा था, तो यही कि झुनिया से क्यों न साफ-साफ कह दिया - अभी तू घर जा, मैं थोड़े दिनों में कुछ कमा कर लौटूँगा, लेकिन तब वह घर जाती ही क्यों? कहती - मैं भी तुम्हारे साथ लौटूँगी। उसे वह कहाँ-कहाँ बाँधे फिरता? दिन चढ़ने लगा। रात को कुछ न खाया था। भूख मालूम होने लगी। पाँव लड़खड़ाने लगे। कहीं बैठ कर दम लेने की इच्छा होती थी। बिना कुछ पेट में डाले, वह अब नहीं चल सकता, लेकिन पास एक पैसा भी नहीं है। सड़क के किनारे झड़बेरियों के झाड़ थे। उसने थोड़े से बेर तोड़ लिए और उदर को बहलाता हुआ चला। एक गाँव में गुड़ पकने की सुगंध आई। अब मन न माना। कोल्हाड़ में जा कर लोटा-डोर माँगा और पानी भर कर चुल्लू से पीने बैठा कि एक किसान ने कहा - अरे भाई, क्या निराला ही पानी पियोगे? थोड़ा-सा मीठा खा लो। अबकी और चला लें कोल्हू और बना लें खाँड़। अगले साल तक मिल तैयार हो जायगी, सारी ऊख खड़ी बिक जायगी। गुड़ और खाँड़ के भाव चीनी मिलेगी, तो हमारा गुड़ कौन लेगा? उसने एक कटोरे में गुड़ की कई पिंडियाँ ला कर दीं। गोबर ने गुड़ खाया, पानी पिया। तमाखू तो पीते होगे? गोबर ने बहाना किया - अभी चिलम नहीं पीता। बुड्ढे ने प्रसन्न हो कर कहा - बड़ा अच्छा करते हो भैया! बुरा रोग है। एक बेर पकड़ ले, तो जिंदगी-भर नहीं छोड़ता। इंजन को कोयला-पानी भी मिल गया। चाल तेज हुई। जाड़े के दिन, न जाने कब दोपहर हो गया। एक जगह देखा, एक युवती एक वृक्ष के नीचे पति से सत्याग्रह किए बैठी थी। पति सामने खड़ा उसे मना रहा था। दो-चार राहगीर तमाशा देखने खड़े हो गए थे। गोबर भी खड़ा हो गया। मानलीला से रोचक और कौन जीवन-नाटक होगा। युवती ने पति की ओर घूर कर कहा - मैं न जाऊँगी, न जाऊँगी, न जाऊँगी। पुरुष ने जैसे अल्टिमेटम दिया - न जाएगी? 'न जाऊँगी।' 'न जाएगी?' 'न जाऊँगी।' पुरुष ने उसके केश पकड़ कर घसीटना शुरू किया। युवती भूमि पर लोट गई। पुरुष ने हार कर कहा - मैं फिर कहता हूँ, उठ कर चल। स्त्री ने उसी दृढ़ता से कहा - मैं तेरे घर सात जलम न जाऊँगी, बोटी-बोटी काट डाल। 'मैं तेरा गला काट लूँगा!' 'तो फाँसी पाओगे।' पुरुष ने उसके केश छोड़ दिए और सिर पर हाथ रख कर बैठ गया। पुरुषत्व अपने चरम सीमा तक पहुँच गया। उसके आगे अब उसका कोई बस नहीं है। एक क्षण में वह फिर खड़ा हुआ और परास्त हो कर बोला - आखिर तू क्या चाहती है? युवती भी उठ बैठी और निश्चल भाव से बोली - मैं यही चाहती हूँ, तू मुझे छोड़ दे। 'कुछ मुँह से कहेगी, क्या बात हुई?' 'मेरे माई-बाप को कोई क्यों गाली दे?' 'किसने गाली दी, तेरे माई-बाप को?' 'जा कर अपने घर में पूछ।' 'चलेगी तभी तो पूछूँगा?' 'तू क्या पूछेगा? कुछ दम भी है। जा कर अम्माँ के आँचल में मुँह ढाँक कर सो। वह तेरी माँ होगी। मेरी कोई नहीं है। तू उसकी गालियाँ सुन। मैं क्यों सुनूँ? एक रोटी खाती हूँ, तो चार रोटी का काम करती हूँ। क्यों किसी की धौंस सहूँ? मैं तेरा एक पीतल का छल्ला भी तो नहीं जानती!' राहगीरों को इस कलह में अभिनय का आनंद आ रहा था, मगर उसके जल्द समाप्त होने की कोई आशा न थी। मंजिल खोटी होती थी। एक-एक करके लोग खिसकने लगे। गोबर को पुरुष की निर्दयता बुरी लग रही थी। भीड़ के सामने तो कुछ न कह सकता था। मैदान खाली हुआ तो बोला - भाई, मर्द और औरत के बीच में बोलना तो न चाहिए, मगर इतनी बेदरदी भी अच्छी नहीं होती। पुरुष ने कौड़ी की-सी आँखें निकाल कर कहा - तुम कौन हो? गोबर ने नि:शंक भाव से कहा - मैं कोई हूँ, लेकिन अनुचित बात देख कर सभी को बुरा लगता है। पुरुष ने सिर हिला कर कहा - मालूम होता है, अभी मेहरिया नहीं आई, तभी इतना दरद है! 'मेहरिया आएगी, तो भी उसके झोटे पकड़ कर न खींचूँगा।' 'अच्छा, तो अपने राह लो। मेरी औरत है, मैं उसे मारूँगा, काटूँगा। तुम कौन होते हो बोलने वाले। चले जाओ सीधे से, यहाँ मत खड़े हो।' गोबर का गर्म खून और गर्म हो गया। वह क्यों चला जाय? सड़क सरकार की है। किसी के बाप की नहीं है। वह जब तक चाहे, वहाँ खड़ा रह सकता है। वहाँ से उसे हटाने का किसी को अधिकार नहीं है। पुरुष ने होंठ चबा कर कहा - तो तुम न जाओगे? आऊँ? गोबर ने अँगोछा कमर में बाँध लिया और समर के लिए तैयार हो कर बोला- तुम आओ या न आओ। मैं तो तभी जाऊँगा, जब मेरी इच्छा होगी। 'तो मालूम होता है, हाथ-पैर तुड़ा के जाओगे?' 'यह कौन जानता है, किसके हाथ-पाँव टूटेंगे।' 'तो तुम न जाओगे?' 'ना।' पुरुष मुट्ठी बाँध कर गोबर की ओर झपटा। उसी क्षण युवती ने उसकी धोती पकड़ ली और उसे अपनी ओर खींचती हुई गोबर से बोली - तुम क्यों लड़ाई करने पर उतारू हो रहे हो जी, अपने राह क्यों नहीं जाते? यहाँ कोई तमासा है? हमारा आपस का झगड़ा है। कभी वह मुझे मारता है, कभी मैं उसे डाँटती हूँ। तुमसे मतलब? गोबर यह धिक्कार पा कर चलता बना। दिल में कहा - यह औरत मार खाने ही लायक है। गोबर आगे निकल गया, तो युवती ने पति को डाँटा - तुम सबसे लड़ने क्यों लगते हो? उसने कौन-सी बुरी बात कही थी कि तुम्हें चोट लग गई। बुरा काम करोगे, तो दुनिया बुरा कहेगी ही, मगर है किसी भले घर का और अपने बिरादरी का ही जान पड़ता है। क्यों उसे अपने बहन के लिए नहीं ठीक कर लेते? पति ने संदेह के स्वर में कहा - क्या अब तक कुँआरा बैठा होगा? 'तो पूछ ही क्यों न लो?' पुरुष ने दस कदम दौड़ कर गोबर को आवाज दी और हाथ से ठहर जाने का इशारा किया। गोबर ने समझा, शायद फिर इसके सिर भूत सवार हुआ, तभी ललकार रहा है। मार खाए बगैर न मानेगा। अपने गाँव में कुत्ता भी शेर हो जाता है, लेकिन आने दो। लेकिन उसके मुख पर समर की ललकार न थी, मैत्री का निमंत्रण था। उसने गाँव और नाम और जात पूछी। गोबर ने ठीक-ठीक बता दिया। उस पुरुष का नाम कोदई था। कोदई ने मुस्करा कर कहा - हम दोनों में लड़ाई होते-होते बची। तुम चले आए, तो मैंने सोचा, तुमने ठीक ही कहा - मैं हक-नाहक तुमसे तन बैठा। कुछ खेती-बारी घर में होती है न? गोबर ने बताया - उसके मौरूसी पाँच बीघे खेत हैं और एक हल की खेती होती है। 'मैंने तुम्हें जो भला-बुरा कहा है, उसकी माफी दे दो भाई! क्रोध में आदमी अंधा हो जाता है। औरत गुन-सहूर में लच्छमी है, मुदा कभी-कभी न जाने कौन-सा भूत इस पर सवार हो जाता है। अब तुम्हीं बताओ, माता पर मेरा क्या बस है? जनम तो उन्हीं ने दिया है, पाला-पोसा तो उन्होंने है। जब कोई बात होगी, तो मैं जो कुछ कहूँगा, लुगाई ही से कहूँगा। उस पर अपना बस है। तुम्हीं सोचो, मैं कुपद तो नहीं कह रहा हूँ? हाँ, मुझे उसके बाल पकड़ कर घसीटना न था, लेकिन औरत जात बिना कुछ ताड़ना दिए काबू में भी तो नहीं रहती। चाहती है, माँ से अलग हो जाऊँ। तुम्हीं सोचो, कैसे अलग हो जाऊँ और किससे अलग हो जाऊँ! अपनी माँ से? जिसने जनम दिया? यह मुझसे न होगा। औरत रहे या जाए।' गोबर को भी राय बदलनी पड़ी। बोला - माता का आदर करना तो सबका धरम ही है भाई। माता से कौन उरिन हो सकता है? कोदई ने उसे अपने घर चलने का नेवता दिया। आज वह किसी तरह लखनऊ नहीं पहुँच सकता। कोस दो-कोस जाते-जाते साँझ हो जायगी। रात को कहीं टिकना ही पड़ेगा। गोबर ने विनोद किया - लुगाई मान गई? 'न मानेगी तो क्या करेगी।' 'मुझे तो उसने ऐसी फटकार बताई कि मैं लजा गया।' 'वह खुद पछता रही है। चलो, जरा माता जी को समझा देना। मुझसे तो कुछ कहते नहीं बनता। उन्हें भी सोचना चाहिए कि बहू को बाप-माई की गाली क्यों देती है। हमारी भी बहन है। चार दिन में उसकी सगाई हो जायगी। उसकी सास हमें गालियाँ देगी, तो उससे सुना न जायगा? सब दोस लुगाई ही का नहीं है। माता का भी दोस है। जब हर बात में वह अपनी बेटी का पच्छ करेंगी, तो हमें बुरा लगेगा ही। इसमें इतनी बात अच्छी है कि घर से रूठ कर चली जाय, पर गाली का जवाब गाली से नहीं देती।' गोबर को रात के लिए कोई ठिकाना चाहिए था ही। कोदई के साथ हो लिया। दोनों फिर उसी जगह आए, जहाँ युवती बैठी हुई थी। वह अब गृहिणी बन गई थी। जरा-सा घूँघट निकाल लिया था और लजाने लगी थी। कोदई ने मुस्करा कर कहा - यह तो आते ही न थे। कहते थे, ऐसी डाँट सुनने के बाद उनके घर कैसे जायँ? युवती ने घूँघट की आड़ से गोबर को देख कर कहा - इतनी ही डाँट में डर गए? लुगाई आ जायगी, तब कहाँ भागोगे? गाँव समीप ही था। गाँव क्या था, पुरवा था, दस-बारह घरों का, जिसमें आधे खपरैल के थे, आधे फूस के। कोदई ने अपने घर पहुँच कर खाट निकाली, उस पर एक दरी डाल दी, शर्बत बनाने को कह, चिलम भर लाया। और एक क्षण में वही युवती लोटे में शर्बत ले कर आई और गोबर को पानी का एक छींटा मार कर मानो क्षमा माँग ली। वह अब उसका ननदोई हो रहा था। फिर क्यों न अभी से छेड़-छाड़ शुरू कर दे। गोबर अँधेरे ही मुँह उठा और कोदई से बिदा माँगी। सबको मालूम हो गया था कि उसका ब्याह हो चुका है, इसलिए उससे कोई विवाह-संबंधी चर्चा नहीं की। उसके शील-स्वभाव ने सारे घर को मुग्ध कर लिया था। कोदई की माता को तो उसने ऐसे मीठे शब्दों में और उसके मातृपद की रक्षा करते हुए, ऐसा उपदेश दिया कि उसने प्रसन्न हो कर आशीर्वाद दिया था। तुम बड़ी हो माता जी, पूज्य हो। पुत्र माता के रिन से सौ जनम ले कर भी उरिन नहीं हो सकता, लाख जनम ले कर भी उरिन नहीं हो सकता। करोड़ जनम ले कर भी नहीं...' बुढ़िया इस संख्यातीत श्रद्धा पर गदगद हो गई। इसके बाद गोबर ने जो कुछ कहा - उसमें बुढ़िया को अपना मंगल ही दिखाई दिया। वैद्य एक बार रोगी को चंगा कर दे, फिर रोगी उसके हाथों विष भी खुशी से पी लेगा? अब जैसे आज ही बहू घर से रूठ कर चली गई, तो किसकी हेठी हुई। बहू को कौन जानता है? किसकी लड़की है, किसकी नातिन है, कौन जानता है। संभव है, उसका बाप घसियारा ही रहा हो...। बुढ़िया ने निश्चयात्मक भाव से कहा - घसियारा तो है ही बेटा, पक्का घसियारा। सबेरे उसका मुँह देख लो, तो दिन-भर पानी न मिले। गोबर बोला - तो ऐसे आदमी की क्या हँसी हो सकती है! हँसी हुई तुम्हारी और तुम्हारे आदमी की। जिसने पूछा, यही पूछा कि किसकी बहू है? फिर यह अभी लड़की है, अबोध, अल्हड़। नीच माता-पिता की लड़की है, अच्छी कहाँ से बन जाय! तुमको तो बूढ़े तोते को राम-नाम पढ़ाना पड़ेगा। मारने से तो वह पढ़ेगा नहीं, उसे तो सहज स्नेह ही से पढ़ाया जा सकता है। ताड़ना भी दो, लेकिन उसके मुँह मत लगो। उसका तो कुछ नहीं बिगड़ता, तुम्हारा अपमान होता है। जब गोबर चलने लगा, तो बुढ़िया ने खाँड़ और सत्तू मिला कर उसे खाने को दिया। गाँव के और कई आदमी मजूरी की टोह में शहर जा रहे थे। बातचीत में रास्ता कट गया और नौ बजते-बजते सब लोग अमीनाबाद के बाजार में आ पहुँचे। गोबर हैरान था, इतने आदमी नगर में कहाँ से आ गए? आदमी पर आदमी गिरा पड़ता था। उस दिन बाजार में चार-पाँच सौ मजदूरों से कम न थे। राज और बढ़ई और लोहार और बेलदार और खाट बुनने वाले और टोकरी ढोने वाले और संगतराश सभी जमा थे। गोबर यह जमघट देख कर निराश हो गया। इतने सारे मजदूरों को कहाँ काम मिला जाता है। और उसके हाथ तो कोई औजार भी नहीं है। कोई क्या जानेगा कि वह क्या काम कर सकता है। कोई उसे क्यों रखने लगा? बिना औजार के उसे कौन पूछेगा? धीरे-धीरे एक-एक करके मजदूरों को काम मिलता जा रहा था। कुछ लोग निराश हो कर घर लौटे जा रहे थे। अधिकतर वह बूढ़े और निकम्मे बच रहे थे, जिनका कोई पुछत्तर न था। और उन्हीं में गोबर भी था। लेकिन अभी आज उसके पास खाने को है। कोई गम नहीं। सहसा मिर्जा खुर्शेद ने मजदूरों के बीच में आ कर ऊँची आवाज से कहा - जिसको छ: आने रोज पर काम करना हो, वह मेरे साथ आए। सबको छ: आने मिलेंगे। पाँच बजे छुट्टी मिलेगी। दस-पाँच राजों और बढ़इयों को छोड़ कर सब-के-सब उनके साथ चलने को तैयार हो गए। चार सौ फटे हालों की एक विशाल सेना सज गई। आगे मिर्जा थे, कंधों पर मोटा सोटा रखे हुए। पीछे भुखमरों की लंबी कतार थी, जैसे भेड़ें हों। एक बूढ़े ने मिर्जा से पूछा - कौन काम करना है मालिक? मिर्जा ने जो काम बतलाया, उस पर सब और भी चकित हो गए? केवल एक कबड्डी खेलना! यह कैसा आदमी है, जो कबड्डी खेलने के छ: आना रोज दे रहा है। सनकी तो नहीं है कोई! बहुत धन पा कर आदमी सनक ही जाता है। बहुत पढ़ लेने से भी आदमी पागल हो जाते हैं। कुछ लोगों को संदेह होने लगा, कहीं यह कोई मखौल तो नहीं है! यहाँ से घर पर ले जा कर कह दे, कोई काम नहीं है, तो कौन इसका क्या कर लेगा! वह चाहे कबड्डी खेलाए, चाहे आँख मिचौनी, चाहे गुल्ली-डंडा, मजूरी पेशगी दे दे। ऐसे झक्कड़ आदमी का क्या भरोसा! गोबर ने डरते-डरते कहा - मालिक, हमारे पास कुछ खाने को नहीं है। पैसे मिल जायँ तो कुछ ले कर खा लूँ। मिर्जा ने झट छ: आने पैसे उसके हाथ में रख दिए और ललकार कर बोले - मजूरी सबको चलते-चलते पेशगी दे दी जायगी। इसकी चिंता मत करो। मिर्जा साहब ने शहर के बाहर थोड़ी-सी जमीन ले रखी थी। मजूरों ने जा कर देखा, तो एक बड़ा अहाता घिरा हुआ था और उसके अंदर केवल एक छोटी-सी फूस की झोपड़ी थी, जिसमें तीन-चार कुर्सियाँ थीं, एक मेज। थोड़ी-सी किताबें मेज पर रखी हुई थीं। झोपड़ी बेलों और लताओं से ढकी हुई बहुत सुंदर लगती थी। अहाते में एक तरफ आम और नींबू और अमरूद के पौधे लगे हुए थे, दूसरी तरफ कुछ फूल। बड़ा हिस्सा परती था। मिर्जा ने सबको कतार में खड़ा करके पहले ही मजूरी बाँट दी। अब किसी को उनके पागलपन में संदेह न रहा। गोबर पैसे पहले ही पा चुका था, मिर्जा ने उसे बुला कर पौधे सींचने का काम सौंपा। उसे कबड्डी खेलने को न मिलेगी। मन में ऐंठ कर रह गया। इन बुड्ढों को उठा-उठा कर पटकता, लेकिन कोई परवाह नहीं। बहुत कब्ड्डी खेल चुका है। पैसे तो पूरे मिल गए। आज युगों के बाद इन जरा-ग्रस्तों को कबड्डी खेलने का सौभाग्य मिला। अधिकतर तो ऐसे थे, जिन्हें याद भी न आता था कि कभी कबड्डी खेली है या नहीं। दिनभर शहर में पिसते थे। पहर रात गए घर पहुँचते थे और जो कुछ रूखा मिल जाता था, खा कर पड़े रहते थे। प्रात:काल फिर वही चरखा शुरू हो जाता था। जीवन नीरस, निरानंद, केवल एक ढर्रा मात्र हो गया था। आज तो एक यह अवसर मिला, तो बूढ़े भी जवान हो गए। अधमरे बूढ़े, ठठरियाँ लिए, मुँह में दाँत न पेट में आँत, जाँघ के ऊपर धोतियाँ या तहमद चढ़ाए ताल ठोंक-ठोंक कर उछल रहे थे, मानो उन बूढ़ी हड्डियों में जवानी धँस पड़ी हो। चटपट पाली बन गई, दो नायक बन गए। गोइयों का चुनाव होने लगा और बारह बजते-बजते खेल शुरू हो गया। जाड़ों की ठंडी धूप ऐसी क्रीड़ाओं के लिए आदर्श ॠतु है। इधर अहाते के फाटक पर मिर्जा साहब तमाशाइयों को टिकट बाँट रहे थे। उन पर इस तरह कोई-न-कोई सनक हमेशा सवार रहती थी। अमीरों से पैसा ले कर गरीबों को बाँट देना। इस बूढ़ी कबड्डी का विज्ञापन कई दिन से हो रहा था। बड़े-बड़े पोस्टर चिपकाए गए थे, नोटिस बाँटे गए थे। यह खेल अपने ढंग का निराला होगा, बिलकुल अभूतपूर्व। भारत के बूढ़े आज भी कैसे पोढ़े हैं, जिन्हें यह देखना हो, आएँ और अपने आँखें तृप्त कर लें। जिसने यह तमाशा न देखा, वह पछताएगा। ऐसा सुअवसर फिर न मिलेगा। टिकट दस रुपए से ले कर दो आने तक के थे। तीन बजते-बजते सारा अहाता भर गया। मोटरों और फिटनों का ताँता लगा हुआ था। दो हजार से कम की भीड़ न थी। रईसों के लिए कुर्सियों और बेंचों का इंतजाम था। साधारण जनता के लिए साफ-सुथरी जमीन। मिस मालती, मेहता, खन्ना, तंखा और रायसाहब सभी विराजमान थे। खेल शुरू हुआ तो मिर्जा ने मेहता से कहा - आइए डाक्टर साहब, एक गोईं हमारी और आपकी हो जाए। मिस मालती बोलीं - फिलासफर का जोड़ फिलासफर ही से हो सकता है। मिर्जा ने मूँछों पर ताव दे कर कहा - तो क्या आप समझती हैं, मैं फिलासफर नहीं हूँ? मेरे पास पुछल्ला नहीं है, लेकिन हूँ मैं फिलासफर, आप मेरा इम्तहान ले सकते हैं मेहता जी! मालती ने पूछा - अच्छा बतलाइए, आप आइडियलिस्ट हैं या मेटीरियलिस्ट? 