%%%% http://www.cfilt.iitb.ac.in/hin_corp_unicode.tar %%%% CS671 : "ahitagnimukherjeeam@gmail.com" 15/08/07 प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में बहुआ ऐसे स्थल भी मिलते है,जहां प्रेमचंद `मूल्य-संसार' का विरोध करते हैं. `गबन' में रमानाथका प्रसंग `खोखले विरोध' का स्वर बनता है. उसकी अवसरवादी प्रव़्अतिके खोखलेपन के लिए जिस स्पष्टता की अनिवार्यता होनी चाहिए, वह वहांमिलती है. ऐसे ही अन्य अवसरों पर अपने उदेश्यवादी द़्अष्टिकोण की सिद्विके अतिरिक्त जो द़्अष्टि उभरती है वह यथार्थवादी तो है ही, अपने अव्यक्तरुप में वह समय की चुनौतियों का स्वीकार भी है. समय की चुनौती यही हैकि एक ऐसा वर्ग भी, जिसे संघर्ष के लिए तत्पर रहना चाहिए, अक्सर अवसरवादीसाबित हो जाता है. तब चुनौतियों के सामने खड़े होकर विवेकहीन मनुष्यको अपने ही वर्गो से भी लड़ना पड़ता है. हम देखेगे कि प्रेमचंद व्यक्तिरुप में अपने ही `वर्ग' के प्रबुद्व समाज से भी लड़े हैं तथा क़तियोंमें उनके `व्यक्तित्व' की यह विवेक-शील लड़ाई अलग ढ़ग से प्रेमचंदकी तस्वीर को सामने रखती है. अपने समय के `जन-समाज' को प्रत्येक लेखक तरह-तरह से रचनाओं का आधारबनाता है. `जन-समाज' का चित्र स्थिरीक़त `बिन्दु' की तरह समान होताहैं. परन्तु रचनाओं में वह `जन-समाज' जब आता है तो प्रत्येक लेखककी रचनाओं में वह भिन्न रुपों में आता है. दरअसल समर्थ लेखक की पहचानइसी से होती है कि उसकी रचनाओं में `जन-समाज' कैसे चित्रित हुआ है.प्रेमचंद समर्थ लेखक थे कि नहीं-यह तो सिद्व हो ही सकता है किन्तुप्रेमचंद का रचना व्यक्तित्व वह समर्थता प्रक्षेपित करता भी हैकि नहीं-इसका भी अनुमान इस आधार पर दिया जा सकता है. जैसा हम मानतेहैं, प्रेमचंद महान लेखक नहीं थे, चाहे उनके रचना संसार का `प्रभा-मंडल'कहीं न कहीं `क्लासिकल बोध' (शास्त्रीय बोध) से जुड़ा हुआ था. इसकेबावजूद भी वे महान लेखक नहीं थे. रचनाओं के फैले हुए `स्पेन' पर देखाजाये तो महानता व्यजित करनेवाला व्यक्तित्व उनका नहीं. उनकी `समर्थता'के बारे में भी संदेह होता है, क्योंकि `रचना-व्यक्तित्व' की समर्थताकेवल `यथार्थांकन' की समर्थता नहीं है, बल्कि अपने समय के द़्अश्य-संसारद़्अश्य जन-समाज को समय के प्रतीक में ढालकर सौंदर्य का मानक स्थापितकरने-समर्थता, का लक्षण है. प्रेमचंद की कहानियां लें या उपन्यासया उनके गद्य निबंध बहुत कम स्थलों पर प्रेमचंद में, `रचनात्मकता के स्तर' पर सौंदर्य के मानक स्थापित करने जैसी कोई कोशिश उभरी है.परन्तु वे अन्य स्तरों पर, अन्य कोणों से समर्थ लेखक हैं-इसमेंकोई संदेह नहीं है. अपनी वैचारिक प्रतिबद्व, जीवन-द़्अष्टि द्वारा प्रेमचंद ने एक निर्ममआलो-चना -द़्अष्टि अवश्य रचनाओं में प्रक्षेपित की थी, किन्तुवह `इतिहास-बोध' के कौन से अनुक्रम में ली जाये, यह अनिर्णीत है.उनके रचना-व्यक्तित्व का यह हिस्सा कि उनकी जीवन-द़्अष्टि, जो उन्हेंयथार्थवादी रचनाकार के रुप में प्रस्तुत करती है, किस वैचारिकक्षितिज की द़्अष्टि है-अनेक तरह के विरोधाभासों से भरा हुआ है. अगरवह शुद्वत: माक्र्सवादी चेतना है तो उसमें कहीं भी किसी स्तर परप्रतिगामी परंपराबद्व मूल्य-संसार से समझौता नहीं होना चाहिए,अगर वह गांधीवादी चेतना है तो उसके मूल में यथार्थ की जगह `आत्म-शुद्वि'का प्रचारक भाव वर्तमान रहना चाहिए. यह विरोधाभास भी उनके रचना-व्यक्तित्वकी एकरुपता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है. सुविधा के लिए यह माना जा सकताहै कि उदारतावादी, मानववाद ही उनकी मूल चेतना रही. परन्तु यह मानलेने पर भी `विरोधाभास' का आरोप मन्द नहीं पड़ जाता. इसी कारण प्रेमचंदकी रचनाओं में `जीवन की असंगतियां' यथार्थ का पक्ष बनकर भी कला कीअसंगतियां बन गयी हैं. प्रेमचंद के क़ति-व्यक्तित्व को दोषयुक्तमानने जैसा सामान्यीक़त निर्णय भी नहीं लिया जा सकता, क्योंकिअभी इस सारे प्रकरण की अनेक संभावनाएँ हैं. आठवें दशक में भी प्रेमचंदकेवल अतीत बनकर `अर्थहीन' नहीं हो जाते, शायद यही कारण है कि प्रेमचंदके `रचना-व्यक्तित्व' की संभावनाएँ अभी भी विचार की चुनौतियांबनी हुई हैं. अत: समर्थ रचना-व्यक्तित्व का संदेह लिये हुए भी प्रेमचंदका रचना-व्यक्तित्व अपनी संभावनाओ की वजह से चुनौती बना हुआ हैं-यह उस रचना-व्यक्तित्व के जड़ न होने का उदाहरण है. परवर्ती लेखकोंमें परंपरा के रुप में प्रवाहित होने का `तथ्य' भी प्रेमचंद के रचना-व्यक्तित्वकी संभावनाओं को पुष्ट करता है. मनुष्य के जिस रुप को प्रेमचंद नेअपनी खुली कलम से चित्रित किया था, उसे कच्चा माल आज हम बेशक मान लेंलेकिन धीरे-धीरे जिस रुप में परवर्ती रचनाओं में अपनी समग्र कलात्मक गहराइयों के साय रचनाओं में मनुष्य का चित्र स्थापित हुआ है, उसकामूल प्रेमचंद की रचनाएँ ही. अपने समय के राजनैतिक क्षितिज में से मध्यवर्ग का चुनाव प्रेमचंदने किसी औपन्यासिक कर्म की पूर्ति जैसे भाव के लिए नहीं किया था,अपितु वह अपने लिए एक ऐसी अनिवार्यता का बिन्दु था, जहां से वे अतीतसे छुटकारा पाने के भाव के साथ-साथ वर्तमान के साथ जुड़े रहने का भावभी पाते थे. मध्यवर्ग वह मंच था, जिसमें खुद प्रेमचंद जैसे निम्नमध्यवर्गीय लेखक भी थे, साथ-ही वह वर्ग प्रेमचंद के `रचना-व्यक्तित्व'के रागबोध के स्तर का भी वर्ग था. उन्होंने अपने रागबोध की आत्मीयताका प्रचार उसी मंच से किया जिससे वे खुद संबंधित थे. उन्होंने मध्यवर्गकी अनेक स्थितियों का पर्दाफाश किया, साम्प्रदायिक तनाव को जिंदारखनेवाली शक्तियों का पर्दाफाश किया और अपने उस गुस्से को भी व्यक्तकिया जो देशीय क्षितिज पर हो रही घटनाओं के कारण उभरता था. प्रेमचंदके वे `व्यक्तित्व-दस्तावेज' जो चिट्ठियों के रुप नें सुरक्षितहैं, इसके प्रमाण हैं. यहां हम उनके विस्तार में नहीं जायेंगे, सिर्फयह देखेंगे कि `मध्यवर्ग' की ईमानदारी समझौतेवादी प्रव़्अति, पैसेकी अन्यतम लालसा, पदवस्थाओं के प्रति लोलुप द़्अष्टि- क्या स्वंयप्रेमचंद के विरोध का केन्द्र नहीं बनती ? सचाई यह है कि इनमें सेकई स्थितियों में पहले प्रेमचंद खुद भी थे. उनसे मुक्ति पाने के बादप्रेमचंद ने उनकी `उपयोगिता' को उस बड़े षड्यंत्र के साथ जोड़ दियाथा जो आजादी प्राप्त करने के प्रयासों में बाधक था. मध्यवर्ग की वर्गीयचेतना का कोई अच्छा पात्र `प्रेमचंद' के मुकाबले का नहीं है. उनकीरचनाएँ असंख्य पात्रों की उपस्थिति देती हैं, किंतु स्वंय प्रेमचंद का रचना-व्यक्तित्व एक `प्रामाणिक पात्र' के रुप में उभरता है. प्रेमचंद के `रचना-व्यक्तित्व' का एक हिस्सा `प्रचारक-व्यक्तित्व'का भी है. अनेक लोगों द्वारा वह हिस्सा प्रमुख मान लिया गया है, जबकिसच्चाई यह नहीं है. `प्रचारक' रुप उनके व्यक्तित्व में गांधी केप्रभाव के फलस्वरुप आया. परन्तु वे उन स्थलों पर प्रचारक नहीं हैंजहां वे मध्यवर्ग की स्थितियों का यथार्थाकन करते हैं, वैचारिकप्रतिबद्वता की निष्ठा दिखाते हैं. यही नहीं, `वातावरण' में विश्वस-नीयता लाने के लिए वे मानव स्वभाव में कभी `आदर्शवादी' आस्था के पक्ष भीदिखा देते हैं तो वहां वे प्रचारक नहीं रह जाते. उपन्यासों में प्रेमचंदने समस्याओं के समाधान के लिए `आश्रम-व्यवस्था' की जो परिकल्पनादी है वह उनके सुधार-वादी प्रचारक रुप का प्रमाण है, किन्तु पूरीतरह से प्रेमचंद के प्रचारक-व्यक्तित्व के वे अंश भी प्रमाण नहींहैं, क्योंकि कहा जा सकता है कि `आश्रम-व्यवस्था' की अविश्वसनीयस्यिति का चित्रण कर प्रेमचंद उसी स्यिति में उसकी अनुपयोगिताका आधार भी दे देते हैं. प्रेमचंद इन अंशों के अलावा भी `प्रगातिवादीविचार' के प्रचारक हैं, इसके लिए उनकी कथाओं से वे पात्र लिये जासकते हैं जो समाजवाद के प्रवक्ता हैं. कहना चाहिए कि प्रेमचंद केव्यक्तित्व में `प्रचारक' का हिस्सा है, किन्तु वह उनके `रचना-व्यक्तित्व'के `मानवीय पक्ष की तुलना में बहुत कमजोर, अविश्वसनीय और ऊपरी अयवाबनावटी लगता है. रचनाओं में कला, विचार, जीवन आदि संबंधी जो धारणाएँ स्पष्ट होतीहै, वे धारणाएँ प्रेमचंद के निजी व्यक्तित्व की उपलब्धियां हैंजो उन्होंने अपने `समय' से संघर्ष करते हुए प्राप्त की हैं. आरम्भिकरचनाओं में प्रेमचंद भी निष्क्रियतावादी या पलायनवादी लगते हैं,जहां वे अपनी कथाओं को मानवेतर कल्पना-जगत् के अति-सत्यों से संपन्नकरते हैं, किन्तु आरम्भिक रचनाओं के इस पक्ष को कथा के आरम्भिक प्रयोगकहकर प्रेमचंद को उस आरोप से मुक्त भी माना जा सकता है. `पलायनवादी'धारणा प्रेमचंद की कथाओं में नहीं उभरती, वह कला, विचार, किसी भीस्तर पर पुष्टि नहीं पाती, बल्कि जगह आरम्भ में ही वे `सुजान भगत'आदि कहानियों या `सेवासदन' आदि उपन्यासों में सक्रिय होकर जीवन-संघर्षको स्वीकारते प्रतीत होते हैं. संघर्ष और मुक्ति (आजादी) के लिएसंघर्ष प्रेमचंद की वह पहली धारणा है जो उनके पूरे रचना-संसार परछाई रहती है. `समष्टि मंगल' और `समष्टि चिंतन' प्रेमचंद की वैचारिकधारणा की संज्ञाएंॅ जो नये सामाजिक संस्कार को गति देती तथा पुरानेसामाजिक संस्कार की तुलना में उसे नये जीवन्त अर्थ से परिपूर्णकरती हैं. प्रेमचंद की कथाओं में अनेक स्तरों पर `काव्यमयता' है.उसमें हल्के-हल्के प्रेम-प्रणय का श्ऱंगारवादी रुप भी हैं जोमनुष्य के छोटे-छोटे दु:खों का गहरा अवसादपूर्ण चित्र भी है. देशजशब्दों, जाने -पहचाने चरित्रों और एक परिचित वातावरण की सर्जनाके प्रसंग भी साधारण आदमी के रुमानी चरित्र को मनोरंजन के अलावारुचिमय `राग-भाव' भी देते हैं. काव्यमयता के शेष उदाहरण मानव-पीड़नके उन प्रसंगों में उभरते हैं जहां कोई अबोध मजदूर या किसान सारेआर्थिक-सामाजिक चक्र खुद ही लड़ता है, सहज मानवीय होने या अपनी सहानुभूतिसमग्र जन-समाज को देने की जो गांधीवादी प्रव़्अति है, प्रेमचंदमें वह ताकिंक और भौतिक कोणों से रुपांतरण पाकर प्रेमचंद के रचना-व्यक्तित्वको काव्यमय बनाती है. साधारण मनुष्य के हाव-भाव, साधारण मनुष्योंके दु:ख और साधारण मनुष्यों के हितैषी के रुप में `प्रेमचंद' काजो चित्र बनता है, वह साधारणता का काव्य है, वह `व्यक्तित्व' केमानवीय पक्ष का निष्पापत्व से परिपूर्ण काव्य है. समसामयिक जीवन की जाग़ति के प्रसंगों का काव्य पुराने रोमांसोंका नवीनीकरण लगता है. प्रेमचंद की कथाओं में समसामयिक जीवन के संघर्षका उत्सववाची रुप मिलता है; उसमें उत्सर्ग का गारिमामय भाव भी है,तो सहज भावोन्मेष या उमंग भी है. यह उमंग, अवसाद-दु:ख और भीषण कष्टोंसे प्रसंगों को अपने उत्सववाची भाव से आव़्अत कर समष्टि मंगल का नया`रागबोध' प्रसारित करती है ? प्रेमचंद के रचनाकाव्य के समाज कीजाग़ति के पक्षों की परिगणना की जाये तो उनकी एक लम्बी सूची बन सकतीहै, यह सूची सामाजिक संस्कार के बदलते हुए रुप से लेकर अपनी भाषाके प्रेम के प्रकरणों तक को समाहित कर लेती है. समसामयिक जीवन के विधिपरिद़्अश्यों के बीच से प्रेमचंद ने जिस जीवन पक्ष का चुनाव किया था,वह `देश-प्रेम' के गौरव-भाव का प्रचारक भी है. प्रेमचंद इस अर्थमें प्रचारक नहीं है, अपितु `देशभक्त' हैं. उनके `रचना-व्यक्तित्व' का यह पक्ष भी उन्हें अपने समय के `सांस्क़तिक व्याख्याता' के रुपमें स्यापित करता है. प्रगातिशील द़्अष्टि के सर्जक प्रेमचंद अपने जीवन में गरीबी से लड़ेथे. धीरे-धीरे वह लडाई बड़े पैमाने पर आकर उनकी रचनाओं में देश की आजादीकी लड़ाई में रुपान्तरित हुई थी; अर्थात यह व्यक्तित्व का एक क्रमसे निर्वेयक्तिकता में रुपान्तर की प्रक्रिया है. यह रुपान्तरणप्रेमचंद के `व्यक्तित्व' के `सांस्क़तिक गरिमा' प्रदान करताहै. प्रेमचंद गरीब जन-समाज से उठे थे, उन्हें अपने सामा-जिक परिवेशका पूरा `अनुभव' मिला था. वैयक्तिक जीवन में पारिवारिक विसंगतिशिक्षा की कठिनाइयां, आर्यिक दरिद्रता, असंगठित पारिवारिक जीवनआदि के जो प्रसंग है, वे `सोजेवतन' के जाब्ते, असहयोग-काल में नौकरीछोड़ने, राज्याश्रय और राजसम्मान को अस्वीकारने तथा जेल-यात्रा,फिल्मी जीवन के कटु प्रसंगों में बड़े पैमाने पर रुपान्तरित होतेहैं. साधारण-गरीब परिवार के आदमी के मनोविज्ञान में और गरीबी सेसम्बद्व प्रेमचंद के मनोविज्ञान में थोड़ा सा फर्क है. प्रेमचंदसाधारण स्थितियों के `व्यक्तिगत' प्रसंगों से उठकर बड़े संदर्भसे जुड़ने की प्रक्रिया से गुजरते हैं जबकि कोई दूसरा आदमी अपने हीस्थितियों की परिधि में चक्कर लगाने के लिए विवश हो जाता है. स्वाधीनताके युग में एकाधिक उदाहरण इस तरह के रुपान्तरण के भी मिलते हैं. अपनेरचना-व्यक्तित्व द्वारा प्रेमचंद ने इस प्रक्रिया को भी एक सार्वजनिकआधार दिया. प्रेमचंद ने अपनी कथाओं के द्वारा नितान्त नये समाज से परिचित नहींकराया था, बल्कि यह कहा जाना चाहिए कि उन्होंने उन अछूते प्रसंगोंसे परिचित कराया था, जिनकी सामाजिक स्थिति के बारे में बहुत-सारेपढ़े-लिखे लोगों को ठीक-ठीक ज्ञान नहीं था. कथा तत्व या विचार-तत्वका नया परिचय तो उन रचनाओं की `सम्पूर्णता' में मिलता है, किन्तुउनसे भी परे सामाजिक समस्याओं का जीवन्त तनाव उनमें मिलता है. वहतनाव जिसमें एक जन-समाज रहता है, और अपने अतीत के सांस्क़तिक दबाबतथा वर्तमान जीवन के विषमतापूर्ण संगठन के बीच रहकर उनसे आगे कीसोचता है-वह उन कथाओं के माध्यम से एक नये `संस्कार' के अनुभव कोभी प्रसारित करता है. जिस तरह उस `तनाव' के संघर्ष में हर भारतीय सामाजिकलड़ने का हिस्सेदार है, कुछ-कुछ वैसा ही आभास प्रेमचंद की रचनाएँप्रेमचंद के रचना-व्यक्तित्व की परिपुष्टि का देती है . `कर्मभूमि'या `गोदान' में वह `तनाव' वातावरण की सजीवता का ही लक्ष्य या उदेश्यनहीं है, बल्कि उसके बीच से गुजरते हुए गुलाम नागरिक की भयावह यंत्रणाका चित्र है. वह चित्र जो प्रेमचंद का निजी व्यक्तित्व भी पुष्ट करताहै और प्रेमचंद का `रचना-व्यक्तित्व' भी. प्रेमचंद का `सामाजिकपरिवेश' बौद्विक जागरण के तत्व उसी `रचना-व्यक्तित्व' के रुपमें स्पष्ट करता है. वह बौद्विक संस्कार, जो स्पष्ट होता है, व्यक्तिका ही नहीं है बल्कि हर उस भागीदार का है जो स्वाधीनता के दिनों मेंअपने यथार्थ संदर्भ से नहीं कटा. इस बौद्विक संस्कार की जड़े गांधीजीऔर माक्र्स के अलावा `भारतीय जनजीवन ' से फूटती हैं, इसमें किसीमतवाद की गुंजाइश नहीं है. प्रेमचंद के समय की महत्वपूर्ण घटनाएँ,चाहे प्रथम विश्व-युद्व हो, गांधी का आगमन, नमक सत्याग्रह, जालियांवालाकांड, असहयोग आंदोलन हो या इसी तरह की कोई अन्य घटनाएँ हों, वे राजनैतिकद़्अष्टि से भिन्न अर्य भले ही रखती हों मानवीय द़्अष्टि ने उनका जो अर्थहै, वह भी प्रेमचंद की रचनाओं में मिलता हैं. दूसरी तरह देखें तो रचनाओंमें उन घटनाओं को देखनेवाली द़्अष्टि प्रेमचंद के क़ति व्यक्तित्वकी द़्अष्टि है. उन घटनाओं का जो भी अर्थ रचनाओं में मिलता है, वह क़तिव्यक्तित्व को अर्थ है, अर्थात् प्रेमचंद का क़ति-व्यक्तित्वएक दार्शनिक की भांति उनकी संयत व्याख्याएँ भी प्रस्तुत करता है. प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में अपनी शताब्दी के तनावपूर्ण वर्षो केप्रभावों को खास संदर्भो में रखा था. उनकी महत्वाकांक्षाएंॅ बहुतछोटी-छोटी किन्तु ईमानदार आदमी की महत्वाकांक्षाएंॅ थीं-`कुछकिताबें लिखूंगा, कुछ अपनी किताबें छपवाऊँगा. पांच-छ: सौ मेरीकमाई है, उसे इन्हीं कामों में खर्च करुंगा और आखिर जब लिटरेरी शोरहतहासिल कर लूंगा तो कोई माहवार रसाला निकालकर गुजर करुंगा' (कलमका मजदूर). उन्होंने अपनी रचनाओं पर बड़े प्रभाव को ही बहुत सीधे ढ़गसे स्वीकार किया था-`मुझे अभी तक इत्मीनान नहीं हुआ कि कौन-सा तर्ज-तहरीरअख्तियार करुं. कभी तो बंकिम की नकल करता हूं, कभी आजाद के पीछे चलताहूं . आजकल काउंट ताल्सताय के किस्से पढ़ चुका हूं, तब से कुछ इसी रंगकी तरफ तबीयत माइल है'. प्रेमचंद के पर केवल शिल्पगत प्रभाव ही नहींहै बल्कि उनमें कथा-नियोजन के प्रभाव भी खोजे जा सकते किन्तु इसआधार पर प्रेमचंद को केवल दूसरों का अनुवर्ती ही नहीं माना जा सकताहै. प्रेमचंद की एक कहानी `मनोव़्अति' पश्चिमी फैण्टेसी के अनुकरणपर लिखी गई है, किन्तु उसके वातावरण को सजीवता उस पर पड़े प्रभावोंको गौण कर देती है. अपने विचारों को प्रस्तुत करने में प्रेमचंद बहुत द़्अढ़ थे, बल्किकहा जाये कि वे निर्भय भी थे. वैचारिक द़्अढ़ता की यह निर्ममता उनके `ग्राम्य'स्वभाव की सहायता की वजह से नहीं थी, बल्कि उनके स्वभाव का वह एक ऐसाअंग था जिसकी अलग से व्याख्या नहीं की जा सकती . डां. मदान ने लिखा हैकि प्रेमचंद केवल दो तरह के विलासों में रहे थे, एक तो उनकी मुक्तहँसी थी, दूसरे उनकी गरीबी-वस्तुत: इन दो धाराओं के बीच उनकी वैचारिकद़्अढ़ता (खास तौर से बाद की रचनाओं में) उनके `व्यक्तित्व' को अपनेसमय का अलग `व्यक्तित्व' भी बनाती है. परन्तु वह मनुष्य की सहजतासे अलग कहीं नहीं है. औपचारिक बधाई भाषण देते हुए लियाकत अली खान जैसे मुस्लिम लीग के कईसदस्यों ने साम्प्रदायिक आधार पर कुछ तनाव और विवाद पैदा करने की कोशिश की. यूरोपीय ग्रुप की ओर से बोलते हुए पी. जी. ग्रिफिथ्स नेएक गरिमापूर्ण भाषण दिया और कहा : "मैं यूरोपीय ग्रुप की ओर से इस महान पद पर आपके निर्वाचन के लिये आपकोहार्दिक बधाई देता हूं और अपने पूरे समर्थन का आश्वासन देता हूंऔर हमारा विश्वास है कि आप अपनी बुद्धिमता और निष्पक्षता से इस सभाकी कार्यवाही का मार्गदर्शन करेंगे. हम इस ग्रुप के लोग उस देश सेआये हैं जिसे संसदीय परंपरा को जन्म देने का गौरव प्राप्त है और हमेंइस बात का पूरा अहसास है कि इस सम्मानित सभा का प्रेसीडेंट, जैसाकिहाउस फ कामन्स के अध्यक्ष के मामले में हैं, उस संसदीय परंपरा काकेंद्र बिंदु है. इसका अभिप्राय यह है कि आपकी गरिमा कायम रखकर हमअपनी गरिमा बनाये रख सकते हैं और आपकी आज्ञा मानकर ही हम जनता को यहसिखा सकते हैं कि वह विधान-मंडल के निर्णयों को कोई आपत्ति उठायेबिना स्वीकार करे. हर मामले में हम जितना आदर आपके प्रति प्रदर्शितकरेंगे उतना ही आदर हम विधान-मंडल के प्रति भी प्रदर्शित करेंगेऔर उतनी ही द़्अढ़ता से हम इस देश में संसदीय परंपरा स्थापित करेंगे.अत: अब चूंकि आप इस उच्च पद पर निर्वाचित हो गये हैं, इसलिये आप एकवर्ग अथवा दल-विशेष के ही नहीं अपितु समूची सभा के प्रतिनिधि बनगये हैं और इसलिए आप अपने कर्तव्यों के निर्वहन में इस सभा के प्रत्येकदल और सदस्यों के पूरे समर्थन की अपेक्षा कर सकते हैं. इस ग्रुप कीओर से मैं आपको पूरा आश्वासन देता हूं कि आपको हमारा पूर्ण समर्थनमिलेगा और हमें इसमें कोई संदेह नहीं है कि सभी दलों के उस समर्थनके जवाब में आप उन सभी को उनके राजनीतिक संबंधों का ध्यान किये बिनानिष्पक्ष और समान रुप से अपना संरक्षण प्रदान करेंगे. अन्त में हम आशा करते हैं कि आपके बुद्धिमतापूर्ण मार्गदर्शन केकारण इस सभा की गरिमा बढ़ेगी और यह सभा, जो इस समय अधीनस्थ विधानमंडलै, आपका कार्यकाल समाप्त होने से पहले पूर्णरुपेण प्रभुसतासम्पन्ननिकाय के रुप में परिवर्तित हो सकेगी. इस बीच हमारा यह उद्देश्य होगाकि हम आपके इन कठिन एवं दायित्वपूर्ण कर्तव्यों के निर्वहन मेंआपकी पूरी सहायता करें." मावलंकर १४-१५ अगस्त, १९४७ तक केंद्रीय विधान सभा के अध्यक्ष पदपर रहे. भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, १९४७ के अन्तर्गत भारत की संविधानसभा को एक पूर्णरुपेण प्रभुसतासम्पन्न निकाय घोषित किया गया और १४-१५अगस्त, १९४७ की अर्ध-रात्रि को विधान सभा को देश का शासन चलाने केपूरे अधिकार मिल गये. उक्त अधिनियम के अन्तर्गत, केंद्रीय विधानसभा और कौंसिल फ स्टेट्स १४ अगस्त, १९४७ के बाद समाप्त हो गयीं औरभारत की संविधान सभा, जो संविधान बनाने के प्रयोजनार्थ ९ दिसंबर,१९४६ से कार्य कर रही थी, को देश के प्रभुसतासम्पन्न विधानमंडलके रुप में कार्य करने के लिये भी अधिकार दे दिये गये. २० अगस्त, १९४७को जब भारत के कई भागों में ध्वजारोहण समारोह से संबंधित घटनाओंपर संविधान सभा में चर्चा हो रही थी, तो एक व्यवस्था का प्रश्न उठायागया कि क्या वे संविधान सभा और साथ ही देश के विधानमंडल के रुप में कार्य कर सकते हैं ? इस प्रश्न तथा इससे संगत अन्य मामलों पर विचारकरने के लिये उसी दिन (२० अगस्त, १९४७) को मावलंकर की अध्यक्षतामें एक समिति नियुक्त की गयी. समिति ने २५ अगस्त, १९४७ को अपना प्रतिवेदनप्रस्तुत किया. २९ अगस्त, १९४७ को मावलंकर समिति के प्रतिवेदन परविचार करने के बाद संविधान सभा ने संकल्प किया कि विधान सभा द्वारासंविधान बनाने वाले निकाय के रुप में किये जाने वाले कार्यों कोइसके एक औपनिवेशिक विधानमंडल के क़त्यों से प़्अथक माना जाना चाहिएऔर जब विधान सभा एक औपनिवेशिक विधानमंडल के रुप में कार्य कर रहीहो, तो इसके कार्यसंचालन के लिये एक अध्यक्ष के निर्वाचन की व्यवस्थाकी जानी चाहिए. उपर्युक्त संकल्प के अनुसार औप-निवेशिक भारत कीस्थापना से तुरंत पूर्व प्रव़्अत्त भारतीय विधायी नियमों में संशोधनकिये गये और उन्हें संविधान सभा के अध्यक्ष द्वारा स्वीकार कियागया. संविधान सभा (विधायी) : जब विधान सभा ने सामान्य विधियां बनाने केलिये बैठकें कीं, तो यह संविधान सभा की विधायी शाखा अथवा संविधानसभा (विधायी) कहलायी. अध्यक्ष की अध्यक्षता में इसने देश के विधानमंडलके रुप में कार्य किया और स्वतंत्रतापूर्व विधान सभा का सचिवालयइसका सचिवालय था. संविधान सभा (विधायी) के पहले सत्र की पहली बैठककौंसिल हाउस के असेम्बली चैम्बर (जो इस समय संसद भवन का लोक सभा कक्षकहलाता है) में १७ नवम्बर, १९४७ को मध्याह्नपूर्व ११ बजे हुई. संविधानसभा के अध्यक्ष पीठासीन थे. चूंकि अध्यक्ष के पद के लिये केवल एक हीअर्थात श्री जी. वी. मावलंकर का ही नामांकन पत्र प्राप्त हुआ था,इसलिये उन्हें विधिवत निर्वाचित घोषित किया गया. डॉ. राजेन्द्रप्रसाद ने अध्यक्षपीठ खाली की और अध्यक्ष मावलंकर उस पर विराज-मानहुए. अंतरिम संसद (१९५०-१९५२) : भारत के लोगों ने अपनी संविधान सभा में२६ नवम्बर, १९४९ को स्वतंत्र भारत का संविधान अंगीक़त, अधिनियमितऔरआत्मार्पित किया. संविधान २६ जनवरी, १९५० को लागू हुआ किंतु नागरिकता,निर्वाचन और अंतरिम संसद संबंधी प्रावधान २६ नवम्बर, १९४९ को तुरंतही लागू हो गये. अनुच्छेद ३७९ के अन्तर्गत विधानमंडल अर्थात् संविधानसभा (विधायी) अंतरिम संसद के रुप में बनी रही और पहले की स्थिति मेंकोई अधिक अंतर नहीं आया. यह महत्वपूर्ण है कि भारत संसदीय संस्थाओंके इतिहास में `संसद' शब्द का पहली बार प्रयोग हुआ. आम प्रयोग मेंअंतरिम विशेषण भी प्राय: भूल जाता था और संघीय विधानमंडल अथवा भारतके गणतंत्र के राष्ट्रीय विधान-मंडल को संसद के नाम से पुकारा जानेलगा. अंतरिम संसद की पूरी अवधि के दौरान मावलंकर अध्यक्ष के पद पर बने रहे.इससे अच्छी और कोई व्यवस्था नहीं हो सकती थी कि एक ही व्यक्ति स्वतंत्रतासे पूर्व और पश्चात् पीठासीन अधिकारी बना रहे जो दो विभिन्न स्थितियोंमें प्राप्त अनुभवों और कौशल का बदली हुई परिस्थितियों के अनुसारप्रक्रियाओं में समा-योजन और रुपभेद करने के लिए प्रयोग कर सकेऔर स्वतंत्र भारत के एक उत्तर-दायी विधानमंडल की आवश्यकताओंको पूरा कर सके. चूंकि वह द़्अष्टांतों को नयी आवश्यकताओं से जोड़ सकेऔर नैरन्तर्य बनाये रखते हुए परिवर्तन ला सके, इसलिये उनके अध्यक्षपद पर रहने की अवधि को भारत में संसदीय प्रक्रियाओं के विकास के लिएबहुत ही लाभप्रद समझा जा सकता है. उनके बहुत से महत्वपूर्ण विनिर्णयविधान सभा में उनके पिछले अनुभव के आधार पर दिये गये. ५ मार्च, १९५२को अंतरिम संसद के सदस्यों को अध्यक्ष द्वारा दिये गये बिदाई भाषणका उत्तर देते हुए प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरु ने कहा : ". . . महोदय, आप पीठासीन होते थे तो हमारा मार्गदर्शन करते थे और जबतक आप पीठासीन होते थे हम अधिक नहीं भटकते थे. जो भी हो, हमने जो कुछभी किया है, इसमें कोई संदेह नहीं कि जो प्रथाएं, आदतें और प्रक्रियाएंविकसित हुई हैं उनका विकास मुख्य रुप से आपके कुशल और मैं तो कहूंगा कि बड़ी सूझबूझ से इस सभा का मार्गदर्शन करने के कारण हुआ है. हम सभीबाद की संसद में पुन: आते हैं अथवा नहीं, आपके इस मार्गदर्शन से बहुतलाभान्वित हुए हैं और हम जिस भी कार्यकलाप में संलग्न हों यह लाभहमें होता रहेगा. . . . . . इसके अतिरिक्त, मुझे विश्वास है कि हम आपकोतथा आपने इन वर्षों में हमें जो शिक्षा दी उसे याद रखेंगे." अंतरिम संसद भारतीय विधानमंडल के इतिहास में एक बहुत ही महत्वपूर्णचरण अर्थात एक उपनिवेशीय संस्था से पूर्णतया प्रतिनिधिक संसदीयलोकतंत्र के सिद्धांतों पर आधारित स्वतंत्र भारत के संविधान केअन्तर्गत एक प्रभुतासम्पन्न संसद के रुप में परिवर्तन की द्योतक है. यह एक पूरी तरह से जवाबदेह सरकारके एक नये युग के सूत्रपात की भी द्योतक हैं. संविधान के प्रावधानोंके अनुसार सभा के कार्यसंचालन के लिए कुछ प्रक्रिया संबंधी तथाअन्य रुपभेद करना स्पष्ट रुप से आवश्यक था. बदलती हुई परिस्थितियोंके कारण आवश्यक हुए अधिक महत्वपूर्ण परिवर्तनों का संकेत अध्यक्षमावलंकर द्वारा अन्तरिम संसद के प्रारंभ में एक वक्तव्य में दियागया था. कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण परिवर्तनों का, जिन पर अध्यक्ष मावलंकरके व्यक्तित्व की छाप है, संक्षिप्त ब्यौरा नीचे दिया गया है. प्रश्न सरकार विधानमंडल के प्रति जवाबदेह बन गयी और इसे प्रशासन के सभी मामलोंके बारे में जानकारी संसद के समक्ष रखने के लिए सहमत होना पड़ा. सभीमंत्रालयों/विभागों को प्रश्नों का उत्तर देने के लिए तीन समूहों-समूह एक, समूह दो और समूह तीन- में विभाजित किया गया. मंत्रालयों/विभागोंके विभिन्न समूहों के लिए विभिन्न दिन नियत किये गये. चूंकि सभा एकसप्ताह में छ: दिन अर्थात् रविवार के सिवाय सभी दिन समवेत होती थी,इसलिये मंत्रालयों/विभागों के प्रत्येक समूह की बारी सप्ताहमें दो बार आती थी. प्रश्न संबंधित मंत्रालय को सम्बोधित किये जातेथे. अल्प-सूचना प्रश्न : अल्प-सूचना प्रश्नों की प्रक्रिया सदस्योंद्वारा अविलंबनीय लोक महत्व के मामलों में जानकारी प्राप्त करनेके उद्देश्य से बार-बार दिये जाने वाले स्थगन प्रस्तावों की संख्याकम करने के उद्देश्य से अन्तरिम संसद काल में ही आरंभ की गयी. इन प्रश्नोंका उत्तर तीन दिन की अल्प-सूचना देने पर दिया जा सकता है, बशर्तेकि संबद्ध मंत्री इसके लिए सहमत हो. आधे-घंटे की चर्चा : दूसरी जो नयी महत्वपूर्ण विधा अन्तरिम संसद-कालमें विकसित हुई, वह है उन महत्वपूर्ण लोकहित के मामलों पर सदस्योंको आधे घंटे की चर्चा उठाने की अनुमति प्रदान करना जो हाल ही में सभामें पूछे गये प्रश्नों के विषय रहे हों. यह प्रक्रिया इस उद्देश्यसे आरंभ की गयी कि सदस्यों को पूरी-पूरी जानकारी मिल सके और वे प्रश्नकालके दौरान पूछे गये मौखिक प्रश्नों की अपेक्षा सविस्तार मुद्देउठा सकें. आशा थी कि इस व्यवस्था के उपरान्त अनुपूरक प्रश्नों परकम समय नष्ट होगा और सदस्य अधिक मौखिक प्रश्न पूछ सकेंगे. ५ मार्च,१९५२ को संसद में बोलते हुए अध्यक्ष मावलंकर ने टिप्पणी की : "प्रश्नकाल के दौरान जो मुद्दे उठते हैं उनका स्पष्टीकरण करने हेतुहमने एक नियम की व्यवस्था की है जिसे तकनीकी तौर पर हम आधे-घंटे कीचचा कहते हैं, और मुझे खुशी है कि सदस्यों ने इस व्यवस्था का लाभ उठायाहै. विधायी प्रक्रिया : विधायी प्रक्रिया के क्षेत्र में अन्तरिम संसदकाल में इस आशय की एक महत्वपूर्ण व्यवस्था की गयी कि प्रत्येक विधेयकके साथ एक वित्तीय ज्ञापन होगा जिसमें उन खंडों की ओर विशेष ध्यानआक़ष्ट किया जायेगा जिनमें व्यय अन्तग्रस्त है और यह बताया जायेगाकि विधेयक पारित हो जाने की दशा में अनुमानत: कितना आवर्ती तथा अनावर्तीव्यय होगा. यह व्यवस्था भी की गयी कि प्रवर समिति का सभापति अध्यक्षद्वारा नियुक्त किया जायेगा और यदि उपाध्यक्ष उस समिति का सदस्यहै तो वह उसका पदेन-सभापति होगा. समिति की बैठक के लिए गणपूर्ति सदस्यताकी एक-तिहाई कर दी गयी जबकि पहले यह पांच निर्धारित थी. संचित निधिके निर्माण के बाद वित्तीय मामलों में भी प्रक्रिया में संशोधन करना आवश्यक हो गया. संसद को पूरा बजट पास करने से पहले लेखानुदानपास करने की शक्ति प्रदान की गयी. लेखानुदान और विनियोग विधेयक पारितकरने की प्रक्रिया भी निर्धारित की गयी. स्थगन प्रस्ताव : जिन दिनों केन्द्रीय सभा थी उन दिनों सरकार विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं होती थी. अत: स्थगन प्रस्ताव को सरकारकी निंदा का प्रस्ताव नहीं माना जा सकता था. इस स्थिति में आजादी केबाद परिवर्तन हुआ, क्योंकि अब सरकार संसद के प्रति उत्तरदायी होगयी. इसलिए आजादी के बाद भी स्थगन प्रस्ताव को स्वीकार करने के विषयमें वही नियम लागू नहीं किये जा सकते थे. पहले सदस्यों को पर्याप्तप्रक्रियागत सुविधाएं उपलब्ध न होने के कारण स्थगन प्रस्ताव कीव्यवस्था का उपयोग विशिष्ट मामलों की ओर सरकार का ध्यान आक़ष्टकरने और सरकार की आलोचना करने के लिये किया जाता था. आजादी के बाद,उस उद्देश्य के लिये कई और विधाएं उपलब्ध हो गयीं. अत: सभी छोटे-मोटेमामलों में स्थगन प्रस्ताव स्वीकार नहीं किये जा सकते थे. अध्यक्षमावलंकर के शब्दों में : "१५ अगस्त, १९४७ से समग्र राजनीतिक ढांचा बदल गया है. अब लोकप्रिय सरकार है और वह पूर्णत: निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायीहै. अत: स्थगन प्रस्तावों संबंधी नियम उतनी ही कट्टरता से लागू करनेहोंगे जितनी कड़ाई से वे ब्रिटेन में लागू होते हैं." आष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा : स्वतंत्रता और स्वतंत्र भारतके संविधान के लागू होने से पूर्व गवर्नर जरनल के अभिभाषण पर विधानमंडलके सदनों द्वारा चर्चा किये जाने के विषय में कोई व्यवस्था नहीं थी. अभिभाषण को केंद्रीयविधान मंडल में आलोचना का विषय नहीं बनाया जा सकता था क्योंकि सरकारविधान मंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं होती थी. अंतरिम संसद के समयही वस्तुत: `धन्यवाद प्रस्ताव' के जरिये राष्ट्रपति के अभिभाषणपर चर्चा करने की परिपाटी आरंभ हुई. संसदीय समितियां : अध्यक्ष मावलंकर के मार्गदर्शन में और उनके निदेशा-नुसारसंसदीय समितियों के गठन और प्रक्रिया संबंधी नियमों में संशोधनकिया गया ताकि उनके स्वरुप में नयी राजनीतिक स्थिति के अनुसार परिवर्तनकिया जा सके. कई नयी समितियां भी स्थापित की गयीं. यह निर्णय किया गयाकि एक संसदीय समिति गठित की जाये जो संसदीय विशेषाधिकार भंग होनेके मामलों की जांच करे जिससे सभा के समय में बचत हो सके. अन्तरिम संसदकी स्थापना के बाद ही २ अप्रैल, १९५० को पहली बार अध्यक्ष द्वाराविशेषाधिकार समिति नियुक्त की गयी जिसके दस सदस्य थे. तथापि समितिने अन्तरिम संसद के कार्यकाल में कोई रिपोर्ट नहीं दी. अध्यक्ष मावलंकर के सुझाव पर नियम समिति बनाने का भी विचार किया गया.सभा द्वारा नियमों को अंगीकार करने के लिए प्रधान मंत्री पंडितनेहरु द्वारा ३१ अगस्त, १९४८ को संविधान सभा (विधायी) में एक प्रस्तावपेश किया गया. उन्होंने सुझाव दिया कि सभा को सामान्य रुप से नियमोंका अनुमोदन कर देना चाहिए और बाद में सभा की एक समिति द्वारा उन परविस्तार से विचार किया जा सकता है. सदस्यों से कहा गया कि नियमों मेंसंशोधन के बारे में वे अपने सुझाव दें. १ अप्रैल, १९५० को अध्यक्षने अपने सभापतित्व में एक समिति नियुक्त करने की घोषणा की जिसकेद्वारा संसदीय प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियमों में संशोधनकरने और ऐसी सिफारिशें करने, जिन्हें वह उचित समझे, के लिए सदस्योंद्वारा समय-समय पर प्राप्त सुझावों पर विचार किया जा सके. स्थापितकिये जाने से लेकर १९५१ तक नियम समिति ने अध्यक्ष के सलाहकार निकायके रुप में कार्य किया. मई, १९५१ में नियम समिति के सभापति (अध्यक्षस्वयं ही सभापति थे) ने यह टिप्पणी की कि चूंकि नियम समिति पहले हीएक अनौपचारिक व्यवस्था के अधीन कार्य कर रही है और समिति के कार्यचालनसे प्राप्त अनुभव संतोषजनक है, अत: यह प्रस्ताव किया गया है कि उसकेगठन तथा क़त्यों आदि को मूर्त रुप दे दिया जाये. समिति सहमत हुई औरपहली बार मई, १९५१ में नियम समिति से संबंधित उपबंधों को प्रक्रियानियमों में शामिल किया गया. लकड़हारा घूमता घूमता मंच पर आता है. लकड़हारे के हाथ मेंकुल्हाडीं है. वह पेडं के पास जाकर थम जाता है. )लकड़हारा-(पेड़ को देखकर)हे भगवान, तेरी भी क्या माया कहीं पर धूप, कहीं पर छाया चलो, आज इसीपेड़ को क़ाटें. इससे आज की उदर पूर्ति हो जाएगी.(पेड़ को काटने के लिए कुल्हाड़ी चलाता है पर कुल्हाड़ी हाथ से छूटकरनदी में गिर जाती है.)लकड़हारा - है भगवान . ये क्या हुआ .. मेरी कुल्हाड़ी. . . गहरा पानी है, तैरना आता नहीं. क्या करूं, क्या नहीं अब क्या होगा, क्या काटूंगा, क्या बेचूंगा. आज बच्चे क्या खावेगें. (इस प्रकार चिंतित एवं दुखी होता है) (इसी बीच ईश्वर ग्रामीण का वेश धारण कर मंच पर प्रस्तुत होते हैं)ग्रामीण - क्यों बड़े दुखी लग रहे हो. क्या हुआ ?लकड़हारा - (दु:ख भरे शब्दों में) क्या करूं भाई, मैं पेड़ पर लकड़ियांकाट रहा था. इसी बीच मेरी कुल्हाड़ी इस गहरे पानी में गिर पड़ी. मेरा तो सब कुछ चला गया. इसके बिना मेरे परिवार का क्या होगा.ग्रामीण - हां भाई, तुम्हारा कहना तो ठीक है.लकड़हारा - भाई, मैं बहुत गरीब हूं. यदि तुम मेरी मदद कर सको तो तुम्हारा बड़ा अहसान होगा.ग्रामीण - क्यों क्या, तुम्हें तैरना नही आता?लकड़हारा - नही, भाई यदि जानता होता तो. . . . . ग्रामीण - ठीक है. . . . . तुम दुखी मत होवो, मुझे तैरना आता है. मैं कोशिश करता हूं,. आगे तुम्हारा भाग्य. (यह कह कर ग्रामीण पानी में कूदकर एक चांदी की कुल्हाडीं निकाल कर देता है.) अरे भाई, तुम कितने भाग्यवान हो, लो तुम्हारी चांदी की कुल्हाड़ी, लेकिन. . . . . लक़ड़हारा - लेकिन क्या. . . . . ग्रामीण - तुम झूठ भी बोलते हो? इतनी कीमती कुल्हाड़ी. और तुम कह रहे थे मैं गरीब हूं.लकड़हारा - नहीं भाई, मैंने जीवन मे कभी झूठ नही बोला. ये कुल्हाड़ी मेरी नहीं है.ग्रामीण - ठीक है. अबके तुम्हारी रोजी रोटी के लिये एक बार फिर कोशिश करता हूं. (पानी में फिर कूदता है, और रत्न जड़ित कुल्हाड़ी निकालकर देता है.लकड़हारा - (आश्चर्य से) क्या मिल गई भाई.ग्रामीण - हां मिल गई, लो भाई-बड़े भाग्यवान हो जो इतनी कीमती कुल्हाड़ी तुम्हें मिल गई, वर्ना सारी जिंदगी की कमाई से हाथ धो बैठते.लकड़हारा - नही भाई, मैं तो बहुत गरीब हूं. ये तो मेरी है ही नही. (दु:खी होकर) ये मेरा दुर्भाग्य है, खैर जाने दो भाई आपने मेरे लिए बहुत कष्ट उठाया. मै ही भाग्यहीन हूं, इसमें आप का क्या दोष, है आपका बहुत आभारी हूं जो आपने मेरे लिए. . . . . ग्रामीण - (बीच में ही) नहीं, भाई नहीं. इसमें उपकार का क्या बात है. मुसीबत के समय एक दूसरे के काम आना तो हमारा धर्म है. तुम निराश मत होवो, मैं एक बार फिर प्रयास करता हूं.लकड़हारा - नहीं, भाई नहीं, तुम अब मेरे लिए अपने को बारबार खतरे में मत डालो. शायद वह मेरे भाग्य में नहीं.ग्रामीण - नहीं भाई, दुखी मत होवो. (ग्रामीण पानी में कूदकर असली लोहे की कुल्हाड़ी निकाल कर देता है.) (लकड़हारे से-लो भाई अब के तो ये लोहा लंगर हाथ लगा है.)लकड़हारा - (अपनी लोहे की कुल्हाड़ी देखकर खुशी से उछल जाता है) वाह! भाई, वाह! मैं कितना भाग्यवान हूं जो मुझे मेरी रोजी रोटी वापिस मिल गई. तुम्हारा ये एहसान मैं जीवन भर नहीं भूलूंगा. भगवान तुम्हें सुखी रखें.ग्रामीण - नहीं भाई, इसमें एहसान की कोई बात नहीं. पर. . . . . (कुछ देर रूक कर) एक बात मेरी समझ में नही आई.लकड़हारा - (हाथ जोड़कर) वह क्या भाई. . . . . ग्रामीण - मैने तुम्हें पहले चांदी की कुल्हाड़ी दी, तुमने नहीं लियाशायद. . यह भी तुम्हारा दुर्भाग्य है.लकड़हारा - जो दूसरे की वस्तु को अपनी कहता है, ठीक नहीं. मेहनत और ईमानदारी से मुझे जो भी मिलता है वही मेरा धन है, धर्म है. किसी महात्मा ने ठीक ही कहा है- गो धन गज धन बाज धन और रतन धन खान. जू पावै संतोष धन, सब धन धूरि समान..ग्रामीण - (अपने असली, ईश्वर के रूप में मंच पर प्रस्तुत होता है)धन्य हो भाई- मैं तुम्हारी ईमानदारी से बहुत प्रसन्न हूं मांगो क्या मांगते हो.लकड़हारा - भगवन. मैं धन्य हुआ जो आपका दर्शन पा सका. मैं चाहता हूं कि यह वन इसी प्रकार हरा-भरा रहे तथा मैं और मेरे बच्चे हमेशा इससे लाभ उठा सके.भगवान - एक शर्त पर कि तुम हरे-भरे पेड़ों को नही काटोगे न ही लालच में पड़ोगे. साथ ही जरूरत से अधिक लकड़ी नही काटोगे.लकड़हारा - मुझे शर्त मंजूर है. ( पटाक्षेप ) द़्अश्य २ रापात्र - रामू के बापू -पेड़ (मंच पर ग्रामीण सो रहा है) पाश्र्व से पत्नी की आवाज आती हैपत्नि - अरे, रामू के बापू, सूरज सर पर चढ़ गया है. क्या आज लकड़ी काटने नहीं जाना है. जो इस तरह घोड़े बेचकर सो रहे हो.लकड़हारा - उठता हूं. भागवान, कोई पहाड़ तो लाना नही है. लकड़ी ही तो लाना है. कहीं से भी काटना है, काट लेगें. सारे सपने का सत्यानाश कर डाला.पत्नि - (मंच पर आती है) कैसा सपना . आजकल सपने ही देखते रहते हो या कुछ काम धाम भी करोगे.लकड़हारा - क्या सपना था ? मालामाल हो जाता.पत्नि - वह कैसे ?लकड़हारा - भगवान निकाल निकाल कर चांदी की कुल्हाड़ी दे रहे थे पर. . . . . पत्नि - छोड़ो ये सपने-वपने अपनी कुल्हाड़ी उठाओ और जाओ जंगल लकड़हारा - ठीक है जाता हूं, भाग्यवान. (अपनी कुल्हाड़ी उठाकर जंगल की तरफ जाता है. मन ही मन बात करता है) जिधर देखो दूर तक जंगल का पता नहीं जो थे वे कटते जा रहे हैं और उनकी जगह खड़े हो गए ये सीमेंट के जंगल. ना मालूम कहां तक पांव तोडंने पड़ेंगे. क्या मुसीबत है (अचानक उसे चोट लगती है, वह चीख उठता है, एक पेड़ के पास जाकर उसकी पत्तियों का रस घाव पर लगाता है. (कुछ दूर जाकर एर पेड़ की छांव में बैठ जाता है-आह! कितनी ठण्डी छाया है. सारी थकान दूर हो गई. (हरे-भरे पेड़ के नीचे से उठकर अपनी कुल्हाड़ी सम्हालता है.) चलो यही सही इसे ही साफ करें (कुल्हाड़ी चलाने की मुद्रा में उठता है.)पेड़ - अरे! अरे! अरे! ये क्या कर रहे हो.ग्रामीण - उठकर अपनी कुल्हाड़ी सम्हालता है.) चलो यही सही इसे ही साफ करें (कुल्हाड़ी चलाने की मुद्रा में उठता है.)ग्रामीण - (चौंक कर) कौन ? (आसपास नजर दौड़ता है)पेड - अरे भाई ये तो मैं हूं.ग्रामीण - (डरकर) कौन भूत्त्त्त् . . . . पेड़ - डरो नही भाई, ये तो मैं पेड़ हूं- पेड़.ग्रामीण - (आश्चर्य से) पेड़. क्या तुम बोल भी सकते हो?पेड़ - हां, हां क्यों नही. तुम्हारे समान मेरे भी तो जीवन है. जीवन तो हर सजीव वस्तुओं में होता है.ग्रामीण - जीवन और तुममें? कया चाहते हो तुम ?पेड़ - भाई, तुम मुझ बेकसूर पर क्यों वार कर रहे हो ?ग्रामीण - वार कैसा वार, अरे मुझे तो लकड़ियां काटना है, सो काट रहाहूंपेड़ - भाई, तुम कितने बेरहम कब से हो गये, मैं ते तुम्हारा दोस्त हूं और तुम अपने ही साथी पर वार कर रहे हो. शायद तुम नहीं जानते पौधों से पेड़ बनने में कई वर्ष लगते है और तुम हो जो एक ही वार में मेरा जीवन समाप्त कर रहे हो.ग्रामीण - तो क्या करूं. चार चार बच्चों को पालना पड़ता है. कोई नौकरी तो है नहीं मेरे पास. बस यही एक रास्ता है रोजी रोटी का.पेड़ - पर भाई, जरा तो सोचो हरा भरा हूं मैं, मुझे काटकर तो तुम पाप के भागीदार भी तो बनोगे. तुम तो जानते ही हो प्रत्येक व़्अक्ष ईश्वर का अवतार है.ग्रामीण - पाप, कैसा पाप ?पेड़ - अरे भाई, तुम कितने बदल गये. तुम्हारे हमारे संबंध तो पुरातन से हैं. तुम यह भी भूल गए कि मैं ही तुम्हे जीने के लिये शुद्व हवा, पानी और भोजन सभी कुछ मैं ही तो देता हूं.ग्रामीण - तो क्या यह तो तुम्हारा काम है. इसमें एहसान की कया बात है.पेड़ - मैने कब कहा एहसान है भाई, पर यह तो तुम अच्छी तरह जानते हो बिना हवा के मनुष्य जिंदा नही रह सकता. उसे सांस लेने के लिए शुद्व हवा तो चाहिए ही और ये काम भी तो मैं ही करता हूं.ग्रामीण - ठीक है, ठीक है. पर मेरे सामने भी तो समस्या है. ढेर सारे बच्चे, बीबी, मां-बाप, भाई-बहन, सबके सब और कमाने वाला एक बाकी खाने वाले. भाई है सो बेकार-बेरोजगार.पेड़ - मैं तुम्हारी मजबूरी समझता हूं. इसमें कुछ तुम्हारा अपना भी दोष है जो इतना बड़ा परिवार. . . . खैर, पर इसका मतलब ये तो नहीं कि तुम अपने स्वार्थ के लिये मुझे ही बलि का बकरा बनाओ.ग्रामीण - स्वार्थ-वार्थ में क्या जानूं.पेड़ - तुम भी कैसी बात करते हो भाई, यदि हम कटते रहे तो ये बेचारे वन्य वशु कहां जायेंगे. क्या तुम अपने स्वार्थ के लिए उनका घर उजाड़ोगे ? ग्रामीण - तो फिर क्या, मैं अपना घर उजाडूं.पेड़ - नहीं भाई, कैसी बात करते हो. मेरा मतलब ये नही है, परंतु तुम हमें काटकर क्या प्रक़ति का संतुलन नहीं बिगाड़ रहे हो. यदि तुम इसी तरह हमें काटते रहे तो वर्षा असंतुलित हो जावेगी, जमीन कटती चली जावेगी और एक दिन. . . . ग्रामीण - तुम्हारी बात तो ठीक है. पर अब तुम ही बताओ मैं क्या करूं ?पेड़ - उपनिषद में हमें और तुम्हें एक जैसा कहा गया है. जैसे शक्ति शाली तुम हो, वैसे हम भी हैं. हमारे पत्ते हैं और छाल हमारी चमड़ी हैं. तुम्हारी त्वचा में रक्त बहता है जबक हमारी छाल में रस बहता है. हमसे जल है, जल से अन्न और अन्न से जीवन है. क्या तुम अपने ही हाथों अपना जीवन नष्ट नहीं कर रहे हो?लकड़हारा - तब मैं क्या करूं.पेड़ - कम से कम अपने हाथों अपने पैर पर कुल्हाड़ी तो मत मारो. कभी हरा भरा पेड़ मत काटो. जब भी कभी कोई पेड़ काटो उसके बदले में ४ पेड़ और लगावो. उन्हें अपने बच्चों के समान पालो तकि प्रक़ति का संतुलन बना रहे और तुम्हारी आने वाली पीढ़ी प्रक़ति के शुद्व वातावरण में सांस ले सके.+><ळीठैषाठूषै><भीऔघ्षाफ्ः><घूण्ढौझ्, शीण्घ्ः><शीष् फ्षाठाफ् आऊष् ऊण्खी ढैण्><१९८३><षाझाश्ठ्ःआणी श्ःऔढ्ः घ्षाण्ठ्ः><झौढ्ःफूष्><१८-२३><२०९०><घूण्ढौझ्, शीण्घ्ः-शीष् फ्षाठाफ्-भीऔ-औ><आभ्ःआ शौऔढ्> <+ अपने पिता के व्यवहार के प्रभाव के कारण एवं इन दो घटनाओ के व्रतांतको देख सुनकर सरप्रताप की अंग्रेजो के प्रति मित्रता की धारणा औरद़्अड़ हुई तथा अपने बाल्यकाल मे अपनायी इस धारणा को आजीवन उन्होनेनिभाने का प्रयास किया . तीसरी घटना थी किले के बारुदखाने पर बिजली गिरने से उनमें आग लगनेकी .इस घटनाक्रम के बारे में सरप्रताप ने अपने जीवन चरित्र में लिखाहैं कि-"मुझे भली प्रकार याद है कि दिल्ली के गदर का समाचार आने केठीक १५ दिन बाद किले के बारुद खाने पर बिजली गिरी . यह बारुदखाना पहाड़ीमें चट्टान को काटकर बनाया गया था .उसमें चार कमरे थे . तीन में बारुदथा और चौथे में सन . ऊपर पत्थर की छत थी , जो बहुत मजबूत थी . बारुद के जलनेसे इतने जोर का धमाका हूआ कि एक पत्थर, जो चार मन का था, वह्रां से उठकरछ: मील की दूरी पर चौपासनी नदी में जा पड़ा . फतहपोल के निकट बहुत से घरगिर गये . चामुण्डाजी का मदिंर भी पूर्णतया नष्ट हो गया . शहर के मकानोंके लगभग सभी किंवाड़ चौखटो से निकल गये और सब बन्द ताले खुल गये . इसकेअतिरिक्त ५०० आदमी मारे गये . जिस समय वह बिजली गिरी तो उसमें थोड़ी ही देर बाद दो घमाके इतने जोर के हुए कि जो न कभी सुने थे और न देखे थे . आवाजें सुनते ही पिताजी को यह सन्देहहुआ कि शायद बागी फौज सूरसागर आकर रेजीडेन्सी पर हमला करने लगी हैऔर यह आवाजें उनकी तोपों की हैं . दूसरी आवाज से महल का किवाड़ टूट गयाऔर शीशे का एक टुकड़ा महाराजा तखतसिंह की नाक के पास गाल पर लगा, जिससेतीन इंच लम्बा और एक इंच गहरा घाव हो गया . उन्होंने सबको आज्ञा दी किघोड़ो पर सवार हो और बन्दूकें तथा तलवारें लेकर सूरसागर की ओर बढ़ो. फलत: वे स्वयं और हम सब वहां पर उपिस्थत लोगो के साथ कमर कस कर तैयारहो गये और सूरसागर की राह ली . जब आघे रास्ते तक गये, तो रेजीडेन्ट साहबका पत्रवाहक मिला . उसने बताया कि वहां तो कोई हमला नहीं हुआ लेकिनरेजीडेन्ट को संदेह हुआ कि कहीं कायलाना पर धावा न बोला गया हो . इतनेमें जोघपुर से एक सवार ने आकर सूचना दी कि वास्तव में बारुदखाने परबिजली गिरी है और उसके उड़ने से ये धमाके हुए हैं . जब जोधपुर पहुंचे तो अभी सन की कोठड़ी जल रही थी . महाराजा साहब ने इस भयसे कि कहीं फिर घमाका न हो और किले में रखे हुए बारुद को हानि नहीं पहुंचेबारुद के तीसरे कोठे को बचाने की उन्होंने कोशिश की . फलत: कई स्थानोंपर छेद करके और पास ही के तालाबों से पानी को घड़े औ अ कलश मगा-मंगा करउनसे आग बुझवा दी . इस प्रकार तीसरा कोठा बचा लिया . उनकी जान खतरे मेंथी और उस समह कई सर-दारों और अहलकारों ने प्रार्थना की कि आप किसीसुरक्षित स्थान पर पघार जायं, लेकिन उन्होंने अपना कर्तव्य समझकर वहीं डटे रहना उचित समझा . नगर में इतनीअघिक सख्यां में मकान गिरे कि उन्हें खोदने में आठ दिन लगे . दरबारने यह कोशिश की थी कि कोई आदमी कहीं दबा हुआ हो तो उसे बचाया जाय किन्तुकोई भी दबा हुआ आदमी जीवित न मिला . कारण यह था कि सब इमारतें पत्थर कीथी और उनके गिर पड़ने से किसी के बचे रहने की आशा नहीं हो सकती थी . जिसपर उन्होंने अपनी ओ अ से पूरा प्रयत्न किया . " इसी क्रम में चौथी घटना का उल्लेख करते हुए वे आगे लिखते हैं कि-"इसघटना के ठीक १५ दिन बाद एक ऐसा भयानक भूचाल आया जो कई मिनट तक रहा . यदि१५ दिन पहले बारुदखाना के उड़ जाने से मकान न गिरते तो वह जरुर इस भूचालमें गिर जाते . जो उस आधात से बच गये थे, उन पर इस भूचाल का कोई असर न हुआ. ये तीनो घटनाएं पंचमियों पर हुई जो निरन्तर एक के बाद दूसरी बारी-बारीसे पड़ी . " प्राक़तिक प्रकोप की ये दो ह़्अदय विदारक घटनाएं प्रतापसिंह की बालवस्थामें घटित हुई तथा इस अवसर पर किये गये बचाव कार्य आदि का उनके ऊपर गहराअसर पड़ा . प्रजा के सुख-दु:ख का एक शासक को कितना घ्यान रखना होता हैतथा प्राक़तिक समस्या और जनसमस्या के निवारण का शासक पर कितना गुरुतरभार होता हैं, उसके इस नैतिक कर्तव्य को समझने का प्रतापसिंह कोअपनी बाल्यावस्था में ही अच्छा अवसर प्राप्त हुआ तथा उपर्युक्तचार घटनाएं भी इसी प्रसंग पर फ्रकाश डालती हैं . १२ वर्ष की अवस्था में प्रतापसिंह की अपने दोनों भाइयों के साथ रहनेकी व्यवस्था फतहमहल में की गयी . इस काल में शिकार का क्रम तो जारी रहाही परन्तु साथ ही इस अवस्था में राज्य का कामकाज देखने और सीखने काप्रतापसिंह को अत्यीधक चाव था . फलस्वरुप अधिकांश समय दफ्तरी औरअहलकारों से सम्बन्धित कागजात, नई राजाज्ञाएं आदि पढ़ने व समझनेमें व्यतीत होने लगा . इस कारण धीरे-धीरे वे राज्यकार्य से परिचितहो गये . इस बीच महाराजकुमार जसवन्तसिंह का पहला विवाह जामनगर कीराजकुमारी जाड़ेची से तथा दूसरा विवाह ईडर रिसायत के मुडेटी ठिकानेके सरदार चौहान सूर्यमल की बेटी से सम्पञ हुआ . दूसरी शादी का कारणयह था कि उस समय महाराजकुमार जसंवतसिंह की आयु २० वर्ष की थी . तथा उनकीपहली पत्नी की अवस्था केवल ८-९ वर्ष की ही थी . वैसे राजपरिवार मे बहुविवाहकी प्रथा प्रचलित थी और यह उनका एक रिवाज सा बन गया था . महाराजकुमारजसवंतसिंह के पश्चात जोरावरसिंह का विवाह झालामन्ड के ठाकुर गंभीरसिंहकी लड़की के साथ हुआ . उन्हीं दिनों की एक घटना है जो प्रतापसिंह के जीवनमें घटित स्मरणीय य घटनायों में से एक है . उसका वर्णन उन्हीं केशब्दों में-"उन्हीं दिनों की मुझे एक और बात याद है और वह यह है कि महाराजसाहब एक बार गौडवाड के इलाके में शेर की शिकार के लिए गये . लौटते समयबाली में ठहरे यहां सूअर बहुत होते हैं . मैंने वल्लम से सूअर मारनेकी आज्ञा चाही लेकिन उन्होंने इन्कार कर दिया और कहा कि तू अभी बहुतछोटा हैं, जगंल और भूमि भी खराब हैं . फिर महाराजकुमार जसंवतसिंहने आज्ञा मांगी लेकिन नेजे से सूअर मारने की आज्ञा नहीं मिली . हांहाथी पर से गोली चलाकर सूअर के शिकार की स्वीक़ति मिल गई . मेरे लिएआज्ञा थी कि मै तमाशा देखने के सिवा और कुछ न करुं और हाथी पर बैठा रहूं. जब हमारा दल रवाना हुआ, तो भाईसाहब और उनके साथ कुछेक आदमी बन्दूकेंलेकर रवाना हुए . वह स्वयं तो हाथी पर बैठे और मैं घोड़े पर सवार हुआ . रास्तेमें उन्होंने कई बार हाथी पर आ जाने के लिए कहा, लेकिन मुझे हाथी कीसवारी बिल्कुल नापसंद थी, घोड़े को अघिक पसन्द करता था, मैं घोड़ेसे न उतरा . जब जगंल में पहुंचे तो अचानक एक सूअर मेरे पास से निकल गया. ऐसा मौका देखकर मुझसे रहा न गया और मैंने अपना घोड़ा उसके पीछे छोड़दिया . मेरे दाहिने हाथ में चारनाली बन्दकू थी . मैंने बायें हाथ परबन्दूक को सहारा देकर एक फायर किया जो उसके पेट में लगा . दूसरा फायरकरने के लिए हाथ लवलवी पर रखा हुआ था और ख्याल सूअर की ओर था . इतनें मेंसामने एक खाई आ गई , जिसमे ठोकर खा कर घोड़ा नीचे जा गिरा और मैं भी बायेंहाथ गिर गया . दाहिने हाथ में जो बन्दूक थी, उसका मुहं जमीन में घंसगया और उघर आप से आप लवलवी पर जोर पड़ा, जिससे बन्दूक चल गई . ऐसी दशा मेंगोली को बाहर निकालने के लिए रास्ता न था, इसलिए मुंह के पास नालीको तोड़कर मेरे बायें बाजू में जाकर लगी और चू कि नाली तोड़ने में उसकाजोर खत्म हो चुका था, इसलिए बाहर न निकल सकी और बाहं में ही रह गई . घोड़ाउठकर भाग गया . मैंने बन्दूक और पगड़ी वहीं छोड़ दी और घोड़े के पीछे भागा. मैं उस समय गरम था . गोली लगने का मुझे पता न था . घोड़ा तो न पकड़ा जा सका,लेकिन लौटकर मैंने पगड़ी जो उठाई और सिर पर बांघने लगा, तो देखा किबाहं से खून बह रहा हैं और छाती लहू से तर है . जब आस्तीन ऊपर चढ़ाई तो देखाकि गोली अटकी हुई है . पहले तो मैनें स्वयं ही दांतों और हाथ से गोलीनिकालनी चाही, इतने में कुछेक आदमी भी आ गये, लेकिन उनसे भी न निकली. अन्त में नूर मुहम्मद मकरानी ने दातं से पकड़कर एक ओर झटका दिया, जिससेबेचारे का दांत ही टूट गया . फिर उसने दूसरी तरफ के दांतो से पकड़कर इसतरीके से जोर लगाया कि गोली निकल गई . मेरे भाई साहब डर के मारे उदासीनहो गये कि दरबार साहब उन पर बहुत नाराज होंगे . लेकिन मैंने उन्हेंतसल्ली दी कि वह चिंता न करें . मैंने पगड़ी बाध ली और साहस करके दूसरेघोड़े पर सवार हो गया . लेकिन प्यास के मारे मेरा दम निकला जाता था . आस-पासकहीं पानी न था . भाई साहब ने चोब चीनी को दाने मुहं में रखने को दिए,लेकिन उनसे मुहं और भी सूख गया . बहुत प्रयत्न के बाद थोड़ा सा पानी मिला. आश्चर्य है कि इतनी अधिक प्यास थी, लेकिन एक घूटं पीते ही शांति होगई . जब हम डेरे पहुंचे तो पिताजी सोये हुए थे . सब डरते थे . महाराजकुमार जसवंत-सिंहजीने सारा हाल कह सुनाया . किन्तु इस बात से सभी को आश्चर्य हुआ कि दरबारसाहब ने किसी को कुछ न कहा और मुझे आकर भी यही कहा कि मै बुहत प्रसञ हूंकि तुम घायल हुए हो, क्योंकि राजपूत के लिए घायल होना विवाह से कमनहीं . लेकिन इस बात का दु:ख अवश्य है कि अपने हाथ से घायल हुए हो, दुश्मनके हाथों से नहीं . फिर जोधा भैरोसिंहजी को हिदायत दी कि बबूल की दांतुनबनाकर और शराब में भिंगोकर मेरा घाव साफ करें . " महाराजकुमार जसवंतसिंह और जोरावरसिंह के विवाह के पश्चात् प्रतापसिंहका प्रथम विवाह सन् १८६० में जाखन के ठाकुर लक्ष्मणसिंह भाटी कीपुत्री के साथ संपन्न हुआ . ठाकुर लक्ष्मणसिंह भाटी की एक बहिन जोमहाराजा मानसिंह की महारानी थी, का इस विवाह में महत्वपूर्ण हाथथा . रिश्ते में वह प्रतापसिंह के दादी लगती थी . उनके कोई संतान तो थीनहीं . प्रतापसिंह पर विशेष प्रेम था और एक तरह से उन्हें गोद ले रखाथा . मांजी भटियानीजी की यह हार्दिक इच्छा थी कि उनके आंखो के सामनेप्रतापसिंह का विवाह हो जाय इसलिए अपनी भतीजी ( ठा. लक्ष्मणसिंहभाटी की पुत्री ) से विवाह करा दिया . दुल्हन ८ वर्ष की थी और दूल्हेका आवस्था केवल १५ वर्ष की थी . इस प्रकार छोटी अवस्था में ही यह विवाहसंम्पन्न हुआ . राजकुमार प्रतापसिंह का दूसरा विवाह जैसलमेर हुआ. उनके दूसरे विवाह के कुछ समय पूर्व एक बुहत ही मनोरंजक घटना घटी . घटना सन् १८६३ की है . बरसात के दिन थे . उस दिन बरसात होकतर थम गई थी . ऐसेमौसम में महाराजकुमार जसंवतसिंह और प्रतापसिंह कुछ साथियों केसाथ हरिण की शिकार के लिए झालामण्ड की ओर गये . शिकार में अभी दो-तीनहरिण ही हाथ लगे थे कि एकाएक मूसलाघार वर्षा होने लगी . ऐसी स्थितिमें उन्होंने झालामण्ड जाना उचित समझा . झालामण्ड पहुंचकर भोजनकिया . बारिश इतनी जोर की थी कि झालामण्ड की नदी में पानी का स्तर बढ़नेलगा . गांव के चारो ओर पानी होने से झालामण्ड एक द्वीप सा बन गया . पानीके बढ़ते हुए स्तर को देखकर दोनों भाइयों ने यह विचार किया कि वर्षाके कारण हमें कुछ दिन के लिए झालामण्ड न रुकना पड़ जाय इसलिए शीघ्रही अपने साथियों के साथ जोघपुर के लिए रवाना हो गये . झालामण्ड ठाकुरगंभीरसिंह के रोकने पर भी नहीं रुके . झालामण्ड की नदी से पार होनेलगे तो पानी सिर से ऊपर तक की ऊंचाई से बह रहा था . महाराजकुमार जसंवतसिंहको तैरना नहीं आता था . अत: प्रताप सिंह ने अपनी देशी नस्ल की थीड़ी (मारवाड़ीघोड़ी ) जो बुहत अच्छी तैरा करती थी, उन्हें दी और स्वयं उसकी लगामपकड़ कर तैरते हुए नदी पार की . नदी से पार तो हो गये लेकिन उसके बाद भीचारॉं ओर पानी ही पानी फैला हुआ नजर आ रहा था . उन्हें ऐसा लगा कि प्रलयहोने वाला है . वर्षा भी निरन्तर हो रही थी . ऐसी दशा में `गोगथला' नामक एक ऊचे टीले की ओर सब रवाना हुए . उस अवस्था में उन्हें वही एक मात्रसहारा दीख पड़ा . कुछ समय तक उसी टीले पर टिके रहे परन्तु जब देखा कि पानीयहां भी पहुच जायेगा और हम यहां सुरक्षित नहीं रह सकते तब विवश होकरउनको वह टीला छोडना पड़ा तथा एक पहाड़ी की ओर प्रस्थान किया . अर्द्वरात्रिमें वहां सब पहुंचे जैसे-तैसे कर रात बिताई . प्रात: होने पर देखातो पहाड़ी के चारों ओर दूर तक पानी ही पानी दिखलाई पड़ रहा था . यह देखकरसभी निराश हो गये . उनके कपड़े पानी से तर थे, न सिर छुपाकर बैठने की कोईजगह थी न खाने-पीने की पास में कोई सामग्री थी . ऐसी स्थिति में सबकानिराश होना स्वाभाविक ही था . यात्रा की थकान, जाड़े की ठिठुरन और पेटकी जठरागिन के कारण सब के प्राण व्याकुल हो रहे थे . ऐसी दशा में प्रतापसिंह एक मुसलमान सवार के साथ इधर-उधर घूमने लगेऔर घूमने के दौरान दो हिरणों का शिकार किया . बन्दूक के तोड़ों से आगजलाई और पत्थरों तथा चटटानों के नीचे से प्राप्त घास-फूस औ अ लकड़ीके टुकड़ो पर उनको अधपका करके पेट की भूख को शांत करने का प्रयास किया. जिस पहाड़ी पर उन्होंने रात बिताई उससे माइल भर की दूरी पर `फिटकांसणी'नाम का एक छोटा सा गांव था . वहां जाकर कुछ खाने पीने का सामान लाने कीतजवीज की . बहुत मुशकिल से वहां पहुचां गया और वहां से कुछ नमक मिर्चतथा बाजरे का आटा प्राप्त हुआ . गांव के निवासी स्वयं अतिव़्अषटि सेसंकट की स्थिति में थे . उनके मकान ही नही सारा माल असबाब और पशु आदिभी नष्ट हो रहे थे . कुछ बोरियां व चारपाइयां लेकर पहाड़ी पर गये और छकड़ोकी छत के रुप में काम ली जाने वाली बोरियों का एक तम्बू बनाया . तम्बूमें चारपाइयां डाल उनके नीचे घोड़ो का सामान रख कर ऊपर लेट जाते . उनकेपास न तो पैसे थे न उस गावं में सामान मिल सकता था . एक सप्ताह तक बरसातकी झड़ लगी रही और विवश होकर उन्हें वहीं एक सप्ताह बिताना पड़ा . गांवसे जो कुछ भोजन प्राप्त होता उसी पर निर्भर रहना पड़ता . संकट की घड़ीमें ही व्यक्ति के धैर्य की परीक्षा हुआ करती हैं . ऐसी परिस्थितिमें भी प्रतापसिंह हर संकट को घैर्य से झेलते रहे तथा अपने प्रयाससे सथिति को अनुकूल बनाने का श्रम करते रहे . वयक्ति में सबसें बड़ीआवश्यकता होती है हर स्थिति में अपने आप को आनिन्दत अनुभव करने कीउस व्यक्ति में कमी नहीं थी . सप्ताह भर की