'मैं दोनों हूँ।' 'यह क्यों कर?' 'बहुत अच्छी तरह। जब जैसा मौका देखा, वैसा बन गया।' 'तो आपका अपना कोई निश्चय नहीं है।' 'जिस बात का आज तक कभी निश्चय न हुआ, और न कभी होगा, उसका निश्चय मैं भला क्या कर सकता हूँ, और लोग आँखें फोड़ कर और किताबें चाट कर जिस नतीजे पर पहुँचे हैं, वहाँ मैं यों ही पहुँच गया। आप बता सकती हैं, किसी फिलासफर ने अक्लीगद्दे लड़ाने के सिवाय और कुछ किया है?' डाक्टर मेहता ने अचकन के बटन खोलते हुए कहा - तो चलिए, हमारी और आपकी हो ही जाय। और कोई माने या न माने, मैं आपको फिलासफर मानता हूँ। मिर्जा ने खन्ना से पूछा - आपके लिए भी कोई जोड़ ठीक करूँ? मालती ने पुचारा दिया - हाँ, हाँ, इन्हें जरूर ले जाइए मिस्टर तंखा के साथ। खन्ना झेंपते हुए बोले - जी नहीं, मुझे क्षमा कीजिए। मिर्जा ने रायसाहब से पूछा - आपके लिए कोई जोड़ लाऊँ? रायसाहब बोले - मेरा जोड़ तो ओंकारनाथ का है, मगर वह आज नजर ही नहीं आते। मिर्जा और मेहता भी नंगी देह, केवल जांघिए पहने हुए मैदान में पहुँच गए। एक इधर दूसरा उधर। खेल शुरू हो गया। जनता बूढ़े कुलेलों पर हँसती थी, तालियाँ बजाती थी, गालियाँ देती थी, ललकारती थी, बाजियाँ लगाती थी। वाह! जरा इन बूढ़े बाबा को देखो! किस शान से जा रहे हैं, जैसे सबको मार कर ही लौटेंगे। अच्छा, दूसरी तरफ से भी उन्हीं के बड़े भाई निकले। दोनों कैसे पैंतरे बदल रहे हैं! इन हयियों में अभी बहुत जान है भाई। इन लोगों ने जितना घी खाया है, उतना अब हमें पानी भी मयस्सर नहीं। लोग कहते हैं, भारत धनी हो रहा है। होता होगा। हम तो यही देखते हैं कि इन बुड्ढों-जैसे जीवट के जवान भी आज मुश्किल से निकलेंगे। वह उधर वाले बुड्ढे ने इसे दबोच लिया। बेचारा छूट निकलने के लिए कितना जोर मार रहा है, मगर अब नहीं जा सकते बच्चा। एक को तीन लिपट गए। इस तरह लोग अपने दिलचस्पी जाहिर कर रहे थे, उनका सारा ध्यान मैदान की ओर था। खिलाड़ियों के आघात-प्रतिघात, उछल-कूद, धर-पकड़ और उनके मरने-जीने में तन्मय हो रहे थे। कभी चारों तरफ से कहकहे पड़ते, कभी कोई अन्याय या धाँधली देख कर लोग छोड़ दो, छोड़ दो' का गुल मचाते। कुछ लोग तैश में आ कर पाली की तरफ दौड़ते, लेकिन जो थोड़े-से सज्जन शामियाने में ऊँचे दरजे के टिकट ले कर बैठे थे, उन्हें इस खेल में विशेष आनंद न मिल रहा था। वे इससे अधिक महत्व की बातें कर रहे थे। खन्ना ने जिंजर का ग्लास खाली करके सिगार सुलगाया और रायसाहब से बोले - मैंने आपसे कह दिया, बैंक इससे कम सूद पर किसी तरह राजी न होगा और यह रिआयत भी मैंने आपके साथ की है, क्योंकि आपके साथ घर का मुआमला है। रायसाहब ने मूँछों में मुस्कराहट को लपेट कर कहा - आपकी नीति में घर वालों को ही उलटे छुरे से हलाल करना चाहिए? 'यह आप क्या फरमा रहे हैं?' 'ठीक कह रहा हूँ। सूर्यप्रताप सिंह से आपने केवल सात फीसदी लिया है, मुझसे नौ फीसदी माँग रहे हैं और उस पर एहसान भी रखते हैं, क्यों न हो!' खन्ना ने कहकहा मारा, मानो यह कथन हँसने के ही योग्य था। 'उन शर्तों पर मैं आपसे भी वही सूद ले लूँगा। हमने उनकी जायदाद रेहन रख ली है और शायद यह जायदाद फिर उनके हाथ न जायगी।' 'मैं भी अपने कोई जायदाद निकाल दूँगा। नौ परसेंट देने से यह कहीं अच्छा है कि फालतू जायदाद अलग कर दूँ। मेरी जैकसन रोड वाली कोठी आप निकलवा दें। कमीशन ले लीजिएगा।' 'उस कोठी का सुभीते से निकलना जरा मुश्किल है। आप जानते हैं, वह जगह बस्ती से कितनी दूर है, मगर खैर, देखूँगा। आप उसकी कीमत का क्या अंदाजा करते हैं?' रायसाहब ने एक लाख पच्चीस हजार बताए। पंद्रह बीघे जमीन भी तो है उसके साथ। खन्ना स्तंभित हो गए। बोले - आप आज से पंद्रह साल पहले का स्वप्न देख रहे हैं रायसाहब! आपको मालूम होना चाहिए कि इधर जायदादों के मूल्य में पचास परसेंट की कमी हो गई है। रायसाहब ने बुरा मान कर कहा - जी नहीं, पद्रंह साल पहले उसकी कीमत डेढ़ लाख थी। 'मैं खरीदार की तलाश में रहूँगा, मगर मेरा कमीशन पाँच प्रतिशत होगा आपसे।' 'औरों से शायद दस प्रतिशत हो क्यों, क्या करोगे इतने रुपए ले कर?' 'आप जो चाहें दे दीजिएगा। अब तो राजी हुए। शुगर के हिस्से अभी तक आपने न खरीदे? अब बहुत थोड़े-से हिस्से बच रहे हैं। हाथ मलते रह जाइएगा। इंश्योरेंस की पॉलिसी भी आपने न ली। आपमें टाल-मटोल की बुरी आदत है। जब अपने लाभ की बातों का इतना टाल-मटोल है, तब दूसरों को आप लोगों से क्या लाभ हो सकता है! इसी से कहते हैं, रियासत आदमी की अक्ल चर जाती है। मेरा बस चले तो मैं ताल्लुकेदारों की रियासतें जब्त कर लूँ।' मिस्टर तंखा मालती पर जाल फेंक रहे थे। मालती ने साफ कह दिया था कि वह एलेक्शन के झमेले में नहीं पड़ना चाहती, पर तंखा आसानी से हार मानने वाले व्यक्ति न थे। आ कर कुहनियों के बल मेज पर टिक कर बोले - आप जरा उस मुआमले पर फिर विचार करें। मैं कहता हूँ, ऐसा मौका शायद आपको फिर न मिले। रानी साहब चंदा को आपके मुकाबले में रुपए में एक आना भी चांस नहीं है। मेरी इच्छा केवल यह है कि कौंसिल में ऐसे लोग जायँ, जिन्होंने जीवन में कुछ अनुभव प्राप्त किया और जनता की कुछ सेवा की है। जिस महिला ने भोग-विलास के सिवा कुछ जाना ही नहीं, जिसने जनता को हमेशा अपनी कार का पेट्रोल समझा, जिसकी सबसे मूल्यवान सेवा वे पार्टियाँ हैं, जो वह गर्वनरों और सेक्रेटरियों को दिया करती हैं, उनके लिए इस कौंसिल में स्थान नहीं है। नई कौंसिल में बहुत कुछ अधिकार प्रतिनिधियों के हाथ में होगा और मैं नहीं चाहता कि वह अधिकार अनाधिकारियों के हाथ में जाय। मालती ने पीछा छुड़ाने के लिए कहा - लेकिन साहब, मेरे पास दस-बीस हजार एलेक्शन पर खर्च करने के लिए कहाँ हैं? रानी साहब तो दो-चार लाख खर्च कर सकती हैं। मुझे भी साल में हजार-पाँच सौ रुपए उनसे मिल जाते हैं, यह रकम भी हाथ से निकल जायगी। 'पहले आप यह बता दें कि आप जाना चाहती हैं या नहीं?' 'जाना तो चाहती हूँ, मगर फ्री पास मिल जाय!' 'तो यह मेरा जिम्मा रहा। आपको फ्री पास मिल जायगा।' 'जी नहीं, क्षमा कीजिए। मैं हार की जिल्लत नहीं उठाना चाहती। जब रानी साहब रुपए की थैलियाँ खोल देंगी और एक-एक वोट पर अशर्फी चढ़ने लगेगी, तो शायद आप भी उधर वोट देंगे।' 'आपके खयाल में एलेक्शन महज रुपए से जीता जा सकता है?' 'जी नहीं, व्यक्ति भी एक चीज है। लेकिन मैंने केवल एक बार जेल जाने के सिवा और क्या जन-सेवा की है? और सच पूछिए तो उस बार भी मैं अपने मतलब ही से गई थी, उसी तरह जैसे रायसाहब और खन्ना गए थे। इस नई सभ्यता का आधार धन है। विद्या और सेवा और कुल जाति सब धन के सामने हेच हैं। कभी-कभी इतिहास में ऐसे अवसर आ जाते हैं, जब धन को आंदोलन के सामने नीचा देखना पड़ता है, मगर इसे अपवाद समझिए। मैं अपनी ही बात कहती हूँ। कोई गरीब औरत दवाखाने में आ जाती है, तो घंटों उससे बोलती तक नहीं। पर कोई महिला कार पर आ गई, तो द्वार तक जा कर उसका स्वागत करती हूँ और उसकी ऐसी उपासना करती हूँ, मानों साक्षात देवी हैं। मेरा और रानी साहब का कोई मुकाबला नहीं। जिस तरह के कौंसिल बन रहे हैं, उनके लिए रानी साहब ही ज्यादा उपयुक्त हैं। उधर मैदान में मेहता की टीम कमजोर पड़ती जाती थी। आधे से ज्यादा खिलाड़ी मर चुके थे। मेहता ने अपने जीवन में कभी कबड्डी न खेली थी। मिर्जा इस फन के उस्ताद थे। मेहता की तातीलें अभिनय के अभ्यास में कटती थीं। रूप भरने में वह अच्छे-अच्छों को चकित कर देते थे। और मिर्जा के लिए सारी दिलचस्पी अखाड़े में थी, पहलवानों के भी और परियों के भी। मालती का ध्यान उधर भी लगा हुआ था। उठ कर रायसाहब से बोली - मेहता की पार्टी तो बुरी तरह पिट रही है। रायसाहब और खन्ना में इंश्योरेंस की बातें हो रही थीं। रायसाहब उस प्रसंग से ऊबे हुए मालूम होते थे। मालती ने मानो उन्हें एक बंधन से मुक्त कर दिया। उठ कर बोले - जी हाँ, पिट तो रही है। मिर्जा पक्का खिलाड़ी है। 'मेहता को यह क्या सनक सूझी। व्यर्थ अपनी भद्द करा रहे हैं।' 'इसमें काहे की भद्द? दिल्लगी ही तो है।' 'मेहता की तरफ से जो बाहर निकलता है, वही मर जाता है।' एक क्षण के बाद उसने पूछा - क्या इस खेल में हाफटाइम नहीं होता? खन्ना को शरारत सूझी। बोले - आप चले थे मिर्जा से मुकाबला करने। समझते थे, यह भी फिलॉसफी है। 'मैं पूछती हूँ, इस खेल में हाफटाइम नहीं होता?' खन्ना ने फिर चिढ़ाया - अब खेल ही खतम हुआ जाता है। मजा आएगा तब, जब मिर्जा मेहता को दबोच कर रगड़ेंगे और मेहता साहब चीं बोलेंगे। 'मैं तुमसे नहीं पूछती। रायसाहब से पूछती हूँ।' रायसाहब बोले - इस खेल में हाफटाइम! एक ही एक आदमी तो सामने आता है। 'अच्छा, मेहता का एक आदमी और मर गया।' खन्ना बोले - आप देखती रहिए। इसी तरह सब मर जाएँगे और आखिर में मेहता साहब भी मरेंगे। मालती जल गई - आपकी तो हिम्मत न पड़ी बाहर निकलने की। 'मैं गँवारों के खेल नहीं खेलता। मेरे लिए टेनिस है।' 'टेनिस में भी मैं तुम्हें सैकड़ों गेम दे चुकी हूँ।' 'आपसे जीतने का दावा ही कब है?' 'अगर दावा हो, तो मैं तैयार हूँ।' मालती उन्हें फटकार बता कर फिर अपनी जगह पर आ बैठी। किसी को मेहता से हमदर्दी नहीं है। कोई यह नहीं कहता कि अब खेल खत्म कर दिया जाए। मेहता भी अजीब बुद्धू आदमी हैं, कुछ धाँधली क्यों नहीं कर बैठते। यहाँ भी अपनी न्यायप्रियता दिखा रहे हैं। अभी हार कर लौटेंगे तो चारों तरफ से तालियाँ पड़ेंगी। अब शायद बीस आदमी उनकी तरफ और होंगे और लोग कितने खुश हो रहे हैं। ज्यों-ज्यों अंत समीप आता जाता था, लोग अधीर होते जाते थे और पाली की तरफ बढ़ते जाते थे। रस्सी का जो एक कठघरा-सा बनाया गया था, वह तोड़ दिया गया। स्वयं-सेवक रोकने की चेष्टा कर रहे थे, पर उस उत्सुकता के उन्माद में उनकी एक न चलती थी। यहाँ तक कि ज्वार अंतिम बिंदु तक आ पहुँचा और मेहता अकेले बच गए और अब उन्हें गूँगे का पार्ट खेलना पड़ेगा। अब सारा दारमदार उन्हीं पर है, अगर वह बच कर अपनी पाली में लौट आते हैं, तो उनका पक्ष बचता है। नहीं, हार का सारा अपमान और लज्जा लिए हुए उन्हें लौटना पड़ता है, वह दूसरे पक्ष के जितने आदमियों को छू कर अपनी पाली में आएँगे, वह सब मर जाएँगे और उतने ही आदमी उनकी तरफ जी उठेंगे। सबकी आँखें मेहता को ओर लगी हुई थीं। वह मेहता चले। जनता ने चारों ओर से आ कर पाली को घेर लिया। तन्मयता अपनी पराकाष्ठा पर थी। मेहता कितने शांत भाव से शत्रुओं की ओर जा रहे हैं। उनकी प्रत्येक गति जनता पर प्रतिबिबिंत हो जाती है, किसी की गर्दन टेढ़ी हुई जाती है, कोई आगे को झुक पड़ता है। वातावरण गर्म हो गया। पारा ज्वाला-बिंदु पर आ पहुँचा है। मेहता शत्रु-दल में घुसे। दल पीछे हटता जाता है। उनका संगठन इतना दृढ़ है कि मेहता की पकड़ या स्पर्श में कोई नहीं आ रहा है। बहुतों को आशा थी कि मेहता कम-से-कम अपने पक्ष के दस-पाँच आदमियों को तो जिला ही लेंगे, वे निराश होते जा रहे हैं। सहसा मिर्जा एक छलांग मारते हैं और मेहता की कमर पकड़ लेते हैं। मेहता अपने को छुड़ाने के लिए जोर मार रहे हैं। मिर्जा को पाली की तरफ खींचे लिए आ रहे हैं। लोग उन्मत्त हो जाते हैं। अब इसका पता चलना मुश्किल है कि कौन खिलाड़ी है, कौन तमाशाई। सब एक में गडमड हो गए हैं। मिर्जा और मेहता में मल्लयुद्द हो रहा है। मिर्जा के कई बुड्ढे मेहता की तरफ लपके और उनसे लिपट गए। मेहता जमीन पर चुपचाप पड़े हुए हैं, अगर वह किसी तरह खींच-खाँच कर दो हाथ और ले जायँ, तो उनके पचासों आदमी जी उठते हैं, मगर एक वह इंच भी नहीं खिसक सकते। मिर्जा उनकी गर्दन पर बैठे हुए हैं। मेहता का मुख लाल हो रहा है। आँखें बीर-बहूटी बनी हुई हैं। पसीना टपक रहा है, और मिर्जा अपने स्थूल शरीर का भार लिए उनकी पीठ पर हुमच रहे हैं। मालती ने समीप जा कर उत्तेजित स्वर में कहा - मिर्जा खुर्शेद, यह फेयर नहीं है। बाजी ड्रान रही। खुर्शेद ने मेहता की गर्दन पर एक घस्सा लगा कर कहा - जब तक यह 'चीं' न बोलेंगे, मैं हरगिज न छोड़ूँगा। क्यों नहीं 'चीं'' बोलते? मालती और आगे बढ़ी - 'चीं' बुलाने के लिए आप इतनी जबरदस्ती नहीं कर सकते। मिर्जा ने मेहता की पीठ पर हुमच कर कहा - बेशक कर सकता हूँ। आप इनसे कह दें, 'चीं'' बोलें, मैं अभी उठा जाता हूँ। मेहता ने एक बार फिर उठने की चेष्टा की, पर मिर्जा ने उनकी गर्दन दबा दी। मालती ने उनका हाथ पकड़ कर घसीटने की कोशिश करके कहा - यह खेल नहीं, अदावत है। 'अदावत ही सही।' 'आप न छोड़ेंगे?' उसी वक्त जैसे कोई भूकंप आ गया। मिर्जा साहब जमीन पर पड़े हुए थे और मेहता दौड़े हुए पाली की ओर भागे जा रहे थे और हजारों आदमी पागलों की तरह टोपियाँ और पगड़ियाँ और छड़ियाँ उछाल रहे थे। कैसे यह कायापलट हुई, कोई समझ न सका। मिर्जा ने मेहता को गोद में उठा लिया और लिए हुए शामियाने तक आए। प्रत्येक मुख पर यह शब्द थे - डाक्टर साहब ने बाजी मार ली। और प्रत्येक आदमी इस हारी हुई बाजी के एकबारगी पलट जाने पर विस्मित था। सभी मेहता के जीवट और दम और धैर्य का बखान कर रहे थे। मजदूरों के लिए पहले से नारंगियाँ मँगा ली गई थीं। उन्हें एक-एक नारंगी दे कर विदा किया गया। शामियाने में मेहमानों के चाय-पानी का आयोजन था। मेहता और मिर्जा एक ही मेज पर आमने-सामने बैठे। मालती मेहता के बगल में बैठी। मेहता ने कहा - मुझे आज एक नया अनुभव हुआ। महिला की सहानुभूति हार को जीत बना सकती है। मिर्जा ने मालती की ओर देखा - अच्छा! यह बात थी। जभी तो मुझे हैरत हो रही थी कि आप एकाएक कैसे ऊपर आ गए। मालती शर्म से लाल हुई जाती थी। बोली - आप बड़े बेमुरौवत आदमी हैं मिर्जा जी! मुझे आज मालूम हुआ। 'कुसूर इनका था। यह क्यों 'चीं' नहीं बोलते थे?' 'मैं तो 'चीं' न बोलता, चाहे आप मेरी जान ही ले लेते।' कुछ देर मित्रों में गपशप होती रही। फिर धन्यवाद के और मुबारकवाद के भाषण हुए और मेहमान लोग विदा हुए। मालती को भी एक विजिट करनी थी। वह भी चली गई। केवल मेहता और मिर्जा रह गए। उन्हें अभी स्नान करना था। मिट्टी में सने हुए थे। कपड़े कैसे पहनते? गोबर पानी खींच लाया और दोनों दोस्त नहाने लगे। मिर्जा ने पूछा - शादी कब तक होगी? मेहता ने अचंभे में आ कर पूछा - किसकी? 'आपकी।' 'मेरी शादी। किसके साथ हो रही है?' 'वाह! आप तो ऐसा उड़ रहे हैं, गोया यह भी छिपाने की बात है।' 'नहीं-नहीं, मैं सच कहता हूँ, मुझे बिलकुल खबर नहीं है। क्या मेरी शादी होने जा रही है?' 'और आप क्या समझते हैं, मिस मालती आपकी कंपेनियन बन कर रहेंगी?' मेहता गंभीर भाव से बोले - आपका खयाल बिलकुल गलत है मिर्जा जी! मिस मालती हसीन हैं, खुशमिजाज हैं, समझदार हैं, रोशनखयाल हैं और भी उनमें कितनी खूबियाँ हैं, लेकिन मैं अपने जीवन-संगिनी में जो बात देखना चाहता हूँ, वह उनमें नहीं है और न शायद हो सकती है। मेरे जेहन में औरत वफा और त्याग की मूर्ति है, जो अपनी बेजबानी से, अपनी कुर्बानी से, अपने को बिलकुल मिटा कर पति की आत्मा का एक अंश बन जाती है। देह पुरुष की रहती है पर आत्मा स्त्री की होती है। आप कहेंगे, मर्द अपने को क्यों नहीं मिटाता? औरत ही से क्यों इसकी आशा करता है? मर्द में वह सामर्थ्य ही नहीं है। वह अपने को मिटाएगा, तो शून्य हो जायगा। वह किसी खोह में जा बैठेगा और सर्वात्मा में मिल जाने का स्वप्न देखेगा। वह तेज प्रधान जीव है, और अहंकार में यह समझ कर कि वह ज्ञान का पुतला है, सीधा ईश्वर में लीन होने की कल्पना किया करता है। स्त्री पृथ्वी की भाँति धैर्यवान है, शांति-संपन्न है, सहिष्णु है। पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं, तो वह महात्मा बन जाता है। नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैं, तो वह कुलटा हो जाती है। पुरुष आकर्षित होता है स्त्री की ओर, जो सर्वांश में स्त्री हो। मालती ने अभी तक मुझे आकर्षित नहीं किया। मैं आपसे किन शब्दों में कहूँ कि स्त्री मेरी नजरों में क्या है। संसार में जो कुछ सुंदर है, उसी की प्रतिमा को मैं स्त्री कहता हूँ, मैं उससे यह आशा रखता हूँ कि मैं उसे मार ही डालूँ तो भी प्रतिहिंसा का भाव उसमें न आए। अगर मैं उसकी आँखों के सामने किसी स्त्री को प्यार करूँ तो भी उसकी ईर्ष्या न जागे। ऐसी नारी पा कर मैं उसके चरणों में गिर पड़ूँगा और उस पर अपने को अर्पण कर दूँगा। मिर्जा ने सिर हिला कर कहा - ऐसी औरत आपको इस दुनिया में तो शायद ही मिले। मेहता ने हाथ मार कर कहा - एक नहीं हजारों, वरना दुनिया वीरान हो जाती। 'ऐसी एक ही मिसाल दीजिए।' 'मिसेज खन्ना को ही ले लीजिए।' 'लेकिन खन्ना!' 'खन्ना अभागे हैं, जो हीरा पा कर काँच का टुकड़ा समझ रहे हैं। सोचिए, कितना त्याग है और उसके साथ ही कितना प्रेम है। खन्ना के रूपासक्त मन में शायद उसके लिए रत्ती-भर भी स्थान नहीं है, लेकिन आज खन्ना पर कोई आगत आ जाय, तो वह अपने को उन पर न्योछावर कर देगी। खन्ना आज अंधे या कोढ़ी हो जायँ, तो भी उसकी वफादारी में फर्क न आएगा। अभी खन्ना उसकी कद्र नहीं कर रहे हैं, मगर आप देखेंगे, एक दिन यही खन्ना उसके चरण धो-धो कर पिएँगे। मैं ऐसी बीबी नहीं चाहता, जिससे मैं आइंस्टीन के सिद्धांत पर बहस कर सकूँ, या जो मेरी रचनाओं के प्रूफ देखा करे। मैं ऐसी औरत चाहता हूँ, जो मेरे जीवन को पवित्र और उज्ज्वल बना दे, अपने प्रेम और त्याग से।' खुर्शेद ने दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए जैसे कोई भूली हुई बात याद करके कहा - आपका खयाल बहुत ठीक है मिस्टर मेहता! ऐसी औरत अगर कहीं मिल जाय, तो मैं भी शादी कर लूँ, लेकिन मुझे उम्मीद नहीं है कि मिले। मेहता ने हँस कर कहा - आप भी तलाश में रहिए, मैं भी तलाश में हूँ। शायद कभी तकदीर जागे। 'मगर मिस मालती आपको छोड़ने वाली नहीं। कहिए लिख दूँ।' 'ऐसी औरतों से मैं केवल मनोरंजन कर सकता हूँ, ब्याह नहीं। ब्याह तो आत्मसमर्पण है।' 'अगर ब्याह आत्मसमर्पण है तो प्रेम क्या है?' 'प्रेम जब आत्मसमर्पण का रूप लेता है, तभी ब्याह है, उसके पहले ऐयाशी है।' मेहता ने कपड़े पहने और विदा हो गए। शाम हो गई थी। मिर्जा ने जा कर देखा, तो गोबर अभी तक पेड़ों को सींच रहा था। मिर्जा ने प्रसन्न हो कर कहा - जाओ, अब तुम्हारी छुट्टी है। कल फिर आओगे? गोबर ने कातर भाव से कहा - मैं कहीं नौकरी करना चाहता हूँ मालिक। 'नौकरी करना है, तो हम तुझे रख लेंगे।' 'कितना मिलेगा हुजूर?' 'जितना तू माँगे।' 'मैं क्या माँगूँ। आप जो चाहे दे दें।' 'हम तुम्हें पंद्रह रुपए देंगे और खूब कस कर काम लेंगे।' गोबर मेहनत से नहीं डरता। उसे रुपए मिलें, तो वह आठों पहर काम करने को तैयार है। पंद्रह रुपए मिलें, तो क्या पूछना। वह तो प्राण भी दे देगा। बोला - मेरे लिए कोठरी मिल जाय, वहीं पड़ा रहूँगा। 'हाँ-हाँ, जगह का इंतजाम मैं कर दूँगा। इसी झोंपड़ी में एक किनारे तुम भी पड़े रहना।' गोबर को जैसे स्वर्ग मिल गया। होरी की फसल सारी की सारी डाँड़ की भेंट हो चुकी थी। वैशाख तो किसी तरह कटा, मगर जेठ लगते-लगते घर में अनाज का एक दाना न रहा। पाँच-पाँच पेट खाने वाले और घर में अनाज नदारद। दोनों जून न मिले, एक जून तो मिलना ही चाहिए। भर-पेट न मिले, आधा पेट तो मिले। निराहार कोई कै दिन रह सकता है! उधार ले तो किससे? गाँव के छोटे-बड़े महाजनों से तो मुँह चुराना पड़ता था। मजूरी भी करे, तो किसकी? जेठ में अपना ही काम ढेरों था। ऊख की सिंचाई लगी हुई थी, लेकिन खाली पेट मेहनत भी कैसे हो! साँझ हो गई थी। छोटा बच्चा रो रहा था। माँ को भोजन न मिले, तो दूध कहाँ से निकले? सोना परिस्थिति समझती थी, मगर रूपा क्या समझे। बार-बार रोटी-रोटी चिल्ला रही थी। दिन-भर तो कच्ची अमिया से जी बहला, मगर अब तो कोई ठोस चीज चाहिए। होरी दुलारी सहुआइन से अनाज उधार माँगने गया था, पर वह दुकान बंद करके पैंठ चली गई थी। मँगरू साह ने केवल इनकार ही न किया, लताड़ भी दी - उधार माँगने चले हैं, तीन साल से धेला सूद नहीं दिया, उस पर उधार दिए जाओ। अब आकबत में देंगे। खोटी नीयत हो जाती है, तो यही हाल होता है। भगवान से भी यह अनीति नहीं देखी जाती है। कारकुन की डाँट पड़ी, तो कैसे चुपके से रुपए उगल दिए। मेरे रुपए, रुपए ही नहीं हैं और मेहरिया है कि उसका मिजाज ही नहीं मिलता। वहाँ से रूआँसा हो कर उदास बैठा था कि पुन्नी आग लेने आई। रसोई के द्वार पर जा कर देखा तो अँधेरा पड़ा हुआ था। बोली - आज रोटी नहीं बना रही हो क्या भाभीजी? अब तो बेला हो गई। जब से गोबर भागा था, पुन्नी और धनिया में बोलचाल हो गई थी। होरी का एहसान भी मानने लगी थी। हीरा को अब वह गालियाँ देती थी - हत्यारा, गऊ-हत्या करके भागा। मुँह में कालिख लगी है, घर कैसे आए? और आए भी तो घर के अंदर पाँव न रखने दूँ। गऊ-हत्या करते इसे लाज भी न आई। बहुत अच्छा होता, पुलिस बाँध कर ले जाती और चक्की पिसवाती! धनिया कोई बहाना न कर सकी। बोली - रोटी कहाँ से बने, घर में दाना तो है ही नहीं। तेरे महतो ने बिरादरी का पेट भर दिया, बाल-बच्चे मरें या जिएँ। अब बिरादरी झाँकती तक नहीं। पुनिया की फसल अच्छी हुई थी, और वह स्वीकार करती थी कि यह होरी का पुरुषार्थ है। हीरा के साथ कभी इतनी बरक्कत न हुई थी। बोली - अनाज मेरे घर से क्यों नहीं मँगवा लिया? वह भी तो महतो ही की कमाई है, कि किसी और की? सुख के दिन आएँ, तो लड़ लेना, दु:ख तो साथ रोने ही से कटता है। मैं क्या ऐसी अंधी हूँ कि आदमी का दिल नहीं पहचानती। महतो ने न सँभाला होता, तो आज मुझे कहाँ सरन मिलती? वह उल्टे पाँव लौटी और सोना को भी साथ लेती गई। एक क्षण में दो डल्ले अनाज से भरे ला कर आँगन में रख दिए। दो मन से कम जौ न था। धनिया अभी कुछ कहने न पाई थी कि वह फिर चल दी और एक क्षण में एक बड़ी-सी टोकरी अरहर की दाल से भरी हुई ला कर रख दी और बोली - चलो, मैं आग जलाए देती हूँ। धनिया ने देखा तो जौ के ऊपर एक छोटी-सी डलिया में चार-पाँच सेर आटा भी था। आज जीवन में पहली बार वह परास्त हुई। आँखों में प्रेम और कृतज्ञता के मोती भर कर बोली - सब-का-सब उठा लाई कि घर में कुछ छोड़ा? कहीं भागा जाता था? आँगन में बच्चा खटोले पर पड़ा रो रहा था। पुनिया उसे गोद में ले कर दुलारती हुई बोली - तुम्हारी दया से अभी बहुत है भाभी जी! पंद्रह मन तो जौ हुआ है और दस मन गेहूँ। पाँच मन मटर हुआ, तुमसे क्या छिपाना है। दोनों घरों का काम चल जायगा। दो-तीन महीने में फिर मकई हो जायगी। आगे भगवान मालिक है। झुनिया ने आ कर आँचल से छोटी सास के चरण छुए। पुनिया ने असीस दिया। सोना आग जलाने चली, रूपा ने पानी के लिए कलसा उठाया। रूकी हुई गाड़ी चल निकली। जल में अवरोध के कारण जो चक्कर था, फेन था, शोर था, गति की तीव्रता थी, वह अवरोध के हट जाने से शांत मधुर-ध्वनि के साथ सम, धीमी, एक-रस धार में बहने लगा। पुनिया बोली - महतो को डाँड़ देने की ऐसी जल्दी क्या पड़ी थी? धनिया ने कहा - बिरादरी में सुरखरू कैसे होते? 'भाभी, बुरा न मानो तो, एक बात कहूँ?' 'कह, बुरा क्यों मानूँगी?' 'न कहूँगी, कहीं तुम बिगड़ने न लगो?' 'कहती हूँ, कुछ न बोलूँगी, कह तो।' 'तुम्हें झुनिया को घर में रखना न चाहिए था!' 'तब क्या करती? वह डूब मरती थी।' 'मेरे घर में रख देती। तब तो कोई कुछ न कहता।' 'यह तो तू आज कहती है। उस दिन भेज देती, तो झाड़ू ले कर दौड़ती!' 'इतने खरच में तो गोबर का ब्याह हो जाता।' 'होनहार को कौन टाल सकता है पगली! अभी इतने ही से गला नहीं छूटा, भोला अब अपनी गाय के दाम माँग रहा है। तब तो गाय दी थी कि मेरी सगाई कहीं ठीक कर दो। अब कहता है, मुझे सगाई नहीं करनी, मेरे रुपए दे दो। उसके दोनों बेटे लाठी लिए फिरते हैं। हमारे कौन बैठा है, जो उससे लड़े। इस सत्यानासी गाय ने आ कर घर चौपट कर दिया।' कुछ और बातें करके पुनिया आग ले कर चली गई। होरी सब कुछ देख रहा था। भीतर आ कर बोला - पुनिया दिल की साफ है। 'हीरा भी तो दिल का साफ था?' धनिया ने अनाज तो रख लिया था, पर मन में लज्जित और अपमानित हो रही थी। यह दिनों का फेर है कि आज उसे यह नीचा देखना पड़ा। 'तू किसी का औसान नहीं मानती, यही तुझमें बुराई है।' 'औसान क्यों मानूँ? मेरा आदमी उसकी गिरस्ती के पीछे जान नहीं दे रहा है? फिर मैंने दान थोड़े ही लिया है। उसका एक-एक दाना भर दूँगी।' मगर पुनिया अपने जिठानी के मनोभाव समझ कर भी होरी का एहसान चुकाती जाती थी। जब अनाज चुक जाता, मन-दो-मन दे जाती, मगर जब चौमासा आ गया और वर्षा न हुई तो समस्या अत्यंत जटिल हो गई। सावन का महीना आ गया था और बगुले उठ रहे थे। कुओं का पानी भी सूख गया था और ऊख ताप से जली जा रही थी। नदी से थोड़ा-थोड़ा पानी मिलता था, मगर उसके पीछे आए दिन लाठियाँ निकलती थीं। यहाँ तक कि नदी ने भी जवाब दे दिया। जगह-जगह चोरियाँ होने लगीं, डाके पड़ने लगे। सारे प्रांत में हाहाकार मच गया। बारे कुशल हुई कि भादों में वर्षा हो गई और किसानों के प्राण हरे हुए। कितना उछाह था उस दिन! प्यासी पृथ्वी जैसे अघाती ही न थी और प्यासे किसान ऐसे उछल रहे थे, मानो पानी नहीं, अशर्फियाँ बरस रही हों। बटोर लो, जितना बटोरते बने। खेतों में जहाँ बगुले उठते थे, वहाँ हल चलने लगे। बालवृंद निकल-निकल कर तालाबों और पोखरों और गड़हियों का मुआयना कर रहे थे। ओहो! तालाब तो आधा भर गया, और वहाँ से गड़हिया की तरफ दौड़े। मगर अब कितना ही पानी बरसे, ऊख तो विदा हो गई। एक-एक हाथ की होके रह जायगी, मक्का और जुआर और कोदों से लगान थोड़े ही चुकेगा, महाजन का पेट थोड़े ही भरा जायगा। हाँ, गौओं के लिए चारा हो गया और आदमी जी गया। जब माघ बीत गया और भोला के रुपए न मिले, तो एक दिन वह झल्लाया हुआ होरी के घर आ धमका और बोला - यही है तुम्हारा कौल? इसी मुँह से तुमने ऊख पेर कर मेरे रुपए देने का वादा किया था? अब तो ऊख पेर चुके। लाओ रुपए मेरे हाथ में। होरी जब अपने विपत्ति सुना कर और सब तरह से चिरौरी करके हार गया और भोला द्वार से न हटा, तो उसने झुँझला कर कहा - तो महतो, इस बखत तो मेरे पास रुपए नहीं हैं और न मुझे कहीं उधार ही मिल सकता है। मैं कहाँ से लाऊँ? दाने-दाने की तंगी हो रही है। बिस्वास न हो, घर में आ कर देख लो। जो कुछ मिले, उठा ले जाओ। भोला ने निर्मम भाव से कहा - मैं तुम्हारे घर में क्यों तलासी लेने जाऊँ और न मुझे इससे मतलब है कि तुम्हारे पास रुपए हैं या नहीं। तुमने ऊख पेर कर रुपए देने को कहा था। ऊख पेर चुके। अब रुपए मेरे हवाले करो। 