उस विकट प्राक़तिक आपदा में फंसे रहने पर भी उस तरुण की तरुणाई से सब लोग खुशगावर होकर वक्तगुजारते आनन्द की अनुभूति तो व्यकित के विचार पर निर्भर करती हैंसाधन पर नहीं . और फिर जब तक कोई व्यकित आपदाओं से परिचित नहीं होतातब तक उसे सुख और आनन्द की महता कैसे ज्ञात होगी . स्वयं प्रतापसिंहके शब्दों में-"प्रत्येक घर से बाजरे की एक-एक रोटी आया करती औरउन्हीं पर हमारा निर्वाह होता . उन दिनों जो आनन्द रुखी सुखी रोटियोंमें था वह लाख बढ़िया भोजन होने पर भी कभी नहीं मिला . हम उन गरीब भाइयोंके क़तज्ञ थे कि वे मुसीबत में होते हुए भी हमें रोटी भेजते थे . सच तोहैं-जब तक मनुष्य आप्ति को नहीं देखता तब तक उसे सुख और आनन्द की कद्रनहीं होतीं . " इधर तो वे इस आपति में भी ग्रामवासियों के सहयोग से आन्नद की अनुभूतिकर रहे थे . किन्तु जोधपुर के राजमहल में हालात कुछ और ही थे . वहां यहबात घर कर गई कि वे सब मर गये हैं या पानी में बह गये हैं क्योंकि सातदिन तक कोई सूचना या समा-चार भी प्राप्त नहीं हुआ और रोना धोना तथाशोक भी शुरु कर दिया . सातवें दिन महाराजकुमार जसवंतसिंह का धनियानामक सईस खोज में निकला तथा एक टीबे पर खड़ा होकर इधर-उधर नजर दौड़ानेलगा . गुड़ा के बनजी खीची तैरकर उसके पास गये और समाचार दिया कि सभी सकुशलहैं . धनिया सईस ने जब यह खबर महाराजा साहब को दी तो राजमहल में खुशीकी लहर छा गई . धनिया को इनाम के रुप में ५०० रु. तथा एक जोड़ी सोने के कड़ेमिले . पांच हाथी भेजकर बाढ़ में फंसे उन सब लोगों को जोघपुर लाया गया. इस सात दिवसीय गुमशुदा शिकारी दल के जोधपुर पहुचने पर खुशियां मनाई गयी . शहर के लोग भी उनको देखने के लिए उमड़ पड़े . राजमहल में सभी प्रकारकी सुख-सुविधायों में पले राजकुमारों को इस घटना से अवश्य ही कुछनवीन अनुभूतियों हुई होगी . हरिण की शिकार की बदौलत उस सात दिवसीययातना शिविर का अनुभव प्रत्येक शिविरार्थी को जीवन भर याद रहनास्वाभाविक हैं . इस प्रसिद्व यादगार घटना के पश्चात् सम्बत् १९१९ को भादौ के महीनेमें राजकुमार प्रतापसिंह का दूसरा विवाह जैसलमेर के छत्रसिंहकी पुत्री से हुआ . ठाकुर छत्रसिह जैसलमेर रावलजी के चाचा थे . इसी अवसरपर महाराजा तखतसिंह का विवाह भी जैसलमेर के रावलजी की बहन के साथसम्पन्न हुआ . महाराजा तखतसिंह और महाराजकुमार जसंवतसिंह के मघ्य मनमुटाव पैदाहो गया . महाराजकुमार जसंवतसिंह का ऐसा सोचना था कि उनको आवश्यकताओंऔर अपे-क्षाओं की पूर्ति के लिए महाराजा तखतसिह विशेष घ्यान नदेकर उपेक्षापूर्ण व्यवहार कर रहें है . रींवा से आये शगुन (सम्बन्ध)को महाराजा ने तो स्वीकार कर लिया किन्तु महाराजकुमार ने वहां विवाहकरने से साफ इन्कार कर दिया इससे स्थिति और तनावपूर्ण बन गई अत: महाराजकुमारकिशोरसिह का विवाह रींवा किया गया परंतु इसके पश्चात् भी पिता-पुत्र(महाराज तखतसिह और महाराजकुमार जंसवतसिंह ) के मध्य स्थिति मेंसुधार होने की बजाय आपसी मतभेद और अधिक ऊभर कर सामने आये . वस्ततु:इसका कारण यह था कि दोनों के सलाहकार और सरदार उस मनमुटाव को कम करनेकी बजाय बढ़ाने का प्रयास करने लगे . प्रतापसिंह ने इस आपसी मतभेद कोदूर करने की कोशिश की और कुछ हद तक अपने प्रयास में सफल भी हुए किन्त्पुन: वही स्थिति पैदा हो गयी इस अवसर पर तत्कालीन एजेन्ट टु दी गवर्नरजनरल कीटिग ने रियासत में उत्पन्न इस स्थिति को समाप्त करने का निश्चयकिया तथा यह उपाय ढूंढा कि बाप और बेटे दोनो को एक स्थान पर न रखा जायजिससे कुछ वैमनस्य कम हो सकता हैं इसलिए महाराज कुमार जसवन्तसिंहको बुलाकर यह समझाया कि तुम युवराज हो और इस समय राज्य का कार्य सीखनेऔर समझने का प्रयास कीजिए तथा एक परगने का प्रबन्ध करने में अपनीकुशलता और योग्यता प्रमाणित कीजिए . एक सौ सतहत्तर प़्अष्ठो के विस्तार मे फैली राम नारायण शुक्ल की कहानियोके इस खंड मे, ऐसे देखा जाए तो, न कोई बड़े चरित्र है, न बड़ी घटनाए है,न बड़ा सुख, न बड़ा दु:ख, न बड़ी आकांक्षाएंॅ, न बड़ा प्यार, न कोई ऐसी बड़ीटूटन जो झटके मे धराशायी कर दे एक `मै ' है जो कभी अमल है, तो कभी अलक,कभी कुमार, कभी केदारनाथ, कभी अनंग, तो कभी आनंद पढ़ते पढ़ते कभी लगताहै कि `मै ' के ये अलग अलग नाम भी न हो तो भी क्या फर्क पड़ेगा ? तभी एका-एक`प्रायश्चित ' कहानी के `मै ' का जोर देकर कहा गया एक छोटा सा वाक्ययाद मे लपक आता है `लेकिन फर्क पड़ता है" यह वाक्य उसी `मै ' के बरसोपहले अमर, खन्ना या दूसरे लोगो की ही तरह कहे गए वाक्य "क्या फर्कपड़ता है ?" के प्रायश्चित के रूप मे है. उसका विश्वास है कि "सुमनजिज्जी, विनय, सागर, राकेश, दिनेश और निशा, लेक गार्डन्स स्कूलके सारे बच्चे. . . . ये नष्ट नही हो सकते" क्योकि "ये सब प्यार-स्नेहऔर श्रद्धा करने के लिए बाध्य है" इसीलिए इनके होने से "सुदूर समुद्रऔर रेगिस्तानो मे गिरने वाले बमो से ठंडक बढ़ने के" बावजूद फर्क पड़ेगा. हालांकि बहुत कम ही मौके इन कहानियो मे है जब न भूले जाने वाले सुख केक्षण आए हो और "चेहरा अनायास मुस्कुराहट से भर गया हो" या "और लेखाकी उपस्थिति का एहसास ही मणि के अंदर एक अजीब सी खुशी भर देता है" याउनके चेहरे पर छा गई खुशी देखकर लगता है जैसे रेगिस्तान मे यात्राकरते हुए उन्हे (प्रकाशजी को) कही पानी दिख गया हो"-तब मन मे शंकाजागती है कि क्या वे सच मे खुशियां है भी ? कभी संयोग मे बच जाने का सुखभी झलकता है-"यह सोचकर अजीब सी खुशी हो रही थी कि मेरा जन्म सहारामे (लोग प्यास से घुट घुट कर यहां मर जाते है ) नही, हिन्दुस्तान मेहुआ है (सहारा ) फिर बचपन की या उन दिनो की वो खुशियां है-"जब हम बहुतसारी बाते नही समझते थे और इसी न समझने के कारण सुख की एक हल्की सी हवाहमारे आसपास भी बहती थी"-(हिसाब किताब ) जीवन मे एक सीमा के बाद चीजोको न समझना संभव नही रहता और तब `सुख की यह हवा ' भी आसपास बहती नही रहसकती सुख को अगर थोड़ी देर के लिए छोड़ दे तो भी अक्सर तो इस मै को-`किसीउत्साही व्यक्ति को देखकर असुविधा सी होने लगती है '-बल्कि अजरचभी होता है-अविश्वसनीय अचरज-कि आखिर-"इस सतही और साधारण जीवनमे उत्साह के लिए क्या है ?" (आहट) इन कहानियो मे लेखा, रजनी, निशा,तंद्रा जैसी लड़कियां है जिनका साथ और उपस्थिति `मै ' को खुशी और राहतदेता है, लेकिन आर्थिक स्थिति का संकोच कभी भी इन्हे गंभीरतापूर्वककिसी निश्चित रिश्ते मे परिणत नही होने देता इसके अलावा मां-बहनआदि भी बराबर है, मगर अक्सर गांव मे जहां कुछ पैसे भेज पाना तो `मै' के लिए फिर भी संभव है; पर जा पाना साल दर साल टलते टलते सालो तक नहीहो पाता. एक एहसास ये कहानियां यह भी देती है कि ये किसी व्यक्ति विशेष के निजीसंघर्ष की, निजी सुख-दु:ख की या टूटन की कहानियां नही है. एक दूसरेको काटते-पाटते-ठेलते जीवन प्रवाहो मे से किन्ही प्रवाहो के कुछद़्अश्य है. कुछ स्थितियां है, कुछ लोग है, उनकी आकांक्षाएंॅ है, उम्मीदेहै, निराशाएँ है. अक्सर मै का या उसके दोस्तो का बचपन का घर-परिवारगांव मे है और वो खुद पढ़ने, भाई-बहनो को पढ़ाने के लिए कलकत्ता मे हैया कभी दिल्ली-इलाहाबाद मे, वहां वह पढ़ाई के साथ-साथ या बाद मे कुछकाम तलाशता-पाता-न पाता-खोजता हुआ अधिकतर कहानियो मे है. गांव को लेकर उसके मन मे कोई रोमानी खयाल नही है, बावजूद इस तथ्य केकि गांव मे उसका बचपन बीता है और हम जानते है कि वहां ढ़ेरो स्म़्अतियांऐसी है जो अंत तक "मै" के भीतर बनी रहेगी. `मै ' कहता है अपने छोटे भाईसे- "तुम थोडे दिनो के लिए गांव चले जाओ, वहां मन भी बदल जाएगा और स्वास्थ्यभी ठीक हो जाएगा. " छोटा भाई प्राण बेचैनी से कहता है- "आप क्या सोचतेहै, गांव जाकर किसी को अच्छा भी लग सकता है ? वहां हत्या मारपीट, भुख-मरी,फौजदारी के अलावा और भी कुछ है ? मै नही जानता जिन गांवो के बारे मेहम किताबो मे पढ़ने आए है वे हिन्दुस्तान मे कही नही है. " स्वयं `मै' का अनुभव भी गांव को लेकर कुछ भिन्न हो, ऐसा नही है-`गांव से आए किसीपत्र को पढ़कर खुश हुआ जा सकता है ऐसा आज तक मैने नही देखा. " कुछ ऐसी स्थितियां है जिनमे लोग है और उन स्थितियो पर उनका कोई नियंत्रणनही है. उनके संघर्ष का, उनकी लड़ाई का भी अतत: कोई महत्व नही है. आदमीजिस भी काम को गलत या बुरा समझता है अक्सर उसी को करने की लाचारी मेपड़ता है-"हम वही सब करने के लिए बाध्य है जिनके लिए हमारा मन स्वीक़तिनही देता"-लेकिन ऐसा करते हुए भी सदा चाहता है कि अपने बेटे को याभाई को वह इस लाचारी से बचा ले. "फिर" कहानी के घोष बाबू के पैसे केअभाव मे दुकान बेच दी थी और साल भर तक तमाम तरह की कोशिशे करने के बादजहाज पर माल सप्लाई करने का काम शुरू कर दिया था यह काम `रिस्की ' तोजाहिरा तौर पर है ही जहाज के लोग माल के बदले पैसे न देकर घड़ियां शराबआदि चीजे देते है घोष बाबू ने इम काम को करने के दस वर्षो मे से ११ महीनेजेल मे काटे थे "मुझे आज भी वह दिन याद है, जिस दिन मैने यह काम शुरूकिया था उसी दिन मै खत्म हो गया था मै जानता था मै खत्म हो गया हूं, परमेरे मन मे एक विश्वास था. मै सोचता था मेरा लड़का ऐसी जिन्दगी जिएगाजो मेरी जिन्दगी से बिल्कुल अलग होगी. और तभी उसकी मैनें पढ़ाई कीओर ध्यान देना शुरू किया" (फिर) अपनीसारी सदिच्छाओ और सदप्रयत्नोके बावजूद वे बेटे को यह काम करने से नही बचा पाए, वे जान गए थे कि ह्रदयकी जगह `फिलन्ट ' रखे बिना रोशनी नही हो सकती. "आज से यही आया करेगा. . . तुम जानते हो मैने यह नही चाहा था. " `सहारा ' मे भी आनंद और प्रकाशजी कितनी तरह केप्रयत्न करते है, पर कोई नौकरी नही मिलती. ईमानदारीसे किए जाने वाले तमाम प्रयत्न व्यर्थ हो जाते है. स्कूल मे मिलनीतय हो चुकी नौकरी सेक्रेटरी की पहचान के व्यक्ति को दे दी जाती हैरेल्वे मे क्लर्की प्राप्त करने के लिए पांच सौ रूपए देने पड़ते है-"पांचसौ रूपए देने की बात नही, लेकिन सोचकर देखिए कितना बुरा लगता है"स्वच्छ और सुंदर और पवित्र जीवन जीने की आकांक्षा लेकर गाव से आयाथा, क्या यह बहुत बड़ी आकांक्षा थी ? दस साल तक लड़ने के बाद उसकी मान्यताएंथकने लगती है. स्मगलिंग का धंधा करने वाले आदित्य की बाते आनंद कोगलत होते हुए भी सहीलगती है और वह अंत मे सोचता है "रेगिस्तान मे भटकतेलोगो के पास नैतिकता नही होती. " गांव मे जो कुछ बचा था वो यही था-स्वस्थपवित्र जीवन जीने की आकांक्षा-और कलकत्ता मे अब इसके लिए कोई जगहनही रह गई थी. न कोई मूल्य ही रह गया था. रामनारायण शुक्ल ने साधारण जीवन जीते इन साधारण लोगो की साधारण स्थितियोंको, संघर्ष को असाधारण संवेदनशीलता से उजागर किया है. उनमे तेजआक्रोश का लावा नही है, न स्थितियो को बदल ड़ालने या उनसे बदला लेनेकी बड़बोली छटपटाहट ही है. इसका मतलब यह नही कि पीड़ा नही है. दर्द नहीहै. उसकी टीस है, असह्रय बेचैनी और लाचारी है. भाषा कुछ ठंडे-पनसे, बिना किसी चीख-चिल्लाहट के गहरे तक चीर जाती है, भाषा का यह ठंडापनसंवेदना को धार देता है और प्रभाव भीतर तक बेधता चला जाता है. व्यक्ति की वीरता का कोई अर्थ नही रहा क्योकि दुश्मन का चेहरा दुश्मनका नही रहा, यहां तक कि दुश्मन का दुश्मन होना भी जरूरी नही रहा. किसीदूसरे को बहुत कुछ करना ही नहीहोता, कुछ स्थितियां ही ऐसी पैदा करदी जाती है जिनमे आदमी के पास चुनाव के अवसर बचते ही नही-"कल आदमीजबरन खरीदा बेचा जाता था, आज उसके सामने ऐसी परिस्थियां है कि वहस्वेच्छा से बाजार मे जाकर खड़ा हो जाता है और हर आने जाने वाले की ओरदेखकर कहता है मुझे खरीद लो. " व्यक्तिगत स्वतंत्रता और प्रजातंत्रके नाम पर ये विडंबनापूर्ण स्थितियां है. इनमे सांस लेने वाले युवाओको मोहभंग कैसे बचाया जा सकता है ? जिन परिस्थियो मे वह जी रहा है उन्हेविकसित मान लेने की क्या कोई वजह है ? न उसे खुद के कुछ कर पाने की उम्मीदहै न दूसरे के इसीलिए तो अलक को कहना पड़ता है- "एलिस इन वन्डरलैंड"मे एक कहानी है. उसमे रेड क्वीन कितनी भी तेज दौड़ती अपने को उसी जगहखड़ा पाती है. यहीप्रगति है. हमारी उसी जगह खड़े उसी जगह खड़े रहने कीहै (प्रचार). इसके अलावा प्रगति का एक परिणाम यह भी निकला कि दौड़ मे पैसा वस्तु सेआदमी को धकिया कर आगे निकल गया. मगर केदारनाथ को जो विचार आप मे सबसेभयानक लगा वो यह कि "क्या हमारी दुनिया मे बच्चे नही रहेगे. " एकाउन्टेन्सीपढ़ाने वाले प्रोफेसर साब के दोनो बेटो-मिन्टू और टोनू -का ध्यानसदा पिता की आय की घट-बढ़ पर रहता है. उसमे कमी आने पर मिन्टू `चिंतितहो उठता है. ' केदारनाथ ने एक दिन यो ही पूछा कि `हममे सबसे बुरा कौनहै" ? टोनू का जवाब था `तुम ' क्योकि तुमने दो महीने से बाबा को पैसानही दिया है. पैसा ही तो सब कुछ होता है ' चेहरा ही नही उसके शब्दो केउच्चारण तक मे गंभीरता थी बिना पैसे के आदमी, आदमी नही रह जाता'. केदारनाथ का भय अकारण नही था. विकास की इस दौड़ मे आदमी के साथ मूल्यभी पिछड़ गए. जब किसी भी प्रकार नैतिकता पिछड़ेपन का पर्याय हो तब व्यापारका क्या ? तो फिर व्यापार ही है-बड़े बड़े व्यापारी कभी नॉर्मल लाइफपसंद नही करते. . . . उनके लिए युद्ध, सूखा बाढ़ ही वरदान होते है. 'इसलिए ठंड़ अधिक पड़ने पर स्वेटरो के दाम दूने कर देना तो उनका स्वाभाविकधर्म हो जाएगा. राजनीति का भी जो चेहरा बाद मे उभरा उसकी झलक भी रामनारायण शुक्ल कीउस समय की इन कहानियो मे मिल जाती है. `जो बाते कही हुई ही नही, उन्हेही बताया जाता है कि पूरी होकर जन-कल्याण मे लग गई है. ' दरअसल रामनारायण शुक्ल की तथाकथित शांत सी लगनेवाली, ठंडी भाषाऔर हल्के रंगों से उकेरी गई दुनिया बाहर से साबुत होते हुए भी अन्दरसे लगातार पोली होती जा रही दुनिया है सतह की शांति कुछ वैसी ही हैकि. . . "सब कुछ डूब गया था और पानी का एक बुलबुला तक नही उठा. ' इस दुनियामे अब त्रासदी व्यक्ति की नही. समुचे एक समूह की त्रासदी है-किसीएक व्यक्ति की नही. और इसी अर्थ मे व्यक्ति की लड़ाई बेमानी हो गई है. यही आज के समय की पहचान है या कि यही आधुनिकता का संकट है जिसकी आहटपचास-साठ के उस दौर मे लिखी गई इन कहानियो मे स्पष्ट है. इस दुनिया की व्यवस्था ही ऐसी है जिसमे आदमी को वह काम भी करने ही पड़तेहै जिन्हे करने की लाचारी न हो तो आदमी कभी भी न करना चाहे. जाहिर हैविज्ञापन और सजावट की दुनिया गाढें रंगो और चकाचौंध से भरी ही होसकती है और वो खतरे मे पड़े त्रस्त चेहरे को ढ़क देती है. "ऐसा काम क्योकरते हो ?" पूछने वाला अलक अपने प्रश्न की निरर्थकता से झुंझलाकरउदासी और बेबसी की उसी खिलाड़ी की मन स्थिति मे लौट जाता है-`जो खेलके बीच मे घायल होकर किनारे बैठा अपनी हारती टीम को देखता सोच रहाहै मै होता तो. . . ' एक अवश छटपटाहट, लेकिन सिगरेट के प्रचार के सुन्दरसाधन से ढ़के-जकड़े आदमी की मुक्ति का ठोस राज भीड़ मे के उसी आदमी कोमालूम था जिसने बेकारी के दिनो मे यह काम खुद भी किया था और जो उसकेबारे मे बहुत धीरे से ऐसे बताता है `जैसे अपनी किसी चोरी के बारे मेबता रहा है. ' समूह की इन विडम्बनापूर्ण स्थितियो मे जिनके होने से अन्तर पड़ताहै, वे प्यार और स्नेह के निजी सम्बन्ध और लेक गार्डेन स्कूल के बच्चेहै. मगर इन स्थितियो का एक संकट यह भी है कि ये इन सम्बन्धो को भी खतरेमे ड़ालती है, इनकी आँच को नष्ट करती है ऐसे मे अपने को बचाने के लिएइन सम्बन्धो की अनिवार्यता भी पैदा होती है, इसे भी रामनारायण शुक्लने बड़ी संवेदनशीलता से उभारा है. अपनी कुल इकत्तीस वर्षीय जिंदगी के गांव से शहर के बीच फैले अनुभवोसे, आनेवाली कठोर जिंदगी का जो स्वरूप उनकी इस संकलन-किसी शनिवारको (प्रथम खंड) की कहानियो मे मिलता है वो बिना किसी लाग-लपेट केसीधा-सच्चा और गहरे तक सिहरा कर, अवश छटपटाहटसे भर देनेवाला है. माया और मायावाद के द्वंद्व को समझने में साख्य दर्शन की प्रक़तिका सम्यक् विवेचन हमारी सहायता कर सकता है . क्योंकि एक तो सांख्यदर्शन का आदिम मूलरुप इसके अवैदिक स्रोत को प्रमाणित करता है, दूसरेहमें इसके मूलत: भौतिक स्वरुप के पर्याप्त संकेत मिलते हैं . जैसाकि एक स्थल पररिचर्ड गार्वे ने उल्लेख किया है कि सांख्य प्रणालीके उद्भव के संबंध में जान-कारी तभी पुष्ट होती है जब हम यह समझ लेतेहैं कि भारत के उन क्षेत्रों में जहां ब्राह्मणवाद का अधिक प्रभावनहीं था, इस संसार और मनुष्य के अस्तित्व की पहेलियों को केवल युक्तिऔर तर्क के आधार पर सुलझाने का प्रथम प्रयास किया गया था . कारण यह किसांख्य दर्शन, सार रुप में न केवल अनीश्वरवादी था, बल्कि वह वेदोंको भी नहीं मानता था . हमारे सम्मुख सांख्य दर्शन की जो सामग्री हैउसमें स्म़्अतियों की जो दुहायी दी गयी है, वे सब बाद में जोड़ी गयी बातेंहैं . यदि हम उन वैदिक तत्वों को जो इस प्रणाली में ठूंसे गये हैं , हटादें तो इस प्रणाली की तनिक भी क्षति नहीं होगी . सांख्य दर्शन मूलत:अवैदिक था और ब्राह्मणवादी परंपराओं से स्वतंत्र था . अपनी वास्तविकविषयवस्तु में वह आज तक उनसे स्वतंत्र है . इसी प्रकार जिम्मर ने भीअनेक प्रमाणों के आधार पर यह बताया है कि सांख्य और योग दर्शनों कामूल अंशत: ऐतिहासिक रुप से और अंशत: पौराणिक रुप से तीर्थकरों कीलंबी परंपरा से पीछे जाते हुए सुदूर आदिकालीन अवैदिक पुरातन मेंखोजा जा सकता है . हमें आगे सांख्य के इस भौतिकवादी स्वरुप को समझनेका पर्याप्त अवसर मिलेगा, परंतु यहां देखने की बात यह है कि परवर्तीग्रंथों में इसका स्वरुप किस प्रकार नितांत प्रत्ययवादी होताचला गया था . परंपरा किन्हीं कपिल को सांख्य के प्रवर्तक के रुप में स्वीकार करतीहै . इन्होंने सूत्रों में सांख्य सिद्धांत का निरुपण किया था, जिसकाउल्लेख सांख्य-करिका एवं अन्य अनेक ग्रंथों में किया गया है . येसूत्र आज उपलब्ध नहीं हैं . तत्वसमास तथा सांख्य सूत्र, जिनकी रचनाका श्रेय कपिल मुनि को दिया जाता है, बाद की रचनायें प्रमाणित कीजा चुकी हैं . सांख्यकारिका में `षष्टितंत्र' नाम से विख्यात एकग्रंथ का उल्लेख किया गया है . यह ग्रंथ भी अब उप-लब्ध नहीं है . जयमंगलाटीका में इसे पंचशिख मुनि की रचना बताया गया है . आचार्य शंकर ने अपनेब्रह्मसूत्र के भाष्य में एक स्थल पर परमर्षि प्रणीत `तंत्र ' नामकस्म़्अति का वर्णन किया है , जो सभवत: षष्टितंत्र के लिए ही है . अपनेअनुमानों के आधार पर सुरेन्द्रनाथ दासगुप्ता ने षष्टितंत्र कोसांख्य का एक प्राचीनतम ग्रंथ बताया है . यहां एक अन्य अनुपलब्ध ग्रंथराजवार्तिक का उल्लेख भी किया जा सकता है . वाचस्पति मिश्र की टीकातत्वकौमुदी में `राजवार्तिक ' के नाम से तीन श्लोक उद्ध़्अत हैं . दासगुप्तका अनुमान है कि `राजवार्तिक ' सांख्य दर्शन का स्वतंत्र ग्रंथन होकर सांख्यकारिका की टीका थी . जयंत ने अपनी न्याय मंजरी ( प़्अ . १०९) में भी कारिका पर राजा की टीका का उल्लेख किया है . सांख्य दर्शन के उपलब्ध ग्रंथों में सांख्यकारिका शास्त्रीयसांख्यका एक प्रतिनिधि ग्रंथ है . कपिलक़त सांख्य सूत्र एंव षष्टितंत्रनामक ग्रंथों के लुप्त हो जाने पर सांख्यकारिका ही सांख्य दर्शनका आधारभूत ग्रंथ शेष रह जाता है . शंकर से लेकर माधव आदि सभी आचार्योंने सांख्यकारिका को ही उद्ध़्अत किया है . सांख्यकारिका के रचयिताईश्वरक़ष्ण कहे जाते हैं . जिन्हें डॉ . तकाकुसु ने विन्धवास या विन्धवासीसे अभिन्न सिद्ध करने का प्रयास किया है . परंतु समयऔर सिद्धांत मेंनितांत पार्थक्य होने से दोनों आचायों की अभिन्नता कदापि स्वीकारनहीं की जा सकती . गुणरत्न ने ईश्वर-क़ष्ण और विन्ध्यवासी को दो प़्अथक्व्यक्ति माना है . सांख्यकारिका पर अनेक टीकायें एवं भाष्य उपलब्ध हैं, जिनमें गौड़पादभाष्य सबसे प्राचीन माना जाता है . इसका समथ ईसा की सप्तम् शताब्दीहै . आचार्य माठर रचित ` माठरव़्अत्ति ' एक विस्त़्अत टीका उपलब्ध हैं,गौड़पाद भाष्य से इसका अत्यधिक साम्य है . `जयमंगला ' नाम से एक अन्यटीका शंकराचार्य द्वारा विरचित बतायी जाती है . वाचस्पति मिश्रकी`सांख्यतत्वकौमदी 'सांख्य-कारिका की सबसे अधिक लोकप्रिय टीकाहै . `युक्ति-दीपिका ' नामक टीका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है, जिसकाप्रकाशन हाल में `कलकत्ता संस्क़त सीरिज ' ( संख्या २३ ) में हुआहै . इसके रचयिता का नाम मालूम नहीं हो सका . इसके अतिरिक्त विज्ञानभिक्षु द्वारा विरचित `सांख्यसूत्र ' एक परवर्ती रचना है, जिसकासमय १४०० ईसवी के लगभग है . विज्ञान भिक्षु एक प्रकार से सांख्य केअंतिम आचार्य हैं . इन्होंने तीन दर्शनों पर भाष्य-ग्रंथ लिखे हैं--सांख्यप्रवचन भाष्य ( सांख्य सूत्र ) ; योगवार्तिक (व्यासभाष्य), विज्ञानाम़्अतभाष्य(ब्रह्मसूत्र) . विज्ञानभिक्षु पुरे औचित्य के साथ सांख्य सूत्र पर अपना भाष्य प्रस्तुतकरते हुए कहते हैं कि सांख्य `कालार्कभक्षित ' हो गया था . इस तंत्रप्रणाली को पुन: जाग्रत करने तथा पुनरुज्जीवित करने के लिए ही वेप्रयत्नशील रहे हैं . लुप्त हुए सांख्य के स्वरुप निर्माण की दिशामें अग्रसर होते हुए वे सदैव उपनिषद् औरपुराणों के युग के अनंतरवियुक्त होने वाले सांख्य और वेदांत में सामंजस्य स्थापित करनेके प्रति प्रयत्नशील थे . सांख्यकारिका के भाष्यकार गौड़पाद तथावाचस्पति मिश्र वेदांत आचार्य थे. विज्ञानभिक्षु भी वेदान्त केप्रति आस्थाशील थे . `विज्ञानम़्अत ' नाम से ब्रह्मसूत्र पर उनका भाष्यइस तथ्य को प्रमाणित करता है . इसके साथ-साथ स्वीकार करने के अनेककारण विद्यमान हैं जिनके आधार पर बताया जा सकता है कि सांख्य दर्शनधीरे-धीरे वेदांत दर्शन में विलुप्त होता प्रतीत होता है . यहांतक कि विज्ञानभिक्षु ने वेदातिक मिथ्या प्रतीति सूचक माया को सांख्यकी यथार्थ प्रतीतिसूचक प्रक़ति को एक समान प्रतिपादित किये जानेका प्रयत्न किया था . यही कारण है कि परवर्ती बौद्ध तार्किकों के आविभावके फलस्वरुप भले हीमीमांसा, वेदात, न्याय तथा वशांषक संप्रदायोंका सूक्ष्मविवेचन प्रस्तुत करने के प्रयास में अनेक तत्वमनीषीअविभूत हुए पर सांख्यमतवाद का किसी भी द़्अष्टिकोणसे गंभीर अध्ययनप्रस्तुत नहीं किया गया . वस्तुत: एक ऐसे संशोधन के बाद जिसने सांख्यदर्शन का वेदांत की परिधि में पहुंचा दिया था, सांख्य का एक स्वतंत्रसंप्रदाय के रुप में अस्तित्व समाप्त हो चुका था . २. सांख्य दर्शन के संबंध में मूलत: इन दो परस्पर विरोधी मताग्रहोंके निराकरण के लिए शंकराचार्य का ब्रह्मसूत्र हमारी पर्याप्तसहायता कर सकता है . लक्ष्य करने की बात है कि ब्रह्मसूत्र ने सांख्यदर्शन के खंडन पर अत्यधिक बल दिया था . क्योंकि ब्रह्रम सूत्रकारसांख्य को अपना घोर प्रतिद्वंद्वी स्वीकार करता था और था भी, क्योंकिसांख्य के प्रधानवाद अथवा कारणवाद में जहां एक मूल-भौतिक तत्वको विश्व का आद्यकारण बताया गया था, अद्वैत वेदांत के मूल चेतन कारणवादके नितांत विपरीत खड़ा था. यही कारण था कि ब्रह्मसूत्र के प्रथम चारसूत्रों में ब्रह्म तथा वेदांत ग्रंथो के स्वरुप के संबंध में कुछमौलिक महत्व की बातों का स्पष्टीकरण करते ही ब्रह्म सूत्रकार तत्कालअगले सात सूत्रों में यह स्पष्ट करने के लिए व्यग्र हो उठते हैं किब्रह्म एक चेतन तत्व है, जिसका स् प़्अथक्करण सांख्य दर्शन के `प्रधान'से किया जाना चाहिए जो अचेतन अथवा भौतिक होने के कारण विश्व का मूलनहीं हो सकता . सांख्य दर्शन की चर्चा उपनिषदों में भी जहां कहीं कीगयी है, वहां सांख्य की प्रक़ति मिथ्या एवं भ्रम-जन्य रुप मेंवेदांतिक माया के समकक्ष है . जबकि सांख्य की प्रक़ति की अपेक्षाउपनिषदों में पुरुष को श्रेष्ठतत्व के रुप में प्रतिपादित कियागया है . शंकर ने बताया है कि सांख्य ने जिस प्रकार अचेतन प्रधान कोजगत् का कारण माना है वैसा वेदांत में नहीं मान सकते . सांख्य में प्रक़ति का जगत का मूल कारण बताया गया है और पुरुष को गौणस्वीकार किया गया है. पुरुष के लिए उदासीन शब्द का प्रयोग भी कियाजाता है . ईश्वरक़ष्ण द्वारा रचित सांख्य कारिका में वेदांत और सांख्यदर्शन में सामंजस्य स्थापित करने के दुराग्रह के कारण बताया गयाहै कि `पुरुष के संयोग से ही लिंग अर्थात् मूलप्रक़ति के साधक हेतु( बुद्धी आदि रुप में परिणत सत्व, रज, तम ) गुणों में ही निहित रहनेपर भी ( उनके सन्निधानवश ) उदासीन ही कर्ता की तरह ( सक्रिय ) प्रतीतहोता है . इसी के अनुरुप ब्रह्मसूत्र में भी बताया गया है : प्रधानअचेतन है और पुरुष उदासीन . ईश्वरक़ष्ण द्वारा ब्रह्मसूत्र की भांति पुरुष का प्रतिपादन तर्क संगत नहीं हो सकता है . सांख्य दर्शन का प्रस्थान है प्रधानवाद अथवापरिणामवाद अर्थात कार्थ की वास्तविकता, इसके विपरीत अद्वैत वेदांतके अंतर्गत विवर्तवाद को स्वीकार किया गया है , जिसकी अभिप्रायहै परिणाम का अथवा कार्य का मिथ्यात्व सांख्य दर्शन के पुरुष कोशुद्ध चेतन स्वरुप स्वीकार कर लेने पर शंकर को इस दर्शन से आपत्तिनहीं थी, लेकिन इस पुरुष के साथ परिणामवाद और पुरुष की अनेकता केलिए अद्वैत वेदांत में कोई स्थान नहीं था . स्पष्ट रुष में जब सांख्यमें बाह्य जगत् की वास्तविकता और जगत् की कारणता में पुरुष के लिएकोई स्थान न होने पर शंकराचार्य का परमार्थ सतपुरुष सांख्य दर्शनके पुरुष के नितांत विपरीत है . ३. सांख्य दर्शन के अनुसार आनुभाविक जगत वास्तविक है और इसकी कारणतामें पुरुष का कोई सहयोग नहीं है . यहां पुरुष गौण है और महत्वहीन है. इसके विपरीत वेदांत के अनुसार जगत् मिथ्या एवं भ्रमजन्य है तथाएकमात्र पुरुष ही पारमार्थिक सत्ता है . अत: सांख्य को निरस्त कियेबिना अद्वैत वेदांत की स्यापना संभव नहीं थी . जैसा कि माधवाचार्यने बताया है कि हम भ्रमजन्य३ उद्भव सिद्धान्त को किसी प्रकार स्वीकारनहीं कर सकते हैं, जबकि सांख्य दर्शन इसका विरोध करने के लिए अभीभी जीवित है . वेदांत तथा सांख्य दर्शन का मूल भेद विवर्तवाद तथा परिणामवाद केकारण है . दोनों दर्शन कार्य कारण को स्वीकार करते हुए कारण में हीकार्य को विद्यमान मानते हैं, परन्तु सांख्य ने जगत् को वास्तविकमाना है और वेदांत के विवर्तवाद के अंतर्गत जगत् को मिथ्या कहा गयाहै . वस्तुत: सांख्य दर्शन के प्रधान अर्थात् प्रक़ति के अस्तित्वका प्रमाण जगत् की वास्तविकता पर ही निर्भर करता है . यहां प्रश्न यह है कि सांख्य दर्शन द्वारा प्रतिपादित इस जागतिकप्रक्रिया में पुरुष का क्या स्थान है ? शंकर का एक उद्धरण द्रष्टव्यहै : सांख्यों का मत है कि घड़ा, कूजा आदि पदार्थ म़्अत्तिका से युक्तहोने से म़्अत्तिका उनका सामान्य कारण है. इसी प्रकार बाह्य तथा आध्यात्मिकविकार सुख, दुख, मोह से युक्त होने से उनका सामान्यकारण सुख, दुख,मोहात्मक ही होना चाहिए . ऐसा सुख, दुख मोहात्मक सामान्य कारण तीनोंगुणों वाला प्रधान है . वह म़्अत्तिका के समान अचेतन है और वही चेतन पुरुषके भोग के लिए स्वभाव ही से नाना प्रकार के विकार धारण करके प्रव़्अत्तहोता है . परिणाम समन्वय आदि से भी उस प्रधान का अनुमान होता है . इस उद्धरण में दो बातों का उल्लेख किया गया है ; एक, अचेतन प्रधानस्वाभाविकरुप से बाह्य जगत के उद्भव में प्रव़्अत होता है, दूसरे, समस्त रचनाप्रक्रिया चेतन पुरुष के लिए हैं . परंतु पुरुष के प्रति परवर्तीसांख्याचार्यों के वेदांती प्रतीत होने वाले इस प्रकार के द़्अष्टिकोणके बावजूद भी शंकराचार्य सांख्यों के अचेतन कारणवाद को स्वीकारनहीं कर सकते थे : कार्य कारण भाव से बाह्य और आध्यात्मिक विकारोंका कारण अचेतन है, ऐसी कल्पना नहीं हो सकती . शंकराचार्य मुख्य रुप से जिस बात का खंडन करना चाहते हैं वह यह है किअचेतन प्रधान किसी भी प्रकार बाह्य जगत का कारण नहीं हो सकता . इसीधारणा को शंकराचार्य ने एक स्थल पर लक्षित किया है : रचना की बात छोड़दो, रचना की सिद्धि के लिए जो प्रव़्अत्ति अर्थात् तीनों गुणों कासाम्यावस्था से पतन या अंगांगीभाव को प्राप्त होना तथा विशिष्टकार्य की ओर उनकी प्रव़्अत्ति होना, यह भी अचेतन और स्वतंत्र प्रधानमें नहीं बन सकता; क्योंकि म़्अत्तिकादि तथा रथादि में वह देखने मेंनहीं आता . वास्तव में म़्अत्तिका आदि अथवा रथादि स्वयं अचेतन पदार्थचेतन कुम्हार आदि अथवा अश्वादि के अधिष्ठान के बिना विशिष्टकरतेहुए देखने में नहीं आते और द़्अष्ट से अद़्अष्ट की सिद्धि होती है. प्रव़्अत्तिकी उपपत्ति अन्य प्रकार से नहीं लगती, इसलिए अचेतन ही जगत् का कारणहै ऐसा अनुमान करना ठीक नहीं . ४. वस्तुत: सांख्यों के कारणवाद में कोई पराभौतिक प्रव़्अत्ति दिखायीनहीं देती, यहां एकमात्र प्रक़ति ही सभी परिवर्तनों के लिए उत्तरदायीहै, लेकिन प्रश्न है कि इस प्रक़ति से किस प्रकार समस्त परिवर्तनपरिणत होते हैं ? इस बात का अनुमान करने के हमारे पास द़्अढ़ आधार हैंकि सांख्यों ने इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए एक ऐसा दर्शन विकसितकिया था जो आश्चर्यजनक रुप में हमारे प्रक़त्ति के नियमों के समानप्रतीत होता है . उनका कथन है कि जिस प्रकार अचेतन दूध स्वभाव से हीबछड़े के पोषण में प्रव़्अत्त होता है और जैसे अचेतन जल स्वभाव ही सेलोगों के उपकार के लिए बहता है उसी प्रकार प्रधान अचेतन होते हुएभी स्वभाव ही से पुरुष के सुख के लिए प्रव़्अत्त होता है . अटक जाय, वही फँस जाती है. और हम आँखों पर पट्टी बाँधे उसी घेरे में घूमतेरहते हैं. भाभी :क्या मतलब ?राम :पता है कि जबर्दस्ती ब्याह करने का कभी. . . भाभी : (क्रोध से) जबर्दस्ती कोई किसी न जकड़ कर तो शादी नहीं कर दी. इतनीबात थी तो न करता. राम:(व्यंग से) हाँ, जकड़ कर तो सचमुच ही नहीं की. खैर. . . . . . (बाहर से पदचाप.)माँ:मुझे लगता है तुम्हारे बापू वगैरह आ रहे हैं. (सब दरवाजे की ओर एकटक देखते हैं. भाभी उठकर चली जाती है. काशीराम औरदौलतराम का प्रवेश)माँ:(दूर से ही) हंस नहीं आया ?काशीराम : राजा के साथ कहीं मटरगश्ती कर रहा था.दौलत: न जाने कैसा पत्थर दिमाग है. कल ब्याह हुआ है. घर में पाहुने बैठैंहैं. पर कोई ख्याल ही नहीं. कोई जिम्मेदारी ही महसूस नहीं होती.काशीराम :बहुत ही बेपरवाह है.दौलत: यार-दोस्त भी क्या ढूंढे हैं ! वह वजीरा पठान, भांगरी मरासी, भगवन्त पतंगबाज--एक से एक गया-गुजरा ! बस सारा दिन इन्ही मुस्टण्डोंके साथ सिनेमा के आस-पास चक्कर काटता रहता है. जैसी इसकी संगत है,सारी उम्र शादी नही हो सकती. अब ऐंठता फिरता है.राम :शादी न भी होती, तो कम से कम घर वालों को तो दोष न दे सकता.दौलत: दोष देने को अब हमने कौन-से उसके हाथ-पाँव तोड़ दिये हैं ? भलाही किया है. अगर फिर भी धक्के खाने हैं, तो खाता फिरे.माँ:(बापू को गिलास पकड़ाते हुए) ये लो ! (दौलत का दूसरा गिलास देतीहै).राम: बराबर के लड़के को दोस्ताना तौर पर समझाया जा सकता है ! नकेल पकड़करनहीं घुमाया जा सकता.दौलत : नकेल तुम लोगों को कौन सकता है ? तुमने तो आजादी का पाठ पढ़ा है.हमारे घर में यह नये किस्म की आजादी आई है. बाकी लड़के-लड़कियाँ तो मानोआज तक कैद ही रहे. एक तुम्हीं लोग आजाद हुए हो !. . . . . . देखते क्या हो. . . . . !ये काँटे तुम्हारे ही बोये हुए हैं . खुद तो धक्के खाने थे, उसे भी साथचिपका लिया. न कोई काम-धंधे में लगे, न ब्याह किया, वैसा ही उसे भीबना दिया.राम: मैंने शादी नहीं की, उसका दुख मुझे होना चाहिए या किसी दूसरेको ?दौलत: जब नित नई लड़कियाँ हाथ मिलाने के लिए मिल जाएं तो किसी एक से गाँठबांॅधने की क्या जरुरत है ?राम: मलंगों के साथ लड़कियाँ तो क्या, दिल्ली जैसे शहर में भंगी तकहाथ नहीं मिलाते.दौलत: पर तुम्हें मलंग रहने के लिए कहता कौन है ? बिना काम किए बैठे-बिठायेमुंह में रोटी का कौर कौन देगा ? या रास-ड्रामे ही हो सकते हैं या कमाईही !राम: कमाने और ब्याहने के अलावा जिन्दगी में और भी तो कुछ है.दौलत : वह कौन-सा खजाना है ? कभी हमें हासिल करके भी न दिखाया !काशीराम : देख बेटा, तेरे साथ के लड़के कहाँ से कहाँ पहुंच गए ! वह संतरामथा, जज बन गया, क़ष्ण थानेदार लग गया--और एक तू है !राम: युग-युगान्तरो की बात है बापू ! समुद्र के पानी में बहुत सी मछलियाँअपना पेट भरती थीं. भरपेट पानी पीती थीं, पर हमारे जीवन का विकास उनमछलियों कि जिंदगी पर हुआ है, जिन्हें एक चन्चल लहर ने खुश्क रेतपर ला फेंका था.माँ:(हंॅसकर प्यार से) बस, तू बैठा कहानियां सुनाता रहा कर !दौलत: अपना विकास तो होता नहीं और संसार-भर का विकास करने निकला है! जो अपना और अपने परिवार का भला नहीं कर सकता, वह किसी और का भला क्याकरेगा ?राम : चलो ! इस बहस से क्या फायदा ?दौलत : नहीं ! हमसे बहस का क्या फायदा ? हम तो ठहरे गँवार ! तूने तो फिरभी एम. ए. पास किया है, हमें तो वह दसवीं पास भी मूर्ख समझता है. कुछतो तेरी शिक्षा का असर होना चाहिए .राम : मेरी शिक्षा का कुछ बुरा असर तो हुआ नहीं ! वह खुश रहने का यत्नकरता है . किताबें पढ़ता है और घर का काम करता है. और करे भी क्या ? शादीनहीं करना चाहता था तो यह कोई गुनाह तो था नहीं ! अपने जीवन के बारेमें फैसला करने का उसे कुछ तो हक होना चाहिए ! अब शादी हो ही गई है--तो ठीक है.दौलत: नहीं, शादी हो गई, तो ठीक क्यों है ? अब उसे तुड़वा दे.काशीराम : तुझे तो बल्कि उसे समझना चाहिए था बेटा ! अब शादी हो ही चुकी,तो झगड़ने से क्या फायदा ? बेचारी उस लक्ष्मी का जीवन भी बरबाद करना. . . ! उसने हमारा क्या बिगाड़ा है ?राम : पर मैंने उसे कब कहा है कि छोड़ दो ? बल्कि सुबह से तो उसे समझा रहाहूं कि. . . . . दौलत: (बीच में ही यह छोड़ने को कब कहता है ? यह तो कहता है जिन्होंनेशादी की है, उनके पल्ले बाँध दो ! यह आजादी का दूत है न ! लोगो को आजादीदिलवाता है. तभी तो तुझ सलीकों को सरकार ने भी आजादी दे रखी है. ऐसो कोनौकरी देकर उन्होंने अपने लिए मुसी-बत पैदा करनी है ? [दौलत की बहू ऊपर से आती है. दौलत को रोकते हुए]भाभी : क्या करते हो जी ! बहू ने सुन लिया तो क्या सोचेगी ?दौलत:तू है ही भाई . मैं तुझे क्या क् हू ? अगर तेरी जगह मेरा बेटा होता,तो धक्के देकर घर से बाहर कर देता और कभी सूरत न देखता.[माँ रोने लगती है .]भाभी : चलो अब, ऊपर जाओ. सारा दिन फिजूल बोलते रहोगे. जो होता है, देखतेरहो. तुम्हें क्या ?दौलत : (और भी क्रोधित होकर) मुझे क्या ? जब आँख दुखेंगी तो खुद ही पट्टीबांधते फिरेंगे. यह तो ऐसा मरासियो का खानदान है, जितना इनका भलासोचो, उतना ही सर चढ़ते हैं. जहां धक्के खायें. मैंने तो सोचा कल को फिररोते आयेंगे, फिर भी तो मुझे ही करना पड़ेगा--पर जाने दो--मरने दो--खानेदो दर-दर की ठोकरें. [कहते कहते चला जाता है. पलभर सब चुपचाप जड़वत् खड़े रहते हैं. भाभी पीछे-पीछेचली जाती है.]राम: (एक बार सीढ़ियों की तरफ देखकर, जिधर से वे दोनों गए हैं.) ऐसे आदमीसे क्या बात हो सकती है ?काशीराम : गुस्सा आ जाय तो आगा-पीछा नहीं देखता पर दिल का खोटा नहीं.राम : समाज दिल से नहीं मुंह के जोर से चलता है बापू ! जिसकी जबान कड़वीहै, मन में बेशक अम़्अत का समुद्र ही क्यों न हो, वह अम़्अत को भी विष बना-बनाकरउगलेगा . माँ : दूसरों की इज्जत तो मिनटों में उतार कर रख देता है. आदमी बोलतेहुए कुछ तो सोचता है ! यह नहीं कि मेरा भाई है, अब का गया, न जाने कब लौटेगा.कम से कम जाते वक्त तो उसको बुरा-भला न कहूं.काशीराम :यह उसे कौन समझाये ? दूसरे की बात तो सुनता ही नहीं.राम : मैं तो खुद ही उससे ज्यादा बात नहीं कहता. दिमाग और शरीर की बनावटमें कोई ज्यादा फर्क नहीं. जैसे ठिगनों को खींचकर लम्बा नहीं कियाजा सकता, वैसे ही तेज-तरार स्वभाव वालों को नम्र नहीं बनाया जा सकता.(एकदम घड़ी की तरफ देखकर) मेरा तो गाड़ी का समय हो गया. [कहते हुए ऐसे उठता है मानों दिमाग से कोई भारी बोझ उतार-कर फेंकरहा हो.]माँ : हंस तो अभी तक नहीं लौटा ?राम : शायद रास्ते में मिल जाय. (कहते हुए अन्दर से सूटकेस लाता है)मैं जरा ऊपर नमस्ते कह आऊँ.[जाता है]माँ :(धीरे से) कोई बातचीत का सलीका भी तो हो. बैठे-बिठाये बेचारेकी आन मिट्टी में मिला दी. नहीं नौकरी लगी तो हमें कहाँ से अशरफियाँभेज दे ?[हंस का प्रवेश]माँ : (खुशी से सुख का साँस लेकर) वाह रे हंस ! अच्छा मिला तू राम से. तबका गया अब लौटा है.हंस :(बेपरवाही से) रास्ते में रुलदू मिल गया था.[राम सीढ़ियाँ उतर कर आता है ]राम : (खुश होकर) यह बड़ा अच्छा हुआ कि तू आ गया ! मैं सोच ही रहा था कि क्याकिया जाए ? (हाथ मिलाते हुए) अच्छा, अब तुम दोनों कुछ दिनों के लिएदिल्ली आना. इस बार मैं तुम्हें बहुत सैर कराऊंगा. वैसे भी अगले महीनेवहाँ एक आल इण्डिया एग्जीबिशन लगने वाली है और बम्बई, कलकत्ता सेकई-एक डांस-ड्रामा ट्रुप आ रहे हैं. अच्छा. . . . . . हां : (हाथ मिलाते हुए) चलो, चलते हैं.[सूटकेस उठाने लगता है]राम : नहीं नहीं. तू ठहर, मैं चला जाऊंगा.हंस : फिर क्या हुआ ! मैं बाहिर मुसाफिरखाने से लौट आऊंगा.माँ: तू क्या करेगा बेटा, हम जो जा रहे हैं.हंस :तुम लोग बैठो ! मैं छोड़ आऊंगा.राम : नहीं ! तुझे नहीं जाना.हंस : यहाँ बैठा बता मैं क्या करुंगा ?राम : जो भी करेगा ! कहना मानते हैं ! ठहर तू ! अच्छा ! (फिर से हाथ मिलाताहै) जरुर आना ! दौलत को मैं लिख दूंगा. अच्छा ! (कहकर जाता है. हंस गुस्सेसे हाथ उछालता है. बाहर चले जाते हैं. पलभर बाद राम अकेला लौटकर आताहै.)राम :मैं तुझे केवल एक छोटी-सी बात कहने आया हूं. (रुककर) जीवन मेंखुद इतनी पीड़ा और निराशा है कि वही काफी है--उसको बढ़ावा देने से तोसभी का जीना दूभर हो जाता है. मनुष्य का सबसे बड़ा फर्ज यही है कि वह समाजमें खुशी और प्यार बढ़ाने की कोशिश करे--ताकि हमारे ये जन्म-जातदु:ख हंस-खेल कर कट जायें. अच्छा ! तुम इस पर सोचना जरुर--करना जोमन चाहे. (स्निग्घता से हाथ मिलाकर विचार-मग्न चला जाता है. माँ : (बाहर से ही) क़ष्णा ! अरी ओ क़ष्णा !क़ष्णा : (ऊपर से) क्या है माँ ?माँ : हंस भैया आ गया है बेटी ! दूध ठंडा करके दे दे.क़ष्णा : आती हूं.हंस : (गुस्से से) ले लूंगा मैं अपने आप. मुझे पता है दूध का. [हंस वहीखड़ा रह जाता है--फिर बाहर को जाने लगता है परन्तु दरवाजे के पास जाकरलौट आता है. फिर जाता है--अंत में आकर चारपाई पर बैठ जाता है और अपनासर पकड़ लेता है.]हंस : (स्वगत) इसने मेरा गला दबोच रखा है. (अपनी गर्दन और छाती पर हाथफेरता है और लम्बे-लम्बे सांस छोड़ता है) क्या. . . . . क्या मुझमेंघर छोड़ने की भी हिम्मत नहीं ? पर. . . . . माँ. . . . . बापू. . . . . उनकेजीवनस्रोत सूख गये हैं . . . . . . मैं. . . क्या मैं यौवन में ही इतनाडरपोक हूं ! डर की जिन्दगी से मौत अच्छी. . . . . . . मौत. [दुख से आँखे बन्द कर लम्बे-लम्बे सांस लेता है. तभी नई बहू और क़ष्णाऊपर से आती है. आगे-आगे क़ष्णा है और उसके पीछे नई बहू शर्माती हुईआ रही है. . . . . माप-माप कर कदम उठाती हुई. उसके पांव की झांझन खनखनातीहैं. हँस आवाज सुन जरा-सा कंपकंपाकर और भी तन जाता है. वह सामने कोनेकी ओर एकटक देखने लगता है. नई बहू को क़ष्णा बरामदे में पड़ी चारपाईपर बिठाकर स्वंय आकर दूध ठंडा करने लगती है.] क़ष्णा :(हँसकर) क्या बात है भैया ? आज किसके ध्यान में इतना मस्तबैठे हो ?हंस : (क्रोध से) और क्या छलांगें लगाऊँ ?क़ष्णा : हाय राम ! गुर्राते क्यों हो भैया ?हंस : अपने मजाक अपने पास ही रख.क़ष्णा : अच्छा, एक बात पूछूं. . . सिर्फ एक ? (हंस चुप रहता है. उसका भाव देखकर क़ष्णा भी चुप हो जाती है. वह बात अधूरीछोड़ नई बहू को दूध के गिलास पकड़ा देती है. क़ष्णा : यह लो शान्ता ! यह भैया को दे देना. (शान्ता खोई-खोई-सी दोनों गिलास पकड़ लेती है.हंस : (गुस्से से क़ष्णा को) तू ऊपर से किस लिए आई थी अगर तुझे गिलासपकड़ाना भी मुश्किल था. [क़ष्णा सुनी-अनसुनी कर चली जाती है.] [पल भर शान्ता चुपचाप बैठी रहती है, फिर धीरे से अपना गिलास वहीं रखहँस का गिलास ले उसके बाई ओर आ खड़ी होती है.] शान्ता :यह लो !हँस :मुझे नहीं चाहिए. [वह चुपचाप खड़ी रहती है. हंस गुस्से से एक ओर टकटकी लगाये देख रहा है.ऐसे लगता है मानों उसका मन और शरीर किसी शिकंजे में जकड़े हों. उस दशासे छुटकारा पाने के लिए वह सहसा जोर लगाता है. ]हंस :कह जो दिया कि मुझे जरुरत नहीं.[शान्ता फिर भी खड़ी रहती है. ]हंस : [गुस्से से उठने का प्रयास करता है परन्तु शान्ता पर नजर पड़तेही घबरा-सा जाता है. जैसे सहसा अन्धकार से प्रकाश में आते ही आदमीकी आँखे चौंधिया जाती हैं] मेरे हाथ. . . . . . . नहीं. . . . . . टू. . . . . ट. . . . . . टू. . . . . . (उठते-उठतेफिर बैठ जाता है) अगर जरुरत होगी तो मैं अपने आप ले लूंगा.शान्ता : (अपनी शक्ति का प्रभाव समझ कर मुस्कराते हुऐ) जितनी जरुरतहो पी लो. बाकी रहने दो .हंस : अच्छा ! रख दो.शान्ता : कहाँ ? [हंस हाथ बढ़ा देता है. दोनों पलभर के लिऐ एक दूसरे की ओर देखते रह जातेहैं.]पर्दा गिरता हैदूसरा अंक[शान्ता--नई बहू चारपाई पर बैठी दाल बीन रही है. पहले अंक वाली ही मंच-सज्जाहै. शाम का समय--लगभग ४ बजे हैं. सूरज की किरणें आंगन की पिछली दीवारपर नजर आती हैं--आंगन में धूप नहीं रही.]मां :(आते हुए( न जाने क्या हुआ है ? बड़ी मुश्किल से बांध के आई हूं. जानपड़ता है जंगल से कोई अला-बला खा आई है. शंभू को ढूंढ़ने गई थी, पर वह घरही पर नहीं मिला.शान्ता :अब क्या होगा ?माँ :देखो ! और किसी को पूछ देखती हूं ! (शान्ता को दाल बीनते देखकर,दाल के थाल की तरफ इशारा करके) ला पकड़ा मुझे !शान्ता : कोई बात नहीं, बीन लेती हूं माँ जी.माँ : ला दे दे . कभी पलभर चैन भी लिया कर ! सारा दिन कुछ न कुछ करती ही रहतीहो.शान्ता :खाली बैठे मेरा दिल जो नहीं लगता मा जी.मां : खैर काम की आदत तो अच्छी ही है, बेटी ! कहते हैं इस तन को जितना हीतपाओ, उतना ही कंचन-सा चमकता है. फिर भी घड़ी-पल तो आराम करना चाहिए.कोई देखे तो क्या कहे कि सासू ने आते ही बेचारी को चूल्हे-चौंके मेंलगा दिया. परदा खुलता है . सूत्रधार आता है . सूत्रधार की बनावट बड़ी कठपुतली ( एक पेपर ) की है . यह अपना सिर दूर तक उठा सकता है और नीचे गिरा सकता है . उसके हाथ भी छड़ी से चलती हैं . दोनों हाथ जोड़कर ) सूत्रधार - बच्चों नमस्कार . ( बच्चे बोले नमस्कार ) बच्चों की आवाज-नमस्कार . चाचा नमस्कार .सूत्रधार - बच्चों, आशीर्वाद . (आर्शीवाद के लिए हाथ नीचे करते हुए ) अब बताओ, चचा तुमको कौन सी कहानी सुनाएं, मतलब की या बेमतलब कीबच्चों की आवा - मतलब की .सूत्रधार - (सिर ऊपर उठाकर गिराते हुए ) सिर पैर की या बिना सिर सिर पैर की ? ( हंसते हुए ) देखिए, आप कहेंगे-चचा की उमर सठिया गई है . बिना सिर पैर की भी कोई कहानी कहानी होती है . लेकिन बच्चों, आज का आदमी बिना सिर पैर का होता जा रहा है . उसकी उम्र सठिया गई है . बिना कोई सोच विचार के वह काम करता है .आदमी - ( आदमी वाली कठपुतली पर ) अरे अरे खप्ती इंसान, क्यों करता, हमको बदनाम . बदनाम न कर मेरा ईमान अरे अरे खप्ती नादान .सूत्रधार - खप्ती मैं हूं या तू है . बच्चे करें इन्साफ .आदमी - बच्चे करें अभी इन्साफ ?सूत्रधार - अक्ल बड़ी है सबसे इसकी- रहे सदा दिल से यह साफ इसीलिए, बस इसीलिए ही, बच्चे करें अभी इंसाफ .पीछे से आवाज - बोलो बच्चों --------- कैसी रही हमारी बात . सही-सही . सही-सही .सूत्रधार - अब तुमको बतलाता हूं मैं एक मजे की बात . काम करो ऐसा कि न जिससे लगे किसी को घात . सोच-समझ कर बात करे जो, कभी न वो पछताए . करे भरोसा अपने पर जो, काम सदा बन जाए . . नदी किनारे बसा हुआ था, एक जरा सा जंगल . लहराते थे पेड़ तनिक से बाकी था सब मंगल . . ( संगीत-ढम, ढम, ढम . . . . . . ( १३ बार ) ( द़्अश्य बदलता है. बंदर का बच्चा कूदता-फांदता आता है कभी वह एक पेड़ पर चढ़ता है . कभी कूदकर नीचे आता है ) .बंदर - हूप . हूप . ( शेर के बच्चे की आवाज )शेर - हाऊं . हाऊं, हांऊ . तूझको अभी मैं खाऊं .बंदर - हम हैं दोस्त भले तुम हो, राजा के बच्चे . करो यही बर्ताव रहो तुम वचन के पक्के . ( दोनों धमा-चौकड़ी मचाते हैं . एक दूसरे से झूठी लड़ाई लड़ते हैं ). शेर - ओ-ओ रे बंदर भाई .बंदर - ( हांपते हुये ) बोलो, प्यारे भाई . बहुत मचा ली - धमा-चौकड़ी, अब तो प्यारे शांत रहो . घर की राह गहो .शेर - तुमने तो फल खाये बच्चू हम बेचारे भूखे सूरज डूबा घिरी सांझ, मिले ने टुकड़े रुखे अब घर की हम राह गहें मां से अपना कष्ट कहें ..बंदर - हां . मेरी मां है, दिल की कच्ची .शेर - अगर समय पर तू न पहुंचाबंदर - तो रोवेगी जैसे - बच्ची .शेर - आओ जरा गले लग जाओ .बंदर - आता हूं मैं दोस्त, दोस्ती का सुख पाओ.( दोनों गले मिलते हैं . मंच के एक ओर जाते हैं . द़्अश्य परिवर्तन का संगीतबजता है . शेरनी एक जगह से दूसरी जगह घूमती है . एक कोने में आकर दहाड़ मारतीफिर घूम कर दूसरे कोने मे दहाड़ मारती है ) .शेरनी - ( दहाड़ मार कर ) कहां छिप गया मेरा लाल . क्यों करता मुझको बेहाल .. ( शेर के बच्चे का प्रवेश )शेर का बच्चा - हां, हां, ऊं, ऊं . क्यों होती मां तू बेहाल चलता मैं राजा की चाल .. ( घमंड से चलते हुये मां के पास आकर ) अम्मा मुझको भूख लगीशेरनी - तेरी चाल न लगी भलीशेर का बच्चा - अम्मा मत हो तू नाराज, क्षमा करो माता जी आज .शेरनी - कितनी बार कहा तुझसे-जल्दी घर तू आया कर .शेर का बच्चा - अम्मा क्या तू नहीं जानती मैं बेटा हूं राजा का. मुझे कौन करेगा बेहाल ( हाथ से छाती पीटता है ) .शेरनी - चल अब मुझको मत बहला .शेर का बच्चा - खाना मुझको अभी खिला .शेरनी - यह पहले खा ले . फिर बतलाती हूं मैं तुझको. दुश्मन एक बड़ा अपना . तेजी से बढ़ता आता है जैसे हो कोई सपना ..शेर का बच्चा - मां खाना मैं तब खाऊगां, जब जानूंगा उसका नामशेरनी - बेटा . हमारा सबका-वही एक है केवल दुश्मन . दिल दिमाग से ऊंचा है वह कमा रहा है - हत्या ओ धन भस्मासुर सा - बना जा रहा है बेटा वह मारता सबकी नानी ..शेर का बच्चा - लेकिन क्या वह नहीं जानता, भस्मासुर की कहानीशेरनी - हां . हां - बेटा वही कहानी .शेर का बच्चा - जानबूझ कर फिर अनजान बना जाता वहशेरनी - छोड़ो बेटा, यह सब स्वारथ और अहम् से भरी कहानी है . ( आंख बंद करके सोचती है ) .शेर का बच्चा - अम्मा, अम्मा, बोलो अम्मा तुम क्या सोच रही होशेरनी - सोच रही हूं मानव अगर न चेतेगा, तो होगा विध्वंस एक दिन, अपनी किस्मत बेचेगा .शेर का बच्चा - ऐसा - अम्मा ?शेरनी - हां, हां, बेटा, इसीलिए तो कहती हूं . कभी न जाना उसके पास . वरना तू पछताएगा . वरना तू दुख पाएगा . चला है वह सुख का संसार बसाने . लेकिन आस-पास की बात न जाने .शेर का बच्चा - ऐसा खतरनाक प्राणी वह जिसका नाम आदमी है .शेरनी - मेरे बेटे . उससे बचना . और सदा चौकस तू रहना .शेर का बच्चा - अच्छा मां, अब तू न घबरा . मानूंगा मैं तेरा कहना . लेकिन मां, बस एक बार बस एक बार मुझको दिखला दे .शेरनी - न, न, बेटे, ऐसा न कह , बहुत भयंकर है वह बेटे, हर काम उसका स्वार्थ भरा, कोई नहीं परमार्थमय .( दोनों मंच के एक कोने में जाते हैं . द़्अश्य परिवर्तन का संगीत चलताहै . एक बंदर ओर से मंच पर कूदकर प्रवेश करता है ) .बंदर - हूप . हूप .( शेर के बच्चे का एक ओर से गंभीर मुद्रा में प्रवेश . बंदर का बच्चा उससेछेड़खानी करने लगता है . शेर का बच्चा मन लगाकर नहीं खेलता )बंदर - हूप . हूप . हे वन के राजा , किस चिन्ता में गये डूब . हूप . हूप .शेर का बच्चा - बंदर भाई , मुझे देखना है वह प्राणी, दो दो बात करुंगा , उससे .बंदर - बतलाओ तुम उसका नाम , मेल कराकर, कर दूं काम .शेर का बच्चा - कहते है सब उसे आदमीबंदर - अरे आदमी, लाओ उसे चट कर जाऊं .शेर का बच्चा - मत हाको, तुम डींग . न उससे तुम जीतोगे .बंदर - अच्छा ऐसा . . . . . . . . . . . . . . शेर का बच्चा - हां . हां . ऐसा .बंदर - अरे बहादूर शेर के बच्चे . डरते हो तुम, कितने कच्चे अच्छा, चलो दूर से ही हम उसे देख लेते हैं. अपने मन का प्यास बंधुवर, शांत किए लेते हैं .शेर का बच्चा - नहीं यार, मुझको डर लगता है .बंदर - ( जोर से हंसता है ) खीं, खीं, खीं, खीं,---खों, खों, खों, खों. लगता है, तुम वन के नहीं शेर सरकस के फिर भी मैं हूं साथ तुम्हारे क्योंकि तुम लगते हो प्यारे . शेर होकर डरते हो . अरे उठो यार, हम देखते हैं . तुम्हारा साय देते हैं . हम दोनों हाथ में हाथ देते हैं . ( टम, टम, टम, टम. . . . . . . . . . . १३ बार ) ( इसी संगीत के साथ दोनों मंच के एक ओर जाते हैं . मंच पर भालू का एक ओर से नाचते हुये प्रवेश )भालू - मैं हूं भालू . खोद-खोद, खाऊं आलू मधुमक्खी को करता तंग, बालों में उलझी रहती वे, एक नहीं झुंड के झुंड . धागे वाली पुतली में मधुमक्खी का झुंड उससे शरीर से निकल कर भागनेलगता है . उनका पीछा करता है . वे उसको बेवकूफ बनाकर मंच के बाहर चली जाती है .भालू - ( हांपते हुये ) पीता शहद न करता झगड़ा . इसीलिए मैं मोटा तगड़ा .. ( भालू नाच रहा है . दूर से बंदर और शेर के बच्चे का प्रवेश )शेर का बच्चा - क्या तुम आदमी हो .भालू - नहीं बंधु, गाली मत दो . बस मैं भालू हूं .शेर और बंदर- माफ करो तुम, हमें खोज आदमी की है.भालू - न, न भैया . हमें बांध कर नाच नचाता . नचा नचा कर करता ता ता थैया . मार हमारी खाल बेचता . बेच हमारी हड्डी दांत और नाखून . फिर भी न लगता मुंह में खून .बंदर - बहुत स्वार्थी है इंसानभालू - उसने खोया है ईमान बंदर - पर दिखने में कैसा है, वह ?भालू - तुम जैसा ही है, वह . क्योंकि तुम्हारा पूर्वज है, वह .शेर का बच्चा - कहां मिलेगा वह ढूंढ़ो उसको भालू - धरती से उस आसमान तक मिलता है वह सभी कहीं. भरोसा क्या उसका - मिलेगा मतलब हो उसका वहीं कहीं. कहते हैं, धरती को खाकर भी उसका पेट खाली है . इसीलिए अंतरिक्ष पर नजर उसने डाली है .शेर का बच्चा - अच्छा उसका रुप बता ?भालू - दो पैरों से चलने वाला . चलता फिरता दिखे भला .शेर का बच्चा - धन्यवाद तुमको हे भालू, रहो जिन्दगी भर तुम कालू . पर मैं तो उसको देखूंगा . ताकत कुछ उसकी ले लूंगा .. ( भालू उनको पकडने दौड़ता है . और उसे रोककर- संगीत शुरु होता है . भालू उनको रोकने का अभिनय करता है अंत मे तंग आकर गुस्से से मंच के एक कोने में चला जाता है . बंदर का बच्चा और शेर का बच्चा खुशी-खुशी उत्साह में मंच के दूसरी ओर चले जाते हैं . दूसरी ओर से गाय रंभाती हुई आती है . एक ओर से बंदर के बच्चे और शेर के बच्चे का उत्साह में उसी तरफ से प्रवेश )गाय - ( रंभाकर ) अरे वे रहे . ( शेर और बंदर के बच्चे की ओर बढ़ती है ).बदंर का - लगता कोई मां है .शेर का बच्चा - खो गया - उसका लाल है . बंदर - हो सकता है, यही आदमी हो . ( दोनों गाय के पास जाते हैं उनको देखकर )गाय - देखा है तुमने लाल को . कहां गया वह, क्या जंगल में भटक गया ? या कहीं झाड़ी में अटक गया ..बंदर - ऐसा न कहो, हे माता . हमको यह सब न भाता .. अब बतलाओ, नाम तुम्हारा . क्या आदमी है नाम तुम्हारा ..गाय - नहीं, नहीं गाय मुझको कहते हैं . पहते रहती मैं वन में . अब मानव के आंगन में .. दो पूले घास में, बना लिया उसने हमें गुलाम . दूध पीता है हमारा, कमा रहा है आज नाम ..शेर का बच्चा - मानव कौन ? क्या वही आदमी . ( गाय सिर हिलाकर रंभाती है ) .शेर का बच्चा - कहां मिलेगा, देखने को आतुर हैं हम .गाय - मत देखो उसको, होगी निराशा .बंदर - हो सकता है, हम बहादुर उससे मिलकर , दिला सके इस धरती को आशा .शेर का बच्चा - माता हमें बताओ . मानव कैसा ? चट दिखलाओ .गाय - हंडिया सा माथा उसका, उस पर रहते बाल . हाड़ मांस के बदन पर ओढ़ रखी है खाल .. दो कानों के बीच में उसके, बसती शातिर आंखे . ममता उनमें कभी न पनपे, लगते अंगारों की फांके ..बदंर - लगता बड़ा दुख दिया है .गाय - कहती हूं मैं - बच सको तो बचो उससे . अरे हम उसके कितने काम के देखो वह हमारा पीता दूध, खाता मांस, चमड़े के बनवाता जूते . हाड़ मांस की खाद बनाकर उसका करता अपने बूते .. ( गाय रंभाती है . संगीत बजता है गाय उनको चाटती है . मंच के एक ओर जाती है ) .बंदर - चलो दोस्त, लौट चलें अब . छोड़े उस पापी मानव का भ्रम .शेर का बच्चा - पर क्यों ? बंदर - चलेगा मां को पता तुम्हारे बहुत पड़ेगी मार ..शेर का बच्चा - मैं हूं शेर का बच्चा मां मुझको बनाती डरपोक सा बच्चा ..बंदर - मुझे डर लगने लगा है उस आदमी से .शेर का बच्चा - अरे तू उसका पूर्वज, तू उससे डरेगा . जो लिया ऋण, उसे कैसे भरेगा .बंदर - तो चलूं, मुझे देखकर क्या वह मुझे इनाम देगा ?शेर का बच्चा -शेर का बच्चा - हांबंदर - ( डरते हुये ) कहता है तू-तो चलता हूं मैं . ( संगीत बजता है . दोनों मंच के एक कोने की ओर चले जाते हैं . छड़ी कठपुतली पर एक टीला आता है . मंच के एक ओर रह जाता है ( मंच निर्देश देखें दूसरी ओर से शेर का बच्चा और बंदर का बच्चा आते हैं . शेर का बच्चा - वह देखो दोस्त . . . . . . . . . . . हाड़ मांस का शरीर है उसका ओढ़ कर बैठा है खाल .बंदर - कहां गया हड़िया सा माथा और कहां गये वे बाल ..शेर का बच्चा - ( आगे बढ़कर ) मैं पास जाकर देखता हूं . ( टीले के पास जाकर एक हाथ से उसे दो बार ठोकता है . आवाज आती है -- खट, खट . ( बच्ची की आवाज - टीला दाएं बाएं हिलता है . फिर बोलता है ) . कौन है भैया, क्यों देते तुम दस्तक .शेर का बच्चा - निकलो बाहर, भैया है न हम भक्षक ..बच्ची की आवाज - कैसे करुं भरोसा तुम पर, यह मुझको बतलाओ . डर से छुपी हुई मैं लोभ न मुझको दिखलाओ ..शेर का बच्चा - हम आदमी को ढूंढ़ रहे हैं . कहीं तुमने उसे तो छिपा नहीं रखा है ?बच्ची की आवाज - मैं क्यों चली छिपाने उसको, किया खत्म वंश जिसने मेरा. काट कर सारे जंगल बस रहने दिया है अंश उसने मेरा . ( रोते हुये ) सर छिपा कर रहने दो मुझको . एक दिन खेती की सूझेगी , उसको .शेर का बच्चा - ठीक है . खुश रहो . पर बताओ मिलेगा कहां ?बच्ची की आवाज - आगे जाओ, कटे पेड़ मिलेंगे जहां . पाओगे तुम उसे वहां . ( शेर का बच्चा दहाड़ता है )शेर का बच्चा - पा लिया . पास ही होगा . आओ बंदर , उसे हमसे दूर भागना होगा .( संगील बजता है , दोनों मंच के एक कोने में चले जाते हैं . बाहर रोने की आवाज सिसकियां सुनाई देती हैं . संगीत बजता रहता है . छड़ी की पुतली पर एक कटाहुआमंच के एक कोने में आता है . उसकी दो शाखाएँ हाथ की तरह फैली हैं . इसके बीचछोटी शाखा सर का काम करती है . सिसकियां उसी प्रकार संगीत के साथ उभरतीहै .दूसरे कोने से शेर और बंदर के बच्चे का प्रवेश )बंदर - भैया, कोई रो रहा है .शेर का बच्चा - उसे कुछ दुख हो रहा है .बंदर - लगता यही मानव है . जो जग को जीत -बन गया दानव है .शेर का बच्चा - ( सूखे पेड़ के पास जाकर ) रो, रो किया क्या अपना हाल ?व़्अक्ष - ( रोते हुये ) चला कुल्हाड़ी मानव ने किया मुझे बेहालशेर का बच्चा - कैसे है वह ? जरुर बदला मैं लूंगा . सर उसका लाकर तुमको दुंगा ..व़्अक्ष - नहीं भैया, इतनी बघारो न अपनी शान बड़ो बड़ो की ले रखी है उसने जान .. जगंल के जंगल काटे हैं, देख नहीं रहे . काटता वह हर चरण है, दूषित कर रखा पर्यावरण . कमा कमा कर उसने धन, धरती का बिगाड़ा सुंदर तन .शेर का बच्चा - कहां मिलेगा ? व़्अक्ष - व़्अक्ष काटता तुम्हें मिलेगा . ( व़्अक्ष काटने का संगीत बंदर और शेर का बच्चा मंच के एक ओर जाते हैं . मंच पर लकड़ी के ढेर पड़े दिखाई देते हैं मंच के एक ओर एक हरे भरे व़्अक्ष को, कुल्हाड़ी हाथ में लिए एक आदमी कंधे पर रस्सी लटकाये काट रहा है मंच के दूसरे कोने में से शेर और बंदर के बच्चे का प्रवेश )शेर का बच्चा - कौन हो तुम प्राणी ?आदमी - ( लकड़ी काटना बंद कर नीचे उतरता है . पास आकर ) बोलो प्राणी .शेर का बच्चा - मैं जंगल के महाराजा, शेर बबर का बच्चा .आदमी - ( कुल्हाड़ी एक कोने में रखकर . रस्सी को कंधे पर संभाल कर आगे बढ़ते हुये ) अच्छा ! अच्छा !शेर का बच्चा - मानव को मैं ढूंढ़ रहा हूं .आदमी - भाई मैं ये खड़ा हुआ हूं .शेर का बच्चा - आओ हाथ मिलायें . छोड़ दुश्मनी अपनी, प्यारे दोस्त अभी बन जायें .आदमी - क्या खूब है . ( दोनों हाथ मिलाते है . बंदर की तरफ जो दूर खड़ा है ) यह कौन है ? क्या बन्दर ? शेर का बच्चा - मित्र, यह तुम्हारा पूर्वज है . आओ हाथ मिलाओ बंदर .