'तो फिर जो कहो, वह करूँ?' 'मैं क्या कहूँ ?' 'मैं तुम्हीं पर छोड़ता हूँ।' 'मैं तुम्हारे दोनों बैल खोल ले जाऊँगा।' होरी ने उसकी ओर विस्मय-भरी आँखों से देखा, मानो अपने कानों पर विश्वास न आया हो। फिर हतबुद्धि-सा सिर झुका कर रह गया। भोला क्या उसे भिखारी बना कर छोड़ देना चाहते हैं? दोनों बैल चले गए, तब तो उसके दोनों हाथ ही कट जाएँगे। दीन स्वर में बोला - दोनों बैल ले लोगे, तो मेरा सर्वनास हो जायगा। अगर तुम्हारा धरम यही कहता है, तो खोल ले जाओ। 'तुम्हारे बनने-बिगड़ने की मुझे परवा नहीं है। मुझे अपने रुपए चाहिए।' और जो मैं कह दूँ, मैंने रुपए दे दिए?' भोला सन्नाटे में आ गया। उसे अपने कानों पर विश्वास न आया। होरी इतनी बड़ी बेइमानी कर सकता है, यह संभव नहीं। उग्र हो कर बोला - अगर तुम हाथ में गंगाजली ले कर कह दो कि मैंने रुपए दे दिए, तो सबर कर लूँगा। 'कहने का मन तो चाहता है, मरता क्या न करता, लेकिन कहूँगा नहीं।' 'तुम कह ही नहीं सकते।' 'हाँ भैया, मैं नहीं कह सकता। हँसी कर रहा था।' एक क्षण तक वह दुविधा में पड़ा रहा। फिर बोला - तुम मुझसे इतना बैर क्यों पाल रहे हो भोला भाई! झुनिया मेरे घर में आ गई, तो मुझे कौन-सा सरग मिल गया? लड़का अलग हाथ से गया, दो सौ रूपया डाँड़ अलग भरना पड़ा। मैं तो कहीं का न रहा और अब तुम भी मेरी जड़ खोद रहे हो। भगवान जानते हैं, मुझे बिलकुल न मालूम था कि लौंडा क्या कर रहा है। मैं तो समझता था, गाना सुनने जाता होगा। मुझे तो उस दिन पता चला, जब आधी रात को झुनिया घर में आ गई। उस बखत मैं घर में न रखता, तो सोचो, कहाँ जाती? किसकी हो कर रहती? झुनिया बरौठे के द्वार पर छिपी खड़ी यह बातें सुन रही थी। बाप को अब वह बाप नहीं शत्रु समझती थी। डरी, कहीं होरी बैलों को दे न दें। जा कर रूपा से बोली - अम्माँ को जल्दी से बुला ला। कहना, बड़ा काम है, बिलम न करो। धनिया खेत में गोबर फेंकने गई थी, बहू का संदेश सुना, तो आ कर बोली - काहे बुलाया है बहू, मैं तो घबड़ा गई। 'काका को तुमने देखा है न?' 'हाँ देखा, कसाई की तरह द्वार पर बैठा हुआ है। मैं तो बोली भी नहीं।' 'हमारे दोनों बैल माँग रहे हैं, दादा से।' धनिया के पेट की आँतें भीतर सिमट गईं। 'दोनों बैल माँग रहे हैं?' 'हाँ, कहते हैं या तो हमारे रुपए दो, या हम दोनों बैल खोल ले जाएँगे।' 'तेरे दादा ने क्या कहा?' 'उन्होंने कहा - तुम्हारा धरम कहता हो, तो खोल ले जाओ।' 'तो खोल ले जाय, लेकिन इसी द्वार पर आ कर भीख न माँगे, तो मेरे नाम पर थूक देना। हमारे लहू से उसकी छाती जुड़ाती हो, तो जुड़ा ले।' वह इसी तैश में बाहर आ कर होरी से बोली - महतो दोनों बैल माँग रहे हैं, तो दे क्यों नहीं देते? उनका पेट भरे, हमारे भगवान मालिक हैं। हमारे हाथ तो नहीं काट लेंगे? अब तक अपने मजूरी करते थे, अब दूसरों की मजूरी करेंगे। भगवान की मरजी होगी, तो फिर बैल-बधिए हो जाएँगे, और मजूरी ही करते रहे, तो कौन बुराई है। बूड़े-सूखे और पोत-लगान का बोझ न रहेगा। मैं न जानती थी, यह हमारे बैरी हैं, नहीं गाय ले कर अपने सिर पर विपत्ति क्यों लेती! उस निगोड़ी का पौरा जिस दिन से आया, घर तहस-नहस हो गया। भोला ने अब तक जिस शस्त्र को छिपा रखा था, अब उसे निकालने का अवसर आ गया। उसे विश्वास हो गया, बैलों के सिवा इन सबों के पास कोई अवलंब नहीं है। बैलों को बचाने के लिए ये लोग सब कुछ करने को तैयार हो जाएँगे। अच्छे निशानेबाज की तरह मन को साध कर बोला - अगर तुम चाहते हो कि हमारी बेइज्जती हो और तुम चैन से बैठो, तो यह न होगा। तुम अपने सौ-दो-सौ को रोते हो। यहाँ लाख रुपए की आबरू बिगड़ गई। तुम्हारी कुसल इसी में है कि जैसे झुनिया को घर में रखा था, वैसे ही घर से निकाल दो, फिर न हम बैल माँगेंगे, न गाय का दाम माँगेंगे। उसने हमारी नाक कटवाई है, तो मैं भी उसे ठोकरें खाते देखना चाहता हूँ। वह यहाँ रानी बनी बैठी रहे, और हम मुँह में कालिख लगाए उसके नाम को रोते रहें, यह मैं नहीं देख सकता। वह मेरी बेटी है, मैंने उसे गोद में खिलाया है, और भगवान साखी है, मैंने उसे कभी बेटों से कम नहीं समझा, लेकिन आज उसे भीख माँगते और घूर पर दाने चुनते देख कर मेरी छाती सीतल हो जायगी। जब बाप हो कर मैंने अपना हिरदा इतना कठोर बना लिया है, तब सोचो, मेरे दिल पर कितनी बड़ी चोट लगी होगी। इस मुँहजली ने सात पुस्त का नाम डुबा दिया। और तुम उसे घर में रखे हुए हो, यह मेरी छाती पर मूँग दलना नहीं तो और क्या है! धनिया ने जैसे पत्थर की लकीर खींचते हुए कहा - तो महतो, मेरी भी सुन लो। जो बात तुम चाहते हो, वह न होगी। सौ जनम न होगी। झुनिया हमारी जान के साथ है। तुम बैल ही तो ले जाने को कहते हो, ले जाओ, अगर इससे तुम्हारी कटी हुई नाक जुड़ती हो, तो जोड़ लो, पुरखों की आबरू बचती हो, तो बचा लो। झुनिया से बुराई जरूर हुई। जिस दिन उसने मेरे घर में पाँव रखा, मैं झाड़ू ले कर मारने को उठी थी, लेकिन जब उसकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे, तो मुझे उस पर दया आ गई। तुम अब बूढ़े हो गए महतो! पर आज भी तुम्हें सगाई की धुन सवार है। फिर वह तो अभी बच्चा है। भोला ने अपील-भरी आँखों से होरी को देखा - सुनते हो होरी इसकी बातें! अब मेरा दोस नहीं। मैं बिना बैल लिए न जाऊँगा। होरी ने दृढ़ता से कहा - ले जाओ। 'फिर रोना मत कि मेरे बैल खोल ले गए!' 'नहीं रोऊँगा।' भोला बैलों की पगहिया खोल ही रहा था कि झुनिया चकतियोंदार साड़ी पहने, बच्चे को गोद में लिए, बाहर निकल आई और कंपित स्वर में बोली - काका, लो मैं इस घर से निकल जाती हूँ और जैसी तुम्हारी मनोकामना है, उसी तरह भीख माँग कर अपना और अपने बच्चे का पेट पालूँगी, और जब भीख भी न मिलेगी, तो कहीं डूब मरूँगी। भोला खिसिया कर बोला - दूर हो मेरे सामने से। भगवान न करे, मुझे फिर तेरा मुँह देखना पड़े। कुलच्छिनी, कुल-कलंकनी कहीं की! अब तेरे लिए डूब मरना ही उचित है। झुनिया ने उसकी ओर ताका भी नहीं। उसमें वह क्रोध था, जो अपने को खा जाना चाहता है, जिसमें हिंसा नहीं, आत्मसमर्पण है। धरती इस वक्त मुँह खोल कर उसे निगल लेती, तो वह कितना धन्य मानती। उसने आगे कदम उठाया। लेकिन वह दो कदम भी न गई थी कि धनिया ने दौड़ कर उसे पकड़ लिया और हिंसा-भरे स्नेह से बोली - तू कहाँ जाती है बहू, चल घर में। यह तेरा घर है, हमारे जीते भी और हमारे मरने के पीछे भी। डूब मरे वह, जिसे अपने संतान से बैर हो। इस भले आदमी को मुँह से ऐसी बात कहते लाज नहीं आती। मुझ पर धौंस जमाता है नीच! ले जा, बैलों का रकत पी.... झुनिया रोती हुई बोली - अम्माँ, जब अपना बाप हो के मुझे धिक्कार रहा है, तो मुझे डूब ही मरने दो। मुझ अभागिनी के कारन तो तुम्हें दु:ख ही मिला। जब से आई, तुम्हारा घर मिट्टी में मिल गया। तुमने इतने दिन मुझे जिस परेम से रखा, माँ भी न रखती। भगवान मुझे फिर जनम दें, तो तुम्हारी कोख से दें, यही मेरी अभिलाखा है। धनिया उसको अपनी ओर खींचती हुई बोली - यह तेरा बाप नहीं है, तेरा बैरी है, हत्यारा। माँ होती, तो अलबत्ते उसे कलंक होता। ला सगाई। मेहरिया जूतों से न पीटे, तो कहना! झुनिया सास के पीछे-पीछे घर में चली गई। उधर भोला ने जा कर दोनों बैलों को खूँटों से खोला और हाँकता हुआ घर चला, जैसे किसी नेवते में जा कर पूरियों के बदले जूते पड़े हों? अब करो खेती और बजाओ बंसी। मेरा अपमान करना चाहते हैं सब, न जाने कब का बैर निकाल रहे हैं। नहीं, ऐसी लड़की को कौन भला आदमी अपने घर में रखेगा? सब-के-सब बेसरम हो गए हैं। लौंडे का कहीं ब्याह न होता था इसी से। और इस राँड़ झुनिया की ढिठाई देखो कि आ कर मेरे सामने खड़ी हो गई। दूसरी लड़की होती, तो मुँह न दिखाती। आँखों का पानी मर गया है। सबके सब दुष्ट और मूरख भी हैं। समझते हैं, झुनिया अब हमारी हो गई। यह नहीं समझते, जो अपने बाप के घर न रही, वह किसी के घर नहीं रहेगी। समय खराब है, नहीं बीच बाजार में इस चुड़ैल धनिया के झोंटे पकड़ कर घसीटता। मुझे कितनी गालियाँ देती थी। फिर उसने दोनों बैलों को देखा, कितने तैयार हैं। अच्छी जोड़ी है। जहाँ चाहूँ, सौ रुपए में बेच सकता हूँ। मेरे अस्सी रुपए खरे हो जाएँगे। अभी वह गाँव के बाहर भी न निकला था कि पीछे से दातादीन, पटेश्वरी, शोभा और दस-बीस आदमी और दौड़े आते दिखाई दिए! भोला का लहू सर्द हो गया। अब फोजदारी हुई, बैल भी छिन जाएँगे, मार भी पड़ेगी। वह रूक गया कमर कस कर। मरना ही है तो लड़ कर मरेगा। दातादीन ने समीप आ कर कहा - यह तुमने क्या अनर्थ किया भोला, ऐं! उसके बैल खोल लाए, वह कुछ बोला नहीं, इसी से सेर हो गए। सब लोग अपने-अपने काम में लगे थे, किसी को खबर भी न हुई। होरी ने जरा-सा इशारा कर दिया होता, तो तुम्हारा एक-एक बाल नुच जाता। भला चाहते हो, तो ले चलो बैल, जरा भी भलमंसी नहीं है तुममें। पटेश्वरी बोले - यह उसके सीधेपन का फल है। तुम्हारे रुपए उस पर आते हैं, तो जा कर दीवानी में दावा करो, डिगरी कराओ। बैल खोल लाने का तुम्हें क्या अख्तियार है? अभी फौजदारी में दावा कर दे तो बँधे-बँधे फिरो। भोला ने दब कर कहा - तो लाला साहब, हम कुछ जबरदस्ती थोड़े ही खोल लाए। होरी ने खुद दिए। पटेश्वरी ने भोला से कहा - तुम बैलों को लौटा दो भोला! किसान अपने बैल खुशी से देगा, कि इन्हें हल में जोतेगा। भोला बैलों के सामने खड़ा हो गया - हमारे रुपए दिलवा दो, हमें बैलों को ले कर क्या करना है? 'हम बैल लिए जाते हैं, अपने रुपए के लिए दावा करो और नहीं तो मार कर गिरा दिए जाओगे। रुपए दिए थे नगद तुमने? एक कुलच्छिनी गाय बेचारे के सिर मढ़ दी और अब उसके बैल खोले लिए जाते हो।' भोला बैलों के सामने से न हटा। खड़ा रहा गुमसुम, दृढ़, मानो मर कर ही हटेगा। पटवारी से दलील करके वह कैसे पेश पाता? दातादीन ने एक कदम आगे बढ़ा कर अपने झुकी कमर को सीधा करके ललकारा - तुम सब खड़े ताकते क्या हो, मार के भगा दो इसको। हमारे गाँव से बैल खोल ले जायगा। बंशी बलिष्ठ युवक था। उसने भोला को जोर से धक्का दिया। भोला सँभल न सका, गिर पड़ा। उठना चाहता था कि बंशी ने फिर एक घूँसा दिया। होरी दौड़ता हुआ आ रहा था। भोला ने उसकी ओर दस कदम बढ़ कर पूछा - ईमान से कहना होरी महतो, मैंने बैल जबरदस्ती खोल लिए? दातादीन ने इसका भावार्थ किया - यह कहते हैं कि होरी ने अपने खुशी से बैल मुझे दे दिए। हमीं को उल्लू बनाते हैं! होरी ने सकुचाते हुए कहा - यह मुझसे कहने लगे या तो झुनिया को घर से निकाल दो, या मेरे रुपए दो, नहीं तो मैं बैल खोल ले जाऊँगा। मैंने कहा - मैं बहू को तो न निकालूँगा, न मेरे पास रुपए हैं, अगर तुम्हारा धरम कहे, तो बैल खोल लो। बस, मैंने इनके धरम पर छोड़ दिया और इन्होंने बैल खोल लिए। पटेश्वरी ने मुँह लटका कर कहा - जब तुमने धरम पर छोड़ दिया, तब काहे की जबरदस्ती। उसके धरम ने कहा - लिए जाता है। जाओ भैया, बैल तुम्हारे हैं। दातादीन ने समर्थन किया - हाँ, जब धरम की बात आ गई, तो कोई क्या कहे। सब-के-सब होरी को तिरस्कार की आँखों से देखते परास्त हो कर लौट पड़े और विजयी भोला शान से गर्दन उठाए बैलों को ले चला। मालती बाहर से तितली है, भीतर से मधुमक्खी। उसके जीवन में हँसी ही हँसी नहीं है, केवल गुड़ खा कर कौन जी सकता है! और जिए भी तो वह कोई सुखी जीवन न होगा। वह हँसती है, इसलिए कि उसे इसके भी दाम मिलते हैं। उसका चहकना और चमकना, इसलिए नहीं है कि वह चहकने को ही जीवन समझती है, या उसने निजत्व को अपने आँखों में इतना बढ़ा लिया है कि जो कुछ करे, अपने ही लिए करे। नहीं, वह इसलिए चहकती है और विनोद करती है कि इससे उसके कर्तव्य का भार कुछ हल्का हो जाता है। उसके बाप उन विचित्र जीवों में थे, जो केवल जबान की मदद से लाखों के वारे-न्यारे करते थे। बड़े-बड़े जमींदारों और रईसों की जायदादें बिकवाना, उन्हें कर्ज दिलाना या उनके मुआमलों का अफसरों से मिल कर तय करा देना, यही उनका व्यवसाय था। दूसरे शब्दों में दलाल थे। इस वर्ग के लोग बड़े प्रतिभावान होते हैं। जिस काम से कुछ मिलने की आशा हो, वह उठा लेंगे, और किसी न किसी तरह उसे निभा भी देंगे। किसी राजा की शादी किसी राजकुमारी से ठीक करवा दी और दस-बीस हजार उसी में मार लिए। यही दलाल जब छोटे-छोटे सौदे करते हैं, तो टाउट कहे जाते हैं, और हम उनसे घृणा करते हैं। बड़े-बड़े काम करके वही टाउट राजाओं के साथ शिकार खेलता है और गर्वनरों की मेज पर चाय पीता है। मिस्टर कौल उन्हीं भाग्यवानों में से थे। उनके तीन लड़कियाँ ही लड़कियाँ थीं! उनका विचार था कि तीनों को इंग्लैंड भेज कर शिक्षा के शिखर पर पहुँचा दें। अन्य बहुत से बड़े आदमियों की तरह उनका भी खयाल था कि इंग्लैंड में शिक्षा पा कर आदमी कुछ और हो जाता है। शायद वहाँ की जलवायु में बुद्धि को तेज कर देने की कोई शक्ति है, मगर उनकी यह कामना एक-तिहाई से ज्यादा पूरी न हुई। मालती इंग्लैंड में ही थी कि उन पर फालिज गिरा और बेकाम कर गया। अब बड़ी मुश्किल से दो आदमियों के सहारे उठते-बैठते थे। जबान तो बिलकुल बंद ही हो गई। और जब जबान ही बंद हो गई, तो आमदनी भी बंद हो गई। जो कुछ थी, जबान ही की कमाई थी। कुछ बचा कर रखने की उनकी आदत न थी। अनियमित आय थी, और अनियमित खर्च था, इसलिए इधर कई साल से बहुत तंगहाल हो रहे थे। सारा दायित्व मालती पर आ पड़ा। मालती के चार-पाँच सौ रुपए में वह भोग-विलास और ठाठ-बाट तो क्या निभता! हाँ, इतना था कि दोनों लड़कियों की शिक्षा होती जाती थी और भलेमानसों की तरह जिंदगी बसर होती थी। मालती सुबह से पहर रात तक दौड़ती रहती थी। चाहती थी कि पिता सात्विकता के साथ रहें, लेकिन पिताजी को शराब-कबाब का ऐसा चस्का पड़ा था कि किसी तरह गला न छोड़ता था। कहीं से कुछ न मिलता, तो एक महाजन से अपने बँगले पर प्रोनोट लिख कर हजार दो हजार ले लेते थे। महाजन उनका पुराना मित्र था, जिसने उनकी बदौलत लेन-देन में लाखों कमाए थे, और मुरौवत के मारे कुछ बोलता न था, उसके पचीस हजार चढ़ चुके थे, और जब चाहता, कुर्की करा सकता था, मगर मित्रता की लाज निभाता जाता था। आत्मसेवियों में जो निर्लज्जता आ जाती है, वह कौल में भी थी। तकाजे हुआ करें, उन्हें परवा न थी। मालती उनके अपव्यय पर झुँझलाती रहती थी, लेकिन उसकी माता जो साक्षात देवी थीं और इस युग में भी पति की सेवा को नारी-जीवन का मुख्य हेतु समझती थीं, उसे समझाती रहती थीं, इसलिए गृह-युद्ध न होने पाता था। संध्या हो गई थी। हवा में अभी तक गरमी थी। आकाश में धुंध छाया हुआ था। मालती और उसकी दोनों बहनें बँगले के सामने घास पर बैठी हुई थीं। पानी न पाने के कारण वहाँ की दूब जल गई थी और भीतर की मिट्टी निकल आई थी। मालती ने पूछा - माली क्या बिलकुल पानी नहीं देता? मँझली बहन सरोज ने कहा - पड़ा-पड़ा सोया करता है सूअर। जब कहो, तो बीस बहाने निकालने लगता है। सरोज बी.ए में पढ़ती थी, दुबली-सी, लंबी, पीली, रूखी, कटु। उसे किसी की कोई बात पसंद न आती थी। हमेशा ऐब निकालती रहती थी। डाक्टरों की सलाह थी कि वह कोई परिश्रम न करे और पहाड़ पर रहे, लेकिन घर की स्थिति ऐसी न थी कि उसे पहाड़ पर भेजा जा सकता। सबसे छोटी वरदा को सरोज से इसलिए द्वेष था कि सारा घर सरोज को हाथों हाथ लिए रहता था, वह चाहती थी जिस बीमारी में इतना स्वाद है, वह उसे ही क्यों नहीं हो जाती। गोरी-सी, गर्वशील, स्वस्थ, चंचल आँखों वाली बालिका थी, जिसके मुख पर प्रतिभा की झलक थी। सरोज के सिवा उसे सारे संसार से सहानुभूति थी। सरोज के कथन का विरोध करना उसका स्वभाव था। बोली - दिन-भर दादाजी बाजार भेजते रहते हैं, फुरसत ही कहाँ पाता है। मरने की छुट्टी तो मिलती नहीं, पड़ा-पड़ा सोएगा। सरोज ने डाँटा - दादाजी उसे कब बाजार भेजते हैं री, झूठी कहीं की! 'रोज भेजते हैं, रोज। अभी तो आज ही भेजा था। कहो तो बुला कर पुछवा दूँ?' 'पुछवाएगी, बुलाऊँ?' मालती डरी। दोनों गुथ जायँगी, तो बैठना मुश्किल कर देंगी। बात बदल कर बोली - अच्छा खैर, होगा। आज डाक्टर मेहता का तुम्हारे यहाँ भाषण हुआ था, सरोज? सरोज ने नाक सिकोड़ कर कहा - हाँ, हुआ तो था, लेकिन किसी ने पसंद नहीं किया। आप फरमाने लगे? संसार में स्त्रियों का क्षेत्र पुरुषों से बिलकुल अलग है। स्त्रियों का पुरुषों के क्षेत्र में आना इस युग का कलंक है। सब लड़कियों ने तालियाँ और सीटियाँ बजानी शुरू कीं। बेचारे लज्जित हो कर बैठ गए। कुछ अजीब-से आदमी मालूम होते हैं। आपने यहाँ तक कह डाला कि प्रेम केवल कवियों की कल्पना है। वास्तविक जीवन में इसका कहीं निशान नहीं। लेडी हुकू ने उनका खूब मजाक उड़ाया। मालती ने कटाक्ष किया - लेडी हुकू ने? इस विषय में वह भी कुछ बोलने का साहस रखती हैं! तुम्हें डाक्टर साहब का भाषण आदि से अंत तक सुनना चाहिए था। उन्होंने दिल में लड़कियों को क्या समझा होगा? 'पूरा भाषण सुनने का सब्र किसे था? वह तो जैसे घाव पर नमक छिड़कते थे।' 'फिर उन्हें बुलाया ही क्यों? आखिर उन्हें औरतों से कोई बैर तो है नहीं। जिस बात को हम सत्य समझते हैं, उसी का तो प्रचार करते हैं। औरतों को खुश करने के लिए वह उनकी-सी कहने वालों में नहीं हैं और फिर अभी यह कौन जानता है कि स्त्रियाँ जिस रास्ते पर चलना चाहती हैं, वही सत्य है। बहुत संभव है, आगे चल कर हमें अपनी धारणा बदलनी पड़े।' उसने फ्रांस, जर्मनी और इटली की महिलाओं के जीवन आदर्श बतलाए और कहा - शीघ्र ही वीमेन्स लीग की ओर से मेहता का भाषण होने वाला है। सरोज को कौतूहल हुआ। 'मगर आप भी तो कहती हैं कि स्त्रियों और पुरुषों के अधिकार समान होने चाहिए।' 'अब भी कहती हूँ, लेकिन दूसरे पक्ष वाले क्या कहते हैं, यह भी तो सुनना चाहिए। संभव है, हमीं गलती पर हों।' यह लीग इस नगर की नई संस्था है और मालती के उद्योग से खुली है। नगर की सभी शिक्षित महिलाएँ उसमें शरीक हैं। मेहता के पहले भाषण ने महिलाओं में बड़ी हलचल मचा दी थी और लीग ने निश्चय किया था, कि उनका खूब दंदाशिकन जवाब दिया जाए। मालती ही पर यह भार डाला गया था। मालती कई दिन तक अपने पक्ष के समर्थन में युक्तियाँ और प्रमाण खोजती रही। और भी कई देवियाँ अपने भाषण लिख रही थीं। उस दिन जब मेहता शाम को लीग के हाल में पहुँचे, तो जान पड़ता था, हाल फट जायगा। उन्हें गर्व हुआ। उनका भाषण सुनने के लिए इतना उत्साह! और वह उत्साह केवल मुख पर और आँखों में न था। आज सभी देवियाँ सोने और रेशम से लदी हुई थीं, मानो किसी बारात में आई हों। मेहता को परास्त करने के लिए पूरी शक्ति से काम लिया गया था और यह कौन कह सकता है कि जगमगाहट शक्ति का अंग नहीं है। मालती ने तो आज के लिए नए फैशन की साड़ी निकाली थी, नए काट के जंपर बनवाए थे। और रंग-रोगन और फूलों से खूब सजी हुई थी, मानो उसका विवाह हो रहा हो। वीमेंस लीग में इतना समारोह और कभी न हुआ था। डाक्टर मेहता अकेले थे, फिर भी देवियों के दिल काँप रहे थे। सत्य की एक चिनगारी असत्य के एक पहाड़ को भस्म कर सकती है। सबसे पीछे की सफ में मिर्जा और खन्ना और संपादक जी भी विराज रहे थे। रायसाहब भाषण शुरू होने के बाद आए और पीछे खड़े हो गए। मिर्जा ने कहा - आ जाइए आप भी, खड़े कब तक रहिएगा? रायसाहब बोले - नहीं भाई, यहाँ मेरा दम घुटने लगेगा। 'तो मैं खड़ा होता हूँ। आप बैठिए।' रायसाहब ने उनके कंधे दबाए - तकल्लुफ नहीं, बैठे रहिए। मैं थक जाऊँगा, तो आपको उठा दूँगा और बैठ जाऊँगा, अच्छा मिस मालती सभानेत्री हुईं। खन्ना साहब कुछ इनाम दिलवाइए। खन्ना ने रोनी सूरत बना कर कहा - अब मिस्टर मेहता पर निगाह है। मैं तो गिर गया। मिस्टर मेहता का भाषण शुरू हुआ - 'देवियो, जब मैं इस तरह आपको संबोधित करता हूँ, तो आपको कोई बात खटकती नहीं। आप इस सम्मान को अपना अधिकार समझती हैं, लेकिन आपने किसी महिला को पुरुषों के प्रति 'देवता' का व्यवहार करते सुना है? उसे आप देवता कहें, तो वह समझेगा, आप उसे बना रही हैं। आपके पास दान देने के लिए दया है, श्रद्धा है, त्याग है। पुरुष के पास दान के लिए क्या है? वह देवता नहीं, लेवता है। वह अधिकार के लिए हिंसा करता है, संग्राम करता है, कलह करता है...' तालियाँ बजीं। रायसाहब ने कहा - औरतों को खुश करने का इसने कितना अच्छा ढंग निकाला। 'बिजली' संपादक को बुरा लगा - कोई नई बात नहीं। मैं कितनी ही बार यह भाव व्यक्त कर चुका हूँ। मेहता आगे बढ़े - इसलिए जब मैं देखता हूँ, हमारी उन्नत विचारों वाली देवियाँ उस दया और श्रद्धा और त्याग के जीवन से असंतुष्ट हो कर संग्राम और कलह और हिंसा के जीवन की ओर दौड़ रही हैं और समझ रही हैं कि यही सुख का स्वर्ग है, तो मैं उन्हें बधाई नहीं दे सकता। मिसेज खन्ना ने मालती की ओर सगर्व नेत्रों से देखा। मालती ने गर्दन झुका ली। खुर्शेद बोले - अब कहिए। मेहता दिलेर आदमी है। सच्ची बात कहता है और मुँह पर। 'बिजली' संपादक ने नाक सिकोड़ी - अब वह दिन लद गए, जब देवियाँ इन चकमों में आ जाती थीं। उनके अधिकार हड़पते जाओ और कहते जाओ, आप तो देवी हैं, लक्ष्मी हैं, माता हैं। मेहता आगे बढ़े - स्त्री को पुरुष के रूप में, पुरुष के कर्म में रत देख कर मुझे उसी तरह वेदना होती है, जैसे पुरुष को स्त्री के रूप में, स्त्री के कर्म करते देख कर। मुझे विश्वास है, ऐसे पुरुषों को आप अपने विश्वास और प्रेम का पात्र नहीं समझतीं और मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, ऐसी स्त्री भी पुरुष के प्रेम और श्रद्धा का पात्र नहीं बन सकती। खन्ना के चेहरे पर दिल की खुशी चमक उठी। रायसाहब ने चुटकी ली - आप बहुत खुश हैं खन्ना जी! खन्ना बोले - मालती मिलें, तो पूछूँ। अब कहिए। मेहता आगे बढ़े - मैं प्राणियों के विकास में स्त्री के पद को पुरुष के पद से श्रेष्ठ समझता हूँ, उसी तरह जैसे प्रेम और त्याग और श्रद्धा को हिंसा और संग्राम और कलह से श्रेष्ठ समझता हूँ। अगर हमारी देवियाँ सृष्टि और पालन के देव-मंदिर से हिंसा और कलह के दानव-क्षेत्र में आना चाहती हैं, तो उससे समाज का कल्याण न होगा। मैं इस विषय में दृढ़ हूँ। पुरुष ने अपने अभिमान में अपनी दानवी कीर्ति को अधिक महत्व दिया है। वह अपने भाई का स्वत्व छीन कर और उसका रक्त बहा कर समझने लगा, उसने बहुत बड़ी विजय पाई। जिन शिशुओं को देवियों ने अपने रक्त से सिरजा और पाला, उन्हें बम और मशीनगन और सहस्रों टैंकों का शिकार बना कर वह अपने को विजेता समझता है। और जब हमारी ही माताएँ उसके माथे पर केसर का तिलक लगा कर और उसे अपने असीसों का कवच पहना कर हिंसा-क्षेत्र में भेजती हैं, तो आश्चर्य है कि पुरुष ने विनाश को ही संसार के कल्याण की वस्तु समझा और उसकी हिंसा-प्रवृत्ति दिन-दिन बढ़ती गई और आज हम देख रहे हैं कि यह दानवता प्रचंड हो कर समस्त संसार को रौंदती, प्राणियों को कुचलती, हरी-भरी खेतियों को जलाती और गुलजार बस्तियों को वीरान करती चली जाती है। देवियो, मैं आपसे पूछता हूँ, क्या आप इस दानवलीला में सहयोग दे कर, इस संग्राम-क्षेत्र में उतर कर संसार का कल्याण करेंगी? मैं आपसे विनती करता हूँ, नाश करने वालों को अपना काम करने दीजिए, आप अपने धर्म का पालन किए जाइए। खन्ना बोले - मालती की तो गर्दन ही नहीं उठती। रायसाहब ने इन विचारों का समर्थन किया - मेहता कहते तो यथार्थ ही हैं। 'बिजली' संपादक बिगड़े - मगर कोई बात तो नहीं कही। नारी-आंदोलन के विरोधी इन्हीं ऊटपटाँग बातों की शरण लिया करते हैं। मैं इसे मानता ही नहीं कि त्याग और प्रेम से संसार ने उन्नति की। संसार ने उन्नति की है पौरूष से, पराक्रम से, बुद्धि-बल से, तेज से। खुर्शेद ने कहा - अच्छा, सुनने दीजिएगा या अपनी ही गाए जाइएगा? मेहता का भाषण जारी था - देवियो, मैं उन लोगों में नहीं हूँ, जो कहते हैं, स्त्री और पुरुष में समान शक्तियाँ हैं, समान प्रवृत्तियाँ हैं, और उनमें कोई विभिन्नता नहीं है। इससे भयंकर असत्य की मैं कल्पना नहीं कर सकता। यह वह असत्य है, जो युग-युगांतरों से संचित अनुभव को उसी तरह ढँक लेना चाहता है, जैसे बादल का एक टुकड़ा सूर्य को ढँक लेता है। मैं आपको सचेत किए देता हूँ कि आप इस जाल में न फँसें। स्त्री पुरुष से उतनी ही श्रेष्ठ है, जितना प्रकाश अँधेरे से। मनुष्य के लिए क्षमा और त्याग और अहिंसा जीवन के उच्चतम आदर्श हैं। नारी इस आदर्श को प्राप्त कर चुकी है। पुरुष धर्म और अध्यात्म और ॠषियों का आश्रय ले कर उस लक्ष्य पर पहुँचने के लिए सदियों से जोर मार रहा है, पर सफल नहीं हो सका। मैं कहता हूँ, उसका सारा अध्यात्म और योग एक तरफ और नारियों का त्याग एक तरफ। तालियाँ बजीं। हाल हिल उठा। रायसाहब ने गदगद हो कर कहा - मेहता वही कहते हैं, जो इनके दिल में है। ओंकारनाथ ने टीका की - लेकिन बातें सभी पुरानी हैं, सड़ी हुई। 'पुरानी बात भी आत्मबल के साथ कही जाती है, तो नई हो जाती है।' 'जो एक हजार रुपए हर महीने फटकार कर विलास में उड़ाता हो, उसमें आत्मबल जैसी वस्तु नहीं रह सकती। यह केवल पुराने विचार की नारियों और पुरुषों को प्रसन्न करने के ढंग हैं।' खन्ना ने मालती की ओर देखा - यह क्यों फूली जा रही है? इन्हें तो शरमाना चाहिए। खुर्शेद ने खन्ना को उकसाया - अब तुम भी एक तकरीर कर डालो खन्ना, नहीं मेहता तुम्हें उखाड़ फेंकेगा। आधा मैदान तो उसने अभी मार लिया है। खन्ना खिसिया कर बोले - मेरी न कहिए। मैंने ऐसी कितनी चिड़िया फँसा कर छोड़ दी हैं। रायसाहब ने खुर्शेद की तरफ आँख मार कर कहा - आजकल आप महिला-समाज की तरफ आते-जाते हैं। सच कहना, कितना चंदा दिया? खन्ना पर झेंप छा गई - मैं ऐसे समाजों को चंदे नहीं दिया करता, जो कला का ढोंग रच कर दुराचार फैलाते हैं। मेहता का भाषण जारी था - 'पुरुष कहता है, जितने दार्शनिक और वैज्ञानिक आविष्कारक हुए हैं, वह सब पुरुष थे। जितने बड़े-बड़े महात्मा हुए हैं, वह सब पुरुष थे। सभी योद्धा, सभी राजनीति के आचार्य, बड़े-बड़े नाविक सब कुछ पुरुष थे, लेकिन इन बड़ों-बड़ों के समूहों ने मिल कर किया क्या? महात्माओं और धर्म-प्रवर्तकों ने संसार में रक्त की नदियाँ बहाने और वैमनस्य की आग भड़काने के सिवा और क्या किया, योद्धाओं ने भाइयों की गर्दनें काटने के सिवा और क्या यादगार छोड़ी, राजनीतिज्ञों की निशानी अब केवल लुप्त साम्राज्यों के खंडहर रह गए हैं, और आविष्कारकों ने मनुष्य को मशीन का गुलाम बना देने के सिवा और क्या समस्या हल कर दी? पुरुषों की इस रची हुई संस्कृति में शांति कहाँ है? सहयोग कहाँ है?' ओंकारनाथ उठ कर जाने को हुए - विलासियों के मुँह से बड़ी-बड़ी बातें सुन कर मेरी देह भस्म हो जाती है। खुर्शेद ने उनका हाथ पकड़ कर बैठाया - आप भी संपादक जी निरे पोंगा ही रहे। अजी यह दुनिया है, जिसके जी में जो आता है, बकता है। कुछ लोग सुनते हैं और तालियाँ बजाते है चलिए, किस्सा खत्म। ऐसे-ऐसे बेशुमार मेहते आएँगे और चले जाएँगे और दुनिया अपनी रफ्तार से चलती रहेगी। बिगड़ने की कौन-सी बात है? 'असत्य सुन कर मुझसे सहा नहीं जाता।' रायसाहब ने उन्हें और चढ़ाया - कुलटा के मुँह से सतियों की-सी बात सुन कर किसका जी न जलेगा! ओंकारनाथ फिर बैठ गए। मेहता का भाषण जारी था.. 