आदमी - ( बंदर की तरफ बढ़ते हुए अपने आप से ) मिलेंगे भेजेंगे इसे अन्दर .( बंदर के पास जाकर उससे हाथ मिलाने बढ़ते है . बन्दर दूर से ही हाथहिलाकर हूप-हूप करते हुए मंच के एक कोने में भाग जाता है आदमी क्रूरहंसी हंसते हुए . )आदमी - मेरे पूर्वज ? पर तुम हो कितने डरपोक फिर खाते क्यों हमसे खौफ . तुम मुझको ही ढूंढ रहे थे ?शेर का बच्चा - ( डरते हुए दहाड़कर ) हां .आदमी - अरे . डरो नहीं .शेर का बच्चा - ( और अधिक डरते हुए, दहाड़ते हुए ) नहीं , नहीं .आदमी - भाई हाथ दोस्ती का तुमने बढ़ाया . हमें क्यों चने के झाड़ पर चढ़ाया . फिर डरते क्यों हो ? शेर का बच्चा - डरना न जानते हैं , हम . है , शेर के बच्चे . लड़ने में न कमजोर और बात के सच्चे .आदमी - तब पीं पीं क्यों बोल रहे हो . पोल अपनी खोल रहे हो .शेर का बच्चा - ( डर कर दहाड़ते हुए ) नहीं हम हैं , मित्र .आदमी - पियेंगे पानी, खीचूंगा मैं चित्र .शेर का बच्चा - हां, हां . प्यास लगी है . दूर दूर तक ढूंढ चुका हूं, नदी न अब तक मुझे मिली है .आदमी - मिलेगी कैसे ? उसका खींच खींच कर कान पैदावर बढ़ा रखी है और करना है खेता का मान . ( एक कोनें में जाकर, रखा हुआ एक गुंड नुमा बर्तन लेकर आता है )शेर का बच्चा - पर तुमको मिला कैसे पानी .आदमी - छेदकर धरती में हमने, निकाला पानी . ( गुंड उठाकर पानी देता है ) लो पियो . ( शेर का बच्चा अपने सिर का गुंड में डालने का प्रयास करता है ) .आदमी - नहीं, नहीं . ऐसा नहीं . तुम हो शेर के बच्चे, है सिर बड़ा तुम्हारा . ( आदमी गुंड को उठाकर शेर के बच्चे के मुंह के पास ले जाता है ) सिर को करो तिरछा . साथ ही, दीवान पद के दावेदार अन्य उम्मीदवार भी थे . पी. एन. क़ष्णामूर्तिशेषाद्रि अय्यर के पद के समान स्तर पर काम कर रहे थे . वह मैसूर को १७९९में क़ष्णराज वाडियार ईईई को लौटाए जाने के बाद रियासत के भाग्यविधाता महान मंत्री, पुर्नेय्या के वंशज थे . वह रियासत में अग्रणीकुलीन पुरुष थे और पुर्नेय्या को स्वीक़त किये गये यलंधर जहांगीरके पांचवें धारक थे . उनकी आयु ३२ वर्ष थी . टी. आर. ए. थम्बूचेट्टी जिला तथा सेशन जज थे और महाराजा की कार्यकारिणीपरिषद के पदेन सदस्य थे . वह न्यायिक आयुक्त न्यायालय के प्रघान सरिस्तेदारके पद से उन्नति करके जिला जज बने थे . वह कैथोलिक समुदाय के थे, जिसेपरिश्रम करने वाले और उच्च चरित्र के व्यकितयो के समुदाय के रुपमें जाना जाता है . उस समय उनकी आयु ४६ वर्ष थी और वह पुन:स्थापन के समयसे महाराजा की कार्यकारिणी परिषद के पदेन सदस्य रहे थे . इसमें कोईसन्देह नहीं है कि दीवान के रुप में शेषाद्रि अय्यर की नियुक्तिमें रंगाचार्लु का सन्देश निर्णायक हुआ . शेषाद्रि अय्यर को १२ फरवरी १८८३ को दीवान नियुक्त किया गया . नियुक्तिघोषित करने के लिए विशेष राजपत्र जारी किया गया . उसमें की गई उद्घोषणानिम्नानुसार थी : "चूंकि सेट्टिपुनियम् वीरवल्लि रंगाचार्लु, सी. आई. ई. की म़्अत्युके कारण हमारे दीवान का पद रिक्त हो गया है, हम, कुमारपुरम शेषाद्रि अय्यर की स्वामिभक्ति, योग्यता तथा विवेक में आस्था तथा विश्वास रखते हुए, एतद् द्वारा उपरोक्त कुमारपुरम शेषाद्रि अय्यरको मैसूर प्रदेश के कार्यपालक प्रशासन के संचालन के लिए अपना दीवान नियुक्त करते हैं, और इसके साथ ही, हम उपरोक्त कुमारपुरम शेषाद्रि अय्यर को अपनी परिषद् का पदेन अध्यक्ष भी नियुक्त करते हैं ." शेषाद्रि अय्यर जानते थे कि दीवान के पद के लिए उनका नाम रंगाचार्लुद्वारा प्रस्तावित हुआ . दीवान के पद पर नियुक्ति के समय शेषाद्रिअय्यर की आयु केवल ३८ वर्ष थी . उनके सामने सेवारत रहने के लिए दीर्घजीवन था . शेषाद्रि अय्यर की किंकत्र्तव्यता का जिक्र करते हुए दरबारबख्शीआंबिल नरसिंह आय्यंगर ने कहा, "मैं आपको यह भी बता सकता हूं कि इतनीकम आयु में ऐसे दायित्वपूर्ण पद को स्वीकार करने में स्वयं शेषाद्रिको शंकाएं थीं . ऐसा प्रतीत हुआ कि उन्होंने आदरपूर्वक महाराज कोसंकेत दिया कि वह इस पद के लिए कम उम्र के हैं और उन्हें पेंशन का हकदारबनने के लिए कई वर्षो तक सेवा करनी होगी . जबकि दीवान के रुप में पांचवर्ष तक सेवारत रहने के बाद वह अन्यत्र कहीं भी रोजगार नहीं ढूंढ़सकते और न अलग-थलग होकर निजी जीवन ही बिता सकते . महाराज ने अपनी स्वाभाविकक़पालुता तथा अपनी अन्तर्जात राजनेता बुद्वि से मुस्कराते हुएकहा, "आपको इस प्रकार की शंकाओं से ग्रस्त नहीं होना चाहिए और यदिरियासत का काम-काज बखूबी चला तो आपको अपने भविष्य के बारे में कोईचिन्ता नहीं करनी चाहिए ." दीवान का पद ग्रहण करने के दूसरे दिन शेषाद्रि अय्यर आंबिल नरसिंहआय्यगर से मिले . वह उदास दिखाई दे रहे थे और बड़ी उलझन भरी मुद्रा मेंथे . नरसिंह आय्यंगर ने उनसे पूछा कि अपनी पदोन्नति और स्वर्णीम अवसरकी प्राप्ति पर प्रसन्न होने के बजाय आपका चेहरा उतरा हुआ क्योंदीखता है ? शेषाद्रि अय्यर ने जवाब दिया, "कल तक मैं आप लोगों मेंसे एक था, लेकिन अपने ऊंचे पद के राजचिन्ह से अलंक़त होकर जब मैं राजमहलसे लौटा तो आप सब लोग मुझसे अलग-थलग पड़ गये . आप में से कोई भी मेरे पासनहीं आयेगा . मेरी बराबरी के लोग नहीं हैं . संगी-साथियों का अभाव,मेरे पद की गरिमा का एकाकीपन और मेरे पद से जुड़े गुरु गंभीर दायित्वकभी-कभी मुझे उदास बना देते हैं . मुझे यही चिन्ता रहती है कि महाराजका विश्वास अपनी प्रजा का सद्भाव और अधीनस्थ अधिकारियों से अनुमोदनकैसे प्राप्त किये जायें और कैसे उन्हें बनाये रखा जाये ." नरसिंहआय्यंगर ने उनसे कहा, "हमारा सर्वोच्च कत्र्तव्य आपको सम्मानदेना और थोड़ा फासला बनाये रखना है अन्यथा हम लोगों से यह आशा कैसेकर सकते हैं कि हम आपको आदर प्रदान करें ? बीतते समय के साथ आप अपनेकार्य में रम जायेंगे और आपका मंगलकारी प्रभाव सर्वव्यापी हो जायेगी. शेषाद्रि अय्यर द्वारा दीवान के पद का कार्यभार ग्रहण समय करते रियासतकी वित्तीय स्थिति किसी भी प्रकार से आश्वस्त करने वाली नहीं थी,निकट भविष्य में औसत वार्षिक आय के १०२ लाख रु. से अधिक होने की आशानहीं थी . इसमें १०. ५० लाख की वसूली राशि भी सम्मिलित हैं . इस तरह सेवास्तविक आय ९१. ५० लाख रु . थी . आर्थिक सहायता, राजकुल व्यय, अकालऔर रेलवे सम्बन्धी ऋणों पर ब्याज जैसे नियत व्यय मिलकर ४८ लाख रुपयेबैठते थे . १८८४ में मैसूर दरबार ने बंगलौर के सिविल तथा सैनिक केन्द्रका प्रशासन भारत सरकार को सौंप दिया . अत: इस क्षेत्र से प्राप्त राजस्वअधिशेष रियासत को नहीं मिलता था . सिविल प्रशासन तथा सार्वजनिक कार्योंके लिए उपलब्ध राशि ४४ लाख रुपये से कम थी . स्थायी व्यय सहित औसत कुलव्यय ९९. ५० लाख रुपये से कम था . अत: वार्षिक घाटा ७ से ८ लाख रुपये सेकम नहीं था . ब्रिटिश अधिकारियों की वापसी तथा किफायत के कदमों के फलस्वरुप सरकारके विभागों में अव्यवस्था हो गई . उनकी कार्य-कुशलता में कमी आ गई. प्रशासन अत्यधिक केन्द्रीक़त हो गया . वास्तव में सारे अधिकार दीवानके हाथों में आ गये . भू-राजस्व, वन, उत्पादक-शुल्क, खनन, पुलिस,शिक्षा, मुजरै तथा विधि निर्माण जैसे सब बड़े विभागों से सम्बन्धितनिर्णयों का श्रोत दीवान ही था . चाहे दीवान कितना ही योग्य और कर्मठक्यों न हो, ऐसी स्थिति में विभागों का कार्य धीरे-धीरे पिछड़ जानाऔर उनकी कार्य-कुशलता में कमी आ जाना बिल्कुल स्वाभाविक था . १८७६-७८ के अकाल ने प्रदेश को बर्बाद कर दिया था . रियासत की अर्थ-व्यवस्थाअभी तक उसके प्रभाव से नहीं उबर पाई थी . अकाल द्वारा प्रताड़ित क़षि,व्यापार तथा उद्योग भी अभी तक नहीं संभल पाये थे . शेषाद्रि अय्यरद्वारा अपने पद का कार्यभार ग्रहण करते समय कोष में इतनी नकदी भीनहीं थी कि आर्थिक सहायता की पहली किस्त अदा की जा सके . उन्होंने सबसेपहले रियासत की वित्तीय स्थिति सुधारने के काम पर ध्यान दिया . १८८४में उन्होंने भारत सरकार से आग्रहपूर्वक अभिवेदन किया कि बंगलौरसिविल तथा सैनिक केन्द्र का अधिशेष राजस्व रियासत को भुगतान कियाजाये . जब भारत सरकार ने उनके अनुरोध को अस्वीकार किया तो, उन्होंनेभारत सचिव के नाम अपील भेजी, यह अपील भी नामंजूर हो गई . परन्तु, बंगलौरके सिविल तथा सैनिक केन्द्र के राजस्व में से जमा हुए अधिशेष को आर्थिकसहायता के आंशिक भुगतान में लगाने की अनुमति दे दी गई . महाराजा को रियासत के पुन:स्थापन किये जाते समय शाही सरकार को भुगतानकी जाने वाली आर्थिक सहायता में १०. ५० लाख रु . की व़्अद्धि कर दी गई. क़ष्णराज वाडियार ईईई के समय में भुगतान की जाने वाली आर्थिक सहायता२४. ५० लाख रु . थी . यह बढ़ाकर ३५ लाख रु . कर दी गई . परन्तु रियासत जिन वित्तीयकठिनाइयों से गुजर रही थी , उन्हें देखते हुए आर्थिक सहायता में१०. ५० लाख रु . की व़्अद्धि का भुगतान ५ वर्ष तक के लिए स्थगित कर दियागया . जब शेषाद्रि अय्यर दीवान बने तो इस माफी अवधि में से केवल दो वर्षशेष रह गये थे . अत: दीवान ने बढ़ी आर्थिक सहायता में छूट के लिए भारतसरकार को अभिवेदन दिया . उन्होंने समजझाया कि मैसूर के राजस्व मेंविशेष फेर-बदल नहीं किया जा सकता . अपनी बात के समर्थन में उन्होंने१९ वीं शताब्दी के पहले तीन दशकों के दौरान औसत वार्षिक राजस्व काब्यौरा दिया . ये आकंड़े क्रमश: ८६. ७५ लाख रु , ८६. २५ लाख रु . और ७६ लाखरु . थे . अंग्रेजों द्वारा रियासत का प्रशासन अधिकार १८३१ में लिएजाने के बाद के पहले तीन दशकों में औसत वार्षिक राजस्व क्रमश: ७०. २५लाख रु . ७६ लाख रु , ८४. ५० लाख रु था . १८७६-७८ भीषण अकाल से पहले के दशकमें राजस्व की वार्षिक अधिकतम आय १०५ लाख रुपये थी, जो की राजस्वके श्रोतों में बुनियादी सुधार के कारण नहीं , बल्कि अमरीकी ग़हयुद्ध के फलस्वरुप भारतीय कपास तथा इस प्रकार की अन्थ जिंसों कीकीमतों में बढ़ोतरी के कारण हुआ . ग़ह-युद्ध के कारण संयुक्त राज्यअमरीका से कपास का आयात करना इंग्लैंड को बंद करना पड़ा . इससे भारतीयकपास की मांग बढ़ी और उसकी कीमत चढ़ गई . मैसूर में क़षि अनिशिचत मौसमी बारिश पर निर्भर करती थी . मैसूर के लोगोंद्वारा ब्रिटिश भारत के नमक राजस्व में किये जाने वाले अंशदान की१२ लाख रु . की राशि को छोड़कर कराधान २-४-० रु . ( २. २५ रु . ) प्रति व्यक्तिप्रति वर्ष बैठता था . अत: अधिक राजस्व जुटाने के लिए अतिरिक्त कराधानका प्रश्न नहीं था . अकाल की बर्बादी से उबरने में रियासत को आधी शताब्दीका समय लगता . अत: व़्अद्धि की तात्कालिक संभावना से रहित इस घटी हुईआय से कुछ नई मागें पुरी करनी थी, जैसे अकाल और रेलवे से संबंधित ऋणोंपर ब्याज, राजकुल व्यय में व़्अद्धि, पेंशन प्रभार में व़्अद्धि, नएसर्वेक्षण तथा बंदोबस्त से प्रभावित ताल्लुकों में गांव स्तरके कर्मचारियों को मिरासी या अन्न के रुप में भुगतान के स्थान मेंपारिश्रमिक . अत: दीवान ने निवेदन किया कि आर्थिक सहायता में व़्अद्धिसे प्रशासन के सामान्य कार्यो के लिए उपलब्ध राशि इस हद तक घट जायेगीकि अच्छी तरह सरकार चलाना असंभव हो जायेगा . उन्होंने यह भी कहा किहरिहर तक ( जो दक्षिण मराठा रेलवे का अंतिम स्टेशन था ) विस्तार करनाअकाल से रक्षा संबंधी आवश्यक कार्य था और इसे बिना देरी किये कार्यान्वितकरना . मैसूर सरकार का कत्र्तव्य था . जे. बी. लायल, अंग्रेज रेजीडेंटने दीवान द्वारा भेजे अभिवेदन का जोरदार समर्थन किया . भारत सरकारतथा भारत सचिव ने सहानुभूतिपूर्वक अभिवेदन पर विचार किया . उन्होंनेनिर्णय दिया कि १०. ५० लाख रु . की अतिरिक्त आर्थिक सहायता के भुगतानको आगे १० वर्ष की अवधि के लिए यानी १८९६ के मार्च मास के अंत तक स्थगितकर देना चाहिए . शेषाद्रि अय्यर का प्रशासन आरंभ होते समय पावन ( परिसंपत्ति ) सेदेयता ( देनदारी ) ३०. ७५ लाख रु . अधिक थी . पहले ही यह देख जा चुका हैकि वर्ष १८८१-८२ का राजस्व १,०८,५०,९९१ रु . और व्यय १,१९,३३,१५७रु . था . इस प्रकार लगभग ११ लाख रु . का वार्षिक घाटा रहा . एक अत्यावश्यक कार्य जिसे हाथ में लेना पड़ा, वह अकाल से रक्षा के उपायके रुप में गुब्बी से हरिहर तक रेल मार्ग का विस्तार करना था . यह पायागया था कि जो इलाके निकटस्थ रेलमार्ग से ५० से १०० मील दूर थे और जोबंगलौर हरिहर लाइन के दोनों तरफ थे, उन्हें अकाल के दौरान सबसे अधिककठिनाइयां उठानी पड़ी . इस कारण गुब्बी-हरिहर लाइन के निर्माण केलिए कदम उठाना जरुरी समझा गया . चालू राजस्व तथा तब तक २० लाख रु . केऋण से बनवाये गये रेलमार्ग की कुल लम्बाई १७४ मील थी . इसमें से बंगलौरमैसूर रेलवे पर ब्रिटिश प्रशासन के अंतिम दिनों में काम शुरु होगया था और वह पुन:स्थापन के बाद पूरा हो गया था . गुब्बी से हरिहर तककी लाइन १५६ मील तक की दूरी तक जानी थी . इस लाइन का निर्माण उस समय रियासतके संसाधनों से बाहर की बात थी . भारत सरकार द्वारा यह प्रस्तावितहुआ था कि इस लाइन को विदेशी पूंजी की मदद मे बनवाया जाये. मैसूर दरबारइस प्रस्ताव से सहमत हुआ . मैसूर की तरफ से भारत सरकार ने इस रेलमार्गके निमार्ण के लिए ऋण जुटाने के वास्ते दक्षिण मराठा रेलवे कम्पनीके साथ बातचीत की . कंपनी से ४ प्रतिशत प्रति वार्षिक ब्याज पर १२ लाखपाउंड का ऋण जुटाया गया . मैसूर से हरिहर तक की रेलवे लाइन को ( जिसमेंपहले ही निर्मित रेलवे लाइन भी शामिल थी ) ऋण की जमानत के तौर पर बंधकरख दिया गया . कपंनी गुब्बी से हरिहर तक रेलमार्ग बनाने के लिए राजीहो गई . दीवान ने नई रेलवे लाइन का जिक्र करते हुए १७ अक्तूबर, १८८८को प्रतिनिधि सभा के दशहरा सत्र को संबोधित करते हुए कहा, "महाराजामैसूर की ओर से भारत सचिव ने इस अनुबंध को तय किया है और यह ३० जून, १८८६से ३० जून, १९३२ तक के ४६ वर्षो तक लागू रहेगा . भारत सचिव की गारंटीपर कंपनी ने १२ लाख पाउंड का ऋण जुटाया है और इस ऋण से प्राप्ति यानीलाभ ( २ प्रतिशत अधिशुल्क सहित १२ लाख २४ हजार पाउंड ) कंपनी ने भारतसचिव के नाम भुगतान कर दिया है . भारतीय मुद्रा में यह भुगतान हुए राशि१,६३,८२,८०१ रु . बैठती है . और यह इरादा है कि इसे मैसूर स्टेट रेलवेकी पूंजीगत लागत के लिए लगाया जायेगा . कहने का यह मतलब है, ३० जून १८८६तक मैसूर गुब्बी लाइन पर वास्तविक पूंजीगत परिव्यय में से मैसूरराज्य को भुगतान के लिए ६८,६०,५०८ रु . और गुब्बी से हरिहर तक विस्तारके लिए कंपनी द्वारा निर्माण तथा साज समान पर व्यय के लिए ९५,२२,२९३रु . ( या इसका उतना भाग जितना नितांत आवश्यक हो ) . "मैसूर से हरिहर तक पूरा रेलमार्ग कंपनी द्वारा प़्अथक प्रणाली केरुप में चलाया जाना है, जो ब्रिटिश भारत के रेलमार्ग से भिन्न होगाऔर प्रबंधन की लागत दोनों प्रणालियों द्वारा अपनी-अपनी कुल आयके अनुपात मे अपने बीच विभाजित की जायेगी . मैसूर प्रणाली की शुद्धआय में से कंपनी अपने पास चौथा भाग रखेगी और शेष तीन-चौथाई मैसूरराज्य को दे देगी . कंपनी द्वारा जुटाया गया १२ लाख पाउंड का ऋण १ मार्च१९३६ से पहले चुकाया जाने वाला नहीं है, परन्तु उस तारीख के बाद पहलेसे एक वर्ष का नोटिस देने पर चुकाना होगा . इस प्रकार स्लसल ऋण के चुकाएजाने तक इस पर ४ प्रतिशत प्रति-वर्ष का ब्याज अर्द्धवार्षिक रुपसे लंदन में १ अप्रैल और १ अक्तूबर को प्रत्येक वर्ष का बयाज अदा करनाहोगा . चूंकि ऋण मेसूर राज्य की ओर से भारत सरकार द्वारा गारंटी लिएजाने पर लिया गया है, अत: मैसूर राज्य को इसकी अदायगी तक इस पर ब्याजभुगतान करने का दाथित्व निभाना होगा . वन में लकड़ी काटते हुए सत्यवान् के सिर में अकस्मात् तीव्र पीड़ा हुई.सावित्री पहले से ही उसकी गति-विधि पर ध्यान रखे हुए थी. उसने सत्यवान्का सिर अपनी गोद में धर कर उसको लिटा दिया. तुरन्त ही सावित्री को अपनेसामने एक लाल नेत्रों वाले और सुर्य के समान तेजस्वी दिव्य पुरुषके खड़े होने का आभास हुआ. उसके हाथ में एक फन्दा था और उसकी मुखचेष्टाभयानक थी. अपनी सूक्ष्म-भौतिक देह में सावित्री उठी और उस दिव्यपुरुष को प्रणाम करके बोली कि मैं जानती हूं कि आप कोई देवता हैं क्योंकिऐसी आक़ति मनुष्यों की नहीं होती. विस्तारपूर्वक कहिये कि आप कौनहैं और यहां क्यों आये हैं ? उत्तर में उस भव्य आक़ति ने कहा कि मैंयमराज हूं और सत्यवान् की आत्मा को लेने आया हूं क्योंकि भूलोक मेंइसकी अवस्था पूरी हो गई हैं. यह कह कर यम ने सत्यवान् के शरीर में सेउसके जीव (चैत्य-पुरुष) को अपने फन्दे से खींच कर निकाला और उसेलेकर दक्षिण दिशा में चल दिया. सावित्री पति-वियोग के दु:ख से व्याकुलहोकर यमराज के पीछे चली. यम को अपने पीछे एक मत्र्य प्राणी को सूक्ष्म-भौतिकरुप में आते हुए पाकर आश्चर्यन्वित हुआ देखकर सावित्री बोली कि-"महाराज! घोर तपस्या और पातिव्रत्य-पालन के फल-स्वरुप मैंने यह सिद्धिप्राप्त की हैं और अब मैं क़त-संकल्प हूं कि आप मेरे पति की आत्माको जहां कहीं भी ले जायेंगे वहीं मैं भी जाऊँगी. फिर घर्मशास्त्रमें निर्धारित की गई मर्यादा के अनुसार मित्र-भाव में आपसे वार्तालापकरने का मुझको अधिकार प्राप्त हो गया हैं क्योंकि मैं आपके साथ सातपग चल चुकी हूं. तो मित्रभाव से ही मैं आपसे कहती हूं कि शास्त्रोंमें आपका नाम धर्मराज भी बताया गया हैं और धर्मराज होने के नाते आपकायह अनिवार्य कर्तव्य हैं कि मेरे पति को मुझ से प़्अथक् न करके अपनाग़हस्थाश्रम-धर्म पालन करने में मेरी सहायता करें, क्योंकि स्वधर्मपालन से ही मानव-जीवन क़त-क़त्य होता हैं. सावित्री के ऐसे धर्म-संहिता-प्रणीत प्रज्ञानपूर्ण वचनों कोसुनकर यमराज अत्यधिक प्रभावित हुए और उन्होंने उससे सत्यवान्के पुनर्जीवन के अतिरिक्त और कोई भी वरदान मांगने को कहा. सावित्रीने अपने अंधे श्वसुर की नेत्र-शक्ति के पुनर्नवीकरण का वर मांगा.यमराज ने `तथास्तु' कह कर उसको भूलोक में वापस जाने और अपने पति कीम़्अत देह का यथोचित संस्कार करने का आग्रह किया. परन्तु सावित्रीने यह कह कर वापिस जाने से इनकार कर दिया कि--"सज्जन पुरुषों से एकबार भेंट करना तो उत्तम हैं ही किन्तु उनसे मित्रता करना और भी अधिकउत्तम हैं क्योंकि उनकी मित्रता और संग निष्फल नहीं होते." यमराजऐसे बुद्धिमत्तापूर्ण मधुर वचनों को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए औरउन्होंने सावित्री को अपने पति के म़्अतोत्थान के सिवाय एक दूसरावर मांगने को कहा. सावित्री ने अपने श्वसुर के खोये हुए राज्य को फिरसे प्राप्त हो जाने की अभिलाषा व्यक्त की और यमराज ने वह वरदान भीउसको दे दिया, यह कहते हुए कि--"हे राजपुत्री ! अब तुम बहुत दूर चल कर थक गई हो, लौट जाओ." परन्तु सावित्री फिर भी न मानी और कहने लगीकि--"महाराज! आपने भू-लोक की प्रजा को अपने नियम में बांधा हुआहैं, आप सबके नियन्ता और महान् सत्पुरुष हैं, इसी कारण आपका नामयम हैं. और मन-वचन-कर्म से किसी प्राणी का द्रोह न करना, सबके कर्तव्य-पालनमें सहायक होना तथा उदारचित्त होकर सब पर अनुकंपा करना ही सत्पुरुषोंका सनातन धर्म हैं. सत्पुरुष तो शत्रु पर भी दया करते हैं, फिर मैंतो शास्त्र-मर्यादा के अनुसार आपकी सहचर हूं." यमराज सावित्रीके ऐसे अकाट्य तर्क को सुनकर र्किकर्तव्य विमुढ़ हो गये और इस आशासे कि अधिक प्रभोलन देने से शायद सावित्री अपने हट को छोड़ दे उन्होंनेउसको सत्यवान के जीवन के अतिरिक्त एक तीसरा वर मांगने को कहा. इस बारसावित्री ने अपने पुत्रहीन पिता के सौ पुत्र होने की कामना की. यहतीसरा वरदान देकर यम ने सावित्री को लौट जाने के लिये द़्अढ़ता पूर्वकपुन: आग्रह किया; परन्तु सावित्री फिर भी साथ चलती रही और कहने लगीकि--"महाराज ! आप सूर्य भगवान् के प्रतापी पुत्र हैं. इस कारण विद्वज्जनआपको वैवस्वत कहते हैं, और धर्मराज होने के कारण सज्जन पुरुषोंके तो आप आदर्श ही हैं. मनुष्यों को जैसा विश्वास धर्मात्मा सज्जनोंमें होता हैं वैसा अपनी अंतरात्मा में भी नहीं होता क्योंकि महात्माओंका अपरिहार्य धर्म हैं सबके प्रति उदारता. महामना सज्जन किसी व्यक्तिके धर्मपालन में बाधक नहीं बनते." सावित्री की ऐसी गूढ़ वार्ता कोसुनकर यमराज बोले कि--"हे कल्याणी ! जैसे तात्विक वचन तुमने कहेहैं वैसे मैंने किसी से नहीं सुने. मैं प्रसन्नतापूर्वक एक और वरदान,सत्यवान् के जीवात्मा के अतिरिक्त, तुमको देना चाहता हूं. तुम निस्संकोचहोकर मांगों." सावित्री ने तुरन्त तत्परता-पूर्वक कहा कि--"मेरेगर्भ और मेरे पति के वीर्य से हमारे कुल की व़्अद्धि करने वाले सौ बलवानपुत्र हों." यमराज सावित्री की वाक्पटुता से कुछ हक्के-बक्के होचुके थे. उन्होंने भी तत्परता से `तथावस्तु' कह दिया और फिर सावित्रीसे अनुनय-पूर्वक बोले कि--"अब तुम्हारे सब मनोरथ पूरे हो चुकेहैं. तुम और अधिक विलम्ब न करो, म़्अत्र्यलोक को वापिस चली जाओ. परन्तुइस बार सावित्री अत्यधिक मधुरतापूर्वक बोली कि--"हे देव ! सज्जनमहानुभाव किसी को अभयदान देकर पछताते नहीं हैं. उनका वचन व्यर्थनहीं जाता. उनकी करुणा कभी क्षीण नहीं होती. इसी कारण वे धर्म के रक्षकहोते हैं. आप ही बताइये कि यदि मेरे पति का शरीर पुनर्जीवन नहीं प्राप्तकरेगा तो आपके वरदान के फलस्वरुप मेरे सौ पुत्र कैसे होगें ?" सावित्रीके ऐसे अकाट्य तर्क को सुनकर यमराज निरुत्तर हो गये. वे अपने ही दियेहुए वरदानों के जाल में स्वयं उलझ गये. उनको मानना पड़ा कि सावित्रीकी बात यथार्थ हैं. उनहोंने सत्यवान् के जीवात्मा को अपने पाश सेमुक्त कर दिया और सावित्री को उसके सपरिवार सुखी जीवन के लिए आर्शीवाददेकर वे अपने लोक को चले गये. ऋषि मार्कण्डेय ने, जो महाभारत में इस आख्यान को पांडवराज युधिष्ठिरको सुनाते हैं, अपनी कथा का समापन इस प्रकार किया : "राजन् ! इस प्रकारमहासती सावित्री ने अपने माता-पिता सास-श्वसुर और अपने पति केकुलों को महान् विपत्ति से उबार कर सुख-सम़्अद्धि से परिपूर्ण करदिया. और प्रेमा नन्दकुमार ने अपने शोध-प्रबन्ध `सावित्री महाकाव्यका परिशीलन'( आ श्ठूढ् औञ् शाईठ्षी) में मार्मिक शब्दों में इस आखयायिकाकी इति की है--यथा : "(वास्तव में) सावित्री के उद्देश्य की ज्वलन्तविमलता और गरिमामय सतीत्व ने यम का सामना किया था; और यमराज ने जोधर्मराज भी हैं, सावित्री की तेजस्वी विद्यमानता तथा प्रसागोचितसंभाषण की नैतिक शक्ति के प्रभाव से अपनी अपर भूमिका की अनुभूतिमें सजग होकर सत्यवान् की आत्मा को मुक्त कर दिया था." इस आख्यान में ध्यान देने योग्य दो विलक्षण लथ्य निहित हैं. एक तो यहकि सावित्री किसी भी परिस्थिति में विलाप या रोदन नहीं करती, ना ही वह कभी याचक अथवाकरुण प्रार्थी का अभिनय करती हैं. जब नारदमुनि ने भीषण भविष्यवाणीकी और सावित्री के माता-पिता ने उसको दूसरा वर खोजने को कहा तो उसनेउनसे कोई तर्कवितर्क नहीं किया. उसने द़्अढ़तापूर्वक अपने निश्चयका उद्घोषण कर दिया कि मानसिक भाव में जब उसका ह्रदय किसी को अर्पितहो चुका हैं तो उसमें फिर किसी अन्य व्यक्ति को कोई स्थान प्राप्तनहीं हो सकता. और सत्यवान् की म़्अत्यु से पूर्व त्रिरात्र-व्रत काउसने स्वयं अपने संकल्प से आयोजन किया था. फिर वन में सत्यवान् केसाथ जाने के लिये अपने सास-श्वसुर से जैसी निश्चयात्मक द़्अढ़ता सेउसने आज्ञा मांगी थी उसके कारण उनको स्वीक़ति प्रदान करने के अतिरिक्तअन्य कोई विकल्प नहीं सूझ सकता था. बाद में यमराज के साथ हुई मुठभेड़में सावित्री ने उनसे तभी वार्तालाप किया जब वे उससे कुछ बोले. औरउसके संभाषण में कोई अनुनय-विनय या याचना नहीं थी. उसने यम से समुचित,प्रज्ञापूर्ण और प्रत्यायक शब्दों में ही वार्ता की, जिसके परिणाम-स्वरुपयमराज को प्रतिरक्षात्मक रुख अपनाना पड़ा. उसने यमराज को स्मरण करायाकि वे धर्मराज भी हैं. उसने यम से स्वयं कोई वरदान नहीं मांगा. उन्होंनेही उससे एक के बाद अनेक वरों के प्रस्ताव किये; और वरों को चुनने मेंसावित्री ने सर्वप्रथम अपने सास-श्वसुर के सुख-वैभव का खयाल किया,फिर अपने माता-पिता का और अंत में अपने पति का तथा अपना. इस प्रकारलौकिक मर्यादा में भी सावित्री भारतीय नारीत्व का सर्वोच्च आदर्शहैं और आज भी समाज में उसकी पूजा की जाती हैं. इस आख्यायिका का दूसराऔर अधिक महत्वपूर्ण वैशिष्ट्य,जिसको श्री अरविन्द ने अपने इसमहाकाव्य में अत्युत्क़ष्ट शैली में प्रदर्शित किया हैं, यह हैंकि यौगिक द़्अष्टिकोण से वास्तव में ऐसा कुछ हुआ था कि सावित्री नेयमराज के अन्तस में रुपांतर क्रियान्वित कर दिया था. नश्वरता कीनिषेधात्मक व़्अति वाला देवता अपने अंतर में विद्यमान विध्यात्मकऔर सुव्यवस्था-पालक धर्मराज को पहचानने और चरितार्थ करने को मजबूरहो गया था. `सावित्री' महाकाव्य के पात्र केवल रुपक-विषयक या आख्यान कथितआक़तियां ही नहीं हैं, ना ही वे मूर्तिमान गुण या लक्षण मात्र हैं.वे सजीव और सचेतन सत्ताओं के प्रतीक भी हैं. राजकुमारी सावित्रीप्रतीक हैं दिव्य ज्योंति और सत्य-चेतना की देवी की, जो सत्यवान्का अज्ञानांधकार और अचैतन्य रुपी म़्अत्यु के पाश से मोचन करने केहेतु अवतरित हुई हैं. सत्यवान् हैं विश्व की आत्मा जो अपने अंतस मेंदिव्य सत्य को धारण तो किये हुए हैं परन्तु म़्अत्थु रुपी असत्य औरअज्ञान के जाल में फँस गई हैं. सावित्री का पिता अश्वपति जगत् मेंअभिव्यक्त हुई अभीप्सु मानव-आत्मा हैं. वह आध्यात्मिक साधना कीकेन्द्रीभूत शक्ति भी हैं (और उसकी रानी ऐसी शक्ति की ऊर्जा हैं)जो मत्र्य अवस्थिति से अमरता के स्तर तक मनुष्य का उन्नयन करने केहेतु सहायक होती हैं. सत्यवान् का पिता द्युमत्सेन दिव्य मन है जोअपनी दिव्य भाव-द़्अष्टि को गंवा कर अंधा हो जाता हैं और इस कारण अपनेगौरव रुपी राज्य को भी खो देता हैं. यम हैं मूर्तिमान म़्अत्यु, अज्ञानऔर असत्य. देवर्षि नारद अन्र्तप्रज्ञा अथवा संबेधि का प्रतीक हैंजिसका भागवत सत्ता से सीधा सम्पर्क हैं और जिसमें सत्य का विवेचनकरने की अन्तर्निहित सामथ्र्य हैं. श्री अरविन्द के कथनानुसार ये सजीव और सचेतन शक्तियां मानव की सहायताकरने और उसको अपनी नश्वर अवस्थिति से दिव्य तथा अमर पद पर उत्थितहोने का पथ-प्रदर्शन करने के हेतु भौतिक शरीर धारण करती हैं. हम इनकेप्रकटीकरण से प्रत्यक्ष संस्पर्श स्थापित कर सकते हैं. `सावित्री'की रचना करते हुए श्री अरविन्द ने इस महाकाव्य के पात्रों से अपनीअन्र्तद़्अष्टि द्वारा साक्षात्कार किया था और उनकी गतिविधियों तथा अनुभवों से तादात्म्यस्थापित कर लिया था. इस महाकाव्य का प्रतीकात्मक मान यह हैं कि दिव्यभगवती मां ने राजकुमारी सावित्री के रुप में योगी राजा अश्वपति(अर्थात् मानव की उच्चाकांक्षी अंतरात्मा) की तपस्या के परिणामस्वरुपमनुज-देह में अवतार लिया. उसका पाणिग्रहण सत्यवान्(अर्थात विश्वात्माका प्रतीकात्मक ऐश्वर्य) से हुआ जो जो सत्य का धारक हैं. विश्व-व्याप्तअज्ञान और असत्य के कारण सत्य की अभिव्यक्ति अल्पकालिक ही होतीहैं--इस तथ्य का चित्रण सत्यवान् के मात्र एक वर्ष के जीवन के रुपकद्वारा किया गया हैं. स्वयं श्री अरविन्द की साधना किन्हीं अशोंमें अश्वपति की साधना और सत्यवान् की अनुभूतियों के अनुरुप हैं,और श्री मां की साधना किसी रुप में सावित्री की साधना के समतुल्यहैं. श्री अरविन्द ने वैदिक प्रतीकवाद के प्रभूत भंडार से सामग्रीलेकर उसका प्रचुर प्रतिरुपण अपने महाकाव्य में किया हैं. अरब केसन्त इब्न अल फरीद ने कहा हैं कि--"प्रतीकों में जो अर्थ निहित होताहैं उसको शब्दों में स्पष्ट नहीं किया जा सकता." परन्तु `सावित्री'के कवि ने चरित्रों के प्रतीका-त्मक पक्ष को ऐसे ऊध्र्वमानसिकशब्दों में व्यक्त किया हैं जो पाठक अथवा स्वाध्यायी की मानसिकचेतना को ऐसे उच्च स्तर तक आरोहण करने के लिए प्रेरित करते हैं जहांप्रतीकों में अन्तर्निहित अर्थ या आशय स्वत: मुखरित होकर बोधगम्यहो जाता हैं. `सावित्री' भूतकाल का आख्यान, वर्तमान का महाकाव्यऔर भविष्य का आगम-निगम हैं. ज्यों ज्यों अतिमानसिक चेतना की, जिसकाप्रादूर्भाव भूमण्डल में पहले ही हो चुका हैं, ग्रहणशीलता मानवजाति में बढ़ती जायेगी त्यों त्यों `सावित्री' में प्रतीकात्मकरुप में प्रतिपादित सत्य का विश्व में अधिकाधिक प्रकटीकरण होताजायेगा. यम से सत्यवान् के जीवात्मा की विमुक्ति के बाद की आख्यायिका को श्रीअरविन्द ने अपनी रचनात्मक अन्र्तद़्अष्टि के द्वारा एक सार्वभौमप्रतीक के रुप में चित्रित किया हैं. फलत: इस महाकाव्य में सावित्रीऔर सत्यवान् मत्र्यलोक से शाश्वत आलोक के मण्डल में उत्थित होतेहैं, जहां सत्य के सविता का कभी अस्त नहीं होता, जहां अज्ञान अज्ञातहोता हैं, जहां म़्अत्यु तथा नश्वरता का लेश भी नहीं हैं. कुछ काल पर्यन्तउस ऋत-चित् के लोक में अवस्थित रहकर वे भूलोक में अपना दैवी कार्य--नवीन मानवेतर स़्अष्टि की रचना--सम्पन्न करने हेतु अवतरण कर वापसआजाते हैं. `सावित्री' केवल एक ऊध्र्वमानसिक तथा आध्यात्मिक रुपकात्मक पद्य-रचनाही नहीं हैं, अपितु यह अतिमानसिक चेतना के क्षेत्र में श्री अरविन्दऔर श्री मां की योगपरक अनुभूतियों का प्रतीक एक विशद योग-शास्त्रभी हैं. रहस्यात्मक प्रतीकवाद का उत्क़ष्ट नमूना होने के कारण यहसमुचित ही हैं कि कवि ने इस महाकाव्य के पहले स्कन्ध (सर्ग) का र्शीषक`प्रतीकात्मक उषा' निर्धारित किया और इसकी अन्तिम पंक्ति मेंभी एक महत्तर उषा के प्रतीक का ही उल्लेख किया हैं. श्री अरविन्द द्वारा रचित विशाल साहित्य मानो उनकी वा मय देह हैंजिसका `सावित्री' मुख और `दिव्य जीवन' शीर्ष हैं. ये दोनों ग्रन्थउनकी ऐसी महान् क़तियां हैं जिनके द्वारा उन्होंने `अतिमन' ( वेदोंमें प्रतिपादित `ऋत-चित्' और उपनिषदों की भाषा में `विज्ञान')के परम सत्य का श्रुति-प्रकाश किया हैं. इस महाकाव्य में तमिस्त्राअमा-निशा की अवसान-बेला में सुर्य के क्रमिक प्रकटीकरण की भांतिजड़-तत्व में आत्मसत्ता के आविर्भाव एवं स्फुरण का चित्रण हैं. `सावित्रीके कवि ने आरम्भ में निश्चेतना की तिमिराव़्अत निशा में आत्म-चेतनारुपी उषा के आभास और अभिव्यक्ति का अलाप किया हैं. फिर उन्होंने चेतनारुपी मार्तण्ड के उत्क्रमण, अन्तव्र्यापिता और अनुभवगम्यताका गान किया हैं और अन्त में वैश्वमन रुपी भव्य रजनी में उद्भूत होतीहुई एक महत्तर ज्योतित उषा को पद्यबद्ध किया हैं. इसके अध्यात्म-सिद्धान्त के विषय में योगी क़ष्णप्रेम (रोनाल्डनिक्सन) ने कहा हैं कि "`सावित्री' कोई विषयगत स्वैर कल्पना नहींहैं और न ही कोई दार्शनिक चिन्तन हैं अपितु विश्व की वास्तविक अन्तर्भूतसंरचना और `भू: भुव: स्व:' लोकों के यात्री का भावदर्शन तथा रहस्योंद्घाटनहैं." यह महाकाव्य आधुनिक काल के, तथा भावी युगों के भी, लिए एक महान्योगी की काव्यात्मक वसीयत हैं और महर्लोक के आदिवासी `अतिमानस'के प़्अथ्वी पर आगमन का उद्घोषक हैं. उस भव्य आगमन का रहस्य का शब्द मेंनिहित हैं, जो श्री अरविन्द के पूर्ण-योग का गुर भी हैं. वह शब्द हैं`रुपान्तरण'. जब प्रक़ति पूर्णत: रुपांतरित हो जायेगी तो "प्रक़तिमें भगवान की उपलब्धि और भागवत-तत्व में प्रक़ति की परिपूर्णता"--इसउक्ति के अनुरुप एक नवीन सत्ता के अस्तित्व का उदय होगा. श्री पुराणीने कहा हैं कि--"इस महाकाव्य में सत्यचेतना की शक्ति सावित्रीकेवल मानव-आत्मा की विमुक्ति क्रियान्वित नहीं करती, वरन् प़्अथ्वीपर दिव्य ज्योति के मूर्तरुप होने की परिस्थिति का सर्जन भी करतीहैं. सावित्री आचारात्मक प्रदर्शन भी करती हैं कि किस प्रकार मानव-जीवनपरिपूर्ण होकर दिव्य जीवन में रुपांतरित हो सकता हैं." प्रेमा नन्दकुमार के पांडित्यपूर्ण शोध-प्रबन्ध का अन्तिम वाक्य`सावित्री' की आचारसंहिता के साथ प्रतिध्वनित होता हैं : "आज विश्वमें जो व्यापक नैराश्य और अन्धकार छाया हुआ हैं उसका उपचार आशा औरप्रकाश के एक नूतन विस्फोट तथा दिव्य प्रेम के एक नवीन अवतरण द्वाराही हो सकता हैं और `सावित्री' एक ऐसा ही विस्फोट हैं. यह पश्चप्रवणकरती हुई निशा और एक महत्तर उषा के आसन्न आगमन का श्रुति-प्रकाशहैं. `सावित्री' में वर्णित महत्तर उषा प़्अथ्वी पर मनुष्य से उच्चतरवर्ग के उदय की उद्घोषक हैं, जिसको श्री अरविन्द ने `अतिमानव' और`अति-मानसिक सत्ता' की संज्ञा दी हैं." प्रिन्स के अनुसार `जैविक, जन्म जात् तथा अनुभव द्वारा अर्जित,व्यक्ति की मनोव़्अतियों, आवेगों, प्रव़्अतियों तथा निसर्गो का कुलजोड़ व्यक्तित्व है."४ पीय् रसन व्यक्तित्व को "व्यवहार का कुल जोड़"५ कह कर, प्रिन्स द्वारा दी गई परिभाषा की पुष्टि करता है. पिय् रसन६ के अनुसार "व्यक्ति के विशेष रूप से अपने गुण, रूप एवं आक़ति तथाव्यवहार का अन्य व्यक्तियों पर प्रभाव ही व्यक्तित्व है. " जिस ढ़ंगसे व्यक्ति अपने आचरण एवं व्यवहार का प्रभाव अन्य व्यक्तियों परडालता है, उसे व्यक्तित्व का प्रदर्शन ही माना चाहिये. महान व्यक्तित्वके असंखय लोग इस संसार में हुए हैं. कुछ ने राजनैतिक क्षेत्र में नामकमाया, कुछ, ने धर्म-प्रवचन किया, कुछ महायोद्वा थे तो कुछ ने आदर्शदार्शनिक एवं उच्च खिलाड़ी बन कर ख्याति प्राप्त की. उनके कार्य तथाआदर्श आज भी मानवता का पथ प्रदर्शन करते हैं. साधारण व्यक्ति पर उनमहानुभावों का जो रूप आंकित है, वह न तो उन व्यक्तियों के शारीरिकडील डौल का है तथा न ही उनकी बौद्विक प्रचण्डता का प्रत्युत् उनकेमहान कार्यो का है. मिट्टी के माधो बनकर केवल गुमसुम बैठने अथवा सोयेरहने से, व्यक्तित्व का प्रदर्शन नही होता. व्यक्तित्व का प्रदर्शनकार्य-शीलता से होता है. कार्य-शीलता व्यक्तित्व का मौलिक गुणहै. जीव वातावरण में ही गतिशील होता है. आलपोर्ट के द्वारा दी गई व्यक्तित्वकी परिभाषा युक्तियुक्त है. उसके अनुसार "व्यक्तित्व, व्यक्तिमें ही उन सभी मनो-शारीरिक प्रणालियों का प्रावैगिक संघठन है जोवातावरण में उसके अनन्य-व्यवस्थापन को निर्धारित करता है. ७ वातावरणके अनुसार उचित व्यनस्थापन सभी जीव-धारियों के क्रिया-कलाप काउद्देश्य है. जो प्राणी सदैव परिवर्तन-शील वातावरण में अपने आपकोव्यवस्थित नहीं रख सकते, उनका जीवन संकट में पड़ जाता है. जैविक इतिहाससाक्षी हैं कि असंख्य जीव-जातियां अपने आपको वातावरण में व्यवस्थितन रख सकने के परिणाम स्वरूप, प़्अथ्वी से लोप हो गई. मानव ने अपने बुद्विकौशल से वातावरण की विभिन्न परिस्थितियों में अपने आप को व्यवस्थित रखा है. शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक रूप से व्यकित कोवातावरण में अपने आपको व्यवस्थित रखने का प्रयास करना पड़ता है. यहीप्रयास न केवल उस व्यकित के व्यक्तित्व का संरचना का निर्माण करतेहै प्रत्युत् इससे उसके व्यक्तित्व की कार्य-विधि का भी पता चलताहै. आलपोर्ट की परि-भाषा से इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि व्यक्तित्वका निर्माण करने वाले कुछ गुण जन्म जात् है तथा कुछ गुण पर्यावरकहैं (अर्थात् यह गुण शैक्षणीय है) किसी एक विशेष गुण को केन्द्रमानकर व्यक्तित्व का परिभाषा देना अथवा मूल्यांकन करना योग्यतानही है क्योंकि व्यक्तित्व विभिन्न गुणों का समूह है. व्यक्तित्वके बहुत सारे गुण स्वतन्त्र होते हैं जबकि अधिकांश गुण एक-दूसरेपर आश्रित है. समय एवं स्थिति के अनुसार ही व्यक्तित्व के विभिन्नगुणों का प्रदर्शन होता है. हमेशा के लिये किसी के व्यक्तित्व परअन्तिम निर्णय देना, सत्य की अवहेलना करना है. आइज़िन्क का कथन है."कि अनन्य व्यक्ति, केवल असंख्य मात्रात्मक अस्थिरताओं का अन्तक्रिया-बिन्दुहै. "८ व्यक्तित्व की व्याख्या, वैयाक्तिकता तथा सामान्यता केसिद्वान्तों के आधार पर ही की जा सकती है. कोई अन्य मानदण्ड इस विधामें उपयोगी सिद्व नहीं होता. इसमें सन्देह नही कि साधारण व्यक्तित्वका व्याख्या करते समय उक्त दोनों सिद्वान्तों को महत्व दिया जाताहै किन्तु आगे चल कर वैयक्तिकता का आकार इतना विस्त़्अत हो जाता हैकि वह सामान्यता में लोप होती दिखाई पड़ती है. "व्य्कित " का अध्ययनअपने आप में एक गहन समस्या है. "व्यक्ति" पहेली अवश्य है परन्तु "व्यक्तिसमूह" सर्वथा पहेली नही है क्योंकि "व्यक्ति" का गुणांकन वैयाक्तिकद़्अष्टि-कोण से होता है जबकि व्यक्ति-समूह का समूह की औसत से. पानीकी एकबून्द का अपना आकार है, अपना अस्तित्व है परन्तु जब बून्द सागरमें समा जाती है. तो उसका न अपना आकार होता है तथा न ही अस्तित्व. इसीप्रकार "व्यक्ति" जब समूह का अंग बन जाता है तो वैयक्तिकता सामान्यतामें विलय होती प्रतीत होती हे. गिलफोर्ड १० के अनुसार वैयक्तिक विभिन्नताओंके कारण ही व्यक्ति के अनन्य गुणों का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है.इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि यदि वैयाक्तिक विषमताएं विधमान न होंतो सभी मनुष्य स्वभाव, बुद्वि, शरीर, मन आदि गुणों से एक जैसे होतथा व्यक्ति शब्द का कोई महत्व ही न रह जाये. व्यक्तित्व की विशेषताएंचाहे जैविक हों अथवा मनोवैज्ञानिक, सामा-जिक हों अथवा संवेगात्मक,वे गतिशील है, स्थिर नहीं. कुछ सीमा तक उनमें निश्चितता होते हुएभी वे परिस्थति के अनुसार कम अथवा अधिक मात्रा में प्रदर्शित होतीहै. इसलिए व्यक्तित्व की संरचना का स्थिर एवं स्थायी कहना युक्तिसंगत नही है. कुछ मनोवैज्ञानिक चरित्र को ही व्यक्तित्व का प्रतिरूप मानते हैजो अनुचित न होने पर भी असंगत प्रतीत होता है. चरित्र की व्याख्यामें नैतिकता-अनै-तिकता का प्राधान्य है जबकि व्यक्तित्व कीपरिभाषा तटस्थ होकर का जानी चाहिए. वास्तव में चरित्र व्यक्तित्वका ही अंश है इसलिए व्यक्तित्व की व्याख्या करते समय चरित्र की औरसंकेत स्वाभाविक ही है. चरित्र शब्द आकार में संकुचित है जबकि व्यक्तित्वव़्अहत्. मैड्डी के अनुसार "व्यक्तित्व उन विशेषताओं तथा प्रवतियोंका स्थिर-समूह है जो लोगों के मनोवैज्ञानिक व्यवहार (जिसमें विचार,संज्ञान तथा क्रिया सम्मिलित है) की सामान्यताओं एवं विभिन्न-ताओंको निर्धारित करता है; जो एक निरन्तरता है तथा जिसे तात्कालिक स्थितिमें सामाजिक तथा जैविक दबाव के संदर्भ में समझा भी जा सकता है तथानही भी समझा जा सकता". ११ आलोचकों का मत है कि भले ही मैड्डी द्वारादी गई व्यक्तित्व की परिभाषा बहुत कुछ अन्य मनोवैज्ञानिकों केविचारों से साम्यता रखती है परन्तु वे इस बात को स्वीकार नही करतेकि व्यक्तित्व के गुण स्थिर होते है. वास्तव में कुछ गुण स्थिर अवश्यहै परन्तु परिस्थिति के अनुसार वे गतिशील होता है तथा समय-समय परवे घटते-बढ़ते रहते है. इसके साथ यह भी कहना चाहिए कि अभी तक कोई भी ऐसेमापदण्ड पैदा नही हुए जो पूर्ण रूप से किसी भी व्यक्ति के संवेगात्मकगुणों पर अपना निश्चित मत दे सकते हो. व्यक्तित्व को व्यक्ति केवलअपने ही द़्अष्टिकोण से नही आंकता, सामाजिक मान्यताएं पारस्परिकधारणाएं, नैतिक प्रणालियां आदि इसका वास्वविक मूल्यांकन करतीहै. क्योंकि यह सभी कसौटियां गतिशील हैं, इसलिये व्यक्तित्व कागतिशील होना स्वाभाविक सत्य है. " कलात्मक व्यक्तित्व"१२ "वैज्ञानिक व्यक्तित्व"१३ "सहित्यिकव्यक्तित्व" १४ "खिलाड़ी-व्यक्तित्व" १५ आदि की मनोविज्ञान साहित्यमें कहीं-कहीं चर्चा की गई है. जिससे स्पष्ट है कि कुछ गुण होते हैजो कुछ विशेष व्यक्तियों में पाये जाते हैं तथा जब ऐसे गुण समाज केकिसी एक विशेष वर्ग में पाए जाएं तो इस विशेष वर्ग में से एक विशेषप्रकार के व्यक्तित्व की कल्पना की जा सकती है. साहित्यकारों मेंकिसी विशेष प्रतिभा का विघमान होना, उच्चकोटि के खिलाड़ियों मेंशारीरिक एवं संवेगात्सक प्रव़्अतियों का पाया जाना, इस तथ्य की पुष्टिकरता है. कलाकार, खिलाड़ी, बुद्विजावी, साहित्यकार, पत्रकार आदिसभी अपने आप में विभिन्न वर्ग है जिनमें अपने वर्ग की विशेषताएंउपस्थित है. वैज्ञानिक वर्ग में आलोचनात्मक तथा विश्लेषणात्मकप्रतिभा पाई जाती है. फिर भी इस तथ्य का पुष्टि ठोस वैज्ञानिक प्रमाणोंके आधार पर नही की जा सकती. एक विशेष गुण अथवा प्रतिभा का कई लेगों मेंपाया जाना इस बात का प्रतीक है कि सभ्यताओं के अथाह सागर में कहीं न कहीं वैयक्तिकता भीअपना अस्तित्व रखती है. व्यक्तित्व तो व्यक्तित्व ही रहेगा चाहेउसकी व्याख्या अथवा परिभाषा किसी भी द़्अष्टिकोण को सामंने रखकरकी जाये. व्यक्ति जो कुछ भी है, वह तो है ही, चाहे समाज उसके विषय मेंकैसी धारणा बना ले. यह भी सम्भव है कि व्यक्तित्व के मूल्यांकन कीप्रणाली ही में कोई त्रुटि हो. इसलिये भलाई इसी में ही है कि वैयक्तिकगुणों को सामान्यताओं की प्रचलित मान्यताओं की कसौटी पर न परखाजाए क्योंकि इसका प्रभाव व्यक्तित्व के विकास पर पड़ सकता है. आधुनिक अनुसंधान से यह प्रमाणित हो चुका है कि पर्यावरण का व्यक्तित्वके विकास पर बहुत गम्भीर प्रभाव पड़ता है. शिक्षा के अवसर, आर्थिक-स्थिति,सांस्क़तिक परम्परा, नैतिकता के परिवर्तनशील मूल्य आदि ऐसे कारणहैं जो व्यक्तित्व के विकास को विशेष दिशा की ओर प्रेरित करते है.नगर तथा ग्रामीण बालकों के व्यवहार में शिक्षा के प्रभाव को स्पष्टत:देखा जा सकता है. व्यक्तित्व के निर्माण तथा विकास में शिक्षा कामहत्वपूर्ण योग है. मानसिक प्रतिभा में दोनों बालक एक जैसे हो सकतेहैं परन्तु बौद्विक विकास के द़्अष्टिकोण से दोनों में विषमता है.साधारण बोलबाल में एक प्रचण्ड है जबकि दूसरा सामान्य. एक शारीरिकद़्अष्टिकोण से अधिक स्वस्थ है तो दूसरा मानसिक द़्अष्टि से अधिक विकसित.प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक दूसरे व्यक्ति से किसी न किसी बात मेंआगे या पीछे तो होगा ही. कोई न कोई गुण एक में अधिक तो दूसरे में कम होगाही. समानता का प्रश्न ही नहीं उठता. व्यकित का व्याख्या तथा मूल्यांकनकरते समय, व्यक्तित्व के सभी गुणों की विवेचना करना अधिक उप-युक्त है. व्यक्तित्व की परिभाषा देते समय, कुछ तथ्यों को सदैव द़्अष्टि-गोचरकि जाना चाहिए क्योंकि आलोचना का द़्अष्टिकोण सुधारवादी है, विध्वंसनहीं. प्रथम बात तो यह हे कि व्यक्तित्व को हीन आकारों में देखा जासकता है-व्यक्ति के अपने बारे में क्या विचार है, दूसरे लोग उसेकिस द़्अष्टि से देखते हैं तथा व्यक्ति वास्तव में क्या है. व्यक्तिआत्म-चेतना१६ है, वह एक सामाजिक प्राणी है. सामाजिक मान्यताओंको वह अपने व्यक्तिव का की कसौटी मानता है, इसलिये वह अपने व्यक्तित्वको उत्क़ष्ट बनाने का प्रयास करता रहता है. पशु-पक्षी आत्म-चेतननही होते, इसलिये न उनका कोई व्यक्तित्व होता है तथा न ही वे अपनेआचरण को सुधारने का प्रयास करते है. यह विशेषता केवल मनुष्य ही मेंविघमान है. आत्मचेतन होने के कारण व्यक्ति अपने `आत्म ' तथा वातावरण पर प्रभुता पाने का प्रयास करता है. द्वन्द तथा संघर्ष की अवस्थाओंमें व्यक्तित्व तपकर निखरता है. इसे व्यक्तित्व का गति-शीलता कावास्तविक रूप कहा का सकता है. आत्मचेतन होने के कारण व्यक्ति आत्म सम्मान',१७ आत्म-गौरव१८आत्म अभिव्यक्ति १९, आत्म-विश्लेषण जैसे गुणों को प्राप्त करनेका सतत् प्रयास करता है. जीवन-व्यवस्था का कार्य इन्हीं उद्देंश्योंको सामने रखकर होता है. जीवन-संघर्ष तथा आत्म-चेतना का आपस में घनिष्टसम्बनध है. इसी से ही व्यक्ति अपनी सीमाओं के अन्दर रहता है तथा अपनीजन्म जात नियन्त्रण-रेखाओं के अतिभ्रमण करने का प्रयास नही करता.व्यक्तित्व सामाजिक आवश्यकता भी है. व्यक्तित्व का समीक्षा, एकव्यक्तित्व की प्रशंसा, व्यक्तित्व की व्याख्या, व्यक्तित्वका मान्यता समाज के बाहर नहीं हो सकती. व्यक्तित्व की अभिव्यक्तिसमाज मे ही होती है. समाज ही व्यक्ति के विकास का कारक तथा दर्पण है.अन्य व्यकित की अनुपस्थिति में कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व कीतुलना नही कर व्यक्ति सकता. व्यक्तित्व के मूल्यांकन के मानदण्डसमाज से ही उत्पन्न होते है. व्यक्ति समाज, पर्यावरण आदि सभी एक श्ऱंखलाकी कड़ियां है जिन्हें एक दूसरे से प़्अथ्क करना सम्भव नहीं है. व्यक्तित्वका प्रावेगिक अर्थात गतिशील होना, प्रगति का घोतक है. व्यक्तित्वकी सभी विशेषताएं स्थाई नहीं है, क्योंकि जहां स्थिरता है वहांविकास नही, गति नहीं, जहां गति नहीं, वहां संघर्ष नहीं, संघर्ष के बिना जीवन का कोई अस्तित्व कहीं नहीं रह जाता. परिवर्तन-शील परिस्थितियोंके अनुसार व्यक्ति अपने को व्यवहार समायोजित करता है, अपने आपकोव्यवस्थित करता है अच्छे अवसरों की खोज करता है, व्यक्तित्व केविकास में बाघक परम्पराऔं तथा मान्याताऔं का विरोध करता है तथाकभी समयास्थिती के अनु-कूल तो कभी उसके प्रतिकूल चलता है; कभीउसे विजय प्राप्त होती है तो कभी पराजय . इसी से उसके व्यक्तित्व केविभिन्न पक्ष अभिव्यक्ति होते हे. शारीरिक द़्अष्टि से दुर्बल कहेजाने वाले व्यक्ति, कई बार ऐसे साहसिक कार्य कर जाते है जिनकी उनसेअपेक्षा नहीं की जा सकती. दूसरी ओर कथातथित स्थित-प्रज्ञ व्यक्तिकभी-कभी साधारण सी परिस्थिती में भय के कारण अपना मानसिक सन्तुलनखो देते हैं. इससे स्पष्ट है कि परिस्थितियां ही व्यक्तित्व के गुणोंका प्रदर्शन करने में योग देती है तथा परिस्थितियां ही व्यक्तिका विकास करती हैं. व्यकित का कौन-सा गुण किस मात्रा में कहां प्रकटहोगा, इसके विषय में निश्चित तथा अन्तिम रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता.व्यक्तित्व प्रावैगिक उन्नति का चिन्ह है. अन्तर्निहित उत्तेजनाके कारण व्यक्ति संघर्ष करके अपने आपको व्यवस्थित करने का प्रयासकरता है. व्यक्तित्व कल्पना नहीं, अटल-सत्य है परन्तु इसका उद्देश्यक्या है, इस विषय में स्पष्टीकरण की आवश्यकता है. यदि व्यवहार काकोई उद्देश्य है तो व्यक्तित्व का भी कोई उद्देश्य अवश्य होनाचाहिए.सामान्यत: व्यक्तित्व का उद्देश्य जीवन-व्यवस्थापन है. जीवनका उद्देश्य जैविक क्रिया है, तथा व्यक्तित्व का उद्देशय जीवन का सामाजिकपक्ष से व्यवस्थापन है क्योंकि व्यक्तित्व का आधार सामाजिक है,जैविक नहीं. व्यक्ति समाज का रचियता है तथा समाज व्यक्ति का आश्रयदाता. दोनों एक दूसरे के पूरक है. व्यक्ति समाज को तथा समाज व्यकितको प्रभावित करता है. व्यक्तित्व है तो व्यक्ति समाज में रहकर अपनेनैतिक, सामाजिक, सांस्क़तिक, धार्मिक,जैविक तथा बौद्विक उद्देश्योंकी पूर्ति का प्रयास करता है. `बालक के पांव तो पालने में दिखाई देजाते है ' अर्थात बड़ा होकर बालक जो कुछ बनेगा उसका अनुमान बालक कीक्रीडाओं तथा आचरण से ही प्रदर्शित होता है. इसमें भी सन्देह नहींकि व्यक्ति किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए बना है. स्वस्थ,सुडौल,तथा प्रक्रियाशील बालक को देखकर सभी यही कहेंगे कि बालक में एक उच्चकोटीके खिलाडीं बनने के गुण विधमान हैं. मनोवैज्ञानिकों का मत है कि बार-बारजब ऐसे अनुमानों तथा धारणाओं की आव़्अति बालक के सामने की जाती है तोबालक को भी अपनी शक्ति का पूर्व-ज्ञान हो जाता है तथा अपने अन्दरवैसे ही गुणों का विकास करने का प्रयत्न करता है. कहते हैं कि प्रत्येकबालक का जन्म एक उद्देश्य की पूर्ति के लिए होता है. सम्भव है कि यहएक कपोल-कल्पना ही हो, परन्तु यह इस बात का संकेत है कि व्यक्तिअपने जैविक गुणों तथा सीमाओं के आधार पर किसी न किसी ओर अवश्य विकसितहोगा. व्यक्तित्व में एक एकता निहित है. किसी विशेष गुण की न्यूनताकिसी अन्य गुण से पूरी हो जाती है जिससे सभी पक्षों से व्यक्ति सन्तुलितहोने का प्रयास करता है. इस सन्तुलन के बिगड़ने पर व्यक्ति अव्यवस्थितहो जाता है. स्थायीत्व प्राप्त करने का संघर्ष यहीं से आरम्भ होताहै. हरिशंकर परसाई की एक लघु कथा से मैं अपनी बात प्रारम्भ करना चाहताहूं. कथा कुछ इस तरह है एक राजा वेश बदल कर अपने मंत्री के साथ प्रजाकी हालत देखने के लिए निकलता था. एक दिन राजा साहब एक खिड़की में से एकघर के भीतर झांक रहे थे. जहां एक आदमी जनेऊ पहने, चंदन लगाये, बर्थड़े केक काट रहा था. राजा ने मंत्री से पूछा "यह क्या है ? "मंत्री नेकहा- "हुजूर यह भारतीय आधुनिकता है." इस कहानी को उद्ध़्अत करने का मेरा आश्य यह है कि मैं आपका ध्यान इस तथ्यकी ओर आक़ष्ट करना चाहता हूं कि आधुनिक शब्द हमारे शब्द कोष का एकऐसा शब्द है जिसके अनेक और परस्पर विरोधी किस्म के अर्थ ग्रहण कियेजाते हैं. आधुनिक का प्रयोग समकालीन के पर्याय के रुप में तो होताही है, उससे इतर अभिप्रायों में भी अनेक विरोधी संदर्भों और अवधारणाओंमें इसका प्रयोग किया जाता है. समय की सीमाएं भी इस शब्द ने अतिक्रमितकी है. हिन्दी में भारतेन्दु युग भी आधुनिक है, छायावाद युग भी औरनई कविता भी. उधर पाश्चात्य लेखक आधुनिकता को १५ वीं शताब्दी तक खींचकर ले जाते हैं. आधुनिकता के साथ अनेक विशेषण और उपसर्ग लगा कर इसेभिन्न-भिन्न शेड्स देने के प्रयास भी खूब होते हैं जैसे-पारम्परिकआधुनिकता, समकालीन आधुनिकता, भविष्यवादी आधुनिकता, नव आधुनिकता,अत्याधुनिक आधुनिकता, अआधुनिकता आदि. इसके अनेक रुप और श्रेणियांकही यह निरर्थताबोध का पर्याय है तो कहीं संत्रास का. अस्तित्ववादियोंलिये असंभव और अकेलापन आधुनिकता है तो फ्रायडवादियों के लिये कुण्ठाऔर दमित काम व़्अत्ति या अचेतन उप चेतन के स्वप्न रहस्य आधुनिकता है.माक्र्सवादी अपने ढंग से इसकी व्याख्यता करते हैं. अनेक लोगों केलिये आधुनिक वह है जो परम्परा से हटा हुआ हो, चौंका देने वाला हो. जहांतक समकालीनता के पर्याय के रुप में आधुनिकता के प्रयोग का प्रश्नहै, प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट कर देना उपयुक्त होगा कि हर समसासयिकया वर्तमान चीज़ आधुनिक नहीं है. इसी प्रकार आधुनिकता को देश की सीमामें बांधना भी अनुपयुक्त है. आम तौर पर आधुनिकता की बात करते ही योरोपऔर अमेरिका का विचार किया जाता है. लेकिन इसे इन देशों की बपौती मान लेना गल्त है. आधुनिकता के लिए आवश्यक है कि दुनियाके दूसरे देशों के साथ-साथ अपने देश की तरफ भी देखा जाय. इस भूमिका से आधुनिकता को परिभाषित करने में आने वाली कठिनाई का थोड़ाअनुमान लगाया जा सकता है. ईसाई सन्त आगुस्तीन ने काल के बारे में जोकुछ कहा है, शायद उसे आधुनिकता के बारे में भी दुहराया जा जा सकताहै. उन्होंने कहा था-`जब तक कोई मुझसे नहीं पूछता कि काल क्या है,तब तक मैं इस प्रश्न का उतर जानता हूं. लेकिन जब कोई पूछता है तो मैंनहीं जानता.' अज्ञेय ने इस बात को उद्ध़्अत करते हुए भी आधुनिकता केबारे में दो बातों पर जोर दिया है- १. आधुनिकता काल के साथ एक नये प्रकार सम्बन्ध है या होना चाहिए,२. आधुनिकता परिवर्तन के प्रति अनुकूलता और लगातार उसका प्रयत्नहै. लेकिनअज्ञेय समाधान करते हुए यह भी जोड़ देते हैं कि काल के साथ नया सम्बन्धअविवेकी अथवा आलोचना बुद्धि रहित नहीं होगा. "धार और किनारे," प़्अ. ९५ तथा १०२" रामधारीसिंह दिनकर ने भी आधुनिकता पर विस्तार से विचार किया है. उन्होंनेआधुनिकता और आधुनिकीकरण यानि माडर्निटी और माडर्नाइजेशन को अलगकरते हुए इन्हें क्रमश: संस्क़ति और सभ्यता के समतुल्य रखा है. आधुनिकताको वे कई बातों का सम्मिलित रुप मानते हैं. औद्योगीकरण, साक्षरताका प्रसार नगर सभ्यता का प्राधान्य, जटिल अर्थ व्यवस्था, खुलाऔर उन्मुक्त समाज आदि. लेकिन ये सब आधुनिकता के बाहरी लक्षण हैं यानिआधुनिकीकरण के. बुद्धिवाद और वैज्ञानिक द़्अष्टिकरण को वे आधुनिकताके प्रमुख लक्षण मानते हैं पर साथ ही एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी करतेहैं `सबसे बड़ा ढिंढोरा आधुनिकता इस बात का पीटती है कि बुद्धिवादके तीखे औजार से उसने मनुष्य को सब जंजीरे काटकर उसे भी दासताओं सेमुक्त कर दिया है, जो दावा एक तरह से तो ठीक है. अफसोस की बात यह है किमनुष्य को यही मालूम नहीं कि इस मुक्ति को लेकर वह क्या बात करे ? बुद्धिवादटेक्नालोजी और विज्ञान द्वारा सिद्ध मुक्ति उस गरुड़ की मुक्तिनहीं है जो डैने खोलकर आकाश में उड़ता है, बल्कि उस कुत्ते की मुक्तिहै, जो जंजीरों से छूटकर सड़क पर आ गया है और ट्रेफिक में कुचल जानेके भय से इधर-उधर भाग रहा है. "आधुनिक-बोध प़्अ. १८" असली आधुनिकता को दिनकरजी एक प्रक्रिया मानते हैं तो अम़्अतराय उसेबाह्य आचार में नहीं, मन के संस्कार में अवस्थित मानते हैं. उनकेशब्द हैं - `मन के संस्कार से आशय है मन की वह व़्अति जो मध्ययुगीन रुढ़ियोंऔर अंधविश्वासों से नाता तोड़कर आधुनिकतमज्ञान के, आलोक में वर्कऔर विवेचना की कसौटी पर जीवन के हर व्यापार को परखती है और स्वयं अपनेविवेक से किसी निष्कर्ष पर पहुंचती है. `सह चिंन्तन', प़्अ. ३१ : लगभग यही बात दिनकरजी भी कहते हैं.वे अंधविश्वास से बाहर निकलने, नेतिकता में उदारता बरतने, बुद्धिवादीबनने, धर्म के सही रुप पर पहुंचने की प्रक्रिया को आधुनिकता मानतेहैं और कहते हैं कि आधुनिक वह है जो मनुष्य की ऊँचाई उसकी जाति या गोत्रसे नहीं, बल्कि उसके कर्म से नापता है और मनुष्य मनुष्य को समान समझताहै. जब आधुनिकता को बुद्धिवाद से जोड़ा जाता है तो यह खतरा बराबर बना रहताहै कि बुद्धि या तर्क में हम गलत नतीजों पर पहुंच जायें. यह एक जटिलस्थिति है. न तो बुद्धि को पूरी तरह अस्वीकार किया जा सकता है और न उसकेहर निष्कर्ष को यथावत् स्वीकार ही किया जा सकता है. तब अम़्अतराय कीसलाह है कि तब भी जब कि बुद्धि या तर्क के निष्कर्षों के गलत सिद्धकी आशंका है, अंधविश्वास और अधश्रद्धा को तो उसके स्थान पर स्थापितनहीं ही किया जाना चाहिये. उनका निष्कर्ष है - `आधुनिकता का अर्थकेवल इतना है कि व्यक्ति अपने परिपाश्र्व के संश्लिष्ट आधुनिकजीवन को नवीनतम ज्ञान-विज्ञान के आलोक में देखें." आधुनिकता कोनकारात्मक ढंग से विवेचित करते हुए वे कहते हैं- "मुझे उस व्यक्तिको आधुनिक मानने में आपत्ति होगी जो स्त्री को पुरुष के बराबर नहींदेता प्रतिभा में बुद्धि कौशल में और उसे पुरुष की क्रीड़ापुतलीसमझता है, उसकी वासनापूर्ति का माध्यम. उसी तरह मुझे उस व्यक्तिको आधुनिक मनुष्य मानने में आपत्ति होगी जो इस बात को नहीं मानताकि सब इंसान बराबर हैं, कोई छोटा नहीं है न कोई बड़ा." यह मानने में संकोच नहीं किया जाना चाहिये कि आज भारत में हम जिस आधुनिकबांध की बात करते हैं और जिसकी जड़ें हम सप्रयास चिंतन परम्परा मेंखोज लेते हैं, वह है मूलत: पश्चिमी अवधारणा. पश्चिम में औद्योगीकरणऔर तज्जन्य स्थितियों ने मानव को एक विषम स्थिति में ला खड़ा किया.तन्त्र कौशल बढ़ते-बढ़ते इतना विराट हो उठा कि मानव उसके आगे निरीहऔर अकिचन हो गया. विज्ञान उसके लिये अपरिहार्य हुआ तो आतंककारी भीबना. और इसी के बीच से उभरा आधुनिकता बोध. यह स्पष्ट है कि विज्ञान,यंत्र कौशल, बड़े बाजारों की ऩशंस प्रतिस्पधाओं, सत्ता प्रतिष्ठानोंऔर सत्ता के बीच में उभरती लाचारी, अकेलेपन विक्षुब्बधता, मूल्यसंकट और बेगानेपन के जबर्दस्त आतंक के बावजूद भी हमारे पास आधुनिकहोना ही एक विकल्प है, यहां तक कि आधुनिकता के अन्तर्विरोधों केविरुद्ध भी आधुनिक होने के सिवा कोई रास्ता नहीं है. इस आधुनिकताकी सामथ्र्य यह है कि वह हमें दुनियां भर के मनुष्यों का दुख व्यवस्थाओंका उसके साथ गोपनीय रिश्ता समझती है, आधुनिकता दरअसल एक किस्म कीजागरुकता और आस्था है जो विषमता, भाग्यहीनता, गुलामी और पराज्य,बीमारी और म़्अत्यु के साथ संघर्ष करती हुई एक समतावादी व्यवस्थाकी स्थापना के लिये प्रतिबद्ध होती है. (नन्द चतुर्वेदी, `मधुमती',मार्च १९८५, प़्अ. ६८) और इसी स्थापना से सहमत होता हुआ, इसे प्रस्थान बिन्दु मान मैं हिन्दीकविता में आधुनिकता की पड़ताल करना चाहता हूं. आम तौर पर हिन्दी कविता में आधुनिक बोध का सूत्रपात छायावाद-कालके बाद से माना जाता है. डॉ. रामविलास शर्मा ने इस ओर इंगित करते हुएलिखा है, हिन्दी में कुछ लोग आधुनिकता-बोध का यह अर्थ लगाते हैंकि आधुनिक बनने के लिये छायावाद की पूर्ण अस्वीक़त जरुरी है. किसीकवि को रोमांटिक कह दिया जाये तो वह इसे गाली समझेगा. इस एण्टी रोमांटिक-छायावादविरोधी-प्रव़्अति को एक सिद्धान्त का रुप टी. एस. इलियट ने दिया औ अइलियट का गहरा असर हमारे बहुत से आधुनिकता बोध वाले कवियों पर है.