'मैं आपसे पूछता हूँ, क्या बाज को चिड़ियों का शिकार करते देख कर हंस को यह शोभा देगा कि वह मानसरोवर की आनंदमयी शांति को छोड़ कर चिड़ियों का शिकार करने लगे? और अगर वह शिकारी बन जाए, तो आप उसे बधाई देंगी? हंस के पास उतनी तेज चोंच नहीं है, उतने तेज चंगुल नहीं हैं, उतनी तेज आँखें नहीं हैं, उतने तेज पंख नहीं हैं और उतनी तेज रक्त की प्यास नहीं है। उन अस्त्रों का संचय करने में उसे सदियाँ लग जायँगी, फिर भी वह बाज बन सकेगा या नहीं, इसमें संदेह है, मगर बाज बने या न बने, वह हंस न रहेगा - वह हंस जो मोती चुगता है।' खुर्शेद ने टीका की - यह तो शायरों की-सी दलीलें हैं। मादा बाज भी उसी तरह शिकार करती है, जैसे, नर बाज। ओंकारनाथ प्रसन्न हो गए - उस पर आप फिलॉसफर बनते हैं, इसी तर्क के बल पर। खन्ना ने दिल का गुबार निकाला - फिलॉसफर नहीं फिलॉसफर की दुम हैं। फिलॉसफर वह है जो..... ओंकारनाथ ने बात पूरी की - जो सत्य से जौ भर भी न टले। खन्ना को यह समस्या-पूर्ति नहीं रूची - मैं सत्य-वत्य नहीं जानता। मैं तो फिलॉसफर उसे कहता हूँ, जो फिलॉसफर हो सच्चा! खुर्शेद ने दाद दी - फिलॉसफर की आपने कितनी सच्ची तारीफ की है। वाह, सुभानल्ला! फिलॉसफर वह है, जो फिलॉसफर हो। क्यों न हो! मेहता आगे चले - मैं नहीं कहता, देवियों को विद्या की जरूरत नहीं है। है और पुरुषों से अधिक। मैं नहीं हता, देवियों को शक्ति की जरूरत नहीं है। है और पुरुषों से अधिक, लेकिन वह विद्या और वह शक्ति नहीं, जिससे पुरुष ने संसार को हिंसाक्षेत्र बना डाला है। अगर वही विद्याऔर वही शक्ति आप भी ले लेंगी, तो संसार मरुस्थल हो जायगा। आपकी विद्या और आपका अधिकार हिंसा और विध्वंस में नहीं, सृष्टि और पालन में है। क्या आप समझती हैं, वोटों से मानव-जाति का 'उद्धार होगा, या दफ्तरों में और अदालतों में जबान और कलम चलाने से? इन नकली, अप्राकृतिक, विनाशकारी अधिकारों के लिए आप वह अधिकार छोड़ देना चाहती हैं, जो आपको प्रकृति ने दिए हैं? सरोज अब तक बड़ी बहन के अदब से जब्त किए बैठी थी। अब न रहा गया। फुफकार उठी - हमें वोट चाहिए, पुरुषों के बराबर। और कई युवतियों ने हाँक लगाई - वोट! वोट! ओंकारनाथ ने खड़े हो कर ऊँचे स्वर से कहा - नारी-जाति के विरोधियों की पगड़ी नीची हो। मालती ने मेज पर हाथ पटक कर कहा - शांत रहो, जो लोग पक्ष या विपक्ष में कुछ कहना चाहेंगे, उन्हें पूरा अवसर दिया जायगा। मेहता बोले - वोट नए युग का मायाजाल है, मरीचिका है, कलंक है, धोखा है, उसके चक्कर में पड़ कर आप न इधर की होंगी, न उधर की। कौन कहता है कि आपका क्षेत्र संकुचित है और उसमें आपको अभिव्यक्ति का अवकाश नहीं मिलता। हम सभी पहले मनुष्य हैं, पीछे और कुछ। हमारा जीवन हमारा घर है। वहीं हमारी सृष्टि होती है, वहीं हमारा पालन होता है, वहीं जीवन के सारे व्यापार होते हैं। अगर वह क्षेत्र परिमित है, तो अपरिमित कौन-सा क्षेत्र है? क्या वह संघर्ष, जहाँ संगठित अपहरण है? जिस कारखाने में मनुष्य और उसका भाग्य बनता है, उसे छोड़ कर आप उन कारखानों में जाना चाहती हैं, जहाँ मनुष्य पीसा जाता है, जहाँ उसका रक्त निकाला जाता है? मिर्जा ने टोका - पुरुषों के जुल्म ने ही उनमें बगावत की यह स्पिरिट पैदा की है। मेहता बोले - बेशक, पुरुषों ने अन्याय किया है, लेकिन उसका यह जवाब नहीं है। अन्याय को मिटाइए, लेकिन अपने को मिटा कर नहीं। मालती बोली - नारियाँ इसलिए अधिकार चाहती हैं कि उनका सदुपयोग करें और पुरुषों को उनका दुरुपयोग करने से रोकें। मेहता ने उत्तर दिया - संसार में सबसे बड़े अधिकार सेवा और त्याग से मिलते हैं और वह आपको मिले हुए हैं। उन अधिकारों के सामने वोट कोई चीज नहीं। मुझे खेद है, हमारी बहनें पश्चिम का आदर्श ले रही हैं, जहाँ नारी ने अपना पद खो दिया है और स्वामिनी से गिर कर विलास की वस्तु बन गई है। पश्चिम की स्त्री स्वछंद होना चाहती हैं, इसीलिए कि वह अधिक से अधिक विलास कर सकें। हमारी माताओं का आदर्श कभी विलास नहीं रहा। उन्होंने केवल सेवा के अधिकार से सदैव गृहस्थी का संचालन किया है। पश्चिम में जो चीजें अच्छी हैं, वह उनसे लीजिए। संस्कृति में सदैव आदान-प्रदान होता आया है, लेकिन अंधी नकल तो मानसिक दुर्बलता का ही लक्षण है! पश्चिम की स्त्री आज गृह-स्वामिनी नहीं रहना चाहती। भोग की विदग्ध लालसा ने उसे उच्छृंखल बना दिया है। वह अपने लज्जा और गरिमा को, जो उसकी सबसे बड़ी विभूति थी, चंचलता और आमोद-प्रमोद पर होम कर रही है। जब मैं वहाँ की शिक्षित बालिकाओं को अपने रूप का, या भरी हुई गोल बाँहों या अपने नग्नता का प्रदर्शन करते देखता हूँ, तो मुझे उन पर दया आती है। उनकी लालसाओं ने उन्हें इतना पराभूत कर दिया है कि वे अपने लज्जा की भी रक्षा नहीं कर सकती। नारी की इससे अधिक और क्या अधोगति हो सकती है? रायसाहब ने तालियाँ बजाईं। हाल तालियों से गूँज उठा, जैसे पटाखों की लड़ियाँ छूट रही हों। मिर्जा साहब ने संपादक जी से कहा - इसका जवाब तो आपके पास भी न होगा? संपादक जी ने विरक्त मन से कहा - सारे व्याख्यान में इन्होंने यही एक बात सत्य कही है। 'तब तो आप भी मेहता के मुरीद हुए!' 'जी नहीं, अपने लोग किसी के मुरीद नहीं होते। मैं इसका जवाब ढूँढ निकालूँगा, 'बिजली' में देखिएगा।' 'इसके माने यह हैं कि आप हक की तलाश नहीं करते, सिर्फ अपने पक्ष के लिए लड़ना चाहते हैं।' रायसाहब ने आड़े हाथों लिया - इसी पर आपको अपने सत्य-प्रेम का अभिमान है? संपादक जी अविचल रहे - वकील का काम अपने मुअक्किल का हित देखना है, सत्य या असत्य का निराकरण नहीं। 'तो यों कहिए कि आप औरतों के वकील हैं?' 'मैं उन सभी लोगों का वकील हूँ, जो निर्बल हैं, निस्सहाय हैं, पीड़ित हैं।' 'बड़े बेहया हो यार!' मेहता जी कह रहे थे - और यह पुरुषों का षड्यंत्र है। देवियों को ऊँचे शिखर से खींच कर अपने बराबर बनाने के लिए, उन पुरुषों का, जो कायर हैं, जिनमें वैवाहिक जीवन का दायित्व सँभालने की क्षमता नहीं है, जो स्वच्छंद काम-क्रीड़ा की तरंगों में साँड़ों की भाँति दूसरों की हरी-भरी खेती में मुँह डाल कर अपने कुत्सित लालसाओं को तृप्त करना चाहते हैं। पश्चिम में इनका षड्यंत्र सफल हो गया और देवियाँ तितलियाँ बन गईं। मुझे यह कहते हुए शर्म आती है कि इस त्याग और तपस्या की भूमि भारत में भी कुछ वही हवा चलने लगी है। विशेष कर हमारी शिक्षित बहनों पर वह जादू बड़ी तेजी से चढ़ रहा है। वह गृहिणी का आदर्श त्याग कर तितलियों का रंग पकड़ रही हैं। सरोज उत्तेजित हो कर बोली - हम पुरुषों से सलाह नहीं माँगतीं। अगर वह अपने बारे में स्वतंत्र हैं, तो स्त्रियाँ भी अपने विषय में स्वतंत्र हैं। युवतियाँ अब विवाह को पेशा नहीं बनाना चाहतीं। वह केवल प्रेम के आधार पर विवाह करेंगी। जोर से तालियाँ बजीं, विशेष कर अगली पंक्तियों में, जहाँ महिलाएँ थीं। मेहता ने जवाब दिया - जिसे तुम प्रेम कहती हो, वह धोखा है, उद्दीप्त लालसा का रूप, उसी तरह जैसे संन्यास केवल भीख माँगने का संस्कृत रूप है। वह प्रेम अगर वैवाहिक जीवन में कम है, तो मुक्त विलास में बिलकुल नहीं है। सच्चा आनंद, सच्ची शांति केवल सेवा-व्रत में है। वही अधिकार का स्रोत है, वही शक्ति का उद्गम है। सेवा ही वह सीमेंट है, जो दंपति को जीवनपर्यंत स्नेह और साहचर्य में जोड़े रख सकता है, जिस पर बड़े-बड़े आघातों का भी कोई असर नहीं होता। जहाँ सेवा का अभाव है, वहीं विवाह-विच्छेद है, परित्याग है, अविश्वास है। और आपके ऊपर, पुरुष-जीवन की नौका का कर्णधार होने के कारण जिम्मेदारी ज्यादा है। आप चाहें तो नौका को आँधी और तूफानों में पार लगा सकती हैं। और आपने असावधानी की, तो नौका डूब जायगी और उसके साथ आप भी डूब जाएँगी। भाषण समाप्त हो गया। विषय विवाद-ग्रस्त था और कई महिलाओं ने जवाब देने की अनुमति माँगी, मगर देर बहुत हो गई थी। इसलिए मालती ने मेहता को धन्यवाद दे कर सभा भंग कर दी। हाँ, यह सूचना दे दी गई कि अगले रविवार को इसी विषय पर कई देवियाँ अपने विचार प्रकट करेंगी। रायसाहब ने मेहता को बधाई दी - आपने मेरे मन की बातें कहीं मिस्टर मेहता। मैं आपके एक-एक शब्द से सहमत हूँ। मालती हँसी - आप क्यों न बधाई देंगे, चोर-चोर मौसेरे भाई जो होते हैं, मगर यहाँ सारा उपदेश गरीब नारियों ही के सिर क्यों थोपा जाता है? उन्हीं के सिर क्यों आदर्श और मर्यादा और त्याग सब कुछ पालन करने का भार पटका जाता है? मेहता बोले - इसलिए कि वह बात समझती हैं। खन्ना ने मालती की ओर अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से देख कर मानो उसके मन की बात समझने की चेष्टा करते हुए कहा - डाक्टर साहब के यह विचार मुझे तो कोई सौ साल पिछड़े हुए मालूम होते हैं। मालती ने कटु हो कर पूछा - कौन से विचार? 'यही सेवा और कर्तव्य आदि।' 'तो आपको ये विचार सौ साल पिछड़े हुए मालूम होते हैं। तो कृपा करके अपने ताजे विचार बतलाइए। दंपति कैसे सुखी रह सकते हैं, इसका कोई ताजा नुस्खा आपके पास है?' खन्ना खिसिया गए। बात कही मालती को खुश करने के लिए, और वह तिनक उठी। बोले - यह नुस्खा तो मेहता साहब को मालूम होगा। 'डाक्टर साहब ने तो बतला दिया और आपके खयाल में वह सौ साल पुराना है, तो नया नुस्खा आपको बतलाना चाहिए। आपको ज्ञात नहीं कि दुनिया में ऐसी बहुत-सी बातें हैं, जो कभी पुरानी हो ही नहीं सकती। समाज में इस तरह की समस्याएँ हमेशा उठती रहती हैं और हमेशा उठती रहेंगी। मिसेज खन्ना बरामदे में चली गई थीं। मेहता ने उनके पास जा कर प्रणाम करते हुए पूछा - मेरे भाषण के विषय में आपकी क्या राय है? मिसेज खन्ना ने आँखें झुका कर कहा - अच्छा था, बहुत अच्छा, मगर अभी आप अविवाहित हैं, तभी नारियाँ देवियाँ हैं, श्रेष्ठ हैं, कर्णधार हैं। विवाह कर लीजिए तो पूछूँगी, अब नारियाँ क्या हैं? और विवाह आपको करना पड़ेगा, क्योंकि आप विवाह से मुँह चुराने वाले मर्दों को कायर कह चुके हैं। मेहता हँसे - उसी के लिए तो जमीन तैयार कर रहा हूँ। 'मिस मालती से जोड़ा भी अच्छा है।' 'शर्त यही है कि वह कुछ दिन आपके चरणों में बैठ कर आपसे नारी-धर्म सीखें।' 'वही स्वार्थी पुरुषों की बात! आपने पुरुष-कर्तव्य सीख लिया है?' 'यही सोच रहा हूँ किससे सीखूँ।' 'मिस्टर खन्ना आपको बहुत अच्छी तरह सिखा सकते हैं। ' मेहता ने कहकहा मारा - नहीं, मैं पुरुष-कर्तव्य भी आप ही से सीखूँगा। 'अच्छी बात है, मुझी से सीखिए। पहली बात यही है कि भूल जाइए कि नारी श्रेष्ठ है और सारी जिम्मेदारी उसी पर है, श्रेष्ठ पुरुष है और उसी पर गृहस्थी का सारा भार है। नारी में सेवा और संयम और कर्तव्य सब कुछ वही पैदा कर सकता है, अगर उसमें इन बातों का अभाव है तो नारी में भी अभाव रहेगा। नारियों में आज जो यह विद्रोह है, इसका कारण पुरुष का इन गुणों से शून्य हो जाना है।' मिर्जा साहब ने आ कर मेहता को गोद में उठा लिया और बोले - मुबारक! मेहता ने प्रश्न की आँखों से देखा - आपको मेरी तकरीर पसंद आई? 'तकरीर तो खैर जैसी थी वैसी थी, मगर कामयाब खूब रही। आपने परी को शीशे में उतार लिया। अपनी तकदीर सराहिए कि जिसने आज तक किसी को मुँह नहीं लगाया, वह आपका कलमा पढ़ रही है।' मिसेज खन्ना दबी जबान से बोलीं - जब नशा ठहर जाय, तो कहिए। मेहता ने विरक्त भाव से कहा - मेरे जैसे किताब के कीड़ों को कौन औरत पसंद करेगी देवी जी! मैं तो पक्का आदर्शवादी हूँ। मिसेज खन्ना ने अपने पति को कार की तरफ जाते देखा, तो उधर चली गईं। मिर्जा भी बाहर निकल गए। मेहता ने मंच पर से अपने छड़ी उठाई और बाहर जाना चाहते थे कि मालती ने आ कर उनका हाथ पकड़ लिया और आग्रह-भरी आँखों से बोली - आप अभी नहीं जा सकते। चलिए, पापा से आपकी मुलाकात कराऊँ और आज वहीं खाना खाइए। मेहता ने कान पर हाथ रख कर कहा - नहीं, मुझे क्षमा कीजिए। वहाँ सरोज मेरी जान खा जायगी। मैं इन लड़कियों से बहुत घबराता हूँ। 'नहीं-नहीं, मैं जिम्मा लेती हूँ, जो वह मुँह भी खोले।' 'अच्छा, आप चलिए, मैं थोड़ी देर में आऊँगा।' 'जी नहीं, यह न होगा। मेरी कार सरोज ले कर चल दी। आप मुझे पहुँचाने तो चलेंगे ही।' दोनों मेहता की कार में बैठे। कार चली। एक क्षण बाद मेहता ने पूछा - मैंने सुना है, खन्ना साहब अपनी बीबी को मारा करते हैं। तब से मुझे इनकी सूरत से नफरत हो गई। जो आदमी इतना निर्दयी हो, उसे मैं आदमी नहीं समझता। उस पर आप नारी जाति के बड़े हितैषी बनते हैं। तुमने उन्हें कभी समझाया नहीं? मालती उद्विग्न हो कर बोली - ताली हमेशा दो हथेलियों से बजती है, यह आप भूले जाते हैं। 'मैं तो ऐसे किसी कारण की कल्पना ही नहीं कर सकता कि कोई पुरुष अपने स्त्री को मारे।' 'चाहे स्त्री कितनी ही बदजबान हो?' 'हाँ, कितनी ही।' 'तो आप एक नए किस्म के आदमी हैं।' 'अगर मर्द बदमिजाज है, तो तुम्हारी राय में उस मर्द पर हंटरों की बौछार करनी चाहिए, क्यों?' 'स्त्री जितनी क्षमाशील हो सकती है, पुरुष नहीं हो सकता। आपने खुद आज यह बात स्वीकार की है।' 'तो औरत की क्षमाशीलता का यही पुरस्कार है! मैं समझता हूँ, तुम खन्ना को मुँह लगा कर उसे और भी शह देती हो। तुम्हारा वह जितना आदर करता है, तुमसे उसे जितनी भक्ति है, उसके बल पर तुम बड़ी आसानी से उसे सीधा कर सकती हो, मगर तुम उसकी सफाई दे कर स्वयं उस अपराध में शरीक हो जाती हो।' मालती उत्तेजित हो कर बोली - तुमने इस समय यह प्रसंग व्यर्थ ही छेड़ दिया। मैं किसी की बुराई नहीं करना चाहती, मगर अभी आपने गोविंदी देवी को पहचाना नहीं? आपने उनकी भोली-भाली शांत मुद्रा देख कर समझ लिया, वह देवी हैं। मैं उन्हें इतना ऊँचा स्थान नहीं देना चाहती। उन्होंने मुझे बदनाम करने का जितना प्रयत्न किया है, मुझ पर जैसे-जैसे आघात किए हैं वह बयान करूँ, तो आप दंग रह जाएँगे और तब आपको मानना पड़ेगा कि ऐसी औरत के साथ यही व्यवहार होना चाहिए। 'आखिर उन्हें आपसे जो इतना द्वेष है, इसका कोई कारण तो होगा?' 'कारण उनसे पूछिए। मुझे किसी के दिल का हाल क्या मालूम?' 