इलियट की तरह वे भी छायावाद को अस्वीकार करते हैं.' (भाषा, युगबोधऔर कविता, प़्अ. १४५) स्पष्ट है कि ड़ा. रामविलासजी छायावाद को एकदम आधुनिकता विरोधी नहींमानते हैं. सच भी है. छायावादी युग मध्ययुगीन रुझान और आधुनिक कालके बीच का संधि काल है. गिरिजाकुमार माथुर इसे `प्राक् आधुनिक चरण'कहना पसन्द करते हैं क्योंकि एक ओर इसमें अध्यात्मधर्मी दार्शनिकताथी जो मध्ययुगीन प्रेरक शक्ति अर्थात् `धर्म' का ही अवशेष थी, दूसरीओर परम्परा से विदोह का रोमानी तत्व भी था, जिसे हम एक प्रारम्भिकढंग से आधुनिक अथवा आधुनिकता का पूर्वाभास कह सकते हैं.' (नयी कविता)सीमाएँ और संभावनाएं प़्अ. १०५) छायावाद में प्रक़ति सौंदर्य, प्रेम आदि की अभिव्यंजनाएं हैं तोसाथ ही स़्अष्टि, मनुष्य आदि के बारे में भी नई धारणा का विकास मौजूदहै. लेकिन, सन् १९३७ के बाद से विकास का एक और चरण प्रारम्भ होता हैजिसमें प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता आदि के माध्यम से आधुनिकताबोध के मूल्यों की पुष्टि मिलती है. तार प्राप्तक, नई कविता, अकविता,साठोत्तरी कविता आदि में हम पिछली कविता से जो बदलाव पाते हैं वहअनेक स्तरों पर है छंद के बंधन तो पहले ही टूट चुके थे, भाषा तथा मुहावरा,शब्द चयन और विन्यास, काव्य विषय, सब कुछ यहां बदला-बदला है. अब सबमें आधुनिकता के स्वस्थ और अस्वस्थ दोनों ही रुप मिलते हैं. अकविताके स्थान पर बहुत कुछ ऐसा भी सामने आया जिसे आतंकवादियों ने आधुनिकही कहा पर जो था आधुनिकता विरोधी. और इसी बीच वह स्थिति आई, जिसके लियेबाद में अशोक वाजपेयी ने कहा - "मुझे लगता है कि दरअसल हमारे यहांभी सातवें दशक में आते आते आधुनिकता का समापन हो चुका. हम भी आधुनिकोतरकाल में पहुंच गये हैं." (साहित्य विनोद में निर्मल वर्मा से बातचीतमें प़्अ. २९२) लेकिन बात थोड़ा पहले से शुरु की जाये. आजादी के बाद के हिन्दी काव्य में परम्परा भंजन और इसीलिये आधुनिकता के नाम पर बहुत कुछ ऐसा लिखा गया जिसमें महानगरों का त्रास, मानवकी लघुता अकेलापन, क्षणबोध ऊब, संत्रास,रूमान, लम्पटता, धर्मोन्माद,ऊल जुलूलपन आदि था. इसे बाकायदा आधुनिक सिद्ध भी किया गया. नई कविताऔर अकविता के दौर से ऐसे अनेक उदाहरण उठाये जा सकते हैं. उस दौर से थोड़ाआगे आकर, अधिक वस्तुनिष्ठ द़्अष्टि से उस लेखन पर विचार करते हुए अबहम पाते हैं कि वह लेखन आधुनिक नहीं था बल्कि एक सोचे समझे षड़यंत्रका अंग था. कुछ निहित स्वार्थों वाले पूंजीवादी तत्वों ने इस (आधुनिकता)बोध के जनाधार और जन समर्थन को पहचान कर इसके नाम पर आधुनिकतावादकी स्थापना की कोशिशें प्रारम्भ की जिसके तहत एक सुनियोजित षड़यंत्रके आधार पर अलग-अलग भूखण्ड़ों में रहने वाले मनुष्य को आधुनिकताके नाम पर उसकी धरती के सीधेपन उसकी स्वस्थ परम्पराओं, उसके सामाजिकपरिवेश आदि से काटकर, उसमें एक प्रख अ व्यक्तिवाद की भावना पनपाकरउसे असामाजिक बनाने का काम शुरु किया और इसके लिये विश्व मानवतावाद,अनुभववाद, क्षणवाद, भोगा हुआ यथार्थ जैसे भ्रामक नारों का सहारालेना प्रारम्भ किया. . . दरअसल जिन मूल्यों और द़्अष्टिकोणों की मददसे समाज को सभी दिशा में बढ़ाया जा सकता था, संगठन की शक्ति से घबरायेहुए लोगों ने आधुनिकतावाद के नाम पर उन्हीं मूल्यों और द़्अष्टिकोणोंको बहस का ही नहीं, विरोध का भी मुद्दा बना दिया, अलगाववाद, व्यर्थता,कुण्ठा, अजनबीपन, निराशा, संशय जैसी मनोदशाओं को आधुनिक भावबोधएवं अनुभवबोध कहकर उन्हें गौरविन्वित किया गया." (आलोक भट्टाचार्य,समीचीन, अप्रेल १९८५, प़्अ. ६०-६१) इन लोगों ने स़्अजनात्मक साहित्यही नहीं, समीक्षा को भी अपने सांचे में ढाला और कला की स्वायत्तताअनुभव की. प्रामाणिकता आदि फिकरों के माध्यम से तथा बड़े प्रतिष्ठनीप्रकाशनों के मंच से इस तथाकथित आधुनिक द़्अष्टि को स्थापित करनेमें थोड़ी सफलता भी प्राप्त की. अगर इन रचनाकारों को अपने परिवेश,समाज की भी चिन्ता रही होती तो यह क्योंकर संभव था कि ये प्रतीक, बिम्बआदि के इतने महीन जाल बुनने में सफल होते कि एक कवि मात्र दूसरे कविके लिये ही लिखता प्रतीत हो. शायद इन्होने रबर्ट ग्रेठस की सलाह मानली कि एक कवि को केवल दूसरे कवि के लिये ही लिखना चाहिये या एजरा माउण्डकी सलाह मानी कि कवि को तीस पाठकों से अधिक की उम्मीद नहीं करनी चाहिये.रचना को जो उसके असली गुणों के लिये सराहे. आपको याद दिलाने की जरुरतनहीं कि स्व. राज-कमल चौधरी ने अपने एक कविता संकलन की मात्र ६४प्रतियां ही छपवाई थीं, क्योंकि उनके मतानुसार इससे अधिक लोग उनकविताओं को समझने योग्य नहीं थे. ऐसे ही लोगों के प्रयास से सूर तुलसीकबीर वाले देश की कविता यहां के जन से ऐसी कटी कि अब अन्त में हार करइन्हीं लोगों को वाचिक परम्परा' की दुहाई देनी पड़ रही है. यह पश्चिमीआधुनिकता की विक़ति के अन्धानुकरण का ही परिणाम था कि हिन्दी कविताजन से कट कर `अभिजन' की निजी सम्पति बन गई और बाद में उस अभिजन ने भीउसे निरर्थक मान कचरे के ढेर पर फेंक दिया क्योंकि उसके पास अपना स्टेटससिंबल स्थापित करने वाले अन्य प्रभावी उपकरण आ गये थे. इसीलिए वह भयमुक्त फिरता इसीलिए वह निर्वेध चरता [दमनक संजीवक के पास आता है. संजीवक डरा हुआ है.] संजीवक : बोलो संकट है तो नही सब कुछ है ना सही-सही बोलो महाराज ने कहाहै क्या सब कुछ ठीक-ठीक रहा है क्यादमनक : महाराज ने क्या कहा. . . क्या कहा रे, क्या कहा. . . कहा कि तुमकोखाऊंगा पूरी खाल उतराऊंगा गर्दन तेरी तोड़ूंगा पहले आंखे फोड़ूंगाकह दो उससे जहां भीकरटक : ऐसा तुझजे लगा होगा.दमनक : पर महाराज तुझको खाएंगे नहीं हाथ तक तुमको लगाएंगे नहीं अबतो तू बच गया नया जीवन मिल गया.संजीवक : आपने बड़ा एहसान किया मुझको जीवन दान दिया दमनक : मेरे साथ भीतर चल इच्छा होगी तेरी सफलपिंगलक : (संजीवक से) बता मित्र प्यारे, प़्अथ्वी तल पर तुझे क्या मिला इस घनघोर वन प्रदेशमें जीवन कैसे खिलासंजीवक : मैं क्या कहूं कैसा क्या हुआ है भाग्य में जो वैसा हुआ मित्रोंके संग चला था मैं रास्ते में जंगल में फंसा था सभी मिला पर मिली न दोस्तीजीना कैसा वहां, जहां न प्रीतिपिंगलक : वन में अब से कर निर्भय संचार करेंगे रक्षा तेरी शक्तिमानये पंजे चार सावध रहना फिर भी, तू है शाकाहारी इस जंगल में बसते हैंमांसाहारी [पिंगलक संजीवक को आलिंगित करता है और वहां इकट्ठे प्राणियों सेकहता है.] आवो सारे पशुगण आवो रे संजीवक मेरा मित्र लखो रे संगे उसके नदी पर जाएंसब कोई मिलकर पानी पिएं.[वहां मधुमक्खी और बकरी आती हैं.]मधमक्खी : महाराज, महाराज मेरी एक तकरार है बकरी : मेरी भी एक तकरार है बें. . . बें. . . बें. . . पिंगलक : बोलो, बोलो क्या है? मधमक्खी : बूंद-बूंद मधु हम जमा करते भालू आकर उसे चाटते पूरा मधुखा डालतेबकरी : जंगल में जाते हैं हम चरने खूब खूब गाते गाने बाघ हमको तकलीफदेता नाहक हमारे प्राण लेता संजीवक : जो हैं दीन-दुखी, उनको जो समझे अपना उसे साधु समझो भाई, वहींबसे ईश्वराई दया करती जो पुत्रों से, वही दास और दासी दया जैसी अपनोंसे वही करे जो दूजों से जिन्हें कोई अपना नाही, उनको समझे अपना भाईउसे साधु समझो भाई, वहीं बसे ईश्वराईपिंगलक : हे दमनक आज के दिन से राज्य का तू कारबार देखें अपने प्यारेनये मित्र से नया ज्ञान सीखें दुम छोटी हो या कि बड़ी, पट्टे हों चाहेना हों शाकाहारी मांसाहारे सबको एक ही लेखें नये मित्र से नया ज्ञानसीखें. [पिंगलक, संजीवक के साथ चला जाता है. अन्य पशु एक-दूसरे की ओर देखतेहैं और नाचने लगते हैं.] सुनो सुनो जन हो, राज्य अपना आया पशु राज्य पर मंत्री गण की तनी छत्रछाया न्याय मिलेगा सबको एक ही छोटा-मोटा भेद ना कहीं. अन्यायी कोजगह न कोई, राम राज्य है पाया. . . गधा : गर्दभ तू मैं घोड़ा, हम दोनों हैं जुड़वां भाई लेता तान जरा-सीघोड़ा : हम दोनों ही मार खाए. . . मार खाए. . . मार खाए दमनक : (गधे से) कहता है तू जो मित्र दुर्देव से नहीं वो सत्य थोड़ी-सी तकलीफ उठा थोड़ापालो पथ्य. . . मक्खी : भालू तू मैं मधुमक्खीभालू : मीठा मधु है तू रक्खी लाड़-प्यार जता नहीं नाम मधु का ले न मुझकोइतना सता नहींदमनक : मधुकरनी तू री ऐसी कैसी दूजों को दुखिया करती कैसी उदार बननासीखो प्यारी सेवाव्रत से मुक्ति न्यारी[बकरी और बाघ भाग रहे हैं.]बकरी : तू बाघ दादा मैं बकरी भैया, कैसे तुझको समझे न भैया. . . बाघ : हम बाघ होकर भूखे हैं मरते तुम लोग मेरे सामने ही चरते सामने हीचरते सामने ही चरतेदमनक : ठहरो जरा बाबा, इतनी क्या जल्दी पशु न खाओ, जरा रखो बाकी[सब पशु जुलूस में आते हैं और कहते हैं.] राज्य नया आया हो कहते, कुछ भी बदला नहीं थे पहले सब जहां, हैं हम सबवहीं हमारी मांगे पूरी करोनहीं तो कुर्सी खाली करो नहीं चलेगी नहींचलेगी तानाशाही नहीं चलेगी दमनक सियार मुर्दाबाद अपने आप जिंदाबाद [दमनक, करटक आते हैं, उनके पीछे पशु चिल्लाते हुए आते हैं.] दमनक करटक कौन हैं, एक नंबर चोर हैं दमनक करटक मुर्दाबाद, अपने आपजिंदाबाद.पहरेदार : पहले गड़बड़ बंद करो में मुझसे बात करोदमनक : तुझसे बात करता है कौन तू चुपचाप रख रे मौन हमें मिलना है महाराजसे हम जाते हैं मिलने उनसे पहरेदार : उनकी अभी समय कहां संजीवक आएगा अभी यहां [नहीं चलेगी नहीं चलेगी. . . ]पिंगलक : हल्ला गुल्ला क्यों करते काम की बात क्यों नहीं कहतेदमनक : बात तो थोड़ी निजी है पिंगलक : खुला है मामला कहा नहींदमनक : लोगों का विश्वास रहा नहीं[संजीवक आता है, पिंगलक उसे आसन देता है.]पिंगलक : तुम लोग हमारे मंत्री हो लोगों के प्रति जिम्मेदार हो मैंथोड़ा व्यस्त हूं मेरा मित्र आया हैसंजीवक : विष्णुमय जग, वैष्णवों का धर्म भेदाभेद भ्रम-अमंगल अर्थसर्वेश्वर अर्चना का विष्णुमय जग [नहीं चलेगी नहीं चलेगी. . . ]भीतर हो हल्ला. . . हमारी मांगे पूरी करो वरना कुर्सी खाली करोदमनक : कहते हैं कुर्सी खाली करो कहो थोड़ा धीरज धरोकरटक : काल आ रहा भागो भागो भागो नहीं तो प्राण त्यागोदमनक : ऐसा कहकर चलेगा कैसे धीरज खोकर जमेगा कैसे संजीवक बैल मैं हीलाया अब तो वह सब पर छायाकरटक : महाराज उनकी ही सुनते बात हम तो खाएंगे सबकी लातदमनक : एक ही उपाय है इस पर पर थोड़ा बहुत जालिम है मैत्री में उनकी छेदकरें बिना लाठी के सांप मरेकरटक : पर ये कैसे होगा यार दुर्बल देखे स्वप्न हजारदमनक : होगी उसके पास शक्ति मेरे पास असली युक्ति कायर खरगा कितनाछोटा, पर मारा उनसे सिंह मोटा. . . [कठपुतली कथा - खरगोश सिंह][जंगल - तरह तरह के प्राणी] निवेदक : मत करना अभिमान प्यारेमत करना अभिमान निकल जाएगा प्राण एक दिन मत करना अभिमान. . . जी. . . जीएक था सिंह अभिमान भरा. . . भरा. . . स्वार्थ के कारण डूब मरा. . . मरा. . . [सिंह गुफा से बाहर आता है, फिर भीतर जाता है, हिरण घूम रहा है. सिंहउस पर धावा करता है. हिरन चीखता है. हंस उड़ता हुआ आता है. सिंह धावा मारनेका प्रयत्न करता है. हंस उड़ जाता है. झेबरा आता है. सिंह उसे मार डालताहै.] [अरण्य वासी प्राणी एकत्र हैं, सब दुखी हैं.]सियार : भाइयों और बहनो, आजकल हमारी जिंदगी का भरोसा रहा नहीं.खरगोश : कब था?रीछ : चुप.सियार : हमारे जंगल के महाराज भासुरक जब जी में आता है, प्राणियोंको मार डालते हैं. [अन्य प्राणी कहते हैं. . . हां. . . हां. . . इसका कुछ इंतजाम करना हीहोगा.]खरगोश : करना ही होगा.रीछ : भाइयों और बहनो, हम हैं इसलिए राजा है.कुता :ये बात भी सही हैखरगोश : तो भी वनराज को सबक सिखाना ही होगा.अन्य : हां हां. . . सिखाना ही होगा.सियार : (मजाक उड़ाता हुआ.) सिखाना ही होगा. . . पर सिखाएगा कौन ?अन्य : (प्रत्येक एक-दूसरे से) कौन? कौन?रीछ : चुप. मैने सोच लिया रोज रोज से मार रहा है पशु पक्षी को क्यों न रोजएक प्राणी दे भक्षी कोखरगोश : इसका मैं विरोध करता हूं.बकरी : चुप बैठ मिया बीते भर डाढी हाथ भरआवाज सुनते भागे डरकररीछ:वार्ता करने जाएंगे अपने गेंडेरामगेंडा : नहीं नहीं. . . मैं अकेला उप्पर जाऊगां नहीं अगर गया तो जिंदावापस आऊंगा नहीं.रीछ : ठीक है, हम सब मिलकर जाएंगे अपनी बात समझाएंगे जिंदाबाद, जिंदाबाद, हम लोग जिंदाबाद [सिंह की गुफा के सामने आकर रुकते हैं.]रीछ : हां भेड़िये, आगे बढ़ोखरगोश : अरे डरते हो क्यों, आगे बढ़ो आगे बढ़ो मेरे साथ सब कोई बोलो वनराज मासुरक महाराज की जय.बंदर : प्रचंड शक्तिशाली मासुरक महाराज की जयरीछ : महाराज, बाहर आवो, बाहर आवो [सिंह जोर से गर्जना करता है, सब डरते हैं.]हाथी : (डरता हुआ) महाराज, सब प्राणियों को मारकर क्या फायदासिंह : क्या बकता है? (हाथी भागता है.) मैं जंगल का राजा हूं, मन में जो आयेगा करुंगा जिसको चाहे धरुंगारीछ : महाराज आप शांत हों, बात हमारी थोड़ी सुनें,सिंह : ठीक है, जो बोलना है बोलोरीछ : आप गुफा में करें आराम रोज एक बकरा आएगा आपके नामसिंह : केवल बकरे से चलेगा नहीं.बंदर : रोज नया प्राणी आयेगा. आपकी भूख मिटायेगा. रोज नया शिकार ढूंढनेकी झंझट खत्मरीछ : यानी आपकी सुविधा हमारी सुविधा नहीं किसी की कोई दुविधासिंह : चुप ज्यादा होशियारी मत बघारोबंदर : महाराज सब कुछ मान्य करो, हमारी बात ह्रदय धरो.सिंह : ठीक है, करार के अनुसार भेजो जानवर वरना याद करो अपने पितरबंदर : बोलो वनराज मासुरक महाराज की जयसब : वनराज मासुरक महाराज की जय हम अपना वचन निभाएंगे.खरगोश : प्राण जाये पर वचन न जाये. (सिंह गर्जना करता है, सब भागते हैं.)सिंह : साले सब भाग गये. [कुछ दिनो के बाद] लोग करार के मुताबिक चल रहे हैं. आज हाथी को भेज रहे हैं. इसलिए खबर भेज दी है कि चार दिन तक दूसरा प्राणी मत भेजो.हाथी: (रोता है.) आज मेरी बारी है. मैं क्या करुं. घर-वालीऔर बच्चेभूखे मरेंगे, मैं क्या करुं. मन तो करता है कि सिंह को पैरों तले कुचलडालूं. लेकिन समझौता हुआ है तो क्या करुं. [रोता है. आंसु सूंड से पोंछता है.]सिंह : आवो गजराज आवो तुम्हारी ही राह देख रहा था.हाथी : महाराज मुझ पर दया करें. महाराज मुझपर उपकार करें. मेरे बच्चेअभी छोटे हैं. उन्हें जरा बड़ी हो जाने दीजिए. थोड़ी मोहलत दीजिए. मैंखुद होकर चला आऊंगा.सिंह : गुफा में चल, सब सोचेंगे. वहीं अपना निर्णय देता हूं. [पूंछ से मारता है. भीतर जाते-जाते हाथी की चित्कार] [कुछ दिनों बाद]गेंड़ा : आज मेरी बारी. पिछले चार दिन घुकर पुकार में गए लेकिन अब मुझसेमुकाबला है. दांत नहीं तोड़े तो मेरा नाम भी गेंड़ा नहीं.सिंह : आवो आवो गेंडाराम. आज तो बड़े खुश दिखाई देते हो.गेंडा : आपकी खुशी सो हमारी खुशी. चलिए. [गेंड़ा चीखता है. सिंह चुपचाप उसके पीछे भीतर जाता है.]सिंह : अरे छोड़ छोड़ मेरे दांत छोड़ मेरे दांत मेरे दांत हिल गए. कितनीमोटी है इसकी चमड़ी [कुछ दिनों बाद]निवेदक : एक दिन खरगोश की बारी आई वहां जाने की.भोला बिचारा खरगोश कोशिशकरने लगा भागने की. भगना अब तो शक्य नहीं ये विचार मन मेंलाया. विचारकरते करते वो एक कुएं तक आया.खरगोश : इस सिंह के पंजे से छूटने के लिए भला, क्या उपाय करना चाहिए. [झाड़ से एक फल कुएं में गिरता है. खरगोश अंदर देखता है.] अरे वाह. . . ये तो बढ़िया उपाय है. [जल्दी-जल्दी गुफा में जाता है.]सिंह : इतनी देर क्यों. . . मेरे पेट में सुलग रही है आगखरगोश : शांत हो. . . शांत हो. . . आ गया है समय सोचने का सिंह : पहेली मतबुझा, मुझे जोर से भूख लगी है.खरगोश : महाराज हम आपकी भूख जानते हैं, इसलिए चार लोग आपकी ओर आ रहेथे. सिंह लेकिन तीन लोग कहां गये ? खरगोश वही तो बता रहा था महाराज. हम लोग इधर आ रहे थे तो रास्ते में एकदूसरे सिंह ने रोकलिया. वो हमें खाना चाहता था.सिंह वो हरामजादा कौन है? खरगोश :वो कह रहा था, वो यहां का वनराज है. और माकुरक बदमाश है.सिंह : क्या?खरगोश :उसने ये कहा. . . और तीन खरगोश बंधक बना लिये और मुझे आपके पासभेजा.सिंह : क्यों?खरगोश : युद्ध करने. . . सिंह : क्या. . . खरगोश : मैं. . . मैं. . . मैंने नहीं. उसने कहाइन घुकर पुकार में गए लेकिन अब मा. . . वो वनराज.सिंह : तो ऐसा कहा उसने. . . कहां है वो. . . खरगोश : चलिए दिखाता हूं. (जाते हैं.) महाराज वो एक किले में रहता है.सिंह : किले में रहे या ताले में मैं दिखाता हूं उसे अपनी ताकत. . . बदमाशकहता है मुझे.खरगोश : हरामजादा भी कहता है.सिंह : क्या. . . खरगोश : ऐसा उसने कहा. . . देखा महाराज. . . आपको देखकर वो किले में छिप गया.सिंह : छिपकर बैठा है न. . . बाहर निकालता हूं उस हरामजादे कोखरगोश : हरामी कहीं का. . . [सिंह कुएं की ओर देखता है.]खरगोश : :वो किले में छिपकर बैठा है. झुक कर देखें तो आएगा नजर [सिंह भीतर झुककर देखता है. गर्जना. . . कूदता है.] डूब गया डूब गया. . . [खरगोश आनंद से ताली पीटता है.]ससा : आवो रे आवो सिंह मासुरक डूब गया प्रसन्नता से नाचो गावो, जिंदाबादबोलो. . . [सर्व लोग नाचते हैं. . . धीरे-धीरे प्रकाश कम]करटक : अपार तेरी बुद्धि देखते करेगा तू ये काम सुनकर तेरी बात मगरयाद आ रहा राम दमनक : महाराज अभी अकेले होंगे (खाठ्ःआफूठाळी णाठाख्)><णैथ् ढैळ्ःई><४५-५१><१४६४><ंआशैऐः, श्-आण्षाझ् शै ंऊळाखाठ् -फ्ळ्-औ> नेपथ्य में - देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बिगड़ गया इन्सान .पार्वती - भगवन, ये कैसा स्वर है ?शंकर भगवान - देवी, ये स्वर, विश्व लोक का है, मानव दुखी है .पार्वती - मानव ने तो चन्द्र लोक पर विजय प्राप्त कर ली है तथा अन्य ग्रहों पर भी चढ़ाइयां कर रहा है. विजय के नगाड़े बजा रहा हैं. फिर मानव दुखी क्यों ? यह कैसी विडम्बना है ? शंकर भगवान - यह सब उसकी बुद्धि के बल से हुआ है . बुद्धिजीवी, मानव ने विज्ञान और तकनीकी की सहायता से म़्अत्यु दर पर भी विजय पा ली है .पार्वती - प्रभु, कहीं ऐसा न हो कि वह एक दिन अपनी चार अरब सेना लेकर देव लोक पर आक्रमण करे .शंकर जी - मानव को मैंने पूरे विश्व का आधि-पत्य सौंप दिया है . वह सभी जीवों में श्रेष्ठ है . प्रक़ति की सभी वस्तुएं किसी न किसी रुप में उसके लिये हैं .पार्वती जी - भगवन, फिर यह शोर क्यों ? आप अपने भक्तों की सुधि क्यों नहीं लेते .शंकर जी - देवी पार्वती, यदि आपकी यहीं इच्छा है कि हम भक्तों की सुधि लें तो हम विश्व लोक अवश्य जायेंगे . पार्वती जी - भगवन, क्या मैं भी आपके साथ चलूं ?शंकर जी - हां, पर हमें मनुष्य के रुप में जाना होगा . हम आपको पूरा तमाशा दिखायेंगे कि मनुष्य अपनी ही करनी से कैसे जाल में फंस गया है .पार्वती जी - भगवन, नारद मुनि को भी साथ ले चलें तो अच्छा होगा . उन्होंने विश्व का भ्रमण किया है तथा संसार की स्थिति से परिचित हैं .शंकर जी - कोई है ?एक गण - ( हाथ जोड़े हुए आता है ) आज्ञा महाराज .शंकर जी - नारद जी से कहो कल विश्व यात्रा की तैयारी करें.गण - जो आज्ञा. ( द़्अश्य दो ) ( शंकर, पार्वती, एवं नारद जी भ्रमण करते हुए मधुवन पहुंचजाते हैं )पार्वती जी - भगवन, हमने ऋषि मुनियों को मधुवन की महिमा गाते सुना है तथा उनकी तपस्या भी यही सफल हुई है . शंकर जी - भारत के प्राचीन दर्शन शास्त्र ने भी इसी मधुवन में जन्म लिया है, पर आज मधुवन की दशा बड़ी खराब दिखाई दे रही है .पार्वती जी - ऐसा क्यों हुआ प्रभु ? ( नेपथ्य से आवाज - बचाओ हे भगवान दया करो )पार्वती जी - ये कैसा शोर है ? ये तो भक्तों की आवाज है, जो दुखी हैं . प्रभु इन भक्तों पर दया करो .शंकर जी - नारद जी दुखी मानव को बुलाओ और पुछो कि इसे किस बात का दु:ख है . ( नारद जी दु:खी मानव के प्रतीक एक लकड़हारे को साथ लेकर आते हैं )नारद जी - मानव, आपको क्या दु:ख है ? आप भयभीत क्यों हैं . मानव - मुनि जी, वनराज ने हमें कई दिनों से दु:खी कर रखा है .नारद जी - कैसे ? मानव - वनराज मधुवन छोड़कर गांव की ओर आ जाते हैं . और मनुष्य और पालतू जानवरों को खा जाते हैं .शंकर जी - मानव, वनराज मधुवन क्यों छोड़ते हैं ?पार्वती जी - मानव क्या तुम्हें केवल यही कष्ट है या और भी कोई व्याधि है .मानव - देवी, जंगलों में लकड़ी का अभाव है . मैं लकड़हारा हुं . मुझे लकड़ी नहीं मिलती और गरीबी के कारण मैं बहुत तकलीफ में हूं . इसके अलावा मुझे वनराज से भी भय लगता है क्योंकि वे आजकल बहुत नुक्सान करते हैं .शंकर जी - नारद जी, वनराज को बुलाइये और पूछिये उसने मानव को दु:खी क्यों किया है .नारद जी - जो आज्ञा . ( नारद जी वनराज को आवाज लगाते हैं और गरजते हुए मंच पर आते हैं . ( इस बीच शंकर-पार्वती अंतध्र्यान हो जाते हैं ) .वनराज - मुझे किसने आवाज दी ?नारद जी - हम इस वन में भ्रमण करने के लिए आये थे . हमने सोचा कि इस वन के राजा के भी दर्शन कर लें . हम नारद हैं और हम स्वर्गलोक से आये हैं .वनराज - बड़ी क़पा की प्रभु आपने . कहिए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं ?नारद जी - आप तो इतने बड़े राजा हैं पर सुना है कि आप शहर पर भी आक्रमण करने लगे हैं और मानव आपसे दु:खी है .वनराज - अब आप ही न्याय करें . मैं सभी वन्य प्राणियों को बुलाता हूं . ( लोमड़ी को आवाज देकर बुलाता है ) लोमड़ी रानी , ओ लोमड़ी रानी .लोमड़ी - जी महाराज आई .वनराज - आज हमारे वन में नारद मुनि आये हैं . उनके स्वागत में वन्य प्राणियों की सभा बुलाओ .लोमड़ी - जो आज्ञा ( लोमड़ी जंगल में जाती है और नेपथ्य से लोमड़ी के चिल्लाने कीआवाज आती है ) .लोमड़ी की - सभी वन्य प्राणियों को सूचित कियाआवाज जाता है कि आज शाम को छ: बजे वनराज के दरबार में सभा होगी . अत: सभी बन्धुओ से निवेदन है कि वे ठीक समय पर उपस्थित हों . ( द़्अश्य तीन ) ( सारे वन्य प्राणी वनराज के दरबार में उपस्थित थे ) .वनराज - मेरी प्रजाजनों .हिरण - महाराज की क्या आज्ञा है ?वनराज - आज हमारे वन में नारद मुनि आये हैं सब प्राणी उन्हें प्रणाम करें . ( सभी प्राणी प्रणाम करते हैं ) वनराज आगे कहते हैं - नारद मुनि मानव की शिकायत लेकर आये हैं . तुम सब उस शिकायत को सुनो और उसका निराकरण बताओ .नारद जी - प्राणियों क्या तुम्हें मानव से कोई कष्ट है ?हिरण - आप बताइथे महाराज . हमारे घर, वन जिसमें हम सभी भाई-बहन, हिल-मिलकर रहते थे वे नष्ट कर दिये गये हैं . हम कहां रहे, क्या पियें, क्या खायें, कहां विश्राम करें .बन्दर - (कूद-कूद कर आता है ) मेरी भी कुछ सुनो .नारद - हां सुनाओ बन्दर मामा .बन्दर - जब पेड़ ही न रहे तो हमारा क्या होगा ? हम भोजन कहां करेगें ? जब हम शहर की ओर जाते हैं और छतों कूदते हैं, बच्चों के हाथ की मिठाई खा जाते हैं तो मानव हमें मारता है, भगाता है . मेरी शिकायत के अलावा भालू चाचा की शिकायत भी सुनिये .भालू - तूम खाने की बात करते हो . मैं प्यासा हूं . नहाने को भी पानी नहीं मिलता . पानी इतना दूषित हो गया है कि उसमें से दुर्गंध आती है .नारद - ऐसा क्यों ?भालू - चलकर देखें नदी के पानी में चमड़े के कारखाने की गन्दगी को बहाया जाता है . जिससे पूरी नदी दूषित हो गई है .सारस - मछलियां भी सब मर गई हैं . इस नदी में अब एक भी मछली नहीं है . मेरे खाने के लिए कुछ नहीं बचा . मैं और मेरा परिवार दूसरे स्थान को जा रहे हैं .वनराज - मुनि जी, सुन ली आपने हमारी व्यथा की कहानी . अब आप शंकर जी और और मां पार्वती को-हमारी गाथा सुना दें .नारद - ठीक है-मैं भगवान से तुम्हारी गाथा सुना दूंगा . ( नारायण-नारायण कहते हुए नारद जी चले जाते हैं ) . ( द़्अश्य चार )( मंच पर नारद जी, शंकर जी एवं पार्वती जी के सामने खड़े हैं ) .पार्वती जी - भगवन, नारद जी ने संसार का जो व़्अत्तान्त बताया उसे सुनकर मन को बड़ा दु:ख हुआ . आप इन्हें विनाश से बचा सकते हैं .शंकर जी - आखिर इसके लिए दोषी कौन है ?नारद जी - मानव को बुलाकर वन प्राणियों की विपदा सुना दो . ( मानव का प्रवेश ) ( मानव का प्रवेश )नारद जी - मानव, भगवान को बताओ कि तुमने जंगलों की अन्धा-धुन्ध कटाई क्यों की ? इतने जंगल क्यों काटे ?मानव - भगवन, पूर्वजों के आशीर्वाद से हमारे वंश की बहुत प्रगति हुई और संसार में मनुष्यों की संख्या बहुत बढ़ गयी . उनके लिए मकान, भोजन, वस्त्र तो देना ही था . वन न काटता तो क्या कर ता ?नारद जी - मानव, क्या तुझे मालूम नहीं था कि वनों से प्रक़ति का संतुलन कायम रहता है . अगर वनों की अंधाधुंध कटाई होती है तो सभी के लिए खाने , पानी और हवा की कमी पड़ जायेगी .मावन - महाराज, अपने अज्ञान के कारण मैं जंगलों को व्यर्थ समझता था मुझे नहीं मालूम था कि मनुष्यों का संपूर्ण अस्तित्व पर्यावरण पर निर्भर करता है . इस पर्यावरण पर मैंने बिना सोचे प्रहार किया है . ( लकड़हारे का प्रवेश )नारद जी - देखो लकड़हारा भी आ गया . क्यों लकड़हारे, वन में लकड़ी की कमी क्यों हुई ?लकड़हारा - भगवन, वन बेरहमी से काट दिये गये . हमारा परिवार बढ़ा और दिनों-दिन लकड़ी की आवश्यकता बढ़ी . आखिर इस मधुवन की ऐसी दुर्दशा हो गयी इसके लिए हम भी दोषी हैं .( लकड़हारा और मानव सिर झुकाकर कठपुतली मंच से चले जाते है )और धीरे-धीरे करके सभी पात्रों का मंच से चले जाना . देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान . कितना बदल गया इंसान अभी भी चेत जा अरे इंसान, बहुत नहीं बिगड़ा है संसार . रहो प्रेम से सब जीव मिलकर करो संपदा का उपभोग विचार कर इस संसार को फिर से स्वर्ग बनाओ आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ बचाओ (खाठ्ःआफूठाळी णाठाख्)><णैथ् ढैळ्ःई><१६-२३><२०००><ंआढ्ःऊष्-णाआ-फ्ळ्-औ> मंच पर सूत्रधार यानी मास्टर जी का प्रवेश . वे मगन होकर एक गीत सुन रहेहै ).गीत : - ताल मिले नदी के जल मे नदी मिले सागर मे सागर मिले कौन से जल मे कोई जाने ना. . . . . . सुत्रधार - अहा . क्या गीत है और कितने अच्छे है, इसके भाव-ताल का जल नदी के जल मे मिलता है, नदी का सागर मे और सागर का रहस्य कौन जानता है ? यह सब कुछ ऊपर वाले की महिमा है . हम सभी उसके हाथ की कठपुतलियां है और यह संसार ? ये संसार भी तो एक रंगमंच है . अपनी भुमिका निभाने के लिए हम आते है और चले जाते है . यह सब धागो से बंधी से जिन्दगी का खेल है भैया . (सूत्रधार की खोयी हुई सी आवाज मे परिवर्तन, जैसे वह चौककर अपने कर्तव्य को करने को उद्यत होता है ). लो, मै तो न जाने कहां से कहां भटक गया था . मुझे अपनी बात नही, बल्कि अपनी कठपुतलियो की बात आपसे कहनी है . मेरे पास तीन पुतलियां है और इनसे एक छोटा सा खेल दिखाना है . पहले इनसे मुलाकात तो करा दूं . ये भी आपसे मिलने के लिए बेचैन है . पहले मिलिये भीमा जी से . (सुत्रधार मंच पर एक कठपुतली को प्रवेश कराता है ).भीमा- मै हूं भैया नाविक भीमा . मेरा काम नही है धीमा .. हर पल आगे बढता हूं मै . नित तूफानो से लडता हूं मै .. अपनी मस्ती का रंग निराला है . अपना तो मालिक ऊपर वाला है .. (दूसरी कठपुतली का प्रवेश ).बासन्ती- मै हूं भैया, बासंती भौजी . सारी दुनिया कहती मनमौजी . गिन-गिन कर सिक्के लेती हूं . क्योकि दूध निखालस देती हूं .. यूं तो सारे जग से रिश्तेदारी . है अपना घर छोटी सी फुलवारी .. (तीसरी कठपुतली का प्रवेश ).जुम्मन- मै हूं जग का जुम्मन चाचा . सागर की लहरो पर कितना नाचा .. जीवन मे लहरो का सुख है . न मानो तो दुख ही दुख है .. भीमा जैसी अपनी भी किश्ती है . अपना मौला भी सागर वाला चिश्ती है ..सूत्रधार- (दर्शको से पूछता है) तो ये तीनो कठपुतलियां आपकी सेवा मे हाजिर है . आप कहे तो और पेश करूं . तीन की जगह तेरह, पर नही करूंगा . देखिए न आपका ये रंगमंच कितना छोटा है . आप भी इस छोटे से रंगमंच पर कठपुतलियो की भीड नही चाहेगे . तो लीजिए इन तीन कठपुतलियो से ही खेल शुरू करे (कुछ सोचते हुये ) अच्छा तो पहले कौन सा सीन ले (किसका नंबर पहले रखे )? (तीनो कठपुतलियो मे होडा होडी )भीमा- पहला नंबर मेरा है .बासंती- नही, पहले मेरा .जुम्मन- मेरा, मेरा. . . . . ये मेरा मेरा क्या लगा रखा है . ये किचकिच . हो-हो .सूत्रधार- बंद कीजिए (तीनो के बीच तकरार जारी है ) भगवान के नाम पर, खुदा के नाम पर, चुप रहिए . मेरे तो कान के परदे फट जायेगे . मेहरबानी करिए और यहां से दफा हो जाइये . (तीनो तकरार करते हुये जाती है . और पीछे सूत्रधार भी )द़्अश्य दूसरा मधुवन गांव . पलकमती नदी का किनारा . नदी के किनारे सूत्रधार याने मास्टर जी खडे है . नाविक भीमा की राह देख रहे है भीमा मस्ती मे झूमता हुआ आता है ).- विस्की से विष्णु बने . रम से बने राम . देशी से दशरथ बने . ठर्रे से हनुमान ..मास्टर जी- क्यो भीमा ? आज फिर चख आया है ? यह क्या बडबडा रहा है ?भीमा- कौन मास्टर जी . आप . अरे माफ करना मास्टर जी . आप ही बताओ, अपने पर अब कौन सा रंग चढेगा, मास्टर जी .मास्टर जी- अच्छा पहले मुझे ये बताओ कि तुम इतने दिनो से कहां गायब थे . घाट पर न तुम्हारी नाव दिखी और न तुम दिखाई दिये . अलबत्ता जुम्मन जरूर दिखाई दिया . अभी वो नाव लेकर उस पार गया है .भीमा- कौन जुम्मन . वो साल जोरू का गुलाम, जब देखो दुम दबा कर रहता है . अजमा लीजिए भीमा वैसा नही है, मास्टर साब . हम तो पुरखो की सीख पर चलते है-जर, जोरू, जमीन, जोर की, नही तो और की .मास्टर जी- ये गलत सबक कहां से सीख आया है भीमा ? इसीलिए तो तुमसे कहने आया था कि पिछले सात दिन से तुम प्रौढ शाला से गायब क्यो हो ? क्या हो गया है, तुम्हे ? कहां चले गये थे तुम ? भीमा- कहां जाऊगा मास्टर जी ? मै तो यही था . कुछ चक्कर मे ऐसा फंसा था कि क्या कहूं आपसे . सब नसीब का खेल है .मास्टर जी- नसीब को क्यो कोस रहे हो भीमा ? तुम्हारी लापरवाही तो जग जाहिर है . जरूर कोई नई मुसीबत गले मोल ले ली होगी, तुमने .भीमा- आप तो जब देखो तब मुझे ही दोष देते हो मास्टर जी, आप ही बताइये, मेरी घरवाली ने पांचवी लडकी पैदा की है . खुद भी मरते मरते बची है . पूरा एक हफ्ता इसी परेशानी मे बीत गया . सब मुकद्दर का खेल है मास्टर जी . मुकद्दर अच्छा हो तो सिकन्दर नही तो बन्दर .मास्टर जी- देखो भीमा, तुमसे कितनी बार कहा कि इस नसीब-नसीब के चक्कर मे न पडो . अपनी गलती को भाग्य के माथे न मढो .भीमा- तो मै क्या करूं मास्टर जी, घर गिरस्ती कैसे चलाऊ ? पाचं लडकियां है . मां-बाप है . हम पति-पत्ली है . नौ प्राणी घर मे है . इधर रोजगार का हाल मंदा है . सुना है कि सरकार पलकमती पर एक पुल बनवाने जा रही है .मास्टर जी- हां, बात तो सही सुनी है तुमने . पुल की मंजूरी भी हो गई है और सर्वे भी . अगले साल तक निर्माण कार्य शुरू हो जायेगा .भीमा- तब हमारे धंधे का क्या होगा मास्टर जी ? हमारे पुरखो ने राम जी की सेवा की थी और हमने आपकी . अब क्या होगामास्टर जी- देखो . भीमा, जब विकास होगा तो सभी दिशाओ मे होगा . पैदावार बढी है तो उसे लाने ले जाने के लिये आवागमन के साधन भी बढेगे . नई सड़कें भी बनेगी और नये पुल भी बनेगे . भीमा- जब लोग पुल से पार हो जायेगे, तब हमारी नाव और धंधे रोजगार का क्या होगा, मास्टर जी ? (इसी बीच मे जुम्मन की नाव मे बासंती भौजी उस पार से इस पार लौटती है ).मास्टर जी- लो जुम्मन चाचा भी नाव लेकर लौट आये है . साथ मे जगत भौजाई भी है .भीमा- अरे हां बासंती भौजी भी आ रही है . देखता हूं इस जुम्मन मियां को मेरी सवारी पर डाके डाल रहा है . (इस बीच जुम्मन और बासंती भौजी का आगमन)जुम्मन- आदाब अर्ज है, मास्टर जी . (इशारे से)भौजी- राम राम मास्टर जी .मास्टर जी- आदाब अर्ज, जुम्मन मियां, नमस्कार भौजी जी .भौजी- मास्टर जी, हमारे देवर जी मुंह लटकाये क्यो खडे है ?भीमा- बस भौजी, अब जले पर नमक न छिड़को . हम तो अपनी भौजी को उस पार से लिवाने के लिये दौडे दौडे आये थे घर से . पर लगता है हमारी सवारी अब हमसे छिन गई है .भौजी- यूं दिल छोटा न करो, लल्ला . तुम्हारी भौजी तो मनमौजी है . अच्छा बताओ-जब तुम नाव नही लगाओगे तो मै शहर दूध बेचने कैसे जाऊगी ? फिर मेरे लिये तुम और जुम्मन अलग-अलग थोडे ही हो .मास्टर जी- आपने ठीक कहा भौजी, ये भीमा और जुम्मन जितनी तकरार करते है, उतना एक दूसरे से प्यार भी करते है .भौजी - दोनो की टक्कर बराबरी की है . एक कमी थी, वह भी सुना है कि पूरी हो गई है . हमारे देवर जी के यहां लक्ष्मी आई है . ऐसा जुम्मन भाई बता रहे थे .भीमा- ये व्यंग्य न मारो भौजी . लक्ष्मी जी तो बड़े लोगो के घर आती है . हम गरीबो के घर भला वो क्यो आवेगी ? हां घर मे लडकी हुई है . जुम्मन और हम पांच पांच बच्चो के बाप बन गये है . हो गये दोनो बराबर .जुम्मन- सब खुदा की मेहरबानी है, भौजी .भीमा- हां सब भगवान की देन है .भौजी- अभी तो जुम्मन तुम गरीबी मे आटा गीला होने की बात कर रहे थे .जुम्मन- इसमे किसी का दोष नही . ये सब किस्मत का खेल हो गया है .मास्टर जी- (स्वागत कथन ) अब ये नसीब को खेल हो गया है . जब ये कठपुतली का खेल नही रहा तो अब यहां से चल देना चाहिये . (प्रगट कथन मे ) अच्छा तो मै अब चलता हूं . एक और जरूरी काम याद आ गया मुझे .भौजी- मै भी आपके साथ चलती हूं मास्टर जी . घर मे दोनो बच्चे राह देख रहे होगे .मास्टर जी- (हंसते हुये ) और हमारे भाई साहब. . . . . भौजी- (थोडी ठुमकते हुये ) आप भी इन दोनो की तरह छेडखानी करने लगे, मास्टर जी ?मास्टर जी- नही भौजी, मै तो थोडा सा मजाक कर रहा था . चलो चलेजुम्मन- आदाब, मास्टर जी .भीमा- नमस्कार, मास्टर जी . (मास्टर जी का नमम्कार, आदाब करते हुये भौजी के साथ प्रस्थान )जुम्मन- क्यो भाईजान कुछ नाराज हो हमसे . बडी जली कटी सुना रहे थे .भीमा- नही भैया, वो भौजी के संग मसकरी कर रहा था . तुम्हारा हमारा साथ तो इस पलकमती के दो किनारो की तरह जुडा है .जुम्मन- हां जुदा-जुदा दिखते हुये भी हम एक है . पलकमती तो हमारी जिन्दगी है .भीमा- और नही तो क्या . हमारे पुरखो ने भी क्या सोच समझकर पलकमती नाम रखा है . थोडी सी बारिस हो जाए तो पलक मारते बाढ़ का पानी किनारो को तोड़ने लगे और बरखा थमते ही पलकमती सिमट जाए, सिकुड जाए .जुम्मन- पर सुना है भीमा, इस नदी पर पक्का पुल बन रहा है . हमारी दो नावो के लिए पहले ही रोजगार मंदा था . पुल बन जाने से तो धंधे पर पानी फिर जायेगा .भीमा- हां भैया, तुम ठीक कह रहे हो . मास्टर जी भी कह रहे थे कि सरकार की मंजूरी मिल गई है और ठेकेदार कुछ दिनो मे ही काम शुरू कर देगा .जुम्मन- मैने इसीलिए बड़े बेटे अबू को अपने मामू के घर भोपाल भेज दिया है . रोजी-रोटी से लग जायेगा तो गिरस्ती का बोझ हल्का होगा . गरीबी मे पांच पांच बच्चो की परवरिश और ऊपर से ये बढ़ती मंहगाई की मार .भीमा- कुछ न पूछो, जुम्मन भैया ? हमारी जिन्दगी की नाव का भी यही हाल है . फिर घर मे कोई कुलदीपक भी नही . भगवान ही अपनी नाव को पार लगायेगा .जुम्मन- अरे हां, भीमा भाई . सुना है इस बार कार्तिक मेला बडे जोर-शोर से भरने वाला है . जंगे आजादी मे शहीद होने वाले हमारे गांव के बजरंगसिह की शहादत की याद मे बडी प्रदर्शनी लगने वाली है .भीमा- हां, खूब भीड़ जमा होगी . धंधा चमक उठेगा . देखना अबकी बार पलकमती माता की किरपा हुई तो बडी लड़की का गौना शान से कर दूंगा .जुम्मन- चलो भीमा भाई, घर चले . देर हो गई तो तुम्हारी भाभीजान नाराज होगी . उसने कसम दे रखी है देर से आने की और लाल परी चढ़ाने की . (हाथ से पीने का इशारा करता है .भीमा- आखिर रहे न जोरू के गुलाम . मर्द वो जो अपनी मरजी से चले . जो चाहे खाए, जो चाहे पीए और मस्ती से जीये . (पीने का मुद्राभिनय )जुम्मन- (समझाते हुये ) हमने तो तौबा कर ली भैया, इस शैतान की चाची से अच्छा भला इंसान शैतान बन जाता है . भैया मेरी मानो तो तुम भी छोड दो .भीमा- वो क्या कहते है भैया कि अब आखिर मे क्या खाक मुसल्मा होगे . फिर घर गिरस्ती की इतनी परेशानियां, इतना रंजोगम है कि. . . . . (बात अधूरी रह जाती है )जुम्मन- भैया . मेरे भी रंजोगम क्या आपसे कम है ? हम सब गरीबो की जिन्दगी एक जैसी है .भीमा- अब छोडो भी यार, ये मास्टर जी वाला भाषण तुम भी न दो . जहां देखो वही डेंगू बुखार की तरह भाषणबाजी की बीमारी फैल रही है .जुम्मन- अच्छा-अच्छा भैया, नाराज न हो . बातो ही बातो मे रास्ता कट गया . अपना घर आ गया .भीमा- तुम्हारा मकान तो आ गया, जुम्मन मगर अपना मुकाम तो अभी दूर है . उस लाल पर्दे वाली दुकान से होकर अपने घर का रास्ता है .जुम्मन- तुम बहुत जिद्दी हो, भीमा .भीमा- (अपनी मस्ती मे ). और तुम बहुत पिद्दी . (जुम्मन अपने घर जाता है और भीमा अपनी मंजिल की ओर )द़्अश्य : तीनसूत्रधार- पलकमती पर कार्तिक मेले की भीड को सुबह से शाम तक ढोते हुये नाव की क्षमता से दुगनी सवारी बैठाने और थके हारे हाथो से संतुलन बिगड़ जाने के कारण भीमा की नाव उलट जाती है . हाहाकार और चित्कार . कुछ लोग डूब जाते है, और चंद तैर कर बच जाते है . भीमा डूबते हुये तीन अबोध बच्चो को बचाता है . इसी दौरान वह एक तेज भंवर मे फंस जाता है . और डूब जाता है . सारे गांव मे शोक फैल जाता है . इस घटना के तीन सप्ताह बीत चुके है . बांसती भौजी और मास्टर जी भीमा के घर से लौटते हुये .बांसती- (रूआंसी आवाज मे ) मास्टर जी, भीमा के बिना गांव सूना सूना लगता है . एक पखवाड़ा बीत गया, पर लगता है कल की ही बात है . घर की हालत देखी नही जाती . कलेजा फटता है .मास्टर जी- (शोकमग्न ) : हां भौजी, उस परिवार तो जैसे गाज गिरी है .बांसती- ये गाज गरीबो पर ही क्यो गिरती है, मास्टर जी ? बिचारी बीमार भौजी और छोटे छोटे बच्चो का क्या होगा ? वाह रे भीमा, वाह . सबको मंझधार मे छोड़कर तू चला गया . मास्टर जी- हिम्मत रखो भौजी, हम कोई न कोई रास्ते निकालेगे . पर बुरा हो इन ठेकेदारो का जो पैसे के लालच मे लोगो की जान से खेलते है . छोटी सी नाव मे क्षमता से अधिक सवारी भरते है . स्वाभाविक है नाव का संतुलन बिगड़ेगा और नाव डूबेगी . वो तो जुम्मन संभल गया नही तो उसकी भी नाव भंवर मे फंस गई थी और उलटने ही वाली थी .बासंती- ये होड़ा होड़ी बहुत बुरी है . अपनी ताकत से ज्यादा कोई भी काम बुरा है, मास्टर जी .मास्टर जी- और नही तो क्या ? कितना समझाया था भीमा को पर वह बहुत जिद्दी था . अपनी जिद मे न उसने उस नाव को देखा और न परिवार की नाव को .बासंती- जिद तो जहर है, मास्टर जी . सीता मैया तक को दुख भोगना पड़ा . अपना भीमा यदि जिद्दी न होता. . . . . (इस बीच जुम्मन का प्रवेश )जुम्मन- आदाब अर्ज मास्टर जी, (भौजी की ओर देखकर ) सलाम भाभी .मास्टर- आवो जुम्मन, तुम्हारी उमर हजार साल की है . हम अभी तुम्हारी ही चर्चा कर रहे थे कि तुम आ गये . लहर' जिस दौर में निकली उससमय देश आजाद हो चुका था . आजादीमिलने के साथ ही जनता में यह आशा जगीथी कि अब शीघ्र ही उनके दु:ख-दर्द दूर होजांएगे तथा जीवन की समस्याओ का निदानहो सकेगा लेकिन देश मे चारों तरफ पनपरहे भ्रष्टाचार, मानवीय मूल्यों के ह्त्रास जनंसख्या के बढते बोझ व साम्प्दायिकसमस्याओ ने आम आदमी के मन में निराशाघुटन व संत्रास का वातावरण पैदा करदिया . ऐसे समय में यह पत्रिका इस घोष-णाके साथ निकलनी शुरू हूई-"लहर उनविचारकों का अभिनन्दन करती है जोआदमी की अन्तर्चेतना को जगाने के लिएक्रत संकल्प है . " (द़्अष्टिकोण, जुलाई १९५७अपनी इसी बात पर और अधिक बल देतेहुए सम्पादक ने दुसरे ही अंक में लिखा -"लहर उन सभी कलम जीवियो का स्वागत करती है जो जीवन के बाहर के अनास्था कै चोले को फेंककर, आस्था की लौ लेकरआगै बढ रहै हैं ." ( द़्अष्टिकोण अगस्त१९५७) अनास्था मे आस्था और अविश्वासमे विश्वास की अवधारणा को लेकर `लहर`आगे बढ़ी . उस समय साहित्यिक जगत मे`प्रयोगवाद' का उत्कर्ष काल था जिसकादर्शन जीवम के प्रति अनास्था अविश्वासतथा निराशाबाद पर टिका हुआ था .`लहर' ने ऐसे दौर मे साहित्यकारों कोउवके दायित्व का बोध कराते हुए लिखा-"साहित्यकारों का तो अपना दायित्व है . . . . कलम को हाथ मे लेकर वे भी यदि इसीअनास्था के गीत गाएंगे . . . . तो आदमी काक्या होगा ?" `लहर 'के दूसरे अकं के द़्अष्टिकोणकी प्रतिक्रिया मे एक पाठक ने सम्पादक के नाम पत्र लिखा . इसमे उसने उपरोक्तसम्पादकीय से असहमति व्यक्त करते हुएलिखा ". . . जब जीवन की अनिवार्य आव-श्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाए जबअभावो का अजगर जिन्दगी को लीलताजाए. . . . और जींवन केवल व्यंग्य बनकर रहजाए तब कहाँ से लाए आदमी आस्थाऔर बिश्वास ?" लेकिन सम्पादक ने सितम्बर' ५७के अंक में एक लम्बा सम्पादकीय लिखकरपाठक के पत्र का जबाब देते हुए आस्था औरविश्वास पर टिके रहने वाली बात हीदोहराई . उन्होंनें लिखा-``अभावों का,आर्थिक्र उत्पीडन का दर्द युग का सत्य है .हम स्वीकार करते है कि इस दर्द का बहुत बडा अस्तित्व है, तथ्य है . हम मानते हैकि जीवन आज इस आर्थिक असन्तुलन और विवश्ताओ के नीचे पिस रहा है. . किन्तु इस आर्थिक उत्पीडन का यह अर्थतो नही कि आदमी धैर्य ही खो दे किउसका स्वयं पर से ही विश्वास उठ जाए कि वह आस्था का कवच ढीला करके`त्राहिमाम-त्राहिमाम' के स्वर में चीखनेचिल्लाने लगे .. जिन अभावो के नीचे आज वह पिस रहा है . . . उनसे त्रांण पानेके लिए भी आवशयक है कि वह अपने प्रतिआस्था को जीवित रखकर इस समस्या केनिदान के लिए प्रयत्नशील हो .'' जिस समय `लहर'का प्रकाशनशुरू हुआ, उस समय प्रयोगवादी कविताअपनी जड़ें जमा चुकी थी और प्रयोगवादीकवि विभिन्न लेखों पुस्तकों पत्र-पत्रिकाओंके माध्यम से प्रयोगवाद की उपलब्धियों को हिन्दी जगत के सामने रख रहे थे. तथाप्रगतिशील बनाम प्रयोगशील कविता नईकविता बनाम नव गीत जैसी काव्य प्रव़्अतियोंको लेकर साहित्य जगत में विवाद खड़े होरहे थे . इसी समय सप्तकीय परिवार केकवि चाहे वह किसी भी विचारधारा सेबद्ध हों-थोडे बहुत गीत अवश्य लिख रहेथे . सप्तकीय परिवार के बाहर के युवा कवि भी नई गीत शैली को अपनाकर इसविधा को सम़्अध्द कर रहे थे . उल्लेखनीययह है कि गीत लिखते हुए भी सप्तकीयपरिवार के अधिकांश कवि नई कविताऔर प्रगति को विपरीत धर्मी काव्य प्रव़्अत्तियांमान रहे थे तथा गीत को कविता काप्राचीन रूप मानकर उनके विषय में मौन साधे हुए थे लेकिन गिरिजाकुमार माथुरऔर केदारनाथ सिंह दो ऐसे सप्तकीय कविथे जो गीत को नई कविता के समानान्तरस्थापित कर रहे थे . इस दौर में नयेउभरते हुए युवा गीतकारो में हीनता की ग्रन्थि पैदा हो गई थी और वह अजीब कशमकश की स्थति से गुजर रहे थे.इसका एक कारण यह भी था कि उस दौरकी अधिकांश पत्रिकाओ का रूझान प्रयोग-शील कविताओं के प्रकाशन की ओर था `लहर'उस दौर की एक एसी पत्रिका थीजिसने इन उपेक्षित गीतकारो की मन:स्थति को समझा तथा उनके गीतों कोछापकर इस जन विधा को सम़्अद्ध करने केलिए निरन्तर प्रोत्साहित किया . जनवरी १९५८ की `लहर' मे`हमारी बात' शीर्षक सम्पादकीय में सम्पादकने कविता के प्रति अपने द़्अष्टिकोण कोस्पष्ट करते हुए लिखा "लहर का अपनाकोई गुट नहीं हे ओर प्रयोगवाद का विरोघकिया जाय यह कतई हमारी इच्छा नहीहै किन्तु जहां स्पष्ट गध को श्रेष्ठ काव्यके रूप मैं स्वीकार कराने का दुराग्रह श्रेष्ठगीत की अवहेलना करने की प्रव़्अति ओरसाहित्य मैं राजनेतिक गुट का सा अलगखिचडीं पकने का दम्भ चल रहा होहमारा विरोघ मात्र ऊसी से है . अपने इसीद़्अष्टिकोण को कायम रखते हुऐ `लहर' नेप्रारम्भिक वषों में कविता के नाम पर गीतही प्रकाशित किए . `लहर' के जो कविंताकभी निकले बालस्वरूप `राही', शेरजंगगर्ग, राममनोहर त्रिपाठी गोपालसिंहनेपाली, कन्हैयालाल सेठिया ज्ञान भारिल्ल,वीरेन्द्र मिश्र, प्रकाश कोल मुकुट बिहारी`सरोज' ब्रजेन्द्र `राकेश' इत्यादि के गीतही अधिक थे . सम्पादक ने सम्पादकीय के अतिरिक्तसमय-समय पर कुछ लेख तथा टिप्पणियां भी इस तरह की प्रकाशित की जिनमे प्रयोग-वाद की संकीर्ण व एकांगी मनोव़्अति कीआलोचना की गई है . अगस्त १९५७ की`लहर' मे`नयी कविता की सीमा रेखा ंऔर प्रयोगवाद से बाहर का नया काव्य'शीर्षक से सिद्धि मंगल का लेख छपा .इसमें लेखक ने प्रयोगवाद की दुरूहता वशिल्पगत प्रयोग के आग्रह की आलोचनाकी है . इसी लेख में प्रयोगवाद की संकीर्णव एकांगी मनोव़्अत्ति की आलोचना करतेहुए लिखा है- "हमारा यह मत नहीं हैकि प्रयोगवाद के नाम पर श्रेष्ठ कुछ लिखाही नही गया . हमारा विरोघ तो उसप्रव़्अत्ति से जो एकांगी है और जिससे हिन्दीकविता मैं विघटन क दु:खद अध्याय खुलरहा है जिस अब ओर अघिक मौन होकरदेखा सहा नही जा सकेगा . यधपि `लहर'प्रयोगवाद अथवा नईकविता (प़्अष्ठ ८) का वैचारिक स्तर परसमर्थन नहीं कर रही थी फिर भी सचेतऔर जागरुक लेखकों से यह अपील कर रही थी कि वे गुट बन्दी ओर पूर्वग्रहछोडकर नई कविता का मूल्यांकन व उसपर खुलकर विचार विमर्श करें . अक्टुबरनव . १९५९ की `लहर'में `हमारी बात'केअन्तर्गत सम्पादक ने लिखा हैं--". . . . . किन्तु हमें यह नही भूल जाना चाहिए किसाहित्य के प्रमुख आनन्द में उसका अल्पांश ही श्रेष्ठ स्तर की अभिव्यक्ति दे सका हैं हम उनकी कई बातों से सहमत नहों तो भी हमें इस पीढी के क़तित्व कामंथन करना होगा . हम उनके मूल्यांकन केप्रति कंजूसी बरतकर अपने को धोखा हीदे सकते हे .. . . . साहित्यिक मूलयांकन केक्षेत्र में गुट बन्दी, से ऊपर उठकर हमेंविचारना है ." `लहर' शूरू से ही साहित्य मे गुटबन्दी की विरोधी थी . गुट से जुडकर किसीभी रचना का सही मूल्यांकन नही होपाता. जागरूक ओर प्रबुद्ध पाठक की तोअपनी द़्अष्टि ओर विचारघारा होती हे वहतो ऐसे मूल्यांकन के सहारे सही निष्कर्ष तकपुह् ंच जाता हे लेकिन आम पाठक इससे भटक सकता है . `लहर' के सम्पादकसमीक्षकों से बराबर यह अपील कर रह थेकि वे व्यक्तिगत राग देश से ऊपर उठकर तथा पार्टी और ग्रुप के बिल्ले को उतारकरक़ति का ईमानदारी के साथ मूल्याकन करें .दिसम्बर ६१ के अंक में हमारी बात शीर्षकमें उन्होनें लिखा-"किन्तु इस सबके बावजुदतब स्थति बडी अजीब हो जाती है जबपाठको लेखको की हर कक्षा या कहें किहर ग्रुप द्वारा अधिकांश रचनाओ की काटया प्रशंसा निराधार तर्को तथा बिना किसीतर्क के ही की जाती है . तब स्पष्ट लगताहै कि रचना का मुल्यांकन नही किया जारहा है, व्यक्ति के प्रति अपना राग द्वेषप्रकटा जा रहा है . हमारी प्रार्थना है हरलेखक और हर पाठक अपने बिल्ले कोउतारकर अपनी सम्मति दे ." पांचवे और छठे दशक मे कविताकी तरह कहानी के कथ्य और शिल्प कोलेकर नये नये प्रयोग हुए . नई कविता कीतरह नई कहानी आन्दोलन की चर्चा उसदौर की प्राय: सभी पत्र-पत्रिकाओं मेंविस्तार से की जा रही थी . `लहर' के`नई कहानी ' शीर्षक से जुलाई ६१ औरअगस्त-सितम्बर ६१ के मात्र दो विशेषांकही निकले. सम्पादक ने कहानी के किसीआन्दोलन के विवाद मे न पडकर अगस्त-सितम्बर, ६१ के हमारी बात शीर्षक मेंमात्र इतनी सी टिप्पणी देकर अपने सम्पा-दकीय कर्म की रक्षा की - इस विशेंषाकका तात्पर्य चाहे कुछ समझा जाय, हमारीमंशा केवल यही थी कि इस दशक मे जोकहानीकार उभर आये हैं जिन्होनै कथा केरूप, शिल्प और परिवेश के क्रान्तिकारीपरिवर्तन के संकेत दिए हैं, उस उपलब्धिका लेखा जोखा पाठको के समक्ष रखा जाये ., इससे साफ जाहिर होता है कि इसपत्रिका का रूझान प्रारम्भ में कहानी कीअपेक्षा कविता व गीत की ओर अधिक था .इसकी पुष्टि इस प्रमाण से भी हो सकतीहै कि `लहर' के कवितांक लगभग दस औरकहानी विषेशांक शायद दो तीन ही निकले .प्रारम्भ में सम्पादकीय और आलोचनात्मकलेख भी कहानी का अपेक्षा कविता पर हीअधिक लिखे गये . अन्य साहित्यक विवादों की तरहउस, समय एक अम्य महत्वपुर्ण विवाद उठखडा हुआ था- व्यावसायिक पत्रिका बनाम लघु पत्रिका . विवाद का कारण यह था किदिनमान के सम्पादक अज्ञेय जी ने दिन-मान के सम्पाजकीय मे `लिटिल मैगजीन'का अनुवाद `छोटी पत्रिका' नाम से करकेउन्हें कूडा करकट की संज्ञा देकर उनकामखौल उडाया था . इसकी प्रतिक्रियामें जनवरी ६९ की `लहर ' में हमारी बातके अन्तर्गत सम्पादक ने लिखा-कोईपत्रिका छोटी नही है, कोई पत्रिका बडीनही है . हां, दो प्रकार की पत्रिकाए है, औरवे है व्यावसायिक और अव्यावसायिक .' व्यावसायिक पत्रिका ं वे होती हैंजो अधिक से अधिक जनता का रूचिओर मागं को ध्यान रखकर सामग्रीप्रकाशित करती हैं . जनता में चेतना जगानाओर संस्कारो को बदलना उनका उद्वेश्यनहीं होता . सम सामयिक लेखन औरप्रगतिशील विचारों से इन पत्रिकाओ काकोई आत्मीय जुडाव नहीं होता . कारखानेओर दूसरे व्यवसायो का तरह इनकी पीठपर बैठा पूंजीपति इन पत्रिकाओं से बराबरलाभ कमाता है . अव्यावसायिक पत्रिका ं ही लघु पत्रिकाओं की श्रेणी मे आती हें . इनपत्रिकाओं के पास प्राय: साधनो का अभाव रहता है . फिर भी ये पत्रिकाएं न तो किसीतरह का दबाव स्वीकार करती हैं ओर नप्रलोभन . इसलिए ये पत्रिकाए जल्दी हीबंद हो जाती है . जन चेतना जगाने ओरशोषण, दमन, अत्याचार के खिलाफ आवाजउठाने मे पहल करती है . इन लघु पत्रिकाओंकी चर्चा करते हुए `लहर' के इसी सम्पाद-कीय में लिखा है- यह अलग बात है किसाघनो के अभाव मे आज की दम धोटूसमस्याओं के कारण वे अपने दायित्व कानिर्वाह भवी प्रकार न कर पाती हो,किन्तुऐसे प्रयत्न ही नयी जमीन बनाते है नयेक्षितिज खोजते हैं . ' व्यावसायिक पत्रिकाओ के विरोधऔर लघु पत्रिकाओ के समर्थन के समर्थन मे `लहर'का साथ दिया हिन्दी के अनेक प्रबुध्द पत्रकारऔर लेखको ने विश्वम्भर नाथ उपाध्याय,राम दरश मिस्र, धनजय वर्मा विजय बहादुरसिंह नेमिचन्द जैन आदि ने `लहर' केसम्पादक को लम्बे पत्र लिखकर जहां एकओर `दिनमान' के सम्पादक की आलोचना की, वहां लघु पत्रिकाओ का समर्थन करतेहुए इन्हें जन जागरण का जनतांत्रिकहथियार बताया . इसी क्रम में जनवरी १९७० की `लहर' में नागेश्वर लाल का`छोटी पत्रिकाएं ओर लहर की बारहवींवर्षगांठ पर सुरेन्द्र चौधरी का `लहर छोटीपत्रिकाओ की भूमिका के संदर्भ में `शीर्षकसे दो लेख छपे . समसामयिक साहित्यिक विवादों केसाथ-साथ राष्ट्र भाषा हिन्दी व उससे जुडीअनेक समस्याओं पर भी `लहर ' के सम्पाद-कीय लिखे गये . आजाद भारत के संविधानमें यह व्यवस्था की गई थी कि १९६५ तकअहिन्दी भाषी प्रातों में भी हिन्दी को सम़्अद्ध करके उसे पूर्णत: राष्ट्रभाषा का स्थान देदिया जाएगा . लेकिन राजनैतिक दबावोंतथा सरकार की लापरवाही के कारण ६५के बाद भी हिन्दी को राष्ट्र भाषा का स्थाननही मिल सका . इस पर अफसोस व्यक्तकरते हुए मई १९६३ की `लहर' के सम्पाद-कीय में सम्पादक ने लिखा -`१५ वर्ष के अन्तराल में भी यदि राष्ट्रीय सरकारअहिन्दी भाषी क्षेत्रों में राष्ट्रभाषा का यथेष्टप्रचार प्रसार नही कर सकी है तो निश्चितरूप से लज्जा की बात है .' चारो ओर सेनिराश होकर उन्होने इसी सम्पादकीय मेंहिन्दी भाषी जनता से अपील करते हुएलिखा वे अपने स्वर को संगठित करेओर लोकसभा मैं बैठे हुए हिन्दी के प्रति-निधियो को दायित्व बोध के लिए प्रेरितकरे. वे यदि कुछ भी करने में अपने आपकोअसमर्थ पाते हों , तो कुर्सियों का मोह त्यागेऔर राष्ट्रभाषा के लिए अपने आपको उत्सर्ग कर दें . अंग्रजी के समर्थन व हिन्दी केविरोध को लेकर अहिन्दी भाषी प्रान्तों मेअनेक झगडे हुए . इन भाषायी झगडों केपीछे शुरू से ही राजनैतिक पार्टियों वनेताओ का हाथ रहा है . जो लोग अंग्रेजीकी पूंछ पकडे हुए थे उन्हे वस्तुस्थिति सेअवगत कराते हुए मार्च ६५' की `लहर' के`क्षण जो इतिहस बनाते हे मे सम्पादक नेलिखा है - भारत जैसा राष्ट्र जिसकीअपनी विशिषट सभ्यता और संस्क्रति रहीहै जिसके पास अपनी सम़्अद्ध तेरह भाषाएंहै सम्पर्क के निमित्त अपनी ही कोई भाषान अपवा सके ओर एक विदेशी भाषा कीदासता के कलंक को ओढ़े रहे इससे अधिकलज्जाजनक स्थति क्या हो सकती हैं . `लहर' ने अपने समय के साहित्यिक विवादो और आन्दोलन के अतिरिक्त देशसे घटित घटनाओ पर भी सम्पादकीय टिप्पणी के माध्यम से जनता का ध्यानखीसा . १९६२ में चीन से तथा १९६५ मेपाकिस्तान से भारत का युद्ध हुआ . इसयुद्ध से पहते जातिवाद सान्प्रादायिकताप्रातायता भाषायी संकिर्णता ने देश कीअखंडता को खंडन के रास्ते पर लाकर खडाकर दिया था . यधपि युद्ध किसी भी राष्ट्र के लिए निन्दनीय धर्म हे लेकिन बिखरने के कगार पर पहुंच इस राष्ट्र की भारतीयताजनता के युद्धो ने एक सूत्र मे बाध दिया .सभी संकीर्ण भावनाओ के छोडकर भारतीय जनता के सभी समुदायो ने कदम से कदम मिलाकर व एक जुट होकर विदेशी शकितयोका मुकाबला किया . ऐसी परिस्थितियो मे युद्धो की सकारात्मक भूमिका को स्पष्ट करते हुए जनवरी ६६'के युद्ध विशेषांक केसम्पादकीय में लिखा पहली बार अहसास हुआ कि हमारा राष्ट्र खंड-खडं टुकडो में बटां हुआ नही है वरन एक राष्ट्र है .''इसी सम्पादकीय में सभी वगों ओर जनसमुदायों से अपील करते हुए सम्पादक नेलिखा है - `आवश्यक यही है कि हम अपनीअपनी स्वार्थो की कैचुलियो के बाहर निकल संम्पुर्ण आष्ट्र के व्यक्तित्व की दिशा मेंसोचें .' (ंआआ ंआआथाढ्)><ःऔश्ःईआष् फूष्><१०४-१०८><२०२०><शीण्घ्ः श्., छ्ष्><घीषीश्ः णाठ्ः झ्ःआ> हीनयान में, लौकिक व्यवहार में वास्तविक स्वीकार किये जाने वालेघट, पटआदि पदार्थों की सत्ता को केवल शब्द जन्य भ्रांति मानकर `द्वादशआयतनों' कोसत्य स्वीकार किया गया था. ये आयतन द्विविध हैं- चक्षुरिद्रियादिछ:अध्यात्मिक या आंतरिक तथा रुपादि छ: बाह्य. चित्त अथवा विज्ञान काप्रवाह इनआयतनों पर आश्रित है. इस प्रकार पंच स्कंध, द्वादश आयतन और अष्टादशधातुके आधार पर पुद्गल नैरात्म्यों की स्थापना की गयी है. महायान में आगेचलकर विज्ञाप्तिमात्रता के सिद्धांत में पुद्गल नैरात्म्य धर्मका स्थानग्रहण कर लेता है जिसमें विज्ञान को अंतिम सत्ता स्वीकार करते हुएबाह्यपदार्थों के अस्तित्व को स्वप्नादि के द़्अष्टांतों के द्वारा भ्रांतिपूर्णप्रतिपादित कियागया है. यहां लक्ष्य किया जा सकता है कि यह नैरात्म्य ग्राह्य-ग्राहकादिपरिकल्पितस्वभाव का है, उनके अनिर्वचनीय स्वभाव का नहीं जो कि बुद्ध ज्ञानका विषय है.विज्ञप्तिमात्रता से नैरात्म्य में प्रवेश होता है, स्वयं विज्ञप्तिमात्रताका अभावनहीं होता. जैसाकि वसुबंधु ने उल्लेख किया है. अज्ञानियों द्वाराधर्मों के स्वभावकी जो कल्पना ग्राह्य-ग्राहक रुप में की गयी है, उस कल्पित रुप मेंउनका नैरात्म्य है, न कि अनिर्वचनीय रुप में जो बुद्धों का विषय है. इस प्रकार विज्ञप्तिमात्रकोभी अन्य विज्ञप्ति के द्वारा परिकल्पित रुप में असत् समझने से, विज्ञप्तिमात्रकीव्यवस्था होने से अर्थात् ग्राह्य-ग्राहक भाव रहित विज्ञप्तिमात्रतामें प्रवेश करनेसे, सभी धर्मों के नैरात्म्य ज्ञान में प्रवेश होता है न कि उनके अस्तित्वको ही नमानने से. अन्यथा विज्ञान का अन्य विज्ञान विषय हो जाये तो पुन: विज्ञप्तिमात्रताकी सिद्धि कैसे होगी, क्योंकि उससे तो विज्ञप्तियां, अर्थवालीअर्थात् विषयवालीसिद्ध हो जायेंगी. ४५ बाह्य पदार्थों को असत सिद्ध करने के लिए वसुबंधु ने परमाणुवाद काभी अपने ग्रंथ विशतिका में खंडन किया है. विषय न अवयवी के रुप में एक है,नपरमाणुओं के रुप में अनेक है. वह परमाणुओं का समूह भी नहीं हो सकता है,क्योंकि परमाणुओं की तो सिद्धि ही नहीं होती है.४६ रुपादि आयतन जोरुपादिविज्ञाप्तियों में से प्रत्येक का विषय होता है, वह या तो एक हो सकताहै, जैसाकिवैशेषिक मत वाले अवयवी के रुप में मानते हैं, या वैभाषिकों के अनुसारपरमाणुओंके रुप में अनेक हो सकता है अथवा सौत्रांतिकों के मतानुकूल उन परमाणुओंकासमूह रुप हो सकता है. इसके विपक्ष में वसुबंधु का मत है कि एक अवयवीविषय नहीं हो सकता है, क्योंकि अवयवों से भिन्न अवयवी का कहीं ग्रहणनहींहोता है. परमाणुओं के रुप में अनेक भी नहीं हो सकता है, परमाणुओं कीप़्अथक्-प़्अथक् एक-एक परमाणु के रुप में उपलब्धि नहीं होती है. न वे समुदाय रुप मेंहीविषय बनते हैं, क्योंकि परमाणु की ही एक द्रव्य के रुप में सिद्धिनहीं होती है.४७परमाणुओं को असिद्ध प्रमाणित करने के लिए वसुबंधु ने अपनी एक कारिकामें बताया है कि एक साथ छ: परमाणुओं का योग होने से परमाणु के छ: अंशसिद्ध होते हैं और छ: परमाणुओं का यदि एक ही स्थान माना जाये तो वहपिंड अणुमात्र सिद्ध होगा. ४८ यहां जो एक परमाणु का स्थान है, वही हीछ: परमाणुओं का स्थान माना जाये, तो समस्त पिंड ही परमाणु मात्र बन जायेगा,क्योंकि एक-दूसरे से पार्थक्य नहीं रहेगा, अत: कोई भी पिंड द़्अश्यनहीं होगा.