'उनसे बिना पूछे भी अनुमान किया जा सकता है और वह यह है - अगर कोई पुरुष मेरे और मेरी स्त्री के बीच में आने का साहस करे, तो मैं उसे गोली मार दूँगा, और उसे न मार सकूँगा, तो अपनी छाती में मार लूँगा। इसी तरह अगर मैं किसी स्त्री को अपनी और अपनी स्त्री के बीच में लाना चाहूँ, तो मेरी पत्नी को भी अधिकार है कि वह जो चाहे, करे। इस विषय में मैं कोई समझौता नहीं कर सकता। यह अवैज्ञानिक मनोवृत्ति है, जो हमने अपने बनैले पूर्वजों से पाई है और आजकल कुछ लोग इसे असभ्य और असामाजिक व्यवहार कहेंगे, लेकिन मैं अभी तक उस मनोवृत्ति पर विजय नहीं पा सका और न पाना चाहता हूँ। इस विषय में मैं कानून की परवाह नहीं करता। मेरे घर में मेरा कानून है।' मालती ने तीव्र स्वर में पूछा - लेकिन आपने यह अनुमान कैसे कर लिया कि मैं आपके शब्दों में खन्ना और गोविंदी के बीच आना चाहती हूँ? आप ऐसा अनुमान करके मेरा अपमान कर रहे हैं। मैं खन्ना को अपने जूतियों की नोक के बराबर भी नहीं समझती। मेहता ने अविश्वास-भरे स्वर में कहा - यह आप दिल से नहीं कह रही हैं मिस मालती! क्या आप सारी दुनिया को बेवकूफ समझती हैं? जो बात सभी समझ रहे हैं, अगर वही बात मिसेज खन्ना भी समझें, तो मैं उन्हें दोष नहीं दे सकता। मालती ने तिनक कर कहा - दुनिया को दूसरों को बदनाम करने में मजा आता है। यह उसका स्वभाव है। मैं उसका स्वभाव कैसे बदल दूँ, लेकिन यह व्यर्थ का कलंक हैं। हाँ, मैं इतनी बेमुरौवत नहीं हूँ कि खन्ना को अपने पास आते देख कर दुतकार देती। मेरा काम ही ऐसा है कि मुझे सभी का स्वागत और सत्कार करना पड़ता है। अगर कोई इसका कुछ और अर्थ निकालता है, तो वह..वह... मालती का गला भर्रा गया और उसने मुँह फेर कर रूमाल से आँसू पोंछे। फिर एक मिनट बाद बोली - औरों के साथ तुम भी मुझे...मुझे...इसका दुख है.....मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी। फिर कदाचित् उसे अपनी दुर्बलता पर खेद हुआ। वह प्रचंड हो कर बोली - आपको मुझ पर आक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है, अगर आप भी उन्हीं मर्दों में हैं, जो किसी स्त्री-पुरुष को साथ देख कर उँगली उठाए बिना नहीं रह सकते, तो शौक से उठाइए। मुझे रत्ती-भर परवा नहीं। अगर कोई स्त्री आपके पास बार-बार किसी-न-किसी बहाने से आए, आपको अपना देवता समझे, हर एक बात में आपसे सलाह ले, आपके चरणों के नीचे आँखें बिछाए, आपको इशारा पाते ही आग में कूदने को तैयार हो, तो मैं दावे से कह सकती हूँ, आप उसकी उपेक्षा न करेंगे। अगर आप उसे ठुकरा सकते हैं, तो आप मनुष्य नहीं हैं। उसके विरुद्ध आप कितने ही तर्क और प्रमाण ला कर रख दें, लेकिन मैं मानूँगी नहीं। मैं तो कहती हूँ, उपेक्षा तो दूर रही, ठुकराने की बात ही क्या, आप उस नारी के चरण धो-धो कर पिएँगे, और बहुत दिन गुजरने के पहले वह आपकी हृदयेश्वरी होगी। मैं आपसे हाथ जोड़ कर कहती हूँ, मेरे सामने खन्ना का कभी नाम न लीजिएगा। मेहता ने इस ज्वाला में मानो हाथ सेंकते हुए कहा - शर्त यही है कि मैं खन्ना को आपके साथ न देखूँ। मैं मानवता की हत्या नहीं कर सकती। वह आएँगे तो मैं उन्हें दुरदुराऊँगी नहीं।' 'उनसे कहिए, अपनी स्त्री के साथ सज्जनता से पेश आएँ।' 'मैं किसी के निजी मुआमले में दखल देना उचित नहीं समझती। न मुझे इसका अधिकार है!' 'तो आप किसी की जबान नहीं बंद कर सकती॥' मालती का बँगला आ गया। कार रूक गई। मालती उतर पड़ी और बिना हाथ मिलाए चली गई। वह यह भी भूल गई कि उसने मेहता को भोजन की दावत दी है। वह एकांत में जा कर खूब रोना चाहती है। गोविंदी ने पहले भी आघात किए हैं, पर आज उसने जो आघात किया है, वह बहुत गहरा, बड़ा चौड़ा और बड़ा मर्मभेदी है। रायसाहब को खबर मिली कि इलाके में एक वारदात हो गई है और होरी से गाँव के पंचों ने जुरमाना वसूल कर लिया है, तो फोरन नोखेराम को बुला कर जवाब-तलब किया - क्यों उन्हें इसकी इत्तला नहीं दी गई। ऐसे नमकहराम और दगाबाज आदमी के लिए उनके दरबार में जगह नहीं है। नोखेराम ने इतनी गालियाँ खाईं, तो जरा गर्म हो कर बोले - मैं अकेला थोड़ा ही था। गाँव के और पंच भी तो थे। मैं अकेला क्या कर लेता? रायसाहब ने उनकी तोंद की तरफ भाले-जैसी नुकीली दृष्टि से देखा - मत बको जी। तुम्हें उसी वक्त कहना चाहिए था, जब तक सरकार को इत्तला न हो जाय, मैं पंचों को जुरमाना न वसूल करने दूँगा। पंचों को मेरे और मेरी रिआया के बीच में दखल देने का हक क्या है? इस डाँड़-बाँध के सिवा इलाके में और कौन-सी आमदनी है? वसूली सरकार के घर गई। बकाया असामियों ने दबा लिया। तब मैं कहाँ जाऊँ? क्या खाऊँ, तुम्हारा सिर। यह लाखों रुपए का खर्च कहाँ से आए? खेद है कि दो पुश्तों से कारिंदगीरी करने पर भी मुझे आज तुम्हें यह बात बतलानी पड़ती है। कितने रुपए वसूल हुए थे होरी से? नोखेराम ने सिटपिटा कर कहा - अस्सी रुपए। 'नकद?' 'नकद उसके पास कहाँ थे हुजूर! कुछ अनाज दिया, बाकी में अपना घर लिख दिया।' रायसाहब ने स्वार्थ का पक्ष छोड़ कर होरी का पक्ष लिया - अच्छा, तो आपने और बगुलाभगत पंचों ने मिल कर मेरे एक मातबर असामी को तबाह कर दिया। मैं पूछता हूँ, तुम लोगों को क्या हक था कि मेरे इलाके में मुझे इत्तिला दिए बगैर मेरे असामी से जुरमाना वसूल करते? इसी बात पर अगर मैं चाहूँ, तो आपको, उस जालिए पटवारी और उस धूर्त पंडित को सात-सात साल के लिए जेल भिजवा सकता हूँ। आपने समझ लिया कि आप ही इलाके के बादशाह हैं। मैं कहे देता हूँ, आज शाम तक जुरमाने की पूरी रकम मेरे पास पहुँच जाय, वरना बुरा होगा। मैं एक-एक से चक्की पिसवा कर छोडूँगा। जाइए, हाँ, होरी को और उसके लड़के को मेरे पास भेज दीजिएगा। नोखेराम ने दबी जबान से कहा - उसका लड़का तो गाँव छोड़ कर भाग गया। जिस रात को यह वारदात हुई, उसी रात को भागा। रायसाहब ने रोष से कहा - झूठ मत बोलो। तुम्हें मालूम है, झूठ से मेरे बदन में आग लग जाती है। मैंने आज तक कभी नहीं सुना कि कोई युवक अपने प्रेमिका को उसके घर से ला कर फिर खुद भाग जाए। अगर उसे भागना ही होता, तो वह उस लड़की को लाता क्यों? तुम लोगों की इसमें भी जरूर कोई शरारत है। तुम गंगा में डूब कर भी अपनी सफाई दो, तो मैं मानने का नहीं। तुम लोगों ने अपने समाज की प्यारी मर्यादा की रक्षा के लिए उसे धमकाया होगा। बेचारा भाग न जाता, तो क्या करता! नोखेराम इसका प्रतिवाद न कर सके। मालिक जो कुछ कहें, वह ठीक है। वह यह भी न कह सके कि आप खुद चल कर झूठ-सच की जाँच कर लें। बड़े आदमियों का क्रोध पूरा समर्पण चाहता है। अपने खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुन सकता। पंचों ने रायसाहब का फैसला सुना, तो नशा हिरन हो गया। अनाज तो अभी तक ज्यों-का-त्यों पड़ा था, पर रुपए तो कब के गायब हो गए। होरी को मकान रेहन लिखा गया था, पर उस मकान को देहात में कौन पूछता था? जैसे हिंदू स्त्री पति के साथ घर की स्वामिनी है, और पति त्याग दे, तो कहीं की नहीं रहती, उसी तरह यह घर होरी के लिए लाख रुपए का है, पर उसकी असली कीमत कुछ भी नहीं। और इधर रायसाहब बिना रुपए लिए मानने के नहीं। यही होरी जा कर रो आया होगा। पटेश्वरी लाल सबसे ज्यादा भयभीत थे। उनकी तो नौकरी ही चली जायगी। चारों सज्जन इस गहन समस्या पर विचार कर रहे थे, पर किसी की अक्ल काम न करती थी। एक-दूसरे पर दोष रखता था। फिर खूब झगड़ा हुआ। पटेश्वरी ने अपनी लंबी शंकाशील गर्दन हिला कर कहा - मैं मना करता था कि होरी के विषय में हमें चुप्पी साध कर रह जाना चाहिए। गाय के मामले में सबको तावान देना पड़ा। इस मामले में तावान ही से गला न छूटेगा, नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा, मगर तुम लोगों को रुपए की पड़ी थी। निकालो बीस-बीस रुपए। अब भी कुशल है। कहीं रायसाहब ने रपट कर दी, तो सब जने बँधा जाओगे। दातादीन ने ब्रह्म तेज दिखा कर कहा - मेरे पास बीस रुपए की जगह बीस पैसे भी नहीं हैं। ब्राह्मणों को भोज दिया गया, होम हुआ। क्या इसमें कुछ खरच ही नहीं हुआ? रायसाहब की हिम्मत है कि मुझे जेहल ले जायँ। ब्रह्म बन कर घर का घर मिटा दूँगा। अभी उन्हें किसी ब्राह्मण से पाला नहीं पड़ा। झिंगुरीसिंह ने भी कुछ इसी आशय के शब्द कहे। वह रायसाहब के नौकर नहीं हैं। उन्होंने होरी को मारा नहीं, पीटा नहीं, कोई दबाव नहीं डाला। होरी अगर प्रायश्चित करना चाहता था, तो उन्होंने इसका अवसर दिया। इसके लिए कोई उन पर अपराध नहीं लगा सकता, मगर नोखेराम की गर्दन इतनी आसानी से न छूट सकती थी। यहाँ मजे से बैठे राज करते थे। वेतन तो दस रुपए से ज्यादा न था, पर एक हजार साल की ऊपर की आमदनी थी, सैकड़ों आदमियों पर हुकूमत, चार-चार प्यादे हाजिर, बेगार में सारा काम हो जाता था, थानेदार तक कुरसी देते थे, यह चैन उन्हें और कहाँ था। और पटेश्वरी तो नौकरी के बदौलत महाजन बने हुए थे। कहाँ जा सकते थे। दो-तीन दिन इसी चिंता में पड़े रहे कि कैसे इस विपत्ति से निकलें। आखिर उन्हें एक मार्ग सूझ ही गया। कभी-कभी कचहरी में उन्हें दैनिक 'बिजली' देखने को मिल जाती थी। यदि एक गुमनाम पत्र उसके संपादक की सेवा में भेज दिया जाय कि रायसाहब किस तरह असामियों से जुरमाना वसूल करते हैं, तो बचा को लेने के देने पड़ जायँ। नोखेराम भी सहमत हो गए। दोनों ने मिल कर किसी तरह एक पत्र लिखा और रजिस्टरी से भेज दिया। संपादक ओंकारनाथ तो ऐसे पत्रों की ताक में रहते थे। पत्र पाते ही तुरंत रायसाहब को सूचना दी। उन्हें एक ऐसा समाचार मिला है, जिस पर विश्वास करने की उनकी इच्छा नहीं होती, पर संवाददाता ने ऐसे प्रमाण दिए हैं कि सहसा अविश्वास भी नहीं किया जा सकता। क्या यह सच है कि रायसाहब ने अपने इलाके के एक आसामी से अस्सी रुपए तावान इसलिए वसूल किए कि उसके पुत्र ने एक विधवा को घर में डाल लिया था? संपादक का कर्तव्य उन्हें मजबूर करता है कि वह मुआमले की जाँच करें और जनता के हितार्थ उसे प्रकाशित कर दें। रायसाहब इस विषय में जो कुछ कहना चाहें, संपादक जी उसे भी प्रकाशित कर देंगे। संपादक जी दिल से चाहते हैं कि यह खबर गलत हो, लेकिन उसमें कुछ भी सत्य हुआ, तो वह उसे प्रकाश में लाने के लिए विवश हो जाएँगे। मैत्री उन्हें कर्तव्य-पथ से नहीं हटा सकती। रायसाहब ने यह सूचना पाई, तो सिर पीट लिया। पहले तो उनको ऐसी उत्तेजना हुई कि जा कर ओंकारनाथ को गिन कर पचास हंटर जमाएँ और कह दें, जहाँ वह पत्र छापना, वहाँ यह समाचार भी छाप देना, लेकिन इसका परिणाम सोच कर मन को शांत किया और तुरंत उनसे मिलने चले। अगर देर की, और ओंकारनाथ ने वह संवाद छाप दिया, तो उनके सारे यश में कालिमा पुत जायगी। ओेंकारनाथ सैर करके लौटे थे और आज के पत्र के लिए संपादकीय लेख लिखने की चिंता में बैठे हुए थे, पर मन पक्षी की भाँति उड़ा-उड़ा फिरता था। उनकी धर्मपत्नी ने रात उन्हें कुछ ऐसी बातें कह डाली थीं, जो अभी तक काँटों की तरह चुभ रही थीं। उन्हें कोई दरिद्र कह ले, अभागा कह ले, बुद्धू कह ले, वह जरा भी बुरा न मानते थे, लेकिन यह कहना कि उनमें पुरुषत्व नहीं है, यह उनके लिए असहाय था। और फिर अपनी पत्नी को यह कहने का क्या हक है? उससे तो यह आशा की जाती है कि कोई इस तरह का आक्षेप करे, तो उसका मुँह बंद कर दे। बेशक वह ऐसी खबरें नहीं छापते, ऐसी टिप्पणियाँ नहीं करते कि सिर पर कोई आफत आ जाए। फूँक-फूँक कर कदम रखते हैं। इन काले कानूनों के युग में वह और कर ही क्या सकते हैं, मगर वह क्यों साँप के बिल में हाथ नहीं डालते? इसीलिए तो कि उनके घर वालों को कष्ट न उठाने पड़ें। और उनकी सहिष्णुता का उन्हें यह पुरस्कार मिल रहा है? क्या अंधेर है! उनके पास रुपए नहीं हैं, तो बनारसी साड़ी कैसे मँगा दें? डाक्टर, सेठ और प्रोफेसर भाटिया और न जाने किस-किसकी स्त्रियाँ बनारसी साड़ी पहनती हैं, तो वह क्या करें? क्यों उनकी पत्नी इन साड़ीवालियों को अपने खद्दर की साड़ी से लज्जित नहीं करती? उनकी खुद तो यह आदत है कि किसी बड़े आदमी से मिलने जाते हैं, तो मोटे से मोटे कपड़े पहन लेते हैं और कोई कुछ आलोचना करे, तो उसका मुँह तोड़ जवाब देने को तैयार रहते हैं। उनकी पत्नी में क्यों वही आत्माभिमान नहीं है? वह क्यों दूसरों का ठाट-बाट देख कर विचलित हो जाती है? उसे समझना चाहिए कि वह एक देश-भक्त पुरुष की पत्नी है। देश-भक्त के पास अपने भक्ति के सिवा और क्या संपत्ति है? इसी विषय को आज के अग्रलेख का विषय बनाने की कल्पना करते-करते उनका ध्यान रायसाहब के मुआमले की ओर जा पहुँचा। रायसाहब सूचना का क्या उत्तर देते हैं, यह देखना है। अगर वह अपनी सफाई देने में सफल हो जाते हैं, तब तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर वह यह समझें कि ओंकारनाथ दबाव, भय या मुलाहजे में आ कर अपने कर्तव्य से मुँह फेर लेंगे तो यह उनका भ्रम है। इस सारे तप और साधना का पुरस्कार उन्हें इसके सिवा और क्या मिलता है कि अवसर पड़ने पर वह इन कानूनी डकैतों का भंडाफोड़ करें। उन्हें खूब मालूम है कि रायसाहब बड़े प्रभावशाली जीव हैं। कौंसिल के मेंबर तो हैं ही। अधिकारियों में भी उनका काफी रूसूख है। वह चाहें, तो उन पर झूठे मुकदमे चलवा सकते हैं, अपने गुंडों से राह चलते पिटवा सकते हैं, लेकिन ओंकार इन बातों से नहीं डरता। जब तक उसकी देह में प्राण है, वह आततायियों की खबर लेता रहेगा। सहसा मोटरकार की आवाज सुन कर वह चौंके। तुरंत कागज ले कर अपना लेख आरंभ कर दिया। और एक ही क्षण में रायसाहब ने उनके कमरे में कदम रखा। ओंकारनाथ ने न उनका स्वागत किया, न कुशल-क्षेम पूछा, न कुरसी दी। उन्हें इस तरह देखा, मानो कोई मुलजिम उनकी अदालत में आया हो और रोब से मिले हुए स्वर में पूछा - आपको मेरा पुरजा मिल गया था? मैं वह पत्र लिखने के लिए बाध्य नहीं था, मेरा कर्तव्य यह था कि स्वयं उसकी तहकीकात करता, लेकिन मुरौवत में सिद्धांतों की कुछ न कुछ हत्या करनी ही पड़ती है। क्या उस संवाद में कुछ सत्य है? रायसाहब उसका सत्य होना अस्वीकार न कर सके। हालाँकि अभी तक उन्हें जुरमाने के रुपए नहीं मिले थे और वह उनके पाने से साफ इनकार कर सकते थे, लेकिन वह देखना चाहते थे कि यह महाशय किस पहलू पर चलते हैं। ओेंकारनाथ ने खेद प्रकट करते हुए कहा - तब तो मेरे लिए उस संवाद को प्रकाशित करने के सिवा और कोई मार्ग नहीं है। मुझे इसका दु:ख है कि मुझे अपने एक परम हितैषी मित्र की आलोचना करनी पड़ रही है, लेकिन कर्तव्य के आगे व्यक्ति कोई चीज नहीं। संपादक अगर अपना कर्तव्य न पूरा कर सके तो उसे इस आसन पर बैठने का कोई हक नहीं है। रायसाहब कुरसी पर डट गए और पान की गिलौरियाँ मुँह में भर कर बोले - लेकिन यह आपके हक में अच्छा न होगा। मुझे जो कुछ होना है, पीछे होगा, आपको तत्काल दंड मिल जायगा अगर आप मित्रों की परवाह नहीं करते, तो मैं भी उसी कैंड़े का आदमी हूँ। ओंकारनाथ ने शहीद का गौरव धारण करके कहा - इसका तो मुझे कभी भय नहीं हुआ। जिस दिन मैंने पत्र-संपादन का भार लिया, उसी दिन प्राणों का मोह छोड़ दिया, और मेरे समीप एक संपादक की सबसे शानदार मौत यही है कि वह न्याय और सत्य की रक्षा करता हुआ अपना बलिदान कर दे। 