निरवयव होने के कारण परमाणुओं का योग ही नहीं हो सकता. इस प्रकारवैभाषिकों के परमाणु समुदायभूत के विरोध में वसुबंधु ने बताया थाकि निरवयवहोने से परमाणुओं का संयोग सिद्ध नहीं होता है.४९ यदि ऐसा कहा जायेकिपरमाणुओं के समुदाय भी परस्पर संयुक्त नहीं हो सकते तो निरवयव होनेसेपरमाणुओं का संयोग सिद्ध नहीं होता है, यह नहीं कहना चाहिए, क्योंकिसावयवपरमाणु समुदाय में भी संयोग की प्राप्ति नहीं होती है. अत: परमाणुएक द्रव्य है, सिद्ध नहीं होता.५० इस प्रकार बाह्य पदार्थों को परमाणु द्वारा निर्मित मानकर वसुबंधुनेपरमाणुओं के अस्तित्व को असिद्ध प्रतिपादित करते हुए उनको तर्कद्वारा दुरुपादसिद्ध किया है. किंतु ऐसा कहा जा सकता है कि परमाणु-खंडन से विज्ञानकेआलंबन रुप आदि का खंडन युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि परमाणुओं केउल्लेख केबिना ही रुपादि का लक्षण किया जा सकता है. चक्षु के विषय नीलादि धर्मोंकीही रुप कहते हैं और यही उसका यथार्थ लक्षण है. इसी प्रकार रस आदि अन्यबाह्य आयतनों के लक्षण कल्पनीय हैं. इन लक्षणों के लिए परमाणु कल्पना अनावश्यकहै. बाह्य पदार्थों के दिक्-सन्निवेश विवरण के लिए ही परमाणु परिकल्पितहैं,उनके स्वरुप-निर्देश के लिए नहीं. इसके उत्तर में वसुबंधु का कथनहै- (नीलादि)के एक (द्रव्य) मानने से क्रम से गमन नहीं हो सकता. एक ही साथ (पदार्थोंकेकिसी अंश का) ग्रहण तथा (किसी अंश) का अग्रहण नहीं हो सकता. न तो विच्छेदसे युक्त अनेक पदार्थों का अस्तित्व ही हो सकता है, न सूक्ष्म पदार्थोंके अदर्शन की ही प्राप्ति हो सकती है.५१ नील, पीत आदि द़्अश्यमान विषय एक द्रव्य हैं या अनेक. यदि विच्छेद औरअनेकता से रहित चक्षु के विषय को एक द्रव्य माना जाता है, तो प़्अथ्वीमें क्रम सेगमन नहीं हो सकता है. एक ही बार प़्अथवी पर पैर रखने से समस्त प़्अथ्वी परगमनहो जाये. साथ ही अग्रभाग का ग्रहण तथा परभाग अग्रहण नहीं हो सकेगा,क्योंकिएक ही पदार्थ एक ही समय में ग्रहण तथा अग्रहण युक्त नहीं. विच्छेदयुक्तअनेकहाथी-घोड़े आदि का एक स्थान पर अस्तित्व प्राप्त नहीं हो सकता है,क्योंकि जहांपर एक है वहां पर दूसरों को भी स्थित मानने पर दोनों में पार्थक्य कैसेमाना जासकता है ? वह वस्तु एक कैसे हो सकती है, जो दोनों से प्राप्त तथा अप्राप्तहैक्योंकि उन दोनो के बीच में उन दोनों से शून्य प़्अथ्वी ग्रहण होता है.स्थूलपदार्थों के समान रुप वाले सूक्ष्म जलतंतुओं का अदर्शन नहीं होगा.यदि लक्षण के भेद से द्रव्यंतरता होती है, अन्यथा नहीं, ऐसा मानें, तो परमाणुश:भेद अवश्यमानना पड़ेगा. पर वह परमाणु एक नहीं सिद्ध होता है. उसकी सिद्धि न होनेपर रुपादि का चक्षु आदि का विषयत्व भी असिद्ध है. अत: विज्ञप्तिमात्रका हीअस्तित्व सिद्ध होता है. वसुबंधु ने प्रत्यक्ष प्रमाण के संदर्भ में भी विज्ञप्ति को पारमार्थिकप्रमाणित करने का प्रयत्न किया है. प्राय: लोकजीवन में प्रत्यक्ष के आधार परकिसी बाह्य पदार्थ के अस्तित्व को मान लिया जाता है, प्रत्यक्ष की स्थिति मेंबाह्य पदार्थों कानिषेध नहीं किया जा सकता परंतु आचार्य वसुबंधु ने स्वप्नादि के द़्अष्टांतोंद्वारा इसका खंडन करते हुए बताया है५ - `स्वप्नादि में विषय के बिना ही विषय-ज्ञानअर्थात् प्रत्यक्ष बुद्धि होती है. जब प्रत्यक्ष बुद्धि होती हैकि मुझे इस पदार्थ काप्रत्यक्ष हो रहा है' उस समय वह पदार्थ द़्अश्यमान नहीं रहता है, क्योंकिउस समयचक्षुविज्ञान निरुद्ध हो जाता है और मनोविज्ञान से ही उसके प्रत्यक्षत्वका निश्चयकिया जाता है. अत: उस विषय का प्रत्यक्ष कैसे इष्ट है ? विशेष कर क्षणिकविषय के प्रत्यक्ष बुद्धि के समय तो वे रुप रसादि निरुद्ध रहते ही हैं. इसप्रकार स्वप्नतथा भ्रांति में वास्तविक आलंबन के बिना प्रत्यक्ष बुद्धि उत्पन्नहोती है, इसलिएप्रत्यक्ष बुद्धि से आलम्बन की सत्ता सिद्ध नहीं होती. `नीलादि केप्रत्यक्ष में जिससमय' `यह मुझे प्रत्यक्ष है' उस प्रकार की प्रत्यक्ष बुद्धि उत्पन्नहोती है उस समय तक`यह नील है' इस प्रकार का प्रत्यक्ष ही नहीं रहता, क्योंकि मनोविज्ञानके द्वाराप्रत्यक्ष के निश्चय के समय चक्षुविज्ञान निरुद्ध हो जाता है.५३यही नहीं, नीलादिविषय स्वयं क्षणिक हैं. जिस समय उनका प्रत्यक्ष व्यवसित होता है उससमय तकवे ही नष्ट हो जाते हैं. तात्पर्य यह है कि प्रत्यक्ष ज्ञान की उत्पतिमें एकाधिक क्षणका समय लगता है. अत: पदार्थों की क्षणिकता के कारण वह सद्विषयक नहींहो सकता. यहां प्रश्न है कि जिस प्रकार स्वप्न में जो विज्ञप्ति है, वह असत्वस्तु विषयकहै, उसी प्रकार स्वप्न के समान जाग्रत अवस्था के पदार्थ का भी अभावहै, यहमिथ्यात्वलोक प्रसिद्ध होना चाहिए. किन्तु ऐसा नहीं होता है. अत:स्वप्न के समान सभी वस्तुओं की उपलब्धियों को विषय रहित नहीं कहा जा सकता है.इसशंका का समाधान करते हुए आचार्य वसुबंधु का कथन है५४ कि जिस प्रकारस्वप्नमें देखे गये पदार्थों के अभाव का बिना जग हुए मनुष्य नहीं जान पाता,इसी प्रकारमिथ्या विकल्पों के अभ्यास की वासनारुपी निद्रा में सोया हुआ मनुष्यस्वप्न केसमान अवास्तविक वस्तुओं को देखता हुआ, बिना तत्वज्ञानजन्य जाग़तिकोप्राप्त किये उनके अभाव को यथार्थत: नहीं जान पाता. किन्तु जब मिथ्याविकल्प के प्रतिपक्ष निर्विकल्प लोकोत्तर ज्ञान की प्राप्ति से मनुष्यजाग्रत हो जाता है तबउसके अनंतर प्राप्त शुद्ध लौकिक ज्ञान के वास्तविक रुप को समझनेसे विषय के अभाव को यथार्थत: समझ लेता है. वसुबंधु ने त्रिंशिका में विज्ञान के प्रभेदों का वर्णन किया है.`विज्ञान के परिणाम के कितने भेद हैं, यह ज्ञात नहीं है. अत: उसके भेद को दर्शानेके लिएकहा गया है- वह परिणाम तीन प्रकार का होता है'५५ आलय विज्ञान, मन तथाछ: प्रकार के विषय विज्ञान५६ अर्थात् चक्षुर्विज्ञान, श्रोत्रविज्ञान,घ्राण-विज्ञानजिह्वा-विज्ञान, काय-विज्ञान, मनोविज्ञान, क्लिष्ट मनोविज्ञानतथा आलय विज्ञान.इनमें प्रथम सात विज्ञानों को `प्रव़्अत्ति विज्ञान' कहा जाता हैजो आलय विज्ञान सेही उत्पन्न होते हैं तथा उसी में विलीन हो जाते हैं. इस प्रकार विज्ञानवादमें इनआठ विज्ञानों तथा इनसे संबंधित चैतसिक धर्मों को ही वास्तविक बतायागया हैशेष धर्म उपचार आरोपमात्र हैं. यहां उल्लेख किया जा सकता है कि बौद्धोंका वैभाषिक संप्रदाय रुप, चित्त, चैत्त, चित्ताविप्रयुक्त तथाधर्मों कोवास्तविक मानता था. सौत्रांतिकों ने रुप, चित्त और चैत्त स्वीकारकिया था.वसुबंधु ने विंशतिका में रुप-धर्म का सर्वथा निषेध कर दिया. फलत:त्रिंशिका मेंकेवल चित्त-चैत्त धर्मों को ही वास्तविक बताया गया. विज्ञान के तीन परिणामों - विपाक, मनन और विषय विज्ञप्ति में आलय-विज्ञान को विपाक कहा गया है. स्थिरमति का कथन है५७- आलय विज्ञाननामक जो विज्ञान है, वही विपाक परिणाम है. सभी सांक्लेशिक धर्मोंके बीज कास्थान होने के कारण यह आलय कहलाता है. आलय स्थान का पयार्यवाची शब्दहै.अथवा जिसमें सभी धर्म कार्यभाव से उपनिबद्ध होते हैं या जो सभी धर्मोंमें कारणभाव से उपनिबद्ध होता है, उसे आलय कहते हैं. जो जानता है, उसे विज्ञानकहते हैं. सभी धातु गति योनि और जातियों में कुशल एवं अकुशल कर्म का विपाकहोनेके कारण विपाक कहलाता है. सभी धर्मों के बीज का आश्रय होने से सबका बीजकहलाता है. आलय विज्ञान स्पर्श, मनस्कार, वेदना, संज्ञा और चेतनासे सर्वदायुक्त रहता है.५८ आचार्य वसुबंधु ने आलय विज्ञान की व़्अत्ति जल के ओधके समान बतायी है. `जिस प्रकार ओध त़्अणकाष्ठगोमयादि को लेते हुए चलताहै,उसी प्रकार आलय विज्ञान कुशल, अकुशल तथा अनेक प्रकार के कर्मों कीवासनासे अनुगत हो स्पर्श मनस्कारादि को लेते हुए स्त्रोत के समान संसारकी स्थिति पर्यन्त प्रव़्अत्त होता रहता है.५९ आलय विज्ञान की व्याव़्अत्ति अर्हत्वकी अवस्था में होती है.६० उस अवस्था में आलय विज्ञान में स्थित सभी कर्म बीजों कानिरवशेषप्रहाण हो जाने से आलय विज्ञान की व्याव़्अत्ति हो जाती है. आलय विज्ञान के बिना संसार की प्रव़्अत्ति या निव़्अत्ति संभव नहीं हैं.संसारकी प्रव़्अत्ति का अर्थ है- अन्य जन्मांतरीय शरीर में प्रतिसंधि काहोना. निव़्अत्तिका अर्थ है- सोपधिशेष, निरुपधिशेष, निर्वाणधातु. आलय विज्ञान केअतिरिक्त संस्कार से होने वाला अन्य विज्ञान संभव नहीं. संस्कार से होने वालेविज्ञान केअभाव में संसार की प्रव़्अत्ति का भी अभाव है६० आलय विज्ञान के न रहनेसेसंसार की निव़्अत्ति भी युक्त नहीं है. संसार के कारण कर्म और क्लेश हैं.उनमेंक्लेश प्रधान है. क्लेश के आधिपत्य से कर्म पुनर्भवु में ले जाने मेंसमर्थ होता हैअन्यथा नहीं. पुनर्जन्म को लाने में कर्म को समर्थ होने पर भी क्लेशके आधिपत्य से ही पुनर्जन्म होता है, अन्यथा नहीं.६ अत: क्लेश ही संसार की प्रव़्अत्तिमें प्रधानहोने के कारण मूल है. क्लेश बीजों के नाश हुए बिना संसार से निव़्अत्तिनहीं होसकती. जो क्लेशोपक्लेश चित्त ही के परिणाम विशेष से यथाशक्ति वासनाव़्अत्तिका लाभ होने पर प्रव़्अत्त होते हैं, उनके आलय विज्ञान में स्थित बीज,उनके साथहोने वाले क्लेश प्रतिपक्ष मार्ग से नष्ट होते हैं. बीज के नष्ट होनेपर पुन: उसआश्रय से क्लेशों की उत्पत्ति नहीं होती है, अत: सोपधिशेष निर्वाणकी प्राप्ति होती है. उपनिषदों के सम्यक विवेचन के पश्चात हम कहने कि स्थति में है कि आदि आर्यों से नितांत भिन्न नयी भौतिक परिस्थितियों के अंतर्गत पनपरही शासकीय शक्तियों के संरक्षण में उपनिषदों के ऋषि जिस आत्मवादीधारणा की ओर उन्मुख हो रहे थे, उसके विपरीत बौद्धों के प्रारंभिकप्रयत्न अपने प्रतीत्यसमुत्पाद के साथ अनात्म की घोषणा में क्रांतिकारीप्रतीत हों, यह स्वाभाविक था. परंतु इसके साथ ही हम प्रस्तुत अध्ययनमें पायेंगे कि शोषण पर आधारित नवीन आर्थिक संबंधों का दबाव किसप्रकार उन्हें सैद्धांतिक विपरीतता की ओर धकेल पाने में सक्षमहुआ और इस रुप में बौद्ध-परंपरा ने एक ऐसे मायावादी दर्शन के लिएशास्त्रीय भित्ति तैयार करने में सर्वाधिक योगदान दिया है, जोउपनिषदों से लेकर निरंतर ठोस जगत की उपलब्धियों के तिरस्कार मेंवर्ग-विषमता को दार्शनिक न्यायोचितता प्रदान करता रहा है. आज से २५०० वर्ष पूर्व बुद्ध द्वारा प्रतिपादित अनात्मवाद, प्रतीत्य-समुत्पाद आदि पर मोग्गलिपुत्ततिस्स (त़्अतीय शताब्दी ईसवी पूर्व) से लेकरकमल-शील (८५० ई. ) तक नागसेन, अश्वघोष, नागार्जुन, असंग, वसुबंधु,दि नाग, धर्मकीर्ति, शांतरक्षित आदि द्वारा बड़ी गंभीरता सेविचार किया जाता रहा है. बुद्ध का अनात्मा के संबंध में सबसे पहलामहावाक्य पंचवर्णीय साधुओं को संबोधित था, जो `अनत्तलक्खण-सुत्त'के रुप में विनय-पिटक के महावग्ग सें सम्मिलित है. बुद्ध का कथन है१-यह शरीर नित्य आत्मा नहीं है, क्योंकि यह नाशवान है, और न ही भावना,प्रत्यक्ष, मनोव़्अत्ति और बुद्धि सब मिलकर आत्मा का निर्माण कर सकते हैं, क्योंकि यदि ऐसा होता तो यह भी कभी संभव न होता कि चेतनाभी उसी तरह नाश की ओर अग्रसर होती. . . . हमारे रुप, भावना, प्रत्यक्ष,मनो-व़्अत्ति ये सब क्षणिक हैं और इसलिए स्थायी एवं श्रेयस्कर नहींहैं. वह जो क्षणिक है, अश्रेय है और परिवर्तन के अधीन है, नित्य आत्मानहीं हो सकता. इसलिए समस्त भौतिक रुपों के विषय में चाहै वे जैसे भीहों, भूत, वर्तमान और भविष्यत् विषयिनिष्ठ अथवा विषयनिष्ठ, दूरअथवा समीप, ऊँचे या नीचे, यही धारणा रखनी चाहिए कि `यह मेरा नहीं,यह मैं नहीं हूं, यह मेरी नित्य आत्मा नहीं है.' अनात्मा के संदर्भमें प्रस्तुत एक द़्अष्टांत का उल्लेख किया जा सकता है२- यदि कोई व्यक्तिदेश की सबसे सुंदर स्त्री से प्रेम करता हो, परंतु न तो उसके गुणोंसे परिचित हो, न उसके रुप-रंग से, न उसका कद ही जाने कि वह बड़ी है, छोटी है या मझोली है और न उसके नाम-गोत्र से ही भिज्ञ हो, ऐसे पुरुष का आचरणलोक में सर्वथा हास्यास्पद होता है. उसी प्रकार आत्मा के गुण और धर्मको बिना जाने, उसके परलोक में सुख प्राप्ति की कामना से जो व्यक्तियज्ञ-याग करता है, वह भी उसी प्रकार गर्हणीय होता है. महल की स्थितिसे परिचय पाये बिना ही जो व्यक्ति चौरास्ते के ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियॉतैयार करे, भला उससे बढ़कर कोई मूर्ख हो सकता है? सत्ताहीन पदार्थकी प्राप्ति का उद्योग परम मूर्खता का सूचक है. उसी प्रकार असत् आत्माके मंगल के लिए नाना प्रकार के कर्मों का संपादन है. उपनिषदों के नित्यात्माके प्रति बुद्ध का द़्अष्टिकोण है३- `जो यह मेरा आत्मा अनुभवकर्ता,अनुभव का विषय है और जहां-तहां अपने भले-बुरे कर्मों के विषय कोअनुभव करता है; वह मेरा आत्मा नित्य, ध्रुव, शाश्वत एवं अपरिवर्तनशीलहै, अनन्त वर्षों तक रहेगा- हे भिक्षुओं ! यह बिल्कुल बाल-धर्महै.' अन्य अनेक स्थलों पर पारिनिकायों के अनेक सुत्तों में अनात्मवादको बुद्ध का श्रेष्ठ आदेश घोषित करते हुए बताया गया है कि अनात्मको स्वीकार करने पर ही मनुष्य निमित्त और प्रव़्अत्त का यथाभूतज्ञानप्राप्त करता है, उसे सम्यक् दर्शन प्राप्त होता है. अनात्म के कारणउसे सब धर्म ठीक प्रकार दिखायी देने लगते हैं. इस प्रकार बौद्ध धर्मका सत्ता के विषय में तर्क मुख्य रुप से और बराबर ही आत्मा के विचारके विरुद्ध प्रतिपादित किया गया है, जो न केवल निरंतर विनय :मेरे कहने का मतलब है कि मैंने अपने इस काम का सारा जिम्मा नरेन्द्र जी पर छोड़ रखा है. वही करता हूं, जो वह कहते हैं.बिहारी :पर भाई विनय, एक तरफ तो तुम कहते हो कि अगर तुम प्रेम में असफल हुए तो आत्महत्या कर लोगे और दूसरी तरफ तुम्हारा एक-एक कदम नरेन्द्र का बताया हुआ होता है. उस पर इतना विश्वास है तुम्हें ? विनय :हां, हां. जी, साफ सी बात है कि अभी तक जो भी, जितनी भी सफलता मिली है, सब उन्हीं के कारण मिली है, वरना मेरे अपने बस का तो कुछ भी नहीं था. (सोच कर झिझकते हुए) पहले भी दो बार. . . खुद ही. . . हें हें. . . कोशिश की पर. . . नहीं हुआ कुछ. इस बार भी नरेन्द्र जी के लिखवाए एक खत ने बचा लिया वरना तो. . . बिहारी :(मुस्कराते हुए) हां, हां, तो फिर खुश तो हो न अब ? हमें भी तो, भई, बताओ, कुछ. . . यानी नाम, पता. . . अ. . . हां. . . कुछ तो. विनय :नहीं, बिहारी जी ! यह तो नरेन्द्र जी की पहली शिक्षा थी मुझे, कि किसी के सामने कोई जिक्र नहीं करूंगा इस बारे में. (रुक कर) हां, उनकी बात और है वह तो सब जानते हैं.बिहारी :सब. . . मतलब सब कुछ. . . यानी सभी कुछ ? विनय :और नहीं तो क्या ? (समझाते हुए) साहब, अगर मरीज डाक्टर को मर्ज का सारा अता-पता नहीं बताएगा तो डाक्टर इलाज कैसे करेगा ?बिहारी :(हंसते हुए) अच्छा, तो तुम से भी यही कह रखा है उसने. चलो, तुम्हारा तो फिर भी ठीक है पर, (आहिस्ता से) पर हमें जब पूरी बात बतानी पड़ती है तो दस बार सोचना पड़ता है. तुम तो समझते ही होगे ? विनय :नहीं, नहीं, इसमें सोचने की क्या बात है. वह किसी की बात थोड़े ही बताते हैं ? अब. . . हरिराम जी के व्यापार की कौन सी बात छुपी है, पर वह किसी के सामने नहीं बोलते. हम लोगों के सामने भी नहीं.बिहारी :(सिर हिलाते हुए) हां, हां, यह तो है. इसीलिए, मैं भी फिक्र नहीं करता और हमेशा अपने काम के लिए नरेन्द्र के पास ही आता हूं. वरना विद्याधर भी अपने को किसी से कम नहीं मानता. विरोधी तो उसके पक्के ही ग्राहक हैं. (नरेन्द्र प्रवेश करता है) नरेन्द्र :(बिहारी से) अरे बिहारी लाल जी, क्या सुबह-सुबह बुरे नाम मुंह पर ला रहे हैं ? जब तक हम और आप एक-दूसरे के साथ हैं, विरोधी आपसे हारते रहेंगे और विद्याधर मुझ से नीचे रहेगा.बिहारी :सो तो है नरेन्द्र, सो तो है. पर अभी तक चुनाव दूर हैं. तुम्हारे पास आज तो मैं पब्लिक के काम से आया था. नरेन्द्र :पब्लिक यानी जनता, जिसके बनाए आप हैं और हम भी. कहिए तो क्या सेवा है ?बिहारी :भाई, एक नाला है, बाजार के दूसरे छोर पर. उसका पुल पुराना हो गया था. टूटने वाला था. अर्जी डाली थी ऊपर नया बनवाने के लिए. पिछले महीने मंजूर हो गई. दस तारीख को ठेका दे दिया. कल बनना शुरू होगा. . . तो फिर भाषण तो भई,देना ही पड़ेगा. लिख दो. पब्लिक खुश हो जाएगी. नरेन्द्र :(मुस्कराते हुए) हां, हां, पब्लिक का ख्याल तो रखना ही पड़ता है. (बिहारी सिर हिलाकर हामी भरता है.) नरेन्द्र :पहले तो पब्लिक मेरा लिखा भाषण आपके मुंह से सुन कर खुश होगी, फिर ठेकेदार का बनाया पुल देखकर खुश होगी, फिर पुल पर चलकर खुश होगी, यानी कुल मिलाकर बहुत खुश होगी और सारा सेहरा आपके सिर. मुबारक हो.बिहारी :अरे, नहीं, नहीं. तुम्हारे बगैर हम क्या हैं ? तुम्हारा ही कमाल है कि लोग हमारी स्पीच पर इतनी तालियां बजाते हैं. नरेन्द्र :जी, आप मुझे इतना समझते है, यही बहुत है, पर मैं यह कहना चाहता हूं कि इस भाषण से एक पुल का निर्माण शुरु होगा, जिसका ठेका आपने दिया है. . . (रुक कर) और वह ठेका देने में. . . कुछ न कुछ तो. . . तो फिर मेरा भी थोड़ा ख्याल अच्छी तरह रखें तो. . . क्यों ठीक है न ?बिहारी :भई, पहले की बात और थी, नरेन्द्र ! आजकल बहुत सख्ती चल रही है. कुछ नहीं मिलता. यही काफी है कि काम कुछ हो जाता है, जोर डालने से, वरना तो लोग यही कहेंगे न कि कुछ नहीं किया पांच साल में; समझ रहे हो न ? नरेन्द्र :हमेशा तो समझता आया हूं, पर आज कुछ समझ नहीं पा रहा हूं. (हैरान सा चेहरा बनाकर) कोई ठेका दे दिया आपने, बिना किसी शेयर, समझ तो नहीं आता . . . पर हो सकता है. चलिए, मुझे नार्मल रेट ही दे दीजिएगा. (जल्दी से) परसों तक जरूर लिख दूंगा आपका भाषण.बिहारी :(मुंह बनाकर) पर मुहूर्त तो कल है. नरेन्द्र :कल है ? (सोचते हुए) कल तक तो. . . क्या करूं अभी बहुत काम है और बीवी की तबीयत भी ठीक नहीं. उधर भी ध्यान देना पड़ रहा है. (घड़ी देखकर) ओह, एक मिनट. जरा उसे दवा देकर आया. (नरेन्द्र उठकर जाने लगता है.)बिहारी :(उठकर, नरेन्द्र का हाथ पकड़कर) अरे, सुनो तो. दवा दो मिनट बाद दे देना. (विनय की तरफ देखकर धीरे से) देखो, नरेन्द्र, तुम अपना स्पेशल रेट ले लो. कल सुबह तक काम कर देना. ऐसे तो ठीक है न ? नरेन्द्र :पर आपको कोई शेयर तो मिला नहीं इस ठेके में ?बिहारी :(अकड़ कर) तो क्या हुआ ? हम तुम्हें, फिर भी, नहीं मना करेंगे स्पेशल रेट के लिए. तुम्हारा हक बनता है, मौका देखते हुए. अब कल तक कर देना काम. नरेन्द्र :वह तो मैं वैसे भी कर ही देता, चाहे मुझे सारी रात जागना पड़ता. आपका काम तो वैसे भी मैं प्राइरटी पर करता हूं.बिहारी :भई, अब जिस पर मर्जी करना, पर कर देना सुबह तक, जरूर. सुबह दस बजे आ जाऊंगा अभ्यास करने, और पैसे भी ले आऊंगा (सोच कर) अब चलता हूं. (बिहारी उठकर बाहर जाने लगता है. नरेन्द्र भी खड़ा हो जाता है.) नरेन्द्र :(साथ चलते हुए) चलिए, आपको बाहर तक छोड़ दूं ! वैसे. . . और कोई सेवा हो मेरे लायक. . . (दोनों बाहर चले जाते हैं.) विनय :(स्वगत) चले गए बिहारी लाल. अब करता हूं अपनी बात. (नरेन्द्र प्रवेश करता है) नरेन्द्र :(बैठते हुए) और सुनाओ भाई आशिक, कैसे हो ? विनय :(दुखी स्वर में) जी, ठीक हूं. नरेन्द्र :ठीक हो, तो ऐसे बुझे-बुझे से क्यों हो ? विनय :सिर से पांव तक आग लगी हुई है और आपको मैं बुझा-बुझा नजर आ रहा हूं. नरेन्द्र :कब से लगी है यह आग ? विनय :(सिर झुकाकर) दो दिन से. (सिर उठाकर नरेन्द्र की ओर देखकर) पांच चक्कर लगा चुका हूं आपके घर के और आप है कि अब मिले हैं. नरेन्द्र :(सिर हिलाकर) `हूं, दो दिन से आग लगी हुई है. फिर तो मेरा अंदाजा ठीक ही है. मान जाओ, अब बुझे ही हो. दो दिन में राख हो चुके हो पूरे. क्यों ? विनय :जी, मानता हूं आपकी बात, और कब नहीं मानी आपकी ? पर अभी तो मेरी समस्या सुलझाइए. नरेन्द्र :सुलझा देते हैं. बताओ, क्या कष्ट है तुम्हें ? विनय :जी एक लड़का है, गुंडा किस्म का. घर से निकलना मुश्किल कर दिया है उसने वीणा का. पीछा करता है उसका. हां, कहता कुछ नहीं उसे. परसों मुझे भी धमका गया कि मैं कभी वीणा के साथ न नजर आऊं वरना. . . नरेन्द्र :(विनय की बात काटते हुए) वरना वह तुम्हारी टांगें तोड़ देगा. यही न ? विनय :(चकित होकर) जी. . . जी, पर आपको कैसे पता ? नरेन्द्र :एक्सपीरिएन्स, तर्जुबा. और क्या ? (गर्व से) भई, हम भी गुजर चुके हैं इस स्थिति से. विनय :तो क्या आप भी प्यार के चक्कर मे पड़ चुके हैं ? तैर चुके हैं इस समुद्र में ? नरेन्द्र :(हंसते हुए) हां भई, तैर चुके हैं और आखिर डूब भी गए. विनय :यानी असफलता ? नरेन्द्र :असफलता या सफलता, जो मर्जी कह लो. शादी हो गई उसी लड़की से. . . तुम्हारी भाभी से. पर पापड़ बहुत बेलने पड़े इसके लिए. उस सबके सामने तुम्हारी यह समस्या तो कुछ भी नहीं. अभी सुलझी समझो. विनय :(खुश होकर) अच्छा. तो फिर बताइये क्या करूं मैं ? नरेन्द्र :वह लड़का तुम्हारी टांगें तोड़ने की धमकी देता है न ? विनय :(सिर हिलाकर) जी. नरेन्द्र :अब दो रास्ते हैं. एक आसान है, पर उसका कोई लाभ नहीं. दूसरा कठिन है, परन्तु वह तुम्हें प्रेम की मंजिल तक ले जाएगा. कहो, कौन सा बताऊं ? विनय :जो आप ठीक समझें. नरेन्द्र :भई, हम तो सिर्फ रास्ता दिखा सकते हैं. चलना तो तुम्हें ही है. दोनों सुन लो. (विनय ध्यान से सुनता है.) नरेन्द्र :(रुक कर) हां, पहला रास्ता तो यह है कि मैं बिहारी जी के कुछ आदमियों को भिजवा कर उस लड़के को पिटवा देता हूं. उसकी ऐसी दुर्गत हो जाएगी कि दुबारा कभी तुम्हारे सामने नहीं आएगा. विनय :(उचक कर) हां, हां, यही ठीक रहेगा. करवा दीजिए ऐसा. मैं आपको कल ही रुपये ला दूंगा. नरेन्द्र :(सिर हिलाते हुए) यहीं तो अपना बचपना दिखा जाते हो तुम. यह रास्ता आसान है पर इसमे कोई फायदा नहीं बल्कि घाटा भी हो सकता है. विनय :वह कैसे ? बस वह लड़का पिट जाएगा और मेरा रास्ता छोड़ देगा. और क्या चाहिए ? नरेन्द्र :देखो, तुम यह सब झमेला वीणा को पाने के लिए कर रहे हो न ? अब अगर वीणा को पता चल गया कि तुम ने उस लड़के को पिटवा दिया, तो हो सकता है वीणा को उससे सहानुभूति हो जाए और तुम वीणा की नजरों में गिर जाओ. भई, ये लड़कियां ऐसी ही होती हैं. विनय :नहीं, नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए. आप दूसरा रास्ता ही बताइये. नरेन्द्र :हां, तो दूसरा रास्ता यह है कि तुम धमकियों कि परवाह किए बगैर वीणा से मिलते रहो. इससे क्या होगा कि. . . विनय :(घबरा कर) वह मेरी टांगें तोड़ देगा. क्या बात कर रहे हैं आप ? नरेन्द्र :यही तो होना चाहिए. देखो, वह लड़का तुम्हें पीटेगा और वीणा को पता चलेगा तो उसके दिल में उस लड़के के लिए नफरत भर जाएगी और तुम्हारे लिए प्यार ही प्यार. क्या तुम नहीं चाहते ऐसा हो ? विनय :(झिझकते हुए) जी, चाहता तो हूं. . . पर मार खाना ? . . . कोई और रास्ता नहीं है क्या ? नरेन्द्र :भई, मेरी नजर में तो यही सबसे बढ़िया रास्ता है. मेरा तजुर्बा यही कहता है. (सोचकर) जानते हो, एक बार मुझे चोट लग गई थी, साइकिल से गिरकर. तुम्हारी भाभी मुझे देखकर रो पड़ी थी और तभी से हमारा प्यार इतनी बढ़ा कि बस. . . और तुम तो पिटोगे, वह भी वीणा की खातिर. हां, बाद में उस लड़के को भी पिटवा देंगे. बदला हो जाएगा और हीरोइन मिल जाएगी हीरो को, यानी तुम्हें. विनय :(निश्वास छोड़ते हुए) ठीक है, नरेन्द्र जी. आपके कहने पर चल ही रहा हूं तो यह भी करके देख लेता हूं. आगे जो होगा देखा जाएगा. नरेन्द्र :अरे, होगा क्या ? वही होगा, जो मैं कह रहा हूं. हरि- राम भी अपना ही आदमी है. उसे तो मैं मना ही लूंगा. तुम बस एक बार अच्छी तरह वीणा के दिल में जगह बना लो. विनय :ठीक है, पिट जाता हूं आपके कहने पर. बस, आप हरिराम जी को जरा. . . (दरवाजे पर दस्तक की आवाज) नरेन्द्र :कौन है ? हरिराम :मैं हूं भाई, हरिराम. आइडिया मास्टर जी, दरवाजा तो खोलो. (नरेन्द्र उठकर दरवाजे की ओर बढ़ता है) विनय :(घबरा कर) अच्छा, नरेन्द्र जी. . . मैं चलता हूं. आपने जो कहा है, वही कर लेता हूं. नमस्ते. (नरेन्द्र मुस्कराता है, फिर दरवाजा खोलता है. विनय तेजी से बाहर निकल जाता हैं और हरिराम उसे घूरते हुए अन्दर आता है.) नरेन्द्र :आइये, हरिराम जी. कैसे आना हुआ ?हरिराम :जी, वैसे ही जैसे हमेशा होता है. पर एक बात बताइये. आप इस लड़के को क्यों मुंह लगाते है ? इसका चाल-चलन ठीक नहीं है. मैं नहीं, सारा शहर जानता है. भगवान बचाए ऐसे लड़कों से. नरेन्द्र :हरिराम जी, कयों बुरा कहते हैं उस बेचारे को ? सीधा लड़का है.हरिराम :(तुनक कर) काहे सीधा जी ? कोई लड़की है शहर में जिस पर बुरी नजर न डाली हो इसने ? कई बार बचा है, पिटते-पिटते. नरेन्द्र :(स्वगत) अब नहीं बचेगा, (हरिराम से) जी, यह तो जोश है जवानी का. वैसे लड़का अच्छा है.हरिराम :ठीक है जी, होगा आपकी नजर में अच्छा. हम तो नहीं मानते. नरेन्द्र :(मुस्कराते हुए) मत मानिए, बल्कि गोली मारिए, मैं कहता हूं. आप सेवा बताइये मेरे लायक.हरिराम :(गहरी सांस लेकर) आपके ही लायक है जी. हमारे बस की होती तो आते ही क्यों आपके पास ? स्त्री भेषी पुरूष : (दर्शको की ओर हाथ जोड़ते हुए) नही, नही, भाइयो और बहनो ! हमारे भी बाल-बच्चे है . हम किसी तरह आपके सामने नाच-गाकर अपना पेट भरते है . हमने दुनिया को सुधारने का ठेका नही लिया है . सुधार का काम नेता जाने . आपके गांव के मुखिया जाने . हम आपके सामने वही खेल करेंगे जो आप चाहते रहे है या अब तक आप जिसे देखते और सोचते रहे है . हम आपकी रूचि बिगाड़ना नही चाहते . एक बार बोलो, दर्शक भगवान की. . . . . सुत्रधार : क्या बकते हो, मोहन ? यह तुम क्यो नही सोचते कि हम खाली नाटक मंडली ही नही है ? स्त्री भेषी पुओ १: तब क्या है- औरत-मरद ?सुत्रधार : तुम्हारा दिमाग खराब है ? हमने रात क्या तय किया था ? हमने तय नही किया था कि हम आज से अपने-आपको बदलेगे ? स्त्री भेषी पुओ १: (व्यंग्य से हँसते हुए) हूं. . . ! ये सामने बैठेहुए दर्शक जब तक नही बदलते तब तक हम अपने को बदलकर क्या करेंगे ? स्त्री भेषी पुओ २: तनिक हिम्मत से काम ले मोहना ! अपनी मंडली के नेता की बात तो सुन ? स्त्री भेषी पुओ १: तू चुप रह रे सोहन के बच्चे ? मेरी बहस तुमसे नही, अपने नेता देवदास से है . तेरी जिन्दगी तो बस लौंडागिरी करते-करते ही बीत जाएगी . ये सामने बैठे लोग हमारा साथ दे तो हम कुछ भी करने के लिए तैयार है .सुत्रधार : तुम सब तैयार हो .स्त्री भेषी पुओ १: सुन लो देवदास ! तुम देश के नेता हो सकते हो, हमारे नेता कभी नही हो सकते .सूत्रधार : देश से तुम्हारा क्या मतलब है ?स्त्री भेषी पुओ२ : देश का मतलब नदी, पहाड़, जंगल, मिट्टी, कब्रिस्तान, श्मशान, इतिहास का मैदान, मन्दिर, मस्जिद और क्या ? हम तो आदमी है, जनता है . तुम न आदमी को देश मानते हो, न तुम हमारे नेता हो . तुम हमारी छुट्टी कर दो . हमारे पास कला है तो कही भी पेट भर लेंगे . क्यो रे, मोहन ?-सूत्रधार : मै तुमसे बाते नही कर रहा रे, सोहन ? मंडली मे विद्रोह डालकर तोड़ने की कोशिश मत करो . हम अपना पेट पालने के साथ-साथ लोगो के सामने उनका सच्चा नक्शा भी तो पेश करते है ! तू बता रे मोहन ! आखिर तू कहना क्या चाहता है ?स्त्री भेषी पुओ १: मै कहना यह चाहता हूं देवदास, कि हम अपना पुराना नाटक यहां भी शुरू करें .सूत्रधार : जैसे ?स्त्री भेषी पुओ १: जैसे सत्य हरिश्चन्द्र नाटक, लैला-मजनूं . वीररस का चाहते हो तो वीर अभिमन्यु करो, महाराणा प्रताप या वीर शिवाजी करो . महिला-सुधार का ख्याल हो तो सती सावित्री करो . जमाने से तो हम यही सब नाटक करते आए है . हमारे देश की यही गौरवशाली परम्परा है . हमारे देशवासी इतिहास को सूंघ-सूंघकर ही तो इस हालत मे भी जिन्दा है हमारी गौरवशाली परम्परा ने हमे सहिष्णु बनाया है देवदास . इनकी आंखे खोलकर इन्हे उग्र बनाने की कोशिश मत करो .सूत्रधार : आखिर तुम लोग डरते क्यो हो ?स्त्री भेषी पुओ२ : हम जब मंगलाचरण कर रहे थे, भगवान और दर्शको की आरती उतार रहे थे तब वो सामने से बन्दूक दिखलाकर चले गए है .सूत्रधार : तो इसका मतलब क्या हुआ ? वो शिकारी भी तो हो सकते है . जमीदारी तबियत के होगें . चिड़िया-हिरना का शिकार करने का मिजाज हो आया होगा .स्त्री भेषी पुओ १: नही, नही . उनका मिजाज अब बदल गया है . वो आदमी का शिकार करते है . हमने नाटक बदलकर खेलना शुरू किया तो वो हमारा ही शिकार खेलेगे . उन्हे जंगल की ओर जाने की कोई जरूरत नही पड़ेगी . वो सत्य हरिश्चंद्र नाटक या लैला-मजनूं से ही हम पर खुश रहेगे और अपनी बन्दूक हमारी ओर से या इन दर्शको की ओर से हटाकर जंगल की ओर घुमाए रखेगे . एक बार बोलो, शंकर भगवान की. . . . . . प्रार्थना करने वाले : जय . (सूत्रधार मंच पर बेचैनी और घबड़ाहट का नाटक करता है . ) (इसी बीच नटी मंच पर प्रवेष करती है . )नटी : अपने दर्शको को इस चम्पाबाई का नमस्कार . (पीछे की ओर मुड़ती हुई) क्या बात है ! तुम लोग इस तरह खामोश क्यो हो ? आज की रात हम अपने दर्शको के सामने नया नाटक पेश करने जा रहे है . अपने साथ-साथ दर्शको को क्यो बोर कर रहे हो ? दर्शको ही तो हमारी आत्मा है . वाणी और चेतना है . (मंगलाचरण करने वालो की ओर आंखे टिकाते हुए) अरे तुम भी जड़ बुद्धि क्यो बने हो ? मुंह मे जबान नही है क्या ?सूत्रधार : (रूआंसी आवाज मे) हम जो नाटक खेलना चाहते है उसे नही कर सकते, चम्पाबाई .नटी : क्यो ? (दर्शको से) देखा न आपने ? तुम क्यो दोष दे रहे हो ?सूत्रधार : ये लैला-मजनूं या सत्य हरिश्चंद्र नाटक चाहते है .नटी : तुम्हे कैसे मालूम ?सूत्रधार : मोहन-सोहन से पूछती क्यो नही हो ?नटी : क्यो रे मोहन, बात क्या है ?स्त्री भेषी पुओ१ : सुन ले चम्पाबाई . हमे तो बहुत डर लगता है .नटी : काहे को डर रे मोहना ?(प़्अष्ठभूमि से अचानक अट्टहास होता है .सभी प्रार्थी कांपने लगते है . मगर नटी अपनीजगह पर ही भौंचक खड़ी रह जाती है .)स्त्री भेषी पुओ २: कुछ समझ मे आया चम्पाबाई ?नटी : (भौचक केवल आंखे फाड़े देखती रह जाती है .)सूत्रधार : मै तो कहता हूं हम अपने दर्शको से क्षमा मांग ले .नटी (मध्यम स्वर मे) इसके बाद ?सूत्रधार : इसके बाद हम इस गांव से लौट चले .नटी : हम जिसे परम्परा कहते है वह इतना भयावह है न, देवदास .सूत्रधार : बड़ा भयावह चम्पाबाई .नटी : सोच देवदास, कि हमने अपने दर्शको के सामने कसमे खायी थी कि हम परम्परा को तोड़गे, अपना नया नाटक करेंगे . इनसे पूछते क्यो नही, ये तमाम लोग हमारे साथ है . हमारी तरह वे भी परिवर्तन चाहते है, इस कांच की दुनियां को तोड़कर बाहर निकलना चाहते है . तुम झूठ-मूठ अभी तक इस वहम मे हो कि इन्हे लैला-मजनूं या सती तारामती या सभ्रांत और कुलीनो के मानसिक-विलास का नाटक चाहिए .सूत्रधार : मै भी तो मोहन और सोहन को तब से यही समझा रहा था . आओ, हम सभी मिल-जुलकर अपने नये नाटक का मंगलाचरण शुरू करे .(नटी और सूत्रधार भी पंक्तिबद्ध होने कीकोशिशे करते है . तभी प़्अष्ठभूमि से `झपसीसुकुल जिन्दाबाद, `भूमि भी लेगे, जान भी लेगे ',आदि नारे स्पष्ट सुनाई पड़ते है . मंच केरंगकर्मियो के चेहरे पर भय की हल्की-हल्कीरेखाएँ उभर आती है .)नटी : यह कैसा जुलूस है, देवदास ?सूत्रधार : झपसी सुकुल जीत गए है .नटी : झपसी सुकुस क्या जीत गए है ?सुत्रधार : चुनाव .नटी : चुनाव जीतकर आदमी क्या करता है ?सूत्रधार : (खिलखिलाकर हँसते हुए) कैसी भोली है तू भी चम्पाबाई . चुनाव के बारे मे तो अपने यहां का बच्चा-बच्चा जानता है . पांच वर्ष से लेकर सौ वर्ष तक का बूढ़ा भी हमारे यहां वोट देता है . तुम्हे मालूम नही है कि झपसी सुकुल आदमी नही, नेता है . जवार, गांव, शहर कहां नही मालूम ? इनके इशारे के बाहर कोई गया तो गोली मार देते है .नटी : ऐसी बात है .सूत्रधार : तब क्या रे चम्पाबाई . मै झूठ थोड़े बोलता हूं .नटी : लेकिन, सुन देवदास . हम जैसा नाटक यहां खेलने वाले है उसी मिजाज के हमारे आमने-सामने ये तमाम लोग भी तो बैठे है . ये लोग झपसी सुकुल से डरते नही है .सूत्रधार : लगता है, हम जहां नाटक करेंगे, झपसी सुकुल वही भाषण करेंगे .नटी : तब क्या ये हमारे दर्शक भाषण सुनेगे ?(दर्शको के बीच से आवाज होती है-`नही,हम भाषण सुनने के लिए नही आए है . हमेनाटक चाहिए . झपसी सुकुल मुर्दाबाद !')सूत्रधार : मेरे श्रोताओ ! दर्शको ! हम आपको शत-शत नम-स्कार करते है . दर्शक हमारी शक्ति है, चम्पाबाई .(पुन: दर्शको के बीच से आवाज होती है-`बकवास बन्द करो ! हमे नाटक चाहिए .जल्दी नाटक शुरू करो !')नटी : कतार मे हो जा, देवदास . मेरे दर्शको . अब हम अपना नाटक शुरू करते है . मंगलाचरण सुनिए . शुरू कर, मोहन .(सभी पंक्तिबद्ध खड़े होते है तथा सूत्रधारऔर नटी उनके दाये-बाये आ जाते है .)मंगलाचरण गांव रतनपुर की जय-जय हो, बड़े भाग्य है आज हमारो . कोई कहता राजा हरिश्चन्द्र, कोई कहता बिलवा-मंगल कोई कहे वीर शिवाजी, कोई कहे विधवा का क्रन्दनबाबा उपमादास मण्डली हाथ जोड़कर शरण तिहारो .गांव रतनपुर की जय-जय हो, बड़े भाग्य है आज हमारो .गँवई बाबू, गँवई राजा, गँवई रे किसान मजूरहम आपकी शरण मे आए, हमरो जिला समस्तीपुरमिलजुलकर हम करे फैसला, कैसा नाटक भाग्य तिहारो . गांव रतनपुर की जय-जय हो, बड़े भाग्य है, आज हमारो . (बीच-बीच मे `झपसी सुकुल जिन्दाबाद ' केनारे भी दूर से सुनाई पड़ते रहते है . परन्तुरंगकम्रियो का ध्यान उधर बिल्कुल नही है .धीरे-धीरे आवाज निकट आती जाती है .)झपसी सुकुल : (मंच पर प्रवेश करते हुए) बन्द करो यह बकवास ? आज मेरी विजय की खुशी मे यहं इसी मैदान मे सांस्क़तिक कार्यक्रम होगा . गाने-नाचने वाली बनारस से आएँगी . कौन हो तुम लोग ?सूत्रधार : (आगे बढ़ते हुए) बाबा दास नाटक मण्डली सर-कार !झपसी सुकुल : हमारी जमीन पर नाटक नही होगा ?दर्शक : (बीच से ही) तुम्हारा भाषण सुनने के लिए नही झपसी सुकुल, हम यहां नाटक देखने के लिए आए है .झपसी सुकुल : अगर नाटक हुआ तो यहां की झोपड़ियां जलेगी .दर्शक : हम इस गांव की असली जनता है, झपसी सुकुल . हम तुम्हारी हर बुराई से लड़ने के लिए खड़े है .झपसी सुकुल : नाटक-मण्डली वालो . मुझे अच्छी तरह पहचान लो ?सूत्रधार : पहचानता हूं, सरकार .झपसी सुकुल : तब मैं झपसी सुकुल कौन हूं ?सूत्रधार : आप पहले कचहरी मे किरानी भी थे सरकार, और अपने इलाके के जमीदार भी .झपसी सुकुल : इसके बाद ?सूत्रधार : इसके बाद आप बड़े बाबू बन गए, माय-बाप !झपसी सुकुल : इसके बाद नौटंकी वाले ?सूत्रधार : घूसखोर और चापलूस अफसरो की दलाली करते- करते आप एक दिन अचानक चुनाव लड़ गए .झपसी सुकुल : तब क्या हुआ ?नटी : (आगे बढ़ती हुई) चुनाव जीत गए और यहां की बस्तियो मे आग लगाने के लिए आए है . आदमी और शैतान की लड़ाई मे अब आदमी कमजोर नही है, सरकार . आपकी आज्ञा से हम तो यहां से चले जाएंगे . परन्तु इन दर्शको की आत्मा से हमे कैसे निकाल बाहर करेगे . चल रे, देवदास . चल, मोहन- सोहन . हम इनकी जगह मे है तो खाली कर दे .(धीरे-धीरे सभी रंगकर्मी मंच से चले जातेहै . झपसी सुकुल हँसी और क्रोध का भावएक साथ अपने चेहरे पर उतारता है औरकुछ क्षणो के लिए रंगमंच पर अकेला रहजाता है .)(रंगमंच पर गाढ़ा अँधेरा है . एक तरफ कोनेपर हलकी लालिमा फैली है . पीछे से बड़े हीमद्धिम स्वरो मे यह गीत गूंजता रहता है :जाग श् हो श्श्श्. . . . . जाग रे भइया जाग श्. . . . . जाग रे बहिना जाग श्. . . . . जागे हँसुइया जागेजागे खुरपिया जागेजाग हो, जागल जुग से सूतल रतिया जागल. . . . . जाग श् हो श्श्श्. . . . . दूसरी तरफ प्रकाश के गढ़ाने से दो आक़तियां )स्पष्ट हो जाती है . सामने घास का ऊँचागट्ठर पड़ा है . दोनो आक़तियां-एक पुरूष और स्त्री है .) पुरूष : ए. . . . . . . ! स्त्री : क्या ?पुरूष : सबेरा हो रहा है .स्त्री : कहां ?पुरूष : पूरब मे .स्त्री : पूरब मे तो कल भी हुआ था . हमेशा उधर ही होता है . हमारी तो तकदीर ही फट गयी है . धूप जल्दी निकल आती है . पूरी घास भी नही मिल पाती . तुम देख लेना, हम सुबह तक नही बचेंगे .पुरूष : तुम देख लेना मंगली की भौजी, सुबह होगी ही नही .स्त्री : पंडी जी हो क्या, जो भविष्य बोलते हो ? पुरूष : सूरज काला है . देखती नही, अभी भी साफ-साफ अंधेरा है . काला सूरज हमे छिपाने के लिए उगा है .स्त्री : हमारी मंगली भी काले सूरज की गोद मे छिपी होगी न ?पुरूष : (बेचैनी से खड़ा हो जाता है .) चौप्प ! मैने इन्ही आंखो से सात जानवरो को देखा है . उसी समय से तो सूरज काला हो गया है मंगली मरेगी कैसे ? उसने काले सूरज की कसम खायी हैस्त्री : आ, बैठ जा . अब कितनी घास चाहिए . गढ़ने से क्या फायदा है . हम घास बेचने के लिए शहर गये गये और किसान ने हमे पहचान लिया तब ?पुरूष : अरे, मंगली की भौजी . हम इतने कमजोर काहे है रे ?. . . लेकिन हम मजबूत भी बहुत है तभी तो सब कुछ बर्दाशत कर लेते है . हम कमजोर और मजबूत कैसे है रे ?स्त्री : तुम, जानते थे कि आज गनेसीटोला की यही हालत होगी ?पुरूष : मुझे क्या पता ? परमात्मा से क्यो नही पूछती ?स्त्री : जो बात परमात्मा जानता है उसे हम क्यो नही जानते, मंगली के भइया ?पुरूष : मुझे क्या मालूम .स्त्री : लोग कहते है कि उसे सबकुछ मालूम रहता है .पुरूष : यही लोग तो नेता है, थानेदार है, महात्मा है-सब कुछ है . उन्ही की तो हर बात सच्ची होती है .स्त्री : लेकिन, तब भी तो वह सब कुछ जानता होगा .पुरूष : कौन ? (गुस्से मे ताकता है .)स्त्री : परमात्मा, और कौन ?पुरूष : धरती हमारे लिए नही है . हम अग्नि देवता को भैंट चढ़ाने के लिए है .स्त्री : (सिसकने लगती है .) गंगू काका की लखिया, हमारी मंगली-सारी की सारी लड़कियो को उन्होने तंग करते-करते मार डाला है . हम जिन्दा कैसे है ? क्यो है ? (रोती है .)पुरूष : अपने परमात्मा से पूछ ना ?स्त्री : कहां है परमात्मा ? मिल जाय जरा मुझे ? इसी खुरपी से. . . . . पुरूष : गांव याद मत कर ना ?स्त्री : (जोर से चिल्लाती है ) चलो, मंगली के भइया . उठो . हम सभी हँसुआ-खुरपी से मिल-जुलकर उन्हे चीर दे ? काले सूरज की कसम. . . . . (अंधेरा गाढ़ा हो जाता है . चारो तरफगहरा सन्नाटा और चुप्पी है .दोनो विपरीत दिशाओ से एक सम्पादक और दूसरे संवाददाता अंधेरे मे टटोलते हुए मंच परप्रवेश करते है .स्त्री और पुरूष एक-दूसरे के करीब खिसककरछिपने की कोशिश करते है .सम्पादक : (माचिस की तिल्ली से सिगरेट जलाता है .) प़्अष्ठभूमि में दक्खिनी का सर्वांगीण परिचय प्रस्तुत करते हुए हमऊपर लिख आए हैं कि इस भाषा को लोकप्रिय बनाने में एवं इसका प्रचारकरने में मुसलिम धर्म प्रचारको, सन्तों तथा धर्मशास्त्रज्ञोंने विशेष प्रयत्न किया, रुचि ली. दक्खिनी के मूल निवासियों में धर्मप्रचार करना यद्यपि इन लोगों का मुख्य उद्देश्य नहीं था तथापि इनकीयह साध अवश्य थी कि जो मुसलमान अथवा नव मुसलमान `दक्खिन' में जा बसेथे उन्हें धार्मिक द़्अष्टि से केन्द्रीय भावधारा से प़्अथक न होनेदिया जाय. इन प्रचारकों में सबसे पहला नाम ख्वाजा बन्दे नवाज का आताहै. ये ९० वर्ष की आयु में स्वकीय अन्त:प्रेरणा के फलस्वरुप दक्खिनआए थे. उनके पश्चात् विगत छह सौ वर्षो में कई बार सहस्र-सहस्र शिष्योंके साथ मुसलिम सन्त "दक्खिन" में आते रहे और गुलबर्गा, बीजापुर,औरंगाबाद तथा अन्य नगरों में धर्म प्रचार का केन्द्र बना कर अपनाकार्य करते रहे. ये लोग जिस जनता में प्रचार करना चाहते थे, उसके लिएखड़ी बोली ही माध्यम बन सकती थी. फलस्वरूप अपने धार्मिक प्रवचनोंमें खड़ी बोली का प्रयोग इन सन्तों ने किया. इनके प्रवचनों का ढंग यहथा--वे धार्मिक सूत्र तथा तत्परक बातें तो अरबी फारसी में उद्ध़्अतकरते थे एवं उक्त की व्याख्या खड़ी बोली अथवा दक्खिनी में. लगभग डेढ़सौ वर्ष पश्चात् साहित्य के लिए दक्खिनी का प्रयोग प्रारम्भ हुआ.सन्तों और धर्मशास्त्रों के कारण दक्खिनी में दर्शन और धर्मशास्त्रसे सम्बन्धित अनेक अरबी पारिभाषिक शब्द प्रयुक्त होने लगे. जब दक्खिनी अपने मूल रूप में खड़ी बोली का ही एक रूप है तब उसके रूप में इतना अन्तर क्यों प्रतिभाषित होता है ? इसके कारण की खोज करते हुएहम जिस निर्णय पर पहुंचते हैं वह इस प्रकार है-- दक्खिनी पर स्थानीय बोलियों का प्रचुर प्रभाव पड़ा. मुसलसानों काआगमन सर्वप्रथम देवगिरि में हुआ था. उन दिनों देवगिरि महाराष्ट्रकी प्रशासनिक राज-धानी थी तथा उसकी पाश्र्ववर्तिनी प्रतिष्ठान(पैठन) नगरी विद्या की राजधानी थी. मराठी आर्यकुल की भाषा है. खड़ीबोली और मराठी में कई विषयों में साम्य है. मलिक काफूर और मुहम्मदतुगलक के समय जो उत्तर भारतीय परिवार देवगिरि पहुंचे थे, वे मुख्यधारा से दूर पड़ चुके थे. साठ-सत्तर वर्ष के अन्तराल में उन्होंने अपनी भाषाओं की मुख्य धारा से हट कर जो सामान्य बोली अपनायी उसकारूप इसी काल में निर्धारित हुआ. मराठी ने इन दिनों दक्खिनी पर जो प्रभावडाला वह अमिट बना रहा. औरंगजेब के आक्रमण के समय बड़ी संख्या में उत्तरभारत के निवासी दक्खिन में आए. देवगिरि के निकट औरंगाबाद में एक बारफिर दक्खिनी अपनी मूल धारा से परिचित हुई और नये तत्व ग्रहण कर विकासो-न्मुख हुई. दौलताबाद के पश्चात् उत्तरवासी गुलबर्गा पहुंचे. वहां भी दक्खिनीकन्नड़ी के उल्लेखनीय प्रभाव से अप्रभावित रह कर मराठी के प्रभावको सुरक्षित रखते हुए विकसित होती रही. बीजापुर में मुसलिम शासनकी स्थापना होने पर उच्च पदों पर मराठी भाषी नियुक्त किये गये फलत:बहुत समय तक बीजापुर की राजभाषा मराठी बनी रही. परीणाम स्वरूप दक्खिनीपर मराठी का प्रभाव बद्धमूल हो गया. इस समय यद्यपि गोलकुण्डा, बीजापुर,गुलबर्गा आदि दक्खिनी के केन्द्र बने तथापि कन्नड़ या तेलुगु केदस-पांच शब्द ही दक्खिनी में आ पाये. शब्दावली के सम्बन्ध में उपरोक्त नीति का अवलम्बन करते हुए भी दक्खिनीउच्चारण के विषय में क्षेत्रीय भाषाओं के प्रभाव से मुक्त न रह सकी. औरंगाबाद में जहां दक्खिनी पर मराठी प्रभाव द़्अष्टिगत होता है वहींकर्नाटक एवं आन्ध्र में वह क्रमश: कन्नड़ एवं तेलुगु के प्रभाव कादिग्दर्शन कराती है. तेलुगु, मराठी और कन्नड़ का उच्चारण जिस ढंगसे विशेष क्षेत्र के अनुसार परिवर्तित होता है, उसी ढंग से दक्खिनीका उच्चारण भी परिवर्तित होता है. हैदराबाद में दक्खिनी बोलने काजो ढंग है वह सौ मील दूर कर्नूल में नहीं है. इसी प्रकार बीजापुर औरगुल-बर्गा के उच्चारण में बहुत अन्तर है. मराठी के पश्चात् दक्खिनी पर गुजराती का प्रभाव उल्लेखनीय है.ई. में मुगलों के गुजरात पर अधिकार के पश्चात् वहां के अनेक विद्वानऔर कुलीन व्यक्ति बीजापुर चले आए. इन आगन्तुकों में अनेक सूफी सन्तथे. १५ वीं तथा १६ वीं शती में अहमदाबाद सूफियों का विश्व-विख्यात्केन्द्र था. वहां का चिन्तन-सार बीजापुर को और वहां से गोलकुण्ड़ाको अनायास प्राप्त हो गया. गुजरात के इन प्रवासियों के कारण बीजापुरही नही गोलकुण्ड़ा की दक्खिनी में भी गुजराती के अनेक शब्द प्रयुक्तहोने लगे. हम पहले कह आए हैं कि दक्खिनी का मूल स्रोत खड़ी बोली है. खड़ी बोली जहांबोली जाती है उस क्षेत्र के आस-पास मेवाती, हरियाणी, पंजाबी औरव्रज-भाषाएं बोली जाती हैं. खड़ी बोली से निस़्अत होने के कारण इन भाषाओंके प्रभाव दक्खिनी में आज भी यथावत् विद्यमान हैं. खड़ी बोली पर पूरबीबोलियों का प्रभाव बहुत कम है, किन्तु दक्खिनी इस विषय में खड़ी बोलीका अनुसरण नहीं करती. शब्दों के बहुवचन, पूर्वकालिक क्रिया, क्रियाके स्त्रीलिंग रूपों और क्रिया विशेषणों पर राजस्थानी भाषा काप्रभाव स्पष्टत: परिलक्षित होता है. यह उल्ले-खनीय बात है कि राजस्थानीनेपाल तथा हिमालय के अन्य अंचलों में अपनी मुख्य-धारा से हट करजो रूप धारण करती है, उसकी स्वल्प सी झलक दक्खिनी में भी मिलती है.यह झलक अथवा साम्य इस बात की परिचायक है कि जब कोई भाषा अपनी मुख्यधारा से प़्अथक होती है और दो प़्अथक दिशाओं मे प्रयुक्त होती है तो उसकीकुछ विक़तियां दोनों मे समान रहती है. उत्तर में नेपाल तथा उसके सर्वथाविपरीत दक्षिण में गोलकुण्ड़ा की दक्खिनी में राजस्थानी के शब्दरूपोंमें कई स्थलों पर आश्चर्यजनक समानता है. प्रभाव की द़्अष्टि से राजस्थानीके पश्चात् पंजाबी का क्रम आता है परन्तु मीरा याकूब की रचना ``शुमाइ-तुल-अत्किया''हरियाणी को क्रम में वरीयता देने के लिए उकसाती है. दक्खिनी में राजस्थानीऔर ब्रज की भांति आकारान्त विशेषणों और क्रियापदों को ओकारान्तबनाने की प्रव़्अत्ति नहीं है. इस विषय में खड़ी बोली और पंजाबी में समानताहै. पश्चिमी हिन्दी अर्थात् खड़ी बोली से रूप विन्यास ग्रहण करके भी दक्खिनीने पूर्वीय बोलियों से सम्बन्ध बनाये रखा. क्रियापदों के अतिरिक्तअन्य विषयों में दक्खिनी ने पूर्वीय बोलियों के प्रभाव को सुरक्षितरखा है. जहां तक अवधी का प्रश्न है, उसके प्रभाव का प्रमुख कारण यहहै कि १६ वीं शती के पूर्वार्द्ध में अवधी उत्तर भारत की साहित्यिकऔर वैचारिक भाषा थी. इसीलिए मलिक मुहम्मद जायसी प्रभूति सूफी सन्तोंने उसे काव्य के माध्यम के रूप में स्वीकार किया और अवधी में सूफीसन्तों ने अनेक काव्य लिखे. उत्तर भारत से दक्खिन में आने वाले अनेककुलीनव्यक्ति तथा सूफी सन्त अवधी के इस साहित्य से परीचित थे. दक्खिनीमें पद्मावत तथा अन्य अवधी काव्यों के अनुवाद इस प्रभाव को सूचितकरते है. उन दिनों लोकभाषा के नाते अवधी का जो रूप था, उससे भी दक्खिनके कुछ लेखक परिचित थे. अवधी के लोक साहित्य की लोकप्रिय कहानी "चन्दायन"अथवा "चन्दालोरक" की कहानी दक्खिनी में भी लिखी गयी और जनता ने उसकीजी भर कर प्रशंसा की. दक्खिनी पर पूर्वी बोलियों के प्रभाव के कतिपय कारण ये भी हैं-मुसलिमकाल में दिल्ली से हट कर जहां-जहां भी मुसलिम राज्य स्थापित हुए,अवसर आते ही दिल्लीश्वरों ने उनके विरुद्ध शस्त्र उठाए. जब कभी ऐसेस्थलों पर केन्द्रीय सरकार के विरुद्ध प्रान्तीय शासक पराजितहोते थे-वहां के सामन्त, विद्वान और कुलीन लोग दिल्ली की ओर अंतरंगक्षेत्र में न जाकर बहीरंग क्षेत्र में जाना उचित मानते थे. जब गुजरातके मुसलिम शासकों का पतन हुआ तो वहां के कुलीन लोग दिल्ली न जाकर बीजापुरऔर गोलकुण्डा पहुंचे. इसी प्रकार जौनपुर तथा पूर्व के विभिन्न मुसलिमकेन्द्रों के पतन के पश्चात् वहां के सामन्त तथा विद्वान् भाग्य-परीक्षणार्थपहले गुजरात और वहां से बीजापुर-गोलकुण्डा पहुंचे होंगे. पूरब में जौनपुर मुसलमानों का एक प्रमुख केन्द्र था. हिन्दी साहित्यके आदिकालीन महाकवि विद्या-पति भी यहां के वातावरण से प्रभावितहुए थे. दूसरा कारण यह है कि मुसलिम सेना एक स्थान पर नहीं रहती थी. जबकभी उसे पूर्व में रहने का अवसर मिला होगा, उसने वहां की भाषा का प्रभावअवश्य ग्रहण किया होगा. तीसरा और मुख्य कारण यह है कि हिन्दी की निर्गुणधारा के प्राय: सभी सन्त पूर्व के थे और वे वहां की बोली बोलते थे परिणामत:उनकी कविता में पूर्वी बोलियों का प्रभाव स्पष्ट परिल-क्षित होता है. ख्वाजाबन्दे नवाज की रचनाओं के अध्ययन से विदित होता है कि उनकी भाषापर न पूर्वी बोलियों का प्रभाव है और न गुजराती का. सम्भवत: इस प्रभावसाहित्य का कारण उनका लगभग ९० वर्ष दिल्ली में बिताना है. इस निवासकालीनवातावरण के प्रभाव के कारण उन्होंने जो कुछ लिखा है वह उसी भाषा मेंलिखा है, जो उन दिनों दिल्ली में बोली जाती थी. शाह मीरांजी शम्सुलउश्शाक तथा शाहबुरहानुद्दीन जानम का रचनाओं पर मराठी और गुजरातीके अतिरिक्त ब्रजभाषा का भी प्रभाव है. मीरांजी याकूब हरियाणी अथवाहरियाणवी से विशेषत: प्रभावित जान पड़ते हैं. गोलकुण्डा के वजहीराजस्थानी से विशेषत: प्रभावित है. यही स्थिति दूसरे कवि और लेखकोंकी है. किन्तु इन बाह्य प्रभावों के रहते हुए भी एक बात स्पष्ट है किशीघ्र ही दक्खिनी का साहित्यिक परिष्क़त रूप निर्धारित हो गया.थोड़े बहुत अन्तर के साथ बीजापुर और गोलकुण्डा में वही रूप प्रयुक्तहोने लगा. कवियों और लेखकों ने इस परिनिष्ठित रूप का विशेष ध्यानरखा. बोलचाल की दक्खिनी के अनेक रूप मिलते हैं. उसमें तेलुगु, मराठी औरकन्नड़ से सम्बन्धित अनेक उपभाषाओं के शब्द प्रयुक्त होते है. बोलचालकी दक्खिनी की उ त्तरी सीमा के सम्बन्ध में डा. ग्रिअर्सन ने लिखाहै-- ``यद्यपि कोई निश्चित सीमा रेखा नहीं खींची जा सकती, फिर भी सतपुड़ाकी श्ऱंखलाओं और उससे सम्बन्ध पहाड़ियों को परिनिष्ठित हिन्दुस्तानीऔर दक्खिनी की सीमा मान सकते हैं.'' ग्रिअर्सन दक्खिनी की दक्षिणी और पश्चिमी सीमा समुद्र तट तक मानतेहैं. अतएव उन्होंने बम्बई और मद्रास के निवासियों द्वारा व्यवह़्अतदक्खिनी के उद्धरण अपने कथन के समर्थन में प्रस्तुत किये हैं. बोलचाल की दक्खिनी का प्रयोग विन्ध्य से समुद्र तट दो प्रकार के लोगकरते है-- १. ऐसे परिवारों के व्यक्ति जिनकी मात़्अभाषा हिन्दी है और पीढ़ियोंसे दक्खिन में रहते हैं. २. ऐसे व्यक्ति जिनकी मात़्अभाषा तेलुगु, कन्नड़ आदि दक्षिणी भाषाएंहैं. प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में बोलचाल की दक्खिनी पर ध्यान केन्द्रित न कर परिनि-ष्ठित साहित्यिक दक्खिनी को ही अपने विवेचन का आधारबनाया गया है. परिनिष्ठित और साहित्यिक दक्खिनी का क्षेत्र बीजापुर,गुलबर्गा, हैदराबाद तक सीमित है. विशेष कारणों से निश्चित अवधिके लिए इस सीमा का विस्तार औरंगा-बाद तथा कर्नूल तक हुआ है. बोलचालकी दक्खिनी का क्षेत्र अतीव व्यापक होने के कारण उसका अध्ययन न तोसम्भव ही है और न ही हमारे अनुसंधान का विषय, अत: हम इसे छोड़कर आगेबढ़ना श्रेयस्कर समझते हैं.दक्खिनी का नामकरण : आरम्भ में बोलचाल की भाषा मे अमीर खुसरो और शेख फरीदुद्दीम शकरगंजीआदि कलाकारों ने अपनी रचनाएं प्रस्तुत की थीं एवं जिसे आज हम पश्चिमीहिन्दी, खड़ी बोली के नाम से जानते हैं और जिसका साहित्य उत्तर भारतमें लुप्त होकर दक्खिन में १५ वीं, १६ वीं और १७ वीं ई. सदी में फूटनिकला उसका नाम हिन्दवी और हिन्दी था. इसी को दक्खिनी साहित्यकारकभी कभी ``दक्खिनी'' भी कहते थे. ``उर्दू'' नाम का प्रयोग दक्खिनी के कलाकारों ने अपने ग्रंथ में नहीं किया है. भाषा के अर्थ में इस शब्दका प्रथम प्रयोग उत्तर भारत के कवि ``मुसहफी'' ने किया है. मीर ने``निकातुश्शोअरा'' (र. का. १७५२ ई. ) में इसके लिए ``जबान-ए-उर्दू-ए-मअल्ला'' कहा है. यहां इसका अर्थ उर्दू की जबान है और उर्दू का अर्थ बाजार यालश्कर न होकर उच्च निवास स्थान राजकीय प्रासाद (महल) या दुर्ग (किला)है. उर्दू भाषा के उद्गम पर विचार करते समय मुसलमान मनीषी इस भाषा का सम्बन्धमुसलिम आक्रमण या किसी भाग में मुसलिमों की बस्ती से जोड़ देते हैं,और इसी के कारण कभी इसे सिंध की, कभी पंजाब की और कभी ``दक्खिन'' कीमान्य कर देते हैं. इनमें से कतिपय व्यक्ति यह भ्रान्त धारणा भी रखतेहैं कि ``उर्दू'' हिन्दुओं और मुसलमानों के मेलजोल से निकली हुईजबान है. ऐसे विचार रखने वालों में मौ. सुलेमान नदवी का नाम सर्व प्रमुखहै. वे लिखते है-- ``लेकिन हकीकत यह मालूम होती है कि हर मुमताज सूबे की मुकामी बोलीमें मुसलमानों की आमद व रफ्त और मेलजोल से जो-तगैयुरात हुए उन सबकानाम उर्दू रखा गया हैं.'' वास्तव में यह द़्अष्टिकोण संकुचित अथवा एकांगी है. सचाई यह है कि मुसल-मानों की आमद-रफ्त व मेलजोल से भारतीय भाषाओं पर केवल एक असर हुआ कि उनमेंअरबी, फारसी और तुर्की आदि विदेशी भाषाओं के कुछ शब्द न्यूनाधिकअनुपात में आ गये. मुसलिम शासन के केन्द्र दिल्ली के परिपाश्र्वकी भाषा में स्वाभाविक रूप में कुछ अधिक विदेशी शब्दों मे विशेषस्थान प्राप्त किया, विशेषकर बोलचाल की भाषा में यह अनुपात अधिकरहा. गांव के घर. पास में पेड़राजाराम घर की ओर थैला लटकाये चला जा रहा है. घर के पास आकर.राजाराम -पूनम बिटिया बाहर तो आ.पूनम (आकर) -आ गये बापू शहर से. भौजी नहीं आई ?राजाराम -नहीं आई तेरी भौजी. तेरे भैया ने नहीं भेजा उसे.पूनम -क्यों भला ?राजाराम -तुझे ही सब बता दूं ? जा, अपनी अम्मा को भेज दे. (पूनम भीतर जाती है. पत्नी आती है)पत्नी -क्यों जी, अकेले आ गये. बहू को नहीं लाए ?राजाराम -राजू ने नहीं भेजा उसे. कहता है जापा अस्पताल में ही कराऊंगा. गांव के घर में नहीं.पत्नी -गांव में नहीं ? क्यों भला ? गांव में क्या जापा नहीं होता ?राजाराम -होते हैं. राजू का यहीं हुआ था और उसके बाप का भी. पर राजू की अम्मा, नया जमाना है.पत्नी -फिर तुम काहे के लिए गये थे ? जूतियां भर चटकाने ? राजू ने तुम्हारी बात भी नहीं मानी.राजाराम -हां कहने लगा, बापू बुरा मत मानना. मैं तो यहीं अस्पताल में जापा कराऊंगा. गांव में कुछ उल्टा सुल्टा हो गया तो ?पत्नी -उल्टा-सुल्टा. अरे, मेरा बेटा लुगाई के चक्कर के में फंस गया लगता है.राजाराम -लुगाई का कोई चक्कर-वक्कर नहीं. राजू कहने लगा बापू डाक्टरनी का कहना है. पहला जापा है. अच्छी देरवभाल की जरुरत है. बखत पर दवाओं और इंजेक्शन की जरुरत पड़ती रहती है. जापे के समय आपरेशन की जरुरत पड़ सकती है. तब गांव में क्या होगा ?पत्नी -क्या होगा गांव में ? उसने कहा और तुमने मान लिया. अरे तुमने अपने बाप से कुछ कहा था कभी ? मेरे जापे करवाये थे अस्पताल में तुमने ?राजाराम -राजू की अम्मा, अरे भगवान वह जमाना तो दूसरा था. मैं अपने बापू से कहता तो दो झापड़ पड़ते मेरे. बत्तीसी बाहर आ जाती.पत्नी -(सिसकती हुई) तुम झापड़ से डरते रहे और मेरे बच्चे बीमारियों से मरते रहे. (रो पड़ती है) हाय मेरे चांद से बच्चे. मर गये थे उस कलमुंही डोरिया बीमारी से. पर तुम दवाई नहीं झाड़-फूंक करवाते रहे थे (और जोर से रो पड़ती है.)राजाराम -अब चुप भी रह. बूढी हो गई है पर मति. मति क्या करुं, मूर्खो जैसी. बीमारी का नाम डोरिया नहीं, डायरिया है, डायरिया. क्या करुं उस जमाने में झाड़-फूंक ही ज्यादा चलती थी. अब चुप हो जा, मैं अब जरा पंडित रामाधीन के पास जा रहा हूं. (पूनम का प्रवेश)पूनम -अम्मा तू काहे को रो रही है?पत्नी -रो रही हूं अपने कर्मो को. तेरी भौजी अपना जापा अस्पताल में करवायेगी. यहां नहीं आई. आ जाती तो हरीरा बना बना कर पिलाती. गुड़ के लड्डू बंटवाती. बाजे बजवाती. पर मन की मन में रह गई मेरे. (आंसू पोछती है.)पूनम -अम्मा इतनी सी बात पर रो रही हो ?पत्नी -इतनी सी बात ! गांव भर में कह चुकी हूं कि बहू आ रही है. अब कल्लो चाची को क्या जवाब दूंगी?पूनम -कल्लो चाची, वह नीम हकीम रवतरे जान. अम्मा, कहां कल्लो चाची और कहां अस्पताल की डाक्टरनी. अम्मा, अस्पताल में डाक्टरनी जच्चा को जरुरी दवाईया, विटिमिन की गोलियां देती है. पौष्टिक भोजन बनाती है. ग़ह विज्ञान की किताब में मैंने पढ़ा है कि. . . पत्नी -बस बस रहने दे अपना पढ़ाकूपन. अरें यहां जिन्दगी निकल गई बेटे-बेटियां पैदा करते. अस्पताल में घर जैसा सुभीता कहां? न गुड़ रवाने देते है, न हरीरा पीने देते हैं. न पीपर, न सौंठ.पूनम -अम्मा तू तो पढ़ी लिरवी तो है नहीं. डाक्टरनी ऐसी दवाइयां देती है जिनकी जच्चा को जरुरत होती है. लो वह आ रही है. कल्लो की चाची नीम हकीम रवतरे जान. तू चाची से बात कर मैं अन्दर जाती हूं.दाई -(लकड़ी टेकते आ रही है) ओ राजू की घर वाली. बहू आ गई न. बुलाओ तो जरा. अभी पेट देरव कर बताती हूं लड़का होगा या लडकी.पत्नी -चाची आओ, बैठो. बहू तो आई नहीं. रवाली हाथ आ गये वापिस राजू के बाप.दाई -आश्चर्य से--रवाली हाथ. क्या कह रही हो माताजी ससुर लेने जाते और बहू मना कर दे. यह अपशकुन है. ये कलजुग है.पत्नी -चाची, कहते हैं बहू की तबियत ठीक नहीं है, सो अस्पताल में दिरवाना पड़ा है.दाई -तबियत ठीक नहीं. यहां आ जाती तो एक ही काढ़े से तबियत झक्क कर देती. मेरे पास ऐसी दवा है कि पेट वाली की सारी तकलीफें रफू चक्कर हो जाती हैं.पत्ली -वो तो ठीक है. तुम्हारे पास नुस्खों की क्या कमी है? पचासों जापे करवा चुकी हो. चाची ठहरना. मैं कुछ लाती हूं तुम्हारे लिये. (अंदर चली जाती है.)दाई -जे देखो किस्मत का खेल. हमारा तो रोजगार ही चौपट कर डाला दिया इन अस्पताल वालों ने. पचासों जापे करवाये मैंने ! कोई जच्चा मर जावे, पेट में बच्चा फंस जावे तब हम का करें. जे तो भगवान की मरजी है. मौत पर भला किसका बस है ? इस घर से चार रोटी की आस थी, सो यहां भी वो अस्पताल का चक्कर (पत्नी का प्रवेश)पत्नी -लो चाची. ये नाज ले जाओ. अब बहू को लाने मैं शहर शहर जांऊगी. झोंटा पकड़ के लाऊंगी. और जापा तुम्हीं से करवाऊंगी हां,.दाई -जरुर. हम इसी आस में बैठे है. अस्पताल में का घर सी सहूलियत होती है. ठीक से खाने पीने तक नहीं देते ये ससुरे अस्पताल वाले.पत्नी - मैं आज ही राजू के बापू से कहूंगी चाची और कल ही शहर जाऊंगी.दाई -ठीक है. जब हुकुम करोगी हाजिर हो जाऊंगी. चलूं अब. राम-राम. (जाती है.) (राजाराम का प्रवेश)राजाराम -"क्या दाई आई थी ? अभी दरवाजे के बाहर मिली थी. राजू की अम्मा. पंडित रामाधीन भी सलाह दे रहे थे कि बहू की डिलेवरी अस्पताल में ही ठीक है. उस टेम यदि रवून की, आपरेशन की जरुरत पड़ गई तो गांव में मुश्किल हो जायेगी. बिहारी की बहू अभी पिछले महीने डिलेवरी में मर चुकी है न."पत्नी -बिहारी की बहू पर तो पीपल वाले देवता का फेरा था. कितना कहा था एक महीना दिया जलाने को. इतवार, बुधवार प्रसाद चढ़ाने को. पर एक न सुनी बिहारी की बहू ने.राजाराम -तू फिर प्रेत की बातें करने लगी. मुझे तो पंड़ित रामाधीन की सलाह पसंद है. तू बोल. तू क्या चाहती है.पत्नी -क्या चाहती हूं ? मैं चाहती हूं कि घर में ही पहला नाती हो हमारा. हमने भी यहीं पांच बच्चे जने थे. इसी घर में. राजाराम -पर राजू की मां, तुम्हे याद नहीं क्या ? दो बच्चे भी तो हमारे रहे नहीं. साल डेढ़ साल की उम्र में चल बसे. बेचारे.पत्नी -(रोती सी) क्या खिलाते-पिलाते थे तुम मुझे. वही चार सूखी रोटियां और कद्दू का साग. दिन भर चक्की में जुती रहती थी मैं. गोबर की टोकनियां फंकती थी और दस घड़े पानी भरती थी. (रोने लगती है)राजाराम -फिर रोई तू. अरे वह जमाना ही दूसरा था. फिर गरीबी कितनी थी ? चार रोटियां मिल जाती थी, यहीं बहुत था उस जमाने में.पत्नी -इस जमाने में क्या सुख दे रहे? बहू को तो ला नहीं सके और पंडित की सलाह मुझे सुना रहे हो. (रो उठती है)राजाराम -तू फिर रोने लगी. अगर पंडित रामाधीन हमारी भलाई की बातें, हमारे बहू बेटे की सुख की बातें कहते है तो क्या बुरा कहते हैं. उन दो बच्चों को पैदा होने के बाद तू महीनों कई-कई बीमारियों के चक्कर में फंस गई थी. महीनों मैंने आंखों में रातें काटी थीं.पत्नी -(सिसकती हुई) देखो, मुझे बनाओ नहीं. सुनों मैं शहर जाना चाहती हूं. बहू को लाऊंगी. मेरा बड़ा मन है कि बधावा घर में बजे. इस पुरखों के घर मेंराजाराम -तुझसे तो भागवान भी नहीं जीत सकता भागवान. अब रोना धोना बंद कर. कल सुबह चलेंगे शहर. तू कोशिश कर लेना बहू को लाने की.पत्नी -आंसू पोछते हुए. कितने अच्छे हो जी तुम. द़्अश्य दूसराराजाराम और पत्नी राजू के घर की ओर जातेदेखाई देते हैं. राजू के घर के सामने पहुंचकर पत्नी दरवाजा खटखटाती है.)बहू -(दरवाजा खोलकर बाहर आती है) अरे अम्मा आप (पैर पड़ती हैं.) पत्नी -खुश रहो बहू. तबियत कैसी है तेरी ? तो तू तो कितनी कमजोर हो गई है ?बहू -ठीक हूं माताजी. आप अच्छी आ गईपत्नी -तुझे लेने आई हूं, बहू.राजाराम -मैं जरा बाजार जा रहा हूं. तू मन आ ले बहू को. (चला जाता है)पत्नी -बहू, तू तैयारी कर ले. घर पर जापा करवाएंगे.बहू -मैं कैसे चल सकती हूं माताजी ? डाक्टरनी ने मना किया है.पत्नी -डाक्टरनी ने ? डाक्टरनी कौन होती है मना करने वाली. मैं तेरी सास हूं. जो कहती हूं करना पड़ेगा तुझे. हां.बहू -मैं कहां आपके हुक्म के बाहर हूं ? पर डाक्टरनी देरवो वह आ रही है. आप उनसे पूछ लें. मैं जाकर पलंग पर लेटूं. नहीं तो वे नाराज होंगी. (चली जाती है) (डाक्टरनी का प्रवेश)पत्नी -राम राम डाक्टरनी बाई.डाक्टरनी -आप कौन ?पत्नी -मैं हूं आपकी मरीज की सास. इसे गांव ले जाने आई हूं.डाक्टरनी -अच्छा, आप सासू जी हैं. क्या गांव में अस्पताल है ? कोई अच्छा डाक्टर है ?पत्नी -नहीं, पर पुरानी दाई है. पचासों जापे करवा चुकी है वह.डाक्टरनी -पर माताजी तुम्हारी बहू को इस समय एनीमिया है सफेद पानी की बीमारी. इसे अच्छे इलाज और देखभाल की जरुरत है.पत्नी -जे अमोनिया क्या बीमारी है डाक्टरनी बाई ?डाक्टरनी -अमोनिया नहीं एनीमिया. रवून की कमी की बीमारी का इस हालत में पेट के बच्चे पर बुरा असर पड़ता है. गर्भपात भी हो सकता है.पत्नी -गर्भपात, न न डाक्टरनी बाई. पेट गिरना न चाहिए. मुझे नाती चाहिए. सुन्दर और गोल मटोल बच्चा.डाक्टरनी -तो फिर आप बहू को गांव न ले जायें. हो सकता है. जापे के समय बहू का आपरेशन करना पड़े. खून देना पड़े. पहला जापा है. कई पेचीदगियां पैदा हो सकती हैं.पत्नी -आपरेशन, न बाबा. तब तो मुसीबत हो जावेगी डाक्टरनी बाई, इससे बचा नहीं जा सकता.डाक्टरनी -कोई पक्का नहीं कि आपरेशन की जरुरत पड़ेगी ही. जरुरत पड़ भी सकती है, नहीं भी पड़ सकती. पर खतरा तो है. आप बड़ी बूढ़ी हैं, आप भी यहीं रहें और बहू नाती की भलाई की सोचें. आप रहेंगी तो बहू को सहारा मिलेगा.पत्नी -पर आप मुझे बहू को हरीरा बनाकर पिलाने देंगी ? गुड़ के लड्डू रिवलाने देंगी ?डाक्टरनी -(हसंकर) आप ठीक समय पर थोड़ा दे सकती हैं . पर मुझसे पूछकर. इस समय जच्चा को फल, हरी सब्जियां दूध, हल्का पौषटिक भोजन रिवलाइये और उसे मस्त बनाइये. जच्चा स्वस्थ रहेगी तो बच्चा भी स्वस्थ होगा. गोल मटोल. अन्यथा कमजोर और बीमार संतान होगी, माताजी.पत्नी -नहीं,नहीं, हमें दुबली पतली बीमार बच्चा नहीं चाहिए. बहू भी पीली पड़ गई है. उसे अच्छी दवा दीजिए डाक्टरनी बाई, जिससे वह उसका चेहरा चमकने लगे.डाक्टरनी -वह सब दे रही हूं. पर दवा और पौष्टिक भोजन के साथ ही अछी देखभाल की जरुरत है. हल्के काम करे वह, पर भारी वजन न उठावे. गर्भवती महिला को पर्याप्त प्रोटीन, कैल्शियम और आयरन की जरुरत होती है. इससे जच्चा और बच्चा दोनो ह़्अष्टपुष्ट होते हैं. अब मैं बहू को देख लूं. पलंग पर लेटी है न वह. (अंदर चली जाती है.) (राजाराम का प्रवेश)पत्नी -आ गये. डाक्टरनी आई है. बहू को देखने अंदर अंदर गई है.राजाराज -बहू ने तैयारी कर ली है न चलने की. कल सुबह हम निकल चलें.पत्नी -सुनो जी डाक्टरनी मना कर रही है बहू को गांव ले जाने के लिए.राजाराम -और सास जिद कर रही है बहू को गांव ले जाने के लिए.पत्नी -नहीं मैं जिद नहीं कर रही. डाक्टरनी ने अभी बताया कि बहू को खून की बेहद कमी है. इसे अच्छी देखभाल और दवाओ की जरुरत है. जापे के समय कोई झंझट हो सकती है.राजाराम -अरी सारी झंझटे कल्लू की चाची दूर कर देगी. न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी.पत्नी -न, ऐसा न बोलो. कल्लु की चाची कलुमुंही क्या करेगी मुसीबत के समय ? और हमें नाती चाहिए भला चंगा, गोल मटोल है न. विनय -नायक एवं सामान्य वर्ग का व्यक्ति, उम्र ३५ वर्ष.राधे -विनय का पड़ोसी और मित्र, एवं वयस्क गीता -विनय की पत्नी (उम्र ३२ वर्ष )मास्टर जी -स्कूल टीचर, विनय के परिचित एवं शुभ चिन्तक उम्र लगभग ३५ वर्ष, कुर्ता पाजामा पहने है.मेहरी -बर्तन मांजने वाली, -राशन की दुकानवाला-१ -राशन की दुकानवाला-२ -भीड़- ::प्रथम द़्अश्य:: (मंच के पाश्र्व से एक फिल्मी गीत-छोड़ो कल की बातें-कल की बात पुरानी, विनय का मंच पर प्रवेश)विनय -(स्वागत) इस एक कमरे के मकान में कितनी चैन है, कितनी शांति बाहर उफ जिधर देरवो उधर भीड़ है. (थपथपाहट) कौन है ? (फिर थपथपाहट ) आया. (बाहर उसका पड़ोसी राधे रवड़ा था, दरवाजा रवोलकर) नमस्कार.राधे -नमस्कार, अरे यार विनय भाई आप यहां आराम फरमा रहें हैं और बाहर एक बड़ा एक्सीडेंट हो गया है.विनय -सो भला कैसे ?राधे -लोग न तो सड़क के कानून जानते हैं, और न ही ठीक से गाड़ी चलाते हैं. (अब नहीं जानते तो मरें)विनय -अरे नहीं भाई यह नजरिया तो ठीक नहीं.राधे -तुम नजरिया की बात करते हो आबादी तो ऐसे बढ़ रही है जैसे कि घास तुम्हारे ही देरवो तो छ: बच्चे हैं.विनय -अच्छा तो मेरे बच्चों को लेकर भाषण तैयार कर रखा है आपने.राधे -देखो यार ऐसा नहीं है, पर हां बच्चे आज दिख नहीं रहे, भाभी जी भी नहीं दिखाई देतीं.विनय -तुम्हारी भाभी मायके जाने की जिद कर रही थीं सो अभी-अभी स्टेशन पर छोड़ कर आ रहा हूं-गाड़ी लेट थी सो चला आया राशन लेने भी जाना था.राधे -राशन लेने तो यार मुझे भी चलना है. पर कुछ चाय वाय.विनय -अरे हां-हां क्यों नहीं आज तो दूध भी बहुत सारा रखा है.राधे -अरे चाय क्या जब भरपूर दूध है तो क्यों न दूध ही पी लें.विनय -ठीक है (बाई से दूध गरम करने को कहता है) अरे बाई जरा दूध ही गरम कर दे. (मेहरी दूध को स्टोव्ह पर चढ़ाकर-बर्तन मलने लगती है. दूध गरम हो जाता है.मेहरी -साहब दूध गरम हो गया है.विनय -चलो यार रसोई में ही पीलें. बाई के हाथ रवराब हैं.राधे -चलो ठीक है, (दूध पीकर राशन लेने चलेंगे, दोनों अंदर जाते हैं). . दूसरा द़्अश्य. (रास्ते की भीड़ एवं राशन की दुकान पर लगी लंबी कतार).विनय -सीधे से रवड़े रहो भाई. धक्का मत दो.राधे -मैं नहीं पीछे से यह लगा रहा है धक्का.विनय -अबे पीछे मना करते नहीं बनता.राधे -धक्का मेरे पीछे वाला थोड़े ही दे रहा है, जो उसे मना करुं.विनय -ठीक है, पर लगता है आज शाम तक राशन मिलने से रहा.राधे -क्या बताऊं. इस भीड़ ने तो गले तक मुसीबतों में डाल रखा है.विनय -तुमने वह किस्सा नहीं सुना ?राधे -कौन सा ?. . भला ठीक से खड़े रहो. तो सुनो, राशन की लाइन से अलग एकविनय -आदमी लगातार आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा था) क़पया धक्का न मारें.राधे -यार, प्रत्येक आदमी पहले राशन पा जाना चाहता है. (राधे को फिर धक्का लगता है)विनय -मुझे बात भी पूरी करने दोगे कि नहीं (लोग उसे पकड़-पकड़ कर बार-बार पीछे कर दे रहे थे) (विनय को फिर धक्का लगता है.राधे -हू, फिर ? (विनय को फिर धक्का लगता है).राधे -हूं, फिर यार धक्के बहुत लग रहे हैं.विनय -(तब उस आदमी ने खीझ कर कहा) देखिए अगर आप लोग मुझे नहीं जाने दोगे तो. . . राधे -यार क्या बकवास लगा रखी है मैं तो थक गया इस धक्का मुक्की से.विनय -अबे सुन भी, तो वो आदमी बोला अगर आप मुझे जाने नहीं दोंगे तो दुकान कौन खोलेगा फिर कौन आपको राशन देगा.राधे -(हंसता है) लेकिन भैया, राशन तो लेकर ही हटना है हमें.विनय -लेकिन इस भीड़ के कारण तो राशन मिलना मुश्किल हो जायेगा.विनय -मेरे ख्याल में भीड़ ही सबसे बड़ी समस्या है. (दोनों बड़ी देर तक धक्का मुक्की से जुझते बतियाते रहते हैं. पर क्यू खत्म नहीं होता है देखो वे अब उब चले थे)राधे -यार चलो अब घासलेट वाली लाईन में लगते हैं.विनय -हां यार यह ठीक है तब तक शायद यहां भीड़ भी छटे. (वे दोनों राशन की क्यू से निकलकर घासलेट वाली लाइन में लगते हैं. भीड़ एवं धक्का मुक्की यहां भी निरंतर हो रही है.राधे -विनय भाई यहां पर भी तो लाइन लंबी है पर इस बार इकट्ठी पांच टंकियों में घासलेट आया है तो मिल ही जायेगा.विनय -अभी फिलहाल धक्के ही मिल रहे हैं.राधे -बर्दाश्त कर लो यार. (बहुत देर बाद राधे का नंबर आता है, राधे आगे खड़ा है विनय पीछे).राशनवाला -साहब कुछ एक लीटर भर तेल बचा है.विनय -यार राधे मुझे ले लेने दे.राधे -नहीं मैं लूंगा नंबर तो मेरा ही है.विनय -नंबर को मार गोली, मेरे यहां ज्यादा खर्च है तेल का.राशनवाला -साहब झगड़ों नहीं कोई भी ले जाईये.राधे -यार तू चुप रह भाई. मुझे ज्यादा जरुरत है. नहीं तो मेरी बीबी झगड़ेगी.विनय -बीबी क्या सिर में डालती है घासलेट.राधे -मुझे नहीं पता, तेल चाहिए मुझे.विनय -अरे मैं क्या साथ इसलिये आया था.राधे -अब तेल तू ले जायेगा तो मैं क्या भाड़ झोकूंगा.विनय -नंबर तेरा है इसलिये मैं ज्यादा नहीं कह रहा हूं (राशनवाले से) क्यों तेल तो काफी ज्यादा था उसका क्या हुआ.राशनवाला -एक लड़का हुआ (झुंझलाकर) आप पढ़े लिखे आदमी हैं आपके सामने तो ही बाटं रहा हूं. लेना हो तो एक लीटर ले जाइये.राधे -लो भाई दो (तेल सम्भालकर ले जाते हैं) (विनय चापलूसी करता हुआ अरे यार विनय भाभी जी तो यहां है नहीं तू क्या करेगा. मैं ही लिये जाता हूं.विनय -(खीझ भरे स्वर में) हां, हां ठीक है चल- चल राशन भी लेना है. (दोनों राशन वाली क्यू में लग जाते हैं. भीड़ में धक्का मुक्की होती है. कुछ देर तक खड़े रहते है).दुकानदार -अब दुकान बंद हो गई.विनय -क्यों भाई क्यों बंद कर दी ?राशनवाला -साहब पांच बज गये, मुझे भी घर देरवना है. बाल बच्चे बाट देरव रहे होंगे.विनय -वो तो रोज ही देखते होंगे.राधे -ठीक है साहब पर पांच बजे के बाद हम मजबूर हैं. सरकारी मामला है. (वे लोग लाईन से अलग हो जाते है, राधे छोटी कुप्पी में एक लीटर मिट्टी का तेल लिए सड़क पर विनय के साथ चल रहे है, सड़क पर भीड़ है-कंधे से कंधे रगड़ रहे है. (राधे से कोई टकराता है कुप्पी उसके हाथ से छिटक कर गिर जाती है).विनय कहो बेटा तुम्हें तेल की ज्यादा जरुरत थी न अब एक काम करो इस चाटो राधे -देरवो यार बोर मत करो, हो गई न तुम्हारे मन की.विनय -अच्छा तुम्हे नहीं करना तो कुछ रुक कर सोचना है. सुनो राधे चलो मास्टरजी सेराधे -चलते तो है लेकिन काम क्या आ पड़ा मास्टर जी से ?विनय -दर असल गीता जाते जाते कह गई थी कि छोटू को भर्ती करने की जुगाड़ लगा लेनाराधे -जुगाड़ क्यों रोज नये नये स्कूल रवुल रहे हैं कहीं भी भर्ती कर दो.विनय -तुम्हारा यह सोचला बिल्कुल गलत है.राधे -वह कैसे ?विनय -तीन स्कूलों में तो चक्कर काट चुका हूं जिसमें दो सरकारी हैं. तथा एक प्रायवेट कहीं भी जगह नहीं.राधे -तो मास्टर जी क्या घर पर पढ़ाने आया करेंगे ?विनय -नहीं भाई कल मैं उनके घर गया था वे जल्दी में थे सो आज आने को कह दिया था.राधे -ठीक है चलो. (दोनों मास्टर जी के घर पहुंचते हैं, दरवाजे खटखटाते हैं). भीतर से नारी आवाज -कौन है ?विनय -मास्टर जी है ? भीतर से नारी आवाज -नहीं हैं कहीं गये हैं. विनय -आ जायें तो कह देना कि विनय आये थे. भीतर से नारी आवाज -ठीक है. -दोनों घर की ओर चल देते हैं. विनय अपने घर पहुंच कर दरवाजा थपथपाता है. गीता आकर दरवाजा रवोलती है. विनय -अरे तुम गई नहीं क्या ?गीता -अरे इतनी ज्यादा भीड़ थी कि मुझे डर लगा कि कहीं छोटू नीचे ही न रह जाये.विनय -ठीक है अच्छा तो ये बात है मैं खाना खा लेता हूं. बच्चे क्या सो गये. (विनय खाना खाता है तथा आराम करने के लिए लेट जाता है.गीता -सुनो सो गये क्या ?विनय -नहीं तो.गीता -मास्टर जी से कहा था क्या छोटू के लिये ?विनय -हां भाई कहा तो था कल आयेंगे . (गीता और विनय सो जाते हैं). ::द़्अश्य तीन:: मास्टर जी मिले ही नहीं फिर इंतजार क्यों ?विनय -नमस्कार मास्टर जी, मैं आपका ही इंतजार कर रहा था.मास्टर जी -नमस्कार-अरे गीता जी भी है मुझे पता था कि कल ये जाने वाली हैं.विनय -जी मैं चली गई थी लेकिन ट्रेन में जगह न मिलने के कारण न जा सकी.मास्टर जी -अरे छोटूगीता -जी वह बाहर गया है, नमस्कार.मास्टर जी -नमस्कार. हां तो विनय जी. . . विनय -जी. . . जी. . . दरअसल मैंने मतलब तो आपने उस दिन समझा दिया था कि छोटू को भर्ती करना है. यह अच्छा किया कि आप आ गये. मासटर जी -वो तो मैं आता ही विनय जी. दरअसल भीड़भाड़ और यह मंहगाई के कारण मकान वाले सभी तंगी में हैं.विनय -आप क्या कहना चाहते हैं मास्टर जी ?मास्टर जी -दरअसल विनय भाई मैं अपनी बात आपसे बताना चाहता था.विनय -तो कहिये न मास्टर जी.मास्टर जी -भाई मैंने सुन रखा है कि आपके छ: बच्चे हैं.मास्टर जी -तो मैं चाहता हूं कि. . . . विनय -वो तो हम लोग चेत गये है मास्टर जी, अरे बेफिकर है.मास्टर जी -इससे मैं आश्वस्त हूं लेकिन आज के जमाने में ज्यादा फूलना-फलना, आदमी को ठीक नहीं अब वे दिन लद गये विनय कि दूधो फलो पूतो फलो की आशीष दी जाती थी.विनय -वैसे मास्टर जी सभी अपने भाग्य का खाते हैं. अरे भगवान ने चोंच दी है तो वह चुगने को भी देगा. (गीता का प्रवेश)गीता -क्या चिड़ियों और चोचों का जिक्र कर रहे हो ?विनय -भाभी जी तुम भी बैठो बड़े काम की चर्चा चल रही है मास्टर जी से.मास्टर जी -हां भाई गीता जी बैठिये. विनय भाई आपकी इस भाग्यवादिता से काम नहीं चलेगा.विनय -क्यों मास्टर जी ?मास्टर जी -अरे भाई बच्चों के साथ तनख्वाह तो बढ़ती नहीं, हां, हर साल बच्चे बढ़ते रह सकते हैं जिससे तुम्हारी आमदनी कम होती जायेगी.विनय -मास्टर जी इस तरह से एक दो लोग के कुछ बच्चे बढ़ भी गये तो क्या फर्क पड़ेगामास्टर जी -इस पूरे देश में अस्सी करोड़ लोग हैं सभी यही सोचने लगे तो क्या हालत होगी इस देश की.विनय -आप ठीक कहते है मास्टर जी अभी जनसंख्या व़्अदि के जो आंकड़े देरवने को मिले हैं उन्हे तो मैं गप्प मानता लेकिन आपने जो बताया तो अब विश्वास हो गया.विनय -गीता कुछ चाय वाय की व्यवस्था करो, मास्टर जी के लिए, मैं भी इस बहाने पी लूंगा.गीता -चाय तो बनाये लेती है लेकिन चाहती हूं कि मैं भी प्रत्येक बात मास्टर जी से सुन सकूं.विनय -मास्टर जी इन्हे भी सुनने दीजिये यदि इनको जबरन भेज दिया तो ये अभी उबल पड़ेगी. मास्टर जी - हां,. . . हां,. . . भाई यह चिड़चिड़ाहट भी इसी भीड़-भाड़ की देन है. (गीता. . . विनय. . दोनों अच्छा)मास्टर जी -अरे यही नहीं भीड़ से शोर भीड़ से वाहनों की बढ़ोत्तरी भीड़ से भोजन की कमी तथा आवासों की कमी की समस्या पहले सामने आती है.गीता -और भी कुछ नुक्सान है ?मास्टर जी -बहुत. . . बहुत सारे पर पर्यावरण भोजन और मकान तथा रोजगार की प्रमुख समस्या है.विनय -हां. . . मास्टर जी आप कह तो ठीक रहे हैंमास्टर जी -अरे भाई, यह सही भी है.गीता -सो कैसे मास्टर जीमास्टर जी -वह ऐसे कि देश की पूरी पैदावार से कहीं ज्यादा उसका उपयोग करने वाले बढ़ गये हैं.विनय -मास्टर जी मुझे तो ऐसी कुछ समझ में नहीं आता पर राधे ने ऐसा अवश्य कुछ बताया था.गीता -हां. . . हां. . . मुझे भी ऐसा ही लगता है.मास्टर जी -तुम दो थे, तुम्हारी छ: संताने हुई जबकि न तो तुम्हारा मकान बढ़ा और न ही जमीन.गीता -तो आपका मतलब है कि परिवार बढ़ाना नहीं चाहिये यानि बच्चों को नहीं होना चाहिये.मास्टर जी -अरे नहीं भाई, मेरा कहना यह कतई नहीं है, अच्छा तुम्हारे बड़े लड़के की उम्र क्या है.गीता -आठ बरस. मास्टर जी -आठ बरस पहले अपके पास कोई संतान नहीं थी ना ?विनय -जी नहीं ?मास्टर जी -और आठ बरस में छ: बच्चे हो गये. फिर आप ही समझिये कि देश की आबादी में एक ही परिवार ने आठ साल में छ: लोग बढ़े.गीता -आपने मास्टर जी हम लोगों की आंरवें खोल दी.विनय -मास्टर जी, आपसे पहले मिल लिया होता तो ठीक रहता.मास्टर जी -कोई बात नहीं जो होना था सो हो गया पर भैया अब तो बिल्कुल नहीं.विनय -गीता (दोनों) जी बिल्कुल नहीं.मास्टर जी -पिछले २० साल में हमारी जनसंख्या दोगुनी हो गई है और कई शहरों की तो चौगुनी तक जनसंरव्या हो गई है.विनय -शहरों में चौगुनी कैसे हो गई. क्या वहां ज्यादा बच्चे पैदा होते हैं ?मास्टर जी -नहीं भाई बढ़ती जनसंव्या जैसा कि मैं बता चुका हूं कि बेरोजगारी को जन्म देती है अत: लोग शहरों की ओर रोजगार की तलाश में भागते हैं.विनय -रोजगार तलाशने जब लोग आते है तो निश्चित ही तमाम बीमारियां बगैरह फैलती होंगी.विनय -नहीं ऐसा नहीं कि बीमारियां साथ लाते है पर यह जरुर है कि भरपूर वातावरण नहीं मिलता.विनय -फिर ?मास्टर जी -फिर बीमारियां फैलती है और दूसरों को कई तरह की सामाजिक अपघटनाओं का सामना करना होता है.गीता -मास्टर जी क्या शहरों में रोजगार बिकता है.मास्टर जी -अरे बिकता नहीं, वहां तरह-तरह के उघोगं धंधे है जिनमे बाहर से आये लोगों को रोजगार मिलता है.गीता -तो इससे भीड़ बढ़ जाती है ?मास्टर जी -भीड़ ही नहीं बढ़ती बल्कि चीजों के बंटवारे में लोगों को मिलने वाला हिस्सा भी कम होता चला जाता है.विनय -इसका मतलब है कि हम निरंतर अपने हिस्से में फैलने वाली चीजों को अपने ही हाथों कम करते जा रहे हैं.मास्टर जी -बिल्कुल. हम अपने को किसी निश्चित जमीन पर ही तो आते है जब खाने वाले बढ़ जायेंगे तब अनाज कैसे पूरा होगा.विनय -जंगल काट कर खेती की जमीन को भी तो बढ़ाया नही जा सकता.मास्टर जी -(हंसते हुए) भाई विनय यदि जंगल काट दिये गये तो प्राक़तिक संतुलन बिल्कुल गड़बड़ा जायेगा.विनय -अरे पेड़ काटने से प्राक़तिक संतुलन कैसे क्या बिगड़ेगा.मास्टर जी -देखिये, वनों के काटने से तापमान में बढोत्तरी होगी. और आप जानते है कि तापमान बढ़ने से सूखे की स्थिति बन सकती है.गीता -मास्टर जी आप रुकिये मैं चाय बना लाई ?मास्टर जी -ठीक है जरुर जल्दी कीजिए.विनय -मास्टर जी यदि जंगल और भी बढ़ा दिये जायें तो क्या होगा ?मास्टर जी -तो सूखा जैसी स्थितियां और बाढ़ का सामना हमे कम से कम करना पड़ेगा.विनय -मास्टर जी आपने तो वाकई मेरे सीने के बंद किवाड़ खोल दिये.मास्टर जी -अरे भैया यह जानकारी तो वाकई अपने देश के प्रत्येक नागारिक की होनी चाहिए (भीतर से चाय आ जाती है)गीता -लो मास्टर जी चाय लो.मास्टर जी -गीता अभी रख दो, ठण्डा होने दो थोडा मुझे आदत नहीं गरम चाय पीने की.विनय -मास्टर जी और जानकारी दें भाई मुझे ऐसे भाया, जैसे लोग रामायण जी की कथा सुना रहे हों.मास्टर जी -हम तो यह जानते है कि लोगों को स्वच्छ वातावरण एवं स्वच्छ हवा और जल तथा समुचित और संतुलित आहार मिलें.गीता और यह कैसे संभव है मास्टर जी ?विनयमास्टर जी -वह तो संभव है जब हम भीड़ की शक्ल में उभरकर न आयें, बल्कि जनसंख्या के संतुलन के रुप में आये.गीता और -सत्य है हमें भीड़ नहीं बनना चाहिए-विनय हम भीड़ नहीं बनें हमें भीड़ नहीं बनना चाहिये. (घीरे घीरे मंच पर रोशनी कम करके परदा गिरा दिया जाता है). श्री अय्यर भाव-विभोरहो गए; कवि के मौलिक चिंतन एवं अद्भुत प्रस्तुतीकरण तथा प्रेरणादायकविचारों से उनका ह्रदय आलोड़ित हो उठा . इसके उपरांत परिचय करवायागया . क़ष्णस्वामी ने `पत्रकार भारती' के स्थान पर `कवि भारती' केसाथसादर-भाव से सम्बन्ध स्थापित किया . भारती की कविताओं की पन्द्रहहजारप्रतिया छपवाकर नि:शुल्क वितरित करने की व्यवस्था की गई . इस पर भीकिसीप्रकार का समझौता--राजनीतिक विचारधारा के धरातल पर नहीं हुआ.दोनों सिद्धान्त के पक्के और दिल के सच्चे थे भारती का द़्अष्टिकोणयह था किसरकारी नौकर सरकार के द्वारा बनाए गए नियमों के बंधन में होने के कारणराष्ट्रवादी आन्दोलन के विकास में सहायक नहीं, बाधक ही होगा . अत:बाद मेंभारती ने तमिल दैनिक `विजया' के माध्यम से श्री क़ष्णस्वामी अय्यरके उच्चन्यायालय के जज का कार्यभार स्वीकार करने का भी कटु विरोध किया . इसप्रकार की अनेक घटनाएं भारती की लक्ष्य के प्रति एकनिष्ठा, स्पष्टचिन्तन औरप्रबल राष्ट्र-प्रेम को उद्घाटित करती हैं . सूरत कांग्रेस के अधिवेशन में द़्अष्टिकोण का अंतर कांग्रेस को विभाजितकरनेका प्रमुख कारण बना . अंग्रेजी सरकार ने इस अवसर पर दमन की नीति कासाधन अपनाया . स्मरण रहे कि लगभग इसी काल में `सरस्वती' का प्रकाशनहिन्दी जगत् में हो रहा था . १९०३ ई. से यह पत्रिका आचार्य महावीर प्रसादद्विवेदी के सम्पादन में राष्ट्र-चेतना के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिकातैयार कररही थी . `वन्देमातरम्', `जन-गण-मन-अधिनायक', `भारतवर्ष' आदिशीर्षककविताओं का जनमानस पर प्रबल प्रभाव हो रहा था . राष्ट्रीय चेतना केसाथही चल रहा था अंग्रेज का दमनचक्र--जिसकी प्रतिक्रिया में राष्ट्र-भावनामेंउग्रता का समावेश हुआ और चिन्तन क्रांतिमय होता गया . दक्षिण से उत्तरतकएक ही स्वर गूंजने लगा --`भारतभूमि' हमारी है, हम इसकी संतान हैं,इसकेऊपर किसी अन्य का शासन अनुचित है--राष्ट्र के युवकों को इस अन्यायकाप्रतिकार करना होगा, विदेशी सत्ता का निष्कासन करके राष्ट्र कीमान-मर्यादाकी रक्षा करनी होगी . सम्पूर्ण राष्ट्र में एक अद्भुत मतवालापन छागया ; देशकी वंदना, अर्चना, भक्ति, प्रेम आदि के स्वरों से युक्त गीतों, कविताओंआदि कीरचना और प्रकाशन प्राय: सभी भारतीय भाषाओं में होने लगा . संकीर्णप्रांतीयता का भाव तिरोहित हो गया, राष्ट्रीय भावना का अभ्युदयहुआ और`राष्ट्र' एक शक्ति के रुप में काव्य का विषय बना . यही वह अभूतपूर्वअवसर थाजब शासन के दमन का उत्तर एक संगठित राष्ट्र के रुप में देने के लिए देशवासीतैयार हुए--भाषा-भेद, वर्ग-भेद, प्रांत-भेद आदि सब राष्ट्रीयताके प्रबल नद केसमक्ष तिनकों की भांति बन गए .३१दमनचक्र ३० अप्रैल १९०८ के दिन मुजफ्फरपुर में पहला बम-काण्ड हुआ . इसी कीप्रतिक्रिया-स्वरुप `प्रेस एक्ट' लागू हुआ और समाचारपत्रों औरराष्ट्रभक्ति सेप्रेरित पत्रिकाओं आदि पर प्रबल अंकुश लगाए गए . दमन की नीति खुलकरसामने आ रही थी . इस काल में कई महत्तवपूर्ण घटनाएं हुई: पंजाब में लालालाजपत राय और श्री अजितसिंह को निर्वासन का दण्ड मिला; महाराष्ट्रमें बालगंगाधर तिलक को राजद्रोह के लिए छह वर्ष के कठोर कारावास का दण्ड मिला,तमिलनाडु के श्री चिदम्बरम् पिल्लै की `स्वदेशी स्टीम नेवीगेशनकम्पनी' कोभारी घाटा हुआ और उन्हैं भी राजद्रोह के अपराध में लम्बी कैद की सजादीगयी . अलीपुर बम केस में श्री अरविंद पर मुकदमा चल रहा था, `स्वदेशमित्रन्'के शांत विचारों वाले राष्ट्रभक्त सुब्रह्रमण्य अय्यर को बंदीबनाया गया . `इंडिया' के सम्पादक यद्यपि भारती थे, पर नाम एम. श्रीनिवासन् का प्रकाशितहोताथा . उग्रपंथियों की इम पत्रिका पर सरकार की कोप-द़्अष्टि पड़ी श्री एम. श्रीनिवासन् को भी बंदी बना लिया गया . भारती अपनी गतिविधि निर्बाधरुप सेबनाए हुए थे . इसी बीच विश्वस्त सूत्रों से भारती की सम्भावित गिरफ्तारीकीजानकारी मिली . उनका स्वास्थ्य ठीक न था ; मित्रों ने उन्हें पांडिचेरीजाने कापरामर्श दिया .पांडिचेरी स्व-निर्वासन पांडिचेरी-क्षेत्र भारत में अभी भी फ्रांस के नियंत्रण में था,फलत: अंग्रेजी सरकार का आदेश वहां कार्य-रुप धारण नहीं करता था . भारती किसी भीप्रकार पांडिचेरी जाने को तैयार न थे . उन्हें `पलायन' स्वीकार न था,वे किसीभी प्रकार का त्याग करने को तैयार थे पर मित्रों के प्रबल आग्रह, जेलसे बाहररहकर देश के कल्याण के लिए कार्यरत रहने के उनके परामर्श से बाध्यहोकरभारती को पांडिचेरी जाना पड़ा . भारती के साथ ही `इंडिया' पत्रिका भी पांडिचेरी पहुंच गयी . मन्दायनतिरुमलाचारियार तथा उनके बन्धु आदि भी पांडिचेरी पहुंचे . यहां भारतीकाजीवन एक ऐसे मोड़ पर पहुंचा जिसे केवल विधि का विधान ही कहा जा सकताहै . अलीपुर की केन्द्रीय जेल से नज़रबन्दी से छुटते ही श्री अरविंदअप्रैल १९१०ईं. में पांडिचेरी पहुंचे. उधर इंग्लैंड की एक दीर्घ रोमांचकारीयात्रा करने केबाद श्री वी. सुब्रह्मण्य अय्यर ने भी पांडिचेरी की शरण ली . श्री अय्यरपरभी भारत सरकार की कोप-द़्अष्टि थी ; पुलिस उन्हें किसी भी बहाने से गिरफ्तारकरने के लिए प्रयत्नशील थी . श्री अय्यर इंग्लैंड में तिलक के उग्रवादीशिष्य३२विनायक दामोदर सावरकर के निकट सम्पर्क में आए थे . इस प्रकार यह त्रिमूर्ति--`भारती, अरविंद और सुब्रह्मण्य अय्यर'--पांडिचेरी में एकत्र हुए; विचार-विमर्श और चिंतन-प्रक्रिया काआदान-प्रदान एकनियमित कार्यक्रम बन गया . श्री अरविंद प्रबल राष्ट्रवादी, अद्भुतप्रतिभा-सम्पन्नचिंतक एवं असाधारण आत्मदर्शी थे . यह काल उनके आत्मिक उन्नयन केविकास का, `ऊध्र्वमुखी' होने का काल था ; उल्लास और पारस्परिक हंसी-मजाकके अनेक क्षण इन दिनों में तीनों ने एक साथ व्यतीत किए . श्री अय्यर सुप्रसिद्धसाहित्यकार,प्राचीन तमिल क़तियों के अनुवादक एवं समालोचक तथाएक सह्रदय श्रोता थे . उनके अनेकानेक अनुभव; दर्शन तथा परम्परागत चिंतन विषयकउनकी सहज ज्ञानधारा का लाभ भारती को निरंतर मिल रहा था . इस स्थिति काउल्लेख श्री पी. जयरामन ने इन शब्दों में किया है---अरविंद घोष मेंभारीपरिवर्तन हो गया था; वे यौगिक साधनाओँ में लगे थे और गीता, उपनिषद्,संस्क़ति, आध्यात्मिकता इत्यादि पर चिंतन किया करते थे. . . भारतीअरविंद केसाथ एक ओर वेद, उपनिषद्, गीता आदि पर चर्चा किया करते थे तो दूसरीओर अरविंद को प्राचीन तमिल काव्यों, विशेषकर नम्मालवार, आण्डाल्जैसेआलवार भक्तों के मधुर गीतों का रसास्वादन कराते थे . पांडिचेरी में भारती को निरन्तर कष्ट सहने पड़े . अंग्रेजी सत्ता औरशासनका विरोध कर पाने के लिए उनके पास एक ही साधन था --`इंडिया' पत्रिका.सब प्रकार से प्रयास करने पर भी आर्थिक जटिलता के कारण पत्रिका चलापाना सम्भव न था . पत्रिका के लिए भेजे गए मनीआर्डर मार्ग में जब्त करकियेजाते थे; पत्रिका पढ़ने वालों पर पुलिस की निगरानी रहती थी एवं पत्रिकाकेब्रिटिश-भारत के क्षेत्र में प्रवेश पर पहले ही रोक लगायी जा चुकीथी . भारतीतथा अन्य सहयोगियों के स्थायी `गिरफ्तारी वारंट' जारी थे . पत्रिका कीप्रतियां डाक में रोककर जब्त कर ली जाती थीं. अंत में मजबूर होकर १२मार्च१९१० ईं. से पत्रिका का प्रकाशन बंद करना पड़ा . श्री अरविंद की क्रांतिवादीपत्रिका `कर्मयोगिन्'के महत्वपूर्ण निबन्धों का अनुवाद प्रकाशितकरने के लिएभारती ने एक मासिक पत्रिका `कर्मयोगी' का प्रकाशन प्रारम्भ कियाथा . अंग्रेजीशासन की दमन-नीति के फलस्वरुप उसका प्रकाशन भी बन्द करने के लिए उन्हेंबाध्य होना पड़ा . १९१० ई. में तिरुनेल्वलि जिले के मनियाची रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्मपरवांची अय्यर नामक नवयुवक ने `आशे' नाम के एक अंग्रेज अधिकारी की हत्याकर दी और बाद में आत्महत्या कर ली. इस घटना के साथ भारती औरवी. सुब्रह्मण्य अय्यर का नाम जोड़कर इन दोनों को अनेक प्रकार से पीड़ितकिया गया . सरकारी गवाह ने इनका नाम लिया, जिसके आधार पर पुलिस३३इनके पीछे हाथ धोकर पड़ गयी . छल, कपट, सभी साधन अपनाए गए परसावधानी बरतने और चौकन्ने रहने के कारण ये दोनों पुलिस के शिकंजेमें नहींआए. एक रोचक घटना का उल्लेख समीचीन होगा--जिस घर में श्री अय्यररहते थे, उसके कुएं में एक बंद मुंह वाला बर्तन निकला . मन में सन्देहतो था ही,श्री अय्यर उसे थाने ले गए और सीलबंद ढक्कन को पुलिस के अधिकारियोंके समक्ष खोला. उसमें अनेक प्रकार के ऐसे कागज के बण्डल निकले जिससे किपांडिचेरी में स्वनिर्वासित देशभक्तों द्वारा भारत में हिंसात्मकविद्रोह का आवाहनथा . योजना स्पष्ट हो गयी; पहले स्वयं ही सब तैयारी करके पुलिस छापामारती और इस `प्रमाण' के आधार पर इन्हें बंदी कर लेती . इस प्रकार कीकार्यवाही के आधार पर फ्रांस सरकार से आग्रह करके उन्हें भारत-भुमिपर ले जापाना अपेक्षाक़त सरल था . इस सबके बाद भी भारत की पुलिस ने फ्रांसीसीअफसरों की साथ लेकर श्री अरविंद, श्री भारती तथा श्री अय्यर के मकानोंकीपूरी तलाशी ली . जब कोई आपत्तिजनक सामग्री नहीं मिल पायी तो भी फ्रांसीसीअदालत में कई बार पेशी हूई, प्रश्नोत्तर हुए . थह प्रक्रिया कई मासचलती रही . पांडिचेरी में भारती की मित्रता `कण्णन्' नामक युवक से हुई, इनकापूरानाम कुवलयूर क़ष्णमाचारियार था . यह वही कण्णन् हैं जिन्होंने अपनेप्राणोंकी चिंता न करके १९२१ ई . में मतवाले हाथी से भारती के प्राणों की रक्षाकीथी . कण्णन् ने दीर्घ काल तक भारती की बहुत सेवा की . जिन श्री कुप्पुस्वामीअय्यंगार के मकान में जाकर भारती ठहरे, उन्हें जासूसों ने काफी डराया-धमकाया,पर उन्होंने एक बार भी भारती से वह स्थान छोड़ने के लिए नहींकहा . भारती स्वयं ही चिंतित थे ; उन्हें कष्ट से बचाने के लिए एक अन्यसज्जनश्री सुन्दरेस अय्यर द्वारा उपलब्ध करवाए गए एक अन्य मकान में जाकररहनेलगे . भवन का नियमित किराया दे पाना भारती के लिए कभी सम्भव न हुआ,पर मकान-मालिक ने भी कभी उसकी मांग न की . १९११-१२ ई. में फ्रांस की राजनीतिक स्यिति काफी कमजोर थी; कैसर कीआक्रामक कार्यवाही और उसकी शक्तिशाली वायुसेना के कारण फ्रांसको इंग्लैंडसे मैत्री करने का मार्ग श्रेयस्कर लगा . संधि की शर्तों के अनुसारफ्रांस ने पांडिचेरीमें रहने वाले प्रत्येक विदेशी के लिए अनिवार्य कर दिया कि यह पुलिसथाने मेंअपना नाम दर्ज करवाए . इस योजना के मूल में पांडिचेरी में रहने वालेब्रिटिशसाम्राज्य के भारतीय राजनीतिक विरोधियों को बंदी करने का प्रयासथा .पुलिस के पास नाम दर्ज करवाने के लिए पांच आनरेरी मजिस्ट्रेटों केहस्ताक्षरकरवाना आवश्यक था . ऐसी नाजुक स्थिति में भारती ने श्री कालवे शंकरचेट्टियार का सहयोग मांगा . कई देश-भक्तों के नियमानुसार भरे हुएप्रार्थना-पत्रउन्हें दिए . श्री कालवे शंकर चेट्टियार पांडिचेरी के प्रतिष्ठितनागरिक एवं३४आनरेरी मैजिस्ट्रैट थे . उन्होंने कुछ ही घंटों में समस्त औपचारिकताएंपूरीकरवा दीं और श्री अरविंद, श्री वी. सुब्रह्मण्य अय्यर, सुब्रह्मण्यभारती तथाअन्य साथियों की फ्रांसीसी थाने में नियमानुसार रजिस्ट्री हो गयी. इससे तद्-युगीन देशभक्तों के निरन्तर संघर्ष का तो आभास मिलता ही है, उन्हें सहायताकरने को तत्पर अनेक महानुभावों की राष्ट्र के प्रति उनकी निष्ठापर अपूर्वविश्वास तथा उन्हें सहायता देने की भावना का भी पता चलता है .सर्जनात्मक उपलब्धियां १९१० ई. से १९१३ ई. के काल में भारती की सर्जनशक्ति भरपूर कार्यरतरही . श्री अरविन्द के संसर्ग का प्रभाव स्वाभाविक रुप से उनके चिंतनपर पड़रहा था . उल्लेख किया जा चुका है कि श्री अरविंद की योग-साधना, सांस्क़तिकरुप से भारत की सम़्अद्ध धरोहर विशेषत: गीता, उपनिषद् तथा पातंजल योगसूत्रआदि विषयों पर विवेचन-विश्लेषण इन लोगों के दैनिक जीवन का अंग था. भारती ने वैदिक अग्निसूक्तों पर आध़्अत तथा वेदान्त-चिंतन विषयकजो कविताएंरचीं, उनके चिंतन का मूल स्रोत यही दैनिक वार्तालाप है . आलवार तथानायनार संतों के काव्य का गहन अनुभूतिपरक अध्ययन भी इन्हीं दिनोंमें हुआ .श्री वी. वी. सुब्रह्मण्य अय्यर इन दिनों प्राचीन तमिल क़तियोंके अनुवाद,आलोचना एवं मौलिक-स़्अजन में रत थे और भारती इन दो महान् विभूतियोंकेसंसर्ग में रहते हुए सत्य एवं सौन्दर्य की साधना कर रहे थे . समुद्र तट पर जाकर निर्जन स्थान में चांदनी रात व्यतीत कर देना उनकेलिए साधारण बात थी . आर्थिक स्रोत लगभग समाप्त हो चुके थे, पर मानसिकरुप से आशा एवं विश्वास का आधार बना हुआ था . उनके काव्य में समुद्र-तटएवं चन्द्र के सौन्दर्थ के अनेक बिम्ब उनके इस समय के चिंतन, एकान्त-मननएवंप्राक़तिक सुषमा के साथ उनके तादात्म्य का परिणाम हैं . पातंजल योगसूत्रएवंश्रीमद्भगवद्गीता का तमिल अनुवाद इन्ही दिनों हुआ . संस्क़त की वैदिकऋषियों की काव्य-धारा के साथ भारती का संपर्क एवं उस धारा के महत्वकाज्ञान भी भारती को भली भांति हो चुका था . गम्भीर चिंतन, एकान्तवास के अनेक क्षण, अनुभूति की तीव्रता, प्रबल,सम़्अद्ध तमिल एवं संस्क़त साहित्य-सरिताओं में अवगाहन से भारतीकी आत्माको नव-ज्योति, नव-शक्ति प्राप्त हो रही थी . भगवद्गीता का अनुवादनिश्चयही उन्हें श्रीक़ष्ण के अत्यन्त निकट ले गया होगा . उनके ह्रदय मेंअभूतपूर्व भावनाएं क्रीड़ारत थीं, समस्त दिशाओं में उन्हें `नंदलाला' के दर्शनहोने लगे ,प्रत्येक स्वर में उन्हीं के गीत की गूंज सूनाई देने लगी, प्रक़तिके जड़व़्अक्षों में भीक़ष्ण की रुपमाधुरी दिखायी देने लगी और इस समय की स़्अजन-प्रक्रियाका३५परिणाम क़ष्ण गीत, `कण्णन् पाट्टु' हैं . भवसंकट को समाप्त करने और`पार्थ'को संदेश देने के लिए क़ष्ण का अवतार उनके ह्रदय-पटल पर हो गया . यहीक़ष्ण`पांचाली शपथम्' में भी आते हैं पर कहीं, एक स्थल पर भी `पात्र' नहींहैं, मात्ररक्षक, अद़्अश्य, दौपदी के वस्त्रों को विस्तार देने की प्रक्रियामें हैं . `पांचालीशपथम्' भी भारती की इसी समय की रचना है . श्ऱंखलाओं से आबद्ध भारतमाता ही पांचाली के रुप में हमारे समक्ष आती है . राष्ट्र के आत्म-विश्वासएवंआस्या को पुन: स्थापित करने का भारती का यह प्रयास युग-युगान्तरतकसमाद़्अत होगा . प्रेम और दार्शनिक चिंतन से युक्त कल्पनामय स्वच्छंदतावादी परम्परामें`कुयिल्-पाट्टु', `कोयल-गीत' की रचना पांडिचेरी प्रवास में हीहुई . श्रीमतीप्रेमानंदकुमार ने पर्याप्त खोजपूर्ण ढंग से सामग्री संयोजन करने के उपरान्त भारतीके पांडिचेरी प्रवास का वर्णन किया है . श्री पी. महादेवन के भारती-विषयकविस्त़्अत संस्मरण से पर्याप्त प्रामाणिक जानकारी मिलती है . तमिलमें प्रकाशितअनेक पुस्तकों में कहीं-कहीं भारती के पांडिचेरी प्रवास के अतिशयोक्तिपूर्णचित्रप्रस्तुत किए गए हैं . अपने शोध-कार्य में श्रीमती विजया भारती नेभी कवि केजीवन विषयक उल्लेख में पांडिचेरी प्रवास की महत्तवपूर्ण घटनाओंका संकेतदिया है . योगी शुद्धानंद भारती ने कवि भारती के पांडिचेरी प्रवासके विशेषमहत्तव को स्वीकार किया है . उनका मत है कि महात्मा-गांधी की पांडिचेरी-यात्राने प्रबल क्रांतिकारी सुब्रह्मण्य अय्यर को अहिंसा एवं सत्य कापुजारी बनादिया . भारती ने महात्मा गांधी के आदर्शों में अपनी निष्ठा व्यक्तकी है . उनकेअसहयोग आंदोलन, मानवतावाद एवं अहिंसा विषयक द़्अष्टिकोण की भारतीनेसराहना की है . श्री अरविंद ने पांडिचेरी को अपनी योगसिद्धि का स्यानमानतेहुए यह घोषणा की थी कि उसकी प्रसिद्धि सम्पूर्ण जगत् में व्याप्तहोगी . भारतीऔर योगी शुद्धानंद उस योगसिद्धि के समर्थक थे . श्री सुब्रह्मण्यअय्यर इनके साथथे ही, भारती एवं अन्य मित्रों ने भारतीय सांस्क़तिक अघ्ययन एवंवेदों की शिक्षाके लिए कक्षाओं का आयोजन किया. श्री अरविंद द्वारा प्रकाशित पत्रिका`आर्य'में भारती द्वारा नम्माल्वार एवं आण्डाल् की कविताओं का अनुवादप्रकाशितहुआ . इन्हीं दिनों `भारत शक्ति पूजा' की व्यवस्था श्री सुब्रह्मण्यअय्यर की देख-रेखमें हुई, कवि भारती ने देवी काली विषयक कविता का सस्वर पाठ किया तथाअन्य शक्ति-विषयक गीत भी गाए . भक्तों का जन-समूह ऩत्य और उल्लासमेंविभोर होकर आनन्द में मग्न हो गया . श्री चिदम्बरम् पिल्लै के पांडिचेरीजानेका भी उल्लेख मिलता है . हर जगह प्रशंसासम्मान, राजे-रजवाड़े, मन्त्री-प्रेसीडेण्ट आदि की दावतें, अखबारोंमेंढेरों तस्वीरें और थियेटर में लोगों की भीड़ . उदय जब स्टेज पर आता तोथियेटर के लोगों की तालियों की बौछारों से ऐसा लगता कि थियेटर सिरपर गिरने जा रहा है . फूलों के गुच्छों से स्टेज भर जाता था . कार्यक्रमसमाप्त कर रात में घर जाते समय उदय को देखने के लिए लोग झुण्डबनाकर खडें रहते ! यूरोप में सभी जगह ऐसी भीड़ होती--सिर्फ लन्दनको छोड़कर . विएना, पेरिस, प्राग, बुडापेस्ट इत्यादि शहरों में संगीत और कलाके प्रति आस्था विशेष रुप से दिखायी दी . इनमें से हर शहर में खाससंगीत के लिए अलग से म्यूजिक हॉल था . हॉल भी ऐसा बना हुआ कि कहीं भी बैठें तो भी संगीत की सूक्ष्म सी झनकार भी सुनायी दे जाये .फिर एक-एक हॉल में दस-बारह हजार लोग समाते थे . गाना-बजानाशुरु होते ही सभी ओर खामोशी छा जाती . प्रकाश की सिर्फ एक फीकीसी किरण मुझ पर पड़ती . सारा थियेटर इतना शान्त होता कि लगताकि हम हिमालय की गुफा में बैठकर ही बजा रहे हैं . लेकिन आखिर मेंलोगों की तालियों की गड़गड़ाहट और सराहना की आवाजें . लगातारचार-पांच बार बजाना पड़ता . फिर भी कहते, और होनें दीजिए . ऐसेश्रोताओं के सामने बजाने में और उनसे चर्चा करने में मुझे बड़ा उत्साहलगता . तन्मयता से मैं बजाता . इतना खुद कों भूलकर तो मैंने भारतमें भी कभी कहीं भी नहीं बजाया था . मेरी लकड़ी का निर्जीव वाद्यसजीव हो उठता था . यूरोप के श्रोताओं के सामने बजाकर मुझे जोआनन्द मिला वैसा और कहीं भी नहीं मिला . पेरिस में हम एक्चेलिया होटल में ठहरे थे . करीब-करीब एक महीनाभर हम वहां थे . भारत के सभी वाद्यों की एक प्रदर्शनी वहां लगायी .हमारे साथ करीब सभी प्रकार के वाद्य थे ही . बहुत लोग यह प्रदर्शनीदेखने आते . उनमें बड़े-बड़े गवैये-बजवैये भी रहते . कौन-सा वाद्य कैसेबजाते हैं, क्या नाम है, शुरु से इतिहास क्या है--इत्यादि अनेक बातों५३की जिज्ञासा उनमें रहती . फोटो उतारते . भारत के संगीत के लिएपैरिस के लोगों में प्रचंड उत्साह था . हमारा संगीत मन में अत्यन्तसूक्ष्मस्पन्दन निर्माण करता है इसका अहसास उन्हें होता था . यह सब देखसुनकर मुझे बहुत आनन्द होता . और लगता कि एक-न-एक दिन हमारेसंगीत का मर्म सारी दुनिया के गुणी-ज्ञानी जान लेंगे . एक दिन होटल में कुछ अमेरिकन और यूरोपियन जवान लड़कियां आयीं . उन्हें मेरा सरोद सुनना था . अमेरिकन युवतियॉ माने बड़ीचुलबुली . फिलहाल उनके यहां ओरिएण्टल म्यूजिक की फैशन ही है, तोवापिस जाने के बाद कह पाएं कि हम सुनकर आये हैं, इसलिए सुननाचाहती होंगी ऐसा मुझे लगा . दोपहर तीन का समय था . खीजकर मैंनेभीमपलास शुरु किया . शुरुआत करते ही नजर आया कि यह कोईवैसी लड़कियां नही हैं . बेहद मन लगाकर सुन रही हैं . स्वरों के अन्दर घुसना चाह रही हैं . बहुत अच्छा लगा . मन लगाकर तीन घण्टे तक मैंने बजाया . छ:बजे मैंने आंखें खोलीं तो वे सभी लड़कियां एक हीस्थान पर चुपचाप बैठी हुई हैं और उनकी आंखों से आंसुओं की धाराएंबह रही हैं . रोना रुकने का कोई लक्षण नहीं . गला रुंधा हुआ . दूसरेही क्षण वे दौड़कर आयीं और मुझसे लिपट गयी और मेरे माथे को चूमने लगीं . यूरोप में बहुत जानकार संगीतज्ञों से चर्चाएं हुई . अपने संगीत कीकाफीजानकारी उन्हें हासिल करने की इच्छा थी . रागरागिनियों में कौन-सेभाव रहते हैं इत्यादि बातें मैं उन्हें समझाता. आपने खुद कुछ कम्पोजवगैरह किया है या नही, यह वे जरुर पूछते . अब भारत कीराग-रागिनियां तो यूरोप के समान किसी ने कम्पोज नहीं की हैं . पहलेकौन जाने किस युग में भगवान से ऋषियों को वे प्राप्त हुई यह मै उन्हेंबताता . कहता कि दिन के प्रत्येक प्रहर की अलग-अलग रागिनियां हैं . हरेक मेंअलग-अलग भाव रहता है . संगीत के द्वारा अपने मन के अनेक भावव्यक्त किये जा सकते हैं . भाषा की आवश्यकता नहीं होती . तार कीझनकार से ही भाव व्यक्त किया जा सकता है और उसे सुननेवाले अच्छीतरह से समझते भी हैं . यह सारी बातें सरोद बजा-बजाकर उन्हें ५४समझाता . एक दिन बुडापेस्ट में संगीत के जानकारों की एक टोली आयी . आपकोजो कहना है सरोद बजाकर कहिये--ऐसा कहा . शाम के पांच बजेहोंगे . और तीन घण्टे बाद ही सांझ होनेवाली थी . मैंने भैरवी शुरु की . भैरवी खत्म होने के बाद मैंने पूछा--आपकी समझ में क्या-क्या आया?एक ने कहा--चर्च में बैठकर प्रेअर कर रहे हैं ऐसा लगा . दूसरा बोला--भिनसारे अकेले बैठकर प्रभु की उपासना कर रहा हूंऐसा लगा . फिर एक के बाद एक सुबह के प्रथम प्रहर से रात्रि के आखिरी प्रहर तक के हर समय के अलग-अलग राग-रागिनियों के आलाप उन्हें सुनाये . हमारे संगीत में समय के अलग-अलग भावप्रदर्शित हो सकते हैं यह सभी ने मंजूर किया . भीमपलास के बारे में एक ने कहा--इस सुराबली से रोना आता है . आपके संगीत में इतने करुण स्वर कैसे निर्माण हो सकते हैं ? क्यों इतनारोना आता है ? अपने संगीत में सात स्वर की बाईस श्रुतियॉ . इक्कीसमूच्र्छनाएँ . `सा से रे'--इतने मे ही चार घाट . इन चार श्रुतियों कोहम अलग-अलग पकड़ सकते हैं इस पर वे विश्वास करने के लिए तैयारही नहीं थे . आखिरकार बजाकर बताया . तब आश्चर्यचकित होकरबोले--ध्वनि के इतने सूक्ष्म भेद आप के कान पकड़ लेते हैं . कहा--जीहां, आते हैं . इसीलिए तो हमारी राग-रागिनियां इतनी सुरीली हैं . उनमेंकिसी प्रकार की विसंगति और अलग-थलग आवाजें नही होतीं . कहा--आपके यहां ताल और टाइम तीन प्रकार के . हमारे यहां तीन सौ साठताल हैं . चौताल, झप ताल, सुर फॉक, धमार, आड़ा चौताल और कितने ही तालमैंने बजाकर बताये . शुरु दिन बुडापेस्ट में चर्चा करने जो टोली आयीथी उसमें एक विश्वविख्यात वायलिन वादक भी थे . क्या कौशल था उनकी उंगलियों के चलाने में . प्रचण्ड वेग और उतनी ही सफाई थी . लेकिन उनमें उतनी मेलडी नही थी . चर्चा अलबत्ता बहुत रंग भरी हुई . रात के बारह बज गये . हमारे सारे काम लोगों से मिलना--सभीस्थगित हो गया . वे लोग भी अपने सारे काम-काज भूलकर मनलगाकर श्रद्धापूर्वक चर्चा कर रहे थे . उस दिन उनके साथ हुई चर्चा में५५मुझे इतना आनन्द आया कि क्या बताऊँ ! यूरोप में सभी जगह ऐसा हीहुआ . सिर्फ बंगाली लोगों की हड़बड़ी अच्छी लगती है ऐसा नहीं है . यूरोप में भी लोग हड़बड़ी मचाने में निपुण हैं . लेकिन उनमें से बहुत सेसंगीतज्ञ कवि, कलाकार, रसिकों ने हमारे संगीत के मर्म को मन-ही-मनपहचाना है . एक-न-एक दिन यूरोप हमारे संगीत का सम्मान करेगा ही . लेकिन सुझे उनका गायन बिल्कुल अच्छा नही लगा . बहुत कर्कश औरकाफी चिल्लाहट . ऐसा लगता कि बस अभी मारपीट शुरु करेंगे . काबली लोगों के गाने से भी कुछ बढ़-चढ़कर . म्यूनिख माने संगीत का देश . वहां भी गया था . लेकिन हमारा यहूदीमैनेजर म्यूनिख और बर्लिन दोनों ही जगह डरा हुआ था . इसलिए हमारा एक भी शो वहां नही हो पाया लेकिन होटल में आकर काफीलोग सुनते . होटल में भी शो नहीं हुआ . अबिसिनीया में तब लड़ाईजारी थी .५६देश से पैसे बाहर ले जाने की इजाजत नहीं थी . हमने रोम, फलारेन्स, व्हेनिस--सभी शहर देख लिए . एशिया में जाने की इजाजत भी नहीं मिली . मैं अपनी टोली के पहले ही भारत लौटा . जर्मनी में भी शो होनेवाला हैं, यहूदी मैनेजर अब नहीं है, वहां सेसभी अमेरिका जानेवाले हैं--ऐसा पत्र रवि ने भेजा था . इंग्लैण्ड में हमबहुत दिन थे--लगातार तीन महीने . गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के शिष्यएल्महस्र्ट . उन्होंने गुरुदेव के आश्रम जैसा और वे ही आदर्श लेकरडिव्हेनशायर में एक आश्रम खोला है . उसका नाम था--व्हटिंग्टनहॉल . वहां भी हम गये थे . यहीं के समान वहां भी बहुत सारे छोटे-छोटेलड़के-लड़कियां थीं . उनमें जाने पर मेरी जान में जान आयी . मेरीउनकी गहरी मित्रता हो गयी . कन्धे पर चढ़कर, दाढ़ी खींचकरधौल-धप्प जमाकर और चूमकर उन्होंने खूब गड़बड़ी मचा दी .विदेश में हम केवल एक ही साल रहेंगे, ऐसा कहकर ही मैं उदय केसाथ गया था . साल के अन्त में मैं लौट आया . हमसे पहले तिमिरवरणयूरोप में महफिंलें जीतकर आया था . वह मेरा ही शागिर्द . युरोप मेंजहां-तहां उसकी प्रशंसा सुनकर बड़ी खुशी हुई . अभिमान हुआ . मेरीखुद की वैसी साधना नहीं है . स्वरों की स़्अष्टि निर्माण कर श्रोताओंको मोह लेना मुझसे कभी नहीं बनता . राजा विक्रमादित्य मध्यरात्रि कोदीपक रागनी बजाता . दिये जल उठते थे . राग-रागनियों की मदद से वह शरद, वसन्त, वर्षा ऋतुओं को बुला लेता था . वैसी मेरी साधनानहीं है इसलिये दिये भी नहीं जला पाता, बसन्त भी नहीं बुला सकता .लेकिन इस अधूरी साधना के बल पर भी मैंने यूरोप में मेरे बजाने की सराहना करवा ली अत: इससे हमारे संगीत की महानता कितनी प्रचण्डहै यह आपके ध्यान में आ जाएगा . मेरी साधना पर्याप्त होती तो मैं अपने वादन का जो रुप उनके सामने रखता वो पाता उससे पश्चिम के सारे लोग सुसंस्क़त लोग चौंधिया जाते . यूरोप में मैने काफी कुछ देखा.तब जर्मनी में हिटलर था . इटली में मुसोलिनी था . चारों ओर लड़ाईका भय . मुझे राजनीति समझ में नही आती लेकिन अरबिस्तानपेलेस्टाइन से लेकर यूरोप तक सभी जगह आधुनिक संस्क़ति का परिचय ५७हुआ . अपना देश तब गरीबी और गंवारपन के कारण कितना पछड़ाहुआ था ! हिन्दू-मुसलमान के झगड़े, ब्राहमण-शूद्रों में छुआछूत की मनाही--ऐसाअन्धापन . और उसी समय पश्चिम संस्क़ति में, शिक्षा में ज्ञान में,कितनीआगे ! कौन कहता है कि यूरोप यांत्रिक संस्क़ति का गुलाम है ?जड़वादी है ? अपने ज्ञान-विज्ञान के सहारे उन्होंने आदमी कीआध्यात्मिक ताकत भी बढ़ायी है . वहां आदमी आदमी के समान जीनासीख गया है यहां हम निर्जीव तामसिकता में डूबे हुए हैं . मैं बूढ़ा आदमी . पुराना हो गया हूं अब . यूरोप के स्त्री-पुरुषों का आचरण मुझेकुछ अच्छा नहीं लगेगा ऐसा लगा था मुझे . लेकिन जब खुद की आंखों से देखा तो गलत-फहमी दूर हो गयी . कुछ चरित्रहीन लोग यहां-वहां दोनों ही जगह हैं ही . लेकिन हम जिनसे मिले, जिनसे हिलमिल गये--उन्होंने यूरोप के बारे में मेरी धारणा साफ बदल डाली . यूरोप के लिएमेरे मन में श्रद्धा की ही भावनाएं उभरीं . एल्महस्र्ट की बेटी बिआत्रिसऔर एलिस बोनर--देवी के समान हैं . भारत के लिए उनकी श्रद्धा-भक्तिदेखकर चकित होना पड़ता है . हमें यूरोप में जो कुछ दीखा उसमें कुरुप जैसा कुछ भी नहीं था . वहां लड़के-लड़कियों का निर्बन्ध मेल-जोल, तैरना, समुद्र के किनारे धूपमें लेटे रहना, खेल, नाच-गाना कुछ भी नहीं खला . सब कुछ सहज, सुन्दर और सीधा-सच्चा लगा . उधर की महिलाएं भी काम-काज में जैसीफुर्तीली वैसी ही सीखने-पढ़ने में भी तेज . होटल की नौकरानियां .समझदारी में अपने यहां की एम. ए. या बी. ए. के स्तर की . फुरसतमिलते ही वे किताबें पढ़ती हैं . अखबार पढ़ती हैं . पसीना बहाकर मेहनत करने की भी खूब आदत है . बेशक हमारे यहां की घर-ग़हस्थीकी महिलाओं या नौकरानियों को जितनी मेहनत करनी पड़ती है,उतनी उन्हें नही करनी पड़ती . लेकिन उनकी काठी "याने अच्छे शब्दों में कहें तो--सुद़्अढ़ वैसे महिष मर्दिनी कहें तो भी चल सकता है ." यहांवैसी कोई नहीं है न ? इसलिए तो अपने क़तित्व से सारी दुनिया की गाड़ी चलती है . उनके बच्चे भी कितने सुन्दर ! परी के बच्चों जैसे . जगदेव के दिमाग में इन बातों के लिए जगह नहीं थी. उसके साथियों में और उनके व्यवहारों में बस पैसा, फाइलें, रियायतें इन्हीं बातों का पागलपन. अक्ल इसी में चलती कि जो काम हाथ में लिया है उसे कागज पर दिखावटी ढंग से कैसे पेशकिया जाय. स्कूल बजट से कम पैसों में स्कूल चलाना. गांव के लिए पांच सौरुपयों में कुआं बनवाना और मजदूरों के दस्तखत हजार रुपयों पर लेना. नहीं तो काम नहीं मिलता. कम ज्यादा जो भी मिले मजदूर तो काम करने के लिए मजबूर है. खुद सरपंच होने की वजह से सड़क के विकास के काम का गुत्ताअपने किसी साथी के नाम पर लेना. किफायत कर उसमें पैसों की बचत करना.सारे काम आधे अधूरे रह गये तो भी कोई फिक्र नहीं.रिकवरी आ गयी तो ऊपर के नेताओं को अपनी कड़ी में जोड़ लेना और उतना दवाबनिभा लेना. कोई अधिकारी ज्यादा परेशान करने लगे तो उसका खाना पीना, पंत्र पुष्पं आदि का दरोबस्त इंतजाम कर लेना. सब निभ जाता है.कुछ दिनों बाद सहसा जगदेव के कुछ लोगों ने गांव के श्मशान की जगह मे हलजोत दिया. उस दो एकड़ श्मशान भूमि में केले का बाग बनवाने का पड़यंत्र रचा गया. जगदेव ने ग्राम पंचायत की तरफ से इजाजत दे दी. लिखित रूप में. यह जगह श्मशान की नहीं है, बस्ती की है ऐसा लिखा दिया. प्रस्ताव पारित करा दिया. शुरु में लोग हंस दिये. फिर चिढ़ गये. लोगों ने दस्तखत कर अर्जियां पेश की. पटवारी गिरदावर द्वारा तहकीकात के पंचनामें हो गये. और बरसों से जो जमीन श्मशान की थी वह श्मशान की नहीं, गांव-जमीन है यह फैसला सुनाया गया. लोगों का गुस्सा और बढ़ गया. मुर्दे कहां गाड़ें? और कहां गाड़ सकते हैं? श्मशान की जगह भी कहीं बदली जाती है? ये क्यों बदल रहे हैं? कुछ लोग औरंगाबाद भी हो आये.तहसीलदार, दूसरे गांव के कुछ नेता, तहकीकात के लिए ही आये हुए डिप्टी कलक्टर अफजलपुरकर साहब इन सबके साथ गांव के लोग श्मशान में इकट्ठा हो गये. अफजलपुरकर साहब ने पूछताछ शुरु की-"हम लोग जहां पर खड़े हैं क्या वह श्मशान है?""हाव साहेब" पांच छह जन बोल उठे."नाहीं साहेब" फिर पांच दस जन बोल पड़े."पहले ठीक सुन लो. तुम लोगों के गांव के सरपंच का कहना है कि यह श्मशान नहीं है. गिरदावर और पटवारी ने भी ऐसी ही लिखा है." कलक्टर साहब ने कहा.गांव के सभी लोग एक साथ चुप्पी साधकर बैठ हुए. इतने में दगडुबा पाटील और राघोपाटील उठ पड़े. कलक्टर साहब के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये. राघो पाटील ने कहा-"साहेब, हमने कुछ कम ज्यादा कहा तो बुरा न मानना. आप ही हमारे मां बापसरकार हैं. मैं कहता हूं साहेब, यह श्मशान है. बराबर बापदादाओं के जमाने से. जगदेव अभी इस गांव का सरपंच हो गया तो क्या हुआ? उसको क्या मेरे झांटेमालूम है. वह न इस गांव का न सिवान का. यहां आकर पांच-दस साल नहीं हुएऔर कहता है कि यह श्मशान ही नहीं है. वह और क्या क्या करता है उसका हमने कभी उजर किया? कभी कोई शिकायत की? इसका मतलब उसने ऐसा समझाकि हम निरे गधे हैं और चला दिया हल हमारे श्मशान में. कल उसने कहा कि हम रहते वह घर घर नहीं, तालाब है और साहेब ने भी सिर्फ कागज पंचनामा देखना और उस पर से फैसला सुनाना. गांव में और क्या कहीं खेती नहीं बची? कितनी जमीन परती पड़ी हुई है क्या बताऊं? वहां मरो बोला जोतने के लिए.- साहेब, गले में यह तुलसी की मालादेखिए. पिछले असाढ़ की यात्रा में पण्ढरपुर में गले में डाली है. है चार आनेकी पर इस पर मेरी पूरी निष्ठा है. मेरा यह दस रूपल्ली का कमीज फाड़ दो साहब मैं उफ नहीं करूंगा पर गले की यह तुलसी माला तोड़कर देखे कोई, मैं उसका सिर फोड़ डालूंगा. ऐसा ही यहां पर हो गया है साहेब. ये सारे झूठे नकली कागजातहैं. थोड़ी देर के लिए मैं मान भी लूं कि यह श्मशान नहीं है. फिर ये बेर बबूलइतने बेरोकटोक कैसे बढ़ गये? यह जली हुई राख के ढ़ेले आप नहीं देख सकते?यह भी जाने दो. मैं श्मशान खोदता हूं. पन्द्रह दिन हो गये, पड़ोस के माली का बच्चा यहां गाड़ा हुआ है. उसे खोदकर दिखाता हूं. गढ़े से अगर हड्डियां निकली तो फिर एक एक को गाड़ देता हूं इसी गढ्ढे में. कौन सी खुराफात निकालेंगे और गांव को चकमा देंगे कुछ कह नहीं सकते. पर भगवान देख रहा है. साहेब-"कलक्टरसाहब ने बीच ही में बूढ़े को रोक दिया.`बाबा, आपका कहना बिल्कुल ठीक है. इतना बुरा न मानिए. तुम देहात के लोग ऐसा क्यों करते हैं समझ में नहीं आता. काम धंधा छोड़कर ऐसे नये स्वांग रचते हैं. थोड़े बहुत फर्क से सब तरफ ऐसे ही झमेले उकेरते रहते हैं. ठीक है. मुझेफलसफा नहीं बघारना है. उल्टे मुझी को पाठ पढ़ायेंगे ऐसे लोग हैं. मुझे सिर्फ आपकी जबानी और दस्तखत देंगे तो मैं जाऊंगा. आपकी भावना मैं जानता हूं.यह आपकी जगह श्मशान ही रहेगी. कोई इसमें दखल नहीं दे सकेगा. यहां दस्तखत कीजिए."चेहरे पर श्मशान की झांई लेकर लोगों की भीड़ बिखर गयी. राघो पाटील क्या चीज है, जगदेव अच्छी तरह से जानता था. वह श्मशान की ओर आ रहा है यह देखते हीकुछ बहाना बनाकर वह वहां से निकल भी गया था. उधर फिर राघो पाटील की टपरीउड़ा देंगे जैसी बकवास काफी दिनों तक सुनाई देती रही.३भागवत. राघो पाटील का इकलौता बेटा, पढ़ा लिखा. बाप थक गया तो खेती देखनेके लिए भागवत घर पर ही रह गया. भागवत को भी खेती का चसका. हरदमखेतीबाड़ी की रट लगाता. गांव के किसी झमेले मे कभी दखल नहीं देता. गांव कीऊपरी तरफ बड़ा खेत था उसमें नयी नयी फसल लगा कर देखता. वहां पर एक नयाकुआं भी बनवा लिया. गांव के नजदीक के धौली मिट्टी के खेत में भी कुआंबनवा लिया. दोनों जगहों के कुओं का अच्छा पानी मिल गया. इस खेत में केले, नारंगी, गन्ने की बागवानी शुरु की. भागवत किसानों में खून-पसीना एक करता था. रातदिन उसी में सिर खपाता रहता. खिलता हुआ बाग उसके लिए अपना सर्वस्व था. जी में आया तो घर लौट जाना नहीं तो वहीं खेत पर मुकामकरना. पढ़ा लिखा बच्चा क्या खाक खेती करेगा ऐसी अवहेलना शुरू में जिन लोगोंने की थी उनकी तो आंखे ही खुल गयी. जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी खेतों में गुजारी और जो दिनरात खेती का फलसफा पढ़ाते रहे उनसे ज्यादा पैदावार भागवत एक साल में ही पाने लगा. लोग उसकी खेतीबाड़ी और बाग देखने के लिएजरूर चले आते और देखकर दंग रह जाते. भागवत के बोल भी अमृत के. और आचरण भी वैसा. खेत के मजदूर और गांव के अन्य लोग उसकी तरफ अनायासखिंचते गये. अपनी तरफ से जितनी भी मदद हो सके उतनी देकर वह अपनेपास आने वालों की मुश्किलों को दूर कर देता. जो भी उसकी संगत में आया बेकार के झमेलों को छोड़ दरो-बस्त खेतीबाड़ी के काम में लग गया.भागवत का मुकाम जब गांव के पास बाग में होता तब लालजी, विठोबा,रामलाल आदि उसके दोस्ताने में पड़े लोग हमेशा वहां आ जाते. गांव के कुछऔर लोग भी वहां आराम से बातें करने के लिए आ जाते."भागवतराव, अजी जरा गांव की तरफ आते रहिये. खेतीबाड़ी तो अब ठिकाने लग गयीहै. गांव के मामलों में भी कुछ दखल दीजिए. अजीब अन्धा-धुन्ध चल रहा है."भागवत मुस्कुराकर बातों को नजरअंदाज कर देता."