'अच्छी बात है। मैं आपकी चुनौती स्वीकार करता हूँ। मैं अब तक आपको मित्र समझता आया था, मगर अब आप लड़ने ही पर तैयार हैं, तो लड़ाई ही सही। आखिर मैं आपके पत्र का पंचगुना चंदा क्यों देता हूँ? केवल इसीलिए कि वह मेरा गुलाम बना रहे। मुझे परमात्मा ने रईस बनाया है। आपके बनाने से नहीं बना हूँ। साधारण चंदा पंद्रह रूपया है। मैं पचहत्तर रूपया देता हूँ, इसलिए कि आपका मुँह बंद रहे। जब आप घाटे का रोना रोते हैं और सहायता की अपील करते हैं, और ऐसी शायद ही कोई तिमाही जाती हो, जब आपकी अपील न निकलती हो, तो मैं ऐसे मौके पर आपकी कुछ-न-कुछ मदद कर देता हूँ। किसलिए? दीपावली, दशहरा, होली में आपके यहाँ बैना भेजता हूँ, और साल में पच्चीस बार आपकी दावत करता हूँ, किसलिए? आप रिश्वत और कर्तव्य दोनों साथ-साथ नहीं निभा सकते।' ओंकारनाथ उत्तेजित हो कर बोले - मैंने कभी रिश्वत नहीं ली। रायसाहब ने फटकारा - अगर यह व्यवहार रिश्वत नहीं है तो रिश्वत क्या है, जरा मुझे समझा दीजिए! क्या आप समझते हैं, आपको छोड़ कर और सभी गधे हैं, जो नि:स्वार्थ-भाव से आपका घाटा पूरा करते रहते हैं? निकालिए अपने बही और बतलाइए, अब तक आपको मेरी रियासत से कितना मिल चुका है? मुझे विश्वास है, हजारों की रकम निकलेगी। अगर आपको स्वदेशी-स्वदेशी चिल्ला कर विदेशी दवाओं और वस्तुओं का विज्ञापन छापने में शरम नहीं आती, तो मैं अपने असामियों से डाँड़, तावान और जुर्माना लेते क्यों शरमाऊँ? यह न समझिए कि आप ही किसानों के हित का बीड़ा उठाए हुए हैं। मुझे किसानों के साथ जलना-मरना है, मुझसे बढ़ कर दूसरा उनका हितेच्छु नहीं हो सकता, लेकिन मेरी गुजर कैसे हो? अफसरों को दावतें कहाँ से दूँ, सरकारी चंदे कहाँ से दूँ खानदान के सैकड़ों आदमियों की जरूरतें कैसे पूरी करूँ? मेरे घर का क्या खर्च है, यह शायद आप जानते हैं, तो क्या मेरे घर में रुपए फलते हैं? आएगा तो असामियों ही के घर से। आप समझते होंगे, जमींदार और ताल्लुकेदार सारे संसार का सुख भोग रहे हैं। उनकी असली हालत का आपको ज्ञान नहीं, अगर वह धर्मात्मा बन कर रहें, तो उनका जिंदा रहना मुश्किल हो जाए। अफसरों को डालियाँ न दें, तो जेलखाना घर हो जाए। हम बिच्छू नहीं हैं कि अनायास ही सबको डंक मारते फिरें। न गरीबों का गला दबाना कोई बड़े आनंद का काम है, लेकिन मर्यादाओं का पालन तो करना ही पड़ता है। जिस तरह आप मेरी रईसी का फायदा उठाना चाहते हैं, उसी तरह और सभी हमें सोने की मुर्गी समझते हैं। आइए मेरे बँगले पर तो दिखाऊँ कि सुबह से शाम तक कितने निशाने मुझ पर पड़ते हैं। कोई काश्मीर से शाल-दुशाला लिए चला आ रहा है, कोई इत्र और तंबाकू का एजेंट है, कोई पुस्तकों और पत्रिकाओं का, कोई जीवन बीमे का, कोई ग्रामोफोन लिए सिर पर सवार है, कोई कुछ। चंदे वाले तो अनगिनती। क्या सबके सामने अपना दुखड़ा ले कर बैठ जाऊँ? ये लोग मेरे द्वार पर दुखड़ा सुनाने आते हैं? आते हैं मुझे उल्लू बना कर मुझसे कुछ ऐंठने के लिए। आज मर्यादा का विचार छोड़ दूँ, तो तालियाँ पिटने लगें। हुक्काम को डालियाँ न दूँ, तो बागी समझा जाऊँ। तब आप अपने लेखों से मेरी रक्षा न करेंगे। कांग्रेस में शरीक हुआ, उसका तावान अभी तक देता जाता हूँ। काली किताब में नाम दर्ज हो गया। मेरे सिर पर कितना कर्ज है, यह भी कभी आपने पूछा है? अगर सभी महाजन डिग्रियाँ करा लें, तो मेरे हाथ की यह अंगूठी तक बिक जायगी। आप कहेंगे, क्यों यह आडंबर पालते हो? कहिए, सात पुश्तों से जिस वातावरण में पला हूँ, उससे अब निकल नहीं सकता। घास छीलना मेरे लिए असंभव है। आपके पास जमीन नहीं, जायदाद नहीं, मर्यादा का झमेला नहीं, आप निर्भीक हो सकते हैं, लेकिन आप भी दुम दबाए बैठे रहते हैं। आपको कुछ खबर है, अदालतों में कितनी रिश्वतें चल रही हैं, कितने गरीबों का खून हो रहा है, कितनी देवियाँ भ्रष्ट हो रही हैं। है बूता लिखने का? सामग्री मैं देता हूँ, प्रमाण सहित। ओंकारनाथ कुछ नर्म हो कर बोले - जब कभी अवसर आया है, मैंने कदम पीछे नहीं हटाया। रायसाहब भी कुछ नर्म हुए - हाँ, मैं स्वीकार करता हूँ कि दो-एक मौकों पर आपने जवाँमर्दी दिखाई, लेकिन आपकी निगाह हमेशा अपने लाभ की ओर रही है, प्रजा-हित की ओर नहीं। आँखें न निकालिए और न मुँह लाल कीजिए। जब कभी आप मैदान में आए हैं, उसका शुभ परिणाम यही हुआ कि आपके सम्मान और प्रभाव और आमदनी में इजाफा हुआ है, अगर मेरे साथ भी आप वही चाल चल रहे हों, तो आपकी खातिर करने को तैयार हूँ। रुपए न दूँगा, क्योंकि वह रिश्वत है। आपकी पत्नीजी के लिए कोई आभूषण बनवा दूँगा। है मंजूर? अब मैं आपसे सत्य कहता हूँ कि आपको जो संवाद मिला, वह गलत है, मगर यह भी कह देना चाहता हूँ कि अपने और सभी भाइयों की तरह मैं भी असामियों से जुरमाना लेता हूँ और साल में दस-पाँच हजार रुपए मेरे हाथ लग जाते हैं, और अगर आप मेरे मुँह से यह कौर छीनना चाहेंगे, तो आप घाटे में रहेंगे। आप भी संसार में सुख से रहना चाहते हैं, मैं भी चाहता हूँ। इससे क्या फायदा कि आप न्याय और कर्तव्य का ढोंग रच कर मुझे भी जेरबार करें, खुद भी जेरबार हों। दिल की बात कहिए। मैं आपका बैरी नहीं हूँ। आपके साथ कितनी ही बार एक चौके में एक मेज पर खा चुका हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि आप तकलीफ में हैं। आपकी हालत शायद मेरी हालत से भी खराब है। हाँ, अगर आपने हरिश्चंद्र बनने की कसम खा ली है, तो आपकी खुशी। मैं चलता हूँ। रायसाहब कुरसी से उठ खड़े हुए। ओंकारनाथ ने उनका हाथ पकड़ कर संधि-भाव से कहा - नहीं-नहीं, अभी आपको बैठना पड़ेगा। मैं अपनी पोजीशन साफ कर देना चाहता हूँ। आपने मेरे साथ जो सलूक किए हैं, उनके लिए मैं आपका अभारी हूँ, लेकिन यहाँ सिद्धांत की बात आ गई है और आप तो जानते हैं, सिद्धांत प्राणों से भी प्यारे होते हैं। रायसाहब कुरसी पर बैठ कर जरा मीठे स्वर में बोले - अच्छा भाई, जो चाहे लिखो। मैं तुम्हारे सिद्धांत को तोड़ना नहीं चाहता। और तो क्या होगा, बदनामी होगी। हाँ, कहाँ तक नाम के पीछे मरूँ! कौन ऐसा ताल्लुकेदार है, जो असामियों को थोड़ा-बहुत नहीं सताता ? कुत्ता हड्डी की रखवाली करे तो खाए क्या? मैं इतना ही कर सकता हूँ कि आगे आपको इस तरह की कोई शिकायत न मिलेगी, अगर आपको मुझ पर कुछ विश्वास है, तो इस बार क्षमा कीजिए। किसी दूसरे संपादक से मैं इस तरह खुशामद नहीं करता। उसे सरे बाजार पिटवाता, लेकिन मुझसे आपकी दोस्ती है, इसलिए दबना ही पड़ेगा। यह समाचार-पत्रों का युग है। सरकार तक उनसे डरती है, मेरी हस्ती क्या। आप जिसे चाहें बना दें। खैर, यह झगड़ा खत्म कीजिए। कहिए, आजकल पत्र की क्या दशा है? कुछ ग्राहक बढ़े? ओंकारनाथ ने अनिच्छा के भाव से कहा - किसी न किसी तरह काम चल जाता है और वर्तमान परिस्थिति में मैं इससे अधिक आशा नहीं रखता। मैं इस तरफ धन और भोग की लालसा ले कर नहीं आया था, इसलिए मुझे शिकायत नहीं है। मैं जनता की सेवा करने आया था और वह यथाशक्ति किए जाता हूँ। राष्ट्र का कल्याण हो, यही मेरी कामना है। एक व्यक्ति के सुख-दु:ख का कोई मूल्य नहीं है। रायसाहब ने जरा और सहृदय हो कर कहा - यह सब ठीक है भाई साहब, लेकिन सेवा करने के लिए भी जीना जरूरी है। आर्थिक चिंताओं में आप एकाग्रचित्त हो कर सेवा भी तो नहीं कर सकते। क्या ग्राहक-संख्या बिलकुल नहीं बढ़ रही है? 'बात यह है कि मैं अपने पत्र का आदर्श गिराना नहीं चाहता, अगर मैं भी आज सिनेमा-स्टारों के चित्र और चरित्र छापने लगूँ तो मेरे ग्राहक बढ़ सकते हैं, लेकिन अपनी तो यह नीति नहीं! और भी कितने ही ऐसे हथकंडे हैं, जिनसे पत्रों द्वारा धन कमाया जा सकता है, लेकिन मैं उन्हें गर्हित समझता हूँ।' 'इसी का यह फल है कि आज आपका इतना सम्मान है। मैं एक प्रस्ताव करना चाहता हूँ। मालूम नहीं, आप उसे स्वीकार करेंगे या नहीं। आप मेरी ओर से सौ आदमियों के नाम फ्री पत्र जारी कर दीजिए। चंदा मैं दे दूँगा।' ओंकारनाथ ने कृतज्ञता से सिर झुका कर कहा - मैं धन्यवाद के साथ आपका दान स्वीकार करता हूँ। खेद यही है कि पत्रों की ओर से जनता कितनी उदासीन है। स्कूल और कालिजों और मंदिरों के लिए धन की कमी नहीं है, पर आज तक एक भी ऐसा दानी न निकला, जो पत्रों के प्रचार के लिए दान देता, हालाँकि जन-शिक्षा का उद्देश्य जितने कम खर्च में पत्रों से पूरा हो सकता है, और किसी तरह नहीं हो सकता। जैसे शिक्षालयों को संस्थाओं द्वारा सहायता मिला करती है, ऐसे ही अगर पत्रकारों को मिलने लगे, तो इन बेचारों को अपना जितना समय और स्थान विज्ञापनों की भेंट करना पड़ता है, वह क्यों करना पड़े? मैं आपका बड़ा अनुगृहीत हूँ। रायसाहब बिदा हो गए। ओंकारनाथ के मुख पर प्रसन्नता की झलक न थी। रायसाहब ने किसी तरह की शर्त न की थी, कोई बंधन न लगाया था, पर ओंकारनाथ आज इतनी करारी फटकार पा कर भी इस दान को अस्वीकार न कर सके। परिस्थिति ऐसी आ पड़ी थी कि उन्हें उबरने का कोई उपाय ही न सूझ रहा था। प्रेस के कर्मचारियों का तीन महीने का वेतन बाकी पड़ा हुआ था। कागज वाले के एक हजार से ऊपर आ रहे थे, यही क्या कम था कि उन्हें हाथ नहीं फैलाना पड़ा। उनकी स्त्री गोमती ने आ कर विद्रोह के स्वर में कहा - क्या अभी भोजन का समय नहीं आया, या यह भी कोई नियम है कि जब तक एक न बज जाय, जगह से न उठो? कब तक कोई चूल्हा अगोरता रहे? ओंकारनाथ ने दु:खी आँखों से पत्नी की ओर देखा। गोमती का विद्रोह उड़ गया। वह उनकी कठिनाइयों को समझती थी। दूसरी महिलाओं के वस्त्राभूषण देख कर कभी-कभी उसके मन में विद्रोह के भाव जाग उठते थे और वह पति को दो-चार जली कटी सुना जाती थी, पर वास्तव में यह क्रोध उनके प्रति नहीं, अपने दुर्भाग्य के प्रति था, और इसकी थोड़ी-सी आँच अनायास ही ओंकारनाथ तक पहुँच जाती थी। वह उनका तपस्वी जीवन देख कर मन में कुढ़ती थी और उनसे सहानुभूति भी रखती थी। बस, उन्हें थोड़ा-सा सनकी समझती थी। उनका उदास मुँह देख कर पूछा - क्यों उदास हो, पेट में कुछ गड़बड़ है क्या? ओंकारनाथ को मुस्कराना पड़ा - कौन उदास है, मैं? मुझे तो आज जितनी खुशी है, उतनी अपने विवाह के दिन भी न हुई थी। आज सबेरे पंद्रह सौ की बोहनी हुई। किसी भाग्यवान् का मुँह देखा था। गोमती को विश्वास न आया, बोली - झूठे हो, तुम्हें पंद्रह सौ कहाँ मिल जाते हैं? पंद्रह रुपए कहो, मान लेती हूँ। नहीं-नहीं, तुम्हारे सिर की कसम, पंद्रह सौ मारे। अभी रायसाहब आए थे। सौ ग्राहकों का चंदा अपनी तरफ से देने का वचन दे गए हैं।' गोमती का चेहरा उतर गया- तो मिल चुके! 'नहीं, रायसाहब वादे के पक्के हैं।' 'मैंने किसी ताल्लुकेदार को वादे का पक्का देखा ही नहीं। दादा एक ताल्लुकेदार के नौकर थे। साल-साल भर तलब नहीं मिलती थी। उसे छोड़ कर दूसरे की नौकरी की। उसने दो साल तक एक पाई न दी। एक बार दादा गरम पड़े, तो मार कर भगा दिया। इनके वादों का कोई करार नहीं।' 'मैं आज ही बिल भेजता हूँ।' 'भेजा करो। कह देंगे, कल आना। कल अपने इलाके पर चले जाएँगे। तीन महीने में लौटेंगे।' ओंकारनाथ संशय में पड़ गए। ठीक तो है, कहीं रायसाहब पीछे से मुकर गए तो वह क्या कर लेंगे? फिर भी दिल मजबूत करके कहा - ऐसा नहीं हो सकता। कम-से-कम रायसाहब को मैं इतना धोखेबाज नहीं समझता। मेरा उनके यहाँ कुछ बाकी नहीं है। गोमती ने उसी संदेह के भाव से कहा - इसी से तो मैं तुम्हें बुद्धू कहती हूँ। जरा किसी ने सहानुभूति दिखाई और तुम फूल उठे। मोटे रईस हैं। इनके पेट में ऐसे कितने वादे हजम हो सकते हैं। जितने वादे करते हैं, अगर सब पूरा करने लगें, तो भीख माँगने की नौबत आ जाए। मेरे गाँव के ठाकुर साहब तो दो-दो, तीन-तीन साल तक बनियों का हिसाब न करते थे। नौकरों का वेतन तो नाम के लिए देते थे। साल-भर काम लिया, जब नौकर ने वेतन माँगा, मार कर निकाल दिया। कई बार इसी नादिहंदी में स्कूल से उनके लड़कों के नाम कट गए। आखिर उन्होंने लड़कों को घर बुला लिया। एक बार रेल का टिकट भी उधार माँगा था। यह रायसाहब भी तो उन्हीं के भाईबंद हैं। चलो, भोजन करो और चक्की पीसो, जो तुम्हारे भाग्य में लिखा है। यह समझ लो कि ये बड़े आदमी तुम्हें फटकारते रहें, वही अच्छा है। यह तुम्हें एक पैसा देंगे, तो उसका चौगुना अपने असामियों से वसूल कर लेंगे। अभी उनके विषय में जो कुछ चाहते हो, लिखते हो। तब तो ठकुरसोहाती ही करनी पड़ेगी। पंडित जी भोजन कर रहे थे, पर कौर मुँह में फँसा हुआ जान पड़ता था। आखिर बिना दिल का बोझ हल्का किए, भोजन करना कठिन हो गया। बोले - अगर रुपए न दिए, तो ऐसी खबर लूँगा कि याद करेंगे। उनकी चोटी मेरे हाथ में है। गाँव के लोग झूठी खबर नहीं दे सकते। सच्ची खबर देते तो उनकी जान निकलती है, झूठी खबर क्या देंगे। रायसाहब के खिलाफ एक रिपोर्ट मेरे पास आई है। छाप दूँ, तो बचा को घर से निकलना मुश्किल हो जाए। मुझे वह खैरात नहीं दे रहे हैं, बड़े दबसट में पड़ कर इस राह पर आए हैं। पहले धमकियाँ दिखा रहे थे। जब देखा, इससे काम न चलेगा, तो यह चारा फेंका। मैंने भी सोचा, एक इनके ठीक हो जाने से तो देश से अन्याय मिटा जाता नहीं, फिर क्यों न इस दान को स्वीकार कर लूँ? मैं अपने आदर्श से गिर गया हूँ जरूर, लेकिन इतने पर भी रायसाहब ने दगा की, तो मैं भी शठता पर उतर आऊँगा। जो गरीबों को लूटता है, उसको लूटने के लिए अपनी आत्मा को बहुत समझाना न पड़ेगा।