यह काम अपना नहीं है काका. जिनका है वे ही करें. मेरे जैसे अनजान आदमीके लिए आग में हाथ डालने जैसा होगा. जिनका है उन्हीं को मुबारक. भले बुरे का फल तो भुगतना ही पड़ता है. देर सबेर होती है इतना ही.""अब तुझे क्या कहें भागवत! तू ही ऐसे कहने लगा तो फिर कैसे होगा? सारी बातोंको ऐसे ही हवा पर उड़ा देगा तो जल्द ही गांव मटिया-मेट हो जायेगा. लिख ले मैंजो कहता हूं. कहीं कोई तालमेल नहीं है."आप लोग हरदम मेरे पास जगदेव और उसकी टोली की बदमाशी के बारेमे कहते रहते हैं. मैं जानता हूं. पर अपने लोगों का भी क्या करें जो निरेबेवकूफहैं? वे लोग चाहे जो धंधे करें आप उनकी हां में हां क्यों मिलाते हैं?उनको उतना ही मौका मिल जाता है. सोसायटी के ग्रामपंचायत के चुनाव के वक्तक्यों चुप बैठ जाते हैं? आप लोगों की कमजोरी का वह बराबर फायदा उठाता है.""हालात ने लोगों को बहोत मजबूर किया है भागवतराव, वरना उसको कौन पूछता?खेतीबाड़ी सूख गयी थी तब कर्जे की वजह से लोग उसकी गिरफ्त में आ गये.""कुछ मत कहिये पाण्डुकाका. जगदेव के, सरकार के नाम लोग चिल्लाते हैं.खेती बिल्कुल हुयी नहीं ऐसा तो नहीं हुआ. सरकारी कर्जा भी इतना काफी हैकि उसमें घर गिरस्ती, शादी ब्याह, खेतीबाड़ी सबकुछ ठीकठाक बन सकता है.खेती करना तो मैंने भी थोड़ा बहुत सीख लिया है. हम सब लोग हैदराबाद स्टेटकानून के अंदर आनेवाले! उन्नीस सौ पचास के बाद खेत के मालिक से खेतलेकर जिसने भी जमीन जोत की- चाहे मुनाफे पर या अंगोरिया बनकर, साल दो साल,या चार साल जितने भी हो, और उसने खेत में मेहनत मशक्कत की उसको काश्तकारी कानून के तहत वह जमीन मिल गयी. वह मालिक बन बैठा. बिल्कुल सेंतमेंत में. आठहजार जमीन आठ सौ के भाव में. मेहनत करने वाला मजदूर किसान बन गया. अच्छा हो गया. धनवानों की जमीन छीनकर गरीब को दे दी सरकार ने. क्याबुरा किया? फिर उस जमीन पर किसान को बैल-तकाबी दे दी. कुआं खोदने के लिएदस दस हजार रुपये दिये. हजार बातें की. इन कामों के लिए हमारे गांववालों नेउसमें से कितने पैसे खर्च किये? शराबखोरी, रण्डीबाजी, टण्टो-बखेड़ों में और आलस्य में सारी रकम खत्म हो गयी. अपने गांव के आधे से ज्यादा असामियों को जमीनें मिल गयी थी. फिर बेहद कर्जा भी मिल गया. असल में मजे की बात तो यह कि ये सारे लोग पहले खेती पर मजदूरी करते थे. कहीं साल दो साल किसी की खेती जोतते थे. फिर सहसा नया कानून बन गया. और इन्हें सेंतमेंत में ही जमीन मिल गयी. इसके लिए इन्हें न कभी कुछ मेहनत करनी पड़ी न ये जमीन इनकी बपौती जायदादथी. तिसपर आठ दस हजार से भी ज्यादा रकम मिल गयी ऊपर से. उस कर्जे को चाट गये. खेती वैसी ही रह गयी. आज अगर सरकार उस कर्जे के बदलेनिकाल भी ले तो क्या और बेच डाले तो भी क्या, इन्हें इस मुफ्त की जमीन से किसी तरह का कोई लगाव नहीं. हम तो मजदूर ही थे फिर मजदूरी करेंगे. दस पांच साल मजे में गुजर गये यही बड़भाग. मैं खूब बारीकी से देख रहा हूं. इनकी सारी कोशिशें चलती रहती है कर्जा पाने के लिए. खेती पर ये क्या पसीना बहायेंगे? परसों दो-तीन जन आये थे यहां. बैंक के नोटिस का झमेला दिखाने-""काफी लोगों को नोटिस आ गये हैं भागवत भौ. अब खेत और घर की मल्कियतजब्त होने वाली है सुनता हूं. जगदेव तो लोगों से कहता है, जमीन जाने से पहले कर्ज की एक दो और नयी स्कीमें निकली हैं, उनको भी ले लो. फिर जमीन गयी तो पर्वा नहीं. कुछ लोगों से कहता है, एक दिन ये सारा कर्जा सरकारमुआफ करने वाली है. पैदावार ही नहीं है. बराबर सूखे के या चार आने अंकाई के पंचनामे तीन चार साल भेज देना.""निरे बुद्धुओं से पाला पड़ा है. बैंक का यह पैसा किसी के बाप से नहीं टलेगा.घरबार खेत जमीन बेचकर ही आखिर में चुकाना होगा. तुम सब लोग धोखा खा रहे हो. आपसे कहता हूं काका, बुरा लगेगा पर अपने गांव के जैसे बुद्धू लोगमेरे तो देखने में नहीं आये. जमीन जैसे आयी है वैसी चली जायेगी-इस तरह कहने वाले महाभाग अपने गांव में है. फिर बाल बच्चे तड़प तड़प कर मर गये, देश खाई में गिर गया तो भी इन्हें कुछ लेना-देना नहीं है. ऐसा सोचनेवाले पूरे घाघ लोग अपने गांव में रहते हैं. इन्हें क्या कहा जा सकता है?इनके लिए वाकई क्या किया जा सकता है बताइए. बेकार का सिरदर्द मोल लेना. इससे तो अपना कारोबार अच्छा.""इसके आगे तो हम तुझे बांध ही लेंगे भागवत. आखिर कुछ तो रास्ता निकलेगा.गांव का बिगड़ा हुआ कारोबार कुछ तो ठिकाने पर आना ही चाहिये. इसके लियेतू ही कुछ कर सकेगा. दूसरे गांव वाले अपने गांव पर थूकते हैं इसका भी तो कुछख्याल कर. गिरस्ती तो सबकी होती है.""लालजी, मैं तेरी आस्था जानता हूं. ऐसा न होता तो तेरे तबले पर खुशहोकर मैं तेरे दो चार गुनाहों को माफ न कर देता. तुम दो पांच लोगों के अलावा कोई मेरे पास नहीं आता. कुछ भला सुनने कहने की हिम्मत नहीं करता.उन्होंने मेरी और मैंने उनकी जान लेना चाहिए. सब कुछ तुम लोगों को करनाहोगा. मैं राह दिखाऊंगा. ऐसा करने के कुछ और कारण भी हैं. लालजी, तू मुझे निकट से पहचानता है फिर भी कुछ बातें है जो दोस्त होने के बावजूदमैं तुझसे कह नहीं सकूंगा. घर गिरस्ती से परेशान आदमी हूं मैं. नहीं चाहिएजितना मन का कच्चापन है. आग सह नहीं सकता. जिसे घर गिरस्ती की आगझुलसाती है वह गांव के हजरहा झंझटों से कैसे निस्तार पायेगा? मैं कभी इन बातोंको किसी के सामने नहीं कहता. लोग उल्टे हम पर ही हंसते हैं. अपने दुखको खुद ही बुझाये; यहां खेतीबारी की बगीचे की हरी परछाइयों में. लालजी, तुमनहीं समझ पाओगे. आदमी अंदर और बाहर बहुत बहुत अलग होता है."भागवत की आंखों में आमावस के अंधेरे की तरह पानी जम जाता है. लालजी, रामलाल या कोई भी फिर कुछ बोल नहीं पाता. राजीव गांधी की अफ्रीका यात्रा से पैदा हुई दक्षिण अफ्रीका की बौखलाहट की इंतहा देखिए कि इधर १९ मई की सुबह राजीव गांधी का एयर इंडिया जहाज `अन्नपूर्णा' नयी दिल्ली की धरती पर उतरने की कोशिश कर रहा था और उधर ठीक उसी समय दक्षिण अफ्रीका के बमवर्षक अपनी सीमा से बोत्स्वाना, जांबिया और जिंबाब्वे के असैनिक ठिकानों पर हमला करने के लिए उड़ान भर रहे थे. दक्षिण अफ्रीका का यह शर्मनाक हमला सारे संसार की भर्त्सना का केंद्र बना यहां तक कि दक्षिण अफ्रीका की नस्लवादी सरकार की आत्मा के `ठेकेदार' देशों तक ने इस हमले से अपनी आंखें शर्म से नीची कर लीं. वॉशिंग्टन में रेगन प्रशासन ने दक्षिण अफ्रीका स्थित अपने राजदूत को वापस बुला लेने का संकेत दिया, ब्रिटेन, जिसने राष्ट्रमंडल शिखर सम्मेलन के समय बहामा में `आर्थिक नाकेबंदी' के सवाल पर सबसे अधिक अड़ीबाजी दिखायी थई और आज भी अपने उस रुख में ज्यादा परिवर्तन करने को तैयार नहीं, उसने भी लंदन में दक्षिण अफ्रीका के एक राजनयिक को बुलाकर अपनी `निंदा' व्यक्त की. लेकिन दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति पीटर बोथा ने उसी दिन जोहांसबर्ग में अपनी सारी बेशर्मी संसार के सामने उजागर करते हुए कहा : `मैं अपने सुरक्षा सैनिकों को बधाई देता हूं और इस हमले की पूरी जिम्मेदारी लेता हूं. सारा देश उन सैनिकों के साथ है. ' बोथा का झूठ देखिए कि उसी दिन विपक्ष के नेता कॉलिन एगलिन ने इस हमले को दक्षिण अफ्रीका की भयंकर राजनैतिक भूल बताते हुए आगाह किया था कि' सरकार को फौरी तौर पर कोई छोटा-मोटा फायदा भले दिख रहा हो लेकिन अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में दक्षिण अफ्रीका की साख बहुत ज्यादा गिर जायेगी. 'दक्षिण अफ्रीका की अंतरराष्ट्रीय साख तो पहले से ही कौन बड़ी ऊंची है, जो उसके गिरने की परवाह की जाये! अलबत्ता चौबीस घंटे के अंदर अंतरराष्ट्रीय बाजार में दक्षिण अफ्रीका की मुद्रा की साख बुरी तरह गिरी. सारे संसार में इस हमले के विरोध में प्रदर्शन हुए. जांबिया के शांतिप्रिय राष्ट्रपति : केनेथ काउंडा ने लुसाका में ब्रिटेन और अमेरिकी दूतावासों के सामने प्रदर्शनकारियों को शांत करते हुए दुख के साथ कहा :`यहां जो खून आज बहाया गया है उसका बदला किसी न किसी तरह कहीं न कहीं जरूर लिया जायेगा. 'बदले के लिए नहीं, अपने सम्मानजनक अस्तित्व के लिए १९१२ में स्थापित `अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस' ने १९६० से जो गुरिल्ला लड़ाई छेड़ रखी है वह लगता है अब और घनी होगी. हमले के बाद लुसाका से `युनाइटेड प्रेस इंटरनेशनल' ने खबर भी दी है कि ए. एन. सी. ने अपनी लड़ाई और तेज करने की कसम खायी है. ए. एन. सी. के एक प्रवक्ता के अनुसार: `दो साल में दो हजार अश्वेतों का मारा जाना कोई छोटी बात नहीं है. ' राष्ट्रमंडल के `महत्वपूर्ण व्यक्तियों का दल (इ. पी. जी. ) को दक्षिण अफ्रीका में शांतिपूर्ण बातचीत का दौर अधूरा छोड़ कर वापस आ जाना पड़ा और इस तरह समस्या के शांतिपूर्ण हल की संभावनाओं पर एक बार फिर पानी फिर गया, भले ही राष्ट्रमंडल महासचिव श्रीदत्त रामफल कह रहे हैं कि `शांतिपूर्ण प्रयासों पर हमले का मतलब यह नहीं है कि हमारे प्रयास बंद हो जायेंगे. 'राजीव गांधी से इसी यात्रा के दौरान एक पत्र-कार वार्ता में एक विदेशी पत्रकार ने लुसाका में सवाल किया था कि यदि `महत्वपूर्ण व्यक्तियों के दल' को कोई खास सफलता नहीं मिलती तो क्या अगस्त में लंदन में होने वाले लघु राष्ट्रमंडल शिखर सम्मेलन में कोई कड़ी कार्रवाई की जायेगी? जवाब में राजीव गांधी ने सवाल किया था: `जहां मानवीय गरिमा और बुनियादी मूल्यों की स्थापना के लिए समझाना-बुझाना नाकाम कर दिया जाये वहां मजबूरी के कदमों के अलावा कोई विकल्प रह जाता है क्या? और इसी संदर्भ में राजीव गांधी ने बिना अमेरिका या ब्रिटेन का नाम लिये कहा था: "हमें ताज्जुब है कि जो देश अपने चरित्र में मानवीय गरिमा और स्वतंत्रता और जाने किन-किन उच्च गुणों की हिमायत की दुहाई देते हैं वही दक्षिण अफ्रीका के संदर्भ में अपनी सारी दुहाइयां ताक पर रखकर एक दूसरा मुखौटा लगा लेते हैं. ' जवाब देते हुए राजीव गांधी का चेहरा तमतमा उठा था. नयी दिल्ली में उतरते ही यह सुनकर कि दक्षिण अफ्रीका ने तीन `अग्रिम देशों' पर हमला कर दिया है राजीव गांधी इस यात्रा की सफलता आंकने के बजाय अश्वेतों के संघर्ष की तकलीफों की चिंता में डूब गये. राजीव गांधी की यह चिंता इसलिए और बढ़ी हुई लगती है कि दक्षिण अफ्रीकी सरकार अश्वेतों और अश्वेतों के बीच दरार डालने में सफल हो रही है. सोमवार के हमले के विरोध में दक्षिण अफ्रीकी में जो अश्वेत प्रदर्शन हुए उनमें दक्षिण अफ्रीकी पुलिस के अश्वेत कर्मचारियों ने प्रदर्शनकारियों के खिलाफ जो व्यवहार किया उसके विरोध में मंगलवार को दर्दन में ६ और बुधवार को एक निगरानी करने वाले अश्वेत पुलिसकर्मी को अश्वेतों ने ही मौत के घाट उतार दिया. ट्रांसवाल प्रांत में भी दो अश्वेतों को पत्थरों से मारकर आग लगाने की कोशिश की गयी. अश्वेतों और अश्वेतों के बीच ऐसी दरार की चिंता के साथ बोथा की यह चेतावनी और चिंता पैदा करती है कि ` यह हमारी योजना की पहली किस्त है. हम विदेशी धरती पर ए एन सी के ठिकानों को नष्ट करने का काम इसी तरह जारी रखेंगे. 'बोथा की इस चेतावनी से उनकी सामरिक बढ़त और बढ़त की दादागीरी दोनों का अंदाजा लगया जा सकता है. अब यह बात `गुपचुप' तरीके से सर्वविदित है कि दक्षिण अफ्रीका संसार के श्रेष्ठतम सैनिक क्षमताओं वाले देशों में से एक है, जिसके पास आणविक क्षमता भी है. ऐसी क्षमताओं वाले देश की चेतावनी का खास अर्थ होता है और जो होता है उससे ज्यादा लगाया जाना चाहिए. दक्षिण अफ्रीका के इसी सामर्थ्य को ध्यान में रखकर राजीव गांधी से एक पश्चिमी पत्रकार ने उनकी यात्रा केआखिरी पड़ाव में यह सवाल भी कर डाला था कि क्या भारत दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ चल रहे आजादी के संघर्ष में किसी सैनिक सहायता की बात भी सोच सकता है? जवाब था: `बिल्कुल नहीं. ' दो टूक सवाल का दो टूक जवाब. जिन चार देशों की यात्रा राजीव गांधी ने इस बार की वहां भारत से किसी सैनिक सहायता की अपेक्षा भी नहीं है. जो अपेक्षा वहां के लोग करते रहे हैं वह यह रही है कि आदमी की अस्मिता और आजादी की लड़ाई की जो शुरुआत दक्षिण अफ्रीका से महात्मा गांधी ने की थी और जिसे आज तक अफ्रीकी जनता अपनी आजादी के संघर्ष का प्रेरणा स्रोत मानती है उस देश का प्रधानमंत्री न केवल अंतरराष्ट्रीय संगठनों में बैठकर अफ्रीकी जनता को अपना समर्थन दे बल्कि उनकी धरती पर पहुंचकर उनके सुख-दुख में भागीदारी का एहसास कराये. यह एहसास निर्गुट सम्मेलन के वर्तमान अध्यक्ष के नाते ही नहीं निर्गुट सम्मेलन के तीन प्रमुख जन्मदाताओं में से एक सदस्य के नाते भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री ने बखूबी कराया. राजीव गांधी की यह यात्रा इस आईने में देखने से और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है कि जिन तीन देशों ने निर्गुट सम्मेलन को एक सार्थकता प्रदान की थी उनमें युगोस्लाविया मार्शल टीटो के निधन के बाद इस दिशा में उतना मुखर नहीं रह गया, मिस्र पश्चिम एशिया की सैनिक राजनीति के चंगुल में फंस कर बिलकुल दूसरी प्राथमिकाताओं में उलझ गया है. सिर्फ भारत ही है जो जवाहरलाल नेहरू के आदर्शों की विरासत को लकर आजादी के लिए संघर्ष कर रहे देशों को अपना साहसपूर्ण नैतिक समर्थन देने में कारगर भूमिका भी निभा रहा है और महाशक्तियों के दबाव को झेलकर भी उनसे अलग अपनी आवाज बुलंद कर पा रहा है. यह उसकी आवाज की बुलंदी का ही नतीजा है कि दक्षिण अफ्रीका पर लगातार दबाव बढ़ता गया है और अब संसार के हर सोचने-समझने वाले आदमी को लगता है कि दक्षिण अफ्रीका की नस्लवादी सरकार अब समय काट रही है. ऐसा नहीं है कि यह बात ये संघर्षरत अफ्रीकी देश समझते नहीं है. भारत की इस भावना को वे अच्छी तरह समझते ही नहीं स्वीकार भी करते हैं. इस यात्रा का सबसे पहले पड़ाव सुसाका में राजीव गांधी का जो स्वागत हुआ, जिस तरह राजनय की सीमाओं को तोड़कर राष्ट्रपति काउंडा ने हवाई अ़अडे में खुद अपनी पत्नी सहित आकर राजीव गांधी और उनकी पत्नी का स्वागत किया, वह अविस्मरणीय क्षण था. उधर तोपें सलामी दे रही थीं, इधर सैनिक बैंड पर राजीव गांधी को गार्ड आफ नर पेश किया जा रहा था. इस औपचारिकता में अनौपचारिकाता भी बुनी हुई थी. राजीव गांधी गार्ड आफ नर का निरीक्षण कर रहे थे और काउंडा साहब सलामी मंच पर अकेले खड़े सैनिक धुन पर अपनी उंगलियों से ताल दे रहे थे. इस औपचारिकता ने एक पारिवारिक माहौल भी पैदा कर दिया था. क्योंकि काउंडा साहब ९ बार भारत आ चुके हैं. भारत के प्रति उनका लगाव स्थायी आत्मीयता में बदल चुका है और राजीव गांधी के प्रति वह भाव हर क्षण प्रतिध्वनित होता दिखायी देता है. तांजानिया के जूलियस न्यरेरे के अलावा केनेथ काउंडा ही अफ्रीका के वे नेता हैं जिनके साथ श्रीमती गांधी का निजी पत्राचार होता था और इन पत्रों में अंतरराष्ट्रीय मसले ही नहीं, नितांत मानवीय मुद्दे भी उठाये जाते थे. शाम को जब राजीव गांधी के सम्मान में प्रीतिभोज दिया गया तो वहां यह अनौपचारिकता इस सीमा तक व्यापी कि राष्ट्रपति काउंडा ने स्वयं गाना गाकर सारे अतिथियों को उसमें सम्मिलित कर लिया. . . और फिर स्वयं राजीव गांधी के साथ अगली बातचीत के लिए गये. बाकी अतिथिगण बाद में भी गाते-बजाते रहे. जांबिया, जिसकी राजधानी लुसाका है, करीब ७० लाख की आबादी वाला एक ऐसा देश है जिसे सिर्फ २१ वर्ष पहले आजादी हासिल हुई. यह वही देश है जिसे १८९० तक, सेसिल रोड्स के नाम पर, रोडेसिया के नाम से जाना जाता था. ७० से अधिक जनजातियों और कबीलों में बंटी हुई यहां की जनसंख्या को जब २१ साल पहले आजादी मिली तो कैनेथ काउंडा ४० साल के थे. १९६६ में वहां पहली यूनीवर्सिटी खुली और आज कैनेथ काउंडा ने यह स्थिति पैदा कर दी है कि वहां शिक्षा मुफ्त है. लेकिन दशाब्दियों की जतन से फैलायी गयी निरक्षरता को सिर्फ दो दसाब्दियों के प्रयासों से तो नहीं मिटाया जा सकता. इसलिए आज भी जांबिया में निरक्षरों की संख्या काफी है. आय का स्रोत सिर्फ तांबा है और दुनिया में उस तांबे को भेजने का रास्ता दक्षिण अफ्रीका से हो कर है. विडंबना यह है कि जिस दक्षिण अफ्रीका की नस्लवादी सरकार के खीलाफ जांबिया. जिंबाब्वे, ताजानिया आदि देश संघर्ष के मोर्चे पर डटे हुए हैं उन सभी देशों को अपने अर्थतंत्र में दक्षिण अफ्रीका पर बहुत कुछ निर्भर करना पड़ रहा है. इन देशों की अधिकांश खनिज संपदा को निर्यात के लिए ले जाने का असली रास्ता दक्षिण अफ्रीका हो कर है. दक्षिण अफ्रीका इन अफ्रीकी देशों की इस मजबूरी को अच्छी तरह समझता भी है और बाजू मरोड़ने के तौर पर इस्तेमाल भी करता है. इसी लिए दक्षिण अफ्रीका पर नाकेबंदी न करने की वकालत करने वाले देश कहते हैं कि `आर्थिक नाकेबंदी करके हम उन्हीं देशों का नुकसान करेंगे जिनकी हम सहायता करना चाहते हैं. 'केनेथ काउंडा जांबिया को २१ साल की आजादी के बाद भी गरीबी से इतनी मुक्ति भी नहीं दिला पा रहे जितनी उसे अब मिल जानी जाहिए थी. लुसाका शहर को देखने से इस बात का पूरा अंदाजा हो जाता है. शहर की सारी दुकानें तीन-चार मुख्य सड़कों के बीच ही केंद्रित हैं, जिनमें एक सड़क वह भी है जिसे इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद उन्हीं के नाम से जानी जाती है. ये सड़कें शाम के वक्त बिलकुल सूनी हो जाती हैं और अगर मुंहबोली बातों पर विश्वास किया जाये तो यह भी सुनने में आया कि इन सड़कों पर खुले आम शाम के वक्त टहलना अपने को लुटवाने का आमंत्रण देना है. (इस बात की जांच करने के लिए मेरे पास न समय था न साहस. )इस तरह की गैरकानूनी हरकतें तभी होती हैं जब देश में बेरोजगारी और महंगाई दोनों का बोलबाला हो जाये और इन दोनों से जांबिया अछूता नहीं रहा. कुल जनसंख्या में रोजगार पाने और कमाने वालों का औसत अनुपात २० और १ का है और महंगाई की यह हालत है कि जो जांबिया की मुद्रा क्वाचा १० साल पहले १४ रु. के बराबर हुआ करती थी वह अब सिकुड़कर २ रु. तक आ गयी है और इसके आगे भी सिकुड़ते चले जाने के आसार थमते नहीं दीख रहे. महंगाई का हाल यह है कि मुझे अपने टेपरिकार्डर के लिए एक छोटा बैटरी का सेल लेना पड़ा, जो हिंदुस्तान में दो-सवा दो रु. का बड़ी आसानी से मिलता है, वह वहां एक अमेरिकी डालर (लगभग साढ़े बारह रुपये) से कम का नहीं आता. . . और इस तरह बेरोजगार नौजवानों की कतार बढ़ती चली जा रही है और जांबिया की समस्याओं में लगातार इजाफा कर रही है. प्रधानमंत्री की इस यात्रा के दौरान केनेथ काउंडा से इन आंतरिक समस्याओं पर भी उनकी बातचीत हुई और आर्थिक सहयोग के विभिन्न क्षेत्रों की तलाश शुरू की गयी. (जांबिया का एक प्रतिनिधिमंडल शीघ्र ही भारत आने वाला है). २८ अप्रैल को अमृतसर के दुर्गियाना मंदिर से एक नौजवान मत्था टेककर वापस अपने घर जा रहा था कि अचानक खुली सड़क पर एक कार रुकी और उसमें से धड़ाधड़ गोलियां चलने लगीं. इससे पहले कि नौजवान के चार अंगरक्षक जवाबी गोली चलायें आक्रमणकारी कार में वहां से गायब हो गये. इस आक्रमण में एक अंगरक्षक की मृत्यु हो गयी और तीन घायल हो गये. नौजवान साफ बच गया क्योंकि गोलियों की बौछार होते ही वह जमीन पर लेट गया था और मौका पाते ही घटनास्थल से भाग गया. यह नौजवान था सुरेंद्र कुमार बिल्ला, जो कि पंजाब में नवगठित संगठन राष्ट्रीय हिंदू संगठन के अध्यक्ष हैं. बिल्ला कई बार अखबारों की सुर्खियों का विषय रहे हैं, क्योंकि अमृतसर में शिवसेना के अतिरिक्त उनका संगठन आंतकवादी गतिविधियों के विरोध में उभर कर आया है. पांचवी बार पकड़े जाने के बाद अब सुरेंद्र कुमार बिल्ला कुंभमेले में कथित उत्तेजक भाषण देने के मामले में जमानत पर रिहा हुए हैं. दिल्ली हिंदू मंच के प्रदर्शन में भाग लेने के लिए आये हुए सुरेंद्र कुमार बिल्ला के साथ दिनमान की बातचीत पंजाब में हिंदू संगठनों की सोच और आसंकाओं का एक चित्र प्रस्तुत करती है. २८ अप्रैल को जब आप पर हमला हुआ तो क्या पुलिस ने आक्रमणकारियों को पहचानने या पकड़ने में कोई कार्रवाई की है?कार्रवाई का सवाल ही नहीं पैदा होता. मेरे पास सी. आर. पी. के चार अंगरक्षक थे. उनमें से एक इस आक्रमण में मारा गया. हत्या की रपट दूसरे सिपाहियों ने पुलिस में दर्ज करायी. मगर जिस आदमी को मारने का प्रयास किया गया था उससे आज तक न तो पुलिस ने संपर्क किया न कभी कोई बयान लिया गया. मुझे लगा कि यह मेरा नैतिक दायित्व है कि मैं मृत अंगरक्षक के दाह संस्कार में शामिल हो जाऊं. श्मशान घाट पर पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने व्यंग्य किया; हम तो सुनते थे कि तुम बहुत बहादुर आदमी हो. बड़ी चर्चा है तुम्हारी अमृतसर में. तुम्हें आतंकवादियों की गोली खानी ही चाहिए थी. पुलिस के इरादों का इससे बड़ा क्या सबूत मिल सकता है कि उन्हें उस फिएट कार का नंबर भी बता दिया गया था जिसमें आक्रमणकारी आये (पी. जे. डब्ल्यू ५५०९) मगर कार्रवाई होनी नहीं थी नहीं हुई. पंजाब से भागने वाले हिंदुओं की संख्या के बारे में. अलग अलग बयान जारी किये गये हैं. आपके अपने दोनों के अनुसार कितने लोग पंजाब से भाग गये होंगे?पंजाब में १२,५०० गांव हैं, जिनमें से ६००० गांव से कोई न कोई परिवार घर छोड़कर चला गया. यह प्रक्रिया कुछ जिलों में अधिक है, कुछ में कम. फिर भी मेरा अनुमान है कि लगभग ५० हजार लोग अपना घर छोड़कर भाग गये हैं. क्या इसका कोई प्रमाण है?प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता ही क्या. हमारे पास सभी गांव के उन परिवारों का विवरण मौजूद है जो आतंक के कारण भागे हैं. अमृतसर में ही कई शरणार्थी शिविर इन लोगों से भरे पड़े हैं. हमारा संगठन पंजाब भर में ऐसे दस शरणार्थी शिविर चला रहा है जिनमें हम शरणार्थियों को भोजन देते हैं और यदि जरूरत हुई तो चिकित्सा संबंधी सहायता भी प्रदान करते हैं. सैकड़ों परिवार तो राज्य के बाहर स्थायी रूप से चले गये हैं. आपके दिल्ली में ही कई सौ परिवारों ने शरण ली है. इनमें से कुछ परिवारों ने अपना व्यापार भी स्थानांतरित किया है. क्या इस बात की कोशिश नहीं की जानी चाहिए कि ये परिवार फिर से वापस अपने घरों को चले जायें और पलायन की यह प्रक्रिया बंद हो?कहना आसान है. किस आश्वासन पर इन्हें वापस भेजने के लिए प्रेरित किया जायेगा? खतरा आतंकवादियों से ही नहीं पंजाब पुलिस से भी तो है. राज्य छोड़ने वाले परिवारों का पहला समूह हरियाणा में करनाल चला गया. जब राष्ट्रीय समाचारपत्रों में खबरें छपीं तो पंजाब के एक मंत्री वित्तआयुक्त के साथ वहां पहुंचे. लोगों को समझाया कि उन्हें वापस पंजाब आना चाहिए. मैं उस समय वहां मौजूद था. उन्होंने मुझ से भी अनुरोध किया कि मैं अपना प्रभाव इस्तेमाल करके लोगों को वापस जाने के लिए प्रेरित करूं. मगर मैंने मंत्री महोदय को अपनी असमर्थता बताते हुए कहा कि मैं उन्हें संरक्षण नहीं दे सकता और पंजाब पुलिस और प्रशासन के वर्तमान रवैये को देख कर आपका आश्वासन भी कोई काम नहीं करेगा. इस बीच हरियाणा के काफी लोग वहां इकट्ठे हो गये थे. उनकी मंत्री से कहासुनी भी हुई और मंत्री महोदय बिना किसी उपलब्धि के वापस चले गये. लगता है आपको पंजाब पुलिस पर बिल्कुल कोई विश्वास नहीं है. यदि मैं केवल अपने अनुभव के आधार पर कहता तो आपको शंका करने का पूरा अधिकार था मगर यह उन शरणार्थियों से पूछिए जो अपना घरबार छोड़कर चले गये हैं. मेरा तो यह आरोप है कि पंजाब में हत्या और लूटपाट की जितनी घटनाएं होती हैं उनमें ७०-७५ प्रतिशत में पंजाब पुलिस का प्रत्यक्ष या परोक्ष हाथ होता है. पंजाब के पुलिस थानों में आतंकवादियों के कार्यक्रम बनते हों या न बनते हों अनेक पुलिस अफसरों के घरों में जरूर बनते हैं. यदि केंद्रीय सरकार इस सिलसिले में किसी गैरपंजाबी न्यायाधीश से निष्पक्ष जांच कराये तो मेरी बात सत्य सिद्ध हो जायेगी.पंजाब पुलिस के पक्षपात और अपराधपूर्ण रवैये के सिलसिले में कौन से ऐसे तथ्य हैं जो आपके विश्वास की पुष्टि करते हैं?अगर आतंकवादी पीले रंग की पुलिस मोटरसाइकिल पर सवार होकर आक्रमण करें. अगर भूतपूर्व पुलिस अधिकारी हत्या के आरोप में पकड़े जायें, अगर कर्फ्यू ग्रस्त क्षेत्र में आतंकवादी बिना रोकटोक के आकर लूटमार करें तो आप क्या नतीजा निकालेंगे? ऐसे कितने ही उदाहरण हैं जहां आक्रमण की सूचना के घंटों बाद तक पुलिस घटनास्थल पर आती ही नहीं और यदि अनायास कोई उपद्रवी या आतंकवादी गिरफ्तार हो भी जाये तो भी इसका कोई आश्वासन नहीं है कि वह गिरफ्तार रहेगा. जहां आतंकवादी सी. आर. पी. या सीमा सुरक्षा बल के हाथ लग जाते हैं वहां तो कुछ कार्रवाई होती है. आतंकवादियों के पकड़े जाने के जो समाचार आप अखबारों में पढ़ते हैं वे तो आटे में नमक के बराबर हैं. सफल गिरफ्तारी केवल वहीं होती हैं जहां पुलिस के सर्वोच्च अधिकारी घटना में रूचि लें. मगर ऐसा कितनी बार होता है?कानून-व्यवस्था को सुधारने के लिए आपका क्या सुझाव है?हमने प्रधानमंत्री को एक ज्ञापन दिया है, जिसमें हमने मांग की है कि पंजाब के उन जिलों में सेना बुलायी जाये जहां आतंकवादियों का ज्यादा जोर है. तात्कालिक रूप से केंद्रीय सुरक्षा बलों को स्वतंत्र रूप से कार्रवाई करने की इजाजत दी जानी जाहिए. इस समय वे पंजाब पुलिस कानुन-व्यवस्था कभी भी संभाल नहीं सकती. बिल्ली से दही की रखवाली नहीं करायी जा सकती. हमारी मांग है कि पंजाब पुलिस को विघटित कर दिया जाये और सभी कर्मचारियों को अन्य राज्यों में स्थानांतरित कर दिया जाये, क्योंकि जब तक उनके पास अधिकार और हथियार है वे आतंकवादियों से कम खतरनाक नहीं. हाल ही में पंजाब में कई हिंदू संगठन बन गये हैं. इनकी क्या भूमिका है?ये संगठन आत्मरक्षा की छटपटाहट है. पुलिस और प्रशासन से निराश होकर ही ऐसे संगठनों की आवश्यकता पड़ी है. मगर पंजाब के ये हिंदू संगठन आतंकवादी संगठन नहीं है. हम किसी को मारना नहीं चाहते. अपने आप को मरने से बचाना चहाते हैं. इस समय हमारी प्रमुख भूमिका यह है कि पंजाब में हो रहे अत्याचार की जानकारी पूरे देश को दें. आतंकित लोगों की जहां तक हो सकती है, मदद करें. मान लीजिए कि आपकी ये मांगें स्वीकार नहीं की जातीं और आतंकवादी गतिविधियां बदस्तूर जारी रहती हैं तो आप आत्मरक्षा के लिए क्या करेंगे?इस समय हम यह मानते हैं कि हिंदू और सिख एक ही संप्रदाय हैं. दोनों के बीच अभी भी बेटी और रोटी का संबंध है. मगर कब तक इकतरफा उदारता चलायी जा सकती है? अपनी रक्षा स्वयं करने के लिए जरूरत पड़ी तो हम संगठित हो जायेंगे और हमें विश्वास है कि एक बार यदि हम निश्चय कर लें कि हमें स्वयं कुछ करना है तो आतंकवादियों को पर्याप्त शक्ति के साथ हम जवाब दे सकते हैं. क्या इसके लिए आपके पास हथियार है? कोई समरनीति है?यह सही है कि जितने भी संगठन आज पंजाब में है उनको स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार स्थानीय लोगों ने बनाया है. किसी का कार्यक्षेत्र एक मोहल्ला है-तो किसी का एक शहर है. दो तीन संगठन राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में एक साथ सक्रिय हैं. शुरू शुरू में इनके बीच में कोई तालमेल नहीं था. मगर अब तालमेल की आवश्यकता महसूस होने लगी है. दिल्ली के प्रदर्शन में मैं मौजूद था. क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि तालमेल की शुरुआत हो गयी है.रही बात हथियारों की मैं फिर कहना चाहता हूं कि हम हथियार नहीं उठाना चाहते. हथियार हमारे पास हैं भी नहीं. मगर यदि मजबूर किया गया तो पंजाब के हिंदू हथियार उठायेंगे और इसका पूरा उत्तरदायित्व पंजाब और केंद्रीय सरकारों पर होगा. मान लीजिये कि कभी हथियार उठाना पड़े तो आपके पास हथियार प्राप्त करने का कोई स्रोत है?इस प्रश्न पर हमने अभी सोचा ही नहीं, क्योंकि यह हमारी तात्कालिक योजना का हिस्सा नहीं है. आतंकवादियों की तरह हमारे पास कोई विदेशी स्रोत नहीं है. उनके हथियार या तो पुलिस उपलब्ध कराती है या तस्कर. पंजाब में तस्करी का धंधा बड़े ऊंचे पैमाने पर होता है, जिसमें वरिष्ठ अधिकारी और मंत्री तक जुड़े हुए हैं. हम पाकिस्तान जाकर हथियार नहीं मांग सकते. मगर विवशता में यदि पंजाब के हिंदुओं को हथियारों की जरूरत पड़ेगी तो उन्हें तस्करों और पंजाब पुलिस का मुंह नहीं देखना पड़ेगा. आखिरकार हम अकेले नहीं. पूरे देश की जनता हमारे साथ है. क्या आप मानते हैं कि सरकार की नीतियां पंजाब में हिंदुओं और सिखों को मोर्चेबंदी करने के लिए मजबूर कर रही हैं?अत्यंत दुख के साथ मुझे कहना पड़ता है कि सरकार की अनिश्चय से भरी नीतियां पंजाब की त्रासदी को और गहरा करने में मदद करेंगी. शायद आप यह जानते होंगे कि पंजाब के अनेक बड़े शहरों में हिंदुओं का बहुमत है, अमृतसर में भी. मेरी प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पूरे भारतीय राष्ट्र से अनुरोध है कि वह समय रहते पंजाब को बचायें, अन्यथा वह समय दूर नहीं जबकि पंजाब के हर शहर में सशस्त्र मोर्चा लगेगा, हर कस्बा किला बनेगा. हम उस दिन के इच्छुक नहीं हैं और हर संभव कोशिश करेंगे कि वह मनहूस घड़ी न आये. २१ जून को लाल किले के सामने केसरी झंडों और केसरी टोपियों की बाढ़ आ गयी थी. हिंदू मंच के युवक आवेश और उत्तेजना की स्थिति में नारे लगा रहे थे. उनके रोष का कारण पंजाब सरकार और आतंकवादी तो थे ही. भारत सरकार भी थी. दिल्ली के हिंदू मंच के नेतृत्व में २१ जून को एक जुलूस लाल किले के मैदान से पुरानी दिल्ली के बाजारों से होकर नयी दिल्ली स्थित मिंटो पुल के पास शिवाजी की प्रतिमा तक ले जाने की योजना बनायी गयी थी. आरंभ में दिल्ली प्रशासन ने जुलूस के लिए अनुमति दी मगर दो दिन पहले आयोजकों को बता दिया गया कि शहर में धारा १४४ लागू कर दी गयी है, इसलिए जुलूस नहीं निकल सकता. अत: मंच के नेताओं ने निषेधाज्ञा तोड़ने का फैसला किया. लगभग दो हजार युवकों का यह समूह सामान्य राजनैतिक प्रदर्शनकारियों से कई मायने में भिन्न था. इसमें अधिसंख्य की आयु २० से ३० वर्ष के बीच की थी और सबके सब एक आवेश में झूम रहे थे. सामान्य प्रदर्शनों से यह भिन्न नजारा था. कई युवकों के हाथ में त्रिशूल थे और अधिसंख्य नौजवानों की कमर में भी छोटे-छोटे त्रिशूल बंधे हुए थे. नारों के बीच एक दो तलवारें भी हवा में उछल रही थीं. एक युवक के शब्दों में यह शस्त्र आत्मरक्षा का प्रतीक है, जिससे समाज में खोया हुआ आत्मविश्वास जाग उठेगा. इस तर्क की पुष्टि में जैसे एक नारा गूंजा `अपनी रक्षा आप करेंगे'. लगभग पांच बजे जुलूस मैदान से बाहर जाने लगा तो पुलिस ने अपना घेरा तंग करना आरंभ कर दिया. घुड़सवार सिपाहियों ने धावा बोला मगर युवकों की भीड़ बेकाबू हो चुकी थी. लाल किले के सामने ऊंची दीवार को फांद कर युवक मुख्य सड़क पर आ चुके थे और यहीं पुलिस के साथ उनकी मुठभेड़ हो गयी. स्थिति और गंभीर हो सकती थी यदि आयोजकों ने कार्यकर्त्ताओं को नियंत्रित करके गिरफ्तारियां देने का फैसला न किया होता. प्रदर्शन यूं तो हिंदू मंच ने आयोजित किया था मगर उसमें पंजाब के कई नवगठित हिंदू संगठनों के प्रतिनिधियों ने भी हिस्सा लिया. इस प्रकार यह प्रदर्शन आतंकवाद और कथित हिंदू विरोधी भावनाओं के विरुद्ध बने अनेक संगठनों के बीच तालमेल का शायद पहला अवसर था. बत्ती को जलाकर उसकी मां निकल आयी."घूमने नहीं गया था. भीम के यहां गया था."इसके बाद उसने मां से मधुमक्खी के छत्ते को तोड़ने के संबंध की पूरी योजना के बारे में बतलाया. सुनकर मां को खुशी हुई."मैंने सोचा था कि पिता के बारे में समाचार जानने के लिए तू गया था.गुलच बड़बड़ाने लगा-`उन बातों के बारे में मुझसे कुछ न कह. कोई मरना चाहे तो मरे. और तू यदि देखना चाहती है तो देख आ. तुम लोगों की तो शर्म- तर्म भी नहीं है."उसकी मां भी क्रोधीत हो उठी--"मुझे क्या पड़ा है?- पटरानी है, बहू है, खूब सेवा-सुश्रुसा होगी. मरने के समय कौन मुंह में एक बूंद पानी देगा मैं देखूंगी."मां की बात को सुनकर गुलच को खुशी हुई. उसी की तरह उसकी मां भी अपनी बात का कायल है."अच्छा, रात काफी हो गयी है, जा, सो जा. इस समय चिल्लाने-विल्लाने की जरूरत नहीं है."- गुलच ने कहा."तेरे कहने से ही नहीं होता. एक बार रात को घूमकर एक को घर में लाकर तुझे क्या मजा मिला है, तुझे याद नहीं है, तुझे शर्म नहीं है? भीम के यहां जाता है, जिस किसी के घर जाता है, दिन के समय जा. सारे गांव का और काम ही क्या है? कौन कहां गया, किसने किसकी ओर ताका- उसका हिसाब किताब लेना ही काम है. शत्रु को कभी भी शह नहीं देनी चाहिए.""मैं पाही को ही चला जाऊंगा. घर को बना लेता हूं. तुझे भी लेते जाऊंगा-" मां ने उसके मुंह की तरफ देखा."मेरे साथ दिल्लगी करने न आ. अपनी इस जन्म भूमि इस गांव को छोड़कर ही तेरे उस पार की पाही में क्यों जाऊं! मरना है तो यहीं मरूंगी. गांव के बाहर क्यों जाऊंगू?"- कड़े शब्दों में मां ने कहा."वहां क्या आदमी नहीं हैं? यदि कुछ अधिक जमीन आबाद कर सकूं तो यहां से कहीं अधिक सुख में रहेंगे.""तेरे सुख को रहने दे. स्थान छोड़ने का माने है अपना सम्मान गंवाना. अपने गांव में झोपड़े में रहकर मांगकर खाऊंगी. किंतु यहां से क्यों चली जाऊंगी?तू जो करना चाहता है कर, मुझसे न कहा कर."गुलच को मां के लिए जरा भय-सा लगा. उसकी मां ने एक भी झूठी बात नहीं कही है. मां को इस प्रकार सहज बातों से भुलाया नहीं जा सकता.पानदान से सुपारी का एक टुकड़ा उठाकर उसने मुंह में भरा और कमीज की जेब से अधजली बीड़ी के टुकड़े को निकालकर जलाने लगा.उसकी मां ने कहा- "पाही में घर-वर बनाने की जरूरत नहीं है. हो सके तो कहीं यहीं एक अच्छी जमीन देखकर ठीक तरह से एक मकान बना. पानी चने- वाले मकान में और कितने दिन रहेंगे."गुलच ने कुछ न कहा.जवान होने पर भी औरों की तरह वह लगातार काम नहीं कर सकता. उसका मन बड़ा ही कोमल है. यदि एक सुंदर पत्ता भी उसे दिखलाई पड़े तो उसे देखकर वह दूसरे काम को भूल जाता, आकाश के मेघ के एक टुकड़े को देखकर वह खाना खाना भी भूल जाता है. कहीं जंगल में किसी चिड़िया की आवाज सुन-कर भी वह व्याकुल हो उठता है. वह किसी भी काम में एकाग्रता के साथ लगे नहीं रह सकता.मां जो कहे, पाही में ही एक बढ़िया मकान बनाना होगा- नदी के किनारे एक सुंदर-सा मकान. तरा के लिए.बहू की सेवा जब मिलने लगेगी तब मां का गुस्सा समाप्त हो जाएगा. तरा यदि कुछ खातिर आदि मां को करे तो सब ठीक हो जाएगा.विस्तर पर पड़े पड़े उसकी मां ने धीरे धीरे अपने से ही कहा- "उसके साथ के सभी ने विवाह किया है, बाल-बच्चे हुए हैं. इस प्रकार घुमक्कड़ होने से घर कैसे बसेगा! मन को बांधना होगा, तभी होगा. बन गया घुमक्कड़. इतना जवान हो गया है, घर को ठीक करने के लिए कोई हौसला ही नहीं है. दिन भर घूमते रहने से ही उसका घर बसेगा, खाना-कपड़ा होगा."बीड़ी का आखिरी कश लगाकर गुलच ने ने कहा- "इधर-उधर न जाकर घर में बैठकर तेरे मुंह को ताकते रहने से ही पेट भर जाएगा? तू नहीं जाएगी तो यहीं रहेगी, मैं घर-द्वार पाही में ही बनाऊंगा. जो होगा, होगा."उसकी मां ने और कुछ न कहा. थोड़ी देर बाद मां को नींद आ गयी.चटाई को फर्श पर बिछकार तेल से दागभरे तकिये पर सर रखकर गुलच लंबा हो गया. उसकी आंखें अभी नहीं मुंदी हैं. ऊपर की काली छत की ओर ताककर उसने सोचा, इस प्रकार और ज्यादा दिन नहीं रहा जा सकता. कपाही यदि तरा-को न देने की बात पर जिद्द करने लगी तो उसे जबरदस्ती ही लाना होगा. चंद्र-के साथ जरा सलाह-मश्विरा करना होगा. कपाही बदचलन औरत है, तरा की अपनी मां भी नहीं है. और कौन तरासे ब्याह करेगा? पाही में ही घर को अच्छी तरह बना डालूं. यदि भगाकर ले आने की नौबत आ जाय तो पाही में ही ले आऊंगा. वहां जल्दी कोई भी खोज नहीं निकाल सकेगा. और ले आने के बाद तरा को खोजते हुए कौन आयेगा?तेल से रिक्त बत्ती का प्रकाश धीरे धीरे क्षीण होने लगा और एक बार वह बुझ गया. मकान की छत के एक सुराख से होकर चांदनी की एक पिली रेखा आकर उसके तकिये के पास ही पड़ी है. वह कुछ देर तक देखता रहा. कुछ भी हिले बिना चांदनी भीतर चली आयी है. उसने अपने हाथ को पसारकर तलवे को उस ओर कर दिया. उसके हाथ के तलवे पर एक तलवा सफेद चांदनी है. . . छह डालिम गांव का सफीयत जरा पैसे वाला आदमी है. उसकी बुवाई की जमीन ही चौदह एकड़ है. उस पार की पाही में भी उसकी नौ एकड़ के करीब रबी फसल की जमीन है. अठारह साल की उम्र में ही विवाह किया था, अब अड़सठ वर्ष हो रहे हैं. उसकी सेहत अब भी बिलकुल ठीक है.सफी बूढ़े की पांच बेटिया हैं, उन सबका विवाह कभी का हो चुका है, नाति-नातिन हुए हैं. दो बेटे हैं- लड़कियों से छोटे हैं. बड़ा बेटा रफीयत. रफी-यत का विवाह भी कई वर्ष पहले हो गया है. दो बच्चियां हुई हैं. छोटे का विवाह अभी नहीं हुआ है. उसकी उम्र बत्तीस पार कर गयी है.विवाह न होने के कारण कई हैं.बफी उसका नाम है. बफी बोना है, उसकी ऊंचाई साढ़े तीन फुट के करीब है.एक आंख जन्म से ही कानी है. बायें हाथ की दो अंगुलियों का एक-एक पोर नहीं है. इसके अलावा उसका मुंह जरा टेढ़ा है, ऊपर के दांत उसके इस प्रकार निकलते रहते हैं कि लोगों को लगता है कि वह हमेशा हंसता रहता है.बफी जरा गूंगा भी है. उसको जो कुछ बुद्धि थी गांव के सभी जब उसे गूंगा कह के तंग करने लगे तो उसको भी उसने खो दिया.सफी बूढ़ा को बफी के लिए दुख न होते हुए भी चिंता अवश्य थी. उसकी मुख्य चिंता थी उसके लिए किसी प्रकार से एक लड़की की व्यवस्था करना. गांव में लंगरा, काना कोई भी बिना ब्याहे नहीं रहता. विवाह करना सुन्नत है, अनिवार्य धर्म है. विवाह का परिणाम चाहे कुछ भी हो. विवाह न कराना बड़े गुनाह की बात है. पाप की बात है.सफी बूढ़े की धारणा है कि छोटे बेटे का विवाह वह यदि करके नहीं जा सका तो पिता का कर्त्तव्य अधूरा ही रह जायगा. कहीं से भी एक लड़की की व्यवस्था करनी ही होगी.किंतु, कहीं से भी कहने से ही काम चलने वाला नहीं है. सफीयत की बहू रूप और गुण दोनों की दृष्टि से लोगों को सुहानी होना होगी. गूंगा हो सकता है, तथापि रफी सफी का बेटा है.और वह लड़की है कपाही की भतीजी बेटी तरा.कपाही के बदनाम की बात यथेष्ठ पुरानी हो चुकी है. और सफी की बहू की ओर अंगुली उठआने वाले आदमी गांव में बहुत कम हैं. केवल है वह बदमाश चदू. उसी के लिए जरा भय है. उसके लिए हिंदू-मुसलमान, छोटे-बड़े के बीच भेद नहीं है.कपाही और तरा सफी के खेत में रोपाई-कटाई करती हैं. कपाही उसके घर धान भी कूटती है और पानी भी भरती है. बफी ने तरा को देखा है, तरा भी उसे भैया कहकर पुकारती है. रफी देखने में सुंदर नहीं है. किंतु वह क्या आदमी नहीं है?दस-बारह वर्ष पहले कपाही के प्रति सफी खुद ही आकर्षित हुआ था. उसके समझने लायक उसने थोड़ा-बहुत प्यार भी किया था, उसके घर जाकर उसने समा-चार आदि भी लिया था. किंतु, जब एक दिन कपाही के घर में अपने बेटे रफी को उसने देख लिया, उस दिन से कपाही के साथ उसका संबंध अलग कर लिया.अपनी इज्जत की रक्षा किस तरह की जानी चाहिए सफी को मालूम है.अगले दिन अपने बेटे रफी को भी उसने सावधान कर दिया कि कपाही के घर रात को जाना यदि वह बंद नहीं करता है तो उसे घर से निकाल देगा. रफी पिता को बाघ-जैसा ज्ञान करता है. कपाही को बुआ के सम्मान को खोना नहीं पड़ा.बफी के लिए बूढ़े ने दो-एक जगह लड़की देखी थी. किंतु, कोई नाम तक नहीं सुनता है. दो-एक ने गाली गलौज करके कड़े शब्द भी सुनाये. उस काने को अपनी लड़की देने के बजाय उसे काटकर और बोरे में भरकर धनशिरि में बहा देना अच्छा है. सफीयत की बहू न होने पर हमारी लड़की को खाना न मिले तो न मिले.सफीयत को ज्ञात हुआ. लड़का देखकर ही लड़की खोजनी चाहिए. उस गूंगे को एक बढ़िया लड़की को लाकर देने से वह उसे चैन से रहने नहीं देगी.इधर कुछ दिनों से तरा के ऊपर नजर पड़ी है.तरा सफीयत को बहू बनने लायक लड़की है. न देने की भी बात नहीं है. कपाही जैसी गरीब औरत सफी की बात कैसे न माने! शायद अपने को इसके लिए भाग्य-शालिनी ही समझेगी. कपाही की बात कौन नहीं जानता.गांव में सफीयत के बारे में बहुत-सी बातों की चर्चा होती है. सफीयत कंजूस, सूदखोर और इसी प्रकार के विभिन्न प्रकार के बदनाम उसके बारे में हैं. कई बातें तो पूर्णत: स्वत: सिद्ध किम्बदंती के रूप में फैली हुई हैं.अपने विवाह के लिए सफीयत ने बारह आने पैसे में दूकान से एक जोड़ा जूता खरीदा था. करीब चालीस वर्ष पहले. गांव में विवाह होने पर और ईद-वकरीद के अवसर पर उसे एक आध घंटे के लिए वह पहन लेता है; और इसके बाद उसे ठीक तरह से पोंछ-पाछकर फीर मचान पर रख देता है.अपने लड़के रफी ने अपने विवाह में एक नया जूता खरीदना चाहा था. बूढ़े ने धमकी देकर कहा- "एक जोड़ा जूता है, उसी से काम चल जायगा. जोड़ा के जोड़ा जूता खरीदने के लिए उसने क्या पैसे का मिनार बनाकर रखा है?"अपने पिता के जूते को पहनकर ही रफी हाथी पर चढ़कर विवाह करने गया था. दूसरी बात है सफीयत का कोट.पंद्रह वर्ष पहले ही जमीन के बारे में एक मुकद्दमा हुआ था. मुकद्दमे में जीत-कर एक रुपया छै आना देकर एक लाल, नीलाम में पाया गया गरम कोट खरीद-लाया था. करीब करीब उसी के नाप का, केवल थोड़ा-सा ढीला हुआ है. घर से निकलकर कहीं भी जब वह घूमने निकलता है सफीयत कुर्ते अथवा बनियान के ऊपर उस लाल कोट को पहनकर जाता है- चाहे पूस का महीना हो या जेठ का.पोशाक पोशाक है, और उसे पहना चाहिए. जाड़ा और गर्मी का पोशाक के साथ क्या संबंध है?लाल कोट को पहनने से बूढ़ा देखने में सुंदर लगता है. छाती तक आने वाली पकी हुई दाढ़ी और जब भी मजबूत दांतों को दोनों पक्तियों से भरे हुए मुखड़े के साथ बूढ़े को सुंदर दिखाई पड़ता है.गर्मी के दिनों में जब वह कोट को पहनता है, उसको जरा पसीना आता है. किंतु कोट के कारण ही पसीना आ रहा है, इसका कोई माने नहीं है.तीसरी बात है सफीयत के कुत्तों का दल.गांव के लोगों की स्मरणावधि से सफीयत के घर एक दल कुत्ता रहता आया है. बड़े तेज कुत्ते हैं. किसी को भी पिल्ला नहीं दिया जाता- नश्ल चला जायगा. कोई भी चोर इधर आंखें भी उठा नहीं सकता.कुत्ता नहीं है-- बाघ है.बूढा का बड़ा स्नेह है अपने कुत्ते के लिए. अपनी थाली से एक मुट्ठा भात यदि कुत्तों को नहीं देता उसे भूख ही नहीं मिटती. कुत्ते भी बूढ़े को बड़ी भक्ति करते हैं. कहीं मिलने पर दो कुत्ते उसके साथ जायेंगे ही. बूढ़ा किंतु कुत्तों को हाथ से नहीं छूता. कुत्ता नापाक-अपवित्र है. कुत्ते को छूने से अजु भंग होता है, नमाज अदा नहीं कर सकते. किंतु गांव में भोज आदि होने पर गृहस्थ से मांग-कर आदमी के लिए लाने की तरह भोज के भात मांस की पोटली में बांधकर ले आता है और अपने हाथों खिलाता है. नातियों को वह इतना प्यार नहीं करता.चौथे में- सफीयत की बारी के मीठ आम हैं.उनमें से कई एक सफीयत का पिता लगा गया था. कुछ बूढ़े ने खुद लगाये थे. सचमुच ही अच्छे आम हैं-- रसाल, गुड़ के स्वाद जैसा. कच्चा खाया जानेवाला भी है, पका खाया जानेवाला भी है. बूढ़ा की बारी के जैसा आम गांव में और दो-चार ही हैं.आम के पकने के समय यदि कोई उसके घर में जाता है तो बूढ़ा बारी के आम खाने के लिए आग्रह के साथ देता है. किंतु खाते समय सामने ही रहता है-- किसी को भी गुठली को ले जाने नहीं देता. गुठली ले जाने से उसका भी नश्ल जायगा. भात खाने को दिया जा सकता है, किंतु उसके साथ अंगुली को तो नहीं. बीज न दो, बीज जायगा तो लक्ष्मी चली जायगी.किंतु किसी दूसरे के घर यदि किसी अच्छे फल का बीच मिल जाय तो बूढ़ा निश्चय ही उसे ले आयेगा और अपने घर में उसे लगायेगा. चाहे आम हो, कटहल हो, अनार हो या कोई और दूसरा फल हो. और बूढ़े का हाथ भी लक्ष्मीस्वरूप है-- किसी नीरस जमीन में भी यदि उसे रोप दे उसी में होने लगता है.विवाह के पहले दाढ़ी न रखने की बात पर रफी ने अपने पिता से झगड़ा किया था. किंतु सफी की एक धमकी ने ही उसके मुंह पर चिड़ियां का घोंसला बना दिया.- रोज दाढ़ी बनाकर, स्त्री के मुंह-जैसा बनाकर घूमने में शर्म नहीं लगती? और कमाता क्या है? उस्तरा का दाम ही दो रुपये हैं, और वह कितने दिन तक चलेगा. रोज दाढ़ी बनाने पर दो रुपये वाला उस्तरा कितने दिन चलेगा? और चलेगा तो ज्यादा से ज्यादा तीन वर्ष. इसके बाद जो दूकान को- शापा करने में दो आने लग जायें- उतना खर्च करने के लिए नहीं हैं. दाढ़ी रख- अल्ला का नूर है--दुल्हा बनकर जाते समय भी रफी ने दाढ़ी को कैची से ही कटवायी थी. उस्तरा नहीं लगाया था.डालिम गांव में नाई नहीं है. सारे गांव में केवल पांच कैसियां हैं. उनमें से कनबाप दर्जी की ही अच्छी है, तेज है. किंतु उससे कपड़ा ही काटा जाता है, बाल नहीं. कभी-कभी ही चोरी-छिपे उससे दो एक बाल कटवाता है. गांव का करीब हर जवान बाल काटना जानता है. उन में से दो-एक का अच्छा नाम है. बहुत बढ़िया काटते हैं.एक परिवार की कैंची, दूसरे परिवार की कंघी, तीसरे परिवार का उस्तरा है. और एक चौथे घर के आंगन में या दीवारहीन बैठकी में. जो जवान बढ़िया बाल बनाता है उसकी बड़ी खातिर होती है. किंतु बाल, दाढ़ी माघ-फागुन-चैत और आश्विन-कार्तिक में बनाये जाते हैं. सामान्य रूप से खेती के समय डेढ़-दो महीनों तक बाल-दाढ़ी न बनाये जायें तो कोई अस्वाभाविक बात नहीं होगी. जवानों के मुंह पर दाढ़ी होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है.यह बात नहीं है कि कपाही ने तरा के लिए गांव के दो-चार जवानों पर नजर नहीं रखी है. ऐसा भी नहीं है कि कुछ नौजवान लुक-छिपकर कपाही के घर पान-तांबुल और चाय-पानी नहीं किया है. किंतु कपाही चतुर है. किसी को सह नहीं दिया है, किसी को जबान नहीं दी है.तरा का मन भी वह ठीक तरह से समझ नहीं पायी है.सयानी लड़की का मन सहजता से समझना कठिन है.सफीयत को कपाही अच्छी तरह जानती है. पहले सफी उसको प्यार करता था, प्यार करना चाहता था कपाही को; अब प्यार करता है तरा को. अपने लिए नहीं है, यह कपाही समझती है. किसी भी अच्छा लड़का यदि उसके हाथ न लगे तो और तरा को अंतत: बफी को ही देना पड़े तो कपाही को कोई विशेष अफसोस नहीं होगा. सफीयत के घर तरा सुख से ही रहेगी. किंतु बफी तरा के योग्य नहीं है. यह बात कपाही भी समझती है. किंतु गरीब को यदि इतनी चिंता करनी पड़े तो उसका काम कैसे चलेगा? लड़का हो तो लाना है, लड़की हो तो देना है.बीच-बीच में इधर-उधर की चीजों की बात को लेकर अथवा कुछ देकर बफी का पिता उसे कपाही के घर भेजता है. बफी को देखने से तरा पिछवाड़े से भाग जाती है. कपाही पान-वान देकर घंटेभर उसके साथ अनन-सनन बातें करती रहती है. उसके जाने के बाद तरा गुस्सा करके कहती है- "उसको मैं देखना नहीं चाहती. किस प्रकार दांतों को निकालकर हंसता है.कपाही कुछ नहीं कहती." - ळ्ट्-ढ्> दोप्दी मेझेन को पकड़ो, वही उन्हें पकड़ायेगी.दोप्दी अपने आंचल में भात की पोटली बांधे धीरे-धीरे चल रही थी. मुसाई टूडू की बहू ने भात पका दिया था. बीच-बीच में वह भात पका कर दोप्दी को देती है. भात जब हो जाता है, तब दोप्दी उसे आंचल में पोटली बना कर धीरे-धीरे चल पड़ती है. चलते-चलते वह सिर के बालों में उंगलियाँ फिरा कर जूं पकड़ कर मारती है. कहीं से थोड़ा मिट्टी का तेल आ जाये तो वह अपने बालों में रगड़ लेती है, मगर हरामी सब झरनों के एक-एक मोड़ पर कुंडली मारे बैठे हैं. पानी में मिट्टी के तेल की गंध पाकर वे उस महक के पीछे - पीछे चले आते हैं."दोप्दी."दोप्दी ने कोई उत्तर नहीं दिया. कोई उसका नाम पुकारता है तो भी वह उसका उत्तर नहीं देती. अपने नाम पर इनाम की घोषणा का कागज वह आज भी पंचायत के दफ्तर में देख आयी है. मुसाई टूडू की बहू ने कहा, "वह क्या देखती है? पता नहीं कहां की कोई दोप्दी मेझान है. उसे पकड़ाने पर रुपये मिलेंगे.""कितने रुपए?""दो सौ.""अच्छा."बाहर आकर मुसाई की बहू ने कहा, "ये लोग खूब साज-बाज करके आये हैं. सब नये पुलिस वाले हैं. ""हाँ.""तू आजकल आती नहीं है.""क्यों?"मुसाई की बहू आंखें नीची करके धीमे स्वर में बोली, "टूडू ने बताया कि वह साहब फिर आया है. तुझे पकड़ने पर पूरी बस्ती को. . . ""जला देंगें.""फिर. और दुखीराम की बात. . . ""साहेब को मालूम है?""सोमई और बुधना ने हरामीपन किया है.""वे कहाँ है?""रेलगाड़ी में बैठ कर भाग गये."दोप्दी ने एक पल कुछ सोचा फिर कहा, "घर जा. मुझे नहीं मालूम क्या होगा! मुझे अगर पकड़ लें तो तुम लोग पहचानने से इनकार करना.""तू भाग क्यों नहीं जाती?""न". कितनी बार भागूंगी, तू ही बता? पकड़ेंगे भी तो क्या करेंगे, बता? काउंटर कर देंगे, कर दें."मुसाई की बहू ने कहा, "हम लोग तो कहीं जा भी नहीं सकते."दोप्दी जानती है, इतने दिनों से सुन-सुन कर उसने सीखा है कि उत्पीड़न का कैसे मुकाबला किया जाये. अगर शरीर और मन और ज्यादा उत्पीड़न सहने से इनकार कर कर दें,तो दोप्दी अपने ही हाथों से अपनी जीभ काट डालेगी. उस लड़के ने यही तो किया था. सिपाहियों ने उसे काउंटर कर दिया.काउंटर के समय दोनों हाथ पीछे बंधे होते है . शरीर की एक-एक हड्डी चूर होती है और योनि क्षत-विक्षत.. . . किल्ड बाई पुलिस इन एन एनकाउंटर. . . . अननोन मेल. . . एज-टवेन्टी थी. . . "यही सब सोचते हुए दोप्दी चली जा रही थी कि उसने सुना कोई उसे पुकार रहा है. . . "दोप्दी"उसने कोई जवाब नहीं दिया. अपना नाम पुकारे जाने पर वह जवाब नहीं देती. उधर देखती भी नहीं. यहाँ पर उसका नाम ऊमी मेझेन है, मगर बुला कौन रहा है? उसके मन में हमेशा संदेह का काँटा चुभा रहता है. "दोप्दी" सुनते ही संदेह का तीखा काँटा साही के काँटों की तरह खड़ा हो गया. चलते- चलते उसने मन हीपरिचित चेहरों की रील खोल ली. कौन हो सकता है? सोमरा तो नहीं है, वह तो भगोड़ा हो गया है. सामई और बुधना भी किसी और कारण से भाग गये है गोलख हो नहीं सकता, वह बाकुली में है. बाकुली का ही कोई होगा? बाकुली छोड़ने के बाद से उसके और दूलन के नाम क्रमश: ऊमी मेझेन और मातंग माझी हो गये थे. यहाँ पर मुसाई और उसकी पत्नी के अलावा कोई उसका असल नाम नहीं जानता. पढ़े -लिखे लड़कों में पहले के बैच के भी सभी नहीं जानते.समय बड़ा अजीब है. दोप्दी सोचती है तो उसके सिर में सारी चीजें गोलमाल हो जाती हैं. बाकुली में परेशन बाकुली चल रहा है. सूर्य साहू ने बिड्डी बाबू के साथ घपलेबाजी करके अपने मकान की चौहदी में दो-दो ट्यूबवेलें बैठा लीं और तीन-तीन कुएं खोद लिए. कहीं भी पानी नहीं है. पूरे बीरभूम इलाके में सूखा पड़ा हुआ है. सूर्य साहू के मकान में अथाह पानी है और वह भई कौवे की पुतलियों जैसा निर्मल पानी है. केनाल से टैक्स लेकर पानी लाओ, मगर टैक्स के पानी से खेती करके क्या मिलेगा? सब कुछ स्वाहा हो गया.जा-जा. तुम लोगों की पंचायती बदमाशी मैं नहीं मानता. पानी लेकर खेती बढ़ाओगे और आधा धान बटाई में ले लोगे. बाद में कहोगे मकान बनाने को पैसे दो. तुम लोगों की भलाई करके मुझे अच्छी शिक्षा मिल गयी.""क्या भलाई की तुमने?""गाँव को पानी नहीं दिया?""वो सब तो तुमने बुआई के लिए किया था.""तुम लोगों को पानी नहीं मिला?""ना! डोम-चांडाल को पानी नहीं मिला."इसी बात पर झगड़ा शुरू हो गया. सूखे से पीड़ित आदमी की सहनशीलता आसानी से जल उठती है. गांव के सतीश युगल और वह शहर का लड़का जिसका नाम शायद राणा था-- सबने कहा, "जमींदार, महाजन कुछ नहीं देंगे. इन्हें खत्म करो."सूर्य साहू का मकान घेर लिया गया. सूर्य साहू ने बंदूक निकाली. गाय-बैल बांधने की रस्सी से सूर्य साहू के दोनों हाथ पीछे बाँध दिए गये. उसकी आँखें डर के मारे आंख के कोटरों में घूम रही थीं और बार-बार उसकी धोती खराब हो जा रही थी. दूलन ने कहा था, "आगे मुझे घोंपने दो. मेरे बाप के बाप ने इससे धान उधार लिया था, उसे पूरा करने में आज भी मैं बेगारी कर रहा हूँ इसके वहां."दोप्दी ने कहा था, "मेरी तरफ देख कर इसके मुंह से लार चूता था. इसकी आँखें मैं निकालूंगी."सूर्य साहू. उसके बाद सिउड़ी से टेलीग्राफिक मैसेज़. स्पेशल ट्रेन. आर्मी. जीप बाकुली तक नहीं आ सकी. मार्च-मार्च-मार्च. नालदार बूटों के नीचे कंकड़ों की करर-करर. माइक पर आदेश- "कार्डन अप. युगल मण्डल-सतीश मण्डल-राणा लियास प्रवीर इलियास दीपक- दूलना मांझी-दोप्दी मेझेन सरेंडर, सरेंडर. नो सरेंडर, सरेंडर. मो-मो-मो डाउन दि विलेज. "खटाखट-खटाखट-हवा में कोर्डाइट-खटाखट-राउंड दि क्लाँक खटखट. "फ्लेम थ्रोअर. बाकुली जल रही है. "मोर मेन एंड चिल्ड्रैन. . . फायर-फायर. क्लोज् केनाल एप्रोच. ओवर-ओवर-ओवर बाई नाइट फा फाँल." "दोप्दी और दूलन पेट के बल लेटकर रेंगते हुए गायब हो गये थे.बाकुली के बाद पलताकुड़ी वे पहुंच नहीं सकते थे. भूपति और तपा उन्हें ले गये. फिर तय किया गया कि दोप्दी और दूलन झाड़खानी बेल्ट के आस-पास काम करेंगे. दूलन ने दोप्दी को समझाया था, "यही अच्छा है रे! इससे हमारी घर-गृहस्थी और बाल-बच्चे नहीं होंगे. कौन कह सकता है कि एक दिन जमींदार-महाजन-पुलिस सब खत्म नहीं होंगे?"मगर आज उसे पीछे से किसने पुकारा?दोप्दी चलती ही गयी. गांव-मैदान-झाड़ियां और खोवाई- पी. डब्ल्यू. डी. का खम्भा- पीछे से किसी के दौड़ कर आने की आवाज. एक आदमी ही आ रहा है. झाड़खानी का जंगल अभी एक कोस दूर है. अब उसे लग रहा है कि जंगल में घुस जाती तो जान बचती. उन लोगों से बताना होगा कि पुलिस ने फिर उसके नाम नोटिस जारी किया है. बताना होगा कि वही हरामी साहेब फिर आ गया है. हाइड-आउट बदलना होगा. इसके अलावा संदारा में खेत- मजदूरों कोपैसे देने की बात को लेकर जो हगामा हुआ है, उसके बाद वहां लक्ष्मी बेराऔर नारान बेरा को सूर्य साहू बना देने का प्लान भी कैंसिल करना होगा. सोमई और बुधना सभी जानते थे. दोप्दी की छाती में जैसे भीषण विपत्ति की अर्जेन्सी धकधका रही है. उसे अब लगा कि सोमई और बुधना जो हरामीपन करेंगे उससे संथाल होकर भी उसके लिए लज्जा की कोई बात नहीं. दोप्दी का खून चम्पा भूमि का पवित्र काला रक्त है, एकदम मिलावट रहित. चम्पा से बाकुली, कितने लाख चाँदों के उगने और डूबने का रास्ता है. खून में मिलावट हो सकती थी, मगर नहीं हुई. दोप्दी को अपने पुर्खों पर गर्व हुआ. वे लोग अपनी स्त्रियों के रक्त की शुद्धता पर पहरा देते थे. सोमई और बुधना जारज हैं. युद्ध की फसल. राढ़-भूमि को शियनडांगा में डेरा डाले अमेरिकी सैनिकों का उपहार. नहीं तो कौवा भले ही कौवे का मांस खाये, संथाल संथाल को पकड़ाने का हरामीपन नहीं करता.पीछे फिर पांव के शब्द.. और दोप्दी के बीच एक ही व्यवधान. दोप्दी के आँचल में जो भात बंधा है और उसकी अंटी में जो तम्बाकू के पत्ते रखे हैं. अरिजित, मालिनी, शामू, मोंटू- कोई बीड़ी-सिगरेट या चाय नहीं लेता. सिर्फ तम्बाकू का पत्ता और चूना. कागज की एक पुड़िया में अलकुली के बीज कूच कर रखे हुए थे, जिन्हें उसने अंटी में खोंस रखा था. बिच्छू काटने की पेटेंट दवा.कुछ भी उन्हें दिया न जा सकेगा.दोप्दी बाई ओर घूमी. इधर कैम्प था. दो मील दूर. यह जंगल का रास्ता न था, किंतु पीछे जो खच्चर आ रहा है, उसे लेकर दोप्दी जंगल में नहीं जायेगी.जान कसम. जान कसम दूलना, जान कसम. कुछ भी नहीं बताऊंगी. पीछे आने वाली पदचाप भी बाईं ओर घूमी. दोप्दी ने कमर में हाथ लगाया. हथेली में चंद्रमा जैसी टेढ़ी हंसिए की छूअन ने उसे आश्वस्त किया. हंसिया नहीं, हंसिए का बच्चा. झाड़खानी के लोहार अच्छी हंसिया बनाते हैं.ऐसी शान चढ़ाऊंगा अमी, कि सैकड़ों दुखीरामों को. . . . भाग्य से दोप्दी शहरातू नहीं है. अच्छी हंसिया-टांगी-छुरी आदि को बहुत अच्छी तरह वह पहचानती है. चुपचाप काम कर डालती है. दूर पर कैम्प की रोशनी है. दोप्दी उधर क्यों जा रही है? एक मिनट रूकती है, फिर तिरछे घूम जाती है. हां. रात भर मैं आंखे मूंद कर घूमती रह सकती हूं. जंगल में नहीं जाऊंगी और न रास्ता ही भूलूंगी. हांफूंगी भई नहीं. तू साला खच्चर, दुनिया की माया में मर रहा है, तू क्या खा के मेरे पीछे चल सकेगा? तेरा दम फुला कर खड्ड में गिरा कर खत्म कर दूंगी तुझे. कुछ भी कहा नहीं जा सकेगा. वह नया कैम्प देख आयी है? और बस-स्टेशन पर बैठ कर बीड़ी टानते हुए आस पास के लोगों से गप्-शप् कर के वह पता लगा आयी है कि पुलिस की कितनी गाड़ियां आयी हैं, कितनी वायरलेस वैन आयी हैं. बंडा चार, प्याज सात और मिर्च पचास-- सीधा हिसाब है यह सब कुछ भी मैं उन्हें बता नहीं सकूंगी. मेरे न पहुँचने पर वे समझ तो जायेंगे ही कि दोप्दी मेझान काउंटर हो गयी. तब वे भाग जायेंगे. अरिजित ने कहा था, "यदि कोई पकड़ा जाये तो एक खास टाइम तक उसका इंतजार करके दूसरे लोग हाइड-आउट चेंज कर लेंगे. कामरेड दोप्दी अगर देर करके आयें, तो हम यह जगह छोड़ देंगे. कहां जा रहे हैं. इसकी निशानी छोड़ जायेंगे. कोई कामरेड अपने लिए दूसरे कामरेड़ों को नष्ट होने नहीं देगा."झरने का कलकल स्वर सुनाई पड़ रहा है और उसके साथ ही अरिजित का स्वरगूंज रहा है, "पत्थर के नीचे दबा कर रखे लकड़ी के तीर का फल जिस दिशा में होगा उसी दिशा में हाइड-आउट के लिए जायेंगे." यह दोप्दी को पसंद है, उसकी समझ में आता है. दूलन मारा गया, किसी को मार कर नहीं मरा. इसलिए कि शुरू से यह सब उसके दिमाग में नहीं आया था, नहीं तो किसी हमले में जाकर काउंटर होता. अब जो नियम बने हैं, वे निर्मम होते हुए भई आसान और समझ में आने लायक हैं. दोप्दी वापस आयी तो ठीक, नहीं आयी तो बुरा. चेंज दि हाइड-आउट. निशानी ऐसी होगी कि अपोजीशन देख नहीं पायेगा, देख भी ले तो समझ नहीं पायेगापीछे पदचाप सुनाई दी. दोप्दी फिर घूमी. साढ़े तीन मील फैला यह उबड़ खाबड़ मैदान खोआई के जंगल में घुसने की पगडंडी है. दोप्दी उस रास्ते को छोड़ कर आगे बढ़ गयी. सामने थोड़ी-सी समतल जमीन है, उसके बाद फिर खोआई का जंगल. ऐसी ऊँची-नीची जमीन पर कभीआदमी ने कैम्प नहीं बैठाया. इधर काफी निर्जन है. भूल-भुलैया जैसा. छोटे-छोटेझाड़ों के बीच एक समान दीखते मिट्टी के अनेक ढूह थे. ठीक है, दोप्दी इस बदमाश को श्मशान पहुंचा कर मानेगी. पतितपावन को श्मशान काली के नाम पर ही बलि चढ़ायागया था."एप्रिहेंड."मिट्टी के ढूहों में से एक उठ खड़ा हुआ. फइर एक और. फिर एक और. प्रौढ़ सेनापति एक साथ आनंदित और निराश. "इफ यू वान्ट टु डिस्ट्राय दि एनिमी, बिकम वन."सेनापति एनिमी के साथ एकाकार हो गये थे. छ: साल पहले भी वे उनके प्रत्येक मूवको एंटीसिपेट कर सकते थे, आज भी कर पा रहे हैं यह है आनंद की बात. साहित्य के साथ जुड़े होने के कारण "कर्स्ड ब्लड" पढ़कर उन्होंने अपनी विचारधारा औरकार्यप्रणाली का समर्थन देख लिया है.दोप्दी उन्हें धोखा नहीं दे पायी, यह है दुख और निराशा का कारण. कारण दो प्रकार के हैं. छ: साल पहले अपने मस्तिष्क में संग्रहीत आंकड़ों के आधार पर लिखा उनका निबंध प्रकाशित हुआ है. उन्होंने इस बात का प्रमाण प्रस्तुत किया है कि वे उपद्रवियों के परिप्रेक्ष्य में इस संघर्ष के समर्थक हैं. दोप्दी उपद्रवी है. वैटर्न फाइटर. मार्च ऐंड डिस्ट्राय. दोप्दी मेझेन एप्रिहेंड होने वाली है. डिस्ट्राय होगी. दुख की बात है."हाल्ट."दोप्दी ठमक कर खड़ी हो गयी. पीछे वाली पदचाप घूम कर सामने आ खड़ी हुई. दोप्दी की छाती में जैसे केनाल का बाँध टूट गया. सर्वनाश. सूर्य साहू का भाई का भाई रोतोनी साहू था. सामने के दो ढूह और आगे सरक आये. सोमई और बुधना. इसका मतलब है ट्रेन में बैठ कर भागे नहीं वे. पानीपत की लड़ाई कहो कि कुरुक्षेत्र का संग्राम, हरियाणा विधानसभा के चुनाव के अनोखे राजनैतिक नतीजे निकलेंगे. यह चुनाव पार्टियों के बीच कम, पार्टियों के भीतर अलग अलग सूबेदारों के बीच अधिक है फैसला बंसीलाल, भजनलाल और देवीलाल के बीच होना है कि कौन किसे पछाड़ कर मुख्यमंत्री बनता है. अजीत सिंह का बस चले तो देवीलाल को पटकनी देकर मुख्यमंत्री किसी भी सूरत में नहीं बनने दें. भजनलाल से हो सके तो बंसीलाल की कुर्सी छीन लें. गुटों की इस लड़ाई में राव वीरेंद्र सिंह प्रधान-मंत्री राजीव गांधी को भी लगे हाथों सबक सिखाने की फिराक में हैं. इंका और हरियाणा संघर्ष समिति के बीच निर्णायक लड़ाई सोनीपत, रोहतक, भिवानी के जाटबहुल क्षेत्र और अहीरों की भूमि अहीरवाल में ही होगी. सोनीपत, भिवानी और रोहतक में देवीलाल का करिश्मा रंग दिखायेगा जबकि पुराने नेता राव वीरेंद्र सिंह को अहीरों की बगावत से टकराना होगा. टिकटों के बंटवारे के दौरान पूर्व कृषिमंत्री राव वीरेंद्र सिंह हाई कमान से लड़ गये. महेंद्रगढ़, रिवाड़ी, गुड़गांवा और फरीदाबाद के अहीर इलाके के लिए तैयार की गई पार्टी के उम्मीदवारों की एक सूची से उन्हें एतराज था. कर्नल रामसिंह और महेंद्रगढ़ के राव दिलीप सिंह को किसी भी हालत में वह टिकट नहीं देना चाहते थे. टकराव पार्टी से इस्तीफा की धमकी तक गया. हार कर राजीव गांधी ने उनकी बात मान ली. दिलीप सिंह और राम सिंह का पत्ता कट गया. इस तरह सात अहीर उम्मीदवारों की जगह इस बार केवल दो अहीरों को कांग्रेस का टिकट मिला. एक उम्मीदवार जाटूसाना से राव वीरेंद्र सिंह का लड़का इंद्रजीत सिंह और दूसरा महेंद्रगढ़ से हरीसिंह है. अहीरों की अनेक पंचायतों ने इसे नाइंसाफी मानकर अपने पुराने नेता के विरुद्ध बगावत करने का फैसला किया. कर्नल राम सिंह और राव दिलीप सिंह दोनों मैदान में खड़े हैं. एक और पूर्व मंत्री श्रीमती शकुंतला बगवाड़िया बावल से पार्टी के उम्मीदवारों के विरुद्ध मैदान में उतरी हैं. महेंद्रगढ़ का छोटा सा कस्बा राजनैतिक उठापटक का नमूना है. राव दिलीप सिंह यहां के विधायक हुआ करते थे. यहां के हर चुनाव में दिलीप सिंह चुनाव संयोजक की हैसियत से काम करते हैं. पेशे से वकील दिलीप सिंह का अहीरों में काफी दबदबा है. टिकट नहीं मिला तो उन्होंने राव वीरेंद्र सिंह से तीस साल पुराना रिश्ता तोड़ कर इंका प्रत्याशी हरी सिंह को चुनौती दे दी. दिलीप सिंह और हरी सिंह का रिश्ता भी अजीब है. पीछले चुनावों में दिलीप सिंह इंका के प्रत्याशी थे और हरी सिंह ने पार्टी से बगावत करके निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा था. महेंद्रगढ़ के लोगों को याद है कि उस चुनाव में हरी सिंह मतदाताओं से कहते फिर रहे थे कि वोट या तो मुझे दें या भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार रामविलास शर्मा को. इस बार ठीक इसके उल्टा हो रहा है. राम विलास शर्मा फिर भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार हैं और दिलीप सिंह के लोग दावा करते हैं कि असल लड़ाई शर्मा और दिलीप सिंह के बीच है. भाजपा खुश है, क्योंकि उसे मालूम है कि दिलीप सिंह कांग्रेस से प्रतिबद्ध अहीरों के बहुत वोट काट कर ले जायेंगे और मैदान खुला छोड़ देंगे राम विलास शर्मा के लिए. जाटुसाना चुनाव क्षेत्र में भी अहीरों का एक बड़ा तबका इंद्रजीत सिंह का विरोध कर रहा है. चुनाव क्षेत्र के सबसे बड़े गांव कनीना में सात हजार वोटर हैं. लेकिन चुनाव अभियान शुरु होने के एक हफ्ते बाद तक इस गांव में दफ्तर खोलने के लिए कांग्रेस को जगह नहीं मिली. इंद्रजीत सिंह की मुश्किल है कि सभी विद्रोही जाट नेता प्रत्यक्ष रूप से लोकदल उम्मीदवार के समर्थन का एलान कर चुके हैं. पूर्व मंत्रियों का विद्रोह कांग्रेस के लिए एक बड़ा सरदर्द बनता जा रहा है. अहीरवाल में चर्चा है कि राव वीरेंद्र सिंह बंसीलाल से नहीं प्रधानमंत्री राजीव गांधी से नाराज हैं. मंत्रिमंडल से हटाये जाने के बाद उन्हें गुमनामी की हालत में रहना पड़ा. अब हरियाणा विधानसभा के चुनाव में उन्हें ताकत दिखाने का अच्छा मौका मिला है. राव जानते हैं कि अहीरों को नाराज कर इस इलाके में कांग्रेस जीत नहीं सकती. इस बहाने वह सिद्ध करना चाहते हैं कि प्रधानमंत्री ने उनकी अवहेलना करके एक पूरे इलाके को हाथ से गंवा दिया. कालका के प्रभावशाली और संपन्न सिख विधायक लक्षमन सिंह का पत्ता बंसीलाल ने साफ कर दिया. बदले में उन्हें नारायणगढ़ चुनाव क्षेत्र से टिकट देने का वायदा किया गया. लेकिन उम्मीदवारों की अंतिम सूची से लक्षमन सिंह का नाम गायब था. बंसीलाल की वादाखिलाफी से बिदक कर और उन्हें सबक सिखाने के लिए अब वह भी चुनाव मैदान में आ डटे हैं. अन्य प्रभावशाली विद्रोही इंका नेताओं में जींद से ओ. पी. जिंदला और फिरोजपुर झिरका से सरदार खान अहमद हैं. निर्दलीय उम्मीदवारों में सबसे दिलचस्प हैं मंडी डबवाली सुरक्षित सीट के आजाद उम्मीदवार सुजान सिंह. एक लाख मतदाताओं के इस चुनाव क्षेत्र में ४८ हजार सिख हैं. हिसार जिले में मंडी डबवाली पंजाब की सीमा पर हरियाणा का आखिरी कस्बा है. फाजिल्का- अबोहर विवाद के दौरान राजनैतिक गतिविधि का यह जबर्दस्त केंद्र बन गया था क्योंकि यह विवादग्रस्त गांव कुंदूखेड़ा के ठीक साथ लगा हुआ है. सुजान सिंह १९८० के चुनाव में पंजाब विधानसभा के लिए अकाली दल के टिकट पर चुनाव हार गये थे. १९८२ में करनाल के जुडला चुनाव क्षेत्र से उन्होंने लोकदल के टिकट पर चुनाव जीत लिया. लेकिन १९८५ में वह फिर सीमा पार कर गये और पंजाब के पक्का कलां चुनाव क्षेत्र से अकाली दल के टिकट पर पंजाब विधान सभा के लिए चुने गये. उन्होंने इंदिरा गांधी के हत्यारे बेअंत सिंह की पत्नी को हराया था. अकाली दल की फूट के कारण जिन २२ विधायकों को विधानसभा की सदस्यता से हटा दिया गया उनमें सुजान सिंह भी थे. सुजान सिंह प्रकाश सिंह बादल के पक्के समर्थक माने जाते थे. पर वह डबवाली से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में किस्मत आजमा रहे हैं. इस बार भी उन्हें अकाली दल का समर्थन मिला हुआ है. जाटबहुल क्षेत्रों में लोकदल के अलावा कांग्रेस के लिए तीन परेशानियां और हैं. बंसीलाल, भजनलाल और राव वीरेंद्र सिंह अपने अपने खेमों को मजबूत करने में लगे हैं टिकटों के सवाल पर भजनलाल बाजी मार ले गये हैं. इससे बंसीलाल के लिए राजनैतिक खतरा पैदा हो गया है. हालांकि एक ही मंच से चुनाव प्रचार का वायदा करके आपसी रंजिश को छुपाने की कोशिश की जा रही है. दूसरी परेशानी बहुजन समाज पार्टी है. लगभग हर चुनाव क्षेत्र में बसपा ने उम्मीदवार खड़े किये हैं. हरिजनों की तादाद हर चुनाव क्षेत्र में लगभग एक जैसी है. नतीजतन अनेक चुनाव क्षेत्रों में हरिजनों के बहुत सारे वोटों से कांग्रेस को हाथ धोना पड़ेगा. तीसरी परेशानी खड़ी करेंगे शक्तिशाली विद्रोही आजाद उम्मीदवार. पिछले चुनाव की तरह इस-बार भी बड़ी संख्या में अगर आजाद उम्मीदवार जीते तो राजनैतिक प्रक्षेकों का खयाल है कि इससे कुल मिला कर सौदेबाजी में भजनलाल जैसे व्यक्ति को फायदा होगा. ऐसा नहीं है कि देवीलाल को कुर्सी से दूर रखने की देवीलाल को कुर्सी से दूर रखने की कोशिश सिर्फ बंसीलाल ही कर रहे हों. ऐसा होता तो लड़ाई आमने सामने की होती, और नतीजे भी आसानी से निकाल लिये जाते. मगर वयोवृद्ध देवीलाल के अपने जाट भाई अजीत सिंह ने लोकदल के टिकट पर ५५ प्रत्याशी खड़े करके उनके घर में सेंध लगाने की योजना बना डाली है. चौधरी चरण सिंह की मौत ने उन्हें कुछ और बल दिया है. जाटबहुल क्षेत्रों में अपने उम्मीदवारों के लिए वह बहुत कुछ न भी कर पाये. लेकिन इन चुनाव क्षेत्रों में जितने भी वोट बटोर लेंगे वे सब देवीलाल की झोली से ही जायेंगे. दरअसल हरियाणा के जाट मतदाता बड़े असमंजस में हैं. रोहतक में लोकदल कार्यकर्ताओं से बातचीत करते हुए लगा कि उन्हें चरण सिंह के परिवार से काफी लगाव है. एक कार्यकर्ता राम सिंह ने बताया,`हम जानते हैं कि हरियाणा में देवीलाल के मुकाबले का नेता है ही नहीं और हमें हर हालत में उनका साथ देना ही होगा. लेकिन हम यह भी जानते हैं कि केंद्रीय स्तर पर उनकी कोई अहमियत नहीं है. केंद्रीय नेता के रूप में हम अजीत सिंह को ही देखना चाहते हैं. 'इस असमंजस की हालत में रोहतक के मतदाता किसे वोट देंगे? संघर्ष समिति के प्रत्याशी हरद्वारीलाल को या चौधरी चरण सिंह की पत्नी गायत्री देवी को? लोकदल समर्थकों का एक ऐसा वर्ग भी है जो संसद की सीट पर गायत्री देवी को ही अपना समर्थन देने के पक्ष में है. एक और कार्यकर्ता (जो नाम देना नहीं चाहता) का कहना था `कुछ दिन पहले देवीलाल ने स्वयं कहा था कि अनुशासन का खयाल रखते हुए हमने टिकट हरद्वारी लाल को दिया है, बाकी आप लोगों की इच्छा. ' यानी लोकदल के ऐसे कार्यकर्ताओं को देवीलाल भी नाराज हैं. जाट मतदाताओं को पूरा अहसास है कि देवीलाल हरियाणा के सबसे बड़े जाट नेता हैं. लेकिन चरण सिंह देश के सबसे बड़े जाट नेता रहे हैं. चरण सिंह की मौत के बाद उन्हें राजकीय सम्मान दिये जाने से गायत्री देवी के समर्थन का आधार निश्चित रूप से बढ़ गया है. हरद्वारी लाल के लिए चरण सिंह की मौत राजनैतिक मौत साबित हो सकती है. हरद्वारी लाल के दलबदलू चरित्र के बावजूद उनके पक्ष में दो अहम बातें काम कर सकती हैं. एक हैं रोहतक शहर का रुझान. शहर में भाजपा का एक खास प्रभाव रहा है. आज कुछ अधिक है. भाजपा समर्थकों के लिए वैसा कोई अनिश्चित नहीं है जैसा लोकदल कार्यकर्ताओं के लिए है. वे सब हरद्वारी लाल को वोट देंगे. एक भाजपा कार्यकर्ता अमरपाल के अनुसार `यह सही है कि हरद्वारी लाल का करिश्मा अब उतार पर है. ' लेकिन हमारे लिए वही मोर्चे के उम्मीदवार हैं. उन के पक्ष में दूसरी बात है उनकी चुनाव शैली. इस शैली को कुछ लोग मजमाबाजी भी कहते हैं. इसकी अनेक कहानियां लोगों को याद है. पिछले चुनाव में सांपला के पास एक गांव छाजा में उन्होंने वोट मांगते समय धमकी दी थी कि अगर इस गांव ने मुझे वोट नहीं दिया तो मैं हार कर यहीं नदी में डूब जाऊंगा. वैसे हरद्वारी लाल का रंग बिरंगा चुनाव प्रचार चरण सिंह की पत्नी के सहानुभूति वोट काट सकता है, इसमें लोगों को संदेह है. हरद्वारी लाल और गायत्री देवी के झगड़े में कांग्रेस अपनी सीट निकाल ले जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होगा. रोहतक शहर में चुनाव प्रचार के लिहाज से भाजपा सबसे आगे है. शहर में इन्हीं का हरा और केसरी झंडा दिखाई पड़ता है. चुनाव प्रचार के संयोजक प्रदीप जैन अपने उम्मीदवार डाक्टर मंगलसेन की जीत में कोई संदेह नहीं देखते हैं. दरअसल लोग इंका विधायक और बंसीलाल सरकार के मंत्री श्रीकृष्णदास के काम से खफा हैं. शहर का विकास तो हुआ नहीं. किनारे पर पड़ी बस्तियों में पानी बिजली तक नहीं है. इस बार हरियाणा का नहीं, केंद्र का प्रतिनिधि मानते हैं. भाजपा अपनी संगठन क्षमता पर भरोसा करती है. `हमने इस बार चुनाव क्षेत्र के एक एक वोटर का हिसाब लगाया. जाली मतदान रोकने के लिए चुनाव एजेंटों को ही वोटरों की व्यक्तिगत पहचान का उत्तरदायित्व दिया गया है. ' एक भाजपा कार्यकर्ता के अनुसार' अगर मेरा नाम लिखना हो तो हमारी पार्टी सभी १८ सीटों पर जीत जायेगी. और `आफ द रिकार्ड' लिखना हो तो १२ पर. भाजपा के भी कुछ विद्रोही मैदान में हैं. लेकिन प्रदीप जैन का दावा है कि`इस विद्रोह का कोई मतलब नहीं है. रोहतक और भिवानी के बीच कलानौर सुरक्षित सीट पर भाजपा के उम्मीदवार हैं जयनारायण रतूड़िया. जाति के धानक जयनारायण अकेले हरिजन विधायक थे जो भजनलाल के साथ विपक्ष छोड़ कर कांग्रेस में शामिल नहीं हुए थे. एक कार्यकर्ता ने बताया इस सुरक्षित क्षेत्र में पार्टी की साख का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हमें इस सीट के लिए १५ लाख रुपये का `आफर' आया था लेकिन निर्धन जयनारायण को ही अपना उम्मीदवार चुना हरिजन कांग्रेस से नाराज हैं यह तो दो एक हरिजन बस्तियों में घूमने से ही पता लग सकता है. ऐसी ही एक बस्ती है रोहतक की श्याम नगर. यहां जीवन की जरूरी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं. बस्ती में अधिकतर धानक जाति के लोग हैं. कुछ हरिजनों की शिकायत है कि इसी साल फरवरी में केंद्रीय राज्यमंत्री जर्नादन पुजारी ने एक `ऋण मेला' लगवाया, मेले में हरिजनों को कर्जे देने के बदले लिफाफे बांटे गये जिनमें कर्जा लेने का फार्म रखा था. फार्म में भी सिर्फ वे नियम दर्ज थे जिनके आधार पर कर्जा लिया जा सकता है. हरिजनों की इस नाराजगी का फायदा कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी को मिल सकता है. लोकदल या भाजपा को सीधा फायदा तो नहीं होगा. लेकिन ये दोनों पार्टियां बसपा उम्मीदवारों को वरदान मानती हैं. उनकी नजर में बसपा उम्मीदवार कांग्रेस के तथाकथित वोट बैंक लूटेंगे. चुनाव क्षेत्र किलोई में लोकदल और बहुजन समाज पार्टी का कार्यालय एक ही मकान में है. दोनों दलों के कार्यकर्ताओं में गपशप और मिल कर खाना पीना चलता है. एक लोकदल कार्यकर्ता के अनुसार `हमारी यारी दोस्ती है. क्योंकि बहुजन समाज पार्टी हमारे लिए कोई खतरा नहीं है. किलोई में ३५ गांव हैं, चार मतदान केंद्र शहर में भी पड़ते हैं. हरिजनों की आबादी को देखते हुए बहुजन समाज पार्टी को पांच सात हजार से अधिक वोट मिलने की आशा नहीं है. फिर भी भविष्य पर नजर रखते हुए अपना आधार मजबूत करने के लिए उसने उम्मीदवार खड़े किये हैं. डा. सुरेश कुमार नांदल का मानना है `आज यदि यह पार्टी इतने वोट लेने में सफल हो जाये कि कांग्रेस की कई सीटें चली जायें तो अगले चुनाव में विपक्षी दल स्वयं ही इस पार्टी के साथ चुनावी तालमेल करने को उत्सुक दिखाई देंगे. यह पार्टी भविष्य के लिए बीज बो रही है. '' पर इससे क्या होता था. लोगों ने इस बात को दूर-दूर तक बगैर सोचे-समझे फैलाया क्योंकि यह लोगों की आदत है. नगर-भर में और आस-पास के प्रदेश में यह बात कही गयी कि हामजीच लोगों ने जो चाहा था वह प्राप्त कर लिया और आवदागा की रूपमती गर्वीली निपुण कन्या, जिसके लिए समस्त बोस्ना में कोई वर उपयुक्त नहीं पाया गया, पराजित और प्राप्त कर ली गयी है, यह भी कि फाता ने खुलेआम घोषित किया था कि वेल्यी लूग नेजुके तक नहीं जायेगा मगर इस पर भी उसे जाना होगा. बात यह है कि लोगों को उनके पतन और अपमान प्रिय विषय लगते हैं, जो बहुत ऊँचे उठा दिये गये हों या स्वयं बहुत ऊँची उड़ान भर चुके हों.महीने भर तक लोग इस घटना के चटखारे लेते रहे और फाता के अपमान के किस्से का रस शरबत की तरह स्वाद ले-लेकर पीते रहे. महीने भर तक नेजुके और वेल्यी लूग में विवाह की तैयारियाँ होती रहीं.महीने भर तक फाता ने अपनी सहेलियों, स्वजनों और परिजनों के साथ अपने दहेज का संकलन किया. लड़कियों ने गीत गाये. उसने भी गाये. उसने गाने के लिए शक्ति जुटायी और उसने मन में गाया हालाँकि वह उस समय भी अपने ही विचारों में खोई हुई थी. हर बार जब वह सूई से कपड़े को तागती, अपने से कहती कि उसका कशीदा और वह दोनों कभी नेजुके पहुँचने वाले नहीं हैं. इस बात को वह क्षण-भर के लिए नहीं भूली. हाँ, इस तरह तैयारी करते और गाते उसे लगता कि बेल्यी लूग से नेजुके का रास्ता अभी बहुत दूर है और एक महीने का वक्त बहुत् लम्बा है. रात को भी उसका मन ऐसे ही बोलता. रात को भी जब यह बहाना बताकर कि उसे कुछ अधूरा काम पूरा करना है वह अकेली हो जाती तो उसकी कल्पना में समृद्धि और आलोक से भरा, आनंदमय और चिरनवीन एक संसार प्रकट हो जाता.वेल्यी लूग में रातें कुछ गरम और सुहानी हुआ करती थीँ. आकाश में नक्षत्र मानो कुछ नीचे झुक आते थे और झूमते और एक प्रोज्जवल प्रभा की झीनी चादर से परस्पर बंधे हुए जान पड़ते थे. खिड़की के आगे खड़ी होकर फाता सामने फैली रात को निहारती रहती. अपनी समस्त देह में उसे एक शांत और मधुर ऊर्जा के उफनने का अनुभव होता और उसकी जंघाएँ, नितंब, भुजाएँ और ग्रीवा और सबसे अधिक उसके स्तनों में उसे आनंद और शक्ति की एक विशेष अनुभूति होती. वह अपने सुपुष्ट, विशाल और कठोर स्तनों में खिड़की के चौखटे को छू लेती. स्तनाग्रों के इस स्पर्श में तब उसे घर, मकान, खेत सहित समस्त गिरिपार्श्व जीवंत होकर ज्योतित आकाश और रात दोनों के विस्तार में गहरी साँसों के साथ स्पन्दित होते जान पड़ते. हर साँस के साथ खिड़की का काठ का चौखटा उसके स्तनाग्रों को छूता था और हर निश्वास के साथ उन्हें छोड़कर किसी सुदूर दिशा में जाता और लौटकर फिर छूता और इसी तरह बार-बार होता रहा था.हाँ, दुनिया बहुत बड़ी थी, दिन के समय भी संसार असीम जान पड़ता था और उस समय वीशेग्राद की घाटी ऊष्मा से धुपधुपाती थी, गेहूँ का पकना, चाहें तो मानो सुन सकते थे. तब वह श्वेत नगर ही नदी के किनारे-किनारे एक ओर पुल की सीधी रेखा और दूसरी ओर श्यामला पर्वतमाला के चाँखटे में बाँधा फैला रहता था.परंतु रात में, केवल रात में आकाश सजीव हो उठता और खिलकर अनंत बन जाता. अनंत की उस शक्ति में चेतन प्राणी खो जाता है और उसे यह प्रतीत नहीं रहती कि वह कहाँ है, कहाँ जा रहा है, क्या चाहता है या उसे क्या करना चाहिए. वहीं केवल वही, कोई सचमुच में पूर्ण शांति में और दीर्घकाल तक जी सकता है: बंधन में बांध देते हैं, ऐसी निर्णायक प्रतिज्ञाएंॅ या परिस्तथियाँ वहाँ नहीं होतीं, जिनसे कोई कभी छुटकारा नहीं पा सकता; समय जहाँ अपने पास थोड़ा ही होता है पर उसका निर्दय परिणति है. हाँष उस आकाश में प्रतिदिन के जीवन जैसा कुछ नहीं था जहाँ मुख से निकला शब्द अटल और प्रण अकाट्य हो जाता है. वहाँ सब कुछ स्वतंत्र अनन्त अनाम और अस्फुट था.तभी वह जहाँ थी, उसके नीचे से कहीं से एक भारी गहरी और रुँधी हुई आवाज सुनायी दी जैसे कहीं बहुत दूर से आ रही हो:"आक्ख . . . . . . आक्ख. . . . . . . . . . . आक्ख. . . . . ख. . . नीचे पहली मंजिल पर आवदागा रात में अक्सर उठने वाली खाँसी के दौरे से संघर्षकर रहा था.फाता ने यह आवाज सुनी और अपनी आँखों के सामने अपने पिता की छवि स्पष्ट देखने लगी मानो वह उसी के सामने उन्निद्र बैठे तंबाकू पी रहे हो उन्हें नींद नहीं आ रही हो और खाँसी उन्हें साल रही हो. उसने उनकी बड़ी-बड़ी भूरी आँखें देखीं, जो उसकी ऐसी पहचानी थीं जैसे कोई प्रिय दृश्य होता है, आँखें जो ठीक उसके जैसी थी सिवाय इसके कि उन पर बुढ़ापे की छाया थी और इसमें आँसू भरे होने पर भी हँसती हुई चमक थी. आँखें, जिनमें उसने पहली बार अपनी नियति की अनिवार्यता उस दिन देखी थी जिस दिन उसे बता दिया गया था कि वह हाम-जीच की वाग्दता है और उसे विवाह की तैयारी महीने भर में कर लेनी है."ख ख ख . . . . आह". . . रात के सौंदर्य और संसार की विशालता के आनन्द का जो आभास एक क्षण पहले हो रहा था, वह सहसा मिट गया. पृथ्वी का वह सुर-भित निश्वास थम गया. स्त्री के वक्ष का स्पंदन क्षण-भर के लिए ठहर गया, नक्षत्र और व्योम लुप्त हो गये, केवल भाग्य, उसका निर्दय और अमिट भाग्य, फलित होता रहा और समय के साथ-साथ उस अचल शून्य में पूर्णता और संपन्नता को प्राप्त होता रहा, जो मानो देशातीत था.खाँसने की आवाज नीचे की मंजिल से गूँजती हुई आ रही थी. उसने अपने पिता को इस तरह देखा भी और सुना भी जैसे वह उसके पास ही खड़े हों. यही उसके अपने प्यारे प्रतापी एकाकी पिता थे, जिनके प्रेम में उसे अपने को तब से संपृक्त पाया था, जब से उसने होश सम्हाला था. उसने अनुभव किया कि वह छिन्नकर क्लेशकर खांसी मानो उसके अपने सीने में छिपी है. सत्य यह था कि वह उस मुख में थी, जिसने वहाँ हाँ कहा था जहाँ इसके मुख ने न कहा था. परंतु वह हर बात में, यहाँ तक कि इस बात में भी अपने पिता के साथ एक थी. उनकी वह हाँ उसे खुद अपनी हाँ लगी जैसे अपनी न वह अपनी न मानती थी. इसलिए उसने पाया कि उसका भाग्य क्रूर, असाधारण, आत्यांतिक था और कोई निष्कृति न उसे दीखती थी न वह देख सकती थी क्योंकि वह कही थीं नहीं. परंतु एक बात वह जानती थी. अपने पिता की जिस हाँ से वह बँधी हुई थी अपनी न से भी वह उतनी ही बँधी थी. उसे मुस्तया बेग के बेटे के साथ काजी के सामने उपस्थित होना था क्योंकि यह हो नहीं सकता था कि आवदागा ओस्मानागीज अपना वायदा न निभाये. पर वह इतनी ही अच्छी तरह यह भी जानती थी कि रस्म अदा हो जाने के बाद उसे स्वयं अपना वायदा नहीं निबाहा. यह भी हो नहीं सकता था क्योंकि यह भी एक ओस्मानागीच का वायदा था. तब अपने न और अपने पिता के हाँ के मध्य, वेल्यी लूग और नेजुके के मध्य जहाँ रास्ता बंद हो जाता था कहीं उसी घनघोर गतिरोध में से उसे मुक्ति खोज निकालनी ही थी. इस समय वह बस यही सोच रही थी. उसकी दुनिया में विराट संसार का सुंदर विस्तार नहीं, वेल्यी लूग ने नेजुके तक की पूरी राह भी नहीं, बल्कि केवल वह दयनीय क्षुद्र गली थी, जो मुस्तया बेग के बेटे के साथ निकाह पढ़ने के बाद काजी के इजलास के पुल के सिरे तक नापनी होती है और वहाँ से पथरीली ढलान उतर नेजुके को जाने वाली वह पतली पगडंडी शुरू होती, जिस पर एक सिरे से दूसरे तक ऊपर-नीचे अथक दौड़ लगा रही थी, जैसे करघे में भरनी आती जाती रहती है. उसका मन इजलास से बाजार होता हुआ पुल के आखिर तक जाता और वहाँ एक अभेद्य अथाह के सामने ठिठिक जाता, फिर पुल पार करता बाजार से गुजरता और इजलास पर रुक जाता. बार-बार इसी तरह आगे-पीछे-आगे. यही उसका भाग्य बुना जा रहा था.और वे विचार जो कि न बंदी रह पाते थे, न मुक्ति का मार्ग खोज पाते थे बार-बार कापिया पर, उस रमणीक और चिकने सोफा पर, जहाँ नगरवासी बतियाते और युवजन गाते हुए बैठा करते थे और जिसके नीचे से नदी की गहरी तेज हरी धारा गजरती हुई बहा करती थी शरण स्थल पाने लगे. फिर पलायन के इस उपाय से घबराकर मानों किसी अभिशाप के अधीन वह फिर उड़ निकलते और एक छोर से दूसरे तक फिर वही यात्रा दोहराते और फिर विकल्प न पाकर उसी कापिया पर एक बार और शरण लेते. हर रात को उसके विचार वहीं कापिया पर अधिकाधिक देर रुकने लगे. उस दिन की कल्पना, जिस दिन भावना में नही, यथार्थ में उसे उस पथ पर जाना होगा और पुल के अंत तक पहुँचने के पूर्व ही अपना उत्तर पाना होगा, अपने में मृत्यु की भयंकरता का, और नहीं तो आजीवन लज्जा की पीड़ा का आतंक बोध छिपाए हुए थी. असहाय और मित्रहीन, वह माने बैठी थी कि उसे लगता था कि यह आतंक ही उस दिन को परे या परे नहीं तो स्थगित कर देगा.परंतु न तो तेज-तेज न धीमे-धीमे बल्कि काल की गति से नियमित, नियति से बँधे दिन बीतते गये और अंत में विवाह का दिन आ पहुँचा.अगस्त के अंतिम बृहस्पतिवार को (वही काल की घड़ी थी) हामजीच लोग घोड़े पर सवार कन्या को लेने आये. एक भारी नयी काली नकाब इस तरह डाले जैसे कि वह कोई कवच हो, फाता खोड़े पर बिठायी गयी और नगर में ले जायी गयी. इस बीच आँगन में घोड़े पर उसके दहेज से भरे बक्से लदवाये गये. इजलास काजी के सामने निकाह की घोषणा की गयी. इस तरह अपनी कन्या देने का वह वायदा निभाया गया जो आवदागा ने मुस्तया बेग के बेटे से किया था. इसके बाद वह संक्षिप्त काफिला नेजुके की ओर बढ़ा, जहाँ निकाह की बाकायदा रस्म अदा करने की तैयारियाँ की गयी थी.काफिला बाजार से होकर गुजरा. यह उसी पथ का एक अंश था, जिससे कोई मुक्ति नहीं थी और जिसे फाता ने कल्पना में कई बार तय किया था. यह पथ ठोस, असली और चलता हुआ था और इसको सचमुच पार करना, कल्पना में पार करने से संभवतः अधिक आसान था.कोई तारे न थे, कोई आकाश न था, पिता की दबी-दबी खाँसी न थी. समय को तेज करने या धीमा करने की कोई इच्छा न थी. जब काफिला पुल पर पहुँचा तो लड़की को एक बार फिर गर्मियों की रातों में अपनी खिड़की के सामने खड़े होने के अनुभव के समान एक अनुभव हुआ. शरीर के प्रत्येक अंग का उसने अलग-अलग और प्रबल अनुभव किया. विशेष रूप से वक्षों का जो कि मानो उसके वस्त्र से कसकर तनिक संकुचित हो गये थे. काफिला कापिया पर पहुँचा. जैसा कि उसने अपने मन में चुपचाप पिछली रातों को अनेक बार कल्पना की थी, लड़की ने झुककर अपनी बगल में घोड़े पर सवार अपने सबसे छोटे भाई के कान में कहा कि मेरी रकाबों को थोड़ा कस दो क्यों अब यहाँ से नेजुके जाने वाली पथरीली पगडण्डी पर खड़ी उतराई शुरू होगी. वे दोनों रुके और फिर थोड़ा आगे जाकर बाकी बाराती भी रुक गये. इसमें कोई असाधारण बात न थी. यह कोई पहला मौका न था, न यह आखिरी मौका होता कि कोई बारात कापिया पर ठहरी हो. जिस वक्त भाई घोड़े से उतरकर घूमकर सामने आया और घोड़े की लगाम को अपने हाथों पर ढाल लिया लड़की ने घोड़े को उकसाकर पुल की मुँडेर तक पहुंचाया, अपना दाहिना पैर पत्थर की मुँडेर पर रखा और गद्दी से उछाल ली मानो उसके पर लग गये हों; मुँडेर पर पहुंचकर छलाँग लगायी और पुल के नीचे गरजती नदी में कूद पड़ी. भाई उसके पीछे लपका और पूरे शरीर से ही मुँडेर पर लटक गया पर वह सिर्फ उसकी उड़ती हुई नकाब छू सका, पकड़ नहीं पाया. बाकी बाराती अपने-अपने घोड़ों से चीखते कूद पड़े और उचककर पत्थर की मुँडेर पर अजब-अजब मुद्राओँ में खड़े रह गये मानो वे भी पत्थर हो गये हों.उसी दिन शाम के पहले पानी खुलकर बरसा. इस ऋतु में साधारण से कहीं अधिक ठण्ड थी. द्रीना चढ़ आयी और धुन्ध छा गयी. अगले दिन बाढ़ के मटमैले पानी ने फाता की लाश कालता के नजदीक तट पर फेंक दी. वहाँ मछुआरों ने उसे देखा और पुलिस प्रधान को तत्काल सूचित किया. थोड़ी देर में पुलिस प्रधान स्वयं मुख्तार नामक मछुआरे और सालकों चोरकान के साथ उपस्थित हो गये. बात यह थी कि सालको के बिना इस तरह का कोई काम निपटाया ही नहीं जा सकता था.लाश मुलायम गीली बालू में पड़ी हुई थी. लहरें उसे आगे-पीछे डुला रही थी और बार-बार मटमैले पानी की लहर उसे धो रही थी. नयी काली नकाब जिसे उतार फेंकने में लहरें सफल नहीं हो पायी थीं,पलट गयी थीं और फाता का सर नंगा हो गया था. लम्बे धन केशों के साथ उलझकर वह नकाब युवती के गोरे सुंदर शरीर के पास एक अजीब-सा काला ढेर बनी पड़ी थी. उसी ढेर पर इस धारा ने विवाह का झीना जोड़ा नोच फेंका था. ओँठ भींचे और जबड़े कसे सालको ने मछु-आरे के साथ पानी में किनारे तक हल कर लड़की की नंगी लाश को उठाया और सावधानी से कुछ झिझकते हुए मानो वह जिंदा हो, उसे गीली बालू से जिसमें कि वह धँस चली थी, उठाकर किनारे पर ले गया और फौरन कीचड़ में लिपटे भीगे नकाब से उसे ढक दिया.उस रात को डूबकर मरी लड़की को सबसे नजदीक के मुस्लिम कब्रिस्तान में दफन कर दिया गया जो उसी पहाड़ी के तले की ढलान पर बना था, जिसपर वेल्यी लुग बसा हुआ है और शाम न होने पायी थी कि नगर के निठल्ले और नाकारे सराय में सालको और मछुआरे के इर्द-गिर्द ऐसा कुत्सित और अस्वस्थ कौतूहल लेकर जमा हो गये जैसा जीवन से रिक्त, सौंदर्य से वंचित और उत्तेजनाओँ और घटनाओँ से विहीन होने पर मनुष्यों में जागता है. उन्होंने आलूचे की ब्रांडी एक-दूसरे को पिलायी और तम्बाकू पेश की, जिससे कि लाश और उसके मदफन के कुछ ब्यौरे सुनने को मिलें. मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ. सालको तक कुछ नहीं बोला. वह लगातार तम्बाकू पीता रहा और अपनी रोशन आँखों से धुँए को देखता रहा जिसे वह जोरों से कश ले-लेकर अपने से जितना दूर सम्भव हो फेंक रहा था. सिर्फ सालको और मछुआरे ये दोनों रह-रहकर एक-दूसरे की ओर देखते, अपने जाम ऐसे मौन रहकर उठाते जैसे कोई अदृश्य प्रतिज्ञा कर रहे हों और एक घूँट में खाली कर देते.यों यह हुआ कि वह असाधारण अजब विचित्र घटना कापिया पर घटित हुई. वेल्यी लूग नेजुके उतरकर कभी नहीं आया और आवदागा की फाता किसी हामजीच की बीवी कभी नहीं बनी.आवदागा ओस्मानागीच फिर कभी नगर को नहीं गये. उन्होंने खाँसी के दौरे से घुटकर उसी जाड़े में किसी से उस दुख के बारे में एक शब्द बोले बिना जान दे दी, जिसने उनका खात्मा किया था.अगले बसंत में मुस्तया बेग हामजीच ने अपने पुत्र का विवाह ब्रांकोविची की किसी और लड़की से कर दिया.कुछ समय तक नगर निवासी इस घटना की बात करते रहे और फिर उसे भूलने लगे. बचा सिर्फ एक लड़की का गाना, जिसकी सुंदरता और बुद्धिमत्ता जग-जाहिर रही मानो वह अमर हो.<ठ्रन्स्लटेड् ंअटेरिअल्><ळिटेरर्य्><आन्ह्क्हि, षम् शरुप्><ऐक् घओन् खि खहनि><१९९०><षज्पल् अन्ड् शोन्स्><खस्ह्मिरि घटे, ढेल्हि><३२-३७><२२००><रात को तो सास-बहू खामोश रहीं, पर सुबह जब प्रीतम बैठक से उठकर आया,तो वे दोनों उछलकर उसके गले पड़ गई. नंद कौर बोली, `वह मुस्टंडा है.घर-बार छोड़ रखा है उसने. औरत नही, कुछ नहीं. या तो खुद बनो उसके जैसा.तुम्हारा उसके साथ क्या मेल! रोज पीने बैठ जाते हो!'मां बोली, `भाई, पड़ोस का मामला है. हमसाया-मां-बाप-जाया. दारू पीकर उनके घर जाने का क्या मतलब.की न उलाहने वाली बात.'और फिर नंद कौर ने बना-संवारकर कहा,`खबरदार जो आइंदा वह इस घर में आया.'मां समझाने लगी, `देख बेटे, अगले की भी कुछ इज्जत है. तू तो भोला है. क्यापता वह क्यों गया उनके घर. तुझे साथ ले गया. अगर कोई खराबी वाली बात होजाती, तो तू तो यों ही धर लिया जाता न ! और फिर घर बुलाकर बेगाने लोगों को दारू पिलाना कोई अच्छी बात नहीं है, भाई. तू कबीलदार है,बेटे. उसका क्या है-छड़ा मलंग है! आगे से सोच-विचार करके ही कुछ करना, भाई. तुझे अब बता दिया. . . . . 'बहू और मां की बातों का प्रीतम पर गहरा असर पड़ा. उसने महसूस किया कि उसदिन अरजन को गिंदर के घर लेकर जाना उसकी गलती थी. उसे क्या लेना इस काम से! अरजन से दोस्ती है, तो उसे दोस्ती ही रहने दे. उसने तय किया कि अब वहअरजन को अपने घर बुलाकर कभी शराब नहीं पिलायेगा, और न ही कभी उससे हरनामी की बात छेड़ेगा. हरनामी के संबंध में उसे उक-सायेगा भी नहीं. गिंदर के घर अब कभी जाने का तो सवाल ही नहीं उठता. पड़ोसन का मामला है-उसे क्या लेना है इस चक्कर से? अरजन की यारी हरनामी से करवा कर उसे क्या मिलेगा? उस दिन गिंदर के बाहरले घर में वह यों ही शराब के नशे में हरनामी का जिक्र उसके साथ छेड़ बैठा था. और फिर पिछली रात अरजन को गिंदर के घर ले जाकर तो उसने बहुत भारी गलती की थी. हरनामी चाहे कैसी भी हो, पर गिंदर और बूढ़े केहर सिंह के बारे में तो उसे कुछ सोचना चाहिए था. पिछली रात उनके घर शराबी होकर गये-वे जानेकितना गिला किये बैठे होगें. उस वक्त अपने ही घर में वे क्या बोलते. चाचा केहर सिंह कभी कहेगा तो जरूर, चाहे साफ-साफ न कहे. प्रीतम ने सोचा कि वह अरजन से घर के बाहर ही मिल लिया करेगा. उसके साथ दोस्ती तो रखेगा, लेकिन दूर-दूर की. उसके खुद ही कह देगा कि भाई, अब अपनी तू ही जाने. मुझे किसी बात के बीच मतलाना. मैं गरीब-सा आदमी हूं. यों ही बीच में मारा जाऊंगा. उसने सोचा कि वह अरजन को खुद ही समझा देगा कि हर हरनामी वाली राह पर मत पड़े. उस दिन तो उसने यों ही, शगल-शगल में ही, गिंदर के बाहर ले घर में बात छेड़ ली थी और शगल-शगल में ही वे उनके घर दारू पीकर चले गये थे. बस, एक दिन का शगल हो गया. इससे ज्यादा कुछ नहीं. मगर भोले प्रीतम को क्या पता था कि अरजन उस दिन कांटे भी बो आया था. हरनामी ने लोटे में अंगुली डुबोकर उसके मुंह पर छींटा क्या मारा था, बस किसी होनी या अनहोनी का बीज बो दिया था.तीन-चार दिन बाद वे फिर मिले. लोग बैठे धूप सेंक रहे थे. प्रीतम नहीं एक लट्ठेपर बैठा अखबार पढ़कर सुना रहा था. दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ा हुआ था. हिटलर औरचर्चिल के नामों से भारत का हर गांव परिचित हो चुका था. पंजाब के बेशुमार लोग भरती होकर बरतानिया की फौज में दूर-दराज के देशों की धरती पर लड़ रहे थे.उन देशों में चल रही जंग की खबरें जब इधर के अख-बारों में छपतीं तो गांव की चौपाल में बैठकर लोग बड़े गौर से उन्हें सुनते. उन दिनों अखबार गांवों में आता भी था तो एकाध ही. रामपुरा मंडी से कोई व्यक्ति अखबार ले आता था. फौजी पेन्शन मिलखासिंह ही यह अखबार मंगवाता था.प्रीतम ने जैसे ही अरजन को आते देखा, तो वह उठकर उसे एक तरफ ले गया और सारी बात समझायी. बोला, `भाई, हमारे घर में तो उसी दिन से क्लेश पड़ा हुआ है.तू बख्श. मैं तेरी कैली गऊ हूं. बुरा मत मनाना.'अरजन ने थोड़ी देर सोचा और फिर बोला,`ऐसी भी क्या बात है, प्रीतम? अपन नहींआयेंगे तुम्हारे घर. नंद कौर और ताई को काहे को नाराज करना बे बात !'`लो देखो, हो गये न गुस्सा!'प्रीतम ने कहा.`गुस्सा नहीं, यार. मैं तो सच कह रहा हूं.' अरजन मुस्करा दिया. `उस दिन दारूके नशे में कमअक्ली हो गयी हमसे. हमें क्या लेना था गिंदर के घर जाकर? मुझेतो खुद पछतावा हो रहा है. उसी दिन से सोचे जा रहा हूं.'इतनी बात के बाद वे पेन्शनर के पास आ बैठे और उससे अखबार सुनने लगे. ऐनक में से झांककर उसने लड़कों को देखा और अखबार पढ़ना छोड़कर अरजन से बोला,`देखो जवान, पंजाबी जवान लड़ाई में कैसे दुश्मन के छक्के छुड़ा रहे हैं.'`कौन-सा दुश्मन?' अरजन ने पूछ लिया.`वह रे जवान ! पता नहीं है तुझे ! अंगरेज जीत रहे हैं. जर्मनी हार रहा है. जर्मनी हमारा दुश्मन है.'`हमारा दुश्मन कैसे है, चाचा? अंगरेजों का होगा.' लड़के ने सच बात कही.`भई, इंडिया के जवान अंगरेज के लिए ही तो लड़ रहे हैं मैदाने जगं में. अंगरेजोंका दुश्मन हमारा दुश्मन!`मिलखा सिंह उसे समझाने लगा.`हमारा दुश्मन तो अंगरेज है चाचा, जो जबरदस्ती राज कर रहा है हम पर. हमगुलाम हैं अंगरेजों के. अपनी फौज में तो हमें जोर-जबरदस्ती भरती कर रखा हैअंगरेज ने,' अरजन ने कहा. उसने मिलखी बनिये की दुकान पर एक दिन ये सारीबातें सुनी थी. जैसे सुनी थीं, वैसे ही अब यहां कह दीं. अरजन की बातेंसुनकर मिलखा सिंह उसकी ओर बड़े गौर से देखने लगा. वह बोला कुछ नहीं. गुन-गुन करता अखबार की दूसरी खबरें पढ़ने लगा.दोपहर का वक्त था. प्रीतम उस दिन खेतों में नहीं गया था. अरजन को तो घर-बाहर का कोई काम करना ही नहीं होता था. वह तो बस मस्त-मलंगथा. यहां बैठता, वहां बैठता. ज्यादा से ज्यादा साधुओं का डेरा. और कुछ नहीं तो गलियों के चक्कर, नयी बहुओं को झांकना. लुक-छिपकर उठती जवानियोंकी चर्चा. प्रीतम चौपाल पर ही बैठा रहा. अरजन जाने क्या सोचकर वहां से उठाऔर अपने घर की ओर चल दिया.परतापे की श्यामो उसके साथ खुली हुई थी. घर जाकर चाय पीते समय एकयोजना उसके दिमाग में आयी. किसी तरह श्यामो को बीच में लाया जाये.एक वही है जो मेल करवा सकती है. अरजन को मालूम था, श्यामो ने पहलेभी दो-तीन लड़को का काम किया था. अगर किसी लड़की या बहू के जूते पड़जाते, तब भी उसे शर्म नहीं आती थी. बस, खाने की भूखी थी. शराब पीती और मांस खाती. रूपये भी ले लेती थी. चाय पीकर वह घर से निकला और परतापेके घर जा पहुंचा. दोनों लड़के और बूढ़ा परतापा अभी खेत से लौटकर नहीं आयेथे. बुढ़िया मोहल्ले के ही किसी घर में गयी हुई थी. श्यामो अकेली थी और चरखा कात रही थी.पहले तो अरजन उनके आंगन में अड़ा रहा; फिर मजबूत करके बोला, `भाभीसाहिबा, सासरीकाल (सत् श्रीकाल). ताई कहां गयी है? दीख नहीं रही.'`आओ भाई अरजन, कैसे आये? बुढ़िया तो किसी के' हां गयी है. किसी के घरमरण हो गया है. बैठ जाओ. पीढ़ी ले लो. खड़े क्यों हो?' श्यामो ने पूरा आदर दिखाया.`ताया भई नहीं है घर में? लड़के?' अरजन ने आसपास झांकते हुए-से पूछा.`सब खेतों में गये हैं,' श्यामो ने चरखा ठेल लिया.वह पीढ़ी लेकर बैठ गया. बोला, `मैं तो फौजी का पता लेने आया था. कोईचिट्ठी-पत्री आती है?'`तुम्हारा फौजी नौ-बर-नौ! कल ही चिट्ठी आयी है,' उसने बताया और अरजनकी तरफ गौर से देखने लगी.`पैसे-वैसे भी भेजता है घर में या सब वहीं उड़ा देता है?'`पांचवें-छठे महीने कभी आ ही जाता है मनीआर्डर-सौ-पचास का. नहीं तो जब छुट्टी मिलती है, इकट्ठा पैसा ले आता है. कमाऊ पूत है. दूसरों की तरहगांव आकर दारू भी नहीं पीता. कभी देखा है उसे दारू पीते?'`दारू पीने के लिए हम कम हैं क्या भाभी सा'ब?' कहते हुए वह हंस पड़ा.`तुम्हें कैसे मालूम, रे!' वह आंखों में ही हंसकर बोली.`मुझे पता है, तभी तो कह रहा हूं. . . . . सुना था मैंने.'`सब झूठ-कोई कुछ भी कहता रहे. . . . '`नहीं, भाभी सा'ब. . . ,' अरजन जल्दी से अपनी बात कह देना चाहता था,लेकिन उसे झिझक-सी हो रही थी.और फिर श्यामो ने खुद ही पूछ लिया, `तुम यह बताओ कि आये कैसे?पहले तो कभी नहीं आये फौजी का पता लेने!'`नहीं, श्याम कौर, बात तो कोई नहीं है.' वह अब भी हिचकिचा रहा था.`नहीं, तुम जल्दी से बताओ. बुढ़िया आने ही वाली है,' श्यामो ने उतावली दिखायी और चरखे पर डोरा निकालने लगी.अरजन पीढ़ी से उठा. उसने चरखे पर हाथ रखकर उसे रोक लिया. दस का एकनोट श्यामो की झोली में फेंका और हांथ बाधकर खड़ा हो गया. एक पैरउठा कर दूसरे पैर पर रख लिया. सारा वजूद एक पांव के भार. श्यामो सुन्नबैठी हुई थी. झोली में से नोट उठा कर लौटाने को हुई, तो वह बोल उठा,`इसे तो रखो.'`तो फिर बात भी तो बताओ, तुम चाहते क्या हो?'वह उसके सामने बैठ गया और फिर चरखे की तख्तियों को थामें पंजों के बल होगया. फिर वह केहर की बहू हरनामी की बातें करने लगा.झंडे के घर के पिछवाड़े एक बैठक बनी हुई थी. इस बैठक का एक द्वार पिछलीतरफ भी खुलता था. उधर कोई मकान नहीं था, नाला बहता था. नाले के साथ साथकचरों के ढ़ेर थे. और फिर उनसे आगे खेत शुरू हो जाते थे. निकट के इस खेतों को `निआइयां' कहा जाता था. निआइयों से थोड़ी दूर पर नहरी थी. यहनहरी गांव के दक्षिण-पश्चिम में लेटी-सी बहती थी. शहणे वाली नहर से निकल कर बुरजगिला के पास से होते हुए यह नहरी कोठे खड़कसिंह के ऊपर-ऊपर से और फिर से लबराह को थोड़ा-सा छोड़ती हुई दूर नथाणे की ओर निकल जाती थी.नाले की ओर खुलने वाला द्वार हमेशा बंद रहता था. उस बैठक में अरजन नेडेरा डाल लिया. वहीं वह बैठता, वहीं सोता. उसके यार-दोस्त उस बैठक मेंही उससे मिलते. झंडा तो कभी-कभार ही वहां आता था.जैसा कि गांवो में होता है, मोहल्ले की औरतें मुंह-अंधेरे ही घर से उठतीं औरपानी के लोटे लेकर कचरे के ढ़ेरों में जंगली-पानी के लिए बैठ जाती.मर्द निआइयों की तरफ जाते. हरनामी चार बजे उठती और पानी का लोटा लेकरकचरे के ढ़ेरों के बीच आ जाती. उस समय तक वहां कोई औरत नहीं आयी होती थी. उसका ससुर केहर सिंह धीरे-धीरे खांस रहा होता और बार-बार वाहगुरूका नाम लेता.गिंदर अभी तक सो रहा होता. जंगल-पानी होकर लौटने के बाद वहचाय बनाकर बूढ़े और गिंदर को देती. चाय के इंतजार में बाप-बेटा चारपाईसे उठते ही नहीं थे.कचरे के ढ़ेरों से निकल कर हरनामी आसपास झांककर देखती और फिर अरजनका दरवाजा खटखटा देती. और फिर मुंह लपेटकर उसकी बैठक से निकलती. पता ही नहीं चलता था, कब आयी, कब चली गयी. उसे अरजन की बैठ में घुसते या वहां से निकलते कभी किसी ने नहीं देखा था. वह हर रोज अरजन की बैठक में आती.हरनामी, श्यामो तथा अरजन की भाभी बंतो के घर भी आती-जाती रहती थी.श्यामो के साथ उसकी पक्की दोस्ती हो गयी. दोनों इकट्ठी बैठकर हंस-हंसकर बातें करतीं. श्यामों की सास उन्हें देख-देख खीजती रहती; माथे पर बलभी डालती, लेकिन बोलती कुछ नहीं थी. दूर बैठी अटेरन चलाती रहती या पौतों के साथ छोटी-छोटी बातें करती रहती. बंतो के पास जाकर हरनामी मोह-प्यार की बातें करती. उसके बेटे हरदित्त को बांहों में लेकर उसके गाल चूमने लगती. हरिदत्त को अपने घर ले जाती और उसे अंगुलियों में चूते घी वाली चूरी कूटकर खिलाती.हरदित्त उसे चाची-चाची कहता रहता और उसके गले में बांहें डालकर उसे गरमाहट देता.तीसरे-चौथे महीने दुल्ला भी कोठों का चक्कर लगा जाता. उसे हंडिआया जब भीसूना-सूना-सा लगता, वह सबेरे वाली गाड़ी पकड़ता और रामपुराफूल उतर कर सिधाणियों के पुलों तक लांगा लेता और फिर वहां से पैदल चलते हुए कोठों तकआ पहुंचता. केहर सिंह के साथ उसने अच्छा लिहाज पैदा कर लिया था. गिंदर भीउससे ठीक तरह पेश आता था. वह जब भी वहां आता, कोई न कोई बहाना बनालेता. कभी कहताकि वह काम से भाईरूपे आया था; कभी कहता कि वह दयालपुरा जा रहा है. वहां उसकी बुआ की बेटी ब्याही हुई थीं. कभी कहता कि वह कोई अच्छी-सी भैंसखरीदना चाहता है; उसने सुना है, इस गांवों में अच्छे पशु मिल जाते हैं. वह जब भी आता तो किसी-न किसी बहाने रात भी काट लेता. लेकिन उसे यह भी लगता रहता था कि हरनामी अब उसे उतना नहीं चाहती है. रोटी-पानी की सेवा तो अच्छी करती है, लेकिन अकेले में उससे मिलने को टालती रहती है. एक बार उसने दबी जबान से यह भी कह दिया था कि अब वह ज्यादा यहां न आया करे. गांव के लोग शक की निगाहों से देखते हैं. अगर कभी साल-छः महीनों में हरनामी हंडिआये जाती, तो वह दुल्ले से मिलने का उत्साह नहीं दिखाती थी. दुल्ले को किसी तरह पता चल ही जाता,तो वह खुद ही उससे मिलने उनके घर आ जाता. वह उसके साथ ऊपरी मन से बातेंकरती. दुल्ला उसके लिए तड़प-तड़प जाता. उसे लगता जैसे हरनामी उससे पीछाछुड़वाना चाहती हो. कुछ न मिलने से तो अच्छा ही है' चंडीगढ़ पंजाब को दिये जाने से संबंधित फैसले पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए भूतपूर्व मुख्यमंत्री और बागी अकाली नेता प्रकाशसिंह बादल ने कहा लेकिन इस हस्तांतरण में अब गरिमा नहीं रही' उन्होनें आगे कहा. श्री बादल तथा अन्य बागी अकाली मानते हैं कि पंजाब को चंडीगढ़ दिये जाने का ऐलान सुरजीतसिंह बरनाला की व्यइतगत जीत नहीं है चंडीगढ़ की लड़ाई की लंबी कहानी है `इसे पाने के लिए संत फतेहसिंह दर्शनसिंह फेरूमान और संत हरचंदसिंह लोंगोवाल ने शहादत दी. सिर्फ इतना ही नहीं, चंडीगढ़ के लिए कई आंदोलन हुए मोर्चे लगे धर्मयुद्ध हुआ लाखों लोग जेल गये हजारों शहीद हुए आखिर इतनी कुर्बानियों के बाद मिलने वाले चंडीगढ़ के लिए श्रेय बरनाला को तो नहीं दिया जा सकता' बावजूद इसके बागी अकालियों के हौसले तो पस्त हैं ही. वे यह कहते जरूर हैं कि बरनाला इस समय कांग्रेस (इ) की कृपा से उसी तरह सत्ता में हैं जिस प्रकार पंद्रह वर्ष पहले लक्ष्मणसिंह गिल थे. लेकिन भीतर ही भीतर वे बरनाला और गिल में फर्क भई समझते हैं गिल के साथ सिर्फ पंद्रह विधायक थे और पूरी तरह कांग्रेस पर आश्रित थे जबकि बरनाला के साथ ४७ विधायक हैं जरूरत पड़ने पर उन्हें प्रतिपक्षी विधायकों का भई समर्थन मिल सकता है. यह बात सही है कि विधानसभा के विशेष अधिवेशन में यदि इंका विधायक आकाली उम्मीदवारों का समर्थन करते तो उनका अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुना जाना मुश्किल था. लेकिन बरनाला इसे पूरी तरह से नहीं मानते. उन्हें अभी भी बागियों की वापसी पर भरोसा हैबागी आकालियों में जिस प्रकार की धड़बाजी है उससे बरनाला आश्वस्त हैं कि `कुर्सी और पैसा' उन्हें देर-सबेर आकर्षित कर सकता है पिछले दिनों बरनाला ने उपचुनाव का डर दिखाकर भी कुछ बागी विधायकों को डरा दिया था. अब दलबदल कानून के तहत उनकी सदस्यता समाप्त करने का प्रयास हो रहा है. संविधान के ५२वें, संशोधन के अनुसार इन्हें दलबदल करने वाला गुट या विधायक नहीं माना जा सकता. विधानसभा के भूतपूर्व अध्यक्ष रवि इंदर सिंह ने बागियों को एकजुट रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी और तब उन्हें अलग गुट के तौर पर मान्यता देकर उपचुनाव के खतरे से बचा गये थे. अब तो सवाल जोड़तोड़ का है. जोड़तोड़ में जो गुट बेहतर साबित होगा अकाली पार्टी उसी के खीसे में होगी. यूँ पलड़ा बरनाला के पक्ष में ही झुका है. बागी अकालियों को १७ जून तक की मोहलत दी गयी है. अगर तब तक वे पार्टी में नहीं लौटे तो उनकी सदस्यता समाप्त करने के लिए कार्यवाई की जायेगी. जहां तक बरनाला का संबंध है चंडीगढ़ मिलने के ऐलान से उनकी स्थिति मजबूत हुई है. `यदि पंजाब समझौते के अनुसार २६ जनवरी को चंडीगढ़ हमें मिल जाता तो न तो आतंकवादी और उग्रवादी गतिविधियों में बढ़ोतरी होती और न ही स्वर्ण मंदिर पर उग्रवादियों पर पुनः अधिकार ही होता. ऐसा होने पर पार्टी भी नहीं टूटती और मेरा नेतृत्व भी चुनौती से बचा रहता. फैसले में देर करके केंद्र ने बेशक कई तरह की पेचीदगियां पैदा की हैं' यह बात बरनाला ने इस संवाददाता से बातचीत में कही. अब प्रश्न यह रह जाता है कि बागी अकाली प्रलोभन पद और प्रतिष्ठा की आकर्षक कुर्सी की कब तक अवहेलना कर पायेंगे. इस समय कुछ ऐसे लोग भई बागियों के खेमें में हैं जो पहली बार विधायक बने हैं और जिनकी `कुछ बनने' की ख्वाहिश है. पिछले दिनों दिल्ली स्थित पंजाब भवन में ऐसे ही दो विधायक मिल गये. दिन भर की दैड़धूप के बाद शाम को वे सुस्ता रहे थे. बातचीत चलने पर बोले : `कौन बागी बने. वे लोग भी तो अवसरवादी हैं. कम से कम यहां रहने. खाने-पीने की तो अच्छा मिलता है नीचे कार है दफ्तर है घर अच्छा खासा है. आखिर मेजरसिंह उबोके और बसंतसिंह खालसा भी तो तोहड़ा के कभी खासमखास थे. वे क्यों नहीं बागी हुए?कहने को भूतपूर्व कृषिमंत्री और पटियाला के भूतपूर्व नरेश अमरिंदर सिंह `धर्म से प्रतिबद्धता' की बात चाहे जितनी करें. लेकिन कितने लोग हैं इस समय अकाली पार्टी में जो उन जैसे संपन्न हैं और जिनके लिए सचमुच `पंथ और सिख मर्यादाओं' का महत्व है. कुछ विधायक शायद इसलिए बागियों के साथ हो लिए कि उन्हें बरनाला की सरकार गिरने का मुगालताहो गया था. यदि ऐसा हो जाता तो वे प्रकाशसिंह बादल या अमरींदरसिंह के नेतृत्व में बनने वाली सरकार में कोई न कोई औहदा जरूर पा जाते. लेकिन उनकी गोटियां गलत बैठीं. राजनीति है तो आखिर शतरंज की गोटियों का खेल ही. इस समय बेशव बरनाला की स्थिति बेहतर हैएक तो बरनाला न धार्मिक सजा भुगत कर अपने प्रतिद्धंद्धियों की चाल नाकाम कर दी थी और अब २१ जून को चंडीगढ़ के हस्तांतरण के ऐलान से बागियों में हड़कंप मच गयी है. सबसे बड़ी बात यह है कि चंडीगढ़ के एवज में हरियाणा को अबेहर-फाजिल्का नहीं जायेगा. बरनाला के शातिर नेता के तौर पर उबरने से बादल और सुखजिंदर सिंह ऊटपटांग वक्तव्य भी देने लगे हैं. जैसे उन्होंने बर्कास्त आई. पी. एस. अधिकारी मिमरनजीतसिंह मान राज्यसभा के लिए अकाली पार्टी का उम्मीदवार घोषित कर बरनाला को कठघरे में खड़ा करना चाहा है जगदेवसिंह तलवंडी का कार्यकाल समाप्त होने पर राज्यसभा की एक सीट खाली होने वाली है. इंका सांसद हरजिंदरसिंह हंसपाल ने अकालियों से यह सीट पाने के लिए कई प्रकार के प्रयास किये जो एक मास पहले तक तो सफल नहीं हुए थे लेकिन बदली हुई परिस्थितियों में यदि कांग्रेस उपाध्यक्ष अर्जुनसिंह के निर्देश पर श्री हंसपाल को खपाया गया. तो इसमें दो राय नहीं कि अकाली पार्टी का विभाजन और पुख्ता हो जायेगा. राजनैतिक जानकारों के अनुसार बरनाला सिमरनजीतसिंह मान के नाम पर शायद ही सहमत हों. एक तो श्री मान के विरूद्ध अभी तक देशद्रोह का मुकद्दमा चल रहा है दूसरे जरनैल सिंह भिंडरावाले के वह कभी विश्वासपात्रों में थे और तीसरे संयुक्त अकाली दल के बाबा जोगिंदरसिंह ने उन्हें अपनी पार्टी का संयोजक नियुक्त किया था. लिहाजा मान की उम्मीदवारी स्वीकार करने का मतलब बरनाला की : राजनैतिक आत्महत्या' होगी. इस समय चंडीगढ़ और पंजाब में भी `असली' और `नकली' अकाली पार्टी की जोरों की चर्चा है. बादल गुट अपने आपको इस बिना पर असली अकाली पार्टी मानता है कि उसने`गुरूद्वारों' की पवित्रता, स्वतंत्रता और मर्यादा' के लिए बरनाला को साथ छोड़ा. इसे वह `कुर्बानी' मानते हैं. उन्होंने चंडीगढ़ में इस संवाददाता से साफ शब्दों में कहा : `हम कभी उसे अकाली दल नहीं कहेंगे जिसके मुखिया ने दरबार साहब में कमांडो बुलाये हों. ' बादल अपने आपको असली अकाली इसलिए भी मानते हैं कि पिछले ३० वर्षों से वह इसी पार्टी में हैं. `हमने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं. लेकिन कभी कांग्रेस के जूतों में फिट नहीं हुए. क्या हमें चारा नहीं फेंका जाता था, या बरनाला ने हमें तोड़ने की कोशिश नहीं की. आखिर हमारे भी तो कुछ मूल्य हैं. 'बादल चाहे जैसी बातें या दावे करें, असलियत यह है कि बरनाला ने उन्हें कई मोर्चों पर पराजित कर दिया है. आमतौर पर संतुलित रहने वाले बरनाला जब यह कहते हैं कि `मुझे कुर्सी से प्यार नहीं' तो लोग उन पर विश्वास करते हैं. लेकिन जब यह बात सुखजिंदरसिंह जैसे लोग करते हैं तो लोग हंसते हैं. इस समय बादल के चेहरे पर भी पहले जैसी रौनक और चमक-दमक नहीं. न ही उनके यह मिलने वालों का पहले जैसा तांता लगा रहता है पुलिस की गारद पिछले कई महीने से याकि कहिए वर्षों से उनके चंडीगढ़ निवास के सामने अलबत्ता चहल-पहल बनाये रखती है. बादल और उनके समर्थक चाहे जितना यह कहते फिरे कि उन्हें आतंकवादियों और उग्रवादियों से कुछ लेना देना नहीं लेकिन उनके अपने काम उनकी कथनी और करनी को उजागर कर रहे हैं. ४ जून को स्वर्णमंदिर में मंजी साहब में जो समागम हुआ था उसमें `खलिस्तान' और भिंडरवाले के समर्थन में नारे लगाये गये. बादल चुप रहे. श्रीमती गांधी के कथित हत्यारे बेअंतसिंह की विधवा बिमल खालसा और उसके समर्थकों ने जब दरबार साहब की परिक्रमा को खून से रंग दिया तो भी उन्होने इस कुकृत की निंदा नहीं' की बाद में उन्होंने कहा कि `खमोशी का मतलब यह तो नहीं कि हम उनका समर्थन करते हैं. ' ठीक ही तो है खामोश रहने के अलावा यह कर भी क्या सकते थे. क्या फेडरेशन या दमदमी टकसाल के लोगों द्वारा दरबार साहब के एक सेवादार की हत्या करना घिनौना और निंदनीय कार्य नहीं है? पिछले दिनों कूपरथला की एक सभा में जिस मंच पर बादल बैठे थे वहां पर तथाकथितु खालिस्तान का ध्वज लहरा रहा था. क्या इससे बादल की मन स्थिति का परिचय नहीं मिलता? यह माना जा सकता है कि आतंकवादियों से भयभीत बादल उनका खुला विरोध नहीं कर पा रहे हैं. लेकिन अगर वह उनके मंच पर जाते हैं तो यह आशंका होना स्वाभविक ही है कि कहीं बादल की आतंकवादियों से मिलीभगत तो नहीं है. आखिर वह बरनाला को हटाने के लिए आतंकवादियों से हाथ क्यों मिला रहे हैं?अमरिंदरसिंह को अगर छोड़ भी दें तो तोहड़ा और सुखजिंदरसिंह की विश्वसनीयता बेदाग नहीं. सुखजिंदरसिंह ने बरनाला सरकार में शिक्षामंत्री के पद की शपथग्रहण करने से पहले इस संवाददाता से कहा था :`सिखों की अलग पहचान होनी चाहिए तथा संविधान में इसकी व्यवस्था की जानी चाहिए. ' परोक्ष रूप से उन्होंने `खालिस्तान' की मांग का समर्थन भी किया था. चंड़ीगढ़ में ही कुछ तबकों ने (इसमें बागी अकालियों के नुमाइंदे ही थे) कहा कि जब `तमिलनाडु' (नाडु यानी देश), `महाराष्ट्र' (यानी वृहद राष्ट्र), `तेलुगू देशम्' जैसे नाम हो सकते हैं तो पंजाब का नाम बदल कर `खालिस्तान' क्यों नहीं रखा जा सकता. इससे दो लाभ होंगे : एक तो तथाकथित खालिस्तान की मांग करने वाले लोगों का आक्रोश कम होगा और दूसरे, कहने को उन्हें अलग सूबा मिल जायेगा. एक अन्य वर्ग का तर्व तर्क था कि आज भी भारत के लिए `हिंदुस्तान' यानी `हिंदुओंका स्थान' शब्द प्रचलित है. क्यों? भारत में केवल हिंदू ही तो नहीं रहते. सभीसंप्रदायों के लोग रहते हैं. वे कर देते हैं. फिर यह भेदभाव क्यों और कैसा? उनका कहना था कि आज जितने भी नये विमान, जहाज, टैंक, पनडुब्बियां, इमारतें बनतीं हैं सभी के नाम हिंदू देवी-देवताओं राजाओं-महराजाओं, नायक-नायिकाओं के नामपर रखे जाते हैं. मुसलमान पीर-फकीरों और सिख गुरूओं के नाम पर ये क्योंनहीं रखे जाते? क्या वे लोग इस देश के वाशिंदे नहीं उनका यह भी तर्क था कि हर नयी इमारत नये विमान जहाज की पूजा अर्चना हिंदू पद्धति यानी हवन से होतीहै. मुसलमानी. सिखी, ईसाई पद्धति से क्यों नहीं की जाती है?बादल के घर सेक्टर नं. ९ में बैठे एक व्यक्ति ने कहा : `आप हमें पृथकतावादी क्यों कहते हैं. अलगाववाद की बयार तो तमिलनाडु से बही थी. पंजाब से नहीं. वहां तो इतना कहर नहीं ढ़ाया गया था. पंजाब के साथ ऐसा कलूम क्यों किया जा रहा है. यह तो ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत की रक्षा के लिए ९० प्रतिशत कुर्बानिया सिखों ने दीं. कैसी विडंबना है कि अब हमें भरोसे लायक नहीं समझा जाता. ' इन सभी तर्कों के बावजूद चंड़ीगढ के पंजाब में हस्तांतरण के फैसले को बरनाला की जीत मानी जा रही है. बादल के खेमें में यह डर बैठ गया है कि दोहरी मानसिकता वाले लोग कभी भी बरनाला के खेमें में जा सकते हैं. बरनाला कहते हैं : पंजाब समझौते की हर धारा को हम लागू करायेंगे. चंडीगढ़ को हम कुशनुमा और खुशबूदार शहर बना देंगे ताकि आज जो लोग इसे केंद्रशासित क्षेत्र बनाये रखने की मांग करते हैं वे निकट भविष्य में अपनी भूल को स्वीकारें. ' हमारी दुआ है कि ऐसा ही हो. चंडीगढ़ की सड़कों पर भैंसो और गायों के छुट्टा घूमने से उसकी और पंजाब की गरिमा घटेगी ही.